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हृदय परिवर्तन-भाग 1: दिवाकर ने किस काम के लिए मना किया था?

लेखिका-रेणु दीप

भावना की ट्रेन तेज रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी. पीछे छूटते जा रहे थे खेतखलिहान, नदीनाले और तालतलैया. मन अंदर से गुदगुदा रहा था, क्योंकि वह बच्चों के साथ 2 बरसों के बाद अपने मायके जा रही है अपने भाईर् अक्षत की कलाई पर राखी बांधने. गाड़ी की रफ्तार के साथसाथ उस का मन भी पिछली यादों में उल झ गया.

एक समय था जब वह महीनों पहले से रक्षाबंधन की प्रतीक्षा बहुत बेकरारी से किया करती थी. वे 5 बहनें और एक भाईर् था. भाई के जन्म के पहले न जाने कितने रक्षाबंधन बिना किसी की कलाई पर राखी बांधे ही बीते थे उस के. 5 बहनों के जन्म के बाद भाई अक्षत का जन्म हुआ था. सब से बड़ी बहन होने के नाते उस ने अक्षत को बेटे की तरह ही गोद में खिलाया था. सो, शादी के बाद शुरू के 4-5 वर्षों तक, जब तक उस के बच्चे छोटे रहे, वह बहुत ही चाव से हर रक्षाबंधन पर मांबाबूजी के निमंत्रण पर मायके जाती रही थी.

उसे आज तक भाई के विवाह के बाद पड़ा पहला रक्षाबंधन अच्छी तरह याद है. पति दिवाकर ने कितना मना किया था कि देखो, अब अक्षत का विवाह हो गया है, एक बहू के आने के बाद तुम्हारा वह पुराना राजपाट गया सम झो. अब किसी के ऊपर तुम्हारा पुराना दबदबा नहीं चलने वाला. अब तो बस, सालभर में महज एक मेहमान की तरह कुछ दिन ही मायके के हिसाब में रखा करो वह भी तब, जब भाभी तुम्हें खुद निमंत्रण भेजे आने का. लेकिन काश, तब उस ने पति की बात को खिल्ली में न उड़ा कर गंभीरता से लिया होता तो ननद व भाईभाभी के नाजुक रिश्ते में दिल को छलनी कर देने वाली वह दरार तो न पड़ती.

हर वर्ष की भांति उस वर्ष भी मांबाबूजी का दुलारभरा खत आया था, जिस में उन्होंने उसे रक्षाबंधन पर बुलाया था. भाभी के सामने पहले रक्षाबंधन पर जा रही हूं, यह सोच कर उस ने अपने बजट से कहीं ज्यादा खर्च कर भाई के लिए काफी महंगी पैंटशर्ट और भाभी के लिए बहुत बढि़या खालिस सिल्क की साड़ी व मोतियों का सुंदर जड़ाऊ सैट खरीदे थे.

मायके पहुंचते ही मांबाबूजी व भाई ने हमेशा की तरह ही पुलकित मन से भावना और दोनों बच्चों का सत्कार किया था. लेकिन जिस चेहरे को अपने स्नेहदुलार, ममता के रेशमी जाल में हमेशा के लिए जकड़ने आई थी, ननदभाभी के रिश्ते को नया रूप देने आईर् थी, घर पहुंचने के घंटेभर बाद तक भावना को वह चेहरा नजर नहीं आ पाया था. वह अपनी उत्सुकता को और न दबा पाते हुए  झट से भाई से बोल पड़ी थी, ‘अरे अक्षत, तेरी बहू नहीं दिखाई दे रही. इस बार तो मैं उसी से मिलने और दोस्ती करने आई हूं. वरना तेरे जीजा तो मु झे आने ही नहीं दे रहे थे,’ ड्राइंगरूम में बैठे लोग बातें कर रहे थे कि भावना अपनी आदत के अनुसार धड़धड़ाती हुई नई बहू के शयनकक्ष में बिना खटखटाए ही घुस गई थी. बहू के खूबसूरत चेहरे को देखते ही भावना ने  झट से उसे बांहों में भर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर भाभी के चेहरे पर भावों को देख कर अपना हाथ पीछे खींच लिया. वह यह कह कर कमरे से बाहर आ गई थी, ‘वाणी, जल्दी से बाहर आ जाओ, मैं तो तुम से बातें करने को बुरी तरह से  झटपटा रही हूं.’

वापस आ कर भावना यात्रा से पैदा हो आईर् थकान को अपनों के बीच बैठ, मां के हाथों की बनी मसाले वाली, सौंधीसौंधी महक वाली चाय के घूंटों से मिटाने का प्रयत्न कर रही थी. साथ ही साथ, उस की नजरें नई बहू से मिलने व बतियाने की ख्वाहिश में बारबार दरवाजे पर  झूलते परदे की ओर खिंच जाती थीं. लेकिन पौना घंटा बीतने पर भी वाणी कमरे से बाहर नहीं आई थी. अक्षत भी बीच में उठ कर शायद वाणी को ही बुलाने चला गया था, लेकिन वह भी इस बार तनिक असहज मुद्रा में ही वापस लौटा था.

तकरीबन एक घंटे बाद वाणी अपने कमरे से बाहर आईर् थी पूरी तरह से सजधज के साथ. साड़ी से मेल खाती चूडि़यां, बिंदी, यहां तक कि गले और कान के गहने भी उस की साड़ी से मेल खा रहे थे, जिन्हें देख कर बिना सोचेसम झे वह यह पूछने की गलती कर बैठी थी, ‘यह क्या वाणी, कहीं जा रही हो क्या, जो इस तरह तैयार हो कर आई हो?’

 

  कांग्रेस में चिट्ठी बम

कांग्रेस के वरिष्ठ व इंग्लिश बोलने में माहिर 23 नेताओं ने पार्टी  अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक लंबी चिट्ठी में वे बातें कही हैं जिन का जमीनी वास्तविकता से न कोई मतलब है और जिन पर अमल करने से कांग्रेस का न कोई भला होने वाला है. गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, शशि थरूर, विवेक तन्खा, मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे नेताओं ने जिस तरह की मांगें रखी हैं, उन को पूरा करने में क्या वे खुद कुछ कर सकते हैं?

मांगें साधारण सी हैं. कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष हो, चुनाव अधिकारी हो, संविधान के अनुसार कांग्रेस कार्यकारिणी का चुनाव हो, राज्य इकाइयों में भी अध्यक्ष नियुक्त नहीं किया जाए, चुना जाए.

इन नेताओं ने जो कहा है वह तब संभव है जब पार्टी में मेहनती कार्यकर्ता और नेता हों. पिछले 70 वर्षों से पार्टी में नेताओं की 3 पीढि़यां बिना जमीनी सेवा किए स्वतंत्रता आंदोलन के योगदान, जो उन्होंने नहीं उन के पूर्वजों ने किया था, का आनंद उठा रही हैं. अब यह मौज भारतीय जनता पार्टी के नेता छीन ले गए हैं. कांग्रेस के ये बड़बोले, खाली बैठे, ड्राइंगरूमी नेता कभी जमीन पर नहीं लड़े. भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने की पूरी जिम्मेदारी इन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर डाल रखी है.

भारत की राजनीति असल में हमेशा ऊंची जातियों के हाथों में रही है और उन में से भी खासतौर पर ब्राह्मणों के हाथों में. बातें बनाने में तेज ये लोग न सही फैसले ले पाते हैं, न सही काम कर पाते हैं. महात्मा गांधी ने एक अलग तरह की राजनीति शुरू की थी पर इन नेताओं के पूर्वजों ने उस राजनीति का लाभ तो उठाया लेकिन जमीन पर जा कर काम नहीं किया.

जो मेहनत चौधरी चरण सिंह, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, कांशीराम, सी एन अन्नादुरई, एन टी रामाराव जैसे नेताओं ने की, इन कांग्रेसी नेताओं ने नहीं की. 1998 के बाद कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में कूदने के बाद जो मेहनत सोनिया गांधी ने की उस का अंशभर भी किसी ने नहीं किया. पर जब 2004 में कांग्रेस अनायास जीत गई तो ये बंटने वाले दान को पाने के लिए उच्चतम श्रेष्ठ ब्राह्मण होने के नाते सब से आगे आ कर खड़े हो गए थे.

2014 में हारने के बाद इन नेताओं में से किसी को भाजपा ने निशाना नहीं बनाया. ‘बारगर्ल इटालवी’ सोनिया गांधी और ‘पप्पू’ राहुल गांधी 6 सालों से भाजपा के तीरों से लहूलुहान हो रहे हैं. इन 23 नेताओं की खिंचाई कहीं भाजपा सेल नहीं करती क्योंकि ये निरर्थक हैं. भाजपाई इन्हें किसी मतलब का समझते ही नहीं हैं. भाजपा जानती है, दूसरे कांगे्रसी नेता वोट बटोर नहीं सकते. उन में न

मोदी जैसी बोलने की कला है न संघ कार्यकर्ताओं की तरह गलीगली जाने की क्षमता. भाजपा को डर केवल सोनिया, राहुल और प्रियंका से है. ये तीनों असल में जमीनी भारत का भाजपा से कहीं ज्यादा प्रतिनिधित्व करते हैं और नागपुर इस बात को समझता है.

भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान नेताओं ने रामरथों को खींचा है, जुलूसों में मीलों चल कर भाग लिया है, फूल और पत्थर दोनों बरसाए हैं, जागरणों में भी भाग लिया है और थानों में भी रातें बिताई हैं. भाजपा में भी कोई चुनाव नहीं होते, न नरेंद्र मोदी, न अमित शाह, न मोहन भागवत और न जे पी नड्डा किसी चुनाव की देन हैं. आंतरिक चुनाव तो हमारी संस्कृति में है ही नहीं, फिर इन

23 को क्या हक है? ये 23 भी कभी पार्टी चुनावों से जीत कर नहीं आए.

चुनावी रंग में अमेरिका

अमेरिकी चुनावों को ध्यान से देखें तो वे काफी हद तक भारत जैसा माहौल दिखाते हैं. डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार जीतने की उम्मीद पर काफी प्रश्नचिह्न खड़े हो चुके हैं पर गोरे कट्टरपंथियों को, भारतीय भक्तों की तरह की, टं्रप की वाहवाही करनी पड़ रही है. ट्रंप ने मेक इन अमेरिका, कीप इमिगै्रंट्स अवे जैसे नारों से भारत जैसा राजनीतिक माहौल बना डाला है और गोरे अमेरिकियों की एक बड़ी जमात अंधभक्ति में डूब कर तथ्य व तर्क भूल चुकी है.

अमेरिकी गोरों को अपनी सत्ता वैसे ही हिलती नजर आ रही है जैसी भारत में सवर्णों को नजर आ रही है. मेहनत के बलबूते काले, लैटिनों, चीनी, भारतीय, फिलीपीनी व अरबी अब धीरेधीरे ऊंचे पदों पर पहुंचने लगे हैं और कुछ साल पहले तक केवल गोरों के रहे क्लब, रैस्तरां, गोल्फ कोर्स, अपार्टमैंट कोडों, गेटेड कम्युनिटीज में भी इन की घुसपैठ शुरू हो गई है.

बराक ओबामा काले थे और अच्छे राष्ट्रपति साबित हुए. उन्हीं के कारण गोरों में एक डर पैदा हो गया कि कहीं काले नागरिक व्यापारों और उद्योगों

पर भी राजनीति सा कब्जा न कर लें. उन्होंने 2016 में सारा जोर सिरफिरे अमीर डोनाल्ड ट्रंप पर लगा दिया. झूठी कहानियों, खबरों को तोड़मरोड़ कर इस तरह पेश किया गया कि बराक ओबामा की चहेती हिलेरी क्ंिलटन जीत नहीं पाईं और 4 वर्षों से, भारत की तरह, अमेरिका आर्थिक थपेड़े खा रहा है.

भारत में यह डर पहले पिछड़े देवीलाल और लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री न बन जाएं, से पैदा हुआ था और फिर यह कि कहीं मायावती जैसी दलित सत्ता हथिया न ले. इस के लिए राममंदिर के नाम पर एक नई तरह

की राजनीति अपनाई गई जिस की

छाया अमेरिका के 2016 के चुनावों में दिखी थी.

अब 2020 के अमेरिकी चुनाव काफी रोचक साबित होंगे क्योंकि उस की दुर्व्यवस्था के कारण अमेरिकी काफी नाराज हैं पर गोरे कट्टरपंथी आज भी रंग व अपने वर्चस्व की चिंता कर रहे हैं जिस के अकेले रक्षक उन्हें डोनाल्ड ट्रंप दिख रहे हैं. जो बाइडेन और कमला हैरिस की जोड़ी अभी लोकप्रियता में काफी आगे है पर अंत में गोरेकालों का भेद कहीं फिर उबाल भरने लगे, कहा नहीं जा सकता.

चीन के सामने बोलती बंद

पाकिस्तान को छठी का दूध पिला डालने की सोशल मीडिया वीरों की बोलती आजकल बिलकुल बंद है. मुकाबला अब बहुत मजबूत चीन से है जो भारत के थोथे तेवरों से नाराज हो कर सीमा पर लगातार दबाव बनाए हुए है. लद्दाख में चीन उस जमीन पर सड़कें, बंकर, पुल, अस्पताल बना रहा है जो पहले भारतीय सैनिकों के कब्जे में थीं.

हाल इतना बुरा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बात करने की हिम्मत भी नहीं हो रही कि कहीं वे कुछ और मांग न कर बैठें. इस विवाद को सुलझाने के लिए सीमा पर तैनात मिलिट्री अफसर चीनी सेना के जनरलों से तर्कवितर्क कर रहे हैं लेकिन वे टस से मस नहीं हो रहे.

भारत की तैयारी पूरी है कि सीमा की सुरक्षा पूरी तरह हो. पर फिर भी सच यह है कि चीन के पास एक बड़ी सेना है, साथ ही, उस के पास अपने कारखानों में बने हर तरह के आधुनिकतम हथियार भी हैं. 2018 के अनुसार जहां अमेरिका ने 10 अरब डौलर के हथियार निर्यात किए थे, एक बिलियन डौलर के हथियार चीन ने भी निर्यात किए थे. भारत इस में कहीं नहीं आता. भारत तो बाहर से खरीदने वालों में से है. 2019 में भारत का स्थान दूसरा था विदेशी हथियार खरीदने में. सऊदी अरब ने भारत से तीनगुना और पाकिस्तान ने आधे के बराबर खरीदे.

कहने का अर्थ यह है कि भारत को जहां विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है, चीन अपने हथियार खुद बनाता है. यदि युद्ध गंभीर हुआ तो विदेशी उत्पादक कभी भी हथियार बेचने से मना कर सकते हैं, जबकि चीन को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा.

अब जब भारत सरकार का खजाना खाली हो रहा है, भारत को हथियार खरीदने में कठिनाई होने वाली है.

आज चीन न केवल लद्दाख, बल्कि नेपाल और भारत सीमा के कोने, अरुणाचल प्रदेश, भूटान आदि में भी सीमा विवाद खड़ा कर रहा है. जहां पहले तिब्बती राजाओं का यदाकदा प्रभाव रहता था. चीन उस इतिहास के बल पर अपना हक जता रहा है.

भारत सरकार चीन पर जो चुप्पी साधे है वह भी गलत है. देशवासियों को सच बताना सरकार का कर्तव्य है ताकि देश एकजुट हो कर, साथ में मिल कर, चीनी घुसपैठ का मुकाबला करे.

कैशलैस नहीं कैश

कुछ सालों से सरकार नकद लेनदेन को बंद करने की भरसक कोशिश में लगी है. अरुण जेटली जब तक वित्त मंत्री थे, बेमतलब रोज कैशलैस इकोनौमी का राग आलापा करते थे. सरकार ने जनता को बहुत सारे लौलीपौप भी दिए कि कैशलैस इकोनौमी में लाभ ही लाभ हैं. नोटबंदी की एक बड़ी वजह एक झटके में नकदी की आदत से लोगों को उबारने की भी थी.

अफसोस कि लोगों को न सरकार पर भरोसा है न बैंकों पर. नोटबंदी के बावजूद सारा लेनदेन फिर नकद में चालू हो गया है. कोरोना के दिनों में तो यह अचानक बढ़ गया क्योंकि लोगों को नकद जेब में रखना ज्यादा सुरक्षित लग रहा है. मार्च में जहां 24 लाख करोड़

की नकदी बाजार में थी, अगस्त तक 26.9 लाख करोड़ हो गई, जो नोटबंदी से पहले से कहीं ज्यादा है.

सरकार के नीतिनिर्धारक असल में एयरकंडीशंड कमरों में बैठते हैं और ज्यादातर दूसरीतीसरी पीढ़ी से शासकवर्ग में हैं. इन्हें जमीनी हकीकत के बारे में मालूम ही नहीं है. देश की जनता जो गांवों, कसबों और शहरों की कच्ची बस्तियों में पसरी हुई है, पाईपाई का हिसाब रखती है और उस के लिए न कंप्यूटर पर न मोबाइल पर लेनदेन करना संभव है. पिछले 5-6 सालों में हर साल उस की हालत और बुरी हुई है और उसे मालूम नहीं कि कल कैसा होगा. जो नकद उस के हाथ में है वह उस का है. जो बैंक में है, उस की तो सरकार ही मालिक है.

क्रैडिट कार्ड और नैटबैंकिंग चाहे कितनी सुविधाजनक लगे, यह है असल में एक आफत. जब भुगतान किसी दूरदराज इलाके के किसी को करना हो तो बात दूसरी और उस निगाह से यह मनीऔर्डर और चैक से बेहतर है, वरना फेसटूफेस लेनदेन में कैश ही किंग है.

सरकार का आज कोई भरोसा नहीं है. सरकार कब बैंकों में रखा पैसा जब्त कर ले, पता नहीं. सरकार कब खरीद का हिसाब लेने लगे, मालूम नहीं. बैंक कब किस खाते को बंद कर दे, मालूम नहीं. कब क्रैडिट कार्ड ब्लौक हो जाए, पता नहीं.

यही नहीं, जरा सी गड़बड़ हुई नहीं, कि सरकार बैंक खाते खुलवाने शुरू कर देती है. पैन कार्ड नंबर और आधार नंबर से आप की जिंदगी में कोई निजी बात

रह ही नहीं गई. सरकारी पंडे हर जगह हिस्सा बांटने को तैयार खड़े रहते हैं. सरकारी कहर से अपना बचाव करना है तो कैश की सुरक्षा हाथ में रहनी चाहिए. जब तक हमारे यहां सिर्फ कोरे वादे करने और फेंकने वाली सरकारें हैं, अपनी बचत को कैश में रखने में बेवकूफी नहीं, चाहे चोरउचक्कों का डर रहे. उन से बड़े बैठे हैं जो कलम की एक लाइन से बड़ी डकैती कर सकते हैं, 2-4 की नहीं, 20-30 करोड़ लोगों की, वह भी एक झटके में.

Nutrition Special: बढ़ते बच्चों की सही ग्रोथ के लिए जरुरी हैं ये 15 न्यूट्रिशन, देखें लिस्ट

अपने बच्चों को पोषक भोजन खाने की आदत डाल कर आप उन के लिए स्वस्थ जीवन की आधारशिला रख सकते हैं. बच्चों को 1 नहीं दर्जनों पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है ताकि उन के शरीर और मस्तिष्क का सही विकास हो सके.

2 साल तक बच्चों के लिए स्तनपान जरूरी है. स्तनपान बंद करते ही उन्हें सभी पोषक तत्त्वों की पूर्ति खाने से करनी होती है. चूंकि उन का शरीर तेजी से विकसित हो रहा होता है, इसलिए उन के लिए माइक्रो व मैक्रोन्यूट्रिएंट्स दोनों ही बहुत जरूरी होते हैं.

1 माइक्रोन्यूट्रिएंट्स विटामिंस:

विटामिन पदार्थों के समूह होते हैं जो कोशिकाओं की सामान्य गतिविधियों और विकास के लिए आवश्यक होते हैं. प्रत्येक विटामिन का शरीर में महत्त्वपूर्ण कार्य होता है. बच्चों के शरीर में विटामिन की कमी से कई स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं. उन का विकास प्रभावित हो सकता है.

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विटामिन ए यह हड्डियों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, कोशिकाओं और ऊतकों के विकास को बढ़ावा देता है. इस की कमी से बच्चों की हड्डियों का विकास प्रभावित हो सकता है. यह इम्यून तंत्र को मजबूत बना कर संक्रमण से रक्षा करता है. विटामिन ए आंखों की रोशनी बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है.

कहां से प्राप्त करें:

गाजर, शकरकंदी, मेथी, ब्रोकली, पत्तागोभी, मछली का तेल, अंडे का पीला भाग और हरी पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक, मेथी आदि में इस की प्रचुर मात्रा होती है.

2 विटामिन बी कौंप्लैक्स

यह लाल रक्तकणिकाओं के निर्माण में सम्मिलित होता है, जो हमारे पूरे शरीर में औक्सीजन ले जाती हैं. औक्सीजन की आवश्यकता शरीर के प्रत्येक भाग को ठीक प्रकार से कार्य करने के लिए होती है. यह मैटाबोलिज्म के लिए भी आवश्यक है. इस की कमी से बच्चों में ऐनीमिया हो जाता है.

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कहां से प्राप्त करें: साबूत अनाज, मछली, सीफूड, पोल्ट्री, मांस, अंडा, दूध, दूध से बने उत्पाद, हरी पत्तेदार सब्जियों, फलियों आदि से.

3 विटामिन सी

बच्चों का इम्यून तंत्र कमजोर होता है, इसलिए वे जल्दी संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं. विटामिन सी का सेवन बच्चों के इम्यून तंत्र को मजबूत बना कर संक्रमण से बचाता है. विटामिन सी मसूड़ों को स्वस्थ रखता है. यह लाल रक्तकणिकाओं के निर्माण और उन की मरम्मत में सहायता करता है व रक्तनलिकाओं को शक्ति देता है. आयरन के अवशोषण में सहायता करता है जो बढ़ते बच्चों के लिए बहुत ही आवश्यक पोषक तत्त्व है.

कहां से प्राप्त करें:

खट्टे फल जैसे संतरा, स्ट्राबैरी, टमाटर, आलू, तरबूज, खरबूज, पत्तागोभी, फूलगोभी, पालक, पपीता, आम आदि से.

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4 विटामिन डी

विटामिन डी बच्चों के संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए जरूरी है. यह शरीर में कैल्सियम के स्तर को नियंत्रित करता है, जो तंत्रिकातंत्र की कार्यप्रणाली और हड्डियों की मजबूती के लिए जरूरी है. यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है.

कहां से प्राप्त करें: विटामिन डी का सब से अच्छा स्रोत सूर्य की किरणें हैं. इन के अलावा दूध, अंडा, चिकन, मछली आदि विटामिन डी के अच्छे स्रोत हैं.

5 विटामिन ई

यह लाल रक्तकोशिकाओं के निर्माण में सहायता करता है. समय पूर्व जन्मे बच्चे में जन्मजात विटामिन ई की मात्रा कम होती है, इसलिए ऐसे बच्चों को विटामिन ई की अतिरिक्त खुराक दी जानी चाहिए ताकि

उन का विकास प्रभावित न हो, क्योंकि यह कंकाल तंत्र के विकास के लिए आवश्यक है. यह ऐलर्जी की रोकथाम में भी उपयोगी है.

कहां से प्राप्त करें:

लिवर, अंडा, सूखा मेवा जैसे बादाम, अखरोट, सूरजमुखी के बीज, हरी पत्तेदार सब्जियां, शकरकंद, शलगम, आम, पपीता, कद्दू आदि इस के अच्छे स्रोत हैं.

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6 विटामिन के

यह हड्डियों के निर्माण, हृदयरोगों की रोकथाम में उपयोगी है. यह बच्चों को फेफड़ों के संक्रमण से बचाव में भी कारगर है.

कहां से प्राप्त करें:

ब्रोकली, पत्तागोभी, फूलगोभी, हरी पत्तेदार सब्जियां (पालक, मेथी और बथुआ), मछली, अंडा, लिवर आदि से.

7 आयरन

आयरन बच्चों में स्वस्थ रक्त बनाने के लिए आवश्यक होता है, जो शरीर की सभी कोशिकाओं तक औक्सीजन ले जाता है. आयरन की कमी से ऐनीमिया, थकान और कमजोरी हो जाती है.

कहां से प्राप्त करें: लाल मांस, लिवर, पोल्ट्री, साबूत अनाज, फलियां, सूखा मेवा और हरी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, मेथी आदि से.

8 कैल्सियम

कैल्सियम बच्चों की हड्डियों और दांतों को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है. यह रक्त का थक्का जमने और तंत्रिका, मांसपेशियों व हृदय के कार्यों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है. यह बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी सहायता करता है. अगर बच्चों में कैल्सियम की कमी होगी तो उन की मांसपेशियां ठीक तरह से विकसित नहीं हो पाएंगी.

कहां से प्राप्त करें:

अंडे का पीला भाग, ब्रोकली, हरी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, मेथी, बथुआ. डेयरी उत्पाद जैसे दही, दूध, कम वसा वाला चीज, टोफू, कौटेज चीज आदि इस के सब से अच्छे स्रोत हैं.

9 जिंक

जिंक याद्दाश्त सुधारता है. यह वायरस और दूसरे रोग फैलाने वाले सूक्ष्म जीवों से लड़ कर बच्चों के इम्यून तंत्र को मजबूत बनाता है. शरीर को बढ़ने और विकसित होने के लिए जिंक की आवश्यकता है. यह पाचन और मैटाबोलिज्म के लिए भी जरूरी है.

कहां से प्राप्त करें:

लिवर, फलियों, साबूत अनाज, सूखा मेवा, दूध आदि से.

10 पौटैशियम

शरीर की लगभग प्रत्येक कोशिका और प्रत्येक अंग को कार्य करने के लिए पोटैशियम की आवश्यकता होती है. यह ब्लडप्रैशर और हृदय के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए भी आवश्यक है. इस से मांसपेशियां भी मजबूत होती हैं, जिस से बच्चों की सक्रियता बढ़ती है.

कहां से प्राप्त करें:

केले में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इस के अलावा शकरकंदी, वसारहित दूध, कम वसा वाला दही व फलियों में भी पाया जाता है.

11 मैग्नीशियम

यह शरीर की कोशिकाओं के निर्माण और ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए एक बहुत आवश्यक तत्त्व है. अगर बचपन में मैग्नीशियम का पर्याप्त मात्रा में सेवन किया जाए तो उम्र बढ़ने के साथसाथ हृदयरोगों की चपेट में आने की आशंका कम होती है.

कहां से प्राप्त करें:

अनाज, ब्राउन राइस, फलियों, बादाम और दूसरे सूखे मेवों से.

12 मैक्रोन्यूट्रिएंट्स

मैक्रोन्यूट्रिएंट्स उन्हें कहते हैं जिन की शरीर को अधिक मात्रा में आवश्यकता है. ये भोजन के प्रमुख तत्त्व हैं जो हमारे शरीर को ऊर्जा देते हैं.

13 कार्बोहाइड्रेट

कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन में ऊर्जा का सब से महत्त्वपूर्ण स्रोत है. यह शरीर को वसा और प्रोटीन का उपयोग करने में सहायता करता है. यह ऊतकों के निर्माण और उन की मरम्मत करने के लिए भी आवश्यक है. कार्बोहाइड्रेट कई अलगअलग रूपों में आता है जैसे शुगर, स्टार्च और फाइबर. बच्चों को स्टार्च और फाइबर अधिक मात्रा में और शुगर कम मात्रा में खाना चाहिए.

कहां से प्राप्त करें:

ब्रैड, अनाज, चावल, पास्ता, आलू, शकरकंदी आदि.

14 प्रोटीन

यह कोशिकाओं के निर्माण में सहायता करता है. प्रोटीन भोजन को ऊर्जा में तोड़ने के लिए संक्रमण से लड़ने और औक्सीजन के संचरण के लिए आवश्यक है. यह शरीर के विकास और मांसपेशियों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है. बच्चों और किशोरों को प्रतिदिन 45 से 60 ग्राम प्रोटीन का सेवन करना चाहिए.

कहां से प्राप्त करें:

मांस, मछली, डेयरी उत्पाद, सोयाबीन, फलियों, दालों और मेवा आदि से.

15 वसा

वसा बच्चों के लिए ऊर्जा का अच्छा स्रोत है. यह आसानी से शरीर में संग्रहीत हो जाती है. वसा शरीर के द्वारा कुछ दूसरे पोषक तत्त्वों के उपयोग में भी सहायता करती है. घुलनशील विटामिनों के संचरण के लिए भी यह आवश्यक है.

कहां से प्राप्त करें:

दूध और दूध से बने दुग्ध उत्पाद, मांस, मछली, सूखा मेवा, तेल, मक्खन, घी, मांस और फैटी फिश.

बढ़ते बच्चों के समुचित विकास के लिए उन्हें सही समय पर सही डाइट देने के साथसाथ फिजिकल ऐक्टीविटीज के लिए भी प्रेरित करें.

– डा. सुनील गुप्ता, सरोज सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल

Crime Story: डाक्टर की हैवानियत

लेखक-निखिल अग्रवाल   

डिगरी ले कर डाक्टर बन जाना ही सब कुछ नहीं होता. इस पेशे में डाक्टर के लिए सेवाभाव, संयम, विवेक और इंसानियत भी जरूरी हैं. विवेक तिवारी डाक्टर जरूर बन गया था, लेकिन उस में इन में से कोई भी गुण नहीं था. अपने एकतरफा प्यार में वह चाहता था कि डा. योगिता वही करे जो वह चाहता है. ऐसा नहीं हुआ तो…

बीते 19 अगस्त की बात है. उत्तर प्रदेश पुलिस को सूचना मिली कि आगरा फतेहाबाद हाईवे पर बमरोली कटारा के पास सड़क किनारे एक महिला की लाश पड़ी है. यह जगह थाना डौकी के क्षेत्र में थी. कंट्रोल रूप से सूचना मिलते ही थाना डौकी की पुलिस मौके पर पहुंच गई.

मृतका लोअर और टीशर्ट पहने थी. पास ही उस के स्पोर्ट्स शू पड़े हुए थे. चेहरेमोहरे से वह संभ्रांत परिवार की पढ़ीलिखी लग रही थी, लेकिन उस के कपड़ों में या आसपास कोई ऐसी चीज नहीं मिली, जिस से उस की शिनाख्त हो पाती. युवती की उम्र 25-26 साल लग रही थी.

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पुलिस ने शव को उलटपुलट कर देखा. जाहिरा तौर पर उस के सिर के पीछे चोट के निशान थे. एकदो जख्म से भी नजर आए. युवती के हाथ में टूटे हुए बाल थे. हाथ के नाखूनों में भी स्कीन फंसी हुई थी. साफतौर पर नजर आ रहा था कि मामला हत्या का है, लेकिन हत्या से पहले युवती ने कातिल से अपनी जान बचाने के लिए काफी संघर्ष किया था.

मौके पर शव की शिनाख्त नहीं हो सकी, तो डौकी पुलिस ने जरूरी जांच पड़ताल के बाद युवती की लाश पोस्टमार्टम के लिए एमएम इलाके के पोस्टमार्टम हाउस भेज दी. डौकी थाना पुलिस इस युवती की शिनाख्त के प्रयास में जुट गई.

उसी दिन सुबह करीब साढ़े 9 बजे दिल्ली के शिवपुरी पार्ट-2, दिनपुर नजफगढ़ निवासी डाक्टर मोहिंदर गौतम आगरा के एमएम गेट पुलिस थाने पहुंचे. उन्होंने अपनी बहन डाक्टर योगिता गौतम के अपहरण की आशंका जताई और डाक्टर विवेक तिवारी पर शक व्यक्त करते हुए पुलिस को एक तहरीर दी.

डाक्टर मोहिंदर ने पुलिस को बताया कि डाक्टर योगिता आगरा के एसएन मेडिकल कालेज से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है. वह नूरी गेट में गोकुलचंद पेठे वाले के मकान में किराए पर रहती है.

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कल शाम यानी 18 अगस्त की शाम करीब सवा 4 बजे डाक्टर योगिता ने दिल्ली में घर पर फोन कर के कहा था कि डाक्टर विवेक तिवारी उसे बहुत परेशान कर रहा है. उस ने डाक्टरी की डिगरी कैंसिल कराने की भी धमकी दी है. फोन पर डाक्टर योगिता काफी घबराई हुई थी और रो रही थी.

पुलिस ने डाक्टर मोहिंदर से डाक्टर विवेक तिवारी के बारे में पूछा कि वह कौन है? डा. मोहिंदर ने बताया कि डा. योगिता ने 2009 में मुरादाबाद के तीर्थकर महावीर मेडिकल कालेज में प्रवेश लिया था. मेडिकल कालेज में पढ़ाई के दौरान योगिता की जान पहचान एक साल सीनियर डा. विवेक से हुई थी.

डाक्टरी करने के बाद विवेक को सरकारी नौकरी मिल गई. वह अब यूपी में जालौन के उरई में मेडिकल औफिसर के पद पर तैनात है. डा. विवेक के पिता विष्णु तिवारी पुलिस में औफिसर थे. जो कुछ साल पहले सीओ के पद से रिटायर हो गए थे. करीब 2 साल पहले हार्ट अटैक से उन की मौत हो गई थी.

डा. मोहिंदर ने पुलिस को बताया कि डा. विवेक तिवारी डा. योगिता से शादी करना चाहता था. इस के लिए वह उस पर लगातार दबाव डाल रहा था. जबकि डा. योगिता ने इनकार कर दिया था. इस बात को लेकर दोनों के बीच काफी दिनों से झगड़ा चल रहा था. डा. विवेक योगिता को धमका रहा था.

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नहीं सुनी पुलिस ने

पुलिस ने योगिता के अपहरण की आशंका का कारण पूछा, तो डा. मोहिंदर ने बताया कि 18 अगस्त की शाम योगिता का घबराहट भरा फोन आने के बाद मैं, मेरी मां आशा गौतम और पिता अंबेश गौतम तुरंत दिल्ली से आगरा के लिए रवाना हो गए. हम रात में ही आगरा पहुंच गए थे. आगरा में हम योगिता के किराए वाले मकान पर पहुंचे, तो वह नहीं मिली. उस का फोन भी रिसीव नहीं हो रहा था.

डा. मोहिंदर ने आगे बताया कि योगिता के नहीं मिलने और मोबाइल पर भी संपर्क नहीं होने पर हम ने सीसीटीवी फुटेज देखी. इस में नजर आया कि डा. योगिता 18 अगस्त की शाम साढ़े 7 बजे घर से अकेली बाहर निकली थी. बाहर निकलते ही उसे टाटा नेक्सन कार में सवार युवक ने खींचकर अंदर डाल लिया.  डा. मोहिंदर ने आरोप लगाया कि सारी बातें बताने के बाद भी पुलिस ने ना तो योगिता को तलाशने का प्रयास किया और ना ही डा. विवेक का पता लगाने की कोशिश की. पुलिस ने डा. मोहिंदर से अभी इंतजार करने को कहा.

जब 2-3 घंटे तक पुलिस ने कुछ नहीं किया, तो डा. मोहिंदर आगरा में ही एसएन मेडिकल कालेज पहुंचे. वहां विभागाध्यक्ष से मिल कर उन्हें अपना परिचय दे कर बताया कि उन की बहन डा. योगिता लापता है. उन्होंने भी पुलिस के पास जाने की सलाह दी.

थकहार कर डा. मोहिंदर वापस एमएम गेट पुलिस थाने आ गए और हाथ जोड़कर पुलिस से काररवाई करने की गुहार लगाई. शाम को एक सिपाही ने उन्हें बताया कि एक अज्ञात युवती का शव मिला है, जो पोस्टमार्टम हाउस में रखा है. उसे भी जा कर देख लो.

मन में कई तरह की आशंका लिए डा. मोहिंदर पोस्टमार्टम हाउस पहुंचे. शव देख कर उन की आंखों से आंसू बहने लगे. शव उन की बहन डा. योगिता का ही था. मां आशा गौतम और पिता अंबेश गौतम भी नाजों से पाली बेटी का शव देख कर बिलखबिलख कर रो पड़े.

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शव की शिनाख्त होने के बाद यह मामला हाई प्रोफाइल हो गया. महिला डाक्टर की हत्या और इस में पुलिस अधिकारी के डाक्टर बेटे का हाथ होने की संभावना का पता चलने पर पुलिस ने कुछ गंभीरता दिखाई और भागदौड़ शुरू की.

आगरा पुलिस ने जालौन पुलिस को सूचना दे कर उरई में तैनात मेडिकल आफिसर डा. विवेक तिवारी को तलाशने को कहा. जालौन पुलिस ने सूचना मिलने के 2 घंटे बाद ही 19 अगस्त की रात करीब 8 बजे डा. विवेक को हिरासत में ले लिया. जालौन पुलिस ने यह सूचना आगरा पुलिस को दे दी.

जालौन पुलिस उसे हिरासत में ले कर एसओजी आफिस आ गई. जालौन पुलिस ने उस से आगरा जाने और डा. योगिता से मिलने के बारे में पूछताछ की, तो वह बिफर गया. उस ने कहा कि कोरोना संक्रमण की वजह से वह क्वारंटीन में है.

विवेक तिवारी बारबार बयान बदलता रहा. बाद में उस ने स्वीकार किया कि वह 18 अगस्त को आगरा गया था और डा. योगिता से मिला था. विवेक ने जालौन पुलिस को बताया कि वह योगिता को आगरा में टीडीआई माल के बाहर छोड़कर वापस उरई लौट आया था.

आगरा पुलिस ने रात करीब 11 बजे जालौन पहुंचकर डा. विवेक को हिरासत में ले लिया. उसे जालौन से आगरा ला कर 20 अगस्त को पूछताछ की गई. पूछताछ में वह पुलिस को लगातार गुमराह करता रहा. पुलिस ने उस की काल डिटेल्स निकलवाई, तो पता चला कि शाम सवा 6 बजे से उस की लोकेशन आगरा में थी. डा. योगिता से उस की शाम साढ़े 7 बजे आखिरी बात हुई थी.

इस के बाद रात सवा बारह बजे विवेक की लोकेशन उरई की आई. कुछ सख्ती दिखाने और कई सबूत सामने रखने के बाद उस से मनोवैज्ञानिक तरीके से पूछताछ की गई. आखिरकार उस ने डा. योगिता की हत्या करने की बात स्वीकार कर ली. बाद में पुलिस ने उसे न्यायिक अभिरक्षा में जेल भेज दिया.

पुलिस ने 20 अगस्त को डाक्टरों के मेडिकल बोर्ड से डा. योगिता के शव का पोस्टमार्टम कराया. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार डा. योगिता के शरीर से 3 गोलियां निकलीं. एक गोली सिर, दूसरी कंधे और तीसरी सीने में मिली. योगिता पर चाकू से भी हमला किया गया था. पोस्टमार्टम कराने के बाद आगरा पुलिस ने डा. योगिता का शव उस के मातापिता व भाई को सौंप दिया.

पूछताछ में डा. योगिता के दुखांत की जो कहानी सामने आई, वह डा. विवेक तिवारी के एकतरफा प्यार की सनक थी.  दिल्ली के नजफगढ़ इलाके की शिवपुरी कालोनी पार्ट-2 में रहने वाले अंबेश गौतम नवोदय विद्यालय समिति में डिप्टी डायरेक्टर हैं. वह राजस्थान के उदयपुर शहर में तैनात हैं. डा. अंबेश के परिवार में पत्नी आशा गौतम के अलावा बेटा डा. मोहिंदर और बेटी डा. योगिता थी.

प्रतिभावान डाक्टर थी योगिता

योगिता शुरू से ही पढ़ाई में अव्वल रहती थी. उस की डाक्टर बनने की इच्छा थी. इसलिए उस ने साइंस बायो से 12वीं अच्छे नंबरों से पास की. पीएमटी के जरिए उस का सलेक्शन मेडिकल की पढ़ाई के लिए हो गया. उस ने 2009 में मुरादाबाद के तीर्थंकर मेडिकल कालेज में एमबीबीएस में एडमिशन लिया.

इसी कालेज में पढ़ाई के दौरान योगिता की मुलाकात एक साल सीनियर विवेक तिवारी से हुई. दोनों में दोस्ती हो गई. दोस्ती इतनी बढ़ी कि वे साथ में घूमनेफिरने और खानेपीने लगे. इस दोस्ती के चलते विवेक मन ही मन योगिता को प्यार करने लगा लेकिन योगिता की प्यारव्यार में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह केवल अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान देती थी. इसी दौरान 2-4 बार विवेक ने योगिता के सामने अपने प्यार का इजहार करने का प्रयास किया लेकिन उस ने हंस मुसकरा कर उस की बातों को टाल दिया.

योगिता के हंसनेमुस्कराने से विवेक समझ बैठा कि वह भी उसे प्यार करती है. जबकि हकीकत में ऐसा कुछ था ही नहीं. विवेक मन ही मन योगिता से शादी के सपने देखता रहा. इस बीच, विवेक को भी डाक्टरी की डिगरी मिल गई और योगिता को भी. बाद में डा. विवेक तिवारी को सरकारी नौकरी मिल गई. फिलहाल वह उरई में मेडिकल आफिसर के पद पर कार्यरत था.

डा. विवेक मूल रूप से कानपुर का रहने वाला है. कानपुर के किदवई नगर के एन ब्लाक में उस का पैतृक मकान है. इस मकान में उस की मां आशा तिवारी और बहन नेहा रहती हैं. विवेक के पिता विष्णु तिवारी उत्तर प्रदेश पुलिस में अधिकारी थे. वे आगरा शहर में थानाप्रभारी भी रहे थे.

कहा जाता है कि पुलिस विभाग में विष्णु तिवारी का काफी नाम था. वे कानपुर में कई बड़े एनकाउंटर करने वाली पुलिस टीम में शामिल रहे थे. कुछ साल पहले विष्णु तिवारी सीओ के पद से रिटायर हो गए थे. करीब

2 साल पहले उन की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी.

मुरादाबाद से एमबीबीएस की डिगरी हासिल कर डा. योगिता आगरा आ गई. आगरा में 3 साल पहले उस ने एसएन मेडिकल कालेज में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए एडमिशन ले लिया. वह इस कालेज के स्त्री रोग विभाग में पीजी की छात्रा थी. वह आगरा में नूरी गेट पर किराए के मकान में रह रही थी.

इस बीच, डा. योगिता और विवेक की फोन पर बातें होती रहती थीं. कभीकभी मुलाकात भी हो जाती थी. डा. विवेक जब भी मिलता या फोन करता, तो अपने प्रेम प्यार की बातें जरूर करता लेकिन डा. योगिता उसे तवज्जो नहीं देती थी.

दोनों के परिवारों को उन की दोस्ती का पता था. डा. विवेक के पास योगिता के परिजनों के मोबाइल नंबर भी थे. उस ने योगिता के आगरा के मकान मालिकों के मोबाइल नंबर भी हासिल कर रखे थे. कहा यह भी जाता है कि विवेक और योगिता कई साल रिलेशन में रहे थे.

पिछले कई महीनों से डा. विवेक उस पर शादी करने का दबाव डाल रहा था, लेकिन डा. योगिता ने इनकार कर दिया था. इस से डा. विवेक नाराज हो गया. वह उसे फोन कर धमकाने लगा.

18 अगस्त को विवेक ने योगिता को फोन कर शादी की बात छेड़ दी. योगिता के साफ इनकार करने पर उस ने धमकी दी कि वह उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा, उस की एमबीबीएस की डिगरी कैंसिल करा देगा. इस से डा. योगिता घबरा गई. उस ने दिल्ली में अपनी मां को फोन कर रोते हुए यह बात बताई. इसी के बाद योगिता के मातापिता व भाई दिल्ली से आगरा के लिए चल दिए थे.

योगिता को धमकाने के कुछ देर बाद डा. विवेक ने उसे दोबारा फोन किया. इस बार उस की आवाज में क्रोध नहीं बल्कि अपनापन था. उस ने कहा कि भले ही वह उस से शादी ना करे लेकिन इतने सालों की दोस्ती के नाम पर उस से एक बार मिल तो ले. काफी नानुकुर के बाद डा. योगिता ने आखिरी बार मिलने की हामी भर ली.

उसी दिन शाम करीब साढ़े 7 बजे डा. विवेक ने योगिता को फोन कर के कहा कि वह आगरा आया है और नूरी गेट पर खड़ा है. घर से बाहर आ जाओ, आखिरी मुलाकात कर लेते हैं. योगिता बिना सोचेसमझे बिना किसी को बताए घर से अकेली निकल गई. यही उस की आखिरी गलती थी.

घर से बाहर निकलते ही नूरी गेट पर टाटा नेक्सन कार में सवार विवेक ने उसे कार का गेट खोल कर आवाज दी और तेजी से कार के अंदर खींच लिया. रास्ते में डा. विवेक ने योगिता से फिर शादी का राग छेड़ दिया, तो चलती कार में ही दोनों में बहस होने लगी. डा. विवेक उस से हाथापाई करने लगा. इसी हाथापाई में योगिता ने अपने हाथ के नाखूनों से विवेक के बाल खींचे और चमड़ी नोंची, तो गुस्साए विवेक ने उस का गला दबा दिया.

डा. विवेक योगिता को कार में ले कर फतेहाबाद हाईवे पर निकल गया. एक जगह रुक कर उस ने अपनी कार में रखा चाकू निकाला. चाकू से योगिता के सिर और चेहरे पर कई वार किए. इतने पर भी विवेक का गुस्सा शांत नहीं हुआ, तो उस ने योगिता के सिर, कंधे और छाती में 3 गोलियां मारीं. यह रात करीब 8 बजे की घटना है.

हत्या कर के रातभर सक्रिय रहा विवेक

इस के बाद योगिता के शव को बमरौली कटारा इलाके में सड़क किनारे एक खेत में फेंक दिया. पिस्तौल भी रास्ते में फेंक दी. रात में ही वह उरई पहुंच गया. रात को ही वह उरई से कानपुर गया और अपनी कार घर पर छोड़ आया. दूसरे दिन वह वापस उरई आ गया.

बाद में पुलिस ने कानपुर में डा. विवेक के घर से वह कार बरामद कर ली. यह कार 2 साल पहले खरीदी गई थी. कार में खून से सना वह चाकू भी बरामद हो गया, जिस से हमला कर योगिता की जान ली गई थी.

बहुत कम बोलने वाली प्रतिभावान डा. योगिता गौतम का नाम कोरोना संक्रमण काल में यूपी की पहली कोविड डिलीवरी करने के लिए भी दर्ज है. कोरोना महामारी जब आगरा में पैर पसार रही थी, तब आइसोलेशन वार्ड विकसित किया गया.

इस के लिए स्त्री और प्रसूति रोग विभाग की भी एक टीम बनाई गई. जिसे संक्रमित गर्भवतियों के सीजेरियन प्रसव की जिम्मेदारी दी गई. विभागाध्यक्ष डा. सरोज सिंह के नेतृत्व में गठित इस टीम में शामिल डा. योगिता ने 21 अप्रैल को यूपी और आगरा में कोविड मरीज के पहले सीजेरियन प्रसव को अंजाम दिया था.  इस के बाद भी उन्होंने कई सीजेरियन प्रसव कराए. डा. योगिता के कराए प्रसव की कई निशानियां आज उन घरों में किलकारियां बन कर गूंज रही हैं.

सिरफिरे डाक्टर आशिक के हाथों जान गंवाने से 5 दिन पहले ही 13 अगस्त को डा. योगिता का पीजी का रिजल्ट आया था. जिस में वह पास हो गई थी. पीजी कर योगिता विशेषज्ञ डाक्टर बन गई थी. लेकिन वक्त को कुछ और ही मंजूर था. लोगों की जान बचाने वाली डा. योगिता की उस के आशिक ने ही जान ले ली. घटना वाले दिन भी वह दोपहर 3 बजे तक अस्पताल में अपनी ड्यूटी पर थी.

डा. योगिता की मौत पर आगरा के एसएन मेडिकल कालेज में कैंडल जला कर योगिता को श्रद्धांजलि दी गई. कालेज के जूनियर डाक्टरों की एसोसिएशन ने प्रदर्शन कर सच्ची कोरोना योद्धा की हत्या पर आक्रोश जताया.

बहरहाल डा. विवेक ने अपने एकतरफा प्यार की सनक में योगिता की हत्या कर दी. उस की इस जघन्य करतूत ने योगिता के परिवार को खून के आंसू बहाने पर मजबूर कर दिया. वहीं, खुद का जीवन भी बरबाद कर लिया. डाक्टर लोगों की जान बचाने वाला होता है, लोग उसे सब से ऊंचा दर्जा देते हैं, लेकिन यहां तो डाक्टर ही हैवान बन गया. दूसरों की जान बचाने वाले ने साथी डाक्टर की जान ले ली.

हृदय परिवर्तन

लेखिका-रेणु दीप

 संविधान भक्त कोर्ट के कठघरे में

सुप्रीम कोर्ट में चला यह दिलचस्प मुकदमा है जिस में प्रशांत भूषण को 1 रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई या फिर 3 महीने की कैद भुगतने को कहा गया. इस मुकदमे ने कई मिथक तोड़े हैं तो कई गढ़े भी हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लाचारी और भी ज्यादा हैरान कर देने वाली है जो अपने ही बिछाए जाल में फंसा नजर आ रहा है. पेश है अदालतों की बदहाली की पड़ताल करती खास रिपोर्ट.

‘प्रशांत भूषण के कंटैंप्ट औफ कोर्ट से पहले आप मेरे कंटैंप्ट औफ क्लाइंट मुद्दे पर मेरी पीड़ा सुनिए, क्योंकि मैं एक सभ्य शहरी हूं और 10 वर्षों से तलाक के लिए अदालतों की चौखट पर एडि़यां रगड़ते न्याय पाने के लिए तरस रहा हूं. मैं पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव या प्रलोभन के कह रहा हूं कि अदालत मुझे न्याय नहीं दे पा रही है. मेरी जवानी और कैरियर दोनों बरबाद हो गए हैं. मैं पूछ रहा हूं, क्या हमारी अदालतें और न्याय व्यवस्था इतनी अपाहिज, लाचार और कमजोर हैं कि सालोंसाल तक तलाक के एक मुकदमे का फैसला न कर पाएं, क्या यह अवमानना के दायरे में नहीं आना चाहिए?’

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यह कहना है भोपाल के जानेमाने पत्रकार योगेश तिवारी का जो अब

44 साल के हो चुके हैं. उन का अपनी पत्नी से 16 नवंबर, 2010 को तलाक हो गया था. उन की शादी 13 जून, 2006 को हुई थी. जल्द ही पतिपत्नी दोनों में मतभेद उभरना शुरू हो गए तो वे तलाक के लिए अदालत गए. दोनों पक्षों को सुनने के बाद क्रूरता के आधार पर जिला अदालत ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (ए) के तहत विवाहविच्छेद यानी तलाक की डिक्री पारित कर दी.

जिस फैसले को योगेश परेशानी का अंत समझ रहे थे वह, दरअसल, जिंदगी की सब से बड़ी परेशानी का प्रारंभ साबित हुआ. पत्नी ने हाईकोर्ट में अपील कर स्थगन आदेश ले लिया जो आसानी से उसे मिल भी गया. 10 साल से योगेश लगभग हर महीने भोपाल से जबलपुर जा रहे हैं, लेकिन उन के मुकदमे की सुनवाई नहीं हो रही. कभी जज बदल जाता है तो कभी तारीख लग यानी बढ़ जाती है. योगेश के 86 वर्षीय पिता कैंसर, दिल की बीमारी और डाइबिटीज से ग्रस्त हैं और मां बुजुर्गावस्था के चलते अशक्त हैं.  इन दोनों की देखभाल की जिम्मेदारी अकेले योगेश पर है.

जब 22 मार्च को देश में लौकडाउन थोपा गया तो योगेश की न्याय की बचीखुची आस भी जाती रही, क्योंकि जब कामकाज के आम दिनों में उन का मुकदमा सुनवाई के लिए नंबर पर नहीं आया तो इन खास दिनों में क्या आता जब अदालतें भी लगभग बंद थीं और सिर्फ विशेष मुकदमों की सुनवाई, वह भी वर्चुअल की जा रही थीं. लेकिन, योगेश हिम्मत हारने वालों में से नहीं हैं, वे कहते हैं, ‘‘आप या कोई और मेरे तनाव की कल्पना भी नहीं कर सकते, इस के लिए आप को मुझ सी हालत से गुजरना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता कि कोई इस हाल से गुजरे कि हर महीने 8-10 हजार रुपए मुकदमे पर खर्च करे. अपने अशक्त बुजुर्ग मांबाप को भगवान भरोसे छोड़ कर 2 दिनों के लिए भोपाल से जबलपुर जाए और ‘दामिनी’ फिल्म वाली तारीख पे तारीख की तख्ती लिए मुंह लटकाए वापस आ जाए.’’

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काफी सोचने के बाद योगेश ने बीती 9 मई को जबलपुर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिख कर दूसरी शादी की इजाजत मांगी. अपने पत्र में उन्होंने अपनी पारिवारिक स्थिति का ब्योरा देते साफ कहा कि प्रकरण के निराकरण की निकट भविष्य में संभावना क्षीण है, इसलिए उन्हें दूसरी शादी की इजाजत दी जाए. बकौल योगेश, उन का एक खतरनाक ऐक्सिडैंट हो चुका है जिस से उन्हें अपने दैनिक कामकाज करने में कठिनाई होने लगी  है. अब वे किसी के सहारे की जरूरत शिद्दत से महसूस करने लगे हैं और अपने वृद्ध मातापिता की सेवा के लिए भी उन्हें एक पार्टनर की जरूरत है. लेकिन, दिक्कत यह है कि अपनी पत्नी के स्थगन आदेश के चलते वे दूसरी शादी कानूनन नहीं कर सकते.

उम्मीद के मुताबिक, इस पत्र पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई. योगेश ने इस बार मीडिया का सहारा लिया. फर्क इस से भी कुछ नहीं पड़ा, लेकिन एक बात सिद्ध हुई कि अदालतों के बारे में बोलना, आलोचना करना या अपनी राय देना कोई अवमानना नहीं है, अगर है, तो योगेश जैसे पीडि़तों को इस की परवा नहीं जिन के दिल से न्यायालयीन आस्था उठ चुकी है. उन्हें अपनी भड़ास निकालने से अब रोका नहीं जा सकता जो बिना किसी अपराध के सजा भुगत रहे हैं.

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अपनी बात विस्तार से कहने के बाद योगेश कहते हैं, ‘‘प्रशांत भूषण के मामले में एक पत्रकार होने के नाते मेरी भी दिलचस्पी है कि अब 10 सितंबर को क्या होगा, और कुछ होगा भी या नहीं.  मुझे यह सोचसोच कर हैरानी हो रही है कि कोविड-19 के कहर के चलते जब न्याय व्यवस्था चरमराई पड़ी है और लंबित मुकदमों की तादाद बढ़ती जा रही है तब प्रशांत भूषण के ट्वीट पर सब से बड़ी अदालत ने क्यों इतनी फुरती दिखाई. कौन सा आसमान गिर पड़ रहा था या धरती फट पड़ रही थी, बात समझ से परे है. इसलिए, मैं कहता हूं कि अब वक्त है कि मुवक्किलों की अवमानना पर भी ध्यान दिया जाए.’’ इतनी चुस्ती अगर अदालतें मुझ जैसे हैरानपरेशान लोगों के सालों से चल रहे मुकदमों में दिखाएं, तो लगेगा कि न्याय उन की प्राथमिकता में कहीं है.

अवमानना के माने

योगेश जैसे पीडि़तों की कमी नहीं है जिन का अदालतों से भरोसा उठ चला है. अवमानना का हौआ अब उन्हें डराता नहीं है क्योंकि वे हद से ज्यादा परेशान हो चुके हैं और बेवजह लंबे खिंचते मुकदमों की मियाद को किसी सजा से कम नहीं मानते. उन्हें अपनी परेशानी साझा करने, अपनी भड़ास निकालने को एक मंच चाहिए जो मीडिया ही है और खुद

सुप्रीम कोर्ट इस बात को स्वीकार चुका है. आइए देखें उस फैसले के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश :

जनता की राय पर आधारित किसी रिपोर्ट पर अवमानना का कानून लागू नहीं होता है. जनता क्या सोचती है, इस का इस्तेमाल न्याय व्यवस्था की खामियां सुधारने में किया जा सकता है. जनता की राय को इस कानून (अदालत की अवमानना कानून 1971) की धारा 5 के साथ मेल खाता समझा जाना चाहिए जिस में निष्पक्ष आलोचना की बात कही गई है.

1 मार्च, 2017 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अपनेआप में बहुतकुछ कहता हुआ है और अब पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो चला है. बात साल 2006 की है. तब सैंटर फौर मीडिया स्टडीज और ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल इंडिया नाम के 2 संगठनों ने जम्मूकश्मीर में एक सर्वे करते हुए लोगों से यह सवाल पूछा था कि वे निचली अदालतों के बारे में क्या राय रखते हैं. जवाब और निष्कर्ष या नतीजा कुछ भी कह लें, बेहद चिंताजनक और चौंका देने वाला था. 90 फीसदी से भी ज्यादा लोगों ने निचली अदालतों में भ्रष्टाचार होने की बात कही थी. इन दोनों संगठनों ने उन लोगों से बात की थी जो कोई न कोई मुकदमा लड़ रहे थे.

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जम्मूकश्मीर के एक प्रमुख इंग्लिश अखबार ‘ग्रेटर कश्मीर’ में उक्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो वहां के दंडाधिकारी ने अदालत की अवमानना कानून 1971 के तहत उक्त दोनों संगठनों के मुखियाओं को पहले नोटिस, फिर गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिए. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उस ने सुनवाई और वारंट दोनों पर रोक लगा दी और फिर लंबी सुनवाई के बाद उक्त फैसला दिया. फैसले में एक और अहम बात यह भी कही गई थी कि निचली अदालतों के पास अवमानना कानून को इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है और अगर उसे ऐसा कुछ लगता है तो वह मामले को हाईकोर्ट के संज्ञान में ला कर कार्रवाई का अनुरोध कर सकती है.

निचली अदालतों में भ्रष्टाचार है, इस स्वीकारोक्ति के साथसाथ इस फैसले से ऐसा भी महसूस हुआ था कि आम लोग भी अदालती फैसलों व न्यायिक प्रक्रिया की योगेश की तरह चीरफाड़ कर

सकते हैं और उसे व्यक्त भी कर सकते हैं. लगा ऐसा भी था कि इसे अदालत की अवमानना नहीं माना जाएगा और सब से बड़ी अदालत जनता के प्रति जवाबदेह है, आलोचना की प्रवृत्ति, जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कहा जाता है, से सहमत होने की उदारता दिखा रही है. जिस से लोगों का भरोसा न केवल न्याय और उस की प्रक्रिया में बना रहे, बल्कि और भी बढ़े.

अब क्या हो गया

आज अदालतों में हो उलटा रहा है. अदालत की अवमानना का शाश्वत हौआ बड़े दिलचस्प तरीके से फिर आम और खास लोगों के सिर पर मंडरा रहा है. इस बार एक तरफ देश के नामी वकील और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण हैं तो दूसरी तरफ खुद सुप्रीम कोर्ट ही है. बीती 22 जुलाई को जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली एक बैंच ने प्रशांत भूषण और ट्विटर को अवमानना का नोटिस दिया तो कई जानीमानी हस्तियां उन के पक्ष में लामबंद हो गईं.

अपने विवादित ट्वीट्स, जो अकसर भगवा गैंग की पोल खोलते हैं, के लिए पहचाने जाने वाले प्रशांत भूषण ने 27 जून को ट्वीट किया, ‘भविष्य में जब इतिहासकार इन 6 सालों पर नजर डालेंगे और देखेंगे कि कैसे भारत में बिना किसी औपचारिक आपातकाल के भी लोकतंत्र को बरबाद किया गया, तो इस में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को भी देखेंगे, खासतौर से पिछले 6 सालों में चुने गए 4 सीजेआई की. ये सीजेआई हैं – जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस जे एस ‘खेहर.’

इस ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते दार्शनिकों की सी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि ट्वीट न्यायिक प्रशासन को तिरस्कार के तौर पर पेश करता है. फिर 2 दिनों बाद प्रशांत भूषण को अवमानना का दूसरा नोटिस दिया गया. यह मामला साल 2009 का है जब उन्होंने एक पत्रिका (तहलका) को इंटरव्यू देते तत्कालीन सीजेआई एस एच कपाडि़या पर आरोप लगाया था कि उन्होंने पद पर रहते हुए स्टरलाइट के शेयर रखते उस के मामले में सुनवाई की.

तकरीबन 10 वर्षों से ठंडे बस्ते में कैद यह फाइल खोली गई तो कोर्ट की मंशा पर हर किसी को स्वाभाविक हैरानी हुई.  उसी दिन प्रशांत भूषण ने एक और ट्वीट कर फिर सनसनी मचा दी थी जिस में उन्होंने सीजेआई एस ए बोबडे के एक भाजपा नेता की हार्ले डेविडसन बाइक पर बिना हैलमैट व फेसमास्क के सवार होने पर सवाल उठाया था. बकौल प्रशांत भूषण, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लौकडाउन मोड पर रखा हुआ है.

साफ दिखा कि यह सुप्रीम कोर्ट का पूर्वाग्रह है जिसे साबित करने के लिए इतने उदाहरण मौजूद हैं कि एक नया ग्रंथ तैयार हो जाए. पहला उदाहरण तो प्रशांत भूषण के अधिवक्ता पिता उन से भी ज्यादा मशहूर शांति भूषण का ही है जो मोरारजी मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाए गए थे. शांति भूषण ने एक वक्त में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करते देश के 8 पूर्व न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाया था. सुप्रीम कोर्ट ने बजाय इस पर विचार करने के उन्हीं पर दबाव बनाने की कोशिश की थी कि वे अपना हलफनामा वापस ले लें. लेकिन शांति भूषण का आत्मविश्वास उन के इस तल्ख लहजे से भी झलका था कि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए मैं बजाय माफी मांगने के, जेल जाना पसंद करूंगा. एक सीलबंद लिफाफे में उन्होंने भ्रष्ट जजों के खिलाफ पुख्ता सुबूत भी पेश किए थे. तब से उन के उस मुहरबंद लिफाफे के अतेपते नहीं हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तब उन के खिलाफ अवमानना का आरोप लगाने की हिम्मत नहीं कर पाया था. कोई नोटिस जारी करना या कार्रवाई करना तो दूर की बात थी, यानी, उस ने मान लिया था कि शांति भूषण कोई हवाहवाई बात नहीं कर रहे हैं.

मध्यांतर एक मुकदमे का

हवाहवाई बात प्रशांत भूषण भी नहीं कर रहे हैं, यह बात 25 अगस्त को बड़े हैरतअंगेज तरीके से सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट ने इस चर्चित हो गए मामले में एक तरह से हथियार डालते यह कहा कि तहलका मैगजीन मामले में अब फैसला 10 सितंबर को होगा. इस दिन जस्टिस अरुण मिश्रा ने 2 सितंबर के अपने रिटायरमैंट का भी हवाला देते मामले को पीठ को सौंपे जाने की

बात कही.

मामला उतना ही पेचीदा है जितना

कि प्रशांत भूषण के अकाट्य तर्क

और हिम्मत के साथसाथ गजब का आत्मविश्वास भी अपने कहे के प्रति है. इस दिन एक और हैरतअंगेज व दिलचस्प बात सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा, बी आर गवई और कृष्णमुरारी की

3-सदस्यीय पीठ का अटौर्नी जनरल के के वेणुगोपाल से यह पूछना रहा था कि आप बताइए कि क्या सजा दी जाए. तब अटौर्नी जनरल का जवाब था कि, भूषण का यह ट्वीट यह बताने के लिए था कि ज्यूडिशियरी को अपने अंदर सुधार

लाने की जरूरत है, इसलिए भूषण को माफ कर देना चाहिए. प्रशांत भूषण की पैरवी कर रहे राजीव धवन ने कहा कि उन के मुवक्किल ने कोई चोरी या मर्डर नहीं किया है, लिहाजा, उन्हें शहीद न बनाया जाए.

इस के पहले मामला शुद्ध रूप से टीवी धारावाहिकों की तरह चला. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी प्रशांत भूषण को माफी मांगने को कहा था लेकिन उन्होंने यह आसान विकल्प चुनने के बजाय महात्मा गांधी का हवाला देते हुए कहा था, ‘मैं न तो दया की भीख मांगता हूं और न ही किसी नरमी की अपील करता हूं. मैं यहां किसी भी सजा को शिरोधार्य करने के लिए आया हूं जो मुझे उस बात के लिए दी जाएगी जिसे कोर्ट ने अपराध माना है, जबकि, वह मेरी नजर में गलती भी नहीं, बल्कि नागरिकों के प्रति मेरा सर्वोच्च कर्तव्य है.’

इस से पहले 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी करार देते हुए सुनवाई की तारीख 20 अगस्त तय की थी. लेकिन उस दिन भी भूषण अपनी जिद पर अड़े रहे तो मामला और दिलचस्प हो गया. लग ऐसा रहा था कि उस दिन अगर वे माफी नहीं मांगते हैं तो कोर्ट उन्हें सजा सुना देगा जो अवमानना कानून के तहत अधिकतम 6 महीने की सजा और/या 2 हजार रुपए का जुर्माना हो सकते हैं.

31 अगस्त को सब से बड़ी अदालत ने फैसला यह दिया कि प्रशांत भूषण या तो 1 रुपए का जुर्माना भरें या फिर 3 महीने की कैद भुगतें और 3 साल तक सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस भी वे नहीं कर सकते. इस पर बुद्धिमानी दिखाते प्रशांत भूषण ने 1 रुपए का जुर्माना भरने का रास्ता चुना क्योंकि जेल जा कर हीरो बनने की कोर्ट की मंशा वे पूरी करते तो एक तरह से अपने किएधरे पर ही खुद पानी फेरते.

इस अजीबोगरीब फैसले से साफ लगा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी खीझ और खिसियाहट मिटा रहा है और एक हद तक उस ने स्वीकार लिया है कि प्रशांत भूषण पूरी तरह गलत नहीं थे और जहां थोड़ेबहुत थे वहां खुद वे अपनी गलती स्वीकार चुके थे जिस से शायद कोर्ट को आत्मग्लानि या गिल्ट जैसा कोई मनोभाव फील हो रहा था लेकिन चूंकि कोई न कोई सजा सुनानी थी तो विकल्प दे कर झंझट से मुक्ति पा ली.

खुद का जाल बना जंजाल

साफ दिख रहा है कि प्रशांत भूषण कोर्ट के झांसे और दबाव में नहीं आए तो कोर्ट ही सकपका उठा कि अब क्या करें. साफ यह भी दिख रहा है कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही बिछाए जाल में फंस गया था क्योंकि उस की यह उम्मीद बेकार गई थी कि भूषण सजा के डर से घबरा कर माफी मांग लेंगे और मामला रफादफा हो जाएगा. उस दिन कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और उन्हें  3  दिनों का वक्त देते पुनर्विचार करने को कहा. लेकिन उन्होंने माफीनामे के लौलीपौप में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उलटे, तरहतरह से अपनी मंशा जताई कि चीफ जस्टिस की स्वस्थ आलोचना सुप्रीम कोर्ट का अपमान नहीं है और अदालत की गरिमा को कम नहीं करता है. जो भी ट्वीट हैं उन में लोकतंत्र को नष्ट करने की अनुमति नहीं दिए जाने की बात है और यह अभिव्यक्ति कंटैंप्ट के दायरे में नहीं आती है. इस और ऐसी दलीलों के जवाब में सुप्रीम कोर्ट यह रट लगाए रहा कि जो है सो है, हम मानते हैं कि आप  को बोलने की आजादी है लेकिन माफी मांग लो, इस में हर्ज क्या है.

इधर, कोर्ट के बाहर भी हल्ला मचता रहा, जिस से यह तय कर पाना भी मुश्किल हो गया कि आखिर फैसला कोर्ट के अंदर होना है या बाहर. ऐसा भी पहली बार हुआ कि अवमानना के किसी मुकदमे पर बहस, खेमेबाजी और चर्चा अदालत के बाहर ज्यादा हुई. दिलचस्प यह है कि अधिकांश लोग प्रशांत भूषण का पक्ष लेते दिखे. इस से प्रशांत भूषण नायक बन गए और अब कहीं वे महानायक न बन जाएं, इसलिए अटौर्नी जनरल ने उन्हें माफी देने की गुजारिश की. प्रशांत भूषण को अगर सजा होती (या 10 सितंबर को हुई) तो उन की चर्चा रोजरोज दुनियाभर में होती और सुप्रीम कोर्ट और मोदी सरकार की आलोचना भी उसी अनुपात में होती. यह भगवा गैंग को गवारा नहीं कि और प्रशांत भूषण पैदा हों, जिन से दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में उस की किरकिरी हो. यह कहने को दुनियाभर के बुद्धिजीवियों को मौका मिल जाता कि भारतीय अदालतों की हालत भी रूसी, पाकिस्तानी और उत्तर कोरियाई अदालतों जैसी हो गई है.

कहना हर्ज या ज्यादती की बात नहीं कि के के वेणुगोपालन के मुंह से सरकार बोल रही है कि जैसे भी हो, कोई तिकड़म भिड़ा कर भस्मासुर बनते जा रहे इस मामले को यमुना में प्रवाहित कर

दो ताकि यह लोगों का ध्यान पुख्ता होती हुई इस धारणा को वास्तविकता में न बदले कि सरकार ने प्रैस के साथसाथ न्यायपालिका की भी स्वंत्रतता को

खत्म कर दिया है. वेणुगोपालन ने यह जिम्मेदारी निभा तो दी लेकिन झमेला खुद सुप्रीम कोर्ट ने पाल लिया है क्योंकि अब प्रशांत भूषण को सजा हो न हो, दोनों ही स्थितियों में उस की छीछालेदर होनी तय है. इसलिए, अदालत अब तर्कों और तथ्यों के बजाय दार्शनिकों जैसी भाषा व रवैया अपना रही है.

ये उतरे समर्थन में

जिन 131 हस्तियों ने प्रशांत भूषण की आवाज बुलंद की, उन में कुछ कानून के भूतपूर्व रखवाले भी हैं. जस्टिस रूमा पाल, जी एस सिंघवी, ए के गांगुली,

वी गोपाल गौड़ा, आफताब आलम,

जे चेलमेश्वर और विक्रम जीत सेन के अलावा एक और रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर ने 27 जुलाई को जारी एक बयान पर दस्तखत किए कि प्रशांत भूषण के खिलाफ की जा रही अवमानना की कार्रवाई वापस ली जाए क्योंकि यह आलोचना का गला घोंटने जैसी कोशिश है. कानून के इन जानकारों की दलील यह भी थी कि न्याय निष्पक्षता के साथ अदालत की गरिमा को बरकरार रखने के लिए हम शीर्ष अदालत से गुजारिश करते हैं कि वह प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करे.

इस लिस्ट और मुहिम में पटना हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए पी शाह भी शामिल हैं. इन के अलावा बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति राय, मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा, वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, आनंद ग्रोवर, गोपाल शंकरनारायण, स्वतंत्रता सेनानी जी जी पारिख, एक्टिविस्ट हर्ष मंदर, स्वराज इंडिया के मुखिया योगेंद्र यादव ने भी इस अपील पर दस्तखत किए.

इन लोगों की इन दलीलों में भी दम है कि पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं कि संविधान ने जो उस

की भूमिका सरकारी ज्यादतियों व लोगों के अधिकारों के हनन पर एक रोक की तरह काम करने की निर्धारित की थी उस में वह हिचक रहा है. यह सवाल हर तबके से उठा है. इन में मीडिया, अकादमिक सिविल सोसाइटी और्गेनाइजेशन, लीगल काम से जुड़े लोग और खुद सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा व रिटायर्ड जज शामिल हैं.

इस लंबेचौड़े बयान में एक दिलचस्प कमैंट मौजूदा सीजेआई के बड़े भाई और वरिष्ठ अधिवक्ता विनोद बोबडे को भी शामिल किया गया है जिस में उन्होंने कहा था, ‘हम ऐसी स्थिति का समर्थन नहीं कर सकते जिस में नागरिक जजों के रवैए की कोर्ट या कोर्ट के बाहर आलोचना करने पर अवमानना से डरते हों.’

प्रशांत भूषण ही क्यों

इन सभी ने एक सुर में कहा कि प्रशांत भूषण समाज के कमजोर तबके के लोगों के अधिकारों के लिए बिना रुके लड़ते आए हैं और उन्होंने अपना पूरा कैरियर ऐसे लोगों को मुफ्त कानूनी सेवा देने में बिता दिया जो न्याय नहीं मांग सकते थे. वे अवमानना नहीं कर रहे, बल्कि चिंता प्रदर्शित कर रहे हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट को उन की चिंताओं से ज्यादा अपनी साख व दबदबे की चिंता है. लिहाजा, उस ने प्रशांत भूषण को धौंस दी जिस का तार्किक व सटीक जवाब प्रशांत भूषण ने दिया भी.

3 अगस्त को दिए अपने जवाब में भी उन्होंने कहा था कि चीफ जस्टिस औफ इंडिया की स्वस्थ आलोचना होने से सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आती है. 140 पृष्ठों के अपने हलफनामे में उन्होंने दलील दी कि चीफ जस्टिस पर उन का कमैंट कहीं से भी अवमानना नहीं है. जो भी ट्वीट है उस में लोकतंत्र को नष्ट करने की अनुमति नहीं दिए जाने की बात है और यह अभिव्यक्ति अवमानना के दायरे में नहीं आती. हालांकि, खिलाड़ी भावना को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने जस्टिस बोबडे के बाइक वाले ट्वीट पर सफाई भी दी कि चूंकि बाइक स्टैंड पर थी, इसलिए मुझे हैलमैट पहनने की बात नहीं करनी चाहिए थी.

व्यापक हैं अदालत के माने

इस स्पष्टीकरण से एक अहम बात यह भी उजागर हुई कि कोई भी जज अदालत नहीं होता है. इस बात को विस्तार देते भोपाल के एक सरकारी कालेज में कानून की एक प्रोफैसर, नाम न छापने की शर्त पर, कहती हैं कि अकेला जज अदालत नहीं होता बल्कि वादी, प्रतिवादी उन के वकील, गवाह और अदालत के कर्मचारी भी अदालत का हिस्सा होते हैं. इन की अवमानना भी अदालत की अवमानना होती है. अगर कोई अदालत के कामकाज के घंटों के बाद किसी जज को किसी भी तरह से अपमानित करता है तो यह कंटैंप्ट नहीं होगा, बल्कि आपराधिक प्रकरण होगा.

लेकिन होता उलटा है. अकसर जज ही सब से ज्यादा अदालत की अवमानना करते हैं लेकिन वे चूंकि जज होते हैं इसलिए किसी की हिम्मत उन के खिलाफ बोलने या कार्रवाई करने की नहीं होती. उन का अपना एक अलग खौफ या आतंक होता है ठीक वैसा ही जैसा मंदिरों में पंडेपुजारियों का होता है. कर्मकांडों पर जो वे कह देते हैं वही धर्म हो जाता है.

भोपाल की एक अधिवक्ता की मानें तो अकसर जज गवाहों और वकीलों की खुलेआम बेइज्जती करते हैं लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते. ये वकील साहब एक संस्मरण सुनाती कहती हैं कि एक बार तो निचली अदालत के एक ऊंची जाति के जज ने एक दलित जाति के गवाह पर जातिगत कमैंट कर दिया था और मौजूद लोग चुपचाप सुनते रहे थे. मैं चूंकि प्रशांत भूषण नहीं हूं, इसलिए भी कुछ नहीं बोल पाई क्योंकि न केवल वे, बल्कि सारे जज मिल कर मेरा कैरियर तबाह कर देते. कहने की जरूरत नहीं कि अदालतों के भीतर होने वाली ऐसी घटनाएं रिकौर्ड में नहीं ली जातीं.

नैशनल लौ इंस्टिट्यूट, भोपाल से कानून की स्नातक अदिति श्रीवास्तव की मानें तो अकसर जज टाइप्ड हो कर रह जाते हैं और खुद को ही कानून समझने लगते हैं. जजों का सम्मान होना चाहिए लेकिन जो आतंक वे अदालत में क्रिएट कर देते हैं उस बाबत भी कुछ प्रावधान होने चाहिए. अकसर जज मुकदमे की स्टडी कर के नहीं आते हैं, इसलिए तारीख बढ़ाना या किसी एक पक्ष की मांग पर स्टेऔर्डर दे देना उन्हें सहूलियत वाला रास्ता लगता है, जिस से परेशानी मुवक्किलों को उठानी पड़ती है.

प्रशांत भूषण जैसे वकील चूंकि गरीबगुरबों की वकालत करते न्याय प्रक्रिया की ऐसी विसंगतियों को उजागर करते रहते हैं, इसलिए वे ज्यादा खटकते हैं पर और भी ज्यादा तब खटकते हैं जब वे राममंदिर पूजन के आयोजन पर आपत्ति उठाते हैं, प्रवासी मजदूरों की परेशानी को ले कर सरकार पर तंज कसते हैं, बाबा रामदेव के रुचि सोया मामले के घपले पर बोलते हैं, देवीदेवताओं पर टिप्पणी, मसलन, कृष्ण द्वारा लड़कियों को छेड़ने के प्रसंग का जिक्र उत्तर प्रदेश सरकार के एंटी रोमियो स्क्वैड के संदर्भ में करते हैं और आरएसएस व विहिप जैसे हिंदूवादी संगठनों के पाखंडों का मखौल उड़ाते हैं.

अवमानना कानून का औचित्य

3 दशकों से न्यायपालिका में पसरे भ्रष्टाचार को ले कर मुखर रहे प्रशांत भूषण के खटकने की और भी कई वजहें हैं. उन्हीं की पहल पर साल 2009 में जज अपनी जायदाद का ब्योरा देने को तैयार हो गए थे. तब एक हलफनामे  में उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के दस्तावेजी सुबूत जुटाना कितना मुश्किल काम है क्योंकि एक तो जजों के खिलाफ किसी कार्रवाई की इजाजत नहीं है, दूसरे, उन के खिलाफ एफआईआर लिखवाने तक के लिए भी पहले चीफ जस्टिस से इजाजत लेनी पड़ती है और ऐसी कोई अनुशासनात्मक संस्था नहीं है जिस की तरफ देखा जा सके. यानी, प्रशांत भूषण को घेरने की कई वजहें हैं जो उन जैसे संविधानभक्तों को ही कोर्ट के कठघरे में खड़ा करती हैं.

बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि उस वक्त और भी दिलचस्प हो जाती है जब प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार एन राम और अरुण शौरी अवमानना कानून 1971 को ही खत्म करने की मांग करने लगते हैं.  इन तीनों ने 31 जुलाई को दायर एक याचिका में मांग की कि अवमानना कानून 1971 का सैक्शन 2 (सी) (आई), संविधान के आर्टिकल 19 (1) (ए) के तहत मिली बोलने की आजादी के अधिकार का उल्लंघन करता है और साथ ही, यह असंवैधानिक व लाइलाज रूप से अस्पष्ट और जाहिरतौर पर मनमाना है, जिस की वजह से यह आर्टिकल 14 का भी उल्लंघन करता है. इन तीनों ने इस मसले पर और भी लंबीचौड़ी दलीलें दी हैं जिन पर अब महसूस होने लगा है कि आम लोगों की राय लिया जाना ज्यादा बेहतर होगा. हालांकि, यह मुकदमा इन लोगों ने

14 अगस्त को वापस ले लिया.

बहरहाल, तकनीकीतौर पर उलझे इस मामले से परे भोपाल की उक्त प्रोफैसर मानती हैं कि पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट के जो फैसले आए हैं उन में से अधिकतर उस के सरकारीकरण होने की पुष्टि करते हैं. इन में ताजा पीएम केयर फंड वाला है और ऐसी बातें प्रशांत भूषण साफसाफ कहते हैं तो उन्हें घेर लिया जाता है. अब देखते हैं क्या होगा क्योंकि मामला संवैधानिक तौर पर बहुत दिलचस्प हो चला है.

5 अगस्त की सुनवाई में प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन सहित दूसरे वकीलों से जस्टिस अरुण मिश्रा ने पूछा, ‘बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और फिर अवमानना, हम इस प्रणाली के ग्रेस को कैसे बचा सकते हैं?’ इस पर राजीव धवन का जवाब था कि प्रशांत भूषण ने एक स्पष्टीकरण दे दिया है जो इस पर विराम लगा सकता है.

लंबीचौड़ी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया. लेकिन यह किसी ने न सोचा और न पूछा कि जिन जजों पर प्रशांत भूषण ने भ्रष्ट होने के आरोप लगाए हैं उन्हें इस पर कोई एतराज है भी या नहीं और वे क्यों मानहानि का दावा नहीं ठोक रहे और क्या अदालतें भी यह चाहने लगी हैं कि लोग उस की कृपा पर निर्भर रहें.

आम लोग क्यों नहीं

अब फैसला जो भी आए, और मुमकिन है शांति भूषण के लिफाफे की तरह छू कर दिया जाए, लेकिन देश की अदालतों के हाल किसी से छिपे नहीं हैं जहां मुवक्किल इंसाफ की आस लिए सालों चक्कर लगाते रहते हैं और उन्हें तारीख पर तारीख मिलती रहती है. कई हिंदी फिल्मों और साहित्य में इसे बहुत बारीकी से दिखाया गया है. ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल से ले कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने भी अपनी रचनाओं में अदालतों की सचाई व हकीकत उकेरी है कि वहां दलालों का बोलबाला रहता है, बाबू सरेआम तारीख बढ़ाने के लिए जज की आंखों के सामने ठीक वैसे ही घूस लेता है जैसे मंदिर में विराजी मूर्ति के सामने पुजारी चढ़ावा बटोरता रहता है. न्याय दिलाने वाले वकील पैसे ऐंठने के लिए मुवक्किलों को गुमराह करते रहते हैं.

इन और ऐसी कई बातों से अदालतों की अवमानना क्यों नहीं होती, इस पर सोचने और बोलने को कोई तैयार नहीं. उलटे, इस बदहाली को नियति मान लेने की कोशिश हर कोई करता नजर आता है. देरी से मिला न्याय किसी अन्याय से कम नहीं वाली कहावत अकेले योगेश पर चरितार्थ नहीं, बल्कि लाखोंकरोड़ों लोग इसे रोज भुगतते हैं. ऐसा इसलिए कि न्याय प्रक्रिया से जुड़े लोगों, खासतौर से जजों, पर किसी का जोर नहीं चलता. उन का रसूख और रुतबा पंचायतों के जमाने सरीखा इस लोकतंत्र के दौर में भी है.

एक जमाना था जब गांव के नीम या पीपल के पेड़ के नीचे पंचायत बैठती थी.  बड़ीबड़ी मूंछों वाले ठाकुर पंडों से सलाहमशवरा कर जो फैसला सुना देते थे वही कानून हो जाता था, जिसे चुनौती देने वाला या एतराज जताने वाला अवमानना का पात्र माना जा कर बतौर सजा समाज, गांव और जाति से बाहर कर दिया जाता था. अब ऐसा तहसील स्तर से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में होता है. बस, तरीका थोड़ा बदल गया है. यानी, मानसिकता 18वीं सदी जैसी ही है जिस में यह सीधे नजर नहीं आने दिया जाता कि न्याय पैसे वालों के लिए सुलभ है क्योंकि वे समर्थ होते हैं और अकसर ऊंची जाति के होते हैं.

इस बात को अपने रिटायरमैंट के वक्त सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने यह कहते स्वीकारा भी था कि देश का लीगल सिस्टम अमीरों और ताकतवरों के पक्ष में हो गया है. कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है. लेकिन गरीबों के मुकदमों में देरी होती है.

इस बात को साबित करने के लिए कई मामले उपलब्ध हैं. 18 मई, 1993 को चेन्नई के एक युवा ड्राइवर लोकेशवरन की मौत एक सड़क हादसे में मौके पर ही हो गई थी. काम के दौरान होने वाली मृत्यु पर बने अधिनियम वर्कमैन कंपेंसेशन के तहत मृतक की मां बक्कियम ने मोटर ऐक्सिडैंट क्लेम ट्रिब्यूनल में मुआवजे के लिए क्लेम किया जिसे खारिज कर दिया गया. बक्कियम ने फिर अपील की और लड़ती रही. आखिर में 24 साल बाद मद्रास हाईकोर्ट ने उस के पक्ष में फैसला दिया और जस्टिस शैशासई ने बक्कियम से न्याय में देरी के लिए माफी भी मांगी.

लाखों में से एक मामले में अदालत को खुद की और न्यायिक प्रक्रिया की खामियां समझ आईं, लेकिन वे पीडि़ता से माफी मांगने से दूर हो गईं, ऐसा नहीं माना जा सकता. क्या यह एक गरीब महिला की अवमानना नहीं मानी जानी चाहिए? अब वक्त है कि यह किसी सरकार

या अदालत को नहीं, बल्कि आम लोगों को तय करना चाहिए. ऐसा क्यों होता है, इस पर जबलपुर हाईकोर्ट के युवा अधिवक्ता सौरभ भूषण कहते हैं, ‘‘लोगों में जागरूकता और चेतना का अभाव है और अकसर वकील और जज की घोषितअघोषित मिलीभगत इस को अंजाम देती है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा.’’ बकौल सौरभ, गांवदेहात के साथसाथ शहरी मुवक्किल भी सालोंसाल अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं. कई तो मुकदमा लड़तेलड़ते बिक और मर

भी जाते हैं, लेकिन उन्हें न्याय नहीं

मिल पाता.

29 जुलाई को इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी एक ऐसा मामला आया था जिस में

31 साल से फैसला नहीं हुआ. जस्टिस जे जे मुनीर की एकल खंडपीठ ने कहा, ‘‘सिविल जज (जूनियर डिवीजन) कोर्ट नंबर 1, मोहम्मदाबाद, गोरखपुर जिन के समक्ष वर्ष 1989 का निष्पादन केस नंबर 7 भोला बनाम सतीराम लंबित है, अगले 3 सप्ताह के भीतर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करेंगे कि यह मामला जो अब 31 साल पुराना हो गया है, अभी भी लंबित क्यों है और इस का फैसला क्यों नहीं किया गया है.’’ हाईकोर्ट ने निचली अदालत को सफाई या स्पष्टीकरण देने के लिए

3 सप्ताह का समय दिया.

तय हो जवाबदेही

लेकिन ऐसे लाखों मुकदमे देशभर की अदालतों में चल रहे हैं जिन पर कोई हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट संज्ञान नहीं

लेता क्योंकि अदालतों की कोई जवाबदेही तय नहीं है. सब से बड़ी अदालत की चिंता मुकदमे की लेटलतीफी, अदालतों में पसरा भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद, घूसखोरी वगैरह नहीं होती क्योंकि इस से उस की अवमानना नहीं होती. अवमानना होती है प्रशांत भूषण सरीखे कानून के जानकारों के ट्वीट से जो उस की सचाई जनता के सामने उजागर कर देते हैं. इस मामले का बड़ा असर हुआ है जिस के चलते भोपाल के योगेश तिवारी जैसे पीडि़तों में इतनी हिम्मत आ गई है कि वे अपनी भड़ास प्रशांत भूषण और उन के समर्थकों की तरह यह कहते निकालने लगे हैं कि अगर सच बोलना गुनाह है तो हम गुनाहगार हैं और कंटैंप्ट सिर्फ कोर्ट का नहीं, बल्कि क्लाइंट्स का भी होता है.  इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

जब ‘द कैरेवान’ की रिपोर्ट पर मचा था तहलका

निचली अदालतों के अलावा सुप्रीम कोर्ट की घपलेबाजी आएदिन उजागर होती रहती है, जिस के बारे में प्रशांत भूषण कुछ गलत नहीं कह रहे हैं कि पिछले 6 सालों में लोकतंत्र की हत्या में जजों ने अहम भूमिका निभाई है. इस आशय के कई मामले खूब चर्चित भी रहे हैं जिन में सुप्रीम कोर्ट और दूसरी कई एजेंसियों की भूमिका संदिग्ध रही है. ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट के जज बृजगोपाल लोया की रहस्मय मौत का है जिसे बेहद तथ्यपरक तरीके से दिल्ली प्रैस की लोकप्रिय इंग्लिश पत्रिका ‘द कैरेवान’ ने उठाया था तो देशभर में इस की चर्चा रही थी.

जज लोया चर्चित सोहराबुद्दीन की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या के उस मामले की सुनवाई कर रहे थे जिस में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मुख्य आरोपी थे. द कैरेवान ने लोया की मृत्यु के बारे में गहरी जांचपड़ताल कर कई रिपोर्टें प्रकाशित की थीं जिन का सार यह था कि लोया की मौत की जांच होनी चाहिए. तब लोया के साथी अन्य 4 जजों ने उन की मौत को प्राकृतिक करार दिया था. लेकिन, द कैरेवान के तर्कों और तथ्यों ने जो सवाल खड़े किए थे उन्होंने तहलका मचा दिया था. इस मामले में दायर कई जनहित याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए स्वतंत्र जांच करने से इनकार कर दिया था.

बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी, लेकिन इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के पक्ष में दलीलें देने वाले वरिष्ठ वकीलों की कड़ी आलोचना करते कहा था कि इन के खिलाफ अवमानना का मुकदमा चलाना चाहिए लेकिन वह इस का आदेश नहीं दे रहा है. यह उदारताभरी धौंस शांति भूषण मामले जैसी ही थी जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे.

इस के बाद मीडिया और आम लोगों का ध्यान सुप्रीम कोर्ट के गड़बड़झाले पर गया था. लोगों को याद आया था कि 28 जून, 2013 को जस्टिस पी सदाशिवम ने एक इंटरव्यू में माना था कि ऊंची अदालतों में भी भ्रष्टाचार है और कुछ जजों ने निष्पक्ष व तटस्थ ढंग से न्याय करने की अपनी कसम तोड़ी है. याद यह भी आया था कि जिन जस्टिस एस एच कपाडि़या पर प्रशांत भूषण ने स्टरलाइट मामले में उंगली उठाई थी, उन्होंने ही युधिष्ठिर की भूमिका में आते 2011 में यह कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मूल्य उस की सत्यनिष्ठा है और न्यायपालिका को स्वतंत्रता व जवाबदेही के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है. उन्होंने यह भी माना था कि उच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार हो सकता है और देश का संविधान ऐसी स्थिति को अकल्पनीय नहीं मानता.

एक तरह से इन दोनों ने मान लिया था कि सुप्रीम कोर्ट और न्याय व्यवस्था में सबकुछ ठीकठाक नहीं है और लोग जो इस के बारे में सोचते हैं उस की वजहें व उदाहरण भी हैं. लेकिन अहम बात 4 जजों का जस्टिस लोया की मौत को प्राकृतिक करार देना है कि उन की बात को क्या इस आधार पर सच मान लिया गया कि वे जज हैं और जज पंडेपुजारियों की तरह कभी झूठ नहीं बोलते. द कैरेवान की रिपोर्ट को कानून की दुनिया और देशभर के बुद्धिजीवियों ने ऐसी कई वजहों के चलते उतनी ही गंभीरता से लिया था जितना आज प्रशांत भूषण के अवमानना प्रकरण को लिया जा रहा है.

धर्मकर्म सिखाती अदालतें

प्रशांत भूषण की मंशा साफ है कि अदालतें, खासतौर से सुप्रीम कोर्ट, का सरकारीकरण हो रहा है. जाने क्यों वे सीधे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे कि दरअसल अदालतों का धार्मिकीकरण भी हो रहा है.  इस की एक मिसाल 2 अगस्त को हाईकोर्ट की इंदौर बैंच के एक फैसले से समझ में आई. अप्रैल के महीने में विक्रम बागरी नाम के युवक ने एक महिला से छेड़छाड़ की थी. पीडि़ता ने उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. विक्रम जब जमानत के लिए हाईकोर्ट पहुंचा तो अदालत ने जमानत देने में अजीब सी शर्त रखी जो धर्मप्रेरित ज्यादा लगती है, कानून से तो उस का कोई वास्ता है, ऐसा लगता ही नहीं.

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि 3 अगस्त को रक्षाबंधन के दिन विक्रम अपनी पत्नी सहित पीडि़ता के घर जा कर उस से आग्रह करेगा कि वह उसे भाई के रूप में स्वीकार ले और वह पीडि़ता को उस की रक्षा का वचन भी देगा. इतना ही नहीं, वह मिठाई और 11 हजार रुपए भी पीडि़ता को देगा. अगर वह ऐसा करता है और इस के फोटोग्राफ भी अदालत में पेश करता है तो उसे जमानत दे दी जाएगी. ऐसा हुआ भी. राखी के दिन विक्रम पीडि़ता के घर गया और अदालत की शर्त का पालन किया.

क्या यह जमानत का आधार होना चाहिए था जिस में अदालत ने कानून को किनारे करते धर्मकर्म के तौरतरीकों से काम लिया और जबरन उस आदमी को पीडि़ता का भाई बनवा दिया, जिस ने उसे सरासर छेड़ते मानसिक व शारीरिक  तौर पर प्रताडि़त किया था. क्या यह न केवल पीडि़ता, बल्कि समूची स्त्रीजाति की अवमानना नहीं है.  इस से समाज में क्या मैसेज जाएगा. जाहिर यही है कि पहले औरतों को छेड़ो, फिर राखी बंधवा कर जमानत ले लो.

इस ऊटपटांग फैसले पर हर कोई हैरान है कि अदालतें न्याय की यह कौन सी परिभाषा और उदाहरण पेश कर रही हैं जिस से छेड़छाड़ की प्रवृत्ति पर बजाय अंकुश लगने के, उसे और बढ़ावा मिलेगा. हाईकोर्ट ने सरासर पुरुषवादी मानसिकता दिखाई और भाईबहन के पवित्र रिश्ते को पंचायतछाप इंसाफ देते कलंकित ही किया है क्योंकि उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है. अब साफ दिख रहा है कि आरोपी बाइज्जत बरी भी हो जाएगा क्योंकि पीडि़ता अब यह नहीं कह सकती कि उस के मुंहबोले भाई ने उसे छेड़ा था. इस मामले में भी अदालत की अवमानना खुद अदालत ने ही कर डाली है.

31 अगस्त के फैसले से भी महसूस हुआ कि मुद्दा धार्मिकता बनाम तार्किकता हो गया था जिसे न तुम हारे न हम जीते की तर्ज पर ला कर पिंड छुड़ा लिया गया, ठीक वैसे ही जैसे महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का वध किया था. यह प्रसंग बड़ा दिलचस्प है कि सिचुएशन कुछ ऐसी हो गई थी कि अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को मारा जाना अनिवार्य हो गया था यानी बीच का रास्ता यानी सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाला यह निकाला गया कि अर्जुन युधिष्ठिर को गाली दे दे, इस से ही उन की मृत्यु हुई मान ली जाएगी.

क्षमा, धर्म और संयोग

फैसले वाले दिन एक अजब इत्तफाक देखने में आया कि जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट प्रशांत भूषण के सामने लगभग लाचार होते उन से माफी मांग लेने की गुजारिश कर रहा था तब दिगंबर जैन समुदाय के लोग परिचितों से माफी मांग रहे थे. दरअसल, जैन धर्म के सिद्धांतों में से पहला और अहम है उत्तम क्षमा मांगना जिसे बाकायदा समारोहपूर्वक संपन्न किया जाता है. 10 दिवसीय प्रयूषण पर्व की समाप्ति इस क्षमावाणी पर्व से होती है. इस दिन जैनी सामने वाले से सालभर में जानेअनजाने में किए गए ऐसे कृत्यों के लिए माफी मांगते हैं जिन से किसी का दिल दुखा हो. क्षमा मांगने के लिए मिच्छामी दुकडुम शब्द का इस्तेमाल किया जाता है.

माफी बड़ी अच्छी चीज है जिस का प्रावधान हरेक धर्म में है कि पहले गलती या पाप करो, फिर माफी मांग कर उस की सजा से बच जाओ. इस से खुद के पापी न होने की फीलिंग भी आती है. सार यह है कि हर धर्म की नजर में आदमी प्राकृतिक और स्वाभाविक पापी है, इसलिए उस से हर कभी कहलवाया जाता है कि हे प्रभु, मेरे पापों को माफ करना (फिर भले ही वे उस ने न किए हों. हालांकि, इस का निर्धारण धर्मग्रंथ और गुरु करते हैं).

सुप्रीम कोर्ट प्रशांत भूषण पर माफी का दबाव डाल कर या विकल्प दे कर उन्हें पापमुक्त ही करना चाह रहा था, लेकिन, प्रशांत भूषण ने आध्यत्मिक सा जवाब यह दिया कि अगर माफी मांगूंगा तो यह अंतरात्मा यानी चेतना की अवमानना होगी. यानी, माफी मुंह से नहीं, दिल से मांगी जाती है. जैन धर्म में एक और दिलचस्प बात यह कही गई है कि क्षमा मांगने वाले से बड़ा क्षमा कर देने वाला होता है. आई एम सौरी, माफ कर दो या मिच्छामी दुकडुम तो मुंह उठा कर कोई भी बोल सकता है लेकिन किसी को माफ करने के लिए जो कलेजा चाहिए वह आजकल के मानवों में नहीं मिलता. यह कहीं स्पष्ट नहीं है कि जो माफी न मांगे उसे माफ किया जा सकता है या नहीं.

अच्छा तो यह होता और शायद 10 सितंबर को हो भी कि बड़प्पन दिखाते खुद सुप्रीम कोर्ट ही प्रशांत भूषण को माफ कर दे क्योंकि वे नादान हैं और उन्हें नहीं मालूम (या औरों से बेहतर मालूम है) कि वे क्या कह रहे हैं. अदालत नहीं चाहती, कोई धर्म भी नहीं चाहता कि आप सिर पर गिल्ट की गठरी लादे जिएं,? वह भी उस सूरत में जब माफी निशुल्क और सहजता से उपलब्ध हो.

हृदय परिवर्तन-भाग 3: दिवाकर ने किस काम के लिए मना किया था?

लेखिका-रेणु दीप

उसी दिन शाम को घर वापस लौटने के लिए उस ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था. भाई के कमरे के सामने से गुजरते हुए अनायास ही वाणी के कठोर शब्द कानों में पड़े थे, ‘क्यों जी, यह दीदी क्या हमेशा यों ही इतने महंगे उपहार देदे कर जाती हैं? फिर तो वापसी में इन्हें भी इतने महंगे उपहार देने की आफत आती होगी. देखोजी, एक बात ध्यान से सुन लेना, मैं अपने मायके से लाईर् चीजों में से एक तिनका भी नहीं देने वाली. इन लोगों को जो कुछ भी लेनादेना हो, उसे तुम्हें अपनी तनख्वाह से ही देना होगा.’

तभी अक्षत के तीखे स्वर कानों में पड़े थे, ‘यह क्या, तुम दीदी के लाड़प्यार को लेनदेन के तराजू पर तोलने लगीं? इस घर में आज तक तो हम ने दीदी के इतने प्यारभरे तोहफों को कभी इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा कि इन्हें दे कर दीदी ने अपना बो झ हम पर लाद दिया. स्नेहभरे इन तोहफों में लिपटी अपनत्व और प्यार की खुशबू भी पहचानना सीखो, इन से जुड़ी उन के निश्च्छल प्यार की अनमोल भावनाओं को पहचानना सीखो. लेनदेन में मिलने वाली बेहिसाब खुशियों की सुखद अनुभूति की पहचान करना सीखो, नहीं तो जीवनभर बस, उस की कीमत के जोड़घटाव में ही अपना समय जाया कर बैठोगी.’

भाई के मुंह से अपनी ममता का सही मोल आंके जाने के सुखद एहसास ने भाभी के कड़वे स्वरों से उमड़ आए आंखों के आंसुओं को भीतर ही भीतर सुखा डाला था.

भाई के विवाह के बाद पड़े पहले रक्षाबंधन की कटु यादें उस की स्मृति में हमेशा जीवन के कड़वे अनुभवों में शायद सदैव सब से ऊपर दर्ज रहेंगी. इस बार करीब 2 वर्षों की लंबी अवधि बीत जाने पर भाई के साथ भाभी के न्योते का भी मनुहारभरा खत पा उस का मन रक्षाबंधन का त्योहार वहीं मनाने के लिए मचल उठा था. सो, 2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की तैयारी कर वह भाई के घर पहुंच गईर् थी.

वे 2 दिन कितनी जल्दी बीत गए थे, वाणी को पता भी न चला था. हां, इस बार यह जरूर गनीमत रही थी कि संक्षिप्त मायके प्रवास से वह किसी खास अप्रिय कड़वे अनुभव की सौगात साथ नहीं लाई थी. हमेशा की तरह भाई के लिए उस ने एक बहुत सुंदर सा स्वेटर खरीदा था. लेकिन पिछली बार के कटु अनुभव से सबक सीख उस ने वाणी के लिए कोई भी उपहार, महंगा या सस्ता, नहीं खरीदा था.

भाई का उपहार तो उस ने मौका देख अकेले में उसे थमा दिया था. रक्षाबंधन वाले दिन भाई और भाभी को राखी बांध भाभी को उपहारस्वरूप उस ने एक सुंदर और काफी कम कीमत का हलका सा चांदी का सैट उपहार में दिया था. मां इस बार घर पर नहीं थीं. सो, चलते वक्त भाभी ने उसे एक सोने की गिन्नी थमाई थी यह कहते हुए, ‘‘इस बार आप 2 साल बाद आई हो. जाते वक्त मांजी यह गिन्नी मु झे आप को देने के लिए कह गई थीं.’’

वाणी से विदा लेते वक्त उस के द्वारा भेंटस्वरूप दी गई गिन्नी उस ने वाणी की मुट्ठी में हौले से सरका दी थी यह कहते हुए, ‘‘भाभी, आजकल हम जरा तंगी में चल रहे हैं, तो कोई खास उपहार आप के लिए नहीं जुटा पाई. मेरी तरफ से यही रखो, मेरी प्यारभरी सौगात सम झ कर.’’

2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की यादों में डूबतउतराते वापसी की यात्रा आंखों ही आंखों में कट गई थी. घर पहुंच पति का खुशनुमा सान्निध्य भी पिछले दिनों की यादों को अवचेतन में धकेल पाने में असमर्थ रहा था. तभी शाम को फोन की घंटी घनघनाई थी और फोन पर वाणी की आवाज ने भावना को आश्चर्य के सुखद एहसास से चौंका दिया था, ‘‘दीदी, ठीकठाक पहुंच गईं न. इस बार तो आप का आना न आना बराबर ही रहा. कहीं मायके में भी बस 2 दिनों के लिए आया जाता है? अब दशहरे पर आप को जीजाजी के साथ यहां आना है, पूरे महीनेभर के लिए, जिस से कि फुरसत से आप के साथ का आनंद उठा सकूं. दीदी, प्लीज, वादा कीजिए कि आप जरूर आएंगी. बोलो न दीदी, आओगी न?’’

वाणी के सरस मिश्री से घुले स्वर कानों में मधुर घंटी से घनघना उठे. भर्राए स्वरों से भावना बस यही कह सकी थी, ‘‘हां री, तू इतने प्यार से बुलाए और मैं न आऊं, यह भी कभी हो सकता है? दशहरे की छुट्टियों में हम जरूर आएंगे.’’ ठूंठ से सूखे एक नए रिश्ते को अपनी ममता के धूपपानी से सींच और बदले में उसे अपनत्व की हरियाली से हराभरा देख भावना का खोया विश्वास एक बार फिर से निस्वार्थ प्यार की तिलिस्मी गुणात्मक ताकत में पुख्ता हो उठा था.

हृदय परिवर्तन-भाग 2: दिवाकर ने किस काम के लिए मना किया था?

लेखिका-रेणु दीप

इतनी देर तक प्रतीक्षा करवा कर बाहर आने की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ खिन्न मन से भाई भी बोल पड़ा था, ‘अरे दीदी, इस की कुछ न पूछो, आधा दिन तो इस का मेकअप करने में ड्रैसिंग टेबल के सामने ही गुजर जाता है.’

उस ने साफ देखा था, भाई के यों बोलने से वाणी का चेहरा गुस्से से तन गया था और किंचित रोष से भर कर उस ने अत्यंत तल्ख, व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया था, ‘बचपन से हमारी मां ने हम में यही आदत डाली है कि ड्राइंगरूम में बिना सलीके से तैयार हुए कभी कदम तक नहीं रखना है. हमारे यहां तो काफी ऊंचे तबके के लोगों का उठनाबैठना रहता है. कभी जिला जज आए होते हैं तो कभी पुलिस अधीक्षक. रोजाना एकाध मंत्री भी आए ही रहते हैं. अब इतनी ऊंचीऊंची हस्तियों के सामने यों लल्लुओं की तरह तो नहीं जा सकते न.’

यह कहते हुए बरबस ही उस की निगाह भावना के रेल सफर के दौरान हुए धूलधूसरित कपड़ों पर पड़ गईर् थी और भावना शायद पहली बार कपड़ों के प्रति अपनी लापरवाहीभरे व्यवहार से असहज हो उठी थी.

उसे आज तक याद है, पहुंचने के अगले ही दिन भाई के औफिस जाने के बाद वह भाभी से बातचीत करने के उद्देश्य से उस के कमरे में जा कर बैठी थी. वाणी अपने शोध प्रबंध लिखने के लिए पढ़ने में तल्लीन थी. उस ने भाभी से बातचीत शुरू करने का प्रयास किया था. लेकिन वाणी की उदासीन हांहूं ने उसे आखिरकार लौट आने को विवश कर दिया था.

दिन ढले तकरीबन 4 बजे वाणी के सो कर उठने के बाद वह फिर बोली थी, ‘वाणी, फ्रैश हो कर बाहर ही आ जाओ’, पर वाणी की रोबीली और दोटूक बातें सुन कर मांबेटी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था. भावना को पहली बार एहसास हुआ कि वाणी की बात से उस के उच्च अभिजात्य परिवार के होने के दंभ की  झलक आ रही है. वह तो खैर ननद है उस की, भविष्य में गिनती के दिनों के लिए गाहेबगाहे महज एक मेहमान की हैसियत से ही वाणी से मिलने की संभावना थी, लेकिन मां के अत्यंत लाड़दुलार के बावजूद वाणी उन्हें एक बड़े बुजुर्ग का मान नहीं दे रही थी.

विवाह के इतने महीने गुजर जाने के बाद तक उस ने रसोई में कदम नहीं रखा था. मां ने ही भावना को बताया था कि उस की रसोई के प्रति इस उदासीनता को देखते हुए घर के किसी भी सदस्य ने उसे आज तक एक शब्द भी नहीं कहा था, बल्कि तीनों वक्त मां उन सब को एकसाथ खाने की मेज पर बैठा कर बहुत लाड़ से गरम खाना खिलाया करती थीं और अपनी एकलौती बहू को तो खिलाते वक्त उस के चेहरे से लाड़ टपकता था.

वाणी की रसोई में जाने की अनिच्छा भांप कर मां खुद ही अपने लिए फुलके सेंक लिया करती थीं, पर फिर भी वाणी के प्रति उन के लाड़दुलार में कोई कमी नहीं आई थी. उन सभी का यह मानना था कि नितांत अनजाने घर, अनजाने परिवेश से आई एक लड़की को ससुराल के नए परिवेश के रहनसहन, आचारविचार अपनाने में बहुत वक्त लगा करता है.इसलिए वे सब, यानी कि भावना और मां अत्यंत धैर्य से वाणी के मन को अपने निश्च्छल, निस्वार्थ प्रेम से अपने परिवार का एक अंतरंग सदस्य बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वे वाणी को उस के मौन कवच से बाहर निकाल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.उन्हीं दिनों घर की आया कुछ दिनों तक नहीं आई थी. उस ने और मां ने ही मिल कर घर के सभी काम किए थे, वाणी के कमरे का  झाड़ूपोंछा व सफाई भी वह करती आ रही थी, वाणी और भाई के कपड़े भी घरभर के कपड़ों के साथ उस ने ही धोए थे. सुबहशाम की चाय वाणी के कमरे तक पहुंचाना भी उस ने अपने काम में शुमार कर लिया था.

सारा वक्त उसे गंभीरतापूर्वक अपना शोध प्रबंध लिखने में व्यस्त देख भावना करीने से उस की थाली सजा उस के कमरे में ही उसे गरमागरम फुलका खिलाया करती थी. लेकिन न जाने वह लड़की किस मिट्टी की बनी हुई थी, इन सब अपनत्व, ममताभरे हावभावों के बावजूद वाणी इस लगाव की भाषा को सम झ नहीं पा रही थी.

एक दिन वाणी के कमरे की सफाई करते समय भावना की नजर उस के गले में पड़ी एक सुंदर नाजुक चेन पर पड़ गई. और वह बोल उठी थी, ‘वाणी, यह चेन कब बनवाई तुम ने? इस की गठन तो बहुत बारीक और सुंदर है,’ वह  झट बोल उठी थी, ‘यह चेन तो मेरी मौसी का उपहार है, जिसे देते समय उन्होंने कहा था कि यह चेन तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी.’

वाणी ने किसी काम से अपनी अलमारी खोली और भावना की नजर उस की एक बहुमूल्य आकर्षक साड़ी पर पड़ गई. उस के मुंह से हठात ही निकल पड़ा, ‘यह साड़ी भी तुम्हारी विदेशी लगती है. यहां न तो यह कपड़ा मिलने वाला है और न ही यह अद्भुत रंग संयोजन.’

भावना की इस टिप्पणी पर वाणी ने कहा था, ‘दीदी, यह विशुद्ध मलमल सिल्क की है. यह मेरी भाभी ने शादी के तोहफे के रूप में दी है. यह कहते हुए कि इन्हें मैं किसी भी हालत में किसी को भेंट में न दूं. कोई मांगे, तो भी नहीं.’

वाणी की बातों को सुन कर इस बार भावना के जेहन में जोरों की घंटी बज उठी थी, ‘यह क्या, कहीं वाणी अपनी चीजों की प्रशंसा को मेरी अप्रत्यक्ष फरमाइश तो नहीं रही.’

वाणी की इन टिप्पणियों को सुन कर भावना दिनभर इसी उधेड़बुन में खोई रही. वह अपने उच्च जहीन परिवार की उच्चशिक्षित लड़की और इतनी रुग्ण मानसिकता. इसीलिए तो बड़ेबुजुर्गों द्वारा तय किए हुए विवाहों को जुआ कहा जाता है. अच्छे स्वभाव का जीवनसाथी मिल गया तो अच्छी बात, वरना जिंदगीभर सिर पकड़े बैठे रहिए और जीवनसाथी के बेमेल अभाव से तालमेल बैठाते रहने की कोशिश में एक असहज जीवन जीने का अभिशाप ढोते रहिए. भाई के लिए मन पीड़ा से भर आया था कि वह जीवन को ताउम्र कैसे निभा पाएगा?

इन कुछ ही दिनों में भावना ने वाणी का स्वभाव अच्छी तरह से परख लिया था और कहा था कि वाणी के साथ निभाने की भरसक कोशिश उसे ही करनी होगी और अत्यधिक धैर्य व सहिष्णुता के साथ उसे उस का मन जीतने के प्रयास करने होंगे. मां को भी उस ने यह बात भलीभांति सम झा दी थी.

आखिर रक्षाबंधन का दिन आ ही गया. बड़े लाड़ से उस ने भाई की कलाई पर सुंदर राखी बांध असीम स्नेहभाव से उस के माथे को चूम लिया था. वाणी की चूड़ी में भी सुंदर सा रेशमी जरी के काम वाला लुंबा बांध उस के माथे पर भी उस ने सहजस्नेह भाव से अपना स्नेह अंकित कर दिया था.

सदा की ही भांति भाई ने राखी बंधवाई थी. एक सुंदर सी बहुमूल्य साड़ी उसे भेंट में दी थी और भावना ने भी भैयाभाभी को अपने तोहफे देने का यही सही मौका सम झ अपने लाए उपहार दोनों को थमा दिए थे. भाई

तो खैर सदा से ही उस के तोहफे बड़ी खुशीखुशी स्वीकार करता आया था.

शादी से पहले तो वह बहन से अपनी मनपसंद चीजों को मांग लिया करता था. लेकिन न जाने क्यों, मोतियों का इतना सुंदर जड़ाऊ सैट पा कर भी वाणी खुश होने के बदले, न जाने किस सोच में डूब गईर् थी. उस को खुश न देख कर भावना पूछ बैठी थी, ‘क्या हुआ वाणी, क्या यह सैट पसंद नहीं आया? आजकल तो इस का बहुत फैशन है.’

वाणी के जवाब ने उन सभी को अचंभित कर दिया था, ‘दीदी, रक्षाबंधन पर तो हमारा आप को उपहार देना जंचता है. यों मु झे इतना कीमती तोहफा दे कर तो आप भाई के सिर पर अपना बो झ लाद रही हो. अब आप हुईं हमारी ननद. आप के उपहार के बदले में भी तो अब हमें कुछ देना ही पड़ेगा न. आप हमारे लिए इतने महंगे तोहफे, उपहार न ही लाया करो तो अच्छा रहेगा.’ और फिर अक्षत की ओर मुखातिब हो कर वह बोली थी, ‘देखो जी, ननदजी को देने में जरा भी कोताही मत बरतना, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई यह कहे कि भाभी ने आ कर भाई को पट्टी पढ़ा दी.

‘मेरी तरफ से तुम्हें खुली छूट है, अपनी बहनों को जो चाहे दो. मैं कभी तुम्हारे आड़े आने वाली नहीं, बहनों का तो बस एक ही रिश्ता होता है भाइयों से और वह है लेने का. तुम्हारे माथे तो 5 बहनें हैं. अब निबाहना तो होगा ही उन्हें, चाहे जी कर, चाहे मर कर.’

सहज स्नेह के प्रतीक उन उपहारों के बदले इतनी कड़ी आलोचना सुननी पड़ेगी, भावना ने यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इसीलिए वहां खड़े मां, बाबूजी, भाई सभी के सभी हतप्रभ हो उठे थे.

 

बिना लहसुन-प्‍याज के ऐसे बनाएं पाव भाजी

वैसे तो पाव भाजी का नाम सुनते ही बहुत से लोगों के मन में पानी आ जाता है. ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं बिना लहसुन प्याज की पाव भाजी कैसे घर पर बनाई जाती है.

सामग्री-

–  शिमला मिर्च (2 कप)

–  कटे टमाटर (2 कप)

– मिर्च पाउडर (2 चम्‍मच)

– पाव भाजी मसाला (1/2 चम्‍मच)

–  नमक (स्‍वादानुसार)

– गोभी के टुकडें (3/4 कप उबली)

– सूखी हरी मटर (1/3 कप उबली और पिसी हुई)

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– 2 चम्‍मच कटी धनिया

– 1 चम्‍मच तेल

– 2 चम्‍मच बटर

– 1 चम्‍मच जीरा

पाव के लिये 8 पाव

– 8 चम्‍मच बटर

– 1 चम्‍मच कटी धनिया

बनाने की विधि-

– एक बडे से तवे पर तेल गरम कीजिये, उसमें जीरा डालिये.

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– जब जीरा चटकने लगे तब 2 चम्‍मच लाल कशमीरी मिर्च का पेस्‍ट डाल कर कुछ सेकेंड के लिये पकाएं.

– अब कटी हुई शिमला मिर्च, टमाटर, पाव भाजी मसाला, नमक और ½ कप पानी मिलाएं तथा 5 से 7 मिनट तक के लिये पकाएं.

– पकाते समय लगातार सब्‍जियों को मैश करती रहें.

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– अब उबली हुई गोभी, हरी मटर, धनिया और 1/3 कप पानी डाल कर फिर से मैश करें.

– इसके बाद सब्‍जियों को अच्‍छी तरह से पकाए, लगभग 5 से 7 मिनट.

– पाव के लिये- दो पाव को बीच से काटिये और किनारे रख दीजिये.

–  फिर तवा गरम करें, 2 चम्‍मच बटर और ¼ चम्‍मच पाव भाजी मसाला डाल कर उस पर कटे हुए पाव रखें. मध्‍यम आंच पर पकाएं, हल्‍का भूरा कर के सर्व करें.

अंकिता लोखंडें ने ऐसे मनाया बौयफ्रैंड विक्की जैन के भांजे-भांजी का बर्थ डे

एक लंबे समय के बाद अंकिता लोखेंडे को अपने परिवार और दोस्तों के साथ खुशा देखा गया है. अंकिता लोखंडें के बारे में कुछ कहने की जरुरत नहीं है वह इन दिनों लगातार चर्चा में बनी हुई हैं.

अंकिता ने अपने ब्यॉफ्रेंड विक्की जैन के परिवार वालों के साथ मस्ती करते देखा गया है. दरअसल, विक्की जैन के घर दो महीने पहले ही खुशियों ने दस्तक दी है. दरअसल, विक्की की बहन ने जुड़वा बच्चों का जन्म दिया है. जिससे उनके परिवार में खुशियों का माहौल बना हुआ है.

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इसी बीच अंकिता लोखंडें ने विक्की जैन के भांजे भाजी का जन्मदिन मनाया. इस दौरान अंकिता ने अपने घर पर पार्टी रखी थी और सभी के साथ खूब मस्ती करती दिखी. अंकिता के भांजे और भांजी के साथ वह खुद वच्ची बन गई थी.

 

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Mere do Anmol Ratan ek hai scotchi toh ek hatchi ❤️ #myboys?? #scotchhatchi

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Gorgeousness overload

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अंकिता लोखंडें के तस्वीर को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वह एक लंबे वक्त के बाद खुस नजर आ रही हैं.  वहीं अंकिता लोखंडें के ऊपर डबल बन काफी जच रहा है.

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अंकिता की इस क्यूट सी तस्वीर को लोग भी खूब पसंद कर रहे हैं. वहीं फैंस भी लगातार कमेंट कर रहे हैं. अंकिता की मम्मी वंदना फडनीस भी पार्टी के दौरान काफी खुश नजर आ रही थीं.


Gorgeousness overload

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इसके साथ ही विक्की जैन का पूरा परिवार भी बहुत खुस नजर आ रहा था. अंकिता लोखंडें के नए लुक को सभी पसंद कर रहे हैं. फिलहाल अंकिता लोखंडें अपने परिवार के साथ हैं.

विक्की और उन्होंने शादी के बारे में कुछ नहीं बताया है कि कब करने जा रहे हैं शादी.

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