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सीता सोरेन :पहचान बनाने के चक्कर में पहचान खो रहीं

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Loksabha Election 2024: विचारधारा का संकट आदिवासी बाहुल्य राज्य झारखंड में भी दस्तक दे चुका है. सियासी तौर पर देखा जाए तो 49 वर्षीया सीता सोरेन के झारखंड मुक्ति मोरचा छोड कर भाजपा जौइन कर लेने से कोई हाहाकार नहीं मच गया है लेकिन सामाजिक तौर पर इस घटना के अपने अलग माने हैं जो आदिवासी समुदाय की अपनी पहचान को ले कर उलझन को बयां करते हुए हैं. आजादी के बाद इस राज्य का इतना ही विकास हुआ है कि लोग राम और रामायण को जानने लगे हैं. इस का यह मतलब भी नहीं कि घरघर में रामायण या रामचरितमानस पढ़ी जाने लगी हो बल्कि यह है कि आदिवासियों, जो खुद को मूल निवासी कहते हैं, ने हिम्मत हारते एक समझौता सा कर लिया है कि अब राम ही उन की नैया पार लगाएगा. धर्म के इस प्रपंच से हमेशा ही आदिवासी समुदाय जिल्लत की जिंदगी जीता रहा है.

यह राम है कौन और कहां रहता है, यह इन्हें भाजपाई बता रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई मिथ्या है, तुम लोग नाहक ही भटक रहे हो और इस भटकाव से मुक्ति चाहते हो तो राम की शरण में आ जाओ जिस ने शबरी के झूठे बेर खा कर ही उस का उद्धार कर दिया था. सीता सोरेन के भगवा गैंग में चले जाने की दास्तां भी कुछकुछ ऐसी ही है कि वे सियासी मोक्ष की चाहत में रामदरबार की सब से पिछली कतार में कतारबद्ध हो कर जा बैठी हैं. अपने ससुर, देवर और परिवार से बगावत करने के एवज में उन्हें भाजपा से दुमका सीट से टिकट मिला है.

झारखंड की रामायण के इस यानी ‘सोरेन काण्ड’ को समझने के लिए सीता के बारे में यह जान लेना जरूरी है कि वे गुरुजी के नाम से मशहूर शिबू सोरेन की पुत्रवधू हैं. राजनीति में आने से पहले सरकारी अधिकारी रह चुके 80 वर्षीय शिबू सोरेन एक पके हुए राजनेता हैं. वे 3 बार झारखंड के मुख्यमत्री रह चुके हैं और गठबंधन के तहत केंद्रीय मंत्री भी रहे हैं. 70 के दशक में बिहार में पृथक झारखंड की मांग के लिए झारखंड मुक्ति मोरचा का गठन करने वालों में शिबू सोरेन प्रमुख चेहरा थे.

धीरेधीरे शिबू सोरेन की पकड़ झारखंड में मजबूत होती गई लेकिन इस दौरान उन की न केवल राजनीतिक बल्कि पारिवारिक जिंदगी भी उथलपुथल से भरी रही. जब वे स्कूली छात्र थे तभी उन के पिता की हत्या हो गई थी. इस के बाद 21 मई, 2009 को उन के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन की बोकारो स्थित अपने घर में ही रहस्यमय मौत हो गई थी. तब मौत की वजह मस्तिष्क से नींद में ही खून का बह जाना सामने आई थी. लेकिन इस के बाद इस मौत को ले कर तरहतरह की बातें झारखंड में होती रहीं जिन में से एक यह भी थी कि दुर्गा सोरेन बेतहाशा शराब पीने लगे थे जिस से उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था और उन की किडनियां फेल हो गई थीं.

लेकिन इस रहस्मय मौत का एक पहलू यह भी है कि दुर्गा सोरेन के सिर के पीछे चोटों के निशान होने की बात बोकारो के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक लक्ष्मण प्रसाद सिंह ने कही थी. उन्होंने यह भी कहा था कि दुर्गा सोरेन के बिस्तर पर खून के छींटे पाए गए थे. मौत के दिन हेमंत सोरेन यूपीए की एक मीटिंग में हिस्सा लेने दिल्ली गए हुए थे. दुर्गा सोरेन जामा विधानसभा से चुने गए थे जिन्हें शिबू सोरेन के सियासी वारिस के तौर पर भी स्वाभाविक रूप से देखा जाने लगा था.

दुर्गा सोरेन की मौत के बाद सीता राजनीति में सक्रिय हो गईं और जामा सीट से विधायक चुनी गईं. यहीं से उन की अपने ससुराल वालों से खटपट शुरू हुई. पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजे कांग्रेस-झामुमो के हक में आए तो शिबू सोरेन के मंझले बेटे हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया. सीता इस फैसले से नाखुश थीं, जो जल्द ही नाराजगी में भी तबदील हो गई. अपने बड़े भाई दुर्गा सोरेन की मौत के बाद हेमंत ने मोरचा संभाला और देखते ही देखते पार्टी पर अपनी पकड़ बना ली. प्रतिस्पर्धा में देवर से पिछड़ रहीं सीता को यह लगता रहा कि ससुर ने उन के साथ ज्यादती की है, दुर्गा सोरेन की पत्नी होने के नाते मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाना चाहिए था.

विरासत की इस लड़ाई में सीता पिछड़ी तो फिर पिछड़ती ही रहीं. उन की किरकिरी 2012 में जम कर हुई थी जब उन पर राज्यसभा चुनाव में पैसे ले कर वोटिंग का आरोप लगा था. और इस सिलसिले में वे 7 महीने जेल में भी रही थीं. उन पर जालसाजी सहित अपहरण का भी आरोप है. जैसे भी हो, हेमंत के झारखंड का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे सीधेतौर पर ससुर और देवर से नहीं उलझना चाहतीं थीं, इसलिए उन्होंने हेमंत सोरेन सरकार पर 1932 खातियांन मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया. खातियांन 1932 हमेशा से झारखंड की राजनीति में संवेदनशील मुद्दा रहा है जिस का संक्षेप में सीधा सा मतलब यह है कि 1932 के वशंज ही झारखंड के असली निवासी माने जाएंगे. यानी, 1932 के सर्वे में जिस का नाम खातियांन में है, खतियान उसी के नाम माना जाएगा. अब हर कोई जानतासमझता है कि बहैसियत मुख्यमंत्री, हेमंत सोरेन के लिए यह मांग पूरी कर पाना आसान काम नहीं. खतियान 1932 आदिवासियों के लिए एक जज्बाती मुद्दा है, इसलिए सीता इसे उठाती रहीं.

हेमंत के लिए दिक्कत तो उस वक्त भी शुरू हो गईं जब दुर्गा और सीता सोरेन की बेटी जयश्री सोरेन भी उन्हें घेरने लगीं. बकौल जयश्री, अबुआ राज् (बिरसा मुंडा द्वारा दिया नारा) का सपना अभी भी अधूरा है. झारखंड के गरीब, आदिवासी और दलित अभी भी दबेकुचले हुए ही हैं. जिस मकसद से झारखंड की स्थापना की गई थी वह पीछे छूट गया है. जयश्री अपने मुख्यमंत्री चाचा को निशाने पर हर कभी लेती रही थी लेकिन मां की तरह उस के पास भी समर्थन का अभाव था. उस के सक्रिय होने से यह तो साफ़ हो गया कि अब शिबू सोरेन की तीसरी पीढ़ी भी राजनीति के मैदान में कूद चुकी है लेकिन अब उसूल गायब हैं. कभी वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाले झामुमो पर दक्षिणपंथ का असर दिखने लगा है. हालांकि यह अभी बहुत मामूली है लेकिन है तो.

सीता सोरेन, दरअसल, दक्षिणपंथी नहीं हैं लेकिन सत्ता के लालच में विभीषण बनते भाजपा में चली गईं तो बात कतई हैरानी की नहीं क्योंकि ऐसा देशभर में हो रहा है. दुर्गा सोरेन को अब झारखंड के लोग भूलने लगे हैं पर सीता उन की मौत को मुद्दा बनाने की कोशिश करते ससुराल वालों को शक के दायरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही हैं और इस पर भाजपा खुल कर उन का साथ दे रही है. भाजपा में जाने की भूमिका तैयार करते उन्होंने रांची में मीडिया के सामने कहा था कि दुर्गा सोरेन की मौत की हाई लैवल जांच होनी चाहिए.

यह खालिस बहाना है, लड़ाई असल में कुरसी की है. दुर्गा ने अपनी देवरानी यानी हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन पर अपने अपमान का आरोप इसी प्रैस कौन्फ्रैंस में लगाया था. यह वह वक्त था जब झारखंड में सियासी उथलपुथल फिर शबाब पर थी क्योंकि हेमंत सोरेन जेल भेजे जा चुके थे और चम्पई सोरेन नए मुख्यमंत्री चुने गए थे. इधर भाव न मिलते देख सीता झामुमो पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते नरेंद्र मोदी के नाम की माला जपते बीती 19 मार्च को भगवा गैंग में शामिल हो गईं तो लोकसभा चुनाव थोड़ा दिलचस्प तो राज्य में हुआ है.

2019 के लोकसभा चुनाव में दुमका से शिबू सोरेन की अप्रत्याशित हार हुई थी जिन्हें भाजपा के सुनील सोरेन ने 47 हजार के लगभग वोटों से हरा कर 2014 की अपनी हार का बदला ले लिया था. भाजपा ने इस बार सुनील सोरेन का टिकट काट कर सीता सोरेन को दल और विचारधारा बदलने का इनाम दिया है. इंडिया गठबंधन की तरफ से झामुमो के नलिन सोरेन मैदान में हैं. मुकाबला कांटे का भी और दिलचस्प भी है क्योंकि दुमका की कोई 93 फीसदी आबादी ग्रामीण है. शिबू सोरेन यहां से 3 बार सांसद चुने जा चुके हैं लेकिन पिछले चुनाव में भाजपा की जीत से साबित यह हुआ था कि अकेले दुमका में ही नहीं, बल्कि झारखंड की पूरी 14 सीटों पर भगवा लहर चली थी. भाजपा गठबंधन ने 50 फीसदी वोटों के साथ 12 सीटें झटक ली थीं. लेकिन इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में बाजी पलट गई थी. झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने विधानसभा की 81 में से 46 सीटें ले जा कर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया था जो 25 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी से उपजी सहानुभूति का फायदा अगर झामुमो को मिल पाया तो भाजपा की राह आसान नहीं रह जाएगी.

बात जहां तक सीता सोरेन की है तो उन का पाला बदलना उन्हें महंगा भी पड़ सकता है. 2 महीने पहले तक वे शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन की तारीफों में कसीदे गढ़ते भाजपा और राम को कोसते थकती नहीं थीं लेकिन अब भाजपा उन्हें विकास करने वाली पार्टी और राम आराध्य लगने लगे हैं. सो, लगता नहीं कि दुमका के 30 फीसदी आदिवासियों सहित 55 फीसदी दलित, पिछड़े और मुसलमान उन से इत्तफाक रखेंगे.

रीता सा शजरे बहारां: भाग 1

मोबाइल में समय देखते ही एकाएक अगले मैट्रो स्टेशन पर बिना कुछ सोचे वह उतर गया. ग्रीन पार्क मैट्रो स्टेशन से निकल कर धीरेधीरे चलते हुए ग्रीन पार्क इलाके की छोटी सी म्युनिसिपल मार्केट की ओर निकल आया यह सोच कर कि वहीं रेहड़ीपटरी से कुछ ले कर खा लेगा. 

लेकिन आसपास कोई रेहड़ीपटरी वाला नहीं था तो वहीं एक छोटे से तिकोने पार्क की मुंडेर पर बैठ गया यह सोचते हुए कि इतनी जल्दी वापस जा कर भी क्या करेगा.  कुछ देर योंही इधरउधर देखता रहा और आतीजाती गाड़ियों को गिनने लगा. वापस घर जाने की कोई तो वजह होनी ही चाहिए हर इंसान के पास. मगर उस के पास कोई वजह ही नहीं है. 

बहुत मुश्किल है पचास साल की उम्र में फिर से काम की तलाश में यहांवहां भटकना और मायूसी में आकर बिस्तर पर पड़ जाना. दिल्ली की गरमी जूनजुलाई में अपने पूरे शबाब पर होती है मगर आज बादल छाए हुए हैं तो हवा में तपिश नहीं है.  फिर वह उठ कर टहलने लगा. इस के दाहिने ओर सड़क के उस तरफ़ एक ऊंची दीवार दूर तक जाती दिखाई दे रही थी और उस के बाएं थोड़ी दूर पर ऊंची रिहायशी इमारतें. चलतेचलते उस की निगाह सामने बड़े से गेट के ऊपर स्पास्टिक सोसायटी औफ़ नौर्दन इंडिया के बोर्ड पर पड़ी तो वह सड़क पार कर वहां पहुंचा कि शायद इन्हें किसी वौलंटियर की ज़रूरत हो. पता करने में क्या हर्ज. 

वह गेट की ओर बढ़ गया. गेट की सलाखों से भीतर झांका तो दूर तक हरियाली फैली हुई थी. उसे ऐसे झांकते देख कर गार्ड दौड़ता हुआ आया. उस से बात करने पर मालूम हुआ कि दोपहर 2 बजे तक ही मैडम मिलती हैं जो यहां की सर्वोसर्वा हैं. उसे शुक्रिया कहते हुए वह मायूस हो कर वहीं लौट आया. 

भूख तो लग रही थी. उस ने छोटी सी मार्केट पर नज़र डाली. एक पर आयशा बुटीक का बोर्ड था, एक बार्बर शौप और एक अन्नपूर्णा स्वीट. यार, यह तो महंगी दुकान है, कुछ खाया तो बहुत पैसे खर्च हो जाएंगे, सारा मसला तो पैसे का ही है. 

यही सोचते वह वहीं उसी मुंडेर पर आ कर बैठ गया. कुछ ही पल बीते थे कि एक अधेड़ उम्र की महिला कार से उतर कर उस के नज़दीक आ कर बैठ गई. उस ने देखा कि पकी उम्र के बावजूद वह ख़ूबसूरत दिख रही थी. बस, खिचड़ी बाल उस की उम्र की चुगली कर रहे थे, शायद खिजाब का इस्तेमाल नहीं करती. 

