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हल्द्वानी हिंसा : कहीं धर्मयुद्ध का आगाज तो नहीं

देश के हर शहर में एक इलाका ऐसा होता है जिसे कराची, इसलामाबाद या लाहौर कहा जा सकता है. इन इलाकों के बारे में प्रचार यह किया जाता है कि यहां दुनियाभर के जुर्म पनपते हैं, देशदुनिया के तस्कर यहां पनाह लेते हैं. चोरी, तस्करी, देह व्यापार यहा आम होते हैं. और सब से बड़ी बात, हिंदू इन इलाकों में पांव रखने से भी खौफ खाते हैं क्योंकि यहां राज मुसलमानों का चलता है. पुलिस प्रशासन, कानून व्यवस्था इन इलाकों में आ कर बेबस हो जाते हैं. यही अब बनभूलपुरा के बारे में कहा जा रहा है.

उत्तराखंड के हल्द्वानी में जो हुआ उस की वजह कहने को भले ही एक नाजायज मजार या मसजिद, कुछ भी कह लें, को हटाना हो पर हकीकत कुछ और भी है. एक दुष्प्रचार के तहत यह कहा जा रहा है कि बीती रात यानी 8 फरवरी को कट्टरपंथी दंगाइयों ने जो उपद्रव किया वह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. दंगाइयों ने इस की तैयारी बहुत पहले से ही कर रखी थी. जब से यहां की ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती और नई बस्ती में रेलवे वन विभाग व राजस्व की जमीनों पर अतिक्रमण किए जाने का मामला सुर्खियों में आया तब से यह आशंका जताई जा रही थी कि एक न एक दिन ऐसा होगा.

हल्द्वानी बना कुरुक्षेत्र

बनभूलपुरा हल्द्वानी का मुसलिमबाहुल्य इलाका है जिस में मुसलमानों की आबादी 90 फीसदी है. एकाएक ही सुर्खियों में आए इस इलाके में 8 फरवरी की हिंसा में 4 लोग मारे गए थे और 100 के लगभग घायल हुए थे. इस दिन नगर निगम की जेसीबी मशीनों की मौजूदगी ही बयां कर रही थी कि कुछ अनहोनी होने जा रही है. ये मशीनें जैसे ही मसजिद तोड़ने लगीं तो हिंसा भडक उठी. इस के पहले 29 जनवरी को पुलिस की मौजूदगी में बनभूलपुरा के मालिक के बगीचे की कोई 2 एकड़ जमीन अतिक्रमण से मुक्त कराई गई थी. लेकिन उस दिन मसजिद और मदरसे को नहीं तोड़ा गया था. प्रशासन ने वहां फेंसिंग कर दी थी.

प्रशासन ने नोटिस जारी करते 1 फरवरी तक बकाया अतिक्रमण हटाने का हुक्म दिया था. लेकिन इस दिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. 3 फरवरी को बनभूलपुरा के वाशिंदों ने नगर निगम पर विरोध प्रदर्शन किया था. जो आया गया, हो गया था. 4 फरवरी को सुबह 6 बजे अधिकारियों ने अतिक्रमण हटाने का फैसला किया जिस की भनक मिलते ही सैकड़ों औरतें मालिक के बगीचे के पास दुआ करने बैठ गईं. इस पर अधिकारियों ने फैसला लिया कि मसजिद व मदरसा नहीं तोड़े जाएंगे.

लेकिन प्रशासन ने देररात मसजिद और मदरसे को सील कर दिया. फिर 8 फरवरी को फिर तोड़फोड़ शुरू की गई जिस से गुस्साए लोग सड़कों पर आ गए और तोड़फोड़ का विरोध किया जिस का कोई असर न होते देख दंगा किया जाने लगा, आगजनी की, गाड़ियां फूंकीं और पुलिसकर्मियों व कर्मचारियों पर हमला बोल दिया. जवाबी कार्रवाई में पुलिस ने गोलियां चलाईं, कर्फ्यू लगाया और थोड़ी देर बाद देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया. देखते ही देखते हल्द्वानी कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया. देररात इंटरनैट सेवाएं भी बंद कर दी गईं.

यह तो आगाज है

हल्द्वानी में नया कुछ नहीं हुआ है. वहां दूसरे तरीके से वही हुआ है जो दिल्ली के शाहीन बाग में हुआ था जो हरियाणा के नूंह में हुआ था. जो आएदिन छिटपुट तौर पर खासतौर से भाजपाशासित राज्यों में होता रहा है. उत्तराखंड में एक मुहिम के तहत अवैध धर्मस्थल हटाए जा रहे हैं जिस के तहत कोई 450 मजारें और 50 के लगभग मंदिर हटाए जा चुके हैं. यह स्वागतयोग्य बात है क्योंकि धर्मस्थल हिंदुओं के हों या मुसलमानों के या किसी और धर्म के, लोगों का वक्त और पैसा ही जाया करते हैं और आपसी बैर ही फैलाते हैं. ये धर्मस्थल कहने को ही आस्था के प्रतीक होते हैं.

नैनीताल से 43 किलोमीटर दूर हल्द्वानी में जो हुआ वह स्वागतयोग्य नहीं है. यह ठीक है कि मसजिद हाईकोर्ट के आदेश पर हटाई जा रही थी पर इस के लिए हुई हिंसा का जिम्मेदार किसी एक को ठहराया जाना न्यायसंगत नहीं लगता और न ही यह दुष्प्रचार स्वागतयोग्य है कि बनभूलपुरा जैसे इलाकों में समानांतर इसलामी हुकूमत चलती है और वहां हिंदू चैन से नहीं रह पाते. यह दुष्प्रचार जानबूझ कर किया जा रहा लगता है जिस का एक खास मकसद भी है.

मकसद यह जताना है कि यह प्रशासन और मुसलमानों की नहीं बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों की लड़ाई है. जब जरूरत इस बात की थी और हमेशा रहेगी कि कोई भी ऐसा काम न करें जिस से देश का सांप्रदायिक माहौल बिगड़े तब सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार यह किया जा रहा है कि यह मुसलमानों की बौखलाहट है जो अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद देश में हर कहीं देखने में आ रही है.

खासतौर से हिंदीभाषी राज्यों में हालात बहुत खराब हैं जहां आम मुसलमान दहशत में जी रहा है. 22 जनवरी को तो मुसलमान घरों से ही नहीं निकला था. इस डर की व्याख्या शायद ही कोई समाजशास्त्री कर पाए. असल में यह धर्म का डर था. धार्मिक उन्माद की दहशत थी जिस पर सवर्ण हिंदुओं की छाती फूलकर 56 इंच की हो जाती है. आम नागरिक, चाहे वह किसी धर्म को मानने वाला हो, का यह डर लोकतंत्र के मुलभूत सिद्धांतों से मेल नहीं खाता.

इत्तफाक पर इत्तफाक

हल्द्वानी में जो हुआ वह तो होना तय ही था लेकिन क्यों था, इस पर गौर किया जाना जरूरी है. यह राममंदिर निर्माण और उद्घाटन वगैरह की प्रतिक्रिया तो कहीं से नहीं कही जा सकती. यह मसजिद के वैधअवैध होने को ले कर हुआ फसाद था जिस में मुसलिम पक्ष अदालती लड़ाई हारा था. लेकिन क्या यह पूरे मुसलिम समुदाय की लड़ाई थी, यह सवाल तो मुंहबाए हमेशा ही खड़ा रहेगा. जब कहीं नाजायज मसजिद या मदरसा हटाया जाएगा तो उस से हुई हिंसा को मुसलमानी खीझ बता कर क्या साबित करने की कोशिश होगी. यही कि मुसलमान देश को हिंदू राष्ट्र बनते देख जलताकुढ़ता है. वह बनभूलपुरा जैसी बस्तियां बना कर अपनी बादशाहत चलाता है.

असल बात तो यह है कि भगवा गैंग यह जताने की कोशिश कर रहा है कि हम तो मुसलमानों को खदेड़ रहे हैं लेकिन चंद वामपंथी हिंदू उन के साथ हैं, इसलिए देश के हिंदू राष्ट्र बनने में देर हो रही है. अब यह हिंदू राष्ट्र है क्या बला और इस में क्या क्या होगा, यह उन हिंदुओं को भी नहीं मालूम जो इसी शर्त पर भाजपा को वोट दिए जा रहे हैं.

हल्द्वानी की हिंसा के ठीक पहले ही उत्तरखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता कानून पारित किया था. अब यह कहना कि हल्द्वानी की हिंसा मुसलमानों ने उस के एवज में की, निहायत ही साजिशभरी बात है. इस के ठीक पहले उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुसलमानों से अपील कर रहे थे कि ये 3 मंदिर हमें दे दो, हम किसी और मसजिद की बात नहीं करेंगे.

यह सब क्या है और देश में यह हो क्या रहा है, इस पर अब उस हिंदू को विचार करना होगा जो महाभारत के युद्ध को धर्म और अधर्म की लड़ाई समझता है. पांडवों ने भी 5 गांव मांगे थे, हम भी सिर्फ 3 मंदिर मांग रहे हैं जैसी अपील, अपील कम धौंस ज्यादा लगती है कि सीधे से नहीं दोगे तो हम छीन लेंगे. सरकार हमारी है, कानून और अदालतें भी हमारी हैं, ईडी जैसी अधिकारसंपन्न एजेंसियां हमारी हैं जिन के जरिए हम चुनी हुई सरकारों को गिरा देते हैं, मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देने को मजबूर कर देते हैं, जगहजगह छापे पड़वा देते हैं तो तुम किस खेत की मूली हो.

यह सब कानून और लोकतंत्र का मखौल है. पांडवों और कौरवों की लड़ाई भी जर, जोरू और जमीन वाली थी. आज उस की दुहाई देना यह एहसास कराना है कि युद्ध हो तो हम तैयार हैं. यह कैसा लोकतंत्र है जहां खुलेआम धर्मयुद्ध के शंख बजाए जा रहे हैं. दुनियाभर में यही होता रहा है. आज से कोई 930 साल पहले पोप ने ईसाईयों का आव्हान किया था कि यरुशलम को मुसलमानों के कब्जे से आजाद कराना है.

यह धर्मयुद्ध यानी क्रुसेड भी एक तरह का महाभारत ही था. इन युद्धों में सैकड़ों बेगुनाह मारे जाते हैं, लाखों औरतें विधवा होती हैं, बच्चों के सिर पर कोई साया नहीं रहता और जो तबाही होती है उस की भरपाई होने में सदियां लग जाती हैं.

हल्द्वानी को इस का आगाज समझना चाहिए जिस का अंजाम कभी किसी के लिए अच्छा नहीं होता. हां, धर्मगुरुओं की जरूर चांदी हर दौर में रहती है. इस दौर में इंसानी समझ बहुत विकसित है, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं दिख रही जिसे युद्ध रास आ रहे हैं. धर्म और उस के स्थलों के विवाद जगहजगह हो रहे हैं. हल्द्वानी के झरोखे में झांक कर बहुसंख्यक सवर्ण हिंदुओं को सबक लेना चाहिए कि यह उन के लिए भी शुभ नहीं है. उन्हें तो दक्षिणापंथी बहका रहे हैं कि यह जमीन तुम्हारी है, प्राकृतिक संसाधन तुम्हारे हैं जिन पर मुसलमान कब्जा कर रहे हैं, वे तुम्हारे टैक्स के पैसे पर मुफ्त की खा रहे हैं वगैरहवगैरह. हम तो इसे तुम्हें देने की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसलिए हमें वोट और दक्षिणापंथियों को दान देते रहो.

