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जाति : दकियानूसी सोच को चुनौती देती दो प्रेमियों की कहानी

ऊंची जाति में पैदा होना किसी मुसीबत से कम नहीं है. मैं पैदाइशी लैफ्ट हैंडर था, नैसर्गिकता छीन ली गई. व्यर्थ का मेहनत करवाया गया. सीधे हाथ से लिखना तो सीख गया लेकिन था वह पूर्णतया कृत्रिम जिस में हैंडराइटिंग सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई. सुंदर हस्तलिपि के लिए अलग से कठोर श्रम करना पड़ा. बावजूद इस के मैं भोजन करना नहीं सीख सका, सीधे हाथ से. नतीजा यह हुआ कि ब्राह्मणों के सार्वजनिक भोज में मुझे तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगा. नसीहतें दी जाने लगीं.

मैं ने सार्वजनिक भोज में जाना ही छोड़ दिया. मेरा अपना तर्क था कि कुदरत ने 2 हाथ दिए हैं. अब दाएं से खाऊं या बाएं से क्या फर्क पड़ता है. लेकिन शास्त्रों को मानने वाले तर्क से कहां सहमत होते हैं. वे इसे विद्रोह और पाप समझते हैं.

जब कुछ बड़ा हुआ, स्कूल जाने लगा तो मेरे दोस्त भी बने. दोस्ती और प्रेम किया नहीं जाता, बस हो जाता है. कोई व्यक्ति अच्छा लगने लगता है और आप का खास दोस्त बन जाता है. बाद में पता चला कि दोस्त की जाति क्या है, उस का धर्म क्या है. मुझे क्या लेनादेना इन सब बातों से. लेकिन समाज को लेनादेना है. जब रविवार को अवकाश पर दोस्त ने खेलने के लिए घर बुलाया तो मैं चला गया. खेलतेखेलते प्यास लगी. दोस्त से पानी मांगा. दोस्त की मां ने यह कह कर पानी देने से मना कर दिया कि तुम ब्राह्मण हो, हमारे यहां का पानी कैसे पी सकते हो. तुम्हारे घर वालों को पता चलेगा तो हम लोगों की मुसीबत हो जाएगी. दोस्त की मां ने यह भी कहा कि तुम हमारे घर खेलने मत आया करो. स्कूल में ही मिल लिया करो. मुझे बहुत बुरा लगा. मेरा मन उदास हो गया.

मैं खिन्न मन से घर आया तो यहां भी मुसीबत. मुझे पहले तो स्नान करने को कहा गया. फिर डांट अलग से पड़ी. लेकिन इस से हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ा. हां, इतना जरूर हुआ कि हम एकदूसरे के घर नहीं आतेजाते थे.

जब कालेज जाने लगे तो नए फैशन के रोग भी लग गए. मेरे लिए शौक लेकिन घर वालों के लिए रोग. मैं ने शानदार कंपनी के जूते, बेल्ट और चमड़े की एक जैकेट खरीदी. पिताजी ने देखा तो गुस्से में कहा,”शर्म नहीं आती, ब्राह्मण हो कर चमड़े की चीजें पहनते हो. जूते तक ठीक था कि चलो बाहर उतार दिए. तुम जैकेट, बेल्ट, पर्स चमड़े का इस्तेमाल करते हो. घर अशुद्ध कर दिया. चलो बाहर फेंको इन्हें और कल वापस कर के आना.’’ वापस तो खैर नहीं देने गया, न दुकानदार लेता, मैं ने अपने दोस्त कमल को दे दिए.

उस ने पूछा,‘‘क्यों?’’

मैं ने उसे कारण बताया तो उस ने कहा,‘‘बड़े चोंचले हैं तुम्हारे घर वालों के.’’

मैं ने कहा,‘‘घर वालों के नहीं, ऊंची जाति के. उच्च कुल में पैदा होने के नुकसान भी बहुत हैं.’’

उच्च समाज में पैदा होना बहुत बड़ी मुसीबत है. रहनसहन, पहनावा, बोलचाल, खानपान सब पर पाबंदी होती है. दायां हाथ शुद्ध है. बायां हाथ अशुद्ध. दुनिया चांदतारों तक पहुंच रही है और ये हैं कि आदमीआदमी में फर्क करते हैं. सुबह स्नान करो, गायत्री मंत्र की माला जपो. जनेऊ धारण करो, तिलक लगाओ, चोटी रखो. मुझे बड़ी शर्म आती है दोस्तों के सामने. मजाक बनता हूं लेकिन फिर भी घर में रहना है तो यह सब करना पड़ेगा. क्या करें, मजबूरी है.

कालेज में पढ़ते समय एक गोरी सी सुंदर लड़की मुझे भाने लगी. मैं उस के नजदीक जाने का हरसंभव प्रयास करता. उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए घर से निकलने के बाद कमल के घर जा कर चमड़े के जूते, बेल्ट, लैदर वाली जैकेट पहन कर जाता. जनेऊ तो कपड़े में छिप जाता लेकिन कमबख्त चोटी को छिपाने के लिए क्या करता. एक ही उपाय था कि जब उस के सामने जाता तो फैशनेबल टोपी पहन कर जाता, देवानंद की तरह. वैसे, मैं ने अपनी चोटी को इतना छोटा तो कर लिया था कि आसानी से नजर नहीं आती थी.

मैं ने बड़ी हिम्मत कर के उसे प्रोपोज किया जिस का उस ने कोई उत्तर नहीं दिया. लेकिन मैं ने हार नहीं मानी. मैं कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगा. मुझे इतनी जानकारी तो हो गई थी कि उसे साहित्य, नाटकों में रुचि है. फिर क्या था, जिस नाटक में वह नायिका बनती, मैं हरसंभव प्रयास कर के उस में नायक बनता. इस के लिए मुझे क्याक्या पापड़ बेलने पड़ते मैं ही जानता हूं. हिंदी के प्रोफैसर को खुश करने के लिए उन्हें नएनए मंहगे गिफ्ट देता ताकि वे मुझे नाटक में रख लें. वह शकुंतला बनती तो मैं दुष्यंत.

वादविवाद प्रतियोगिता में मैं ने जो मत रखा, उस से वह मेरी तरफ आकर्षित हुई. मंच पर मैंं ने कहा कि जब चर्मकार के हाथ से बनाए मरे जानवर की खाल से बनी ढोलक से मंदिर अपवित्र नहीं होता जोकि मंदिर में भजनकीर्तन में बजाई जाती है तो बनाने वाले चर्मकार के मंदिर जाने से मंदिर कैसे अपवित्र हो सकता है? जब तथाकथित ईश्वर ने कहा है कि सभी जीवित प्राणियों में मैं ही हूं तो फिर हम कौन होते हैं भेदभाव करने वाले. यह ईश्वर का अपमान है. जातिगत भेदभाव मानने वाले तो नास्तिक हुए. वे कैसे मंदिर और ईश्वर को अपनी जागीर मान सकते हैं? मेरी इस प्रतियोगिता में एक तरफ तो खूब तालियां बजीं लेकिन कुछ लोग मुझ पर इस बात से नाराज भी दिखे. फिर भी मुझे भी प्रथम घोषित किया गया.

दूसरे प्रतियोगी ने धर्मशास्त्रों का हवाला दिया. पूर्वजों की बनाई परिपाटी का वास्ता दे कर उसे उचित ठहराया. लेकिन मेरे तर्क भारी पड़े उस पर. मैं ने कहा, ‘‘राम ने शबरी के जूठे बेर खाए. उन्हीं राम को आप ईश्वर मानते हैं तो जब ईश्वर फर्क नहीं करता तो आप कौन होते हैं फर्क करने वाले? फिर त्रेता, द्वापर में क्या हुआ, इस से क्या लेनादेना. यह कलयुग है. इस में कर्म के आधार पर जातियां बनती हैं,’’ जोरदार तालियां बजीं.

मैं अपनी जीत की ट्राफी लिए उसे तलाश रहा था. तभी पीछे से आवाज आई,‘‘सुनिए.’’

मैं मुड़ा. सामने मेरी सपना खड़ी थी.
‘‘मुझे आप की स्पीच पसंद आई. जीत के लिए बधाई.’’

मैं ने धन्यवाद दे कर कहा,‘‘और मेरा प्रणय निवेदन. उस का क्या हुआ? क्यों ठुकरा दिया आप ने?’’

उस ने कहा,‘‘नहीं, मुझे कुबूल है.’’ और मैं जैसे आसमान में उड़ने लगा.

वादविवाद प्रतियोगिता का हारा हुआ प्रतियोगी मेरे घर के पास ही रहता था. उस ने मुझ से कहा,‘‘तुम जीत कर भी हार गए. जीत के लिए बधाई. लेकिन मुझे अपने हारने पर भी गर्व है. मैं ने व्यवहारिक बातें कहीं. धर्मगत बातें कहीं और तुम ने किताबी.’’

मैं ने कहा,‘‘मुझे जो कहना था वह कह चुका हूं मंच पर. और वही मेरा सत्य है. मेरे विचार हैं. उन पर मैं अडिग हूं.’’ वह मुझ पर आग्नेय दृष्टि बरसाता हुआ चला गया.

सपना से मेरी मुलाकातों का सिलसिला आगे बढ़ चुका था. हम दोनों ही अपने प्रेम का इजहार कर चुके थे. साथ मरनेजीने की कसमें खा चुके थे. कालेज में हम हर समय साथ में नजर आते सब को. क्लास में भी एक ही साथ बैठने लगे थे.

‘‘तुम्हारा सरनेम क्या है?’’ उस ने पूछा.

मैं ने बताया तो उस ने माथा पीट लिया,‘‘सत्यानाश.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं दलित हूं यार,’’ उस ने कहा.

‘‘तो क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अपने मांबाप को बताओ कि तुम एक छोटी जाति की लड़की से प्यार करते हो, तब समझ में आ जाएगा कि क्या हुआ?’’ उस ने कहा.

‘‘प्रेम व्यक्तिगत मामला है,’’ मैं ने सहज भाव से कहा.

‘‘तो क्या बस प्रेम ही करना है, आगे नहीं सोचा?’’ उस ने प्रश्न किया.

‘‘आगे शादी…’’ मैं ने कहा.

‘‘और शादी व्यक्तिगत मामला नहीं होती जनाब,’’ उस ने समझाया.

‘‘प्रेम का रोग सिर चढ़ कर बैठा है. अब उतरने से रहा,’’ मैं ने कहा.

‘‘जूते पड़ेंगे दोनों तरफ से. खुद भी मरोगे और मुझे भी मरवाओगे,’’ उस ने डराने वाले अंदाज में कहा.

‘‘तुम डरती हो?’’ मैं ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं,’’ उस ने सहज उत्तर दिया.

‘‘तो फिर प्रेम हमारा है. प्रेम में व्यक्ति 2 नहीं एक होते हैं जो मेरी जात सो तुम्हारी जात,’’ मेरे कहने पर वह झल्ला उठी और उस ने कहा,‘‘अपनी किताबी दुनिया से बाहर निकलो.’’

‘‘तुम चाहो तो पीछे हट जाओ,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही मैं तुम से कहती हूं,’’ पलट कर उस ने कहा.

‘‘मैं नहीं हट सकता,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो आगे क्या सोचा है?’’ उस ने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘पहले अपनी बात रखेंगे. नहीं माने तो बगावत,’’ मैं ने दृढ़ स्वर में कहा. वह चुप रही.

मैं ने जब घर में यह बात रखी तो घर में तूफान आ गया. मुझे खरीखोटी सुनाई गई. डांटाफटकारा गया. कुल की मानमर्यादा का वास्ता दिया गया. न मानने पर पिताजी ने दोटूक स्वर में कहा,‘‘तुरंत इस घर से निकल जाओ. आज से तुम मेरे लिए मर चुके हो.’’ पिता के क्रोध को मैं जानता था. इस से पहले कि वे कोई अस्त्रशस्त्र मुझ पर चलाते, मैं घर से बाहर निकल गया.

पिताजी यदाकदा मां से कहते भी रहते थे, ‘‘पूत नहीं कपूत पैदा किया है. एक दिन यह सब मिट्टी में मिला देगा, इस की बातों से जाहिर होता है.’’

पहले जब भी कभी जातपात पर बहस होती, मैं पिताजी से वही कहता जो धर्मग्रंथों में लिखा है. जो तथाकथित ईश्वर ने कहा है. सार सजीवनिर्जीव सब में भगवान का अंश होता है. लेकिन अंतत: मुझे ही कुल का कलंक माना जाता था. मैं माना गया और मजबूरन घर छोड़ना पड़ा. अब घर छोड़ते ही मुझे अपने लिए सारे इंतजाम करने थे. रहने का, खानेपीने का. कमल ने इस में मेरी बहुत सहायता की.

उस ने मुझे समझाया भी,‘‘एक बार फिर सोच लो. एक बार शादी हो गई तो गए जात से बाहर, हमेशा के लिए. फिर तुम्हें रोजगार पहले तलाशना होगा.”

मैं ने कमल से कहा,”पहले तुम मेरी कोर्ट मैरिज की व्यवस्था करो.’’

उस ने सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली. मेरी प्रेमिका सपना उस की हिम्मत नहीं पड़ी घर में बात करने की.

उस ने कहा,‘‘मना ही होना है तो फिर कहने से क्या होगा. तुम जब कहो मैं अपना सबकुछ छोड़ कर तुम्हारे पास आने के लिए तैयार हूं.’’

मैं ने उसे शादी की तारीख बताई. उस ने कहा,‘‘ठीक है, लेकिन फिर हमारा इस शहर में रहना ठीक नहीं है.’’

कमल ने अपने दोस्त के माध्यम से गुप्त रूप से हमारा विवाह आर्य समाज में करवाया और भोपाल जाने वाली ट्रेन में छोड़ने भी आया. उस ने कहा कि मैं ने एक कंपनी में तुम्हारे लिए नौकरी की व्यवस्था करवा दी है. तुम पहले जा कर नौकरी जौइन करना. ट्रेन चलने को हुई. कमल और मैं गले मिले. उस ने भरे गले से कहा,”अपना ध्यान रखना और मेरे लायक कुछ हो तो कहना.’’