“सिगरेट है तुम्हारे पास?उस के इस अप्रत्यक्ष सवाल से हतप्रभ सा वह उसे ही देखता ही रह गया.

“क्यों, क्या तुम स्मोक नहीं करते?

“जी, अब नहीं.”

“मतलब; पहले करते थे तो छोड़ क्यों दी?

“जी, दिल की वजह से.”

“मतलब इश्क़?

“नहीं, स्टंट,” कह कर वह मुसकरा दिया.

“मतलब कि दिल के ही मरीज़ हो, दोनों एक ही बात है,” और वह खिलखिला कर हंस दी. हवा में थोड़ी ठंडक सी बढ़ती महसूस हुई. “कमबख्त मुझ से छूटती ही नहीं. डाक्टर भी वार्निग दे चुके हैं. मगर लगता है मुझे भी दिल का दर्द लेना होगा सिगरेट छोड़ने के लिए.”

“आप के साथ ऐसा न हो,” एकदम उस की ज़बान से निकला.

उस ने नज़रें उठा कर उसे गौर से देखा और बोली, मेरे लिए सिगरेट ला दोगे और 2 ले कर आना.”

“2,” उस ने उठते हुए सवालिया निगाह से देखा.

“अकेला होना सिगरेट को भी तो बुरा लगता होगा न? और वह फिर खिलखिला दी. आसमान में बादल थोड़े से और काले पड़ने लगे. 

थोड़ा आगे चल कर कोने में बनी छोटी सी पानबीड़ी की दुकान पर पहुंच कर उस ने सिगरेट मांगी.

“कौन सी सिगरेट बाबू?

‘धत्त तेरी, यह पूछा ही नहीं उस से, उस ने मन ही मन  ख़ुद को लताड़ा. लडकियों को मोर ब्रैंड की सिगरेट बहुत पसंद होती है, लगभग 30 वर्षों पहले कही गई उस की कालेजफ्रैंड नीलिमा की बात अचानक याद आ गई.

मोर की सिगरेट है तुम्हारे पास?उस की बात सुन कर दुकानदार ने मुसकरा कर उसे गौर से देखा और बोला, मिल तो जाएगी बाबू, डेढ़ सौ की एक पड़ेगी.” 

उस ने बिना कुछ कहे 300 रुपए उसे दिए और 2 सिगरेट ले कर मुड़ा तो दुकानदार आवाज़  लगा कर उसे माचिस देते हुए बोला, बाबू यह भी लेते जाओ, जलाने के लिए किस से मांगोगे? 

दुकानदार की इस समझदारी और दयालुता की मन ही मन तारीफ़ करता हुआ वह वापस अपनी जगह लौट आया लेकिन  महिला वहां नहीं थी. इधरउधर नज़रें दौड़ाईं तो उस की औडी भी वहां नहीं थी. कुछ मिनट इधरउधर देखने के बाद वह फिर उसी मुंडेर पर बैठ गया.

 कहां चली गई सिगरेट मंगा कर? खामखां मुझे हैरान किया. अब इन सिगरेट्स का मैं क्या करूं? दुकानदार को वापस कर दूं? नहीं यार, उसे बुरा लगेगा. उसे क्या हर दुकानदार को बुरा लगेगा बिकी हुई चीज़ के पैसे वापस करना. और फिर यह दुकानदार तो भला मानस है. वरना कौन इस बात की परवा करता है कि सिगरेट ले जाने के बाद कोई उसे जलाएगा कैसे. वह तो सब ठीक है मगर अब इन का करूं क्या?

इसी उधेड़बुन में था कि किसी के हाथ कंधे पर महसूस हुए. उस ने थोड़ा घूम कर देखा, तो वह खड़ी मुसकरा रही थी.

“मुझे मिस कर रहे हो न? कहती हुई उस के नज़दीक बैठ गई.

“जी, लीजिए आप की सिगरेट.”

“तुम्हें लड़कियों की पसंद की काफ़ी नौलेज है, उस ने सिगरेट लेते हुए कहा.

“जी, ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन आप ऐसा क्यों कह रही हैं?

उसी के चेहरे पे टिकी रह गई.

राजनीति में अदृश्य जंजीरों से बंधी महिलाएं

राजनीति में आने और सांसद, विधायक बनने से महिलाओं का सशक्तीकरण हो सकता है. जरूरत इस बात की है कि वे अपनी ताकत को उस तरह से पहचानें जैसे फ्रांस की जौन औफ आर्क ने पहचाना था. भारत में सांसद व विधायक बनने के बाद भी कुछ महिला नेता ही अपना प्रभाव छोड़ सकी हैं. ममता बनर्जी और मायावती ने अपने दम पर मुकाम हासिल किए हैं. इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी और जयललिता जैसी कुछ महिला नेताओं ने दूसरों का सहारा ले कर राजनीति में कदम रखा, उस के बाद अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई.

पश्चिमी देशों में जौन औफ आर्क को बहुत खास माना जाता है. नेपोलियन से ले कर आज के दौर तक फ्रांस के नेता जौन औफ आर्क को याद करते हैं. बहुत से मशहूर लेखकों ने इन के जीवन से प्रेरित हो किताबें लिखीं. इन में विलियम शेक्सपियर, वोल्टेयर, फ्रेडरिक शिलर, जिसेप वर्दी, प्योत्र ईलिच चाइकौव्स्की, मार्क ट्वेन और जौर्ज बर्नार्ड शा प्रमुख हैं. जौन पर बहुत सी फिल्में, वृत्तचित्र, वीडियो गेम और नृत्य भी बने हैं.

जौन की सब से बड़ी खासीयत यह थी कि फ्रांस के लोग उन को संत मानते थे जबकि अंगरेज उन को चुड़ैल मानते थे. जौन ने फ्रांस को अंगरेजों पर विजय दिलाने में अहम भूमिका अदा की थी. वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा हुई थीं. इस के बाद भी जौन ने अपने देश के लिए जो किया, दूसरा कोई नहीं कर पाया.

जौन औफ आर्क को फ्रांस की वीरांगना माना जाता है. उन का जन्म पूर्वी फ्रांस के किसान परिवार में हुआ था. 12 वर्ष की आयु से उन को ऐसा महसूस होने लगा कि फ्रांस से अंगरेजों को बाहर निकालना है. जौन ने यह बात फ्रांस के राजाओं को बताई. इस के बाद जौन को फ्रांस की सेना की अगुआई करने का मौका मिला. जौन की अगुआई में फ्रांस ने कई महत्त्वपूर्ण लड़ाइयां जीतीं.

अंगरेज जौन को अपना दुश्मन मानते थे. स्कूल में अंगरेजों ने जौन को पकड़ लिया. फ्रांस की नजर में जौन वीरांगना थीं. अंगरेजों की नजर में वे चुड़ैल थीं. अंगरेजों ने जौन को चुड़ैल करार देते हुए जीवित जला दिया. उस समय उन की उम्र केवल 19 साल की थी.

भारत में इस तरह के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं. आजादी की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई का नाम लिया जाता है. उन को योद्धा के रूप में जाना जाता है. वे योद्धा थीं भी, पुरुष सा रूप रखती थीं, घोड़े पर सवार हो कर लड़ी थीं पर उन्होंने देश या महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई नहीं लड़ी थी.

रानी लक्ष्मीबाई की लड़ाई उन के अपने दत्तक पुत्र को अधिकार दिलाने के लिए थी जो अंगरेज हुकूमत देने को तैयार न थी. यह अनायास ही था कि उसी समय ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ फैसलों से नाराज हो कर सेना के हिंदू सैनिकों ने बगावत कर दी जिसे स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है.

1842 में लक्ष्मीबाई का विवाह ?ांसी के मराठाशासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ था, जिस के बाद वे ?ांसी की रानी बनीं. विवाह के बाद उन का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया. सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परंतु 4 महीने की उम्र में ही उस की मृत्यु हो गई. 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गई. पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवंबर, 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई. दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया.

अंगरेजी हुकूमत ने बालक दामोदर राव के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया. मुकदमे को बहस के बाद खारिज कर दिया गया. इस के बाद अंगरेज सरकार ने ?ांसी का खजाना जब्त कर लिया. अंगरेजों ने राजा गंगाधर राव के कर्ज को रानी लक्ष्मीबाई के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया. इस के चलते रानी को ?ांसी का किला छोड़ कर ?ांसी के रानीमहल में जाना पड़ा. इस के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू की. अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई में उन को जीत हासिल नहीं हुई थी.

शिक्षा से आजादी की अलख

रानी लक्ष्मीबाई अपने साहस से समाज को नहीं बदल पाईं. उसी कालखंड में सावित्रीबाई फुले ने अपनी बहुत सारी परेशानियों को दरकिनार करते हुए लड़कियों की शिक्षा पर काम करना शुरू किया. भारत में लड़कियों की शिक्षा का सारा श्रेय सावित्रीबाई फुले को जाता है. सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव नामक छोटे से गांव में हुआ था. महज 9 साल की उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ उन की शादी हो गई. उस समय ज्योतिबा फुले भी महज 13 साल के थे.

उस समय लड़कियों को शिक्षा और स्कूल से दूर रखा जाता था. धार्मिक ग्रंथों में लड़कियों की शिक्षा की मनाही थी, जिस से समाज भी इस का विरोध करता था. विवाह के समय सावित्रीबाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं तो वहीं उन के पति तीसरी कक्षा तक पढ़े थे. उस वक्त केवल ऊंची जाति के पुरुष ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे. दलित और महिलाओं को पढ़ने का अधिकार नहीं था. सावित्रीबाई फुले ने पहले खुद लंबी लड़ाई लड़ कर पढ़ाई की, उस के बाद दूसरी लड़कियों को पढ़ने में मदद की.

शिक्षा के साथ ही साथ सावित्रीबाई फुले ने स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवाविवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी. अंधविश्वास और रूढि़यों की बेडि़यां तोड़ने के लिए लंबा संघर्ष किया. सावित्रीबाई फुले जब लड़कियों को पढ़ाने स्कूल जाती थीं तो पुणे में लड़कियों की शिक्षा का विरोध करने वाले उन पर गोबर फेंक देते थे, जिस से उन की साड़ी गंदी हो जाए और वे लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल न जा सकें.

सावित्रीबाई फुले अपने बैग में एक्स्ट्रा साड़ी ले कर जाती थीं. स्कूल पहुंच कर वे अपनी गोबर वाली साड़ी बदल कर लड़कियों को पढ़ाने लगती थीं. जब इस से भी वे नहीं डरीं तो विरोधी लोग उन को पत्थर मारते थे. वे हर दिन इस तरह की प्रताड़ना सहन कर के अपने काम पर लगी थीं. सावित्रीबाई ने उस दौर में लड़कियों के लिए स्कूल खोला जब बालिकाओं को पढ़ानालिखाना गलत माना जाता था. उस का पुरजोर विरोध भी होता था.

सावित्रीबाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिल कर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले. उन्होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीडि़तों के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह की भी स्थापना की थी. महिलाओं की शिक्षा और अधिकार को ले कर जो काम सावित्रीबाई फुले ने किया है उस की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती. यह काम फिर न के बराबर दोहराया गया. आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस ने समाज सुधार और सभी अधिकारों के लंबेचौड़े अभियान नहीं चलाए. गांधी, पटेल, नेहरू, जिन्ना सभी अंगरेज शासन से मुक्ति चाहते थे. महिलाओं को अपने पुरुषों से आजादी दिलाने में किसी की कोई खास रुचि नहीं थी.

धर्मसत्ता के प्रभाव में महिलाओं को शिक्षा और राजनीति दोनों से ही दूर रखने का प्रयास किया गया. यह जरूर था कि वैचारिक स्तर पर धर्मविरोध होने लगा था. आजादी के बाद राजनेताओं से यह उम्मीद की जा रही थी कि वे महिलाओं को अधिकार देंगे. आजादी के बाद देश की सत्ता संभालने वाली कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा शुरू से ही धर्म के प्रभाव में रहा.

बाल गंगाधर राव तिलक 19वीं सदी के अंत से ले कर 20वीं सदी के महात्मा गांधी तक महिलाओं को धर्मसत्ता से आजादी दिए जाने के पक्ष में नहीं थे, जिस के कारण आजादी की लड़ाई में महिलाओं को धर्मसत्ता से दूर रखने की दिशा में कोई विशेष काम नहीं हुआ. कुछ संस्थाएं छिटपुट कुछकुछ करती रहीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो 1925 में बना, महिलाओं को घर में ही रखने का समर्थक था.

नहीं मिले अधिकार

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1955 में हिंदू विवाह कानून बना कर महिलाओं के तमाम अधिकारों को देने का काम किया. दहेज, विधवा विवाह और सतीप्रथा जैसी कुरीतियों पर लगाम तो अंगरेजों ने अपनेआप कसी थी. इस से एकदो भारतीय जरूर नाराज थे लेकिन कोई बड़ी देशव्यापी संस्था नहीं. महिलाओं को पहली बार कानूनी हक मिले थे. दक्षिणापंथी (दक्षिणा से रोजीरोटी कमाने वाले) ही नहीं, कांग्रेस के भी कुछ बड़े नेता इस तरह के सुधारवादी कामों का विरोध कर रहे थे, जिस के कारण महिलाओं को अधिकार देने वाले दूसरे कदम आगे नहीं बढ़ सके.

1955 में हिंदू विवाह कानून और 1956 में हिंदू विरासत कानून से घरों में महिलाओं को अधिकार मिले पर वे राजनीतिक अधिकार नहीं थे. हां, इस दौरान वोटिंग अधिकार सभी को मिला. इस से महिलाओं को एक बल मिला. लड़कियों के लिए स्कूल भी खुले और सवर्णों ने अपनी लड़कियों को प्राथमिक व मिडिल शिक्षा देनी शुरू कर दी.

पहला राजनीतिक बड़ा कदम

1985 में राजीव गांधी सरकार ने पंचायती राज कानून बना कर महिलाओं को पंचायत चुनावों में 33 फीसदी का आरक्षण दिया. उस के बाद राजनीति में महिलाएं दिखने लगीं. लेकिन इस महिला आरक्षण का प्रभाव लोकसभा और विधानसभा चुनावों पर नहीं पड़ा.