इंडी गठबंधन के लिए अच्छा है जयंत चौधरी का अलग होना, यह है वजह

भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव में मिशन उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हासिल करने का लक्ष्य ले कर चल रही है. भाजपा का हर नेता यह कह रहा है कि यह लक्ष्य हासिल हो ही गया है. इस के बाद भी उसे इंडी गठबंधन में तोड़तोड़ करनी पड़ रही है. इस से साफ है कि भाजपा के अंदर आत्मविश्वास नहीं है. ऐसे में वह छोटे दलों को लालच दे रही है. बिहार में नीतीश कुमार के पालाबदल से बिहार में भाजपा का विरोध खत्म नहीं हो जाएगा. अब वोटर किसी नेता की जेब में नहीं रहता है.

2019 का लोकसभा चुनाव इस का उदाहरण है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और लोकदल एकसाथ चुनाव लड़े. इस के बाद भी केवल 15 सीटें ही हासिल हुईं. सपा और बसपा दोनों ने ही माना कि उन के वोट ट्रांसफर नहीं हुए. इसी बात को ले कर सपा-बसपा अलग हो गए. लोकदल और सपा कई चुनावों में साथसाथ रहे हैं. इस के बाद भी दोनों दलों को चुनावों में सफलता नहीं मिली. इस की वजह यह है कि सपा और लोकदल के वोटर आपस में वोट शेयर नहीं करते थे. अजित सिंह और जयंत दोनों एसपी और बीएसपी के समर्थन के बाद भी जाटबहुल अपनी मजबूत सीटों पर चुनाव हार गए.

जाट और यादव कभी एकसाथ वोट नहीं करते. यादव और जाट का यह बंटवारा अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव के समय से शुरू हुआ था. इस की वजह यह थी कि चौधरी चरण सिंह के बाद उन का उत्तराधिकार बेटे अजित सिंह को मिलना था. लेकिन लोकदल पर अधिकार मुलायम सिंह यादव का हो गया. लोकदल 2 हिस्सों में बंट गया. लोकदल ‘अ’ अजित सिंह के साथ था और लोकदल ‘ब’ मुलायम सिंह यादव के साथ. अजित सिंह को जब उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का अवसर आया तो उस में लंगड़ी मुलायम सिंह यादव ने मारी.

इस धोखे की वजह से जाट कभी यादव के साथ खड़ा नहीं होता है. चौधरी अजित सिंह भाजपा के एनडीए गठबंधन में रहे थे. कुछ समय वे मुलायम सिंह यादव के साथ रहे. इस के बाद जयंत चौधरी और अखिलेश यादव साथ रहे. साथ रहने के बाद भी दोनों के वोटबैंक शेयर नहीं हो पाए. जाट वोट सपा के साथ नहीं खड़ा हो सकता पर वह भाजपा विरोध में कांग्रेस के पक्ष में खड़ा हो सकता है. ऐेसे में जयंत चौधरी के इंडी गठबंधन छोड़ने से कांग्रेस को लाभ हो सकता है. भाजपा के विरोध का वोट है और वह उस के विरोध में ही जाएगा. जितने दल कम होंगे, उतना ही यह वोट एकजुट होता जाएगा.

अखिलेश के साथ सीट शेयरिंग करने वाले जयंत का इंडी गठबंधन से मोह भंग क्यों हुआ, इस की वजह यह बताई जा रही है कि जयंत, अखिलेश के प्रस्ताव से नाराज हैं. अखिलेश का प्रस्ताव है कि लोकदल लोकसभा चुनाव 7 सीटों पर लड़े, लेकिन कैराना, मुजफ्फरनगर और बिजनौर की सीटों पर उम्मीदवार का चेहरा समाजवादी पार्टी से होगा और निशान आरएलडी का. अखिलेश के इस फैसले ने जयंत चौधरी को नाराज कर दिया है.

अखिलेश और जंयत के बीच दरार का लाभ भाजपा ने उठाया. उत्तर प्रदेश की 10 से 12 सीटों पर जाटों का प्रभाव है. पश्चिमी यूपी में करीब 17 फीसदी आबादी जाटों की है. विधानसभा की करीब 50 सीटों का फैसला भी जाट वोटर्स ही करते हैं. इस के अलावा जयंत के आने से बीजेपी किसान आंदोलन से हुई जाटों की नाराजगी को भी दूर करने में कामयाब हो सकती है. ये वोटर जंयत के साथ जाएंगे या नहीं, यह सवाल मुख्य है ?

जयंत ही नहीं, अखिलेश और मायावती भी अगर भाजपा के साथ खड़े हो जाएं तो भी इंडी गठबंधन को नुकसान नहीं होगा क्योंकि भाजपा के विपक्ष में खड़े वोट उस के विरोध में ही रहेंगे. छोटेछोटे दलों के साथ रहने से विरोध का वोट बंटेगा. इस से इंडी गठबंधन मजबूत होगा. जयंत के जाने से इंडी गठबंधन को लाभ होगा. नुकसान नहीं होगा.

नक्काशी: भाग 1- मयंक और अनामिका के बीच क्या हुआ था?

जीवन से बहुत अधिक अपेक्षा न रख कर हमेशा अगर हम यह मान कर चलें कि जो भी होगा वह मुझ से है और सबकुछ नवीन और सहज होगा तो हमारी पूरी सोच और दृष्टिकोण रूपांतरित हो जाते हैं. जीवन को अपने हाथ में रख कर यदि आप सोचते हैं कि आप चमत्कारिक रूप से सब अपने हिसाब से कर लेंगे तो आप के हाथ केवल निराशा आएगी. जिंदगी को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करें, वरना गांभीर्य और बोझिलता बहुत बढ़ जाएगी और यह घाटे का सौदा है.

अपनी डायरी में ये सब लिख कर अनामिका उठीं और खिड़की पर आ गईं. मैक्लोडगंज अभी जाग रहा था. दूर धौलाधार की चोटियां आकाश को गहराई तक भेद रही थीं. उगता हुआ सूरज अपनी उच्चतम प्रकाष्ठा में, अपनी नरम किरणें पहाड़ों पर बिखेर रहा था. ठंडी और स्फूर्तिदायक हवा एकदम साफ थी. सड़कों पर लामा मठों की तरफ आ-जा रहे थे. ये वही लोग थे जो बर्बर और असभ्य चीनियों से बचते हुए इस क्षेत्र में आ कर बस गए थे लेकिन ऐसा नहीं है कि ये सब भाग कर आए थे, बल्कि इन के प्रशिक्षण और आस्थाएं ऐसी थीं कि यदि जरूरत पड़े तो ये बर्बर यातनाएं भी सह सकते थे. पर कभीकभी पवित्र वस्तुएं, अभिलेख, गोपनीय लेखन और परंपरा को बचाने के लिए भाग कर आने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. उन को ध्यान से देखती हुई अनामिका अपने जीवन की घटनाओं को याद कर रही थीं. आखिर वे भी तो सब छोड़ कर…

सुबह के 8 बज चुके थे. वे दिन की शुरुआत चाय से करती हैं. उन को नौर्लिंग रैस्तरां की चाय ही पसंद है, इसलिए वे अपने होम स्टे से निकल कर दस कदम दूर बने इस छोटे से रैस्तरां में आ गईं. अनामिका को देख कर वहां के स्टाफ ने ‘ताशी डेलेक‘ बोल कर उन का अभिवादन किया और चाय बनवाने चला गया. आज कल अनामिका बहुत से प्रयोग कर रही थीं. परंपरागत भारतीय चाय को छोड़ कर वे मक्खन वाली नमकीन तिब्बती चाय पीती हैं.

अपने जीवन के साथ भी उन्होंने ऐसा ही कुछ प्रयोग किया है. वे 55 साल की महिला हैं और तलाकशुदा हैं. अद्वितीय तेज और शीतलता की मूर्ति, जैसे सूरज और चंद्रमा एक हो गए हों. 5 वर्षों पहले उन्होंने तलाक ले लिया था, जबकि घर, परिवार और रिश्तेदार यह बात हजम नहीं कर पा रहे थे कि जब उस घर में सारी ज़िंदगी गुज़ार दी तो अब इस उम्र में तलाक लेने का क्या औचित्य था?

लेकिन अनामिका एक प्रेम और सम्मानरहित रिश्ते को ढोती रही थीं. उस हद से ज्यादा अमीर व्यक्ति को, जिसे समाज उन का पति कहता था, उसे अनामिका की मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक जरूरतों का एहसास तक नहीं था और स्वभाव में क्रूरता व गुस्सा अलग से था. अपने बेटे को पढ़ालिखा कर अनामिका ने बड़ा किया और जब वह विदेश चला गया तो अनामिका ने खुद को उस सोने के पिंजरे से आजादी दिलाई, जिस में उन का साथ सिर्फ उन के बेटे ने दिया था.

तब से अनामिका ‘सोलो ट्रैवलर’ बन कर अकेली भारत दर्शन कर रही हैं और पिछले कुछ महीनों से यहां मैक्लोडगंज में ‘कुंगा होम स्टे’ में रुकी हुई हैं. एक नया शौक उन में जागा है और वह है फोटोग्राफी का. उन के बेटे ने अमेरिका से ही निकोन का कैमरा भेजा है, जिसे अनामिका खूब इस्तेमाल करती हैं. इतनी देर में चाय आ गई और अनामिका भी अपने खयालों की दुनिया से बाहर आ गईं.

उन के पास वाली कुरसी पर मयंक गुप्ता बैठे उन की तरफ देख कर मुसकरा रहे थे. अनामिका कुछ झिझक गईं क्योंकि उन को नहीं पता चला कि मयंक गुप्ता कब से उन के पास बैठे थे. मयंक गुप्ता दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिटायर्ड प्रोफैसर हैं. उन की पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी. सब बच्चे शादीशुदा थे. अब जीवन के इस पड़ाव पर अपने अन्य दोस्तों की तरह उन्होंने घर में बैठने की अपेक्षा ‘यायावरी’ को चुना. वे पिछले कुछ महीनों से यहां मैक्लोडगंज में एक किराए के घर में रह रहे हैं. दोनों रोज इस वक्त चाय पीते हैं. इन की मुलाकात इसी नौर्लिंग रैस्तरां में हुई थी.

मयंक गुप्ता अनामिका जी को ‘बंडल औफ कौन्ट्राडिक्शन’ कहते थे. उन के हिसाब से मृदु स्वभाव वाली अनामिका के अंदर एक विद्रोही स्त्री भी रहती है.मयंक गुप्ता ने अनामिका के मौन को देखते हुए चुप रहना ही बेहतर समझा और चुपचाप कौफी पीने लगे.

फिर मनचाहा विश्राम ले कर अनामिका ने उन की और देखा.

“आप की नक्काशी सीखने की क्लास कैसी चल रही है?” वे बोलीं.

“अच्छी चल रही है. यह ऐसा विषय है जिसे मैं पसंद करता हूं. तिब्बती लोगों में खास बात यह है कि ये लकड़ी को बरबाद नहीं करते. धारदार चाकू से लकड़ी काट कर सुंदर कलाकृति बना देते हैं.”