हमें भोपाल आए काफी समय हो चुका था. इस बीच घर में कई बार फोन लगाया. लेकिन उधर से फोन बंद बता रहा था हर बार. मैं ने एक बार सपना को ले कर घर जाने का फैसला किया. लेकिन हमारे शहर पहुंचते ही हमें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. थाने जाने पर सारी बात सामने आई. सपना के पिता ने लड़की के अपहरण और बलात्कार की रिपोर्ट थाने में लिखवा दी थी. मेरे पिता से पूछताछ होने पर उन्होंने स्पष्ट लिख कर दे दिया था थाने में कि हमारा अपने पुत्र से कोई लेनादेना नहीं है. दोनों परिवारों में जातिगत झगड़ा भी हुआ. दलित समाज की तरफ से धरनाप्रदर्शन भी हुए. अखबारों में खबर भी प्रकाशित हुई, ‘दलित लड़की का अपहरण’ शीर्षक से.

सपना ने थाने में सारे आरोपों को निराधार बताते हुए आर्य समाज द्वारा जारी किया गया विवाह प्रमाणपत्र भी दिखाया. हमें छोड़ दिया गया. सपना अपने घर पहुंची तो उस के परिवार ने थोड़ा सा क्रोध दिखा कर उसे अपना लिया. मैं अपने घर पहुंचा तो पिता ने बाहर से जाने को कह दिया. उन्होंने कहा,‘‘तुम हमारे लिए मर चुके हो.’’

परिवार के बाकी सदस्य भी पिता के साथ थे. कमल का कुछ पता नहीं चला. मैं अपने दूसरे खास दोस्तों से मिला. किसी ने मेरे निर्णय को गलत ठहराया, किसी ने सही. रहीम ने कहा,‘‘तुम लोगों के शहर छोड़ने के बाद माहौल काफी बिगड़ चुका था. कमल को उसी के समाज के लोगों ने यह कह कर धिक्कारा था कि तुम ने अपनी जाति से गद्दारी की है. जात की लड़की को गैर जाति के लड़के के साथ भगवा दिया है. मुझे लगता है कि कमल की हत्या कर दी गई है.’’

मैं हिम्मत कर के सपरा के घर पहुंचा. सपना के परिवार ने मेरा स्वागत किया. उस के पिता ने कहा,‘‘भागने की क्या जरूरत थी. मुझ से कहते मैं शादी करवा देता तुम दोनों की. तुम्हारे घर के लोग तो तुुम्हें कभी स्वीकारेंगे नहीं. हां, एक शर्त पर स्वीकार सकते हैं. यदि तुम दोनों में से, दोनों ही, खासकर सपना किसी ऊंची सरकारी जौब पर पहुंच जाए तब वे गर्व से कहेंगे कि सपना मेरी बहू है और तभी मैं तुम्हारे इस विवाह को संपूर्ण समझूंगा.’’

‘‘कमल के बारे में कुछ पता है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जो नहीं रहा उस की बात मत करो. भूतकाल को छोड़ भविष्य के लिए जीना सीखो.’’

‘‘लेकिन कमल मेरे बचपन का दोस्त था,’’ मैं ने प्रतिवाद किया.

‘‘रिपोर्ट लिखी है उस की थाने में,’’ सपना के पिताजी ने गुस्से से कहा.

‘‘क्या आप ने उसे मारा?’’

‘‘तुम दोनों के प्रेम ने बलि ली है उस की.’’

‘‘आप कातिल हैं.’’

‘‘जब सिद्ध हो जाएगा तो जेल जाने को भी तैयार रहूंगा.’’

माहौल में गरमाहट आ चुकी थी. मैं सपना के साथ वापस भोपाल आ गया. सपना की इच्छा थी कि वह घरेलू महिला बन कर रहे. उसे अपने घर को सजानासंवारना अच्छा लगता था. अपने पति के लिए खाना बनाना भी. पति की सेवा करने को ही वह अपना जीवन मान कर जीना चाहती थी. मेरे पास छोटी सी नौकरी थी. मैं एक कंपनी में सुपरवाइजर की पोस्ट पर था. प्राइवेट नौकरी थी. समय अधिक देना पड़ता था. इसलिए मेरा आगे पढ़ना और किसी बड़ी नौकरी की तैयारी करने के लिए समय निकालना संभव नहीं था. मुझे सपना के पिता की बात याद आई,”तुम्हारा परिवार मेरी बेटी को अपनी बहू तभी स्वीकारेगा, जब वह किसी बड़ी पोस्ट पर होगी. तब गर्व होगा उन्हें अपनी बहू पर. इस शादी पर. तभी तुम्हारा विवाह संपूर्ण मानूंगा. दूसरी बात है कि कमल तुम दोनों के प्रेम की बलि चढ़ गया.

मैं ने सपना को आगे पढ़ने के लिए कहा. उस ने कहा, ‘‘कर तो लिया ग्रैजुएट. और कितना पढ़ना है…’’

‘‘अभी बहुत पढ़ना है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘ताकि हमारी शादी संपूर्ण हो सके.’’

‘‘आप भी मेरे बाबूजी की बातों में आ गए. मैं गृहिणी बन कर खुश हूं.’’

‘‘तुम इसलिए पढ़ो ताकि मेरा परिवार गर्व कर सके तुम पर, मुझ पर, हमारे विवाह पर.’’

‘‘हमारी शादी हो चुकी है और मुझे अपनी शादी पर गर्व है. आप 2 परिवारों के जातीय अहम को संतुष्ट करने का साधन न बनाएं मुझे और न खुद बनें. मैं सीधीसादी गृहस्थन बन कर संतुष्ट हूं.’’

‘‘तुम्हें मेरी खातिर पढ़ना भी होगा और नौकरी की तैयारी भी करनी होगी.’’

‘‘आप मुझ से मेरी घरगृहस्थी क्यों छीनना चाहते हैं?’’ सपना ने गुस्से में कहा.

‘‘मैं तुम्हें सफल होते, आगे बढ़ते और ऊंचाइयों पर जाते देखना चाहता हूं,’’ मैं ने कहा.

सपना ने मेरा मन रखने के लिए स्वीकृति दे दी लेकिन सशर्त पर कि वह प्राइवेट परीक्षा देगी. सपना प्राइवेट परीक्षा देती रही और अच्छे नंबरों से पास भी होती रही. मैं ने जोर दे कर आईएएस की कोचिंग में उस का दाखिला करवा दिया जहां उसे मात्र 2 घंटे जाना होता था पढ़ने के लिए. मैं बीचबीच में कमल की मौत की जांच के लिए पुलिस अधिकारियों को पत्र भी लिख रहा था. कभीकभी गुमनाम खत लिख कर संदिग्ध व्यक्ति का नाम भी लिख देता था. सपना, जोकि पहले पढ़ना नहीं चाहती थी, न नौकरी करना चाहती थी, धीरेधीरे पढ़ाई और नौकरी के प्रति गंभीर हो रही थी. मैं ने एक दिन उस से मजाक में कहा, ‘‘पक्की गृहस्थन, अब पक्की पढ़ाकू हो गई है.’’

उस ने बुझे स्वर में कहा,‘‘मैं तो अपनी घरगृहस्थी में ही सुख और आनंद से थी. आप ने मुझे उलझा दिया. लेकिन अब अपनेआप को साबित करने के लिए पढ़ रही हूं. किसी को बताने के लिए कि मैं भी कुछ हूं. कुछ दिनों पहले कोचिंग के टीचर ने व्यंग्य किया था कि आप तो रिजर्व कैटेगरी में आती हैं, तो आप को नौकरी नहीं लगी? तो फिर लानत है आप पर. आप को तो लगनी ही है. और मैं ने तय कर लिया कि मैं रिजर्व से नहीं सामान्य उम्मीदवार के रूप में फौर्म भरूंगी.’’

मैं ने सपना को समझाने की कोशिश की. लेकिन उस ने समझने से इनकार करते हुए कहा,‘‘मेरा प्रण अटूट है. मैं साबित कर के रहूंगी, खुद को कि रिजर्वेशन नहीं मिलता, तब भी मैं क्षमता रखती हूं.’’ सपना के दृढ़ विश्वास के आगे मैं भी झुक गया.

सपना ने पीएचडी में भी प्रवेश ले लिया. आईएएस की तैयारी भी करती रही. कभी प्रथम परीक्षा पास करती तो दूसरे में रुक जाती. कभी दोनों पास करती तो इंटरव्यू में उत्तीर्ण न हो पाती. लेकिन उस से उस का आत्मविश्वास कम होने की बजाय बढ़ता गया. पीएचडी पूर्ण होतेहोते वह आईएएस अधिकारी बन चुकी थी. मेरा सपना साकार हो चुका था. ट्रेनिंग के बाद पहली नियुक्ति उसे अपने गृह जिले में ही मिली. मैं ने उस से वचन लिया कि वह हम दोनों के प्रेम में बलि चढ़ चुके कमल के हत्यारों की जांच करवाए. उस ने मुझे वचन दिया और कहा, ‘‘हां, वह तुम्हारा दोस्त था और मेरे भाई जैसा था, मैं उस के हत्यारों को पकड़ने के लिए पूरी कोशिश करवाऊंगी.’’

मुझे लगा कि अब अपने परिवार से मिलने का समय आ चुका है। एक दिन लालबत्ती की गाड़ी में मैं अपनी पत्नी के साथ अपने घर के दरवाजे पर उतरा. लालबत्ती की गाड़ी देख कर कुछ लोग अपने घरों से झांकने लगे. कुछ अपनेअपने दरवाजे पर खड़े हो गए. घर के दरवाजे खुले. पिता ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘नमस्कार करते हैं. सौभाग्य है हमारा कि कलेक्टर साहिबा हमारे घर पर पधारी हैं,’’ पिता की बात में व्यंग्य सा छिपा था.

सपना ने चरणस्पर्श किए, अपने सासससुर के. उसे आशीर्वाद भी मिला. सपना के लिए मेरी मां चायनाश्ता बनाने के लिए उठी. सपना ने मां के काम में हाथ बंटाना चाहा तो मां ने मना करते हुए कहा,”आप बैठिए. आप को शोभा नहीं देता घरगृहस्थी का काम. आप तो जिला संभालिए,’’ मां की बात में भी तंज सा लगा.

मैं ने पिताजी से कहा,”अब तो आप खुश हैं कि आप की बहू कलैक्टर जैसी ऊंची पोस्ट पर है.”

पिता कुछ देर चुप रहे. फिर बोले, ‘‘यह सम्मान हम कलैक्टर साहिबा का कर रहे हैं. बड़े लोग, बड़ी पोस्ट. पता नहीं किस बात पर नाराज हो कर कौन सा केस बनवा दें.’’

सपना ने कहा,‘‘पापा, मैं आप की बहू पहले हूं, कलैक्टर बाद में.’’

तभी मां चायनाश्ता ले कर आ गई. मां ने कहा,‘‘हम सम्मान कलैक्टर का कर रहे हैं, बहू का नहीं.’’

‘‘मुझे आप का सम्मान चाहिए भी नहीं. मैं तो बहू बन कर ही खुश हूं. आप की सेवा मेरा सौभाग्य होगा. इन्होंने ही मुझे जबरदस्ती आगे पढ़ायालिखाया और नौकरी के लिए प्रेरित किया,’’ सपना ने मेरी ओर देखते हुए अपनत्व से कहा.

‘‘हां, हमें नीचा दिखाने की कोशिश में कामयाब रहा हमारा बेटा,’’ मां ने मेरी तरफ देखते हुए कहा. फिर बात को संभालते हुए बोली,‘‘खुशकिस्मत हो तुम जो ऐसा पति मिला.’’

मुझे एहसास हो गया और शायद सपना को भी कि अपनेआप को उच्च मानने वालों की मानसिकता, खासकर इस उम्र में बदलना नामुमकिन है. घर में खाने को दाना न हो लेकिन अपनी पैदाइशी उच्चता पर इतराएंगे जरूर. हम उठ खड़े हुए. सपना लौटते समय पैर नहीं पड़ी और जातेजाते कहा,‘‘आईएएस अधिकारी का पैर पड़ना आप को भी अच्छा नहीं लगेगा.’’

सपना गाड़ी में बैठ चुकी थी. पिता ने मुझे इशारे से बुला कर धीरे से कहा,”जात जन्म से आती है और मर कर ही जाती है. तुम कलैक्टर बनो या प्रधानमंत्री, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. अधिकारियों, नेताओं का सम्मान करना फर्ज है नागरिक का, सो निभा लिया.’’

मेरे कारण मेरी पत्नी का भी अपमान हुआ. इस बात से मैं आहत था. मैं ने सपना से कहा,‘‘सौरी.’’

उस ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,‘‘मैं आप के कहने पर आप की इच्छा का मान रखने के लिए कलैक्टर बनी हूं न कि अपने पिता के कहने पर, न आप के पिता को खुश करने के लिए.’’

इस के बाद हम सपना के घर पहुंचे. सपना के पिता ने कहा,‘‘गर्व से सीना चौड़ा ड़हो गया हमारा. अब आई समझ में बात ऊंची जाति वालों को.’’

सपना ने कहा,”पापा, मैं कलैक्टर किसी को ऊंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं बनी हूं.’’

सपना के पिता ने अहंकार भरा ठहाका लगाया. हम दोनों ही अपनेअपने परिवार की जातिवादी रूढ़ियों, अहंकार से तंग आ चुके थे. प्रेम, दोस्ती दो मन के एक होने के लिए होते हैं. सुखदुख के सच्चे साथी. लेकिन इन पिछड़े दिमाग वालों को कोई कैसे समझाए.

इस बीच एक अच्छी बात हुई कि कमल के कातिल पकड़ गए जिस में उस की ही जाति के कुछ युवा लड़के थे और हत्या की योजना बनाने में सपना के पिता भी गिरफ्तार हुए. मुझे समझ आ रहा था कि कैसे सम्राट अशोक के जमाने का अखंड भारत, जोकि अब केवल भारत रह गया था, उस में भी आज धर्मजाति की आग लगी हुई है. कभी खालिस्तान की मांग उठती है तो कभी पृथक कश्मीर की. हम एक धर्म के लोग जाति के कबीलों में बंट कर एकदूसरे में उलझे हुए हैं. दूसरे धर्म की तो बात ही छोड़ दें. व्यर्थ ही हम अंगरेजों का दोष देते हैं बंटवारे का. व्यर्थ ही हम राजनीतिज्ञों को कोसते हैं जाति के नाम पर बांटने का. हम स्वयं आपस में भाईचारे से रहें तो कौन हमें बांट सकता है. कौन हमें लड़ा सकता है. जो भी हो रहा है उस के लिए हम स्वयं दोषी हैं.

कहने को देश 1947 में आजाद हो गया लेकिन हम आज भी कैद हैं अपनी ही जंजीरों में. धर्मजाति, उपजाति, भाषा, प्रांत की कैद से हम कब आजाद होंगे, होंगे भी या नहीं, कह नहीं सकते.

मजबूरी : बारिश की उस रात आखिर क्या हुआ था रिहान के साथ ?

आज भी बहुत तेज बारिश हो रही थी. बारिश में भीगने से बचने के लिए रिहान एक घर के नीचे खड़ा हो गया था. बारिश रुकने के बाद रिहान अपने घर की ओर चल दिया. घर पहुंच कर उस ने अपने हाथपैर धो कर कपड़े बदले और खाना खाने लगा. खाना खाने के बाद वह छत पर चला गया और अपनी महबूबा को एक मैसेज किया और उस के जवाब का इंतजार करने लगा.

छत पर चल रही ठंडी हवा ने रिहान को अपने आगोश में ले लिया और वह किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया. वह अपने प्यार के भविष्य के बारे में सोचने लगा.

रिहान तबस्सुम से बहुत प्यार करता था और उसी से शादी करना चाहता था. तबस्सुम के अलावा वह किसी और के बारे में सोचता भी नहीं था. जब कभी घर में उस के रिश्ते की बात होती थी तो वह शादी करने से साफ मना कर देता था.

रिहान के घर वाले तबस्सुम के बारे में नहीं जानते थे. वे सोचते थे कि अभी यह पढ़ाई कर रहा है इसलिए शादी से मना कर रहा है. पढ़ाई पूरी होने के बाद वह मान जाएगा.

तभी अचानक रिहान के मोबाइल फोन पर तबस्सुम का मैसेज आया. उस का दिल खुशी से झूम उठा. उस ने मैसेज पढ़ा और उस का जवाब दिया. बातें करतेकरते दोनों एकदूसरे में खो गए.

तबस्सुम भी रिहान को बहुत प्यार करती थी और शादी करना चाहती थी. अभी तक उस ने भी अपने घर पर अपने प्यार के बारे में नहीं बताया था. वह रिहान की पढ़ाई खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

ऐसा नहीं था कि दोनों में सिर्फ प्यार भरी बातें ही होती थीं, बल्कि दोनों में लड़ाइयां भी होती थीं. कभीकभी तो कईकई दिनों तक बातें बंद हो जाती थीं. लड़ाई के बाद भी वे दोनों एकदूसरे को बहुत याद करते थे और कभी किसी बात पर चिढ़ाने के लिए मैसेज कर देते थे. मसलन, तुम्हारी फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर बहुत बेकार लग रही है. बंदर लग रहे हो तुम. तुम तो बहुत खूबसूरत हो न बंदरिया. और लड़तेलड़ते फिर से बातें शुरू हो जाती थीं.

पिछले 3 सालों से वे दोनों एकदूसरे को प्यार करते थे और अब जा कर शादी करना चाहते थे. रिहान ने सोच लिया था कि इस साल पढ़ाई पूरी होने के बाद कोई अच्छी सी नौकरी कर वह अपने घर वालों को तबस्सुम के बारे में बता देगा. अगर घर वाले मानते हैं तो ठीक, नहीं तो उन की मरजी के खिलाफ शादी कर लेगा. वह किसी भी हाल में तबस्सुम को खोना नहीं चाहता था.

एक दिन रिहान की अम्मी बोलीं, ‘‘तेरे मौसा का फोन आया था. उन्होंने तुझे बुलाया है.’’

‘‘मुझे क्यों बुलाया है? मुझ से क्या काम पड़ गया उन्हें?’’ रिहान ने पूछा.

‘‘अरे, मुझे क्या पता कि क्यों बुलाया है. वह तो हमें वहीं जा कर पता चलेगा,’’ उस की अम्मी ने कहा.

कुछ देर बाद वे दोनों मोटरसाइकिल से मौसा के घर की तरफ चल दिए. रिहान के मौसा पास के शहर में ही रहते थे. एक घंटे में वे दोनों वहां पहुंच गए. वहां पहुंच कर रिहान ने देखा कि घर में बहुत लोग जमा थे. उन में उस के पापा, उस की शादीशुदा बहन और बहनोई भी थे.

यह सब देख कर रिहान ने अपनी अम्मी से पूछा, ‘‘इतने सारे रिश्तेदार क्यों जमा हैं यहां? और पापा यहां क्या कर रहे हैं? वे तो सुबह दुकान पर गए थे?’’

अम्मी बोलीं, ‘‘तू अंदर तो चल. सब पता चल जाएगा.’’ रिहान और उस की अम्मी अंदर गए. वहां सब को सलाम किया और बैठ कर बातें करने लगे.

तभी रिहान के मौसा चिंतित होते हुए बोले, ‘‘आसिफ की हालत बहुत खराब है. वह मरने से पहले अपनी बेटी की शादी करना चाहता है.’’

आसिफ रिहान के मामा का नाम था. कुछ दिन पहले हुईर् तेज बारिश में उन का घर गिर गया था. घर के नीचे दब कर मामा के 2 बच्चों और मामी की मौत हो गई थी. मामा भी घर के नीचे दब गए थे, लेकिन किसी तरह उन्हें निकाल कर अस्पताल में भरती करा दिया गया था. वहां डाक्टर ने कहा था कि वे सिर्फ कुछ ही दिनों के मेहमान हैं. उन का बचना नामुमकिन है.

‘‘फिर क्या किया जाए?’’ रिहान की अम्मी बोलीं.

‘‘आसिफ मरने से पहले अपनी बेटी की शादी रिहान के साथ करा देना चाहता है. यह आसिफ की आखिरी ख्वाहिश है और हमें इसे पूरा करना चाहिए,’’ मौसा की यह बात सुन कर रिहान एकदम चौंक गया. उस के दिल में इतना तेज दर्द हुआ मानो किसी ने उस के दिल पर हजारों तीर एकसाथ छोड़ दिए हों. उस का दिमाग सुन्न हो गया.

‘‘ठीक है, हम आसिफ के सामने इन दोनों की शादी करवा देते हैं,’’ रिहान की अम्मी ने कहा.

रिहान मना करना चाहता था, लेकिन वह मजबूर था. उसी दिन शादी की तैयारी होने लगी और आसिफ को भी अस्पताल से मौसा के घर ले आया गया. शाम को दोनों का निकाह करवा दिया गया.

शादी के बाद रिहान अपनी बीवी और मांबाप के साथ घर आ गया. पूरे रास्ते वह चुप रहा. उस का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि उस के साथ हुआ क्या है.

घर पहुंच कर रिहान कपड़े बदल कर छत पर चला गया. उस ने तबस्सुम को एक मैसेज किया. थोड़ी देर बाद तबस्सुम का फोन आया. रिहान के फोन उठाते ही तबस्सुम गुस्से में बोली, ‘‘कहां थे आज पूरा दिन? एक मैसेज भी नहीं किया तुम ने.’’

तबस्सुम नाराज थी और वह रिहान को डांटने लगी. रिहान चुपचाप सुनता रहा. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो तबस्सुम बोली, ‘‘अब कुछ बोलोगे भी या चुप ही बैठे रहोगे?’’

‘‘मेरी शादी हो गई है आज,’’ रिहान धीमी आवाज में बोला.

तबस्सुम बोली, ‘‘मैं सुबह से नाराज हू्र्रं और तुम मुझे चिढ़ा रहे हो.’’

‘‘नहीं यार, सच में आज मेरी शादी हो गई है. उसी में बिजी था इसलिए मैं बात नहीं कर पाया तुम से.’’

‘‘क्या सच में तुम्हारी शादी हो गई है?’’ तबस्सुम ने रोंआसी आवाज में पूछा.

‘‘हां, सच में मेरी शादी हो गई है,’’ रिहान ने दबी जबान में कहा. उस की आवाज में उस के टूटे हुए दिल और उस की बेबसी साफ झलक रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे वह जीना ही नहीं चाहता था.

‘‘तुम ने मुझे धोखा दिया है रिहान,’’ तबस्सुम ने रोते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं कर सकता था, मेरी मजबूरी थी,’’ यह कह कर रिहान भी रोने लगा.

‘‘तुम धोखेबाज हो. तुम झूठे हो. आज के बाद मुझे कभी फोन मत करना,’’ कह कर तबस्सुम ने फोन काट दिया. फोन रख कर रिहान रोने लगा. वहां तबस्सुम भी रो रही थी.

सुलक्षणा : भाग 1- आखिर ससुराल छोड़कर वह अनजान जगह पर क्यों चली गई?

किसी को क्या कोई शौक होता है अपनी शादीशुदा जिंदगी खत्म कर के ससुराल से रातोंरात भागना? बिना मंजिल राह चलती किसी भी बस में चढ़ जाना? अपना चेहरा औरों की नजरों से छुपा कर, बिखरते आंसुओं को पांेछना, भला किसे सुख देता होगा?

मगर, ऐसा हाल सुलक्षणा का हो चुका था…

उस के ससुराल में पैसों और रुतबे की कोई कमी भी नहीं थी. कमी थी तो बस उस के जज्बात की थोड़ी भी समझ न रखने की.

आप को लगता होगा कि उस का यह कदम गलत हो सकता है. उसे अपना रिश्ता बचाने के लिए थोड़ा और प्रयास करना था… या शायद गलती उसी की हो? जैसा कि उस के परिवार वालों और ससुराल पक्ष को हमेशा से लगता आया है.

चलिए, फिर आप ही एक बार उस की कहानी सुनिए और बताइए कि क्या उस का निर्णय सही था या नहीं?

उस की परिस्थितियों को समझने के लिए थोड़ा पीछे मुड़ कर उस की पिछली जिंदगी में झांकना होगा, क्योंकि इनसान की वर्तमान स्थिति उस के भूत में गुजरे और गुजारे दिनों के इर्दगिर्द ही तय कर जाया करती हैं.

बहुत सालों पहले की बात है, जब उस के पिता का विवाह उन के किशोरावस्था में उस के दादाजी द्वारा संपन्न करा दिया गया था. दादाजी ने दहेज का पैसा जोड़ कर एक सुनार की दुकान खोली, जो समय गुजरते, सफलता के उच्चतम पायदान पर पहुंचने लगी.

दादाजी के निधन के बाद पिता तुरंत उन की संपूर्ण संचित संपत्ति के सीधे हकदार बन गए. धीरेधीरे 3  बहनें हो गईं. पोते की ख्वाहिश पूरी करने के लिए दादी द्वारा विशेष पूजाअनुष्ठानों के कई सालों बाद उन के घर एक छोटा भाई आया.

उस के पिता जिस घर में जनमे थे, वहां बहुओं को केवल रसोई और बच्चों की परवरिश तक सीमित रखा गया था. आगे के विषयों पर उन से कभी कोई मशवरा नहीं लिया जाता था और यह प्रथा जमाने से उन के खानदान में आज तक चली आ रही है.

लड़के जो कि उन के बुढ़ापे का सहारा है, उन्हें कोई बंदिशें नहीं. रही बात लड़कियों की, तो उन्हें हलकाफुलका शादी योग पढ़ना होगा और घरगृहस्थी के कामों में निपुण, एक बार ब्याह गई, फिर उन की जिम्मेदारी खत्म, अपने भाग्य से जीती रहे. उन का इस घर से न के बराबर सरोकार होगा, क्योंकि अब उन का घर उन का ससुराल है.
अच्छे पैसे वाले घर से होने के कारण वे चारों शहर के सब से नामी स्कूल में पढ़ने जाया करते थे, पढ़ाईलिखाई से दादी की तरह पिता को भी कोई दिलचस्पी नहीं थी.

उन की आगे की रणनीति बिलकुल पानी की तरह साफ थी, एक उम्र के बाद अच्छा दहेज दे कर तीनों की संपन्न परिवार में शादी और भाई को जल्द से जल्द अपने पेशे में शामिल कर, अथाह दहेज ले कर उस की भी शादी. वैसा ही जैसा दादाजी ने उन के साथ किया था.

उस के पिता की दुनिया में सिर्फ पैसा ही एकमात्र ऐसी चीज है जो अच्छी जिंदगी देने के लिए पर्याप्त है. न तो पढ़ाई, संस्कार, सद्भावना, करुणा और न ही कोई दानपुण्य, यह सब उन के लिए समय और पैसे की बरबादी के रास्ते थे.

इन सब के बावजूद ऊपर वाला उन की बरकत करता जा रहा था. धीरेधीरे उन की शहर में बहुत बड़ी आभूषण की दुकान हो गई. पिताजी का समाज और रिश्तेदारों में बहुत रुतबा बढ़ने लगा. दूरदराज से लोग भारी ब्याज पर उन से रुपए उधार लेने आने लगे. किसी का घर ही क्यों न तबाह हो जाए, मजाल है कि वे उन का एक पैसा भी माफ कर दें.

