एक मध्यवर्गीय घर में पतिपत्नी के बीच सब से ज्यादा चर्र्चा का विषय होता है घरखर्च. हर घर में घरखर्च पर होने वाले विवादों की स्क्रिप्ट लगभग एक सी होती है, जिसे ‘तोहमतों की स्क्रिप्ट’ भी कह सकते हैं. उस में पति कहता है, ‘‘आजकल घर के खर्चे कुछ ज्यादा ही बढ़ रहे हैं, जरा संभल कर घर चलाओ. पैसे पेड़ पर नहीं उगते.’’

अब बीवी भी कहां पीछे रहने वाली है. वह भी सुनाती है, ‘‘खर्च तो तुम लोगों के ऊपर ही होता है. मैं तो नमक से भी रोटी खा कर खुश हूं.’’

इस पर पति कहता है, ‘‘नमक से रोटी खा कर खुश हो, मगर जो सारा दिन एसी चला कर टीवी देखती हो, बिजली का बिल बढ़ाती हो उस का क्या?’’

‘‘मेरा टीवी दिखता है और तुम जो गरमियों में भी गरम पानी से नहाने में बिजली फूंकते हो,
10 बार चायकौफी में चीनीपत्ती और गैस खर्च करवाते हो उस का क्या?’’

घर के साथ यह जो ‘खर्च’ शब्द जुड़ा है, हर इंसान के लिए उस की अलगअलग परिभाषा होती है. उदाहरण के लिए एक परिवार जिस में सासससुर, पतिपत्नी और उन के 2 बच्चे हैं, बाहर रैस्टोरैंट में खाना खाने गए जिस का क्व1,500 बिल आया. सास के लिए बाहर खाना खाने का मतलब कामचोरी और ऐयाशी था. उन के लिए वह क्व1,500 का खर्च बिलकुल फुजूल था. वे बारबार खाते हुए यही बड़बड़ा रही थीं, ‘‘इस से अच्छा तो मैं घर पर ही बना लेती… आजकल तो बाहर खाने के लिए लोग अपना घर और सेहत बरबाद कर रहे हैं.’’

ससुर की नजरों में यह खर्च रिश्तों में इनवैस्टमैंट थी. वे यह देख कर बहुत खुश थे कि इतने दिनों बाद पूरा परिवार एकसाथ बाहर आया है और खुश है. उन के अनुसार ऐसी आउटिंग परिवार के लिए बेहद जरूरी है.

बहू के लिए वह लंच जरूरत थी, क्योंकि उस की कमर में दर्द था और वह खाना बनाने में असमर्थ थी. बाहर आ कर खाने से उसे भी रसोई के 10 कामों से छुट्टी मिली. पति को यह सोच कर राहत थी कि अब बच्चे उसे अगले कुछ दिनों तक यह नहीं सुनाएंगे कि पापा हमें कितने दिनों से बाहर नहीं ले गए.

देखा आपने? अलगअलग दृष्टिकोण के कारण एक ही खर्च के कितने मतलब निकल गए. किसी के लिए फुजूल, तो किसी के लिए इनवैस्टमैंट, किसी के लिए जरूरत, तो किसी के लिए राहत.

जहां दृष्टिकोण अलग हों और एकदूसरे के दृष्टिकोण के लिए स्वीकारभाव न हो, वहीं विवाद पैदा होते हैं और जब 2 विवादग्रस्त लोगों के बीच हैल्दी कम्यूनिकेशन न हो तो उन के बीच बाहरी हस्तक्षेप शुरू हो जाता है. यदि विवाद का मुद्दा घरखर्च है तो यह हस्तक्षेप होता है पतिपत्नी दोनों की माओं का. वह इसलिए, क्योंकि एक लड़का जैसे अपनी मां को घरखर्च चलाते देखता है, वह सोचता है वही सही तरीका है और चाहता है उस की पत्नी भी वैसे ही घर चलाए. यही बात पत्नी पर भी लागू होती है. उस ने अपने मायके में जैसे देखा है उस के भीतर भी घर चलाने के वैसे ही गुण आते हैं.

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रजनी ने अपनी मां को कभी बचा खाना फेंकते नहीं देखा. ऐसा करना उन की मां की नजरों में खाने का अपमान भी है और फुजूलखर्ची भी. वहीं रजनी में एक अजीब संस्कार भी है. दिल ढलते ही वह पूरे घर की लाइट औन कर देती है. शाम को घर में अंधेरा रखना उस की नजरों में अपशकुन है. ये दोनों आदतें मायके से सीख रजनी जब ससुराल आई तो वहां इस से उलटी ही रीत थी. वे लोग एक समय का बचा खाना अगले दिन तो क्या, उसी दिन दूसरे समय भी नहीं खाते. उन की नजरों में यह अपव्यय नहीं है. वही दूसरी ओर दिन हो या रात, बिना जरूरत के लाइट, पंखा खुला छोड़ देने पर उस की सास बहुत गुस्सा करतीं.

घरखर्च पर चल रहे विवाद में मांओं के हस्तक्षेप से बात बिगड़ने की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं, क्योंकि अकसर देखा गया है कि ऐसे विवादों में सास अपने बेटे का और मां अपनी बेटी का पक्ष ही सुनती है. अपनीअपनी औलाद का व्यर्थ खर्च भी उन्हें जरूरत और दूसरे का जरूरी खर्च भी ‘फुजूल’ लगता है और वे इसी आधार पर अपनी राय देती हैं.

मां और सास का दखल कितना सही

यदि बहूबेटे इंडिपैंडेंट हैं, अलग घर में रह रहे हैं और अपने बड़ों पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं तो बेहतर है कोई भी मां किसी भी तरह का दखल न दे. यदि सास दखल देगी तो पत्नी को ऐतराज होगा और अगर पत्नी की मां दखल देगी तो पति को ऐतराज होगा. बेहतर यही है कि वे स्वयं को मध्यस्थ की भूमिका से दूर रखें. यदि सास या मां ने बच्चों के साथ ऐसी हैल्दी रिलेशनशिप बनाई है कि वे मां का कहा अन्यथा न लें तो मां कुछ बातों पर अपनी सलाह दे सकती है और उन्हें घरखर्च चलाने के गुर सिखा सकती है.

हैल्दी कम्यूनिकेशन को प्रेरित करें

मधु अपने पति राजीव की इस आदत से बहुत परेशान थी कि वह हर छोटेबड़े घरखर्च की पूरी जानकारी लिखित तौर पर रखना चाहता था. हालांकि राजीव ऐसा इसलिए करना चाहता था ताकि उस के आधार पर वह आगे की बजट प्लानिंग कर सके. मगर मधु को इस पर ऐतराज था. उसे लगता था राजीव उस पर भरोसा नहीं करता. इसीलिए घरखर्च को ले कर इतनी पूछताछ करता है और उसे खर्च लिखने को कहता है.

मधु को बुरा इसलिए भी लगता था, क्योंकि उस ने अपने पापा को कभी ऐसा करते नहीं
देखा था. इसलिए मधु और राजीव में इस बात  को ले कर अकसर झड़प हो जाती थी. एक
दिन तो गुस्से में मधु ने घरखर्च के लिए दिए गए पैसे राजीव के सामने पटक दिए और बोली, ‘‘लो, अब खुद ही घर चलाओ और खुद ही हिसाब रखो.’’

जब मधु ने अपनी मां से इस घटना का जिक्र शिकायती लहजे में किया तो उस की मां ने उसे समझाया, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है बेटी कि राजीव घर के मनी मैनेजनैंट में इतनी रुचि ले रहा है. यह दिखाता है कि उस की नजरों में घर की कितनी अहमियत है. तुम्हारे पापा ने तो घर की और बचत की कभी परवाह ही नहीं की. सारा बोझ हमेशा मेरे ऊपर ही रहा. राजीव से लड़ने के बजाय बेहतर है उस से बात करो, उस की भावनाओं को समझो और उसे अपनी भावनाओं से भी अवगत कराओ. मिलबैठ कर तय करो कि कहां खर्च करना है, कहां नहीं, कितनी सेविंग करनी है और कहां करनी है.’’

मां के कहे अनुसार जब मधु ने राजीव से बैठ कर बात की तो सारा विवाद सुलझ गया.
यदि विवाद सुलझाने की नीयत हो तो ऐसा कोई विवाद नहीं है जिसे बातचीत से सुलझाया न जा सके. अत: दोनों मांओं का दायित्व बनता है कि वे हस्तक्षेप के बजाय पतिपत्नी को आपसी बातचीत के लिए प्रेरित करें.
तेरामेरा नहीं हमारा लौजिक तो कहता है कि जिन घरों में पत्नियां वर्किंग हैं, वहां घरखर्च पर विवाद नहीं होने चाहिए, क्योंकि वहां डबल इनकम आती है, मगर होता इस के ठीक उलटा है. ऐसे पतिपत्नियों के बीच खर्च को ले कर ज्यादा विवाद होते हैं. कारण, वही दृष्टिकोण का है. अपना खर्च जरूरत और दूसरे का खर्च फुजूल दिखता है. अपने खर्च को हर कोई तर्कसंगत ठहरा देता है. यदि आप किसी ऐसे इंसान से बात करें जो मोबाइल भी कपड़ों की तरह बदलता है, तो वह भी इस के पक्ष में इतने सटीक तर्क दे देगा कि आप को ही चुप होना पड़ेगा.

