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हां, भाजपा है चौकीदार पर हिंदुत्व की

‘मैं भी चौकीदार’ का नारा दे कर भाजपा भले ही प्रचारित करना चाहती हो कि देश की सुरक्षा और भ्रष्टाचारियों से खजाने की रक्षा की वही एक मात्र चौकीदार है पर जमीनी हकीकत में वह दलित, स्त्री, किसान और अल्पसंख्यकों की रक्षा की चौकीदार कहीं से भी नहीं लगती.

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ब्राह्मणों के कहने पर पिछले 5 सालों से इस देश की सदियों पुरानी ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की पहरेदारी ही कर रहे हैं. शिवाजी राज को पेशवा ब्राह्मण चला रहे थे, आज संघ चला रहा है. यह वैसा ही है जैसा हमारे पुराणों में बारबार कहा गया है.

रामायण का प्रसंग है – ब्राह्मण वशिष्ठ नारद सहित 8 मुनियों को ले कर राम के दरबार में पहुंचे. राम पहले से ही चिंतन में थे कि उन के राज में एक ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो गई तो आखिर किसलिए. ब्राह्मण के शब्द राम के कानों में गूंज रहे थे, ‘‘यह अवश्य राजा के किसी दुष्कर्म का फल है. राज्य में ऐसी दुर्घटना हुई है, ब्राह्मण का बेटा मरा है. राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजा को ऐसी विपत्ति का सामना करना पड़ता है.’’

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नारद ने कहा, ‘‘राजन, निश्चय ही आप के राज में कोई शूद्र वर्ग का मनुष्य तपस्या कर रहा है. इसी से इस ब्राह्मण बालक की मृत्यु हुई है. इसलिए, आप खोज कराइए कि आप के राज में कोई व्यक्ति कर्तव्यों की सीमा का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है.’’

नारद की बात सुन कर राम ने ऐसा ही किया. राम दक्षिण दिशा में स्थित शैवाल पर्वत पर बने एक सरोवर पर पहुंचे जहां एक तपस्वी नीचे की ओर मुंह कर के उलटा लेटा हुआ भयंकर तपस्या कर रहा था. उस की यह विकट तपस्या देख कर राम ने पूछा, ‘हे तपस्वी, तुम कौन हो, किस वर्ण के हो और यह कठिन तपस्या क्यों कर रहे हो?’’

यह सुन कर तपस्वी बोला, ‘महात्मन, मैं शूद्र योनि से उत्पन्न हूं और सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तपस्या कर रहा हूं. मेरा नाम शंबूक है.’

शंबूक की बात सुन कर राम ने म्यान से तलवार निकाल कर उस का सिर काट दिया. इंद्र आदि देवताओं ने आ कर उन की प्रशंसा की. उस ब्राह्मण का मृत पुत्र जिंदा हो उठा.

किस की चौकीदारी

इन दिनों प्रधानमंत्री सहित उन के कई मंत्री और नेता ‘मैं भी चौकीदार’ की जो मुहिम चला रहे हैं वह असल में किस की चौकीदारी की बात कर रहे हैं? इस देश के धार्मिक अंधविश्वास की चौकीदारी की, न कि आम गरीब, दलित, पिछड़े, किसान, अल्पसंख्यक की सुरक्षा की. ज्यादातर चौकीदार का तगमा लगाए ब्राह्मण ही दिखेंगे. उन्हें अपना कार्य बचाना है न.

आइए, जानते हैं केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार आखिर किस की चौकीदारी कर रही है.

कांग्रेस की ‘चौकीदार चोर है’ मुहिम के बाद भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया में अपने नाम के आगे चौकीदार लगाने का अभियान चलाया. प्रधानमंत्री के ट्विटर पर नाम से पहले चौकीदार लगाने के बाद भाजपा के दूसरे नेताओं ने भी ‘मैं भी चौकीदार’ लगाना शुरू कर दिया. भाजपा का यह अभियान ट्विटर पर टैं्रड भी करने लगा. इसे ले कर भाजपा और विपक्षी दलों में सोशल मीडिया पर वार छिड़ गई.

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विकास के बहाने एजेंडे पर जोर

भाजपा का यह अभियान विपक्ष के निशाने पर है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं कि प्रधानमंत्री प्रयास करते रहें पर इस से सचाई को नहीं दबाया जा सकता. वोट के लिए अपने को चौकीदार बताया जा रहा है, जबकि पिछले चुनाव के समय वोट की खातिर खुद को चायवाला प्रचारित किया था.

लोकसभा के 2019 के आम चुनावों में जिस तरह से प्रचार चला उस में जनता से जुड़े किसी मुद्दे की चर्चा ही नहीं हुई.

2014 में भाजपा विकास का नारा ले कर सत्ता में आई थी, पर शीघ्र ही वह अपने ब्राह्मणवादी हिंदुत्व एजेंडे पर उतर आई. गौरक्षा, वंदेमातरम, समान नागरिक संहिता, जम्मूकश्मीर में धारा 370 खत्म करने का मुद्दा, राष्ट्रवाद, राममंदिर निर्माण, आसमानी मूर्तियों का निर्माण, दलितों का दमन, मौब लिंचिंग, तीन तलाक, योग, आयुर्वेद, संस्कृत की अनिवार्य शिक्षा, इतिहास पुनर्लेखन, नदियों की सफाई का ढोंग, तीर्थों का विकास, अर्द्धकुंभ का महाकुंभ के रूप में आयोजन जैसे मुद्दे जोरशोर से उठाने शुरू कर दिए गए.

विज्ञान पर हमले शुरू कर दिए गए. आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों को पौराणिककाल की करार देने की कोशिशें शुरू कर दी गईं ताकि पौराणिक विचार सर्वोपरि बता कर स्थापित किए जा सकें.

हिंदुत्ववादी सोच को आगे बढ़ाने के उद्ेदश्य से पौराणिक विज्ञान की बातें कर तार्किक और वैज्ञानिक सोच पर हमला किया जा रहा है.

2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं मुंबई के रिलायंस हौस्पिटल के एक कार्यक्रम में कहा था कि पौैराणिक काल में भी आनुवंशिक विज्ञान मौजूद था. महाभारत में कर्ण अपनी मां की कोख से पैदा नहीं हुए थे. इस का मतलब है कि उस समय भी जेनेटिक साइंस थी जिस से वह अपनी मां के गर्भ से बाहर पैदा हो सके.

उन्होंने गणेश के बारे में प्राचीनकाल में प्लास्टिक सर्जरी के प्रमाण के रूप में उल्लेख करते हुए कहा था कि  उस समय किसी प्लास्टिक सर्जन ने हाथी के सिर को मानव शरीर पर लगाया होगा.

इसी तरह मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने मानव विकास के बारे में चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को गलत बताते हुए कहा था कि  किसी ने भी बंदर को आदमी में बदलते हुए नहीं देखा था. उन्होंने इस वैज्ञानिक तथ्य की परवा नहीं की कि जैविक विकास क्रम में किसी प्रजाति का परिवर्तन लाखों साल के अंतराल पर हो पाता है, न कि एक इंसान के जीवनकाल में.

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब देब ने भी अपना पौैराणिक ज्ञान देते हुए फरमाया था कि भारत में टैक्नोलौजी महाभारत के समय से विकसित है. महाभारत में इंटरनैट, सैटेलाइट जैसी सुविधाएं उपलब्ध थीं क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो संजय धृतराष्ट्र को युद्ध का विवरण कैसे सुनाते.

बिप्लब देब के इस ज्ञान पर कई जोक और मीम्स बन चुके हैं और सोशल मीडिया पर खूब मजाक भी उड़ाया गया.

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने कहा था कि राजा जनक की बेटी सीता टैस्टट्यूब बेबी थीं. पौैराणिक आख्यानों के अनुसार, सीता खेत में पड़े एक घड़े में मिली थीं.

केंद्र के एक और मंत्री हर्षवर्द्धन ने कहा था कि स्टीफन हौकिंस ने भी माना था कि आइंस्टीन की थ्योरी से आगे वेद हैं.

राजस्थान के शिक्षा मंत्री रहे वासुदेव देवनानी ने यह दावा किया था कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है जो औक्सीजन ग्रहण करती है और औक्सीजन छोड़ती है.

भाजपा के नेता पुष्पक विमान को ले कर भी तमाम दावे करते रहे हैं. यानी, भाजपाई सभी पौराणिक आख्यानों को वैज्ञानिक साबित करने पर तुले हैं.

मिस्र के लोग जिन भगवानों पर आस्था रखते थे उन के सिर भी जानवरों के थे. क्लियोपेट्रा के किस्सों से पता चलता है कि हैड्जवर का सिर लंगूर का था और एन्सूबिस का सिर लोमड़ी जैसा था. अगर भाजपा नेताओं को मिस्र की प्राचीन आस्थाओं का ज्ञान होता तो शायद वे यह कहने से भी नहीं चूकते कि भारत ने मिस्र तक अपने ज्ञान का निर्यात किया.

कट्टर संगठनों का खौफ

भाजपा के सत्ता में आने के बाद हिंदू संगठनों ने दलितों पर बेखौफ हो कर हमले किए. सहारनपुर में दलितों की बस्ती में आग लगा दी गई. दलित नेता चंद्रशेखर रावण को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया.

महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलितों पर हमला किया गया. घरों में तोड़फोड़, आगजनी की गई, गाडि़यां जला दी गईं. इस हमले में कई दलित घायल हो गए थे.

शैक्षणिक संस्थानों में हिंदुत्व विचारधारा थोपने के प्रयास किए गए. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में दलित, वंचित तबकों के छात्रों की छात्रवृत्ति बंद करने की कोशिशें की गईं. धर्म, जाति, भ्रष्टाचार से आजादी की मांग उठाने पर कई छात्रों पर देशद्रोह के मुकदमे कायम करा दिए गए.

हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला को आर्थिक, सामाजिक तौर पर प्रताडि़त कर के उसे आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया गया.

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सितंबर 2017 में बेंगलुरु में कन्नड़ लेखिका व पत्रकार गौरी लंकेश की हिंदू कट्टरवादियों ने घर में घुस कर गोलियों से हत्या कर दी. तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, प्रोफैसर एम एम कलबुर्गी जैसे उदारवादी लेखकों, चिंतकों की आवाजें गोलियों से बंद कर दी गईं.

इन घटनाओं के आरोपियों को भाजपा की सत्ता ने न केवल बचाने की कोशिशें कीं, जांचकार्य को प्रभावित भी किया.

धर्म, जाति के नाम पर देशभर में नफरत, हिंसा फैलाने और संविधान के उल्लंघन की शुरुआत कर दी गई. पिछले 5 वर्षों से जिस राष्ट्रवाद का राग आलापा जा रहा है वह वास्तव में हिंदू राष्ट्रवाद है ताकि सिर्फ ब्राह्मणों की सलाह से हर काम होता रहे.

वोट हथियाने की साजिश

देश की 130 करोड़ जनता के लिए चौकीदार को लोकसभा चुनाव का मुद्दा बनाया जा रहा है. इस से पहले ‘मोदी है तो मुमकिन है’ नारे को प्रचारित किया गया. पिछले 2014 के चुनावों में प्रधानमंत्री को चाय वाला के रूप में प्रचारित किया गया था. यानी इस देश का प्रधानमंत्री खुद को चाय वाला, चौकीदार बता कर उन निचले, दलित, पिछड़े वर्गों को अपने साथ जोड़ लेना चाहता है जो छोटेछोटे कामधंधे, नौकरी कर रहे हैं.

क्या चाय वालों और चौकीदारों की दशा सुधर गई? भाजपा के शासन में इन निचले तबकों की कोईर् तरक्की नहीं हुई. दलित, पिछड़े, गरीब वर्गों को चौकीदार की जरूरत ही नहीं पड़ती. यह वर्ग तो खुद औरों की चौकीदारी करता है और अपना पेट पालता है.

प्रधानमंत्री और उन का पूरा मंत्रिमंडल फिर किस की चौकीदारी की बात कर रहा है? देश के खजाने के पैसे की. वह पैसा किस के पास रहता है? नौकरशाहों के, चुन कर आए नेताओं के पास. ये लोग कितने होंगे? गिनती के. प्रधानमंत्री की सारी कवायद यही है कि ये लोग भ्रष्टाचार न करें. सारी तो क्या, प्रधानमंत्री केवल चंद लोगों की चौकीदारी करने के लिए इसे इतना बड़ा मुद्दा बना रहे हैं.

यह कैसी चौकीदारी

बात चौकीदारी की हो तो भाजपा की सरकार रहते हुए विजय माल्या 9 हजार करोड़ रुपए ले कर कैसे भाग गया? कई बैंकों का पैसा ले कर नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, ललित मोदी कैसे फुर्र हो गए? राफेल सौदे पर क्यों बवाल मचा हुआ है? सौदे के गायब दस्तावेजों पर सरकार क्यों डरी हुई है? सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के

2 बेटों का विदेशों में कालाधन होने का मामला पब्लिक डोमैन में है. इन मामलों को ले कर चौकीदार की ईमानदारी पर सवाल उठ रहे हैं.

कालाधन जमा करने वालों के नाम संसद में उजागर नहीं होने दिए गए. सुप्रीम कोर्ट ने नामों की लिस्ट मांगी, तब दी गई, पर नाम जाहिर न करने की अदालत से गुहार की गई.  जाहिर है चौकीदारी का यह अभियान आम लोगों के लिए तो नहीं है.

किसान, बेरोजगार, अल्पसंख्यक, गरीब, वंचित, दलित, पिछड़े बगैर चौकीदारी के त्रस्त हैं, पिस रहे हैं. उन के बुनियादी हक तक उन्हें मुहैया नहीं हो रहे. देशभर के असल चौकीदार मीडिया के सामने आ कर कह रहे हैं उन्हें न्यूनतम वेतन भी मुहैया नहीं है.

नोटबंदी और जीएसटी लागू कर के छोटे कारोबारियों को खत्म कर दिया गया. उन का तो धंधा उलटे लूट लिया गया.

हां, भाजपा चौकीदार है तो सिर्फ हिंदुत्व की. जैसे कि राम थे. भाजपा पंडों, पुजारियों, गौरक्षकों, साधु, संतों, गुरुओं, ज्योतिषियों, प्रवाचकों, योगाचार्यों के धंधे की रखवाली करती आई है. उन के धंधे को और बढ़ाने में मदद कर रही है. धर्म के नाम पर तमाम तरह के ढोंग करने वालों और राममंदिर बनाने वालों की जरूर चौकीदार है वह. इन लोगों के धंधे की चौकसी सरकार बखूबी करती आई है भले ही धर्म के नाम पर धंधा करने वाले कई बाबा बलात्कार के मामलों में जेलों में बैठे हों.

भाजपा के सत्ता में आने के बाद कट्टर हिंदुत्व ताकतों को खुली छूट मिल गई. गौकशी के नाम पर भीड़तंत्र द्वारा लोगों की हत्याओं को अंजाम दिया जाने लगा. देशभर में मौब लिंचिंग की वारदातों की बाढ़ सी आ गई और इन घटनाओं पर सरकार या तो मौन रही या सरकार में बैठे नेताओं द्वारा इस तरह की घटनाओं को जायज ठहराने की कोशिशें की गईं. आरोपियों को देशभक्त ठहराया गया और उन्हें सम्मानित तक किया गया.

उत्तर प्रदेश के दादरी में गौहत्या के शक में अखलाक को पीटपीट कर मार डाला गया था. पहले मंदिर में माइक से अखलाक के घर में गौमांस होने की अफवाह फैलाई गई और फिर कट्टरपंथियों की जुटी भीड़ घर में घुस कर अखलाक व उन के बेटे दानिश को पीटने लगी. पिटाई से अखलाक की मौत हो गई थी. दानिश को भी घायल होने पर अस्पताल में भरती रहना पड़ा था.

इसी तरह, अप्रैल 2017 में राजस्थान के अलवर में पहलू खान नामक शख्स की गौतस्करी का आरोप लगा कर पीटपीट कर हत्या कर दी गई. डेयरी का धंधा करने वाले पहलू खान जयपुर से गाएं खरीद कर ला रहे थे. रास्ते में गौरक्षा के नाम पर धंधा चलाने वाले गुंडों ने पहलू खान को रोक लिया और मारनेपीटने लगे. बाद में पहलू खान की मौत हो गई.

अलवर के ही रकबर खान को भी गौतस्करी के आरोप में भीड़ द्वारा मार डाला गया. दोनों मामलों में आरोपियों को बचाने की कोशिशें की गईं. पहलू खान के हत्यारों को तो पुलिस ने क्लीन चिट दे दी थी पर देशभर में जब होहल्ला मचा तब 9 आरोपी तय किए गए.

हिंदूवादी संगठनों द्वारा आरोपियों को राष्ट्रभक्त करार दिया गया. राज्य की तब की भाजपा सरकार द्वारा मामले में लीपापोती की गई. क्षेत्र के भाजपा विधायक रहे ज्ञानदेव आहूजा ने तो रकबर खान की मौत पुलिस हिरासत में बता कर असली अपराधियों को बचाने का प्रयास किया. आरोपी विश्व हिंदू परिषद से जुड़े हुए थे.

2017 में ईद के मौके पर दिल्ली के सदर बाजार से खरीदारी कर के लोकल टे्रन से बल्लभगढ़ जा रहे एक किशोर जुनैद की भीड़ ने पीटपीट कर हत्या कर दी थी.

अखलाक मामले में एक आरोपी पर केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने तिरंगा लपेटा था और दूसरे केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने आरोपियों को सम्मानित किया था.

महिलाओं की पहरेदारी

सरकार स्त्रियों की सुरक्षा की नहीं, उन्हें धार्मिक मर्यादा के बाहर न निकलने देने की पहरेदारी जरूर कर रही है. स्त्रियों का शनि शिगणापुर, सबरीमाला जैसे मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देने और पढ़ने जैसे मनुस्मृति के आदेशों की पहरेदारी की जा रही है.

दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमलों की अनगिनत वारदातों पर सरकार खामोश रहती है या इन हमलों को जायज ठहराती रही है, इन की चौकदारी की चिंता उसे नहीं है. दरअसल, सरकार की असली चौकीदारी वर्णव्यवस्था को बनाए रखने की रही है.

धर्म के ठेकेदारों के धंधे को बचाने के लिए पाखंड, झूठ की पोल खोलने वालों पर डंडे फटकारे हैं. धर्म के रास्ते पर न चलने वालों को सबक सिखाया जा रहा है, धमकियां दी जा रही हैं. सरकार को उन की चौकीदारी की परवा नहीं है.

पिछले 5 वर्षों में अगर चौकीदारी हुई है तो केवल हिंदुत्व की. प्रयागराज में अर्धकुंभ था पर इस में 30 हजार करोड़ रुपए खर्च कर महाकुंभ के रूप में बंदोबस्त किया गया. देशभर के निठल्ले साधुओं, शंकराचार्याें, महंतों, मठाधीशों के लिए हलवापूरी का इंतजाम किया गया. पंडों के लिए दानदक्षिणा की व्यवस्था कराई गई.

सदियों से धर्म के जरिए जिस तरह जनता को बेवकूफ बनाया जाता रहा है, ‘मैं भी चौकीदार’ जैसा प्रचार अभियान भाजपा का एक और ढोंग ही है, इस से किसी का भला नहीं होगा. हां, भाजपा एक बार फिर सत्ता में आ कर फिर से धर्म के धंधेबाजों की चौकीदारी करती रहेगी. इस से न तो जनता का विकास होगा, न देश का.

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विकास के एजेंडे से हट कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति अपना ली गई. देश में हिंदूराज स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. 1925 में बने संघ का सपना भारत में हिंदूराज की स्थापना करने का ही रहा है. उस के नेता समयसमय पर हिंदूराज का राग अलापते आ रहे हैं. देश में पेशवाराज जैसी नीतियां सफल होती दिख रही हैं.

2014 के बाद भाजपा सरकार द्वारा भारत को एक अलग तरीके के राष्ट्रवाद की स्वीकृति दिलाने की कोशिशें की गईं जिस का आधार हिंदू धर्म है. संघ और भाजपा शुरू से लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत की अवधारणा से सहमत नहीं रहे. हिंदुत्व को मुख्यधारा की राजनीति में लाने में भाजपा कामयाब होती दिख रही है. भाजपा गैरबराबरी वाली व्यवस्था आधारित धर्म के बल पर देश को चलाना चाहती है.

6 टिप्स: इन तरीको से रखे पेट दर्द को दूर…

पेट दर्द की समस्या एक आम बात है. अनहेल्थी फूड और खान-पान के गलत तरीके के कारण कई बार पेट  में दर्द होता है. कई बार ज्यादा खा लेने के कारण या भारी भोजन कर लेने के बाद खाना ठीक से पच नहीं पाता है और इस कारण भी पेट दर्द की समस्या हो जाती है. अगर पेट में कोई रोग नहीं है, तो आमतौर पर पेट दर्द खाने-पीने की गलत आदतों के कारण ही होता है. इसलिए जब भी आपके पेट में दर्द हो, आपको खाने-पीने में कुछ सावधानियां रखनी चाहिए. पेट में दर्द होने पर इन चीजों का सेवन आपके पेट दर्द को बढ़ा सकता है इसलिए इन 6 चीजों से सावधान रहें.

1.दूध से बनी चीजों से रहे दूर

अगर आपके पेट में दर्द है तो आपको दूध नहीं पीना चाहिए और न ही दूध से बनी कोई चीज खानी चाहिए. दूध से बने प्रोडक्ट्स को पचाना कठिन होता है. इसलिए इसके कारण आपको अपच की समस्या हो सकती है और पेट दर्द और ज्यादा बढ़ सकता है. दूध पीने से पेट में गैस भी बन सकती है.

 2.मसालेदार भोजन से बचें

मसालेदार खाने से आपके डाइजेशन और पेट दर्द की समस्या बढ़ सकती है. पेट दर्द होने पर आपको सादा और जल्दी पचने वाला खाना खाना चाहिए. भारी खाने को पचाना पेट के लिए मुश्किल होता है. पेट दर्द के अलावा मसालेदार भोजन ज्यादा खाने से सीने में जलन की समस्या भी हो सकती है.

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3.फास्टफूड्स को करें बाय बाय

फास्टफू़ड्स में तेल, मसाले और अन्य कई हानिकारक तत्वों की मात्रा ज्यादा होती है. फास्टफूड्स आपका पेट खराब कर सकते हैं. कई बार पेट दर्द होने पर फास्टफूड्स खा लेने से पेचिश और उल्टी की समस्या भी शुरू हो जाती है.

