Download App

व्यवस्था : क्यों सरकार को कोस रही थी साक्षी

एक रात को मैं अपनी सहकर्मी साक्षी के घर भोजन पर आमंत्रित थी. पति-पत्नी दोनों ने बहुत आग्रह किया था. तभी हम ने हां कर दी थी. साक्षी के घर पहुंची. उन का बड़ा सा ड्राइंगरूम रोशनी में नहाया हुआ था. साक्षी ने सोफे पर बैठे अपने पति के मित्र आनंदजी से हमारा परिचय कराया.  साक्षी के पति सुमित भी आ गए. हम लोग सोफे पर बैठ गए थे. कुछ देर सिर्फ गपें मारीं. साक्षी के पति ने इतने बढि़या और मजेदार जोक सुनाए कि हम लोग टैलीविजन पर आने वाले घिसेपिटे जोक्स भूल गए थे. तय हुआ कि महीने में एक बार किसी न किसी के घर पर बैठक किया करेंगे.

हंसी का दौर थमा. भूख बहुत जोर से लग रही थी. रूम के एक हिस्से में ही डाइनिंग टेबल थी. टेबल खाना खाने से पहले ही तैयार थी और हौटकेस में खाना, टेबल पर लगा हुआ था. प्लेट्स सजी थीं. जैसे ही हम खाने के लिए उठने लगे, लाइट चली गई. एक चुटकुले के सहारे 5-10 मिनटों तक इंतजार किया. पर लाइट नहीं आई. आनंद ने पूछा, ‘‘अरे यार, तुम्हारे पास तो इनवर्टर था?’’

उन की जगह साक्षी ने जवाब दिया, ‘‘हां भाईसाहब है, पर खराब है. कब से कह रही हूं कि मरम्मत करने वाले के यहां दे दें. पर ये तो आजकलआजकल करते रहते हैं.’’ सुमित ने कहा, ‘‘बस भी करो. जाओ, माचिस तलाश करो. फिर मोमबत्ती ढूंढ़ो. कैंडललाइट डिनर हीसही.’’

साक्षी उठ कर किचन की तरफ गई. इधरउधर माचिस तलाशती रही, पर माचिस नहीं मिली. वहीं से चिल्लाई, ‘‘अरे भई, न तो माचिस मिल रही है, न ही गैसलाइटर जो गैस जला कर थोड़ी रोशनी कर लूं. अब क्या करूं?’’ ‘‘करोगी क्या? यहां आ जाओ, मिल कर निकम्मी सरकार को ही कोस लें. इस का कौन काम सही है?’’ सुमित ने कहा. अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वे बोले, ‘‘बिजली का कोई भरोसा नहीं है कि कब आएगी, कब जाएगी. 4 घंटे का घोषित कट है, पर रहता है 8 घंटे. और बीचबीच में आंखमिचौली.

कभी अगर ट्रांसफौर्मर खराब हो जाए, तो समझ लो 2-3 दिनों तक बिजली गायब.’’ तभी आनंद ने कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, रुकिए. मेरे पास माचिस है. यह मुझे ध्यान ही नहीं रहा. यह लीजिए.’’ उन्होंने एक तीली जला कर रोशनी की. सुमित तीली और माचिस लिए हुए चिल्लाए, ‘‘जल्दी मोमबत्ती ढूंढ़ कर लाओ.’’

‘‘मोमबत्ती…यहीं तो साइड में रखी हुई थी,’’ साक्षी ने कहा. दोनों पतिपत्नी मेज के पास पहुंच कर दियासलाई जलाजला कर मोमबत्तियां ढूंढ़ते रहे. पर वह नहीं मिली. कई जगहों पर देखी, लेकिन बेकार. इतने में ही उन्हें एक मोमबत्ती ड्रैसिंग टेबल की दराज में मिल गई. वहीं से वह चिल्लाई, ‘‘मिल गई.’’

जब काफी देर तक मोमबत्ती नहीं जली तो आनंद ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, मोमबत्ती क्यों नहीं जलाते? क्या अंधेरे में रोमांस चल रहा है?’’ तब तक सुमित ड्राइंगरूम में आ चुके थे, बोले, ‘‘लानत है यार ऐसी जिंदगी पर. जब मोमबत्ती मिली, तो माचिस की तीलियां ही खत्म हो गईं.’’

आनंद कुछ कहते, उस से पहले ही बिजली आ गई. सुमित ने मोमबत्ती एक कोने में फेंक दी और बोले, ‘‘खैर, बत्ती आने से सब काम ठीक हो गया.’’ मौके की नजाकत पर आनंद ने एक जोक और मारा तो सब खिलखिला उठे. प्रसन्नचित्त सब ने भोजन किया. थोड़ी देर में साक्षी फ्रिज में से 4 बाउल्स निकाल कर लाई. सभी लोग खीर खाने लगे.

तो मैं ने कहा, ‘‘अरे भाईसाहब, मीठी खीर के साथ एक बात कहूं, आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’ सुमित ने खीर मुंह में भरे हुए ही ?कहा, ‘‘नहीं. आप तो बस कहिए, क्या चाहती हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘अभी आप सरकार को उस की बदइंतजामी के लिए कोस रहे थे. मैं सरकार की पक्षधर नहीं हूं, फिर भी क्षमाप्रार्थना के साथ कहती हूं कि जब आप के इस छोटे से परिवार में इतनी अव्यवस्था है, आप को पता नहीं कि माचिस कहां रखी है? मोमबत्ती कहां पर है? तो इतने बड़े प्रदेश का भार उठाने वाली सरकार को क्यों कोसते हैं?

‘‘जिले के ट्रांसफौर्मर के शीघ्र न ठीक होने की शिकायत तो आप करते हैं पर घर पर रखे इनवर्टर की आप समय से मरम्मत नहीं करवाते. कभी सोचा है कि ट्रांसफौर्मर के फुंक जाने के कई कारणों में से एक प्रमुख कारण उस पर अधिक लोड होना है. आप के इस रूम में जरूरत से ज्यादा बल्ब लगे हैं. अच्छा हो पहले हम अपने घर की व्यवस्था ठीक कर लें, फिर किसी और को उस की अव्यवस्था के लिए कोसें. मेरी बात बुरी लगे, तो माफ कर दीजिएगा.’’

आनंद ने ताली बजाते हुए कहा, ‘‘दोस्तो, हास्य के बीच, आज का यह सब से गहरा व्यंग्य. चलो, अब मीटिंग बरखास्त होती है.’’

संदेह : क्या थी मां के दोस्त की सच्चाई?

“मालती, मेरे मोबाइल में अभी भी कुछ समस्या है, इस कारण मैं कैब का पेमेंट नहीं कर पा रहा हूं। कैश मैं ज्यादा रखता नहीं। तुम्हारे पास कैश है तो पेमेंट कर दो या फिर मोबाइल से कर दो,” शेखर ने कुछ देर अपने मोबाइल पर कोशिश करने के बाद कहा। अभीअभी दोनों कहीं से घूम कर आए थे।

मालती ने पर्स खोलते हुए पूछा, “कितने?”

“बस 450 रूपए,” शेखर ने कहा।

मालती ने ₹500 का नोट शेखर की ओर बढ़ाया। शेखर ने नोट उस से ले कर कैब ड्राइवर को दिया और उस ने जो ₹50 के नोट वापस किए वह मालती को वापस करते हुए मुसकरा कर बोला, “मैं तुम्हें ट्रांसफर कर दूंगा, जब मोबाइल काम करने लगेगा।”

“वापस करने की क्या आवश्यकता है? हम साथसाथ ही तो गए थे,” मालती ने कहा।

“फिर भी…अच्छा चलता हूं, फिर मिलेंगे,” शेखर ने कहा।

“चाय नहीं पीएंगे? 10 मिनट की ही तो बात है,” मालती ने पूछा।

“कोई खास इच्छा तो नहीं थी चाय पीने की पर जब कहती हो तो इनकार करना मुश्किल हो जाता है, इसी बहाने 10 मिनट और आप का साथ मिल जाएगा,” शेखर ने उसे अंदर चलने का इशारा करते हुए कहा।

मालती का घर पहले माले पर था। सीढ़ियां चढ़ कर दोनों अंदर आ गए। मालती का बेटा कार्तिक घर में ही था और बालकनी के पास खड़ा था इसलिए उन की बातें सुन रहा था। उन्हें ऊपर आते देख वह दरवाजे के पास पहुंच चुका था और जैसे ही डोरबेल बजी उस ने दरवाजा खोल दिया।

“हैलो अंकल,” उस ने शेखर का अभिवादन किया और सोफे की ओर बैठने का इशारा किया।

“कैसे हो कार्तिक?” शेखर सोफे पर बैठते हुए बोला।

“ठीक हूं अंकल,” उस ने कहा।

“मैं हमारे लिए चाय बना रही हूं, तू भी चाय लेगा बेटा?” मालती ने कार्तिक से पूछा।

“चाय मैं बनाऊंगा मम्मी, आप अंकल के साथ बैठो,” कार्तिक ने कहा।

“लगता है, बड़ा हो गया है तू,” मालती ने प्रशंसाभरी निगाहों से कार्तिक को देखा।

मालती शेखर के साथ बैठ कर बात करने लगी और कार्तिक चाय बनाने किचन में चला गया। चाय बनाते हुए उस के मन में पिछले कुछ माह की घटनाएं चलचित्र की तरह घूमने लगीं…

उस के पिता की मौत के बाद उस की मां बिलकुल अकेली हो गई थी। उसे पालने के लिए उस ने उस के पिता की भी भूमिका ले ली थी पर अंदर ही अंदर इतनी दुखी थी मानो लगता था उस के जीवन में कोई उत्साह ही नहीं है। इस तरह से कई साल बीत गए थे।
इसी बीच शेखर अंकल से उस की जानपहचान हुई। कई दिनों के बाद उस के चेहरे पर हंसी दिखी थी। दोनों कई बार साथसाथ पार्क में घूमने, लंच, डिनर पर या मूवी देखने जाने लगे।

कार्तिक को अपनी मां को खुश देख कर बहुत अच्छा लगा। मां तो मां होती है, बच्चे को हमेशा अच्छी लगती है पर जब से शेखर अंकल मां की जिंदगी में आए थे उन का पूरा व्यक्तित्व ही बदल गया था। पहले जहां वह हमेशा उदास और गमगीन रहती थीं अब हमेशा प्रसन्न रहती हैं।
पर आज की घटना से उसे थोड़ा संदेह हुआ कि क्या सचमुच शेखर अंकल के मोबाइल में कुछ समस्या थी या फिर उन्होंने बहाना बनाया था? क्या वह मम्मी के साथ सिर्फ इसलिए हैं कि उन्हें किसी का साथ चाहिए और मम्मी के पास पैसों की कमी नहीं है? पापा असमय चले गए थे पर अच्छीखासी रकम की व्यवस्था कर गए थे।

₹1 करोड़ तो सिर्फ बीमा कंपनी से मिले थे। उस के अलावा पीएफ, ग्रैच्युटी, पापा के बैंक खाते में अच्छीखासी रकम थी। ये सारे रकम मम्मी के खाते में ट्रांसफर हो गए थे। यानी पैसों की कोई कमी नहीं थी। क्या इसी पैसे के लिए शेखर अंकल मम्मी के साथ हैं?

