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बिहार का छोरा चिराग पासवान बन गए हैं मोस्‍ट एलीजिबल बैचलर

राजनीतिक करियर में चिराग पासवान हो रहे हैं सफल

लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) के सुप्रीमो 41 साल के चिराग पासवान (Chirag Paswan) 5 सीट पर चुनाव लड़ा था, जिसमें वैशाली, हाजीपुर, जमुई, समस्तीपुर, वैशाली और खगड़िया शामिल हैं और सबसे दिलचस्प बात यह है कि चिराग ने इन पांचों सीटों पर जीत हासिल की है, लेकिन क्या आप जानते हैं, चिराग राजनीति ही नहीं फिल्मों में भी काम कर चुके हैं. आपको बता दें कि उन्होंने फिल्म ‘मिलें ना मिलें हम’ में काम किया है. यह फिल्म में साल 2011 में आई थी, लेकिन बौक्स औफिस पर फ्लौप हो गई. हालांकि बौलीवुड में उनका करियर कुछ खास काम नहीं किया, लेकिन इस लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों से यह साबित होता है कि चिराग पासवान राजनीति में अपना सिक्का जमा चुके हैं.

चिराग की फैन फौलोइंग हैं लड़कियां

चिराग पासवान की फैन फौलोइंग में सबसे ज्यादा लड़कियां शामिल हैं, इनकी पर्सनालिटी लड़कियों को काफी आकर्षित करती है, चिराग के बोलने की शैली भी काफी प्रभावित करती है. इनके पर्सनल लाइफ की बात करे, तो वो अब तक कुंवारे हैं, हालांकि इनके पिता रामविलास पासवान ने दो-दो शादियां की थी, चिराग दूसरी पत्नी के बेटे हैं.

एक समय था, परिणीति चोपड़ा से शादी करने तक राघव चड्ढा मोस्ट एलिजिबल बैचलर थे. कुछ सालों पहले सोशल मीडिया पर एक लड़की ने ट्विट किया था, उसने यह ट्टिट बिजली कटने से परेशान होकर लिखा था कि ”जब भी घर आओ लाइट ही नहीं होती.” इसके बाद आप पार्टी के समर्थक करना वाला एक शख्स ने लिखा , इस बार ‘आप’ को वोट दो और 24 घंटे मुफ्त बिजली पाओ.

उसके बाद उस लड़की ने जवाब में लिखा था, ‘मैं राघव चाहती हूं, बिजली नहीं.’  राघव चड्ढ़ा भी लड़कियों के बीच काफी पौपुलर हैं, शादी के बाद राघव और परिणीति ने खूब सुर्खियां बटोरीं.

कब  बसाएंगे चिराग अपना घर

चिराग पासवान की शादी की बात करे, तो एक इंटरव्यू में बातचीत के दौरान पूछा गया कि आपके दोनों परिवार बौलीवुड और राजनीति में सलमान खान और राहुल गांधी अब तक शादी नहीं की, तो क्या आप भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाहते हैं या उनकी शादी होने का इंतजार कर रहे हैं, इसके बाद चिराग ने हंसते हुए जवाब दिया और कहा कि ”इंतजार ही कर रहे हैं, लेकिन इसके बाद चिराग ने ये भी कहा कि शादी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और मैं उसको हैंडिल भी नहीं कर सकता.”

चिराग की अफेयर के बारे में जानने के लिए लोगों को काफी दिलचस्पी होती है, हालांकि उनका नाम पंजाबी एक्ट्रेस नीरू बाजवा के साथ जुड़ा था. लेकिन इस साल चुनाव में चिराग की लौटरी लग गई और इस जीत के बाद भी आशा कर सकते हैं कि चिराग बैंडबाजा लेकर अपनी दुल्हनिया लेने जाएंगे.

पिंजरे वाली मुनिया : क्या वह पति के खिलाफ जाकर अपने सपने को पूरा कर पाई?

तरंग अपने नाम के अनुरूप शोख, चंचल और मस्त थी. लेकिन ऊंचे घराने में शादी क्या हुई वह तो पिंजरे वाली मुनिया बन कर रह गई. उस की चंचलता, सपने, इच्छाएं सभी बिखर कर रह गए. लेकिन जब बेटी के सपने पूरे करने की बारी आई तो वह क्यों छटपटा उठी. पति के खिलाफ बेटी के सपनों को पूरा करती महिला की कहानी उषा रानी की कलम से.

मरा हुआ मन भी कभीकभी कुलबुलाने लगता है. आखिर मन ही तो है, सो पति के आने पर उन्होंने हिम्मत कर ही डाली.

‘‘आज चलिए ‘मन मंदिर’ में चल कर परिणीता देख आते हैं. नई ऐक्ट्रेस का लाजवाब काम है. अच्छी ‘रीमेक’ है. मैं ने टिकट मंगवा लिया है.’’

‘‘टिकट मंगवा लिया? यह तुम्हारा अच्छाखासा ठहरा हुआ दिमाग अचानक छलांगें क्यों लगाने लगता है? पता है न कि पिक्चर हाल की भीड़भाड़ में मेरा दम घुटता है. मंगा लो सीडी, देख लो. इतना बड़ा ‘प्लाज्मा स्क्रीन’ वाला टीवी किस लिए लिया है? हाल के परदे से कम है क्या? तुम भी न तरंग, अपने ‘मिडिल क्लास टेस्ट’ से ऊपर ही नहीं उठ पातीं.’’

वह चुप हो गईं. पति से बहस करना, उन की किसी बात को काटना तो उन्होंने सीखा ही नहीं है. बात चाहे कितनी भी कष्टकारी हो, वह चुप ही लगा जाती हैं. वैसे यह भी सही है कि जितनी सुखसुविधा, आराम का, मनोरंजन का हर साधन यहां उपलब्ध है, इस की तो वह कभी कल्पना कर ही नहीं सकती थीं.

वह स्वयं से कई बार पूछती हैं कि इतना सबकुछ पा कर भी वह प्रसन्न क्यों नहीं? तब उन का अंतर्मन चीत्कार कर उठता है.

‘तरंग, क्या जीवन जीने के लिए, खुश रहने के लिए शारीरिक सुख- सुविधाएं ही पर्याप्त हैं? क्या इनसान केवल एक शरीर है? तो फिर मनुष्य और पशुपक्षी में क्या अंतर हुआ? तुम तो स्वच्छंद विचरती चिडि़या से भी बदतर हो. पिंजरे वाली मुनिया में और तुम में अंतर क्या है? तुम भी तो अपना मुंह तभी खोलती हो जब कहा जाए. ठीक वही बोलती हो जो सिखाया गया हो, न एक शब्द कम, न एक शब्द अधिक.’

और अपने अंतर्मन की इस आवाज को सुन कर उन का मन हाहाकार कर उठा. लेकिन घर आने वाला हर मेहमान, रिश्तेदार उन की तारीफ करते नहीं थकता कि तरंग अपनी बातों में शहद घोल देती हैं, सब का मन मोह लेती हैं.’’

वह सोचने लगीं कि सब का मन वह मोह लेती है, तो कोई कभी उन का मन मोहने की कोशिश क्यों नहीं करता?

एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार की असाधारण लड़की. तीखे नाकनक्श, गोरा रंग, लंबा छरहरा शरीर. पढ़ने में जहीन, क्लास में हमेशा फर्स्ट. कभी पापा की सीमित आय में उसे सेंध नहीं लगानी पड़ी. फेलोशिप, स्कालरशिप, बुकग्रांट, बचपन से खुशमिजाज, हमेशा गुनगुनाती, लहराती, बलखाती लड़की को दादी कहतीं, ‘यह लड़की आखिर है क्या? कभी इसे रोते नहीं देखा, चोट लग जाए तो भी खिलखिला कर हंसना, दूसरों को हंसाना. इस का नाम तो तरंग होना चाहिए.’

और पापा ने सचमुच उन का नाम विजया से बदल कर तरंग कर दिया. वह ऐसी ही थीं. पूरी गंभीरता से पढ़ाई करते हुए गाने गुनगुनाना. चलतीं तो लगता दौड़ रही हैं, सीढि़यां उतरतीं तो लगता छलांगें लगा रही हैं. स्कूलकालिज में सब कहते, ‘तुम्हारा नाम बड़ा सोच कर रखा गया है. हमेशा तुम तरंग में ही रहती हो.’

और उस दिन उन की ननद कह रही थीं, ‘समझ में नहीं आता भाभी, आप का नाम आप के स्वभाव से एकदम उलटा क्यों रखा अंकलआंटी ने? आप इतनी शांत, दबीदबी और नाम तरंग.’

क्या कहतीं वह? कैसे कहतीं कि यहां, इस घर में आ कर तरंग ने हिलोरें लेना बंद कर दिया है.

बी.काम. के पहले साल में वह बहुत बीमार हो गई थीं. सब के मुंह यह सोच कर लटक गए थे कि तरंग का क्या हाल होगा, लेकिन वह सामान्य थीं बल्कि उन्होंने पापा को धीरज बंधाया, ‘पापा, क्या हो गया? यह सब तो चलता रहता है. मेरे पास 2 वर्ष हैं अभी तो, आप देखिएगा, गोल्ड मेडल मैं ही लूंगी.’

पापा आत्मविश्वास से ओतप्रोत उस नन्हे से चेहरे को निहारते ही रह गए थे. उन की बेटी थी ही अलग. उन्हें गर्व था उन पर. ड्रामा, डांस सब में आगे और पढ़ाई तो उन की मिल्कीयत, कालिज की शान थीं, प्रिंसिपल की जान थीं वह.

आई.आई.एम. कोलकाता के सालाना जलसे में स्टेज पर उर्वशी बनी तरंग सीधी सिद्धांत के दिल में उतर गईं. सारा अतापता ले कर सिद्धांत घर लौटे और रट लगा दी कि जीवनसंगिनी बनाएंगे तो उसी को.

मां ने समझाया, ‘देख बेटा, इतने साधारण परिवार की लड़की भला हमारे ऊंचे खानदान में कहां निभेगी? इन लोगों में ठहराव नहीं होता.’

जवाब जीभ पर था. ‘सब हो जाता है मां. आएगी तो हमारे तौरतरीकों में रम जाएगी. तेज लड़की है, बुद्धिमती है, सब सीख जाएगी.’

‘यह भी एक चिंता की ही बात है बेटा. इतनी पढ़ीलिखी, इतनी लायक है तो महत्त्वाकांक्षिणी भी होगी. आगे बढ़ने की, कुछ करने की ललक होगी. कहां टिक पाएगी हमारे घर में?’ पापा ने दबाव डालना चाहा.

‘पापा, आप भी…जब उसे घर बैठे सारा कुछ मिलेगा, हर सुखसुविधा उस के कदमों में होगी तो वह रानीमहारानी की गद्दी छोड़ कर भला चेरी बनने बाहर क्यों जाएगी?’

हर तर्क का जवाब हाजिर कर के सिद्धांत ने सब का मुंह ही बंद नहीं किया, उन्हें समझा भी दिया.

तरंग ब्याह कर आ गईं. तरंग के घर वालों की तो जैसे लाटरी खुल गई. भला कभी सपने में सोच सकते थे, बेटी के लिए ऐसा घर जुटाना तो दूर की बात थी. घर बैठे मांग कर ले गए लड़की.

तरंग भी बहुत खुश थी. सिद्धांत कद में उस के बराबर और जरा गोलमटोल हैं तो क्या हुआ. इतने बड़े ‘बिजनेस हाउस’ की वह अब मालकिन बन गई थीं.

मेहमानों के जाने, लोगों का आतिथ्य ग्रहण करने और मधुयामिनी से लौटते 2 महीने निकल गए. ऐसे खुशगवार दिन तो इसी तरह पंख लगा कर उड़ते हैं. माउंट टिटलस पर बर्फ के गोले एकदूसरे पर मारतेमरवाते स्विट्जरलैंड की सैर, तो कभी रोशनी से जगमगाते सुनहरे ‘एफिल टावर’ को निहारता पेरिस का कू्रज. वेनिस के जलपथ में अठखेलियां करते वे दोनों कब एकदूसरे के दिलों में ही नहीं शरीर में भी समा गए, पता ही नहीं चला. वे दो बदन एक जान बन चुके थे. ऐसे में कोई छोटीमोटी बात चुभी भी तो तरंग ने उसे गुलाब का कांटा समझ कर झटक दिया.

उस दिन पेरिस का मशहूर ‘लीडो शो’ देखने के लिए तरंग अपनी वह सुनहरी बेल वाली काली साड़ी ‘मैचिंग ज्वेलरी’ के साथ पहन कर इठलाती निकली तो सिद्धांत ने एकदम टोक दिया, ‘बदलो जा कर, यह क्या पहन लिया है? वह आसमानी रंग वाली शिफान पहनो, मोती वाले सेट के साथ.’

चुपचाप उन्होंने अपने वस्त्र बदल तो लिए थे पर कुछ समझ में नहीं आया कि इस में क्या बुराई थी. लेकिन उन सुनहरे पलों में वह कटुता नहीं लाना चाहती थीं. इसलिए चुप रहीं.

