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प्रेग्नेंसी में मिसकैरेज से बचने के लिए इन बातों का रखें ध्यान

प्रेग्नेंसी के वक्त आपको बेहद सावधानी बरतनी होती है. इसमें आपका खानपान, दिनचर्या और मानसिक अशांति शामिल है. हालिया अध्ययन में ये बात सामने आई कि प्रेग्नेंसी के दौरान ज्यादा तनाव में रहने वाली महिलाओं में मिसकैरेज (Miscarriage) का खतरा बढ़ जाता है.

शोधकर्ताओं का दावा है कि प्रेग्नेंसी के दौरान तनाव में रहने वाली महिलाओं में गर्भपात का खतरा 42 फीसदी अधिक हो जाता है. इससे पहले हुए अध्ययन की रिपोर्ट में यह पाया गया था कि 24 सप्ताह की प्रेग्नेंसी में होने वाले गर्भपात में 20 फीसदी मामले तनाव के कारण होते हैं. हालांकि बाद में हुए अध्ययन के बाद यह पाया गया कि आंकड़ें इससे कहीं ज्यादा हैं. क्योंकि गर्भपात के कई मामले दर्ज ही नहीं होते.

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इसके अलावा रिपोर्ट में ये बात भी सामने आई कि युवावस्था से ही तनाव और अवसाद का सामना करने वाले लोगों को आगे जीवन में कई तरह की बीमारियों का खतरा तेज हो जाता है.

जानिए कैसे करें प्रेग्नेंसी में तनाव पर काबू

  • घर का ज्यादा काम ना करें. कोशिश करें कि अपने लिए कुछ खास वक्त निकालें. खाली वक्त में आप किताबें पढ़ सकती हैं या आराम कर सकती हैं.
  • रात में जल्दी सोने की आदत डाल लें. आपके बच्चे के लिए ये बेहद जरूरी है.
  • दूसरों की बातों का बुरा ना माने. इस दौरान अगर लोग आपको कुछ कहते भी हैं तो उन्हें अनसुना कर दिया करें.

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  • अगर आप कामगर महिला हैं तो औफिस से छुट्टी लें और घर पर आराम कर अपना वक्त बिताएं.
  • स्वीमिंग या वौक नियमित तौर पर करें.
  • हेल्दी खाएं, संतुलित आहार आपके शरीर और मानसिक सेहत दोनों को ठीक रखेगा.
  • अगर आप कोई काम नहीं करना चाहती तो मना करना सीखें. टेंशन ले कर किसी काम को करना आपके और आपके बच्चे के लिए खतरनाक हो सकता है.
  • लाख कोशिशों के बाद भी आप तनाव से दूर नहीं हो पा रही हैं तो बेहतर है कि आप किसी डाक्टर या थेरेपिस्ट से संपर्क करें.

edited by- Shubham

ऐसे ही सही

पूर्व कथा

पार्किंग में स्कूटर खड़ा कर के मैं अस्पताल के पूछताछ केंद्र की ओर गया. पूछने पर पता चला कि जिस व्यक्ति को मैं ने कल भरती करवाया था. वह आईसीयू में शिफ्ट हो गया है. वहां पहुंच कर मैं ने देखा कि उस की पत्नी मायूस बैठी थी. मुझे देख वह रोने लगी और बोली कि डाक्टर ने बोला है कि पति की स्पाइनल कौर्ड में गहरी चोट लगी है. कहना मुश्किल है कि ठीक हो भी पाएंगे या नहीं.

मैं बीमा एजेंट हूं. आफिस जाते समय एक एक्सीडेंट हो गया था. मैं उसे घायल अवस्था में नर्सिंग होम ले आया. उस की जेब टटोली तो घरआफिस का पता व फोन नंबर मिला और मैं ने उन की पत्नी को सूचित कर दिया. पत्नी के आने पर जब मैं ने जाने की इजाजत मांगी तो वह मुझ से गाड़ी का इंश्योरेंस क्लेम करने को कहने लगी.

सब काम निबटा कर मैं घर पहुंचा तो पत्नी संगीता के ताने मेरे कानों में पड़े. संगीता स्वभाव की तेज थी. मैं ने उस के साथ तालमेल बिठाने की बहुत कोशिश की लेकिन शादी के 4 साल बाद भी उस पर से मायके का रंग नहीं उतरा था. रोजरोज की लड़ाई से मैं परेशान हो चुका था.

एक दिन मैं शर्माजी से मिलने अस्पताल पहुंचा तो उन की बदतर हालत देख कर बड़ा दुख हुआ. इसी बीच मेरे संबंध भी संगीता के साथ बदतर होते चले गए. अपने बड़े साहब के काम के सिलसिले में मुझे राजपत्रित अधिकारी के हस्ताक्षर की जरूरत थी तो मुझे शर्मा का ध्यान आया और मैं जा पहुंचा उन के पास. और अब आगे…

एक्सीडेंट में घायल पति की तीमारदारी करते हुए सपना ने घरबाहर की जिम्मेदारियां संभाल ली थीं. उस के इस योगदान पर खुश होने के  बजाय उस का पति सपना को शक की निगाहों से देखने लगा. पढि़ए, डा. पंकज धवन की कहानी.

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

‘‘सर, आप किसी को तो जानते होंगे. शायद आप का कोई कुलीग या…’’ तब तक सपनाजी भीतर से आ गईं और कहने लगीं, ‘‘मैं कुछ दिनों से आप को बहुत याद कर रही थी. मेरे पास आप का कोई नंबर तो था नहीं. दरअसल, इन की गाड़ी तो पूरी तरह से खराब हो चुकी है. यदि वह ठीक हो सके तो मैं भी गाड़ी चलाना सीख लूं. आखिर, अब सब काम तो मुझे ही करने पडे़ंगे. यदि आप किसी मैकेनिक से कह कर इन की गाड़ी चलाने लायक बनवा सकें तो मुझे बहुत खुशी होगी.’’

‘‘क्या आप के पास गाड़ी के इंश्योरेंस पेपर हैं?’’ मैं ने पूछा तो उन्होंने सारे कागज मेरे सामने रख दिए. मैं ने एकएक कर के सब को ध्यान से देखा फिर कहा, ‘‘मैडम, इस गाड़ी का तो आप को क्लेम भी मिल सकता है. मैं आप को कुछ और फार्म दे रहा हूं. शर्माजी से इन पर हस्ताक्षर करवा दीजिए, तब तक मैं गाड़ी को किसी वर्कशाप में ले जाने का बंदोबस्त करता हूं.’’

इस दौरान शर्माजी पासपोर्ट के फार्म को ध्यान से देखते रहे. मेरी ओर देख कर वह बोले, ‘‘वैसे यह फार्म अधूरा भरा हुआ है. पिछले पेज पर एक साइन बाकी है और इस के साथ पते का प्रूफ भी नहीं. किस ने भरा है यह फार्म?’’

‘‘सर, एक ट्रेवल एजेंट से भरवाया है. वह इन कामों में माहिर है.’’

‘‘कोई फीस भी दी है?’’ उन्होंने फार्म पर नजर डालते हुए पूछा.

‘‘500 रुपए और इसे भेजेगा भी वही,’’ मैं ने कहा.

‘‘500 रुपए?’’ वह आश्चर्य से बोले, ‘‘आप लोग पढ़ेलिखे हो कर भी एजेंटों के चक्कर में फंस जाते हैं. इस के तो केवल 50 रुपए स्पीडपोस्ट से खर्च होंगे. आप को क्या लगता है वह पासपोर्ट आफिस जा कर कुछ करेगा? इस से तो मुझे 300 रुपए दो मैं दिन में कई फार्म भर दूं.’’

मेरे दिमाग में यह आइडिया घर कर गया. यदि इस प्रकार के फार्म शर्माजी भर सकें तो उन की अतिरिक्त आय के साथसाथ व्यस्त रहने का बहाना भी मिल जाएगा. आज कई ऐसे महत्त्वपूर्ण काम हैं जो इन फार्मों पर ही टिके होते हैं. नए कनेक्शन, बैंकों से लोन, नए खाते खुलवाना, प्रार्थनापत्र, टेलीफोन और मोबाइल आदि के प्रार्थनापत्र यदि पूरे और प्रभावशाली ढंग से लिखे हों तो कई काम बन सकते हैं. मुझे खामोश और चिंतामग्न देख कर वह बोले, ‘‘अच्छा, आप परेशान मत होइए…मैं अपने एक कलीग मदन नागपाल को फोन कर देता हूं. आप का काम हो जाएगा. अब तो आप खुश हैं न.’’

मैं ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रहा था कि यदि आप फार्म भरने का काम कर सकें तो…’’ इतना कह कर मैं ने अपने मन की बात उन्हें समझाई. सपनाजी भी पास बैठी हुई थीं. वह उछल कर बोलीं, ‘‘यह तो काफी ठीक रहेगा. इन का दिल भी लगा रहेगा और अतिरिक्त आय के स्रोत भी.’’

इतना सुनना था कि शर्माजी अपनी पत्नी पर फट पडे़, ‘‘तो क्या मैं इन कामों के लिए ही रह गया हूं. एक अपाहिज व्यक्ति से तुम लोग यह काम कराओगे.’’

मैं एकदम सहम गया. पता नहीं कब कौन सी बात शर्माजी को चुभ जाए.

‘‘आप अपनेआप को अपाहिज क्यों समझ रहे हैं. ये ठीक ही तो कह रहे हैं. आप ही तो कहते थे कि घर बैठा परेशान हो जाता हूं. जब आप स्वयं को व्यस्त रखेंगे तो सबकुछ ठीक हो जाएगा,’’ फिर मेरी तरफ देखते हुए सपनाजी बोलीं, ‘‘आप इन के लिए काम ढूंढि़ए. एक पढ़ेलिखे राजपत्रित अधिकारी के विचारों में और कलम में दम तो होता ही है.’’

सपनाजी जैसे ही खामोश हुईं, मैं वहां से उठ गया. मैं तो वहां से उठने का बहाना ढूंढ़ ही रहा था. वह मुझे गेट तक छोड़ने आईं.

हमारे बडे़ साहब के परिवार के पासपोर्ट बन कर आ गए. वह मेरे इस काम से बहुत खुश हुए. उन के बच्चों की छुट्टियां नजदीक आ रही थीं. उन्होंने मुझे वह पासपोर्ट दे कर वीजा लगवाने के लिए कहा. मैं इस बारे में सिर्फ इतना जानता था कि वीजा लगवाने के लिए संबंधित दूतावास में व्यक्तिगत रूप से जाना पड़ता है. उन को तो मीटिंग से फुरसत नहीं थी इसलिए अपनी कार दे कर पत्नी और बच्चों को ले जाने को कहा.

अगले दिन सुबह ही मैं उन की पत्नी और उन की 20 साल की बेटी को ले कर जाने लगा. उसी समय मुझे अचानक याद आ गया कि उन की फोटो मैं घर से लाना भूल गया जो कल रात ही मैं ने बनवाई थी. मैं जैसे ही घर पहुंचा तो संगीता ने पूछा, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे आ गए…मुझ पर तरस आ गया क्या?’’

मैं कुछ नहीं बोला और अपनी अलमारी से फोटो निकाल कर चला गया. उत्सुकतावश वह भी मेरे पीछेपीछे बाहर आ गई. मेरे कार में बैठने से पहले ही पूछने लगी, ‘‘कौन हैं और इस समय इन के साथ कहां जा रहे हो? कार कहां से मिल गई?’’

‘‘यह हमारे साहब की पत्नी हैं और पीछे उन की बेटी बैठी है. मैं इन के ही काम से जा रहा हूं.’’

‘‘ऐसा तो मैं ने पहले कभी नहीं सुना कि साहब अपनी खूबसूरत पत्नी और बेटी को कार सहित तुम्हारे साथ भेज दें. कहीं कुछ तो है. शक तो मुझे पहले से ही था. तुम ने सोचा घर पर मैं नहीं होऊंगी तो यहीं रंगरलियां मना ली जाएं और अगर मिल गई तो साहब का बहाना बना देंगे.’’

उन के सामने ऐसी बातें सुन कर मैं बेहद परेशान हो गया और शर्मिंदा भी. मैं ने बहुत कोशिश की कि वह  चुप हो जाए पर उसे तो जैसे लड़ने का नया बहाना मिल गया था. साहब की पत्नी भी संगीता को लगातार समझाने का प्रयत्न करती रहीं. मुझे ऐसी बेइज्जती महसूस हुई कि मेरी आंखों में आंसू आ गए. मेरे लिए वहां खड़ा हो पाना अब बेहद मुश्किल हो गया. मैं जैसे ही कार में बैठा तो वह अपनी चिरपरिचित तीखी आवाज में बोली, ‘‘मैं अब इस घर में एक मिनट भी नहीं रहूंगी.’’

शाम को मैं जल्दी घर आ गया और जो होना चाहिए था वही हुआ. संगीता की मां और बहन बैठी मेरा इंतजार कर रही थीं. मैं उन्हें इस समय वहां देख कर चौंक गया पर खामोश रहा. अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का विरोध करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी क्योंकि मेरे विरोध करने का मतलब उन तीनों की तीखी और आक्रामक आवाज से अपने ही महल्ले में जलील होना.

‘‘मैं अपना हक लेना जानती हूं और कभी यहां वापस नहीं लौटूंगी,’’ कह कर वे तीनों वहां से चली गईं. सारा सामान वे ले गईं. स्त्रीधन और सारा सामान उस के हिस्से आया और मानसिक पीड़ा मेरे हिस्से में. अब मेरे लिए वहां रुकने का कोई प्रयोजन नहीं था. उसी शाम अपनी जरूरत भर की वस्तुओं को ले कर मैं अपने मातापिता के यहां आ गया.

मुझे इस वेदना से उभरने में काफी समय लग गया. इन्हीं दिनों 2-3 बार सपना के फोन आए थे जो मैं ने व्यस्त होने का बहाना बना कर टाल दिए.

अपने को व्यस्त रखने के लिए मैं ने सब से पहला काम शर्माजी का विज्ञापन स्थानीय अखबार में दे दिया. पासपोर्ट से ले कर सभी सुविधाओं का विवरण था. एलआईसी का एजेंट  होने के नाते मुझे दिन में 2 घंटे ही आफिस जाना होता था.

इस विज्ञापन के प्रकाशित होते ही मेरे पास आशाओं से अधिक फोन आने लग गए. मैं बहुत उत्साहित था. लोग अपनी समस्याओं को सुनाते और मैं उस से संबंधित पेपर ले कर शाम को शर्माजी के पास पहुंच जाता. इस प्रकार हफ्ते में 2 बार जा कर अपना काम सौंप कर पुराना काम ले आता.

दिन बीतते गए. मैं जब भी घर पहुंचता, सपनाजी अपनी कई बातें मुझ से कहतीं. अपना कोई न कोई काम मुझे देती रहतीं. शाम को कई बार ऐसा संयोग होता कि वह रास्ते में ही मुझ से मिल जातीं और मेरे साथ ही घर आ जातीं. कभीकभी उन का कोई ऐसा काम फंस जाता जो वह नहीं कर सकतीं तो उसे मुझे ही करना पड़ता था.

एक दिन दोपहर को मुझे किसी जरूरी काम से शर्माजी के घर जाना पड़ा. मैं ने देखा बड़ी तल्लीनता से वह सब कागज फैला कर अपना काम करने में व्यस्त थे. मुझे बड़ी खुशी हुई कि शायद उन की जीवन के प्रति नकारात्मक सोच में बदलाव हो गया. सपनाजी पास ही बैठी उन्हें पैड पकड़ा रही थीं. मेरे वहां पहुंचते ही वह हंस कर बोलीं, ‘‘जानते हो, इन दिनों यह बहुत खुश रहते हैं. मुझे तो पूछते भी नहीं.’’

‘‘तुम ऐसा मौका ही कहां देती हो. बस, सवेरे उठ कर तैयार हो जाती हो और चल देती हो. दोपहर तक स्कूल में फिर शाम को बाहर घूमने चली जाती हो.’’

‘‘यह तो आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि कितना काम हो जाता है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं कि तुम क्या करती हो.’’

कहतेकहते अपने सारे कागज एक तरफ रख कर मुझे घूरने लगे, जैसे भीतर उठी खीज को दबा लिया हो. वह जिन नजरों से मुझे देख रहे थे, मुझे बड़ी बेचैनी महसूस होने लगी. मैं ने विज्ञापन देने से पहले ही सपनाजी  को पता और फोन नंबर देने के लिए कहा था. सपनाजी भी अपनी जगह ठीक थीं. कहने लगीं कि घर पर आने वाले सभी व्यक्तियों को शर्माजी की हालत के बारे में पता चल जाएगा. घर पर मैं और बेटी ही रहती हैं तो कोई कुछ भी कर सकता है.

मैं चुप रहा था.

मैं ने औपचारिकता निभाते हुए नया काम दिया और जाने लगा तो सपनाजी बोलीं, ‘‘कहां तक जा रहे हैं आप?’’

‘‘अब तो आफिस ही जाऊंगा,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘क्या आप मुझे सिविल लाइंस तक छोड़ देंगे?’’ उन्होंने पूछा.

मैं इनकार नहीं कर सका. शर्माजी टीवी पर मैच देखने में व्यस्त हो गए.

सपनाजी तैयार हो कर आईं और अपना बैग उठा कर बोलीं, ‘‘मैं ममता के घर जा रही हूं. उस के बेटे का जन्मदिन है. आप का उस तरफ का कोई काम हो तो…’’

‘‘जाओजाओ. तुम्हें तो बस, घूमने का बहाना चाहिए. मैं घर पर पड़ा सड़ता रहूं पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है,’’ कहतेकहते उन की आवाज तेज और मुद्रा आक्रामक हो गई, ‘‘तुम क्या समझती हो. मैं कुछ जानता नहीं हूं. तुम्हें बाहर जाने की छूट क्या दी तुम ने तो इस का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया…मुझे तुम्हारा इस तरह गैर मर्दों के साथ जाना एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

सपनाजी  एकदम सहम गईं. आंखों में आंसू भर कर चुपचाप भीतर चली गईं. शर्माजी का ऐसा रौद्र रूप मैं ने कभी नहीं देखा था.

अचानक वातावरण में भयानक सन्नाटा पसर गया. मैं पाषाण बना चुपचाप वहीं बैठा रहा. नारी शायद हर संबंधों को सीमाओं में रह कर निभा लेती है पर पुरुष इतना सहज और सरल नहीं होता. शक की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी.

डर कहीं मेरे भीतर भी बैठ गया था. मौका देख कर मैं ने कहा, ‘‘सर, अब रोजरोज मेरा आना संभव नहीं है. और अब तो आप भी सभी कामों को अच्छी तरह समझ गए हैं. फिर बहुत जल्दी मेरा तबादला भी होने वाला है. आगे से सभी लोगों को मैं आप के पास ही भेज दिया करूंगा,’’ वह मुझे अजीब सी नजरों से देखने लगे पर कहा कुछ नहीं.

वहां से उठतेउठते ही मैं ने कहा, ‘‘साहब, मेरा कहासुना माफ करना. मुझ से जो बन पड़ा, मैं ने किया.’’

मैं दबे पांव वहां से निकल जाना चाहता था. गेट खोल कर जैसे ही स्कूटर स्टार्ट किया, सपनाजी धीरे से दूसरे कमरे से निकल कर मेरे पास आ गईं और बेहद कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘आप ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है उस का एहसान तो नहीं चुका सकती पर भूलूंगी भी नहीं. शर्माजी की बातों का बुरा मत मानना,’’ कहतेकहते वह अपराधी मुद्रा में तब तक खड़ी रहीं जब तक मैं चला नहीं गया. मैं भारी मन और उदास चेहरे से वहां से चला गया.

सच, अपने हिस्से की पीड़ा तो स्वयं ही भोगनी पड़ती है. झूठे आश्वासनों के अलावा हम कुछ नहीं दे सकते. कोई किसी की पीड़ा को बांट भी नहीं सकता. उस के बाद मैं उस घर में कभी नहीं गया. यह जीवन का एक ऐसा यथार्थ था जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता. यदि इस दुनिया में यही जीने का ढंग और संकीर्ण मानसिकता है तो ऐसे ही सही.

हंसी के घुंघरु

उस दिन मेरे पिता की बरसी थी. मैं पिता के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता था. शायद मुझे अपने पिता से घृणा थी. यह आश्चर्य की बात नहीं, सत्य है. मैं घर से बिलकुल कट गया था. वह मेरे पिता ही थे, जिन्होंने मुझे घर से कटने पर मजबूर कर दिया था.

नीरा से मेरा प्रेम विवाह हुआ था. मेरे बच्चे हुए, परंतु मैं ने घर से उन अवसरों पर भी कोई संपर्क नहीं रखा.

लेकिन मेरे पिता की पुण्य तिथि मनाने के लिए नीरा कुछ अधिक ही उत्साह से सबकुछ कर रही थी. मुझे लगता था कि शायद इस उत्साह के पीछे मां हैं.

मैं सुबह से ही तटस्थ सा सब देख रहा था. बाहर के कमरे में पिता की तसवीर लग गई थी. फूलों की एक बड़ी माला भी झूल रही थी. मुझे लगता था कि मेरी देह में सहस्रों सूइयां सी चुभ रही हैं. नीरा मुझे हर बार समझाती थी, ‘‘बड़े बड़े होते हैं. उन का हमेशा सम्मान करना चाहिए.’’

नीरा ने एक छोटा सा आयोजन कर रखा था. पंडितपुरोहितों का नहीं, स्वजनपरिजनों का. सहसा मेरे कानों में नीरा का स्वर गूंजा, ‘‘यह मेरी मां हैं. मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं अपनी सास के साथ हूं.’’

बातें उड़उड़ कर मेरे कानों में पड़ रही थीं. हंसीखुशी का कोलाहल गूंज रहा था. मैं मां की सिकुड़ीसिमटी आकृति को देखता रहा. मां कितनी सहजता से मेरी गृहस्थी में रचबस गई थीं.

मैं नीरा की इच्छा जाने बिना ही मां को जबरन साथ ले आया था. साथ क्या ले आया था, मुझे लाना पड़ा था. कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था.

राजू व रमेश विदेश में बस गए थे. पिता की मृत्यु पर वे शोक संवेदनाएं भेज कर निश्चिंत हो गए थे. रीना, इला और राधा आई थीं. मैं श्राद्ध के दिन अकेला ही गांव पहुंचा था.

नीरा नहीं आई थी. मैं ने जोर नहीं दिया था. शायद मैं भी यही चाहता था. जब मेरे हृदय में मृत पिता के लिए स्नेह जैसी कोई चीज ही नहीं थी तो नीरा के हृदय की उदासीनता समझी जा सकती थी.

मेरी दोनों बेटियां मां के पास रह गई थीं. परिवार के दूसरे बच्चे भी सचाई को पहचान गए थे. लोगों की देखादेखी, जब वे बहुत छोटी थीं तो दादादादी की बातें पूछा करती थीं. मैं पता नहीं क्यों ‘दादा’, ‘दादी’ जैसे शब्दों के प्रति ही असहिष्णु हो गया था.

‘दादी’ शब्द मेरे मानस पर दहशत से अधिक घृणा ही पैदा करता था. मेरे बचपन की एक दादी थीं, किंतु कहानियों वाली, स्नेह देने वाली दादी नहीं. हुकूमत करने वाली दादी, मुझे ही नहीं मेरी मां को छोटीछोटी बात पर चिमटे से पीटने वाली दादी. मैं अब भी नहीं समझ पाता हूं, मेरी मां का दोष क्या था?

मेरा घर मध्यवर्गीय बिहारी घर था. सुबह होती कलह से, रात होती कलह से. मेरे पिता का कायरपन मुझे बचपन से ही उद्दंड बनाता गया.

मेरी एक परित्यक्ता बूआ थीं. अम्मां से भी बड़ी बूआ, हर मामले में हम लोगों से छोटी मानी जाती थीं. खानेपहनने, घूमने में उन का हिस्सा हम लोगों जैसा ही होता था. किंतु उन की प्रतिस्पर्धा अम्मां से रहती थी. सौतन सी, वह हर चीज में अम्मां का अधिक से अधिक हिस्सा छीनने की कोशिश करती थीं. बूआ दादी की शह पर कूदा करती थीं.

दादी और बूआ रानियों की तरह आराम से बैठी रहती थीं. हुकूमत करना उन का अधिकार था. मेरी मां दासी से भी गईबीती अवस्था में खटती रहती थीं. पिता बिस्तर से उठते ही दादी के पास चले जाते. दादी उन्हें जाने क्या कहतीं, क्या सुनातीं कि पिता अम्मां पर बरस पड़ते.

एक रोज अम्मां पर उठे पिता के हाथ को कस कर उमेठते हुए मैं ने कहा था, ‘‘खबरदार, जो मेरी मां पर हाथ उठाया.’’

पहले तो पिता ठगे से रह गए थे. फिर एकाएक उबल पड़े थे, लेकिन मैं डरा नहीं था. अब तो हमारा घर एक खुला अखाड़ा बन गया था. दादी मुझ से डरती थीं. मेरे दिल में किसी पके घाव को छूने सी वेदना दादी को देखने मात्र पर होती. मैं दादी को देखना तक नहीं चाहता था.

मैं सोचा करता, ‘बड़ा हो कर मैं अच्छी नौकरी कर लूंगा. फिर अम्मां को अपने पास रखूंगा. रहेंगी दादी और बूआ पिता के पास.’

उन का बढ़ता अंतराल मेरे अंतर्मन में घृणा को बढ़ाता गया. मेरी अम्मां कमजोर हो कर टूटती चली गईं.

उस दिन वह घर स्नेहविहीन हो जाएगा, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. अम्मां सारे कामों को निबटा कर सो गई थीं. राधा उन की छाती से चिपटी दूध पी रही थी. मैं बगल के कमरे में पढ़ रहा था.

दादी का हुक्म हुआ, ‘‘जरा, चाय बनाना.’’

कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी अम्मां तो कभी उत्तर दिया ही नहीं करती थीं. 10 मिनट बाद दादी के स्वर में गरमी बढ़ गई. चाय जो नहीं मिली थी. दादी जाने क्याक्या बड़बड़ा रही थीं. अम्मां की चुप्पी उन के क्रोध को बढ़ा रही थी.

‘‘भला, सवेरेसवेरे कहीं सोया जाता है. कब से गला फाड़ रही हूं. एक कप चाय के लिए, मगर वह राजरानी है कि सोई पड़ी है,’’ और फिर एक से बढ़ कर एक कोसने का सिलसिला.

मैं पढ़ाई छोड़ कर बाहर आ गया. अम्मां को झकझोरती दादी एकाएक चीख उठीं. मैं दरवाजा पकड़ कर खड़ा रह गया. सारे काम निबटा कर निर्जला अम्मां प्राण त्याग चुकी थीं.

दादी ने झट अपना मुखौटा बदला, ‘‘हाय लक्ष्मी…हाय रानी…तुम हमें छोड़ कर क्यों चली गईं,’’ दादी छाती पीटपीट कर रो रही थीं. बूआ चीख रही थीं. मेरे भाईबहन मुझ से सहमेसिमटे चिपक गए थे. अम्मां की दूधविहीन छाती चबाती राधा को यत्न से अलग कर मैं रो पड़ा था.

दादी हर आनेजाने वाले को रोरो कर कथा सुनातीं. पिता भी रोए थे.

अम्मां के अभाव ने घर को घर नहीं रहने दिया. बूआ कोई काम करती नहीं थीं. आदत ही नहीं थी. पिता को थोड़ी कमाई में एक बावर्ची रखना संभव नहीं था. वैसे भी कोई ऐसा नौकर तो बहू के सिवा मिल ही नहीं सकता था, जो बिना बोले, बिना खाए खटता रहे. समय से पूर्व ही रीना को बड़ा बनना पड़ा.

देखतेदेखते अम्मां की मृत्यु को 6 माह बीत गए. दादी रोजरोज पिता के नए रिश्ते की बात करतीं. 1-2 रिश्तेदारों ने दबीदबी जबान से मेरी शादी की चर्चा की, ‘‘लड़का एम.एससी. कर रहा है. इसी की शादी कर दी जाए.’’

पर मेरे कायर पिता ने मां की आज्ञा मानने का बहाना कर के मुझ से भी छोटी उम्र की लड़की से ब्याह कर लिया.

मेरा मन विद्रोह कर उठा. लेकिन उस लड़की लगने वाली औरत में क्या था, नहीं समझ पाया. वह बड़ी सहजता से हम सब की मां बन गई. हम ने भी उसे मां स्वीकार कर लिया. मुझे दादी के साथसाथ पिता से भी तीव्र घृणा होने लगती, जब मेरी नजर नई मां पर पड़ती.

‘क्या लड़कियों के लिए विवाह हो जाना ही जीवन की सार्थकता होती है?’ हर बार मैं अपने मन से पूछा करता.

मां के मायके में कोई नहीं था. विधवा मां ने 10वीं कक्षा में पढ़ती बेटी का कन्यादान कर के निश्ंिचता की सांस ली थी.

मेरी दूसरी मां भी मेरी अम्मां की तरह ही बिना कोई प्रतिवाद किए सारे अत्याचार सह लेती थीं. अम्मां की मृत्यु के बाद घर से मेरा संबंध न के बराबर रह गया था.

पहली बार नई मां के अधर खुले, जब रीना के ब्याह की बात उठी. वह अड़ गईं, ‘‘विवाह नहीं होता तो मत हो. लड़की पढ़ कर नौकरी करेगी. ऐसेवैसे के गले नहीं मढूंगी.’’

पिता सिर पटक कर रह गए. दादी ने व्यंग्यबाण छोड़े. लेकिन मां शांत रहीं, ‘‘मैं योग्य आदमी से बेटी का ब्याह करूंगी.’’

मां की जिद और हम सब का सम्मिलित परिश्रम था कि अब सारा घर सुखी है. हम सभी भाईबहन पढ़लिख कर अपनीअपनी जगह सुखआनंद से थे.

नई मां ही थीं वह सूत्र जिस ने पिता के मरने के बाद मुझे गांव खींचा था. दादी मरीं, बूआ मरीं, पिता के बुलावे आए, पर मैं गांव नहीं आया. पता नहीं, कैसी वितृष्णा से मन भर गया था.

मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया था. पिता के श्राद्ध के दिन घर पहुंचा था. भरे घर में मां एक कोने में सहमीसिकुड़ी रंग उड़ी तसवीर जैसी बैठी थीं. पूरे 10 साल बाद मैं गांव आया था. उन 10 सालों ने मां से जाने क्याक्या छीन लिया था.

पिता ने कुछ भी तो नहीं छोड़ा था उन के लिए. हर आदमी मुझे समझा रहा था, ‘‘अपना तो कोई नहीं है. एक तुम्हीं हो.’’

मां की सहमी आंखें, तनी मुद्रा मुझे आश्वस्त कर रही थीं, ‘‘मोहन, घबराओ नहीं. मुझे कुछ साल ही तो और जीना है. मेहनतमजदूरी कर के जी लूंगी.’’

सामीप्य ने मां की सारी निस्वार्थ सेवाएं याद दिलाईं. जन्म नहीं दिया तो क्या, स्नेह तो दिया था. भरपूर  स्नेह की गरमाई, जिस ने छोटे से बड़ा कर के हमें सुंदर घर बनाने में सहारा दिया था.

पता नहीं किस झोंक में मां के प्रतिवाद के बाद भी मैं उन्हें अपने साथ ले आया था.

‘नीरा क्या समझेगी? क्या कहेगी? मां से उस की निभेगी या नहीं?’ यह सब सोचसोच कर मन डर रहा था. कभीकभी अपनी भावुकता पर खीजा भी था. हालांकि विश्वास था कि मेरी मां ‘दादी’ नहीं हो सकती है.

अब 1 साल पूरा हो रहा था. मां ने बड़ी कुशलता से नीरा ही नहीं, मेरी बेटियों का मन भी जीत लिया था.

शुरू शुरू में कुछ दिन अनकहे तनाव में बीते थे. मां के आने से पहले ही आया जा चुकी थी. नई आया नहीं मिल रही थी. नौकरों का तो जैसे अकाल पड़ गया था. नीरा सुबह 9 बजे दफ्तर जाती और शाम को थकीहारी लौटती. अकसर अत्यधिक थकान के कारण हम आपस में ठीक से बात नहीं कर पाते थे. मां क्या आईं, एक स्नेहपूर्ण घर बन गया, बेचारी नीरा आया के  नहीं रहने पर परेशान हो जाती थी. मां ने नीरा का बोझ बांट लिया. मां को काम करते देख कर नीरा लज्जित हो जाती. मां घर का काम ही नहीं करतीं, बल्कि नीरा के व्यक्तिगत काम भी कर देतीं.

कभी साड़ी इस्तिरी कर देतीं. कभी बटन टांक देतीं.

‘‘मां, आप यह सब क्यों करती हैं?’’

‘‘क्या हुआ, बेटी. तुम भी तो सारा दिन खटती रहती हो. मैं घर मैं खाली बैठी रहती हूं. मन भी लग जाता है. कोई तुम पर एहसान थोड़े ही करती हूं. ये काम मेरे ही तो हैं.’’

नीरा कृतज्ञ हो जाती.

‘‘मां, आप पहले क्यों नहीं आईं?’’ गले लिपट कर लाड़ से नीरा पूछती. मां हंस देतीं.

नीरा मां का कम खयाल नहीं रखती थी. वह बुनाई मशीन खरीद लाई थी. मेरे नाराज होने पर हंस कर बोली, ‘‘मां का मन भी लगेगा और उन में आर्थिक निर्भरता भी आएगी.’’

मैं अतीत की भूलभूलैया से वर्तमान में लौटता. नीरा का अंगअंग पुलक रहा था. वह मां के स्नेह व सेवा तथा नीरा के आभिजात्य और समर्पित अनुराग का सौरभ था, जो मेरे घरआंगन को महका रहा था.

कैसे बहुओं की सासों से नहीं पटती? क्या सासें केवल बुरी ही होती हैं? लेकिन मेरी मां जैसी सास कम होती हैं, जो बहू की कठिनाइयों को समझती हैं. घावों पर मरहम लगाती हैं और लुटाती हैं निश्छल स्नेह.

रात शुरू हो रही थी. नीरा थकी सी आरामकुरसी पर बैठी थी. लेकिन आदतन बातों का सूत कात रही थी. मेरी दोनों बेटियां दादी की देह पर झूल रही थीं.

‘‘दादीजी, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?’’

‘‘जो मेरी राजदुलारी कहेगी.’’

मैं ने मां को देखा, कैसी शांत, निद्वंद्व वह बच्चों की अनवरत बातों में मुसकराती ऊन की लच्छियां सुलझा रही थीं. मुझे लग रहा था कि वह मेरी सौतेली नहीं, मेरी सगी मां हैं. उम्र में बड़ा हो कर भी मैं बौना होने लगा था. मैं ने नीरा को मां के सामने ही कुरसी से उठा लिया, ‘‘लो, संभालो अपनी इस राजदुलारी को. इसे भी कोई कहानी सुना दो. यह कब से मेरा सिर खा रही है.’’

‘‘मां, सिर में भेजा हो तब तो खाऊं न.’’

नीरा मुसकरा दी. मां की दूध धुली खिलखिलाहट ने हमारा साथ दिया. देखते ही देखते हंसी के घुंघरुओं की झनकार से मेरा घरआंगन गूंज उठा.

परंपरा

नगरनिगम के विभिन्न विभागों में काम कर के रिटायर होने के बाद दीनदयाल आज 6 माह बाद आफिस में आए थे. उन के सिखाए सभी कर्मचारी अपनीअपनी जगहों पर थे. इसलिए सभी ने दीनदयाल का स्वागत किया. उन्होंने हर एक सीट पर 10-10 मिनट बैठ कर चायनाश्ता किया. सीट और काम का जायजा लिया और फिर घर आ कर निश्चिंत हो गए कि कभी उन का कोई काम नगरनिगम का होगा तो उस में कोई दिक्कत नहीं आएगी.

एक दिन दीनदयाल बैठे अखबार पढ़ रहे थे, तभी उन की पत्नी सावित्री ने कहा, ‘‘सुनते हो, अब जल्द बेटे रामदीन की शादी होने वाली है. नीचे तो बड़े बेटे का परिवार रह रहा है. ऐसा करो, छोटे के लिए ऊपर मकान बनवा दो.’’

दीनदयाल ने एक लंबी सांस ले कर सावित्री से कहा, ‘‘अरे, चिंता काहे को करती हो, अपने सिखाएपढ़ाए गुरगे नगर निगम में हैं…हमारे लिए परेशानी क्या आएगी. बस, हाथोंहाथ काम हो जाएगा. वे सब ठेकेदार, लेबर जिन के काम मैं ने किए हैं, जल्दी ही हमारा पूरा काम कर देंगे.’’

‘‘देखा, सोचने और काम होने में बहुत अंतर है,’’ सावित्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि आज ही आप नगर निवेशक शर्माजी से बात कर के नक्शा बनवा लीजिए और पास करवा लीजिए. इस बीच सामान भी खरीदते जाइए. देखिए, दिनोंदिन कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं.’’

‘‘सावित्री, तुम्हारी जल्दबाजी करने की आदत अभी भी गई नहीं है,’’ दीनदयाल बोले, ‘‘अब देखो न, कल ही तो मैं आफिस गया था. सब ने कितना स्वागत किया, अब इस के बाद भी तुम शंका कर रही हो. अरे, सब हो जाएगा, मैं ने भी कोई कसर थोड़ी न छोड़ी थी. आयुक्त से ले कर चपरासी तक सब मुझ से खुश थे. अरे, उन सभी का हिस्सा जो मैं बंटवाता था. इस तरह सब को कस कर रखा था कि बिना लेनदेन के किसी का काम होता ही नहीं था और जब पैसा आता था तो बंटता भी था. उस में अपना हिस्सा रख कर मैं सब को बंटवाता था.’’

दीनदयाल की बातों से सावित्री खुश हो गई. उसे  लगा कि उस के पति सही कह रहे हैं. तभी तो दीनदयाल की रिटायरमेंट पार्टी में आयुक्त, इंजीनियर से ले कर चपरासी तक शामिल हुए थे और एक जुलूस के साथ फूलमालाओं से लाद कर उन्हें घर छोड़ कर गए थे.

दीनदयाल ने सोचा, एकदम ऊपर स्तर पर जाने के बजाय नीचे स्तर से काम करवा लेना चाहिए. इसलिए उन्होंने नक्शा बनवाने का काम बाहर से करवाया और उसे पास करवाने के लिए सीधे नक्शा विभाग में काम करने वाले हरीशंकर के पास गए.

हरीशंकर ने पहले तो दीनदयालजी के पैर छू कर उन का स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उन के गुरु अपना नक्शा पास करवाने आए हैं तब उस के व्यवहार में अंतर आ गया. एक निगाह हरीशंकर ने नक्शे पर डाली फिर उसे लापरवाही से दराज में डालते हुए बोला, ‘‘ठीक है सर, मैं समय मिलते ही देख लूंगा,. ऐसा है कि कल मैं छुट्टी पर रहूंगा. इस के बाद दशहरा और दीवाली त्योहार पर दूसरे लोग छुट्टी पर चले जाते हैं. आप ऐसा कीजिए, 2 माह बाद आइए.’’

दीनदयाल उस की मेज के पास खडे़ रहे और वह दूसरे लोगों से नक्शा पास करवाने पर पैसे के लेनदेन की बात करने लगा. 5 मिनट वहां खड़ा रहने के बाद दीनदयाल वापस लौट आए. उन्होंने सोचा नक्शा तो पास हो ही जाएगा. चलो, अब बाकी लोगों को टटोला जाए. इसलिए वह टेंडर विभाग में गए और उन ठेकेदारों के नाम लेने चाहे जो काम कर रहे थे या जिन्हें टेंडर मिलने वाले थे.

वहां काम करने वाले रमेश ने कहा, ‘‘सर, आजकल यहां बहुत सख्ती हो गई है और गोपनीयता बरती जा रही है, इसलिए उन के नाम तो नहीं मिल पाएंगे लेकिन यह जो ठेकेदार करीम मियां खडे़ हैं, इन से आप बात कर लीजिए.’’

रमेश ने करीम को आंख मार कर इशारा कर दिया और करीम मियां ने दीनदयाल के काम को सुन कर दोगुना एस्टीमेट बता दिया.

आखिर थकहार कर दीनदयालजी घर लौट आए और टेलीविजन देखने लगे. उन की पत्नी सावित्री ने जब काम के बारे में पूछा तो गिरे मन से बोले, ‘‘अरे, ऐसी जल्दी भी क्या है, सब हो जाएगा.’’

अब दीनदयाल का मुख्य उद्देश्य नक्शा पास कराना था. वह यह भी जानते थे कि यदि एक बार नीचे से बात बिगड़ जाए तो ऊपर वाले उसे और भी उलझा देते हैं. यही सब करतेकराते उन की पूरी नौकरी बीती थी. इसलिए 2 महीने इंतजार करने के बाद वह फिर हरीशंकर के पास गए. अब की बार थोडे़ रूखेपन से हरीशंकर बोला, ‘‘सर, काम बहुत ज्यादा था, इसलिए आप का नक्शा तो मैं देख ही नहीं पाया हूं. एकदो बार सहायक इंजीनियर शर्माजी के पास ले गया था, लेकिन उन्हें भी समय नहीं मिल पाया. अब आप ऐसा करना, 15 दिन बाद आना, तब तक मैं कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा, वैसे सर आप तो जानते ही हैं, आप ले आना, काम कर दूंगा.’’

दीनदयाल ने सोचा कि बच्चे हैं. पहले भी अकसर वह इन्हें चायसमोसे खिलापिला दिया करते थे. इसलिए अगली बार जब आए तो एक पैकेट में गरमागरम समोसे ले कर आए और हरीशंकर के सामने रख दिए.

हरीशंकर ने बाकी लोगों को भी बुलाया और सब ने समोसे खाए. इस के बाद हरीशंकर बोला, ‘‘सर, मैं ने फाइल तो बना ली है लेकिन शर्माजी के पास अभी समय नहीं है. वह पहले आप के पुराने मकान का निरीक्षण भी करेंगे और जब रिपोर्ट देंगे तब मैं फाइल आगे बढ़ा दूंगा. ऐसा करिए, आप 1 माह बाद आना.’’

हारेथके दीनदयाल फिर घर आ कर लेट गए. सावित्री के पूछने पर वह उखड़ कर बोले, ‘‘देखो, इन की हिम्मत, मेरे से ही सीखा और मुझे ही सिखा रहे हैं, वह नक्शा विभाग का हरीशंकर, जिसे मैं ने उंगली पकड़ कर चलाया था, 4 महीने से मुझे झुला रहा है. अरे, जब विभाग में आया था तब उस के मुंह से मक्खी नहीं उड़ती थी और आज मेरी बदौलत वह लखपति हो गया है और मुझे ही…’’

सावित्री ने कहा, ‘‘देखोजी, आजकल ‘बाप बड़ा न भइया, सब से बड़ा रुपइया,’ और जो परंपराएं आप ने विभाग मेें डाली हैं, वही तो वे भी आगे बढ़ा रहे हैं.’’

परंपरा की याद आते ही दीनदयाल चिंता मुक्त हो गए. अगले दिन 5000 रुपए की एक गड्डी ले कर वह हरीशंकर के पास गए और उस की दराज में चुपचाप रख दी.

हरीशंकर ने खुश हो कर दीनदयाल की फाइल निकाली और चपरासी से कहा, ‘‘अरे, सर के लिए चायसमोसे ले आओ.’’

फिर दीनदयाल से वह बोला, ‘‘सर, कल आप को पास किया हुआ नक्शा मिल जाएगा.’’

जिंदगी के रंग

पूर्व कथा

काम की तलाश में भटकती एक लड़की कालोनी के घरों में जा कर काम मांगती है तो सभी डांटडपट कर भगा देते हैं. अंत में वह एक कोठी में जाती है तो एक प्रौढ़ महिला श्रीमती चतुर्वेदी उस का नामपता पूछती हैं तो वह अपना नाम कमला बताती है और उन के घर कमला को काम मिल जाता है.

कुछ घंटे बाद कमला बाहर जाने की अनुमति मांगती है ताकि वह अपना सामान ले कर आ सके तो श्रीमती चतुर्वेदी उसे जाने की इजाजत दे देती हैं. शाम को श्रीमती चतुर्वेदी की बेटियां और पति आफिस से आते हैं तो नई काम वाली को देख खुश होते हैं और उस की जांचपड़ताल के बारे में श्रीमती चतुर्वेदी से पूछते हैं. श्रीमती चतुर्वेदी उसे स्टोर रूम में रहने की जगह देती हैं. बिस्तर पर लेटते ही अतीत की यादें ताजा हो जाती हैं.

आज की नौकरानी कल की डा. लता थी. पीएच.डी. करने के बाद उस ने मुंबई विश्वविद्यालय में लेक्चरर के पद के लिए आवेदन किया था. लेकिन एक रात कुछ अज्ञात लोग उस के घर में घुस आते हैं और सब को मार देते हैं पर लता को छोड़ देते हैं. वह तड़के ही अपनी जान बचा कर वहां से भाग जाती है और मुंबई आ जाती है काम की तलाश में. और अब आगे…

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

एक बार सविता से मिलने उस की मामी होस्टल में आई थीं तो उन से लता की भी अच्छी जानपहचान हो गई थी. उस ने योजना बनाई कि धर्मशाला में सामान रख कर पहले वह सविता की मामी के यहां जा कर बात करेगी, क्योंकि उस ने मुंबई विश्वविद्यालय के फार्म पर मुरादाबाद का पता लिखा है और वहां के पते पर इंटरव्यू लेटर जाएगा तो इस की सूचना उसे किस तरह मिलेगी.

टे्रन से उतरने के बाद लता स्टेशन से बाहर आई और कुछ ही दूरी पर एक धर्मशाला में अपने लिए कमरा ले कर थैले में से उस डायरी को निकालने लगी जिस में सविता की मामी का पता उस ने लिख रखा था. फिर उस किताब में से रुपए ढूंढ़े और सविता की मामी के घर पहुंच गई.

मामी के सामने अपनी असलियत कैसे बताती इसलिए उस ने कहा कि उस की मुंबई में नौकरी लग गई है, लेकिन स्थायी पते का चक्कर है इसलिए मैं आप के घर का पता विश्वविद्यालय में लिखा देती हूं.

वहां से लौट कर काम की तलाश करते लता को श्रीमती चतुर्वेदी ने काम पर रख लिया था. वैसे लता मुंबई में किसी प्राइवेट कालिज में कोशिश कर के नौकरी पा सकती थी, पर एक तो प्राइवेट कालिजों में तनख्वाह कम, ऊपर से किराए का मकान ले कर रहना, खाने का जुगाड़, बिजली, पानी का बिल चुकाना, यह सब उस थोड़ी सी तनख्वाह में संभव नहीं था. दूसरे, वह अभी उस घटना से इतनी भयभीत थी कि उस ने 24 घंटे की नौकरानी बन कर रहना ही अच्छा समझा.

इस तरह लता से कमला बनी वह रोज सुबह उठ कर काम में लग जाती. दिन भर काम करती हुई उस ने बीबीजी और सभी घर वालों का मन मोह लिया था. कमला के लिए अच्छी बात यह थी कि वह लोग शाम का खाना 5 बजे ही खा लेते थे, इसलिए सारा काम कर के वह 7 बजे फ्री हो जाती थी.

काम से निबट कर वह अपने छोटे से कमरे में पहुंच जाती और फिर सारी रात बैठ कर इंटरव्यू की तैयारी करती. वैसे छात्र जीवन में वह बहुत मेहनती रही थी, इसलिए पहले से ही काफी अच्छी तैयारी थी. लेकिन फिर भी मुंबई विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति पाना और वह भी बिना किसी सिफारिश के बहुत ही मुश्किल था. वह तो केवल अपनी योग्यता के बल पर ही इंटरव्यू में पास होने की तैयारी कर रही थी. आत्मविश्वास तो उस में पहले से ही काफी था. दिल्ली विश्वविद्यालय में भी उस ने कितने ही सेमिनार अटेंड किए थे. अब तो वह बस, सारे कोर्स रिवाइज कर रही थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के घर 4 दिन उस के बहुत अच्छे गुजरे. 5वें दिन धड़कते दिल से उस ने पूछा, ‘‘आप ने क्या सोचा बीबीजी, मुझे काम पर रखना है या हटाना है?’’

बीबीजी और घर के सभी सदस्य उस के काम से खुश तो थे ही, इसलिए मालकिन हंसते हुए बोलीं, ‘‘चल, तू भी क्या याद रखेगी कमला, तेरी नौकरी इस घर में पक्की, लेकिन एक बात पूछनी थी, तू पूरी रात लाइट क्यों जलाती है?’’

‘‘वह क्या है बीबीजी, अंधेरे में मुझे डर लगता है, नींद भी नहीं आती. बस, इसीलिए रातभर बत्ती जलानी पड़ती है,’’ बड़े भोलेपन से उस ने जवाब दिया.

कभीकभी तो लता को अपने कमला बनने पर ही बेहद आश्चर्य होता था कि कोई उसे पहचान नहीं पाया कि वह पढ़ीलिखी भी हो सकती है. एक दिन तो उस की पोल खुल ही जाती, पर जल्दी ही वह संभल गई थी.

हुआ यह कि मालकिन की छोटी बेटी, जो बी.एससी. कर रही थी, अपनी बड़ी बहन से किसी समस्या पर डिस्कस कर रही थी, तभी कमला के मुंह से उस का समाधान निकलने ही वाला था कि उसे अपने कमलाबाई होने का एहसास हो गया.

अब तो मालकिन उस से इतनी खुश थी कि दोपहर को खुद ही उस से कह देती थी कि तू दोपहर में थोड़ी देर आराम कर लिया कर.

कमला को और क्या चाहिए था. वह भी अब दोपहर को 2 घंटे अपनी स्टडी कर लेती थी. इतना ही नहीं उसे कमरे में एक सुविधा और भी हो गई थी कि रोज के पुराने अखबार ?मालकिन ने उसे ही अपने कमरे में रखने को कह दिया था. इस से वह इंटरव्यू की दृष्टि से हर रोज की खास घटनाओं के संपर्क में बनी रहने लगी थी.

श्रीमती चतुर्वेदी के यहां काम करते हुए कमला को अब 2 महीने हो गए. एक दिन बीबीजी की तबीयत अचानक अधिक खराब हो गई, लगभग बिस्तर ही पकड़ लिया था उन्होंने. उस दिन बीमार मालकिन को दिखाने के लिए घर के सभी लोग अस्पताल गए थे, तभी टेलीफोन की घंटी बजी, फोन सविता की मामी का था.

‘‘हैलो लता, तुम्हारा साक्षात्कार लेटर आ गया है, 15 दिन बाद इंटरव्यू है तुम्हारा. कहो तो इंटरव्यू लेटर वहां भिजवा दूं.’’

मामी को उस समय टालते हुए कमला ने कहा, ‘‘नहीं, मामीजी, आप भिजवाने का कष्ट न करें, मैं खुद ही आ कर ले लूंगी.’’

इंटरव्यू से 2 दिन पहले कमला ने मालकिन से बात की, ‘‘बीबीजी, परसों 15 सितंबर को मुझे छुट्टी चाहिए.’’

‘‘क्यों?’’ श्रीमती चतुर्वेदी बोलीं.

‘‘ऐसा है, बीबीजी, मेरी दूर के रिश्ते की बहन यहां रहती है, जब से आई हूं उस से मिल नहीं पाई. 15 सितंबर को उस की लड़की का जन्मदिन है, यहां हूं तो सोचती हूं कि वहां हो आऊं.’’

फिर बच्चे की तरह मचलते हुए बोली, ‘‘बीबीजी उस दिन तो आप को छुट्टी देनी ही पड़ेगी.’’

15 सितंबर के दिन एक थैला ले कर कमला चल दी. वह वहां से निकल कर उसी धर्मशाला में गई और वहां कुछ देर रुक कर कमला से लता बनी.

काटन की साड़ी पहन, जूड़ा बना कर, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर, हाथ में फाइल और थीसिस ले कर जब उस ने वहां लगे शीशे में अपने को देखा तो जैसे मानो खुद ही बोल उठी, ‘वाह लता, क्या एक्ंिटग की है.’

सविता की मामी के पास से इंटरव्यू लेटर ले कर वह विश्वविद्यालय पहुंच गई. सभी प्रत्याशियों में इंटरव्यू बोर्ड को सब से अधिक लता ने प्रभावित किया था.

लौटते समय लता सविता की मामी से यह कह आई थी कि अगर उस का नियुक्तिपत्र आए तो वह फोन पर उसी को बुला कर यह खबर दें, किसी और से यह बात न कहें.

धर्मशाला में जा कर लता कपड़े बदल कर कमला बन गई और फिर मालकिन के घर जा कर काम में जुट गई थी. मन बड़ा प्रफुल्लित था उस का. अपने इंटरव्यू से वह बहुत अधिक संतुष्ट थी, इस से अच्छा इंटरव्यू हो ही नहीं सकता था उस का.

खुशी मन से जल्दीजल्दी काम करती हुई कमला से श्रीमती चतुर्वेदी ने कहा, ‘‘सच कमला, तेरे बिना अब तो इस घर का काम ही चलने वाला नहीं है. इसलिए अब जब भी तुझे अपनी बहन के यहां जाना हुआ करे तो हमें बता दिया कर, हम मिलवा कर ले आया करेंगे तुझे.’’

‘‘ठीक है, बीबीजी,’’ इतना कह कर वह काम में लग गई थी.

एक दिन सविता की मामी ने फोन पर उसे बुला कर सूचना दी कि उस का चयन हो गया है, अपना नियुक्तिपत्र आ कर उन से ले ले.

अब वह सोचने लगी कि बीमार बीबीजी से इस बारे में क्या और कैसे बात करे, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि नौकरी ज्वाइन करने से पहले बीबीजी को यह बात बताए. उसे डर था कहीं कोई अडं़गा न आ जाए.

वहां से जा कर ज्वाइन करने का पूरा गणित बिठाने के बाद कमला बीबीजी से बोली, ‘‘बीबीजी, आज जब मैं सब्जी लेने गई थी, तब मेरी उसी बहन की लड़की मिली थी, उस ने बताया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है, इसलिए बीबीजी मुझे उस की देखभाल के लिए जाना पड़ेगा.’’

‘‘और यहां मैं जो बीमार हूं, मेरा क्या होगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? यह सब सोचा है तू ने,’’ बीबीजी नाराज होते बोलीं, ‘‘देख, तनख्वाह तो तू यहां से ले रही है, इसलिए तेरा पहला फर्ज बनता है कि तू पहले हम सब की देखभाल करे.’’

‘‘बीबीजी, आप मेरी तनख्वाह से जितने पैसे चाहे काट लेना, मेरी देखभाल के बिना मेरी बहन मर जाएगी, हां कर दो न बीबीजी,’’ अत्यंत दीनहीन सी हो कर उस ने कहा.

कमला की दीनता को देख कर बीबीजी को तरस आ गया और उन्होंने जाने के लिए हां कर दी.

सारी औपचारिकताएं पूरी करते हुए लता ने मुंबई विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया था. उसे वहीं कैंपस में स्टाफ क्वार्टर भी मिल गया था. आज उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. इन 5 दिन में सविता की मामी के पास ही रहने का उस ने मन बना लिया था.

जाते ही उसे एम.एससी. की क्लास पढ़ाने को मिल गई थी. क्लास में भी क्या पढ़ाया था उस ने कि सारे विद्यार्थी उस के फैन हो गए थे.

5 दिनो के बाद 3 दिन की छुट्टियों में डा. लता फिर कमलाबाई बन कर बीबीजी के घर पहुंच गई.

‘‘अरी, कमला, तू इस बीमार को छोड़ कर कहां चली गई थी. तुझे मुझ पर जरा भी तरस नहीं आया. कितना भी कर लो पर नौकर तो नौकर ही होता है, तुझे तो तनख्वाह से मतलब है, कोई अपनी बीबीजी से मोह थोड़े ही है. अगर मोह होता तो 5 दिनों में थोड़ी देर के लिए ही सही खोजखबर लेने नहीं आती क्या? अब मैं कहीं नहीं जाने दूंगी तूझे, मर जाऊंगी मैं तेरे बिना, सच कहे देती हूं मैं,’’ मालकिन बोले ही जा रही थीं.

कमला खामोश हो कर बीबीजी से सबकुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थी. तभी शाम के समय चतुर्वेदीजी के एक मित्र घर आए. वह मुंबई विश्वविद्यालय में बौटनी विभाग के हेड थे और उस की ज्वाइनिंग उन्होंने ही ली थी. ड्राइंगरूम से ही बीबीजी ने आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘कमला, अच्छी सी 3 कौफी तो बना कर लाना.’’

‘‘अभी लाई, बीबीजी,’’ कह कर कमला कौफी बना कर जैसे ही ड्राइंगरूम में पहुंची, डा. भार्गव को देख कर उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे. लेकिन फिर भी वह अंजान ही बनी रही.

डा. भार्गव लता को देख कर चौंक कर बोले, ‘‘अरे, डा. लता, आप यहां?’’

‘‘अरे, भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं, यह तो हमारी बाई है, कमला. बड़ी अच्छी है, पूरा घर अच्छे से संभाल रखा है इस ने.’’

‘‘नहीं भाभीजी, मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं, यह डा. लता ही हैं, जिन्होंने 5 दिन पहले मेरे विभाग में ज्वाइन किया है. डा. लता, आप ही बताइए, क्या मेरी आंखें धोखा खा रही हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप कैसे धोखा खा सकते हैं, मैं लता ही हूं.’’

‘‘क्या…’’ घर के सभी सदस्यों के मुंह से अनायास ही एकसाथ निकल पड़ा. सभी लता के मुंह की ओर देख रहे थे.

उन के अभिप्राय को समझ कर लता बोली, ‘‘हां, बीबीजी, सर बिलकुल ठीक कह रहे हैं,’’ यह कहते हुए उस ने अपनी सारी कहानी सुनाते हुए कहा, ‘‘तो बीबीजी, यह थी मेरे जीवन की कहानी.’’

‘‘खबरदार, जो अब मुझे बीबीजी कहा. मैं बीबीजी नहीं तुम्हारी आंटी हूं, समझी.’’

‘‘डा. लता, वैसे आप अभिनय खूब कर लेती हैं, यहां एकदम नौकरानी और वहां यूनिवर्सिटी में पूरी प्रोफेसर. वाह भई वाह, कमाल कर दिया आप ने.’’

‘‘मान गई लता मैं तुम्हें, क्या एक्ंिटग की थी तुम ने, कह रही थी कि मुझे लाइट बिना नींद ही नहीं आती. लेकिन लता, सच में मुझे बहुत खुशी हो रही है…हम सभी को, कितने संघर्ष के बाद तुम इतने ऊंचे पद पर पहुंचीं. सच, तुम्हारे मातापिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसी साहसी लड़की को जन्म दिया.’’

‘‘पर बीबीजी…ओह, नहीं आंटीजी, मैं तो आप का एहसान कभी नहीं भूलूंगी, यदि आप ने मुझे शरण नहीं दी होती तो मैं कैसे इंटरव्यू की तैयारी कर पाती? मैं जहां भी रहूंगी, इस परिवार को सदैव याद रखूंगी.’’

‘‘क्या कह रही है…तू कहीं नहीं रहेगी, यहीं रहेगी तू, सुना तू ने, जहां मेरी 2 बेटियां हैं, वहीं एक बेटी और सही. अब तक तू यहां कमला बनी रही, पर अब लता बन कर हमारे साथ हमारे ही बीच रहेगी. अब तो जब तेरी डोली इस घर से उठेगी तभी तू यहां से जाएगी. तू ने जिंदगी के इतने रंग देखे हैं, बेटी उन में एक रंग यह भी सही.’’

खुशी के आंसुओं के बीच लता ने अपनी सहमति दे दी थी.

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं

इंसान के अंदर छिपा कोई भी टैलेंट उम्र या किसी और चीज का मोहताज नहीं होता. अगर अपने देश की बात करें तो हमारे यहां के एक नहीं कई नौनिहालों ने यह बात सिद्ध कर के दिखाई है. इन बाल प्रतिभाओं ने अपने टैलेंट से भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में नाम रोशन किया है.

हुनरबाज बच्चों में 6 साल के तबला मास्टर तृप्तराज पंडया का नाम गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में शामिल हुआ तो हरियाणा के कौटिल्य पंडित ने भी गूगल बौय के रूप में मशहूर हो कर अपनी पहचान बनाई. इसी तरह त्रिपुरा के 4 साल के अंशुमान नंदी ने अपने कौशल से खुद को भारत के सब से कम उम्र के ड्रमर के रूप में साबित किया.

जिस तरह तमिलनाडु के रहने वाले 12 वर्षीय चित्रेश टाथा का भी नाम है, जिस ने नौकायन में महारत हासिल की. 14 साल के अरविंद चितंबरम की भी कुछ अलग ही बात है, जिस ने विश्वनाथन आनंद को पीछे छोड़ कर शतरंज के मास्टर खिलाड़ी के रूप में देशविदेश में अपने नाम के साथसाथ देश के भी झंडे गाड़े हैं.

16 साल के दिव्यांग मोइन एम. जुनेदी को वर्ल्ड गेम्स में 50 मीटर बैक स्ट्रोक गोल्ड मैडल जीतने में कोई नहीं रोक सका, जो अब सब से छोटी उम्र के तैराकों में शामिल हैं. उन्हें लोग वंडर बौय के नाम से भी जानते हैं.

गुजरात के रहने वाले 14 साल के हर्षवर्द्धन झाला एक दिन टीवी पर एक साइंस डाक्युमेंटरी देख रहे थे, जिस में उन्होंने देखा कि लैंडमाइंस को निष्क्रिय करते वक्त काफी सैनिक या तो घायल हो जाते हैं या मौत के मुंह में चले जाते हैं.

इलैक्ट्रौनिक्स और टेक्नोलौजी में बचपन से रुचि रखने वाले हर्षवर्द्धन को यह जानकारी मिली कि किसी भी जंग में सब से ज्यादा सैनिकों की जान लैंडमाइंस के कारण ही खतरे में पड़ती है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन 2009 से 2013 के बीच लैंडमाइंस के कारण 752 मौतें हुई थीं, इसी के मद्देनजर हर्षवर्द्धन के दिमाग में यह बात आई कि क्यों न ऐसी कोई मशीन तैयार की जाए जो लैंडमाइंस का पता लगा कर उसे डिफ्यूज कर सके. इस से कितने ही सैनिकों की जान जाने से बच जाएगी.

यही बात ध्यान में रख कर हर्षवर्द्धन झाला इस तरह का रोबोट बनाने में जुट गए. काफी रिसर्च के बाद आखिर वह लैंडमाइंस का पता लगाने वाला रोबोट बनाने में सफल हो गए. रोबोट तो उन्होंने बना लिया लेकिन वह काफी वजनी था. उन्होंने सोचा कि लैंडमाइंस इतनी शक्तिशाली होती हैं कि इस रोबोट को पलभर में तहसनहस कर देगी क्योंकि लैंडमाइंस पर जरा सा भी वजन पड़ता है तो वह ब्लास्ट हो जाती हैं.

फिर हर्षवर्द्धन ने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए, जिस से लैंडमाइंस पर वजन भी न पड़े और उस का पता भी लगाया जा सके. यही सोच कर उन्होंने ड्रोन बनाने के बारे में सोचा, क्योंकि यह हवा में रह कर ही माइंस का पता लगा सकता था.

सन 2016 में हर्षवर्द्धन ने ड्रोन बनाने की प्रक्रिया शुरू की. उन्होंने इस के 3 प्रोटोटाइप भी तैयार कर लिए थे. इन में से 2 प्रोटोटाइप की कीमत 2 लाख रुपए आई. इस में खास बात यह थी कि उन ड्रोनों को बनाने का सारा खर्च उन के पिता ने ही उठाया, पर तीसरा ड्रोन बनाने में लगभग 3 लाख का खर्च आया. यह फंड गुजरात सरकार ने दिया.

उस ड्रोन में इंफ्रारेड, थर्मल मीटर और आरजीबी सेंसर लगाया गया था. साथ ही मैकेनिकल शटर के साथ 21 मेगापिक्सल का कैमरा भी फिट किया गया था, जिस से हाई रिजल्यूशन की फोटो भी आसानी से क्लिक की जा सके.

इस के अलावा ड्रोन में 50 ग्राम का एक बम भी फिट किया गया, जिस की मदद से लैंडमाइंस को पलभर में ध्वस्त किया जा सके.

जमीन की सतह से 2 फीट ऊपर उड़ने पर इस ड्रोन के जरिए 8 वर्गमीटर क्षेत्र में प्लांट की गई लैंडमाइंस का पता लगाया जा सकता है. इस में एक विशेषता यह भी है कि लैंडमाइंस का पता लगने पर यह सूचना तुरंत बेस स्टेशन को दे सकता है.

आधुनिक तकनीक वाले इस ड्रोन के आविष्कार को हर्षवर्द्धन झाला ने पेटेंट भी करवा लिया है. बाद में उस ने अपनी एक कंपनी भी बना ली, जिस का नाम रखा एयरोबोटिक्स. 14 साल के हर्षवर्द्धन झाला ने ड्रोन तैयार कर के देश की सेना को समर्पित किया है.

भारत में कई बच्चों में से एक हर्षवर्द्धन झाला वही बच्चा है, जिस ने खेलकूद की उम्र में इस तरह का ड्रोन तैयार कर साबित किया है कि हुनर किसी का मोहताज नहीं होता. गुजरात के साइंस ऐंड टेक्नोलौजी विभाग ने 14 साल के हर्षवर्द्धन झाला से ड्रोन बनाने के लिए 5 करोड़ रुपए का एग्रीमेंट किया है.

हर्षवर्द्धन झाला ने इस तरह का ड्रोन बनाया है जो लैंडमाइंस या बम को डिफ्यूज कर देता है, जो दुश्मनों द्वारा जमीन में बिछाई गई लैंडमाइंस का आसानी से पता लगा सकता है. यह ड्रोन जमीन से 2 फीट ऊपर उड़ कर रेडियो तरंगों को फैलाता है और वे तरंगें 8 वर्गमीटर क्षेत्र में फैल कर आसानी से किसी भी विस्फोटक सामग्री का पता लगा सकती हैँ. फिर यह ड्रोन लेजर से उस बारूदी सुरंग को नष्ट कर देता है.

10वीं कक्षा में पढ़ने वाले 14 साल के हर्षवर्द्धन झाला ने एक ही साल में तकनीकी क्षेत्र में वह कमाल कर दिखाया है, जो किसी वैज्ञानिक के आविष्कार से कम नहीं है. आज कई देश हर्षवर्द्धन झाला को करोड़ों रुपए का औफर दे रहे हैं, पर इस 14 साल के साइंटिस्ट ने अपने देश की सेवा में अपना अनमोल योगदान करने का फैसला किया है.

 रविंद्र शिवाजी 

बंगाल में क्यों गरमा रही है राजनीति

पश्चिम बंगाल की 42 सीटों के महत्त्व की पुष्टि इसी बात से हो जाती है कि यहां सभी 7 चरणों में राजनीतिक गलियारों में एक सवाल खूब उछल रहा है कि अब की लोकसभा चुनाव में बाजी कौन मारेगा- राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या फिर राज्य में तेजी से जनाधार बढ़ा रही भाजपा?

राजनीति के पंडितों की मानें तो 1977 के बाद से लगातार कमजोर होती कांग्रेस और 2011 के बाद से करीबकरीब हाशिए पर पहुंचे वाममोरचा के बाद जिस तरह से सूबे में भाजपा ने पैठ बनाई है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि इस दफा संसद की कुंजी पश्चिम बंगाल के हाथों में हो सकती है. सूबे की सभी 42 की 42 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल बेचैन है. वहीं, लंबे समय तक (1977 से 2011 तक) वाममोरचा के गढ़ रहे इस राज्य में भाजपा अब न केवल दूसरे नंबर पर पहुंच गई है, बल्कि तृणमूल को कड़ी टक्कर भी दे रही है.

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भाजपा सूबे की 23 सीटें जीत कर अपनी दिल्ली की राह आसान करने को बेताब है. उधर गठबंधन न होने को ले कर वाममोरचा और कांग्रेस एकदूसरे को जिम्मेदार बताते हुए अपनीअपनी सीटों पर साख बचाने की जुगत में है. कांग्रेस व वाममोरचा के बीच गठबंधन न होने पर भी दोनों ने 2-2 सीटें एकदूसरे के लिए छोड़ी है. कांग्रेस ने जादवपुर व बांकुडा और वाममोरचा ने बहरमपुर व मालदा में उम्मीदवार नहीं उतारे हैं. ये दोनों दल 40-40 सीटों में चुनाव लड़ रहे हैं. इस गणित से भले ही राज्य के 38 सीटों में चौतरफा मुकाबला नजर आ रहा हो, लेकिन मुख्य लड़ाई तृणमूल और भाजपा के बीच ही हैं. 17वीं लोकसभा के महासंग्राम में चारों प्रमुख पार्टियां  (कांग्रेस, भाजपा, माकपा व तृणमूल) समेत कई दूसरे क्षेत्रीय दल और निर्दलीय उम्मीदवार भी ताल ठोक रहे हैं.

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी जहां ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत कर गैरभाजपाई, गैर कांग्रेसी सरकार बनाने की स्थिति में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही हैं, वहीं भाजपा पिछली बार जीती सीटों को 10 गुना कर के उत्तर प्रदेश में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई में जुटी है.

इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ सालों से भाजपा बंगाल में खासा जोर दे रही है. भाजपा को इस के सकारात्मक नतीजे भी देखने को मिले हैं. पिछले 3 वर्षों में हुए पंचायत चुनाव से ले कर लोकसभा या फिर विधानसभा उपचुनावों में भाजपा माकपा व कांग्रेस को पछाड़ कर मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी है. इस वजह से तृणमूल खेमे में हलचल है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश के संभावित नुकसान की भरपाई जिन राज्यों से करना चाहती है उन में बंगाल सब से प्रमुख है. खुद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बंगाल में 23 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इसी रणनीति के साथ भाजपा की बंगाल इकाई और कभी ममता बनर्जी के दाएं हाथ रहे मुकुल राय आगे बढ़ रहे हैं. तृणमूल में सेंधमारी की जा रही है. तृणमूल के कई नेताओं को केशरिया खेमे के नीचे लाया जा रहा है.

हाल में सांसद सौमित्र खां व अनुपम हाजरा तृणमूल छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए हैं. दूसरी और तृणमूल प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पार्टी नेताओं व कार्यकताओं से साफ कहा है कि उन्हें बंगाल में 42 की 42 सीटें चाहिए. भाजपा को एक भी सीट न मिले. यह सुनिश्चित करें. ममता इस के लिए सीधेसीधे भाजपा को घेरने की कोशिश कर रही हैं. वे खुल कर कहती हैं कि उन के लिए दुश्मन नंबर एक भाजपा और मोदी हैं. उस की बानगी ममता ने 18 जनवरी को परेड ब्रिगेड में आयोजित रैली में देशभर के 21 विपक्षी दलों को एकत्रित कर दिखाईर् थी.

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ममता को पता है कि बंगाल में पिछली बार की 34 सीटों की तुलना में अधिक सीटें नहीं मिलीं तो दिल्ली में उन का कद नहीं बढ़ेगा. इस बीच, भाजपा ने अल्पसंख्यक की राजनीति के लिए मशहूर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के गढ में घुसपैठ करने के लिए 7 फीसदी अनुसूचित जातियों, 22 फीसद अनुसूचित जनजातियों के वोटबैंक में पैठ के साथसाथ आदिवासी (ओरांव टिग्गा, तिर्के, टोटो), गोरखा, कामतापुरी, राजवंशी, मतुआ (नामशुद्र समुदास), बंगलादेश से बंगाल आए हिंदू शरणार्थियों और हिंदुत्व का सहारा लिया है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने आदिवासी और दलित इलाकों में काफी काम किया है. इस की वजह से आरएसएस की शाखाओं की संख्या दोगनी हो गई हैं. वहीं, ममता ने यह आरोप लगाया है कि भाजपा आरएसएस की मदद से बंगाल में चुनाव फतह करना चाहती है.

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यह बिलकुल सही है कि वोट फीसद के हिसाब से पिछले चुनाव में भाजपा तीसरे नंबर पर रही थी. उसे तृणमूल की तुलना में आधे से भी कम और वाममोरचा की तुलना में 12 फीसद कम वोट मिले थे. बावजूद इस के भाजपा पूरे दमखम से राज्य की आधी से ज्यादा सीटों पर विजय हासिल करने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही हैं. मोटेतौर पर देखें तो वाममोरचा व कांग्रेस के वोट भाजपा की झोली में नहीं जाते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवाद की बात पर इस दफा यह गणित बदल या बिगड़ सकता है. भाजपा द्वारा अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने के बावजूद अल्पसंख्यक कमल का बटन दबाने से परहेज करेंगे, लेकिन तीन तलाक के मुद्दे पर भाजपा अल्पसंख्यक महिलाओं के वोट जरूर पा सकती है. इस के अलावा भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदूओं को एक करने में जुटी हैं. इस में कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदू के नाम पर कांग्रेस व वाममोरचा के वोट इस बार भाजपा के पाले में आ जाएं.

जानकार यह भी कहते हैं कि अल्पसंख्यक वोटबैंक अब भी बंगाल की राजनीति पर हावी है. आखिर क्यों न हो? राज्य के कुल मतदाताओं में से करीब 27 फीसद लोग अल्पसंख्यक हैं और वे राज्य की लगभग 16 से 18 लोकसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. उत्तर बंगाल में राजगंज, कूचबिहार, बालुरघाट, मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, मुर्शिदाबाद और दक्षिण बंगाल में डायमंड हार्बर, उलबेडिया, हावड़ा, बीरभूम, कांथी, तमलुक, जयनगर जैसी संसदीय सीटों पर मुसलिमों की आबादी काफी है. तृणमूल कांग्रेस का इन पर और इनका तृणमूल कांग्रेस पर भरोसा अटूट बना हुआ है. हालांकि वाममोरचा और कांग्रेस भी इस वोटबैंक में घुसपैठ की लगातार कोशिश कर रहे हैं. लेकिन भाजपा की हिंदुत्व छवि इस वोटबैंक में उस की घुसपैठ में बड़ी बाधा है.

भाजपा ने इन के मुकाबले में आदिवासी, दलित, हिंदुत्व और तृणमूल विरोधी समुदाय में प्रभाव विस्तार का मार्ग चुना है और उन के सहारे वह लगातार अपने प्रभाव और वोटबैंक में विस्तार कर रही है.

हालांकि, ममता ने भी चुनाव के मद्देनजर सौफ्ट हिंदुत्व का रास्ता अपना कर इन का मुकाबला करने का रास्ता अपनाया है. वैसे, यह सब आकलन है, पूरी तसवीर 23 मई को होने वाली मतगणना के बाद ही साफ हो पाएगी.

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मैं अपने कैरियर में हमेशा चूजी रहा हूं : राम कपूर

प्र.  आपकी इस वेब सीरीज की बहुत तारीफ मिल रही है क्या कहना चाहते हैं?

ये सही है,क्योंकि इसमें मैंने वैसी भूमिका निभाई हैं,जो पहले मैंने कभी निभाई नहीं हैं. इसमें मैंने नफरत को एक बहुत ही अलग तरीके से पेश किया है. असल में नफरत तब होती है,जब आप किसी से अधिक मोहब्बत करते हैं. ऐसा शायद अधिकतर घरों में होता है, इसलिए लोग इसे अपने से जोड़ पा रहे हैं और पसंद कर रहे है.

प्र.आप रियल लाइफ में कैसे हैं? क्या कभी ऐसी नफरत आपकी अपनी पत्नी के साथ हुई?

मैं एक एक्टर हूं और हर तरीके की भूमिका निभा सकता हूं. मैं 20 साल से अभिनय कर रहा हूं. मैं रियल लाइफ में इतनी नफरत अपनी पत्नी के साथ कभी नहीं कर सकता. हालांकि हर व्यक्ति के पास सभी तरह के इमोशन होते हैं. मैं खुश रहने वाला इंसान हूं, जो खुद खुश रहने के साथ-साथ दूसरों को भी ख़ुशी देना पसंद करता है. यही मेरे जीवन का सिद्धांत है. किसी को इस हद तक नफरत करना कि उसे बर्बाद कर दूं, ऐसा मैं कभी नहीं कर सकता. इसलिए ये भूमिका मेरे लिए चुनौती रही है.

संघर्ष से सब को गुजरना पड़ता है : अक्षय कुमार

प्र. आप और साक्षी तंवर की केमिस्ट्री पर्दे पर अच्छी होती है, इसे कैसे कर पाते हैं?

हम दोनों की टीवी शो हिट होने के बाद से लोग हमें साथ देखना पसंद कर रहे हैं. अभिनय करते वक्त को- स्टार का सहयोग अगर सही होता है, तो सीन अच्छा बन जाता है. अधिक सोचने की जरुरत नहीं होती.

प्र. राम, आप टीवी शो और वेब सीरीज में किस तरह का अंतर समझते हैं?

सबसे बड़ा अंतर यह है कि वेब सीरीज में डेडलाइन का प्रेशर नहीं होता. टीवी में हर महीने 16 से 20 एपिसोड देने ही पड़ते है. वेब सीरीज बहुत कुछ फिल्म के जैसे है. आराम से करो और जब पूरा हो, तो एयर पर जाने दो. समय अधिक मिलता है. क्रिएटिविटी अधिक हम प्रयोग कर सकते हैं. इसके अलावा अभिनय में कोई अंतर नहीं होता.

प्र. वेब सीरीज में सर्टिफिकेशन नहीं होने की वजह से कुछ लोग इसमें गाली- गलौज और फूहड़पन को अधिक दिखाते हैं, क्या इसमें कुछ लगाम लगाने की जरुरत नहीं?

कोई भी समाज पूरी दुनिया को कंट्रोल नहीं कर सकती. टीवी और फिल्मों में सर्टिफिकेशन है, लेकिन इन्टरनेट पर सर्टिफिकेट नहीं डाल सकते. हर निर्माता दर्शकों को ध्यान में रखकर ही कुछ बनाता है. मेरे शो में इस तरह के गाली गलौज या सेक्स आप कभी नहीं देख पाएंगे क्योंकि हमारे दर्शकों को वह पसंद नहीं. एकता कपूर दूसरे शोज में जरुरत पड़ने पर डालती है,पर मेरे शो में कभी नहीं. जिन्हें वो देखना पसंद है, वे उसे देख सकते हैं जिनको नहीं देखना है, वे मेरे शोज देखें.

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प्र.आप कैसे पिता हैं?

मैं खुशमिजाज पिता हूं.  हर काम सब साथ मिलकर करते हैं. हर जगह पर साथ में जाते है. कुछ मुश्किल आने पर मैं और गौतमी साथ मिलकर चर्चा करते हैं. सबको अपनी राय रखने की आजादी है. मैं स्ट्रिक्ट पिता नहीं.

प्र.अब तक के काम में कौन सी शो आपके दिल के करीब है?

मुझे मेरे सभी काम पसंद है. मेरे लिए माध्यम कोई दायरा नहीं है. जहां आपको अच्छा काम मिले और आपको हर दिन उसे करने की इच्छा हो.

ram kapoor

प्र. क्या आप चूजी हैं?

मैं हमेशा अपने कैरियर में चूजी रहा हूं. पिछले तीन चार साल से मैं टीवी पर नहीं हूं, क्योंकि अभी टीवी पर जो शो आ रहे है, वह मुझे नहीं करने है. इसलिए मैं हर कहानी के लिए चूजी हूं. हर साल मेरी एक फिल्म आती है. कभी-कभी दो भी करता हूं. इसके अलावा टौक शो और वेब सीरीज भी कर रहा हूं.

प्र. अगर आपको सांप,बिच्छू या भूत-प्रेत पर कोई कहानी एकता कपूर से मिले तो क्या आप उसे करना चाहेंगे?

एक बिलियन सालों में भी नहीं, क्योंकि नागिन जैसे शो मैं कभी भी नहीं कर सकता,क्योंकि मैं ऐसी कहानी से खुद को जोड़ नहीं पाता. मैंने न कभी माईथोलोजी की है और न ही करूंगा. मैं रियल कहानी पर काम करना पसंद करता हूं.

प्र. कोई ऐसी कहानी जिसे आप करना चाहे?

मैं भविष्य में रहना पसंद नहीं करता, जो हाथ में है उसे ही अच्छी तरीके से करना पसंद करता हूं.

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प्र. अभिनय के अलावा क्या करना पसंद करते हैं?

मेरे लिए फैमिली टाइम सबसे बड़ी होती है और उसमें ही अपना समय बिताता हूं. परिवार के साथ ट्रेवलिंग करता हूं.

प्र.गौतमी अभिनय कम कर रही हैं, इसकी वजह क्या है?

अभी वह परिवार के साथ समय बिता रही हैं. अगर कुछ अच्छा आएगा, तो अवश्य करेगी. बच्चों को छोड़कर अगर वह बाहर जाती हैं, तो वह काम बहुत ही अच्छा होने की जरुरत है.

प्र.क्या अभिनय के अलावा प्रोडक्शन की इच्छा है ?

अभी मैं बहुत काम कर रहा हूं. एक साथ में बहुत सारा काम ले लेने पर समय की कमी हो जाती है, जिससे मेरा परिवार के साथ समय बिताना मुश्किल हो जायेगा और वह मैं नहीं चाहता.

हसरतें भी खूब निकली मेरी, मुराद भी कोई कहा रही अधूरी

भरपूर जिंदगी का भी कोई अनजान हिस्सा खाली खाली रहता है, कोरा कागज लफ्जों से भर भी जाए हाशिया खाली खाली रहता है.

हसरतें भी खूब निकली मेरी, मुराद भी कोई कहा रही अधूरी, ये तो बेईमान मन है कि फिर भी कोई कोना खाली खाली रहता है.

हर सफे पर आफसाने हजार, स्याही सा फैला संसार क्यों  फिर  जिंदगी की किताब का आखिरी पन्ना खाली खाली रहता है.

कोई पल में पार करे, कोई सफर सौ बार करे, जिसकी जैसी किस्मत जो डूबा ही नहीं बीच समंदर, दामन उस मांझी का खाली खाली रहता है.

चले आए दूर बहुत अब, राहे जिंदगी में कभी मिले खुशी भी,  निगाहें फेर कर तुमने बदली थी राहें, बस वो लम्हा खाली खाली रहता है.

अहसास ए मुहब्बत है तो,  जरूरी है इजहार भी और इकरार भी ए मरूधर, दरिया भीतर बहता है पर तेरा चेहरा खाली खाली रहता है…

उसको अपना भी कह नहीं सकते कितने मजबूर ये हालात मेरे

कोई रहता है आसपास मेरे
और धड़कता है दिल के साथ मेरे
उसको अपना भी कह नहीं सकते
कितने मजबूर ये हालात मेरे
चांद तारों को पकड़ना चाहा
गर्द-ए-ज़िल्लत में सने हाथ मेरे
इतने देखे हैं रंग दुनिया के
स्याह पड़ने लगे जज़्बात मेरे
कुछ नहीं जाएगा इस दुनिया से
उसकी चाहत के सिवा साथ मेरे
मैं तो खुश हूं कि इस ज़माने पर
चोट करते हैं ये अल्फ़ाज़ मेरे…

शब्दार्थ :
गर्द-ए-ज़िल्लत : बदनामी की धूल
स्याह : काले

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