छन्न… की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई। पानी गरम हो चुका था। चायपत्ती और चीनी डाल कर वह फिर सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मम्मी अपने एकांत को दूर करने के चक्कर में शेखर अंकल के इरादों को समझ नहीं पा रही हों। इस तरह के कई खयाल उस के मन में आतेजाते रहे। उस ने देखा मम्मी शेखर अंकल के साथ किसी विषय पर हंसहंस कर बातें कर रही थी। शायद जो मूवी वे देख कर आए थे उस के किसी दृश्य पर चर्चा हो रही थी। ट्रे की ओर देख कर उस ने कहा, “रुको मैं बिस्कुट और नमकीन भी लेती आती हूं।” कार्तिक वहीं बैठ गया।

थोड़ी ही देर में मालती एक प्लेट में बिस्कुट ले कर आ गई और वहीं बैठ गई। चाय के साथ किसीकिसी विषय पर चर्चा भी चलती रही। उस के बाद शेखर उठ कर चले गए। मालती उन्हें विदा करने नीचे तक गई। जब वह वापस आई तो वह बोला, “मम्मी, आप से कुछ बात करनी है।”

मालती ठिठक गई, “हां, बोलो।”

“आज कैब का किराया शेखर अंकल ने आप से दिलवाया यह कह कर कि उन का मोबाइल काम नहीं कर रहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे सिर्फ आप के पैसे के लिए आप के साथ हैं?” कार्तिक बोला।

“अच्छा, तुम्हें मालूम है यह बात? चलो, खुशी हुई कि मेरा कोई गार्जियन है घर में ताकि मैं गलत फैसला लूं तो मुझे रोके,” मुसकराते हुए मालती ने कहा।

“मम्मी, मैं मजाक नहीं कर रहा, सीरियसली बोल रहा हूं,” कार्तिक ने गंभीरतापूर्वक कहा।

“ऐसा नहीं है बेटा। अभी जाते समय उन्होंने ही कैब का भुगतान किया था। मूवी टिकट उन्होंने ही ली थी। हां, पौपकोर्न का भुगतान करते हुए उन के मोबाइल में कुछ समस्या आ गई थी। वहां उन्होने कैश में पेमेंट किया था। फिर भी तुम कहते हो तो मैं सावधान रहूंगी और यदि उन का इरादा ऐसा कुछ हुआ तो मैं सोचसमझ कर निर्णय लूंगी। वैसे मैं भी कई बार खर्च करती हूं तो वे मना नहीं करते और इसे मैं उन के लोभ के रूप में न देख कर उन का मेरे प्रति सम्मान, समानता के व्यवहार के रूप में देखती हूं। वित्तीय रूप से भी वे ठीकठाक लगते हैं।

“तुम्हारे पापा के जाने के बाद जैसे मैं अकेली हो गई हूं वैसे ही वे भी अकेले हैं किसी कारण से। और इस कारण हम दोनों एकदूसरे के करीब हैं। वैसे, तुम भी उन से मिलते रहो ताकि यदि कोई संदेहास्पद बात है तो पता चल सके और अगर ऐसा कुछ नहीं है तो हम दोनों साथसाथ समय व्यतीत करें। हम दोनों का एकाकीपन दूर होता है इस से,” मालती ने अपना पक्ष रखा।

“सौरी मम्मी, अगर मैं ने आप को दुख पहुंचाया हो, पर पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा जब उन्होंने कैब के पैसे के लिए आप से कहा,” कार्तिक ने कहा।

“इस में सौरी जैसी कोई बात नहीं बेटा, मैं भी इस बात का ध्यान रखूंगी और तुम भी उन के साथ थोड़ा समय बिताया करो जिस से असलियत का पता चल सके,” मालती ने कहा और कपड़े बदलने अंदर चली गई।

कार्तिक को मम्मी की बात सही लगी। पर जो संदेह उस के मन में आ चुका था वह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ था। उसे मम्मी की यह सलाह अच्छी लगी कि वह भी शेखर अंकल के साथ थोड़ा समय बिताया करे ताकि उन का असली स्वभाव समझ में आ सके। उस के बाद वह बीचबीच में शेखर अंकल के साथ समय बिताने लगा। यहां तक कि जब भी वे मालती को कहीं बाहर ले जाने के लिए आते तो कभीकभी कार्तिक भी साथ चलने का अनुरोध करता था और वे खुशीखुशी उसे भी साथ ले जाते थे।

कुछ ही महीने में स्थिति स्पष्ट हो गई। कार्तिक निश्चिंत हो गया कि शेखर अंकल उस की मम्मी का साथ चाहते थे न कि उस के बैंक बैलेंस का। उस के मन में शेखर अंकल के प्रति जो संदेह था वह छंट चुका था।

बहू : जब स्वार्थी दीपक को उसकी पत्नी ने हराया

लेखिका- अमिता बत्रा

बहू शब्द सुनते ही मन में सब से पहला विचार यही आता है कि बहू तो सदा पराई होती है. लेकिन मेरी शोभा भाभी से मिल कर हर व्यक्ति यही कहने लगता है कि बहू हो तो ऐसी. शोभा भाभी ने न केवल बहू का, बल्कि बेटे का भी फर्ज निभाया. 15 साल पहले जब उन्होंने दीपक भैया के साथ फेरे ले कर यह वादा किया था कि वे उन के परिवार का ध्यान रखेंगी व उन के सुखदुख में उन का साथ देंगी, तब से वह वचन उन्होंने सदैव निभाया.

जब बाबूजी दीपक भैया के लिए शोभा भाभी को पसंद कर के आए थे तब बूआजी ने कहा था, ‘‘बड़े शहर की लड़की है भैयाजी, बातें भी बड़ीबड़ी करेगी. हमारे छोटे शहर में रह नहीं पाएगी.’’

तब बाबूजी ने मुसकरा कर कहा था, ‘‘दीदी, मुझे लड़की की सादगी भा गई. देखना, वह हमारे परिवार में खुशीखुशी अपनी जगह बना लेगी.’’

बाबूजी की यह बात सच साबित हुई और शोभा भाभी कब हमारे परिवार का हिस्सा बन गईं, पता ही नहीं चला. भाभी हमारे परिवार की जान थीं. उन के बिना त्योहार, विवाह आदि फीके लगते थे. भैया सदैव काम में व्यस्त रहते थे, इसलिए घर के काम के साथसाथ घर के बाहर के काम जैसे बिजली का बिल जमा करना, बाबूजी की दवा आदि लाना सब भाभी ही किया करती थीं.

मां के देहांत के बाद उन्होंने मुझे कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी. इसी बीच राहुल के जन्म ने घर में खुशियों का माहौल बना दिया. सारा दिन बाबूजी उसी के साथ खेलते रहते. मेरे दोनों बच्चे अपनी मामी के इस नन्हे तोहफे से बेहद खुश थे. वे स्कूल से आते ही राहुल से मिलने की जिद करते थे. मैं जब भी अपने पति दिनेश के साथ अपने मायके जाती तो भाभी न दिन देखतीं न रात, बस सेवा में लग जातीं. इतना लाड़ तो मां भी नहीं करती थीं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया और उन्होंने कहा, ‘‘शालिनी, दिनेश को ले कर फौरन चली आ बेटी, शोभा को तेरी जरूरत है.’’

मैं ने तुरंत दिनेश को दुकान से बुलवाया और हम दोनों घर के लिए निकल पड़े. मैं सारा रास्ता परेशान थी कि आखिर बाबूजी ने इस समय हमें क्यों बुलाया और भाभी को मेरी जरूरत है, ऐसा क्यों कहा  मन में सवाल ले कर जैसे ही घर पहुंची तो देखा कि बाहर टैक्सी खड़ी थी और दरवाजे पर 2 बड़े सूटकेस रखे थे. कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है. अंदर जाते ही देखा कि बाबूजी परेशान बैठे थे और भाभी चुपचाप मूर्ति बन कर खड़ी थीं.

भैया गुस्से में आए और बोले, ‘‘उफ, तो अब अपनी वकालत करने के लिए शोभा ने आप लोगों को बुला लिया.’’

भैया के ये बोल दिल में तीर की तरह लगे. तभी दिनेश बोले, ‘‘क्या हुआ भैया आप सब इतने परेशान क्यों हैं ’’

इतना सुनते ही भाभी फूटफूट कर रोने लगीं.

भैया ने गुस्से में कहा, ‘‘कुछ नहीं दिनेश, मैं ने अपने जीवन में एक महत्त्वपूर्ण फैसला लिया है जिस से बाबूजी सहमत नहीं हैं. मैं विदेश जाना चाहता हूं, वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल रही है, रहने को मकान व गाड़ी भी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है भैया,’’ दिनेश ने कहा.

दिनेश कुछ और कह पाते, तभी भैया बोले, ‘‘मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई दिनेश, मैं अब अपना जीवन अपनी पसंद से जीना चाहता हूं, अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ.’’

यह सुनते ही मैं और दिनेश हैरानी से भैया को देखने लगे. भैया ऐसा सोच भी कैसे सकते थे. भैया अपने दफ्तर में काम करने वाली नीला के साथ घर बसाना चाहते थे.

‘‘शोभा मेरी पसंद कभी थी ही नहीं. बाबूजी के डर के कारण मुझे यह विवाह करना पड़ा. परंतु कब तक मैं इन की खुशी के लिए अपनी इच्छाएं दबाता रहूंगा ’’

मैं बाबूजी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, आप भैया से कुछ कहते क्यों नहीं  इन से कहिए ऐसा न करें, रोकिए इन्हें बाबूजी, रोक लीजिए.’’

चारों ओर सन्नाटा छा गया, काफी सोच कर बाबूजी ने भैया से कहा, ‘‘दीपक, यह अच्छी बात है कि तुम जीवन में सफलता प्राप्त कर रहे हो पर अपनी सफलता में तुम शोभा को शामिल नहीं कर रहे हो, यह गलत है. मत भूलो कि तुम आज जहां हो वहां पहुंचने में शोभा ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया. उस के प्यार और विश्वास का यह इनाम मत दो उसे, वह मर जाएगी,’’ कहते हुए बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए.

भैया का जवाब तब भी वही था और वे हम सब को छोड़ कर अपनी अलग दुनिया बसाने चले गए.

बाबूजी सदा यही कहते थे कि वक्त और दुनिया किसी के लिए नहीं रुकती, इस बात का आभास भैया के जाने के बाद हुआ. सगेसंबंधी कुछ दिन तक घर आते रहे दुख व्यक्त करने, फिर उन्होंने भी आना बंद कर दिया.

जैसेजैसे बात फैलती गई वैसेवैसे लोगों का व्यवहार हमारे प्रति बदलता गया. फिर एक दिन बूआजी आईं और जैसे ही भाभी उन के पांव छूने लगीं वैसे ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हट बेशर्म, अब आशीर्वाद ले कर क्या करेगी  हमारा बेटा तो तेरी वजह से हमें छोड़ कर चला गया. बूढ़े बाप का सहारा छीन कर चैन नहीं मिला तुझे  अब क्या जान लेगी हमारी  मैं तो कहती हूं भैया इसे इस के मायके भिजवा दो, दीपक वापस चला आएगा.’’