अब उस दिन कोकाकोलाके एम.डी. के यहां जाने के लिए उन्होंने बड़े शौक से मोतियोंके बारीक झालर वाली डे्रस निकाल कर रखी थी, मोतियों के ही इटेलियन सेट के साथ. बाथरूम से बाहर निकलीं तो देखा सिद्धांत बड़े ध्यान से उस डे्रस को देख रहे थे. खुश हो कर वह बोलीं, ‘अच्छी है न यह डे्रस?’

‘अच्छी है? मुझे तो यह समझ में नहीं आता कि तुम हमेशा यह मनहूस रंग लादने को क्यों तैयार रहती हो?’ सिद्धांत की आवाज में बेहद खीज थी.

चुपचाप तरंग ने गुलाबी सिल्क पहन ली, लेकिन अपनी छलछलाई आंखों को छिपाने के लिए उन्हें दोबारा बाथरूम में घुसना पड़ा था. उस के बाद उन्होंने सभी काले कपड़े अपने वार्डरोब से निकाल ही दिए. कभीकभी उन्हें अपने होने का जैसे एहसास ही नहीं होता. जब उन की अपनी कोई इच्छा ही नहीं तो उन का तो पूरा का पूरा अस्तित्व ही निषेधात्मक हो गया न? कितने सपने थे आंखों में, कितनी योजनाएं थीं मन में. विवाह के बाद तो उन योजनाओं ने और भी वृहद् रूप धर लिया था. इतने बड़े व्यवसाय का स्वामित्व तो सारी की सारी पढ़ाई को सार्थक कर देगा. पर हुआ क्या?

मन में उमंग और तरंग लिए मुसकरा कर जब उन्होंने सिद्धांत से कहा था, ‘अब बहुत हो चुकी मौजमस्ती, आफिस में मेरा केबिन तैयार करवा दीजिए. कल से ही मैं शुरू करती हूं. महीना तो काम समझने में ही लग जाएगा.’

सिद्धांत अवाक् उन का मुंह देखने लगे.

‘क्या हुआ? ऐसे क्या देख रहे हैं आप?’

‘तुम आफिस जाओगी? पागल हो गई हो क्या? हमारे खानदान की औरतें आफिस में?’

‘अरे, तो क्या इतनी मेहनत से अर्जित एम.बी.ए. की डिगरी बरबाद करूं घर बैठ कर? बोल क्या रहे हैं आप?’ वह सचमुच हैरान थीं.

‘हां, डिगरी ली, बहुत मेहनत की, ठीक है. पढ़ीलिखी हो, घर के बच्चों को पढ़ाओ, अखबार पढ़ो, पत्रिकाएं पढ़ो, टीवी देखो,’ इतना बोल कर सिद्धांत उठ कर चल दिए.

तरंग को काटो तो खून नहीं. मम्मीपापा की दी हुई सीख और पारिवारिक संस्कारों ने उन की जबान पर ताला जड़ दिया था. छटपटाहट में कई रातें आंखों में ही कट गईं. पर करें तो क्या करें? सोने का पिंजरा तोड़ने की तो हिम्मत है नहीं. और जैसा होता है, धीरेधीरे रमतेरमते वह उसी वातावरण की आदी हो गईं.

विद्रोह का सुर तो कभी नहीं उठा था पर अब भावना भी लुप्त हो गई. दिनमहीने इसी तरह बीतते गए. 4 साल में प्यारी सी पुलक और गुड्डा सा श्रीष तनमन को लहरा गए. अधूरे जीवन में संपूर्णता आ गई. पूरा दिन बच्चों में बीतने लगा. उन का पढ़नापढ़ाना और उसी में व्यस्त तरंग को देख सिद्धांत ने भी चैन की सांस ली. वरना तरंग का मूक विद्रोह और सूनी अपलक दृष्टि को झेलना कभीकभी सिद्धांत के लिए कठिन हो जाता.

वह कई बार संकल्प करती हैं कि जिस तरह उन के सपने चकनाचूर हुए, सारी कामनाएं राख हो गईं, ऐसा पुलक के साथ नहीं होने देंगी. पर विद्रोह की चिनगारी भड़कने से पहले ही राख हो जाती है. विदाई के समय दी गई मम्मी की नसीहत एकदम याद जो आ जाती है :

‘बेटी, तू हमेशा अपनी इच्छा की मालिक रही है. अपनी तरंग में कभी किसी को कुछ नहीं समझा तू ने. पर ससुराल में संभल कर रहना. हर बात को काटना, अपनी मरजी चलाना यह सब यहीं छोड़ जा. वैसे भी वे बड़े लोग हैं, उन का रखरखाव और तरह का है. तेरी किसी भी हरकत से उन की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने पाए. जैसा वे कहें वैसा ही करना, जो वे चाहें वही चाहना, जितना वे सोचें उतना ही सोचना.’

और तरंग मम्मी की बात मान कर पिंजरे वाली मुनिया बन गईं. कितनी विचित्र होती हैं न इन भारतीय संस्कारी परिवारों की कन्याएं. पिता के घर से विदा होते समय हाथ से पीछे की ओर धान उछालती हुई अपनी प्रकृति, आदतें, प्रवृत्तियां सबकुछ छोड़ आती हैं. इसीलिए उन्हें दुहिता कहते हैं शायद. लेकिन एक जगह दिक्कत आ गई कि वह अपनी भावनाओं को, अपनी सोच को, ससुराली सांचे में नहीं ढाल पाईं. करतींकहतीं उन के मन की पर सोचतींमहसूसतीं उन से अलग. इसी अंतराल ने उन्हें अकसर झिंझोड़ा है, निचोड़ा है.

दिनों को महीनों में और महीनों को सालों में बदलने में भला देर कब लगती है? पुलक ने 12वीं कर ली है. एकदम मां जैसी वह भी बहुत जहीन है. उस ने जे.ई.ई. की स्क्रीनिंग पार कर ली है. सिद्धांत तो उस के प्रतियोगिता में बैठने के ही पक्ष में नहीं थे, तरंग ने ही जैसेतैसे मना लिया था. अब बारी आई है ‘मेन्स’ में बैठने की. पुलक ने अपने स्तर से भरपूर तैयारी की है और तरंग ने पूरी जान लगा दी है. फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स को नए सिरे से रात भर जाग कर पढ़ा है तरंग ने. बेटी कहीं अटकी और समाधान ले कर मां तैयार. सिद्धांत सब देख रहे हैं और उन के पागलपन पर हंस रहे हैं.

घर के सभी लोगों ने कह दिया कि ‘मेन्स’ में बैठने की कोई जरूरत नहीं. जिस दर जाना नहीं वहां का पता क्या पूछना? लेकिन पुलक ने हार नहीं मानी. उस ने पापा से लाड़ लगाया, ‘पापा, मुझे सिर्फ जरा अपनी क्षमता मापने दीजिए. कौन सा मैं आ जाऊंगी? मैं ने तो कोचिंग वगैरह भी नहीं ली है, न ‘पोस्टल’ न ‘रेगुलर’. मेरी क्लास के बच्चों ने तो 2-2 कोचिंग ली हैं. दिल्ली जा कर टेस्ट दिए हैं, क्लासें की हैं. मैं जानती हूं पापा, आना मुश्किल ही नहीं, असंभव है. मैं तो बस, अपने आप को आजमाने के लिए बैठना चाहती हूं. प्लीज, पापा, प्लीज.’

और सिद्धांत पसीज गए. उन्होंने सोचा, आना तो है नहीं, करने दो पागलपन. बोले, ‘चल, कर ले शौक पूरा. तू भी क्या याद करेगी अपने पापा को.’

हंसती खिलखिलाती पुलक ‘मेन्स’ में बैठ गई. और यह क्या? शायद निषेध संघर्ष करने की क्षमता में एकदम वृद्धि कर देता है. व्यक्ति को अधिक गहनता से उत्साहित करता है. पुलक की तो रैंक भी 400 की आ गई है. आराम से दिल्ली में प्रवेश मिल जाएगा. ऐसा तो सचमुच न पुलक ने सोचा था और न ही तरंग ने. अब? मांबेटी दोनों ऐसी सकते में हैं जैसे कोई अपराध कर डाला हो. पुलक की इतनी बड़ी उपलब्धि इस परिवार के घिसेपिटे विचारों या पता नहीं झूठी मानमर्यादा के कारण एक पाप बन गई है. दूसरे परिवारों में तो बच्चे के 3-4 हजार रैंक लाने पर भी उस की पीठ ठोंकी जा रही होगी, जश्न मनाया जा रहा होगा. बेचारी पुलक का हफ्ता इसी उलझन में निकल गया कि बताए तो कैसे बताए?

तरंग भी हैरान हैं. वह मौके की तलाश में हैं कि यह खुशखबरी कैसे दें, कब दें. बात तो सचमुच हैरानी की है. दुनिया कहां से कहां छलांग लगा रही है. करनाल जैसे छोटे से शहर की कल्पना चावला ऐसी ऊंचाइयां छू सकती है तो उसी भारत के महानगर कोलकाता का यह परिवार इतना दकियानूसी? आज भी परिवार की मानमर्यादा के नाम पर पत्नी का, कन्या का ऐसा मानसिक शोषण? असल में पारिवारिक संस्कारों और परंपराओं का बरगद जब अपनी जड़ें फैला लेता है तो उसे उखाड़ फेंकना प्राय: असंभव हो जाता है. वही यहां भी हो रहा है.

‘काउंसलिंग’ की तारीख नजदीक आती जा रही है. घर में तूफान आया हुआ है, पुलक सब को मनाने की कोशिश में लगी हुई है लेकिन वे टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. लड़की को इंजीनियर बनाने के लिए होस्टल भेज कर पढ़ाना कोई तुक नहीं है.

‘लड़की को इंजीनियर बना कर करना क्या है? नौकरी करानी है? साल 2 साल में शादी कर के अपना घर बसाएगी,’ दादाजी का तर्क है.

‘बेटा, इतनी ऊंची पढ़ाई करना, लड़के वाले सपने देखना कोई बुद्धिमानी नहीं. अब देख, तेरी मां ने भी तो आई.आई.एम. से एम.बी.ए. किया. क्या फायदा हुआ? एक सीट बरबाद हुई न? कोई लड़का आता, उस पर नौकरी करता तो सही इस्तेमाल होता उस सीट का. तू तो बी.एससी. कर के कालिज जाने का शौक पूरा कर ले,’ सिद्धांत ने बड़े प्यार से पुलक का सिर सहलाया.

तरंग ने सब सुना. उन्हें लगा, जैसे आरे से चीर कर रख दिया सिद्धांत के तर्क ने. खुद चोर ही लुटे हुए से प्रश्न कर रहा था. विवाह के 22 साल बीत चुके हैं. आज तक कभी उन्होंने सिद्धांत की कोई बात काटी नहीं है. तर्कवितर्क नहीं किया है. आज भी चुप लगा गईं. सहसा यादों की डोर थामे वह 24 साल पहले के अतीत में पहुंच गईं. आई.आई.एम. से तरंग के प्रवेश का कार्ड आने के बाद पापा परेशान थे.

‘क्या करूं कल्पना, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. लड़की के रास्ते की रुकावट बनना नहीं चाहता और उस पर उसे चलाने का साधन जुटाने की राह नहीं दिख रही. शान से सिर ऊंचा हो रहा है और शर्म से डूब मरने को मन कर रहा है,’ पापा सचमुच परेशान थे.

‘अरे, तो सोच क्या रहे हैं? भेजिए उसे.’

‘हां, भेजूं तो. पर होस्टल का खर्च उठाने की औकात कहां है हमारी?’

‘ओह, यह समस्या है? वह प्रबंध मैं ने कर लिया है. शकुंतला चाची की लड़की सुहासिनी कोलकाता में है. पिछले साल ही अभिराम का तबादला हुआ है. मेरी बात हो गई है सुहास से.’

‘लेकिन इतना बड़ा एहसान… बात एकदो दिन की नहीं पूरे 2 साल की है.’

‘हां, वह भी बात हो गई है मेरी. बड़ी मुश्किल से मानी. 1 हजार रुपया महीना हम किट्टू के नाम जमा करते रहेंगे.’

‘किट्टू?’

‘अरे, भई, उस की छोटी बेटी. बस, बाकी तरंग समझदार है. मौसी पर बोझ नहीं, सहारा ही बनेगी.’

बहुत बड़ा बोझ उतरा था पापा के सिर से, वरना वह तो पी.एफ. पर लोन लेने की सोच रहे थे. बेटी के उज्ज्वल भविष्य को अंधकार में बदलने की तो वह सोच ही नहीं सकते थे. एक वह पिता थे और एक यह सिद्धांत हैं. बेचारी पुलक आज्ञाकारिणी है, उन की तरह जिद्दी नहीं है. वह अपने पापा की आंखों में आंखें डाल कर कभी बहस नहीं करेगी. बस, मम्मी का आंचल पकड़ कर रो सकती है या घायल हिरणी की तरह कातर दृष्टि उन पर टिका सकती है.