लोकसभा और विधानसभाओं में सांसद और विधायक के रूप में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ रही हो लेकिन नेताओं के रूप में उन की पहचान नहीं बनी है. राजनीति में आने वाली ये महिलाएं न तो फ्रांस की जौन की तरह से सत्ता बदल पा रही हैं और न ही सावित्रीबाई फुले की तरह महिलाओं को जागरूक ही कर पा रही हैं. जो भी महिलाएं राजनीति में हैं, सत्ता में भागीदारी चाहती हैं. किसी का लक्ष्य महिलाओं को धार्मिक पाखंडों से मुक्ति दिलाने का नहीं है.

आज भारत के 29 राज्यों में केवल पश्चिम बंगाल अकेला ऐसा राज्य है जहां पर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं. बाकी किसी राज्य में कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं है. एक समय था जब देश के कई राज्यों में महिला मुख्यमंत्री होती थीं. केवल राज्यों में ही नहीं, केंद्र तक इन का दखल होता था.

जिस समय केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती और शीला दीक्षित की धमक विपक्ष में थी तो उमा भारती और सुषमा स्वराज जैसी महिला नेता भाजपा में थीं. वह दौर पितृसत्ता का था जिस में महिलाओं को सांस लेने की जगह थी पर जैसे ही राम मंदिर मुहिम के दौरान धर्मसत्ता का प्रभाव राजनीति पर पड़ने लगा, महिलाओं का प्रभाव घट गया.

2019 के लोकसभा चुनाव में 82 महिलाएं सांसद बनी थीं. पहली लोकसभा में सिर्फ 5 प्रतिशत महिलाएं चुनाव जीती थीं. 2019 में यह 15 प्रतिशत हो गया है जिस से महिला सांसदों की संख्या जरूर बढ़ी लेकिन इन में से ज्यादातर गूंगी गुडि़या जैसी ही हैं. अगर महिला आरक्षण कानून लागू हो गया तो इस के बाद यह संख्या 182 होने की उम्मीद की जा रही है. जब तक राजनीति में महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ेगी तब तक वे आगे नहीं आ पाएंगी. 2019 से 2024 के बीच केवल महुआ मोइत्रा का नाम संसद में आवाज उठाने वालियों में से लिया जा सकता है पर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पारंपरिक छवि के अनुसार जो किया वह सीता को वनवास देने की तरह ही था.

बढ़ती संख्या घटता प्रभाव

राजनीति में एक बहुत मशहूर नारा है- जिस की जितनी हिस्सेदारी उस की उतनी भागीदारी. पर यह नारा महिलाओं के लिए कभी नहीं लगाया जाता. यह नारा पिछड़ी और दलित जातियों की भागीदारी के लिए लगाया जाता है. आजादी के 75 सालों बाद 2023 में देश में संविधान संशोधन के नाम पर महिला आरक्षण बिल लोकसभा में पास हुआ. उम्मीद की जा रही है कि 2029 में यह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में लागू हो सकता है.

?महिलाओं का राजनीति में दखल एक पुरानी मांग है. प्रबुद्ध वर्ग महिलाओं की बराबर की भागीदारी को विकास का मूलमंत्र मानता है पर स्थिति यह है कि विश्वभर में केवल 28 महिलाएं देश की प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष या सरकार की सरगना हैं. विश्वभर के थिंकटैंकों की राय है, महिलाएं जब सचमुच में राजनीतिक सत्ता में होती हैं तो न केवल लोकतंत्र मजबूत होता है, जीवनस्तर में सुधार भी होता है. अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मिलती है, देश में शांति ज्यादा रहती है और लोगों को ज्यादा स्वास्थ्य व शैक्षिक सुविधाएं मिलती हैं.

पुरुष नेता सत्ता के पीछे भागते हैं, स्त्री नेता सेवा करना जानती व चाहती हैं. वे भुक्तभोगी रही होती हैं, इसलिए आमघरों की परेशानियां जानती हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व मुखिया कोफी अन्नान ने कहा था कि कितनी ही स्टडीज में पाया गया कि महिलाओं का सशक्तीकरण विकास के लिए अतिआवश्यक साबित हुआ है. चुनी जाने के बाद महिलाएं ज्यादा पारदर्शी शासन चलाती हैं और उन के निर्णय दूरगामी लाभ के लिए होते हैं, वर्गविशेष को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं.

संविधान सभा में कई महिला प्रतिनिधि थीं और उन्होंने संविधान निर्माण में खासा जोरदार योगदान दिया था पर आखिरकार रूढि़वादी नेताओं ने बाजी मार ली और जवाहरलाल नेहरू के समय से ही महिलाओं को वास्तविक सत्ता नाममात्र के लिए मिल पाई. दरअसल उन के ईदगिर्द जो नेता जमा थे वे न केवल अतिपरंपरावादी थे बल्कि अंधभक्त भी थे.

कांग्रेस को हराने के लिए पहले भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने महिलाओं का जम कर ब्रेनवाश किया और धर्म की सत्ता को मोक्ष या मुक्ति का साधन मनवाने में सफल हो गई. नरेंद्र मोदी के राज में महिलाओं की राजनीतिक ताकत पर लगभग पूर्ण ग्रहण लग चुका है.

धर्म नियंत्रित समाज जिम्मेदार

मनुस्मृति का नाम आज हर जबान पर चढ़ा हुआ है. मनुस्मृति में हिंदू महिलाओं को बहुत कमजोर जगह मिली है और यह सोच आज के नेताओं में है और अब राजनीति में स्पष्ट देखी भी जा सकती है. महिलाओं को कमजोर इतनी बार कहा जाता है, उन्हें रेप, छेड़छाड़ का भय इतना अधिक दिखाया जाता है कि वे राजनीति में आने से कतराती हैं और आ भी जाती हैं तो उन्हें एक पुरुष संरक्षक की सख्त जरूरत महसूस होती रहती है.

लोकसभा चुनावों में महिलाओं यानी आधी आबादी का दबदबा बढ़ता जा रहा है. कई ऐसे चुनाव हुए हैं जिन में महिला वोटरों ने जीत और हार को तय किया है. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार को बनाने में महिलाओं की संख्या सब से अधिक थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में सब से ज्यादा महिला मतदाताओं के भाग लेने की उम्मीद है. कुल 96.88 करोड़ मतदाताओं में से महिला मतदाताओं की संख्या 47.1 करोड़ है. पिछले एक साल में महिला वोटरों और वोट डालने वाली महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है.

इस के बाद भी देश में प्रभावशाली महिला नेताओं की कमी दिख रही है. 2024 के इन लोकसभा चुनावों में महिला नेताओं के कई प्रमुख चेहरे गायब हैं. इन में सोनिया गांधी, मायावती, वसुंधरा राजे, उमा भारती के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. जयललिता और सुषमा स्वराज अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन राजनीति में इन दोनों ने एक अलग ही मुकाम हासिल किया था.

2024 के लोकसभा चुनावों में सोनिया गांधी भले ही चुनाव न लड़ रही हों पर वे इंडिया ब्लौक को एकजुट रख कर विपक्ष को मजबूत स्तंभ बनाने का काम कर रही हैं. ममता बनर्जी अकेली महिला नेता हैं जो भाजपा के विजयरथ को रोकने का काम कर रही हैं. अब ईडी, सीबीआई के मसले को ले कर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल और ?ारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन मुखरता से अपनी बात कह रही हैं. ये राजनीति में कितनी आगे जाएंगी, यह समय बताएगा. ये अपने बल पर नहीं, अपने पतियों के बल पर राजनीति में जगह बना पाई हैं.

भारत की राजनीति में महिला नेताओं के कुछ चेहरों की चर्चा के बिना महिला राजनीति की चर्चा अूधरी रहेगी. इन की चर्चा के जरिए यह सम?ाने में मदद मिलेगी कि देश में महिला राजनीति किन हालात से गुजर रही है. महिला आरक्षण के बाद राजनीति में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी. उम्मीद की जा सकती है कि उन में से कुछ आगे बढ़ेंगी, अपने दम से अपना दबदबा बना पाएंगी. ज्यादातर धर्म और पितृसत्ता के पीछे चल कर केवल शोपीस बन कर रह जाएंगी. राजनीति में सक्रिय कुछ महिलाओं का योगदान याद रखा जाएगा. इन में से ज्यादातर ने अपनी जमीन खुद नहीं बनाई है. यह कमजोरी महिलाओं की मानी जाएगी और इस के लिए जिम्मेदार धर्म नियंत्रित सामाजिक व्यवस्था है.

विपक्ष की उम्मीद

सोनिया गांधी का भारत के साथ रिश्ता राजीव गांधी की पत्नी के रूप में जुड़ा था. राजीव गांधी भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे थे. जब तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जीवित रहे तब तक इटली से आईं सोनिया गांधी ने राजनीति की तरफ मुंह भी नहीं किया था. वे परिवार के साथ खुश थीं. राजीव गांधी का भी राजनीति से कोई लगाव नहीं था. मां इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी ने राजनीति में कदम रखा.

1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई. पति की हत्या होने के पश्चात कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया.

काफी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालनपोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया. पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस 1996 का आम चुनाव भी हार गई, जिस से कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरूगांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता महसूस की. उस समय उन के साथ परिवार का कोई सदस्य नहीं था. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तब छोटे ही थे, राजनीति के लिए परिपक्व नहीं थे.

सोनिया गांधी ने अपने बलबूते 1997 में कोलकाता में पार्टी के प्लेनरी सैशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की. इस के 62 दिनों के अंदर 1998 में वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं. कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन का कार्यकाल पार्टी के इतिहास में सब से लंबा कार्यकाल रहा, उस दौरान चाहे उन की आलोचना होती रही. उन के विदेशी होने का मुद्दा बना. उन की कमजोर हिंदी को भी मुद्दा बनाया गया. उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसियों ने उन का साथ नहीं छोड़ा. उस समय उन के परिवार में कोई बालिग था तो वह मेनका गांधी थीं जो भाजपा में थीं.

सोनिया गांधी का सहारा

सोनिया गांधी ने 1999 में कर्नाटक के बेल्लारी और उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और करीब 3 लाख वोटों से जीत हासिल की. 2004 के चुनाव से पूर्व आम राय यह बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देशभर में घूम कर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए को 200 से ज्यादा सीटें मिलीं. सोनिया गांधी रायबरेली से सांसद चुनी गईं.

16 मई, 2004 को सोनिया गांधी 16 दलीय गठबंधन की नेता चुनी गईं. सब को अपेक्षा थी कि सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सब ने उन का समर्थन किया परंतु एनडीए के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए. सुषमा स्वराज और उमा भारती ने तो घोषणा कर दी कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुंड़वा लेंगीं और भूमि पर ही सोएंगीं. इस का अर्थ यही था कि वे उन्हें एक औरत से ज्यादा गैरहिंदू या विदेशी मान रही थीं. सुषमा स्वराज और उमा भारती को संस्कृति और संस्कारों की चिंता थी जिस के कारण उन्हें भविष्य में राजनीति से निकाल फेंका गया.

इस के बाद 18 मई को सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को अपना प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया. पार्टी से उन का समर्थन करने का अनुरोध किया. सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की. सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया. कहा जाता है कि राहुल गांधी उन के प्रधानमंत्री न बनने के फैसले के पीछे थे. उन्होंने अपनी दादी और पिता की हत्या का दंश ?ोला था, वे एक और रिस्क नहीं लेना चाहते थे. नीरजा चौधरी ने अपनी किताब  हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड में यह उल्लेख किया है कि नटवर सिंह, प्रियंका गांधी, सुमन दूबे के साथ 10 जनपथ, नई दिल्ली के घर में राहुल गांधी ने जान के खतरे के कारण यह जिद की थी.

2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी ने जोरदार धमाके से जीत हासिल की और फिर 10 वर्षों से राजनीति में महिलाओं का दखल कम होता गया. वे दिखावटी बनी रहीं. सोनिया गांधी कांग्रेस का सूपड़ा भी बचा नहीं पाईं. 2019 के चुनावों में केवल वही कांग्रेस की उत्तर प्रदेश से लोकसभा सांसद थीं. अब 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लौक का आधारभूत ढांचा सोनिया गांधी की कुशलता पर ही टिका है.

जयललिता का दौर

जयललिता चाहे फिल्मों में रही हों या राजनीति में, उन्होंने बंदिशों की जंजीरों को तोड़ने का काम किया. तमिल सिनेमा में स्कर्ट पहनने वाली वे पहली अभिनेत्री थीं. राजनीति में आने के बाद उन को लोग अम्मा के नाम से पुकारते थे. तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व ऐक्ट्रैस जयललिता राजनीति में आने से पहले ऐक्ट्रैस हुआ करती थीं. उन की पहली फिल्म को एडल्ट प्रमाणपत्र मिला था. टीनएज होने के कारण वे खुद इस फिल्म को सिनेमाहौल में नहीं देख पाई थीं.

उन का जीवन संघर्ष से भरा रहा. जब वे 2 साल की थीं, उन के पिता की मौत हो गई थी. इस के बाद उन की मां उन्हें ले कर अपने मातापिता के यहां बेंगलुरु चली गईं. जयललिता ने 3 साल की उम्र में भरतनाट्यम सीख लिया था. 15 साल की उम्र में उन की मां ने उन्हें फिल्मों में जाने के लिए प्रेरित किया. 1964 में जयललिता ने कन्नड़ भाषा की फिल्म च्चिन्नाडा गोम्बे में काम किया. अगले ही साल यानी 1965 में उन्होंने तमिल सिनेमा में फिल्म वेन्निरा अदाई से एंट्री ली.

जयललिता ने अपने फिल्मी कैरियर में 130 फिल्में की हैं. जयललिता 1980 तक लगातार साउथ इंडस्ट्री पर राज करती रहीं. फिल्मों के साथ ही वे राजनीति में भी पहचान बनाने लगी थीं. राजनीति में उन्हें 1977 में तमिलनाडु के उस समय के मुख्यमंत्री रामचंद्रन ले कर आए थे. 1982 में उन्होंने रामचंद्रन की पार्टी आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम जौइन कर ली. 1983 में वे पहली बार तिरुचेंदूर विधानसभा सीट से विधायक चुनी गईं. 1984 से 1989 तक वे बतौर राज्यसभा सदस्य संसद में अपनी जगह बनाए रहीं. 24 जून, 1991 को वे पहली बार राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर बैठीं.