“जीवन भी तो ऐसा ही है प्रोफैसर गुप्ता, एक औब्जेक्ट पर दृश्य तत्त्वों की नियुक्ति और एक अप्रत्यक्ष वस्तु को खोजने के लिए उपक्रम करना,” अनामिका कुछ गंभीर हो कर बोलीं.

“जीवन का इस तरह अन्वेषण करना एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक की यात्रा है, अनामिका. बाकी सबकुछ निरर्थक ही नहीं बल्कि खंडित भी है. वास्तव में, जीवन जिया कैसे जाता है, बेहतर दशाएं क्या हो सकती हैं, ये सब हमारे समाज ने हमें कभी सिखाया ही नहीं है. नक्काशी करना और जीवन को जीना एकसमान है. बस, दोनों को पूरी मर्यादा और गरिमा के साथ किया जाए तो अच्छा पैटर्न बन कर सामने आता है.

Top 10 Family Story : कहानियां पढ़ने के हैं शौकीन, तो यहां पढ़ें एक से बढ़कर एक फैमिली स्टोरी

Top 10 Family Stories in Hindi : फैमिली हर व्यक्ति की जिंदगी का सबसे अहम हिस्सा होती है. जो आपको हर एक परिस्थिति में सपोर्ट करती है. एक फैमिली ही है, जो बिना किसी स्वार्थ के आपके साथ खड़ी रहती है.

इस आर्टिकल में आज हम आपके लिए लाए हैं सरिता की 10 Best Family Story in Hindi. रिश्तों से जुड़ी वो दिलचस्प फैमिली कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी. इन Family Story को पढ़ने के बाद आपको जीवन जीने की सीख मिलेगी, जिससे आपके रिश्ते और ज्यादा मजबूत होंगे. साथ ही आपके रिश्तों के बीच मिठास भी बनी रहेगी, तो अगर आपको भी है हिंदी में कहानियां पढ़ने का शौक. तो पढ़िए सरिता की Top 10 Family Story in Hindi.

Best Family in hindi : वो कहानियां जो देंगी आपको सीख

1. फिर वही शून्य : समर को सामने पा कर सौम्या का क्या हुआ ?

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सुनहरी सीपियों वाली लाल साड़ी पहन कर जब मैं कमरे से बाहर निकली तो मुझे देख कर अनिरुद्ध की आंखें चमक उठीं. आगे बढ़ कर मुझे अपने आगोश में ले कर वह बोले, ‘‘छोड़ो, सौम्या, क्या करना है शादीवादी में जा कर? तुम आज इतनी प्यारी लग रही हो कि बस, तुम्हें बांहों में ले कर प्यार करने का जी चाह रहा है.’’ ‘‘क्या आप भी?’’ मैं ने स्वयं को धीरे से छुड़ाते हुए कहा, ‘‘विशाल आप का सब से करीबी दोस्त है. उस की शादी में नहीं जाएंगे तो वह बुरा मान जाएगा. वैसे भी इस परदेस में आप के मित्र ही तो हमारा परिवार हैं. चलिए, अब देर मत कीजिए.’’

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2. उलझे धागे : दामिनी के गले की फांस क्या चीज बन रही थी ?

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महिलाओं के घेरे में थोड़ा दूर उपेक्षित सी बैठी आंसू बहाती शैली को देख कर आज दामिनी के मन में नफरत के नहीं, बल्कि दया और सहानुभूति के भाव उभर कर आए. हालांकि, यह वही चेहरा है जिस ने पहलेपहल उस का परिचय नफरत की अनुभूति से करवाया था. शैली से परिचय होने से पहले तक वह मन के इस भाव से अनजान थी. कोरे मन को तो सिर्फ प्रेम के निश्च्छल भाव का ही एहसास था. अरे हां. वह यह कैसे भूल सकती है कि शैली ने ही तो जानेअनजाने उसे यह भी महसूस करवाया था कि प्रेम किया नहीं जाता बल्कि हो जाता है. मानव को तो उस की जिंदगी में आना ही था. उसे तो शैली का शुक्रगुजार होना चाहिए. विवाह से पहले तो उसे यही बात गांठ बांध कर सिखाई गई थी कि अपने पति से प्यार करना ही स्त्री का धर्म और कर्म है. फिर चाहे पति के कर्म कुछ भी हों. इसी सीख को साथ बांध कर उस ने ससुराल की दहलीज के भीतर कदम रखा था.

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3. गली के मोड़ पर दरवाजा : शिखा ने ऐसा क्या कहा कि घर में गहरा सन्नाटा पसर गया ?

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दिल के कहीं किसी कोने में कुछ दरकता सा महसूस हुआ. न जाने क्यों शिखा का मन जारजार रोने को कर रहा था पर उस के शिक्षित और सभ्य मन ने उसे डांट कर सख्ती से रोक लिया. कितनी आसानी से हिमांशु ने कह दिया था, ‘तुम भी न, क्या ले कर बैठ गई हो, क्या फर्क पड़ता है, तुम्हें कौन सा रहना है उस घर में, ईंट और गारे से बने उस निर्जीव से घर के लिए इतना मोह. अपने पापामम्मी को समझओ कि फालतू में मरम्मत के नाम पर पैसा बरबाद करने की जरूरत नहीं. आज नहीं तो कल उन्हें उस घर को छोड़ कर बेटों के पास जाना ही पड़ेगा.’

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4. मेरी दीदी : सनम क्यों अपनी बड़ी बहन से नजरें नहीं मिला पा रही थी ?

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5. हल : आखिर नवीन इरा से क्यों चिढ़ता था ?

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इरा कल रात के नवीन के व्यवहार से बेहद गुस्से में थी. अब मुख्यमंत्री की प्रैस कौन्फ्रैंस हो और वह मुख्य जनसंपर्क अधिकारी हो कर जल्दी कैसे घर आ सकती थी. पर नहीं. नवीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. माना लौटने में रात के 11 बज गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री को बिदा करते ही वह घर आ गई थी. नवीन के मूड ने उसे वहां एक भी निवाला गले से नीचे नहीं उतारने दिया. दिनभर की भागदौड़ से थकी जब वह रात को भूखी घर आई, तो मन में कहीं हुमक उठी कि अम्मां की तरह कोई उसे दुलारे कि नन्ही कैसे मुंह सूख रहा है तुम्हारा. चलो हम खाना परोस दें. लेकिन कहां वह कोमलता और ममत्व की कामना और कहां वास्तविकता में क्रोध से उबलता चहलकदमी करता नवीन. उसे देखते ही उबल पड़ा, ‘‘यह वक्त है घर आने का? 12 बज रहे हैं?’’

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6. चमत्कार : मोहिनी की शादी में क्या हुआ था ?

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‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया. उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे. ‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा. ‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं. ‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.

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7. विलासिनी : क्या नीलिमा अपनी गृहस्थी में फिट हो पाई ?

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जिंदगी में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना बहुत जरूरी है, लेकिन यही महत्त्वाकांक्षा यदि अति में बदल जाए तो फिर पतन का कारण भी बन जाती है. मजे की बात तो यह है कि बहुत से व्यक्ति इस अति की महीन रेखा को पहचान ही नहीं पाते. नीलिमा भी कहां पहचान पाई थी इस विभाजन रेखा को. बचपन से ही आसमान में उड़ने के सपने देखने वाली नीलिमा ने कभी जमीन पर पांव रखने का सोचा भी नहीं था.

हालांकि उस के घरपरिवार में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी. पिता सरकारी कर्मचारी और मां गृहिणी थी. एक बड़ा भाई और फिर नीलिमा… सब से छोटी होने के नाते स्वाभाविक रूप से अति नेह की अधिकारिणी थी. बरसात चाहे प्रेम की ही क्यों न हो, यदि टूट कर बरसे तो फिर छत हो या छाता… क्षतिग्रस्त कर ही देती है.

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8. नई सुबह : शराबी पति से परेशान नीता ने जो कदम उठाया उसका अंजाम क्या हुआ ?

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‘‘बदजात औरत, शर्म नहीं आती तुझे मुझे मना करते हुए… तेरी हिम्मत कैसे होती है मुझे मना करने की? हर रात यही नखरे करती है. हर रात तुझे बताना पड़ेगा कि पति परमेश्वर होता है? एक तो बेटी पैदा कर के दी उस पर छूने नहीं देगी अपने को… सतिसावित्री बनती है,’’ नशे में धुत्त पारस ऊलजलूल बकते हुए नीता को दबोचने की चेष्टा में उस पर चढ़ गया. नीता की गरदन पर शिकंजा कसते हुए बोला, ‘‘यारदोस्तों के साथ तो खूब हीही करती है और पति के पास आते ही रोनी सूरत बना लेती है. सुन, मुझे एक बेटा चाहिए. यदि सीधे से नहीं मानी तो जान ले लूंगा.’’

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9. बीच की दीवार : मीठे, प्यारे, दिल से जुड़े रिश्तों में आई कड़वाहट की मर्मस्पर्शी कहानी

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‘‘मम्मी,आप नानी के यहां जाने के लिए पैकिंग करते हुए भी इतनी उदास क्यों लग रही हैं? आप को तो खुश होना चाहिए. नानी, मामा से मिलने जा रही हैं, पिंकी दीदी, सोनू भैया भी मिलेंगे.’’ ‘‘नहींनहीं खुश तो हूं, बस जाने से पहले क्याक्या काम निबटाने हैं, यही सोच रही हूं.’’ ‘‘खूब ऐंजौय करना मम्मी, हमारी पढ़ाई के कारण तो आप का जल्दी निकलना भी नहीं होता,’’ कह कर मेरे गाल पर किस कर के मेरी बेटी सुकन्या चली गई. सही तो कह रही है, कोई मायके जाते हुए भी इतना उदास होता है? मायके जाते समय तो एक धीरगंभीर स्त्री भी चंचल तरुणी बन जाती है पर सुकन्या को क्या बताऊं, कैसे दिखाऊं उसे अपने मन पर लगे घाव. 20 साल की ही तो है. दुनिया के दांवपेचों से दूर. अभी तो उस की अपनी अलग दुनिया है, मांबाप के साए में हंसतीमुसकराती, खिलखिलाती दुनिया.

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10. व्यावहारिक दीपाली : सेल्सगर्ल की क्या थी कहानी ?

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दी पाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी. असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके. एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

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महिलाओं में क्यों बढ़ रहा है फाइब्राइड का खतरा ? जानें बचाव के उपाय

अधिकतर महिलाओं में चालीस की उम्र के बाद पीरियड के दौरान रक्तस्राव में बढ़ोत्तरी, कमर, पेड़ू और हाथपैरों में तेज़ दर्द की समस्या पैदा हो जाती है. कई बार मासिक चक्र अनियमित हो जाता है. पीरियड आने पर पेट में असहनीय दर्द होता है. पांच दिन की जगह आठ से दस दिन तक रक्तस्राव बना रहता है. शरीर में खून की कमी हो जाती है. कमजोरी और बुखार बना रहता है. यह सारे लक्षण फाइब्राइड के हैं. फाइब्राइड यानी गर्भाशय की गांठ या रसौली.

पैंतालीस और पचास आयुवर्ग की महिलाएं पीरियड के अनियमित होने या अत्यधिक रक्तस्राव होने पर सोचती हैं कि यह मीनोपाज से जुड़ी प्रौब्लम है और मीनोपाज के बाद समाप्त हो जाएगी. मगर ऐसा नहीं है. यह सारे संकेत यूटरस में फाइब्राइड की समस्या का संकेत हैं. फाइब्रौइड की समस्या आजकल चालीस पार की महिलाओं में आम होती जा रही है. इसमें गर्भाशय की मांसपेशियों में छोटी-छोटी गोलाकार गांठें बन जाती हैं, जो किसी में कम बढ़ती हैं और किसी में ज्यादा. यह अंगूर के आकार की भी हो सकती है, और बढ़ते-बढ़ते एक फुटबौल का आकार भी ले सकती है. इसकी संख्या भी अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होती है.

फाइब्राइड्स अक्सर हेवी ब्लीडिंग का कारण बनते हैं. गांठें छोटी हों या फिर यूटरस के बाहर हों तो महिला को किसी भी तरह के लक्षण पता नहीं चलते हैं, लेकिन जो फाइब्राइड्स यूटरस के अंदर कैविटी में पैदा होते हैं उनकी वजह से हेवी ब्लीडिंग होने लगती है, इससे इसका पता चलता है. यूटरस के अन्दर पाये जाने वाले फाइब्राइड्स को सबम्यूकस फाइब्राइड्स कहते हैं. ऐसे बड़े फाइब्राइड्स जो यूटरस के साइज और उसकी कैविटी को बड़ा कर देते हैं अत्यधिक ब्लीडिंग का कारण बनते हैं. अधिक ब्लीडिंग होने से महिला में रक्त की कमी हो जाती है और वह एनीमिया की शिकार हो जाती है. एनीमिया होने से महिला को कमजोरी, बदनदर्द, बुखार और अन्य गम्भीर रोग लग जाते हैं. फाइब्रॉइड एक तरह से गर्भाशय का ट्यूमर है, जो कैंसर का कारण भी बन सकता है. 0.2 प्रतिशत मामलों में कैंसर होने की आशंका होती है. इसलिए इसको नजरअंदाज करना खतरनाक है.

फाइब्राइड होने की वजहें

मीनोपाज का वक्त करीब आता है तो पीरियड कई बार अनियमित हो जाता है, लेकिन यह लक्षण फाइब्राइड उत्पन्न होने के भी हो सकते हैं, इसलिए डौक्टर को दिखा लेना उपयुक्त है. डौक्टरों का मानना है कि भारत में हर आठवीं महिला फाइब्राइड की समस्या से जूझ रही है. उन महिलाओं को फाइब्राइड होने की संभावना अधिक होती है, जो लंबे समय तक शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाती हैं. अविवाहित युवतियों में यह आम समस्या है, जो तीस साल की उम्र के बाद ही परेशान करने लगती है. डॉक्टर्स का कहना है कि एक उम्र विशेष पर शरीर के भीतरी अंगों की अपनी जरूरत पनपती है और जब वह पूरी नहीं होती तो फाइब्रॉइड की समस्या जन्म लेती है. इसी से जुड़ा यह तथ्य है कि शरीर जब बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार होने लगता है तब ढेर सारे हार्मोनल परिवर्तन होते हैं, उन परिवर्तनों के अनुसार जब शरीर बच्चे को जन्म नहीं दे पाता है तो इस तरह की परेशानी सामने आती है. जो महिलाएं लंबे समय तक गर्भवती नहीं होतीं, उनके पेट में इस तरह की गाठें बनने लगती हैं. इसके अलावा जिन महिलाओं को अपने पति से यौन संतुष्टि नहीं मिलती, उनमें भी यह समस्या देखी जाती है. फाइब्रॉइड का सबसे बड़ा कारण है हमारी बदलती अनियमित जीवनशैली और तनाव.

तकरीबन 50 फीसदी महिलाओं को उनके जीवन में कभी न कभी यूटराइन फाइब्राइड्स होता है, लेकिन ज्यादातर महिलाओं को इसका पता ही नहीं चलता क्योंकि शुरुआती तौर पर इसका कोई लक्षण नजर नहीं आता. दो तिहाई मामले ऐसे होते हैं, जिनमें इसका कोई लक्षण सामने नहीं आता. डिलिवरी से पहले होने वाले अल्ट्रासाउंड या किसी और जांच में इसका पता चल जाता है. कुछ महिलाओं में गर्भाशय की गांठ छिपी रहती है और अल्ट्रासाउंड के बाद ही पकड़ में आती है. छोटी गांठें गर्भाशय में काफी पायी जाती हैं. ये अगर साइज में बहुत बड़ी हो जाएं तो महिला को गर्भ धारण करने में परेशानी होती है और उसे बार-बार मिसकैरिज होने लगता है.

कुछ महिलाओं में फाइब्राइड होने पर ज्यादा समस्याएं नहीं होती हैं. यदि ये कैंसर बनाने वाली न हों, तो डॉक्टर इन्हें बिना इलाज के ऐसे ही पड़े रहने देते हैं. मीनोपाज के बाद यह गांठें अपने आप ही सूख कर झड़ जाती हैं. लेकिन जब फाइब्राइड के लक्षण दिखने लगते हैं और पीरियड में समस्या पैदा होने लगती है, तो ऐसे में इन्हें निकलवा देना ही ठीक है. यह गांठे साइज में किस तेजी से बढ़ रही हैं, डौक्टर्स इस पर नजर रखते हैं और उसी हिसाब से इसका ट्रीटमेंट किया जाता है.

फाइब्राइड के लक्षण

  • पीरियड्स के दौरान भारी मात्रा में ब्लीडिंग.
  • पीरियड्स स्वाभाविक रूप से तीन से पांच दिन दिन न होकर आठ-दस दिनों तक चलते रहें.
  • पीरियड्स के दौरान पेट के नीचे के हिस्से में तेज दर्द महसूस हो.
  • पीरियड्स खत्म होने के बाद भी बीच-बीच में प्राइवेट पार्ट से खून आने की शिकायत बनी रहती हो.
  • शरीर में कमजोरी महसूस होती हो.
  • प्राइवेट पार्ट से बदबूदार डिस्चार्ज होता हो जो अक्सर फाइब्राइड्स में इन्फेक्शन होने की वजह से होता है.
  • कभी पेट में अचानक दर्द उठता हो, जो गांठ या रसौली के भीतर घूमने से होता है.
  • कब्ज रहता हो, जो रसौली के बढ़ने से बड़ी आंत व मलाशय पर पड़ने वाले भार के कारण होता है.
  • पेशाब रुक-रुककर आता हो और बार-बार जाना पड़ता हो.
  • गर्भधारण में बाधा आती हो. गर्भ ठहरने पर गर्भपात हो जाता हो.

फाइब्राइड का इलाज

शुरुआती अवस्था में फाइब्राइड का पता नहीं चलता है. कई माह तक पीरियड का अनियमित होना, कब्ज रहना, पेशाब बार-बार और बेहद जलन के साथ होना इसके शुरुआती लक्षण हैं, लेकिन अक्सर महिलाएं इन लक्षणों को नजरअंदाज कर देती हैं. डॉक्टर्स भी इन लक्षणों को अक्सर यूरिनेरी इंफेक्शन मानकर उसकी दवा दे देते हैं. जब अचानक हैवी ब्लीडिंग और तेज दर्द होना शुरू हो जाता है और मासिक स्राव दस से पंद्रह दिन तक बने रहते हैं तब महिलाएं सचेत होती हैं. कई दफा दस-दस दिन के अंतर पर ही पीरियड शुरू हो जाता है और कई-कई दिनों तक बना रहता है. यह साफ संकेत है कि आपको फाइब्रॉइड की समस्या है. इसकी पुष्टि डॉक्टर अल्ट्रा साउंड या एमआरआई के द्वारा करते हैं.

फाइब्राइड के ट्रीटमेंट के अनेक तरीके हैं, जो फाइब्राइड के साइज और प्रकृति पर निर्भर करते हैं. जो युवतियां गर्भवती होना चाहती हैं उनमें फाइब्राइड्स के साइज को कम करने के लिए हारमोंस के इंजेक्शन दिये जाते हैं. अन्य महिलाओं में सर्जरी के द्वारा फाइब्राइड्स को निकाला जाता है अथवा पूरा गर्भाशह ही ऑपरेट करके निकाल देते हैं. अब ऐसे नये इलाज भी आ गये हैं जिनमें यूटरस के साथ छेड़छाड़ किये बिना भी फाइब्राइड्स को निकाला जा सकता है.

इन ट्रीटमेंट्स में मायोलाएसिस यानी लेजर रिमूवल, मायोमेक्टॉमी यानी सर्जिकल रिमूवल और यूटराइन आर्टरी एंबोलाइजेशन अर्थात नौन सर्जिकल ट्रीटमेंट-फोम का इंजेक्शन धमनियों में दिया जाता है और फाइब्राइड्स में होने वाली ब्लड सप्लाई को काट दिया जाता है. जिससे इन गांठों का साइज बढ़ना रुक जाता है और यह सिकुड़ कर नकारा हो जाती हैं.

बिना सर्जरी वाले ट्रीटमेंट में रेडियो फ्रीक्वेंसी के द्वारा भी ट्यूमर को नष्ट कर सकते हैं. दूसरे ट्रीटमेंट में एमआरआई की मदद से अल्ट्रासाउंड सर्जरी की जाती है, जिसमें फाइब्राइड्स को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ कर शरीर से बाहर खींच लिया जाता है. इस तरह के ट्रीटमेंट अच्छे अस्पतालों में प्रशिक्षित डॉक्टरों से लेना ही बेहतर है. यह बड़े खर्च वाला ट्रीटमेंट है, इसलिए कई अस्पतालों में इसके रेट का पता लगा लेना ठीक होगा.

मेरे मुंह से दुर्गंध आती है, मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी उम्र 22 साल है. मेरी समस्या यह है कि मैं रोज अच्छी तरह से ब्रश करता हूं, फिर भी मेरे मुंह से दुर्गंध आती है. इस की क्या वजह हो सकती है?

जवाब

धूम्रपान, मुंह का सूखापन, मसूड़ों की बीमारी, साइनस के कारण भी मुंह में बदबू की समस्या हो सकती है. इस का मुख्य कारण बैक्टीरिया होते हैं, जो दातों के बीच पैदा होते हैं, इसलिए नियमित रूप से दांतों के साथसाथ जीभ की सफाई करना जरूरी होता है. वैसे, पानी कम पीने की वजह से भी मुंह में बदबू की समस्या पैदा हो जाती है.

यदि आप के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है तो जब भी कुछ खाएं तो माउथवौश से कुल्ला करें. थोड़ीथोड़ी देर में पानी पीते रहें, इस से आप के मुंह में ताजगी रहेगी. रोजना आप सरसों के तेल में नमक मिला कर मसूड़ों की मसाज कर सकते हैं. इस से मसूड़े स्वस्थ रहेंगे और मुंह से बदबू भी खत्म होने लगती है.

भुनी सौंफ एक अच्छी माउथ फ्रैशनर है. इसे मुंह में रख कर चबाने से मुंह की दुर्गंध दूर हो जाती है. खट्टे फलों में विटामिन सी होता है जो बैक्टीरिया आदि से लड़ कर मुंह की दुर्गंध को दूर भगाने में असरदार साबित होता है. इसलिए नीबू, संतरा, अंगूर आदि फल खाएं और बदबू को दूर भगाएं.

ग्रीन टी के इस्तेमाल से मुंह की बदबू को कम किया जा सकता है, इस में एंटीबैक्टीरियल, कंपोनैंट होते हैं जिन से दुर्गंध दूर होती है.