अचानक तरंग को लगा कि वह अपने और पुलक के पापा की तुलना कर रही है, तो दोनों की मम्मियों की क्यों नहीं? उस की अनपढ़ मम्मी ने उपाय निकाला था और वह स्वयं इतनी शिक्षित हो कर भी असहाय हैं, मूक हैं, क्यों? कहीं उन की अपनी कमजोरी ही तो बेटी की सजा नहीं बन रही. उन की बेजबानी ने बेटी को लाचार बना दिया है. कुछ निश्चय किया उन्होंने और रात में सिद्धांत से बात कर डाली.

‘सिद्धांत, आप ने पुलक को मेरा उदाहरण दिया. पर जमाना अब बदल गया है. आज लड़कियां लड़कों की तरह अलगअलग क्षेत्रों में सक्रिय हैं और फिर जरूरी तो नहीं कि सब के विचार आप लोगों की ही तरह हों. समय के साथ विचारों में भी परिवर्तन आता है. हो सकता है उस की डिगरी मेरी तरह बरबाद न हो और डिगरी तो एक पूंजी है, जो मौका पड़ने पर सहारा बन सकती है. आप क्यों अपनी बेटी के पंख कतरने पर तुले हैं?’

जलती आंखों से देखा सिद्धांत ने, कि इस मुंह में जबान कैसे आ गई? फिर तुरंत मुसकरा पड़े. तीखे स्वर में बोले, ‘आ गया आंधी का झोंका तुम पर भी. ‘वुमेन इमैन्सिपेशन’? बेटी है न? तो सुनो, तुम्हारे बाप ने तुम्हें इसलिए पढ़ा दिया, क्योंकि उन्हें अपनी हैसियत का पता था. पढ़लिख कर नौकरी करेगी, अफसर बनेगी. उन्हें पता था कि वह किसी ऊंचे घराने में बेटी ब्याहने की हैसियत नहीं रखते. पर मुझे पता है कि मेरी औकात है अपनी बेटी को ऐसे ऊंचे खानदान में देने की, जहां वह बिना दरदर की खाक छाने राज करेगी. यह तो तुम्हारी किस्मत ने जोर मारा और तुम मुझे पसंद आ गईं, वरना इतने नीचे गिर कर भला हम लड़की उठाते? अब इस विषय में कोई बात नहीं होगी. दिस चैप्टर इस क्लोज्ड. बारबार एक ही बात दोहराना मुझे बिलकुल पसंद नहीं,’ और वह करवट बदल कर सो गए. तरंग की वह रात आंखों में कटी.

तीसरे दिन जिम से लौटने पर सिद्धांत बाहर टैक्सी खड़ी देख हैरान रह गए. पूछने ही वाले थे कि कमरे से तरंग को निकलते देखा. काले रंग की बालूचरी साड़ी में लिपटी उन की कोमल काया थोड़ी कठोर लग रही थी. हैरान होने की आज उन की बारी थी.

‘कहां जा रही हो? सुनीता के यहां, लेकिन इतनी सुबह?’

तरंग अपनी बचपन की सहेली सुनीता के यहां कभीकभी चली जाती हैं. वह सीधी आगे बढ़ कर सिद्धांत से मुखातिब हुईं.

‘नहीं, सुनीता के यहां नहीं. साढ़े 9 वाली फ्लाइट से दिल्ली जा रही हूं. किस लिए, यह आप समझ ही गए होंगे. वहां मैं रमण अरोड़ा के घर रुकूंगी. यह रहा उन का पता.’

उन्होंने सिद्धांत के हाथ में कार्ड पकड़ा दिया. तब तक पुलक हाथ में अटैची पकड़े अपने कमरे से बाहर आ चुकी थी. सिद्धांत तो इस कदर अकबका गए कि बोल ही बंद हो गए.

मांजी बाहर ही खड़ी थीं, उन्होंने चुप्पी तोड़ी, ‘लेकिन जा ही रही हो तो मौसी के घर रुक जातीं. गैरों के घर इस तरह…’

‘नहीं मम्मीजी, मौसी के घर रुकने में परिवार की बदनामी होगी. अकेली जा रही हूं न बेटी के साथ. क्या बहाना बनाऊंगी? और फिर कौन गैर, कौन अपना…’

सब के मुंह पर ताले लग गए. तरंग ने मांबाबूजी के पैर छुए. एक हाथ में पोर्टफोलियो और दूसरे से पुलक का हाथ पकड़ सीधे निकल गईं. मुड़ कर देखा तक नहीं.

मेरी नौकरी जाने वाली है और अगले महीने मेरी शादी हैं, अब मैं क्या करूं?

सवाल 

मेरी जॉब सेफ नहीं हैयह बात मुझे किसी सहकर्मी से पता चली है. मैं 5 वर्षों से मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत हूं. मेरी तनख्वाह अच्छीखासी है. 2 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. मैं इस कंपनी को छोड़ना नहीं चाहता. ऐसी सिचुएशन में कहीं मेरी शादी तो नहीं टूट जाएगी. कृपया सलाह दें.

जवाब

यह अच्छी बात है कि आप की सैलरी अच्छीखासी है जिस से आप अपने परिवार का निर्वाह अच्छे से कर पाएंगे लेकिन जो परेशानी इस समय आप के सामने है वह भी कम छोटी नहीं है. क्योंकि जौब छूटने के कारण शादी टूटने का डर आप की चिंता को बढ़ाए हुए है. आप सब जान कर भी यह जौब नहीं छोड़ना चाहते तो यह आप के गलत फैसले को दर्शाता है.

इस दौरान आप जौब सर्च करने की कोशिश करें. हो सकता है नया जौब इस जौब से बेहतर हो. दूसरी बातअपनी होने वाली वाइफ को इस बारे में बता दें ताकि अचानक जौब छूटने पर स्थिति न बिगड़े. इस स्थिति से आप की कोशिश ही आप को बाहर निकाल पाएगी.

अंतर्भास: आखिर क्या चाहती थी कुमुद

घर पर अकसर मैं अकेला होता… अकेला होने पर एक भी पल ऐसा न गुजरता जब मेरे दिमाग में कुमुद न होती. मैं यह निरंतर समझने की कोशिश करता रहता कि आखिर कुमुद जैसी सुंदर, युवा, पढ़ीलिखी और सरकारी नौकरी में लगी, बुद्धिमान लड़की ने जयेंद्र जैसे बदसूरत, अपने से दोगुनी उम्र वाले 2 बच्चों के पिता से शादी कैसे कर ली? जयेंद्र को इस महल्ले में लोग सब से बेवकूफ, प्रतिभाहीन, खब्ती आदमी मानते थे.

लोभी इतना कि बीमार बीवी का उस ने ठीक से इलाज इसलिए नहीं कराया क्योंकि इलाज में पैसा ज्यादा खर्च होता जबकि शहर में उस के पास 2-3 बड़े गोदाम थे, जिन का अच्छाखासा किराया आता था. उस का अपना निजी टैंट हाउस भी था. बच्चे पढ़ने में कमजोर थे इसलिए कुमुद उन्हें ट्यूशन पढ़ाने आया करती थी. जयेंद्र के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी पर अखबार वह खरीदता नहीं था. उस के घर में बच्चों की किताबकापियों के अलावा और कोई किताब कहीं दिखाई नहीं देती थी.

कुमुद से मेरा परिचय कुछ इस तरह हुआ कि एक दिन पड़ोस में दांतों के एक नकली डाक्टर के गलत इंजेक्शन लगाने से मरीज की मृत्यु हो गई जिस के कारण उस के घर वालों ने डाक्टर की दुकान पर हमला कर दिया. लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज और मारपीट के समय कुमुद वहीं से गुजर रही थी. वह घबरा कर मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. मैं ने उस को आतंकित और कांपते देखा तो उस से कह दिया कि आप भीतर घर में चली जाएं. यहां झगड़ा बढ़ सकता है. कुछ सकुचा कर वह अंदर चली आई और फिर बातें हुईं.

वह शहर के डिगरी कालिज से एम.ए. कर रही थी और पड़ोस के जयेंद्र के बच्चों को पढ़ा रही थी. ‘‘चाय बना कर लाता हूं,’’ मैं यह कह कर चाय बनाने चला गया और इस दौरान उस ने मेरे कमरे में रहने वाले का जीवन और चरित्र समझने की कोशिश की थी. साफ लगा, लड़की तेज है, बेवकूफ नहीं. बातों से पता चला कि वह नौकरी ढूंढ़ रही थी…पर किसी नौकरी के लिए कोशिश करो तो सब से पहले यही पूछा जाता है कि कंप्यूटर आता है? इंटरनेट का ज्ञान है? ईमेल कर लेते हो? पर शहर में जो अच्छे सिखाने वाले संस्थान हैं, उन की फीस बहुत है. वह उस के वश की नहीं और घटिया संस्थानों में कुछ सिखाया नहीं जाता.

‘‘आप कहें तो मैं अपने उस संस्थान के मालिक से बात करूं जहां मैं सीखता हूं…शायद मेरे कहने पर वह कम फीस में सिखाने को राजी हो जाए,’’ मैं ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गया कि अगर वह राजी न हुआ तो? व्यापारी है. बाजार में पैसा कमाने बैठा है. मेरे कहने पर किसी को ओबलाइज क्यों करेगा? हां, उस की एक कमजोर नस मैं ने दबा रखी है. इंटरनेट पर वह साइबर कैफे चलाता है और कम उम्र के लड़के- लड़कियों को अश्लील वेबसाइट पर सर्फिंग करने देता है…पुलिस को इस की जानकारी है. 1-2 बार पुलिस ने उस पर छापा डालने की योजना भी बनाई, पर चूंकि एक अखबार में पार्टटाइम क्राइम रिपोर्टर होने के कारण मेरा परिचय पुलिस विभाग में बहुत हो गया है, हर कांड जिसे पुलिस खोलती है, उस की बहुत अच्छी रिपोर्टिंग मैं करता हूं और अकसर पुलिस वालों को उन की तसवीरों के साथ खबर में छापता हूं, इसलिए वे बहुत खुश रहते हैं मुझ से.

यही नहीं क्राइम होने पर मुझे वे तुरंत सूचित करते हैं और अपने साथ तहकीकात के वक्त ले भी जाते हैं. जबजब कंप्यूटर कैफे पर छापा डालने की पुलिस ने योजना बनाई, मैं ने पुलिस को या तो रोका या कंप्यूटर मालिक को पहले ही सूचित कर दिया जिस से वह लड़केलड़कियों को पहले ही अपने कैफे से हटा देता.

अगले दिन जब वह पड़ोसी जयेंद्र के घर बच्चों को सुबह ट्यूशन पढ़ाने जा रही थी, मैं ने उसे अपने चबूतरे पर से आवाज दी, ‘‘कुमुदजी…’’ वह ठिठक गई. बिना हिचक चबूतरे पर चढ़ आई. अपनी कुरसी से उठ कर मैं खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मैं ने आप की कंप्यूटर सिखाने के लिए अपने संस्थान के मालिक से बात कर ली है. शाम का कोई वक्त निकालें आप…’’ ‘‘कितनी फीस लगेगी?’’ उस का प्रश्न था. ‘‘आप उस की चिंता न करें. वह सब मैं देखूंगा, हो सकता है, मेरी तरह आप भी वहां फ्री सीखें…’’

मैं ने बताया तो वह कुछ सकुचाई. शायद सुंदर लड़कियों को सकुचाना भी चाहिए. आज की दुनिया लेनदेन की दुनिया है. कैश न मांगे, कुछ और ही मांग बैठे तो? संकोच ही नहीं, उस के भीतर चल रहे मानसिक द्वंद्व को भी मैं ताड़ गया था. कहानियों, उपन्यासों का पाठक हूं… आदमी की, उस के मन की, उस के भीतर चल रही उथलपुथल की मुझे बहुत अच्छी समझ है. और यह समझ मुझे हिंदीअंगरेजी के उपन्यासों ने दी है. आदमी को समझने की समझ, किसी आदमी का बहुआयामी चित्रण जितनी अच्छी तरह किसी अच्छे उपन्यास में होता है, शायद किसी अन्य विधा में नहीं. इसीलिए आज के युग का उपन्यास महाकाव्य कहलाता है.

कुमुद का संकोच मेरी समझ में आ गया था सो मुसकरा दिया, ‘‘आप पर आंच नहीं आने दूंगा…यह विश्वास रखें.’’ ‘‘मेरे लिए आप भी यह सब क्यों करेंगे…’’ कुमुद कहने के बाद हालांकि मुसकरा दी थी. ‘‘मैं आप के कहने का आशय समझ गया,’’ हंस कर बोला, ‘‘किसी और लालच में नहीं, सिर्फ एक अच्छी दोस्त के लिए और उस से दोस्ती की खातिर…हालांकि इस छोटे शहर में स्त्री व पुरुष के बीच दोस्ती का एक ही मतलब निकाला जाता है, पर आप विश्वास रखें, बीच की सीमा रेखा का अतिक्रमण भी नहीं करूंगा…हालांकि आप का रूपसौंदर्य मुझे परेशान जरूर करेगा, क्योंकि सौंदर्य की अपनी रासायनिक क्रिया होती है…

‘‘आप ने बाहर हो रहे झगड़े के दौरान जब हमारी बैठक में बैठ कर चाय पी और हमारा परिचय हुआ तो आप से सच कहता हूं, मन में अनेक भाव आए, रात को भी ठीक से नींद नहीं आई, आप बारबार सपनों में आती रहीं पर मैं ने अपने मन को समझा लिया कि हर सुंदर लगने वाली चीज हमें जीवन में मिल जाए, यह जरूरी नहीं है…फिल्मों की तमाम हीरोइनें हमें बहुत अच्छी लगती हैं पर हम सब जानते हैं, वे आकाश कुसुम हैं…कभी मिलेंगी नहीं…’’ खिलखिला कर हंस दी कुमुद. हंसी तो उस के गोरे, भरे गालों में प्रीति जिंटा जैसे डिंपल बने जिन्हें मैं अपलक देखता रहा देर तक.

