डा. रमेश शहर के एक नामीगिरामी और्थोपैडिक सर्जन थे. शहर में उन का खूब नाम था. उन के द्वारा किए गए औपरेशनों की चर्चा हर जगह होती थी. कैसा भी फ्रैक्चर हो वे टूटी हुई हड्डियों को बढि़या से जोड़ देते थे, लेकिन आज एक टूटे हुए नल ने उन्हें गहन चिंतन में डाल दिया था. उन के सारे दांवपेंच फेल हो गए थे, उन के सारे प्रयत्न नाकामयाब हुए थे. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उन को कभी मुंह की खानी पड़ सकती है. हुआ यों कि उन के घर के फ्लश के टैंक का नल खराब हो गया. रमेश की पत्नी उमा ने बताया कि टैंक का वौल खराब हो गया है और पानी रुक नहीं रहा है, तो उन्होंने सोचा कि यह तो उन के बाएं हाथ का खेल है. उन्होंने उसे बंद करने के कई उपाय किए, लेकिन पानी था कि बहता ही चला जा रहा था.

फिर उन्होंने सोचा कि मेन नल के कनैक्शन को जहां से पानी उस में आता है, बंद कर दिया जाए पर उसे बंद करने की भी जब कोशिश की गई तो वह भी टस से मस न हुआ, बुरी तरह जाम हुआ पड़ा था वह. लिहाजा, प्लंबर को बुलाया गया.

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘जी, मैं मुकुंद हूं, प्लंबर,’’ दरवाजे पर एक दुबलापतला, लाल रंग की शर्ट और नीली जींस पहने किशोर खड़ा था. उस की पैंट में कई सारी पौकेट थीं. हर पौकेट में से कोई न कोई औजार बाहर झांक रहा था.

डा. रमेश की घूरती नजरों से बिन घबराए वह बोला, ‘‘मेरे औजार,’’ फिर उन की आंखों में आंखें डाल कर देखते हुए प्रश्नवाचक नजरों से पूछा, ‘‘बाथरूम कहां है?’’ मानो कह रहा हो पेशैंट कहां है?

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...