बाबूजी तुरंत बोले, ‘‘बस दीदी, बहुत हुआ. अब मैं एक भी शब्द नहीं सुनूंगा. शोभा इस घर की बहू नहीं, बेटी है. दीपक हमें इस की वजह से नहीं अपने स्वार्थ के लिए छोड़ कर गया है. मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगा, यह मेरी बेटी है और मेरे पास ही रहेगी.’’

बूआजी ने फिर कहा, ‘‘कहना बहुत आसान है भैयाजी, पर जवान बहू और छोटे से पोते को कब तक अपने पास रखोगे  आप तो कुछ कमाते भी नहीं, फिर इन्हें कैसे पालोगे  मेरी सलाह मानो इन दोनों को वापस भिजवा दो. क्या पता शोभा में ऐसा क्या दोष है, जो दीपक इसे अपने साथ रखना ही नहीं चाहता.’’

यह सुनते ही बाबूजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने बूआजी को अपने घर से चले जाने को कहा. बूआजी तो चली गईं पर उन की कही बात बाबूजी को चैन से बैठने नहीं दे रही थी. उन्होंने भाभी को अपने पास बैठाया और कहा, ‘‘बस शोभा, अब रो कर अपने आने वाले जीवन को नहीं जी सकतीं. तुझे बहादुर बनना पड़ेगा बेटा. अपने लिए, अपने बच्चे के लिए तुझे इस समाज से लड़ना पड़ेगा.

तेरी कोई गलती नहीं है. दीपक के हिस्से तेरी जैसी सुशील लड़की का प्यार नहीं है.

तू चिंता न कर बेटा, मैं हूं न तेरे साथ और हमेशा रहूंगा.’’

वक्त के साथ भाभी ने अपनेआप को संभाल लिया. उन्होंने कालेज में नौकरी कर ली और शाम को घर पर भी बच्चों को पढ़ाने लगीं. समाज की उंगलियां भाभी पर उठती रहीं, पर उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा. राहुल को स्कूल में डालते वक्त थोड़ी परेशानी हुई पर भाभी ने सब कुछ संभालते हुए सारे घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली.

भाभी ने यह साबित कर दिया कि अगर औरत ठान ले तो वह अकेले पूरे समाज से लड़ सकती है. इस बीच भैया की कोई खबर नहीं आई. उन्होंने कभी अपने परिवार की खोजखबर नहीं ली. सालों बीत गए भाभी अकेली परिवार चलाती रहीं, पर भैया की ओर से कोई मदद नहीं आई.

एक दिन भाभी का कालेज से फोन आया, ‘‘दीदी, घर पर ही हो न शाम को

आप से कुछ बातें करनी हैं.’’

‘‘हांहां भाभी, मैं घर पर ही हूं आप आ जाओ.’’

शाम 6 बजे भाभी मेरे घर पहुंचीं. थोड़ी परेशान लग रही थीं. चाय पीने के बाद मैं ने उन से पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी कुछ परेशान लग रही हो  घर पर सब ठीक है ’’

थोड़ा हिचकते हुए भाभी बोलीं, ‘‘दीदी, आप के भैया का खत आया है.’’

मैं अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी. बोली, ‘‘इतने सालों बाद याद आई उन को अपने परिवार की या फिर नई बीवी ने बाहर निकाल दिया उन को ’’

‘‘ऐसा न कहो दीदी, आखिर वे आप के भाई हैं.’’

भाभी की बात सुन कर एहसास हुआ कि आज भी भाभी के दिल के किसी कोने में भैया हैं. मैं ने आगे बढ़ कर पूछा, ‘‘भाभी, क्या लिखा है भैया ने ’’

भाभी थोड़ा सोच कर बोलीं, ‘‘दीदी, वे चाहते हैं कि बाबूजी मकान बेच कर उन के साथ चल कर विदेश में रहें.’’

‘‘क्या कहा  बाबूजी मकान बेच दें  भाभी, बाबूजी ऐसा कभी नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करना भी चाहेंगे तो मैं उन्हें कभी ऐसा करने नहीं दूंगी. भाभी, आप जवाब दे दीजिए कि ऐसा कभी नहीं होगा. वह मकान बाबूजी के लिए सब कुछ है, मैं उसे कभी बिकने नहीं दूंगी. वह मकान आप का और राहुल का सहारा है. भैया को एहसास है कि अगर वह मकान नहीं होगा तो आप लोग कहां जाएंगे  आप के बारे में तो नहीं पर राहुल के बारे में तो सोचते. आखिर वह उन का बेटा है.’’

मेरी बातें सुन कर भाभी चुप हो गईं और गंभीरता से कुछ सोचने लगीं. उन्होंने यह बात अभी बाबूजी से छिपा रखी थी. हमें समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, तभी दिनेश आ गए और हमें परेशान देख कर सारी बात पूछी. बात सुन कर दिनेश ने भाभी से कहा, ‘‘भाभी, आप को यह बात बाबूजी को बता देनी चाहिए. दीपक भैया के इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे.’’

यह सुनते ही भाभी डर गईं. फिर हम तीनों तुरंत घर के लिए निकल पड़े. घर जा कर

भाभी ने सारी बात विस्तार से बाबूजी को बता दी. बाबूजी कुछ विचार करने लगे. उन के चेहरे से लग रहा था कि भैया ऐसा करेंगे उन्हें इस बात की उम्मीद थी. उन्होंने दिनेश से पूछा, ‘‘दिनेश, तुम बताओ कि हमें क्या करना चाहिए ’’

दिनेश ने कहा, ‘‘दीपक आप के बेटे हैं तो जाहिर सी बात है कि इस मकान पर उन का अधिकार बनता है. पर यदि आप अपने रहते यह मकान भाभी या राहुल के नाम कर देते हैं तो फिर भैया चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेंगे.’’

दिनेश की यह बात सुन कर बाबूजी ने तुरंत फैसला ले लिया कि वे अपना मकान भाभी के नाम कर देंगे. मैं ने बाबूजी के इस फैसले को मंजूरी दे दी और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे सही कर रहे हैं.

ठीक 10 दिन बाद भैया घर आ पहुंचे और आ कर अपना हक मांगने लगे. भाभी पर इलजाम लगाने लगे कि उन्होंने बाबूजी के बुढ़ापे का फायदा उठाया है और धोखे से मकान अपने नाम करवा लिया है.

भैया की कड़वी बातें सुन कर बाबूजी को गुस्सा आ गया. वे भैया को थप्पड़ मारते हुए बोले, ‘‘नालायक कोई तो अच्छा काम किया होता. शोभा को छोड़ कर तू ने पहली गलती की और अब इतनी घटिया बात कहते हुए तुझे जरा सी भी लज्जा नहीं आई. उस ने मेरा फायदा नहीं उठाया, बल्कि मुझे सहारा दिया. चाहती तो वह भी मुझे छोड़ कर जा सकती

थी, अपनी अलग दुनिया बसा सकती थी पर उस ने वे जिम्मेदारियां निभाईं जो तेरी थीं.

तुझे अपना बेटा कहते हुए मुझे अफसोस होता है.’’

भाभी तभी बीच में बोलीं, ‘‘दीपक, आप बाबूजी को और दुख मत दीजिए, हम सब की भलाई इसी में है कि आप यहां से चले जाएं.’’

भाभी का आत्मविश्वास देख कर भैया दंग रह गए और चुपचाप लौट गए. भाभी घर की बहू से अब हमारे घर का बेटा बन गई थीं.

 

मेरी दोस्ती मैरिड लड़के से हो गई है, उसकी पत्नी शक करती है मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 26 वर्षीया हूं और अपने मातापिता के साथ रहती हूं. मेरे घर के सामने वाले घर में एक पतिपत्नी रहते हैं. पति और पत्नी दोनों ही मेरी उम्र के हैं. मैं जब भी सुबहशाम बालकनी में खड़ी होती हूं तो मुझे उस लड़की का पति दिख जाता है और बातें भी हो जाती हैं. दिक्कत यह है कि मुझे वह लड़की नहीं पसंद, लेकिन उस का पति समझदार है, इसलिए उस से बात करने में मुझे कोई हर्ज नहीं. पर मुझे ऐसा लगने लगा है कि उस लड़की को मेरा उस के पति से बात करना पसंद नहीं है. गली के लोग भी हम दोनों को शक की नजर से देखते हैं. मुझे वह लड़का दोस्त की नजर से पसंद है. ऐसे में मुझे उस से बात करना क्या छोड़ देना चाहिए?

जवाब

आजकल लोगों को किसी के भी बारे में धारणा बना लेने में ज्यादा समय नहीं लगता. माना आप उस लड़के को अपना दोस्त समझती हैं लेकिन आप दोनों हमउम्र हैं और ऐसे में उस की पत्नी का आप दोनों के बातें करने पर एतराज होना जायज है. आप को उस लड़के से बात करना पसंद है तो उस की पत्नी से भी बातें कर लेनी चाहिए जिस से कि वह आप दोनों के प्रति सहज हो जाए.

आप उस लड़के से भी कह सकती हैं कि वह अपनी पत्नी को विश्वास दिलाए कि आप दोनों केवल दोस्त हैं, उस से ज्यादा कुछ नहीं. अगर फिर भी वह नहीं समझती तो आप को सचमुच उस लड़के से बात करना बंद कर देना चाहिए. हो सकता है आप को ले कर उस की पत्नी पजेसिव हो और ओवरथिंक करती हो. आप के कारण किसी के शादीशुदा जीवन में परेशानी आए, इस से तो बेहतर है आप उस लड़के से बात ही न करें.

बाप की ऊपरी कमाई किस को रास आई

90 के दशक की बात है. लखनऊ के एक स्वयंभू पत्रकार थे. लोगबाग उन्हें पंडितजी कह कर पुकारते थे. खुद ही प्रकाशक और संपादक भी थे. एक पौलिटिकल मैगजीन और एक दैनिक अखबार निकालते थे. एक पूर्व मुख्यमंत्री के करीबी रह चुके थे.वे उनकी अंदरूनी बातों की जानकारी रखते थे. बाद में जब उनसे नाराज हुए तो उनके खिलाफ खबरें छापने लगे.मुंह बंद करवाने के लिए मुख्यमंत्रीजी ने काफी पैसा पहुंचाया लेकिन वे कुछ दिन चुप रहते, फिर शुरू हो जाते.

इस तरह पंडितजी ने काफी पैसा बनाया. बाद में बड़ेबड़े नौकरशाहों से दोस्ती गांठ ली. उनकी कृपा से अखबार और पत्रिका को लाखों रुपए के सरकारी विज्ञापन धड़ल्ले से मिलने लगे. एक प्रिंटिंग प्रैस खड़ी कर ली. कुछ खोजी टाइप के रिपोर्टर्स की टीम बना ली, जो रिपोर्टिंग कम ब्लैकमेलिंग में ज़्यादा उस्ताद थे. इस अधिकारी की गुप्त जानकारी उसको और उस अधिकारी की गुप्त जानकारी उसको पहुंचा कर ये लोग अच्छा पैसा बनाने लगे.

पंडितजी की पत्नी और बच्चों को उनके अवैध कामों की पूरी जानकारी थी, मगर किसी ने उन्हें ऐसा करने से टोका नहीं. पत्नी खुश थी कि अच्छा पहननेओढ़ने को मिल रहा है.नएनए डिजाइन के जेवर खरीदती थी. लड़के को बालिग होते ही लग्जरी कार मिल गई थी और बेटी भी जी खोल कर अपनी सहेलियों पर पैसे उड़ाती थी.