वह बोली, ‘‘कुछ भी हो, आप दिल के एकदम साफ व्यक्ति हैं. जो मन में होता है, उसे कह देते हैं.’’ ‘‘कुमुद, तुम ने अंगरेजी विषय ही क्यों चुना एम.ए. के लिए?’’ एक दिन उस से पूछा. वह हिंदी और अंगरेजी के उपन्यास समान रूप से ले जा कर पढ़ने लगी थी. ‘‘कई कारण हैं. एक तो यह कि यहां के महिला महाविद्यालय में प्राचार्या ने वचन दिया है कि यदि एम.ए. में मेरी प्रथम श्रेणी आई तो बी.ए. की कक्षाओं को पढ़ाने के लिए फिलहाल वह मुझे रख लेंगी. दूसरा कारण, अपने महाविद्यालय में अंगरेजी के जो विभागाध्यक्ष हैं वह मुझे बहुत मानने लगे हैं. कह रहे थे, शोध करा देंगे. यदि पीएच.डी. करने का अवसर मिल गया तो एक प्रकार से मेरी शिक्षा पूरी हो जाएगी और कहीं ठीकठाक जगह नौकरी मिल जाएगी. तीसरा कारण, अंगरेजी पढ़ी लड़की को नौकरी आसानी से मिल जाती है.’’ ‘‘असली कारण तो तुम ने बताया ही नहीं,’’ भेद भरी मुसकान के साथ मैं बोला. ‘‘कौन सा?’’ उस की आंखों में भी शरारत थी. ‘‘अंगरेजी पढ़ी लड़की को अच्छा घर और वर भी मिल जाता है,’’ कह कर मैं हंस दिया. झेंप गई वह.

कुमुद कंप्यूटर सीखने जाने लगी थी. कई बार वह फीस के बारे में पूछ चुकी थी, पर उसे फीस न संस्थान मालिक ने बताई, न मैं ने. वह पढ़ती रही. काफी सीख भी गई. एक दिन बोली, ‘‘अगर कहीं से आप सेकंड हैंड कंप्यूटर दिलवा दें तो मैं घर पर कुछ जौब वर्क कर सकती हूं.’’ अगले दिन अपने संस्थान से ही एक नया असंबल किया हुआ कंप्यूटर ले कर उस के घर पहुंच गया, ‘‘तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा, कुमुद.’’ वह एकदम खिल सी गई, ‘‘आप को कैसे पता चला कि आज मेरा जन्मदिन है?’’

‘‘कंप्यूटर संस्थान में तुम ने अपना फार्म भरा था, उस में तुम्हारा बायोडाटा देखा था.’’ ‘‘आप सचमुच जासूस किस्म के व्यक्ति हैं…क्राइम रिपोर्टर हैं, कहीं कोई क्राइम तो नहीं करेंगे?’’ वह हंसतीहंसती एकदम चुप हो गई थी क्योंकि उस की मां वहां आ गई थीं. उस ने कंप्यूटर अपनी मां को दिखाया. फिर मेरे लिए चाय बनाने चली गई. कुमुद की मां वहां रह गई थीं. संकोच भरे स्वर में कुछ हिचकती सी बोलीं, ‘‘आप की बहुत तारीफ करती है कुमुद. सचमुच आप ने उसे बहुत सहारा दिया है. हम आप का अहसान हमेशा मानेंगे.’

मैं समझ रहा था, यह किसी अन्य बात को कहने की भूमिका है. यों ही कोई किसी की प्रशंसा नहीं करता. हर बात, हर व्यवहार आदमी बहुत चालाकी से, अपने मतलब के अनुसार करता है. अखबारी दुनिया में रहने से आदमी को अच्छी तरह समझने लगा हूं. पहले यह समझ नहीं थी. कुछ रुक कर चेहरा झुकाए हुए वह बोलीं, ‘‘कुमुद जहां बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाती है, आप की गली वाले जयेंद्रजी के घर…’’ इतना कहती हुई वह हिचकीं फिर बोलीं, ‘‘एक दिन वह यहां आए थे… बड़े आदमी हैं…आप भी जानते होंगे उन्हें…2 बच्चे हैं. पत्नी की बीमारी से मृत्यु हो गई है. मुझे कुछ खास उम्र नहीं लगी उन की…बस, शक्लसूरल जरा अच्छी नहीं है पर पैसे वाले आदमी की शक्लसूरत कहां देखी जाती है…कुमुद का हाथ मांग रहे थे…कह रहे थे कि बच्चे कुमुद से बहुत हिलमिल गए हैं…अगर कुमुद राजी हो जाए तो वह उस से शादी कर लेंगे…इस बारे में आप की क्या राय है?’’

मैं सन्नाटे में आ गया था. लगा, जैसे किसी ने चहकती चिडि़यों वाले बेर के विशाल पेड़ पर पूरी ताकत से बांस जड़ दिया है और सारी चिडि़यां एकाएक फुर्र हो गई हैं. बाहरभीतर का सारा चहकता शोर एकदम थम गया है. मैं भौचक्का उन की तरफ ताकता रह गया. मन हुआ, कंप्यूटर उठा ले जाऊं और कुमुद चाय ले कर आए उस से पहले ही इस घर से बाहर निकल जाऊं, पर ऐसा किया नहीं. काठ बना ज्यों का त्यों बैठा रहा. कुमुद चहकती चिडि़या की तरह खुश थी. उसे कंटीला ही सही एक ऊंचा बेर का वृक्ष मिल गया था. वह बेखौफ उस घने वृक्ष पर अपना घोंसला बना सकती थी. घर आ कर सारी स्थितियों पर मैं ने गंभीरता से सोचाविचारा. कुमुद ने मेरी अपेक्षा जयेंद्र को क्यों पसंद किया?

मैं अपनी असफलता पर बहुत दुखी ही नहीं, एक तरह से अपनेआप से क्षुब्ध और असंतुष्ट भी था. एक बार को मन हुआ कि बाजार से सल्फास की गोलियां ले आऊं और रात को खा कर सो जाऊं. फिर लगा कि यह तो कायरता होगी. आखिर इतना पढ़ालिखा हूं, समझ है, क्या इस तरह की बातें मुझे सोचनी चाहिए? इस में कुमुद का दोष कहां है? उस ने जो किया, जो सोचा, उस में उस की गलती कहां है? कोई भी चतुर और समझदार लड़की यही करती जो उस ने किया. आखिर जयेंद्र की तुलना में वह मुझे क्यों चुनती?

फिर मैं ने अपने मन की बात उस से कभी खुल कर कही भी नहीं. हो सकता है, वह सिर्फ एक दोस्त के रूप में ही मुझे देखतीमानती और समझती रही हो. जरूरी कहां है कि जो दोस्त है, उसे वह अपने जीवन का साथी भी बनाए? क्यों बनाए? सिर्फ दोस्त भी तो मान सकती है. कभी उस ने अपना ऐसा मन भी जाहिर नहीं किया कि वह मुझे इस रूप में पसंद करती है.

फिर कुमुद के इस फैसले से मैं खिन्न क्यों हूं? गुस्से से क्यों भभक रहा हूं? गलती खुद मुझ से हुई है. अगर दोस्ती से आगे बढ़ कर उसे चाहने लगा था तो मुझे उस से अपने मन की बात कहनी चाहिए थी. चूक उस से नहीं, मुझ से हुई है. उस से कहा क्यों नहीं? संकोच था, झिझक थी कि अगर इनकार कर दिया तो? और इनकार करने के कारण भी थे… 2 हजार की अखबार में क्राइम रिपोर्टर की मामूली नौकरी. 3 कमरों का साधारण घर. किराए पर उठी 3 दुकानें. मेरी आर्थिक हैसियत क्या है? मन की बात कहने पर अगर वह इनकार कर देती तो बहुत संभव था, मैं अपनेआप को रिजेक्टिड मान कर क्रोध में भड़क उठता और कोई गलत फैसला कर बैठता.

कुमुद मुझे बहुत अच्छी लगती है. मैं उस का बहुत सम्मान करता हूं. अच्छी दोस्त है वह मेरी. उस की एक झलक पाने के लिए, उस की एक मुसकान देखने के लिए, उस के गालों पर प्रीति जिंटा जैसे डिंपलों को देखने के लिए, मैं चकोर बना उस की ओर ताकता रहता हूं. ‘‘क्यों, चिडि़या हाथ नहीं आई?’’ कंप्यूटर संस्थान के मालिक ने मेरी स्थिति से असली मामला भांप लिया. कंप्यूटर के सामने चुप और उदास बैठा रहा. कुछ बोला नहीं. कुछ देर के मौन के बाद उस ने कहा, ‘‘बरखुरदार… मैं ने तुम से ज्यादा दुनिया देखी है. जयेंद्र जो एकएक पैसा दांत से पकड़ता है, तुम्हारी कुमुद पर फिदा हो गया था. कुमुद ने उस से नौकरी के लिए कहा तो एक अफसर की बेटी की शादी में मुफ्त टैंट लगा शादी का पूरा इंतजाम किया.

बदले में कुमुद के लिए उस अफसर से उस ने सरकारी दफ्तर में कंप्यूटर क्लर्क की नौकरी मांग ली. इस तरह कुमुद को वहां फिट करवा दिया. इस अहसान के बदले कुमुद की मां से अपने लिए उस का हाथ मांग लिया. जयेंद्र कहां गलत है इस में? सौदों की दुनिया में हर कोई नफा का सौदा करना चाहता है. तुम ठहरे नासमझ और कल्पनाओं की दुनिया में जीने वाले.’’ इतना कह कर वह बेशर्मी से मुसकराया और बोला, ‘‘जिस दिन तुम कुमुद के लिए कंप्यूटर ले जा रहे थे, उस दिन मैं तुम से कहना चाहता था कि कुमुद तुम्हारे हाथ नहीं आएगी, बेकार उस पर अपना वक्त और पैसा बहा रहे हो पर तुम्हें बुरा लगेगा, इसलिए चुप रह गया था. आखिर तुम हमारे साइबर कैफे को पुलिस से बचाने में मेरी मदद करते हो, मैं तुम्हें नाराज क्यों करता?’’+

 

‘‘तुम्हारी इस सिलसिले में कुमुद से कभी बात हुई क्या?’’ मैं ने कुछ सोच कर पूछा. मैं जानना चाहता था, आखिर कुमुद ने उस बदसूरत आदमी को क्यों पसंद कर लिया, जबकि मैं अपनेआप को उस से हजार गुना बेहतर समझता हूं. ‘‘वह तुम्हें सिर्फ एक अच्छा दोस्त मानती है. तुम्हारी इज्जत करती है. एक भला और सही आदमी मानती है. पढ़ालिखा और समझदार व्यक्ति भी मानती है. पर इस का मतलब यह तो नहीं कि वह तुम्हें अपना जीवनसाथी भी मान ले? वह जानती है कि तुम्हारा अर्थतंत्र टूटा हुआ है. तुम इस शहर को छोड़ कर कहीं बाहर जाने का जोखिम नहीं लेना चाहते. कुछ नया और अच्छा करने का हौसला तुम में नहीं है. आजकल पैसा बनाने के लिए आदमी क्या नहीं कर रहा? गलाकाट प्रतिस्पर्धा का जमाना है मित्र. लोग अपने हित के लिए दूसरे का गला बेहिचक काट रहे हैं.’’

मैं कसमसाता चुप बना रहा तो कंप्यूटर मालिक कुछ संभल कर फिर बोला, ‘‘चींटियां वहीं जाती हैं जहां गुड़ होता है. जरा सोच कर देखो, उस का फैसला कहां गलत है? तुम्हारे साथ जुड़ कर उसे क्या वह सबकुछ मिलता जो जयेंद्र से जुड़ कर मिला है…सरकारी नौकरी, 10 लाख उस के नाम बैंक में जमा. अच्छा- खासा सारी सुखसुविधाओं से युक्त मकान…तुम उसे क्या दे पाते यह सब?’’