घरेलू पत्नी घरखर्च पर चल रहे विवाद में फिर भी थोड़ा झुक जाती है, क्योंकि वह कमाती नहीं, मगर वर्किंग वूमन नहीं झुकती. इसलिए ऐसे विवाद अकसर ‘तू तेरा देख, मैं मेरा देखूंगा/देखूंगी’ के भाव के साथ खत्म होते हैं. ऐसा न हो इस के लिए दोनों मांओं को बेटाबेटी की शादी से पहले ही उन्हें यह समझाने की जिम्मेदारी बनती है कि शादी के बाद वे एक छत शेयर करने नहीं, बल्कि एक जिंदगी शेयर करने जा रहे हैं. उस में तेरामेरा नहीं चलता, बल्कि हमारा हो कर जीना होता है, उन्हें एकदूसरे की इच्छाओं का सम्मान करना होता है. एकदूसरे की सहमति से ही खर्च करना सीखना होगा वरना घर कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाएगा.

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यह मेरा मत है

मां या सास जब भी बेटेबहू को घरखर्च को ले कर कोई सलाह दें तो इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि उन की सलाह सलाह ही लगे. थोपी हुई बात को आजकल की जैनरेशन नहीं मानती, उलटा उस का जोरदार प्रतिकार करती है.

रजनी और उस के पति जब अपने अलग घर में रहने लगे तो वह अपने हिसाब से घर चलाने लगी. यानी बचा खाना फ्रिज में रख लेती और अगले भोजन के समय गरम कर के परोस देती. एक बार जब सास उस के पास रहने आईं तो उस की इस आदत पर बारबार टोकाटाकी करने लगीं कि मेरे घर में कभी ऐसा नहीं होता. बारबार सुनने के बाद एक दिन रजनी ने भी जवाब दे दिया कि आप के घर में नहीं होता होगा, मगर यह मेरा घर है और यहां ऐसा होता है. रजनी का जवाब सुन कर सास का मुंह उतर गया.

कहने का मतलब यह है कि यदि आप को बहू या बेटे का घर चलाने का तरीका अखर रहा है तो आप अपनी बात कहें, मगर उसे अपनी राय बता कर कहें जैसे कि मैं ऐसा सोचती हूं, मेरा ऐसा मत है, आगे तुम्हारी मरजी. और यह राय भी बारबार न दें. जिन की शादी हो चुकी है, जाहिर है वे इतने छोटे तो नहीं होंगे कि आप को उन्हें बारबार कुछ सिखाना पड़े. उन्हें अपने अनुभव  से सीखने दें. इसी में उन की और आप की  भलाई है.

अपने खर्च खुद मैनेज करने दें

कुछ पेरैंट्स संतानों के प्रति अति मोहग्रस्त होते हैं और उन की शादी के बाद भी उन्हें
छोटा बच्चा ही समझते हैं. वे चाहते हैं कि  बच्चों के घरखर्च का हिसाब किताब उन्हीं के  हाथों में रहे. बैंक डिटेल्स, सेविंग डिटेल्स सब उन को पता हो. यह भी पतिपत्नी के बीच  विवाद का जोरदार मुद्दा बनता है.

पेरैंट्स को ऐसा नहीं करना चाहिए. अगर बच्चे बोलें भी तो भी बेहतर है कि स्वयं पर निर्भर रखने के बजाय
उन्हें मनी मैनेजमैंट सिखा कर आत्मनिर्भर  बनाएं, क्योंकि आप हमेशा उन के साथ नहीं रहने वाली हैं.
कुछ मांओं की ऐसी भी आदत होती है कि जरा सा बेटी या बेटे ने बढ़ते घरखर्च का रोना रोया नहीं, वे उसे झट से अतिरिक्त पैसे दे कर मदद कर देती हैं. इसे वे प्यार या केयर का नाम देती हैं, किंतु वे यह नहीं जानती कि यह प्यार नहीं, बल्कि बच्चों को बिगाड़ने का काम है. इस तरह तो वे कभी सही तरीके से घर चलाना,  बचत करना, इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सीखेंगे ही नहीं.

यदि आप अपने बेटे या बेटी की वास्तव  में भलाई चाहती हैं तो प्यार के नाम पर ऐसा हस्तक्षेप बिलकुल न करें. हर किसी को अपनी चादर देख कर पैर पसारना आना चाहिए. यदि आप उन्हें कमी का अनुभव ही नहीं होने देंगी तो वे कैसे हाथ संभाल कर खर्च करना सीखेंगे.

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अपने बच्चों को उन की किशोरावस्था से ही मनी मैनेजमैंट यानी पैसों का हिसाबकिताब रखना, बचत का खयाल रखना, जरूरत और इच्छा में फर्क समझ कर गैरजरूरी खर्चों पर नियंत्रण रखना सिखाएं ताकि भविष्य में वे अपना घर अच्छी तरह चला सकें.

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