साउथ फिल्मों के सुपरस्टार रहे एम जी रामचंद्रन से जयललिता के अफेयर ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं. उस वक्त एम जी पहले से शादीशुदा और 2 बच्चों के पिता थे. जब रामचंद्रन का निधन हुआ तो जयललिता ने खुद को विधवा की तरह पेश किया था. एमजीआर के सहयोग से जयललिता ने राजनीति में भी जल्द ही कामयाबी हासिल कर ली थी.

तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता का व्यक्तित्व करिश्माई था. इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी, उस दौरान जयललिता की पार्टी को तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत मिली थी. उन की मृत्यु के बाद उन की पार्टी अन्ना द्रमुक छिन्नभिन्न हो गई है.

मायावती की माया

जिस दौर में मंडल और कमंडल की लड़ाई राजनीति को 2 हिस्सों में बांट रही थी उसी समय कांशीराम ने दलित राजनीति से सत्ता की चाबी हासिल करने का मन बना लिया था. उन्होंने मायावती को दलित राजनीति का चेहरा बना कर आगे बढ़ाना शुरू किया. बहुत सारे विवादों को तोड़ते हुए मायावती ने कांशीराम के सपने को पूरा करने में पूरी जान लगा दी.

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ. 1993 में दोनों दलों ने मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम का नारा दे कर सत्ता हासिल की.

सामाजिक रूप से दलित और पिछड़े सरकार का हिस्सा तो बन गए पर वे सामाजिक रूप से एक नहीं हो पाए. मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम के साथ गठबंधन तो कर लिया पर वे बसपा को तोड़ कर अपनी सरकार को मजबूत करना चाहते थे. कांशीराम मुलायम के मोह में थे. वे कोई सही निर्णय नहीं ले पा रहे थे. ऐसे में कमान मायावती ने संभाली और मुलायम सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला लिया. दबंग सोच रखने वाले मुलायम और उन की पार्टी के विधायकों ने मायावती को खत्म करने की योजना बना कर गैस्ट हाउस कांड को अंजाम दिया. मायावती ने अपनी मौत को करीब से देखा लेकिन इस के बाद भी डरीं नहीं. मुलायम का तख्ता पलट कर वे मुख्यमंत्री बन गईं.

4 बार वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. मुख्यमंत्री बन कर उन्होंने विकास के कामों से अपनी पहचान बनाई. नोएडा और लखनऊ की पहचान बदल दी. 2024 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी राज्यसभा पहुंच गई हैं. बीमारी की वजह से वे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रहीं. वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गई हैं.

अपने पूरे कार्यकाल में मायावती ने न दलित महिलाओं में सामाजिक चेतना लाने के लिए कोई काम किया, न आम महिलाओं के लिए कुछ किया. वे अंबेडकर पार्क बनाने में ज्यादा व्यस्त दिखीं.

कहां खो गईं वसुंधरा

राजस्थान की मुख्यमंत्री रही वसुंधरा राजे सिंधिया लोकसभा चुनाव में गायब हो गई हैं. उन के समर्थक सांसदों को हाशिए पर ढकेल दिया गया है. वसुंधरा राजे सिंधिया भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट से गायब हो गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ उन के मतभेद जगजाहिर हैं. राजस्थान में विधानसभा चुनाव में जब भाजपा ने बहुमत हासिल किया तब वसुंधरा राजे सिंधिया का नाम मुख्यमंत्री के रूप में रेस में था. इस के बाद उन का नाम मुख्यमंत्री की रेस से बाहर हो गया. राजनीतिक रूप से वसुंधरा राजे सिंधिया का कैरियर ढलान पर है.

5 बार विधायक और 5 बार लोकसभा सांसद रहीं ग्वालियर राजघराने की बेटी और धौलपुर राजघराने की बहू वसुंधरा राजे इस चुनाव में हाशिए पर हैं.

वे कई वोटबैंक का प्रतिनिधित्व करती हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश राज्य और कार्मिक मंत्रालय जैसे विभागों की मंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे को राजस्थान के रण में उतारा गया तो उन्होंने भाजपा की उदास और कलहभरी राजनीति के बावजूद 2003 के चुनाव में 200 में से 120 सीटें ला कर इतिहास रच दिया था.

देश में भाजपा के क्षेत्रीय नेताओं में सिर्फ वसुंधरा राजे ही ऐसी थीं जो केंद्रीय नेतृत्व के सामने एक शक्तिकेंद्र के रूप में उभरीं. वसुंधरा राजे का जीवन बहुत उतारचढ़ाव भरा रहा है. आज केंद्र के साथ उन के रिश्तों को ले कर बहुत सवाल उठ रहे हैं, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि पार्टी या केंद्रीय नेतृत्व के प्रति उन की कोई नाराजगी है.

देश की महिलाओं के लिए वसुंधरा राजे किसी तरह का आदर्श स्थापित करने में असफल रही हैं. वे न उन की शिक्षा, न बालविवाह, न दहेज के खिलाफ खड़ी हुईं जो राजस्थान की महिलाओं की बड़ी कमजोरी है.

कहां गायब उमा भारती

एक धारणा यह बनाई जा रही है कि भाजपा में ओबीसी जातियों को महत्त्व दिया जा रहा है. असल में यह बात पूरी तरह से सच नहीं है. अगर यह सच होता तो उमा भारती भाजपा की मुख्यधारा का हिस्सा होतीं. उमा भारती लोधी परिवार से आती हैं. राम मंदिर आंदोलन के समय वे सब से चर्चित चेहरों में से थीं.

22 जनवरी, 2024 को जब अयोध्या में राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा का कार्यक्रम था तब उन को दूर ही रखा गया. मध्य प्रदेश में उमा भारती की राजनीति ग्वालियर की महारानी विजयराजे सिंधिया के जरिए आगे बढ़ी थी.

वे युवावस्था में ही भारतीय जनता पार्टी से जुड़ गई थीं. उन्होंने 1984 में सर्वप्रथम लोकसभा चुनाव लड़ा पर हार गईं. 1989 के लोकसभा चुनाव में वे खजुराहो संसदीय क्षेत्र से सांसद चुनी गईं और 1991, 1996 और 1998 में यह सीट बरकरार रखी. 1999 में वे भोपाल सीट से सांसद चुनी गईं. बाजपेयी सरकार में वे मानव संसाधन विकास, पर्यटन, युवा मामले एवं खेल और अंत में कोयला व खदान जैसे विभिन्न राज्य स्तरीय और कैबिनेट स्तर के विभागों में कार्य किया.

2003 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में, उन के नेतृत्व में भाजपा ने तीनचौथाई बहुमत प्राप्त किया और मुख्यमंत्री बनीं. अगस्त 2004 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जब उन के खिलाफ 1994 के हुबली दंगों के संबंध में गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ. नवंबर 2004 में लालकृष्ण आडवाणी की आलोचना के बाद उन्हें भाजपा से बरखास्त कर दिया गया. 2005 में उन की बरखास्तगी हट गई और उन्हें पार्टी की संसदीय बोर्ड में जगह मिली.

उसी साल वे पार्टी से हट गईं क्योंकि उन के प्रतिद्वंद्वी शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. इस दौरान उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी नाम से एक अलग पार्टी बना ली. 7 जून, 2011 को उन की भाजपा में वापसी हुई. उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने गंगा बचाओ अभियान चलाया. मार्च 2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वे महोबा जिले की चरखारी सीट से विधानसभा सदस्य चुनी गईं. महिला बचाओ अभियान जैसा कोई काम उन्होंने किया हो, दिखता नहीं.

ममता बनर्जी पर टिकी नजर

जमीनी स्तर से जुड़ी, जनाधार वाली महिला नेताओं की भूमिका 2024 के लोकसभा चुनाव में भले न दिख रही हो लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ध्रुव तारे की तरह राजनीति के आसमान पर चमक रही हैं. एक तरह से देखें तो वे सभी महिला नेताओं की कमी को पूरा किए दे रही हैं. 20 मई, 2011 को ममता बनर्जी ने पहली बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री की कुरसी संभाली, तब से आज तक वे मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के रूप में उन का यह तीसरा कार्यकाल चल रहा है. केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रही हैं.

कांग्रेस से अलग होने के बाद 1998 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस बनाई. ममता बनर्जी को दीदी कहा जाता है. ममता बनर्जी ने पहले 2 बार रेलमंत्री के रूप में कार्य किया. ऐसा करने वाली वे पहली महिला थीं. वे भारत सरकार के मंत्रिमंडल में दूसरी महिला कोयला मंत्री और मानव संसाधन विकास, युवा मामले और खेल, महिला एवं बाल विकास मंत्री भी रही हैं. आज के समय में वे पूरे भारत में अकेली महिला मुख्यमंत्री हैं. भारतीय जनता पार्टी के विजयरथ का पहिया पश्चिम बंगाल में फंस जाता है. इस का कारण ममता बनर्जी हैं. अब लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी अकेले मुकाबला कर रही हैं.

गूंगी गुडि़या सी महिला सांसद

एकएक कर यह पूरी महिला टोली अकेली पड़ गई. धर्मसत्ता ने दूसरी मजबूत महिला नेताओं को जमने नहीं दिया. भले ही चुनावदरचुनाव लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या बढ़ती गई हो पर वे संसद में महज गूंगी गुडि़या सी बन कर रह जाती हैं. वे पार्टी की बताई लाइन से अलग नहीं बोल पातीं. 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज कानून बना कर पंचायत और शहरी निकाय चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी का आरक्षण दिया. एक तरह से यह भी आधी आबादी के हिसाब से कम था.

इस के लागू होने के बाद भी हालात नहीं बदले. महिला आरक्षित सीटों पर नाम के लिए महिलाओं को चुनाव लड़ाया जाने लगा लेकिन परदे के पीछे उन के पति, पिता या बेटा ही काम करते रहे. इस के लिए एक शब्द प्रधानपति चलन में आ गया. शहरों में महिला पार्षद का काम उन के पति देखने लगे. वे पार्षदपति बन गए. पंचायती राज कानून के बाद यह जरूरत महसूस की गई कि विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाए. 1990 के बाद इस के कई प्रयास किए गए. यूपीए की सरकार के समय 2 बार महिला आरक्षण बिल संसद में पेश किया गया.

कई दलों के विरोध के कारण बिल पास नहीं हो सका. 2023 में यह बिल पास हुआ. अब 2029 में इस के लागू होने की उम्मीद की जा रही है. समाजवादी पार्टी, राजद जैसे दलों ने इस का विरोध किया. उन की महिला सांसद चुप रहीं. वे महिला से अधिक पार्टी के तंत्र पर काम कर रही थीं. असल में धर्मसत्ता महिलाओं को चुप रहने के लिए बाध्य करती है. आजादी के बाद महिलाओं को शिक्षा के अधिकार की बात होती है. पढ़ीलिखी लड़कियों को कहा जाता है कि तुम्हारा काम पढ़ाई से अधिक शादी करना है. परीक्षाओं में सब से अच्छे नंबर ला कर पास होने के बाद भी उन को नौकरी करने नहीं दिया जाता है.

धर्म सिखाता है चुप रहना

सवाल उठता है कि देश में फ्रांस की जौन औफ आर्क जैसी महिला क्यों नहीं हो सकी. असल में हमारे देश में महिलाओं को हमेशा धर्म के नाम पर पीछे रखा गया. उन को कदमकदम पर एहसास कराया गया कि वे कमजोर हैं. उन को हमेशा किसी न किसी सहारे की जरूरत होगी. शादी के बाद ससुराल में पति और ससुर जैसा चाहेगा उन को वैसा करना होता है. लड़की चाहे पढ़ीलिखी, कामकाजी हो या अनपढ़, घरपरिवार और उस से जुड़े फैसलों में लड़की से अधिक घर वालों की चलती है.

मसला चाहे मनपसंद शादी का हो, गर्भपात का हो, बच्चे पैदा करने का, हर जगह महिला के अधिकार सीमित कर दिए जाते हैं. यही नहीं, आर्थिक मामलों में उस की राय नहीं ली जाती. सब से आश्चर्य वाली बात यह होती है कि महिला इस में चुप रह कर खामोशी से इन फैसलों को स्वीकार कर लेती है. इस की वजह यह है कि हमेशा से धर्म सिखाता है चुप रहना. धर्म के नाम पर उस के साथ अन्याय होता रहता है. जो महिला अपने अधिकारों के लिए नहीं बोल पाएगी वह राजनीति में आ कर भी दूसरी महिलाओं के लिए नहीं बोल पाएगी.

कई पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि राम ने लंका विजय के बाद विभीषण को लंका का राजा बना दिया. राम ने मंदोदरी को प्रस्ताव दिया था कि वह अपने देवर विभीषण से शादी कर ले. मंदोदरी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था. इस के बाद राम, सीता और हनुमान ने उस को सम?ाने के लिए तर्क दिए. तब मंदोदरी अपने फैसले पर टिक नहीं सकी. उस को लगा कि देवर विभीषण के साथ शादी करना गलत नहीं होगा. यह महसूस होने पर उस ने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. तब विभीषण से उस की शादी हुई.

इतिहास में कई ऐेसे प्रसंग हैं जहां पति की मौत के बाद महिलाएं या तो सती हो जाती थीं या फिर देवर से शादी कर लेती थीं. देवर शब्द का अर्थ ही दो वर का माना जाता है. आज भी महिलाओं को जिस लक्ष्मणरेखा में रहने को कहा जाता है वह रामायण काल की उत्पत्ति है.

लक्ष्मण ने सीता को कुटी के अंदर रहने के लिए कहा था. बाहर एक रेखा गोल आकार में कुटी के चारों तरफ खींच दी थी. सीता ने लक्ष्मणरेखा का पालन नहीं किया. जिस से उन का अपहरण हो गया. आज महिलाओं को जब शिक्षा दी जाती है तो सब से अधिक उन को लक्षमणरेखा के अंदर रहने को कहा जाता है.

धर्मसत्ता का प्रभाव

आदमियों के लिए किसी काल में कोई लक्ष्मणरेखा नहीं बनी. अपराध इंद्र करते हैं, दंड अहल्या को मिलता है. महाभारत काल में द्रौपदी को अपने 5 पतियों के साथ रहना पड़ा, कुंती ने वस्तु सम?ा कर ऐसा आदेश उसे दे दिया था. धर्म की बात थी द्रौपदी कभी मुंह खोल कर मना नहीं कर पाई.