समय गुजारता चला गया. उस की दोनों बड़ी बहनों और भाई को शिक्षा रास न आई, परंतु उस की कई मिन्नतों और जिद के बाद दादी से वकालत करने की इजाजत इस शर्त पर मांगी कि जैसे ही उस की पढ़ाई खत्म होगी, वह अपने पिता के कहे घर पर आंख बंद कर ब्याह कर लेगी.

हुआ भी कुछ ऐसा ही. एक के बाद एक दोनों बहनों को उन के ससुराल वालों की तिजोरी देख विदा कर दिया गया.

कुछ सालों बाद अब वह एक वकील बन कर दादी को किए वादे के अनुसार अपने पिता के नए बिजनैस पार्टनर के बेटे संग शादी के बंधन में बंध गई.

वह मानती है कि उस का परिवेश बाकी घरों की तुलना में बहुत संकीर्ण मानसिकता के बीच हुआ है. जहां कोई अपना अलग रास्ता चुनने का साहस नहीं कर सकता, और खासतौर से बेटियों को तो कदापि नहीं, तब भी वह अपने भविष्य संजोने के सपने देखती रही.

वह अपने पूरे वंश की एकमात्र शिक्षित लड़की थी और आज के बाद एकमात्र ऐसी पत्नी भी, को गैरवक्त अपना ससुराल छोड़ कर भाग खड़ी हुई.

शादी तो उस ने कर ली, मगर उस का मन उन चारदीवारों के अंदर कैद हो कर अपनी शेष जिंदगी काटना बिलकुल नहीं चाहता था.

इसलिए समय देख अपनी वकालत को नियमित रखने के लिए अपने पति को मनाने की सोची, शायद उन्हें अपनी पत्नी की इच्छा, सपनों की परवाह हो. वह उस के घर वालों की तरह बंधे विचार न रखते हों. लेकिन जैसा सोचा था, उस के विपरीत उस ने अपना जीवन मुश्किलों से भरा हुआ पाया.

उस के पिता ने सिर्फ धनसंपत्ति और अपने बिजनैस को आगे बढ़ता देख उस की शादी उस घर में तय कर दी, लेकिन एक बार के लिए अपने बिगड़े दामाद के चालचलन पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी. उस की बहनें इस मामले में खुशकिस्मत निकलीं, उन की जिंदगी में उस के जैसी तकलीफें नहीं लिखी थीं.

उस का पति शराबी, जुआ खेलने वाले, अन्य औरतों से जिस्मानी रिश्ते रखने वाले. और तो और बिना बात के उस पर हाथ उठाने वाले नासूर इनसान निकले. वह उन्हें पूरी तरह से समझतेसमझते टूटने लगी.

शुक्रिया श्वेता दी: भाग 2

Writer- डा. कविता कुमारी

उस के कमरे में जेठानी के बच्चे दिनभर ऊधम मचाते, चहकते रहते. उसे बहुत अच्छा लगता. सभी उस से खूब बातें करते, स्नेह लुटाते. जेठानी कम ही बात करती. अंकिता किचन में जाती तब वह कहती, ‘थोड़े दिन आराम कर लो, फिर काम करना ही है.’

धीरेधीरे उस ने गौर करना शुरू किया. उस के सामने सभी ठीक से बात करते लेकिन वह कमरे में होती तो ऐसा लगता वे लोग आपस में खुसरफुसर कर रहे हैं. यदि अचानक वह उन के पास चली जाती, सभी एकाएक चुप हो जाते और उस से बात करने लगते.

एक दिन दोपहर में सभी आराम कर रहे थे. जेठ घर पर नहीं थे. दीपेन लेटेलेटे ?ापकी लेने लगा. वह उठ कर जेठानी के कमरे में गई. उन्होंने उसे प्यार से अपने पास बैठाया, ‘दीपेन सो रहा है क्या?’

‘हां दीदी, तभी आप के पास चली आई, उस ने मुसकरा कर कहा.

यह कैसा सवाल है, उस ने सोचा. इतने में दीपेन आ गया, ‘अरे यार, तुम यहां हो. कम औन यार,’ उस ने ऐसी अदा से यह सब कहा कि वह हंस कर उठ गई. बात अधूरी रह गई लेकिन जेठानी का सवाल उस का पीछा करता रहा. उस ने गौर किया कि हर वक्त कोई न कोई साए की तरह उस के साथ रहता है. वह जेठानी से ज्यादा घुलमिल न पाए, ऐसी कोशिश सब की होती है.

एक दिन शाम में जेठानी नाश्ता बना रही थी. वह किचन में हैल्प करने गई. उस ने देखा, पकौडि़यां तलते हुए जेठानी की आंखें आंसुओं से तर हैं. उस ने पूछ लिया, ‘दीदी, आप रो रही हैं?’

‘अरे नहीं, प्याज काटे थे न? मेरी आंखों में प्याज ज्यादा लगता है,’ उस ने जल्दी से आंसू पोंछते हुए कहा.

अंकिता ने ताड़ लिया, प्याज नहीं रुला रहे हैं, कोई और बात है.

दसबारह दिन निकल गए. उन लोगों की छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. दीपेन ने रात में कहा, ‘मैं बेंगलुरु जा रहा हूं. मम्मीपापा चाहते हैं, तुम कुछ दिन उन के साथ रहो.’

‘तुम्हें पता है, हमें और छुट्टी नहीं मिल पाएगी.’

‘अरे यार, अब उस की क्या जरूरत है? मैं भी किसी दूसरी कंपनी में जाने की सोच रहा हूं. वहां हमारी तनख्वाह भी कम है. कभीकभी सोचता हूं अपना काम शुरू करूं.’

‘शादी के पहले तो हमारी ऐसी कोई प्लानिंग नहीं थी?’

‘अब है न. तुम इतने सवाल क्यों कर रही हो?’ दीपेन का स्वर बदला हुआ था.

अंकिता ने बात आगे नहीं बढ़ाई लेकिन उसे लगा इस से पहले उस का इतना रूखा व्यवहार कभी नहीं था. उस ने सोचा, हो सकता है मम्मीपापा से किसी बात पर टैंशन हुई हो. कुछ दिन यहीं रुक कर एंजौय कर लेती हूं. कौन यहां परमानैंट रहना है.

दीपेन  2 दिनों बाद चला गया. जेठानी से अभी भी वह घुलमिल नहीं पाती थी. जब भी दोनों बात कर रही होतीं, सास उन्हें किसी बहाने अलगअलग काम पर लगा देतीं. उसे लगने लगा, कोईर् बात है. वह अपने मम्मीपापा से भी ज्यादा बात नहीं कर पाती. उस के जाने के बाद दोनों बच्चे उस के साथ ही सोते. सास भी उसी कमरे में सोने लगी थी. भला नई बहू को अकेले कैसे छोड़े.

दीपेन को गए एक हफ्ता गुजर गया. वह दिन में फोन करती तो यह कह कर बात न करता कि आजकल काम का दबाव बढ़ गया है, सारे पैंडिंग काम निबटाने हैं. रात में दोचार मिनट बात करता, थोड़ाबहुत मांपापा से बात करता और फोन कट.

एक रात बहुत तेजतेज आवाज सुन कर वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. आवाज दूसरे कमरे से आ रही थी. वह उठ कर ड्राइंगरूम में आई. आवाज भाभी के कमरे से आ रही थी. सब लोग शायद वहीं थे. वह दबे पांव कमरे की तरफ बढ़ी. दरवाजा भिड़ा हुआ था. उस ने हलके सूराख से अंदर देखने की कोशिश की. ‘चटाक.’ उसी वक्त ससुर ने जेठानी के गाल पर तमाचा जड़ा. वह कांप गई. जेठानी ऐसे निरीह खड़ी थी जैसे कसाई के सामने मेमना.

‘पापा, गुस्से को काबू में रखिए. दूसरे कमरे में अंकिता सो रही है. मैं देखता हूं,’ जेठ ने कहा.

ससुर गुस्से से तमतमाते हुए कुछ बड़बड़ा रहे थे. वह जल्दी से दबे पांव अपने कमरे में आ गई. आंखें बंद कर सोने का नाटक किया लेकिन उस ने अभीअभी जो देखा था, वह उस की आंखों के सामने से हट नहीं रहा था. थोड़ी देर में सास आई, लाइटवाइट जला कर चैक किया कि इस बीच वह जागी तो नहीं. जब यकीन हो गया कि सब ठीक है, तब वह भी उस के बगल में सो गई.

सुबह सबकुछ नौर्मल था. श्वेता दी की आंखें सूजीसूजी थीं लेकिन वह हर दिन की तरह किचन में थी. 9-10 बजे के करीब उस ने देखा, ड्राइंगरूम में कोई बैठा था जिस से ससुर और जेठ बातें कर रहे थे. वह आदमी धीरेधीरे लेकिन कुछ तुनक कर बात कर रहा था. ससुर और जेठ उसे आहिस्ताआहिस्ता शांत करने में लगे थे. उस की सम?ा में कुछ नहीं आया. हवा में तैरती बातों के टुकड़ों को मिलाने पर लगा जैसे वह आदमी अपनी बकाया रकम मांग रहा था. घर खाली करने जैसी भी बात थी शायद. उस की सम?ा में कुछ नहीं आ रहा था. किस से पूछे वह? कैसे जाने इस घर की रहस्मयी बातें. उस ने पति से बात करना चाहा. हायहैलो के बाद पूछा, ‘दीपेन, तुम कब आ रहे हो?’

‘अभी थोड़ा वक्त लगेगा. अब सोच रहा हूं रिजाइन कर के ही आऊं.’

उसे शौक हुआ. वह किसी और बात के लिए फोन कर रही थी, यहां एक नया धमाका था, ‘क्यों, क्या दूसरा जौब मिल गया?’

‘दिनभर काम करता रहूंगा तो जौब कैसे मिलेगी? अब वहां आ कर इत्मीनान से ट्राई करूंगा. यार, एक बात और है. मैं खुद का काम शुरू करना चाहता हूं. अपने पापा से कहो न कि अभी कुछ मदद कर दें. मैं बाद में लौटा दूंगा. अभी 4-5 लाख ही दे दें, फिर देखते हैं.’

दीपेन ने बड़े इत्मीनान से यह सब कहा लेकिन अंकिता के दिल में लगी.  दीपेन का ऐसा रूप अभी तक नहीं दिखा था. उस ने भरे गले से कहा, ‘पापा से  कैसे कहें, अभीअभी शादी में इतना खर्च किया है…’

‘उन्होंने नया क्या किया है? बेटी की शादी में कौन खर्च नहीं करता? तुम लाड़ली हो उन की, तुम्हारे लिए इतना नहीं कर सकते?’

और उस ने फोन काट दिया . अंकिता कट कर रह गई.

दोपहर में सब के खाने के बाद श्वेता किचन समेट रही थी. अंकिता पानी लेने गई, धीरे से पूछा, ‘दीदी, रात में क्या हुआ था?’ श्वेता की आंखें डबडबा गईं. उस ने इधरउधर देखा और ब्लाउज में छिपा कर रखा तुड़ामुड़ा कागज निकाल कर जल्दी से उसे थमा दिया. बहुत धीरे से फुसफुसाई, ‘सब की नजर बचा कर इसे पढ़ लेना.’ श्वेता की आंखें भरी थीं, गला भरा था लेकिन पत्र देते समय उस के चेहरे पर दृढ़ता का भाव आ गया. अंकिता भौचक थी. उस ने जल्दी से पत्र ले कर  छिपा लिया और कमरे में आ गई.

जो बोया सो काटा : अनुज को क्यों अकेलापन महसूस हो रहा था ?

बच्चों के साथ रहने के मामले में मनीषा व निरंजन के सुनेसुनाए अनुभव अच्छे नहीं थे. अपने दोस्तों व सगेसंबंधियों के कई अनुभवों से वे अवगत थे कि बच्चों के पास जा कर जिंदगी कितनी बेगानी हो जाती है, लेकिन अब मजबूरी थी कि उन्हें बच्चों के पास जाना ही था क्योंकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से लाचार हो गए थे.

उम्र अधिक हो जाने से शरीर कमजोर हो गया था. निरंजन के लिए अब बाहर के छोटेछोटे काम निबटाना भी भारी पड़ रहा था. कार चलाने में दिक्कत होती थी. मनीषा वैसे तो घर का काम कर लेती थीं लेकिन अकेले ही पूरी जिम्मेदारी संभालना मुश्किल हो जाता था. नौकरचाकरों का कोई भरोसा नहीं, काम वाली थी, कभी आई कभी नहीं.

छुट्टियां न मिलने की वजह से बेटा अनुज भी कम ही आ पाता था. इसलिए उन्हें अब मानसिक अकेलापन भी खलने लगा था. अकेले रहने में अपनी बीमारियों से भी निरंजनजी डरते थे.

यही सब सोचतेविचारते अपने अनुभवों से डरतेडराते आखिर उन्होंने भी लड़के के साथ रहने का फैसला ले ही लिया.

इस बारे में उन्होंने पहले बेटे को चिट्ठी लिखना ठीक समझा ताकि बेटे और बहू के मूड का थोड़ाबहुत पहले से ही पता चल जाए.

हफ्ते भर के अंदर ही बेटे का फोन आ गया कि पापा, आज ही आप की चिट्ठी मिली है. आप मेरे पास आना चाह रहे हैं, यह हम सब के लिए बहुत खुशी की बात है. बच्चे और नीता तो इतने खुश हैं कि अभी से आप के आने का इंतजार करने लगे हैं. आप बताइए, कब आ रहे हैं? मैं लेने आ जाऊं या फिर आप खुद ही आ जाएंगे?

फोन पर बेटे की बातें सुन कर निरंजन की आंखें भर आईं. प्रत्युत्तर में बोले, ‘‘हम खुद ही आ जाएंगे, बेटे… परसों सुबह यहां से टैक्सी से चलेंगे और शाम 7 बजे के आसपास वहां पहुंच जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पापा,’’ कह कर बेटे ने फोन रख दिया.

‘‘अनुज हमारे आने की बात सुन कर बहुत खुश है,’’ निरंजन बोले.

‘‘अभी तो खुश है पर पता नहीं हमेशा साथ रहने में कैसा रुख हो,’’ मनीषा अपनी शंका जाहिर करती हुई बोलीं.

‘‘सब अच्छा होगा, मनीषा,’’ निरंजन दिलासा देते हुए बोले.

शाम के 7 बजे जब निरंजन और मनीषा बेटे के घर पर पहुंचे तो बेटेबहू और बच्चे उन के इंतजार में बैठे थे. दरवाजे पर टैक्सी रुकने की आवाज सुन कर चारों घर से बाहर निकल पड़े.

दादाजी…दादाजी कहते हुए दोनों बच्चे पैर छूते हुए उन से चिपक गए. बेटेबहू ने भी पैर छुए. सब ने एकएक सामान उठा लिया. यहां तक कि बच्चों ने भी छोटा सामान उठाया और सब एकसाथ अंदर आ गए.

मन में शंका थी कि थोड़े दिन रहने की बात अलग थी पर हमेशा के लिए रहना…न जाने कैसा हो.

नीता चायनाश्ता बना कर ले आई. सभी बैठ कर गपशप करने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप फ्रेश हो लीजिए,’’ बहू नीता बोली, ‘‘इस कमरे में आप का सामान रख दिया है. आज से यह कमरा आप का है.’’

‘‘यह हमारा कमरा…पर यह तो बच्चों का कमरा है…’’

‘‘बच्चे  छोटे वाले कमरे में शिफ्ट हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन तुम ने बच्चों का कमरा क्यों बदला, बहू…उन की पढ़ाईलिखाई डिस्टर्ब होगी. फिर उस छोटे से कमरे में दोनों कैसे रहेंगे?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी आप, घर के सब से बड़े क्या सब से छोटे कमरे में रहेंगे. बच्चों की पढ़ाई और सामान वगैरह के लिए अलग कमरा चाहिए…रात में तो दोनों आप के साथ ही घुस कर सोने वाले हैं,’’ नीता हंसते हुए बोली.

मनीषा को सुखद एहसास हुआ. बेटा तो अपना ही है लेकिन बहू के मुंह से ऐसे शब्द सुन कर जैसे दिल की शंकाओं का कठोर दरवाजा थोड़ा सा खुल गया.

सुबह बहुत देर से नींद खुली. निरंजन उठ कर बाथरूम हो आए. अंदर खटरपटर की आवाज सुन कर नीता ने चाय बना दी. उस दिन रविवार था.  बच्चे व अनुज भी घर पर थे.

चाय की टे्र ले कर नीता दरवाजे पर खटखट कर बोली, ‘‘मम्मीजी, चाय.’’

‘‘आजा…आजा बेटी…अंदर आजा,’’ निरंजन बोले.

‘‘नींद ठीक से आई, पापा,’’ नीता चाय की ट्रे मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘हां, बेटी, बहुत अच्छी नींद आई. बच्चे और अनुज कहां हैं?’’ मनीषा ने पूछा.

‘‘सब उठ गए हैं. बच्चों ने तो अभी तक दूध भी नहीं पिया है. कह रहे थे कि जब दादाजी उठ जाएंगे तो वे चाय पीएंगे और हम दूध.’’

‘‘तुम ने भी अभी तक चाय नहीं पी,’’ मनीषा ट्रे में चाय के 4 कप देख कर बोलीं.

‘‘मम्मीजी, हम एक बार की चाय तो पी चुके हैं, दूसरी बार की चाय आप के साथ बैठ कर पीएंगे.’’

तभी बच्चे व अनुज कमरे में घुस गए और दादादादी के बीच में बैठ गए.

‘‘दादाजी, पापा कहते हैं कि वह आप से बहुत डरते थे. आप जब आफिस से आते थे तो वह एकदम पढ़ने बैठ जाते थे, सच्ची…’’ पोता बोला.

‘‘पापा यह भी कहते हैं कि वह बचपन में बहुत शैतान थे और दादी को बहुत तंग करते थे. है न दादी?’’ पोती बोली थी.

दोनों बच्चों की बातें सुन कर निरंजन व  मनीषा हंसने लगे.

‘‘सभी बच्चे बचपन में अपनी मम्मी को तंग करते हैं और अपने पापा से डरते हैं,’’ निरंजन बच्चों को प्यार करते हुए बोले.

‘‘हां, और मम्मी कहती हैं कि सभी मम्मीपापा अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं…जैसे दादादादी मम्मीपापा को प्यार करते हैं और मम्मीपापा हमें.’’

पोती की बात सुन कर मनीषा व निरंजन की नजरें नीता के चेहरे पर उठ गईं. नीता का खुशनुमा चेहरा दिल में उतर गया. दोनों ने मन में सोचा, एक अच्छी मां ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है.

दोपहर के खाने में नीता ने कमलककड़ी के कोफ्ते और कढ़ी बना रखी थी.

‘‘पापा, आप यह कोफ्ते खाइए. ये बताते हैं कि आप को कमलककड़ी के कोफ्ते बहुत पसंद हैं,’’ नीता कोफ्ते प्लेट में रखती हुई बोली.

‘‘और मम्मी को कढ़ी बहुत पसंद है. है न मम्मी?’’ अनुज बोला, ‘‘याद है मैं कढ़ी और कमलककड़ी के कोफ्ते बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. और मेरे कारण आप अपनी पसंद का खाना कभी भी नहीं बनाती थीं. अब आप की पसंद का खाना ही बनेगा और हम भी खाएंगे.’’

बेटा बोला तो मनीषा को अपने भावों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया. आंखों के कोर भीग गए.

‘‘नहीं बेटा, खाना तो बच्चों की पसंद का ही बनता है, जो बच्चों को पसंद हो वही बनाया करो.’’

रात को पोते व पोती में ‘बीच में कौन सोएगा’ इस को ले कर होड़ हो गई. आखिर दोनों बीच में सो गए.

थोड़ी देर बाद नीता आ गई.

‘‘चलो, बच्चो, अपने कमरे में चलो.’’

‘‘नहीं, हम यहीं सोएंगे,’’ दोनों चिल्लाए.

‘‘नहीं, दादादादी को आराम चाहिए, तुम अपने कमरे में सोओ.’’

‘‘रहने दे, बेटी,’’ निरंजन बोले, ‘‘2-4 दिन यहीं सोने दे. जब मन भर जाएगा तो खुद ही अपने कमरे में सोने लगेंगे.’’

दोनों बच्चे उस रात दादादादी से चिपक कर सो गए.

दिन बीतने लगे. नीता हर समय उन की छोटीछोटी बातों का खयाल रखती. बेटा भी आफिस से आ कर उन के पास जरूर बैठता.

एक दिन मनीषा शाम को कमरे से बाहर निकली तो नीता फोन पर कह रही थी, ‘‘मैं नहीं आ सकती… मम्मीपापा आए हुए हैं. यदि मैं आ गई तो वे दोनों अकेले रह जाएंगे. उन को खराब लगेगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.

‘‘कहां जाने की बात हो रही थी, बेटी?’’

‘‘कुछ नहीं, मम्मीजी, ऐसे ही, मेरी सहेली बुला रही थी कि बहुत दिनों से नहीं आई.’’

‘‘तो क्यों नहीं जा रही हो. हम अकेले कहां हैं, और फिर थोड़ी देर अकेले भी रहना पड़े तो क्या हो गया. देखो बेटी, तुम अगर नहीं जाओगी तो मैं बुरा मान जाऊंगी.’’

नीता कुछ न बोली और दुविधा में खड़ी रही.

मनीषा नीता के कंधे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बेटी, मम्मीपापा आ गए हैं इसलिए अगर तुम ने अपनी दिनचर्या में बंधन लगाए तो हम यहां कैसे रह पाएंगे. यह अब कोई 2-4 दिन की बात थोड़े न है, अब तो हम यहीं हैं.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी. आप का रहना हमारे सिरआंखों पर. मैं बंधन थोड़े न लगा रही हूं… और थोड़ाबहुत बंधन रहे भी तो क्या, बच्चों के कारण मांबाप बंधन में नहीं रहते हैं. फिर बच्चों को भी मांबाप के कारण बंधना पड़े तो कौन सी बड़ी बात है.’’

नीता की बात सुन कर मनीषा ने चाहा कि उस को गले लगा कर खूब प्यार करें.

मनीषा ने नीता को जबरन भेज दिया. धीरेधीरे मनीषा की कोशिश से नीता भी अपनी स्वाभाविक दिनचर्या में रहने लगी. उस ने 1-2 किटी भी डाली हुई थीं तो मनीषा ने उसे वहां भी जबरदस्ती भेजा.

उस की सहेलियां जब घर आतीं तो मनीषा चाय बना देतीं. नाश्ते की प्लेट सजा देतीं. नीता के मना करने पर प्यार से कहतीं, ‘‘तुम जो हमारे लिए इतना करती हो, थोड़ा सा मैं ने भी कर दिया तो कौन सी बड़ी बात कर दी.’’

अनुज व नीता को अब कई बातों की सुविधा हो गई थी. कहीं जाना होता तो दादादादी के होने से बच्चों की तरफ से दोनों ही निश्ंिचत रहते.

महीना खत्म हुआ. निरंजन को पेंशन मिली. उन्होंने अपना पैसा बहू को देने की पेशकश की तो अनुज व नीता दोनों नाराज हो गए.

‘‘पापा, आप कैसी बातें कर रहे हैं. पैसे दे कर ही रहना है तो आप कहीं भी रह सकते हैं. आप ने हमारे लिए जीवन भर इतना किया, पढ़ायालिखाया और मुझे इस लायक बनाया कि मैं आप की देखभाल कर सकूं,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन बेटा, मेरे पास हैं इसलिए दे रहा हूं.’’

‘‘नहीं, पापा, पैसा दे कर तो आप मेरा दिल दुखा रहे हैं… जब दादीजी और दादाजी आप के पास रहने आए थे तो उन के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था तो क्या आप ने उन की देखभाल नहीं की थी. जितना आप से  बन सकता था आप ने उन के लिए किया और आप के पास पैसा है तो आप हम से हमारा सेवा करने का अधिकार क्यों छीनना चाहते हैं.’’

निरंजन निरुत्तर हो गए. मनीषा आश्चर्य से अपने उस लापरवाह बेटे को देख रही थीं जो आज इतना समझदार हो गया है.

अनुज ने जब पैसे लेने से साफ मना कर दिया तो निरंजन ने पोते और पोती के नाम से बैंक में खाता खोल दिया और जो भी पेंशन का पैसा मिलता उस में डालते रहते. बेटे ने उन का मान रखा था और वे बेटे का मान रख रहे थे.

एक दिन निरंजन सुबह उठे तो बदन टूट रहा था और कुछ हरारत सी महसूस कर रहे थे. मनीषा ने उन का उतरा चेहरा देखा तो पूछ बैठीं, ‘‘क्या हुआ…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘हां, कुछ बुखार सा लग रहा है.’’

‘‘बुखार है,’’ मनीषा घबरा कर माथा छूती हुई बोली,  ‘‘अनुज कोे बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं, मनीषा, उसे परेशान मत करो…शाम तक देख लेते हैं…शायद ठीक हो जाए.’’

मनीषा चुप हो गई.

लेकिन शाम होतेहोते बुखार बहुत तेज हो गया. दोपहर के बाद निरंजन लेटे तो उठे ही नहीं. शाम को आफिस से आ कर अनुज पापा के साथ ही चाय पीता था.

निरंजन जब बाहर नहीं आए तो नीता कमरे में चली गई. मनीषा निरंजन का सिर दबा रही थीं.

‘‘पापा को क्या हुआ, मम्मीजी?’’

‘‘तेरे पापा को बुखार है.’’

‘‘बुखार है…’’ कहती हुई नीता ने बहू की सारी औपचारिकताएं त्याग कर निरंजन के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘पापा को तो बहुत तेज बुखार है, तभी पापा आज सुबह से ही सुस्त लग रहे थे. आप ने बताया भी नहीं. मैं अनुज को बुलाती हूं,’’ इतना कह कर नीता अनुज को बुला लाई.

अनुज जल्दी ही आ गया और मम्मीपापा को तकलीफ न बताने के लिए एक प्यार भरी डांट लगाई, फिर डाक्टर को बुलाने चला गया. डाक्टर ने जांच कर के दवाइयां लिख दीं.

‘‘मौसमी बुखार है, 3-4 दिन में ठीक हो जाएंगे,’’ डाक्टर बोला.

बेटाबहू, पोता और पोती सब निरंजन को घेर कर बैठ गए. नीता ने जब पढ़ाई के लिए डांट लगाई तब बच्चे पढ़ने गए.

‘‘खाने में क्या बना दूं?’’ नीता ने पूछा.

निरंजन बोले,’’ तुम जो बना देती हो वही स्वादिष्ठ लगता है.’’

‘‘नहीं, पापा, बुखार में आप का जो खाने का मन है वही बनाऊंगी.’’

‘‘तो फिर थोड़ी सी खिचड़ी बना दो.’’

‘‘थोड़ा सा सूप भी बना देना नीता, पापा को सूप बहुत पसंद है,’’ अनुज बोला.

निरंजन को अटपटा लग रहा था कि अनुज उन के लिए इतना कुछ कर रहा है. उन की हिचकिचाहट देख कर अनुज बोला, ‘‘मैं कुछ नया नहीं कर रहा. आप दोनों ने दादा व दादी की जितनी सेवा की उतनी तो हम आप की कभी कर भी नहीं पाएंगे. पापा, मैं तब छोटा था. आज जो कुछ भी हम करेंगे हमारे बच्चे वही सीखेंगे. बड़ों का तिरस्कार कर हम अपने बच्चों से प्यार और आदर की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. यह कोई एहसान नहीं है. अब आप आराम कीजिए.’’

‘‘हमारा बेटा औरों जैसा नहीं है न…’’ मनीषा भर्राई आवाज में बोलीं.

‘‘हां, मनीषा, वह बुरा कैसे हो सकता है. तुम ने सुना नहीं, उस ने क्या कहा.’’

‘‘हां, बच्चों में संस्कार उपदेश देने से नहीं आते, घर के वातावरण से आते हैं. जिस घर में बड़ों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है उस घर में बच्चे बड़ों को आदर देना सीखते हैं और जिस घर में बड़ों का तिरस्कार होता है उस घर के बच्चे भी तो वही सीखेंगे.’’

एक पल रुक कर मनीषा फिर बोली, ‘‘हम दोनों ने अपने मातापिता की सेवा व उचित देखभाल की. हमारी गृहस्थी में उन का स्थान हमेशा ही महत्त्वपूर्ण रहा, वही हमारे बच्चों ने सीखा. लेकिन अधिकतर लोग अपने बच्चों से तो सेवा व आदर की उम्मीद करते हैं, लेकिन वे अपने जीवन में अपने बड़ों की मौजूदगी को भुला चुके होते हैं.’’

मनीषा के मन से आज सारे संशय खत्म हो चुके थे.

उन के सगेसंबंधियों, दोस्तों ने उन्हें अपने अनुभव बता कर उन के मन में बेटेबहू के प्रति डर व नकारात्मक विचार पैदा किए, अब वे अपने अनुभव बता कर दूसरों के मन में बेटेबहू के प्रति प्यार व सकारात्मक विचार भरेंगे.

निरंजन ने संतोष से आंखें मूंद लीं और मनीषा कमरे की लाइट बंद कर बहू की सहायता करने के लिए रसोई में चली गईं. आखिर इनसान जो अपनी जिंदगी में बोएगा वही तो काटेगा. कांटे बो कर फूलों की उम्मीद करना तो मूर्खता है.

कबाड़ : क्या सपना कभी उन यादों को भुला पाई ?

‘‘सुनिए, पुताई वाले को कब बुला रहे हो? जल्दी कर लो, वरना सारे काम एकसाथ सिर पर आ जाएंगे.’’

‘‘करता हूं. आज निमंत्रणपत्र छपने के लिए दे कर आया हूं, रंग वाले के पास जाना नहीं हो पाया.’’

‘‘देखिए, शादी के लिए सिर्फ 1 महीना बचा है. एक बार घर की पुताई हो जाए और घर के सामान सही जगह व्यवस्थित हो जाए तो बहुत सहूलियत होगी.’’

‘‘जानता हूं तुम्हारी परेशानी. कल ही पुताई वाले से बात कर के आऊंगा.’’

‘‘2 दिन बाद बुला ही लीजिए. तब तक मैं घर का सारा कबाड़ निकाल कर रखती हूं जिस से उस का काम भी फटाफट हो जाएगा और घर में थोड़ी जगह भी हो जाएगी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. वैसे भी वह छोटा कमरा बेकार की चीजों से भरा पड़ा है. खाली हो जाएगा तो अच्छा है.’

जब से अविनाश की बेटी सपना की शादी तय हुई थी उन की अपनी पत्नी कंचन से ऐसी बातचीत चलती रहती थी. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था, काम का बोझ और हड़बड़ाहट बढ़ती जा रही थी.

घर की पुताई कई सालों से टलती चली आ रही थी. दीपक और सपना की पढ़ाई का खर्चा, रिश्तेदारी में शादीब्याह, बाबूजी का औपरेशन वगैरह ऐसी कई वजहों से घर की सफाईपुताई नहीं हुई थी. मगर अब इसे टाला नहीं जा सकता था. बेटी की शादी है, दोस्त, रिश्तेदार सभी आएंगे. और तो और लड़के वालों की तरफ से सारे बराती घर देखने जरूर आएंगे. अब कोई बहाना नहीं चलने वाला. घर अच्छी तरह से साफसुथरा करना ही पड़ेगा.

दूसरे ही दिन कंचन ने छोटा कमरा खाली करना शुरू किया. काफी ऐसा सामान था जो कई सालों से इस्तेमाल नहीं हुआ था. बस, घर में जगह घेरे पड़ा था. उस पर पिछले कई सालों से धूल की मोटी परत जमी हुई थी. सारा  कबाड़ एकएक कर के बाहर आने लगा.

‘‘कल ही कबाड़ी को बुलाऊंगी. थक गई इस कबाड़ को संभालतेसंभालते,’’ कमरा खाली करते हुए कंचन बोल पड़ीं.

आंगन में पुरानी चीजों का एक छोटा सा ढेर लग गया. शाम को अविनाश बाहर से लौटे तो उन्हें आंगन में फेंके हुए सामान का ढेर दिखाई दिया. उस में एक पुराना आईना भी था. 5 फुट ऊंचा और करीब 2 फुट चौड़ा. काफी बड़ा, भारीभरकम, शीशम की लकड़ी का मजबूत फ्रेम वाला आईना. अविनाश की नजर उस आईने पर पड़ी. उस में उन्होंने अपनी छवि देखी. धुंधली सी, मकड़ी के जाले में जकड़ी हुई. शीशे को देख कर उन्हें कुछ याद आया. धीरेधीरे यादों पर से धूल की परतें हटती गईं. बहुत सी यादें जेहन में उजागर हुईं. आईने में एक छवि निखर आई…बिलकुल साफ छवि, कंचन की. 29-30 साल पहले की बात है. नईनवेली दुलहन कंचन, हाथों में मेहंदी, लाल रंग की चूडि़यां, घूंघट में शर्मीली सी…अविनाश को अपने शादी के दिन याद आए.

संयुक्त परिवार में बहू बन कर आई कंचन, दिनभर सास, चाची सास, दादी सास, न जाने कितनी सारी सासों से घिरी रहती थी. उन से अगर फुरसत मिलती तो छोटे ननददेवर अपना हक जमाते. अविनाश बेचारा अपनी पत्नी का इंतजार करतेकरते थक जाता. जब कंचन कमरे में लौटती तो बुरी तरह से थक चुकी होती थी. नौजवान अविनाश पत्नी का साथ पाने के लिए तड़पता रह जाता. पत्नी को एक नजर देख पाना भी उस के लिए मुश्किल था. आखिर उसे एक तरकीब सूझी. उन का कमरा रसोईघर से थोड़ी ऊंचाई पर तिरछे कोण में था. अविनाश ने यह बड़ा सा आईना बाजार से खरीदा और अपने कमरे में ऐसे एंगल (कोण) में लगाया कि कमरे में बैठेबैठे रसोई में काम करती अपनी पत्नी को निहार सके.

इसी आईने ने पतिपत्नी के बीच नजदीकियां बढ़ा दीं. वे दोनों दिल से एकदूसरे के और भी करीब आ गए. उन के इंतजार के लमहों का गवाह था यह आईना. इसी आईने के जरिए वे दोनों एकदूसरे की आंखों में झांका करते थे, एकदूसरे के दिल की पुकार समझा करते थे. यही आईना उन की नजर की जबां बोलता रहा. उन की जवानी के हर पल का गवाह था यह आईना.

आंगन में खड़ेखड़े, अपनेआप में खोए से, अविनाश उन दिनों की सैर कर आए. अपनी नौजवानी के दिनों को, यादों में ही, एक बार फिर से जी लिया. अविनाश ने दीपक को बुलाया और वह आईना उठा कर अपने कमरे में करीने से रखवाया. दीपक अचरज में पड़ गया. ऐसा क्या है इस पुराने आईने में? इतना बड़ा, भारी सा, काफी जगह घेरने वाला, कबाड़ उठवा कर पापा ने अपने कमरे में क्यों लगवाया? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. वह अपनी दादी के पास चला गया.

‘‘दादी, पापा ने वह बड़ा सा आईना कबाड़ से उठवा कर अपने कमरे में लगा दिया.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘दादी, वह कितनी जगह घेरता है? कमरे से बड़ा तो आईना है.’’

दादी अपना मुंह आंचल में छिपाए धीरेधीरे मुसकरा रही थीं. दादी को अपने बेटे की यह तरकीब पता थी. उन्होंने अपने बेटे को आईने में झांकते हुए बहू को निहारते पकड़ा भी था.

दादी की वह नटखट हंसी… हंसतेहंसते शरमाने के पीछे क्या माजरा है, दीपक समझ नहीं सका. पापा भी मुसकरा रहे थे. जाने दो, सोच कर दीपक दादी के कमरे से बाहर निकला.

इतने में मां ने दीपक को आवाज दी. कुछ और सामान बाहर आंगन में रखने के लिए कहा. दीपक ने सारा सामान उठा कर कबाड़ के ढेर में ला पटका, सिवा एक क्रिकेट बैट के. यह वही क्रिकेट बैट था जो 20 साल पहले दादाजी ने उसे खरीदवाया था. वह दादाजी के साथ गांव से शहर आया था. दादाजी का कुछ काम था शहर में, उन के साथ शहर देखने और बाजार घूमने दीपू चल पड़ा था. चलतेचलते दादाजी की चप्पल का अंगूठा टूट गया था. वैसे भी दादाजी कई महीनों से नई चप्पल खरीदने की सोच रहे थे. बाजार घूमतेघूमते दीपू की नजर खिलौने की दुकान पर पड़ी. ऐसी खिलौने वाली दुकान तो उस ने कभी नहीं देखी थी. उस का मन कांच की अलमारी में रखे क्रिकेट के बैट पर आ गया.

उस ने दादाजी से जिद की कि वह बैट उसे चाहिए. दीपू के दादाजी व पिताजी की माली हालत उन दिनों अच्छी नहीं थी. जरूरतें पूरी करना ही मुश्किल होता था. बैट जैसी चीजें तो ऐश में गिनी जाती थीं. दीपू के पास खेल का कोई भी सामान न होने के कारण गली के लड़के उसे अपने साथ खेलने नहीं देते थे. श्याम तो उसे अपने बैट को हाथ लगाने ही नहीं देता था. दीपू मन मसोस कर रह जाता था.

दादाजी इन परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे. उन से अपने पोते का दिल नहीं तोड़ा गया. उन्होंने दीपू के लिए वह बैट खरीद लिया. बैट काफी महंगा था. चप्पल के लिए पैसे ही नहीं बचे, तो दोनों बसअड्डे के लिए चल पड़े. रास्ते में चप्पल का पट्टा भी टूट गया. सड़क किनारे बैठे मोची के पास चप्पल सिलवाने पहुंचे तो मोची ने कहा, ‘‘दादाजी, यह चप्पल इतनी फट चुकी है कि इस में सिलाई लगने की कोई गुंजाइश नहीं.’’

दादाजी ने चप्पल वहीं फेंक दीं और नंगे पांव ही चल पड़े. घर पहुंचतेपहुंचते उन के तलवों में फफोले पड़ चुके थे. दीपू अपने नए बैट में मस्त था. अपने पोते का गली के बच्चों में अब रोब होगा, इसी सोच से दादाजी के चेहरे पर रौनक थी. पैरों की जलन का शिकवा न था. चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं थी.

हाथ में बैट लिए दीपक उस दिन को याद कर रहा था. उस की आंखों से आंसू ढलक कर बैट पर टपक पड़े. आज दीपू के दिल ने दादाजी के पैरों की जलन महसूस की जिसे वह अपने आंसुओं से ठंडक पहुंचा रहा था.

तभी, शाम की सैर कर के दादाजी घर लौट आए. उन की नजर उस बैट पर गई जो दीपू ने अपने हाथ में पकड़ रखा था. हंसते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों बेटा दीपू, याद आया बैट का किस्सा?’’

‘‘हां, दादाजी,’’ दीपू बोला. उस की आंखें भर आईं और वह दादाजी के गले लग गया. दादाजी ने देखा कि दीपू की आंखें नम हो गई थीं. दीपू बैट को प्यार से सहलाते, चूमते अपने कमरे में आया और उसे झाड़पोंछ कर कमरे में ऐसे रख दिया मानो वह उस बैट को हमेशा अपने सीने से लगा कर रखना चाहता है. दादाजी अपने कमरे में पहुंचे तो देखा कि दीपू की दादी पलंग पर बैठी हैं और इर्दगिर्द छोटेछोटे बरतनों का भंडार फैला है.

‘‘इधर तो आइए… देखिए, इन्हें देख कर कुछ याद आया?’’ वे बोलीं.

‘‘अरे, ये तुम्हें कहां से मिले?’’

‘‘बहू ने घर का कबाड़ निकाला है न, उस में से मिल गए.’’

अब वे दोनों पासपास बैठ गए. कभी उन छोटेछोटे बरतनों को देखते तो कभी दोनों दबेदबे से मुसकरा देते. फिर वे पुरानी यादों में खो गए.

यह वही पानदान था जो दादी ने अपनी सास से छिपा कर, चुपके से खरीदा था. दादाजी को पान का बड़ा शौक था, मगर उन दिनों पान खाना अच्छी आदत नहीं मानी जाती थी. दादाजी के शौक के लिए दादीजी का जी बड़ा तड़पता था. अपनी सास से छिपा कर उन्होंने पैसे जोड़ने शुरू किए, कुछ दादाजी से मांगे और फिर यह पानदान दादाजी के लिए खरीद लिया. चोरीछिपे घर में लाईं कि कहीं सास देख न लें. बड़ा सुंदर था पानदान. पानदान के अंदर छोटीछोटी डब्बियां लौंग, इलायची, सुपारी आदि रखने के लिए, छोटी सी हंडिया, चूने और कत्थे के लिए, हंडियों में तिल्लीनुमा कांटे और हंडियों के छोटे से ढक्कन. सारे बरतन पीतल के थे. उस के बाद हर रात पान बनता रहा और हर पान के साथ दादादादी के प्यार का रंग गहरा होता गया.

दादाजी जब बूढ़े हो चले और उन के नकली दांत लग गए तो सुपारी खाना मुश्किल हो गया. दादीजी के हाथों में भी पानदान चमकाने की आदत नहीं रही. बहू को पानदान रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अत: पानदान स्टोर में डाल दिया गया. आज घर का कबाड़ निकाला तो दादी को यह पानदान मिल गया, दादी ने पानदान उठाया और अपने कमरे में ले आईं. इस बार सास से नहीं अपनी बहू से छिपा कर.

थरथराती हथेलियों से वे पानदान संवार रही थीं. उन छोटी डब्बियों में जो अनकहे भाव छिपे थे, आज फिर से उजागर हो गए. घर के सभी सदस्य रात के समय अपनेअपने कमरों में आराम कर रहे थे. कंचन, अविनाश उसी आईने के सामने एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे. दादादादी पान के डब्बे को देख कर पुरानी बातों को ताजा कर रहे थे. दीपक बैट को सीने से लगाए दादाजी के प्यार को अनुभव कर रहा था जब उन्होंने स्वयं चप्पल न खरीद कर उन पैसों से उसे यह बैट खरीद कर दिया था. नंगे पांव चलने के कारण उन के पांवों में छाले हो गए थे.

सपना भी कबाड़ के ढेर में पड़ा अपने खिलौनों का सैट उठा लाई थी जिस से वह बचपन में घरघर खेला करती थी. यह सैट उसे मां ने दिया था.

छोटा सा चूल्हा, छोटेछोटे बरतन, चम्मच, कलछी, कड़ाही, चिमटा, नन्हा सा चकलाबेलन, प्यारा सा हैंडपंप और उस के साथ एक छोटी सी बालटी. बचपन की यादें ताजा हो गईं. राखी के पैसे जो मामाजी ने मां को दिए थे, उन्हीं से वे सपना के लिए ये खिलौने लाई थीं. तब सपना ने बड़े प्यार से सहलाते हुए सारे खिलौनों को पोटली में बांध लिया था. उस पोटली ने उस का बचपन समेट लिया था. आज उन्हीं खिलौनों को देख कर बचपन की एकएक घटना उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी. दीपू भैया से लड़ाई, मां का प्यार और दादादादी का दुलार…

जिंदगी में कुछ यादें ऐसी होती हैं, जिन्हें दोबारा जीने को दिल चाहता है, कुछ पल ऐसे होते हैं जिन में खोने को जी चाहता है. हर कोई अपनी जिंदगी से ऐसे पलों को चुन रहा था. यही पल जिंदगी की भागदौड़ में कहीं छूट गए थे. ऐसे पल, ये यादें जिन चीजों से जुड़ी होती हैं वे चीजें कभी कबाड़ नहीं होतीं.

कैरियर की ऊंचाई पर पहुंच कर इन ऐक्ट्रैस का हुआ निधन, पीछे छोड़ी करोड़ों की संपत्ति

अभिनेत्री और मौडल पूनम पांडे की मृत्यु की खबर भले ही एक घटिया पब्लिसिटी स्टंट थी, जिस के लिए उन्हें बहुत ट्रोल किया गया और उन्हें बहुत भलाबुरा भी कहा गया, लेकिन इतना तो सच है कि बौलीवुड की कुछ ऐक्ट्रैसेस ऐसी भी हैं जिन्होंने बहुत कम उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया और उन के पीछे रह गई करोड़ों की संपत्ति, जिसे ले कर कभी कोर्टकचहरी तो कभी अनायास ही उन के पेरैंट्स के पास संपत्ति चली गई.

बौलीवुड या टीवी इंडस्ट्री की ऐसी अभिनेत्रियों की अचानक मृत्यु हो जाना, उन के फैन्स को चौंकाने वाला था. इन एक्ट्रैस ने बहुत ही कम समय में खूब नाम और पैसा कमाया, क्योंकि इन के अभिनय को दर्शकों ने काफी पसंद किया. ये ऐसी अभिनेत्रियां थीं जिन की गिनती फिल्म इंडस्ट्री की सब से ज्यादा फीस लेने वाली ऐक्ट्रैसेस में होती थी. कम समय में दुनिया छोड़ने वाली इन ऐक्ट्रैस ने अपने सफल अभिनय कैरियर के दौरान करोड़ों की संपत्ति कमाई और मौत के बाद अपने परिजनों के लिए छोड़ कर चली गईं.

आइए जानते हैं ऐसी अभिनेत्रियों के बारे में जिन की करोड़ों की जायदाद को पेरैंट्स ने कैसे लिया क्योंकि वयस्क पेरैंट्स के गुजरने पर उन की जायदाद को बच्चे खुशीखुशी ले लेते हैं, जबकि एक पेरैंट्स के आगे उन के बच्चे का कम उम्र में गुजर जाना वाकई तकलीफदेय होता है.

दिव्या भारती

बौलीवुड में सब से खूबसूरत ऐक्ट्रैस में शुमार दिव्या भारती की मौत मात्र 19 साल की उम्र में रहस्यमय तरीके से हो गई थी. अपने समय में वे बौलीवुड की पौपुलर और सब से ज्यादा फीस लेने वाली ऐक्ट्रैस थीं.

मात्र 14 साल की उम्र में उन्हें फिल्मों के औफर मिलने लगे थे. एक साल के छोटे से वक्त में उन्होंने करीब 14 फिल्मों में काम किया था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, वे एक फिल्म के लिए 25 लाख रुपए चार्ज करती थीं. उन की मानें तो दिव्या भारती अपने पीछे 247 करोड़ रुपए की संपत्ति छोड़ गई थीं. जब उन का निधन हुआ तो उन के परिवार को पूरी संपत्ति मिली. अभी उन के पिता की मृत्यु हो चुकी है, जबकि उन की मां अभी जीवित हैं. दिव्या ने काफी पैसे इधरउधर इन्वैस्ट कर रखे थे, जो बाद में उन के पेरैंट्स को मिले.

दिव्या किसी फिल्मी परिवार से नहीं थीं. पिता ओमप्रकाश भारती बीमा कंपनी में अफसर थे और मां मीता भारती एक गृहिणी. दिव्या ने 9वीं क्लास तक ही पढ़ाई की. 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ कर मौडलिंग करना शुरू कर दिया था. इस के बाद से उन्हें फिल्मों के औफर आने लगे थे. फिल्म ‘विश्वात्मा’ उन की पहली सफल फिल्म थी.

सौंदर्या

तमिल फिल्मों की मशहूर अदाकारा सौंदर्या का निधन मात्र 32 साल की उम्र में एक प्लेन क्रैश में हो गया था. सौंदर्या ने 140 से भी ज्यादा फिल्मों में काम किया था. बौलीवुड फिल्म ‘सूर्यवंशम’ में वे अमिताभ बच्चन के अपोजिट नजर आई थीं. बताया जाता है कि वे अपने पीछे करीब 50 करोड़ की संपत्ति छोड़ गई थीं.

सौंदर्या के रिश्तेदार उन की संपत्ति पर कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, जिस की अनुमानित कीमत 50 करोड़ रुपए है. सौंदर्या लोकसभा चुनाव से पहले आंध्र प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रचार कर रही थीं. 17 अप्रैल को उन का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उन के भाई अमरनाथ के साथ उन की मृत्यु हो गई. उन की मां के एस मंजुला और उन के पूर्व पति जी एस रघु एकतरफ हैं, जबकि उन की भाभी निर्मला (अमरनाथ की विधवा) और उन का बेटा सात्विक दूसरी तरफ.

कथित तौर पर दिवंगत अभिनेत्री ने एक वसीयत छोड़ी थी और इस की सामग्री के अनुसार, सौंदर्या के पास सोने के आभूषणों और अन्य संपत्तियों के अलावा 6 संपत्तियां थीं. वसीयत में कथित तौर पर सात्विक को एक घर दिया गया है, जबकि दूसरा घर, जो उस समय बन रहा था, उन की मां, भाई के परिवार और उन के परिवार की संयुक्त संपत्ति है.

इस में कहा गया है कि हैदराबाद में संपत्ति से होने वाली आय को उन की मां, भाई और उस के परिवार व उस के पति और बच्चों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाना था. अन्य 2 संपत्तियां उन के पति और बच्चों को दी गई हैं. कानूनी लड़ाई तब शुरू हुई जब अमरनाथ के बेटे सात्विक ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और कहा कि संपत्ति पर उस का अधिकार उस की दादी ने छीन लिया है जो सौंदर्या की वसीयत का सम्मान नहीं कर रही थीं.

जिया खान

अभिनेत्री जिया खान ने काफी कम उम्र में बौलीवुड में सफलता हासिल कर ली थी. उन्होंने महज 25 साल की उम्र में खुदकुशी कर ली थी. इस के बाद पुलिस को 6 पन्नों का सुसाइड नोट मिला था, जो एक्ट्रैस ने सूरज पंचोली के नाम लिखा था. मामले में ऐक्टर को गिरफ्तार कर लिया गया था. ऐक्टर पर जिया को खुदकुशी के लिए उकसाने का आरोप था.

इतनी कम उम्र में जब वे कैरियर की ऊंचाइयां छू रही थीं तब यह हादसा हुआ था. जिया ने अपने कैरियर में अमिताभ बच्चन और आमिर खान जैसे दिग्गज अभिनेताओं के साथ काम किया था. एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिया अपने पीछे करीब 10 से 15 करोड़ रुपए की संपत्ति छोड़ गई थीं जो उन की मां को मिली.

प्रत्युषा बनर्जी

झाड़खंड के जमशेदपुर की रहने वाली दिवंगत अभिनेत्री प्रत्युषा बैनर्जी से सभी परिचित हैं. वे धारावाहिक ‘बालिका बधू’ में आनंदी की भूमिका निभा कर चर्चित हुई थीं. प्रत्युषा बनर्जी ने बौयफ्रैंड राहुल राज के आचरण के कारण आत्महत्या कर ली थी. उन के प्रेमी राहुल राज पर इस मामले में आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया गया था, लेकिन बाद में उन्हें जमानत दे दी गई.

प्रत्युषा ने अपने पीछे करीब 2 करोड़ रुपए की संपत्ति रख छोड़ी थी, जो उन के पेरैंट्स को मिल गई, लेकिन इतनी कम उम्र में अचानक आत्महत्या कर लेने के बाद उन का परिवार टूट कर बिखर गया और सबकुछ गंवा दिया. अब प्रत्युषा के मांबाप घोर तंगी से गुजर रहे हैं.

प्रत्युषा बनर्जी के पिता शंकर बनर्जी कहते हैं कि उन्हें ऐसा लगता है मानो बेटी की मौत के बाद कोई बड़ा तूफान आया हो और सबकुछ ले कर चला गया हो. केस लड़तेलड़ते वे अपना सबकुछ गंवा बैठे हैं. उन के पास अब एक रुपया भी नहीं बचा है.

शंकर बनर्जी ने कहा था कि उन की बेटी ने ही उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचाया था. वही उन का एकमात्र सहारा थी, लेकिन प्रत्युषा के जाने के बाद मानो कोई बड़ा तूफान आ गया हो. अब उन की जिंदगी बहुत मुश्किल से कट रही है. स्थिति ऐसी है कि अब वे एक कमरे में रहने को मजबूर हैं और कई बार कर्ज तक ले चुके हैं.

फरवरी के पहले सप्ताह कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार, जानें पूरी डिटेल्स

बौलीवुड के लिए 2024 की शुरुआत बहुत ही खराब रही. जनवरी माह के चारों सप्ताह बौक्सऔफिस पर मायूसी छाई रही. इस की मूल वजह यह रही कि बौलीवुड के फिल्मकार इन दिनों दर्शकों को मूर्ख मान कर फिल्में बना रहे हैं. ऐसे में फिल्मों का बौक्सऔफिस पर डूबना तय है.

जनवरी माह में कटरीना कैफ, हृतिक रोशन, दीपिका पादुकोण व पंकज त्रिपाठी भी बौक्सऔफिस पर बुरी तरह से असफल रहे हैं. फरवरी माह की शुरुआत नवाजुद्दीन सिद्दीकी व रेगिना कासांडा की फिल्म ‘सेक्शन 108’ से हुई. यह फिल्म 2 फरवरी को सिनेमाघरों में अकेले ही पहुंची. इस दिन फिल्म ‘सेक्शन 108’ के अलावा कोई दूसरी फिल्म प्रदर्शित नहीं हुई. फिर भी यह चाय पीने का पैसा भी इकट्ठा नहीं कर पाई.

रासिख खान निर्देशित फिल्म ‘सेक्शन 108’ पूरे सप्ताह में महज 5 लाख रुपए ही इकट्ठा कर पाई. पहले दिन इस फिल्म ने सिर्फ 60 हजार रुपए कमाए थे. फिल्म की इस बुरी दुर्गति को देख कर अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने निर्माता से आग्रह किया कि वे इस फिल्म के बौक्सऔफिस आंकड़ों की जानकारी किसी को न बताएं.

फिल्म ‘सेक्शन 108’ की कहानी एक अरबपति के गायब हो जाने से शुरू होती है और अदालत जल्द ही उसे मृत घोषित करने वाली है. बीमा कंपनी को अंदाजा हो गया है कि गायब हुए अरबपति के नामित व्यक्ति को मुआवजा देना पड़ेगा. पर बीमा कंपनी को लगता है कि यह एक धोखाधड़ी है, इसलिए बीमा कंपनी अपना केस लड़ने में मदद के लिए एक वकील ताहूर खान को नियुक्त करती है. वकील ताहूर खान की भूमिका में नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं. परदे पर नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहीं से भी वकील नजर नहीं आते. कहानी व पटकथा में कोई दम नहीं है.

बौलीवुड में चर्चाएं गरम हैं कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी ऐसे कलाकार हैं जिन की एक भी फिल्म 2017 के बाद अब तक ओटीटी प्लेटफौर्म अथवा सिनेमाघरों में दर्शक नहीं जुटा पाई, उन को ले कर लोग अति घटिया, नीरस पटकथा व बेसिरपैर की कहानी वाली फिल्में बना कर क्यों नुकसान उठा रहे हैं, समझ से परे है.