एक दिन अचानक कुमुद मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. उस के स्वागत में मुसकरा कर खड़ा हो गया, ‘‘आओ, कुमुद…अब तो तुम ने इधर आना ही छोड़ दिया,’’ स्वर में शिकायत भी उभर आई. ‘‘नौकरी की व्यस्तता समझिए इसे और कुछ नई जिम्मेदारियां भी,’’ उस का इशारा संभवत: अपने विवाह की तरफ था. उस के बैठने के लिए भीतर से कुरसी ले आया. ‘‘चाय पीना पसंद करोगी मेरे साथ?’’ मुसकरा रहा था. पता नहीं चेहरे पर व्यंग्य था या रोष.

‘‘चाय पीना ही पसंद नहीं करती बल्कि आप से बातचीत करना भी बहुत पसंद करती हूं पर आज चाय आप नहीं, मैं बनाऊंगी आप के किचन में चल कर,’’ वह बेहिचक घर में आई. उसे किचन बताना पड़ा. सारा सामान चाय के लिए निकाल कर उस के सामने रखना पड़ा. चाय के दौरान उस ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी एक बात मानेंगे?’’ ‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारी किसी बात को इनकार नहीं कर सकता,’’ मैं ने सिर झुका लिया. ‘‘हां, इस का एहसास है मुझे. इसी विश्वास के बल पर आज आई हूं आप से कुछ कहने के लिए,’’ उस ने कहा. ‘‘कहो,’’ मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘अपने अफसर को राजी किया है. वह आप को अखबार के कारण जानता है. हालांकि हिचक रहा था, अखबार में काम करते हो, कहीं सरकारी दफ्तर के जो ऊंचेनीचे काम होते हैं उन की पोल तुम कभी अखबार में न खोल डालो. पर मैं ने उन्हें तुम्हारी तरफ से विश्वास दिला दिया है कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, चुपचाप अपनी नौकरी करोगे.’’

‘‘मतलब यह कि तुम ने मेरी नौकरी की बात पक्की कर ली वहां. वह भी बिना मुझ से पूछे? बिना यह सूचना दिए कि मुझे वह नौकरी रास भी आएगी या नहीं? मैं कर भी पाऊंगा या नहीं? निभा भी सकूंगा सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार के साथ या नहीं?’’ मैं सवाल पर सवाल दागता चला था. ‘‘हां, बिना आप से पूछे. बिना आप को सूचित किए ही यह बात कर ली मैं ने, और मुझे इस के लिए उस अफसर को थोड़ीबहुत छूटें भी देनी पड़ीं, इतनी नहीं कि मेरी अस्मिता पर आंच आती पर किसी से हंसबोल लेना, दिखावटी थोड़ाबहुत फ्लर्ट कर लेना…अपना काम निकालने के लिए बुरा नहीं मान पाई मैं… और वह भी अपने इतने अच्छे दोस्त के लिए, अपनी दोस्ती के लिए इतना तो कर ही सकती थी न मैं,’’ वह मुसकरा रही थी.

फिर बोली, ‘‘मेरा मन कह रहा था कि मैं तुम से कहूंगी तो तुम मना नहीं करोगे. मैं जानती हूं तुम्हारे मन को…और न जाने क्यों, इतना हक भी मानती हूं तुम पर अपना कि मैं कहूंगी तो तुम मेरी बात मानोगे ही.’’ चुप रह गया मैं और दंग भी. अपलक उस के मुसकराते और गर्व से चमकते चेहरे की तरफ देखता रहा. ‘‘सरकारी दफ्तरों में हर काम गलत नहीं होता जनाब, हर आदमी भ्रष्ट नहीं होता. ऐसे बहुत से लोग हैं जो पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते हैं. इतने दिन काम कर के मैं भी कुछ समझ पाई हूं उस तिलिस्म में घुस कर,’’ वह बोलती जा रही थी

‘‘क्या करना होगा मुझे?’’ मैं ने उस से पूछा. ‘‘टे्रजरी दफ्तर में तमाम बिल कंप्यूटरों पर तैयार होते हैं. वेतन बिल, पेंशन बिल, सरकारी खर्चों के लेनदेन के हिसाबकिताब…उन की टे्रनिंग चलेगी आप की 6 महीने…उस के बाद स्थायी पद दिया जाएगा. शुरू में 10 हजार रुपए मिलेंगे, इस के बाद क्षमता के आधार पर संविदा पर नियुक्ति की जाएगी.’’

‘‘संविदा का मतलब हुआ, अगर काम ठीक से नहीं कर पाया तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा,’’ मैं ने शंका जाहिर की. ‘‘हमेशा हर काम को करने से पहले आप उस के बुरे पक्ष के बारे में ही क्यों सोचते हैं? यह क्यों नहीं मानते कि 6 महीने की टे्रनिंग में आप जैसा प्रतिभावान और होनहार व्यक्ति बहुतकुछ सीख लेगा और संविदा पर ही सही, अच्छा काम कर के अफसरों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करा देगा…आप की 2 हजार रुपए की नौकरी से तो यह हजारगुनी बेहतर नौकरी रहेगी…अगर नहीं कर पाएंगे तो अखबार तो आप के लिए हमेशा रहेंगे. पत्रकारिता आप को आती है, वह कहीं भी कर लेंगे आप…परेशान क्यों हैं?’’

उम्मीद नहीं थी कि कुमुद इतनी समझदार और संवेदनशील होगी. मैं चकित, अचंभित उस के चेहरे को देखता रह गया, उसे इनकार करता तो किस मुंह से और क्यों?

निर्णय: आखिर क्यों अफरोज ने किया निकाह से इंकार?

लेखक: रईस अख्तर

जब से अफरोज ने वक्तव्य दिया था, पूरे मोहल्ले और बिरादरी में बस, उसी की चर्चा थी. एक ऐसा तूफान था, जो मजहब और शरीअत को बहा ले जाने वाला था. वह जाकिर मियां की चौथे नंबर की संतान थी. 2 लड़के और उस से बड़ी राबिया अपनेअपने घरपरिवार को संभाले हुए थे. हर जिम्मेदारी को उन्होंने अपने अंजाम तक पहुंचा दिया था और अब अफरोज की विदाई के बारे में सोच रहे थे. लेकिन अचानक उन की पुरसुकून सत्ता का तख्ता हिल उठा था और उस के पहले संबंधी की जमीन पर उन्होंने अपनी नेकनीयती और अक्लमंदी का सुबूत देते हुए वह बीज बोया था, जो अब पेड़ बन कर वक्त की आंधी के थपेड़े झेल रहा था.

उन के बड़े भाई एहसान मियां उसी शहर में रहते थे. हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनने के वक्त हुए दंगों में उन का इंतकाल हो गया था. वह अपने पीछे अपनी बेवा और 1 लड़के को छोड़ गए थे. उस वक्त हारून 8 साल का था. तभी पति के गम ने एहसान मियां की बेवा को चारपाई पकड़ा दी थी. उन की हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही थी. उस हालत में भी उन्हें अपनी चिंता नहीं थी. चिंता थी तो हारून की, जो उन के बाद अनाथ हो जाने वाला था.

कितनी तमन्नाएं थीं हारून को ले कर उन के दिल में. सब दम तोड़ रही थीं. उन की बीमारी की खबर पा कर जाकिर मियां खानदान के साथ पहुंच गए थे. उन्हें अपने भाई की असमय मृत्यु का बहुत दुख था. उस दुख से उबर भी नहीं पाए थे कि अब भाभीजान भी साथ छोड़ती नजर आ रही थीं. उन के पलंग के निकट बैठे वह यही सोच रहे थे. तभी उन्हें लगा जैसे भाभीजान कुछ कहना चाह रही हैं. भाभीजान देर तक उन का चेहरा देखती रहीं. वह अपने शरीर की डूबती शक्ति को एकत्र कर के बोलीं, ‘वक्त से पहले सबकुछ खत्म हो गया,’

इतना कहतेकहते वह हांफने लगी थीं. कुछ पल अपनी सांसों पर नियंत्रण करती रहीं, ‘मैं ने कितने सुनहरे सपने देखे थे हारून के भविष्य के, खूब धूमधाम से शादी करूंगी…बच्चे…लेकिन…’

‘आप दिल छोटा क्यों करती हैं. यह सब आप अपने ही हाथों से करेंगी,’ जाकिर मियां ने हिम्मत बढ़ाने की कोशिश की थी. ‘नहीं, अब शायद आखिरी वक्त आ गया है…’ भाभीजान चुप हो कर शून्य में देखती रहीं. फिर वहां मौजूद लोगों में से हर एक के चेहरे पर कुछ ढूंढ़ने का प्रयास करने लगीं. ‘सायरा,’ वह जाकिर मियां की बीवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली थीं,

‘तुम लोग चाहो तो मेरे दिल का बोझ हलका कर सकते हो…’ ‘कैसे भाभीजान?’ सायरा ने जल्दी से पूछा था. ‘मेरे हारून का निकाह मेरे सामने अपनी अफरोज से कर सको तो…’ भाभीजान ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया था और आशाभरी नजरों से सायरा को देखने लगी थीं. सायरा ने जाकिर मियां की तरफ देखा. जैसे पूछ रही हों, तुम्हारी क्या राय है?

आखिर आप का भी तो कोई फर्ज है. वैसे भी अफरोज की शादी तो आप को ही करनी होगी. अच्छा है, आसानी से यह काम निबट रहा है. लड़का देखो, खानदान देखो, इन सब झंझटों से नजात भी मिल रही है. ‘इस में सोचने की क्या बात है? हमें तो खुशी है कि आप ने यह रिश्ता मांगा है,’

जाकिर मियां ने सायरा की तरफ देखा, ‘मैं आज ही निकाह की तैयारी करता हूं,’ यह कहते हुए जाकिर मियां उठ खड़े हुए. वक्त की कमी और भाभीजान की नाजुक हालत देखते हुए अगले दिन ही अफरोज का निकाह हारून से कर दिया गया था. उसी के साथ वक्त ने तेजी से करवट ली थी और भाभीजान धीरेधीरे स्वस्थ होने लगी थीं. वह घटना भी अपने-आप में अनहोनी ही थी.

तब की 6 साल की अफरोज अब समझदार हो चुकी थी. उस ने बी.ए. तक शिक्षा भी पा ली थी. इसी बीच जब उस ने यह जाना था कि बचपन में उस का निकाह अपने ही चचाजाद भाई हारून से कर दिया गया था तो वह उसे सहजता से नहीं ले पाई थी. ‘‘यह भी कोई गुड्डेगुडि़यों का खेल हुआ कि चाहे जैसे और जिस के साथ ब्याह रचा दिया. दोचार दिन की बात नहीं, आखिर पूरी जिंदगी का साथ होता है पतिपत्नी का. मैं जानबूझ कर खुदकुशी नहीं करूंगी. बालिग हूं, मेरी अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, कुछ अरमान हैं,’’

अफरोज ने बारबार सोचा था और विद्रोह कर दिया था. जब अफरोज के उस विद्रोह की बात उस के अम्मीअब्बा ने जानी थी तो बहुत क्रोधित हुए थे. ‘‘हम से जनमी बेटी हमें ही भलाबुरा समझाने चली है,’’ सायरा ने मां के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा था, ‘‘तुझे ससुराल जाना ही होगा. तू वह निकाह नहीं तोड़ सकती.’’

‘‘क्यों नहीं तोड़ सकती? जब आप लोगों ने मेरा निकाह किया था, तब मैं दूध पीती बच्ची थी. फिर यह निकाह कैसे हुआ?’’ अफरोज ने तत्परता से बोलते हुए अपना पक्ष रखा था. ‘‘शायद तेरी बात सही हो लेकिन तुझे पता होना चाहिए कि शरीअत के मुताबिक औरत निकाह नहीं तोड़ सकती. हम ने तुझे इसलिए नहीं पढ़ाया-लिखाया कि तू अपने फैसले खुद करने लगे. आखिर मांबाप किस लिए हैं?’’ सायरा किसी तरह भी हथियार डालने वाली नहीं थी.

‘‘मैं किसी शरीअतवरीअत को नहीं मानती. आप को आज के माहौल में सोचना चाहिए. कैसी मां हैं आप? जानबूझ कर मुझे अंधे कुएं में धकेल रही हैं. लेकिन मैं हरगिज खुदकुशी नहीं करूंगी. चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े. यह मेरा आखिरी फैसला है,’’ अफरोज पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई थी. अफरोज के खुले विद्रोह के आगे मांबाप की एक नहीं चली थी. आखिर उन्हें इस बात पर समझौता करना पड़ा था कि शहर काजी या मुफ्ती से उस निकाह पर फतवा ले लिया जाए. शाम को उन के घर बिरादरी भर के लोग जमा हो गए थे. हर शख्स मुफ्ती साहब का इंतजार बेचैनी से कर रहा था. उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा.

कुछ ही देर बाद मुफ्ती साहब के आने की खबर जनानखाने में जा पहुंची थी. इशारे में जाकिर मियां ने कुछ कहा और अफरोज को परदे के पास बैठा दिया गया. दूसरी ओर मरदों के साथ मुफ्ती साहब बैठे थे. मुफ्ती साहब ने खंखारते हुए गला साफ किया. फिर बोले, ‘‘अफरोज वल्द जाकिर हुसैन, यह सही है कि हर लड़की को निकाह कुबूल करने और न करने का हक है, लेकिन उस के लिए कोई पुख्ता वजह होनी चाहिए. तुम बेखौफ हो कर बताओ कि तुम यह निकाह क्यों तोड़ना चाहती हो?’’ वह चुप हो कर अफरोज के जवाब का इंतजार करने लगे.

