सुप्रीम कोर्ट में चला यह दिलचस्प मुकदमा है जिस में प्रशांत भूषण को 1 रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई या फिर 3 महीने की कैद भुगतने को कहा गया. इस मुकदमे ने कई मिथक तोड़े हैं तो कई गढ़े भी हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लाचारी और भी ज्यादा हैरान कर देने वाली है जो अपने ही बिछाए जाल में फंसा नजर आ रहा है. पेश है अदालतों की बदहाली की पड़ताल करती खास रिपोर्ट.
‘प्रशांत भूषण के कंटैंप्ट औफ कोर्ट से पहले आप मेरे कंटैंप्ट औफ क्लाइंट मुद्दे पर मेरी पीड़ा सुनिए, क्योंकि मैं एक सभ्य शहरी हूं और 10 वर्षों से तलाक के लिए अदालतों की चौखट पर एडि़यां रगड़ते न्याय पाने के लिए तरस रहा हूं. मैं पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव या प्रलोभन के कह रहा हूं कि अदालत मुझे न्याय नहीं दे पा रही है. मेरी जवानी और कैरियर दोनों बरबाद हो गए हैं. मैं पूछ रहा हूं, क्या हमारी अदालतें और न्याय व्यवस्था इतनी अपाहिज, लाचार और कमजोर हैं कि सालोंसाल तक तलाक के एक मुकदमे का फैसला न कर पाएं, क्या यह अवमानना के दायरे में नहीं आना चाहिए?’
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यह कहना है भोपाल के जानेमाने पत्रकार योगेश तिवारी का जो अब
44 साल के हो चुके हैं. उन का अपनी पत्नी से 16 नवंबर, 2010 को तलाक हो गया था. उन की शादी 13 जून, 2006 को हुई थी. जल्द ही पतिपत्नी दोनों में मतभेद उभरना शुरू हो गए तो वे तलाक के लिए अदालत गए. दोनों पक्षों को सुनने के बाद क्रूरता के आधार पर जिला अदालत ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (ए) के तहत विवाहविच्छेद यानी तलाक की डिक्री पारित कर दी.
जिस फैसले को योगेश परेशानी का अंत समझ रहे थे वह, दरअसल, जिंदगी की सब से बड़ी परेशानी का प्रारंभ साबित हुआ. पत्नी ने हाईकोर्ट में अपील कर स्थगन आदेश ले लिया जो आसानी से उसे मिल भी गया. 10 साल से योगेश लगभग हर महीने भोपाल से जबलपुर जा रहे हैं, लेकिन उन के मुकदमे की सुनवाई नहीं हो रही. कभी जज बदल जाता है तो कभी तारीख लग यानी बढ़ जाती है. योगेश के 86 वर्षीय पिता कैंसर, दिल की बीमारी और डाइबिटीज से ग्रस्त हैं और मां बुजुर्गावस्था के चलते अशक्त हैं. इन दोनों की देखभाल की जिम्मेदारी अकेले योगेश पर है.
जब 22 मार्च को देश में लौकडाउन थोपा गया तो योगेश की न्याय की बचीखुची आस भी जाती रही, क्योंकि जब कामकाज के आम दिनों में उन का मुकदमा सुनवाई के लिए नंबर पर नहीं आया तो इन खास दिनों में क्या आता जब अदालतें भी लगभग बंद थीं और सिर्फ विशेष मुकदमों की सुनवाई, वह भी वर्चुअल की जा रही थीं. लेकिन, योगेश हिम्मत हारने वालों में से नहीं हैं, वे कहते हैं, ‘‘आप या कोई और मेरे तनाव की कल्पना भी नहीं कर सकते, इस के लिए आप को मुझ सी हालत से गुजरना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता कि कोई इस हाल से गुजरे कि हर महीने 8-10 हजार रुपए मुकदमे पर खर्च करे. अपने अशक्त बुजुर्ग मांबाप को भगवान भरोसे छोड़ कर 2 दिनों के लिए भोपाल से जबलपुर जाए और ‘दामिनी’ फिल्म वाली तारीख पे तारीख की तख्ती लिए मुंह लटकाए वापस आ जाए.’’
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काफी सोचने के बाद योगेश ने बीती 9 मई को जबलपुर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिख कर दूसरी शादी की इजाजत मांगी. अपने पत्र में उन्होंने अपनी पारिवारिक स्थिति का ब्योरा देते साफ कहा कि प्रकरण के निराकरण की निकट भविष्य में संभावना क्षीण है, इसलिए उन्हें दूसरी शादी की इजाजत दी जाए. बकौल योगेश, उन का एक खतरनाक ऐक्सिडैंट हो चुका है जिस से उन्हें अपने दैनिक कामकाज करने में कठिनाई होने लगी है. अब वे किसी के सहारे की जरूरत शिद्दत से महसूस करने लगे हैं और अपने वृद्ध मातापिता की सेवा के लिए भी उन्हें एक पार्टनर की जरूरत है. लेकिन, दिक्कत यह है कि अपनी पत्नी के स्थगन आदेश के चलते वे दूसरी शादी कानूनन नहीं कर सकते.
उम्मीद के मुताबिक, इस पत्र पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई. योगेश ने इस बार मीडिया का सहारा लिया. फर्क इस से भी कुछ नहीं पड़ा, लेकिन एक बात सिद्ध हुई कि अदालतों के बारे में बोलना, आलोचना करना या अपनी राय देना कोई अवमानना नहीं है, अगर है, तो योगेश जैसे पीडि़तों को इस की परवा नहीं जिन के दिल से न्यायालयीन आस्था उठ चुकी है. उन्हें अपनी भड़ास निकालने से अब रोका नहीं जा सकता जो बिना किसी अपराध के सजा भुगत रहे हैं.
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अपनी बात विस्तार से कहने के बाद योगेश कहते हैं, ‘‘प्रशांत भूषण के मामले में एक पत्रकार होने के नाते मेरी भी दिलचस्पी है कि अब 10 सितंबर को क्या होगा, और कुछ होगा भी या नहीं. मुझे यह सोचसोच कर हैरानी हो रही है कि कोविड-19 के कहर के चलते जब न्याय व्यवस्था चरमराई पड़ी है और लंबित मुकदमों की तादाद बढ़ती जा रही है तब प्रशांत भूषण के ट्वीट पर सब से बड़ी अदालत ने क्यों इतनी फुरती दिखाई. कौन सा आसमान गिर पड़ रहा था या धरती फट पड़ रही थी, बात समझ से परे है. इसलिए, मैं कहता हूं कि अब वक्त है कि मुवक्किलों की अवमानना पर भी ध्यान दिया जाए.’’ इतनी चुस्ती अगर अदालतें मुझ जैसे हैरानपरेशान लोगों के सालों से चल रहे मुकदमों में दिखाएं, तो लगेगा कि न्याय उन की प्राथमिकता में कहीं है.
अवमानना के माने
योगेश जैसे पीडि़तों की कमी नहीं है जिन का अदालतों से भरोसा उठ चला है. अवमानना का हौआ अब उन्हें डराता नहीं है क्योंकि वे हद से ज्यादा परेशान हो चुके हैं और बेवजह लंबे खिंचते मुकदमों की मियाद को किसी सजा से कम नहीं मानते. उन्हें अपनी परेशानी साझा करने, अपनी भड़ास निकालने को एक मंच चाहिए जो मीडिया ही है और खुद
सुप्रीम कोर्ट इस बात को स्वीकार चुका है. आइए देखें उस फैसले के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश :
जनता की राय पर आधारित किसी रिपोर्ट पर अवमानना का कानून लागू नहीं होता है. जनता क्या सोचती है, इस का इस्तेमाल न्याय व्यवस्था की खामियां सुधारने में किया जा सकता है. जनता की राय को इस कानून (अदालत की अवमानना कानून 1971) की धारा 5 के साथ मेल खाता समझा जाना चाहिए जिस में निष्पक्ष आलोचना की बात कही गई है.
1 मार्च, 2017 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अपनेआप में बहुतकुछ कहता हुआ है और अब पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो चला है. बात साल 2006 की है. तब सैंटर फौर मीडिया स्टडीज और ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल इंडिया नाम के 2 संगठनों ने जम्मूकश्मीर में एक सर्वे करते हुए लोगों से यह सवाल पूछा था कि वे निचली अदालतों के बारे में क्या राय रखते हैं. जवाब और निष्कर्ष या नतीजा कुछ भी कह लें, बेहद चिंताजनक और चौंका देने वाला था. 90 फीसदी से भी ज्यादा लोगों ने निचली अदालतों में भ्रष्टाचार होने की बात कही थी. इन दोनों संगठनों ने उन लोगों से बात की थी जो कोई न कोई मुकदमा लड़ रहे थे.
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जम्मूकश्मीर के एक प्रमुख इंग्लिश अखबार ‘ग्रेटर कश्मीर’ में उक्त रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो वहां के दंडाधिकारी ने अदालत की अवमानना कानून 1971 के तहत उक्त दोनों संगठनों के मुखियाओं को पहले नोटिस, फिर गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिए. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उस ने सुनवाई और वारंट दोनों पर रोक लगा दी और फिर लंबी सुनवाई के बाद उक्त फैसला दिया. फैसले में एक और अहम बात यह भी कही गई थी कि निचली अदालतों के पास अवमानना कानून को इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है और अगर उसे ऐसा कुछ लगता है तो वह मामले को हाईकोर्ट के संज्ञान में ला कर कार्रवाई का अनुरोध कर सकती है.
निचली अदालतों में भ्रष्टाचार है, इस स्वीकारोक्ति के साथसाथ इस फैसले से ऐसा भी महसूस हुआ था कि आम लोग भी अदालती फैसलों व न्यायिक प्रक्रिया की योगेश की तरह चीरफाड़ कर
सकते हैं और उसे व्यक्त भी कर सकते हैं. लगा ऐसा भी था कि इसे अदालत की अवमानना नहीं माना जाएगा और सब से बड़ी अदालत जनता के प्रति जवाबदेह है, आलोचना की प्रवृत्ति, जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कहा जाता है, से सहमत होने की उदारता दिखा रही है. जिस से लोगों का भरोसा न केवल न्याय और उस की प्रक्रिया में बना रहे, बल्कि और भी बढ़े.
अब क्या हो गया
आज अदालतों में हो उलटा रहा है. अदालत की अवमानना का शाश्वत हौआ बड़े दिलचस्प तरीके से फिर आम और खास लोगों के सिर पर मंडरा रहा है. इस बार एक तरफ देश के नामी वकील और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण हैं तो दूसरी तरफ खुद सुप्रीम कोर्ट ही है. बीती 22 जुलाई को जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली एक बैंच ने प्रशांत भूषण और ट्विटर को अवमानना का नोटिस दिया तो कई जानीमानी हस्तियां उन के पक्ष में लामबंद हो गईं.
अपने विवादित ट्वीट्स, जो अकसर भगवा गैंग की पोल खोलते हैं, के लिए पहचाने जाने वाले प्रशांत भूषण ने 27 जून को ट्वीट किया, ‘भविष्य में जब इतिहासकार इन 6 सालों पर नजर डालेंगे और देखेंगे कि कैसे भारत में बिना किसी औपचारिक आपातकाल के भी लोकतंत्र को बरबाद किया गया, तो इस में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को भी देखेंगे, खासतौर से पिछले 6 सालों में चुने गए 4 सीजेआई की. ये सीजेआई हैं – जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस जे एस ‘खेहर.’
इस ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते दार्शनिकों की सी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा था कि ट्वीट न्यायिक प्रशासन को तिरस्कार के तौर पर पेश करता है. फिर 2 दिनों बाद प्रशांत भूषण को अवमानना का दूसरा नोटिस दिया गया. यह मामला साल 2009 का है जब उन्होंने एक पत्रिका (तहलका) को इंटरव्यू देते तत्कालीन सीजेआई एस एच कपाडि़या पर आरोप लगाया था कि उन्होंने पद पर रहते हुए स्टरलाइट के शेयर रखते उस के मामले में सुनवाई की.
तकरीबन 10 वर्षों से ठंडे बस्ते में कैद यह फाइल खोली गई तो कोर्ट की मंशा पर हर किसी को स्वाभाविक हैरानी हुई. उसी दिन प्रशांत भूषण ने एक और ट्वीट कर फिर सनसनी मचा दी थी जिस में उन्होंने सीजेआई एस ए बोबडे के एक भाजपा नेता की हार्ले डेविडसन बाइक पर बिना हैलमैट व फेसमास्क के सवार होने पर सवाल उठाया था. बकौल प्रशांत भूषण, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लौकडाउन मोड पर रखा हुआ है.
साफ दिखा कि यह सुप्रीम कोर्ट का पूर्वाग्रह है जिसे साबित करने के लिए इतने उदाहरण मौजूद हैं कि एक नया ग्रंथ तैयार हो जाए. पहला उदाहरण तो प्रशांत भूषण के अधिवक्ता पिता उन से भी ज्यादा मशहूर शांति भूषण का ही है जो मोरारजी मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाए गए थे. शांति भूषण ने एक वक्त में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करते देश के 8 पूर्व न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप लगाया था. सुप्रीम कोर्ट ने बजाय इस पर विचार करने के उन्हीं पर दबाव बनाने की कोशिश की थी कि वे अपना हलफनामा वापस ले लें. लेकिन शांति भूषण का आत्मविश्वास उन के इस तल्ख लहजे से भी झलका था कि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए मैं बजाय माफी मांगने के, जेल जाना पसंद करूंगा. एक सीलबंद लिफाफे में उन्होंने भ्रष्ट जजों के खिलाफ पुख्ता सुबूत भी पेश किए थे. तब से उन के उस मुहरबंद लिफाफे के अतेपते नहीं हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट तब उन के खिलाफ अवमानना का आरोप लगाने की हिम्मत नहीं कर पाया था. कोई नोटिस जारी करना या कार्रवाई करना तो दूर की बात थी, यानी, उस ने मान लिया था कि शांति भूषण कोई हवाहवाई बात नहीं कर रहे हैं.
मध्यांतर एक मुकदमे का
हवाहवाई बात प्रशांत भूषण भी नहीं कर रहे हैं, यह बात 25 अगस्त को बड़े हैरतअंगेज तरीके से सामने आई जब सुप्रीम कोर्ट ने इस चर्चित हो गए मामले में एक तरह से हथियार डालते यह कहा कि तहलका मैगजीन मामले में अब फैसला 10 सितंबर को होगा. इस दिन जस्टिस अरुण मिश्रा ने 2 सितंबर के अपने रिटायरमैंट का भी हवाला देते मामले को पीठ को सौंपे जाने की
बात कही.
मामला उतना ही पेचीदा है जितना
कि प्रशांत भूषण के अकाट्य तर्क
और हिम्मत के साथसाथ गजब का आत्मविश्वास भी अपने कहे के प्रति है. इस दिन एक और हैरतअंगेज व दिलचस्प बात सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा, बी आर गवई और कृष्णमुरारी की
3-सदस्यीय पीठ का अटौर्नी जनरल के के वेणुगोपाल से यह पूछना रहा था कि आप बताइए कि क्या सजा दी जाए. तब अटौर्नी जनरल का जवाब था कि, भूषण का यह ट्वीट यह बताने के लिए था कि ज्यूडिशियरी को अपने अंदर सुधार
लाने की जरूरत है, इसलिए भूषण को माफ कर देना चाहिए. प्रशांत भूषण की पैरवी कर रहे राजीव धवन ने कहा कि उन के मुवक्किल ने कोई चोरी या मर्डर नहीं किया है, लिहाजा, उन्हें शहीद न बनाया जाए.
इस के पहले मामला शुद्ध रूप से टीवी धारावाहिकों की तरह चला. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी प्रशांत भूषण को माफी मांगने को कहा था लेकिन उन्होंने यह आसान विकल्प चुनने के बजाय महात्मा गांधी का हवाला देते हुए कहा था, ‘मैं न तो दया की भीख मांगता हूं और न ही किसी नरमी की अपील करता हूं. मैं यहां किसी भी सजा को शिरोधार्य करने के लिए आया हूं जो मुझे उस बात के लिए दी जाएगी जिसे कोर्ट ने अपराध माना है, जबकि, वह मेरी नजर में गलती भी नहीं, बल्कि नागरिकों के प्रति मेरा सर्वोच्च कर्तव्य है.’
इस से पहले 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को कोर्ट की अवमानना का दोषी करार देते हुए सुनवाई की तारीख 20 अगस्त तय की थी. लेकिन उस दिन भी भूषण अपनी जिद पर अड़े रहे तो मामला और दिलचस्प हो गया. लग ऐसा रहा था कि उस दिन अगर वे माफी नहीं मांगते हैं तो कोर्ट उन्हें सजा सुना देगा जो अवमानना कानून के तहत अधिकतम 6 महीने की सजा और/या 2 हजार रुपए का जुर्माना हो सकते हैं.
31 अगस्त को सब से बड़ी अदालत ने फैसला यह दिया कि प्रशांत भूषण या तो 1 रुपए का जुर्माना भरें या फिर 3 महीने की कैद भुगतें और 3 साल तक सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस भी वे नहीं कर सकते. इस पर बुद्धिमानी दिखाते प्रशांत भूषण ने 1 रुपए का जुर्माना भरने का रास्ता चुना क्योंकि जेल जा कर हीरो बनने की कोर्ट की मंशा वे पूरी करते तो एक तरह से अपने किएधरे पर ही खुद पानी फेरते.
इस अजीबोगरीब फैसले से साफ लगा कि सुप्रीम कोर्ट अपनी खीझ और खिसियाहट मिटा रहा है और एक हद तक उस ने स्वीकार लिया है कि प्रशांत भूषण पूरी तरह गलत नहीं थे और जहां थोड़ेबहुत थे वहां खुद वे अपनी गलती स्वीकार चुके थे जिस से शायद कोर्ट को आत्मग्लानि या गिल्ट जैसा कोई मनोभाव फील हो रहा था लेकिन चूंकि कोई न कोई सजा सुनानी थी तो विकल्प दे कर झंझट से मुक्ति पा ली.
खुद का जाल बना जंजाल
साफ दिख रहा है कि प्रशांत भूषण कोर्ट के झांसे और दबाव में नहीं आए तो कोर्ट ही सकपका उठा कि अब क्या करें. साफ यह भी दिख रहा है कि सुप्रीम कोर्ट अपने ही बिछाए जाल में फंस गया था क्योंकि उस की यह उम्मीद बेकार गई थी कि भूषण सजा के डर से घबरा कर माफी मांग लेंगे और मामला रफादफा हो जाएगा. उस दिन कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और उन्हें 3 दिनों का वक्त देते पुनर्विचार करने को कहा. लेकिन उन्होंने माफीनामे के लौलीपौप में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उलटे, तरहतरह से अपनी मंशा जताई कि चीफ जस्टिस की स्वस्थ आलोचना सुप्रीम कोर्ट का अपमान नहीं है और अदालत की गरिमा को कम नहीं करता है. जो भी ट्वीट हैं उन में लोकतंत्र को नष्ट करने की अनुमति नहीं दिए जाने की बात है और यह अभिव्यक्ति कंटैंप्ट के दायरे में नहीं आती है. इस और ऐसी दलीलों के जवाब में सुप्रीम कोर्ट यह रट लगाए रहा कि जो है सो है, हम मानते हैं कि आप को बोलने की आजादी है लेकिन माफी मांग लो, इस में हर्ज क्या है.
इधर, कोर्ट के बाहर भी हल्ला मचता रहा, जिस से यह तय कर पाना भी मुश्किल हो गया कि आखिर फैसला कोर्ट के अंदर होना है या बाहर. ऐसा भी पहली बार हुआ कि अवमानना के किसी मुकदमे पर बहस, खेमेबाजी और चर्चा अदालत के बाहर ज्यादा हुई. दिलचस्प यह है कि अधिकांश लोग प्रशांत भूषण का पक्ष लेते दिखे. इस से प्रशांत भूषण नायक बन गए और अब कहीं वे महानायक न बन जाएं, इसलिए अटौर्नी जनरल ने उन्हें माफी देने की गुजारिश की. प्रशांत भूषण को अगर सजा होती (या 10 सितंबर को हुई) तो उन की चर्चा रोजरोज दुनियाभर में होती और सुप्रीम कोर्ट और मोदी सरकार की आलोचना भी उसी अनुपात में होती. यह भगवा गैंग को गवारा नहीं कि और प्रशांत भूषण पैदा हों, जिन से दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में उस की किरकिरी हो. यह कहने को दुनियाभर के बुद्धिजीवियों को मौका मिल जाता कि भारतीय अदालतों की हालत भी रूसी, पाकिस्तानी और उत्तर कोरियाई अदालतों जैसी हो गई है.
कहना हर्ज या ज्यादती की बात नहीं कि के के वेणुगोपालन के मुंह से सरकार बोल रही है कि जैसे भी हो, कोई तिकड़म भिड़ा कर भस्मासुर बनते जा रहे इस मामले को यमुना में प्रवाहित कर
दो ताकि यह लोगों का ध्यान पुख्ता होती हुई इस धारणा को वास्तविकता में न बदले कि सरकार ने प्रैस के साथसाथ न्यायपालिका की भी स्वंत्रतता को
खत्म कर दिया है. वेणुगोपालन ने यह जिम्मेदारी निभा तो दी लेकिन झमेला खुद सुप्रीम कोर्ट ने पाल लिया है क्योंकि अब प्रशांत भूषण को सजा हो न हो, दोनों ही स्थितियों में उस की छीछालेदर होनी तय है. इसलिए, अदालत अब तर्कों और तथ्यों के बजाय दार्शनिकों जैसी भाषा व रवैया अपना रही है.
ये उतरे समर्थन में
जिन 131 हस्तियों ने प्रशांत भूषण की आवाज बुलंद की, उन में कुछ कानून के भूतपूर्व रखवाले भी हैं. जस्टिस रूमा पाल, जी एस सिंघवी, ए के गांगुली,
वी गोपाल गौड़ा, आफताब आलम,
जे चेलमेश्वर और विक्रम जीत सेन के अलावा एक और रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर ने 27 जुलाई को जारी एक बयान पर दस्तखत किए कि प्रशांत भूषण के खिलाफ की जा रही अवमानना की कार्रवाई वापस ली जाए क्योंकि यह आलोचना का गला घोंटने जैसी कोशिश है. कानून के इन जानकारों की दलील यह भी थी कि न्याय निष्पक्षता के साथ अदालत की गरिमा को बरकरार रखने के लिए हम शीर्ष अदालत से गुजारिश करते हैं कि वह प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करे.
इस लिस्ट और मुहिम में पटना हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश अंजना प्रकाश और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए पी शाह भी शामिल हैं. इन के अलावा बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति राय, मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा, वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह, आनंद ग्रोवर, गोपाल शंकरनारायण, स्वतंत्रता सेनानी जी जी पारिख, एक्टिविस्ट हर्ष मंदर, स्वराज इंडिया के मुखिया योगेंद्र यादव ने भी इस अपील पर दस्तखत किए.
इन लोगों की इन दलीलों में भी दम है कि पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं कि संविधान ने जो उस
की भूमिका सरकारी ज्यादतियों व लोगों के अधिकारों के हनन पर एक रोक की तरह काम करने की निर्धारित की थी उस में वह हिचक रहा है. यह सवाल हर तबके से उठा है. इन में मीडिया, अकादमिक सिविल सोसाइटी और्गेनाइजेशन, लीगल काम से जुड़े लोग और खुद सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा व रिटायर्ड जज शामिल हैं.
इस लंबेचौड़े बयान में एक दिलचस्प कमैंट मौजूदा सीजेआई के बड़े भाई और वरिष्ठ अधिवक्ता विनोद बोबडे को भी शामिल किया गया है जिस में उन्होंने कहा था, ‘हम ऐसी स्थिति का समर्थन नहीं कर सकते जिस में नागरिक जजों के रवैए की कोर्ट या कोर्ट के बाहर आलोचना करने पर अवमानना से डरते हों.’
प्रशांत भूषण ही क्यों
इन सभी ने एक सुर में कहा कि प्रशांत भूषण समाज के कमजोर तबके के लोगों के अधिकारों के लिए बिना रुके लड़ते आए हैं और उन्होंने अपना पूरा कैरियर ऐसे लोगों को मुफ्त कानूनी सेवा देने में बिता दिया जो न्याय नहीं मांग सकते थे. वे अवमानना नहीं कर रहे, बल्कि चिंता प्रदर्शित कर रहे हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट को उन की चिंताओं से ज्यादा अपनी साख व दबदबे की चिंता है. लिहाजा, उस ने प्रशांत भूषण को धौंस दी जिस का तार्किक व सटीक जवाब प्रशांत भूषण ने दिया भी.
3 अगस्त को दिए अपने जवाब में भी उन्होंने कहा था कि चीफ जस्टिस औफ इंडिया की स्वस्थ आलोचना होने से सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आती है. 140 पृष्ठों के अपने हलफनामे में उन्होंने दलील दी कि चीफ जस्टिस पर उन का कमैंट कहीं से भी अवमानना नहीं है. जो भी ट्वीट है उस में लोकतंत्र को नष्ट करने की अनुमति नहीं दिए जाने की बात है और यह अभिव्यक्ति अवमानना के दायरे में नहीं आती. हालांकि, खिलाड़ी भावना को प्रदर्शित करते हुए उन्होंने जस्टिस बोबडे के बाइक वाले ट्वीट पर सफाई भी दी कि चूंकि बाइक स्टैंड पर थी, इसलिए मुझे हैलमैट पहनने की बात नहीं करनी चाहिए थी.
व्यापक हैं अदालत के माने
इस स्पष्टीकरण से एक अहम बात यह भी उजागर हुई कि कोई भी जज अदालत नहीं होता है. इस बात को विस्तार देते भोपाल के एक सरकारी कालेज में कानून की एक प्रोफैसर, नाम न छापने की शर्त पर, कहती हैं कि अकेला जज अदालत नहीं होता बल्कि वादी, प्रतिवादी उन के वकील, गवाह और अदालत के कर्मचारी भी अदालत का हिस्सा होते हैं. इन की अवमानना भी अदालत की अवमानना होती है. अगर कोई अदालत के कामकाज के घंटों के बाद किसी जज को किसी भी तरह से अपमानित करता है तो यह कंटैंप्ट नहीं होगा, बल्कि आपराधिक प्रकरण होगा.
लेकिन होता उलटा है. अकसर जज ही सब से ज्यादा अदालत की अवमानना करते हैं लेकिन वे चूंकि जज होते हैं इसलिए किसी की हिम्मत उन के खिलाफ बोलने या कार्रवाई करने की नहीं होती. उन का अपना एक अलग खौफ या आतंक होता है ठीक वैसा ही जैसा मंदिरों में पंडेपुजारियों का होता है. कर्मकांडों पर जो वे कह देते हैं वही धर्म हो जाता है.
भोपाल की एक अधिवक्ता की मानें तो अकसर जज गवाहों और वकीलों की खुलेआम बेइज्जती करते हैं लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते. ये वकील साहब एक संस्मरण सुनाती कहती हैं कि एक बार तो निचली अदालत के एक ऊंची जाति के जज ने एक दलित जाति के गवाह पर जातिगत कमैंट कर दिया था और मौजूद लोग चुपचाप सुनते रहे थे. मैं चूंकि प्रशांत भूषण नहीं हूं, इसलिए भी कुछ नहीं बोल पाई क्योंकि न केवल वे, बल्कि सारे जज मिल कर मेरा कैरियर तबाह कर देते. कहने की जरूरत नहीं कि अदालतों के भीतर होने वाली ऐसी घटनाएं रिकौर्ड में नहीं ली जातीं.
नैशनल लौ इंस्टिट्यूट, भोपाल से कानून की स्नातक अदिति श्रीवास्तव की मानें तो अकसर जज टाइप्ड हो कर रह जाते हैं और खुद को ही कानून समझने लगते हैं. जजों का सम्मान होना चाहिए लेकिन जो आतंक वे अदालत में क्रिएट कर देते हैं उस बाबत भी कुछ प्रावधान होने चाहिए. अकसर जज मुकदमे की स्टडी कर के नहीं आते हैं, इसलिए तारीख बढ़ाना या किसी एक पक्ष की मांग पर स्टेऔर्डर दे देना उन्हें सहूलियत वाला रास्ता लगता है, जिस से परेशानी मुवक्किलों को उठानी पड़ती है.
प्रशांत भूषण जैसे वकील चूंकि गरीबगुरबों की वकालत करते न्याय प्रक्रिया की ऐसी विसंगतियों को उजागर करते रहते हैं, इसलिए वे ज्यादा खटकते हैं पर और भी ज्यादा तब खटकते हैं जब वे राममंदिर पूजन के आयोजन पर आपत्ति उठाते हैं, प्रवासी मजदूरों की परेशानी को ले कर सरकार पर तंज कसते हैं, बाबा रामदेव के रुचि सोया मामले के घपले पर बोलते हैं, देवीदेवताओं पर टिप्पणी, मसलन, कृष्ण द्वारा लड़कियों को छेड़ने के प्रसंग का जिक्र उत्तर प्रदेश सरकार के एंटी रोमियो स्क्वैड के संदर्भ में करते हैं और आरएसएस व विहिप जैसे हिंदूवादी संगठनों के पाखंडों का मखौल उड़ाते हैं.
अवमानना कानून का औचित्य
3 दशकों से न्यायपालिका में पसरे भ्रष्टाचार को ले कर मुखर रहे प्रशांत भूषण के खटकने की और भी कई वजहें हैं. उन्हीं की पहल पर साल 2009 में जज अपनी जायदाद का ब्योरा देने को तैयार हो गए थे. तब एक हलफनामे में उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार के दस्तावेजी सुबूत जुटाना कितना मुश्किल काम है क्योंकि एक तो जजों के खिलाफ किसी कार्रवाई की इजाजत नहीं है, दूसरे, उन के खिलाफ एफआईआर लिखवाने तक के लिए भी पहले चीफ जस्टिस से इजाजत लेनी पड़ती है और ऐसी कोई अनुशासनात्मक संस्था नहीं है जिस की तरफ देखा जा सके. यानी, प्रशांत भूषण को घेरने की कई वजहें हैं जो उन जैसे संविधानभक्तों को ही कोर्ट के कठघरे में खड़ा करती हैं.
बात यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि उस वक्त और भी दिलचस्प हो जाती है जब प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार एन राम और अरुण शौरी अवमानना कानून 1971 को ही खत्म करने की मांग करने लगते हैं. इन तीनों ने 31 जुलाई को दायर एक याचिका में मांग की कि अवमानना कानून 1971 का सैक्शन 2 (सी) (आई), संविधान के आर्टिकल 19 (1) (ए) के तहत मिली बोलने की आजादी के अधिकार का उल्लंघन करता है और साथ ही, यह असंवैधानिक व लाइलाज रूप से अस्पष्ट और जाहिरतौर पर मनमाना है, जिस की वजह से यह आर्टिकल 14 का भी उल्लंघन करता है. इन तीनों ने इस मसले पर और भी लंबीचौड़ी दलीलें दी हैं जिन पर अब महसूस होने लगा है कि आम लोगों की राय लिया जाना ज्यादा बेहतर होगा. हालांकि, यह मुकदमा इन लोगों ने
14 अगस्त को वापस ले लिया.
बहरहाल, तकनीकीतौर पर उलझे इस मामले से परे भोपाल की उक्त प्रोफैसर मानती हैं कि पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट के जो फैसले आए हैं उन में से अधिकतर उस के सरकारीकरण होने की पुष्टि करते हैं. इन में ताजा पीएम केयर फंड वाला है और ऐसी बातें प्रशांत भूषण साफसाफ कहते हैं तो उन्हें घेर लिया जाता है. अब देखते हैं क्या होगा क्योंकि मामला संवैधानिक तौर पर बहुत दिलचस्प हो चला है.
5 अगस्त की सुनवाई में प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन सहित दूसरे वकीलों से जस्टिस अरुण मिश्रा ने पूछा, ‘बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और फिर अवमानना, हम इस प्रणाली के ग्रेस को कैसे बचा सकते हैं?’ इस पर राजीव धवन का जवाब था कि प्रशांत भूषण ने एक स्पष्टीकरण दे दिया है जो इस पर विराम लगा सकता है.
लंबीचौड़ी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया. लेकिन यह किसी ने न सोचा और न पूछा कि जिन जजों पर प्रशांत भूषण ने भ्रष्ट होने के आरोप लगाए हैं उन्हें इस पर कोई एतराज है भी या नहीं और वे क्यों मानहानि का दावा नहीं ठोक रहे और क्या अदालतें भी यह चाहने लगी हैं कि लोग उस की कृपा पर निर्भर रहें.
आम लोग क्यों नहीं
अब फैसला जो भी आए, और मुमकिन है शांति भूषण के लिफाफे की तरह छू कर दिया जाए, लेकिन देश की अदालतों के हाल किसी से छिपे नहीं हैं जहां मुवक्किल इंसाफ की आस लिए सालों चक्कर लगाते रहते हैं और उन्हें तारीख पर तारीख मिलती रहती है. कई हिंदी फिल्मों और साहित्य में इसे बहुत बारीकी से दिखाया गया है. ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल से ले कर हरिशंकर परसाई और शरद जोशी ने भी अपनी रचनाओं में अदालतों की सचाई व हकीकत उकेरी है कि वहां दलालों का बोलबाला रहता है, बाबू सरेआम तारीख बढ़ाने के लिए जज की आंखों के सामने ठीक वैसे ही घूस लेता है जैसे मंदिर में विराजी मूर्ति के सामने पुजारी चढ़ावा बटोरता रहता है. न्याय दिलाने वाले वकील पैसे ऐंठने के लिए मुवक्किलों को गुमराह करते रहते हैं.
इन और ऐसी कई बातों से अदालतों की अवमानना क्यों नहीं होती, इस पर सोचने और बोलने को कोई तैयार नहीं. उलटे, इस बदहाली को नियति मान लेने की कोशिश हर कोई करता नजर आता है. देरी से मिला न्याय किसी अन्याय से कम नहीं वाली कहावत अकेले योगेश पर चरितार्थ नहीं, बल्कि लाखोंकरोड़ों लोग इसे रोज भुगतते हैं. ऐसा इसलिए कि न्याय प्रक्रिया से जुड़े लोगों, खासतौर से जजों, पर किसी का जोर नहीं चलता. उन का रसूख और रुतबा पंचायतों के जमाने सरीखा इस लोकतंत्र के दौर में भी है.
एक जमाना था जब गांव के नीम या पीपल के पेड़ के नीचे पंचायत बैठती थी. बड़ीबड़ी मूंछों वाले ठाकुर पंडों से सलाहमशवरा कर जो फैसला सुना देते थे वही कानून हो जाता था, जिसे चुनौती देने वाला या एतराज जताने वाला अवमानना का पात्र माना जा कर बतौर सजा समाज, गांव और जाति से बाहर कर दिया जाता था. अब ऐसा तहसील स्तर से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में होता है. बस, तरीका थोड़ा बदल गया है. यानी, मानसिकता 18वीं सदी जैसी ही है जिस में यह सीधे नजर नहीं आने दिया जाता कि न्याय पैसे वालों के लिए सुलभ है क्योंकि वे समर्थ होते हैं और अकसर ऊंची जाति के होते हैं.
इस बात को अपने रिटायरमैंट के वक्त सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता ने यह कहते स्वीकारा भी था कि देश का लीगल सिस्टम अमीरों और ताकतवरों के पक्ष में हो गया है. कोई अमीर सलाखों के पीछे होता है तो कानून अपना काम तेजी से करता है. लेकिन गरीबों के मुकदमों में देरी होती है.
इस बात को साबित करने के लिए कई मामले उपलब्ध हैं. 18 मई, 1993 को चेन्नई के एक युवा ड्राइवर लोकेशवरन की मौत एक सड़क हादसे में मौके पर ही हो गई थी. काम के दौरान होने वाली मृत्यु पर बने अधिनियम वर्कमैन कंपेंसेशन के तहत मृतक की मां बक्कियम ने मोटर ऐक्सिडैंट क्लेम ट्रिब्यूनल में मुआवजे के लिए क्लेम किया जिसे खारिज कर दिया गया. बक्कियम ने फिर अपील की और लड़ती रही. आखिर में 24 साल बाद मद्रास हाईकोर्ट ने उस के पक्ष में फैसला दिया और जस्टिस शैशासई ने बक्कियम से न्याय में देरी के लिए माफी भी मांगी.
लाखों में से एक मामले में अदालत को खुद की और न्यायिक प्रक्रिया की खामियां समझ आईं, लेकिन वे पीडि़ता से माफी मांगने से दूर हो गईं, ऐसा नहीं माना जा सकता. क्या यह एक गरीब महिला की अवमानना नहीं मानी जानी चाहिए? अब वक्त है कि यह किसी सरकार
या अदालत को नहीं, बल्कि आम लोगों को तय करना चाहिए. ऐसा क्यों होता है, इस पर जबलपुर हाईकोर्ट के युवा अधिवक्ता सौरभ भूषण कहते हैं, ‘‘लोगों में जागरूकता और चेतना का अभाव है और अकसर वकील और जज की घोषितअघोषित मिलीभगत इस को अंजाम देती है. ऐसे में कोई क्या कर लेगा.’’ बकौल सौरभ, गांवदेहात के साथसाथ शहरी मुवक्किल भी सालोंसाल अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं. कई तो मुकदमा लड़तेलड़ते बिक और मर
भी जाते हैं, लेकिन उन्हें न्याय नहीं
मिल पाता.
29 जुलाई को इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी एक ऐसा मामला आया था जिस में
31 साल से फैसला नहीं हुआ. जस्टिस जे जे मुनीर की एकल खंडपीठ ने कहा, ‘‘सिविल जज (जूनियर डिवीजन) कोर्ट नंबर 1, मोहम्मदाबाद, गोरखपुर जिन के समक्ष वर्ष 1989 का निष्पादन केस नंबर 7 भोला बनाम सतीराम लंबित है, अगले 3 सप्ताह के भीतर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करेंगे कि यह मामला जो अब 31 साल पुराना हो गया है, अभी भी लंबित क्यों है और इस का फैसला क्यों नहीं किया गया है.’’ हाईकोर्ट ने निचली अदालत को सफाई या स्पष्टीकरण देने के लिए
3 सप्ताह का समय दिया.
तय हो जवाबदेही
लेकिन ऐसे लाखों मुकदमे देशभर की अदालतों में चल रहे हैं जिन पर कोई हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट संज्ञान नहीं
लेता क्योंकि अदालतों की कोई जवाबदेही तय नहीं है. सब से बड़ी अदालत की चिंता मुकदमे की लेटलतीफी, अदालतों में पसरा भ्रष्टाचार, भाईभतीजावाद, घूसखोरी वगैरह नहीं होती क्योंकि इस से उस की अवमानना नहीं होती. अवमानना होती है प्रशांत भूषण सरीखे कानून के जानकारों के ट्वीट से जो उस की सचाई जनता के सामने उजागर कर देते हैं. इस मामले का बड़ा असर हुआ है जिस के चलते भोपाल के योगेश तिवारी जैसे पीडि़तों में इतनी हिम्मत आ गई है कि वे अपनी भड़ास प्रशांत भूषण और उन के समर्थकों की तरह यह कहते निकालने लगे हैं कि अगर सच बोलना गुनाह है तो हम गुनाहगार हैं और कंटैंप्ट सिर्फ कोर्ट का नहीं, बल्कि क्लाइंट्स का भी होता है. इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
जब ