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‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: शो के प्रोड्यूसर ने बताई वजह, जश्न में हिना खान क्यों थी गायब

स्टार प्लस का मशहूर शो ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ के प्रोडयूसर काफी समय से ट्रोलिंग का सामना कर रहे हैं, जी हां, सोशल मीडिया पर यूजर्स उन्हें काफी ट्रोल हो रहे हैं. इस सीरियल के प्रोड्यूसर राजन शाही ने आखिरकार इस बात का खुलासा कर दिया है, किस वजह से उन्होंने हिना खान को 3000 एपिसोड की सफलता का श्रेय नहीं दिया गया है.

मीडिया रिपोर्टस के अनुसार राजन शाही ने इस बारे में बताया कि हमने 3000 एपिसोड पूरे किए हैं. लेकिन यह अकेले हमारा सफर नहीं है यह तो पूरी टीम का जर्नी है. मैं यहां पर शो के पास्ट की बात नहीं कर सकता. क्योंकि इस समय मेरी टीम में 150 लोग हैं और मैं सभी लोगों का सम्मान करता हूं. यही वजह है कि, मैंने मेरी टीम के हर सदस्य को सफलता के श्रेय दिया है.

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ट्रोल की वजह आपको बता दें,  दरअसल इस शो के 3000 एपिसोड पूरे हो चुके हैं और इसका जश्न शो के सेट पर सेलिब्रेट किया जा रहा था, जिसका एक वीडियो राजन शाही ने सोशल मीडिया पर शेयर किया था. जिसके जरिए उन्होंने शो की सभी स्टाराकस्ट को उनके योगदान के लिए धन्यवाद कहा था. इस वीडियो में सीरियल की 10 साल तक नजर आ चुकी पूरी स्टारकास्ट है लेकिन इसमें हिना खान और करन मेहरा नदारद नजर नहीं आ रहे हैं.

इसे वीडियो को शेयर करते ही राजन शाही, हिना खान और करण मेहरा के फैंस के निशाने पर आ गए थे क्योंकि, पूरी वीडियो में शो से जुड़े इन दोनों की सितारों का कहीं भी जिक्र नहीं था.

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सच तो यह है कि युवाओं को कार में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही

30 वर्षीय निरंजन सिंह भोपाल के पंजाबी बाग इलाके में रेफ्रीजेशन का कारोबार करते हैं. रेफ्रीजेशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद मूलतः विदिशा के रहने वाले इस युवा ने कोई 6 साल पहले बहुत छोटे स्तर से कारोबार शुरू किया था लेकिन दूरदर्शिता और मेहनत के चलते आज उन्होंने अपनी खुद की कंपनी बना ली है जिसमें 12 नियमित कर्मचारी हैं. निरंजन के पास अब वह सब कुछ है जिसके सपने हरेक युवा देखता है लेकिन खासा पैसा होने के बाद भी निरंजन ने अपनी कार नहीं खरीदी है. बिजनेस के सिलसिले में कहीं भी आने जाने वे उसी ओला या उबर टैक्सी का इस्तेमाल करते हैं जिसे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन आटो मोबाइल सेक्टर में मंदी की वजह मानती हैं. यानि वे इस मुद्दे पर गलत कुछ नहीं कह रही हैं लेकिन दिक्कत यह है कि वे अपनी अर्थ व्यवस्था को अनावृत करते पूरा सच भी नहीं बोल पा रही हैं.

निरंजन जैसे लाखों युवाओं की माने तो कार खरीदना अब बेकार का और घाटे का सौदा कई लिहाज से हो चला है. इन दलीलों को सिलसिलेवार देखें तो तस्वीर कुछ यूं बनती है.

  1. कार अब पहले की तरह शान की चीज नहीं रह गई है, यह एक जरूरत भर है जो किसी और जरिये से सस्ते में पूरी हो तो क्यों खरीदी जाये .
  2. पुणे के एक नामी बैंक में 18 लाख रु. सालाना के पैकेज पर काम कर रहीं अदिति की माने तो 10 लाख की कार फाइनेंस कराने पर 16 लाख रु से भी ज्यादा चुकाना पड़ते हैं यह एक घाटे का सौदा है. बकौल अदिति हम जैसे युवा जो कार खरीदना अफोर्ड तो कर सकते हैं लेकिन खरीदते नहीं तो उसकी एक बड़ी वजह ज्यादा ब्याज और कम उपयोगिता है.

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आमतौर पर आज का युवा दफ्तर से दूरी के हिसाब से सुबह 9-10 बजे घर से निकलता है और दिनभर वहीं रहता है. रात को 8 बजे के लगभग वह वापस आता है और छुट्टी के दिन छोड़कर थकान के चलते कहीं और नहीं जाता. सिर्फ औफिस आने जाने इन युवाओं को कार में पैसा लगाना बेकार दिखता है तो उनकी इस दलील में दम है कि 10 लाख के लोन पर 12 -14 हजार की मासिक किश्त चुकाने से बेहतर है कि ज्यादा से ज्यादा पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग किया जाए और जरूरत पड़ने पर ओला या उबर का. यह सस्ता और सुविधाजनक है.

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  1. गुरुग्राम की एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत अनिमेष कहते हैं कि बड़े शहरों में लाखों की तादाद में नौकरी कर रहे युवा छोटे शहरों से आते हैं और किराये के मकान में रहते हैं. जो किसी भी सूरत में दस हजार से कम नहीं होता इसके अलावा इन मकानों में से सभी में पार्किंग की सहूलियत नहीं रहती है. सैलरी का बड़ा हिस्सा किराए में ही चला जाता है ऐसे में अगर कार भी ले ली जाये तो बचत के नाम पर धेला भी जमा नहीं हो सकता.

4. दफ्तर की दूरी घर से यदि 10 किलोमीटर से ज्यादा है जो 95 फीसदी मामलों में होती ही है तो आने जाने में 2-3 घंटे तक लग जाते हैं. औफिस टाइम के वक्त सड़कों पर सबसे ज्यादा ट्रैफिक और भीड़ रहती है. ऐसे में लगातार कार चलाना थकाता भी है और कई बीमारियों की वजह भी बनता है. मसलन बैक पैन और स्पेंडोलाइटिस बगैरह .

5. सड़कों की हालत कहीं भी बेफिक्री देने वाली नहीं है. जो कार खरीदे युवाओं को डराती है कि 2-4 साल में ही वह कबाड़ होने लगेगी वैसे भी कार की री सेल वेल्यू उसके शो रूम से नीचे उतरते ही लगातार घटने लगती है .

  1. सबसे बड़ी बात 80 फीसदी युवाओं की आमदनी इतनी नहीं है कि वे कार खरीदने की सोच सकें. ये युवा भी ओला और उबर के बड़े ग्राहक हैं .

ऐसे कई और भी वजहें हैं जिनके चलते युवा कार से कतराने लगे हैं लेकिन क्या यही वे वजहें हैं जो निर्मला सीता रमन की गणनाओं में मंदी की वजह हैं. खासतौर से इस दौर में जब भीड़ शहरों में टूटी पड़ रही है. बात कितनी नादानी या चालाकी भरी है कि औटो मोबाइल सेक्टर में पसरती मंदी का जिम्मेदार भी युवाओं को ठहराकर वित्त मंत्री अपना पल्ला झाड रहीं हैं इसलिए उपहास का भी पात्र बन रहीं हैं.

शायद ही निर्मला सीता रमन बता पाएं कि ट्रक, डंपर ट्रैक्टर और दूसरे भारी वाहनों की भी घटती बिक्री उनकी नजर में ओला और उबर जैसी कोई वजह है या सरकार अभी इस पर भी  शोध कर रही है. हकीकत तो यह है कि युवा समझदार और किफायती हो चला है जो सरकार ने उसे बना दिया है कि सब कुछ नश्वर है और जो नहीं है. वह सरकार का होता है इसलिए ऋषि चार्वाक का दर्शन अपनाते कमाओ खाओ, कर्ज तो अब बिना सूद के कहीं मिलता नहीं इसलिए खुद उतना ही कमाओ जितने में गुजर हो जाये. यह बात यानि अपरिग्रह का उपदेश महावीर स्वामी भी काफी पहले दे गए हैं.

इसके बाद भी लोग खासतौर से युवा बात नहीं मानेंगे तो सरकार के पास उनसे पैसा झटकने टोटकों की कमी नहीं लेकिन रोजगार देने और कार खरीदने लायक आमदनी बढ़ाने बाबत उसके पास कोई मंत्र या पूजा पाठ नहीं है.

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बेशक युवा वर्ग सबसे बड़ा ग्राहक और उपभोक्ता है, जो अब वाहनों के मामले में ओला और उबर पर तवज्जो देने लगा है तो सरकार और वित्त मंत्री को बजाय उसे ही मंदी का जिम्मेदार ठहराने के अपनी जिम्मेदारियों पर गौर करना चाहिए. अब कार तो कार युवाओं की पसंदीदा सवारी बाइक में भी और मंदी आना तय दिख रहा है क्योंकि नए मोटर व्हीकल एक्ट के बड़े जुरमानों से दहशत में सबसे ज्यादा युवा ही है, जिसे पेट्रोल के पैसे तो मुश्किल से ही सही मिल जाते थे लेकिन जुर्माने की भारी भरकम राशि तो कोई किश्तों में फाइनेंस भी नहीं करेगा .

फिल्म समीक्षाः पहलवान

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः स्वप्ना कृष्णा

निर्देशकः एस कृष्णा

लेखकः कृष्णा, डी एस कानन और मधू

संगीतकारः अरूण जन्या

कैमरामैनः करूणाकर ए

कलाकारः किच्चा सुदीप, आकांक्षा सिंह, सुनील शेट्टी, सुशांत सिंह, कबीर दुहन सिंह, अविनाश अपन्ना, शरत लोहिताश्व, रघु गौड़ा व अन्य.

अवधिःदो घंटे 46 मिनट

‘फूंक’, रन’, ‘रक्तचरित्र 2’, ‘बाहुबली एक’ के अलावा हिंदी में डब दक्षिण भारतीय फिल्म ‘‘मक्खी’’ में नजर आ चुके दक्षिण भारतीय सुपर स्टार किच्चा सुदीप इस बार ‘‘पहलवान’’ में हीरो बनकर आए  हैं. ‘पहलवान’ मूलतः कन्नड़ भाषा की फिल्म है, जिसे तमिल, तेलगू, मलयालम व हिंदी में डब कर एक साथ ही प्रदर्शित किया गया है. बौलीवुड में खेल खासकर कुष्ती को लेकर ‘दंगल’ व ‘सुल्तान’ सहित कुछ अच्छी फिल्में आ चुकी हैं, मगर ‘पहलवान’ खेल जगत की पृष्ठभूमि पर बनी एक अलग तरह की एक्शन व रोमांचक फिल्म है. ‘पहलवान’ में कुष्ती’ के साथ साथ ‘बाक्सिंग’, राजे रजवाड़े खत्म होने के बावजूद राजवंश के वंषज का दंभ तथा स्पोर्ट्स जगत की असलियत पर भी रोशनी डाली गयी है. फिल्म में एक जगह एक बच्ची जो कि अब दौड़/ रेसिंग के लिए प्रैक्टिस करने की बजाय मजदूरी कर रही है, का संवाद है- ‘‘दुर्भाग्य से हम प्लेअर (खिलाड़ी) से लेबरर(मजदूर) बन गए है.’’एक छोटी बालिका का यह कथन समाज व सरकार पर करारा तमाचा है.

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कहानीः

मशहूर पहलवान सरकार (सुनील शेट्टी) अविवाहित रहने का फैसला करते हुए एक अनाथ बालक में एक बलशाली पहलवान बनने के तमाम गुण मौजूद होने का अंदाजा लगाकर वह उसे अपने घर ले आते हैं. वह उस बच्चे की परवरिश अपने बेटे की तरह करते हैं. बड़ा होकर वह बच्चा किच्चा उर्फ कृष्णा पहलवान (किच्चा सुदीप) के नाम से मशहूर होता है. सरकार का एक ही सपना है कि कृष्णा उर्फ किच्चा राष्ट्रीय स्तर का पहलवान बनकर देश को स्वर्ण पदक दिलाए. इसके लिए वह किच्चा को लड़कियों से दूर रहने की सलाह देते हैं. किच्चा भी उनकी सलाह पर अमल करता है और पवनपुत्र का भक्त है. किच्चा सरकार को अपना भगवान मानता है और उसे बर्दाश्त नहीं कि कोई उनके भगवान पर उंगली उठाए. एक कुष्ती प्रतियोगिता के दौरान रणस्थली के राजा व कुष्तीबाज राणा साहब (सुशांत सिंह) का खास चमचा सरकार पर छींटाकशी करता है, तो दूसरे दिन किच्चा उसकी जमकर पिटाई कर दते हैं. इसी दौरान एक अमीर बाप (अविनाश) की बेटी रुक्मिणी (आकांक्षा सिंह) के प्यार में किच्चा पहलवान पड़ जाते हैं.

रूक्मिणी के पिता ने अपने व्यापारिक फायदे के लिए रूक्मिनी का विवाह एक व्यापारी के बेटे से तय की है. अब रूक्मिनी के पिता, सरकार से मदद मांगते हैं. सरकार उन्हें वचन देते हैं. सरकार को दिए वचन के अनुसार किच्चा पहलवान रणस्थली में राणा साहब से कुष्ती लड़ने जाता है और राणा साहब को हराकर विजयी भी होता है. मगर उसी दिन हो रही रूक्मिणी की शादी में रूक्मिणी जहर खाए, उससे पहले ही किच्चा पहलवान, शादी के मंडप में पहुंचकर रूक्मिणी से विवाह कर लेत हैं, उन्हें रोकने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता. इससे नाराज होकर सरकार उससे सारे रिश्ते खत्म करते हुए वचन लेते हैं कि अब किच्चा पहलान भविष्य में कभी पहलवानी नहीं करेगा, कुष्ती नही लड़ेगा. अनपढ़ किच्चा मेहनत मजदूरी करके पत्नी के साथ खुशहाल जिंदगी जीने लगता है. उनकी एक बेटी जानू भी हो जाती है. मगर राणा साहब(सुशांत सिंह) अभी तक अपनी हार व अपमान को भूले नहीं है. वह किच्चा पहलवान की बेटी को बंदी बनाकर किच्चा पहलवान को कुष्ती लड़ने के लिए कहते हैं, पर किच्चा पहलवान, सरकार को दिया वचन तोड़ने को तैयार नही. अंततः सरकार आकर उससे कहते हैं कि खुद की रक्षा के लिए कुष्ती लड़ने से नही मना किया था. उसके बाद सरकार फिर से किच्चा पहलवान को बेटे, रूक्मिणी को बहू व जानू को पोती के रूप में स्वीकार कर लेते हैं. पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के बाक्सर टोनी(कबीर दुहन सिंह) का दंभ और ख्ेाल के मैदान में आगे बढ़ने के लिए गरीब बच्चों की मदद करने का मकसद किच्चा हलवान को टोनी के विरुद्ध बाक्सिंग रिंग में उतरने पर मजबूर करता है और जीत किच्चा पहलवान की होती है.

कहानी व निर्देशनः

निर्देशक एस कृष्णा की फिल्म ‘‘पहलवान’’ बाक्स आफिस के लिए आवश्यक सभी मसालों से भरपूर होते हुए भी लोगों के दिलो दिमाग में रह जाने वाली फिल्म है. इसमें एक्शन, इमोशन, रिश्तों की अहमियत के साथ एक मकसद और संदेश भी है. माना कि फिल्म कुछ लंबी हो गयी है और इंटरवल से पहले फिल्म को बेवजह खींचा गया है, मगर इंटरवल के बाद एक कसी हुई फिल्म है, जो कि दर्शकों को बांधकर रखती है. खेल जगत में खिलाड़ियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार पर एक सटीक टिप्पणी है. क्लाइमेक्स पर कैंची चलाकर छोटा किया जाना चाहिए था. सुनील शेट्टी व किच्चा सुदीप के बीच अटूट बंधन व रिश्ते पर गहराई से बात नही की गयी है. कहानी व पटकथा पर मेहनत की गयी होती, तो यह क्लासिक फिल्म बन सकती थी.

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जिस तरह से सलमान खान अपनी लगभग हर फिल्म में ‘‘बीइंग ह्यूमन’ के कार्य से संबंधित बात रखते रहते हैं, उसी तरह बंगलोर के नजदीक शिमोगा गांव में जो कर्म किच्चा सुदीप बच्चों के लिए कर रहे हैं, उसी दिशा में हर किसी को काम करने का संदेश दिया है, मगर भाषणबाजी नही है. फिल्म का गीत संगीत साधारण है.

फिल्म के कैमरामैन करुणाकर ए बधाई के पात्र हैं, कुछ दृश्यों में उनके कैमरे का कमाल नजर आता है.

अभिनयः

यह फिल्म पूरी तरह से किच्चा सुदीप की है. उन्होंने एक्शन, रोमांस, इमोशंस हर दृश्य में बाजी मारी है. मगर नृत्य के मामलें में वह थोडा कमतर हैं. मगर वह एक दिग्गज अभिनेता हैं, इसमें कोई दो राय नहीं. सुनील शेट्टी ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है. आकांक्षा सिंह मासूम व खूबसूरत लगी हैं, वैसे उनके हिस्से कुछ खास करने को नहीं आया. अन्य कलाकार ठीक ठाक हैं.

अभिनेता : भाग 3

सागर कपूर… एक दिलफेंक नौजवान… जो थियेटर ग्रुप की हर लड़की पर डोरे डालता घूमता था, हर नई कली को देखकर उसके पीछे लग जाता था, बीते दो सालों से एक साधारण रंग-रूप वाली लड़की सरिता शास्त्री के चक्कर में पड़ा हुआ था, यह बात उसके दोस्तों को हजम नहीं हो रही थी. मगर इसकी वजह क्या है यह सिर्फ सागर जानता था. सागर को आगे बढ़ने के लिए सरिता का सहारा चाहिए था. वह जानता था कि सरिता उससे प्यार करने लगी है. वह उसके लिए कुछ भी करेगी, कुछ भी लिखेगी. उस वक्त सागर को पब्लिसिटी की बहुत जरूरत थी और पब्लिसिटी उसे सरिता दे सकती थी. और सरिता ने दी भी. सरिता न सिर्फ अपने समाचार पत्र में, बल्कि अपने पत्रकार मित्रों के जरिए अन्य समाचार पत्रों में भी सागर के बारे में लिखवाने लगी.

सागर को सरिता से सिर्फ पब्लिसिटी ही नहीं मिल रही थी, बल्कि वह उससे कई अन्य चीजें भी सीख रहा था, मसलन बातचीत करने का प्रभावशाली तरीका, आंखों में आंखें डालकर सटीक सवाल करने का ढंग, शब्दों का सही इस्तेमाल… ये सभी चीजें उसके व्यक्तित्व में जुड़ती चली गयीं और वह निखरता चला गया.

सरिता और सागर को जब भी समय मिलता वह हाथों में हाथ डाले दूर एकान्त स्थान की ओर निकल जाते थे, जहां वह घंटों सरिता को अपने सीने से लगाए लेटा रहता, उसके लम्बे बालों को अपनी उंगलियों से सुलझाता रहता, उसके चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच लेकर अपने चेहरे के बिल्कुल करीब ले आता… सरिता उसकी गरम-गरम सांसों को महसूस करके शरमा जाती… अपनी पलकें झुका लेती… और सागर बेचैन होकर उसके थरथराते होंठों को अपने होंठों में ले लेता.

सरिता कहती, ‘सागर, मैं हमेशा तुम्हारी बाहों में रहना चाहती हूं, ऐसे ही… मरते दम तक…’ कभी कहती, ‘सागर… वक्त से कहो न, वह यहीं थम जाए… यह लम्हा कभी खत्म न हो… सागर, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं… तुम भी मुझसे इतना ही प्यार करते हो… बोलो…?’

और सागर कन्फ्यूज रहता… क्या वह सचमुच प्यार करता है? क्या वह उसके बगैर जी सकता है? क्या वह हमेशा उसके साथ रहेगा?

‘सागर… हम दोनों शादी कब करेंगे?’ उस रोज अचानक सरिता उससे पूछ बैठी.

दो पल की खामोशी के बाद सागर कुछ समझाने के अंदाज में बोला, ‘अभी मुझे बहुत कुछ करना है सरिता… बहुत ऊपर जाना है… बहुत काम करना है… शादी के बारे में बाद में सोचेंगे… अभी सिर्फ प्यार करो… ऐसे…’ उसने सरिता को कस कर अपनी बाहों में भींच लिया और सरिता मुस्कुरा दी… उसकी मीठी-मीठी बातों में बहल गयी.

धीरे-धीरे सागर ने छोटे परदे पर अपनी एक खास पहचान बना ली. वह कई धारावाहिकों में एकसाथ काम कर रहा था. अब वह उस मुकाम पर था, जहां से आगे जाने के लिए उसे सरिता की लेखनी की नहीं, बल्कि हाई सोसायटी के नामचीन लोगों से मेल-मुलाकात की जरूरत थी. उसने मुम्बई के बड़े डायरेक्टर्स-प्रोड्यूसर्स से जान-पहचान बढ़ानी शुरू कर दी. ग्लैमरस मॉडल्स के साथ वह अक्सर क्लब और होटलों में देखा जाने लगा. वह बड़ी-बड़ी फिल्मी पार्टियां और फंक्शंस अटेन्ड करने लगा. और कैमरा… शूटिंग…लाइट्स…ग्लैमर और लड़कियां… इन सबके बीच वह धीरे-धीरे सरिता से दूर होता चला गया.

सरिता उससे मिलने के लिए बेचैन रहती, उसे एक नजर देखने के लिए कई-कई दिन स्टूडियोज के चक्कर लगाती, मगर अब वह कभी-कभार उसके बहुत जिद करने पर ही उससे मिलता था. वह तड़पकर उसकी छाती से लग जाती. रो-रोकर बेहाल हो जाती, न जाने कितने प्रश्न आंसू बन कर उसकी आंखों से बहते, कंपकपाते होंठों पर कई शिकवे, कई शिकायतें होतीं, पर अब सागर के लिए यह सब कुछ बहुत उबाऊ था. कुछ ऐसा… जैसे कोई नाटक चल रहा हो, जिन्दगी एक रंगमंच हो और कोई अभिनेत्री उसके सामने करुण रस में डूबी अभिनय कर रही हो… और वह खुद अपने बेहतरीन अभिनय से उसका दिल बहला रहा हो. अब वह सरिता की किसी भावना को जज़्ब नहीं करना चाहता था. उस दिन भी वह बड़े नाटकीय अंदाज में सरिता को समझा रहा था…

‘देखो सरिता… तुम एक अच्छी लड़की हो… मेरी बहुत अच्छी दोस्त हो… मगर मेरे पीछे अपना जीवन बर्बाद मत करो… मेरे सामने लम्बा करियर पड़ा है… मैं अभी शादी की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता… मैं तो कहूंगा कि तुम कोई अच्छा लड़का देख कर शादी कर लो…’

सरिता उसकी बात सुन कर तड़प उठी, ‘सागर… मैं तुम्हारी हूं… सिर्फ तुम्हारी…’

‘सरिता तुम समझती क्यों नहीं… मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता… तुम मेरी अच्छी दोस्त हो… हमेशा रहोगी…’

‘तुम्हें दोस्ती की परिभाषा पता है सागर…? उसकी हद मालूम है…?’ वह अचानक गुस्से से भर उठी.

‘अरे… दोस्ती की और क्या परिभाषा होती है? हम एक-दूसरे की बातों को समझते हैं, सुख-दुख में एक-दूसरे के साथ हैं… यही तो है दोस्ती…’ वह गोलमोल तरीके से जवाब देने लगा.

‘यह परिभाषाएं तुम्हारे रंगमंच पर चलती होंगी सागर… हमारे समाज में नहीं… तुम साफ-साफ बता दो कि तुम मुझसे शादी क्यों नहीं करना चाहते… यकीन मानो मैं तुमसे प्यार करती हूं… बहुत प्यार करती हूं… मैं तुम्हारी खुशियों के आड़े कभी नहीं आऊंगी… मगर मुझसे झूठ मत बोलना… प्लीज…’

‘सरिता… सच कहूंगा तो तुम्हें बुरा लगेगा…’ सागर अब ढिठाई पर उतर आया. आज वह सोच कर आया था कि अब किस्सा खत्म करना है… यह कुछ ज्यादा ही लम्बा खिंच रहा है.

‘नहीं सागर, मैंने कभी तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं माना… आज सब कुछ कह दो, जो तुम्हारे दिल में है…’ सरिता ने उसके चेहरे पर अपनी नजरें जमा दीं.

‘सरिता… तुम बहुत अच्छी हो… तुमने मेरा बहुत साथ दिया… आज मैं जो कुछ भी हूं सिर्फ तुम्हारी वजह से हूं… तुम्हारी वजह से मुझे शोहरत मिली… तुमने मेरे बारे में लिखा… तुम बहुत अच्छा लिखती हो… मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करता हूं… प्यार करता हूं, मगर…’

‘मगर क्या…?’

‘मगर मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता… तुम… तुम बहुत साधारण हो… और मैं जिस जगह पहुंच चुका हूं वहां से मुझे और आगे जाने के लिए किसी ग्लैमरस लड़की का सहारा चाहिए… मैं शादी करूंगा तो किसी खूबसूरत मॉडल से… किसी एक्ट्रेस से… यह मेरा सपना है सरिता… और अगर तुम सचमुच मुझसे प्यार करती हो तो आज मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़कर कुछ मांग रहा हूं… मेरा यह सपना पूरा हो जाने दो… मेरा पीछा छोड़ दो सरिता… प्लीज…’ सागर ने हाथ जोड़ दिये.

‘ठीक है सागर… मैं सचमुच तुमसे बहुत प्यार करती हूं… और हमेशा ऐसे ही प्यार करूंगी… अंतिम सांस तक… इस प्यार के लिए तुम मुझसे जो कुर्बानी चाहोगे, दूंगी… तुम्हारा हर सपना पूरा होगा… जरूर पूरा होगा…’ सरिता ने आंसू पोछे और लौट पड़ी.

डौक्टर के सीने में डायलिसिस की गोली: भाग 1

2 अस्पतालों के मालिक और इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (करनाल) के पूर्व प्रधान डा. राजीव गुप्ता करनाल के नामचीन व्यक्ति थे. दिनदहाड़े उन की हत्या हो जाना बड़ी बात थी. लेकिन पुलिस टीमों में जब मेहनतमशक्कत से पूरी कोशिश की तो तीनों हत्यारे पकड़े गए. इन हत्यारों में…

वो3 लोग थे. तीनों में से 2 ने अपनी पहचान छिपाने के लिए चेहरों को कपड़े से ढक रखा था. तीनों करनाल के सेक्टर-16 के चौक के पास होटल येलो सफायर के पीछे वाली सुनसान सड़क पर खड़े थे. उन के पास बिना नंबर प्लेट की स्पलेंडर बाइक थी. उन्हें संभवत: किसी के आने का इंतजार था. उन की नजरें सामने से आने वाले वाहनों का जायजा ले रही थी.

उन के हावभाव देख कर ऐसा लगता था जैसे किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में वहां खड़े हों. सवा 6 बजे सामने से आती हुई सफेद रंग की क्रेटा कार नंबर एचआर05ए यू4934 को देख कर तीनों चौकन्ने हो गए. तुरंत बाइक स्टार्ट कर वे तीनों धीरेधीरे कार की दिशा में बढ़ने लगे.

कार चौक की तरफ से आ रही थी. जैसे ही कार स्पीड ब्रेकर पर पहुंच कर धीमी हुई, बाइक सवारों ने अपनी बाइक कार के आगे लगा कर उसे रोक लिया और 2 लोगों ने बाइक से उतर कर कार के सामने से गोलियां चलानी शुरू कर दीं.

कार के शीशे को भेदती हुई गोलियां कार ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठे व्यक्ति को लगीं. हमलावरों ने 3 गोलियां चलाने के बाद कार के बिलकुल पास जा कर 3 गोलियां और चलाईं. फिर बाइक पर सवार हो कर वहां से फरार हो गए. इस बीच कार का ड्राइवर घबरा कर अपनी जान बचाने के लिए कार से उतर कर निकल भागा था.

हमलावरों के जाने के बाद उस ने मदद के लिए चिल्लाना शुरू कर दिया. सामने से आते हुए बाइक सवार और आशीष नाम के एक कार चालक सहित कुछ लोगों ने इस वारदात को अंजाम देते हुए देखा था. कुछ लोगों की मदद से गंभीर रूप से घायल व्यक्ति को तुरंत पास के प्रसिद्ध अस्पताल अमृतधारा माई में लाया गया था.

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जिस कार में फायरिंग हुई, उस में अमृतधारा माई अस्पताल के संचालक व इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की करनाल इकाई के पूर्व प्रधान 56 वर्षीय डा. राजीव गुप्ता थे. अज्ञात लोगों ने उन्हें गोलियां मार कर बुरी तरह से घायल कर दिया था. उन्हें उपचार हेतु उन्हीं के आधुनिक अस्पताल में भरती कराया गया.

डाक्टर राजीव गुप्ता शहर के नामचीन व्यक्ति थे. वह केवल करनाल में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी मशहूर थे. गरीबों का कम पैसों में इलाज करने के साथ वे कई सामाजिक संस्थाओं के चेयरपरसन भी थे. उन पर हमला होने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे शहर में फैल गई.

तमाम लोग अमृतधारा अस्पताल की ओर दौड़े. देर रात तक अस्पताल के बाहर डाक्टरों और शहर के गणमान्य लोगों का तांता लग गया. यह घटना 6 जुलाई, 2019 शाम की है.

डाक्टर राजीव गुप्ता को करीब साढ़े 6 बजे सेक्टर-16 के चौक पर गोलियां मारी गई थीं. इस के बाद आननफानन में उन्हें उन के ही अस्पताल अमृतधारा माई ले जाया गया. पहले से ही सूचना मिल जाने के कारण अस्पताल में पूरा स्टाफ इमरजेंसी में अलर्ट था. साथ ही कई अस्पतालों के डाक्टर भी मौके पर पहुंच गए थे.

डा. गुप्ता की हालत गंभीर होने के कारण उन्हें तुरंत आईसीयू में ले जा कर वेंटीलेटर पर रखा गया. आननफानन में उन्हें बचाने के लिए डाक्टरों की टीम बनाई गई. टीम में शहर के टौप के सर्जन, एनेस्थीसिया और मैडिसन के डाक्टरों को शामिल किया गया.

मूलचंद अस्पताल के संचालक सर्जन डा. संदीप चौधरी, श्री रामचंद्र अस्पताल के डा. रोहित गोयल, मिगलानी नर्सिंगहोम के डा. ओ.पी. मिगलानी ने उन का औपरेशन किया.

इस दौरान अमृतधारा के आईसीयू के इंचार्ज डा. सामित समेत मैडिसन के डाक्टर कमल चराया और एनेस्थीसिया के डा. मक्कड़ की टीम भी मौजूद रही. बदमाशों ने डाक्टर पर 3 राउंड फायर किए थे, जिस में से 2 गोलियां उन की छाती पर लगी थीं और एक दिल के करीब.

डा. गुप्ता को बचाने के लिए डाक्टरों ने एक घंटे तक तमाम कोशिशें कीं, छाती से गोलियों को निकालने के लिए सर्जरी की गई. लेकिन तब तक डा. गुप्ता की धड़कनें रुक चुकी थीं. करीब 8 बजे उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.

डाक्टरों का कहना था कि छाती में गोलियां लगने के कारण ब्लीडिंग ज्यादा हो गई थी. हालांकि उन्हें खून भी चढ़ाया गया, लेकिन हार्ट फेल होने के कारण उन्हें नहीं बचाया जा सका. डा. गुप्ता को बचाने के लिए जहां डाक्टरों ने पूरी कोशिश की, वहीं अस्पताल के अन्य स्टाफ ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

सूचना मिलने पर करनाल रेंज के आईजी योगेंद्र नेहरा व एसपी सुरेंद्र सिंह भौरिया, डीएसपी करनाल बलजीत सिंह, डीएसपी वीरेंदर सिंह, सीआईए स्टाफ प्रमुख दीपेंदर राणा सहित थाना सिटी करनाल के इंचार्ज इंसपेक्टर हरविंदर सिंह क्राइम टीम और एफएसएल की टीम अमृतधारा अस्पताल पहुंच गई थीं.

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अस्पताल के डाक्टरों से मृत डाक्टर राजीव गुप्ता का हाल जानने के बाद सभी टीमों ने घटनास्थल पर जा कर वहां का मौकामुआयना किया. वहां से एफएसएल की टीम ने साक्ष्य जुटाए और गोलियों के खाली खोखे बरामद कर अपने कब्जे में लिए.

डा. राजीव के ड्राइवर साहिल से भी पूछताछ की गई. साहिल पिछले 8 सालों से उन के साथ बतौर असिस्टेंट और ड्राइवर का काम कर रहा था. 6 जुलाई, 2019 को साहिल से पूछताछ के बाद उसी के बयान पर डा. राजीव की हत्या का मुकदमा धारा 302 के तहत अज्ञात हत्यारों के खिलाफ दर्ज कर तुरंत काररवाई शुरू कर दी गई.

राजीव गुप्ता का घर आईटीआई चौक स्थित अमृतधारा अस्पताल परिसर में ही था. वहां पुलिस तैनात कर दी गई और अस्पताल को भी पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया. डा. राजीव गुप्ता करनाल के बड़े डाक्टरों में से एक थे. उन का एक अस्पताल कर्ण गेट स्थित चौड़ा बाजार में और दूसरा आईटीआई चौक पर था.

राजीव बहुत मिलनसार व्यक्ति थे और शहर के सामाजिक कामों में सक्रिय रहते थे. इसीलिए उन की हत्या के बाद कई सवाल खड़े हो रहे थे, जबकि पुलिस के हाथ अभी तक कुछ नहीं लगा था.

अगली सुबह 8 बजे आननफानन में हरियाणा के डीजीपी मनोज यादव चंडीगढ़ से करनाल पहुंच गए. उन के कुछ देर बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर भी डाक्टर के परिवार को सांत्वना देने उन के घर पहुंचे.

डीजीपी मनोज यादव ने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण करने के बाद मुख्यमंत्री और आला पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की. इस मीटिंग में डा. राजीव की हत्या के मामले को जल्द से जल्द सुलझाने के लिए 8 टीमें बनाने की बात तय हुई.

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डा. राजीव गुप्ता के हत्यारों को पकड़ना पुलिस के लिए चुनौती बना हुआ था. वारदात के तुरंत बाद एसपी सुरेंद्र सिंह भौरिया और एएसपी मुकेश की अध्यक्षता में थाना पुलिस और सीआईए स्टाफ की 8 टीमों का गठन कर दिया गया, लेकिन हत्यारों का कोई सुराग नहीं मिलने के कारण पुलिस की जांच किसी भी दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रही थी.

अगली कड़ी में पढ़ें- क्या पुलिस डा. राजीव गुप्ता के हत्यारों को पकड़ पाई?

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

सौजन्य: मनोहर कहानियां

बढ़ रही है भूलने की बीमारी

मां अक्सर चूल्हे पर दाल या दूध की पतीली चढ़ा कर भूल जाती हैं. ड्राइंग रूम या बेडरूम में जब हमलोगों को घर में कुछ जलने की तीव्र गंध आती है, तब पता चलता है कि मां पतीली चढ़ा कर या तो सो गयीं या अन्य कामों में बिजी हो गयीं. उनकी यह हालत कोई साल भर से है. एक दिन तो वह बाजार से सामान खरीदने गयीं और सामान से भरा एक झोला किसी सब्जीवाले के ठेले पर भूल आयीं, वह तो भला हो उस ठेलेवाले का जो मां को जानता था, सो आकर झोला वापस कर गया. मां यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि उन्हें भूलने का रोग यानी अल्जाइमर हो गया है. डौक्टर के पास चलने को कहो तो उल्टे नाराज हो जाती हैं. कहती हैं कि मैं काम की अधिकता में कुछ भूल जाती हूं तो तुम लोग मुझे भुलक्कड़ साबित करने लगते हो… अब उन्हें कौन समझाए कि उम्र के साथ यह रोग लग ही जाता है. उम्र के साथ शरीर की ही नहीं, बल्कि दिमाग की कोशिकाएं भी सुस्त पड़ने लगती हैं या क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिसके चलते इंसान चीजों को भूलने लगता है.

भूलने का रोग यानी अल्जाइमर रोग भारत में तेजी से पैर पसार रहा है. इसे डिमेंशिया भी कहते हैं. अलोइस अल्जाइमर के नाम पर इसे अल्जाइमर कहा गया, जिन्होंने सबसे पहले इस रोग के लक्षणों को पहचाना था. बुढ़ापे में यह बीमारी आमतौर पर देखी जाती है, मगर कई बार सिर में चोट लगने या आधुनिक जीवनशैली, शराब या ड्रग्स का सेवन भी इस रोग का कारण हो सकते हैं. इसमें इंसान की याददाश्त कम होने लगती है, वह निर्णय नहीं ले पाता या उसको बोलने में दिक्कत आने लगती है, जिसकी वजह से सामाजिक और पारिवारिक दायरे में गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो जाती है. उच्च रक्तचाप, तनाव, मधुमेह भी इस रोग की वजहों में से एक है.

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अल्जाइमर एक दिमागी बीमारी है. इस रोग में मस्तिष्क में हानि होती है. इससे एक आम इंसान की मानसिक क्षमता में गिरावट आ जाती है. मस्तिष्क में न्यूरोफिब्रिलरी टैंगिल और बीटा-एमीलायड प्लैक देखे जाते हैं, और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है. अल्जाइमर एक प्रगतिशील रोग है. इसमें हो रही मस्तिष्क में हानि समय के साथ-साथ बढ़ती जाती है. लक्षण भी गंभीर होते जाते हैं. इस रोग के बढ़ने से आगे आनेवाले समय में साधारण जिन्दगी जीने में भी मुश्किलें पैदा हो जाती हैं. इस रोग का प्रारंभिक लक्षण है याददाश्त की समस्या. इसलिए इस रोग को कई लोग भूलने की बीमारी, स्मृति-लोप और याददाश्त की समस्या के नाम से भी पुकारते हैं. शुरू में कुछ और लक्षण जैसे की अवसाद, अरुचि, समय और स्थान का सही बोध न होना, वगैरह भी प्रकट होता है. रोग के अंतिम चरण में व्यक्ति अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते हैं और पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं. यह एक तरह से लाइलाज बीमारी है. भारत में पचास लाख से भी ज्यादा लोग इस मानसिक बीमारी का सामना कर रहे हैं, जिसमें से अस्सी प्रतिशत लोगों को अल्जाइमर है. डॉक्टरों का कहना है कि वर्ष 2030 तक यह संख्या दोगुनी हो सकती है.

अमूमन 60 वर्ष की उम्र के आसपास होने वाली इस बीमारी का फिलहाल कोई स्थायी इलाज नहीं है. हम जैसे-जैसे बूढ़े होते हैं, हमारी सोचने और याद करने की क्षमता भी कमजोर होती जाती है. अल्जाइमर रोग इस बात का संकेत है कि हमारे दिमाग की कोशिकाएं मर रही हैं. गौरतलब है कि हमारे दिमाग में एक सौ अरब कोशिकाएं (न्यूरॉन) होती हैं. हरेक कोशिका बहुत सारी अन्य कोशिकाओं से संवाद कर एक जटिल नेटवर्क बनाती हैं. इस नेटवर्क का काम विशेष होता है. कुछ कोशिकाएं सोचती हैं, कुछ सीखती हैं, कुछ याद रखती हैं, कुछ संकेत पे्रषित करती हैं. अन्य कोशिकाएं हमें देखने, सुनने, सूंघने, स्पर्श समझने आदि में मदद करती हैं. इसके अलावा कुछ कोशिकाएं हमारी मांसपेशियों को चलने का निर्देश देती हैं. कहना गलत न होगा कि शारीरिक और मानसिक कार्यों के लिए हमारे दिमाग की कोशिकाएं किसी लघु उद्योग की तरह काम करती हैं. वे सप्लाई लेती हैं, ऊर्जा पैदा करती हैं, अंगों का निर्माण करती हैं और बेकार चीजों को शरीर से बाहर निकालती हैं. कोशिकाएं सूचनाओं को जमा करती हैं और फिर उनका प्रसंस्करण भी करती हैं. शरीर को चलते रहने के लिए समन्वय के साथ बड़ी मात्रा में औक्सीजन और ईधन की जरूरत होती हैं. बाल्यावस्था या युवावस्था में हमारे शरीर में काफी एनर्जी होती है. ऑक्सीजन की खूब मात्रा फेफड़े हमारे मस्तिष्क तक भेजते हैं, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ कोशिकाओं के काम करने की क्षमता कम होती जाती है. उम्र के साथ कोशिकाएं नष्ट भी होने लगती हैं और नई कोशिकाओं के बनने की गति भी मंद पड़ जाती है, जिससे मस्तिष्क तक पर्याप्त ईधन और ऊर्जा नहीं पहुंच पाती है और वहां कोशिकाओं को नुकसान पहुंचता है. इसके अलावा चोट लगने से भी कोशिकाएं नष्ट होती हैं और उस मात्रा में नई कोशिकाओं के न बन पाने के चलते अल्जाइमर रोग उत्पन्न होता है.

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कैसे पहचानें इस रोग को

  • भूलने की बीमारी होने पर पीड़ित व्यक्ति को कोई भी गेम खेलने या खाना पकाने में कठिनाई होने लगती है.
  • अधिक उम्र में बीमारी बढ़ने पर व्यक्ति को बोलने में दिक्कतें आने लगती हैं. यहां तक कि साधारण वाक्य या शब्द तक नहीं बोल पाता. न सिर्फ बोलने में फर्क आता है, बल्कि उसकी लेखन शैली भी बदल जाती है. अक्सर बुढ़ापे में लोगों के हस्ताक्षर बदल जाते हैं.  –  घर का पता या आसपास के माहौल तक को व्यक्ति भूलने लगता है. कई बार अपने रिश्तेदारों के नाम तक वह भूल जाता है.
  • कोई भी निर्णय लेने में उसे काफी दिक्कतें आती हैं.
  • हिसाब किताब करने में परेशानी होने लगती है.
  • अपनी चीजों को रखकर भूल जाना भी एक बड़ी समस्या बन जाती है.
  • मूड में बदलाव आ जाना, बिना वजह गुस्सा करना इस रोग के लक्षण हैं.

खानपान में लाएं थोड़ा बदलाव

  • बादाम और ड्राई फ्रूट तो दिमाग तेज करने और याददाश्तको बढ़ाने के लिए तो रामबाण हैं ही, इसके अलावा भी कई और सुपरफूड हैं जो आपकी याददाश्त तेज कर सकते हैं. दिमाग को सक्रिय रखने के लिए एंटी औक्सीडेंट्स से भरपूर स्ट्रॉबेरी और ब्लूबेरी खाएं. विटामिन-ई से भरपूर स्ट्रॉबेरी और ब्लूबेरी खाने से तनाव कम होता है.
  • हरी फूलगोभी यानी ब्रोकली का सेवन करने से दिमाग तेज होता है. ब्रोकली में मैग्नीशियम, कैल्शियम, जिंक और  फास्फोरस अच्छी मात्रा में पाया जाता है, जिससे दिमाग तो तेज होता ही है, हड्डियां भी मजबूत होती हैं.
  • अल्जाइमर के दौरान दिमाग में बढ़ने वाले जहरीले बीटा एमिलॉयड नामक प्रोटीन के प्रभाव को ग्रीन टी के सेवन से कम किया जा सकता है.
  • हरी पत्तेदार सब्जियां, बींस, साबुत अनाज, मछली, जैतून का तेल और एक गिलास वाइन अल्जाइमर रोग से लड़ने में मदद करती है.
  • अतिरिक्त कौपर को डायट में कम कर देना चाहिए. कौपर डायट अल्जाइमर रोग का खतरा बढ़ा देता है. ऐसे में कौपरयुक्त खाद्य पादार्थ जैसे – तिल, काजू, सूखे टमाटर, कद्दू, तुलसी, मक्खन, चीज, फ्राइड फूड्र जंकफूड, रेड मीट, पेस्ट्रीज और मीठे का सेवन करने से बचें.
  • तनाव से दूर रहें. मेडिटेशन करें, हल्का संगीत सुनें और मन को शांत रखें.

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दीक्षा यानी गुरूओं की दुकानदारी

रिटायरमैंट के करीब पहुंचे एक सज्जन से मैं ने पूछा, ‘‘दीक्षा का मतलब क्या है?’’ वे बताने लगे, ‘‘दीक्षा का मतलब, दक्ष,’’ वे आगे बोले, ‘‘कृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के युद्ध में दीक्षा दी थी.’’

‘‘क्या दीक्षा दी थी?’’ मेरे दोबारा पूछने पर वे कुछ नहीं बोले. जाहिर है, वे अपने गुरु के अंधसमर्थक थे.

इस बारे में महाभारत से स्पष्ट है कि कृष्ण ने छलकपट से कुरुक्षेत्र का युद्ध जीता था. तो क्या उन्होंने अर्जुन को छलकपट की दीक्षा दी? आमतौर पर दीक्षा का मतलब होता है, गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान का सार, जिस पर शिष्य (छात्र) अपने जीवन में अमल कर सफलता की सीढ़ी चढ़ता है. स्कूल की पढ़ाई को तथाकथित गुरु अपर्याप्त शिक्षा मानते हैं. अनपढ़, गंवार गुरु अपने तप से जीवन में ऐसा कौन सा मंत्र प्राप्त करते हैं जो अपने शिष्यों में बांट कर उन का जीवन सुधारने का कार्य करते हैं, जबकि वे खुद असफल, जीवन के संघर्षों से भागने वाले लोग होते हैं.

गुरु के मर जाने के बाद भी दीक्षा का कार्यक्रम चलता है. यह समझ से परे है, क्योंकि गुरु खुद अपना ज्ञान दे तो समझ में आता है पर यह कार्य मरने के बाद उन के कुछ शिष्यों द्वारा चलता रहे, तो यही कहा जा सकता है कि यह गुरु की दुकानदारी है.

दीक्षा देने का तरीका सभी गुरुओं का एक जैसा नहीं होता. कुछ गुरु खास रंगों के वस्त्रों के साथ नहाधो कर ब्रह्ममुहूर्त में दीक्षा देते हैं, तो कुछ कभी भी, किसी भी अवस्था में. दीक्षा के लिए किस गुरु को चुना जाए, यह बुद्धि से ज्यादा गुरु के प्रचार पर निर्भर करता है जिस गुरु का जितना प्रचार होता है उस से दीक्षित होने के लिए लोग उतने ही उतावले होते हैं. इस के अलावा संपर्क भी एक माध्यम है. क्यों? जड़बुद्धि जनता के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता क्योंकि इतना सोचने के लिए उस के पास दिमाग ही नहीं होता. उसे तो बस यह पता हो कि उक्त गुरुजी बहुत पहुंचे हुए महात्मा हैं.

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इन गुरुओं से संबंधित अनेक मनगढं़त कहानियां होती हैं जो नए ग्राहक (शिष्य) को फंसाने के लिए सुनाई जाती हैं. एक दीक्षा प्राप्त महिला ने अपने गुरु के बारे में बताया कि एक बार मेरा बेटा मोटरसाइकिल से आ रहा था. उसे अचानक चक्कर आया और वह गिर पड़ा. गिरते ही बेहोश होने की जगह उस ने गुरुमंत्र जपा. तभी गुरु समान सड़क पर पता नहीं कहां से एक रिकशा वाला आ गया, जो मेरे बेटे को उठा कर पास के अस्पताल में ले गया. आमतौर पर उस अस्पताल में औक्सीजन सिलिंडर नहीं होता पर उस रोज था और इस तरह बेटे की जान बच गई. रिकशे वाले की सदाशयता और अस्पताल की सारी मुस्तैदी का के्रडिट गुरुजी ले उड़े.

दूसरी कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है : एक शिष्य साइकिल से जा रहा था. अचानक ट्रक ने पीछे से साइकिल में टक्कर मारी तो साइकिल सवार सड़क पर और साइकिल छिटक कर दूर जा पड़ी. सड़क पर गिरते ही उस का एक हाथ ट्रक के अगले पहिए के नीचे आ गया. तभी उस ने गुरुमंत्र जपा. मंत्र जपने के साथ ही उस में पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गई कि उस ने सिर झटके से हटा लिया. इस तरह उस का सिर पिछले पहिए से कुचलने से बच गया.

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समझने वाली बात है कि उस का ध्यान मंत्रजाप पर था या सिर बचाने पर. साफ पता लग रहा है कि सारी घटना में जानबूझ कर मंत्र का तड़का लगाया गया है.

गुरुमंत्र कानों में इस तरह फुसफुसाए जाते हैं ताकि कोई सुन न ले. ठीक पाकिस्तान के आणविक कार्यक्रम की तरह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए, वरना महाविनाश निश्चित है. गुरुमंत्र से दीक्षित हो कर वह आदमी उस फार्मूले (मंत्र) को अपने तक ही सीमित रखता है.

दीक्षा मुफ्त में नहीं मिलती. इस के लिए बाकायदा चढ़ावा निश्चित है. ‘माया महा ठगिति हम जानी’, तिस पर गुरु व उन के खासमखास चेले बिना रुपया हाथ में लिए दीक्षा नहीं देते. यहां तक कि मर चुके गुरु के फोटो तक के पैसे शिष्यों से वसूल लिए जाते हैं. एकाधिकार बना रहे तभी कानों में मंत्र फूंकने का काम वह अपने तक ही सीमित रखता है. हां, मरने के बाद गुरु की दुकानदारी चलती रहे, सो अपने किसी प्रिय शिष्य को वह यह कार्य सौंप कर जाता है.

दीक्षा में कुछ नहीं है. कानों में गुरु अपना उपनाम बताता है, जिसे दीक्षित आदमी से हर वक्त जपने को कहा जाता है. यह एक तरह से व्यक्ति पूजा है ताकि कथित भगवानों से ऊपर लोग उसे जानें. तथाकथित गुरु का यह आत्ममोह से ज्यादा कुछ नहीं.

गुरु कितने आध्यात्मिक व ताकतवर हैं, यह सब को मालूम है. सुधांशु महाराज, जयगुरुदेव, कृपालु महाराज, आसाराम बापू, प्रभातरंजन सरकार (आनंदमार्गी) इन सब के क्रियाकलापों से सारा देश परिचित है. इन्होंने समाज को कौन सी सीख दी? क्या मंत्र दिया? उन का गुरुशिष्य के खेल में कितना कल्याण हुआ? यह बताने की जरूरत नहीं. हां, इतना जरूरी है कि दीक्षा के नाम पर करोड़ों रुपए कमा चुके ये महात्मा खुद आलीशान जीवन जी रहे हैं और दीक्षा लेने वाला शिष्य भूखे पेट इन के नाम का जाप कर इन्हें धन्य कर रहा है.

अपनी गिरफ्तारी पर आसाराम बापू ढिठाई से कहते हैं, ‘‘नरेंद्र मोदी की सत्ता बच न सकेगी.’’ मानो वे कोई अंतर्यामी व सर्वशक्तिमान हैं. उन के गिरफ्तार होते ही प्रलय आ जाएगी. दुनिया तहसनहस हो जाएगी. अपनी दुकानदारी चलाने की नीयत से इन गुरुओं द्वारा, यदि दिवंगत हुए तो शिष्यों द्वारा साल में 1 या 2 बार विभिन्न धार्मिक शहरों में भंडारे का आयोजन होता है. जहां इन के शिष्य जुटते, खातेपीते, सत्संग (चुगलखोरी) करते हैं. कहने को सभी शिष्य आश्रम में गुरुभाई हैं पर जैसे ही भंडारा खत्म होता है फिर से वे जातिपांति, भाषा में बंटे अपने घरों को लौट जाते हैं. सिवा पिकनिक के इन भंडारों से कोई लाभ नहीं होता. भंडारे के लिए धन कहां से आता है? इस के लिए हर शिष्य चंदा देता है. कुछ पैसे वाले व्यापारी तो गुरु महाराज की इच्छा के नाम पर भंडारे का सारा खर्च अपने ऊपर ले लेते हैं. दरअसल, जमाखोरी कर के वे जो पाप की कमाई करते हैं उसे थोड़ा खर्च कर के अपने पाप को धोने की कोशिश करते हैं.

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दीक्षित होने के बाद बताया जाता है कि गुरु की तसवीर के सामने बिना होंठ व जबान हिलाए मंत्र (गुरु नाम) का स्मरण करना चाहिए. यह प्रक्रिया दिनरात कभी भी की जा सकती है. सुबह अनिवार्य है. ऐसा कर के शिष्य के ऊपर कभी भी संकट नहीं आ सकता. तो क्या गुरुजी उस आदमी के लिए ‘बुलेटप्रूफ जैकेट’ का काम करते हैं? अगर गुरुजी पर संकट आए तब जैसा आसाराम बापू के साथ हुआ? तब मीडिया को कोसने का मंत्र गला फाड़फाड़ कर बोलने का नियम शायद लागू होता है.

कुल मिला कर दीक्षा वक्त व धन की बरबादी है. जो धर्मभीरु हैं, बेकार हैं व भाग्य के भरोसे रहने वाले हैं वे ही इन गुरुओं के चक्कर में पड़ते हैं. जो गुरु खुद दिग्भ्रमित हो वह क्या लोगों को रास्ता दिखाएगा. दोष कबीर का ही है, न वे कहते, ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय. बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय.’ न आम लोगों में यह धारणा बनती कि गुरु ही भगवान के पास जाने का रास्ता जानते हैं.

छोटे शहरों में बढ़ रहा मैटरनिटी फोटो शूट का क्रेज

कुछ समय पहले तक गर्भावस्था को छिपाया जाता था. प्रसव के बाद ही लोगों को बच्चे का पता चलता था. कुछ समय पहले फिल्म आर्टिस्ट और मौडल्स ने अपने गर्भावस्था के दिनों में ही अलग अलग फोटो शूट कराये. यह फोटो शूट प्रसव के कुछ समय पहले तक कराये जाते है. बड़े शहरों में यह काफी ग्लैमरस अंदाज में होते है. छोटे शहरों में माहौल को देखते हुये यह मैटरनिटी फोटो शूट हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ ‘कैमरो क्लिक‘ की शुभांगी मौर्या कहती हैं ‘हमारे पास कुछ समय से ऐसे फोटो शूट के लिये बडी संख्या में लोग आ रहे हैं. यह लोग केवल स्टूडियों में ही नही आउटडोर शूट भी कराते हैं. थीम के अनुसार अलग अलग रिश्तेदारों खासकर पति और सास या ननद के साथ ऐसे शूट भी कराते हैं. महिलाएं गर्भावस्था को यादगार बनाते हुये अपने भावनात्मक पलों को भी फोटो में कैद करना चाहती हैं.

ऐसे फोटोशूट के लिये नार्मल फोटो शूट की ही तरह से मेकअप, ड्रेस और लोकेशन का चयन करना पड़ता है. शुभांगी मौर्या कहती हैं ‘मैटरनिटी फोटोशूट के समय सबसे ज्यादा देखने वाली चीज लोकेशन और ड्रेस होती है. यह गर्भावस्था के दिनो भी महिला को और सुदंर दिखाने का काम करती है. सामान्य तौर पर ऐसे फोटो शूट के लिये एक पैकेज लेना लोग पंसद करते हैं. जिसमें गर्भावस्था से लेकर प्रसव के 6 माह तक का समय शामिल होता है. जिसमें प्रसव के बाद बच्चे का फोटोशूट भी होता है. लोग ऐसे फोटो के स्लाइड शो भी बनवाते हैं. साथ ही साथ एलबम भी. उनकी जरूरत यह होती है कि ऐसे पलों को वह अपनी यादों में संजो कर रख सके साथ ही साथ आज सोशल मीडिया के दौर में दूसरों को बता भी सके.

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स्त्री रोग विषेषज्ञ डाक्टर सुनीता चन्द्रा कहती हैं कि ‘मेडिकल सांइस के तरक्की करने और जागरूकता आने से प्रसव अब पीड़ादायक नहीं रह गया है. ऐसे में हर कोई इस पलों का संभाल कर रखना चाहता था. गर्भावस्था के दौर में भी महिलाएं खुद के फिगर को फिट रखती है. वह सुंदर दिखना चाहती है. इसके लिये डाइट, एक्सरसाइज, ड्रेस को भी बहुत अच्छा रखती है. ऐसे में मैटरनिटी फोटो शूट एक जरूरी रास्ता बन गया है. इसको करते समय यह ख्याल जरूर रखें कि इसका गर्भावस्था पर कोई कुप्रभाव ना पडे. डाक्टर की सलाह पर ही ऐसे काम करें. यह जरूर है कि अगर सब कुछ हेल्थ कर नजर से सही है तो मैटरनिटी फोटो शूट कराने में कोई दिक्कत नहीं होती है.

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32 साल का युवक बना 81 साल का बूढ़ा

जी हां आपने अक्सर फिल्मों में और सीरियल्स में ही लोगों को रूप बदलते देखा होगा लेकिन अब तो लोग असल जिंदगी में भी ऐसा ही करने लगे हैं भाई. जरा सोचिए कि किसी की इतनी हिम्मत कहां से हो गई जो भेस बदलकर दूसरे देश में जाने के फिराक में था. हालांकि अब तो ऐसी खबरें आम बात हो गई जब लोग ऐसे कारनामें करने लगे हैं.

हाल ही में एक खबर आई कि दिल्ली एयरपोर्ट पर एक व्यक्ति को पकड़ा गया जिसकी उम्र तो थी 32 साल लेकिन वो बना 81 साल का बूढ़ा. उस व्यक्ति की पहचान जयश पटेल नाम से हुई है और उसने क्या किया ये आपको जरूर जानना चाहिए.

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जयेश पटेल गुजरात का रहने वाला है और उसे अमेरिका जाना था जहां जाकर वो अपनी जिंदगी बदलना चाहता था.वो एशोआराम से रहना चाहता था,वो सोचता था कि भारत में रहकर उसका कुछ नहीं होने वाला विदेश जाकर उसकी जिंदगी बदल जाएगी और बड़े ही आराम से उसकी जिंदगी कटेगी लेकिन उसे वीज़ा नहीं मिल रहा था जिसके कारण उसने एक एजेंट से बात की और उसी एजेंट ने उसे ये सलाह दी कि उसे अपना भेस बदलना होगा.बस फिर क्या था चल पड़े महाशय ओखली में सर देने. 32 साल के जयेश पटेल ने 81 साल के बूढ़े के रुप में अपना भेस बदला और व्हीलचेयर पर बैठ कर जाने लगा उसे लगा कि कोई उसपर शक नहीं करेगा लेकिन दिल्ली एयरपोर्ट पर चेकिंग के दौरान सीआईएसएफ ने उससे पूछताछ की और उन्हें उसपर शक हो गया.जब सीआईएसएफ को सच का पता चला तो सबके होश ही उड़ गए.सबसे चौकानें वाली बात तो ये सामने आई कि उसने एजेंसी को भी अपने क्लीयरेंस में ले लिया था और 81 साल का दिखने के लिए उसने ज़ीरो पावर का चश्मा भी पहन रखा था.सफेद दाढ़ी भी लगा रखा थी और मेकओवर ऐसा कि किसी को भी उस पर शक नहीं होता..लेकिन सुरक्षाकर्मियों से बच नहीं पाया और पूछताछ में पकड़ा गया.उस व्यक्ति के दिमाग की तो दाद देनी पड़ेगी जिसने उसको इतना बड़ा अपराध करने पर मजबूर कर दिया.उस एजेंट की भी क्या कहें जिसने जयेश को ये सलाह दी.

सिर्फ वीजा न मिलने के कारण उसने इतनी बड़ी साजिश रच डाली…वाह भाई पहले तो सिर्फ फिल्मों में ही देखना होता था लेकिन अब लोग सच में ऐसा करने लगे हैं.लेकिन आप सभी जरूर सावधान रहें और ऐसा करने से पहले सोचें क्योंकि ये करना कितना खतरनाक है ये तो आप समझ ही गए होंगे.क्योंकि जयेश के इस बहरूपिए के खेल ने उसे जेल का रास्ता दिखा दिया.अब वो भी यही सोच रहा होगा कि कहां विदेश जाकर उसकी जिंदगी बदलने वाली था और कहां वो जेल पहुंच गया.जनाब जब दिमाग जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर लो तो यही होता है…वो कहते हैं न विनाशकाले विपरीत बुद्धि बस वही हाल हुआ जयेश का.तो दोस्तों यही सलाह है आप कभी ऐसा कुछ न करें.

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जानें, लड़कों के लिए क्यों जरूरी होते हैं उनके बेस्ट फ्रेंड

हर व्यक्ति का कोई बेस्ट फ्रेंड तो होता ही हैं, जिसके साथ वह अपने दिल की सारी बातें शेयर करता हैं और खुशी और गम दोनों में उसे याद करता हैं. ऐसे कई मौके आते हैं जब उसे रिश्तों के बीच में चुनाव करना होता है तो वह अपने बैस्ट फ्रैंड का चुनाव करता हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि लड़कों के लिए उनके बेस्ट फ्रेंड क्यों इतने जरूरी होते हैं.

आज हम आपको बताने जा रहे हैं इसके पीछे के कारण के बारे में कि क्यों लड़कों के लिए गर्लफ्रेंड से ज्यादा दोस्त मायने रखते हैं.

हर माहौल में रहते हैं फिट

गर्लफ्रैंड के साथ घूमने जाना हो तो पहले सो बातें सोचनी पड़ती लेकिन दोस्तों के साथ जाना हो तो किसी बात की कोई टेंशन नहीं होती क्योंकि दोस्त जिम्मेदारी नहीं बल्कि साथ बनकर जाते है.

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इंप्रेस करने का कोई झंझट नहीं

रिलेशन नया हो या पुराना, गर्लफ्रैंड को इम्प्रेस करने के लिए हर बार नया बहाना ढूंढना पड़ता है लेकिन दोस्तों के साथ ऐसा कुछ नहीं होता. दोस्त हमसे कोई खास मुम्मीद ही नहीं लगाते. दोस्ती एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें कोई नाराजगी की जगह नहीं होती.

अहम फैसले लेने में मदद

जिंदगी में कई ऐसे मोड़ आते हैं, जहां हमें अहम फैसला लेना पड़ता. ऐसे में किसी की सलाह लेनी पड़ती तो वह दोस्त ही होते है, जिनसे हम अपनी जिंदगी से जुड़े अहम किस्सों को सांझा कर लेते है और वह कई बार पूरा साथ भी देते है.

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कोई कमिटमेंट नहीं

दोस्ती में कमिटमेंट जैसा कोई शब्द ही नहीं होता. जबकि गर्लफ्रैंड के साथ इस टॉपिक पर हमेशा डिसकशन हो जाता है.

मिलने से पहले लुक देखना

अगर गर्लफ्रैंड मिलने बुलाए तो सबसे पहले अपने लुक पर ध्यान देना पड़ता. कहीं गर्लफ्रैंड बेसती न कर दें. वहीं कहीं दोस्त बुलाए तो हम ऐसे ही मुंह उठाकर निकल पड़ते है क्योंकि वो कौन-सा लुक पर ध्य़ान देते है.

ज्यादा वक्त नहीं मांगते दोस्त

दोस्तों के साथ हम जितना वक्त बिताना चाहे बिता लेते है, वह कभी कोई शिकायत नहीं करते कि याद तू हमे बुलाता ही नहीं है. वहीं अगर गर्लफ्रैंड को एक दिन भी टाइम न दे पाए तो सो बातें सुननी पड़ती है.

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