‘‘मुफ्ती साहब, मुझे यह कहते हुए जरा भी झिझक नहीं महसूस हो रही है कि मेरी अपनी मालूमात और इला के मुताबिक हारून एक काबिल शौहर बनने लायक आदमी नहीं है. ‘‘उस की कारगुजारियां गलत हैं और बदनामी का बाइस है,’’ वह कुछ पल रुकी फिर बोली,

‘‘बचपन में हुआ यह निकाह मेरे अम्मीअब्बा की नासमझी है. इसे मान कर मैं अपनी जिंदगी में जहर नहीं घोल सकती. बस, मुझे इतना ही कहना है.’’ दोनों तरफ खामोशी छा गई. तभी मुफ्ती साहब बुलंद आवाज में बोले, ‘‘अफरोज के इनकार की वजह काबिलेगौर है. मांबाप की मरजी से किया गया निकाह इस पर जबरन नहीं थोपा जा सकता. निकाह वही जायज है जो पूरे होशहवास में कुबूल किया गया हो. इसलिए यह अपने निकाह को नहीं मानने की हकदार है और अपनी मरजी से दूसरी जगह निकाह करने को आजाद है.’’

मुफ्ती साहब के फतवा देते ही चारों ओर सन्नाटा छा गया था. अपने हक में निर्णय सुन कर, जाने क्यों, अफरोज की आंखों में आंसू आ गए थे.

बेइज्जती पाने की होड़ : आखिर ये भी एक कला है

पहले मैं इस भरम में जीता था कि हर इनसान इज्जत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता है लेकिन बाद में मेरी इस सोच में बदलाव तब आया जब मुझे अपनी खुद की आंखों से बेइज्जती के साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाले धुरंधरों के दर्शन करने का मौका मिला.

भारत की खोज बड़े ही मौज के साथ वास्को डी गामा ने की थी, लेकिन बेइज्जती के बोझ की खोज किस रोज और किस ने की थी, यह बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल आम आदमी के लिए बिना रीचार्ज किए स्मार्ट फोन की बैटरी को पूरा दिन चलाना है.

कुछ लोग बेइज्जत होने को अपना बुनियादी हक मानते हैं और इसे पाने के लिए वे लगातार अपनी इज्जत को तारतार करते हुए इसी जद्दोजेहद में लगे रहते हैं. ‘बेइज्जती पिपासु’ लोगों को अपनी पूरी उम्र इज्जत की प्राणवायु हजम नहीं होती है. इज्जत भरी जिंदगी की इच्छा से ही ‘बेइज्जती प्रिय’ लोग सहम जाते हैं और इज्जत जैसी नुकसान पहुंचाने वाली और मारक चीज से उचित दूरी बना कर चलते हैं. बेइज्जत होना इन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों में शुमार होता है.

बेइज्जती के नशेड़ी उलट हालात में भी बेइज्जती का हरण कर उस का वरण करने में कामयाब हो जाते हैं. आम का सीजन हो या केले का, ये लोग हमेशा से ही सरेआम बेइज्जती से गले मिलना पसंद करते हैं ताकि सार्वजनिक जिंदगी में ट्रांसपेरैंसी बनी रहे.

इसी ट्रांसपेरैंसी और ईमानदारी के चलते ये जल्द ही बेइज्जती के वामन रूप से विराट रूप धर लेते हैं. हर देश, काल और हालात में ‘बेइज्जती उपासक’ अपनी निष्ठा और निष्ठुरता से बेइज्जती हासिल कर ही लेते हैं.

बेइज्जती के इस धंधे में कभी मंदी नहीं आती है क्योंकि बेइज्जती में हमेशा नकद से ही आप का कद बढ़ता रहता है और उधार से बेइज्जती की धार कुंद होती चली जाती है.

विजय माल्या और नीरव मोदी ने भले ही बैंक से कर्ज ले कर बैंक को चूना लगा दिया हो, लेकिन देश से भाग कर, बेइज्जत होने की दौड़ में सब को पछाड़ कर ‘बेइज्जती उद्योग’ को चार चांद लगा दिए हैं.

कुछ लोगों में बेइज्जत होने का जुनून ही उन के सुकून की वजह होता है. बेइज्जती का घूंट वे कहीं से भी लूट लेते हैं. गलती से मिली इज्जत की वाह, इन की धमनियों में होने वाली बेइज्जती के नियमित बहाव को नहीं रोक पाती है.

बेइज्जती प्रदेश के मूल निवासी, चाहे अपने निवास पर हों या दूसरी किसी जगह के प्रवास पर, वे बेइज्जती की लौजिंगबोर्डिंग हमेशा अपने शरीर पर धारण किए रहते हैं.

इस प्रदेश के मूल निवासी हमेशा बेइज्जत होने के नएनए मौके और तरीके खोजने की कोशिश करते रहते हैं ताकि बेइज्जती की बोरियत से बचा कर इसे समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके.

लगातार बेइज्जत होना भी एक ऐसी कला है जिसे आम आदमी के लिए अंजाम देना मुश्किल होता है. बेइज्जती के फील्ड में पेशेवर फील्डिंग करने वालों की कमी महसूस की जाती रही है.

डिमांड के मुकाबले सप्लाई न होने से बैलैंस गड़बड़ा रहा?है. लेकिन फिर भी देख कर संतोष और कुछकुछ होता है कि कुछ लोगों ने बेइज्जत होने को अपनी जिंदगी का मिशन और सहारा बना लिया है और वे बेइज्जती के सामने मुसाफिर की तरह ट्रैफिक के नियमों का पालनपोषण कर, इस रास्ते पर दांडी मार्च रहे हैं.

इन्हीं लोगों द्वारा उपजी क्वालिटी के चलते क्वांटिटी की कमी महसूस नहीं हो पाती है और क्वांटिटी की कमी के खिलाफ उठने वाली संगठित आवाज बेइज्जती के बोझ के नीचे दब जाती है.

बेइज्जती उद्योग में अभी भी बहुत उम्मीदें हैं जिन पर बेइज्जत हो कर गंभीरता से विचार करना जरूरी है. समाज के फायदे के लिए इस क्षेत्र में लोगों को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि आज की गलाकाट होड़ में जहां लोगों को इज्जत और नाम के लिए दरदर भटकने के बाद भी बेइज्जती ही हाथ लगती है, वहीं अगर उन्हें सीधे ही बेइज्जत होने के लिए बढ़ावा दिया जाए तो उन का यह भटकाव काफी हद तक कम होगा और नतीजतन समाज में इज्जत पाने की अंधी दौड़ में भागने वाले, उसेन बोल्ट जैसे धावक की आवक भी कम हो जाएगी.

तुलसी मैडम यानि स्‍मृति ईरानी के काम नहीं आए राम

मंदिर के सहारे मत बटोरने की टैक्टिस काम नहीं आई

22 फरवरी के दिन स्‍मृति ईरानी ने अमेठी के अपने घर का गृहप्रवेश कराया. माथे पर कलश लेकर पारसी पति जुबिन ईरानी के साथ अपने नए घर में कदम रखा. उज्‍जैन से आए पंडितों ने पूरे विधिविधान के साथ हवनपूजन कराया. उन दिनों स्‍मृति ईरानी को शायद यह महूसस हुआ हो कि अमेठी की जनता के दिल में उतरने के लिए यह सबसे बेहतर तरीका है लेकिन चुनाव के नतीजों ने उनकी सोशल इंजीनियरिंग की पोल खोल दी. स्‍मृति ईरानी बुरी तरह हार गईं. दूसरे बीजेपी नेताओं और मंत्रियों की तरह स्‍मृति को यह लगा था कि राम म‍ंदिर की सीढ़ियों से चुनाव जीतने का दोतिहाई रास्‍ता तो तय हो गया है, बाकी एकतिहाई का काम अमेठी में उनका गृहप्रवेश कर देगा लेकिन वह कांग्रेस के किशोरी लाल शर्मा से 1,67, 196 वोटों से चुनाव हार गई. ठीक 5 साल पहले अमेठी की इसी सीट पर स्‍मृति ईरानी ने राहुल को हराया था. तब 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की फायरब्रांड नेता मानी जा रही स्‍मृति ईरानी को 4,68,514  और राहुल गांधी को 4,13,394 वोट मिले. उनके बाद उनका जोश काफी हाई हो गया था, जो उनकी अकड़ के रूप में नजर आने लगा था. 

 

मैनेजर ने लिया मालिक का बदला

स्‍मृति को हराने के बाद जब  किशोरी लाल शर्मा से उनकी जीत का राज पूछा गया, तो उन्‍होंने कहा कि अमेठी में विनम्रता चलेगी,अहंकार नहीं. इसमें कोई शक नहीं कि उनका इशारा अपनी प्रतिद्वन्‍द्वी बीजेपी की महिला प्रत्‍याशी स्मृति ईरानी की तरफ था. हालांकि किशोरी लाल शर्मा से चारों खाने चित होने के बाद भी  स्‍मृति की अकड़ कम होने का नाम नहीं ले रही, नतीजे आने के बाद हुए प्रेस कौन्फ्रेंस के दौरान स्‍मृति ने कहा कि “उनका जोश अभी भी हाई है”, स्‍मृति का यही एटीट्यूड उनको ले डूबा. साल 2023 में अमेठी लोकसभा क्षेत्र में वह एक पत्रकार के ऊपर जबरदस्‍त भड़क गई थीं, पत्रकार विपिन यादव का कसूर यह था कि उसने केंद्रीय मंत्री से एक बाइट मांगी थी, इस पर स्‍मृति ने कहा था, “अगर आप मेरे क्षेत्र का अपनाम करेंगे, तो मैं आपके मालिक से फोन करके कहूंगी”  इसके बाद उस पत्रकार की नौकरी चली गई थी.

मोहब्‍बत की दुकान पर तंज का हथियार हुआ बेकार

कई ऐसे मौके थे जब स्‍मृति ईरानी के बात करने के तरीके पर सवाल उठा. राहुल गांधी पर उनका तंज कम होने का नाम नहीं ले रहा था, यूपी में सातवें चरण के लोकसभा चुनाव से कुछ दिन पहले वाराणसी में एक चुनावी रैली के दौरान स्‍मृति ईरानी का माइक खराब हो जाता है, इस पर चुटकी लेते हुए वह कहती हैं, “माइक वाले का नाम राहुल तो नहीं” उनके इस कमेंट की काफी आलोचना हुई थी लोगों ने कहा था कि एक केंद्रीय मंत्री की तरफ से ऐसा बयान दिया जाना काफी निराशाजनक है. प्रियंका गांधी पर किया गया उनका तंज भी बहुत चर्चा में रहा, इसमें वह प्रियंका की मिमिक्री करती दिखी थीं. 

 

राम किसी के काम नहीं आए

इसी साल अप्रैल महीने में स्‍मृति ईरानी ने अयोध्‍या के राम मंदिर का दर्शन किया.  उन दिनों यह चर्चा तेज थी कि  राहुल गांधी अमेठी से उम्‍मीदवार हो सकते हैं और स्‍मृति ने कहा था कि राममंदिर प्राण प्रतिष्‍ठा का निमंत्रण अस्‍वीकार करने के बाद वे मंदिर जा सकते हैं क्‍योंकि उन्‍हें लगता है कि इससे उन्‍हें वोट मिलेगा, यानी वे भगवान को धोखा देने जाएंगे. राहुल पर  तंज कसते हुए केंद्रीय मंत्री मैडम ईरानी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था,  “जो इंसान को रिझाने के‍ लिए भगवान से छल करते हैं वह हम सबका क्‍या खाक हो पाएगा, जो सच्‍चे मन से राम का नहीं वह हमारे किसी काम का नहीं.” अब चुनाव के नतीजों की घोषणा के बाद यह कहा जा सकता है कि राम अगर राहुल के काम नहीं आए, तो स्‍मृति ईरानी के काम भी नहीं आए. 

चुनावी नतीजे: हार से ज्यादा तकलीफदेह जीत क्योंकि सरकार धर्म चलाने लगी थी

लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शाम को जब कार्यकर्ताओं को संबोधित करने की परंपरा निभाने के लिए भाजपा कार्यालय पहुंचे तो पूरी तरह जैविक नजर आ रहे थे. स्वाभाविक तौर पर उन का चेहरा उतरा हुआ था और आवाज में भी 4 दिनों पहले सा दम नहीं था क्योंकि जो जीत भाजपा के हिस्से में आई है वह बेहद शर्मनाक है. 400 पार भले ही सियासी जुमला रहा हो लेकिन पार्टी का 240 सीटों पर सिमट जाना उतना ही अप्रत्याशित था जितना यह कि इस कार्यक्रम में भाषण की शुरुआत ही जय जगन्नाथ से करना था.