4.लहसुन के सेवन से  बचें

लहसुन कई तरह के रोगों को आसानी से ठीक करता है मगर पेट दर्द की समस्या होने पर इसका सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि ये आपकी समस्या को बढ़ा सकता है. लहसुन के सेवन से आपको गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं हो सकती हैं.

5.चाय या कौफी से रहें दूर

पेट दर्द होने पर चाय या कौफी पीना आपके पेट में एसिडिटी को बढ़ाता है. खाने के तुरंत बाद चाय न पिएं, क्योंकि खाने के तुरंत बाद चाय पीने से खाना पचने में दिक्कत होती है. एसिडिटी और पेट दर्द की समस्या भी हो सकती है.

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6.सोडा को कहे ना…

सोडा में कैफीन और साइट्रिक एसिड होता है, इसलिए ये आपके पेट दर्द के लिए घातक हो सकता है. कई बार एसिडिटी होने पर सोडा पेट दर्द से राहत भी दिलाता है, मगर एसिडिटी के अलावा किसी तरह का पेट दर्द होने पर ये पेट की समस्या को और ज्यादा बढ़ा सकता है. इससे आपको एसिड रिफ्लक्स हो सकता है.

Edited by – Neelesh Singh Sisodia

अंतराल

चंद मुलाकातों के बाद ही सोफिया और पंकज ने शादी करने का निर्णय कर लिया. पर सोफिया के पिता द्वारा रखी गई शर्त सुनने पर पंकज ने शादी से इनकार कर दिया.

25 साल बाद जरमनी से भेजा सोफिया का पत्र मिला तो पंकज आश्चर्य से भर गए. पत्र उन के गांव के डाकखाने से रीडाइरेक्ट हो कर आया था. जरमन भाषा में लिखे पत्र को उन्होंने कई बार पढ़ा. लिखा था, ‘भारतीय इतिहास पर मेरे शोध पत्रों को पढ़ कर, मेरी बेटी जूली इतना प्रभावित हुई है कि भारत आ कर वह उन सब स्थानों को देखना चाहती है जिन का शोध पत्रों में वर्णन आया है, और चाहती है कि मैं भी उस के साथ भारत चलूं.’

‘तुम कहां हो? कैसे हो? यह वर्षों बीत जाने के बाद कुछ पता नहीं. भारत से लौट कर आई तो फिर कभी हम दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी नहीं हुआ, इसलिए तुम्हारे गांव के पते पर यह सोच कर पत्र लिख रही हूं कि शायद तुम्हारे पास तक पहुंच जाए. पत्र मिल जाए तो सूचित करना, जिस से भारत भ्रमण का ऐसा कार्यक्रम बनाया जा सके जिस में तुम्हारा परिवार भी साथ हो. अपने मम्मीपापा, पत्नी और बच्चों के बारे में, जो अब मेरी बेटी जूली जैसे ही बडे़ हो गए होंगे, लिखना और हो सके तो सब का फोटो भी भेजना ताकि हम जब वहां पहुंचें तो दूर से ही उन्हें पहचान सकें.’

पत्नी और बेटा अभिषेक दोनों ही उस समय कालिज गए हुए थे. पत्नी हिंदी की प्रोफेसर है और बेटा एम.बी.ए. फाइनल का स्टूडेंट है. शनिवार होने के कारण पंकज आज बैंक से जल्दी घर आ गए थे. इसलिए मन में आया कि क्यों न सोफिया को आज ही पत्र लिख दिया जाए.

पंकज ने सोफिया को जब पत्र लिखना शुरू किया तो उस के साथ की पुरानी यादें किसी चलचित्र की तरह उन के मस्तिष्क में उभरने लगीं.

तब वह मुंबई के एक बैंक में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर कार्यरत थे. अभी उन की शादी नहीं हुई थी इसलिए वह एक होस्टल में रह रहे थे.

सोफिया से उन की मुलाकात एलीफेंटा जाते हुए जहाज पर हुई थी. वह भारत में पुरातत्त्व महत्त्व के स्थानों पर भ्रमण के लिए आई थी और उन के होस्टल के पास ही होटल गेलार्ड में ठहरी थी. सोफिया को हिंदी का ज्ञान बिलकुल नहीं था और अंगरेजी भी टूटीफूटी ही आती थी. उन के साथ रहने से उस दिन उस की भाषा की समस्या हल हो गई तो वह जब भी ऐतिहासिक स्थानों को घूमने के लिए जाती, उन से भी चलने का आग्रह करती.

सोफिया को भारत के ऐतिहासिक स्थानों के बारे में अच्छी जानकारी थी. उन से संबंधित काफी साहित्य भी वह अपने साथ लिए रहती थी, इसलिए उस के साथ रहने पर चर्चाओं में उन को आनंद तो आता ही था साथ ही जरमन भाषा सीखने में भी उन्हें उस से काफी मदद मिलती.

साथसाथ रहने से उन दोनों के बीच मित्रता कुछ ज्यादा बढ़ने लगी. एक दिन सोफिया ने अचानक उन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख उन्हें चौंका दिया, और जब वह कुछ उत्तर नहीं दे पाए तो मुसकराते हुए कहने लगी, ‘जल्दी नहीं है, सोच कर बतलाना, अभी तो मुझे मुंबई में कई दिनों तक रहना है.’

यह सच है कि सोफिया के साथ रहते हुए वह उस के सौंदर्य और प्रतिभा के प्रति अपने मन में तीव्र आकर्षण का अनुभव करते थे पर विवाह की बात उन के दिमाग में कहीं दूर तक भी नहीं थी, ऐसा शायद इसलिए भी कि सोफिया और अपने परिवार के स्तर के अंतर को वह अच्छी तरह समझते थे. कहां सोफिया एक अमीर मांबाप की बेटी, जो भारत घूमने पर ही लाखों रुपए खर्च कर रही थी और कहां सामान्य परिवार के वह जो एक बैंक में अदने से अधिकारी थे. प्रेम के मामले में सदैव दिल की ही जीत होती है, इसलिए सबकुछ जानते और समझते हुए भी वह अपने को सोफिया से प्यार का इजहार करने से नहीं रोक पाए थे.

उन दिनों मां ने अपने एक पत्र में लिखा था कि आजकल तुम्हारे विवाह के लिए बहुत से लड़की वालों के पत्र आ रहे हैं, यदि छुट्टी ले कर तुम 2-4 दिन के लिए घर आ जाओ तो फैसला करने में आसानी रहेगी. तब उन्होंने सोचा था कि जब घर पहुंच कर मां को बतलाएंगे कि मुंबई में ही उन्होंने एक लड़की सोफिया को पसंद कर लिया है तो मां पर जो गुजरेगी और घर में जो भूचाल उठेगा, क्या वह उसे शांत कर पाएंगे पर कुछ न बतलाने पर समस्या क्या और भी जटिल नहीं हो जाएगी…

तब छोटी बहन चारू ने फोन किया था, ‘भैया, सच कह रही हूं, कुछ लड़कियों की फोटो तो बहुत सुंदर हैं. मां तो उन्हें देख कर फूली नहीं समातीं. मां ने कुछ से तो यह भी कह दिया कि मुझे दानदहेज की दरकार नहीं है, बस, घरपरिवार अच्छा हो और लड़की उन के बेटे को पसंद आ जाए…’

बहन की इन चुहल भरी बातों को सुन कर जब उन्होंने कहा कि चल, अब रहने दे, फोन के बिल की भी तो कुछ चिंता कर, तो चहकते हुए कहने लगी थी, ‘उस के लिए तो मम्मीपापा और आप हैं न.’

मां को अपने आने की सूचना दी तो कहने लगीं, ‘जिन लोगों के प्रस्ताव यहां सब को अच्छे लग रहे हैं उन्हें तुम्हारे सामने ही बुला लेंगे, जिस से वे लोग भी तुम से मिल कर अपना मन बना लें और फिर हमें आगे बढ़ने में सुविधा रहे.’

‘नहीं मां, अभी किसी को बुलाने की जरूरत नहीं है. अब घर तो आ ही रहा हूं इसलिए जो भी करना होगा वहीं आ कर निश्चित करेंगे…’

‘जैसी तेरी मरजी, पर आ रहा है तो कुछ निर्णय कर के ही जाना. लड़की वालों का स्वागत करतेकरते मैं परेशान हो गई हूं.’

घर पहुंचा तो चारू चहकती हुई लिफाफों का पुलिंदा उठा लाई थी, ‘देखो भैया, ये इतने प्रपोजल तो मैं ने ही रिजेक्ट कर दिए हैं…शेष को देख कर निर्णय कर लो…किनकिन से आगे बात करनी है.’

उन्होंने उन में कोई रुचि नहीं दिखाई, तो रूठने के अंदाज में चारू बोली, ‘क्या भैया, आप मेरा जरा भी ध्यान नहीं रखते. मैं ने कितनी मेहनत से इन्हें छांट कर अलग किया है, और आप हैं कि इस ओर देख ही नहीं रहे. ज्यादा भाव खाने की कोशिश न करो, जल्दी देखो, मुझे और भी काम करने हैं.’

जब वह उन के पीछे ही पड़ गई तो वह यह कहते उठ गए थे कि चलो, पहले स्नान कर भोजन कर लें…मां भी फ्री हो जाएंगी…फिर सब आराम से बैठ कर देखेंगे. मां ने भी उन का समर्थन करते हुए चारू को डपट दिया, ‘भाई ठीक ही तो कह रहा है, छोड़ो अभी इन सब को, आया नहीं कि चिट्ठियों को ले कर बैठ गई.’

दोपहर में चारू तो अपनी सहेली के साथ बाजार चली गई, मां को फुरसत में देख, वह उन के पास जा कर बैठ गए और बोले, ‘मां, आप से कुछ बात करनी है.’

‘ऐसी कौन सी बात है जिसे मां से कहने में तू इतना परेशान दिख रहा है?’

‘मां…दरअसल, बात यह है कि मुझे मुंबई में एक लड़की पसंद आ गई है.’

मां कुछ चौंकीं तो पर खुश होते हुए बोलीं, ‘अरे, तो अब तक क्यों नहीं बताया? कैसी लगती है वह? बहुत सुंदर होगी. फोटो लाया है? क्या नाम है? उस के मांबाप भी क्या मुंबई में ही रहते हैं? क्या करते हैं वे?’

मां की उत्सुकता और उन के सवालों को सुन कर वह तब मौन हो गए थे. उन्हें इस तरह खामोश देख कर मां बोली थीं, ‘अरे, चुप क्यों हो गया? बतला तो, कौन है, कैसी है?’

‘मां, वह एक जरमन लड़की है, जो रिसर्च के सिलसिले में मुंबई आई हुई है और मेरे होस्टल के पास ही होटल में रहती है. हमारी मुलाकात अचानक ही एक यात्रा के दौरान हो गई थी. मां, कहने को तो सोफिया जरमन है पर देखने में उस का नाकनक्श सब भारतीयों जैसा ही है.’

अपने बेटे की बात सुन कर मां एकदम सकते में आ गई थीं. कहने लगीं, ‘बेटा, तुम्हारी यह पसंद मेरी समझ में नहीं आई. तुम्हें अपने परिवार में सब संस्कार भारतीय ही मिले पर यह कैसी बात कि शादी एक विदेशी लड़की से करना चाहते हो? क्या मुंबई जा कर लोग अपनी परंपराओं और संस्कृति को भूल कर महानगर के मायाजाल में इतनी जल्दी खो जाते हैं कि जिस लड़की से शादी करनी है उस के घरपरिवार के बारे में जानने की जरूरत भी महसूस नहीं करते? क्या अपने देश में सुंदर लड़कियों की कोई कमी है, जो एक विदेशी लड़की को हमारे घर की बहू बनाना चाहते हो?’

फिर यह कहते हुए मां उठ कर वहां से चली गईं कि एक विदेशी बहू को वह स्वीकार नहीं कर पाएंगी.

शाम को चाय पर फिर एकसाथ बैठे तो मां ने समझाते हुए बात शुरू की, ‘देखो बेटा, शादीविवाह के फैसले भावावेश में लेना ठीक नहीं होता. तुम जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि जिस परिवेश में तुम पढ़लिख कर बड़े हुए और तुम्हारे जो आचारविचार हैं, क्या कोई यूरोपीय संस्कृति में पलीबढ़ी लड़की उन के साथ सामंजस्य बिठा पाएगी? माना कि तुम्हें मुंबई में रहना है और वहां यह सब चलता है पर हमें तो यहां समाज के बीच ही रहना है. जब हमारे बारे में लोग तरहतरह की बातें करेंगे तब हमारा तो लोगों के बीच उठनाबैठना ही मुश्किल हो जाएगा. फिर चारू की शादी भी परेशानी का सबब बन जाएगी.’

‘मां, आप चारू की शादी की चिंता न करें,’ वह बोले थे, ‘वह मेरी जिम्मेदारी है और मैं ही उसे पूरी करूंगा. लोगों का क्या? वे तो सभी के बारे में कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं. रही बात सोफिया के विदेशी होने की तो वह एक समझदार और सुलझेविचारों वाली लड़की है. वह जल्दी ही अपने को हमारे परिवार के अनुरूप ढाल लेगी. मां, आप एक बार उसे देख तो लें, वह आप को भी अच्छी लगेगी.’

बेटे की बातों से मां भड़कते हुए बोलीं, ‘तेरे ऊपर तो उस विदेशी लड़की का ऐसा रंग चढ़ा हुआ है कि तुझ से कुछ और कहना ही अब बेकार है. तुझे जो अच्छा लगे सो कर, मैं बीच में नहीं बोलूंगी.’

पापा के आफिस से लौटने पर जब उन के कानों तक सब बातें पहुंचीं, तो पहले वह भी विचलित हुए थे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘बेटे, मुझे तुम्हारी समझदारी पर पूरा विश्वास है कि तुम अपना तथा परिवार का सब तरह से भला सोच कर ही कोई निर्णय करोगे. यदि तुम्हें लगता है कि सोफिया के साथ विवाह कर के ही तुम सुखी रह सकते हो, तो हम आपत्ति नहीं करेंगे. हां, इतना जरूर है कि विवाह से पहले एक बार हम सोफिया और उस के मातापिता से मिलना अवश्य चाहेंगे.’

पापा की बातों से उन के मन को तब बहुत राहत मिली थी पर वह यह समझ नहीं पाए थे कि उन की बातों से आहत हुई मां को वह कैसे समझाएं?

उन के मुंबई लौटने पर जब सोफिया ने उन से घर वालों की राय के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा था, ‘मैं ने तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने यही कहा यदि तुम खुश हो तो उन की भी सहमति है और तुम्हारे मम्मीपापा के भारत आने पर उन से मिलने वे मुंबई आएंगे.’

सोफिया से यह सब कहते हुए उन्हें अचानक ऐसा लगा था कि सोफिया के साथ विवाह का निर्णय कर कहीं उन्होंने कोई गलत कदम तो नहीं उठा लिया? लेकिन सोफिया के सौंदर्य और प्यार से अभिभूत हो जल्दी ही उन्होंने अपने इस विचार को झटक दिया था.

उन के मुंबई लौटने के बाद घर में एक अजीब सी खामोशी छा गई थी. मां और चारू दोनों ही अब घर से बाहर कम ही निकलतीं. उन्हें लगता कि यदि किसी ने बेटे की शादी का जिक्र छेड़ दिया तो वे उसे  क्या उत्तर देंगी?

पापा यह कह कर मां को समझाते, ‘मैं तुम्हारी मनोस्थिति को समझ रहा हूं, पर जरा सोचो कि मेरे अधिक जोर देने पर यदि वह सोफिया की जगह किसी और लड़की से विवाह के लिए सहमत हो भी जाता है और बाद में अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट रहता है तो न वह ही सुखी रह पाएगा और न हम सभी. इसलिए विवाह का फैसला उस के स्वयं के विवेक पर ही छोड़ देना हम सब के हित में है.’

कुछ दिन बाद उन के फोन करने पर पापा, मां और चारू को ले कर मुंबई आ गए थे क्योंकि सोफिया के मम्मीपापा भी भारत आ गए थे.

मुंबई पहुंचने पर निश्चित हुआ कि अगले दिन लंच सब लोग एक ही होटल में करेंगे और दोनों परिवार वहीं एकदूसरे से मिल कर विवाह की संक्षिप्त रूपरेखा तय कर लेंगे. दोनों परिवार जब मिले तो सामान्य शिष्टाचार के बाद पापा ने ही बात शुरू की थी, ‘आप को मालूम ही है कि आप की बेटी और मेरा बेटा एकदूसरे को पसंद करते हैं. हम लोगों ने उन की पसंद को अपनी सहमति दे दी है. इसलिए आप अपनी सुविधा से कोई तारीख निश्चित कर लें जिस से दोनों विवाह सूत्र में बंध सकें.

पापा के इस सुझाव के उत्तर में सोफिया के पापा ने कहा था, ‘पर इस के लिए मेरी एक शर्त है कि शादी के बाद आप के बेटे को हमारे साथ जरमनी में ही रहना होगा और इन की जो संतान होगी वह भी जरमन नागरिक ही कहलाएगी. आप अपने बेटे से पूछ लें, उसे मेरी शर्त स्वीकार होने पर ही इस शादी के लिए मेरी अनुमति हो सकेगी.’

उन की शर्त सुन कर सभी चौंक गए थे. सोफिया को भी अपने पापा की यह शर्त अच्छी नहीं लगी थी. उधर वह सोच रहे थे कि नहीं, इस शर्त के लिए वह हरगिज सहमत नहीं हो सकते. वह क्या इतने खुदगर्ज हैं जो अपनी खुशी के लिए अपने मांबाप और बहन को छोड़ कर विदेश में रहने चले जाएं? पढ़ते समय वह सोचा करते थे कि जिस तरह मम्मीपापा ने उन के जीवन को संवारने में कभी अपनी सुखसुविधा की ओर ध्यान नहीं दिया, उसी तरह वह भी उन के जीवन के सांध्यकाल को सुखमय बनाने में कभी अपने सुखों को बीच में नहीं आने देंगे.

उन्होंने दूर खड़ी उदास सोफिया से कहा, ‘तुम्हारे पापा की शर्त के अनुसार मुझे अपने परिवार और देश को छोड़ कर जाना कतई स्वीकार नहीं है, इसलिए अब आज से हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं, पर मेरी शुभकामनाएं हमेशा तुम्हारे साथ हैं.’

दरवाजे की घंटी बजी तो अपने अतीत में खोए पंकज अचानक वर्तमान में लौट आए. देखा, पोस्टमैन था. पत्नी की कुछ पुस्तकें डाक से आई थीं. पुस्तकें प्राप्त कर, अधूरे पत्र को जल्द पूरा किया और पोस्ट करने चल दिए.

कुछ दिनों बाद, देर रात्रि में टेलीफोन की घंटी बजी. उठाया तो दूसरी ओर से सोफिया की आवाज थी. कह रही थी कि पत्र मिलने पर बहुत खुशी हुई. अगले मंडे को बेटी के साथ वह मुंबई पहुंच रही है. उसी पुराने होटल में कमरा बुक करा लिया है, पर व्यस्तता के कारण केवल एक सप्ताह का समय ही निकाल पाई है. उम्मीद है आप का परिवार भी घूमने में हमारे साथ रहेगा.

टेलीफोन पर हुई पूरी बात, सुबह पत्नी और बेटे को बतलाई. वे दोनों भी घूमने के लिए सहमत हो गए. सोफिया के साथ घूमते हुए पत्नी को भी अच्छा लगा. अभिषेक और जूली ने भी बहुत मौजमस्ती की. अंतिम दिन मुंबई घूमने का प्रोग्राम था. पर सब लोगों ने जब कोई रुचि नहीं दिखाई तो अभिषेक व जूली ने मिल कर ही प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि में दोनों देर से लौटे. सोते समय सोफिया ने अपनी बेटी से पूछा, ‘‘आज अभिषेक के साथ तुम दिन भर, अकेले ही घूमती रहीं. तुम्हारे बीच बहुत सी बातें हुई होंगी? क्या सोचती हो तुम उस के बारे में? कैसा लड़का है वह?’’

‘‘मम्मी, अभि सचमुच बहुत अच्छा और होशियार है. एम.बी.ए. के पिछले सत्र में उस ने टाप किया है. आगे बढ़ने की उस में बहुत लगन है.’’

‘‘इतनी प्रशंसा? कहीं तुम्हें प्यार तो नहीं हो गया?’’

‘‘हां, मम्मी, आप का अनुमान सही है.’’

‘‘और वह?’’

‘‘वह भी.’’

‘‘तो क्या अभि के पापा से तुम दोनों के विवाह के बारे में बात करूं?’’

‘‘हां, मम्मी, अभि भी ऐसा ही करने को कह रहा था.’’

‘‘पर जूली, तुम्हारे पापा को तो ऐसा लड़का पसंद है, जो उन के साथ रह कर बिजनेस में उन की मदद कर सके. क्या अभि इस के लिए तैयार होगा.’’

‘‘क्यों नहीं, यह तो आगे बढ़ने की उस की इच्छा के अनुकूल ही है. फिर वह क्यों मना करने लगा?’’

‘‘भारत छोड़ देने पर, क्या उस के मम्मीपापा अकेले नहीं रह जाएंगे?’’

‘‘तो क्या हुआ? भारत में इतने वृद्धाश्रम किस लिए हैं?’’

‘‘क्या इस बारे में तुम ने अभि के विचारों को जानने का भी प्रयत्न किया?’’

‘‘हां, वह इस के लिए खुशी से तैयार है. कह भी रहा था कि यहां भारत में रह कर तो उस की तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकती. लेकिन मम्मी, अभि की इस बात पर आप इतना संदेह क्यों कर रही हैं?’’

‘‘कुछ नहीं, यों ही.’’

‘‘नहीं मम्मी, इतना सब पूछने का कुछ तो कारण होगा? बतलाइए.’’

‘‘इसलिए कि बिलकुल ठीक ऐसी ही परिस्थितियों में अभि के पापा ने भारत छोड़ने से मना कर दिया था.’’

‘‘पर तब आप ने उन्हें समझाया नहीं?’’

‘‘नहीं, शायद इसलिए कि मुझे भी उन का मना करना गलत नहीं लगा था.’’

‘‘ओह मम्मी, आप और अभि के पापा दोनों की बातें और सोच, मेरी समझ के तो बाहर की हैं. मैं तो सो रही हूं. सुबह जल्दी उठना है. अभि कह रहा था, वह सुबह मिलने आएगा. उसे आप से भी कुछ बातें करनी हैं.’’

बेटी की सोच और उस की बातों के अंदाज को देख, सोफिया को लग रहा था कि पीढ़ी के ‘अंतराल’ ने तो हवा का रुख ही बदल दिया है.

वारिस

सुरजीत के घर में अनजान औरत को देख नरेंद्र चौंक गया. पूछने पर मालूम हुआ कि वह ‘कुदेसन’ है. रहरह कर उसे अपने घर में रह रही उस औरत का खयाल आने लगा. कहीं वह भी ‘कुदेसन’ तो नहीं.

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

नरेंद्र ने जब से होश संभाला था उस का भी अमली चाचा से वास्ता पड़ता रहा था. जब भी उस के पांव की चप्पल कहीं से टूटती थी तो उस की मरम्मत अमली चाचा ही करता था. चप्पल की मरम्मत और पालिश कर के एकदम उस को नया जैसा बना देता था अमली चाचा.

काम करते हुए बातें करने की अमली चाचा की आदत थी. बातों की झोंक में कई बार बड़ी काम की बातें भी कह जाता था अमली चाचा.

‘कुदेसन’ के बारे में अमली चाचा से वह पूछेगा, ऐसा मन बनाया था नरेंद्र ने.

एक दिन जब स्कूल से वापस आ कर सब लड़के अपनेअपने घर की तरफ रुख कर गए तो नरेंद्र घर जाने के बजाय चौपाल के करीब पीपल के नीचे जूतों की मरम्मत में जुटे अमली चाचा के पास पहुंच गया.

नरेंद्र को देख अमली चाचा ने कहा, ‘‘क्यों रे, फिर टूट गई तेरी चप्पल? तेरी चप्पल में अब जान नहीं रही. अपने कंजूस बाप से कह अब नई ले दें.’’

‘‘मैं चप्पल बनवाने नहीं आया, चाचा.’’

‘‘तब इस चाचा से और क्या काम पड़ गया, बोल?’’ अमली ने पूछा.

नरेंद्र अमली चाचा के पास बैठ गया. फिर थोड़ी सी ऊहापोह के बाद उस ने पूछा, ‘‘एक बात बतलाओ चाचा, यह ‘कुदेसन’ क्या होती है?’’

नरेंद्र के सवाल पर जूता गांठ रहे अमली चाचा का हाथ अचानक रुक गया. चेहरे पर हैरानी का भाव लिए वह बोले, ‘‘ तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’

‘‘मैं ने सुरजीत के घर में एक औरत को देखा था चाचा, सुरजीत कहता है कि वह औरत ‘कुदेसन’ है जिस को उस का बापू बाहर से लाया है. बतलाओ न चाचा कौन होती है ‘कुदेसन’?’’

‘‘क्या करेगा जान कर? अभी तेरी उम्र नहीं है ऐसी बातों को जानने की. थोड़ा बड़ा होगा तो सब अपनेआप मालूम हो जाएगा. जा, घर जा.’’ नरेंद्र को टालने की कोशिश करते हुए अमली चाचा ने कहा.

लेकिन नरेंद्र जिद पर अड़ गया.

तब अमली चाचा ने कहा,

‘‘ ‘कुदेसन’ वह होती है बेटा, जिस को मर्द लोग बिना शादी के घर में ले आते हैं और उस को बीवी की तरह रखते हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं चाचा.’’

‘‘थोड़े और बड़े हो जाओ बेटा तो सब समझ जाओगे. कुदेसनें तो इस गांव में आती ही रही हैं. आज सुरजीत का बाप ‘कुदेसन’ लाया है. एक दिन तेरा बाप भी तो ‘कुदेसन’ लाया था. पर उस ने यह सब तेरी मां की रजामंदी से किया था. तभी तो वह वर्षों बाद भी तेरे घर में टिकी हुई है. बातें तो बहुत सी हैं पर मेरी जबानी उन को सुनना शायद तुम को अच्छा नहीं लगेगा, बेहतर होगा तुम खुद ही उन को जानो,’’ अमली चाचा ने कहा.

अमली चाचा की बातों से नरेंद्र हक्काबक्का था. उस ने सोचा नहीं था कि उस का एक सवाल कई दूसरे सवालों को जन्म दे देगा.

सवाल भी ऐसे जो उस की अपनी जिंदगी से जुडे़ थे. अमली चाचा की बातों से यह भी लगता था कि वह बहुत कुछ उस से छिपा भी गया था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि होश संभालने के बाद वह जिस खामोश औरत को अपने घर में देखता आ रहा है वह कौन है?

वह भी ‘कुदेसन’ है, लेकिन सवाल तो कई थे.

यदि मेरा बापू कभी मां की रजामंदी से ‘कुदेसन’ लाया था तो आज मां उस से इतना बुरा सलूक क्यों करती है? अगर वह ‘कुदेसन’ है तो मुझ को देख कर रोती क्यों है? जरा सा मौका मिलते ही मुझ को अपने सीने से चिपका कर चूमनेचाटने क्यों लगती थी वह? मां की मौजूदगी में वह ऐसा क्यों नहीं करती थी? क्यों डरीडरी और सहमी सी रहती थी वह मां के वजूद से?

फिर अमली चाचा की इस बात का क्या मतलब था कि अपने घर की कुछ बातें खुद ही जानो तो बेहतर होगा?

ऐसी कौन सी बात थी जो अमली चाचा जानता तो था किंतु अपने मुंह से उस को नहीं बतलाना चाहता?

एक सवाल को सुलझाने निकला नरेंद्र का किशोर मन कई सवालों में उलझ गया.

उस को लगने लगा कि उस के अपने जीवन से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन के बारे में वह कुछ नहीं जानता.

अमली चाचा से नई जानकारियां मिलने के बाद नरेंद्र ने मन में इतना जरूर ठान लिया कि वह एक बार मां से घर में रह रही ‘कुदेसन’ के बारे में जरूर पूछेगा.

‘कुदेसन’ के कारण अब सुरजीत के घर में बवाल बढ़ गया था. सुरजीत की मां ‘कुदेसन’ को घर से निकालना चाहती थी मगर उस का बाप इस के लिए तैयार नहीं था.

इस झगड़े में सुरजीत की मां के दबंग भाइयों के कूदने से बात और भी बिगड़ गई थी. किसी वक्त भी तलवारें खिंच सकती थीं. सारा गांव इस तमाशे को देख रहा था.

वैसे भी यह गांव में इस तरह की कोई नई या पहली घटना नहीं थी.

जब सारे गांव में सुरजीत के घर आई ‘कुदेसन’ की चर्चा थी तो नरेंद्र का घर इस चर्चा से अछूता कैसे रह सकता था?

नरेंद्र ने भी मां और सिमरन बूआ को इस की चर्चा करते सुना था लेकिन काफी दबी और संतुलित जबान में.

इस चर्चा को सुन कर नरेंद्र को लगा था कि उस के मां से कु छ पूछने का वक्त आ गया है.

एक दिन जब नरेंद्र स्कूल से वापस घर लौटा तो मां अपने कमरे में अकेली थीं. सिमरन बूआ किसी रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं और बापू खेतों में था.

नरेंद्र ने अपना स्कूल का बस्ता एक तरफ रखा और मां से बोला, ‘‘एक बात बतला मां, गायभैंस बांधने वाली जगह के पास बनी कोठरी में जो औरत रहती है वह कौन है?’’

नरेंद्र के इस सवाल पर उस की मां बुरी तरह से चौंक गईं और पल भर में ही मां का चेहरा आशंकाओें के बादलों में घिरा नजर आने लगा.

‘‘तू यह सब क्यों पूछ रहा है?’’ नरेंद्र को बांह से पकड़ झंझोड़ते हुए मां ने पूछा.

‘‘सुरजीत के घर में उस का बापू  एक कुदेसन ले आया है. लोग कहते हैं हमारे घर में रहने वाली यह औरत भी एक ‘कुदेसन’ है. क्या लोग ठीक कहते हैं, मां?’’

नरेंद्र का यह सवाल पूछना था कि एकाएक आवेश में मां ने उस के गाल पर चांटा जड़ दिया और उस को अपने से परे धकेलती हुई बोलीं, ‘‘तेरे इन बेकार के सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है. वैसे भी तू स्कूल पढ़ने के लिए जाता है या लोगों से ऐसीवैसी बातें सुनने? तेरी ऐसी बातों में पड़ने की उम्र नहीं. इसलिए खबरदार, जो दोबारा इस तरह की  बातें कभी घर में कीं तो मैं तेरे बापू से तेरी शिकायत कर दूंगी.’’

नरेंद्र को अपने सवाल का जवाब तो नहीं मिला मगर अपने सवाल पर मां का इस प्रकार आपे से बाहर होना भी उस की समझ में नहीं आया.

ऐसा लगता था कि उस के सवाल से मां किसी कारण डर गईं और यह डर मां की आखों में उसे साफ नजर आता था.

नरेंद्र के मां से पूछे इस सवाल ने घर के शांत वातावरण में एक ज्वारभाटा ला दिया. मां और बापू के परस्पर व्यवहार में तलखी बढ़ गई थी और सिमरन बूआ तलख होते मां और बापू के रिश्ते में बीचबचाव की कोशिश करती थीं.

मां और बापू के रिश्ते में बढ़ती तलखी की वजह कोने में बनी कोठरी में रहने वाली वह औरत ही थी जिस के बारे में अमली चाचा का कहना था कि वह एक ‘कुदेसन’ है.

मां अब उस औरत को घर से निकालना चाहती हैं. नरेंद्र ने मां को इस बारे में बापू से कहते भी सुना. नरेंद्र को ऐसा लगा कि मां को कोई डर सताने लगा है.

बापू मां के कहने पर उस औरत को घर से निकालने को तैयार नहीं हैं.

नरेंद्र ने बापू को मां से कहते सुना था, ‘‘इतनी निर्मम और स्वार्थी मत बनो, इनसानियत भी कोई चीज होती है. वह लाचार और बेसहारा है. कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए मगर मैं अब उस को इस घर में एक पल भी देखना नहीं चाहती हूं. नरेंद्र भी इस के बारे में सवाल पूछने लगा है. उस के सवालों से मुझ को डर लगने लगा है. कहीं उस को असलियत मालूम हो गई तो क्या होगा?’’ मां की बेचैन आवाज में साफ कोई डर था.

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में किसी वहम का शिकार हो गई हो. हमें इतना कठोर और एहसानफरामोश नहीं होना चाहिए. इस को घर से निकालने से पहले जरा सोचो कि इस ने हमें क्या दिया और बदले में हम से क्या लिया? सिर छिपाने के लिए एक छत और दो वक्त की रोटी. क्या इतने में भी हमें यह महंगी लगने लगी है? जरा कल्पना करो, इस घर को एक वारिस नहीं मिलता तो क्या होता? एक औरत हो कर भी तुम ने दूसरी औरत का दर्द कभी नहीं समझा. तुम को डर है उस औलाद के छिनने का, जिस ने तुम्हारी कोख से जन्म नहीं लिया. जरा इस औरत के बारे में सोचो जो अपनी कोख से जन्म देने वाली औलाद को भी अपने सीने से लगाने को तरसती रही. जन्म देते ही उस के बच्चे को इसलिए उस से जुदा कर दिया गया ताकि लोगों को यह लगे कि उस की मां तुम हो, तुम ने ही उस को जन्म दिया है. इस बेचारी ने हमेशा अपनी जबान बंद रखी है. तुम्हारे डर से यह कभी अपने बच्चे को भी जी भर के देख तक नहीं सकी.