पंडितजी की अवैध कमाई पर पलने वाले उनके दोनों बच्चों ने पैसे का मूल्य कभी नहीं समझा. नपढ़ाई पूरी की और न ही कोई नौकरी की. मेहनत करना क्या होता है, यह उन्होंने जाना ही नहीं. वे सिर्फ नौकरों पर हुक्म चलाना ही सीख पाए. लड़की जवान होते ही मौडल बनने के चक्कर में मुंबई चली गई.3वर्षों बाद लुटीपिटी, डिप्रैशन का शिकार होकर लौटी.

लड़के को कम उम्र में ही शराब का चस्का लग गया. पंडितजी के मरने के बाद वह प्रैस का मालिक बन गया. ज़्यादा पढ़ालिखा न होने के कारण पंडितजी के धूर्त रिपोर्टर्स की टीम ने उसको नशे की गर्त में डुबो दिया.वह रातदिन नशे में रहने लगा.2 बार शादी की और दोनों बार तलाक हो गया. घरेलू हिंसा का मामला उस पर अलग दर्ज हो गया. एक दिन शराब के नशे में तेज गाड़ी चलाते हुए उसका ट्रक से ऐक्सिडैंट हुआ और अस्पताल पहुंचने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई.

लड़के की मृत्यु के बाद प्रैस बंद हो गई. आय का साधन ख़त्म हो गया. पंडितजी ने जिनजिन नेताओं, अधिकारियों को परेशान किया था, ब्लैकमेल किया था, अब वे मांबेटी पर हावी होने लगे. आखिरकार लखनऊ की संपत्ति बेच कर पंडितजी की पत्नी अपनी अवसादग्रस्त बेटी के साथ देहरादून में एक छोटे से अपार्टमैंट में शिफ्ट हो गई. सारा वैभव, सारा ऐशोआराम समाप्त हो गया.

पंडितजी जीवनभर अवैध कमाई के चक्कर में न तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाए, न संस्कार. छोटी उम्र में बच्चों के हाथों में अथाह पैसा आने से वे पैसे का मूल्य भी नहीं समझे. मेहनत करके पैसा कमाना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं. नतीजा भयानक निकला.

ऐसा ही एक किस्सा नोएडा विकास प्राधिकरण में कार्यरत रहे एक सज्जन का है. वे प्राधिकरण में ऐसी पोस्ट पर थे जहां महीने की लंबीचौड़ी तनख्वाह के अलावा प्रतिदिन ऊपरी कमाई 5 हजार से लेकर कभीकभी तो 50 हजार रुपए तक हो जाती थी. हाथ आई लक्ष्मी को तिवारीजी ने कभी न नहीं कहा. लोग अपनी जमीनों और दुकानों से संबंधित फाइलों को आगे बढ़वाने के लिए तिवारीजी को घर पर भी भेंट पहुंचा जाते थे. तिवारीजी की पांचों उंगलियां घी में थीं. उनकी पत्नी भी पति की कमाई से बहुत खुश थी. रिश्तेदारों पर उनका पूरा रोब रहता था. त्योहारों, समारोहों में रिश्तेदारों और दोस्तों को पूरे अहंकार के साथ कीमती गिफ्ट बांटती थीं. अपने मायके वालों पर भी खूब पैसा लुटाती थीं. कोई पूछने वाला नहीं था.

तिवारीजी का एक ही बेटा था, गौरव. गौरव ने बचपन से अपने घर में खूब पैसा देखा. खूब महंगीमहंगी चीजें इस्तेमाल कीं. हमेशा ब्रैंडेड कपड़ेजूते पहने. बड़ेबड़े मौल में शौपिंग की. बड़ी गाड़ियों में घूमा. 12वीं करने के बाद उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा तो 3 साल दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाने में बिता दिए.

इकलौता बेटा था, लिहाजा मांबाप ने कभी कोई सख्ती नहीं दिखाई. इसके चलते वह बहुत ज़िद्दी भी हो गया. फिर उसको विदेश जाने का चस्का चढ़ा और वह कनाडा निकल गया. बाप के पैसे धड़ल्ले से उड़ाए. करीब 20 लाख रुपए बरबाद करने के बाद वापस लौट आया. दिल्ली के एक बार में उसका दोस्तों संग आनाजाना था. वहीं की एक बारगर्ल से आशिकी हो गई और उसने उस बारगर्ल से शादी कर ली.

उस लड़की ने जब गौरव के घर में पैसे की ऐसी रेलमपेल देखी तो उसकी आंखें चुंधिया गईं. धीरेधीरे उसने गौरव को नशे का आदि बना कर उसे पूरी तरह अपने वश में कर लिया. सासससुर से आएदिन उसकी कलह होती. तनाव के चलते गौरव की मां ब्लडप्रैशर की मरीज हो गई. बहू ने धीरेधीरे पूरे घर पर कब्जा जमा लिया.लौकर की चाबी अब उसके पास रहती है. सेवानिवृत्ति के बाद तिवारीजी और उनकी पत्नी अब बहू के रहमोकरम पर हैं.

घर में, बस, अब बहू की पसंद चलती है. बेटा अपने मांबाप की सुनता नहीं है. पोतेपोती का मोह उन्हें बेटे से अलग नहीं होने देता. फिर बुढ़ापा और बीमारी दोनों को घेरे हुए है. ऐसे में अकेले अलग भी कैसे रहें. जीवनभर अंधीकमाई के चक्कर में तिवारीजी भी अपने बेटे को अच्छी शिक्षा और संस्कार नहीं दे पाए. सोचनेसमझने और जीवन के फैसले ठीक तरीके से लेने की क्षमता उसमें विकसित नहीं कर पाए. बाप के पैसे पर ऐयाशी करने का आदी रहा गौरव न कोई नौकरी कर सका और न व्यवसाय. अब पिता की पैंशन और जमा कमाई से 6 जनों का परिवार चल रहा है.

इस साल जनवरी में जबलपुर के भसीन आर्केड के सामने स्थित रितिक अपार्टमैंट में पुलिस ने एक देररात शराब और ड्रग्स पार्टी की सूचना पर रेड मारी.वहां से 13 युवकयुवतियों को पकड़ा गया.उनमें टौप बिजनैसमेन, हाईकोर्ट के सीनियर एडवोकेट, सीनियर डाक्टर्स, सीनियर पुलिस अफसर और हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले सीनियर लौयर्स के बेटेबेटियां शामिल थे.

उस अपार्टमैंट के एक रूम को बार का लुक दिया गया था, जहां शराब और ड्रग्स की कमी नहीं थी. रात के 3 बजे जब पुलिस की रेड पड़ी तो सभी युवकयुवतियां नशे में धुत थे. इन लोगों ने पुलिस पर दबाव बनाने की कोशिश की मगर आबकारी एक्ट और एमपी कोलाहल नियंत्रण अधिनियम के तहत सभी पर केस दर्ज किया गया.

भारतीय जनता पार्टी के नामचीन नेता प्रमोद महाजन के पुत्र राहुल महाजन के बिगड़ने का किस्सा कौन नहीं जानता. ड्रग्स, नशा और सैक्स ने उसे राजनीतिक रूप से बिलकुल समाप्त कर दिया. वरना पिता की इतनी बड़ी राजनीतिक विरासत का वह अकेला हकदार था. बाद में बौलीवुड की चकाचौंध में रहा सहा भी डूब गया. शादी भी खत्म,इज्जत भी खत्म.

कांग्रेस के बड़े नेता विनोद शर्मा के अहंकारी और बिगड़ैल बेटे मनु शर्मा ने 29 अप्रैल, 1999 को बार में सिर्फ शराब न परोसने के कारण पिस्तौल निकाल कर जेसिका लाल की कनपटी पर गोली चला दी, जिसमें उसकी मौत हो गई. इस घटना में बेटे को बचाने के लिए मंत्री पिता ने कई दांव चले.हत्या के गुनाह से बचा कर निकाल लेने के लिए पुलिस के बड़े अधिकारियों और नामी वकीलों की मदद ली. लेकिन आखिरकार मनु शर्मा को आजीवन कारावास की सजा हुई.

मशहूर फिल्म अभिनेता आदित्य पंचोली के बेटे सूरज पंचोली पर इलजाम था कि उसने अपनी प्रैग्नैंट गर्लफ्रैंड जिया खान को न सिर्फ लंबे समय तक टौर्चर किया बल्कि उसकी वजह से जिया ने आत्महत्या कर ली.हालांकि इस मामले में सुबूत न होने के चलतेसूरज पंचोली कोर्ट सेबरी हुए हैं.

पैसे की अधिकता में बिगड़े हुए बच्चों की अनगिनत कहानियां हमारे आसपास बिखरी हुई हैं. अफसोसजनक है कि आज के समाज में अवैध कमाई को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता है.कभीकभी तो लड़कियों की शादियां यह देख कर होती हैं कि लड़का मलाईदार पोस्ट पर है या नहीं अथवा लड़के की ऊपरी कमाई कितनी है. जिन घरों में पैसा मेहनत से नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार से आता है, देखा गया है कि उन घरों के बच्चों में अहंकार, जिद्दीपन, बुरी आदतें, दूसरों से असम्मानित व्यवहार और नशे की लत होना आम है.

बच्चों की वित्तीय आदतें पेरैंट्स की देखरेख में ही विकसित होती हैं. अगर पेरैंट्स भ्रष्ट और अव्यवस्थित हैं तो निश्चित रूप से उनके बच्चों से अनुशासित व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती. बच्चे शुरू से घर में जो होता हुआ देखते हैं वैसा ही व्यवहार करते हैं. जिस बच्चे को मुक्त हाथों से पैसा दिया जा रहा हो, उसको कभी पैसे के लिए मना कर दो तो वह उग्र हो बैठेगा, मांबाप से झगड़ा करेगा या कोई अप्रत्याशित कदम उठा लेगा.

इसी तरह किसी खास लाइफस्टाइल को मेंटेन करने के लिए अगर कोई व्यक्ति लगातार लोन लेता रहता है तो उसके बच्चे पर भी उसका असर पड़ता है. अगर आप लगातार लोन चुकाने की प्रक्रिया में शामिल हैं या एक के बाद दूसरे लोन के दुष्चक्र में पड़े हैं तो बच्चे को यह समझ में आएगा कि यह सामान्य चलन है. वह भी अपने जीवन में इस प्रोसैस को फौलो करेगा. बच्चे के मन में यह धारणा बन जाएगी कि लाइफस्टाइल मेंटेन करने के लिए लोन लेने में कोई बुराई नहीं है और वह इसे भी अपने जीवन का हिस्सा बना लेगा. अगर वह अच्छी नौकरी नहीं पा सका और लोन समय से नहीं चुका पाया तो यह स्थिति उसके जीवन में तनाव पैदा करेगी. वह डिप्रैशन में जा सकता है. उसका जीवन बरबाद हो सकता है.

जो पेरैंट्स’लिव लाइफ किंग साइज’ में भरोसा करते हैं, वे अपने बच्चों पर भी जमकर खर्च करते हैं. बिना सवाल पूछे बच्चे की इच्छा पूरी होती रहती है. यह जरूरी नहीं है कि वह बच्चा बड़ा होने के बाद भी उसी स्थिति में हो कि पुराना लाइफस्टाइल मेंटेन कर सके. अगर ऐसा नहीं हुआ तो वह फ्रस्ट्रेटेड महसूस करेगा. उसी लाइफस्टाइल को मेंटेन करने के लिए या तो वह बहुत कर्ज लेने की आदत डाल लेगा या दूसरे आपराधिक तरीके अख्तियार करेगा जिससे अपनी जरूरतें पूरी कर सके.