तुलसी के पत्तों को चबा सकते हैं. इस से मुंह में किसी तरह का घाव है तो तुलसी में ऐसे गुण होते हैं जो घाव को ठीक करने में मदद करेंगे.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

भ्रमित चीन और चीनी

अमेरिका के कैलिफोर्निया राज्य में सैनडिएगो के पास तिरपाल के टैंटों में इधरउधर से कागज-लकड़ी बटोर कर रह रहे कुछ हजार एक एशियाई देश के लोग अमेरिका की बौर्डर अथौरिटी से बुलावे का इंतजार कर रहे थे. उन सब का सपना है कि वे अपना देश छोड़ कर आए हैं और अमेरिका में उन्हें पनाह मिलेगी. उन  के देश से पिछले 11 महीनों में अवैध रूप से घुसने पर 31 हजार लोगों को अमेरिका की पुलिस ने पकड़ा था.

न, न, ये एशियाई न भारत के हैं, न पाकिस्तान के, न बंगलादेश के, न फिलीपींस, अफगानिस्तान, वियतनाम या इंडोनेशिया के. ये हैं चीन के, उस चीन के जिस के महाबली शी जिनपिंग हैं, जो दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था पर एकछत्र राज कर रहे हैं और जहां न भुखमरी है, न जातिव्यवस्था का कहर.

मगर ये चीनी चीन से भाग कर इसलिए आ रहे हैं क्योंकि ये वहां की कम्युनिस्ट पार्टी और शासक शी जिनपिंग की तानाशाही से त्रस्त हैं. ये चीन में व्यक्तिगत आजादी न होने से, अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ जाने से और गांवों में नौकरियां न होने से परेशान हैं. चीन में बढ़ती आर्थिक असमानता इन्हें खा रही है और ये अपने सरकारी टूटेफूटे घर छोड़ कर थोड़ीबहुत जमापूंजी को खर्च कर के अमेरिका में बसने का सपना ले कर ‘महान’ चीन को छोड़ आए हैं.

ये चीनी याचक उतने नहीं हैं जितने पूरे दक्षिण अमेरिका से आने को इच्छुक हैं. ये भारतीयों से भी बहुत कम हैं. पर ये चीन के दावों की पोल खोलने को काफी हैं. ये दर्शा रहे हैं कि आदमी को सिर्फ सरकार का खाना ही नहीं चाहिए होता, उसे नारे नहीं चाहिए, वह अपना अहं भी साथ ले कर पैदा होता है और वह वहां मरना चाहता है जहां उसे सरकार की बड़ी मशीनरी का छोटा-बेकार का हिस्सा न माना जाए. वह मजबूरी में ही अपने संगेसंबंधियों को छोड़ कर अनजान देश में, दूसरी भाषा के लोगों के बीच, दोयम दर्जे का नागरिक बन कर रहना स्वीकार कर रहा है.

न तो शी जिनपिंग और न ही नरेंद्र मोदी यह समझ पा रहे हैं कि लाल झंडों या भगवा झंडों से सारी जनता को बहकाया या भेड़ों के रेवड़ की तरह हांका नहीं जा सकता है. यह संभव ही नहीं है. पकड़े गए  ये 31,000 चीनी ‘महान’ चीन की पोल खोल चुके हैं और भारत से वहां जाने वाले ‘डंकी’ अब शाहरुख खान की फिल्म से पहचाने जाने लगे हैं.

शी जिनपिंग सोच रहे हैं कि कुछ शहरों की उन्नति सारी जनता को देश के बारे में जोशीला बना देगी, पर यह भ्रम है वैसा ही जैसा हमारे धार्मिक दानदक्षिणापंथी नेता सोचते हैं कि राममंदिर बनने से हिंदुओं का सीना तन जाएगा. भारतीय तो खैर गरीब हैं पर हम से पांचछह गुना अमीर चीनी भी ऐसा ही सोचते हैं, यह जानने की बात है और हैरानी की भी.

नक्काशी: भाग 2- मयंक और अनामिका के बीच क्या हुआ था?

अनामिका को मयंक गुप्ता ज्यादा ही प्रबुद्ध और और विनम्र लगते थे. 6 फुट से भी लंबे मयंक गुप्ता पर्वत समान अडिग, गहन रूप से शांत और सहज प्रकृति के व्यक्ति थे. उन के स्वभाव में एक नरमी थी जो मिस अनामिका को अपनी शादीशुदा जिंदगी में कभी नहीं मिली थी.

“और आज का ‘थौट औफ द डे’ क्या है?” अनामिका ने बात बदलते हुए मज़ाकिया लहज़े में पूछा.

“आज लामा सोग्याल नक्काशी सिखाते हुए बता रहे थे कि एक महत्त्वपूर्ण सूत्र यह भी है कि अपने पूरे अस्तित्व के साथ संपूर्णता पाने का प्रयत्न करें, मतलब जीवन की अनंत व स्वाभाविक भव्यता के बीच जीने के प्रयत्न करना.”

“हां, क्योंकि सबकुछ अस्थाई है, प्रोफैसर गुप्ता,” अनामिका बोलीं.

बाहर सैलानियों की चहलकदमी बढ़ गई थी. कुछ विदेशी पर्यटक नौर्लिंग में इकट्ठा होना शुरू हो गए थे. इस वक्त रैस्तरां में जो इजराइली संगीत बज रहा था उस की धुन अनामिका को विशेष प्रिय थी. जब हम फुरसत में होते हैं तो संगीत अपनी उपस्थिति बहुत अलौकिक तरीके से दर्ज करवाता है.

दोनों संगीत सुनते रहे और कुछ देर बाद विदा ली.

मयंक गुप्ता अनामिका की आंखों की तरलता देखते रहते थे और मन में सोचते रहते थे कि अनामिका जी जैसे सरल लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं. अनामिका इतनी अद्भुत थीं कि पिछले 2 महीनों से हर पल उन को उन्हीं का खयाल बना रहता था. अब तो नौर्लिंग में सुबह की कौफी पीने के लिए आना और अनामिका जी से बातें करना, जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन रहा था.

अनामिका एक घंटे की ध्यान की क्लास के लिए वहां से 2 किलोमीटर दूर धर्मकोट के तुषिता सैंटर जाती थीं.

आज भी वे उस तरफ सड़क पर पैदल चलती जा रही थीं. यह इलाका भारत का हिस्सा तो बिलकुल भी नहीं लगता था और यही बात इस को विशिष्ट बनाती थी. बीचबीच में मठों से घंटों की आवाज और हवाओं में लाल चंदन की धूप की खुशबू दिव्यता का एहसास करवाती.

कुछ तिब्बती महिलाएं वहां से गुजर रही थीं, जो अब अनामिका को पहचानने लग गई थीं. सब उन को ‘ताशीडेलेक’ बोल कर अभिवादन करती हुई आगे गुजर रही थीं. तिब्बती महिलाएं भड़कीले लाल, नीले, पीले वस्त्र पहनती हैं लाला मूंगा और हरे फिरोजा पत्थर की मालाओं के साथ, जो अनामिका को बहुत पसंद थे.

अब अनामिका तुषिता सैंटर के सामने थीं. बांसुरी, तुरही, घड़ियाल की आवाजें आ रही थीं. इस का मतलब कि सुबह का ध्यान सत्र शुरू होने वाला था. आकाश नीला, विस्तृत और सुंदर दिख रहा था. बादल के छोटेछोटे टुकड़े तैर रहे थे जैसे किसी पेंटर ने एक बड़े कैनवास पर सफेद रंग का ब्रश फेर दिया हो. अंदर धातु के अगरदान रखे हुए थे जिन से तेज खुशबूदार धुआं ऊपर की ओर उठ रहा था. कुछ लोग प्रार्थनाचक्र घुमा रहे थे. अनामिका ने भी चक्र घुमाया और अंदर चली गईं.

अगले दिन मयंक गुप्ता नौर्लिंग नहीं आए, न ही उन्होंने फोन किया. अनामिका उन का इंतजार करती रहीं और फिर सुबह के सत्र के लिए तुषिता की तरफ चली गईं. वापस आते वक्त वे मयंक गुप्ता को फोन मिलाने का सोचने लगीं लेकिन बाद में फोन वापस बैग में डाल कर उन के घर की तरफ मुड़ गईं. अनामिका को फोन का उपयोग असहज कर देता था, इस का कारण उन को भी नहीं पता था. फोन उन्होंने सिर्फ अपने बेटे से बात करने के लिए ही रखा था.

अंत में वे मयंक गुप्ता के घर के सामने खड़ी थीं. दरवाजा उन के तिब्बती सहायक जामयांग ने खोला और मिस अनामिका सीधे मयंक गुप्ता के कमरे की तरफ चली गईं. कमरे के अंदर चीजें व्यवस्थित थीं. फर्श और दीवारों पर लकड़ी का काम था और अनेक मक्खन के दीये जल रहे थे. सबकुछ साफ, सुंदर और रोशन.

मयंक गुप्ता कोई किताब पढ़ रहे थे और वह भी इतने ध्यान से कि उन को अनामिका के वहां होने तक का एहसास न हुआ. वहां तरहतरह की किताबें थीं, ‘दि सर्मन औन दि माउंट’, ‘राबिया-बसरी के गीत’, ‘मैडम ब्‍लावट्स्‍की की सेवन पोर्टलस एफ़ समाधि’ इत्यादि. दूसरी तरफ टेबल पर नक्काशी का समान- छेनी, गोज और कुछ अलगअलग आकार के लकड़ी के टुकड़े पड़े थे. बहुत ही कलात्मक और बौद्धिक शौक थे मयंक गुप्ता के.

“प्रोफैसर गुप्ता,” अनामिका जी धीमे से बोलीं.

मयंक गुप्ता एकदम से चौंक गए. उन को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि अनामिका उन के कमरे में, उन के सामने खड़ी थीं.

अनामिका को सही से पता था कि मयंक गुप्ता उन को किस रूप में देखते हैं, लेकिन फिर भी मयंक गुप्ता के सान्निध्य में जो नरमी और आत्मीयता उन को मिलती थी वह बहुत अमूल्य और अनोखी थी. चट्टान जैसे मजबूत लेकिन जल की तरह तरल मयंक गुप्ता के मन में कई बार अनामिका का हाथ पकड़ कर बैठने की इच्छा उठती थी लेकिन उन्होंने कभी कोशिश नहीं की. वैसे भी, प्रेम कोई निश्चित प्रयास नहीं है, इस में सहज भाव से डूबना होता है, समाहित होना होता है.

“आप आज आए नहीं, मैं इंतजार कर रही थी.”

“ओह, मेरा इंतजार. दरअसल, मैं आज नक्काशी की क्लास भी नहीं गया. कोई खास वजह नहीं है. बस, मन ही नहीं था.”

“क्या पढ़ रहे थे आप?”

रिवाजों की दलदल : क्या श्री को जिम्मेदार ठहरा पाई रमा ?

गाड़ी छूटने वाली थी तभी डब्बे में कुछ यात्री चढ़े. आगेआगे कुली एक व्यक्ति को उस की सीट दिखाने में सहायता कर रहा था और पीछे से 2 बच्चों के साथ जो महिला थी उसे देख कर रजनी स्तब्ध रह गईं.

अपना सामान आरक्षित सीट पर जमा कर उस महिला ने अगलबगल दृष्टि घुमाई और रजनी को देख कर वह भी चौंक सी उठी. एक पल उस ने सोचने में लगाया फिर निकट आ गई.

‘‘नमस्ते, आंटी.’’

‘‘खुश रहो श्री बेटा,’’ रजनी ने कुछ उत्सुकता, कुछ उदासी से उसे देखा और बोलीं, ‘‘कहां जा रही हो?’’

श्री ने मुसकरा कर अपने परिवार की ओर देखा फिर बोली, ‘‘हम दिल्ली जा रहे हैं.’’

‘‘कहां हो आजकल?’’

‘‘दिल्ली में यश एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. लखनऊ तो मम्मी के पास गए थे,’’ इतना कह कर वह उठ कर अपनी सीट पर चली गई. यश ने सीट पर अखबार बिछा कर एक टोकरी रख दी थी. बच्चे टोकरी से प्लेट निकाल कर रख रहे थे.

‘‘अभी से?’’ श्री ने यश को टोका था.

‘‘हां, खापी कर चैन से सोएंगे,’’ यश ने कहा तो वह मुसकरा कर बैठ गई. सब की प्लेट लगा कर एक प्लेट उस ने रजनी की ओर बढ़ा दी, ‘‘खाइए, आंटी.’’

‘‘अरे, नहीं श्री, मैं घर से खा कर चली हूं. तुम लोग खाओ,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा और फिर आंखें मूंद कर वह अपनी सीट पर पैर उठा कर बैठ गईं.

कुछ यात्री उन की बर्थ पर बैठ गए थे. शायद ऊपर की बर्थ पर जाने का अभी उन लोगों का मन नहीं था इसलिए रजनी भी लेट नहीं पा रही थीं.

श्री का परिवार खातेखाते चुटकुले सुना रहा था. रजनी ने कई बार अपनी आंखें खोलीं. शायद वह श्री की आंखों में अतीत की छाया खोज रही थीं पर वहां बस, वर्तमान की खिलखिलाहट थी. श्री को देखते ही फिर से अतीत के साए बंद आंखों में उभरने लगे है.

श्रीनिवासन और उन का बेटा सुभग कालिज में एकसाथ पढ़ते थे. जाने कब और कैसे दोनों प्यार के बंधन में बंध गए. उन्हें तो पता भी नहीं था कि उन के पुत्र के जीवन में कोई लड़की आ गई है.

सुभग ने बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद प्रशासनिक सेवा का फार्म भर दिया और पढ़ाई में व्यस्त हो गया. सुभग की दादी तब तक जीवित थीं. उन के सपनों में सुभग पूरे ठाटबाट से आने लगा. कहतीं, ‘देखना, कितने बड़ेबड़े घरानों से इस का रिश्ता आएगा. हमारा मानसम्मान और घर सब भर जाएगा.’

उन के सपनों में अपने पोते का भविष्य घूमता रहता. सुभग के पापा तब कहते, ‘अभी तो सुभग ने खाली फार्म भरा है मां, अगर उस का चुनाव हो गया तो कुछ साल ट्रेनिंग में जाएंगे.’

‘अरे तो क्या? बनेगा तो जरूर एक दिन कलेक्टर,’ मांजी अकड़ कर कह देतीं.

श्री के पति ने खापी कर बर्थ पर बिस्तर बिछा लिया था. रजनी ने देखा अपनी गृहस्थी में श्री इतनी अधिक मग्न है कि उस ने एक बार भी रजनी से सुभग के बारे में नहीं पूछा. क्या उसे सुभग के बारे में कुछ भी पता नहीं है. मन ने तर्क किया, वह क्यों सुभग के बारे में जानने की चेष्टा करेगी. जो कुछ हुआ उस में श्री का क्या दोष. आह सी निकल गई. दोष तो दोनों का नहीं था, न श्री का न सुभग का. तो फिर वह सब क्यों हुआ, आखिर क्यों? कौन था उन बातों का उत्तरदायी?

‘‘बहनजी, बत्ती बुझा दीजिए,’’ एक सहयात्री ने अपनी स्लीपिंग बर्थ पर पसरने से पहले रजनी से कहा.

रजनी को होश आया कि ज्यादातर यात्री अपनीअपनी सीट पर सोने की तैयारी में हैं. वह अनमनी सी उठीं और तकिया निकाल कर बत्ती बुझाते हुए लेट गईं.

हलकीहलकी रोशनी में रजनी ने आंखें बंद कर लीं पर नींद तो कोसों दूर लग रही थी. कई वर्ष लगे थे उन हालात से उबर कर अपने को सहज करने में पर आज फिर एक बार वह दर्द हर अंग से जैसे रिस चला है. यादों की लहरें ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा समुद्र उफन रहा था.

सुभग ने जिस दिन प्रशासनिक अधिकारी का पद संभाला था उसी दिन से मांजी ने शोर मचा दिया. रोज कहतीं, ‘इतने रिश्ते आने लगे हैं हम लड़कियों के चित्र मंगवा लेते हैं. जिस पर सुभग हाथ रख देगा वही लड़की ब्याह लाएंगे.’

सुभग ने भी हंस कर अपनी दादी के कंधे पर झूलते हुए कहा था, ‘सच दादी. फिर वादे से पलट मत जाइएगा.’

‘चल हट.’

घर के आकाश में सतरंगे सपनों का इंद्रधनुष सा सज गया था. खुशियां सब के मन में फूलों सी खिल रही थीं.

पापा ने अपने बेटे के लिए एक बड़ी पार्टी दे रखी थी. उन के बहुत से मित्रों में कई लड़कियां भी थीं. रजनी ने बारबार अनुभव किया कि सुभग के मित्र उसे श्री की ओर संकेत कर के छेड़ रहे थे. सुभग और श्री की मुसकराहट में भी कुछ था जो ध्यान खींच रहा था.

पार्टी के बाद सुभग उसे घर तक छोड़ने भी गया था. लौटा तो रजनी ने सोचा कि बेटे से श्री के बारे में पूछ कर देखें. पर उस से पहले उस की दादी एक पुलिंदा ले कर आ पहुंचीं.

सुभग ने कहा, ‘दादी, यह मुझे क्यों दिखा रही हैं?’

‘शादी तो तुझे ही करनी है फिर और किसे दिखाएं.’

‘शादी…अभी से…’ सुभग कुछ परेशान हो उठा.

‘शादी का समय और कब आएगा?’ दादी का प्यार सागर का उफान मार रहा था.

‘नहीं, दादी, पहले मुझे सैटल हो जाने दीजिए फिर मैं स्वयं ही…’ वह बात अधूरी छोड़ कर जाने लगा तो दादी ने रोका, ‘हम कुछ नहीं जानते. कुछ तसवीरें पसंद की हैं. तू भी देख लेना फिर उन की कुंडली मंगवा लेंगे.’

‘कुंडली,’ सुभग चौंक कर घूम गया था. जैसेजैसे उस की दादी का उत्साह बढ़ता गया वैसेवैसे सुभग शांत होता गया.

एक दिन वह अपने मन के सन्नाटे को तोड़ते हुए श्री को ले कर घर आ गया. रजनी चाय बनाने जाने लगीं तो सुभग ने बड़े अधिकार से श्री से कहा, ‘श्री, तुम बना लो चाय.’ तो वह झट से उठ खड़ी हुईं. उस के साथ ही सुभग ने भी उठते हुए कहा, ‘‘इसे रसोई में सब दिखा दूं जरा.’’

उस दिन उस की दादी का ध्यान भी इस ओर गया. श्री के जाने के बाद उन्होंने कहा, ‘शुभी, यह मद्रासी लड़की तेरी दोस्त है या कुछ और भी है?’

वह धीरे से मुसकराया. ‘आप ने वादा किया है न दादी कि जिस लड़की पर मैं हाथ रख दूंगा आप उसे ही ब्याह कर इस घर में ले आएंगी.’

दादी ने कदाचित अपने मन को संभाल लिया था. बोलीं, ‘कायस्थ घराने में एक मद्रासी लड़की तो आजकल चलता है लेकिन अच्छी तरह सुन लो, कुंडली मिलवाए बिना हम ब्याह नहीं होने देंगे.’

रजनी ने धीरे से कहा, ‘अम्मांजी, अब कुंडली कौन मिलवाता है. जो होना होता है वह तो हो कर ही रहता है.’

‘चुप रहो, बहू. हमारा इकलौता पोता है. हम जरा भी लापरवाही नहीं बरतेंगे,’ फिर सुभग से बोलीं, ‘तू इस की मां से कुंडली मांग लेना.’

‘दादी, जैसे आप को अपना पोता प्यारा है, उन्हें भी तो अपनी बेटी उतनी ही प्यारी होगी. अगर मेरी कुंडली खराब हुई और उन्होंने मना कर दिया तो.’

‘कर दें मना, तुझे किस बात की कमी है?’

‘लेकिन दादी…’

उसे बीच में ही टोक कर दादी बोलीं, ‘अब कोई लेकिनवेकिन नहीं. चल, अब खाना खा ले.’

सुभग का मन उखड़ गया था. धीरे से बोला, ‘अभी भूख नहीं है, दादी.’

रजनी जानती थी कि सुभग ने अपने बड़ों से कभी बहस नहीं की. उस की उदासी रजनी को दुखी कर गई थी. एकांत में बोलीं, ‘क्यों डर रहा है. सब ठीक हो जाएगा. तुम दोनों की कुंडली जरूर मिल जाएगी.’

‘और यदि नहीं मिली तो क्या करेंगे आप लोग?’ उस ने सीधा प्रश्न ठोक दिया था.

‘इतना निराशावादी क्यों हो गया है. दादी का मन रह जाने दे, बाकी सब ठीक होगा,’ फिर धीरे से बोलीं, ‘श्री मुझे भी पसंद है.’

गाड़ी धीरेधीरे हिचकोले खा रही थी. शायद कोई स्टेशन आ गया था. गाड़ी तो समय पर अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाती है पर इनसान कई बार बीच राह में ही गुम हो जाता है. आखिर ये रिवाजों के दलदल कब तक पनपते रहेंगे?

वह फिर अतीत की उस खाई में उतरने लगीं जिस से बाहर निकलने की कोई राह ही नहीं बची थी.

दादी के हठ पर वह श्री की कुंडली ले आया था लेकिन उस ने रजनी से कह दिया था, ‘मम्मा, मैं यह सब मानूंगा नहीं. अगर श्री से शादी नहीं तो कभी भी शादी नहीं करूंगा.’

फिर सब बदलता ही चला गया. श्री की कुंडली में मंगली दोष था और भी अनेक दोष पंडित ने बता दिए. दादी ने साफ कह दिया, ‘बस, फैसला हो गया. यह शादी नहीं होगी, एक तो लड़की मंगली है दूसरे, कुंडली में कोई गुण भी नहीं मिल रहे हैं.’

‘मैं यह सब नहीं मानता हूं,’ सुभग ने कहा.

‘मानना पड़ेगा,’ दादी ने जोर दिया.

‘हमारे पोते पर शादी के बाद कोई भी मुसीबत आए यह नहीं हो सकता है.’

‘आप को क्या लगता है दादी, उस से शादी न कर के मैं अमर हो जाऊंगा.’

‘कैसे बहस कर रहा है उस मामूली सी लड़की के लिए. कितनी सुंदर लड़कियों के रिश्ते हैं तेरे लिए.’

‘दादी, सुंदरता समाप्त हो सकती है पर अच्छा स्वभाव सदा बना रहता है.’

सुभग का तर्क एकदम ठीक था पर उस की दादी का हठ सर्वोपरि था. सुभग के हठ को परास्त करने के लिए उन्होंने आमरण अनशन पर जाने की धमकी दे दी.

दिन भर दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे. दादी बिना अन्नजल के शाम तक बेहाल होने लगीं. वह मधुमेह की रोगी थीं. पापा ने घबरा कर सुभग के सामने दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘बेटा, तुम्हें तो बहुत अच्छी लड़की फिर भी मिल ही जाएगी पर मुझे मेरी मां नहीं मिलेगी.’

सुभग ने पापा की जुड़ी हथेली पर माथा टिका दिया.

‘पापा, दादी मुझे भी प्यारी हैं. यदि इस समस्या का हल किसी एक को छोड़ना ही है तो मैं श्री को छोड़ता हूं.’

पापा ने उसे गले से लगा लिया. जब उस ने सिर उठाया तो उस का चेहरा आंसुआें में डूबा हुआ था.

पापा से अलग हो कर उस ने कहा, ‘पापा, एक वादा मैं भी चाहता हूं. अब आप लोग कहीं भी मेरे विवाह की बात नहीं चलाएंगे. अगर श्री नहीं तो और कोई भी नहीं?’

पापा व्यथित से उसे देखते रह गए. बेटे से कुछ कह पाने की स्थिति में तो वह भी नहीं थे. जब दादी कुछ स्वस्थ हुईं तो पापा ने कहा, ‘मां, उसे संभालने का अवसर दीजिए. कुछ मत कहिए अभी.’

1 माह बाद दादी ने फिर कहना आरम्भ कर दिया तो सुभग ने कहा, ‘दादी, जब तक मैं नई पोस्ट और नई जगह ठीक से सैटल नहीं होता, प्लीज और कुछ मत कहिए.’

बहुत शीघ्र अपने पद व प्रतिष्ठा से वह शायद ऊब गया और नौकरी छोड़ कर दुबई चला गया. शायद विवाह से पीछा छुड़ाने की यह राह चुनी थी उस ने.

इसी तरह टालते हुए 3 वर्ष और बीत गए थे. सुभग दुबई में अकेले रहता था. फोन भी कम करता था. वहां की तेज रफ्तार जिंदगी में पता नहीं ऐसा क्या हुआ, एक दिन उस के आफिस वालों ने फोन से दुर्घटना में उस की मृत्यु का समाचार दिया.

जाने कब रजनी की आंख लग गई थी. कुछ शोर से आंख खुली तो पता चला दिल्ली का स्टेशन आने वाला है.

उन्होंने झट से चादर तहाई, बैग व पर्स संभाला और बीच की सीट गिरा कर बैठ गईं. श्री भी परिवार सहित सामान समेट कर स्टेशन आने की प्रतीक्षा कर रही थी. उन की आंखों में पछतावे के छोटेछोटे तिनके चुभ रहे थे. दादी का सदमे से अस्वस्थ हो जाना और उन का वह पछतावा कि अगर उसे इतना ही जीना था तो मैं ने क्यों उस का दिल तोड़ा?

दादी का वह करुण विलाप उन की अंतिम सांस तक सब के दिल दहलाता रहा था. काश, कभीकभी इस से आगे कुछ होता ही नहीं, सब शून्य में खो जाता है.

स्टेशन आ गया था. जातेजाते श्री ने उन का बैग थाम लिया था. स्टेशन पर उतर कर बैग उन्हें थमाया. उन की हथेली दबा कर धीरे से कहा, ‘‘धीरज रखिए, आंटी. मुझे मालूम है कि आप अकेली रह गई हैं,’’ उस ने अपना फोन नंबर व पते का कार्ड दिया और बोली, ‘‘मैं पटेल नगर में रहती हूं. जबजब अपने भाई के यहां दिल्ली आएं हमें फोन करिए. एक बार तो आ कर मिल ही सकती हूं.’’

रजनी ने भरी आंखों से उसे देखा. लगा, श्री के रूप में सुभग उस के सामने खड़ा है और कह रहा है, ‘मैं कहीं नहीं गया मम्मा.’

बेवकूफ : क्यों अंकित खुद अपना घर तबाह कर रहा था ?

अंकित जब इस कसबे में प्रवक्ता हो कर आया तो सालभर पहले ब्याही नीरा को भी साथ लेता आया था. नीरा के मन में बड़ी उमंग थी. कालेज के बाद सारे समय दोनों साथ रहेंगे. संयुक्त परिवार में स्वच्छंदता की जो चाह दबी रही उसे पूरी करने की ललक मात्र ने उस की कामनाओं के कमल खिला दिए.

छोटा सा कसबा, छोटा सा घर. घर में पतिपत्नी कहो या प्रेमीप्रेमिका, मात्र 2 प्राणी वैसे ही रहेंगे जैसे किसी घोंसले में बैठे पक्षी भावभरी आंखों में एकदूसरे को निहार कर मुग्ध होते रहते हैं. अतृप्त आकांक्षाओं की पूर्ति का सपना तनमन को सराबोर सा कर रहा था.

नीरा को यह सपना सच होता भी लगा. ब्लौक औफिस के बड़े बाबू सरोजजी की मेहरबानी से मकान की समस्या हल हो गई. शांत एकांत में बनी कालोनी का एक क्वार्टर उन्हें मिल गया और अकेलेपन में नीरा का साथ देने के लिए बड़े बाबू की पत्नी विमला का साथ भी था. विमला ने बड़ी बहन जैसे स्नेह से नीरा की आवभगत की थी और उन की बेटी सुगंधा और निर्मला तो जैसे उस की हमउम्र सहेलियां बन गई थीं. दोनों परिवारों में नजदीकियां इतनी जल्दी हो गईं कि कुछ पता ही नहीं चला और जब चला तो नीरा के हाथों के तोते उड़ गए.

नीरा वैसे तो सुगंधा की मुक्त हंसी के साथ उस के मददगार स्वभाव की कायल थी. वह घर के काम में सहायता करती और काम यदि अंकित का होता तो वह और तत्परता से करती. अंकित जब खाने के बाद कपड़े पहन कर कहता, ‘कितनी बार तुम से कहा है कि बटन कपड़े साफ  करने से पहले ही टांक दिया करो.’ सुगंधा तब नीरा के बोलने से पहले ही बोल पड़ती, ‘लाओ, मैं टांक देती हूं. भाभी को तो पहले से ही बहुत काम करने को पड़े हैं. औरत की जिंदगी भी कोई जिंदगी है. कोल्हू के बैल सी जुती रहो रातदिन.’

सुगंधा आंखें  झपकाती हुई जिस तरह अपने मोहक चेहरे पर हंसी और गुस्से का मिलाजुला रूप प्रकट करती वह अंकित को अपना मुरीद बनाने को काफी था. ऐसे में बटन टांकती सुगंधा हौले से अपनी उंगलियां अंकित के चौड़े सीने के बालों पर फिरा देती.

अंकित को लगता, जैसे किसी ने उस के दिल के तारों को छेड़ दिया है, जिस की मधुर  झंकार अपनी थरथराहट देर तक अनुभव कराती रहती.

कभीकभी वह जानबू झ कर बटन तोड़ बैठता ताकि सुगंधा के स्पर्शसुख का आनंद ले सके. ऐसे मौके पर सुगंधा इठला कर कहती, ‘देखती हूं, आजकल तुम्हारे बटन रोजरोज टूटने लगे हैं.’

‘जब कोई टांकने वाली हो तो बटन क्या किसी से पूछ कर टूटेंगे,’ अंकित ने सधे शब्दों में अपनी बात कह दी.

अंकित की बात से सुगंधा की आंखें चमक उठीं. अपने होंठों की मुसकान समेटते हुए उस ने आंखों को ऊपर चढ़ा कर कहा, ‘भाभी का लिहाज कर के मैं बटन टांक देती हूं वरना तुम में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हैं.’

‘वह तो तुम्हीं लोगों के लगे होते हैं, हमारी औकात ही क्या?’ अंकित ने मुसकरा कर कहा तो नीरा चौंक गई.

एक दिन नीरा ने देखा, सुगंधा अंकित के सीने पर उंगली फिरा रही थी और अंकित मुंह से ध?ागा काटती सुगंधा के सिर को सूंघ रहा था. नीरा अब जान पाई कि सुगंधा उस के घर अधिकतर तभी क्यों आती है जब अंकित घर पर होता है.

उस ने सुगंधा के आनेजाने पर गहरी दृष्टि रखनी शुरू की. एक दिन सुगंधा की मां से नीरा बोली, ‘‘चाची, सुगंधा की शादी कब कर रही हो? अभी तो दूसरी बेटी भी ब्याहनी है. बाप के रिटायर होने से पहले दोनों के हाथ पीले हो जाएं तो अच्छा है.’’

‘‘क्या कहूं बहू, आजकल की लड़कियों की जिद तो जानती ही हो. कहती है, पहले एमए करूंगी उस के बाद ब्याह की बात. लोग पढ़ीलिखी लड़की को ज्यादा पसंद करते हैं. अब अंकित से पढ़ाई में सहयोग लेने की बात कर रही थी,’’ विमला ने अपनी भारीभरकम काया को ऊपरनीचे करते हुए कहा.

‘‘यह तो है, पर शादी की उम्र निकल गई तो डिग्रियों को कौन पूछेगा? मेरी सम झ में सुगंधा मु झ से छोटी तो कतई नहीं होगी,’’ नीरा ने ठहरठहर कर कहा.

विमला इस तथ्य से अनभिज्ञ हो ऐसा न था, लेकिन अपनी बेटी की बढ़ती आयु का प्रश्न उसे अपनी लाचारी का बोध करा गया. वह कटुता से बोली, ‘‘ऊपर वाला किसी को बेटी न दे. घरवाले खिलाते हैं, बाहर वालों को तकलीफ होती है. जिस की चाहे जितनी मदद करो, गैर आदमी कभी अपना हुआ है?’’

इस के बाद 2-3 दिन तक सुगंधा अंकित के घर नहीं आई तो अंकित को कुछ अटपटा लगा. नीरा भी दरवाजे पर खड़ी हो कर देखती कि दिनभर उस के घर मंडराने वाली सुगंधा को चैन कैसे पड़ता होगा बिना यहां आए. कहीं वह बीमार तो नहीं पड़ गई?

आखिर तीसरे दिन अंकित ने कालेज से आते समय बड़े बाबू के घर जा कर खोजखबर ली. इस के पहले वह नीरा से पूछना चाहता था मगर कहीं वह संदेह न करने लगे, यह सोच कर नहीं पूछा.

बड़े बाबू घर में नहीं थे, न ही सुगंधा की मां या बहन थी. सूने घर में सुगंधा तकिए के खोल पर कढ़ाई कर रही थी. वह अपने काम में इतना तल्लीन थी कि अंकित ने उस की आंखें बंद कर लीं. वह जान ही न सकी. वह सम झी कि अकेलेपन से ऊब कर नीरा दीदी आई हैं, परंतु जब अंकित ने हथेलियों को हटाने का उपक्रम किया तो उसे उन हाथों के स्पर्श का भान हुआ. वह ‘उई मां’ कहती हुई चौंक कर छिटकी और कमरे के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई. फिर आंखें नचा कर बोली, ‘‘शरारत पर उतारू हो, पहले भाभी से इजाजत ले लेते तो ठीक था.’’

