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फेस्टिवल स्पेशल: ऐसे बनाए अंजीर ड्राईफ्रूट बर्फी

सर्दियों में गर्म और मीठी चीज खाने का अलग ही मजा है. तो इस सर्दी के मौसम में  ट्राई करें अंजीर ड्राईफ्रूट बर्फी. अंजीर ड्राईफ्रूट बर्फी बनाने की रेसिपी.

सामग्री

100 ग्राम सूखे अंजीर

50 ग्राम चीनी

1/4 छोटा चम्मच इलायची पाउडर

2 बड़े चम्मच छोटे टुकड़ों में कटे काजू व बादाम

1 बड़ा चम्मच देशी घी

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बनाने की विधि

अंजीर को 3 घंटे के लिए पानी में भिगो दें. बीच में पलट दें ताकि दोनों तरफ से फूल जाएं. इन्हें मिक्सी में पीस लें.

एक नौनस्टिक कड़ाही में गरम कर के अंजीर का मिश्रण और चीनी अच्छी तरह चलाती रहें ताकि मिश्रण एकदम सूखा सा हो जाए.

इसमें काजू व बादाम हलका सा रोस्ट कर के मिला दें. साथ ही इलायची पाउडर भी. एक घी लगी थाली में जमा दें. और फिर मनपसंद आकार के टुकड़े काट लें.

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व्यंजन सहयोग: नीरा कुमार

घर से भागे बच्चों की मंजिल कहां

छत्तीसगढ़ की सुनीता ने शायद ही कभी सोचा हो कि उस के जीवन में ऐसा कोई मोड़ आएगा जब वह अपने ही हाथों से अपने उसी प्रेमी का कत्ल करेगी जिस के साथ वह घर से भाग रही है. 13 साल की सुनीता ने प्रेमी राकेश के साथ घर छोड़ भागने का फैसला तो कर लिया था मगर उसे यह नहीं मालूम था कि यह कोई परियों की कहानी नहीं है जहां उस का राजकुमार उसे ढेरों खुशियां देगा और उस का जीवन सालों खुशी से बीतेगा.

15 वर्षों पहले घर से भागी सुनीता दिल्ली में 55 वर्षीय राकेश के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रह रही थी. सुनीता और राकेश का एक 8 वर्षीय बेटा है. दोनों ने शादी नहीं की, परंतु जीवन एक विवाहित जोड़े की ही तरह बसर कर रहे थे. दोनों को स्वरूपनगर में रहते हुए 6 वर्ष हो गए थे. पड़ोसियों के अनुसार, दोनों का रिश्ता कुछ अच्छा नहीं था. राकेश अकसर ही सुनीता से मारपीट करता, गालियां देता, उसे घर से बाहर निकलने से रोकता, यहां तक कि उसे सलवार सूट पहनने तक की इजाजत नहीं थी.

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फरवरी से ही पड़ोसियों ने सुनीता के व्यवहार में बदलाव देखा. वह अब खुश रहने लगी थी, सलवार सूट पहनती, शादीपार्टियों में जाती दिखाई देती. राकेश किसी को दिखाई नहीं देता था और सुनीता से पूछने पर वह यही कहती कि वह कहीं गया हुआ है.

20 मार्च के दिन जब घर के मालिक किराया लेने आए तो घर के पीछे बरामदे में ईंटे और सीमेंट की पक्की जमीन नजर आई. पूछने पर सुनीता झूठ बोलने लगी. मामले का पता लगाने के लिए पुलिस आई और खुदाई में सिरकटी लाश निकली.

दरअसल, 11 फरवरी को राकेश जब घर आया तो सुनीता ने उसे लगभग 2 दर्जन नींद की गोलियां दे दीं. उस ने अपने बेटे को घर से बाहर खेलने के लिए भेज दिया. पहले उस ने राकेश का गला काटा और फिर उस के हाथों व पैरों के टुकड़े कर थैलियों में भर दिए. उस ने राकेश के सिरकटे धड़ को घर के पीछे सुबह होने से पहले दफना दिया.

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सुनीता उन में से थी जो घर से भाग जाते हैं. भारत में हर वर्ष हजारों बच्चे घर छोड़ कर भागते हैं. कुछ परीक्षा में आए कम नंबरों के कारण मातापिता की डांट से बचने के लिए, कुछ घर में होने वाले मानसिक व शारीरिक शोषण की वजह से, कुछ प्रेमी संग अच्छे जीवन की तलाश में तो कुछ अपने सपने पूरे करने के लिए घर छोड़ कर चले जाते हैं. बच्चों की मंजिल, उन का मकसद उन के लिए बहुत साफ होता है. परंतु क्या उन्हें उन की मंजिल मिल पाती है?

घर से भागे बच्चे अपने भविष्य को साकार करने निकलते हैं परंतु उन में से ज्यादातर अपने भविष्य से खिलवाड़ कर बैठते हैं. ऐसे बच्चों में ज्यादातर 11 से 17 साल के किशोर होते हैं, जो न तो इतने सक्षम होते हैं कि जीवन का बोझ उठा सकें और न इतने समझदार कि अपने लिए सही राह चुन सकें. ऐसे बच्चों में से ज्यादातर या तो किसी तरह के अपराध का शिकार हो जाते हैं या फिर खुद अपराधी बन बैठते हैं.

माता पिता का कठोर व्यवहार

भारत में भागे हुए बच्चों में 70 फीसदी वे होते हैं जो मातापिता से कम नंबर लाने पर डांट के डर से घर छोड़ देते हैं. मातापिता द्वारा बच्चों से कई कारणों से कठोर व्यवहार किया जाता है. कभी बच्चे के भविष्य को साकार करने के लिए, तो कभी बच्चों के बिगड़ने के डर से. कारण जो भी हो, बच्चों के मन में घर को जेल समझने जैसे खयाल आने लगते हैं. ऐसे में जेलरूपी घर से निकलना ही उन की मंजिल होती है.

12 साल के इबरार को सड़कों की धूल अपनी मां की मार खाने से ज्यादा बेहतर लगी. वह अपनी मां की मार से इतना परेशान हो चुका था कि उस ने छोटी सी उम्र में इतना बड़ा फैसला लिया. उस की मां अकसर ही उसे पीटा करती थी, कभी पढ़ाई न करने पर तो कभी उधम मचाने पर. पापा सब देखते रहते, पर कुछ करते नहीं. बड़े बहनभाई तो उस से ऐसा व्यवहार करते कि जैसे वह पराया हो.

एक दिन तंग आ कर इबरार घर से भाग गया. तकरीबन 60 लोग उसे ढूंढ़ने में लगे रहे और तब जा कर इबरार को वापस घर लाया गया. बिना पैसों और किसी बड़े के सहारे इबरार का भविष्य कैसा होता, इस की कल्पना करना मुश्किल नहीं है.

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झगड़ा और गुस्सा

अकसर किशोर मातापिता से झगड़े के बाद इतने गुस्से में आ जाते हैं कि वे घर से बेहद दूर चले जाने के लिए उत्तेजित हो उठते हैं. और जरूरी नहीं कि झगड़ा मातापिता से ही हो, झगड़ा भाईबहन

से होने पर जब मातापिता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तब भी वे आगबबूला हो कर ऐसे कदम उठा लेते हैं.

घटना महाराष्ट्र के पनवेल की है जहां 60 वर्षीय गणेश कृष्णा शेट्टी ने एक अकेली 16 वर्षीय लड़की को देख उसे अपने जाल में फंसा लिया. लड़की घर देरी से पहुंची तो बड़ी बहन ने उसे एक थप्पड़ जड़ दिया. क्रोध और आक्रोश में वह घर से भाग पनवेल रेलवे स्टेशन पर जा कर बैठ गई. उसे वहां अकेला देख शेट्टी उस के पास जा कर बैठ गया और सांत्वना देने लगा.

शेट्टी ने लड़की से कहा कि वह उसे एक क्लिनिक में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी दिला देगा और रहने का बंदोबस्त भी करा देगा. लड़की उस की बात मान कर उस के साथ चली गई. वह उसे एक लौंज में ले गया और वहां उस का बलात्कार किया. बलात्कार के बाद वह उसे वापस पनवेल ले गया और उसे एक बैंच पर बैठा कर वहां से तब तक उठ कर न जाने को कहा जब तक वह वापस नहीं आ जाता. लड़की को अकेला देख एक पुलिस कर्मचारी ने उस से पूछताछ की और तब पूरा मामला सामने आया.

प्रेम के चलते

किशोरों का प्रेम के चलते घर छोड़ कर भागना नई बात नहीं है. किशोरों के प्रेम के चलते घर से भागने का सब से बड़ा कारण तो यही है कि उन्हें उन के प्रेम संबंधों के लिए न तो घर से मंजूरी मिलती है और न ही यह संबंध किसी दृष्टि से ठीक ही होते हैं. आखिर मातापिता ऐसे संबंधों के लिए हामी भी क्यों भरेंगे जिन में उन के बच्चे छोटी उम्र में बंधना चाहते हों.

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22 वर्षीय दीपक कुमार और 17 वर्षीया सुनीता घर से भागने के एक महीने बाद ही आत्महत्या करने को मजबूर हो गए. मुजफ्फरनगर के रहने वाले इन दोनों प्रेमियों के संबंधों पर मातापिता ने हामी नहीं भरी, इसलिए ये भाग कर मेरठ आ गए. एक महीने यहां से वहां भटकने और बचेकुचे पैसे खत्म हो जाने पर दोनों जमीनी हकीकत से वाकिफ हुए. दोनों ने कोई रास्ता न देखते हुए जहर खा कर आत्महत्या कर ली.

अपने मनपसंद सितारों से मिलने, हीरोहीरोइन बनने और अपने सपनों को पूरा करने के लिए बच्चे अकसर घर से भागने का फैसला ले लेते हैं. दिल्ली के सुलतानपुरी में रहने वाले अमन, सत्यम और मुरारी भी घर से इसी चाह में भाग निकले कि मुंबई पहुंच कर बड़े हीरो बनेंगे. तीनों बच्चों की उम्र 14 वर्ष से कम थी. तीनों के सपनों पर तब पानी फिर गया जब मुंबई की जगह वे जिंद पहुंच गए. वहां पुलिस ने तीनों बच्चों को हिरासत में लिया और पूछने पर तीनों ने बताया कि उन का पढ़ाई में मन नहीं लगता और यही वजह है कि वे मुंबई जा कर ऐक्टर बनना चाहते थे. पुलिस ने बच्चों के घर का पता लगा उन के मातापिता को उन्हें सौंप दिया.

जरूरी है समझना

इन सभी कारणों को देख कर साफ है कि किस तरह किशोर अपने जीवन को हाथों पर रख कर घर से भागने का फैसला कर लेते हैं और खुद को ऐसे दलदल में फंसा लेते हैं जहां से निकलना लगभग नामुमकिन हो जाता है. मातापिता सख्त हैं तो उन्हें समझना चाहिए कि जिस बच्चे के लिए वे यह सब कर रहे हैं, यदि वह ही उन के पास नहीं रहेगा तो उन की चिंता और कठोर व्यवहार किस काम का.

बच्चों को अपने मातापिता को समझाना जरूरी है और उस से भी ज्यादा जरूरी है मातापिता का इस बात को समझना. जहां बात सपने पूरे करने की आती है तो बच्चों को यह बात पता होनी चाहिए कि सपने पूरे करने के चक्कर में घर से भागना उन्हें ज्यादा महंगा पड़ सकता है. घर से भागे हुए बच्चे जिस्मफरोशों और शोषण करने वालों के लिए चलताफिरता शिकार होते हैं. वे बच्चों को बेचने, कोठे पर बैठाने या उन के हाथपैर काटने से पहले एक बार भी नहीं सोचेंगे.

हकीकत और ही है

प्रेम संबंधों के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि यदि लड़का व लड़की बालिग नहीं हैं तो घर से भागना पूरी तरह गलत है. वे कहीं भी जाएं, उन्हें परेशानियों का सामना तो करना ही पड़ेगा और इस में पुलिस भी उन्हें ही गुनाहगार ठहराएगी. यदि लड़का बालिग हो और लड़की नाबालिग तो सीधेतौर पर लड़के को अपहरण या बलात्कार के जुर्म में जेल भेजा जा सकता है.

यदि दोनों बालिग हैं और परिवार प्रेम की मंजूरी नहीं देता तो घर से भागना उपाय हो सकता है परंतु तब, जब वे पुलिस की सहायता लें. बौलीवुड की फिल्में देख कर यह समझ लेना कि घर से भागने पर दोनों मेहनतमजदूरी कर लेंगे और सुनहरा जीवन व्यतीत कर लेंगे, पूरी तरह गलत है.

बच्चों को यह समझने की जरूरत है कि फिल्म और जीवन में बहुत फर्क होता है. असल जीवन के विलेन बड़ीबड़ी मूंछों और भयावह रूप में नहीं आते, वे साधारण व्यक्ति होते हैं जो आप से मीठे बोल कहेंगे और आप की बोलती हमेशा के लिए बंद कर देंगे.

खूबसूरत लमहे – भाग 2 : दो प्रेमियों के प्यार की कहानी

संगीता शरारती लहजे में बोली, ‘‘तुम्हें इतना बुरा क्यों लगा. वह तुम्हारा सगा है क्या? तुम को मालूम है, मैं जब भी अकेले लस्सी पीने आती हूं तो वह मुझे घूरघूर कर देखता है, लस्सी देर से देता है या फिर स्पर्श के लिए लस्सी हाथ में पकड़वाने की कोशिश करता है. आज उसे सबक मिला. अब लस्सी पीओ और दिमाग बिलकुल कूल करो.’’

शेखर ने लस्सी पीते हुए कहा, ‘‘तुम हो ही इतनी खूबसूरत कि लोग तुम्हें निहारे बिना रह नहीं सकते.’’

‘‘फिर चौराहे पर खड़ा कर के नोच डालो न मुझे, यह समाज तो मर्दों का है न, खूबसूरत होना क्या गुनाह है,’’ संगीता गुस्से में बोली. शेखर तब उसे बहलाने के खयाल से बोला, ‘‘अरे, लस्सी पी कर लोग कूल होते हैं, पर तुम तो गरम हो रही हो.’’

फिर शांत मन से संगीता लस्सी पीते हुए बोली, ‘‘अगर मेरा वश चले तो तुम्हें सिर्फ एक दिन के लिए लड़की बना दूं. तब तुम सब की नजरों को अपने पर देखो, उन के चेहरे के भाव समझो, उन की नीयत पहचानो, क्योंकि अभी तो तुम्हें सिर्फ कजरारे नयन और मधुर मुसकान नजर आती है.’’

शेखर एक कड़वी सचाई को सुन कर एकदम चुप हो गया.

कई दिन से संगीता कालेज में नजर नहीं आई. शेखर काफी परेशान हो गया. न कालेज में, न घर में, न अकेले में, कहीं भी उस का दिल न लगता. किसी तरह उस की एक सहेली से पता चला कि वह बीमार है और नर्सिंगहोम में भरती है. वह दौड़ पड़ा नर्सिंगहोम की ओर, काफी रात हो चुकी थी. संगीता बैड पर लेटी थी. नर्स से पता चला कि वह अभी दवा खा कर सोई है. कई रात से वह सो न सकी, नर्स शेखर की बदहवासी देख पूछ बैठी, ‘‘जगा दूं क्या?’’

पर शेखर का अंतर्मन बोला, ‘सोने दो मेरी जान को, कितनी हसीन लग रही है,’ नींद में भी चेहरे पर मुसकान थी. उस ने नर्स को एक गुलदस्ता और एक छोटी डायरी दे कर कहा, ‘‘जब संगीता नींद से जागे तो उसे दे देना.’’

‘‘आप का नाम?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘कहना तुम्हारा मीत आया था,’’ कल फिर आऊंगा.

वह दूसरे दिन भी गया. पता चला कि संगीता को एक्सरे रूम में ले जाया गया है. वहां उस के मम्मीपापा और काफी रिश्तेदार आ गए. अब शेखर को रुकना उचित नहीं लगा. उस ने दोबारा फल, रजनीगंधा के फूल और मैगजीन सब नर्स को सौंपते हुए कहा, ‘‘मेरा कालेज का वक्त हो गया है, ये सब उसे दे दीजिएगा और…’’

‘‘और कह दूंगी तुम्हारे मीत ने दिया है,’’ नर्स ने मुसकराते हुए वाक्य पूरा किया और शेखर भी मुसकराते हुए लौट गया.

2 दिन बाद शेखर दोबारा हौस्पिटल आया. संगीता अपने बैड पर बैठी थी. शेखर को देखते ही उस के चेहरे पर मुसकान खिल उठी. शेखर बैड के करीब आ कर बोला, ‘‘सौरी, मैं 2-3 बार आया पर…’’

संगीता बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘मुझे सब मालूम है, यह डायरी, यह फल, रजनीगंधा के फूल सब मेरे मीत के ही हैं. वैसे भी मैं तुम से सदा अकेले में ही मिलना चाहती हूं, भीड़ में गर तुम न ही मिलो तो अच्छा है.’’

वैसे भी मम्मीडैडी तुम्हें लाइक नहीं करते, वे धर्म के पक्के अनुयायी हैं.

शेखर उस की खैरियत जानना चाहता था. संगीता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अरे, मुझे कुछ नहीं हुआ, मैं बिलकुल ठीक हूं, थोड़ा फीवर हुआ था. तुम्हें बहुत परेशान करती रहती हूं न, इसीलिए भुगतना पड़ा.’’

‘‘पर तुम्हारी बीमारी की खबर सुन कर तो मेरी नींद ही उड़ गई,’’ शेखर चिंता भरे लहजे में बोला.

संगीता तब इठलाती हुई बोली, ‘‘नींद के मामले में मैं बहुत लक्की हूं, जहां भी रहूं, सोने से पहले जिस आखिरी इंसान से मेरी मुलाकात होती है वह हो तुम, बस, आंखें बंद कर लेती हूं और सो जाती हूं,’’ इतना कह कर उस ने अपनी मस्त नजरों से मुझे निहारा.

शेखर ने भी तब भावुकता में बहते हुए कहा, ‘‘मैं सुबह उठ कर सब से पहले बंद आंखों से जिस का चेहरा देखता हूं, वह हो सिर्फ तुम.’’

बातों ही बातों में संगीता ने बताया, ‘‘आज सुबह ही मम्मीपापा आए थे, डाक्टर ने डिस्चार्ज करने को कहा. दरअसल, वे लोग किसी रिश्तेदार के यहां फंक्शन में गए हैं सुबह मुझे लेने आएंगे.’’

‘‘मतलब एक रात और तुम्हें मरीज बन कर यहां रहना पड़ेगा,’’ शेखर ने कहा.

‘‘नहीं, अब तुम आ गए हो न. अब डाक्टर से इजाजत ले लेती हूं, पेपर वगैरा सब तैयार हैं.’’

‘‘पर डाक्टर पूछेगा कि कौन लेने आया है तो क्या बोलोगी?’’ शेखर ने जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘हां, बोलूंगी कि मेरी सगी बहन के सगे भाई के जीजाजी आए हैं?’’

‘‘मतलब?’’ शेखर ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा.

‘‘मतलब तुम समझो, मैं चली डाक्टर से मिलने.’’

संगीता फौरन डाक्टर से इजाजत ले कर आ गई और अपना सब सामान समेटने लगी. फिर शेखर ने बैग उठाया और दोनों हौस्पिटल से बाहर निकल पड़े.

रिकशा बुलाने से पहले ही संगीता ने पूछा, ‘‘कहां चल रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूंगा और मैं उसी रिकशे से वापस आ जाऊंगा,’’ शेखर ने सहज भाव से कहा.

‘‘नहीं, कहीं घूमने चलो न,’’ संगीता का आग्रह भरा स्वर था.

‘‘अभी तुम्हारी तबीयत नाजुक है. चुपचाप घर चलो,’’ शेखर ने समझाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, चलो लस्सी पिला दो,’’ संगीता बच्चे की तरह जिद करती हुई बोली.

शेखर तब भड़क गया, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न, अभी फीवर से उठी हो और ठंडा?’’

संगीता तपाक से बोली, ‘‘जब तक तुम नहीं मिलते दिमाग ठीक रहता है.’’

‘‘अगर मैं कभी न मिलूं तब तो तुम बिलकुल ठीक रहोगी?’’ शेखर ने जानबूझ कर ऐसा सवाल किया.

तब संगीता घबराते हुए बोली, ‘‘अरे, ऐसा सोचना भी मत वरना तुम आगरा में मुमताज का ताजमहल निहारते रहोगे और मैं आगरा के पागलखाने में रहूंगी. वैसे भी आजीवन साथ रहना मुश्किल है, मेरे डैडी बहुत ही सख्त हैं, कुछ लमहे तो जी लूं.’’

शेखर उस की बकबक से तंग आ कर बोला, ‘‘प्लीज, अब रिकशे में बैठो. रास्ते में थोड़ी देर जूली पार्क में बैठेंगे फिर तुम्हें घर छोड़ दूंगा.’’ थोड़ी देर बाद दोनों जूली पार्क में थे. शाम गहरा गई थी. सूरज की लालिमा अंतिम चरण में थी, अत: अंधकार गहराता जा रहा था. शेखर पेड़ से टिक कर बैठा और संगीता उस की गोद में सिर रख लेट गई. शेखर की उंगलियां संगीता की कालीघनी जुल्फों से अठखेलियां करने लगीं. शेखर बिना बोले अपनी नई रचना सुनाता रहा और संगीता उस की गोद में सुकून से सोती रही. वह वाकई में सो जाती लेकिन शेखर ने उसे जगाते हुए चलने को कहा. दोनों दोबारा रिकशे में बैठ गए. आज संगीता काफी खुश थी. उस का सारा रोग ही काफूर हो गया था. शेखर भी संगीता से मिलने के बाद खुद को काफी तरोताजा महसूस करने लगा था. शेखर ने संगीता को उस के घर के सामने ड्रौप करने के लिए रिकशा रुकवाया. उसे सामने संगीता के मम्मीपापा दिखे. उन की आंखों में उसे भरपूर आक्रोश और नफरत दिखी. कुछ कहने से पहले ही संगीता के पापा आगे बढ़ने लगे, पर उस की मां ने उन्हें रोक लिया. संगीता भी माहौल को देखते हुए बिलकुल खामोश रही और रिकशे से उतर कर चुपचाप घर के अंदर चली गई.

शेखर का रिकशा आगे बढ़ गया. रास्ते में मजाक में कही संगीता की बात शेखर को बारबार कचोटती रही कि कहीं दोनों का प्यार धर्म की भेंट न चढ़ जाए? दूसरे दिन शेखर डरतेडरते संगीता के घर के सामने गया. संगीता के पड़ोसियों से पता चला कि सभी लोग पंजाब चले गए हैं. शेखर बस ठगा सा रह गया. शेखर उन्हीं खूबसूरत लमहों के सहारे जी रहा था, पर आज अचानक संगीता से मुलाकात, उस के पति का सामीप्य, उस की उपेक्षा. थोड़ी देर के लिए वह उदास हो गया, लेकिन गुजरे हुए खूबसूरत लमहों के संग जीने की उस की चाह कम न हुई. उस के पास अब रह गई थीं बस, संगीता की यादें और कुछ खूबसूरत लमहे.

“छोटी सरदारनी”: आखिर क्यों परम के बिना सरबजीत और मेहर जा रहे हैं सर्बिया

कलर्स चैनल पर प्रसारित होने वाला लोकप्रिया शो “छोटी सरदारनी” में काफी इंटरेस्टिंग ट्विस्ट एंड टर्न चल रहा है. जी हां हाल ही में आपने देखा कि गेम में परम जीत जाए, इसके  लिए नीरजा भी कोई कसर नहीं छोड़ती है और वह भी गेम का हिस्सा बन जाती है. परम और सारे फैमिली मेम्बर्स को गेम खेलने का डायरेक्शन देती है, जिससे परम जीत जाता है और वो इस कम्पटिशन का विनर होता है.

वैसे नीरजा और कर्नल लंदन वापस लौट जाते हैं. अब इस शो की कहानी एक नया मोड़ ले रही है. जी हां सरबजीत और मेहर सर्बिया जा रहे हैं. तो उधर युवी ये कह कर रोता है कि मेहर बुआ विदेश जा रही है. तो युवी की मां उसे समझाते हुए कहती है कि मेहर जल्द ही वापस आ जाएगी. फिर वो पूछता है कि क्या मेहर बुआ मेरी तरह थी? तभी कुलवंत मेहर के बारे में युवी से बताती है कि मेहर बचपन में बहुत शरारती थी. युवी की मां उसे बताती है लेकिन मेहर प्लेन से बहुत डरती है.

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तो उधर परम कहता है, आज मैं स्कुल नहीं जाउंगा. सरबजीत कहता है, आपने मम्मा से कहा ? तो परम कहता है, म्म्मा ने मुझे स्कुल जाने के लिए ‘नहीं’ कहा है. सरबजीत मेहर से पूछता है, ये सब क्या हो रहा है ? मेहर उससे कहती है, आपने अचानक सर्बिया जाने का प्लान कैसे बना लिया ?

वो कहती है क्या हम परम को अपने साथ ले जा सकते हैं, उसकी आउटिंग भी हो जाएगी.  सरबजीत कहता है, नहीं क्योंकि हम वहां पिकनिक मनाने नहीं जा रहे हैं. इस शो के अपकमिंग एपिसोड में ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सरबजीत और मेहर परम के बिना सर्बिया जा पाएंगे.

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इसमें ड्रामा और रोमांस को हिंदुस्तानी कल्चर को ध्यान में रखकर पिरोया है: नील नितिन मुकेश

‘‘जौनी गद्दार’’से लेकर ‘‘साहो’’ तक नील नितिन मुकेश ने कई फिल्मों में पौजीटिव के अलावा निगेटिव किरदार भी निभाए हैं. अब वह आठ नवंबर को प्रदर्शित हो रही फिल्म ‘‘बाय पास रोड’’ में नील नितिन मुकेश ने अपने किरदार के साथ एक नया प्रयोग किए है. इस फिल्म में व्हील चेयर पर बैठे अपाहिज इंसान की मुख्य भूमिका निभाने के साथ ही वह इसके लेखक व निर्माता भी हैं. जबकि फिल्म के निर्देशक उनके छोटे भाई नमन नितिन मुकेश हैं.

आप अपने 12 साल के करियर को किस तरह से आंकते हैं?

बारह साल पहले जब मैंने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था, उस वक्त एक बहस छिड़ी थी कि क्या मशहूर गायक (नितिन मुकेश) का बेटा और गायक (मुकेश) का पोता सफल अभिनेता बन सकता है. मुझे लगता है कि इस तरह की बहस करने वालों को जवाब मिल चुका है. मैंने इन 12 साल में काम करते हुए बहुत कुछ सीखा और उस सीख के चलते अब मुझमें परिपक्वता आ गयी है. पहले मुझमें एक किस्म का घमंड और बचपना था कि मैं तो अभिनेता हूं. सच कह रहा हूं, अब मेरे अंदर का यह घमंड खत्म हो चुका है. जिंदगी के संघर्ष समझ में आ रहे हैं. मैंने हमेशा अलग तरह की फिल्में की. ‘जौनी गद्दार’,वजीर’,‘लफंगे परिंदे’,‘सात खून माफ’,‘डेविड’,‘प्रेम रतन धन पाओ’. मैं जिस किस्म की फिल्में करना चाहता हूं, वह तो मुझे औफर होती नहीं है. क्योंकि यहां एक फिल्म सफल हो जाती है, तो उसी तरह की सौ स्क्रिप्ट मेरे औफिस पहुंच जाती हैं. मैं यह भी मानता हूं कि यहां कौन सी फिल्म चलेगी और कौन सी नहीं कोई नहीं कह सकता.न मुझे ‘गोलमाल’ अच्छी लगी, इसे लोगों ने भी पसंद किया. ‘गोलमाल’ में मैंने जो किरदार निभाया, उस किरदार के बिना फिल्म की कहानी हो ही नही सकती. इसी तरह ‘वजीर’ की. दक्षिण भारत में फिल्में की. ‘प्रेम रतन धन पायो’ की. मेरी हर फिल्म में कहानी और कमर्शियल दोनों पक्ष को महत्व दिया गया.

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आपको नगेटिव यानी कि विलेन के किरदार निभाने से भी परहेज नही रहा?

-मैंने हमेशा चुनौतीपूर्ण सिनेमा ही चुना. मैं एक सभ्य इंसान हूं. मेरे लिए सिनेमा एक एडवेंचर है,जहां मुझे मुझे कुछ नया रचने का मौका मिलता है. जो काम मैं हर दिन नही कर सकता, उसे मैं सिनेमा में करने का प्रयास करता रहा हूं. विलेन के बिना हर हीरो अधूरा है. इसी सोच के चलते मुझे नगेटिव किरदार या ग्रे शेड्स वाले किरदार आकर्षित करते हैं. मैंने जब जब ग्रे शेड्स वाले किरदार निभाए, मुझे उसका लाभ मिला. मसलन-.‘जौनी गद्दार’(2007 ),‘सात खून माफ’(2011),‘प्रेम रतन धन पाओ’(2015) और ‘साहो’(2019). लेकिन 2009 में जब मुझे एक बेहतरीन प्रेम कहानी वाली फिल्म ‘‘न्यू यार्क’ मिली, तो मैंने वह भी की. मेरी राय में ग्रे शेड्स वाले किरदार में कलाकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का ज्यादा अवसर मिलता है.

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जब आपका कैरियर अच्छा चल रहा है,तो फिर फिल्म निर्माण में कदम रखने की जरुरत क्यों महसूस हुई?

12 वर्ष पहले मेरे अभिनेता बनने पर जो बहस छिड़ी थी, उसी का जवाब है हमारी फिल्म ‘‘बायपास रोड.’’ हम लोगों को याद दिलाना चाहते है कि रचनात्मकता की कोई सीमा नही होती. जो लोग फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े परिवार के सदस्य पर सवाल करते हैं, उन्हें भी यह फिल्म एक जवाब है. हर इंसान को समझना चाहिए कि बिना खुद की प्रतिभा के कोई भी इंसान स्फल कलाकार या निर्देशक य निर्माता नहीं बन सकता. अब तो कंटेंट प्रधान फिल्मों का जमाना है. मैंने 12 वर्ष के कैरियर में 15 राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त निर्देशकों के साथ काम करते हुए सीखा कि यहां पर अपनी प्रतिभा को छिपाकर रखना मूर्खता है. पर हम ऐसे परिवार जुड़े है, जिसे लोगों का मनोरंजन करने के अलावा कुछ नही आता. हमने यह फिल्म अपने छोटे भाई नमन को निर्देशक के रूप में लांच करने के लिए बनायी है.

नमन मुझसे 10 साल छोटा है, मगर निर्देशन के क्षेत्र में बहुत माहिर है. मैं नही मानता कि उम्र की मैच्योरिटी होने पर ही आप निर्देशक बन सकते हैं. बल्कि निर्देशक बनने के लिए आपके पास ज्ञान होना चाहिए. जब मुझे नमन के अंदर विश्वास नजर आया तो मैंने कहा कि उसके लिए मैं फिल्म बनाउंगा.

फिल्म ‘‘बायपास रोड’’ की कहानी भी आपने लिखी है. तो कहानी का बीज कहां से मिला?

जी हां, यह पूरी तरह से फिक्शनल कहानी है. यह ऐसे जौनर की फिल्म है, जिसे लोग हमेशा पसंद करते हैं. मैंने कहानी तलाशी, पर पसंदीदा कहानी नहीं मिली. तो मुझे लगा कि मैं ही लिखता हूं. मैंने ऐसी फिल्म लिखी, जो कि रोमांचक और मर्डर मिस्ट्री भी है. इसमें ड्रामा और रोमांस को हिंदुस्तानी कल्चर को ध्यान में रखकर पिरोया है. फिल्म की कहानी सौलिड है और मोटीव बहुत स्ट्रांग है. आखिर एक आदमी क्यों किसी को मारना चाहेगा? किस हद तक कोई पुरूष या औरत जाल बिछाएगा? यह सब इसमें है.

आपको रहस्यमय चीजों की समझ?

मुझे बचपन से ही रहस्य, रोमांच प्रधान फिल्मों व कहानियों में रूचि रही है. मैं सभी डिटेक्टिव सीरीज देखे हैं. मेरे लिए फिल्म का मतलब है मनोरंजन और कल्पना है. लोग कल्पनाशील कहानी देखने के लिए ही घर से निकलते हैं. जिस दिन दर्शक को लगेगा कि जो कुछ फिल्मे हो रहा है, वह तो मेरे घर में रोज होता है, तो फिर वह फिल्म देखने नहीं आएगा. पर कहानी ऐसी हो, जिससे लोग रिलेट कर सके. मेरी फिल्म के किरदारों से भी लोग जुड़ सकेंगे.

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लेकिन अब फिल्मकार मानते हैं कि दर्शक इतना बदल गया है कि उसे सिर्फ रियालिस्टिक सिनेमा देखना है?

-जी नहीं.. सर…आज के दर्शक को सिनेमा में कंटेंट चाहिए अच्छा कंटेंट चाहिए, फिर चाहे वह कौमेडी हो, चाहे वह  थ्रिलर हो, चाहे वाह रियलिस्टिक सिनेमा हो, चाहे वह बायोपिक हो. अगर आपकी फिल्म में कंटेंट नही है, तो स्टार पावर के कोई मायने नहीं. अब सुपर स्टार की फिल्में महज कमजोर कटेंट के चलते असफल हो रही हैं.

फिल्म‘‘बायपास रोड’’के अपने किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

मेरा विक्रम कपूर का किरदार बहुत ही दिलचस्प और मेरे कैरियर का सर्वाधिक कठिन किरदार है. विक्रम कपूर अपने पिता के साथ मिलकर फैशन कंपनी चलाता है. विक्रम कपूर एक रंगीन किस्म का इंसान है. पैसे व शोहरत है. विक्रम कपूर प्रोग्रेसिव है. वह अपने लिए एक मुकाम हासिल करना चाहता है. उसकी एक प्रेमिका है राधिका(अदा शर्मा), जिससे वह बेहद प्यार करता है. एक दिन विक्रम कपूर का एक्सीडेंट हो जाता है और वह अपाहिज होकर व्हील चेअर पर आ जाता है. इससे अधिक बताना फिलहाल ठीक नही होगा.

इस फिल्म में मुझे खतरनाक एकशन सीन करने पड़े. पूरा एक्शन मेरे हाथों में है. अपाहिज होने के चलते हाथों के बल रेंगते हुए सारा एक्शन करना पड़ा. सीढ़ियों से चढ़ना व उतरना वगैरह बहुत मुष्किल रहा. अपाहिज बने रहने के लिए ट्रेनर की जरुरत पड़ी. हर दिन एक -डेढ़ घंटा सुबह ट्रेनिंग करता. जहां मैं अपने पैरों पर लकड़ियां बांध देता और लकड़ियों को बैंडेज कर देता, ताकि सबकौन्शियसली मैं अपने दिमाग में यह बात दिखा दूं कि यह पूरे दिन हिलेगा नहीं और उसके बाद में मैं जाकर शूटिंग करता था.

सिनेमा में आए बदलाव ने आपके कैरियर पर कैसा असर डाला?

सिनेमा में स्ट्रांग किस्म का बदला बदलाव आया. जैसे ओटीटी प्लेटफौर्म बहुत अच्छे से आ गए हैं. सभी दर्शक विश्व सिनेमा से जुड़ गए. सिनेमा का बदलाव मेरे ऊपर और मेरे कैरियर पर सिर्फ अच्छे के लिए हुआ है. अब कला की कद्र बहुत ज्यादा होने लगी है, तो जहां लोगों को लगता था कि स्टार पावर ही काम करता है, स्टारडम ही मेंटेन करना चाहिए. वह सोच अब बदल गयी है. अब हूनर पर भी ध्यान दिया जा रहा है. अगर यह बदलाव ना हुआ होता,तो शायद मैं अपनी खुद की फिल्म ‘‘बायपास रोड’’ न लिख पाता और ना ही इसका निर्माण कर पाता.

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आप स्टार पौवर की बात कर रहे हैं.इन दिनों सोशल मीडिया पर हर कलाकार व्यस्त नजर आता है. पर आपको नही लगता कि सोषल मीडिया के चलते कलाकारों के स्टारडम को नुकसान पहुंचा है?

मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि यह डिमांड एंड सप्लाई का मसला है.पहले जो कलाकार कभी- कभी दिख जाता था, उसकी एक नोवेल्टी, उसका एक चाम रहता था. अब वही कलाकार आसानी से नजर आने लगा है. अब हर दिन उसे इंस्टाग्राम पर कम से कम एक पोस्ट तो डालना ही है. अगर नहीं डालेगा,  तो मेरे फौलोअर्स नहीं होंगे, अगर फौलोअर्स नहीं होंगे, तो मैं मार्केट में दिखूंगा नहीं. पर मैं इसमें यकीन नही करता.

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यदि आपके फौलोअर्स हैं, तो आपकी फिल्में असफल नहीं होनी चाहिए?

आपने एकदम सही कहा. पहले एक दायरा हुआ करता था. एक फिल्म आलोचक आपकी फिल्म कर आलोचना करता था, वह उनके अपने नियम होते थे. अब मुझे लगता है कि हर कोई फिल्म आलोचक बन गया है. ट्वीटर पर हर कोई क्रिटिसाइज करता है. मगर सवाल यह है कि यह सोशल मीडिया के आलोचक अपनी तुलना अन्य फिल्म आलोचक से कैसे कर सकता है? क्या आपके पास  शिक्षा है. क्या वह समझ है, जो इन दिग्गज फिल्म समीक्षकों के पास है. कितने वर्षों से यह फिल्म आलोचक, फिल्म आलोचक बने हुए हैं. इन्हें सिनेमा की कुछ तो समझ है. तो इन्होंने भी एक किस्म की पढ़ाई की है. फिर चाहे वह आप हो, या तरण आदर्ष हों या कोमल नाहटा हों. यह लंबे समय से फिल्म आलोचक बने हुए हैं. यह लोग कई वर्षों से लगातार फिल्मों को समझ रहे हैं. पर अब आज की युवा पीढ़ी एकदम से अपनी राय देने लगी है. यह युवा पीढ़ी किसी भी फिल्म को 3 स्टार देती है. पहले स्टार रेटिंग इतनी आसानी से नहीं मिलती थी.उनके पास जो समझ है, वह आज की युवा पीढ़ी के पास कैसे संभव है? सवाल यह है कि आज जो यह रेटिंग बात रहे हैं, उन्हें फिल्मेकिंग के बारे में कितनी समझ है. यदि है, तो हमारी फिल्म के सेट पर आइए और कम से कम एक शौट लगाकर दिखाइए. आप अभिनेता की आलोचना कर रहे हैं, तो आइए कैमरे के सामने  एक लाइन बोलकर दिखाइए. कैमरे के सामने परफार्म करना इतना आसान नहीं होता.

पर सोशल मीडिया के चलते हर किसी को ‘स्टार रेटिंग’ की दरकार होती है, तो यह नौसीखिए व सोशल मीडिया बाज उन्हे स्टार बांट रहे हैं और वह खुश हो रहे हैं. पहले जब  कलाकार कभी-कभी दिखते थे, तो उनाक स्टारपना था. पर मेरी राय मे अब वैसा नही है. अब ‘स्टार वैल्यू’ एकदम खत्म हो गई है. अब तो सोशल मीडिया पर देखिए,कितने बड़े-बड़े स्टार हो गए हैं.

स्टूडियो सिस्टम के हावी होने से क्रिएटीविटी को फायदा है या नुकसान है?

देखिए, क्रिएटीविटी एक ऐसी चीज है, जिसे ना तो स्टूडियो दबा सकता है और ना ही उठा सकता है. जिस स्टूडियो के साथ कलाकार,लेखक व निर्देशक जुड़े हुए हैं, उन स्टूडियो की फिल्म ज्यादा अच्छी बनती है.बॉक्स ऑफिस का मसला अलग है. मैं बौक्स औफिस के परिणाम के आधार पर किसी फिल्म को अच्छा या बुरा नही मानता. कई बार वाहियात फिल्में भी पैसा कमा लेती हैं और बहुत अच्छी फिल्मों को मौका नही मिलता. मेरा मानना है कि अच्छी फिल्म बनाने के लिए आपकी टीम अच्छी होनी चाहिए.

“नागिन 4”: तो “पवित्र रिश्ता” की अर्चू बनेगी नागरानी !

कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाला शो ‘नागिन 4’ लगातार सुर्खियों में बनी रहती है. इस शो को लेकर दर्शकों की एक्साइटमेंट बनी रहती है. अब इस शो के लिए एक नई खबर सामने आई है कि इस सीरीयल के निर्माता एकता कपूर को दूसरी नागिन मिल गई है.

खबर के मुताबिक एकता कपूर ने निया शर्मा के बाद दूसरी नागिन के किरदार के लिए “मणिकर्णिका” स्टार अंकिता लोखंडे को साइन किया है. हालांकि अभी इस खबर पर आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है.

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Recently Ekta Kapoor welcomed Nia Sharma in the Naagin world by tweeting. After Nia Sharma fans are eagerly waiting for the official announcement of the second lead with Nia in Kapoor's superhit supernatural-thriller series Naagin 4 titled as Naagin-Bhagya Kaa Zehreela Khel There are several name buzzing around to play lead in Fourth Instalment of Naagin series. Previously Alisha Panwar and Ankita Lokhande names have been speculated for the same. Now, the latest reports suggest that Dil se Dil Tak actress Jasmin Bhasin is also running in the forefront in the race of being the second Naagin Jasmin shot a fame with Zee TV's popular show Tashan-e-Ishq opposite Zain Imam and was last seen in Star Plus show Dil Toh Happy Hai Ji. Alisha, Ankita or Jasmin, Which actress you would like to see in Naagin 4 with Nia? Write in comment section. . . . #Naagin4 #NaaginBhagyaKaaZehreelaKhel ?

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आपको बता दें, अंकिता लोखंडे एकता कपूर के टीवी शो “पवित्र रिश्ता” में ‘अर्चना’ के किरदार सो काफी मशहूर हुई. अगर वो टीवी पर ‘नागिन’ के किरदार में वापसी करती है तो एकता कपूर के साथ उनका ये दूसरा टीवी शो होगा. ये सीरीयल बेहद हिट रहा था.

हाल ही में  कंगना रनौत की फिल्म मणिकर्णिका- द क्वीन औफ झांसी में झलकारी बाई के बेहद मजबूत किरदार में दिखाई दी थी. अंकिता को इस फिल्म में लोगों ने काफी पसंद किया था. अब अगर अंकिता लोखंड़े इस टीवी शो में नागिन के किरदार में नजर आती हैं तो उनके फैंस खुशी से झुम उठेंगे.

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सर्दियों में भी चांद सा रौशन चेहरा

सर्दियां शुरू होते ही चेहरे और हाथ-पैरों पर रूखापन दिखने लगता है और एड़ियां व होंठ फटने लगते हैं. इसके साथ ही चेहरे की त्वचा काली नजर आती है. ठंडी हवाएं चेहरे की सारी चमक खींच ले जाती हैं. खुश्क त्वचा में खुजली महसूस होती है और नन्हें-नन्हें दाने तक निकल आते हैं. सर्दियों में साबुन का प्रयोग तो चेहरे को और ज्यादा खराब कर देता है. साबुन में उपस्थित कास्टिक त्वचा के रूखेपन को और बढ़ा देता है और रही-सही कांति भी गायब हो जाती है.

फेशियल-मसाज के बाद भी आपके चेहरे पर चमक नहीं लौटती है. सर्दियों में नौरमल फेशियल से कभी-कभी ड्राइनेस और बढ़ जाती है. वहीं मंहगे फेशियल जो स्किन टाइप के अनुसार बड़े पार्लर्स में किये जाते हैं, वह अफोर्ड कर पाना हरेक के बस की बात नहीं हैं. आमतौर पर भारतीय गृहणियां सर्दियों में नारियल या जैतून के तेल की मालिश इत्यादि से शरीर और चेहरे की खुश्की दूर करती हैं. मगर गायब हुई चमक का क्या करें?

तो आइये हम आपको बताते हैं कुछ ऐसे फेसपैक, सर्दियों में जिनके प्रयोग से आपका चेहरा ऐसे चमकने लगेगा जैसे आप किसी बड़े पार्लर से मंहगा फेशियल करवा कर आयी हों. फिर जब आपके किचेन में मिलने वाले कुछ सामान ही आपकी खूबसूरती को चार चांद लगाने के लिए काफी हैं, तो हजारों रुपये पार्लर में बर्बाद करने का तुक?

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कौफी से दमकाएं चेहरा

सर्दियों के मौसम में गर्मागरम कौफी की चुस्कियां जहां शरीर में ऊर्जा का संचार करती हैं, वहीं कौफी का एक चम्मच आपके चेहरे को ऐसी कांति से भर देगा जो किसी ब्यूटी पार्लर में आपको नहीं मिलेगी. कॉफी का फेसपैक आप अपने किचेन में चटपट तैयार कर सकती हैं. इसके लिए थोड़ा सा चावल का आटा लें. चाहें तो मिक्सी में थोड़ा चावल महीन पीस लें. दो चम्मच चावल के आटे में एक चम्मच कौफी पाउडर मिलाएं. इसमें दो-तीन चम्मच कच्चा दूध, एक चम्मच शहद और आधे नींबू का रस मिला कर पेस्ट बना लें. अधिक गाढ़ा होने पर दूध की मात्रा बढ़ा लें. इस पेस्ट को अपने चेहरे पर लगाकर दस से पंद्रह मिनट तक हल्के हाथों से गोलाई में मलें. फिर इसे सूखने के लिए छोड़ दें. सूखने पर हल्के हाथों से रगड़ कर उतार दें और गुनगुने पानी से फेस धो लें. हफ्ते में दो बार इस कॉफी फेसपैक के इस्तेमाल से आपका चेहरा दमक उठेगा और त्वचा मुलायम हो जाएगी. इसके बाद आपको किसी ब्यूटी पार्लर में जाकर फेशियल की जरूरत भी महसूस नहीं होगी.

मुंह और मसूर की दाल

कहावत है कि ये मुंह और मसूर की दाल यानी अपनी औकात से बढ़ कर कोई बात कहना, मगर मसूर की दाल आपके चेहरे के लिए है बड़ी फायदेमंद, खासतौर पर सर्दियों में. रात में दो-तीन चम्मच धुली मसूर की दाल को पानी में भिगो कर रख दें. सुबह इसे महीन पीस लें. इसमें चुटकी भर हल्दी और कच्चा दूध मिला कर पेस्ट बना लें. आधे नींबू का रस भी निचोड़ लें. इससे आप अपने चेहरे, हाथ और कोहनियों की मालिश करें. चेहरे पर दस से पंद्रह मिनट मालिश के बाद आप बचे हुए पेस्ट को फेसपैक की तरह चेहरे पर लगा लें. सूखने पर हल्के हाथों से गोलाई में घुमाते हुए छुड़ाएं और फिर गुनगुने पानी से धोकर चेहरा साफ कर लें. यह भी हफ्ते में दो से तीन बार करना काफी है. इस फेसपैक का गजब का असर त्वचा की रंगत और कांति पर पड़ता है. इसके प्रयोग से चेहरे और कोहनियों का सारा कालापन जाता रहता है और चेहरा नयी आभा से दमकने लगता है.

सर्दियों में शहद-नींबू बड़ा प्रभावकारी

एक चम्मच शहद और उसमें चार-पांच बूंद नींबू का रस सर्दियों में चेहरे के लिए वरदान है. अगर आप सुबह उठ कर एक चम्मच शहद में कुछ बूंदे नींबू की निचोड़ कर इसे चेहरे पर लगा कर छोड़ दें और अपने नित्यकर्म निपटाने के बाद चेहरा धो लें तो आपकी इतनी सी मेहनत आपके चेहरे को ऐसा कांतिमय बना देंगी कि पति महाशय सुबह-सुबह ही मूड में आ जाएंगे. कोशिश करें कि शहद-नींबू का यह फेसपैक आपके चेहरे पर कम से कम आधे घंटे रहे. यह चेहरे की रंगत को निखारता है और झुर्रियों को भी दूर करता है. इस फेसपैक को हर दूसरे दिन यूज करें.

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फ्रूट सैलेड खायें भी लगाएं भी

सर्दियों में कई तरह के फल बाजार में आते हैं और हम अलग-अलग तरह के फलों से बने फ्रूट सैलेड का खूब लुत्फ उठाते हैं. ये फल हमारे स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, बल्कि हमारी त्वचा के लिए भी काफी फायदेमंद हैं. तो आप जब भी फ्रूट सैलेड बनाएं तो अपनी प्लेट से एक टुकड़ा पपीता, एक टुकड़ा सेब, एक टुकड़ा केला, दो-चार अंगूर और अन्य फलों को निकाल कर मिक्सी मे महीन पीस लें. इस पेस्ट से टीवी देखते हुए या धूप सेंकते हुए हल्के हाथों से अपने चेहरे पर मसाज करें. दस से पंद्रह मिनट इस पेस्ट से अपने हाथों-चेहरे की मालिश के बाद कुछ देर सूखने के लिए छोड़ दें. फिर गुनगुने पानी से धोकर माइश्चराइजर लगा लें. फलों का यह पेस्ट आपके चेहरे पर गजब का निखार पैदा कर देगा. हफ्ते में दो बार भी कर लें तो फिर आपको किसी पार्लर में जाकर फेशियल करवाने की जरूरत पड़ेगी. यही नहीं अगर आप रासायनिक तत्वों से बनी फेशियल क्रीम की जगह फलों के पेस्ट से ही फेशियल करवाएं तो आपके चेहरे पर इसका असर गजब का होगा.

वो लौट कर आएगा : भाग 1

‘आ गयी बिटिया…’ नीलमणि की मां ने बेटी को दरवाजे से अन्दर आते देखा तो बोल पड़ी.

‘हां मां…’ नीलमणि मां को छोटा सा जवाब देकर अपने कमरे की ओर जाने को हुई तो मां ने हाथ पकड़ कर अपनी खाट पर बिठा लिया. बोली,

‘अरे, सुन तो… जरा इधर बैठ… आज फिर चौधराइन आयी थीं… तुझे पूछ रही थीं… बिटिया, वह कह रही थीं कि अगर तू एक बार शादी का मन बना ले तो एक और अच्छा लड़का उनकी नजर में है…’

‘क्या मां… मैं कितनी बार तुमसे मना कर चुकी हूं… और तुम हो कि अब भी मेरी शादी की बातें सोचती रहती हो… इस उम्र में…? और फिर तुम जानती हो कि मैं उनके अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती… फिर भी पीछे पड़ी रहती हो?’ नीलमणि की आवाज में तेजी आ गयी.

‘ऐसे कब तक चलेगा बिटिया…? यूं कब तक तू अपने आपको जलाती रहेगी…? नहीं आएगा वो… कभी नहीं आएगा…’ नीलमणि की बूढ़ी मां खटिया पर बैठी सिसकने लगी.

‘वो आएगा मां… एक दिन जरूर आएगा… हमें ऐसी हालत में छोड़कर वो भी चैन से नहीं होगा….’ नीलमणि दृढ़ स्वरों में बोलते हुए मां के पास से उठ गयी. उसे पता था कि अब कम से कम दो घंटे तक तो मां का प्रलाप चलना ही है. नीलमणि दिन भर स्कूल में पढ़ा कर थकी-हारी घर लौटती है और उसके आते ही मां का रोना शुरू हो जाता है…. कभी कहती कि अकेले कैसे बुढ़ापा कटेगा तेरा… कभी अखबार में आया कोई विवाह का विज्ञापन निकाल कर बैठ जाती… तो कभी चौधराइन आकर नये-नये रिश्ते सुझा जाती… यह तो रोज का सिलसिला हो गया है. नीलमणि बुदबुदाते हुए अपने कमरे में घुस गयी.

मुंह-हाथ धोकर नीलमणि आईने के सामने आ खड़ी हुई. उसने अपनी शक्ल कुछ गौर से देखी… उसकी त्वचा में अब कुछ-कुछ ढीलापन आना शुरू हो गया था. ठुड्डी के नीचे झुर्रियों की लकीरें बनने लगी थीं. चेहरे की वह चमक जो कभी लोगों को बेतरह आकर्षित कर लेती थी, न जाने कहां गुम हो गयी थी. लगातार परेशान रहने, सोचते रहने और रोते रहने के कारण उसकी खूबसूरत नीली आंखें अब कुछ भीतर की ओर धंस गयी थीं, उनके नीचे स्याह घेरे अब और गहरे होते जा रहे थे. यह तो अच्छा हुआ कि नीलमणि ने एक स्कूल में नौकरी कर ली थी, बच्चों के बीच उसका वक्त अब आराम से गुजर जाता है. अगर वह यह नौकरी न उठाती तो उस हादसे के बाद घर में बैठे-बैठे वह पागल ही हो गयी होती.

वह एक हादसा… जो उसकी समूची जिन्दगी पर स्याही पोत गया. उसे इन्तजार की कभी न खत्म होने वाली रातें दे गया… जिसने उससे उसका पिता छीन लिया… उसकी मां को सदा रोते-कलपते रहने का अभिशाप दे गया…. नीलमणि को अहसास है कि उसकी रात का सवेरा शायद अब कभी नहीं होगा…. उसे इसी अन्धेरे के साथ अन्तिम सांस तक जीना होगा… वह चाहे भी तो इस अन्धेरे से निकलना अब उसके बस में नहीं है…. उसका मन इतनी हिम्मत ही नहीं कर पाता कि वह इस अन्धेरे की दीवार को तोड़ कर बाहर आ जाए… उसने अपने आप को इन्तजार की न खत्म होने वाली अंधी सुरंग में ढकेल दिया है.

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नीलमणि की खुशियों की बगिया उजड़े आज चौदह साल हो गये हैं. उसकी जिन्दगी में सब कुछ कितनी तेजी से बदलता चला गया. सारी दुनिया बदल गयी. हर रिश्तेदार, हर दोस्त, हर हमदर्द उसके परिवार से दूर हो गया. बस नहीं बदला तो उसका मन, जो शरद से बंधा हुआ था. अपने शरद को वह कभी अपने से दूर नहीं कर पायी. दुनिया के लिए वह लाख बुरा था, मगर नीलमणि ने तो उसकी आंखों में अपने लिए सिर्फ छलकता हुआ प्यार देखा था. वह उस प्यार को कभी झुठला नहीं सकती थी. शरद को अगर दुनिया हैवान कहती थी, तो नीलमणि को उसके भीतर एक बहुत सुन्दर इन्सान मिला था. उसने मन की गहराइयों से उसकी इंसानियत को महसूस किया था. उससे हद से ज्यादा प्यार किया था. नीलमणि तो अपने शरद से कभी नफरत कर ही नहीं सकती है. उसने शरद के लिए हर घाव को अपनी किस्मत समझ कर सिर-आंखों पर रखा था. उसका दिया हर जख्म उसकी अमानत समझ कर अपने सीने में छिपा लिया था. उसके चारों तरफ घोर अन्धेरा था, बावजूद इसके उसके दिल में आस का दिया जल रहा था कि एक दिन उसका शरद उसके पास जरूर लौट कर आएगा. उसकी आंखें बंद होने से पहले वह एक बार जरूर उसके पास लौटेगा.

यह नीलमणि का पागलपन ही था, मगर इसी पागलपन के सहारे वह जिन्दा भी थी. आज पैंतीस साल की उम्र में भी वह खुद को शरद के लिए ही मेंटेन रखने की कोशिश करती थी. महीने में दो-एक बार ब्यूटी पार्लर का चक्कर भी लगा आती थी. कनपटियों पर सफेद हो रहे बालों की लट डाई करती थी. अपने लिए नये सूट सिलवाती थी. वह न सिर्फ खुद को बल्कि अपने घर को भी हमेशा सजा-संवार कर रखती थी. इसी उम्मीद में कि पता नहीं कब शरद लौट आये. उसे लगता था कि शरद किसी भी दिन अचानक घर के दरवाजे पर प्रकट हो जाएगा. वह चौंक जाएगी. दौड़ कर उससे लिपट जाएगी. रो-रो कर उसका दामन अपने आंसुओं से भर देगी. आएगा और अपनी नीलू को गंदा-संदा देखेगा… तो क्या सोचेगा… छी! इसीलिए वह अपनी साज-संवार करती है. उसके नाम की बिन्दी लगाती है. उसके नाम की चूड़ियां पहनती है.

शरद अक्सर नीलू के खूबसूरत चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहा करता था – ‘इस चांद की खूबसूरती मुझसे सहन नहीं होती… नीलू, कितना तड़पाओगी अपने चकोर को…. बोलो….?’ उसके करीब आकर वह बेचैन हो उठता था और उसकी बेचैनी देखकर नीलमणि कसमसाकर उसकी बाहों से छूट निकलती थी. कभी-कभी तो शरद के प्यार और व्याकुलता से वह बुरी तरह घबरा जाती थी. हालांकि इतनी नजदीकियों के बावजूद शरद ने मर्यादा की सीमा कभी नहीं लांघी थी. उलटा कभी-कभी वह नीलू के निश्छल व्यवहार से नाराज भी हो जाता था, कहता था….

‘क्यों तुम मेरे इतने करीब आ जाती हो नीलू…? मेरा मन डोलने लगता है….’

‘क्यों… खुद पर संयम नहीं है…?’ नीलू हंसकर उसके गले में झूल जाती.

‘तुम इस तरह मेरे संयम की परीक्षा मत लिया करो…’ वह हौले से उसे भींच लेता… ‘कभी बहक गया तो संभाल नहीं पाओगी… समझीं…?’ वह उसके कान में फुसफुसाते हुए बोला था.

‘मैं तुम्हें कभी बहकने नहीं दूंगी…’ नीलू उससे कस कर लिपट जाती. शरद की बाहों में जो असीम सुख था, उस सुख को वह अपने रोम-रोम में जज़्ब कर लेना चाहती थी. दोनों घंटों एक दूसरे की बाहों में लिपटे पड़े रहते थे. कभी-कभी तो सारी रात छत पर एक दूसरे से बातें करते, प्यार बांटते ही निकल जाती. भोर में जब चिड़ियां चहचहाने लगतीं तब दोनों चुपके से अपने-अपने कमरों में उतर आते थे.

एक डाली के तीन फूल : भाग 1

एक समय था जब कभी तीनों भाईर् मिल कर दीवाली मनाते थे. तब मां उन्हें इकट्ठा देख निहाल हो जातीं. लेकिन, अब भाइयों के बीच दूरियां इतनी बढ़ गई थीं कि मिलनाजुलना केवल औपचारिकता भर रह गया था. पर दीवाली के त्योहार ने एक बार फिर भाइयों के रिश्ते में गरमाहट भर दी.

भाई साहब की चिट्ठी मेरे सामने मेज पर पड़ी थी. मैं उसे 3 बार पढ़ चुका था. वैसे जब औफिस संबंधी डाक के साथ भाई साहब की चिट्ठी भी मिली तो मैं चौंक गया, क्योंकि एक लंबे अरसे से हमारे  बीच एकदूसरे को पत्र लिखने का सिलसिला लगभग खत्म हो गया था. जब कभी भूलेभटके एकदूसरे का हाल पूछना होता तो या तो हम टेलीफोन पर बात कर लिया करते या फिर कंप्यूटर पर 2 पंक्तियों की इलेक्ट्रौनिक मेल भेज देते.

दूसरी तरफ  से तत्काल कंप्यूटर की स्क्रीन पर 2 पंक्तियों का जवाब हाजिर हो जाता, ‘‘रिसीव्ड योर मैसेज. थैंक्स. वी आर फाइन हियर. होप यू…’’ कंप्यूटर की स्क्रीन पर इस संक्षिप्त इलेक्ट्रौनिक चिट्ठी को पढ़ते हुए ऐसा लगता जैसे कि 2 पदाधिकारी अपनी राजकीय भाषा में एकदूसरे को पत्र लिख रहे हों. भाइयों के रिश्तों की गरमाहट तनिक भी महसूस नहीं होती.

हालांकि भाई साहब का यह पत्र भी एकदम संक्षिप्त व बिलकुल प्रासंगिक था, मगर पत्र के एकएक शब्द हृदय को छूने वाले थे. इस छोटे से कागज के टुकड़े पर कलम व स्याही से भाई साहब की उंगलियों ने जो चंद पंक्तियां लिखी थीं वे इतनी प्रभावशाली थीं कि तमाम टेलीफोन कौल व हजार इलेक्ट्रौनिक मेल इन का स्थान कभी भी नहीं ले सकती थीं. मेरे हाथ चिट्ठी की ओर बारबार बढ़ जाते और मैं हाथों में भाई साहब की चिट्ठी थाम कर पढ़ने लग जाता.

प्रिय श्याम,

कई साल बीत गए. शायद मां के गुजरने के बाद हम तीनों भाइयों ने कभी एकसाथ दीवाली नहीं मनाई. तुम्हें याद है जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई देश के चाहे किसी भी कोने में हों, दीवाली पर इकट्ठे होते थे. क्यों न हम तीनों भाई अपनेअपने परिवारों सहित एक छत के नीचे इकट्ठा हो कर इस बार दीवाली को धूमधाम से मनाएं व अपने रिश्तों को मधुरता दें. आशा है तुम कोई असमर्थता व्यक्त नहीं करोगे और दीवाली से कम से कम एक दिन पूर्व देहरादून, मेरे निवास पर अवश्य पहुंच जाओगे. मैं गोपाल को भी पत्र लिख रहा हूं.

तुम्हारा भाई,

मनमोहन.

दरअसल, मां के गुजरने के बाद, यानी पिछले 25 सालों से हम तीनों भाइयों ने कभी दीवाली एकसाथ नहीं मनाई. जब तक मां जीवित थीं हम तीनों भाई हर साल दीवाली एकसाथ मनाते थे. मां हम तीनों को ही दीवाली पर गांव, अपने घर आने को बाध्य कर देती थीं. और हम चाहे किसी भी शहर में पढ़ाई या नौकरी कर रहे हों दीवाली के मौके पर अवश्य एकसाथ हो जाते थे.

हम तीनों मां के साथ लग कर गांव के अपने उस छोटे से घर को दीयों व मोमबत्तियों से सजाया करते. मां घर के भीतर मिट्टी के बने फर्श पर बैठी दीवाली की तैयारियां कर रही होतीं और हम तीनों भाई बाहर धूमधड़ाका कर रहे होते. मां मिठाई से भरी थाली ले कर बाहर चौक पर आतीं, जमीन पर घूमती चक्कर घिन्नियों व फूटते बम की चिनगारियों में अपने नंगे पैरों को बचाती हुई हमारे पास आतीं व मिठाई एकएक कर के हमारे मुंह में ठूंस दिया करतीं.

फिर वह चौक से रसोईघर में जाती सीढि़यों पर बैठ जाया करतीं और मंत्रमुग्ध हो कर हम तीनों भाइयों को मस्ती करते हुए निहारा करतीं. उस समय मां के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि के जो भाव रहते थे, उन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि दुनिया जहान की खुशियां उन के घर के आंगन में थिरक रही हैं.

हम केवल अपनी मां को ही जानते थे. पिता की हमें धुंधली सी ही याद थी. हमें मां ने ही बताया था कि पूरा गांव जब हैजे की चपेट में आया था तो हमारे पिता भी उस महामारी में चल बसे थे. छोटा यानी गोपाल उस समय डेढ़, मैं साढ़े 3 व भाई साहब 8 वर्ष के थे. मां के परिश्रमों, कुर्बानियों का कायल पूरा गांव रहता था. वस्तुत: हम तीनों भाइयों के शहरों में जा कर उच्च शिक्षा हासिल करने, उस के बाद अच्छे पदों पर आसीन होने में मां के जीवन के घोर संघर्ष व कई बलिदान निहित थे.

मां हम से कहा करतीं, तुम एक डाली के 3 फूल हो. तुम तीनों अलगअलग शहरों में नौकरी करते हो. एक छत के नीचे एकसाथ रहना तुम्हारे लिए संभव नहीं, लेकिन यह प्रण करो कि एकदूसरे के सुखदुख में तुम हमेशा साथ रहोगे और दीवाली हमेशा साथ मनाओगे.’

हम तीनों भाई एक स्वर में हां कर देते, लेकिन मां संतुष्ट न होतीं और फिर बोलतीं, ‘ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करो.’

हम तीनों भाई आगे बढ़ कर मां के सिर पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करते, मां आत्मविभोर हो उठतीं. उन की आंखों से खुशी के आंसू छलक जाते.

मां के मरने के बाद गांव छूटा. दीवाली पर इकट्ठा होना छूटा. और फिर धीरेधीरे बहुतकुछ छूटने लगा. आपसी निकटता, रिश्तों की गरमी, त्योहारों का उत्साह सभीकुछ लुप्त हो गया.

कहा जाता है कि खून के रिश्ते इतने गहरे, इतने स्थायी होते हैं कि कभी मिटते नहीं हैं, मगर दूरी हर रिश्ते को मिटा देती है. रिश्ता चाहे दिल का हो, जज्बात का हो या खून का, अगर जीवंत रखना है तो सब से पहले आपस की दूरी को पाट कर एकदूसरे के नजदीक आना होगा.

हम तीनों भाई एकदूसरे से दूर होते गए. हम एक डाली के 3 फूल नहीं रह गए थे. हमारी अपनी टहनियां, अपने स्तंभ व अपनी अलग जड़ बन गई थीं. भाई साहब देहरादून में मकान बना कर बस गए थे. मैं मुंबई में फ्लैट खरीद कर व्यवस्थित हो गया था. गोपाल ने बेंगलुरु में अपना मकान बना लिया था. तीनों के ही अपनेअपने मकान, अपनेअपने व्यवसाय व अपनेअपने परिवार थे.

मैं विचारों में डूबा ही था कि मेरी बेटी कनक ने कमरे में प्रवेश किया. मु झे इस तरह विचारमग्न देख कर वह ठिठक गई. चिहुंक कर बोली, ‘‘आप इतने सीरियस क्यों बैठे हैं, पापा? कोई सनसनीखेज खबर?’’ उस की नजर मेज पर पड़ी चिट्ठी पर गई. चिट्ठी उठा कर वह पढ़ने लगी.

‘‘तुम्हारे ताऊजी की है,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह, मतलब आप के बिग ब्रदर की,’’ कहते हुए उस ने चिट्ठी को बिना पढ़े ही छोड़ दिया. चिट्ठी मेज पर गिरने के बजाय नीचे फर्श पर गिर कर फड़फड़ाने लगी.

भाई साहब के पत्र की यों तौहीन होते देख मैं आगबबूला हो गया. मैं ने लपक कर पत्र को फर्श से उठाया व अपनी शर्ट की जेब में रखा, और फिर जोर से कनक पर चिल्ला पड़ा, ‘‘तमीज से बात करो. वह तुम्हारे ताऊजी हैं. तुम्हारे पापा के बड़े भाई.’’

‘‘मैं ने उन्हें आप का बड़ा भाई ही कहा है. बिग ब्रदर, मतलब बड़ा भाई,’’ मेरी 18 वर्षीय बेटी मु झे ऐसे सम झाने लगी जैसे मैं ने अंगरेजी की वर्णमाला तक नहीं पड़ी हुई है.

‘‘क्या बात है? जब देखो आप बच्चों से उल झ पड़ते हो,’’ मेरी पत्नी मीना कमरे में घुसते हुए बोली.

‘‘ममा, देखो मैं ने पापा के बड़े भाई को बिग ब्रदर कह दिया तो पापा मु झे लैक्चर देने लगे कि तुम्हें कोई तमीज नहीं, तुम्हें उन्हें तावजी पुकारना चाहिए.’’

‘‘तावजी नहीं, ताऊजी,’’ मैं कनक पर फिर से चिल्लाया.

‘‘हांहां, जो कुछ भी कहते हों. तावजी या ताऊजी, लेकिन मतलब इस का यही है न कि आप के बिग ब्रदर.’’

‘‘पर तुम्हारे पापा के बिग ब्रदर… मतलब तुम्हारे ताऊजी का जिक्र कैसे आ गया?’’ मीना ने शब्दों को तुरंत बदलते हुए कनक से पूछा.

‘‘पता नहीं, ममा, उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा है जिसे पढ़ने के बाद पापा के दिल में अपने बिग ब्रदर के लिए एकदम से इतने आदरभाव जाग गए, नहीं तो पापा पहले कभी उन का नाम तक नहीं लेते थे.’’

‘‘चिट्ठी…कहां है चिट्ठी?’’ मीना ने अचरज से पूछा.

मैं ने चिट्ठी चुपचाप जेब से निकाल कर मीना की ओर बढ़ा दी.

चिट्ठी पढ़ कर मीना एकदम से बोली, ‘‘आप के भाई साहब को अचानक अपने छोटे भाइयों पर इतना प्यार क्यों उमड़ने लगा? कहीं इस का कारण यह तो नहीं कि रिटायर होने की उम्र उन की करीब आ रही है तो रिश्तों की अहमियत उन्हें सम झ में आने लगी हो?’’

‘‘3 साल बाद भाई साहब रिटायर होंगे तो उस के 5 साल बाद मैं हो जाऊंगा. एक न एक दिन तो हर किसी को रिटायर होना है. हर किसी को बूढ़ा होना है. बस, अंतर इतना है कि किसी को थोड़ा आगे तो किसी को थोड़ा पीछे,’’ एक क्षण रुक कर मैं बोला, ‘‘मीना, कभी तो कुछ अच्छा सोच लिया करो. हर समय हर बात में किसी का स्वार्थ, फरेब मत खोजा करो.’’

मीना ने ऐलान कर दिया कि वह दीवाली मनाने देहरादून भाईर् साहब के घर नहीं जाएगी. न जाने के लिए वह कभी कुछ दलीलें देती तो कभी कुछ, ‘‘आप की अपनी कुछ इज्जत नहीं. आप के भाई ने पत्र में एक लाइन लिख कर आप को बुलाया और आप चलने के लिए तैयार हो गए एकदम से देहरादून एक्सप्रैस में, जैसे कि 24 साल के नौजवान हों. अगले साल 50 के हो जाएंगे आप.’’

‘‘मीना, पहली बात तो यह कि अगर एक भाई अपने दूसरे भाई को अपने आंगन में दीवाली के दीये जलाने के लिए बुलाए तो इस में आत्मसम्मान की बात कहां से आ जाती है? दूसरी बात यह कि यदि इतना अहंकार रख कर हम जीने लग जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘मुझे दीवाली के दिन अपने घर को अंधेरे में रख कर आप के भाई साहब का घर रोशन नहीं करना. लोग कहते हैं कि दीवाली अपने ही में मनानी चाहिए,’’ मीना  झट से दूसरी तरफ की दलीलें देने लग जाती.

जीजा पर भारी ब्लैकमेलर साली: भाग 1

शर्मा आटो गैराज में काम करने वाला उत्तम कृष्ण करीब 11 बजे जब गैराज पर पहुंचा तो शटर गिरा हुआ मिला. उसे आश्चर्य हुआ, क्योंकि गैराज के मालिक जितेंद्र शर्मा रोजाना 9 बजे ही गैराज खोल देते थे. उत्तम कृष्ण इस गेराज में एक साल से काम कर रहा था, लेकिन उसे सुबह को कभी भी गैराज बंद नहीं मिला था.

जितेंद्र को कभी आने में देर हो जाती तो वह उत्तम को फोन पर सूचना दे कर गैराज खोलने के लिए बोल देते थे. उत्तम सोच रहा था कि जितेंद्र अभी तक क्यों नहीं आए. वह गैराज के बाहर ही उन के आने का इंतजार करने लगा. तभी उत्तम का ध्यान दुकान पर लगने वाले तालों पर गया तो वह चौंका शटर के दोनों ताले खुले थे.

उत्तम ने आगे बढ़ कर शटर ऊपर उठा दिया. उस की नजर गैराज के अंदर गई तो उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. जितेंद्र शर्मा का शव दुकान के अंदर लगे लोहे के पिलर पर रस्सी के फंदे से झूल रहा था.

अपने मालिक की लाश लटकते देख कर उत्तम के मुंह से चीख निकल गई. उस के चीखने की आवाज सुन कर आसपास के दुकानदार जमा हो गए. घटना की सूचना थाना नीलगंगा के टीआई संजय मंडलोई को दे दी गई.

धन्नालाल की जिस चाल में शर्मा गैराज था, वह इलाका थाना नीलगंगा में आता था. कुछ ही देर में टीआई संजय मंडलोई एसआई जयंत सिंह डामोर, प्रवीण पाठक आदि के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. पुलिस ने जरूरी जांच के बाद शव को फंदे से उतारा और प्राथमिक काररवाई के बाद पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. पुलिस ने गैराज की तलाशी ली तो वहां 5 पेज का एक सुसाइड नोट मिला. सुसाइड नोट के 3 पेजों पर जितेंद्र ने देवास में रहने वाली अपनी चचेरी साली का जिक्र किया था. सुसाइड नोट के हिसाब से जितेंद्र शर्मा ने चचेरी साली की ब्लैकमेलिंग से तंग आ कर आत्महत्या की थी.

जितेंद्र ने अपने सुसाइड नोट के एक पेज पर पत्नी शोभा को मायके जा कर रहने व दूसरी शादी करने की सलाह दी थी. पुलिस ने सुसाइड नोट हैंडराइटिंग की जांच के लिए एक्सपर्ट के पास भेज दिया. सुसाइड नोट में साली का जिक्र आया था, इसलिए पुलिस ने पूछताछ के लिए देवास में रहने वाली जितेंद्र की साली के बारे में पता किया तो वह घर से लापता मिली.

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उज्जैन के एसपी सचिन अतुलकर के निर्देश पर टीआई संजय मंडलोई ने जांच की जिम्मेदारी एसआई जयंत सिंह डामोर को सौंप दी. मृतक का क्रियाकर्म हो जाने के बाद जांच शुरू करते हुए एसआई डामोर ने मृतक की पत्नी शोभा से पूछताछ की. उस ने अपने पति द्वारा चचेरी बहन पर लगाए आरोपों को सच बताया.

शोभा ने पुलिस को यह भी बताया कि घटना से एक दिन पहले जितेंद्र ने अदिति शर्मा के साथ अपने संबंध और उस के द्वारा ब्लैकमेल करने की बात उसे तथा अपने पिता को बताई थी. जिस पर हम ने उन्हें काफी समझाया था, लेकिन इस के बावजूद उन्होंने ऐसा कदम उठा लिया.

मृतक के पिता ने भी माना कि जितेंद्र अदिति शर्मा द्वारा ब्लैकमेल किए जाने से परेशान था. उन्होंने उसे समझाया था कि सब ठीक हो जाएगा.

पुलिस ने अदिति शर्मा की तलाश में अपने मुखबिर सक्रिय कर दिए थे. घटना के लगभग 10 दिन बाद अदिति शर्मा के देवास में होने की जानकारी मिली तो पुलिस की एक टीम ने वहां जा कर उसे गिरफ्तार कर लिया.

लेकिन तब तक अदिति शर्मा ने इस मामले में हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत ले ली थी, इसलिए थाने में उस के बयान दर्ज करने के बाद पुलिस ने उसे जाने दिया. जिस के बाद पूरी कहानी इस प्रकार से सामने आई—

उज्जैन निवासी लक्ष्मण शर्मा कारों के पुराने मैकेनिक हैं. पिता के साथ काम सीखने के बाद जितेंद्र उर्फ जीतू ने महापौर निवास के सामने अपना अलग गैराज खोल लिया था. 26 नवंबर, 2015 को जितेंद्र की शादी देवास की रहने वाली शोभा से हुई थी. शादी के कुछ समय बाद जितेंद्र सेठी नगर में किराए का मकान ले कर अपने परिवार से अलग रहने लगा था.

कुछ साल पहले जितेंद्र की पत्नी का परिवार देवास छोड़ कर गुजरात वापस चला गया. जितेंद्र की चचेरी साली अदिति शर्मा (24) देवास की एक निजी कंपनी में नौकरी करती थी, इसलिए परिवार के साथ न रह कर वह देवास में ही किराए के मकान में रहने लगी थी.

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