ओडिशा में मिली कामयाबी के बाबत जगन्नाथ के प्रति आभार और आस्था व्यक्त करने के साथसाथ उन्हें जय श्रीराम न बोलने का खूबसूरत बहाना भी मिल गया. यह बात किसी सबूत की मुहताज अब नहीं रही कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का भाजपा को कोई फल नहीं मिला, बल्कि उलटा मिला लेकिन इस से कोई सबक उन्होंने सीखा हो, ऐसा लगा नहीं. क्योंकि जय जगन्नाथ बोलने के बाद वे सीधे बड़े मंगल और हनुमान का जिक्र करते नजर आए.

साबित हो गया कि भाजपा का धर्म यानी हिंदुत्व की राजनीति छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. हर कोई दिलचस्प तरीके से भाजपा और एनडीए को बौर्डर पर मिले बहुमत की अपने ढंग से व्याख्या और विश्लेषण कर रहा है लेकिन यह सच कहने की हिम्मत कोई नहीं कर रहा कि ज्यादा कुछ नहीं हुआ है. बस धर्म, हिंदुत्व और मंदिरों की राजनीति करते रहने से वोटर ने उसे खारिज कर दिया है. इसी पैटर्न की राजनीति करते भाजपा सत्ता के शिखर तक पहुंची थी और इसी पैटर्न की राजनीति ने उसे फर्श पर भी ला पटका है क्योंकि इस से आमआदमी का कोई भला नहीं हो रहा था, उलटे नुकसान बेशुमार होने लगे थे.

इसे समझने के लिए एक अमेरिकी राजनेता और संविधान विशेषज्ञ व सीनेटर सैम जे एर्विन का यह कथन कल के नतीजों पर बेहद सटीक बैठता है कि, ‘राजनीतिक स्वतंत्रता किसी भी देश में मौजूद नहीं हो सकती जहां धर्म राज्य को नियंत्रित करता है और धार्मिक स्वतंत्रता किसी भी देश में मौजूद नहीं हो सकती जहां राज्य धर्म को नियंत्रित करता है.’ मामला 1966 के एक विवाद का है जब अमेरिकी स्कूलों में प्रार्थना पर एक संवैधानिक संशोधन का विरोध हो रहा था और इस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही थी.
खासतौर से पिछले 10 सालों से देश में हो यही रहा था कि शासन धर्म चला रहा था. कम हैरत की बात नहीं कि इस से लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता तक छिनने लगी थी जो संविधान ने उसे दी हुई है. यह कैसे हो रहा था, इस पर बहस की लंबीचौड़ी गुंजाइशें मौजूद हैं लेकिन उत्तरप्रदेश जहां भाजपा औंधेमुंह गिरी वहां तो धार्मिक तमाशे, उन्माद और हंगामे इतने होने लगे थे कि मुसलमान तो मुसलमान, दलित और पिछड़े तक इस से आजिज आ गए थे. कुछ शांतिप्रिय सवर्ण भी असहज महसूस करने लगे हों, तो भी बात हैरत की नहीं.

उत्तरप्रदेश में अयोध्या है और मथुरा, काशी भी है (योगी आदित्यनाथ तो हैं ही) जहां से मसजिद हटा कर मंदिर निर्माण के संकल्प लिए जाने लगे थे. भाजपा सहित कट्टर हिंदूवादी संगठन खुलेआम कहने भी लगे थे कि अब मथुरा-काशी की बारी है. संत समाज ने तो अतिउत्साह में हिंदू राष्ट्र का संविधान तक बनाना शुरू कर दिया था. इस हल्ले के खतरे देख, कुछ ही सही, लोगों को ज्ञान प्राप्त होने लगा कि धर्म तो व्यक्तिगत आस्था का विषय है जिस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.

पूरे चुनावप्रचार में भाजपा का फोकस धर्म पर रहा तो लोगों को यह भी समझ आया कि सरकार का असल काम तो बुनियादी सहूलियतें जुटाना है, इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना है, प्रशासन चलाना और अर्थव्यवस्था सहित न्याय व्यवस्था संचालित करना है. ऐसे सैकड़ों काम हैं जिन के लिए हम सरकार चुनते हैं लेकिन हो यह रहा है कि सरकार मंदिरों से आगे कुछ सोचने और करने को तैयार ही नहीं. सो, जनता ने अपना फैसला सुना दिया.

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की धार्मिक इमेज और धार्मिक फैसलों ने आग में घी डालने का काम किया. हिंदूमुसलिम तो पूरे देश में हो ही रहा है लेकिन खासी दहशत दलितों और पिछड़ों में भी पैदा होने लगी थी जिन्हें यह एहसास है कि यह धर्म उन के लिए नहीं है या इस धर्म में उन के लिए कुछ नहीं रखा है. इस से तो ब्राह्मणों और बनियों की रोजीरोटी चलती है और डबल इंजन वाली सरकार इसे प्रोत्साहन दे रही है तो उन्होंने भाजपा से किनारा कर लेने में ही भलाई समझी.

ऐसा भी नहीं है कि दलितपिछड़े पूजापाठी न हों, उलटे, वे इस मामले में सवर्णों से उन्नीस नहीं. लेकिन अपनी सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों का एहसास उन्हें है जिसे धर्म के जरिए दूर करने की कोशिश वे करते रहते हैं. वजह, उन्हें भी यह पट्टी पढ़ा दी गई है कि अपनी दुश्वारियों से नजात पाना है तो पूजापाठ करो, दानदक्षिणा दो और अपनी परेशानियों की बाबत सरकार से सवालजबाब मत करो सीधे ऊपर वाले से शिकवेशिकायत करो. इस जन्म की छोड़ो, धर्मकर्म कर अपना परलोक और अगला जन्म सुधारो.

ऐसा हो भी रहा था लेकिन इन तबकों की आस्था अभी इतनी गहरी नहीं हुई है कि वे अपनी बदहाली को किस्मत मान लें. इसी दौरान संविधान प्रचार का मुद्दा बना तो ये लोग और घबरा उठे कि कहीं ऐसा न हो कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए सरकार मनुस्मृति पर अमल करने लगे यानी आरक्षण भी खत्म कर दे. और ऊंची जाति वालों को उन पर पौराणिक युग या संविधान बनने के पहले होने वाले अत्याचार ढाने का लाइसैंस देदे. भगवान तो कुछ कर नहीं रहा और अब सरकारें भी धर्मकर्म में डूबी जा रही हैं तो घबराए दलितपिछड़े ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ मुड़े जो उन्हें सुरक्षा, बराबरी के दर्जे और आरक्षण सलामत रखने का आश्वासन दे रहा था.

यह कह देना कोई अनुसंधान वाली बात नहीं है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा की दुर्गति की वजह बसपा के वोटबैंक का ‘इंडिया गठबंधन’ की तरफ ट्रांसफर हो जाना है. असल बात यह है कि मायावती ने मनुवादियों के सामने घुटने टेक रखे हैं जिस से दलित खुद को लाचार महसूसने लगे हैं. वे अगर पिछड़ों खासतौर से यादवों और मुसलमानों की कही जानेवाली सपा की तरफ गए तो,महज इसलिए कि वह आमतौर पर धार्मिक पाखंडों से दूर रहती है और इन पर कहने भर की राजनीति करती है. उस के साथ वह कांग्रेस भी है जिस ने उसे कई तरह के हक संविधान के जरिए दिए थे लेकिन जब कांग्रेस के सवर्णों की सनातनी और पूजापाठी मानसिकता उजागर हो कर गैरत पर भारी पड़ने लगी तो दलितों ने उस से किनारा कर लिया और बसपा संग हो लिए जो घोषित तौर पर दलितों की, दलितों द्वारा, दलितों के लिए चलने वाली पार्टी थी.

इन्हीं सनातनी कांग्रेसियों की वजह से मुसलमान सपा के साथ हो लिया. यह अलगअलग राज्यों में अलगअलग तरह से एक नियमित अंतराल से हुआ. लगभग सभी राज्यों में दलितों और पिछड़ों की पार्टियां बनीं. जिन राज्यों में नहीं बन पाईं वहां पहले कांग्रेस और अब भाजपा इन की मजबूरी हो गई.

मध्यप्रदेश में भाजपा को 29 में से 29 सीटें लगभग 60 फीसदी वोटों के साथ मिलीं तो इसी वजह से कि दलितपिछड़ों की हिमायती और हक की बात करने वाली कोई पार्टी है नहीं. हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी भाजपा को इस का फायदा मिला. इन राज्यों में भी कांग्रेस का कोई विकल्प या क्षेत्रीय दल नहीं हैं. लेकिन उत्तरप्रदेश में है तो उस ने अपना फैसला सुना दिया कि सियासत के असली भगवान हम हैं और हमें परलोक से पहले लोक सुधारना है.

शाम होतेहोते जैसे ही तसवीर साफ हुई, मठमंदिरों में बैठे हिंदुत्व के झंडाबरदार सकते में आ गए और सोशल मीडिया पर उन का विश्लेषण प्रवाहित होने लगा. ऐसी पोस्टें इफरात से इधरउधर होने लगीं जिन का सार यह है कि वे हिंदू गद्दार हैं जिन्होंने भाजपा को वोट न दे कर इंडिया गठबंधन को दिया जो मुसलमानों का है. ये पोस्टें बेहद भड़काऊ और कुछ तो इतनी भद्दी हैं कि उन का यहां जिक्र भी नहीं किया जा सकता. ये गालियां, दरअसल, उन दलितों के नाम थीं जिन्होंने हिंदू राष्ट्र का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया. इन दलितों को पीढ़ियों से एहसास है कि इस हिंदू राष्ट्र में उन की हैसियत मवेशियों सरीखी रही है.

रही बात मुसलमानों की, तो उन्हें हमेशा की तरह कोसा गया. 95 फीसदी मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया तो कोई गुनाह नहीं कर दिया. इस बाबत उन पर दबाव भी तो हिंदुत्व के दुकानदारों ने ही बनाया था. नरेंद्र मोदी आम कट्टरवादी हिंदू की तरह नहीं बोले लेकिन मीटिंगों में उन्होंने बारबार राहुल गांधी को शहजादा कह कर संबोधित किया. इस तंज के पीछे उन की मंशा यही जताने की थी कि राहुल हिंदू नहीं हैं बल्कि मुसलमान, पारसी और ईसाई सहित न जाने क्याक्या हैं. इस खेल में इकलौती सुखद बात यही रही कि वोटर ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

कट्टर हिंदूवादी मुद्दत तक बौखलाए भी रहेंगे क्योंकि ये नतीजे उन की दुकान, मंशा और मिशन पर पानी फेरते हुए हैं. अधिकतर लोगों ने लोकतंत्र को प्राथमिकता दी है, धर्मतंत्र को नहीं और जिन लोगों ने दी है उन में से भी कई यह राग अलापते नजर आ रहे हैं कि अच्छा हुआ जो भाजपा और मोदी को और बेलगाम होने का मौका नहीं मिला.
लेकिन क्या इस से धर्म और मनुवाद की राजनीति पर लगाम लग गई या लग जाएगी, इस सवाल का जवाब दे पाना किसी के लिए आसान नहीं. हां, एक हद तक यह फैसला अब नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता के हाथों में होगा जिन की पार्टियों को हिंदुत्व के नाम या दम पर वोट नहीं मिले हैं. अपाहिज भाजपा इन 2 बैसाखियों के सहारे चलेगी, तो कहा जा सकता है कि वह कोई रिस्क नहीं उठाएगी.

तो फिर भाजपा अब क्या करेगी, यह देखना दिलचस्पी की बात होगी क्योंकि उसे तो मंदिरों और धर्म की राजनीति के अलावा कुछ आता नहीं. उसे एक नए भगवान जगन्नाथ मिल गए हों तो मुमकिन है आदिवासी बाहुल्य राज्य ओडिशा के मंदिर वह चमकाए, जगन्नाथ कौरीडोर बनवाए, कोणार्क के मंदिर का भी कायाकल्प कर दे, जिस से उड़िया ब्राह्मणों का भला हो और गरीब आदिवासी मोक्ष के चक्कर में आ कर उत्तरप्रदेश सहित देशभर के दलितों की तरह अभी अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारें और ज्यादा नहीं बल्कि 5-10 वर्षों बाद झींकता नजर आए कि इस से तो नवीन बाबू का राज ही भला था जिस में उन की जिंदगी में कोई खास बेचैनी या अशांति नहीं थी.

अब जो भी हो लेकिन यूपी के 2 लड़कों ने भाजपाई मंसूबों पर ग्रहण तो लगा ही दिया है. यह झटका जोर का ही है और लगा भी जोर से है जिस ने सवर्णों को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर हमें हिंदू राष्ट्र के नाम पर मिला क्या है सिवा नफरत के जो दिलोदिमाग पर दीमक की तरह काबिज हो गई है. यह तबका भी महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है लेकिन हिंदुत्व के चलते खामोश था. इस का रुख तय करेगा कि भविष्य की राजनीति का मिजाज कैसा होगा- मंदिरमसजिद वाला या अस्पतालों, सड़कों, बिजली, पानी और स्कूलकालेजों वाला.