बचपन से ही मुंहमांगी मुराद पूरी होने पर बच्चे उस लाइफस्टाइल के आदी बन जाते हैं. वे बचपन से ही जरूरत से ज्यादा खर्च करने के अभ्यस्त होते हैं औरनिवेश पर उनका कोई फोकस नहीं होता. इससे उनके जीवन के वित्तीय लक्ष्य को पाना और मुश्किल हो जाता है. उन्हें जीवन में एडजस्ट करना नहीं आता. धन को लेकर सदैव मस्तिष्क में उथलपुथल मची रहती है. ऐसे में उनका जीवन सहज नहीं होता.

राजनीति में कैरियर, बहुत कठिन है डगर पनघट की

बहुजन समाज पार्टी के नेता है आकाश आनंद. बीते दिनों काफी चर्चा में थे. अचानक बसपा प्रमुख मायावती ने उन की तेज गति पर विराम लगा दिया. हांलाकि, आकाश आनंद कोई साधारण युवा नेता नहीं थे. वे बसपा प्रमुख मायावती के भाई आनंद कुमार के बेटे यानी उन के सगे भतीजे हैं. मायावती उन को चाहती भी बहुत थीं. उन को पढ़ने के लिए विदेश भेजा था. इस के बाद उन की शादी बसपा के ही नेता डाक्टर अशोक सिद्धार्थ की बेटी डाक्टर प्रज्ञा से करवा दी. शादी में खुद मायावती मौजूद रहीं.
मायावती ने आकाश आनंद को पहले बसपा का नैशनल कोऔर्डिनेटर बनाया. 2024 के लोकसभा चुनावप्रचार में आकाश आंनद की तेजी मायावती को पंसद नहीं आई और सांपसीढ़ी के खेल की तरह आकाश आंनद अर्श से सीधे फर्श पर आ गए. आकाश आनंद युवा सोच और जोश के साथ आए मगर बिना गहराई से बसपा को समझे फायर करने लगे. आकाश आंनद को बसपा में इतने बड़े पद पर पहुंचने का मौका इसलिए मिल गया क्योंकि वे मायावती के भतीजे थे. साधारण कार्यकर्ता को तो इस उम्र में कोई छोटा पद भी नहीं मिलता है.

उत्तर प्रदेश के गोंडा लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी ने बेनी प्रसाद वर्मा की पोती और राकेश वर्मा की बेटी श्रेया वर्मा को टिकट दिया. बेनी प्रसाद वर्मा सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के करीबी थे. श्रेया के पिता राकेश वर्मा भी अखिलेश सरकार में मंत्री थे. यहां भी लोकसभा का टिकट युवा श्रेया वर्मा को परिवारवाद के नाम पर मिला. यह एकदो दल की कहानी नहीं है. भाजपा ने नई दिल्ली लोकसभा सीट से बांसुरी स्वराज को टिकट दिया, वह भाजपा नेता सुषमा स्वराज की बेटी है. ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं.

राजनीतिक दल जब युवाओं के नाम पर टिकट देते हैं तो किसी अपने नेता के ही बेटाबेटी को देते हैं. ऐसे में तमाम युवा नेताओं का हक मारा जाता है. 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने एक नारा दिया- ‘लडकी हूं, लड़ सकती हूं’. इस के बाद 129 टिकट महिलाओं को दिए, जिन में 90 फीसदी नई थीं. किसी नेता के परिवार की नहीं थीं. इस को महिला राजनीति में एक मास्टर स्ट्रोक समझा जा रहा था. लेकिन चुनाव के बाद जब परिणाम आए तो एक भी महिला उम्मीदवार जीत नहीं पाई.

महिला का चुनाव जीतना सरल नहीं होता

सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीति पर काम कर रही शालिनी माथुर कहती हैं, “महिला आरक्षण के बाद महिलाओं के लिए अवसर इसलिए खुल जाएंगे क्योंकि उन के सामने लड़ने वाली दूसरी उम्मीदवार भी महिला होगी. अभी कोई महिला सुरक्षित सीट नहीं है. ऐसे में महिलाओं का पुरुषों के मुकाबले चुनाव जीतना सरल नहीं होता है. पुरुष को जिस तरह से सहयोग, साथ और समर्थन मिल जाता है, महिला को नहीं मिलता.

“कई बार समाज महिला को बदनाम अलग से कर देता है. एक और बड़ा कारण यह होता है कि महिलाओं के पास अपना पैसा नहीं होता है. उन को किसी न किसी पर निर्भर होना पड़ता है. जिन महिलाओं के पास अपना पैसा, अपनी टीम होती है वही चुनावी राजनीति में सफल होती हैं.”

आज राजनीतिक दलों में युवा इकाइयां बहुत प्रभावी नहीं हैं. छात्रसंघों के चुनाव होते नहीं हैं. इन को नेताओं की नर्सरी कहा जाता था. अब पंचायत और निकाय चुनाव ही 2 ऐसे रास्ते हैं जिन के जरिए युवा राजनीति में प्रवेश कर सकते हैं. पिछले कुछ सालों से युवा धर्म की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहा है. वह तिलक और टीका लगा कर खुद को समाजिक कार्यकर्ता समझ लेता है. इस के बाद वह नेताओं की चटाई बिछाने और उन के आगेपीछे घूमने का काम करने लगता है. उसे लगता है, इसी से वह नेता बन जाएगा.

काफी नहीं होती सोशल मीडिया पर पहचान

सोशल मीडिया के दौर में युवा अपने को वहां पर युवा नेता के रूप में पेश करता है. उसे लगता है कि सोशल मीडिया पर फेमस होने के साथ ही राजनीति में भी सफल हो जाएगा. रोज नेताओं के साथ फोटो, कमैंट करने से राजनीति नहीं होती. राजनीति के लिए सब से अधिक जरूरी होता है मुददों को समझना, जनता की नब्ज को पकड़ना, समाज में पहचान का होना, चुनाव लड़ने के लिए पैसा और मजबूत समर्थन. यह हासिल करने में उस की उम्र निकल जाती है. दूसरी तरफ नेताओं ने अपने लिए रिटायरमैंट की कोई अधिकतम सीमा नहीं रखी है, जिस से युवा के लिए अवसर नहीं पैदा होते हैं.

आम घरों के युवाओं के लिए राजनीति में कैरियर बनाना सरल नहीं होता है. राजनीति में आने वाले केवल 10 फीसदी लोग ही शिखर तक पंहुच पाते हैं. बाकी युवा राजनीति में कैरियर बनाने के चक्कर में अपने मुख्य कैरियर से विमुख हो जाते हैं. जो समय उन को अपने कैरियर बनाने में लगाना चाहिए वह समय वे पार्टी का झंडा उठाने में लगा देते हैं. जबकि देखा गया है कि नौकरीपेशा सफल लोगों को बुलाबुला कर पार्टियां टिकट देती हैं.

हाल के दिनों में कई अफसरों ने नौकरी से वीआरएस ले कर और रिटायर होने के बाद टिकट पाए और मंत्री, विधायक व सांसद बने. इन में आईएएस और आईपीएस अफसरों के नाम ज्यादा हैं. उत्तर प्रदेश में आईपीएस असीम अरुण और ईडी के अफसर राजेश्वर सिंह प्रमुख नाम हैं. कई सफल बिजनैसमेन भी टिकट हासिल कर लेते हैं. कई पहुंच और पैसे वाले परिवार अपने घरों की महिलाओं के लिए व्यवस्था करते हैं, जिस की वजह से वे चुनाव लड़ लेती हैं. ऐसे में अगर राजनीति में कैरियर बनाना है तो खुद को पहले मजबूत करें, उस के बाद राजनीति में कैरियर बनाएं.

राजनीति में कैरियर बनाने की उम्र औसतन 45 साल के बाद की होती है. ऐसे में पहले 20-25 साल पैसा कमाएं, पहचाने बनाएं, फिर राजनीति में जा कर कैरियर बनाने की सोचें. केवल नेताओं की दया पर निर्भर होने से कुछ हासिल नहीं होता. अपना समय व्यर्थ गंवाने से अच्छा है, कुछ अलग करें. सही अवसर मिले, तो राजनीति में कैरियर बनाएं.

चुगली, चूल्हे और पूजापाठ तक सिमटी महिला राजनीति

साल 1975 में प्रदर्शित ‘आंधी’ फिल्म कभी चर्चाओं के दायरे से बाहर नहीं हुई. इस की वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि यह कथित रूप से इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी थी बल्कि यह है कि खालिस सियासत पर बनी यह पहली राजनीतिक हिंदी फिल्म थी जिस में एक कामयाब राजनीतिक महिला का द्वंद दिखाया गया था. एक ऐसी महिला जो घरगृहस्थी, पति और बच्चों के साथ भी जीना चाहती है और राजनीति में भी सक्रिय रहना चाहती है. आखिर में निर्देशक गुलजार दर्शकों को यह इशारा कर देने में सफल रहे हैं कि एक महिला के लिए यह यानी राजनीति दो नावों की सवारी ही साबित होती है.

‘आंधी’ को प्रदर्शित हुए 5 दशक पूरे होने को हैं लेकिन राजनीति में तेजी से सक्रिय हो रही महिलाओं की हैसियत और द्वंद कायम हैं कि वे क्या चुनें- चूल्हाचौका, घरगृहस्थी पति और बच्चे या फिर कामयाबी जिस के लिए लंबी बहुत लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है, संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यहां कुछ भी बैठेबिठाए अब किसी महिला को नहीं मिल जाता. पार्षद बनने के लिए भी एक महिला को लंबी और तगड़ी प्रतिस्पर्धा से हो कर गुजरना पड़ता है. छोटी सफलता और छोड़े पद के लिए भी महिला का महत्त्वाकांक्षी होना जरूरी है ठीक उतना ही जितना ‘आंधी’ फिल्म की नायिका आरती का होना था. यह भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी और इतनी शिद्दत से निभाई थी कि दर्शक और समीक्षक उन के कायल हो गए थे.

अब हर चुनावप्रचार में महिलाओं की टोलियां दिखना आम बात है. वे घरघर जा कर प्रचार करती हैं, हैंडबिल और मतदाता परचियां बांटती हैं, सभाओं में गला फाड़फाड़ कर नारे लगाती हैं, पार्टी का झंडा उठाती हैं, फर्श भी बिछातीउठाती हैं, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते अपनी पार्टी की नीतियोंरीतियों को भी आसान भाषा में वोटर को समझाने की कोशिश करती हैं. वे जुलूसों में नाचतीगाती हैं, गुलाल उड़ाती हैं, अपने बड़े नेता की जयजयकार भी करती हैं, थाल सजा कर उस की आरती उतारती हैं और माथे पर तिलक लगाती हैं. वे पार्टी के दफ्तर में गपशप करती भी दिखती हैं और सियासी पंडितों व विश्लेषकों की तरह सीटों की हारजीत का गुणाभाग भी करती खुद को एक गहन, गूढ़, ज्ञानी और अनुभवी जमीनी राजनेता होने का सुख या भ्रम कुछ भी कह लें पालती रहती हैं.