धर्मग्रंथों में महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व को कभी स्वीकार नहीं किया गया. महिला को पिता, पति और पुत्र के अधीन रहने को कहा गया. महिला के लिए पति का स्थान ईश्वर से ऊपर बताया गया. पति को परमेश्वर कहा गया. पति की चरणदासी बन कर उस की आजीवन सेवा करने को ही महिला का धर्म कहा गया.

आज भी कई मंदिरों में 10 साल से 50 साल की उम्र की महिला को प्रवेश नहीं दिया जाता है. इस की वजह उन का मासिकधर्म माना गया. माह के 4 दिन महिला को अछूत सम?ा जाता है. सबरीमाला मंदिर का विवाद काफी चर्चा में रहा था. मासिकधर्म के दौरान महिला के लिए कई काम वर्जित माने जाते हैं. इस में महिलाओं के मंदिर जाने, अचार छूने, पूजा करने, खाना पकाने, पेड़पौधों को छूने और बाल धोने से मना किया जाता है. महिलाओं को शिक्षा, राजनीति ही नहीं, निजी जीवन में भी धर्मसत्ता के दबाव में काम करना पड़ता है.

19वीं शताब्दी में सावित्रीबाई फुले ने जो शुरुआत की, उस का प्रभाव महिलाओं पर देखने को नहीं मिलता है. उलटे, आज पढ़ीलिखी महिलाएं धर्म के दबाव में वह सब कर रही हैं जिस से खुद उन का प्रभाव घटेगा. जो समय महिलाओं को अपनी तरक्की, कारोबार, राजनीति में लगाना चाहिए वह समय वे धार्मिकसेवा में लगा रही हैं. आज पढ़ीलिखी महिलाओं ने डिग्री हासिल कर ली है, नौकरी करने लगी हैं लेकिन तर्कशक्ति का अभाव हो गया है.

आज उन को धर्म के कामों से जोड़ कर उन की ताकत को कमजोर किया जा रहा है. उन का काम पीली साड़ी पहन कर सिर पर कलश रख लंबेलंबे जुलूस में शामिल होने का बताया जाता है. महिलाएं इस काम को हंसीखुशी कर भी ले रही हैं. जो महिलाएं इस में हिस्सा नहीं लेतीं उन का बायकौट किया जाता है. उन को पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित बता कर उन के चरित्र पर भी हमला किया जाता है. ऐेसे में महिलाएं अपने सारे फैसले धर्मसत्ता के दबाव में लेने लगी हैं.

अमेरिका में हिंदू कट्टर सोच की तरह क्रिश्चियनिटी के कट्टरपंथ चर्च औफ जीसस क्राइस्ट औफ लैटर-डे सेंट्स की रिसर्च ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका के जिन राज्यों में इस पंथ का प्रभाव है वहां महिलाओं का लेबर पार्टिसिपेशन कम है. 1900 में 20 फीसदी महिलाएं अमेरिका में लेबर फोर्स में थीं और अब लगभग 60 फीसदी हैं पर जहां चर्च उन्हें धार्मिक कामों में उल?ाए रखता है वहां वे न काम कर पाती हैं, न राजनीति में आगे हो पाती हैं.

हमारे यहां महिलाओं के लिए व्रत, त्योहारों, मंदिर दर्शनों, तीर्थयात्राओं की लंबी सूची है. ये बेहद थकाऊ तो होती ही हैं, जो भी महिलाएं इन्हें धर्मनिष्ठा से अपनाती हैं वे कभी भी राजनीति में कदम नहीं रख सकतीं, काम पर जाने में भी उन्हें दिक्कत होती है. किसी भी सरकार ने या संस्था ने इस बारे में कोई मुहिम चलाने की हिम्मत नहीं की.

एक महिला अपने पेट से बच्चा कब पैदा करे, इस को धर्म बता रहा है. डाक्टरों पर दबाव डाला जाता है कि शुभमुहूर्त में ही बच्चा गर्भ से बाहर आए. जिस महिला के बच्चा नहीं पैदा होता, उस से भी व्रत रखने, हवनपूजा करने के लिए कहा जाता है. पढ़ाईलिखाई के बाद भी महिलाएं खुद धर्म की जंजीरों को पहन ले रही हैं. वे इस बात का दिखावा करती हैं कि वे पूजापाठी हैं, कर्मकांड करती हैं, धर्म को मानती हैं.

महिला नेता भी खुद को धार्मिक दिखाती हैं. यह माना गया था कि राजनीतिक जागरूकता के बाद महिलाओं की सोच बदलेगी, लेकिन महिलाएं खुद को रूढि़यों की जंजीरों में जकड़ रही हैं. ऐसे में अब यह सवाल उठता है कि सावित्रीबाई फुले जैसी समाजसुधारक भी इन को कैसे सुधार पाती?

वौरियर मौम्स की जरूरत

‘वौरियर मौम्स’ नाम की संस्था का गठन दिल्ली में भवरीन कंधारी ने किया है जो प्रदूषण मुक्त शहरों की मांग कर रही हैं और इस चुनावी जंग में उतरे उम्मीदवारों से मांग कर रही हैं कि वे साफ हवा, कूड़े के सही निबटान, हैल्थकेयर, शिक्षा प्रबंध में सुधार और साफ ईंधन का वादा करें. वौरियर मौम्स की जरूरत इसलिए पड़ी है क्योंकि राजनीति में महिलाएं न के बराबर हैं और जो हैं भी, वे चुप रहती हैं क्योंकि सत्ता में बैठे लोग उन की नहीं सुनते.

साधारण म्यूनिसिपल सेवाएं जो आसानी से उपलब्ध कराई जा सकती हैं, आज देश की महिलाओं को नहीं मिल रही हैं क्योंकि वे अपने वोट देते समय धर्म, जाति, परंपराओं, संस्कारों को आगे रखती हैं. वे आगे बढ़ कर शासन संभालने में कोई रुचि नहीं दिखा रही हैं क्योंकि सदियों से जो जंजीरें धर्म और शासकों ने समाज के सहारे, पुरुषों की साजिश से उन्हें पहनाई हैं, आज भी वे उन्हें अपना गहना मानती हैं, अपना हक मानती हैं.

एक और स्वयंसेवी संस्था ‘स्वाभिमान’ हाशिए पर रह रही महिलाओं को पौष्टिक खाना, स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वरोजगार की ट्रेनिंग आदि देने का काम कर रही है. पिछले साल इस संस्था ने करीब 72,650 युवतियों, लड़कियों व महिलाओं का सशक्तीकरण किया. ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान, आरती फौर गर्ल्स, राजस्थान समग्र कल्याण संस्थान, सेवा आदि बीसियों स्वयंसेवी संस्थाओं ने अपने गुट बना रखे हैं ताकि महिलाओं में चेतना लाई जा सके, उन्हें सुरक्षा दी जा सके, उन्हें स्वस्थ बनाया जा सके.

ये जंजीरें हैं कैसी

सवाल है कि राजनीति में पैठ बनाए महिलाएं आखिर क्या कर रही हैं जो देश में महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय बनी हुई है. इस की वजह ये संस्थाएं अगर जानती भी हैं तो कहना नहीं चाहतीं कि हर धर्म ने अपनी महिलाओं को अपने ग्रंथों में लिखे आदेशों के सहारे सदियों से दबा कर रखा है और आज 21वीं सदी में भी जब नागरिक अधिकारों की पहचान हो चुकी है, महिलाएं घरों में ही नहीं, दफ्तरों, बाजारों, स्कूलों, कालेजों, राजनीति में दोयम दर्जे पर हैं. वे उन अदृश्य जंजीरों से बंधी हैं जो कई सदी पहले टूट जानी चाहिए थीं. आजादी के 80 साल बाद भी और 150-200 वर्षों की शिक्षा के बावजूद उन को स्थान नहीं मिला है.

इस के लिए जहां धर्म दोषी है, वहीं वे महिलाएं भी दोषी हैं जो राजनीति में आईं पर उन्होंने अपनी ही बहनों की जंजीरों को काटने, तोड़ फेंकने में कोई रुचि नहीं दिखाई. उन की यह उदासीनता आज की औरतों को भारी पड़ रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि जब कोई औरत पार्षद, पंच, सरपंच, विधायक, सांसद बन कर उन का कल्याण नहीं कर सकती तो वे उस पुरुष समाज का मुकाबला कैसे करें जो धर्म की दी गई जंजीरें उन्हें जन्म लेते ही पहले दिन पकड़ा देता है.

जब तक महिलाएं धर्म की मानसिक गुलामी से खुद को आजाद नहीं करेंगी, उन के लिए जौन औफ आर्क जैसी ताकत बनना संभव नहीं है. ये महिलाएं इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाएंगी. पिछले 10 वर्षों में महिलाएं राजनीतिक रूप से हाशिए पर अपनी कमजोरी की वजह से पहुंची हैं क्योंकि वे धर्मसत्ता की पिछलग्गू बन कर रह गई हैं. महिलाएं आधी आबादी यानी 50 फीसदी होने के बाद भी अपनी पहचान को तरस रही हैं. इस के विपरीत 10-12 फीसदी वाले सत्ता में हिस्सेदारी ले कर सक्रिय राजनीति कर रहे हैं.

 

Film Review In Hindi : ऐ वतन मेरे वतन

देशभक्ति वाली फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’ का शीर्षक फिल्म ‘राजी’ के लिए लिखे गए गुलजार के गाने की एक लाइन पर रखा गया है. फिल्म अंगरेजों की गुलामी से देश को आजाद कराने पर है. फिल्म की कहानी बताती है कि देश की आजादी में सिर्फ गांधी, नेहरू का ही योगदान नहीं है बल्कि यह आजादी हमें उन गुमनाम नायकों की हिम्मत और हौसलों से भी मिली है जिन्हें आज देश भूल चुका है. उन गुमनाम नायकों ने अपनेअपने इलाकों में अंगरेजों के अत्याचारों का मुकाबला किया, ठीक उसी तरह जैसे आजकल ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं.

24 वर्षों पहले दिवंगत हुई कांग्रेस की एक नौजवान कार्यकर्ता उषा मेहता ने आजादी की इस लड़ाई को जारी रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. आज लोग भले ही उषा मेहता को भूल चुके हैं परंतु उस वक्त अंगरेजी शासन में बतौर जज जैसे ओहदे पर बैठे हरि मोहन (सचिन खेडेकर), जो अंगरेजों का गुणगान करते थकते नहीं थे, की बेटी उषा मेहता (सारा अली खान) देश की खातिर अपना घर छोड़ कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ती है. देर से ही सही, भारत सरकार ने 1998 में उषा मेहता को पद्म विभूषण से सम्मानित किया. फिल्म की कहानी 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की है, जब इस आंदोलन को दबाने के लिए अंगरेजी हुकूमत ने गांधी और नेहरू समेत कांग्रेस के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया था ठीक उसी प्रकार जैसे आजकल हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. वे कांग्रेस के साथसाथ अन्य विपक्षी पार्टियों के लीडरों को ईडी का भय दिखा कर जेलों में ठूंस रहे हैं.

कांग्रेसी कार्यकर्ता अंडरग्राउंड हो कर आजादी की लड़ाई जारी रख रहे थे. इन कार्यकर्ताओं की आजादी की लड़ाई में उषा मेहता बड़ी मददगार साबित हुई. कहानी की शुरुआत उषा मेहता के बचपन से शुरू होती है. स्कूल में अध्यापक बच्चों को नमक बांट रहे हैं और वे गांधी के नमक सत्याग्रह के बारे में बच्चों को बता रहे हैं. तभी वहां अंगरेज पुलिस आती है और बच्चों की पिटाई करती है. जज साहब शर्मिंदा हैं कि उन की बेटी पिट कर आई है. बड़ी हो कर उषा मेहता अपने साथियों के साथ कांग्रेस की बैठकों में शामिल होती है. वह कांग्रेस पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद कांग्रेस रेडियो शुरू करती है और देश के युवाओं तक अपनी आवाज पहुंचाती है. वह देश की खातिर अपना घर छोड़ देती है. मशहूर स्वतंत्रता सेनानी राम मनोहर लोहिया (इमरान हाशमी) की मदद से उषा और उस के दोस्त कांग्रेस रेडियो के माध्यम से जेल में बंद नेताओं की आवाज देशभर में पहुंचाते हैं.

अंगरेजी हुकूमत उषा मेहता और उस के साथियों की आवाज दबाने के लिए उन्हें लाठियों से पिटवाती है, गोलियां चलवाती है. उषा मेहता को गिरफ्तार कर लिया जाता है. उसे 4 साल की सजा का ऐलान होता है. 1946 में उषा मेहता रिहा होती है, मगर आजादी की लड़ाई को वह जारी रखती है. उस के बाद की कहानी सभी को मालूम है. 1947 में भारत आजाद होता है. फिल्म की कमजोर कड़ी सारा अली खान रही है. उस ने अपनी पहली फिल्म ‘केदारनाथ’ से ले कर ‘मर्डर मुबारक’ फिल्म तक अभिनय में कोई खास प्रगति नहीं की है. फिल्म की कहानी शुरू से ही प्रिडिक्टिबल है. फिल्म का संगीत औसत है, कोई जोशीला गीत नहीं है. संपादन सुस्त है. सिनेमेटोग्राफी चलताऊ है.

बेटी के पहले पीरियड्स का पता मुझे कैसे चलेगा?

सवाल 

मेरी बेटी अगले महीने 12 साल की हो जाएगी. मुझे अब उस के पीरियड्स के बारे में सोच कर चिंता शुरू हो गई है. मुझे कैसे पता चलेगा कि उसे पीरियड्स शुरू होने वाले हैं. वह कैसे सब मैनेज करेगी. बहुत लापरवाह किस्म की है. स्कूल में स्पोर्ट्स में नंबर वन है. कैसे सब ऐडजस्ट करेगी?

जवाब

मां होने के नाते आप की चिंता जायज है. आप खुद इस दौर से गुजरी हैं. खैर, पीरियड्स होना, लड़कियों के लिए हैल्दी होने की निशानी होता है.

फिलहाल पीरियड्स की शुरुआत होना हर लड़की के लिए अलग अनुभव होता है और यह कब स्टार्ट हो जाए, पता नहीं चलता. लेकिन फर्स्ट टाइम पीरियड्स आने से पहले आप को बेटी में कई तरह के संकेत नजर आने लगेंगे. ऐसे में आप को ही बेटी को पीरियड्स के लिए तैयार करना है. जैसे बेटी को पहली बार पीरियड्स शुरू होने से पहले ऐंठन, पेट में दर्द, पीठ और पैरों में दर्द या अकड़न जैसी कुछ समस्याएं हो सकती हैं. ऐसा कुछ दिनों तक चल सकता है.

पेट में सूजन होना या पेट भरे होने का एहसास होना भी पीरियड्स की शुरुआत होने की ओर इशारा कर सकता है. पीरियड्स की शुरुआत से पहले लड़कियों के शरीर में हार्मोनल बदलाव होते हैं. नतीजतन, चेहरे पर कीलमुंहासे हो सकते हैं. इन दिनों टीनएज गर्ल्स को बारबार मूड स्ंिवग होने लगते हैं.

रही बात कि वह कैसे सब मैनेज करेगी, तो आप को उसे बताना/सिखाना होगा. बेटी को बताएं कि पीरियड्स में ब्लीडिंग कभी हैवी, तो कभी लाइट हो सकती है. ब्लड फ्लो से वह घबराए नहीं. बेटी को बताएं कि किस तरह से पैड लगाए जाते हैं. टैम्पोन के इस्तेमाल के बारे में भी आप उसे जानकारी दे सकती हैं. पीरियड्स में घंटों तक पैड लगा कर रखना होता है, इसलिए बेटी को समझाएं कि 5 घंटे में पैड चेंज करे. वह सब ऐडजस्ट कर लेगी, आजकल लड़कियां सहेलियों से भी बहुतकुछ पहले ही सीख लेती हैं. आप बेवजह अधिक चिंता न करें.

भावनाओं में बहते मतदाता

इस बार के लोकसभा चुनाव खासे रोचक होंगे. भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह राम मंदिर बनाने के बावजूद ताबड़तोड़ ढंग से नीतीश कुमार के जदयू, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी, जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के अलावा 30-32 और पार्टियों से गठजोड़ किया है और दूसरी तरफ आधाअधूरा इंडिया ब्लौक घिसटघिसट कर बना है, लोगों को या तो नरेंद्र मोदी को वोट देना होगा या उन के खिलाफ. वोट बंटने की वजह से पहले जो प्रत्याशी 30-35 प्रतिशत वोट हासिल कर भी जीत जाते थे, वैसा इस बार कम होगा.

एक तरह से भारतीय जनता पार्टी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है कि 2014 की तरह 2024 का चुनाव भी भारत के इतिहास में मील का पत्थर साबित हो. जनता को हर तरह लुभाया गया है- धर्म के नाम पर, रेलों के नाम पर, हवाई अड्डों के नाम पर, सस्ती घरेलू गैस के नाम पर, भत्तों और आर्थिक सहायता के नाम पर. भाजपा ने यह साबित करने की कोशिश की है कि वही एक पार्टी है जो एकजुट है, जिसे लोग छोड़ते नहीं, जिस में मतभेद नहीं और वही भरोसे लायक है.

दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने अपने सीनियर नेता राहुल गांधी की पद यात्राओं से पैदा हुई जनता की रुचि को कैश करने और वोटों में बदलने की कोशिश में लगभग सभी राज्यों में विभिन्न दलों से सम?ाते कर लिए हैं. कांग्रेस का संगठन हजार मुश्किलें आने और बारबार कांग्रेस छोड़ने वालों की संख्या बढ़ने के बावजूद अभी भी दूसरे सभी दलों से बड़ा है, फिर भी उस की लीडरशिप ने बहुत उदारता दिखाई है.

नतीजा यह है कि इस बार चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और इंडिया ब्लौक कुछ सीटों को छोड़ कर आमनेसामने होंगे. एक तरह से यह अच्छा है पर दूसरी तरह से बेहद खतरनाक भी. अच्छा इसलिए है कि भाजपा के अंधविश्वास और धर्म की राजनीति के एजेंडे के खिलाफ सब दल एकसाथ हो गए हैं, जबकि खतरनाक इसलिए कि यदि भाजपा के दावों के अनुसार उसे 370 से 400 सीटें मिल जाती हैं तो वह देश के साथ मनमरजी खिलवाड़ कर सकती है.

भाजपा ने पिछले 10 वर्षों में केवल शासन ही नहीं किया है, उस ने पार्टी को मजबूत, और मजबूत व और बहुत मजबूत बना डाला है. देश की सत्ता पर काबिज भाजपाई सरकार ने अब किसी की भी सुनना बंद कर दिया है. न्यायपालिका, संसद, विधानसभाएं, प्रैस, मीडिया, टैक्स ढांचा, मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे, स्कूल, कालेज, टैक्स्ट बुक्स, सेना, अफसरशाही सब का स्वरूप बदल डाला गया है. सब जगह से जनता की आवाज सुनी जानी बंद हो गई है. अब धरनों, प्रदर्शनों के जरिए कुछ कहने की गुंजाइश नहीं बची है.

भाजपा में एक का राज चलता है. कोई मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मंत्री, सांसद, विधायक अब अपनी पहचान नहीं रखते. दूसरी ओर विपक्षी दलों में न आपस में राजनीति करने की एकता है न वे कोई अलग नीति से चलने की बात कर रहे हैं. जनता के सामने जो 2 पर्याय हैं उन में कोई भी ऐसा नहीं है जो लंबे समय तक जनता को सुख देने की गारंटी दे रहा हो, जो भरोसे का हो.

पहले जनता अपनी जाति की पार्टी को वोट दे कर, भाजपा को जिता कर, यह सोच कर संतुष्ट हो जाती थी कि हमें तो जो करना था, कर दिया, अब अगर कुछ हुआ तो उस के हम जिम्मेदार नहीं. 2 पार्टी सिस्टम में भाजपा के पक्ष और विपक्ष वाले दोनों एक बड़ी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले रहे हैं. इस देश की जनता से उम्मीद तो नहीं है कि वह विवेक और तथ्य के आधार पर कोई फैसला लेगी क्योंकि उस ने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को भी जिताया था और अब भाजपा को भी जिता रही है. वह भावनाओं में बहने वाली है, सोच कर वोट करने वाली नहीं.

विदेशी बहू : उन का मिलना एक नई कहानी की शुरुआत थी

तुषार उन दिनों कोलकाता के मैरीन इंजीनियरिंग कालेज के फाइनल ईयर में था. अंतिम वर्ष में जहाज पर प्रैक्टिकल ट्रेनिंग अनिवार्य होती है. उस की ट्रेनिंग एक औयल टैंकर पर थी. यह जहाज हजारों टन तेल ले कर देश की समुद्री सीमा के अंदर ही एक पोर्ट से दूसरे पोर्ट पर जाता है. जहाज पर यह उस का पहला सफर था. तुषार काफी खुश था. वह सपने देख रहा था कि कुछ ही महीनों में उस की पढ़ाई पूरी होने के बाद विदेश जाने वाले जहाज पर वह समुद्र पार जाएगा.

खैर, उस की पढ़ाई और ट्रेनिंग सब पूरी हो गई थी और उसे मैरीन इंजीनियरिंग की डिगरी भी मिल गई थी. तुषार के पिता की मौत हो चुकी थी. उस की मां उस के बड़े भाई कमल के साथ रहती थीं. कमल तुषार से 5 साल बड़ा था. यों तो उस के पिता ने इतनी संपत्ति छोड़ रखी थी कि मां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं, फिर भी बुढ़ापे में कुछ गिरते स्वास्थ्य और बेटे से भावनात्मक लगाव के कारण वे कमल के साथ रहती थीं, पर बहू का स्वभाव अच्छा नहीं था. रोजाना सास को खरीखोटी सुनाती रहती थी. तुषार मां से कहता, ‘मैं ऐसी लड़की से शादी करूंगा जो आप को अपनी मां का दर्जा दे.’

एक शिपिंग कंपनी में तुषार को नौकरी मिल गई. शुरू में फिफ्थ इंजीनियर की पोस्ट पर जौइन करना होता है, जो जहाज का सब से जूनियर इंजीनियर होता है. उस की पोस्ंिटग एक नए जहाज पर हुई. वह जहाज जापान से बन कर आया था. जहाज को कोलकाता से कंपनी के हैडक्वार्टर मुंबई ले जाना था. हैडऔफिस ने इस जहाज को मुंबईआस्ट्रेलिया जलमार्ग पर चलाने का फैसला किया था. तुषार की मनोकामना पूरी होने जा रही थी.

आस्ट्रेलिया का सफर, वह भी नए जहाज पर. मेंटिनैंस के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी थी. खैर, उस का जहाज कोलकाता से मुंबई के लिए रवाना हुआ. यह सफर भी किसी विदेश यात्रा से कम नहीं था, पूरे 5 दिन लग गए. भारत के तीनों सागर बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर पार करते हुए वह मुंबई पहुंचा. भारतीय जलमार्ग पर इन 5 दिनों के सफर में ही उसे अनुभव हुआ कि समुद्री यात्रा कितनी कठिन होती है. जहाज के समुद्री लहरों पर उछलते रहने से कारण उसे अकसर उलटी होती थी.

मुंबई के कार्गो ले कर जहाज कोलंबो पहुंचा. यह तुषार का पहला विदेशी पड़ाव था. कोलंबो से मसाले, चाय आदि ले कर जहाज को सीधे सिडनी जाना था. जब जहाज समुद्र में चल रहा होता, उसे 4-4 घंटे की 2 शिफ्टें रोज करनी होतीं. जब जहाज पोर्ट या लंगर में होता तब 12 घंटे की शिफ्ट होती थी. उस ने अपने सीनियर्स से बात कर सिडनी पोर्ट पर 12 घंटे की डे शिफ्ट सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक की ड्यूटी रखवा ली थी ताकि वह सिडनी की नाइटलाइफ ऐंजौय कर सके.

इस के बारे में उस ने अपने दोस्तों से जानकारी ले रखी थी. खैर, लहरों पर उछलतेकूदते उस का जहाज सिडनी 12वें दिन पहुंचा. पर पोर्ट पर बर्थ खाली नहीं होने से जहाज को पोर्ट से कुछ दूरी पर लंगर डालना पड़ा. रात का समय था. तुषार डेक पर खड़ा हो कर नजारा देख रहा था. दूर से ही उसे सिडनी शहर की बहुमंजिली इमारतें दिख रही थीं. एक ओर विश्वप्रसिद्ध औपेरा हाउस था तो दूसरी तरफ मशहूर सिडनी हार्बर ब्रिज. उस का मन मचल रहा था कि कब लंगर उठे और जहाज को बर्थ मिले. दूसरे दिन दोपहर तक जहाज को पोर्ट पर एंटर करने की अनुमति मिल गई.

जहाज हार्बर ब्रिज के नीचे से गुजर रहा था और तुषार डेक पर खड़ा हो कर इस दृश्य को देख कर रोमांचित हो रहा था. कुछ ही देर बाद जहाज पोर्ट पर था. इस जहाज को सिडनी में एक सप्ताह रुकना था. अब उसे इंतजार था शाम का. जहाज पर डिनर शाम 6 बजे से मिलने लगता है. तुषार ने जल्दी से डिनर लिया और एक अन्य जहाजी के साथ शहर घूमने निकल पड़ा. एक क्लब में गया. दोनों ने बियर ली. 2 लड़कियां बगल की टेबल पर बैठी बातचीत कर रही थीं. तुषार का वह साथी पहले भी कई बार आस्ट्रेलिया आ चुका था, सो, उसे यहां का आइडिया था. उस ने लड़कियों को ड्रिंक औफर कर अपनी टेबल पर बुलाया.

फिर तो लड़कियों ने जम कर बियर पी. काफी देर तक वे डांस करते रहे. बीचबीच में कुछ देर के लिए टेबल पर आते. कुछ देर बैठ कर बातें करते. और बियर पी लेते. फिर डांसफ्लोर पर लड़की की कमर में बांहें डाल कर थिरकते. तुषार को बहुत मजा आ रहा था. यह उस का पहला मौका था गोरी बाला के साथ डांस करने का. रात 11 बजे वह अपने दोस्त के साथ वापस जहाज पर आ गया.

तुषार ने सिडनी की किंग क्रौस रोड की नाइटलाइफ के बारे में काफी सुन रखा था. दूसरे दिन उस ने किंग क्रौस जाने का फैसला किया, उस के सहकर्मी ने बताया कि वहां जा कर स्ट्रिप टीज का मजा लेना. किंग क्रौस पर नाइट शो क्लब काफी हैं. उस से कहा गया कि उस रोड पर पिंक पैंथर नामक क्लब में अच्छा शो होता है.अगले दिन रात को टैक्सी पकड़ ठीक 8 बजे वह पिंक पैंथर जा पहुंचा. वहां 10 डौलर का टिकट लिया और अंदर डांसिंग रैंप के नजदीक वाली कुरसी पर जा बैठा.

यहां वह एक बार के टिकट में ही 2-2 घंटे के स्ट्रिप टीज शोज रातभर देख सकता था. इन 2 घंटों में 12 सुंदरियां एकएक कर आ कर अपने कपड़े उतारतीं और कम से कम वस्त्रों में या कभी बिलकुल नग्न हो कर गाने पर ‘पोल डांस’ भी दिखाती थीं. शो के बीच में बार टैंडर लड़कियां आ कर सिगरेट, बियर आदि बेचतीं. वे गले में पट्टे के सहारे एक टे्र में बियर, सिगरेट आदि बेचतीं. एक ने तुषार से पूछा, ‘‘कुछ चाहिए?’’ तो वह बोला, ‘‘एक स्वान लैगर बियर कैन प्लीज.’’ वह बोली, ‘‘आप को 5 मिनट बाद ला कर देती हूं. अभी मेरी ट्रे में नहीं है.’’ इतना बोल कर वह चली गई पर तुषार उसे देखे जा रहा था.

