दलितों के सर एक बड़ा खतरा इन दिनों आरक्षण के छिन जाने का मंडरा रहा है. 3 तलाक और 370 के बाद अब भाजपा सरकार अगला अहम कदम उठाएगी जो उसके हिंदूवादी एजेंडे का हिस्सा होगा इस पर देशी से ज्यादा विदेशी मीडिया की नजरें हैं. कुछ का अंदाजा है कि भाजपा पहले राम मंदिर निर्माण को प्राथमिकता देगी जबकि कुछ को आशंका है कि वह पहले आरक्षण खत्म करेगी और उसके तुरंत बाद राम मंदिर का काम लगाएगी जिससे संभावित दलित विद्रोह और हिंसा का रुख राम की तरफ मोड़ा जाकर उसे ठंडा किया जा सके.

पिछले दिनी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फिर आरक्षण को लेकर अपनी मंशा और मंसूबे यह कहते जाहिर कर दिये हैं कि आरक्षण विरोधी और समर्थकों को सौहाद्रपूर्ण माहौल में बैठकर इस मसले पर विमर्श करना चाहिए. विमर्श यानि तर्क कुतर्क और बहस जिसमें स्वभाविक तौर पर हल्ला मचेगा और यही भगवा खेमा चाहता है.

यह विमर्श हालांकि एकतरफा ही सही सोशल मीडिया पर लगातार तूल पकड़ रहा है जिसमें सवर्ण भारी पड़ रहे हैं और इसकी अपनी कई वजहें भी हैं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार दलित बड़े पैमाने पर भाजपा की तरफ झुके थे तो इसकी बड़ी वजह बतौर प्रधानमंत्री पेश किए गए खुद नरेंद्र मोदी का उस तेली साहू जाति का होना था जिसकी गिनती और हैसियत आज भी दलितों सरीखी ही है. प्रसंगवश यहां मध्यप्रदेश के जबलपुर का उल्लेख जरूरी है जहां के साहू मोहल्ले और तेली गली में आज भी लोग सुबह सुबह इस जाति के लोगों का चेहरा देखने से कतराते हैं. शेष देश इस मानसिकता से अछूता नहीं है.

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तब लोगों खासतौर से दलितों को लगा था कि भाजपा केवल सवर्णों की नहीं बल्कि उनकी भी पार्टी है जो उसने एक लगभग दलित चेहरा पेश किया. इसके बाद भी भाजपा ने दलित प्रेम का अपना दिखावा जारी रखा और तरह तरह के ड्रामे किए जिनमे उसके शीर्ष नेताओं का दलितों के घर जाकर उनके साथ खाना खाना और दलित संतों के साथ कुम्भ स्नान प्रमुख थे. इसका फायदा उसे मिला भी और दलित उसे वोट करता रहा. 2019 के चुनाव में आरक्षण मुद्दा बनता लेकिन बालाकोट एयर स्ट्राइक की सुनामी उसे बहा ले गयी और राष्ट्रवाद के नाम पर सभी लोगों ने मोदी को दोबारा चुना.

3 तलाक और 370 की कामयाबी के बाद जैसे ही मोहन भागवत ने आरक्षण पर विमर्श की बात की तो दलित समुदाय बैचेन है क्योंकि अब राजनीति में उसका कोई माई बाप नहीं है और बहिन जी कही जाने बाली बसपा प्रमुख मायावती भाजपा के सुर में सुर मिला रहीं हैं. दूसरे पांच साल में भाजपा तकनीकी तौर पर दलितों को दो फाड़ कर चुकी है और कई नामी दलित नेता उसकी गोद में खेल रहे हैं. और जिन्होंने उसकी असलियत भांपते इस साजिश का हिस्सा बने रहने से इंकार कर दिया उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेकने में भी भाजपा ने देर नहीं की इनमे सावित्री फुले और उदित राज के नाम प्रमुख हैं.

कांग्रेस का दांव

इधर कांग्रेसी खेमे को समझ आ रहा है कि उसकी खिसकती जमीन की बड़ी वजह परंपरागत वोटों का उससे दूर हो जाना है जिनमे मुसलमानों से भी पहले दलितों का नंबर आता है. अब वह भुल सुधारते फिर दलितों को अपने पाले में लाने स्वाभिमान से संविधान नाम की यात्रा निकालने जा रही है. इस बाबत उसका फोकस हाल फिलहाल दिवाली के आसपास प्रस्तावित तीन राज्यों हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव हैं.

कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की अन्तरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के नेताओं से मुलाक़ात कर इस यात्रा को हरी झंडी दे दी है जिसके तहत फिर से दलितों को कांग्रेस से जोड़ने युद्ध स्तर पर कोशिशें की जाएंगी. कांग्रेस के अनुसूचित जाति विभाग के मुखिया नितिन राऊत की मानें तो स्वाभिमान से संविधान यात्रा के तहत हरेक विधानसभा में एक कोआर्डिनेटर नियुक्त किया जाएगा जो अपनी विधानसभा में इस यात्रा को आयोजित करेगा.

दलितों को लुभाने का यह दांव कितना सफल हो पाएगा यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे लेकिन कांग्रेस की एक बड़ी मुश्किल यह है कि उसके पास भी बड़े और जमीनी दलित नेताओं का टोटा है दूसरे वह इस यात्रा में आरक्षण छिन जाने का षड्यंत्र दलितों को नहीं बताएगी बल्कि चलताऊ बातें करेगी .

मोहन भागवत सहित कई वरिष्ठ भाजपाई नेता सीपी ठाकुर और नितिन गडकरी भी जातिगत आरक्षण खत्म करने की मंशा जाहिर कर चुके हैं जिन्हें कांग्रेस चुनावी मुद्दा न बनाने की गलती या चूक करेगी तो तय है यह यात्रा निरर्थक ही साबित होगी क्योंकि भाजपा ने दलितों को धर्म कर्म के नाम पर एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाने में कामयाबी हासिल कर ली है जिसमे वह अभिमन्यु की तरह छटपटा रहे हैं.

इधर सोशल मीडिया पर भगवा खेमा लगातार यह कह रहा है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव सहित दलित प्रताड़ना के मामले अब अपवाद स्वरूप ही होते हैं. फसाद या बैर की असल जड़ तो आरक्षण है जिसके चलते दलित अपनी योग्यता नहीं दिखा पा रहे हैं. सवर्ण तो चाहते हैं कि दलित युवा अपनी काबिलियत के दम पर आगे आकर हिन्दुत्व की मुख्यधारा से जुड़ें, उनका इस मैदान में स्वागत है.

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यह कतई हैरानी की बात नहीं कि मुट्ठी भर दलित युवा इसे एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं और ये वे दलित हैं जिन्हे अपने ही समुदाय के लोगों की बदहाली की वास्तविकता और इतिहास सहित भविष्य का भी पता नहीं. ये लोग भरे पेट हैं, शहरी हैं और सम्पन्न होने के चलते यह मान बैठे हैं कि पूरा दलित समुदाय ही उन्हीं की तरह है जिसे आरक्षण की बैशाखी फेंक देना चाहिए. यही दलित युवा भाजपा की ताकत हैं जो आरक्षण खत्म होने पर निर्विकार और तटस्थ रहकर अपने ही समाज की बरबादी में उल्लेखनीय योगदान देंगे क्योंकि सवर्ण उन्हें गले लगाकर बराबरी का दर्जा देता है. उनके लिए यह षड्यंत्रकारी बराबरी ही भगवान का प्रसाद है .

बारीकी से गौर किया जाये तो भाजपा दलितों को बहला फुसला कर आरक्षण छोड़ने राजी करने की भी कोशिश कर रही है और वही धौंस भी दे रही है जो 3 तलाक और 370 के मुद्दों पर मुसलमानों को दी थी कि यह कोई बदला या ज्यादती नहीं बल्कि तुम्हारे भले की ही बात है . अगर सीधे से नहीं मानोगे तो यह काम दूसरे तरीकों से भी किया जा सकता है लेकिन भाईचारा और भलाई इसी में है कि सहमत हो जाओ .

अब ऐसे में अगर कांग्रेस की यात्रा हवाहवाई बातों और सीबीएससी की बढ़ी हुई फीस जैसे कमजोर मुद्दों में सिमटकर रह गई तो लगता नहीं कि वह मंजिल तक पहुंच पाएगी अगर उसे वाकई दलितों के वोट और समर्थन चाहिए तो भाजपा की असल मंशा तो दलितों के कान में पिघले शीशे की तरह डालना ही होगी नहीं तो न उसका भला होगा और न ही दलितों का.

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