लोकतंत्र की बुनियाद मजबूत विपक्ष होना, अब नहीं चलेगी मनमानी

अब की बार 400 पार का नारा दे कर सत्ता पाने का बीजेपी का सपना चूर हो गया. भारत में तानाशाही का सपना पालने वाले लोकसभा चुनाव में अपने दम पर 272 के आंकड़े को भी नहीं छू पाए. पुतिन और नेतन्याहू बनने की चाह थी, तालिबान के शरिया राज की तरह हिंदू राज बनाने की चाह थी, लेकिन अब गठबंधन में शामिल दलों की बैसाखियों के सहारे किसी तरह सरकार बनाने की जुगत करते नज़र आ रहे हैं. जनता ने साफ संदेश दे दिया कि लोकतंत्र में मनमानी और हिंसा नफरत की राजनीति लंबे समय तक नहीं चलेगी.

भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी वाला देश है और सियासी निगाह से दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र. लोकतंत्र यानी लोगों का तंत्र, लोगों की मर्जी, उन की पसंद, उन के प्रतिनिधि, उन की समस्याएं और उन की चुनी हुई सरकार से उन समस्याओं का निदान. जनता की समस्या भूख, गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई थी, लेकिन मोदी सरकार जनता की समस्याओं को ताक पर रख कर मंदिरमंदिर, मुसलिममुसलिम खेलती रही. मोदी के शासन में भारत का लोकतंत्र निरंकुशता में तब्दील हो गया. बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया. यह सब इसलिए संभव हो सका क्योंकि विपक्ष कमजोर था.

विपक्ष या विपक्षी पार्टियां जब मजबूत नहीं होती हैं तो सत्ताधारी पार्टी को मनमानी करने की गुंजाइश मिलती है. इस से लोकतंत्र के बाकी तीनों धड़े – विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया कमजोर पड़ जाते हैं. ऐसे हालात में मीडिया फायदे के लिए या दबाव में एकतरफा हो जाता है और उस में काम करने वाले लोगों को स्वतंत्रता और निष्पक्षता से काम करने में अड़चन आती है. जो कि मोदी सरकार में साफ देखा गया.

सब से मोटी बात तो यह है कि कोई सरकार चाहे दक्षिणपंथी हो, समाजवादी हो या फिर साम्यवादी. गलतियां सभी करती हैं और करेंगी भी. पर उन गलतियों पर किसी की नजर होनी बहुत जरूरी है. मीडिया या न्यायालय यह काम अकेले नहीं कर सकते, इसलिए संसद में सत्ताधारी पार्टी के सामने एक मजबूत विपक्ष आवश्यक होता है. लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों ने साफ कर दिया है कि जनता को केवल बहुमत की सरकार ही नहीं, देश में एक मजबूत विपक्ष भी चाहिए. कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन को लोकसभा में मिली बड़ी कामयाबी इस बात का प्रमाण है.

चुनाव नतीजों में कांग्रेस ने जैसी वापसी की है, उस में सत्ता से वह भले दूर रह गई हो मगर यह तय हो गया है कि 18वीं लोकसभा में आधिकारिक रूप से नेता विपक्ष होगा. भाजपा-राजग गठबंधन की सरकार तीसरी बार कमान संभालती है तो उसे संसद में अब तक के सबसे ताकतवर विपक्ष से रूबरू होना पड़ेगा.

विपक्ष के मजबूत होने से संसद में आम सहमति के राजनीतिक दौर की वापसी का रास्ता बनेगा क्योंकि भाजपा-राजग सरकार को तीसरी पारी में संसद में अपने नीतिगत फैसलों से ले कर हर अहम विधायी कार्य के लिए विपक्ष के सहयोग की जरूरत पड़ेगी. इस बार के जनादेश की खूबसूरती यही है कि जनता ने सरकार और विपक्ष से देश के व्यापक हित से जुड़े सवालों पर एकदूसरे से संवाद करने और जहां जरूरत हो, सहयोग भी करने की अपेक्षा की है.

इस से पहले अटल बिहारी वाजपेयी की 1998 में बनी भाजपा-राजग की सरकार के समय विपक्ष काफी मजबूत था और यही वजह रही कि 1999 में जब अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तब वाजपेयी सरकार एक वोट से हार गई थी. 2004 में जब कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग की सरकार बनी थी तो भाजपा 137 सीटों के साथ दमदार विपक्ष के रूप में थी मगर तब भी विपक्षी दलों की संयुक्त ताकत इतनी नहीं थी जितनी 2024 में चुनी गई लोकसभा में है.

2009 में भी कमोबेश स्थिति ऐसी ही थी मगर 2014 तथा 2019 में कांग्रेस के कमजोर संख्या बल के कारण पार्टी को विपक्ष का आधिकारिक दर्जा नहीं मिल पाया था. लोकसभा में विपक्ष के कमजोर होने से मोदी सरकार निरंकुश हो गई थी. तमाम राष्ट्रीय जांच एजेंसियों और मीडिया हाउसेस को अपने काबू में कर के विरोधियों के उत्पीड़न और दमन में लगी थी.

देश में पहली बार ऐसा हुआ कि चुनाव से कुछ महीनों पहले विपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी संसद से निलंबित कर दिए गए. यहां तक कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और विपक्ष के कई नेताओं के बैंक खाते फ्रीज कर दिए गए. पहली बार ऐसा हुआ कि विपक्ष को दबाने के लिए जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल किया गया और दो मौजूदा मुख्यमंत्री चुनाव से ऐन पहले जेल भेज दिए गए. दिल्ली सरकार के तो मुख्यमंत्री सहित पहली पंक्ति के सारे मंत्री ही जेल में ठूंस दिए गए.

19वीं सदी में मशहूर इतिहासकार लौर्ड एक्टन ने एक पादरी को खत में लिखा था, ‘पावर टेंड्स टू करप्ट, एब्सोल्यूट पावर टेंड्स टू करप्ट एब्सोल्यूटली’. हिंदी में इस अर्थ है कि सत्ता-मोह आप को भ्रष्ट बना देता है और सत्ता पूरी तरह आप के हाथ में होना आप को पूरी तरह भ्रष्ट बना देता है. यह कहावत आज भी उतनी ही पुख्ता है, जितनी 19वीं सदी में रही होगी.

मोदी के 10 साल के शासन के दौरान, भारत बहुसंख्यकवाद की ओर बढ़ने लगा था. यह स्थिति न सिर्फ लोकतंत्र को कमजोर कर रही थी बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए गंभीर असुरक्षा पैदा हो गई थी. मोदी की विभाजनकारी राजनीतिक बयानबाजी लगातार मुसलमानों को निशाना बना रही थी. हिंदू राष्ट्र बनाने की धुन में सांप्रदायिक हिंसा एक गंभीर मुद्दा बन गई थी. धार्मिक आधार पर सामाजिक ध्रुवीकरण तेज हो गया था. मोदी के शासन में घृणा अपराध और धार्मिक रूप से प्रेरित हिंसा – जिस में लिंचिंग भी शामिल है – में काफी वृद्धि हुई.

मोदी सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया था, खासकर उन लोगों के लिए जो सरकार या उस की नीतियों की आलोचना करते थे. भारत में न्यायपालिका, चुनाव आयोग और कानून प्रवर्तन एजेंसियां जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं राजनीतिक हस्तक्षेप और सत्तारूढ़ दल के दबाव के कारण कमजोर हो गईं और न्याय और समानता के सिद्धांतों को कायम रखने में बुरी तरह विफल होने लगीं.

इन तमाम संवैधानिक सुरक्षा उपायों और संस्थाओं के लड़खड़ाने के साथ, अगर मोदी नीत एनडीए पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर विराजती तो इस में कोई संदेह नहीं था कि भारत के 20 करोड़ मुसलमानों को दूसरे दर्जे की नागरिकता दे दी जाती या उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जाता. वहीं दलितों और ओबीसी के लिए आरक्षण भी समाप्त कर उन को पुनः सवर्ण जातियों का दास बना दिया जाता. इस में कोई शक नहीं कि तानाशाह जब अपनी पर आता तो आने वाले वर्षों में भारत अपने धर्मनिरपेक्ष चरित्र को त्याग कर संवैधानिक रूप से एक हिंदू देश बन जाता.

मगर इस बार के जनादेश ने एनडीए का आंकड़ा 300 तक भी नहीं पहुंचने दिया. जनता ने लोकतंत्र को तानाशाही में तब्दील होने से रोक लिया. जनादेश में एनडीए को जीत भले दिलवाई मगर कई सबक भी सीखा दिए. इंडिया गठबंधन को भले सत्ता नहीं दी मगर इतनी मजबूती दे दी कि अब विपक्ष की आवाज दबने वाली नहीं है. सही मायनों में मजबूत विपक्ष सत्ता के सामने सीना तान कर खड़ा है, यही लोकतंत्र की बुनियाद है.

संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ और लाहौर की ‘अय्याशी’ में क्या हैं अंतर

Reel vs Real Heeramandi : संजय लीला भंसाली की फेमस वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ को लोगों ने काफी पसंद किया. इस सीरीज को OTT प्लेटफौर्म नेटफ्लिक्स पर 1 मई को रिलीज किया गया. क्या आप जानते हैं, यह सीरीज लाहौर के कोठे (अब पाकिस्तान में है) मुजरा करने वाली की कहानी है. हालांकि इस साीरीज में ‘हीरामंडी’ की कहानी को काफी बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया है, लेकिन हकीकत में हीरामंडी की स्थिति कुछ और ही है. आज हम आपको इस आर्टिकल में लाहौर के ‘अय्याशी का अड्डा’ से रूबरू कराएंगे.

इस तरह दिखता है पाकिस्तान का हीरामंडी

‘हीरामंडी’ पाकिस्तान के लाौहर जिले का रेडलाइट एरिया है. इस मंडी में पहले हीरे जवाहरात बिका करते थे, इसलिए इसे हीरामंडी कहा जाने लगा, लेकिन ‘हीरामंडी’ सीरीज में वेश्याओं के बसेरा को आलीशान महल के रूप में दिखाया गया है. मुजरा करने वाली महिलाओं के रहनसहन का तरीका भी बिलकुल ही अलग दिखाया गया है.

असलियत में हीरामंडी की तवायफ पहनती थीं ये कपड़े

 

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हीरामंडी में मुजरा करने वाली

‘हीरामंडी’ की एक्ट्रेसेस जो तवायफ के किरदार में हैं, इनके परिधान को यूरोपियन टच देकर बनाया गया है. यूं कहें तो इन तवायफों को शाही लुक दिया गया है, जो महलों में रानियां पोशाक पहनती हैं और उनके अलग ठाठबाट होते हैं, लेकिन असलियत में हीरामंडी झुग्गी-झोपड़ी जैसा दिखता है और यहां पर रहने वाली वेश्याएं भी गरीबी के दौर से गुजरी हैं.

‘हीरामंडी’ क्यों रखा गया यह नाम

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‘हीरामंडी’ की गली

हीरामंडी का नाम हीरा सिंह के बेटे ध्यान सिंह डोगरा के नाम पर रखा गया है, जो महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री थे. ब्रिटिश शासन के दौरान यह जगह शुरू में हीरा दी मंडी नामक अनाज की मंडी थी. हालांकि बाद में यह मुगल काल के दौरान तवायफों का बसेरा बन गया.

उस समय हीरामंडी में अलग-अलग देशों से संगीत, नृत्य, तहजीब और कला से जुड़ी औरतों को यहां लाया जाता था. कुछ समय बाद इस मोहल्ले में विदेशियों द्वारा हमला भी किया गया, जिसके बाद तवायफों का बसेरा उजड़ने लगा.

90 के दशक के बाद से हीरामंडी मोहल्ला बिखरने लगा था. साल 2010 में हीरामंडी मोहल्ले में तरन्नुम सिनेमा के आसपास दो बम धमाके हुए थे. इस ब्लास्ट ने तवायफों का बिजनेस ठप्प कर दिया था.

कहा जाता है कि पाकिस्तान में हीरामंडी आज भी मौजूद है और यह वेश्याओं का अड्डा है. एक रिपोर्ट के अनुसार, हीरामंडी दिन के समय आम बाजार की तरह दिखता है, यहां खानेपीने की चीजें मिलती हैं, इसके अलावा संगीत से जुड़ी इंस्ट्रुमेंट्स भी बिकते हैं. रात के समय में हीरामंडी में वेश्याएं अपना धंधा करती हैं.

संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ की कहानी को मौडर्न तरीके से दिखाया गया है. कहा जाता है न कि रील और रियल लाइफ में काफी अंतर होता है, कुछ ऐसा ही हाल है संजय लीला भंसाली की ‘हीरामंडी’ और लाहौर के ‘अय्याशी का अड्डा’  की कहानी. सोनाक्षी सिन्हा, अदिति राव हैदरी, मनीषा कोइराला, शर्मिन सेगल इस सीरीज में मुख्य कलाकार की भूमिका में हैं. इस वेब सीरीज को लेकर एक बड़ा अपडेट सामने आया है. हीरामंडी के दूसरे सीजन की भी घोषणा की गई है.

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