वह लगभग 18 साल की सुंदरी थी. 5 मिनट बाद उस ने बियर ला कर तुषार को दी और पूछा, ‘‘और कुछ?’’ तुषार बोला, ‘‘और कुछ नहीं, बट…’’ ‘‘बट मतलब?’’ ‘‘तुम इस शो के बाद मेरे साथ कुछ समय बिता सकती हो?’’ धीरे से मुसकरा कर वह बोली, ‘‘आप जो समझ रहे हैं, मैं वह लड़की नहीं हूं. हां, आप को उस टाइप की लड़की चाहिए तो यहां और भी हैं. क्या मैं उन में से एक को बोल दूं?’’ ‘‘अरे नहीं, मैं भी वैसा नहीं जो तुम समझ बैठी. बस, 2-3 घंटे टाइमपास, साथ बैठ कर बातें, डिनर और बियर, इस से ज्यादा कुछ नहीं.’’ ‘‘श्योर?’’ लड़की ने पूछा. तुषार बोला, ‘‘हंड्रैड परसैंट श्योर. तो कल संडे है, शाम को मिलो.’’ ‘‘नहीं, छुट्टी के दिन यहां अच्छी कमाई हो जाती है.

50 डौलर से अधिक टिप्स में मिल जाते हैं. मैं भी बस पार्टटाइम 4 घंटे के लिए आती हूं.’’ तुषार ने कहा, ‘‘ओके, मंडे शाम को. डार्लिंग हार्बर के निकट तुंबलोंग पार्क में मिलो. मैं सिर्फ 5 दिन और यहां हूं. कल शाम भी यहां मिलूंगा, तुम अपना नाम तो बताओ.’’ ‘‘मैं, स्कारलेट,’’ लड़की बोली. ‘‘और मैं तुषार.’’ संडे शाम को तुषार फिर पिंक पैंथर में था. इस बार जान कर वह पीछे की सीट पर बैठा ताकि स्कारलेट से आराम से कुछ बातें कर सके. शो चल रहा था, स्कारलेट आ कर बोली, ‘‘आप का स्वान लैगर बियर?’’ तुषार ने बियर की पेमैंट और टिप दी और कहा, ‘‘दो मिनट मेरे पास रुको न.’’ ‘‘आज काफी भीड़ है. कुछ कमा लेने दो. कल शाम 6 बजे तो मिल ही रहे हैं. 4-5 घंटे आराम से बातें करेंगे दोनों.’’

उस दिन तुषार बस 2 घंटे का एक शो देख कर जहाज पर लौट आया. अगले दिन सोमवार शाम को ठीक 6 बजे तुषार और स्कारलेट पार्क में मिले. तुषार ने पूछा, ‘‘वेल स्कारलेट, तुम पिंक पैंथर जैसी जगह में क्यों काम करती हो?’’ ‘‘मैं अनाथ हूं. मेरे मातापिता दोनों की एक दुर्घटना में मौत हो गई थी. कुछ साल मैं अंकल के साथ रही. उन्हीं के यहां रह कर स्कूलिंग कर रही थी. उन का व्यवहार ठीक नहीं था, तो पिछले साल मैं अलग एक गर्ल्स होस्टल में शिफ्ट हो गई. एक और लड़की के साथ रूम शेयर करती हूं. पिंक पैंथर जैसी जगह पर काम करने के लिए कोई डिगरी या अनुभव नहीं चाहिए.

बस, अपनी इच्छाशक्ति मजबूत होनी चाहिए. पार्टटाइम काम करती हूं. स्कूल का फाइनल ईयर है और अब तुम बताओ अपने बारे में.’’ इतना कुछ वह एकसाथ बोल गई. तुषार ने अपना परिचय देते हुए अपने परिवार के बारे में संक्षेप में बताया. फिर उस ने पूछा, ‘‘पिंक पैंथर्स से तुम्हारा खर्च निकल आता है?’’ ‘‘नहीं. कुछ पैसे पिताजी भी छोड़ गए थे. हालांकि उसी की बदौलत पिछले साल तक मेरा काम चला है. कुछ अंकल ने हड़प लिए. वैसे पिंक पैंथर के अलावा सुबह 2 घंटे एक घर में मेड का भी काम करती हूं. दोनों मिला कर काम चल जाता है.’’ तुषार और स्कारलेट दोनों कुछ देर बातें करते रहे. फिर एक इंडियन रैस्टोरैंट में दोनों ने डिनर किया. स्कारलेट ने पहली बार इंडियन खाना खाया था.

उसे यह बहुत अच्छा लगा. तुषार ने पूछा, ‘‘ड्रिंक करती हो?’’ वह बोली, ‘‘सिर्फ बियर. और कुछ नहीं.’’ ‘‘अच्छा संयोग है. मैं भी सिर्फ बियर ही लेता हूं.’’ रैस्टोरैंट से निकल कर उस ने 2 बियर कैन लिए. एक स्कारलेट को दे दिया. दोनों ने अपनीअपनी बियर पी. तब तक रात के 10 बज चुके थे. तुषार ने टैक्सी बुलाईर् और कहा, ‘‘मैं तुम्हें होस्टल छोड़ते हुए जहाज पर चला जाऊंगा.’’ रास्ते में उस ने स्कारलेट से कल का प्रोग्राम पूछा तो वह बोली, ‘‘तुम ने औपेरा हाउस देखा है?’’ ‘‘हां, बाहर से देखा है. वैसे मुझे थिएटर में रुचि नहीं है.’’ ‘‘तो फिर कल तुम्हें हार्बर आईलैंड घुमा लाती हूं.’’ ‘‘मेरी डे शिफ्ट है. अपने मित्र से म्यूचुअल चेंज करने की कोशिश करता हूं. अगर चेंज हो गया तो तुम्हें फोन करूंगा.’’

स्कारलेट को होस्टल छोड़ कर वह पोर्ट चला आया. फिर अपने दोस्त से शिफ्ट म्यूचुअल चेंज कर फटाफट स्कारलेट को खबर दे दी. उस ने तुषार को सर्कुलर के फेरी स्टेशन के टिकट काउंटर पर सुबह 9 बजे मिलने बुलाया. अगले दिन दोनों फेरी पकड़ कर सागर के बीच में आईलैंड गए. वहां शहर की भीड़भाड़ से दूर आईलैंड पर तुषार को काफी अच्छा लगा. वहां से सिडनी शहर, हार्बर ब्रिज, औपेरा हाउस सब दिख रहे थे. दिनभर सैरसपाटे, गपशप करते 4 बजे तक वे वापस आ गए. फेरी स्टेशन पर कौफी सिप करते हुए तुषार बोला, ‘‘मेरा शिप परसों इंडिया के लिए रवाना हो जाएगा.’’ वह बोली, ‘‘ओह, रियली. अभी तो हम ठीक से मिले भी नहीं और इतनी जल्दी जुदाई. विल मिस यू स्वीट गाई.’’ ‘‘आई टू विल मिस यू. खैर, कल कहां मिलोगी?’’ स्कारलेट बोली, ‘‘वहीं पिंक पैंथर में.’’ ‘‘मुझे रोजरोज वहां अच्छा नहीं लगता है. तुम उस नौकरी को छोड़ नहीं सकतीं? मुझे अच्छा नहीं लगता है.’’ ‘‘कोशिश करूंगी, पर तुम्हें क्यों बुरा लगता है. मैं न तो तुम्हारी गर्लफ्रैंड हूं और न ही वाइफ.’’

तुषार बोला, ‘‘पर क्या पता, आगे बन जाओ.’’ ‘‘यू नौटी बौय,’’ कह कर स्कारलेट उस से लिपट गई. दूसरे दिन दोनों थोड़ी देर के लिए उसी क्लब के बाहर मिले. तुषार अंदर नहीं जाना चाहता था. तुषार ने बताया कि कल सुबह 10 बजे उस का शिप भारत रवाना हो रहा है. अगले दिन वह सुबह 9 बजे शिप पर मिलने आई. थोड़ी देर दोनों साथ रहे. तुषार ने अपने पैंट्री से कुछ इंडियन स्नैक्स, बियर कैन्स और चौकलेट्स पहले से मंगवा कर पैक करा रखे थे. उन्हें स्कारलेट को दिया. दोनों ने फोन और ईमेल से कौंटैक्ट में रहने की बात की. स्कारलेट बोली, ‘‘फिर कब मिलोगे?’’ तुषार बोला, ‘‘कुछ कह नहीं सकता. पर अगर इसी शिप पर रहा तो 3-4 महीने बाद फिर आना हो सकता है.’’

इस बार तुषार ने स्कारलेट को गले से लगा लिया. उस ने आंसूभरी आंखों से तुषार को विदा किया. जहाज सिडनी हार्बर छोड़ चुका था. तुषार वापसी में कुछ और देशों के बंदरगाह होते हुए मुंबई पहुंचा. वहां उसे बताया गया कि 3 महीने बाद फिर उसे सिडनी जाना होगा. वह खुश हुआ यह सोच कर कि फिर स्कारलेट से मिल सकेगा. तुषार ने एक हफ्ते की छुट्टी ली. मां से मिलने कोलकाता गया. उस ने अपनी भाभी को स्कारलेट के बारे में बताया और उस की काफी तारीफ की, पर उन्हें उस की नौकरी की बात नहीं बताई. भाभी ने व्यंग्य करते हुए सास से कहा, ‘‘देवरजी, विदेशी बहू ला रहे हैं आप के लिए.’’ मां बोलीं, ‘‘तुषार जिस में खुश, मैं उसी में खुश.’’ तुषार के भैया कमल भी वहीं थे.

वे भी मां की बात से सहमत थे. पर तुषार बोला, ‘‘अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं है. बस, 4-5 दिनों की मुलाकात थी.’’ 3 महीने बाद तुषार का शिप फिर सिडनी पोर्ट पहुंचा. उस ने स्कारलेट को सूचित कर दिया था. उस ने फोन पर पूछा, ‘‘कहां मिलोगी, वहीं पिंक पैंथर में?’’ वह बोली, ‘‘नहीं, एक महीने पहले मैं ने वह नौकरी छोड़ दी है. अब एक ट्रैवल एजेंट के यहां रिसैप्शनिस्ट हूं और उसी होस्टल में रहती हूं पर अब सिंगल रूम में रहती हूं.’’ ‘‘ठीक है, शाम को मिलते हैं.’’ इस बार भी करीब एक हफ्ते तक उसे सिडनी रुकना था. दोनों रोज शाम को 3-4 घंटे साथ बिताते. कभी स्कारलेट ही उस से मिलने शिप पर आ जाती. अब दोनों पहले से ज्यादा करीब आ चुके थे. लगभग डेढ़ साल तक तुषार इसी तरह हर 3-4 महीने बाद स्कारलेट से मिलता. दोनों में अब प्यार हो गया था.

इस बात को दोनों ने स्वीकार भी किया. एक बार जब तुषार स्कारलेट को होस्टल ड्रौप कर पोर्ट लौट रहा था, उस की टैक्सी का ऐक्सिडैंट हो गया. तुषार के दाएं पैर में काफी चोट आई थी. इस के अलावा और भी चोटें आई थीं. पुलिस ने उसे अस्पताल में भरती कर शिप के कैप्टन और भारतीय कौंसुलेट को सूचित कर दिया था. तुषार ने स्कारलेट को भी खबर करवाई. स्कारलेट तुरंत अस्पताल पहुंच गई. तुषार के शिप से भी एक अफसर आया था. उस के दाएं पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर थे. डाक्टर ने बताया कि उस के ठीक होने में लगभग 3 महीने लग सकते हैं.

उस के बाद भी जहाज के इंजनरूम में शायद काम करना उस के लिए सुरक्षित न हो. शिपिंग कंपनी ने तुषार के घर वालों को भी खबर भेज दी. उस की मां बहुत घबराई थी. उस ने बेटे से फोन पर बात की. शिप के अफसर ने उन्हें बताया कि चिंता की बात नहीं. कंपनी उन के बेटे का पूरा इलाज करा रही है. डाक्टर ने बताया कि कम से कम प्लास्टर कटने तक तुषार को अस्पताल में ही रहना पड़ेगा. स्कारलेट अब रोज शाम को तुषार से मिलने आती. विजिटिंग औवर्स तक उस के पास बैठी रहती. वीकैंड में वह 2 बार मिलने आती. अकसर इंडियन रैस्टोरैंट से कुछ देशी खाना भी उस के लिए लाती. अब उन का प्रेम और गहरा हो गया था. बीचबीच में स्कारलेट अपने फोन से ही तुषार की मां उस की बात करा देती.

3 हफ्ते बाद तुषार का प्लास्टर कटा. एक्सरे के बाद डाक्टर ने बताया कि अभी उस की हड्डी ठीक से नहीं जुड़ी है. दोबारा 3 हफ्ते के लिए प्लास्टर बांधना होगा. इसी बीच तुषार की मां ने बताया कि अब वे ओल्डएज होम में रह रही हैं. बहू की रोजरोज खिचखिच से तंग आ कर बेटे ने मां को वहां शिफ्ट कर दिया था. यह जान कर स्कारलेट को भी दुख हुआ. उस ने तो सुन रखा था कि इंडिया में रिश्तों की काफी अहमियत है. तुषार का प्लास्टर कटा. डाक्टर ने कहा कि अब वह घर जा सकता है. पर अगले एक महीने तक थेरैपी लेनी होगी और सावधानी से छड़ी के सहारे चलना होगा.

तुषार ने मां को स्कारलेट के बारे में बताया कि 2 महीने से वही उस की देखभाल कर रही थी. मां ने स्कारलेट को शुभकामनाएं दीं और पूछा कि क्या वह तुषार की जीवनसंगिनी बनेगी. इस पर स्कारलेट ने मां से कहा, ‘‘मुझे तो कभी परिवार के साथ रहने का अवसर ही नहीं मिला है. अगर आप और तुषार चाहें तो मैं आप की छोटी बहू बन कर गर्व महसूस करूंगी.’’ तुषार ने स्कारलेट को गले लगा कर उस के गाल को प्यार से चूम लिया.

इधर शिपिंग कंपनी ने तुषार की पोस्ंिटग कोलकाता के ही एक कारखाने में कर दी. वहां उसे जहाज के कलपुरजों की मेंटिनैंस का काम देखना होगा और मैरीन छात्रों की ट्रेनिंग भी देखनी होगी. तुषार और शिपिंग कंपनी ने मिल कर कौंसुलेट से स्कारलेट के वीसा का प्रबंध किया. दोनों कोलकाता आए. कंपनी ने तुषार के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर दिया था. सब से पहले तुषार और स्कारलेट दोनों ओल्डएज होम जा कर मां को घर ले आए. बंगाली विधि से दोनों की शादी हुई. तुषार की मां अपनी विदेशी बहू से संतुष्ट है.

