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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से भयभीत क्यों

लाल किला एक ऐतिहासिक धरोहर है आजादी के पहले और बाद का साक्षी है. 2024 अगस्त 15 की वह तारीख कभी भुलाई नहीं जाएगी जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक तरह से लोकतंत्र को कमजोर बनाने और अपने जेब में रखने का जो प्रयास किया. आईए, आज हम आप को बताते हैं वह दृश्य जो शायद आप नहीं देख पाए मगर देश दुनिया ने देखा.

दरअसल, आप की मंशा क्या है वह आप के व्यवहार और कर्म से दिखाई देती है. नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में विपक्ष के साथ जिस तरह सौतेला और छोटेपन का व्यवहार किया जा रहा है वह लोकतंत्र और आजादी का ही अपमान है. इस का सब से बड़ा उदाहरण नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी को लाल किले की प्राचीर से अपने संबोधन के दरमियान केंद्र सरकार द्वारा जिस तरह पांचवी पंक्ति में बैठाना बता गया कि दरअसल नरेंद्र मोदी के जुबान पर कुछ और होता है और मन में कुछ और होता है. और सरकार कोई मौका नहीं छोड़ती राहुल गांधी का अपमान करने से.

अगर ऐसा नहीं था तो राहुल गांधी को छोटा दिखाने का यह प्रयास क्यों किया गया और जिस व्यक्ति ने यह नई व्यवस्था की है वह कौन है? और यह नई व्यवस्था क्यों की गई? पहले से एक डेकोरम चला आ रहा है नेता प्रतिपक्ष को प्रथम पंक्ति में स्थान दिया जाता था. मगर शायद नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को फूटी आंख नहीं देखना चाहते हैं यह एक बार फिर सिद्ध हो गया है.

इस की देश में प्रतिक्रिया हुई है. जहां कांग्रेस में ऐसे एक परंपरा बताया है वहीं देश भर में संदेश चला गया कि केंद्र में जब से नरेंद्र मोदी सरकार पादरी हुई है विपक्ष को लगातार कमजोर करती चली जा रही है. यही कारण है कि संसद में भी विपक्ष को ज्यादा समय नहीं दिया जाता या फिर उन का माइक बंद हो जाता है और अब राष्ट्रीय पावन पर्व स्वाधीनता दिवस के अवसर पर जब नरेंद्र मोदी लाल किले से देश को संबोधित करते हैं तो विपक्ष को अपमानित करते हुए पीछे से पीछे का स्थान दिया जाता है. जबकि सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि संवैधानिक रूप से नेता प्रतिपक्ष के रूप में राहुल गांधी हो या कोई भी व्यक्ति वे अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. और सब से बड़ी बात तो यह है कि कभी नहीं भूलना चाहिए कि कल जब हम विपक्ष में होंगे तो हमारे साथ भी ऐसा ही व्यवहार होगा तब हमें कैसा महसूस होगा.

राहुल गांधी से कैसा भय

केंद्र सरकार के इस जग जाहिर निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार राहुल गांधी से कुछ ज्यादा ही नफरत करती है. यही कारण है कि संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नंबर पर आसीन नेता प्रतिपक्ष के स्थान को परिवर्तित कर दिया जाता है. और तर्क दिया जाता है कि ओलिंपिक खिलाड़ियों को सम्मान दिया जा रहा है, ऐसा कर के मोदी सरकार और नरेंद्र मोदी अपना स्थान छोटा कर रहे हैं. कहावत भी है कि बैरी को ऊंचा स्थान दिया जाना चाहिए, मगर यहां मोदी के सामने राहुल गांधी बैरी नहीं है वह इस देश के एक नेता प्रतिपक्ष के रूप में लोकसभा में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.

दूसरी तरफ कांग्रेस नेता और विधि विशेषज्ञ विवेक तन्खा ने स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में राहुल गांधी के बैठने की तस्वीर साझा करते हुए ‘एक्स’ पर लिखा, ‘‘रक्षा मंत्रालय इतना तुच्छ व्यवहार क्यों कर रहा है. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी चौथी पंक्ति में बैठे. नेता प्रतिपक्ष किसी भी कैबिनेट मंत्री से ऊपर हैं. लोकसभा में वह प्रधानमंत्री के बाद हैं.’’

आगे लिखा, ‘‘राजनाथ सिंहजी, आप रक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय कार्यक्रमों का राजनीतिकरण नहीं होने दे सकते. आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी, राजनाथजी.’’

कुल जमा ऐसा लगता है कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के लिए एक भय का कारण हैं. मनोविज्ञान के अनुसार भी जब कोई किसी से भयभीत होता है उस की उपेक्षा करता है. हमारी तो यही नसीहत है नरेंद्र मोदीजी आप गौरवशाली पद पर विराजमान हैं, अपना दिल बड़ा रखना चाहिए और विपक्ष को वैसे ही सम्मान देना चाहिए जैसा परंपरा रही है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से ले कर डाक्टर मनमोहन सिंह तक.

गे हों या लेस्बियन न बताने की जरूरत, न शर्मिंदा होने की

आजकल देखा गया है कि हमारी सोसाइटी हर मामले में काफी ओपन हो गई है. आजकल के बच्चे अपने पेरैंट्स से खुल कर सारी बातें शेयर कर लेते हैं फिर चाहे वे उन की पर्सनल लाइफ के बारे में कुछ हो या फिर उन की लव लाइफ से रिलेटिड बातें हों. पहले की पेरैंटिंग और आजकल के समय की पेरैंटिंग में काफी फर्क दिखाई देता है. यही बात टीनएजर्स और युवाओं के साथ भी है, वे भी अपने सेक्सुअल ओरिंटेशन को लेकर काफी ओपन हो गए हैं .

आजकल के पेरैंट्स खुद अपने बच्चों के दोस्त बन कर रहना पसंद करते हैं और इसी वजह से बच्चे भी पेरैंट्स को अपनी सारी बातें बता देते हैं. ऐसे में, सेक्सुअल चौइस की बातों को भी अपने पैरेंट्स से बताने में झिझक नहीं होनी चाहिए.

मजाक का विषय नहीं है

कई बार यह देखने या सुनने को मिलता है कि किसी का बच्चा गे है या लैस्बियन है. लोगों को इस बात से रूबरू कराने के लिए इसी विषय पर कई सारी फिल्में भी बन चुकी हैं पर फिर भी लोग इस के बारे में बात करना पसंद नहीं करते. उलटा ऐसे लोगों का मजाक उड़ाया जाता है. लोगों को यह समझना चाहिए कि गे या लैस्बियन होना किसी रह तरह का अपराध नहीं है और यह पूरी तरह से नैचुरल है. गे या लैस्बियन होना किसी के हाथ में नहीं होता बल्कि यह नैचुरल फीलिंग्स होती हैं. सैक्स को लेकर ऐसे लोगों की सोच सामान्य लोगों की सोच से उन्हें अलग बनाती हैं. इसलिए युवाओं को चाहिए कि वे इसे ले कर शर्मिंदगी नहीं महसूस करें.  लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने सैक्सुअल ओरिएंटेशन को हर बातचीत का मुद्दा बनाएं. कई बार यह देखा गया है कि ऐसे रिश्ते में बंधे लोग अपने रिलेशनशिप को अपना पहला परिचय समझने लगते हैं.  उन्हें यह समझने की जरूरत है कि सामान्य रिश्ते में या सेम सैक्स रिश्ते में बंधे लोग भी अपने रिलेशनशिप को ढिढ़ोरा नहीं पीटते हैं.

पेरैंट्स को ऐसा लगता है कि अगर उन का बच्चा गे या लेस्बियन है तो वे फिजिकली ठीक नहीं हैं और उन की समाज में बेइज्जती हो जाएगी जिस के डर से बच्चा यह बात कभी अपने पेरैंट्स से डिस्कस नहीं कर पाता और अंदर ही अंदर घुटता रहता है. पेरैंट्स को हमेशा अपने बच्चे से बात करनी चाहिए, उन की पसंद नापसंद समझनी चाहिए और अगर उन के बच्चे में ऐसा कुछ है जो उसे समाज से अलग बनाता है तो इसे बिलकुल गलत नहीं समझना चाहिए बल्कि अपने बच्चे को इस बात का यकीन दिलाना चाहिए कि वे बिलकुल गलत नहीं हैं और वे जैसा भी है उस के पेरैंट्स उस के साथ हैं.

तो नहीं उठाएंगे बच्चे गलत कदम

ऐसे में बच्चा कभी कोई गलत कदम नहीं उठाएगा जब उसे पता होगा कि कोई समझे न समझे पर उस के पेरैंट्स उसे समझते हैं और उसके साथ हैं.

पेरैंट्स को अपने बच्चे की हर ऐक्टिविटी पर नजर रखनी चाहिए कि वे किस से मिल रहे हैं, किस से बात कर रहे हैं और कैसी बातें कर रहे हैं. उन्हें इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि उन के बच्चे किस के साथ कितना समय बिता रहे हैं. ऐसे में पेरैंट्स को खुद समझ आ जाएगा कि उन के बच्चों की सोच कैसी है और कभी भी पेरैंट्स को अपने बच्चों से सैक्स रिलेटिड बात करने से नहीं शरमाना चाहिए बल्कि उन्हें अच्छे से समझाना चाहिए कि उन के लिए क्या सही है और क्या गलत है.

अकसर देखा गया है कि बच्चों को उनके सहीगलत का पता नहीं चल पाता कि किस उम्र में क्या करना चाहिए तो ऐसे में पेरैंट्स की जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बच्चों को कौन सी चीज कब करनी है इस की जानकारी जरूर दें.

5 बैड रूल्स : सैक्स में लाएं रोमांच

सैक्स शब्द सुनते ही सब के मन में बिजली सी दौड़ने लगती है. हम सब की लाइफ में एक सैक्स एक ऐसा पल है जिसे करने से इंसान खुद को रोक नहीं पाता और करने के बाद वह खुद को स्ट्रैसफ्री और खुश हो जाता है. हरेक की लाइफ में सैक्स का अपना अलग आनंद होता है.

कुछ लोग सैक्स को सिर्फ एक प्रोसेस मान सिर्फ यह सोच कर सैक्स करते हैं कि उन्हें सैक्स करना है, तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग सैक्स को पूरी फील के साथ ऐंजौय करना पसंद करते हैं और साथ ही वे अपने पार्टनर की पसंद नापसंद का भी खयाल रखते हैं.

तो चलिए आज हम आप को कुछ ऐसे बैड रूल्स बताते हैं जो आप की सैक्स लाइफ में स्पाइस का तड़का लगा सकते हैं :

सैक्स को सिर्फ एक प्रोसेस न मानें

सैक्स लाइफ में स्पाइस लाने के लिए सब से पहला रूल है कि आप को सैक्स को सिर्फ एक प्रोसेस नहीं मानना है बल्कि सैक्स को फील करना है. कुछ लोग अपने पार्टनर के साथ सैक्स करते ही सो जाते हैं या कुछ और काम करने लगते हैं जो
कि गलत है.

आप जब तब सैक्स को पूरे फील के साथ नहीं करेंगे तो आप की सैक्स लाइफ बहुत जल्दी ही बोरिंग होने लग जाएगी. ऐसे में आप को बैडरूम में आ कर सब से पहले अपने पार्टनर के साथ रोमांटिक बातें करनी चाहिए. फिर धीरेधीरे अपने पार्टनर को किस करनी शुरू करनी चाहिए बिना किसी जल्दबाजी के और ऐसे ही स्टेप बाय स्टेप आगे बढ़ना चाहिए जिस से कि आप और आपका पार्टनर दोनों एकदूसरे के टच को अंदर से फील कर पाएं.

सैक्स वीडियोज से लें नए आइडियाज

अगर आप अपनी सैक्स लाइफ में स्पाइस का तड़का लगाना चाहते हैं तो कोशिश कीजिए कि आप अपने पार्टनर के साथ रोमांटिक फिल्म्स या फिर सैक्स वीडियोज देखें जिस से कि आप दोनों की सैक्स लाइफ में कुछ नयापन आए.

आप सैक्स में अलगअलग पोजिशंस ट्राई कर सकते हैं जोकि दोनों के लिए आनंददायक हो और जिस में दोनों सैक्स का भरपूर आनंद उठा पाएं.

मत करें कोई जबरदस्ती

अगर आप चाहते हैं कि आप और आप का पार्टनर सैक्स को पूरी फील के साथ ऐंजौय करें तो आप को अपने पार्टनर के साथ किसी प्रकार की कोई जबरदस्ती नहीं करना चाहिए.

सैक्स दोनों की रजामंदी से होता है तो सैक्स में क्याक्या होना चाहिए इस बात में भी दोनों की रजामंदी जरूरी है. कई बार खुद के ऐंजौयमेंट के लिए एसी पोजिशंस में सैक्स करने लगते हैं जो उन के पार्टनर को तकलीफ दे रही होती हैं. सैक्स में हमेशा एकदूसरे का कंफर्टेबल होना बेहद जरूरी होता है.

ट्राई करें सैक्स चैटिंग

आप के सैक्स लाइफ में चार चांद लगाने का काम कर सकती है सैक्स चैटिंग. आप औफिस मे हैं या किसी काम से अपने पार्टनर से दूर हैं तो आप को समय मिलते ही अपने पार्टनर के साथ सैक्स चैट या डर्टी टौक्स करनी चाहिए जिस से कि दोनों के बीच एकदूसरे को मिलने की बेताबी रहे और आप का पार्टनर आप को जल्दी से जल्दी मिले बिना रह न पाए.

आप सैक्स चैट या डर्टी टौक्स से अपने पार्टनर को सैड्यूस कर उन्हें आपनी तरफ और आकर्षित कर सकते हैं.