उधर, अपने अभिनय में सुधार लाने के बारे में सोचने के बजाय अहं के शिकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने कहा है कि लोग उन्हें फिल्में नहीं देंगे तो वे अपना सबकुछ बेच कर खुद अपने लिए फिल्म बनाएंगे क्योंकि उन के अंदर अभिनय प्रतिभा कूटकूट कर भरी हुई है.

मेरे पति मुझे छोड़कर किसी और औरत के पास चले गए हैं, मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 30 वर्षीय विवाहिता हूं. विवाह को 7 साल हो चुके हैं. 2 बच्चे भी हैं. मेरा दांपत्य जीवन बहुत ही खुशहाल था. पतिपत्नी में बेहद प्यार और गजब की अंडरस्टैंडिंग थी. लगता था कि हम जैसे दंपतियों के लिए ही मेड फौर ईच अदर जैसा जुमला बना है. पर कुछ महीनों से पति के व्यवहार में अप्रत्याशित बदलाव आ गया है. वे बातबात पर झल्लाने लगे हैं. मुझ से कटेकटे रहने लगे हैं. मेरे साथ समय बिताना, कहीं बाहर घूमने जाना तो दूर पास बैठने तक का वक्त नहीं है. और तो और दोनों बच्चों में भी उन की कोई दिलचस्पी नहीं रही.

पहले तो मैं यही समझती रही कि शायद अपने कारोबार की टैंशन है. सुनते हैं कि बिजनैस में कंपीटिशन काफी बढ़ गया है. पर घर वालों से पता चला कि ऐसी कोई समस्या नहीं है. तब मैं ने उन्हें 2-3 दिन तक लगातार कुरेदा तो एक दिन सचाई उन के मुंह से निकल ही गई.

पति ने बताया कि मैं उन के लायक ही नहीं हूं. वे तो यह शादी करना ही नहीं चाहते थे. घर वालों के दबाव में आ कर शादी के लिए हां करनी पड़ी. यह उन के जीवन की सब से बड़ी भूल थी.

मैं ने कहा कि आज तक तो आप ने कभी जाहिर नहीं किया, कि मैं जबरन आप के गले पड़ा ढोल हूं जिसे आप मजबूरन बजा रहे हैं. लगता है बाहर कोई मिल गई है, जिस के चलते ऐसे तेवर दिखा रहे हैं. बड़ी बेशर्मी से उन्होंने स्वीकार लिया कि यही सच है. कोई है जो सौ फीसदी उन के काबिल है और उसी के साथ रहना चाहते हैं. यह सुन कर मैं गुस्से से पागल हो गई. खूब खरीखोटी सुनाई. बात जब हद से बढ़ गई तो पांव पटकते हुए रात को ही चले गए.आज 15 दिन हो चुके हैं उन्हें घर से गए हुए. मैं अपनी ससुराल में हूं. उन के घर वाले भी मुझे ही दोष दे रहे हैं. कहते हैं कि पति से इस तरह जबान नहीं लड़ानी चाहिए थी. न मैं भलाबुरा कहती और न वे घर छोड़ कर जाते.

मैं क्या करूं? मैं उन्हें किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं चाहती. खासकर अपने दोनों बच्चों की खातिर. आप को अपने पति का और उस लड़की का नंबर दे रही हूं. कृपया आप मेरे पति को समझाएं कि वह घर लौट आएं और उन की माशूका को भी समझाएं कि वह मेरा घर न तोड़े.

जवाब

आप स्वीकार करती हैं कि शुरुआती सालों में आप का दांपत्य जीवन खुशहाल रहा. पति आप को चाहते थे. आप की और घरपरिवार की परवाह करते थे. आप लोगों में अच्छा तालमेल था. फिर यकायक यह कैसे खत्म हो गया और स्थिति इतनी बदतर हो गई कि पति न केवल आप की उपेक्षा करने लगे, बल्कि उन्होंने बाहर विवाहेतर संबंध भी बना लिए?

आप स्थिति को समझने का प्रयास करेंगी तो पाएंगी कि चूक आप से ही हुई है. आप छोटे बच्चों की परवरिश और घरपरिवार की जिम्मेदारियों में इस कदर मसरूफ हो गईं कि पति निरंतर उपेक्षित होते गए. जब घर से उन्हें प्यार नहीं मिला तो उन्होंने घर से बाहर आप का विकल्प तलाश लिया.

शुरूशुरू में जब पति के स्वभाव में आप ने परिवर्तन और अपने लिए बेरुखी देखी थी, आप को तभी सतर्क हो जाना चाहिए था. माना कि छोटे बच्चों की परवरिश आसान काम नहीं है पर इस जिम्मेदारी को निभाते हुए भी पति की अनदेखी कई बार भारी पड़ती है जैसाकि आप के मामले में हुआ.

यदि जानेअनजाने में हुई आप की अनदेखी से आप को पति के व्यवहार में बदलाव दिख रहा था तो आप को सतर्क हो जाना चाहिए था. उन्हें यह एहसास नहीं होने देना चाहिए था कि उन का महत्त्व दिनोंदिन गौण होता जा रहा है.

यदि आप स्थिति को संभाल लेतीं तो बेहतर था. पर आपने स्थिति को संभालने के बजाय लड़झगड़ कर मामले को और उलझा लिया.

अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. घबराएं नहीं. आप पति की ब्याहता और उन के बच्चों की मां हैं और सब से बड़ी बात उन के घरपरिवार में रह रही हैं तो अव्वल तो आप के पति ज्यादा दिन बाहर रहेंगे नहीं, क्योंकि समाज के प्रति भी उन की जवाबदेही है और फिर उन की तथाकथित प्रेमिका एक विवाहित पुरुष को अधिक दिनों तक बरदाश्त नहीं करने वाली.

आप अपनी ससुराल से बड़े सदस्यों यथा सासससुर या जेठ अथवा किसी ऐसे संबंधी को उन्हें समझाने के लिए भेजें. आप अपने घर वालों को साथ ले कर स्वयं भी उन्हें मनाने जा सकती हैं. देरसवेर वे लौट आएंगे.

रही हमारे द्वारा मध्यस्थता कराने (उन्हें फोन पर समझानेबुझाने) की तो यह उचित नहीं होगा. इस से वे और भड़क जाएंगे कि घर की बात आप चौराहे तक ले आईं.

सरिता में हम आप की समस्या और उस का निवारण गोपनीयता के साथ सिर्फ प्रकाशित कर सकते हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

क्या थी सलोनी की सच्चाई: भाग 1

छोटे से कस्बे , शाहपुर  की टीचर्स कॉलोनी से थोड़ी थोड़ी दूर बने छोटे छोटे घरों में से एक में सलोनी अपने पति मुकेश के साथ बैठी नाश्ता कर रही थी , दोनों बहुत ही अच्छे मूड में थे , मुकेश ने प्यार भरी नजर सलोनी पर डाल कर कहा , सलोनी , मैं बहुत खुश हूँ कि मेरा विवाह तुमसे हुआ , कहाँ तुम इतनी सुन्दर सलोनी , कहाँ मैं आम सा दिखने वाला ,’ कहकर मुकेश मुस्कुराया तो सलोनी ने बड़ी अदा से कहा ,” अब झूठी तारीफें बंद करो , वैसे लगता ही नहीं कि विवाह के दो साल पूरे हो गए हैं और आज हम इस ख़ुशी में स्वामी गोरखनाथ जी की कुटीर में उनका आशीर्वाद लेने जा रहे हैं.”

”हाँ , लगता तो नहीं कि दो साल हो गए , तुम्हारी सुंदरता तो और बढ़ गयी है.”

”चल , झूठे ,” कहकर सलोनी नाश्ते की प्लेट्स समेटने लगी. सचमुच फिर दुल्हन की तरह सजी संवरी सलोनी मुकेश के साथ स्वामी जी की कुटिया पर पहुंची , शाहपुर  छोटी जगह ही है , कस्बे के बाहर की तरफ एक बड़ी सी ‘स्वामी कुटीर ‘ में  कई लोग फर्श पर बैठे स्वामीजी से अपनी अपनी समस्याओं का समाधान पूछ रहे थे , स्वामी जी एक एक को अपने पास बुलाते , बिठाते और आँख बंद करके कुछ सोचते , फिर कोई उपाय बता देते , लोग एक तरफ रखे दान पात्र में कुछ डालते और चले जाते , सलोनी पर स्वामी जी की नजर पड़ी , उनकी नजरों में चमक उभर आयी , थोड़ा जल्दी जल्दी सबको निपटाया , फिर उन दोनों को अपने पास बुला  लिया , मुकेश ने उनके पैर छूते हुए कहा ,” स्वामी जी , आशीर्वाद दें , आज हमारे विवाह को दो साल हो गए हैं. स्वामीजी  ने दोनों के सर पर हाथ रखा , फिर धीरे से अपना हाथ सलोनी की कमर तक ले आये , सलोनी से नजरें मिलीं , सलोनी मुस्कुरा दी , मुकेश ने दो शातिर खिलाडियों की नजरों का यह खेल नहीं देखा , मुकेश ने कहा ,” बाकी तो सब आपकी कृपा है , बस यही आशीर्वाद दें कि अगली सालगिरह पर हम तीन हो जाएँ , हमारे जीवन में अब एक बच्चे की ही कमी है.” स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा ,” बच्चे तो ईश्वर की देन हैं , जब भी ईश्वर की मर्जी होगी , बच्चा  हो जायेगा , इसमें चिंता कैसी , धैर्य रखो ”

इसके बाद दोनों शाहपुर  से एक किलोमीटर दूर बाइक से एक पीर साहब, शौकत मियां  से मिलने गए , वहां पीर साहब कई लोगों पर फूंक मार कर ही उनकी बीमारियां ठीक कर रहे थे , कुछ लोग अपने साथ पानी की बोतल लाये हुए थे , पीर साहब होठों में कुछ बुदबुदाते , फिर पानी पर फूंक मारते , लोग उनके  आगे रखी चादर में कुछ रुपए रखते और कई बार उनके आगे सर झुकाते , उन्हें शुक्रिया कहते चले जाते.ये पीर साहब बड़े पहुंचे हुए थे , लोग बहुत दूर दूर से इनके पास पानी लेकर आते थे , इन्हे पानी वाले बाबा भी कहा जाता था लोगों का कहना था कि इनका पढ़ा हुआ पानी पीकर बड़ी बड़ी बीमारियां ठीक हो जाती हैं , पीर साहब का अपना भरा पूरा परिवार था , दूर खेतों में एक बढ़िया सा मकान इन्ही लोगों के विश्वास के पैसों से बन चुका था.धनी, अनपढ़ , मूर्ख लोगों की एक पूरी जमात थी जो अपने घर में किसी के बीमार होने पर इन्हे झाड़ फूंक करवाने  घर भी ले जाती  और अच्छी रकम भी देती. पीर बाबा शौकत मियां ने जब सलोनी को देखा तो उनका दिल धड़क उठा.दोनों उनके सामने बैठ गए , सलोनी ने कहा , बाबा , आज हमारी शादी को दो साल हो गए हैं , दुआ करें कि अगले साल मैं जब आज के दिन आपके पास आऊं तो मेरी गोद में एक बच्चा हो”

शौकत मियां करीब पचास की उम्र के तेज दिमाग के , कसरती बदन वाले इंसान थे , गंभीर सी आवाज में कहा ,’ बच्चा तो अल्लाह की देन है , जब अल्लाह की मर्जी होगी ,, तभी तुम्हारी गोद  में बच्चा होगा , उसी की मर्जी से सब होता है , हाँ , इतना जरूर है कि मेरे पास आती रहो , तुम्हारे लिए कुछ अलग से पढ़कर दुआएं करूँगा”

दोनों ने हाँ में सर हिलाया , शौकत ने तरसती सी निगाहों से सलोनी को  देखा , सलोनी इन  निगाहों को खूब पहचानती  , वह उठते उठते मुस्कुरा दी , शौकत उसके हुस्न को देखते रह गए.दोनों घर आ गए.मुकेश मुंबई में कई टैक्सी चलाता, चलवाता था , कुछ लोगों के साथ एक फ्लैट लेकर शेयर करता था , सलोनी यहीं शाहपुर में रहती , मुकेश ही आता जाता रहता , कभी दो महीने में , कभी पांच छह महीने भी हो जाते, दोनों का घर दूर गांव में था , जहाँ सलोनी को रहना बिलकुल सहन नहीं था , उसे आज़ादी पसंद थी , इसलिए वह कभी मुकेश के साथ जाने की ज़िद भी नहीं करती थी , उसके अकेलेपन की मुकेश चिंता करता तो वह कहती कि वह बस उसके आने के इंतज़ार में दिन काट लेती है , कुछ बच्चों को पढ़ाकर अपना टाइम पास कर लेती है , मुकेश ज्यादा कुछ न कहे , इसलिए कभी मायके , कभी ससुराल भी रह आती..

मुकेश और सलोनी दोनों को पीरों और बाबाओं के आश्रमों में जाने की बहुत आदत थी , दोनों ने ही अपने अपने घरों में हमेशा यही माहौल देखा था कि कोई परेशानी आयी नहीं और झट से पहुँच गए किसी बाबा या पीर के दर पर. दोनों इन्ही लोगों के पास चक्कर काटते रहते.मुकेश बहुत ही धर्मभीरु इंसान था , सलोनी तेज तर्रार , चालाक , सुंदर  लड़की थी , मुकेश को अपने इशारों पर नचाना उसे खूब आता , दोनों को अपने गांव में जाने में कोई रूचि नहीं रहती थी , अब दोनों की अलग दुनिया थी. कुछ दिन हमेशा की तरह मुकेश और सलोनी ने खूब मस्ती करते हुए बिताए. फिर मुकेश के मुंबई जाने का टाइम आ गया.सलोनी ने कुछ उदास रहकर दिखाया , मुकेश ने अगले महीने फिर आने का वायदा किया , कहा , बहुत ड्राइवर्स के साथ रहता हूँ , काम अच्छा तो चल रहा है , जल्दी ही अलग घर ले कर तुम्हे साथ ही ले जाऊंगा.”

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