Film Review: पढ़ें फिल्म ‘मैदान’ की क्या है कहानी

2 स्टार

किसी भी स्पोर्ट फिल्म में जोश और जज्बे के साथ अगर देशशक्ति को भी परोसा जाता है तो दर्शक उस का स्वागत करते हैं. ‘चक दे इंडिया’ (हौकी) ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘मैरी कोम’ (बौक्सिंग), ‘दंगल’ (कुश्ती) और ‘पंगा’ (कबड्डी) को दर्शकों का खूब प्यार मिला.

सैयद अब्दुल रहीम का नाम शायद बहुत से लोगों ने न सुना हो. लेकिन वे एक ऐसे फुटबौलर थे जिन्होंने फुटबौल खेलने से ज्यादा खिलाड़ियों को खिलाने पर ध्यान दिया. 1950 से 1963 में अपनी मृत्यु तक वे फुटबौल टीम के कोच रहे. उन के मार्गदर्शन में भारत ने 2 बार एशियाई खेलों में गोल्ड जीता और 1956 के मेलबौर्न ओलिंपिक में भारत सैमिफाइनल तक जा पहुंचा. वे सब से सफल भारतीय कोच रहे. यह फिल्म सैयद अब्दुल रहीम के आखिरी 12 सालों की कहानी दिखाती है.

1952 में भारतीय फुटबौल टीम को ओलिंपिक में करारी हार का सामना करने के बाद सैयद अब्दुल रहीम ने भारत के कोनेकोने से फुटबौल खिलाड़ियों को चुन कर एक नई फुटबौल टीम का गठन किया. उन की टीम में चुन्नी गोस्वामी, पी के बनर्जी, पीटर यंगराज, जरनैल सिंह जैसे होनहार खिलाड़ी थे.

1956 के मेलबौर्न ओलिंपिक में भातीय टीम चौथे नंबर पर आने में कामयाब हो जाती है मगर 1960 ओलिंपिक में भारतीय टीम क्वालीफाई नहीं कर पाती. सैयद अब्दुल रहीम राजनीति का शिकार होते हैं और उन्हें कोच के पेद से हटा दिया जाता है. फिल्म में खेल पत्रकारिता की राजनीति को भी दिखाया गया है.

रहीम को सदमा लगता है. तभी उसे पता चलता है कि उसे लंग कैंसर है. उन के पास जीने के लिए कुछ समय ही बाकी है. उन की पत्नी सायरा (प्रियामणि) उन्हें दोबारा कोचिंग के लिए प्रेरित करती है. इस बार रहीम अपनी जान की बाजी लगा देते हैं और 1962 में जकार्ता एशियन गेम्स के फाइनल में दक्षिण कोरिया को हरा कर देश को स्वर्ण पदक दिलाते हैं.

फिल्म की सब से बड़ी खूबी है निर्देशक द्वारा कोच सैयद अब्दुल रहीम का कहीं भी महिमामंडन न करना. निर्देशक ने फिल्म को ड्रामेटिक भी नहीं बनाया है. फिल्म की खूबी यही है कि अपनी धुन में खोया फुटबौल का एक दीवाना एक दिन दुनिया के सामने फुटबौल के मैदान में तिरंगा फहराने की ठान लेता है, तो अपना मकसद पूरा कर के ही दम लेता है.

निर्देशक ने अजय देवगन के किरदार को दिखाने के बजाय सहज रखा है. दर्शकों को शाहरुख खान की महिला हौकी टीम पर बनी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ याद होगी. क्लाइमैक्स में जिस तरह का टैंपो उस फिल्म में बनाए रखा गया था, ठीक वैसा ही इस फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म नायक के जुझारुपन से समझौता नहीं करती. फिल्म के अंत में आखों में नमी आ जाती है.

मध्यांतर से पहले फिल्म एक घंटे की है और मध्यांतर के बाद 2 घंटे की. फिल्म की लंबाई 3 घंटे की है, मगर खलती नहीं. फिल्म के निर्माता बोनी कपूर, निर्देशक अमित शर्मा और अजय देवगन ने फिल्म ‘मैदान’ के जरिए जो कमाल रचा है, वह प्रशंसनीय है. अजय देवगन ने सैयद अब्दुल रहीम के किरदार में जान फूंकी है. फिल्म के संवाद काफी जानदार हैं.

फिल्म में मुंतशिर और ए आर रहमान की जुगलबंदी से बने गाने सुनेसुने से लगते हैं. अजय देवगन का बारबार सिगरेट पीना किरदार को कमजोर बनाता है. तकनीकी रूप से फिल्म अच्छी है. मध्यांतर के बाद दर्शक बंधे से रहते हैं. संपादन अच्छा है. सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है. फिल्म यह भी बताती है कि मैदान में फतेह भले ही खिलाड़ी हासिल करते हों लेकिन उन के कोच का भी जीत में कम योगदान नहीं.

Film Review In Hindi: बड़े मियां छोटे मियां

(डेढ़ स्टार)

यह फिल्म 1998 में आई ‘बड़े मियां छोटे मियां’ की सीक्वल है. पिछली फिल्म में बड़े मियां का रोल अमिताभ बच्चन और छोटे मियां का रोल गोविंदा ने निभाया था. वह एक कौमेडी फिल्म थी जबकि नई फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ के ऐक्टर्स भी अलग है और यह फिल्म पिछली फिल्म के मुकाबले एकदम अलग एक ऐक्शन फिल्म है. इस फिल्म में युवा पीढ़ी के कलाकारों अक्षय कुमार को बड़े मियां बनाया गया है तो टाइगर श्रौफ को छोटे मियां बनाया गया है.

इन दोनों कलाकारों ने अपनी शुरुआती फिल्मों में खूब धमाकेदार ऐक्शन किए हैं, मगर पिछले 2-3 सालों से दोनों की फिल्में खूब पिटी हैं और दर्शकों में इन का क्रेज खत्म हो चुका है. अक्षय कुमार की ‘पृथ्वीराज’, ‘बच्चन पांडे’, ‘रामसेतु’, जिसे मोदी सरकार ने प्रचार के लिए बनवाया था, और ‘रक्षाबंधन’ जैसी फिल्में बुरी तरह फ्लौप हो गईं.

छोटे मियां यानी टाइगर श्रौफ की पिछली दोनों फिल्में ‘हीरोपंती-2’ और ‘गणतंत्र’ को तो दर्शक भी नसीब नहीं हुए. अब अली अब्बास जफर, जिस ने ‘टाइगर जिंदा है’ जैसी ऐक्शन फिल्म बनाई थी, इन दोनों फ्लौप ऐक्टर्स को ले कर इस धमाकेदार ऐक्शन फिल्म को बनाया है. फिल्म देखते वक्त लगता है कि दर्शक फिल्म में ऐक्शन नहीं, ऐक्शन में फिल्म देख रहे हों. मशीनगनों, टैंक, मिसाइलों के अलावा अत्याधुनिक हथियारों वाली इस फिल्म में अगर कमी है तो यह कि इस में कहानी नदारद है.

कहानी में दिखाया गया है कि भारत पर लगातार खतरा मंडराता नजर आता है. दुश्मनों के नापाक मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए भारत के वैज्ञानिकों ने एक अद्भुत शील्ड ‘करनकवज’ ईजाद की है जो युद्ध होने पर भारत को ढक लेगी और दुश्मनों की मिसाइलों को नेस्तनाबूद कर देगी.

भारतीय सेना की टुकड़ी एक कीमती पार्सल को सुरक्षित जगह ले कर जा रही होती है. तभी एक भारीभरकम कदकाठी वाला मास्कमैन जवानों को मौत के घाट उतार कर कवच अपने कब्जे में कर लेता है. कर्नल आजाद (रोनित रौय) इस मास्कमैन से निबटने और कवच वापस लाने की जिम्मेदारी कोर्टमार्शल की सजा पा चुके 2 जवानों कैप्टन फिरोज उर्फ फ्रेडी (अक्षय कुमार) और कैप्टन राकेश उर्फ रौकी (टाइगर श्रौफ) को देते हैं. फ्रेडी और रौकी उस पार्सल को मास्कमैन से छीन कर वापस लाते हैं. तभी दुश्मनों की मिसाइलें भारत को तबाह करने के लिए रवाना होती हैं. फ्रेडी और रौकी हवा में ही उन मिसाइलों को खत्म कर भारत को बचा लेते हैं ठीक उसी तरह जैसे आजकल इजरायल और हमास तथा यूक्रेन और रूस के बीच छोड़ी जा रही मिसाइलों को हवा में ही नष्ट किया जा रहा है. इस मिशन में फ्रेडी और रौकी के साथ कैप्टन (मानुषी) और आईटी स्पैशलिस्ट भी हैं.

फिल्म की यह कहानी एकदम खोखली है. कहानी का लेखन बहुत ही कमजोर है. कल्पना के घोड़े दौड़ाए गए हैं. टैक्नोलौजी, एआई, पाकिस्तान, मानव क्लीन, प्रलय जैसी कई बातें फिल्म में डाली गई हैं, फिर भी कोई ड्रामा नहीं बन पाया है. फिल्म दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती. दरअसल, इस फिल्म को देखने जाने से पहले दिमाग को घर पर छोड़ कर जाना होगा.

फिल्म में इन दोनों नायकों के मानव क्लोनों को दिखाया गया है जो दोनों नायकों से ऐक्शन करते नजर आते हैं. ऐक्शन दृश्यों में कई विदेशी फिल्मों की नकल की गई लगती है. फिल्म में मनोरंजन का अभाव है. लंबाई ज्यादा है.

मध्यांतर से पहले फिल्म तेज रफ्तार से भागती है. कहानी असल में सैकंडहाफ में शुरू होती है, जब इस में साइंस फिक्शन का तड़का लगता है. मास्कमैन कबीर (पृथ्वीराज सुमुकारन) के साथसाथ फिल्म आजकल बहुचर्चित एआई तकनीक की भी बात करती है, मगर इस में रिसर्च की कमी साफ दिखाई देती है.

निर्देशक फिल्म में कुछ नया नहीं दिखा पाया है. अक्षय कुमार चिरपरिचित अंदाज में है. टाइगर श्रौफ कौमिक जोक्स से प्रभावित करता है. मानुषी छिल्लर ने अच्छे ऐक्शन सीन दिए हैं. पृथ्वीराज सुदुमारन नैगेटिव भूमिका में सब पर भारी पड़ा है. फिल्म का तकनीकी पक्ष अच्छा है. 2 गाने अच्छे बन पड़े हैं. फिल्म में याद रखने लायक कुछ नहीं है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

Web Series Review: पटना शुक्ला

अभिनेत्री रवीना टंडन को दर्शक शायद भूल चुके हैं लेकिन जब कभी उस पर फिल्माया गया गाना ‘तू चीज बड़ी है मस्तमस्त’ कहीं सुनाई पड़ जाता है तो उस के अभिनय की दाद देनी पड़ जाती है. अब काफी अरसे बाद उस ने दोबारा से फिल्मों में काम करना शुरू किया है. अपनी पहली वैब सीरीज ‘कर्मा कौलिंग’ में अपने किरदार को बखूबी निभाने के बाद अब उस ने ‘पटना शुक्ला’ में एक महिला वकील की भूमिका निभाई है. आज हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रकार के घोटाले हो रहे हैं और राज्य सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं. बिहार जैसे राज्यों में तो परीक्षाओं में नकल कराना अब आम हो गया है. हाल ही में छत्तीसगढ़ में परीक्षा के दौरान छात्रों को खुलेआम नकल कराई गई.

इसके अलावा परीक्षा से पहले पेपर लीक होने से हजारों छात्रों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है. कहीं मेधावी छात्रों को फेल कर उन की मार्कशीट बदल दी जाती है तो कहीं छात्रों के अभिभावकों से मोटी रकम रिश्वत में ले कर उन्हें पास कर दिया जाता है. यह फिल्म शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे घोटाले पर चोट करती है. फिल्म की कहानी पटना शहर में अपने पति व बेटे के साथ रह रही वकील तन्वी शुक्ला (रवीना टंडन) की है. उस का पति सिद्धार्थ (मानव विज) उस की हर जरूरत का खयाल रखता है, मगर औरत होने के कारण उस की डिग्री की कोई कद्र नहीं करता. एक दिन एक गरीब स्टूडैंट रिंकी कुमारी (अनुष्का कौशिक) उस के पास अपना केस ले कर आती है.

यूनिवर्सिटी में उस की मार्कशीट बदल दी गई थी और उसे फेल घोषित कर दिया गया था, जबकि उस का कहना है कि उसे 60 प्रतिशत नंबर मिलने चाहिए थे. तन्वी शुक्ला रिंकी का केस अपने हाथ में लेती है. केस लड़ने के दौरान यूनिवर्सिटी के कई काले सच उस के सामने आते हैं. एक दबंग नेता उसे रिंकी का केस लड़ने के लिए धमकाता है, न मानने पर उस के घर पर बुलडोजर चलवा दिया जाता है, ठीक उसी तरह से जैसे उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई लोगों के घरों पर बुलडोजर चलवा दिए थे. रिंकी के पति को सस्पैंड कर दिया जाता है लेकिन तन्वी शुक्ला झुकती नहीं. वह कोर्ट में साबित कर देती है कि रिंकी की मार्कशीट बदली गई थी. पटकथा एकदम सपाट है. फिल्म का निर्देशन भी हलका है. फिल्म रूखीसूखी सी लगती है. रवीना टंडन का किरदार अपनी भूमिका से न्याय करता है. अनुष्का कौशिक का अभिनय अच्छा है.

जज की भूमिका में दिवंगत सतीश कौशिक का अभिनय प्रभावशाली है. मानव विज, जतिन गोस्वामी, राजू खेर साधारण रहे. फिल्म के गीत असरदार नहीं हैं. संगीत साधारण है. अदालत के दृश्य अच्छे हैं. फिल्म का ट्रीटमैंट 90 के दशक जैसा है. कोर्ट में जबरदस्त दलीलों की कमी खलती है.

 

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