सैक्स के साथ रोमांस भी जरूरी

कुछ लोग सिर्फ सैक्स करने पर फोकस करते हैं और जो कि बिलकुल गलत है. आप को हमेशा सैक्स से पहले भरपूर रोमांस करना चाहिए और तब तक रोमांस करना चाहिए जब तक आप दोनों की बौडी सैक्स किए बिना रह न पाए.

धीरेधीरे अपने पार्टनर के करीब आ कर रोमांस के कुछ ऐसे पलों को ऐक्सपीरियंस करें जो आप को हमेशा याद रहे. ऐसा करने से आप को खुद फील होने लगेगा कि रोमांस से सैक्स के प्रोसेस को बेहतर बनाया जा सकता है.

रुद्राभिषेक का बढ़ता चलन, पूजापाठियों का बढ़ता कारोबार

पूजापाठियों द्वारा महिलाओं और कन्याओं को डरा व लालच दिखा कर उन से रुद्राभिषेक कराने के लिए कहा जाता है. इस में उन को केवल पैसा खर्च करना होता है, बाकी काम की जिम्मेदारी पूजा करने वाले की होती है. आज लोगों के संपर्क कम होते जा रहे हैं, ऐसे में सोशल मीडिया पर वैबसाइट के जरिए इन पूजापाठियों का प्रचार होता है. पूजा कराने के लिए इन से वहीं संपर्क कर सकते हैं. अगर किसी पूजापाठी पास समय नहीं होता या वह कहीं दूर है तो वह करीब वाले अपने किसी पूजापाठी को भेज देता है.

जिस तरह से ओला, ऊबर काम करते हैं वैसे ही पूजापाठी भी कर रहे हैं. आज के समय में कोई भी अपने कैरियर और वेतन से संतुष्ट नहीं है. 45 साल के बाद बीमारी होती है. मुकदमे भी चलते हैं. प्रौपर्टी भी चाहिए होती है. ऐसे में इस के झांसे में लोग जल्दी आ जाते हैं. एक मध्यवर्ग शख्स की मासिक कमाई 12 से 15 हजार रुपए है. एक रुद्राभिषेक की सामान्य पूजा में इतने पैसे आराम से खर्च हो जाते है. पूजापाठी पूजा का खर्च और महत्त्व माली हालत देख कर वसूलता है. किस काम के लिए पूजा की जा रही है उस को भी बताया जाता है. उस के पूजन का तरीका भी अलग होता है.

रुद्राभिषेक का गणित

सावन माह में रुद्राभिषेक का महत्त्व ज्यादा होता है. सोशल मीडिया पर इस का खूब प्रचार किया जा रहा है. इस की आड में पूजा से ले कर पूजा सामाग्री तक महंगे दामों में बेची जा रही है. काशीविश्वनाथ मंदिर और महाकाल मंदिर औनलाइन पैसा ले कर औनलाइन पूजा भी करा रहे हैं. रूद्राक्ष रत्न, रूद्रा सैंटर, नेपाल रूद्राक्ष, रुद्राभिषेक पूजा डाटकौम जैसी तमाम वैबसाइट हैं जो पूजा से जुड़ी सामग्री बेच रही हैं. पैसा मिलते ही औनलाइन डिलीवरी के जरिए पूजा सामग्री भेज दी जाती है.

एक नजर इस सामग्री और इस की कीमत पर डालें तो रुद्राभिषेक के कारोबार का पता चलता है. शिव और शिवलिंग के नाम पर रुद्राभिषेक का औनलाइन कारोबार खूब चल रहा है. रुद्राभिषेक बीड्स माला है, इस की कीमत 19,800 से ले कर 35,200 रुपए तक है. स्फार्टिक श्रीयंत्र 221 ग्राम वाले की कीमत 33,150 रुपए, कालभैरव सुपरफाइन ब्रास 12,050 रुपए, ओम नमो शिवलिंग 2 लाख 20 हजार रुपए, गोमधर शिवफेस 86,600 रुपए, एकमुखी रुद्राक्ष 71 हजार रुपए, 9 मुखी 24 हजार रुपए, गौरीशंकर रुद्राक्ष 28 हजार रुपए है. और तो और, शिवपूजा में चढ़ाए जाने वाले बेलपत्र भी औनलाइन 250 रुपए से ले कर 5,900 रुपए में उपलब्ध हैं.

वैबसाइट पर पूजा का पूरा विवरण मिल जाता है. उस पर लिखा होता है- ‘रुद्राभिषेक पूजा भगवान शिव को प्रसन्न करने का सब से आसान उपाय होता है. रुद्राभिषेक करने से आप की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. रुद्राभिषेक पूजा में केवल 1 से 2 घंटे का समय लगता है और इस में मात्र 2,100 से 5,100 रुपए का खर्चा आता है. अधिक जानकारी के लिए आप पंडित जी से बात कर सकते हैं.’ अब आप पंडित जी से बात करेंगे तो वे पूजा का अलग महत्त्व और खर्च बताते हैं.

अगर आप रुद्राभिषेक 2 पंडितों द्वारा करवाना चाहते हैं तो सामान और दक्षिणा को मिला कर 5,100 रुपए का खर्चा आएगा. अगर लघु रुद्राभिषेक, नमकचमक रुद्राभिषेक करवाते हैं तो इस में 11 पंडितों की दक्षिणा और सामान का खर्च 15, हजार रुपए आएगा. लघु रुद्राभिषेक में 3 घंटे का समय लगता है. पूजा का खर्च पंडित और पूजास्थल के हिसाब से बढता जाता है. यह एक से दो लाख रुपए तक भी हो जा सकता है.

अगर उज्जैन में रुद्राभिषेक पूजा करवाना चाहते हैं और उस में होने वाले खर्चे के बारे में जानना चाहते हैं तो आप उज्जैन में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य मंगलेश तिवारी से इस के बारे में जान सकते हैं और आप औनलाइन अपनी पूजा भी बुक कर सकते हैं. वैसे, चाहें तो रुद्राभिषेक पूजा किसी भी शिव मंदिर में जा कर कर सकते हैं लेकिन कुछ प्रसिद्ध मंदिरों में पूजा करने का विशेष महत्त्व है. उज्जैन के महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात के सोमनाथ ज्योतिर्लिंग, नासिक के भीमाशंकर और त्रिंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, इंदौर के पास स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग, तमिलनाडू के रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग में पूजा करने से फल की प्राप्ति जल्द हो जाती है.

उज्जैन में रुद्राभिषेक पूजा करवाना चाहते हैं तो उज्जैन में प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य मंगलेश तिवारी से संपर्क कर सकते हैं. मंगलेश तिवारी को हर प्रकार की पूजा का 15 वर्षों का अनुभव है. जिन भी जातकों ने मंगलेश तिवारी के साथ पूजा संपूर्ण की है उन्हें तुरंत ही अच्छे परिणाम मिले हैं. मंगलेश तिवारी से रुद्राभिषेक पूजा के विषय में और जानकरी व मुफ्त परामर्श लेने के लिए गूगल पर सर्च कर कर सकते हैं. जल्द लाभ होने के लिए सिद्व मंदिर, सिद्व पुजारी और पवित्र सामग्री होनी जरूरी होती है. इसी के आधार पर पूजा का खर्च बढ़ता है.

रुद्राभिषेक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है. रुद्राभिषेक में भगवान शिव के रुद्र अवतार की पूजा और उन का अभिषेक किया जाता है. भगवान शिव को रुद्राभिषेक की मदद से जल्दी प्रसन्न किया जा सकता है. अब देखिए पूजा में कितनी सामग्री लगती है. रुद्राभिषेक पूजा के लिए 11 वस्तुएं सब से जरूरी होती हैं. इस में फलों का रस, राख या भस्म पाउडर, चीनी, भांग, शहद, पानी, दूध, मक्खन, दही, चंदन का पाउडर और तेल शामिल है.

क्यों करवाते हैं पूजा

रुद्राभिषेक पूजा का लाभ सोशल मीडिया के जरिए प्रचारित किया जाता है. उस में समझाया जाता है कि हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य द्वारा किए गए पाप ही उस के दुखों का कारण बनते हैं. ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति की कुंडली में मौजूद पापों से छुटकारा पाने के लिए यदि रुद्राभिषेक किया जाए तो उस से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है. इस के साथ इस क्रिया के माध्यम से व्यक्ति अपने निजी जीवन से जुड़े दुखों से नजात भी आसानी से पा सकते हैं. रुद्राभिषेक के जरिए शिव जल्द ही आशीर्वाद दे कर सभी दुखों को दूर कर देते हैं. रुद्राभिषेक मुख्य रूप से मनुष्य अपने सभी दुखों से मुक्ति पाने के लिए करते हैं. इस के जरिए व्यक्ति कम समय में ही अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति कर सकता है.

घर या प्रौपर्टी से जुड़े लाभ प्राप्त करने के लिए शिव का दही से रुद्राभिषेक करना फलदायी साबित होता है. आर्थिक लाभ प्राप्त करने या बैंकबैलेंस बढ़ाने के लिए शहद और घी से रुद्राभिषेक करना फलदायी साबित हो सकता है. यदि व्यक्ति किसी तीर्थस्थल से प्राप्त पवित्र जल से शिव का रुद्राभिषेक करे तो इस से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है. यदि आप किसी रोग से नजात पाना चाहते हैं तो इस के लिए शिव का कुशोदक से अभिषेक करना लाभकारी रहेगा. गाय के दूध से शिव का अभिषेक कर पुत्र की प्राप्ति की जा सकती है. अपने वंश का विस्तार करने के लिए घी से शिव का रुद्राभिषेक किया जाना बेहद लाभकारी साबित हो सकता है.

शिव का अभिषेक यदि सरसों के तेल से किया जाए तो इस से शत्रुओं से मुक्ति मिलती है. टायफायड या तपेदिक के रोग से पीड़ित होने पर शिव का शहद से अभिषेक करना फलदायी साबित हो सकता है. छात्र यदि दूध में शक्कर मिला कर शिव का अभिषेक करें तो इस से उन की बुद्धि में वृद्धि होती है और परीक्षा में अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं. धनप्राप्ति या कर्जे से मुक्ति पाने के लिए गन्ने के रस से शिव का अभिषेक करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है.

कहां करे रुद्राभिषेक

रुद्राभिषेक करने के लिए सब से उत्तम यही होता है कि किसी शिव मंदिर में जा कर शिवलिंग का अभिषेक करें. शिव का वह मंदिर जो किसी नदी के तट पर स्थित हो या फिर किसी पर्वत के किनारे हो, वहां स्थित शिवलिंग का रुद्राभिषेक करना खासा फलदायी साबित हो सकता है. किसी मंदिर के गर्भघर में स्थित शिवलिंग का अभिषेक करना भी फलदायी साबित हो सकता है. यदि घर में ही शिवलिंग स्थापित है तो शिव का रुद्राभिषेक आप घर पर भी कर सकते हैं. इस के अलावा यदि शिवलिंग न मिले तो आप अपने हाथ के अंगूठे को भी शिवलिंग मान कर उस का रुद्राभिषेक कर सकते हैं.

अगर रुद्राभिषेक ही सारी परेशानियों और चाहतों का निदान है तो स्कूल, कचहरी, अस्पताल जाने की जगह मंदिर जा कर रुद्राभिषेक करने/कराने से ही फल हासिल हो जाएगा? इस के लिए मेहनत करने की क्या जरूरत है? इस तरह के झांसे में आने से पहले यह सोचना चाहिए कि पूजा पर जो भी पैसा खर्च हो रहा है उस को कमाने में कितनी मेहनत और संघर्ष करना पड़ता है. यह मेहनत की कमाई पूजापाठी लोग मुफ्त में ले जा रहे हैं. अब प्रचार का तरीका इतना मजबूत हो गया है कि लोग आसानी से झांसे में आ जाते हैं. ऐसे झांसे में आने से बचना चाहिए.

और, रजनीगंधा मुरझा गया

लेखक – महेश कुमार केशरी

“पापा लाइट नहीं है, मेरी औॅनलाइन क्लासेज कैसे   होंगी? कुछ दिनों में मेरे सैकंड टर्म के एग्जाम शुरू होने वाले हैं. कुछ दिनों तक तो मैं ने अपनी दोस्त नेहा के घर जा कर पावरबैंक चार्ज  कर के काम चलाया लेकिन अब रोजरोज किसी से पावरबैंक चार्ज करने के लिए कहना अच्छा नहीं लगता. आखिर, कब आएगी हमारे घर बिजली?” संध्या अपने पिता आदित्य से बड़बड़ाती हुई बोली.

“आ जाएगी, बेटा, बहुत जल्दी आ जाएगी,” आदित्य बोला, लेकिन जानता है कि वह संध्या को केवल दिलासा दे रहा है. सच तो यह है कि  अब मखदूमपुर में बिजली कभी नहीं आएगी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बिजली विभाग ने यहां के घरों की बिजली काट रखी है. पानी की पाइपलाइन खोद कर धीरेधीरे हटा दी जाएगी और धीरेधीरे मखदूमपुर से तमाम  मौलक नागरिक सुविधाएं खुद ही खत्म  हो जाएंगी और, सिर से छत छिन जाएगी. तब वह सुलेखा,  संध्या, सुषमा और परी को ले कर कहां जाएगा? बहुत मुश्किल से वह अपने एलआईसी के फंड और अपने पिता बद्री प्रसाद के रिटायरमैंट से मिले 20 लाख रुपए से  एक अपार्टमैंट खरीद पाया था,  तिनकातिनका जोड़ कर. जैसे गोरैया अपना घर बनाती है. उस ने सोचा था कि अपनी बच्चियों की शादी करने के बाद वह आराम से अपनी पत्नी सुलेखा के साथ रहेगा. बुढ़ापे के दिन आराम से अपनी छत के  नीचे काटेगा. लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकेगा. उसे यह घर खाली करना होगा वरना नगरनिगम वाले आ कर जेसीबी से तोड़ देंगे.

वह दिल्ली से सटे फरीदाबाद के पास मखदूमपुर गांव  में रहता है. पिछले बीसबाइस सालों से मखदूमपुर में 3 कमरों के अपार्टमैंट में वह रह  रहा है. बिल्डर संतोष तिवारी  ने घर बेचते वक्त यह बात साफतौर पर नहीं बताई थी कि यह जमीन अधिकृत नहीं है. यानी, वह निशावली  के जंगलों के बीच जंगलों और पहाड़ों को काट कर बनाया गया एक छोटा सा कसबा जैसा था जहां आदित्य रहता  आ रहा  था, हालांकि, अपार्टमैंट लेते वक्त उस के पिता बद्री प्रसाद और उस की पत्नी  सुलेखा ने मना किया था- ‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं यह जो तुम्हारा फैसला है वह कहीं हमारे लिए बाद में सिरदर्द न बन जाए.’

तब उसी क्षेत्र के एक नामीगिरामी नेता रंकुल नारायण ने सुलेखा, आदित्य और बद्री प्रसाद को आश्वस्त किया था- ‘अरे, कुछ नहीं होगा. आप लोग आंख मूंद कर लीजिए यहां अपार्टमैंट. मैं ने खुद अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिलाए हैं यहां अपार्टमैंट. मैं पिछले पंद्रहबीस सालों से यहां का विधायक हूं. चिंता करने की कोई बात नहीं है.’ रंकुल नारायण का बहनोई था बिल्डर संतोष तिवारी.

यह बात आने वाले विधानसभा चुनाव में पता चली थी. रंकुल  नारायण ने उस साल के विधानसभा  चुनाव में सारे लोगों को आश्वासन दिया था कि आप लोगों को घबराने की कोई जरूरत नहीं है. आप लोग मुझे इस विधानसभा चुनाव में जितवा दीजिए, फिर मैं असेंबली में मखदूमपुर की बात उठाता हूं, कि नहीं, आप खुद ही देखिएगा. कोई नहीं खाली करवा सकता यह मखदूमपुर का इलाका. हम ने आप के राशनकार्ड बनवाए. हम ने आप के घरों में बिजली के मीटर लगवाए. यहां कुछ नहीं था, जंगल था जंगल. लेकिन हम ने जंगलों को कटवा कर पाइपलाइन बिछवाई. आप लोगों के घरों तक पानी पहुंचाया.

कोई बहुत बड़ी बात नहीं है अनाधिकृत को अधिकृत करवाना. असेंबली में चर्चा की जाएगी और कुछ उपाय कर लिया जाएगा. इस मखदूमपुर वाले प्रोजैक्ट में मेरे बहनोई का कई सौ करोड़ रुपया  लगा हुआ है. इसे हम किसी भी कीमत पर  अधिकृत करवा कर ही रहेंगे. और आखिरकार रंकुल नारायण की बातों पर लोगों ने विश्वास कर उसे  भारी मतों से जितवा दिया था. और, रंकुल नारायण के  विधानसभा चुनाव जीतने के सालभर बाद ही सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया था कि मखदूमपुर कसबा बसने से निशावली के प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यावरण को बहुत ही नुकसान हो रहा है. लिहाजा, जो अनाधिकृत कसबा  मखदूमपुर बसाया गया है उसे अविलंब तोड़ा जाए. डेढ़दो महीने का वक्त खुले में रखे कपूर की तरह धीरेधीरे  उड़ रहा था.

“पापा, न हो तो आप मुझे मेरी दोस्त सुनैना के घर में छोड़ आइए. वहां मेरा पावरबैंक चार्ज हो जाएगा और मैं सुनैना से मिल भी लूंगी. मुझे कुछ नोटस  भी उस से लेने हैं.” आदित्य को यह बात बहुत अच्छी लगी सुनैना के घर जाने वाली. बच्ची का मन लग जाएगा, कोविड़ में घर में रहतेरहते बोर हो गई है. आदित्य ने स्कूटी निकाली स्टार्ट करते हुए बोला, “आओ, बेटी, बैठो.”

थोड़ी देर  में स्कूटी सड़क पर दौड़ रही थी. संध्या को सुनैना के घर में छोड़ कर कुछ जरूरी काम निबटा कर वह राशन का सामान पहुंचाने घर आ गया था.

‘मैं, क्या करूं, सुलेखा? तीनतीन जवान बच्चियों को ले कर कहां किराए के मकान में  मारामारा फिरूंगा. और अब उम्र भी ढलान पर होने को आ रही है. आखिर, बुढ़ापे में कहीं तो सिर टिकाने के लिए ठौर  चाहिए ही. कुछ मेरे एलआईसी के फंड हैं, कुछ बाबूजी के रिटायरमैंट का पैसा पड़ा  हुआ है. जोड़जाड़ कर 20 लाख  रुपए तो हो ही जाएंगे. कुछ संतोष तिवारी से निगोशियेट (मोलभाव) भी कर लेंगे.’ और तब ही आदित्य ने 20 लाख रुपए में वह तीन कमरों वाला अपार्टमैंट खरीद लिया था बिल्डर संतोष तिवारी से.

लेकिन, तब सुलेखा ने आदित्य को मना करते हुए कहा था- ‘पता नहीं क्यों ये संतोष तिवारी और रंकुल नारायण मुझे ठीक आदमी नहीं जान पड़ते. इन पर विश्वास करने का दिल नहीं करता.’

लेकिन आदित्य बहुत ही सीधासादा आदमी था, वह किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेता था.

तभी उस की नजर अपनी पत्नी सुलेखा पर गई . शायद 8वां महीना लगने को हो आया है. पेट कितना निकल  गया है. उस ने देखा, सुलेखा नजदीक के चापाकल से मटके में एक मटका पानी सिर पर लिए चली आ रही है. साथ में, उस की 2 छोटी बेटियां परी और सुषमा भी थीं. वह अपने से न उठ पाने वाले वजन से ज्यादा पानी दोदो बाल्टियों में भर कर नल से ले कर आ रही थी. आदित्य ने देखा तो दौड़ कर बाहर निकल आया और सुलेखा के सिर से मटका उतारते हुए बोला- ‘पानी नहीं आ रहा है क्या?’

तभी उस का ध्यान बिजली पर चला गया. बिजली तो कटी हुई है. आखिर, पानी चढ़ेगा तो कैसे? मोटर तो बिजली से चलती है न.

‘नहीं. पानी कैसे आएगा? बिजली कहां है? एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगे न. न हो तो मुझे मेरे पापा के घर कुछ दिनों के लिए पहुंचा दो. जब यहां कुछ व्यवस्था हो जाएगी तो यहां वापस  बुला लेना. बच्चा भी ठीक से हो जाएगा और मुझे थोड़ा आराम भी मिलेगा. यहां इस हालत में   मुझे बहुत तकलीफ हो रही है.  पानी भी नहीं आ रहा है, बिजली भी नहीं आ रही है. सुलेखा चेहरे का पसीना पल्लू से पोंछते हुए बोली.

अभी तक  सुलेखा और बेटियों को, घर  टूटने वाला है, यह बात जानबूझ कर आदित्य ने नहीं बताई है. खांमखां वे परेशान हो  जाएंगी.

‘हां पापा, घर में बहुत गरमी लगती है. पता नहीं बिजली कब आएगी. हमें नानू के घर पहुंचा दो न पापा,” परी बोली.

‘हां बेटा, कोविड कुछ कम हो तो तुम लोगों को नानू के घर पहुंचा दूंगा,’ आदित्य परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोला.

‘तुम हाथमुंह धो लो मैं, चाय गरम करती हूं.’ सुलेखा गैस पर चाय चढ़ाते हुए बोली.

चाय पी कर वह टहलते हुए नीचे बालकनी में आ गया. कालोनी में, कालोनी को खाली करवाने की बात को ले कर ही  चर्चा चल रही थी.

कुलविंदर सिंह बोले- ‘यहीं, वारे( महाराष्ट्र) के जंगलों को काट कर वहां मेट्रो बनाया गया. वहां सरकार कुछ नहीं कह रही है, लेकिन हमारी कालोनी इन्हें अनाधिकृत लग रही है. सब सरकार के चोंचले हैं. मेट्रो से कमाई है, तो वहां वह  पर्यावरण संरक्षण की बात नहीं करेगी. लेकिन  हमारे यहां निशावली के जंगलों  और पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है. हुंह, पता नहीं कैसा सौंदर्यीकरण कर रही है सरकार? फिर, ये हमारा राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड किसलिए बनाए गए हैं? केवल, वोट लेने के लिए. जब, कोई बस्ती-कालोनी बस रही होती है, बिल्डर उसे लोगों को बेच रहा होता है तब सरकारों की नजर इस पर  क्यों नहीं जाती? हम अपनी सालों की  मेहनत से बचाई पाईपाई जोड़ कर रखते हैं. अपने बालबच्चों के लिए. और, कोई कौर्पोरेट या बिल्ड़र हमें ठग कर ले कर चला जाता है. तब बाद में सरकार की नींद खुलती है. हमें सरकार कोई दूसरा घर कोई व्यवस्था कर के दे वरना हम यहां से हटने वाले नहीं हैं.’

घोष बाबू सिगरेट की राख चुटकी से झाड़ते हुए बोले- ‘अरे छोड़िए कुलविंदर सिंह. ये सारी चीजें सरकार और इन पूंजीपतियों की सांठगांठ से ही होती हैं. अगर अभी जांच करवा  ली जाए तो आप देखेंगे कि हमारे कई मिनिस्टर, एमपी, एमएलए इन के रिश्तेदार इस फर्जीवाड़े में पकड़े जाएंगे. सरकार की नाक  के नीचे इतना बड़ा कांड होता है. करोड़ों के कमीशन बंट जाते हैं और आप कहते हैं, कि सरकार को कुछ पता नहीं होता. हैंय, कोई मानेगा इस बात को. सब, सेटिंग से होता है . नहीं तो इस देश में एक आदमी फुटपाथ पर भीख मांगता है और दूसरा आदमी केवल तिकड़म भिड़ा कर ऐश करता है. यह आखिर कैसे होता है? सब जगह सेटिंग काम करती है.’

उस का नीचे बालकनी में मन नहीं  लगा, वह वापस अपने कमरे में आ गया और बिस्तर पर  आ कर पीठ सीधा करने लगा.

तुम से मैं कई बार कह चुकी हूं लेकिन तुम मेरी  कोई भी बात मानो तब न. अगर होटल लाइन का काम नहीं खुल रहा है तो कोई और कामधाम शुरू करो. समय से आदमी को सीख लेनी चाहिए. कोरोना का दो महीना बीतने को हो आया और सरकार होटलों को खोलने के बारे में कोई विचार नहीं कर रही है. आखिर, और लोग भी अपना बिजनैस चेंज कर रहे हैं, लेकिन, पता नहीं, तुम क्यों इस होटल से चिपके हुए हो?

कौन समझाए सुलेखा को कि बिजनैस चेंज करना इतना आसान नहीं होता है. एक बिजनैस को सेट करने में कईकई पीढ़ियां निकल जाती हैं. फिर, उस के  दादापरदादा यह काम कई पीढ़ियों से करते आ रहे थे. इधर नया बिजनैस शुरू करने के लिए नई पूंजी चाहिए. कहां से ले कर आएगा वह अब नई पूंजी? इधर, होटल पर बिजली का बकाया बिल बहुत चढ़ गया है. स्टाफ का तीन महीने का पुराना बकाया चढ़ा हुआ था ही.

रहीसही कसर इस कोरोना ने निकाल दी. कुल चारपांच महीनों का बकाया चढ़ गया होगा. अब तक दुकान खोलतेखोलते दुकान का मालिक सिर पर सवार हो जाएगा दुकान के भाड़े के लिए.

दूध वाले, राशन वाले को भी लौकडाउन खुलते ही पैसे देने होंगे. पिछले बीसबाइस सालों का संबंध है उन का, इसलिए वे कुछ कह नहीं पा रहे हैं. आखिर, वह करे तो क्या करे?

पिछले लौकडाउन में जब संध्या और सुषमा के स्कूल वालों ने   कैंपस केयर (एजुकेशन ऐप) को लौक कर दिया था तो मजबूरन उसे जा कर स्कूल की फीस भरनी पड़ी थी.

आखिर स्कूल वाले भी करें तो क्या करें? उन के भी अपने खर्चे हैं- बिल्डिंग का भाड़ा, स्टाफ का खर्चा और स्कूल के मेंटिनैंस का खर्चा. कोई भी हवा पी कर थोड़ी ही जी सकता है.

आखिर, कहां गलती हुई उस से. वह इस देश का नागरिक है. उसे वोट  देने का अधिकार है. वह सरकार को टैक्स भी देता है. सारी चीजें उस के पास थीं. पैनकार्ड, राशनकार्ड, वोटरकार्ड, आधारकार्ड, लेकिन, जिस घर में वह इधर बीसबाइस सालों से रहता आ रहा था वह घर ही अब उस का नहीं था. घर भी उस ने पैसे दे कर ही खरीदा था. उसे यह उस की कहानी नहीं लगती, बल्कि, उस के जैसे दस हजार लोगों की कहानी लगती है.  मखदूमपुर दस हजार की आबादी वाला कसबा था. ऐसा, शायद, दुनिया के सभी देशों में होता है. नकली पासपोर्ट, नकली वीजा, वैधअवैध नागरिकता. सभी जगह इस तरह के दस्तावेज पैसे के बल पर बन जाते हैं. सारे देशों में सारे मिडिल क्लास लोगों की एकजैसी परेशानी है. यह केवल उस की समस्या नहीं है, बल्कि उस के जैसे सैकड़ोंलाखोंकरोड़ों लोगों की समस्या है. बस, मुल्क और सियासतदां बदल जाते हैं. स्थितियां कमोबेश एकजैसी ही होती हैं. सब की एकजैसी लड़ाइयां, बस, लड़ने वाले लोग अलगअलग होते हैं. जमीन जमीन का फर्क है, लेकिन, सारी जगहों पर हालात एकजैसे ही  हैं.

आदित्य का सिर भारी होने लगा और  पता नहीं कब वह नींद की आगोश में चला गया.

इधर, वह सुलेखा और अपनी तीनों बेटियों को अपने ससुर के यहां  लखनऊ पहुंचा आया था. और, बहुत धीरे से इन हालात के बारे में उस ने सुलेखा को बताया था.

“अरे बाबूजी, अब इस रजनीगंधा के पौधे को छोड़ भी दीजिए. देखते नहीं, पत्तियां कैसी मुरझा कर टेढ़ी हो गईं हैं. अब नहीं लगेगा रजनीगंधा. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. बाजार जा कर नया रजनीगंधा लेते आइएगा, मैं लगा दूंगा.”

माली ने आ कर जब आवाज लगाई तब जा कर आदित्य की तंद्रा टूटी.

“ऊं, क्या चाचा, आप कुछ कह रहे थे?” आदित्य ने रजनीगंधा के ऊपर से नज़र हटाई.

करीबकरीब बीसपच्चीस  दिन  हो गए हैं उसे नए किराए के मकान में  आए. अगलबगल से एक लगाव जैसा भी अब हो गया है. शिवचरन, माली चाचा, कभीकभी उस के घर आ जाते हैं. इधरउधर की बातें करने लगते हैं, तो समय  का  जैसे पता ही नहीं चलता.

मखदूमपुर से लौटते हुए वह अपने अपार्टमैंट में से यह रजनीगंधा का पौधा कपड़े में लपेट कर अपने साथ ले आया था. आखिर, कोई तो निशानी उस अपार्टमैंट की होनी चाहिए जहां इतने साल निकाल दिए.

“मैं कह रहा था कि बाजार से एक नया रजनीगंधा का पौधा लेते आना. लगता है, इस की जड़ें सूख गई हैं. नहीं तो, पत्ते में हरियाली जरूर फूटती. देखते नहीं कि कैसे मुरझा गई  हैं पत्तियां. कुंभला कर पीली पड़ गई  हैं. लगता है, इन की जड़ें सूख गई हैं. बेकार में तुम  इन्हें पानी दे रहे हो.”

“हां चाचा, पीला तो मैं भी पड़ गया हूं. जड़ों से कटने के बाद आदमी भी सूख जाता है. अपनी जड़ों से कट जाने के बाद आदमी का भी कहीं कोई वजूद  बचता है क्या? बिना मकसद की जिंदगी हो जाती है. पानी इसलिए दे रहा हूं कि कहीं ये फिर से हरीभरी हो जाएं. एक उम्मीद है, अभी भी  जिंदा है…कहीं भीतर…”

और आदित्य  वहीं रजनीगंधा के पास बैठ कर फूटफूट कर रोने लगा. बहुत दिनों से जब्त की हुई ‘नदी’ अचानक से भरभराकर टूट गई थी और शिवचरन चाचा उजबकों की तरह आदित्य को घूरे जा रहे थे. उन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

इतनी रात ढले

इतनी रात ढले…

हौलेहौले कदमों की आहट

दबीदबी खनकती हंसी

यौवनमंजरियों की गुनगुनाहट

वसंती सुगंध के मादक झोंके

इतनी रात ढले…

तंद्रिल अलकों का फैलाव

चमेली बांहों का उलझाव

लजीली पायलों की झंकार

पापी पपीहे की पुकार

इतनी रात ढले…

गहरी खुशबू चंदन की

मेहंदी रची हथेलियां गोरी

कुसुम ओस भीगा गात

सद्य:स्नाता गदराई रेशमी

इतनी रात ढले…

लेखक – सुभाष चंद्र झा

आजादी : थानेदार और नेताजी के बीच फंसा शंकर बाबू

शंकर बाबू आटोरिकशा से उतर कर कारखाने की ओर जा ही रहे थे कि 2 सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘थाने चलो, थानेदार ने बुलाया है.’’

दूसरा बोला, ‘‘अब तक कहां थे? 3 दिनों से हम तुम्हें ढूंढ़ रहे हैं.’’

हैरानपरेशान शंकर बाबू आसपास देखने लगे. तब तक कारखाने के कुछ मुलाजिम पास आ गए और वे उन्हें ऐसे देखने लगे, मानो वे शातिर अपराधी हों.

शंकर बाबू उस कारखाने के माने हुए मजदूर नेता थे. इस लिहाज से उन्होंने सिपाहियों पर रोब जमाना चाहा, ‘‘आखिर मेरा कुसूर क्या है?’’

‘‘थाने पहुंच कर जान लेना.’’

‘‘नहीं, बिना कुसूर जाने मैं तुम लोगों के साथ नहीं चल सकता.’’

इस पर एक सिपाही ने खास पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘‘चलते हो या लगाऊं एक…’’

यह सुनते ही शंकर बाबू का दिमाग चकरा गया. वे तुरंत सिपाहियों के साथ चलने को तैयार हो गए.

थानेदार के आगे शंकर बाबू को पेश करते हुए एक सिपाही ने कहा, ‘‘‘साहब, यही हैं शंकर बाबू. बड़ी मुश्किल से पकड़ कर लाए हैं. ये आ ही नहीं रहे थे, संभालिए जनाब.’’

इतना कह कर सिपाही ने शंकर बाबू को बेजबान जानवर की तरह थानेदार की ओर धकेल दिया.

शंकर बाबू को बहुत गुस्सा आया, मगर वे गुस्से को दबाते हुए थोड़ी तीखी आवाज में थानेदार से बोले, ‘‘मुझे क्यों पकड़ा गया है? मेरा कुसूर क्या है? मैं शहर का एक इज्जतदार आदमी आदमी हूं. मैं…’’

‘‘अरे छोड़ो इज्जतदार और बेइज्जतदार की बातें. यह बताओ कि 15 अगस्त को झंडा फहरा कर तुम कहां गुम हो गए थे? जानते हो कि कितना बड़ा राष्ट्रीय अपराध किया है तुम ने?’’

शंकर बाबू का सिर चकराने लगा, ‘‘राष्ट्रीय अपराध? क्या झंडा फहराना राष्ट्रीय अपराध है? नहींनहीं, यह तो मेरा मौलिक अधिकार है. जरूर कहीं कुछ गलतफहमी हुई है…’’ शंकर बाबू ने तनिक गुस्से में कहा, ‘‘मैं कहीं भी किसी वजह से जाऊं, क्या मुझे आप को बता कर जाना पड़ेगा? पहले साफसाफ मेरा अपराध बताइए.’’

शंकर बाबू का गुस्सा खुद पर ही भारी पड़ रहा था. थानेदार ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘‘अपनी आवाज नीची कर, वरना… एक तो अपराध करता है ऊपर से गरजता भी है. यानी चोरी और सीनाजोरी, वह भी मुझ से… थानेदार जालिम सिंह से? जिस से बड़ेबड़े गुंडेबदमाश थरथर कांपते हैं.’’

शायद जिंदगी में आज पहली बार शंकर बाबू का पुलिस के साथ सामना हुआ था. वे इस पुलिसिया अंदाज से सकपका गए थे. उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘माफ कीजिए, आप को कोई गलतफहमी हुई है. मैं तो एक पढ़ालिखा इनसान हूं, मजदूरों की अगुआई करता हूं. हो सकता है कि आप को किसी और शख्स की तलाश हो.’’

थानेदार थोड़ी नीची आवाज में बोला, ‘‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. मिस्टर शंकर, आप मजदूर नेता हैं न? आप ने 15 अगस्त को अपने यूनियन के दफ्तर में एक छोटा सा जलसा किया, झंडा फहराया और चल दिए. उस दिन से आप आज नजर आए हैं. इस समय… शाम के 7 बजे हैं, जबकि झंडा परसों से लगातार लहरा रहा है और आप कह रहे हैं कि अपराध नहीं किया?’’

इतना कह कर थानेदार ने सिपाहियों की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘‘डाल दो इस को लौकअप में.’’

तब तक शंकर बाबू की बीवी इलाके के नेताजी को ले कर थाने पहुंच गई थी. शंकर बाबू को काटो तो खून नहीं. सिपाही मुस्तैद हो गए थे. नेताजी को समय की नजाकत समझते देर नहीं लगी. उन्होंने हलकी मुसकान फैलाते हुए थानेदार से पूछा, ‘‘आखिर माजरा क्या है थानेदार साहब?’’

थानेदार भावुक होता हुआ बोला, ‘‘अरे साहब, इस ने राष्ट्रीय झंडे का अपमान किया है. यानी देश का, राष्ट्र का अपमान किया है. इसे इतनी भी जानकारी नहीं कि राष्ट्रीय झंडा यदि सुबह फहराया जाता है, तो शाम तक उसे नीचे उतार लिया जाता है.

‘‘इस ने अपने यूनियन के दफ्तर के सामने 15 अगस्त को झंडा फहराया था, जो अभी तक लहरा रहा है. यह भारतीय संविधान के तहत जुर्म है. कानूनी अपराध है.’’

शंकर बाबू को यह जानकारी नहीं थी. उन्होंने विनती भरी आवाज में थानेदार और नेताजी से निवेदन किया, ‘‘साहब, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मुझ से बहुत बड़ी भूल हुई है. आइंदा कभी ऐसा नहीं होगा. मुझे बचा लीजिए.’’

थानेदार ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘हूं, रस्सी भी जल गई और ऐंठन भी चली गई.’’

नेताजी ने हालात को संभालते हुए कहा, ‘‘कानून तो अंधा होता है, मगर शंकर बाबू एक निहायत ही शरीफ आदमी हैं.’’

फिर नेताजी ने संकेत से शंकर बाबू को एक ओर ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘भाई, यह तो राष्ट्र के अपमान का मामला है. बहुत बुरा हुआ, तुम अगर राष्ट्र धर्म निभा नहीं सकते थे, तो झंडा फहराया ही क्यों? यह तो जुर्म नहीं, घोर जुर्म है, इसलिए शेर को शेर की मांद में ही सुलट लो. चांदी के जूते से थानेदार का मुंह सिल दो.’’

शंकर बाबू को लगा कि वे आसमान से गिरे, खजूर में अटके. संभलते हुए उन्होंने लाचारी में हामी भर दी. नेताजी ने इशारे से थानेदार को अपने पास बुला लिया.

थानेदार ने नेताजी का सुझाव मान लिया और शंकर बाबू को यूनियन के दफ्तर जा कर झंडा उतारने का आदेश देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, आप के यूनियन के दफ्तर के सामने फहराया गया झंडा 15 अगस्त की शाम को ही उतार लिया गया था. जैसा नेताजी कहेंगे, वैसा ही होगा. ये हमारे नेता हैं. हम वही करते हैं, जो ये कहते हैं.’’

शंकर बाबू को लगा कि थानेदार की कुरसी के पीछे लगी महात्मा गांधी की तसवीर कांप रही है. शर्मिंदा हो रही है कि यह सब क्या है? कानून के रक्षक और राष्ट्र के खेवनहार दोनों ही मिलजुल कर आज झंडा उतारने की फीस वसूल कर के यह कैसा राष्ट्र प्रेम बांट रहे हैं? कैसी है इन की देशभक्ति?

15 अगस्त पर पढ़ें ‘पुरस्कार’ : एक फौजी की मर्मस्पर्शी कहानी

राम सिंह फौजी के घर से चिट्ठी आई थी. इतनी दूर रहते हुए आदमी के लिए चिट्ठी या खबर ही तो केवल एक सहारा होती है. ये चिट्ठियां भी अजीब होती हैं, कभी खुशी देती हैं, तो कभी दुख भी बढ़ा देती हैं.

राम सिंह फौजी के घर वालों की यह चिट्ठी भी अलग तरह की थी. उस में एक फौजी के घर वालों की सभी दिक्कतें लिखी थीं. बेटे ने लिखा था, ‘पापा, आप कैसे हैं? घर की दीवार गिरने लगी है और दादा भी आजकल बीमार रहते हैं. कोने वाली कोठरी की छत कभी भी गिर सकती है. परसों हुई मूसलाधार बारिश से उस में से बहुत पानी चू रहा था.

‘मां की हालत ठीक है. मैं अब रोजाना स्कूल जाता हूं. मेरी ड्रैस पुरानी हो गई है. पैंट भी मेरी घुटनों पर से फट गई है. ‘पापा, इस बार घर आते समय आप मेरी नई पैंट लेते आना. चप्पल जरूर लाना. छोटू के लिए आप खिलौने वाली टैंक और बंदूक लेते आना. आप जल्दी घर आना पापा.

‘आप का बेटा, राजू.’

राम सिंह सोचने लगा, ‘यह राजू भी होशियार हो गया है. केवल 10 साल का है, लेकिन चिट्ठी भी लिख लेता है. इस बार पैंट और चप्पल जरूर लेता जाऊंगा. छोटू के लिए खिलौने वाला टैंक और बंदूक भी लेता जाऊंगा. मैं इस बार जरूर छुट्टी लूंगा.’

‘‘राम सिंह, खाना खा लिया क्या?’’ पास ही से आवाज आई.

‘‘नहीं यार, खाया नहीं है. अभी थोड़ी देर में खा लूंगा.’’

‘‘कब खा लेगा? 8 बजे आपरेशन पर जाना है और साढ़े 7 बज चुके हैं,’’ राम सिंह का साथी फौजी रंजीत सिंह उस से बोला.

राम सिंह उठ कर भोजन की तरफ बढ़ गया.

‘आजकल यहां के हालात काफी खराब हो चुके हैं. आएदिन गोलीबारी होती रहती है. रोज दोनों तरफ के लोग मारे जाते हैं. न रात को आराम, न दिन को चैन. पता नहीं क्या करने पर उतारू हैं ये लोग. शांति से क्यों नहीं रहते,’ ऐसा सोचते हुए राम सिंह ने बड़े बेमन से खाना खाया. आज राम सिंह को घर के खाने की बहुत याद आई. दूर राजस्थान के रेतीले इलाके में बसे अपने छोटे से गांव की याद ताजा हो गई. घर से चिट्ठी आते ही हर बार उस का यही हाल हो जाता है. पता नहीं, क्यों?

‘‘राम सिंह, जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ मेजर सौरभ घोष की आवाज कानों से टकराते ही राम सिंह ने अपनी राइफल, पट्टा, टौर्च वगैरह उठा ली.

‘‘आज हमें चौकी नंबर 2 पर जाना है. वहां हमला हो सकता है. वह चौकी बहुत खास है. वह हमें हर हाल में बचानी होगी,’’ मेजर सौरभ घोष सभी सिपाहियों से कह रहे थे.

सभी सिपाहियों और अफसरों की टुकड़ी वहां से चौकी नंबर 2 की तरफ बढ़ गई. ‘तड़तड़’ की आवाजों के साथ 1-2 फौजी शहीद हो गए, देश की हिफाजत की खातिर उन्होंने अपनी जान दे दी. देर तक गोलीबारी होती रही. अब कुछ ही लोग बाकी रह गए थे. राम सिंह के साथ 5 जवान और थे. दुश्मन की एक गोली राम सिंह के पास ही खड़े रंजीत सिंह को आ कर लगी, जिस से उस ने दम तोड़ दिया.

अपने दोस्त रंजीत सिंह को मरते देख राम सिंह को अपने शरीर का एक अंग जुदा होता महसूस हुआ. अचानक राम सिंह ने जोश में आ कर अपनी जान की परवाह न करते हुए दौड़ कर फायरिंग की. दुश्मन के 3 फौजी मारे गए. अब केवल दुश्मन का एक फौजी बचा था. वह चट्टान की आड़ से गोलियां चला रहा था. राम सिंह ने पेड़ की आड़ से उस पर 3-4 फायर झोंक दिए थे, जो निशाने पर लगे थे और वह दुश्मन भी तड़प कर शांत हो गया. राम सिंह ने 3-4 पल उसे देखा और बेफिक्र हो कर उस के करीब गया. चेहरामोहरा उलटपलट कर देखा और फिर बुदबुदाया, ‘उम्र तो मेरे बराबर की ही लग रही है.’

राम सिंह ने उस की तलाशी ली. उस के परिचयपत्र को टौर्च की रोशनी में पढ़ा. उस पर लिखा था, रफीक अशरफ, सिपाही, 36 लाइट इंफैंटरी. राम सिंह ने उस की पैंट की पिछली जेब टटोली, तो वह चौंका और बोला, ‘‘अरे, यह क्या? शायद इस की चिट्ठी है. चलो, देखते हैं,’’ कहते हुए राम सिंह ने अपने पास खड़े एक साथी को टौर्च पकड़ाई.

राम सिंह को थोड़ीबहुत उर्दू पढ़नी आती थी, जो कि उस ने गांव के मौलवी से बचपन में सीखी थी. राम सिंह ने चिट्ठी पढ़नी शुरू की:

‘अब्बूजान, अस्सलाम अलैकुम. आप कैसे हैं? हम सब अम्मी, सलीम, दादी अम्मां, दादू सब खैर से हैं. मेरा स्कूल लगना शुरू हो गया है.

‘मैं 8वीं जमात में हो गई हूं. सलीम भी चौथी जमात में आ गया है. मास्टरजी ने हम से नई ड्रैस सिलवाने को कहा है. मेरी फ्रौक पुरानी हो गई?है. सलीम भी नई ड्रैस मांग रहा है.

‘अब्बू, हमारे पास जूते भी नहीं हैं. दादू बोलते हैं कि बेटा इस बार तुम्हारे अब्बू ढेर सारी ड्रैस, जूते और चीजें ले कर आएंगे.

‘दादू का कुरता भी फट गया है. पर उन्हें मास्टरजी तो नहीं डांटते न. अम्मी और दादी अम्मां दोनों बहुत उदास रहती हैं. उन के बुरके भी पुराने और तारतार हो गए हैं. आप सालभर हम से दूर क्यों रहते हैं अब्बू?

‘पिछली ईद पर आप नहीं आए थे, सो हम ने उस दिन सेंवइयां भी नहीं बनाई थीं. सलीम बहुत रोया था उस दिन. इस बार आप जरूर आना.

‘घर पर पैसे खत्म हो गए हैं. पैसे के लिए हम ने अपनी एक बकरी बेची थी. असलम दुकान वाले ने अब उधार देना भी बंद कर दिया है. वह कहता है कि पहले वाले पूरे पैसे दो, उस के बाद सामान दूंगा.

‘आप आ जाइए अब्बू. आते समय आप मेरे लिए फ्रौक, सलीम के लिए ड्रैस, जूते, दादू के लिए कुरता, दादी अम्मां और अम्मी के लिए नए बुरके जरूर लाना.

‘अब्बू, यहां आने पर एक बकरी भी खरीदेंगे, सलीम बहुत जिद करता है न.

‘आप की बेटी, सोफिया.’

राम सिंह ने भरे गले से पूरी चिट्ठी पढ़ी. टौर्च की रोशनी में उसे लगा कि मानो उस का और अशरफ का घर एक ही हो. उसे कोई फर्क नहीं लगा. उसे अपने घर की दीवारें और छत गिरती नजर आईं. काश, वह इस फौजी के लिए सारी चीजें पहुंचा सकता और असलम दुकान वाले का उधार भी चुका सकता. दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी थी कि राजपूताना राइफल्स के जवान राम सिंह ने अनोखी वीरता दिखाई. नीचे उस की बहादुरी का पूरा ब्योरा छपा था. पूरा देश राम सिंह की बहादुरी से खुश था, पर इधर राम सिंह खुद को हत्यारा समझ रहा था. आदमी को मारने के अपराध में कानून सजा देता है. वह खुद को सजा के लायक मान रहा था, पर उस ने ‘आम आदमी’ नहीं मारे थे. वे मरने वाले ‘आम आदमी’ नहीं थे. उन्हें मारने पर उसे राष्ट्रपति से ‘सर्वोच्च वीरता पुरस्कार’ देने का ऐलान हुआ.

15 अगस्त को सम्मान समारोह में कुरसी पर बैठा राम सिंह दोनों देशों के नेताओं, हुक्मरानों के बारे में सोच रहा था, ‘ये लोग शांति क्यों नहीं चाहते हैं? रोज सरहद पर बेगुनाह जवान मारे जाते हैं और ये एयरकंडीशनर लगे कमरों में आराम से बैठे उन जवानों को ‘शहीद’ का खिताब देते हैं. क्या बिगाड़ा है इन बेगुनाह जवानों ने इन नेताओं का?

‘दुनिया के सभी देश शांति से रह कर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं और इधर ये दोनों बेवकूफ देश लड़ कर जनता के अरमानों को काला धुआं बना रहे हैं.’

राम सिंह यही सोच रहा था कि तभी मंच से उस का नाम पुकारा गया. राम सिंह ने वह पुरस्कार और पदक लिया तो जरूर, पर उन्हें लेते समय वह मन ही मन में बड़बड़ा रहा था, ‘मुझे पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है. मुझे सजा दो. मैं ने हत्याएं की हैं. मुझे पुरस्कार मत दो.’

बोझ नहीं रिश्ते दिल के

‘‘मौ सी, ममा को सीवियर अटैक आया है, अर्धचेतनावस्था में भी वे आप को ही याद कर रही हैं. प्लीज मौसी, आप शीघ्र से शीघ्र आ जाइए.’’
फोन पर विपुल का चिंतित स्वर सुन कर अनुजा स्तब्ध रह गई. बस, इतना ही कह पाई, ‘‘बेटा, दीदी का खयाल रखना, उन्हें कुछ भी नहीं होना चाहिए, मैं अतिशीघ्र पहुंचती हूं.’’

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या से क्या हो गया. कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि सविता दीदी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है. फोन पर बातें करते हुए वे थकीथकी लगती थीं. उस ने उन से कई बार कहा भी कि आप अपना चैकअप करवा लीजिए पर वे उस की बात को नजरअंदाज कर हमेशा यही कहतीं, ‘मुझे क्या होगा, अनु. बस, ऐसे ही थकान के कारण तबीयत ढीली हो गई है. वह भी यह सोच कर चुप हो जाती कि आज से पहले तो सर्दीजुकाम के अतिरिक्त उन को स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या रही नहीं है तो सबकुछ सामान्य ही होगा पर अब यह अचानक सीवियर अटैक!

सविता दीदी उस की ही दीदी नहीं, अपने कर्म और स्वभाव के कारण जगत दीदी बन गई थीं. उस की तो वे बड़ी बहन जैसी थीं. सच तो यह है कि उस ने उन्हीं के सान्निध्य में जीवन का ककहरा सीखा था. दीदी ने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, कभी हार नहीं मानी. अपनों के व्यवहार से घायल हुए दिल ने अपनी एक अलग मंजिल तलाश ली थी और उस पर अडिगता से चलीं ही नहीं, दूसरों को भी अपने प्रति सोच को बदलने के लिए मजबूर किया. वे न स्वयं रोईं और न ही किसी को रोने दिया. उन की जिंदादिली में उन के अतीत के अनेक क्रूर पल समाहित हो गए थे.

उसे याद आया वह पल, जब विपुल का विवाह तय हुआ तो वे खुशी से फूली नहीं समाई थीं. सूचना देते हुए बोली थीं, ‘अनु, तुझे हफ्तेभर पहले आना होगा. तेरे बिना यह शुभकाम कैसे होगा? वैसे जोजो बातें मेरे दिमाग में आती जा रही हैं, मैं एक डायरी में नोट करती जा रही हूं जिस से ऐन मौके पर कोई कमी न रह जाए. कुछ शौपिंग भी कर ली है. अगर कोई कमी रह भी गई तो तू है न, मेरी बहन, मेरी दोस्त. हम दोनों मिल कर सब मैनेज कर लेंगे. आखिर बहू के रूप में बेटी ले कर आ रही हूं.’

‘जी दीदी, मैं आ जाऊंगी.’

‘अनु, कहीं मैं तुझ से ज्यादा तो एक्सपैक्ट नहीं करने लगी हूं. अगर तेरे पास समय नहीं है या कोई परेशानी हो तो प्लीज मना कर देना. मैं नहीं चाहती कि हम हमारे रिश्ते को बोझ समझा कर निभाएं,’ सविता दीदी ने अचानक कहा था.

‘दीदी, आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं, विपुल मेरा भतीजा है, उसे मैं ने अपनी गोद में खिलाया है,’ उन के शब्दों पर आश्चर्यचकित अनुजा ने स्वयं को संभालते स्नेहभरे स्वर में उन के दिल पर रखे बोझ को हलका करते हुए कहा था.

‘पता नहीं क्यों घबराहट होने लगती है आजकल, बस विपुल का विवाह ठीक से निबट जाए तो चैन की सांस लूं,’ कहते हुए उन का स्वर अवरुद्ध हो गया था.

‘आप चिंता मत कीजिए, दीदी, सब ठीक से हो जाएगा.’

अगले महीने ही विपुल का विवाह है. कुछ दिनों बाद वह जाने वाली थी कि अचानक यह खबर आ गई.

फ्लाइट से जाने के बावजूद उसे और दीपेश को बेंगलुरु से इलाहबाद पहुंचने में 8 घंटे लग ही गए. दीपेश डाक्टर से बात करने चले गए थे. विजिटिंग आवर होने के कारण उसे आईसीयू में जाने की अनुमति मिल गई तथा वह दीदी के पास जा कर बैठ गई. दीदी को नर्सिंगहोम में नलियों में जकड़ा देख मन कराह उठा पर बाहर पड़ोसियों की उपस्थिति सुकून पहुंचा रही थी. सभी अड़ोसीपड़ोसी उन के लिए चिंतित थे.
‘‘दीदी को दिल्ली के एस्कौर्ट अस्पताल में शिफ्ट करना बेहतर रहेगा. वहां उन का ट्रीटमैंट उचित रूप से हो पाएगा,’’ दीदी की हालत देख कर अनुजा ने उन के पास बेहाल हालत में खड़े विपुल से कहा.

‘‘मौसी, चाहता तो मैं भी यही हूं पर डाक्टरों का कहना है कि इस अवस्था में मां को शिफ्ट करना खतरे से खाली नहीं है. थोड़़ी स्टेबल हो जाएं, फिर सोचा जा सकता है,’’ आंखों में छलक आए आंसुओं को किसी तरह उस ने आंखों में सहेजते हुए कहा.

‘‘न, न बेटा. घबरा मत. दीदी को कुछ नहीं होगा. हम सब हैं न उन के साथ,’’ कहते हुए उस ने विपुल को दिलासा दी.

उस की आवाज सुन कर दीदी ने आंखें खोलीं, उसे देख कर उन की आंखों में संतोष झलक आया.

‘‘तू आ गई, अनु. मेरा जाने का समय आ गया है. बस, तु?ो ही देखने के लिए रुकी हुई थी,’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने कहा.

‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते, अभी तो आप को विपुल का विवाह करना है. उस के बच्चों को अपने हाथों से पालनापोसना है.’’

‘‘अपने शब्दजाल से मुझे न बहला, अनु. एक बोझ और तुझ पर डालना चाहती हूं, मेरे बाद मेरे विपुल का खयाल रखना. उसे तेरे भरोसे ही छोड़ कर जा रही हूं. वह अभी मन से बच्चा ही है. शायद मेरा जाना वह सह न पाए. और हां, विवाह टालना मत, धूमधाम से नियत तिथि पर ही करना. सुजाता मेरे विपुल की पसंद है, मुझे उम्मीद है वह उस के साथ खुश रहेगा,’’ अटकतेअटकते उन्होंने बमुश्किल कहा. इस दौरान वे हांफने लगी थीं. आखिरकार दर्द सहन न कर पाने के कारण उन्होंने आंखें बंद कर लीं.

‘‘दीदी, विपुल बोझ नहीं है मेरे लिए. संभालिए स्वयं को. आप को कुछ नहीं होगा. हम हैं न. इलाज में कोई कमी नहीं होने देंगे. आप को ही विपुल को घोड़ी पर चढ़ाना है, सुजाता को आशीर्वाद देना है,’’ कहते हुए अनुजा की आंखों से न चाहते हुए भी आंसू टपक पड़े.

उस की बात का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. चेहरे पर दर्द की लकीरों के साथ उस के हाथ पर उन की पकड़ और मजबूत हो गई. वह उन के मस्तक पर हाथ फेर कर उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करने लगी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आत्मसम्मानी और आत्मविश्वासी दीदी बारबार बोझ शब्द का इस्तेमाल क्यों कर रही हैं? क्या वे कमजोर पड़ने लगी हैं? अपने प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर नहीं था. उस का मन अतीत के उन गलियारों में भटकने लगा जब वह सविता दीदी से मिली थी.

लगभग 25 वर्ष पहले उस के पड़ोस में एक परिवार रहने आया था. उस परिवार में सिर्फ 2 ही प्राणी थे, 2 वर्षीय बेटा और वह स्वयं. घर के दरवाजे के सामने लगाई नेमप्लेट से पता चला कि उन का नाम सविता है. वे कालेज में पढ़ाती हैं. वे घर से बाहर बहुत कम निकलती थीं. बस, घर से कालेज तथा कालेज से घर ही उन की दिनचर्या थी. बेहद संजीदा और अंतर्मुखी व्यक्तित्व था उन का, जिस के कारण आसपास के लोग भी उन से मिलने से कतराते थे. बेटे की देखभाल के लिए उन्होंने आया को रखा हुआ था.

एक दिन अनुजा स्कूल से लौटी तो पाया कि आया बाहर गप मार रही है तथा अंदर बच्चा रो रहा है. उस ने उस को डांटा तो वह अनापशनाप बोलने लगी. इस बीच वह उस के रोकने के बावजूद अंदर चली गई. बच्चा नींद से जाग कर किसी को अपने पास न पा कर स्वयं पलंग से उतरने की कोशिश में नीचे गिर गया था तथा चोट लगने के कारण रोने लगा था. उसे देख कर उस ने उस की ओर आशाभरी निगाहों से देखते हुए हाथ बढ़ाया तो वह भी उसे गोद में लेने से स्वयं को न रोक पाई. उस की गोद में आ कर वह चुप हो गया था. बच्चे को जमीन पर गिरा देख कर नौकरानी को अपनी गलती का एहसास हुआ या नौकरी छूट जाने के डर के कारण वह उस से क्षमा मांगते हुए इस घटना का जिक्र मालकिन से न करने का आग्रह करने लगी.

अब तो अनुजा का नित्य का क्रम बन गया था. जब तक वह स्कूल से आ कर उस बच्चे के साथ घंटाआधघंटा बिता न लेती, उस का खाना ही हजम न होता था. एक दिन वह उस के साथ खेल रही थी कि अचानक सविता मैम आ गईं. वह उन्हें देख कर डर गई. अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वे संजीदा स्वर में बोलीं, ‘अच्छा, तो वह तुम ही हो जिस के साथ खेल कर मेरा बेटा विपुल इतना खुश रहता है. यहां तक कि छोटेछोटे वाक्य भी बोलने लगा है.’

कहां तो अनुजा सोच रही थी कि उन की आज्ञा के बिना उन के घर घुसने तथा उन के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे खरीखोटी सुननी पड़ेगी पर उन्होंने न केवल उस से प्यार से बातें कीं बल्कि उसे सराहा भी. उन का सराहनाभर स्वर सुन कर वह भी उत्साह के स्वर में बोली, ‘‘मैम, मुझे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है, घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है, सो इस के साथ खेलने आ जाती हूं.’

‘बहुत ही प्यारी बच्ची हो तुम. बस, आगे यह ध्यान रखना कि जो काम अच्छा लगता है उसे छिप कर करने के बजाय सब के सामने करो, जिस से ग्लानि का एहसास नहीं होगा,’ कहते हुए उन्होंने उस की पढ़ाई के बारे में जानकारी ली.

मां को जब अपने इस वार्त्तालाप के विषय में बताया तो वह बोली, ‘क्यों व्यर्थ अपना समय बरबाद कर रही है. आज उसे तेरी आवश्यकता है तो मीठामीठा बोल रही है, कल जब आवश्यकता नहीं रहेगी तो वह तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकेगी. आखिर ऐसे लोगों की यही फितरत होती है. वैसे भी, जो अपनों का न हो सका वह भला दूसरों का क्या होगा?’

मां की बात उस समय उसे अटपटी लगी. दरअसल मां की एक मित्र उसी कालेज में अध्यापिका थीं, जिस में सविता मैम पढ़ाती हैं. उन से उन्हें पता चल चुका था कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है. उस समय ऐसा फैसला लेना, वह भी स्त्री द्वारा, उसे अहंकारी, घमंडी तथा बददिमाग की पदवी से विभूषित करने के लिए काफी था. उस का दिल कहता कि किसी का किसी के साथ रहना न रहना उन का निजी फैसला है, इस पर किसी को आपत्ति क्यों?

अगर सविता मैम ने यह कदम उठाया है तो अवश्य ही कोई बड़ा कारण होगा. एक औरत अकारण घर की चारदीवारी नहीं लांघती, वह भी एक छोटे बच्चे को गोद में लिए. उन का व्यवहार देख कर उसे कभी नहीं लगा कि वे  झगड़ालू या दंभी किस्म की औरत हैं. उस समय उसे यह प्रश्न बारबार झकझोरता था कि हमारा समाज सारी बुराइयां औरत में ही क्यों ढूंढ़ता है, क्यों उसे शांति से जीने नहीं देता? मां से मन की बात कही तो वे उस पर ही बरस पड़ीं- ‘दो बित्ते की छोकरी है और बातें बड़ीबड़ी करती है. अरे, घर की सुखशांति बरकरार रखने के लिए औरत को ही त्याग करना पड़ता है, नहीं तो चल चुकी घर की गाड़ी. और हां, उस घर में ज्यादा मत जाया कर, कहीं उस के कुलक्षण तुझ में भी न आ जाएं.’

मां आम घरेलू औरत की तरह थीं, जिन का दायरा अपने पति और बच्चों तक ही सीमित था. ‘औरत घर की चारदीवारी में शोभित ही अच्छी लगती है.’ ऐसा दादी का मानना था. दादी के विचारों, कठोर अनुशासन ने सामाजिक समारोह के अतिरिक्त उन्हें घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया. दादी के न रहने के पश्चात भी उन के द्वारा थोपे विचार, अंधविश्वास मां के मन में ऐसे रचबस गए कि वे उन से मुक्ति न पा सकीं. आज उसे लगता है कि व्यक्ति की सोच का दायरा तभी बढ़ता है जब वह दुनियाजहान घूमता है, विभिन्न समुदायों तथा संप्रदायों के लोगों से मिलता है, तभी उस के स्वभाव और व्यक्तित्व में लचीलापन आ पाता है. तभी वह समझ पाता है कि व्यक्ति के आचारविचार में परिवर्तन समय की देन है. जो समय के साथ नहीं चल पाता या समय को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य नहीं रखता वह एक दिन तिनकातिनका टूट कर बिखरता जाता है. वह इंसान ही क्या जो अपने आत्मसम्मान की रक्षा न कर पाए तथा परिस्थितियों के आगे घुटने टेक दे.

सविता मैम उसे सदा परिष्कृत रुचि की लगीं. सो, मां के मना करने के बावजूद कभी छिप कर तो कभी उन की जानकारी में वह उन के घर जाती रही. धीरेधीरे लगाव इतना बढ़ा कि विपुल के साथ खेलने के लिए उन की अनुपस्थिति में तो वह जाती ही थी, अब वह उन के सामने भी, जब भी मन हो, बेहिचक जाने लगी थी. कभी उन के साथ चाय बनाती तो कभी सब्जी और कुछ नहीं तो उन के साथ अपनी पढ़ाई से संबंधित मैटर ही डिस्कस कर लेती थी.

वे कैमिस्ट्री की टीचर थीं. हायर सैकंडरी में फिजिक्स, कैमिस्ट्री उन के विषय थे. सविता मैम कैमिस्ट्री के अतिरिक्त फिजिक्स से संबंधित समस्याएं भी हल करवा दिया करती थीं. उन का समझने का तरीका इतना रुचिकर था कि गंभीर से गंभीर विषय भी सहज हो जाता था. उसे उन के साथ बैठ कर बातें करना अच्छा लगता था. उन की सोच उन्हें अन्य महिलाओं से अलग करती थी. वे साड़ी, जेवरों की बातें नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर बातें किया करती थीं. यहां तक कि उन्होंने उसे कालेज में हो रही वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि विषयवस्तु भी तैयार करवाई. उन के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि वह अपने स्कूल में ही प्रथम नहीं बल्कि इंटर-स्कूल वादविवाद प्रतियोगिता में भी प्रथम आई.

उस के पढ़ाई और अन्य प्रतियोगिताओं में अच्छे प्रदर्शन के कारण मां अब उसे उन के घर जाने से रोकती तो नहीं थी पर अभी भी मां की धारणा उन के प्रति बदल नहीं पाई थी जबकि वह अपने सुलझे विचारों तथा आत्मविश्वास के कारण उस की आदर्श ही नहीं, प्रेरणा भी बन चुकी थीं.

कम से कम वे उन औरतों से तो अच्छी थीं जो हर काम में मीनमेख निकालते हुए एकदूसरे की टांगें खींचने में लगी रहती हैं. कम से कम उन के जीवन का कोई मकसद तो है. वे जीवन में आई हर कठिनाई को चुनौती के रूप में लेती हुई जिंदादिली से लगातार आगे बढ़ रही हैं तो लोगों को आपत्ति क्यों?

उस समय वह ग्रेजुएशन कर रही थी. जिंदगी के अच्छेबुरे पहलुओं को थोड़ाथोड़ा समझने लगी थी. एक दिन उस ने उन की जिंदगी में झांकने का प्रयास किया तो वे उखड़ गईं तथा तीखे स्वर में कहा, ‘पता नहीं लोगों को किसी की निजी जिंदगी में झांकने में क्यों मजा आता है? मेरी जिंदगी है चाहे जैसे भी जीऊं.’

‘सौरी मैम, मेरा इरादा आप को दुख पहुंचाने का नहीं था लेकिन जब आसपड़ोस के लोग आप के बारे में अनापशनाप कहते हैं तो मुझ से सहा नहीं जाता, इसीलिए सचाई जानने के लिए आज मैं ने आप से पूछा पर मुझे नहीं पूछना चाहिए था. आप को दुख हुआ, प्लीज, मुझे क्षमा कर दीजिए.’

‘इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं, अनु. गलती हमारी, समाज की सोच और धारणा की है. सचाई यह है कि हमारा समाज आज भी अकेली औरत को सहन नहीं कर पाता. वह उस के लिए एक पहेली बन कर रहती है. उस पहेली को सब अपनीअपनी तरह से सुलझना चाहते हैं. बस, यहीं से बेसिरपैर की बातें प्रारंभ होती हैं पर मैं ने अपने आंख, कान और मुंह बंद कर रखे हैं. अगर खोल कर रखे होते तो शायद जीवित न रह पाती,’ कहते हुए उन की आंखें छलछला आई थीं.

आखिरकार, सविता दीदी उस के सामने खुली किताब की तरह खुलती चली गईं. जमाने के तीरों से लहूलुहान पर यत्न कर सहेज कर रखा दिल का दर्द उन की जबां पर आ ही गया. उस समय उन्होंने जो कहा उस का सारांश यह था कि उन का पति प्रतिष्ठित बिजनैसमैन परिवार का होने के बावजूद शराबी, जुआरी तथा दुराचारी था. उस के मातापिता को उस के ये अवगुण, अवगुण नहीं गुण नजर आते थे. उस ने अपने पति को सम?ाने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं माना. एक दिन शराब के नशे में उस ने उस के साथ संबंध बनाना चाहा तो मुंह से आती दुर्गंध ने उसे विरोध करने पर विवश कर दिया. फिर क्या था, उस ने उस पर हाथ उठा दिया.

बहुत रोई थी वह उस दिन. अपने मातापिता से जब इस संबंध में बात की तो उन्होंने कहा, ‘सब्र कर बेटी, धीरेधीरे उस के सारे ऐब तेरे प्यार से समाप्त होते जाएंगे.’

पर ऐसा नहीं हो पाया. उस ने हर तरह से उस के साथ निभाने की कोशिश की. न चाहते हुए भी वह प्रैग्नैंट हो गई पर उस के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आ रहा था. गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जब पत्नी को पति के सहारे की अत्यंत आवश्यकता होती है तब भी वह रातरातभर बाहर रहता था. यहां तक कि विपुल के जन्म के समय भी वह उस के पास नहीं था. किसी काम के कारण अगर वह न आ पाता तो कोई बात नहीं थी पर वह तो सुरासुंदरी में खोया रहता था. न जाने कैसी नफरत उस के दिल में समा गई थी कि उस ने उसी वक्त उसे छोड़ने का निर्णय ले लिया. आखिर कब तक वह जलालतभरी जिंदगी जीती. वह उसे छोड़ कर मायके चली आई.

उस के मातापिता ने उस के इस निर्णय का विरोध किया. ससुराल जा कर पैचअप कराने की कोशिश भी की पर उस के ससुराल वाले भी बेटे की तरह ही अक्खड़ निकले तथा बोले, ‘थोड़ा शराब पी कर मस्ती कर लेता है तो क्या बुराई है? यह तो अमीरजादों का लक्षण है. हमें क्या पता था कि आप लोग सोलहवीं सदी की मानसिकता वाले होंगे वरना हम अपने बेटे का विवाह आप के घर कभी न करते. वैसे भी दोष तो आप की लड़की का ही है जो उसे घर में बांध कर नहीं रख पाई.’

मम्मीपापा अपना सा मुंह ले कर लौट आए तथा फिर से उस से अपने घर लौट कर स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करने के लिए कहने लगे पर इतना सब होने पर लौटना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगा. उस ने सीधेसीधे कह दिया कि अगर आप भी नहीं रखना चाहते तो कोई बात नहीं, मैं कोई और ठिकाना ढूंढ़ लूंगी. उस समय उस के छोटे भाई सरल ने मम्मीपापा के विरुद्ध जा कर उस का साथ दिया था. उस ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा था, ‘दीदी, तुम कहीं नहीं जाओगी. वैसे भी जिसे मेरी बहन की परवा नहीं है, उस के साथ मेरी बहन नहीं रहेगी.’ यह कह कर सरल ने अपना फैसला सुना दिया.

‘अभी यह सब कह ले पर जब बीवी आ जाएगी तब मुंह पर ताले लग जाएंगे. बेकार उसे शह दे कर उस की जिंदगी बरबाद कर रहा है. थोड़ाबहुत तो सब जगह चलता है पर हमारे खानदान में आज तक ऐसा कहीं नहीं हुआ कि बेटी ससुराल छोड़ घर बैठ जाए,’ मां ने उसे फटकारते हुए कहा था.

‘अगर ऐसा कभी नहीं हुआ तो यह कोई आवश्यक तो नहीं कि कभी हो ही न. हर काल में परिस्थतियां भिन्नभिन्न होती हैं, उसी के अनुसार इंसान को निर्णय लेना पड़ता है. मेरी बहन अनाथ नहीं है जो ऐसी जलालतभरी जिंदगी जिए. तुम परेशान मत हो, मां. दीदी की जिम्मेदारी उठाने का अगर मैं ने वादा किया है तो पूरी जिंदगी उठाऊंगा पर मैं उसे उस शराबी, जुआरी के साथ रहने को मजबूर नहीं करूंगा,’ सरल ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘इस की गलत बात को समर्थन दे कर तू ठीक नहीं कर रहा है. भुगतेगा एक दिन और फिर हमारा समाज क्या वह इसे चैन से जीने देगा,’ मां ने उसे धमकी दी थी.

‘कैसी मां हैं आप, जो अपनी ही बेटी के दर्द को महसूस नहीं कर पा रही हैं. समाजसमाज, कहां था समाज जब जीजा ने आप की बेटी को थप्पड़ मारा. आदमी का हर ऐब समाज के लिए ठीक है लेकिन जब एक स्त्री अपना सम्मान से जीने का अधिकार मांगती है तो वह गलत है,’ सरल ने आक्रोशित स्वर में कहा.

मां सरल की बात सुन कर उस समय चुप हो गईं. सरल के सहयोग से उन्होंने तलाक की अर्जी दे दी. ससुराल वालों को भला क्या आपत्ति थी. आखिर दोष तो लड़कियों में होता है, लड़कों में नहीं. उन्हें फिर से अपने बेटे का दूसरा विवाह कर अपनी तिजोरी भरने का एक और मौका मिल गया था.

मां के तथा सगेसंबंधियों के व्यवहार ने सविता मैम को मायके में भी चैन से रहने नहीं दिया. सो, विपुल के थोड़ा बड़ा होते ही उन्होंने नौकरी के लिए अप्लाई करना प्रारंभ कर दिया. नौकरी मिलते ही वे विपुल को ले कर यहां आ गईं. अगर वहां रहतीं तो शायद शांति से जी न पातीं. वही लोग, वही बातें. उन की चिंता से अधिक उन की लाचारी, बेबसी लोगों को परेशान करती. वे उस माहौल में उन लोगों के साथ रह कर बेबस और लाचार नहीं कहलाना चाहती थीं. औरों की तो छोडि़ए, उन की अपनी मां उन की स्थिति के लिए जबतब आंसू बहा कर कभी उन्हें दोषी ठहरातीं तो कभी जमाने को कोसतीं. कभी तो यहां तक भी कह देतीं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है.

पति से तलाक लेने के बाद सविता मैम के भाई ने फिर से विवाह करने के लिए उन्हें सम?ाने की बेहद कोशिश की. यह भी कहा कि कोई आवश्यक नहीं कि एक जगह नहीं बन पाई तो दूसरी जगह भी न बने. यहां तक कि उन के भविष्य के लिए उस ने विपुल को अपने पास रखने की भी पेशकश कर डाली पर वे इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती थीं कि अपने सुख के लिए अपने ही कोखजाए से मुंह मोड़ लेतीं या भाई पर सदा के लिए अपने बेटे का बो?ा डाल देतीं. माना भाई को वह बो?ा नहीं लगता लेकिन दूसरे घर से आई लड़की को वे कैसे मुंह दिखातीं. क्या वह उस के विपुल को स्वीकार कर पाती? वैसे भी, एक विवाह कर के तो वे देख ही चुकी थीं. पतिरूपी पुरुष जाति से न जाने क्यों उसे नफरत हो गई थी. सो, मना कर दिया.

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने उन की इस धारणा को पुख्ता कर दिया था कि आज की नारी में इतना दमखम है कि अगर वह चाहे तो अपना संसार स्वयं सजासंवार सकती है. आखिर वह क्यों एक ऐसे आदमी की दूसरी पत्नी बने जिस की आंखों में उस के लिए दया के अतिरिक्त कुछ न हो. जो उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं, अपने बच्चों की मां बना कर लाए. उस से सदा कर्तव्यों की बात करता रहे पर अधिकार न दे. यहां तक कि अगर दूसरी पत्नी के बच्चा हो तो उसे भी पितृत्व के साए से दूर रखने का प्रयत्न करे. हां, कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं पर वे शायद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.

सविता मैम की बातों ने अनुजा को बहुत प्रभावित किया था. सचमुच अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव की रक्षा करना आदमी का ही नहीं, औरत का भी हक है. उस ने उन से ही सीखा. बीचबीच में उन के मांपिताजी उन से मिलने आते, उन्हें तरहतरह की नसीहतें देते पर वे टस से मस न होतीं. वे मायूस हो कर चले जाते. केवल उन का भाई ही उन की हौसलाअफजाई करता रहता तथा जबतब आ कर उन की हर संभव मदद करने की कोशिश करता.

उन के जाने के बाद वे कुछ दिन उदास रहतीं, फिर सहज हो जातीं. पता नहीं कब वे सविता मैम से उस के लिए दीदी बन गईं.

अड़ोसपड़ोस के लोगों में उन के प्रति धारणा बदलने के साथ, समय के साथ धीरेधीरे सविता दीदी के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा. सदा धीरगंभीर रहने वाली दीदी अब हंसने भी लगी थीं. कोई घर बुलाता तो चली भी जातीं.

अनुजा के भाई अभिनव के आईआईटी में सलैक्शन के उपलक्ष्य में मां ने छोटी सी पार्टी दी. उस पार्टी को जानदार और खुशनुमा बनाने के लिए उस ने ‘पासिंग द पार्सल गेम’ रखा था. गेम सब को खेलना था. अपनी चिट के अनुसार सब को गाना सुनाना था. सविता दीदी की गाने की चिट निकली. उन का गाना लोगों को इतना पसंद आया कि गेम के बाद उन से गाने की फरमाइश की जाने लगी. उन्होंने भी फरमाइश करने वालों का दिल रखा. इस के बाद कोई भी पार्टी उन के गाने के बिना पूरी ही नहीं होती थी. अंधकार के बाद सुबह होती है, वे इस का ज्वलंत उदाहरण थीं.

धीरेधीरे ममा के विचार भी उन के प्रति बदलने लगे. अब तीजत्योहारों पर उन्हें अपने घर यह कह कर बुलाने लगीं कि अकेले रह कर क्या त्योहार मनाओगी, यहीं आ जाया करो, हम सब को अच्छा लगेगा. परिवर्तन की इस बयार ने उन में एक अनोखी ऊर्जा का संचार कर दिया था. अब वे सब के साथ सहज हो चली थीं. पहले उन से कतराने वाले सभी लोग अब उन की बुराई नहीं, प्रसंशा करते थे. यहां तक कि अब वे अपने बच्चों से संबंधित समस्याओं पर भी उन की राय लेने लगे और वे उन की उम्मीदों पर खरी उतर रही थीं. अड़ोसपड़ोस के बच्चे भी उन का मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनीअपनी मंजिलों की ओर बढ़ रहे थे. अब वे केवल उस की ही नहीं, सब की दीदी बन गई थीं- जगत दीदी.

एक दिन वह भी आया जब उस का विवाह हो गया पर उस के उन के साथ संबंध सदा बने रहे. मायके आती तो अधिक से अधिक समय उन के साथ व्यतीत करने की कोशिश करती. विपुल उसे मौसी कह कर बुलाता था. उस को देख कर वह इतना खुश होता कि जब तक वह रहती, उस से ही चिपका रहता. अपने स्कूल की एकएक बात उसे बताता. वह उस के लिए ढेर सारे खिलौने ले कर आती तथा उसे भी दीदी की तरफ से उपहार मिलते. सब से ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि दीपेश ने भी उस के इस रिश्ते का मान रखा.

कभीकभी उसे लगता कि वे उस की बड़ी बहन जैसी ही नहीं, उस की सब से अच्छी मित्र है जिन के पास उस की हर समस्या का हल रहता है तथा वह भी अपने दिल की हर बात उन के साथ शेयर कर मन में चलते द्वंद्व या कशमकश से मुक्ति प्राप्त कर लेती है.

एक दिन पता चला कि दीदी के मातापिता तथा भाई सरल अपने किसी रिश्तेदार की बेटी के विवाह में अपनी कार से जा रहे थे कि अचानक गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया तथा तीनों ही पंचतत्त्व में विलीन हो गए. समाचार सुन कर अनुजा उन के पास गई. उसे आया देख कर दीदी बिलख कर रोते हुए बोलीं, ‘अनु, सब समाप्त हो गया. इस भरी दुनिया में मैं अकेली रह गई.’

उस समय उन के साथ आई उन की मां ने उन को गले लगा कर दिलासा देते हुए कहा, ‘बेटा तू अकेली कहां है, हम हैं न तेरे साथ. आज से तू भी मेरी बेटी है. हमारे रहते कभी स्वयं को अकेला मत समझना.’ और सच जब तक मांपापा रहे, कभी उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया यहां तक कि भाई अभिनव और भाभी पूजा ने भी उन्हें बहन जैसा सम्मान दिया. वह जब भी अमेरिका से इंडिया आता तो जैसे उपहार उस के लिए लाता वैसे ही उन के लिए भी लाता. विपुल के विवाह में भी वह आने वाला है भात की रस्म निभाने.

अचानक अनुजा को अपना हाथ हलका लगा, देखा तो पाया कि उस के हाथ को पकड़ा उन का हाथ नीचे लटक गया है. उस ने घबरा कर नब्ज टटोली. कुछ न पा कर डाक्टर को आवाज लगाती बाहर दौड़ी. उस की बदहवास दशा देख कर विपुल घबरा गया. दीपेश जो डाक्टर से कन्सल्ट कर के लौटे ही थे, उस की चीख सुन कर हतप्रभ रह गए. डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया.

उस के जीवन का सूत्रधार, जिस के साए में उस ने रहना, चलना, सोचना और सम?ाना सीखा, अपना नश्वर कलेवर छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुका था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उन के बिना चल पाएगी, कैसे विपुल को संभालेगी?

तभी कहीं पढ़े शब्द उस के दिलदिमाग में गूंज उठे- जीवन तो उस नाव की तरह है जिस में प्राणी अपनी सुविधानुसार चढ़ता और उतरता रहता है. फिर चढ़ने पर खुशी और उतरने पर गम क्यों? जीवन की नाव हिचकोले खाएगी, डराएगी. फिर भी नाव को डूबने से बचाना हर इंसान का कर्तव्य है जब तक कि वह स्वयं जर्जर हो कर टूट न जाए.

दीदी के जीवन की नाव शायद जर्जर हो गई थी. तभी वे सब चाह कर भी उन्हें बचा नहीं सके. अंतिमक्रिया के समय पूरे महल्ले के लोगों के अलावा कालेज के सभी अध्यापक और छात्रछात्राएं उपस्थित थे. सब उन की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. यह देख कर, सुन कर गर्व से मन भर उठा. आज दीदी उसे शायर के उस कथन की पर्याय लग रही थीं- मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए कारवां बनता गया…

लड़की वाले भी इस घटना से बेहद मायूस तथा डरे हुए थे. वे हमारी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे थे. जब उन्हें दीदी की अंतिम इच्छा के बारे में बताया तो वे नतमस्तक हो गए. आखिर एक बहुत बड़ा बो?ा उन के सिर से उतर गया था. उन्हें डर था कि कहीं यह घटना उन की बेटी के लिए अपशगुन बन कर न रह जाए. सच तो यह है कि हमारा समाज आधुनिक बनने को ढोंग तो करता है पर जब स्वयं पर आती है तो नाना प्रकार के अंधविश्वासों में उलझ कर रह जाता है.

कर्मकांडों से निबटने के बाद थोड़ा स्थिर होने पर उन की वार्डरोब में रखी डायरी निकाल कर पढ़ने लगी. डायरी में हर रस्म पर दी जाने वाली वस्तुएं सिलसिलेवार लिखी हुई थीं. कुछ शौपिंग जो उन्होंने कर ली थी उस पर उन्होंने टिक लगा दिया था तथा जो नहीं कर पाई थीं उस के आगे कोई निशान नहीं था. हर रस्म में देने वाली वस्तुएं एक बड़े पैकेट में डाल कर अलमारी में टैग लगा कर रख दी थीं. अपने जीवन की तरह ही पूरी तरह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध विवाह की तैयारी कर रही थीं. जीवन से थोड़ी मोहलत उन्होंने चाही थी पर पूरी नहीं हो पाई. सच कुदरत भी कभीकभी इतनी निर्दयी कैसे हो जाती है कि इंसान को उस के न्याय पर ही शक होने लगता है.

पढ़तेपढ़ते एक जगह नजर ठहर गई- ‘अनुजा, बस एक ही बात मुझे बारबार कचोटे जा रही है कि मैं विपुल को परिपूर्ण जीवन नहीं दे पाई. कोई कितनी भी कोशिश कर ले पर मातापिता दोनों का प्यार कोई एक अकेला अपने बच्चे को नहीं दे सकता. मैं ने अकसर विपुल की आंखों में पिता के लिए चाहत देखी है. शायद मन ही मन मुझे कुसूरवार भी ठहराता रहा हो पर तू ही बता, मैं क्या करती? क्या पूरी उम्र उस नरक में सड़ती रहती तथा विपुल को भी उस सड़न का भागीदार बनाती?

‘अगर तुम चाहो तो इस अवसर पर उन्हें बुला सकती हो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा. आखिर विपुल उन का भी तो अंश है. वैसे, मैं नहीं जानती वे कहां और कैसे हैं पर दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं कि किसी को ढूंढ़ा न जा सके. पुराना पता इसी डायरी में है. अच्छा, अब रुकती हूं, पता नहीं क्यों बहुत घबराहट हो रही है.’

तारीख देखी तो वही दिन था जिस दिन उन्हें अटैक आया था. अंतिम लाइनों ने उसे झकझोर कर रख दिया तो क्या ऊपर से जिंदादिल दिखने वाली सविता दी कहीं न कहीं अपराधबोध से ग्रस्त थीं? अपने लिए नहीं, शायद अपने बच्चे के प्रति पूर्ण न्याय न कर पाने के कारण. पर उन्होंने यह क्यों लिखा कि अगर तुम चाहो तो उन्हें बुला सकती हो, क्या उन्हें अपने अंतिम समय का आभास हो गया था?

दीदी का अंतिम पत्र पढ़ कर आज लग रहा था कि कहीं वे दोहरी जिंदगी तो नहीं जीती रहीं. चेहरे पर हंसी और अंदर ही अंदर एक अनकहा तूफान. पर जातेजाते वे उस तूफान को छिपा नहीं पाईं. शायद इस दुनिया से जाते समय वे अपने दिल पर कोई बोझ ले कर नहीं जाना चाहती थीं और न ही जीतेजी सब के सामने स्वीकार कर कमजोर पड़ना चाहती थीं. सच, अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो साधारणतया हर हंसी के पीछे कोई भीषण दुख छिपा रहता है.

सच कुछ पल भुलाए नहीं भूलता. कहीं मन में वर्षों से डंक मारता दुख आज उन के इस अटैक का कारण तो नहीं बन गया? कारण जो भी रहा हो पर हकीकत का सामना तो करना ही था. वैसे भी, अंतिम सांसें लेता व्यक्ति कभी ?ाठ नहीं बोलता. दीदी की अंतिम इच्छा का सम्मान करना उस का कर्तव्य है पर कैसे, समझ नहीं पा रही थी.

दीपेश को दीदी की डायरी का वह अंश दिखाया तो वे भी सोच में पड़ गए. जब समझ में नहीं आया तो विपुल से बात करने की सोची. आखिर वही तो था जिस ने मातापिता के अलगाव का दुख झेला था. विपुल को डायरी दिखाई तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे, बोला, ‘‘मौसी, यह सच है कि मैं ने पापा को मिस करने का दर्द सहा है पर जो दर्द ममा ने सहा है वह मेरे दर्द से बहुत ज्यादा है. उस आदमी ने ममा का तो तिरस्कार किया ही, मेरी भी परवा नहीं की तो फिर मैं उस की परवा क्यों करूं? उसे बुला कर मैं ममा के प्यार का अपमान नहीं करूंगा. मेरे ममापापा दोनों मां ही थीं. आज मैं अनाथ हो गया, मौसी. मैं अनाथ हो गया.’’

‘‘दीदी के जाने के बाद तू अकेला ही नहीं, हम सब ही अनाथ हो गए हैं, बेटा. वे हमारे लिए वटवृक्ष के समान थीं. हालात पर किसी का वश नहीं है, बेटा पर उन की खुशी के लिए स्थिति के साथ समझोता करना ही पड़ेगा. न तू रोएगा, न हम रोएंगे,’’ अनुजा ने उसे अपने अंक में समेटते हुए कहा. दीदी तो उस समय का इंतजार नहीं कर सकीं पर विवाह टलेगा नहीं और न ही इस स्थिति के लिए कोई नई बहू को दोषी ठहराएगा. वह विपुल के साथ दीदी की भी पसंद है. वह उसी धूमधड़ाके के साथ इस घर में प्रवेश करेगी जैसा कि दीदी चाहती थीं. इस निर्णय ने अनुजा के डगमगाते इरादों को मजबूती दी. वह विवाह की तैयारी में जुट गई. आखिर उसे अपनी सविता दीदी के विश्वास की कसौटी पर खरा जो उतरना था.

सजा

लेखिका – ऋचा बंसल

आज होलिका दहन हो रहा था. मेरी बेटी सोनू मेरे पास बैठी होलिका दहन देख रही थी. अचानक सोनू ने कहा, ‘‘मम्मी, कल कालेज में हमारी कक्षा में सब बात कर रहे थे कि कालेज की एक लड़की का कुछ दिनों पहले बलात्कार हुआ था, अब वह पागल हो गई है.’’

‘‘वास्तव में बेटा यह ऐसा घिनौना सच है कि जब कोई इस से रूबरू होता है, उस के बाद अगर वह मानसिक रूप से कमजोर होता है तो सामाजिक बरताव के कारण अपना दिमागी संतुलन खो बैठता है.’’

सोनू थोड़ी देर बात कर के अंदर चली गई पर मेरा मन जैसे अतीत में चला गया और मेरा नासूर बना दर्द वापस जाग्रत हो गया.

होली का दिन था. सब होली खेल कर अपने घर जा चुके थे. शाम होने को आ गई, मेरे पति हमेशा की तरह आज भी अभी तक नहीं आए थे. शराब पी कर कहीं बैठे होंगे. अचानक बारिश शुरू हो गई. बिजली चमक रही थी और बादल गरज रहे थे. मैं और मेरी बेटी सोनू इन का इंतजार कर रहे थे.

रात 12 बजे दरवाजे पर घंटी बजी. मुझे लगा कि मेरे पति आ गए, मैं ने दरवाजा खोला तो अजय खड़ा था. अजयविजय 2 भाई थे, हमारे घर के सामने रहते थे. जब ये दोनों 2 साल के थे तब से मैं इन को जानती थी. आज दोनों 20 साल के हो गए थे. जब भी मेरे पति शराब पी कर किसी नाले के पास पड़े होते थे तो मैं इन दोनों भाइयों में से किसी एक के साथ जा कर उन्हें लाया करती थी.

आज भी अजय जब बुलाने आया तब मुझे कुछ भी अलग नहीं लगा. अजय ने भी शराब पी रखी थी, पूछने पर उस ने कहा, ‘आंटी, मैं अंकल के साथ ही था पर अंकल ने इतनी ज्यादा पी ली है कि वे वहीं लेट गए हैं, इसलिए मैं आप को बुलाने आया हूं.’

मैं हर बार उस के साथ हमेशा बिना किसी डर के चली जाती थी, पता नहीं इस बार क्यों किसी अनहोनी होने का अंदेशा होने के कारण मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था पर मैं ने किसी तरह हिम्मत जुटाई और उस के साथ जाने को तैयार हो गई पर साथ ही अपनी बेटी सोनू का खयाल आया. मैं ने उसे अपनी दोस्त मीता के यहां छोड़ने का फैसला लिया. मैं मीता के पास गई और उसे इतनी रात में जगाया.

मैं ने कहा, ‘मीता, मैं सोनू को तुम्हारे पास छोड़ रही हूं और मैं अजय के साथ सोनू के पापा को लेने जा रही हूं.’

मैं पहले भी अजय के साथ जा चुकी हूं इसलिए किसी को कुछ अजीब नहीं लगा. मैं अपनी बेटी की तरफ से निश्चिंत हो कर अजय के साथ चली गई.

अजय और मैं नाले की ओर चले गए, जहां अजय ने बताया था कि मेरे पति हैं. वास्तव में वह मुझे गलत जगह ले गया क्योंकि उस की नीयत उस दिन खराब थी. वह मेरी बेटी के साथ गलत हरकत करना चाहता था पर जब मैं ने अपनी बेटी को सुरक्षित कर दिया तो वह बौखला गया. उस ने उस बौखलाहट में मेरे ऊपर वार करने शुरू कर दिए और कहने लगा, ‘मैं तो तेरी बेटी की इज्जत लूटना चाहता था पर उसे तो मैं हासिल नहीं कर सका, इसलिए उस का बदला तुझ से लूंगा.’

मैं ने अपनेआप को बचाने के लिए उसे खूब मारा, उस के बाल भी खींचे पर आखिर में उस ने मेरे सिर पर जोर से टौर्च मार दी और मैं घायल हो गई. उस ने धक्का मार कर मुझे नीचे गिरा दिया और अपना बदला ले लिया.

मैं ने अपनेआप को उठाने की कोशिश की तब तक वह वहां से भाग चुका था. मैं बदहवास सी घर आई, मेरे सिर से खून बह रहा था. पड़ोसियों ने मुझे अस्पताल में भरती करवाया, मैं अंदर से पूरी तरह टूट गई थी. अपनी इज्जत लूटने का गम, विश्वास टूटने का दुख मुझे सामान्य नहीं होने दे रहा था. मेरे पति का नशा जब उतरा और घर आ कर उन्हें इस हादसे का पता चला तो उन्होंने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई. पूरे महल्ले में हल्ला मच गया था. अजयविजय के घर पर लोगों ने तोड़फोड़ मचा दी थी.

पुलिस अजय को ढूंढ़ने लगी, लोगों ने भी अजय को चप्पाचप्पा, गलीगली ढूंढ़ा. आखिर में अजय लोगों की पकड़ में आ गया, लोगों ने पूरे रास्ते उसे जूतेचप्पलों से मारा और पीटते हुए ही महल्ले में ले कर आए. उस का मुंह काला कर के सब जगह उसे घुमाया गया फिर उसे पुलिस को सौंप दिया. अजय को जेल हो गई थी.

भले ही दुष्कर्म करने वाले को सजा मिल जाए (कभीकभी तो वह भी नहीं मिलती) पर इस का दर्द इतना गहरा होता है कि पीडि़ता को उबरने में सालों लग जाते हैं. कभीकभी वह दर्द नासूर बन जाता है.

इस घटना के बाद सोनू जब विद्यालय जाती, उस समय वह 10वीं कक्षा में पढ़ती थी, उपहास का पात्र बनती थी. ऐसा लगता था कि उस की मां ने गलती की है. वह घर आ कर घंटों रोती थी. उस ने विद्यालय जाने से मना कर दिया था. इधर मेरा मानसिक संतुलन भी हिल गया था. मुझे लोगों की नजरों के तीर नश्तर की तरह चुभते थे.

मेरे पति ने शराब को हाथ लगाना बंद कर दिया, वह पूरी तरह परिवार के लिए समर्पित हो गए. मुझे समझते और कहते थे, ‘इस में तुम्हारा दोष नहीं है, अपराधी तो मैं हूं. न मैं शराब पीता, न यह सब होता.’

मेरे पति मेरा बहुत ध्यान रखते थे पर मुझे सहानुभूति भी बहुत चुभती थी. अगर मेरे पति गलती से भी मु?ा पर हाथ लगाते तो मैं पागलों की तरह चिल्लाने लगती. मेरे पति भी उस महल्ले में असहज महसूस करते थे.

हमारे समाज की विडंबना यही है कि औरत का दोष न हो तब भी उसे अपराधी की दृष्टि से देखा जाता है. इन सब से बचने के लिए हम ने स्थान परिवर्तन कर लिया ताकि सामाजिक ताने हमें आहत न कर सकें. मैं ने भी अपनेआप को मानसिक रूप से सशक्त बनाने की पहल कर दी थी, जिस से हम सामान्य जीवनयापन कर सकें.

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