‘‘क्यों, क्या बात है? क्या मु झे जोरू का गुलाम सम झ रखा है,’’ कह कर अंकित उस की ओर बढ़ा, तो ‘न न’ करती सुगंधा उस की बांहों में आ गई. अंकित ने पूछा. ‘‘नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘तुम से नाराज होने का अर्थ खुद अपनेआप से नाराज होना है. 2-3 दिन तुम्हें देखे बिना जैसे काटे हैं, मैं ही जानती हूं. भाभी का वश चलता तो तुम्हारे पैरों में बेडि़यां डाल देतीं,’’ अंकित की गरदन पर सिर रखे सुगंधा सुबक कर बोली.

अंकित ने उस के आंसू पोंछे. सांत्वना देते उस ने हाथ सुगंधा की पीठ पर फिराया तो उस का सारा शरीर जैसे  झन झना उठा. जवानी के मादक स्पर्श और एकांत ने दोनों की सुधबुध हर ली. दोनों आवेश से गुजर रहे थे. दोनों के तनमन जैसे एकदूसरे में समा जाने को बेचैन हो रहे हों.

इसी समय विमला बाजार से आ गई. दोनों को अजीब हालत में देख कर अंकित से बोली, ‘‘घर में अकेली लड़की पा कर उस की इज्जत पर हमला बोलते तुम्हें शर्म नहीं आई? आने दो बड़े बाबू को. तुम्हारी एकएक हरकत न बताई तो कहना. ठीक कर दूंगी, सम झते क्या हो? तुम्हें मकान इसीलिए दिलाया था कि हमारे घर पर ही डाका डालो.’’

घायल नागिन की तरह विमला की फुंफकार देख कर अंकित के होश उड़ गए. वह चुपचाप गरदन नीची कर के बाहर जाने लगा तो मां की नजर बचा कर आंख दबा कर सुगंधा ने उसे गंभीरता से न लेने का संकेत किया.

अंकित घर आया तो उस के हवाइयां उड़ते चेहरे को देख कर नीरा घबरा गई. पहले तो वह निढाल सा पड़ा रहा, फिर अकबक करने लगा तो नीरा घबरा गई और वह विमला चाची को बुलाने चली गई.

विमला ने नीरा की दशा पर तरस खाते हुए कहा, ‘‘चलो, मैं आती हूं. मर्द जात को हजार परेशानियां रहती हैं. कोई बेमन की बात हुई होगी. वह भावुक आदमी है, मन परेशान हो उठा होगा.’’

विमला ने आते ही हंस कर कुछ कहने से पहले अंकित की ओर देखा, फिर हथेलियों से उस का सिर सहला कर कहा, ‘‘क्या तबीयत ज्यादा घबरा रही है? घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा.’’

विमला चाची के पांव छूते हुए अंकित बोला, ‘‘अब आप आ गई हैं तो लगता है मेरी मां आ गई है. अब जी ठीक है, थोड़ा सिरदर्द है.’’

‘‘इसे थोड़ा सिरदर्द कहते हो, ऐसे ही डिप्रैशन की शुरुआत होती है,’’ फिर नीरा से बोली, ‘‘आदमी की इच्छा के विरुद्ध कोई काम जानलेवा हो सकता है.’’

तब तक सुगंधा आ चुकी थी. उस ने धीरेधीरे अंकित का सिर सहलाया, बालों में उंगलियां फिराईं और वह ठीक हो गया.

विमला के इस बदलाव को देख कर अंकित को आश्चर्य हो रहा था. यह आश्चर्य उस ने इशारे से सुगंधा से जाहिर किया तो वह धीरे से बोली, ‘‘मैं ने जान देने की धमकी दी है तब मानी हैं. बस, उन्हें खुश रखने की जरूरत है.’’

अंकित को राहत मिल गई. नीरा रसोई में शायद चाय बना रही थी. विमला चाची को घर में ताला लगाना याद आ गया और वे चली गईं. सुगंधा अंकित का हाथ सहलाते हुई बोली, ‘‘मां दिल की बड़ी साफ हैं. तुम्हारी इतनी बड़ी हरकत  झेल गईं. कल उन के लिए साड़ी और शौल ले कर आना.’’

आत्मीय वातावरण में चाय पी गई. नीरा को लगा, मांबेटी ने उसे उबार लिया है. अब उसे सुगंधा के पढ़ने पर एतराज हो कर भी, एतराज नहीं था. पति की जिंदगी का सवाल जो था.

अंकित की अधिकांश कमाई सुगंधा के घर वालों पर खर्च होते देख कर नीरा को कोफ्त तो होती मगर लाचार थी. दिल कचोट कर रह जाता, पर अंकित के डिप्रैशन में जाने का डर था. सुगंधा रोज देररात तक उस के पास ही पढ़ती और कभी वह स्वयं सुगंधा के घर पढ़ा आता. विमला तो उस पर जैसे बलिहारी जाती.

इधर एक परिवर्तन यह हुआ कि विमला के घर उस का दूर का भतीजा विनोद अकसर आने लगा. सुगंधा भी उस में रुचि लेती थी. यह बात अंकित की सहनशक्ति से बाहर थी. अंकित के सामने ही विनोद पर सुगंधा का पूरा ध्यान देना कुछ अनकही कह रहा था. उसे विनोद का व्यवहार भाई जैसा भी नहीं लग रहा था परंतु सुगंधा इस बाबत कुछ कहने पर उसे बहला कर रूठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारे मन में पाप है. भाई के सामने तुम्हारा ध्यान रख कर मु झे क्या बदनाम होना है?’’

वह अगले 2 दिन तक रूठी रही तो अंकित ने उस से कहा, ‘‘आखिर तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘नीरा भाभी को जेवरों से लादे हो. मेरे नाम पर फूटी कौड़ी भी है कभी?’’ सुगंधा मुंह फुला कर बोली.

‘‘तुम हुक्म तो करो,’’ अंकित ने मामला संभालना चाहा.

‘‘आज रात को नीरा के सारे जेवर ले आना और दरवाजा खुला छोड़ देना. सवेरे कह दिया जाएगा कि चोरी हो गई,’’ सुगंधा ने कहा.

‘‘मेरी परीक्षा ले रही हो?’’ अंकित बोला.

‘‘तुम तो अभी से घबराने लगे,’’ सुगंधा ने मुंह बनाया.

‘‘नहीं, तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा.’’

‘‘देखूंगी,’’ कह कर सुगंधा ने अपनी ओर बढ़े अंकित के हाथ धीरे से हटा दिए, जैसे कह रही हो, यह सब तभी होगा जब वचन के पक्के निकलोगे.

नीरा दोनों की बातचीत दरवाजे के पास से सुन रही थी. उस के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई.

नीरा सबकुछ जान कर भी खामोश बनी रही. रात को वह जल्दी सोने का नाटक करने लगी जिस से अंकित को मौका मिल सके. अंकित ने जब जेवर और इंदिरा विकासपत्र अलमारी से निकाले तो वह चौंक कर जाग गई.

अंकित परेशान सा उसे देखने लगा पर नीरा की आंखें फिर बंद हो गईं. अंकित जेवर वगैरह ले कर चलने को हुआ तो नीरा हड़बड़ा कर उठ बैठी. अंकित परेशान सा उस की ओर देखने लगा. वह बोली, ‘‘अंकित, बाहर देखो, सरसराहट जैसी आवाज हो रही है.’’

‘‘हवा का  झोंका होगा. तुम बेफिक्र रहो,’’ अंकित ने उसे भरमाने की कोशिश की.

‘‘मगर देख लेने में हर्ज क्या है,’’ कह कर नीरा उठ खड़ी हुई. लाचारी में अंकित को भी इसलिए उठना पड़ा ताकि यह बाहर अकेली जाए तो कहीं कोई बवाल न खड़ा कर दे.

बाहर देखने पर लगा, वाकई

2 साए  झुरमुट के पास छिटक कर अलग हो गए. पुरुष स्वर बोला, ‘‘मेरी मानो तो यहीं से लौट चलो, बाद में बवाल होगा.’’

‘‘उस बेवकूफ को तो आ जाने दो जो बीवी के जेवर ले कर मेरी राह देख रहा होगा. जैसे अभी तक सब्र किया है, एक घंटे और धीरज नहीं रख सकते,’’ इस बार स्वर सुगंधा का था.

अब चौंकने की बारी अंकित की थी. उस के मुंह से हठात निकला, ‘‘ओह, इतना बड़ा फरेब?’’

अंकित और नीरा दबेपांव वहां से अपने मकान में आ गए.

‘‘मैं तो यह सब पहले से जानती थी परंतु तुम कुछ सुनने को तैयार होते, तभी तो बताती,’’ नीरा बोली.

‘‘तुम्हें सब पता था?’’ अंकित ने नीरा की ओर देखा जैसे कोई बच्चा खुद को पिटाई से बचा लेने वाले को देखता है.

‘‘हां, और यह भी जान लो कि मैं सोने का बहाना कर रही थी. मु झे तुम्हारी खुशी के लिए मुंह सिलना पड़ा वरना इन दोनों की रात को घर से भागने की बात मैं पहले ही इन के दरवाजे के पास खड़ी हो कर सुन चुकी थी.’’

‘‘दरअसल, मैं वहां पकौड़े देने गई थी पर वहां की बातचीत से चौंक गई. विमला चाची, विनोद और सुगंधा को अकेला छोड़ कर बाजार गई थीं और ये दोनों एकदूसरे मे खोए अपनी योजना पर चर्चा कर रहे थे.

‘‘सुगंधा कह रही थी, ‘अंकित को भरोसा है कि मैं उस पर जान देती हूं.’’’

‘‘विनोद ने फौरन योजना बता दी, ‘मांग लो, बेवकूफ से बीवी के गहने,’ यह सुन कर मैं तो सन्न रह गई और तुम्हें रोकने का एक यही उपाय मु झे सू झा.’’

‘‘तुम ने मु झे बरबादी से बचा लिया,’’ कहते हुए अंकित की आंखें भर आईं.

‘‘तो कौन सा एहसान कर दिया, साथ ही मैं भी तो बरबाद होती. तुम्हारी बरबादी क्या मेरी बरबादी न होती? फिर सच कहूं, जेवर खो कर भी मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मु झे डर था कि ये लोग तुम पर कोई जानलेवा हमला न कर दें,’’ नीरा ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘और मैं, जेवर और तुम्हें दोनों को खो कर उस को खुश करना चाहता था जो मु झे बेवकूफ सम झती है,’’ अंकित भरे मन से बोला. नीरा ने कहा, ‘‘अब तो बेवकूफ नहीं सम झेगी?’’

‘‘अगर रुक गई तो?’’ अंकित ने जवाब दिया.

‘‘जाएगी कहां? नीरा बोली, ‘‘वह ठग विनोद इसे नहीं, जेवरों को ले जाना चाहता था. इसे तो वैसे भी कूल्हे पर लात मार कर निकाल देता.’’

‘‘सच, वह तो सूरत से लफंगा लगता है. तुम ने दोनों को बचा लिया,’’ अंकित अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोला.

दोनों ने निश्चय किया, अब तबादले का आवेदन कर दिया जाएगा और जब तक तबादला नहीं होता है, बीमारी की छुट्टी ले ली जाएगी, परंतु अब यहां नहीं रहना है.

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