Loksabha Election 2024: विचारधारा का संकट आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड में भी दस्तक दे चुका है. सियासी तौर पर देखा जाए तो 49 वर्षीया सीता सोरेन के झारखंड मुक्ति मोरचा छोड कर भाजपा जौइन कर लेने से कोई हाहाकार नहीं मच गया है लेकिन सामाजिक तौर पर इस घटना के अपने अलग माने हैं जो आदिवासी समुदाय की अपनी पहचान को ले कर उलझन को बयां करते हुए हैं. आजादी के बाद इस राज्य का इतना ही विकास हुआ है कि लोग राम और रामायण को जानने लगे हैं. इस का यह मतलब भी नहीं कि घरघर में रामायण या रामचरितमानस पढ़ी जाने लगी हो बल्कि यह है कि आदिवासियों, जो खुद को मूल निवासी कहते हैं, ने हिम्मत हारते एक समझौता सा कर लिया है कि अब राम ही उन की नैया पार लगाएगा. धर्म के इस प्रपंच से हमेशा ही आदिवासी समुदाय जिल्लत की जिंदगी जीता रहा है.
यह राम है कौन और कहां रहता है, यह इन्हें भाजपाई बता रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई मिथ्या है, तुम लोग नाहक ही भटक रहे हो और इस भटकाव से मुक्ति चाहते हो तो राम की शरण में आ जाओ जिस ने शबरी के झूठे बेर खा कर ही उस का उद्धार कर दिया था. सीता सोरेन के भगवा गैंग में चले जाने की दास्तां भी कुछकुछ ऐसी ही है कि वे सियासी मोक्ष की चाहत में रामदरबार की सब से पिछली कतार में कतारबद्ध हो कर जा बैठी हैं. अपने ससुर, देवर और परिवार से बगावत करने के एवज में उन्हें भाजपा से दुमका सीट से टिकट मिला है.