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लेखिका-रेणु दीप

इतनी देर तक प्रतीक्षा करवा कर बाहर आने की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ खिन्न मन से भाई भी बोल पड़ा था, ‘अरे दीदी, इस की कुछ न पूछो, आधा दिन तो इस का मेकअप करने में ड्रैसिंग टेबल के सामने ही गुजर जाता है.’

उस ने साफ देखा था, भाई के यों बोलने से वाणी का चेहरा गुस्से से तन गया था और किंचित रोष से भर कर उस ने अत्यंत तल्ख, व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया था, ‘बचपन से हमारी मां ने हम में यही आदत डाली है कि ड्राइंगरूम में बिना सलीके से तैयार हुए कभी कदम तक नहीं रखना है. हमारे यहां तो काफी ऊंचे तबके के लोगों का उठनाबैठना रहता है. कभी जिला जज आए होते हैं तो कभी पुलिस अधीक्षक. रोजाना एकाध मंत्री भी आए ही रहते हैं. अब इतनी ऊंचीऊंची हस्तियों के सामने यों लल्लुओं की तरह तो नहीं जा सकते न.’

यह कहते हुए बरबस ही उस की निगाह भावना के रेल सफर के दौरान हुए धूलधूसरित कपड़ों पर पड़ गईर् थी और भावना शायद पहली बार कपड़ों के प्रति अपनी लापरवाहीभरे व्यवहार से असहज हो उठी थी.

उसे आज तक याद है, पहुंचने के अगले ही दिन भाई के औफिस जाने के बाद वह भाभी से बातचीत करने के उद्देश्य से उस के कमरे में जा कर बैठी थी. वाणी अपने शोध प्रबंध लिखने के लिए पढ़ने में तल्लीन थी. उस ने भाभी से बातचीत शुरू करने का प्रयास किया था. लेकिन वाणी की उदासीन हांहूं ने उसे आखिरकार लौट आने को विवश कर दिया था.

दिन ढले तकरीबन 4 बजे वाणी के सो कर उठने के बाद वह फिर बोली थी, ‘वाणी, फ्रैश हो कर बाहर ही आ जाओ’, पर वाणी की रोबीली और दोटूक बातें सुन कर मांबेटी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था. भावना को पहली बार एहसास हुआ कि वाणी की बात से उस के उच्च अभिजात्य परिवार के होने के दंभ की  झलक आ रही है. वह तो खैर ननद है उस की, भविष्य में गिनती के दिनों के लिए गाहेबगाहे महज एक मेहमान की हैसियत से ही वाणी से मिलने की संभावना थी, लेकिन मां के अत्यंत लाड़दुलार के बावजूद वाणी उन्हें एक बड़े बुजुर्ग का मान नहीं दे रही थी.

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