‘‘इस घर में वह तुम्हारी रजामंदी से ही आई थी. हम दोनों का स्वार्थ था इस को लाने में. मुझ को अपने बाप की जमीनजायदाद में से अपना हिस्सा लेने के लिए एक वारिस चाहिए था और तुम को एक बच्चा. इस ने हम दोनों की ही इच्छा पूरी की. इस घर की चारदीवारी में क्या हुआ था यह कोई बाहरी व्यक्ति नहीं जानता. बच्चे को जन्म इस ने दिया, मगर लोगों ने समझा तुम मां बनी हो. कितना नाटक करना पड़ा था, एक झूठ को सच बनाने के लिए. जो औरत केवल दो वक्त की रोटी और एक छत के लालच में अपने सारे रिश्तों को छोड़ मेरा दामन थाम इस अनजान जगह पर चली आई, जिस को हम ने अपने मतलब के लिए इस्तेमाल किया, पर उस ने न कभी कोई शिकायत की और न ही कुछ मांगा. ऐसी बेजबान, बेसहारा और मजबूर को घर से निकालने का अपराध न तो मैं कर सकता हूं और न ही चाहूंगा कि तुम करो. किसी की बद्दुआ लेना ठीक नहीं.’’

नरेंद्र को लगा था कि बापू के समझाने से बिफरी हुई मां शांत पड़ गई थीं.

लेकिन नरेंद्र उन की बातों को सुनने के बाद अशांत हो गया था.

जानेअनजाने में उस के अपने जन्म के साथ जुड़ा एक रहस्य भी उजागर हो गया था.

अमली चाचा जो बतलाने में झिझक गया था वह भी शायद इसी रहस्य से जुड़ा था.

अब नरेंद्र की समझ में आने लगा था कि घर में रह रही वह औरत जोकि अमली चाचा के अनुसार एक ‘कुदेसन’ थी, दूर से क्यों उस को प्यार और हसरत की नजरों से देखती थी? क्यों जरा सा मौका मिलते ही वह उस को अपने सीने से चिपका कर चूमती और रोती थी? वह उस को जन्म देने वाली उस की असली मां थी.

नरेंद्र बेचैन हो उठा. उस के कदम बरबस उस कोठरी की तरफ बढ़ चले, जिस के अंदर जाने की इजाजत उस को कभी नहीं दी गई थी. उस कोठरी के अंदर वर्षों से बेजबान और मजबूर ममता कैद थी. उस ममता की मुक्ति का समय अब आ गया था. आखिर उस का बेटा अब किशोर से जवान हो गया था.

 रिश्तों में सहनिर्भरता : अलगाव का संकेत

क्या आप भी अपने साथी की खुशी के लिए छोटेमोटे सैक्रीफाइज करते रहते हैं लेकिन बदले में आप को कुछ नहीं मिलता, तो यह समझ लें कि आप को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप के शिकार हैं. यदि आप अपने को को-डिपैंडैंट रिश्ते से बाहर निकाल कर समानता के धरातल पर लाना चाहते हैं तो इस के कई तरीके हैं.

को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप एक ऐसी रिलेशनशिप है जिस में एक पार्टनर, पूरी तरह से दूसरे पार्टनर पर निर्भर होता है. उस की जिंदगी के अहम फैसले तक वह खुद न ले कर उस का पार्टनर लेता है. ऐसे बहुत लोग होते हैं जो अपने साथी के लिए कुछ त्याग करते हैं और इस के बदले अगर उन्हें कुछ नहीं मिलता है तो समझिए कि वे को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप के शिकार हैं.

ऐसे रिश्ते हमारे आसपास और बौलीवुड में भी मिल जाएंगे. उन में से कुछ उदाहरण हैं- आमिर खान और रीना दत्ता, सैफ अली खान और अमृता सिंह, संजय दत्त और रिया पिल्लई, कोंकणा सेन शर्मा और रणवीर शौरी, सारिका ठाकुर और कमल हासन, कल्कि कोचलिन और अनुराग कश्यप, क्रिकेटर अजहरुद्दीन और ऐक्ट्रैस संगीता बिजलानी, गोल्फर ज्योति रंधावा और ऐक्ट्रैस चित्रांगदा सिंह आदि.

बौलीवुड अभिनेत्री करिश्मा कपूर ने साल 2003 में बिजनैसमैन संजय कपूर से शादी की थी. दोनों की शादीशुदा जिंदगी में शुरुआत से ही काफी दिक्कते थीं. और इस रिश्ते के टूटने की वजह भी को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप ही थी. वहीं, संजय दत्त का अपनी पत्नी से तलाक का कारण भी धोखे के संबंध, पत्नी को समय न देना, झूठ बोलना, पत्नी का जरूरत से ज्यादा उन पर निर्भर रहना था. यही इन दोनों के रिश्तों की दरार की वजह भी बना और यह रिश्ता ज्यादा सालों तक नहीं चल पाया. लेकिन वक्त रहते इन्होंने को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप को समझ, अलग होने में ही समझदारी समझी.

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एक बहुत ही फेमस जोड़ी जो अपने विवाह के बंधन बनते समय भी काफी चर्चाओं में थी और संबंध टूटने पर भी, वह है सैफ अली खान और अमृता सिंह की जोड़ी. सैफ और अमृता की उम्र में 12 साल का बड़ा अंतर था. इस के बावजूद सैफ ने परिवार के खिलाफ जा कर अमृता से शादी की.

लगभग 13 साल से ज्यादा एकदूसरे के साथ बिताने के बाद दोनों ने अलग होने का फैसला किया था. इन दोनों के रिश्ते में दरारों की एक वजह थी, दोनों में से एक का अत्यधिक जजमैंटल होना. दूसरी वजह थी मौका मिलते ही एकदूसरे को नीचा दिखाना. तीसरी और खास वजह थी गैरजिम्मेदार होना, जो उन्होंने एक बार खुद स्वीकार किया. सैफ ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि एक समय के बाद वे भी गैरजिम्मेदार हो गए थे.

सैफ ने कहा था, ‘मैं गैरजिम्मेदार था. मुझे हमेशा लगा कि यह परेशानी मेरी नहीं है और परेशानी से निकलने के लिए दूसरे पर निर्भर हो गया था. मेरे लिए सारा के अलावा कुछ भी माने नहीं रखता था.’ उन का कहना है कि अपनी पत्नी और रिश्ते को ले कर पुरुषों का गैरजिम्मेदार होना भी रिश्ते के टूटने का कारण बनता है. जब पतिपत्नी के रिश्तों के बीच बहाने आने लग जाते हैं, तो यही बहाने रिश्ते को टूटने के कगार पर ले जाते हैं. सैफ का मानना है कि शादी के बाद पार्टनर को खुश करते रहना बहुत जरूरी है. कुछ ऐसा ही हुआ था उन के और उन की पत्नी के बीच.

आइए जानते हैं क्याक्या कारण होते हैं को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप के और कैसे इन से बचा जा सकता है :

प्राथमिकता : शुरुआती दौर में सब नयानया लुभावना सा होता है. लेकिन बाद में ऐसे रिश्ते में दोनों को ही घुटन सी महसूस होने लगती है. रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट के मुताबिक, को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप में सब से ज्यादा प्रभावित महिलाएं होती हैं क्योंकि पुरुषों की तुलना में वे ज्यादातर उन पर निर्भर रहना पसंद करती हैं. इस रिश्ते में महिलाएं हर समय अपने आत्मसम्मान से जंग लड़ती हुई प्रतीत होती हैं. असल में इस रिश्ते में व्यक्ति की प्राथमिकता सिर्फ सामने वाले व्यक्ति की खुशी होती है.

सैक्रीफाइज : एक बार खुद से सवाल करें कि कहीं आप भी तो नहीं हैं को-डिपैंडैंट. और इस वजह से छोटेमोटे सैक्रीफाइज करती रहती हों, ताकि आप का साथी खुश रहे. परेशानी तब आती है जब सामने वाले व्यक्ति को इन बातों से कोई फर्क न पड़े. वह आप की भावनाओं की कद्र ही न करे, तब समझ लें कि आप भी को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप की शिकार हैं.

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सहनिर्भरता क्यों : को-डिपैंडैंट यानी सहनिर्भरता पर किए गए एक शोध के अनुसार, जब व्यक्ति को अपनी खुद की पहचान, वजूद और वैल्यू के लिए किसी दूसरे की सहमति की आवश्यकता हो तब सहनिर्भरता उत्पन्न होती है.

व्यक्ति का अपने से ज्यादा सामने वाले व्यक्ति की खुशी और जरूरतों के लिए हद से आगे बढ़ कर त्याग करना, को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप की विशेषता है. को-डिपैंडैंट रिश्ते से निकल कर समानता के धरातल पर आने के कई तरीके हैं. जरूरत है तो इस रिश्ते में आप हैं या नहीं, यह जानने की. को-डिपैंडैंट यानी सहनिर्भरता के रिश्ते से निकलने के लिए इन तरीकों को अपनाया जा सकता है.

अवौयड करें

सब से पहले तो खुद को हैल्दी महसूस करना चाहते हैं, तो को-डिपैंडैंट फ्रैंडशिप्स अवौयड करें व अपने को इमोशनली फ्री व इंडिपैंडैंट रखें. ऐसे रिश्ते में प्यार कम, झगड़े, जलन और झूठ की संभावनाएं ज्यादा होती हैं. हर छोटीबड़ी बात के लिए आप को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा, चाहे आप कितना ही अच्छे से अच्छा व्यवहार करें.

यही नहीं, ऐसे रिश्ते में अपनी खुशियों की बलि देने के बाद भी दोष सिर्फ आप का और हर बुराई के लिए भी जिम्मेदार आप ही ठहराए जाएंगे. इन सब बातों की एक वजह ओवर एक्सपैक्टेशंस यानी न खत्म होने वाली उम्मीदें और इच्छाएं हैं.

वजह समझें

कहीं कीमत ज्यादा तो नहीं चुका रहे? जी हां, रिलेशनशिप में रहने के लिए इतनी कुरबानी क्यों? अपनी समस्याओं से उलझते रहने में दूसरों की खुशियों को भूल जाना, वह भी यह सोच कर कि, ‘मैं खुद ही हैंडल कर लूंगा/लूंगी, दूसरे से क्या कहना…’ शुरूशुरू में तो सब ठीक लगता है लेकिन बाद में नकारात्मक भाव मन में घर करने लगते हैं.

परेशानियों के समय किसी से कम्युनिकेट न करना गलत है. अपनी बात अपने दोस्त या पार्टनर से शेयर करें. यही तो वक्त है जानने का कि, क्या वह सच में मित्र है? वह आप की दोस्ती, आप की पार्टनरशिप के लिए सही माने में हकदार है या नहीं? यह भी हो सकता कि आप का दोस्त आप की ऐसी कोई मदद कर सके जिस की आप को जरूरत हो, हालांकि को-डिपैंडैंसी अवौयड करना ही ठीक है. लेकिन जरूरी यह भी है कि अपने संस्कार बचाएं रखें और लाइन क्रौस नहीं करें.

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खराब व्यवहार

यदि आप की परेशानी के समय आप के पार्टनर का व्यवहार आप के साथ खराब है. वह छोटीछोटी बातों पर आप को हर्ट करता है तो फौरन ही इस रिश्ते से बाहर आ जाएं. यदि वह आप की कौल को रिजैक्ट करता है, या घर देर से आए, तो समझ जाइए कि वह आप के प्यार, आप के रिश्ते के लिए उस के मन में कोई सम्मान नहीं.

शोध में यह बात सामने आई है कि जिन बच्चों का बचपन मातापिता के भावनात्मक सपोर्ट के बिना बीता हो, वे बच्चे बहुत जल्द ही जज्बाती हो जाते हैं. ऐसे में उन की को-डिपैंडैंट रिलेशनशिप में पड़ने की आशंका अधिक होती है.

ऐसे बच्चों को अपनी खुशियों से समझौता करने की आदत पड़ जाती है. जब उन के जीवन में कोई ऐसा इंसान आता है जिस से उन को भावनात्मक अपनापन या सुरक्षा मिले, तब उन्हें यही रास्ता समझ में आने लगता है. और यह उन की जीवनशैली का हिस्सा बन जाता है.

इस रिश्ते में रह रहे व्यक्ति हमेशा असहज रहते हैं. उन के अंदर असुरक्षा की भावना बनी रहती है, जिस के कारण उन का मन अशांत रहता है. आसपास सब की मौजूदगी में भी उन्हें सिर्फ अपने पार्टनर की जरूरत या तलाश रहती है. वे उस के बिना एक पल भी रहने में असहज रहते हैं और उन में नकारात्मकता बढ़ती चली जाती है. ऐसे में उन का व्यवहार चिड़चिड़ा और अजीब हो जाता है. उन्हें हर समय अपूर्णता की भावना का एहसास होता है.

समाधान

रिश्ता तोड़ना किसी भी समस्या का हल नहीं होता. लेकिन रिश्ते में बन रही दूरियों को पहचानना ज्यादा बेहतर रहता है. जरूरत से ज्यादा प्यार या तकरार रिश्ते में दरार की एक खास वजह है. रिश्ता चाहे कैसा भी हो उस में थोड़ी सी ढील भी जरूरी है.

आप सब ने पतंग उड़ती हुई तो देखी होगी. ऊंचाइयों पर पहुंचाने के लिए पतंग को थोड़ी ढील देनी पड़ती है. लेकिन जब यही ढील ज्यादा हो जाए तो पतंग कट जाती है. रिश्ते की सीमाएं तय करें. आप को पूरा अधिकार है, अपने मन से अपने जीवन को जीने का, लेकिन समझौते के साथ नहीं. अपनी खुशियां दूसरे की झोली में न डालें.

अच्छा है कि साथी से हक के साथ समय मांगें. उस से खुल कर बात करें. अपनी समस्याओं को उस से साझा करें. अपनी रिलेशनशिप की बेल को सूखने से बचाएं. थोड़ा प्यार की फुहारों से सींचें. जैसे पौधे को पनपने के लिए धूप भी जरूरी है वैसे ही इन रिश्तों में थोड़ी तकरार भी बनती है. सो, आप रिश्ते बेहतर बनाएं पर को-डिपैंडैंट नहीं.

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तनाव में हैं महिलाएं

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक परेशान करने वाली रिपोर्ट ने हाल ही में यह नतीजा निकाला है कि भारत दुनिया का सब से अधिक अवसादग्रस्त देश है, जहां चिंता, सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिस्और्डर के सब से अधिक मामले पाए गए. 2015-16 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएमएचएस के अनुसार, भारत के हर छठे व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के लिए किसी न किसी तरह की मदद की जरूरत है.

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ये आंकड़े भारतीयों के मानसिक स्वास्थ्य की एक गंभीर तसवीर को दिखाते हैं, विशेषरूप से एक ऐसा देश जहां अभी भी मानसिक बीमारियों को एक वर्जित यानी अमान्य विषय माना जाता है.

हाल के वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र पर कुछ ध्यान दिया गया है. लोकप्रिय लोग जैसे कि दीपिका पादुकोण ने आगे आ कर इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा शुरू की है. चिंतनीय यह है कि महिलाओं के बीच मानसिक बीमारियों को समझने की लोगों की दिलचस्पी कम ही है.

मानसिक स्वास्थ्य पर आई डब्लूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, अवसाद विकार पुरुषों के बीच 29.3 फीसदी की तुलना में महिलाओं में न्यूरोसाइकियाट्रिक (मनोविज्ञान) विकार 41.9 फीसदी के करीब है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बुजुर्गों को होने वाली प्रमुख मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, जैसे अवसाद, और्गेनिक ब्रेन सिंड्रोम और डिमैंशिया महिलाओं में अधिक सामान्य हैं. इसी तरह, एकधु्रवीय यानी यूनीपोलर अवसाद, जिसे 2020 तक वैश्विक अक्षमता का दूसरा प्रमुख कारण माना जाता है, महिलाओं में दोगुना सामान्य पाया गया. दूसरी ओर, पुरुषों की तुलना में महिलाओं में एंजाइटी डिस्और्डर का जोखिम 2-3 गुना अधिक है.

महिलाओं को मानसिक बीमारियों के प्रति क्या अधिक संवेदनशील बनाता है, इसे अभी तक चिकित्सा बिरादरी द्वारा स्पष्ट रूप से समझा नहीं जा सका है. हालांकि, जैविक और शारीरिक अंतर के साथसाथ सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों सहित कई कारकों को इस मानसिक स्वास्थ्य में भूमिका निभाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है. न केवल घटनाओं की दर, बल्कि इस के बीच के अंतर में यह भी बताया गया है कि मानसिक बीमारी लिंगों (जैंडर) के बीच किस तरह से जाहिर होती है.

उदाहरण के लिए, लक्षणों की शुरुआत की उम्र, बीमारी की अवधि, इस की नैदानिक विशेषताएं, मानसिक लक्षणों की आवृत्ति, साथ ही गंभीर मानसिक विकारों के दीर्घकालिक परिणाम लिंगों के बीच भिन्न होते हैं.

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इंगलैंड में औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी

शोधकर्ताओं द्वारा क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट डैनियल फ्रीमैन के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में जैंडर के बीच के मानसिक बीमारियों के पहलू का अध्ययन करने के लिए अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और यूरोप में किए गए मानसिक रोगों पर 12 बड़े पैमाने पर महामारी विज्ञान के अध्ययनों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया.

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अध्ययन में पाया गया कि महिलाओं को उन के जीवन में किसी समय मानसिक स्वास्थ्य समस्या से पीडि़त होने की संभावना लगभग 40 प्रतिशत ज्यादा थी. महिलाओं के लिए यह अंतर विशेषरूप से अवसाद और तनाव विकारों के साथ 75 प्रतिशत ज्यादा था, जिन्हें अवसाद का अनुभव करने की संभावना थी और जिन को तनाव विकारों का 60 प्रतिशत उच्च दर का सामना करना पड़ा. इन निष्कर्षों की चर्चा ‘द स्ट्रैस्ड सैक्स : अनकवरिंग द ट्रुथ अबाउट मेन, वीमेन ऐंड मैंटल हैल्थ’ पुस्तक में की गई है.

डिप्रैशन का कारण यह भी

हार्मोंन में बदलाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं को गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की तरफ ले जाते हैं. चाहे वह यौवन की शुरुआत हो, गर्भावस्था, प्रसव के बाद की अवधि, रजोनिवृत्ति से पहले की अवधि या रजोनिवृत्ति, महिलाओं का शरीर और दिमाग अकसर होने वाले हार्मोन के इन बदलावों के प्रति खुद को असहाय पाते हैं.

ये बदलाव तब भी होते हैं जब एक महिला गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन कर रही होती है. महिलाओं के बीच मनोदशा में बदलाव के रूप में अकसर उन का उपहास किया जाता है. महिलाएं पुरुषों की तुलना में कम मात्रा में सेरोटोनिन का उत्पादन करती हैं, शायद हार्मोन के स्तर में अंतर का यही प्रमुख कारण भी है. अवसाद और चिंता जैसे मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों के लिए सेरोटोनिन की कमी को जिम्मेदार माना जाता है.

2011 में जर्नल औफ साइकोलौजी में प्रकाशित एक शोध में नतीजा निकाला गया कि महिलाओं में अवसाद, जैसे चिंता और मनोदशा संबंधी विकार विकसित होने की संभावना अधिक होती है क्योंकि वे अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही रखती हैं. इस के विपरीत, पुरुषों में अपनी भावनाओं को बाहर निकालने और आक्रामक या असामाजिक व्यवहार या मादक द्रव्यों के सेवन संबंधी विकारों के होने की संभावना ज्यादा होती है.

सामाजिक व आर्थिक कारक

नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के आंकड़ों के अनुसार, 2016 में लगभग 30 फीसदी विवाहित भारतीय महिलाओं की उम्र 15 से 49 वर्ष के बीच की है, जो विवाह में हिंसा (घरेलू हिंसा) का अनुभव करती हैं. डबलूएचओ के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ हिंसा की आजीवन प्रसार दर 16 से 50 फीसदी के बीच है, जबकि कम से कम 5 में से एक महिला अपने जीवनकाल में बलात्कार या बलात्कार किए जाने के प्रयास का सामना करती है.

एक दूसरे महत्त्वपूर्ण अध्ययन में बताया गया है कि भारतीय महिलाओं में आत्महत्या की दर विश्व स्तर पर सामाजिक जनसांख्यिकी विकास की अपेक्षित दरों से लगभग तीनगुना अधिक थी. विशेषरूप से, सामान्य महिलाओं की तुलना में विवाहित महिलाओं की मौतें आत्महत्या की वजह से ज्यादा होती हैं.

हमारे समाज में पितृसत्तात्मक मानदंड अकसर महिलाओं के जीवन को निर्धारित करता है. इस का प्रभाव शादी के बाद विशेषरूप से बढ़ जाता है और तभी बड़ी संख्या में महिलाएं मानसिक उत्पीड़न व दुर्व्यवहार का सामना करने को मजबूर रहती हैं.

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दहेज की मांग, कैरियर की महत्त्वाकांक्षाओं की अवहेलना और अपने मातापिता से मिलने जाने पर भी मर्यादाओं को लांघना आदि तरीकों से उन को प्रताडि़त किया जाता है. वित्तीय स्वतंत्रता की कमी का अर्थ यह भी है कि इस की वजह से कई महिलाओं को अनुचित रिश्तों के साथ भी जुड़ना पड़ता है.

2016 में एक बहुत चर्चित फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कर्र्नाटक के एक जोड़े को इस आधार पर तलाक देने की पुष्टि की कि पत्नी अपने बुजुर्ग मातापिता से पति को अलग करने की कोशिश कर रही थी. शीर्र्ष अदालत ने कहा, ‘‘एक पत्नी से यह उम्मीद की जाती है कि वह शादी के बाद पति के परिवार के साथ रहेगी.’’ इस फैसले से विवाह के बाद महिलाओं की अपेक्षाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला गया. कई महिलाएं शादी या बच्चे के जन्म के बाद अपने सफल कैरियर को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती हैं, जिस से अवसाद होता है. वहीं दूसरी तरफ, उन को अपने मातापिता की देखभाल करने से रोका जाता है.

दिलचस्प बात यह है कि 2016 में बौम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले में कहा गया था कि एक विवाहित बेटी भी अपने मातापिता की देखभाल कर सकती है. यह फैसला इस धारणा को बदल देता है कि एक विवाहित महिला का दायित्व केवल अपने पति के परिवार के प्रति ही है.

ये सभी कारक महिलाओं को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

(लेखिका मैंटल हैल्थ की एक्सपर्ट हैं और पोद्दार वैलनैस लिमिटेड की डायरैक्टर हैं.)

घर पर बनाएं क्रंची पोटैटो

क्रंची पोटैटो बहुत ही स्वादिष्ट रेसिपी है. इसमें कढ़ीपत्ता, नारियल, सरसों के दाने और काजू डालकर बनाया जाता है. इसे बनाना भी काफी आसान है. आप इसे रोटी या परांठे के साथ सर्व कर सकती हैं.

सामग्री

आलू (2)

नारियल तेल (1 टेबल स्पून)

सरसो के दाने (1 1/2 टी स्पून)

हरी मिर्च (4-5 कटा हुआ)

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काजू (8-10)

कढ़ीपत्ता (5-6)

नारियल (1 कप)

नमक (स्वादानुसार)

बनाने की वि​धि

आलू को डायमंड शेप में काट लें और इसमें थोड़ा नमक डालें और नरम होने के लिए हल्का सा उबाल लें और इन्हें छान लें और एक तरफ रख दें.

एक कड़ाही में नारियल का तेल गर्म करें और इसमें सरसों के दाने और हरी मिर्च डालें.

इसमें काजू डालें और इन्हें गोल्डन ब्राउन होने तक भूनें.

इसमें अब कढ़ीपत्ता और आलू डालें.

इसमें थोड़ा सा नमक डालें और इन्हें तब तक भूनें जब आलू क्रिस्पी न हो जाएं.

इसमें एक कप कददूकस किया हुआ नारियल डालें और 2 मिनट के लिए भूनें.

अब आप गर्मागर्म रोटी के साथ इसे सर्व करें.

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इतनी छोटी सी उम्र में उस का अपनी मां से ज्यादा किसी और के लिए बिलखना मुझे चिंतित कर देता है. क्या कोई ऐसा तरीका है जिस से मैं उसे अपनी मां के पास छोड़ भी आऊं, तब भी वह मेरी जगह किसी और को न दे..

सवाल

मैं 30 वर्षीया कामकाजी महिला हूं. मैं और मेरे पति अकसर काम से बाहर आयाजाया करते हैं. यही कारण है कि हम अपनी 5 साल की बेटी को मेरी मां यानी उस की नानी के घर छोड़ आते हैं. पहले तो सब ठीक था पर अब मेरी बेटी सिर्फ नानी के पास ही रहती है. वह मेरे पास रहना नहीं चाहती. इतनी छोटी सी उम्र में उस का अपनी मां से ज्यादा किसी और के लिए बिलखना मुझे चिंतित कर देता है. क्या कोई ऐसा तरीका है जिस से मैं उसे अपनी मां के पास छोड़ भी आऊं, तब भी वह मेरी जगह किसी और को न दे.

जवाब

बच्चे मन के सच्चे होते हैं. उन्हें जहां लाड़प्यार व दुलार मिलेगा वे वहीं रहेंगे. आप उसे अपनी मां के पास छोड़ जाती हैं तो उस का उन से लगाव होना लाजिमी है. आप अपनी बच्ची के लिए पहली चौइस बनना चाहती हैं तो उस के लिए आप को फिर से उस का प्यार, भरोसा और दिल जीतना होगा.

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वह जब भी नानी के घर से आए तो उस के साथ घूमिएफिरिए, उस के साथ खेलिए, उसे अपने हाथ से उस की मनपसंद चीजें बना कर खिलाइए. मां तो मां होती है. जैसा कि और मांएं अपने बच्चों के लिए करती हैं, आप भी वैसा ही कीजिए. आप उसे समय दीजिए धीरधीरे वह अपनी नानी की तरह आप से भी चिपकी रहेगी.

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गरमी के कहर का शिकार हो रहे पशु

छुट्टा जानवरों से खेत और फसल को सुरिक्षत रखने के लिये उत्तर प्रदेश की मोदी सरकार ने ‘पशु आश्रय केन्द्र’ ग्राम पंचायत स्तर पर खोलने का फैसला किया था. जिसके तहत कटीले तार के बाड़े और पानी भरी खाई को खोद कर ग्राम प्रचायतों में ‘पशु आश्रय केन्द्र’ बनाये गये. इनमें जानवरों के चारा पानी और देखभाल के लिये सरकार द्वारा बजट भी स्वीकृत किया है.

गरमी के मौसम में यह आश्रय केन्द्र पशुओं के लिये कैदखाने बन गये है. ‘पशु आश्रय केन्द्र’ के पेड़ की छांव न होने के कारण गरमी के माह में पशुओं को धूप का मुकाबला करना पड़ रहा हैं. इसके अलावा खराब प्रबंधन के कारण ‘पशु आश्रय केन्द्र’ केन्द्र में चारे की समुचित व्यवस्था भी नहीं हो रही है.

अब भूखे प्यासे और धूप को तडप रहे पशुओं को इन ‘पशु आश्रय केन्द्र’ से बाहर भगा दिया जा रहा है. जिसकी वजह से पशु फिर से खेतों को नुकसान पहंचा रहे हैं और ‘पशु आश्रय केन्द्र’ खाली पड़े है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सबसे प्रमुख तहसील मोहनलालगंज के ‘पशु आश्रय’ के हालात बताते है कि ‘पशु आश्रय केन्द्र’  किस हालत में अव्यवस्था का शिकार होकर ‘पशु आश्रय केन्द्र’ की जगह पर कैद खाने बन कर रह गये हैं.

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जानकारों की माने तो मोहनलालगंज तहसील के परहेटा, कुढा, कमालपुर बिचलिका सहित कई ‘पशु आश्रय केन्द्र’ पूरी तरह से खाली हो चुके हैं. दूसरे ‘पशु आश्रय केन्द्र’ भी अव्यवस्था का शिकार हो रहे है. यहां पर छांव और पानी की कमी के साथ पशुओं के खाने को भी भोजन नहीं है. गरमी बढ़ने से यह पशु अब बेहाल हो रहे हैं.

‘पशु आश्रय केन्द्र’ की व्यवस्था से जुड़े लोग पशुओं को इन ‘पशु आश्रय केन्द्र’ से बाहर भाग जाने दे रहे हैं. यह केवल एक तहसील का ही हाल नहीं है. पूरे उत्तर प्रदेश का यही हाल है. पशुओं के फिर छुट्टा जानवरों के रूप में सड़क और खेतों में आने से नुकसान फिर से शुरू हो गया है. फिर से ये पशु धान को लगाने के लिये तैयार नर्सरी का नुकसान करने लगे हैं.

ऐसे में ‘पशु आश्रय केन्द्र’ महज दिखावा बन कर रह गये हैं. ‘पशु आश्रय केन्द्र’ को बनाने में सरकार ने लाखो रूपया खर्च किया. इसमें रहने वाले पशुओं को खिलाने के लिये चारे की व्यवस्था भी की गई. अब यह सब किसी बड़े घोटाले सा हो गया है. अगर सही तरह से पूरे उत्तर प्रदेश में ‘पशु आश्रय केन्द्र’ के हालात को देखा जाये तो यह किसी बड़े घोटाले में बदलते दिख जायेंगे. जिम्मेदार अधिकार जांच की बात करके अपना पल्ला झाड़ ले रहे हैं. अधिकारी कह रहे हैं कि ‘पशु आश्रय केन्द्र’ में छांव के लिये पेड़-पौधे और टीन शेड़ तथा चारा पानी की व्यवस्था ठीक रखने के लिए उपाय किये जा रहे हैं.

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टीवी सिर्फ पैसा कमाने के लिए बहुत बहुत अच्छा माध्यम है : गैवी चहल

2008 में ‘‘कलर्स’’ पर प्रसारित हो चुके सीरियल ‘‘मोहे रंग दे’’ से करियर की शुरूआत करने वाले अभिनेता गैवी चहल के करियर में फिल्म ‘‘एक था टाइगर’’ से जबरदस्त मोड़ आया. अब उनकी गिनती पंजाबी सिनेमा के सुपर स्टार के तौर पर होती है. तो वहीं वह हिंदी फिल्मों में भी लगातार काम कर रहे हैं. इन दिनों वह 24 मई को प्रदर्शित हो रही फिल्मकार लोम हर्श की फिल्म ‘‘ये है इंडिया’’ में हीरो बनकर आ रहे हैं, तो दूसरी तरफ संजय दत्त के साथ फिल्म ‘‘तोरबा’’ कर रहे हैं.

हाल ही में जब गैवी चहल से मुलाकात हुई, तो उन्होंने हमसे एक्सक्लूसिव बात करते हुए टीवी इंडस्ट्री के काम काज के प्रति रोष जताते हुए कहा- ‘‘टीवी इंडस्ट्री का पतन हो रहा है. डेली सोप का प्रसारण शुरू होते ही रचनात्मकता का खात्मा हो जाता है. उस वक्त तो निर्माता निर्देशक से लेकर कलाकार तक सभी के दिमाग में एक ही बात रहती है कि किसी तरह से एपीसोड पूरा होकर जाए. इतना ही नही हम कलाकारों के किरदार भी टीआरपी के आधार पर बदलते रहते हैं. एक मोड़ पर हम हर एपीसोड में अपने आपको दोहराते रहते हैं.’’

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इसका अर्थ यह हुआ कि टीवी माध्यम में कलाकार को रचनात्मक संतुष्टि कम मिलती है? हमारे इस सवाल पर गैवी चहल ने कहा- ‘‘मैं अपनी बात कहूं तो जब ‘कलर्स’ चैनल लांच हुआ, तभी मेरे अभिनय करियर की शुरूआत हुई. मुझे इस चैनल पर ‘मोहे रंग दे’ सीरियल करने का मौका मिला. एक साल तक टीवी करने के बाद मुझे लगा कि वही दोहराव हो रहा है. वही पोशाक पहननी है, वही विंटेज गाड़ी में बैठना है, तो वहां क्रिएटीविटी एकदम खत्म हो गयी थी. पर एक कलाकार के तौर पर आपको हर दिन पैसे मिलते हैं. इस तरह आप टीवी पर पैसा ज्यादा कमा लेते हैं. इसलिए ‘मोहे रंग दे’ के बाद मैंने सोच लिया था कि मुझे डेली सोप नही करना है. फिर मैंने रियालिटी शो ‘खतरों के खिलाड़ी’  किया, जिसका मैं विजेता भी बना. यह टीवी था, पर रियालिटी शो होने की वजह से थोड़ा सा अंतर हो गया था, उसके बाद मैं फिर फिल्मों में व्यस्त हो गया. लेकिन मैंने टीवी को हमेशा के लिए अलविदा नहीं कहा. यदि टीवी में कभी कुछ अच्छा काम करने का मौका मिलेगा, तो मैं जरूर करना चाहूंगा.

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क्योंकि टीवी का दर्शक बहुत बड़ा है और कलाकार के तौर पर हम बहुत जल्दी लोगों के घर तक पहुंच जाते हैं. लेकिन मैं यह मानता हूं कि टीवी में कलाकार को अपनी अभिनय क्षमता दिखाने की एक सीमा है, उसमें फैलाव कम है. इसके अलावा टीवी सीरियल महिला प्रधान होते हैं.तो पुरूष कलाकारों के किरदार कुछ कमजोर रह जाते हैं.मैं हमेषा कहता हूं कि टीवी सिर्फ पैसा कमाने के लिए बहुत बहुत अच्छा है. टीवी में हमें पता होता है कि हमने आज जो काम किया है, उसका पूरा पैसा तीन माह बाद मिल जाएगा. जबकि फिल्म में हमें एक साथ धन मिलता है, तो उसे हम कहीं न कहीं इन्वेस्ट कर देते हैं. तो यदि सिर्फ पैसा कमाना है, तब टीवी माध्यम ज्यादा ठीक है.’’

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