यह ठीक वैसा ही दृश्य है जैसे धार्मिक समारोहों और कलश यात्राओं में सिर पर कलश लिए महिलाओं का होता है. मसलन, गरमी और सर्दी में लंबी दूरी तय करते आरती-भजन गाते हुए चलना, इस के बाद बाबा के प्रवचन सुनना, जयजयकार करना और फिर वापस अपने घर आ कर कामकाज में जुट जाना. एक तरह से महिला धर्म की तरह ही राजनीति में भी शो पीस और नुमाइश की चीज है. वहां उसे कुछ मिलता जाता नहीं है, वह जहाज की पंछी है जो एक दायरे में उड़ती है और फिर वापस जहाज पर आ जाती है.

यह सोचना कि महिलाओं में कोई राजनातिक चेतना है, फुजूल की बात है. फेमिनिज्म भारत में एक अलग तरीके से पनपा, जिस के सारे सूत्र पुरुषों के हाथ में रहे. 70 के दशक में महिलाएं जागरूक और शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर होने लगीं तो पुरुषों ने बड़ी खूबसूरती से उन्हें धर्म और राजनीति में मैदानी तौर पर सक्रिय रहने की छूट देना शुरू कर दी. तब इतने बड़े पैमाने पर आरक्षण राजनीति में नहीं था. केवल इंदिरा गांधी सरीखी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिलाएं ही राजनीति में आती थीं. कुछ विजयाराजे सिंधिया जैसी भी थीं जो राजघरानों से ताल्लुक रखती थीं. इन पर भी पारिवारिक और सामाजिक वर्जनाएं ढोने की जिम्मेदारी नहीं थी.

आम सवर्ण महिला की बड़े पैमाने पर एंट्री स्थानीय निकायों में आरक्षण के बाद हुई. इस में भी दिलचस्प बात यह रही कि पुरुषों ने ही उन्हें चारदीवारी लांघने के लिए उकसाया लेकिन इसलिए नहीं कि वे बराबरी की बात सोचने लगे थे (या हैं) बल्कि इसलिए कि उन की आड़ में उन्हें राजनीति करना थी. इन के और भी स्वार्थ थे, मसलन किसी को लाइसैंस चाहिए था तो किसी को ठेके की दरकार थी. यह जो महिला राजनीति में आई जिसे भले और अच्छे घर की समझा जाता है, वह दरअसल एक टूल थी. पार्षद पति और प्रधान. सरपंच पति जैसे शब्द अब बेहद आम हैं जो यह बताते हैं कि महिला राजनीति नहीं करती, वह राजनीति करने का जरिया मात्र है.

जैसे धर्म मोक्ष की सहूलियत महिलाओं को नहीं देता ठीक वैसे ही राजनीति में दोचार सीढ़ियां तो वे चढ़ जाती हैं लेकिन छत पुरुषों के लिए रिजर्व है. इसे समझने के लिए दो बड़ी पार्टियों के उदाहरण सामने हैं. कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राहुल गांधी के बराबर से आगे नहीं रखा क्योंकि प्रियंका को बच्चे पालने थे, अपना चूल्हाचौका देखना था. इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें किचन में जा कर बच्चों का टिफिन बनाना था या बरतन माजने और कपड़े धोने थे बल्कि यह था कि उन्हें अपने पति और बच्चों को ज्यादा वक्त देना था. मुमकिन है प्रियंका ने अपनी दादी इंदिरा गांधी की जिंदगी से सबक लिया हो कि राजनीति में इतने दूर भी मत जाओ कि घरवापसी मुश्किल हो जाए.

भाजपा में यह और अलग तरीके से हुआ. साल 2014 में प्रधानमंत्री पद की दावेदार सुषमा स्वराज भी हो सकती थीं. वे नरेंद्र मोदी से कहीं ज्यादा अनुभवी, शिक्षित और समझदार होने के अलावा स्वीकार्य भी थीं लेकिन आलाकमान ने उन्हें मौका नहीं दिया क्योंकि वे धर्म संसद और साधुसंतों की पसंद एक महिला होने के नाते नहीं थीं. वे तय है कि अंबानी-अडानी से सौदेबाजी भी करने को तैयार नहीं होतीं और न किसी अन्ना हजारे के आंदोलन को हवा दे पातीं.

वे तो बाबा रामदेव जैसों को भी माहौल बनाने को राजी नहीं कर पातीं. हां, यह सब कोई और कर के उन्हें पीएम की कुरसी थाल में संजो कर दे देता तो वे खुशीखुशी यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो जातीं. जाहिर है, सुषमा स्वराज की अपनी सीमाएं थीं जो किचन से शुरू हो कर किचन पर ही खत्म हो जाती हैं लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें कट्टर हिंदुत्व की राजनीति से कोई एतराज या परहेज था.

यह बहुत छोटे स्तर पर साफ देखा जा सकता है कि राजनीति में सक्रिय आम महिला 3 कमियों या कमजोरी की शिकार है. ये हैं- चुगली, चूल्हा और पूजापाठ जिन में महिलाओं का ज्यादा वक्त गुजरता है और इस बाबत उन्हें प्रोत्साहन भी खूब मिलता है. राजनीति हमेशा से ही फुलटाइम जौब रही है. ऐसा नहीं है कि महिलाओं के पास वक्त की कमी हो बल्कि उन्हें ऐसे गैरजरूरी कामों में पुरुषों ने उलझा कर रख दिया है कि वे पार्टटाइमर बन कर रह गई हैं.

एक दूसरी दिक्कत पैसों की भी महिलाओं के साथ है. अगर 15-20 फीसदी नौकरीपेशा महिलाओं को छोड़ दें तो महिलाओं की अपनी कोई आमदनी नहीं होती है. राजनीति में जमने के लिए अब भारीभरकम पैसों की जरूरत होती है जो उन्हें पुरुषों से ही मिलता है. यह पुरुष आमतौर पर उन का पति, भाई या पिता होता है. इस सेवाव्यवसाय में हरकोई पहले अपनी लागत निकालता है, फिर मुनाफा वसूलता है. भोपाल नगर निगम की एक पार्षद का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि पार्षदी के चुनाव में मरीगिरी हालत में 15-20 लाख रुपए का खर्च आता है. अब अगर यह पति ने लगाया है तो वह इसे सूद समेत वसूलता भी है. यही बात पिता और भाई पर भी लागू होती है.

भारत में निक्की हैली और कमला हैरिस जैसी महिलाएं न के बराबर ही होंगी जो अपनी कमाई से राजनीति कर सकें. जो 10-15 फीसदी महिलाएं खुद कमा रही हैं उन्हें राजनीति से कोई वास्ता नहीं रहता. सवर्ण समाज पार्टी की अध्यक्ष रही भोपाल की अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भारतीय पुरुष अब यह तो चाहने लगा है कि महिलाएं राजनीति में सक्रिय हों लेकिन वह अपनी पुरुषवादी सोच और पूर्वाग्रह छोड़ने तैयार नहीं हो रहा. एक छोटामोटा नेता भी रात को जब घर लौटता है तो पत्नी खाने पर उस का इंतजार करती है. लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा नहीं है कि वे देररात लौटें तो पति खाने पर उन का इंतजार कर रहा हो, फिर दीगर बातों और अड़चनों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. क्षेत्र कोई भी हो, एक महिला के लिए रौकेट साइंस नहीं होता. दबाव में या थोपा गया कोई भी काम अकसर बोझ ही साबित होता है और महिला राजनीति इस से अछूती नहीं है.

अर्चना यह भी मानती हैं कि महिलाओं का राजनीति में बहुत बेहतर भविष्य न पहले कभी था न आगे कभी होने की उम्मीद दिख रही है. आमतौर पर राजनातिक महिलाएं कौर्पोरेट की महिलाओं की तरह डैशिंग नहीं होतीं और न ही पुरुषों की तरह रिस्क उठा पाती हैं क्योंकि उन्हें बड़े तो दूर, अपने ही घर के छोटेमोटे फैसलों के लिए पुरुषों का मुहताज रहना पड़ता है. सार्वजनिक जीवन में उन्हें अपनी इमेज का भी खयाल रखना पड़ता है जिस से वे कुछ कदम ही तय कर पाती हैं.

सार यह कि महिलाएं राजनीति में हैं जरूर लेकिन वे वहां अपनी उपयोगिता के चलते हैं, महत्त्व के चलते नहीं. जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी तब तक आधी आबादी यहां भी नुमाइश की चीज बनी रहेगी.

विवाह में अपनी पसंद देखें, आयु का बंधन नहीं

मानव जाति के विकास के क्रम में नर ने मादा को सदैव अपने बाहुबल के भीतर रखा. परिवारों की संरचना के बाद और धर्म की उत्पत्ति के बाद स्त्री को अपना घर छोड़ कर पुरुष ने उसे अपने घर पर आ कर रहने के लिए मजबूर किया. विवाह द्वारा स्त्री पर आधिपत्य जमाया. सदियों तक और कुछ क्षेत्रों में तो आज भी उस को शिक्षा से दूर रख कर चूल्हेचौके व घर के कामों में ही फंसा कर रखा. स्त्री की देह, उस का मस्तिष्क पुरुष के काबू में रहे, इसलिए शादी के लिए पुरुष से कम उम्र की स्त्री का विधान धर्म द्वारा किया गया. यह पूरी दुनिया में हुआ.

स्त्री उम्र में कम होगी तो उस को साधना आसान होगा. उम्र में छोटी स्त्री को उस को आदेश देना, मारनापीटना, गाली देना, दुत्कारना, बलपूर्वक संसर्ग करने आदि में कोई झिझक पुरुष को नहीं होती है. अपने पुरुष से उम्र में वह जितनी छोटी होगी उतना ही दब कर रहेगी. हर आज्ञा का पालन करेगी और अपनी राय कभी नहीं देगी. सदियों से ऐसा ही चलता आ रहा है. मुसलिम और बंगाली समाज में तो अपने से आधी उम्र की लड़कियों से शादी करने में कोई हिचक नहीं है.

यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में अधिकांश औरतें जवानी की दहलीज पर पहुंचतेपहुंचते विधवा हो जाती थीं. बंगाल में विधवाओं की संख्या और पति के मरने के बाद परिवार द्वारा उन को दुत्कारने पर उन की दयनीय दशा चैतन्य महाप्रभु से देखी नहीं गई तो उन्होंने बंगाल की विधवाओं को वृंदावन का रास्ता दिखाया था. वृंदावन में उन्होंने विधवा स्त्रियों के रहने और खानेपीने का इंतजाम करवाया. मंदिरों में उन की सेवा के बदले उन के लिए अनाज की व्यवस्था शहर के कुलीन बनियों और ब्राह्मणों से करवाई.

स्त्री अगर शादी के वक्त पुरुष की ही उम्र की हो तो दोनों की मौत लगभग आसपास ही हो. उम्र के सफर में दोनों साथसाथ दूर तक चलें. समान उम्र के लोग एकदूसरे की शारीरिक परेशानियों को भी अच्छी तरह समझ सकते हैं. बुढ़ापे में एकदूसरे का सहारा बन सकते हैं. यदि उम्र समान हो तो दोनों में से कोई एक लंबे समय तक एकाकी जीवन जीने को मजबूर न हो. मगर स्त्री पर राज करने की मंशा ने पुरुष को इतनी दूर तक कभी सोचने ही नहीं दिया.

पिछले 50 सालों में घरेलू हिंसा के इतने अधिक मामले इसीलिए सामने आने शुरू हुए, क्योंकि स्त्रियां जब थोड़ाबहुत पढ़नेलिखने लगीं तो उन्होंने अपने साथ घर की चारदीवारी में होने वाली हिंसक घटनाओं को बताना शुरू किया. तब मामले अदालतों में भी आए मगर आज भी बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियां घरेलू हिंसा का शिकार होने के बाद भी चुप रह जाती हैं.

घरेलू हिंसा के मामले समाज में इसलिए इतने ज्यादा हैं क्योंकि खुद से उम्र में छोटी पत्नी पर हाथ उठाने में न पति को सोचना पड़ता है न उस के परिजनों को. यह बिलकुल वैसा ही है जैसे हम अपने से छोटे भाईबहनों पर कभी भी हाथ साफ कर लेते हैं, कभी भी उन पर गुस्सा उतार लेते हैं. मगर जब रिश्ता पतिपत्नी का हो जहां प्रेम और देह शामिल हो तो वहां मारपीट, गालीगलौज रिश्ते में जहर ही घोलते हैं.

शादी के समय लड़की के मन में बहुत सारे सपने होते हैं. वह होने वाले पति के प्रेम में डूब-उतरा रही होती है. शादी के बाद शारीरिक संबंध इस प्रेम को और प्रगाढ़ करता है, मगर जहां उस ने पति से पहला थप्पड़ या गाली खाई, सारा प्रेम एक झटके में मर जाता है और उस के बाद पूरी जवानी पुरुष एक जीवित लाश के साथ ही सहवास करता है. फिर वहां न प्रेम होता है, न समर्पण, न आदरसम्मान, वहां होती है सिर्फ आर्थिक मजबूरी जिस के कारण पत्नी अपने क्रूर पति का घर छोड़ कर नहीं जा पाती है. और यदि इस बीच दोतीन बच्चे हो गए तो उन की परवरिश की चिंता उस के पैरों में जंजीर बांध देती है. फिर वह अपना पूरा जीवन एक नौकरानी के समान काटती है.

हालांकि आज औरतों की शिक्षा ने समाज के रवैए को काफीकुछ बदलना शुरू कर दिया है. वास्तविक रूप से शिक्षित पुरुषों ने उम्र में छोटी स्त्री से विवाह के कौन्सैप्ट को नकारा है. सही मानो में शिक्षित पुरुष प्रेम को ही शादी का आधार मानता है. वह अपनी पत्नी को बराबरी का दर्जा और सम्मान देता है. उस के सम्मुख पत्नी की उम्र कोई माने नहीं रखती है. गांधीजी इस का बड़ा उदाहरण हैं. वे उन से उम्र में बड़ी थीं. राधा-कृष्ण के प्रेम को कौन नहीं जानता. कृष्ण ने विवाह चाहे अन्यत्र किया मगर जग में उन का नाम राधा के नाम से ही जुड़ा रहा. राधा भी उम्र में कृष्ण से बड़ी थीं. हाल ही में मुकेश अंबानी के पुत्र अनंत अंबानी की शादी काफी चर्चा में रही. इस भव्य शादी के साथ ही इस विषय पर एक बार फिर मंथन शुरू हुआ कि बराबर की उम्र या पुरुष से उम्र में बड़ी स्त्री के साथ विवाह करना क्या वैवाहिक जीवन को सफल, प्रेममय, मजबूत और लंबा बनाता है?

बता दें कि अनंत अंबानी की होने वाली पत्नी राधिका मर्चेंट उम्र में अनंत से बड़ी हैं. अंबानी परिवार में कई स्त्रियां अपने पतियों से उम्र में बड़ी हैं. सभी स्त्रियां उच्चशिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत हैं. उन के वैवाहिक संबंध काफी सुखद और मजबूत हैं. राधिका और अनंत ने कालेज में साथ पढ़ाई की है मगर राधिका की डेट औफ बर्थ जहां 18 दिसंबर, 1994 है वहीं अनंत की 10 अप्रैल, 1995 है. यानी, राधिका अपने पति से 4 माह बड़ी हैं.

इसी परिवार में मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी की पत्नी टीना अंबानी भी अपने पति से उम्र में करीब 2 साल बड़ी हैं. टीना की डेट औफ बर्थ जहां 11 फरवरी, 1957 है वहीं अनिल की 4 जून, 1959 है. मुकेश अंबानी के बड़े बेटे आकाश की पत्नी श्लोका मेहता भी अपने पति आकाश से उम्र में एक साल बड़ी हैं. आकाश अंबानी की डेट औफ बर्थ 23 अक्टूबर, 1991 है, वहीं श्लोका मेहता का जन्म 11 जुलाई, 1990 को हुआ था.

फिल्म इंडस्ट्री में तो कम उम्र की पत्नी के कौन्सैप्ट को काफी पहले ही नकार दिया था. पढ़ीलिखी और आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी अनेक अभिनेत्रियों ने अपने से कम उम्र के पुरुषों के साथ शादियां कीं. ऐसे संबंध पुरुष का स्टेटस, धनदौलत, परिवार और समाज में उन की हैसियत के आधार पर नहीं, बल्कि प्रेम के आधार पर हुए और बहुत अच्छे चले भी. नरगिस दत्त अपने पति सुनील दत्त से उम्र में लगभग समान थीं. नरगिस सुनील दत्त से 5 दिन बड़ी थीं. दोनों के बीच इतनी मोहब्बत थी कि नरगिस की मृत्यु के बाद सुनील दत्त लगभग टूट से गए थे. अगर नरगिस को कैंसर न होता तो यह जोड़ी लंबे समय तक साथ रहती. समान उम्र के कारण दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह समझते थे, एकदूसरे का सम्मान करते थे और बेहद प्रेम करते थे.

अपने समय की मशहूर अदाकारा शर्मीला टैगोर की बेटी सोहा अली खान अपने पति कुणाल खेमू से 4 साल बड़ी हैं. वहीं नम्रता शिरोडकर अपने पति महेश बाबू से 2 साल बड़ी हैं. नम्रता 48 तो महेश 46 साल के हैं. अभिनेत्री बिपाशा बसु अपने पति करण सिंह ग्रोवर से उम्र में 6 साल बड़ी हैं. वहीं प्रियंका चोपड़ा अपने पति निक जोनस से 10 साल बड़ी हैं. ऐश्वर्या राय जहां अपने पति अभिषेक बच्चन से 2 साल बड़ी हैं, वहीं मास्टरब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की पत्नी अंजलि से उम्र में 5 साल बड़ी हैं. इन सभी हस्तियों की शादियां बहुत सुखद तरीके से चल रही हैं.

ऐसी शादियों की लंबी फेहरिस्त है. विराट कोहली-अनुष्का शर्मा, अर्चना पूरन सिंह-परमीत सेठी, सनाया ईरानी- मोहित सहगल, प्रिंस नरुला-युविका चौधरी, नेहा धूपिया-अंगद बेदी, किश्वर मर्चेंट-सुयश राय जैसे स्टार कपल की लंबी लिस्ट तैयार हो जाएगी. ये कपल्स उस सोच को चुनौती देते दिखते हैं कि हैपी मैरिड लाइफ के लिए लड़के का उम्र में बड़ा होना ही बेहतर होता है. चाहे यूरोप हो या फिर यूएसए या फिर कोरिया और भारत, सदियों तक हर जगह शादीशुदा लड़कों का लड़की से उम्र में बड़ा होना आदर्श स्थिति मानी जाती रही, लेकिन अब समय के साथ इस में बदलाव देखने को मिल रहा है.

अब जब महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत हो रही हैं और अपने साथी को चुनने के लिए खुद पहल कर रही हैं, तो उस में उम्र के तय पैमाने उलटे होते दिख रहे हैं. यदि आने वाले समय में स्त्रियां अपने से छोटी उम्र के लड़कों से शादियां करती हैं तो आश्चर्यजनक रूप से घरेलू हिंसा के मामलों में कमी आएगी. इस के अलावा दहेज के मामले भी घटेंगे. पुरुषों की उद्दंडता कम होगी. अपने से उम्र में बड़ी पत्नी के साथ ऊंची आवाज में बात करने में भी वे झिझकेंगे.

उम्र में बड़ी महिला से शादी करने से पुरुषों को भी कई फायदे होते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि उम्र के बढ़ने के साथसाथ व्यक्ति का मैच्योरिटी लैवल भी बढ़ता जाता है. उम्र में बड़ी पत्नी में भी यह खूबी देखने को मिलती है. वह न सिर्फ ज्यादा धैर्यवान होती है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी अधिक मजबूत नजर आती है. ऐसे में अगर कभी उम्र में छोटा पति किसी तरह की परेशानी से गुजरता है तो वह उसे ज्यादा संबल व काम की सलाह दे पाती हैं. उम्र में बड़ी पत्नी अपने पति के लिए ज्यादा प्रोटैक्टिव होती है. वह हर बुरे समय में उस के लिए ढाल का काम करती है. जबकि, उम्र में छोटी पत्नी अकसर तानेउलाहने दे कर पति को और परेशान कर देती है.

ज्यादातर महिलाएं अपनी मां से घर को संभालने का गुण टीनएज में ही सीखना शुरू कर देती हैं. यह उन्हें शादी के बाद अपने नए परिवार की चीजों को बजट में मैनेज करने में मदद करता है. महिला की उम्र बड़ी हो, तो जाहिर सी बात है कि उस की पकड़ भी इस पर ज्यादा होगी.

वहीं अगर पत्नी वर्किंग है, तब तो पति को और भी फायदा है, क्योंकि वह न सिर्फ अपने बल्कि पति के पैसों को भी ठीक से मैनेज करने में मदद कर सकती है. उस की सलाहें उस के अनुभव पर आधारित होंगी, जो सेविंग बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकती हैं.

ऐसा नहीं है कि पत्नी उम्र में बड़ी हो तो उस में रोमांस की कमी आ जाती है, बल्कि होता यह है कि वह यंग लड़कियों की तरह फिल्मी एक्सपेक्टेशन्स रखने की जगह अपने साथी से वास्तविक अपेक्षाएं रखती हैं. वह समझती हैं कि प्यार जाहिर करने के लिए आप को अपनी जेब खाली करने की जरूरत नहीं है. वह जानती हैं कि गुलाब का फूल और मूवी नाइट डेट भी क्वालिटी कपल टाइम होता है, जिस में दोनों साथी प्यार के साथ इन्वौल्व होते हैं, वह भी स्पैशल एंड रोमांटिक टाइम ही होता है. यहां तक कि ऐसी महिलाएं अपनी भावनाएं जाहिर करने में भी ज्यादा बिंदास होती हैं, ऐसे में मेल पार्टनर को यह सोचना नहीं पड़ता कि उस की साथी क्या सोच रही है.

मैच्योरिटी लैवल ज्यादा होने के कारण ऐसी पत्नियां अपनी ससुराल से जुड़ी चीजों को भी बेहतर तरीके से हैंडल करती हैं. वे पहले से ही भावनात्मक रूप से स्थिर होती हैं, जिस से वे छोटीछोटी बात पर ट्रिगर नहीं होतीं और अपनी मानसिक शांति पर इस का असर नहीं होने देतीं. अगर बच्चे हों तो वे उन्हें भी ज्यादा बेहतर तरीके से संभाल पाती हैं. क्योंकि बच्चों को पालने के लिए धैर्य की जरूरत होती है और यह चीज बड़ी उम्र की फीमेल में ज्यादा देखने को मिलती है.

पति उम्र में छोटा हो तो उस को रिझाए रखने के लिए पत्नियां अपनी लुक और फिगर के प्रति काफी ज्यादा ध्यान देती हैं. वे अपना वेट नहीं बढ़ने देतीं कि कहीं लोग उन की जोड़ी को देख कर भद्दे कमैंट न करने लगें. जबकि, देखा जाता है कि पति से कम उम्र की बहुतेरी पत्नियां शादी और बच्चों के बाद फूल कर मोटी व भद्दे फिगर की हो जाती हैं.

बड़ी उम्र की लड़कियां पत्नी कम, दोस्त ज्यादा बनती हैं और लंबे समय तक वही रिश्ते अच्छे चलते हैं जहां 2 लोगों के मध्य दोस्ती ज्यादा हो. दोस्ती होगी तो डिमांड कम और दूसरे को सुख देने की चाह अधिक होगी. यही सच्चा प्यार और समर्पण है. बड़ी उम्र की लड़कियां रिश्तों के प्रति ईमानदार और वफादार होती हैं. वे रिश्तों को जोड़े रखने में विश्वास करती हैं, न कि छोटीछोटी सी बात पर रिश्ते खत्म करने की सोचती हैं.

पति के न रहने पर ससुराल वालों ने बहुत बुरा किया, क्या करूं?

सवाल

मैं 28 वर्षीय विधवा हूं. मेरे पति वायुसेना में थे. वायुसेना विभाग द्वारा मुझे कोई नौकरी नहीं दी गई. मेरी एक लड़की है जिस की परवरिश का मेरे पति ने पहले ही इंतजाम कर दिया था. सो, वह मुझ पर बोझ नहीं है. पति के न रहने पर ससुराल वालों ने बहुत बुरा व्यवहार किया. इस कारण मैं अकेली रहने लगी हूं. मैं बीए, बीएड हूं और एक प्राइवेट संस्था में कार्य करती हूं. अब मैं इंटरनैट पर वैडिंग वैबसाइट पर वैवाहिक विज्ञापनों के माध्यम से फिर शादी करना चाहती हूं. लेकिन डर लगता है कि कहीं गलती न हो जाए.

जवाब

सुशिक्षित व कामकाजी महिला होने के नाते आप को लोगों को भलीभांति समझने का पर्याप्त अनुभव होगा. इसलिए अपने मन से डर निकाल कर जीवन को खुशहाल बनाएं. विज्ञापन के माध्यम से जीवनसाथी ढूंढ़ने में आप को संकोच नहीं करना चाहिए. शादी आपसी सहयोग, सद्भाव, समान रुचियों और दृष्टिकोणों पर निर्भर करती है. सो, शादी तय करने से पहले जीवनसाथी व उस के परिवार की सभी बातों की भलीभांति जांचपड़ताल कर लीजिए. इस से आप की सभी शंकाओं का समाधान हो जाएगा. यह काम आप के परिवार के किसी बुजुर्ग को ही करना चाहिए. आप स्वयं करेंगी तो कठिनाई हो सकती है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

जज्बात के लुटेरे : इन दिलफेंक आशिकों से रहें सावधान

  • ये दिखने में हैंडसम और लड़कियों को अपने जाल में फंसाने में माहिर होते हैं.
  • ये बात-बात पर लड़कियों की तारीफ करते नहीं थकते.
  • प्रेम पहल के शुरुआती दिनों में ये उन्हें महंगे तोहफे देने में भी कमाल करते हैं.

आखिर किसी किसी युवा लड़की को और क्या चाहिए ?  जाहिर है ये लड़कियों के फेवरेट होते हैं.हर लड़की अपने पार्टनर के रूप में किसी ऐसे को ही देखना चाहती हैं.इसलिए लड़कियां इनसे दो-तीन बार मिलते ही इन्हें मन ही मन अपना पर्फेक्ट मैच मान लेती हैं .मगर जरा रुकिए,क्या आप जानती हैं,प्रेम के मसीहा दिखने वाले ये जनाब कौन हैं? जी,हां ये दिलफेंक आशिक हैं.यह सही है कि एक नहीं बल्कि दर्जनों  रिसर्च इस बात की तस्दीक करती हैं कि लड़कियों को अकसर दिलफेंक आशिक ही भाते हैं.फिर भी जाल में फंसाने से पहले एक बार हकीकत जान लेनी चाहिए. दरअसल स्कूल में, कौलेज में यहां तक कि औफिसों में भी युवतियां ऐसे ही मर्दों को अपने जीवन में घुसने की अनुमति देती हैं.क्योंकि उन्हें लगता है आशिकी करना तो बस यही जानता है.

असल में लड़कियां स्कूल या कालेज के दिनों से ऐसे लड़के की चाह रखती हैं,जिसे हर कोई पसंद करे.जिसका हर कोई दीवाना हो.वह बातें करे तो जादू बिखरे. दिलफेंक आशिक इन सब चीजों में पीएचडी होते हैं.ये अपने कारियर को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित नहीं होते. इनका सारा ध्यान इस बात पर होता है कि कहीं उनके जीवन में लड़कियां कम न हो जाएं. ये अपने लुक का फायदा उठाना जानते हैं. जिस लड़की का कोई लव इतिहास न रहा हो उसे भी अपने वश में करना जानते हैं.लेकिन हकीकत यह है कि ये एक समय के बाद लड़कियों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं.जिंदगी बर्बाद हो जाने के बाद ही उन्हें क्या पता चलता है कि वह तो धोखेबाज था.

सवाल है क्या हमें दूसरों की ठोकर से सीखने की छूट नहीं है या हमें जानबूझकर आग में हाथ डालने का शौक है? आप क्यों ऐसे व्यक्ति को बदलने की चाहत रखती हैं जो पहले से ही फ्लर्टी है? असल में लड़कियां भ्रामक दुनिया में जीना ज्यादा पसंद करती हैं.उन्हें लगता है कि वह जिसकी भी जिंदगी में जायेंगी, उसकी जिंदगी बदल देंगी.उसे बदल देंगी.इसमें कोई दो राय नहीं है कि लड़कियां हमेशा प्यार से भरी होती हैं. वे चाहे तो पत्थर को भी मोम बना सकती हैं.लेकिन जानबूझकर कुल्हाड़ी को उठाकर पैर पर मारना समझदारी नहीं बेवकूफी है.लड़कियां हमेशा सुरक्षा की चाह रखती हैं.लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लड़कियां कमजोर हैं या फिर वे अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं ?

वास्तव में युवतियां आमतौर पर भावनात्मक धोखेबाजी का शिकार आसानी से होती हैं.तमाम आंकड़े चीख चीखकर बताते हैं कि ज्यादातर बलात्कारी परिचित होते हैं.साफ़ है कि लड़कियां हर किसी पर आंख मूंदकर भरोसा कर लेती हैं.दिलफेंक आशिक इसी बात का फायदा उठाते हैं.ये जुमलों के शहंशाह होते हैं.ठहरी हुई आवाज में कहते हैं, ‘लड़कियां तो जीवन में बहुत आयीं,लेकिन मैं एक ऐसी लड़की का इंतजार कर रहा था जो मेरी लाइफ में ठहराव ला सके. मुझे बदल सके.अब मुझे लगता है कि मेरी ये तलाश खत्म हो गयी है.’ इस तरह की भावुक बातें अकसर लड़कियों को सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं.मगर जिस दिन कोई लड़की हमेशा के लिए उसकी जिंदगी में आ जाती है,उसी दिन से उसकी बाइक की पीछे वाली सीट किसी और की तलाश में जुट जाती है.

यकीन मानिए इस लेक्चर का यह मतलब नहीं है कि आप किसी को प्यार न करें ? इस लेख का मतलब यह भी नहीं है कि हर लड़के पर अविश्वाश करें ? आप पूंछेंगी फिर मैं कहना क्या चाहता हूं ? सिर्फ ये कि ऐसे प्रेमियों से सावधान रहें-

  • जो आपको सिर्फ फिल्म दिखाने,पार्क में घुमाने, पार्टियों में ले जाने को ही तरजीह देता है.
  • जो बात बात पर तारीफ करता हो.
  • जो बिना किसी मौके के तोहफे देने की कोशिश करता हो.
  • जो आपके मम्मी पापा से वक्त आने पर मिलने की बात करता हो अभी और इसी पल नहीं.
  • जो आपको अपने मम्मी–पापा से मिलवाने के लिए भी सही वक्त का इन्तजार कर रहा हो.
  • जो सार्वजनिक जगहों में आपके साथ दिखने से बचता हो.

क्योंकि ये सच्चा प्रेमी नहीं जाल में फांसने वाला दिलफेंक आशिक है जो आपको पाने के बाद आपका नहीं रहेगा.हजार वाजिब बहाने निकाल लेगा.इसलिए जिसे अपने आपको सौंपना चाहती हैं,पहले उसे जांच लें, परख लें. यही सही है कि प्यार अंधा होता है.आप किसी को सोच समझकर प्यार नहीं कर सकते और न ही प्यार के पीछे गणित का इस्तेमाल किया जा सकता है.मगर व्यवहारिक जीवन हमें यही सिखाता है कि प्यार पर विश्वास करें, लेकिन उसे भी जांच पड़ताल करें. कभी कभार अपने प्रेम को भी क्रास चेक करना चाहिए ताकि आपको इस बात की पुष्टि हो जाए कि जिसे आपने चुना है, वह आपका असली हमसफर है. और हां, क्रासचेक के दौरान किसी तरह के अपराधबोध में न आएं.

विशेष

अमरीका में जॉर्जिया के सवाना में स्थित साउथ यूनिवर्सिटी ने सच्चे और झूठे आशिकों के कुछ स्वभाव चिन्हित किये हैं जो इस प्रकार हैं-

1-सच्चे प्रेमी का जीवन परफेक्ट 10 नहीं होता यानी उसमें सब बातें आदर्शपूर्ण ही नहीं होती.कुछ समस्याएं या कमियाँ भी होती हैं.झूठे दिलफेंक आशिक का जीवन परफेक्ट 10 होता है.सब कुछ अच्छा और आदर्शपूर्ण.

2-सच्चा प्रेमी आपको अपना निजी स्पेस देता है.दिलफेंक आपको सांस लेने के लिए भी स्पेस नहीं देता.जबर्दस्त औब्सेशन प्रदर्शित करता है.

3-सच्चा प्रेमी दयालु और झूंठा बेहद क्रूर होता है.यह बेहद शौर्ट टेम्पर्ड भी होता है.

4-सच्चा प्रेमी सिर्फ अपने प्रेम के साथ ही नहीं पूरी दुनिया के प्रति बेहद विनम्र होता है जबकि झूंठा या दिलफेंक प्रेमी अपने प्रेम के लिए झूंठमूंठ की विनम्रता प्रदर्शित करता है.बाकी दुनिया के लिए वह बहुत घमंडी होता है.सच्चाई यह है कि वह किसी के लिए विनम्र नहीं होता.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें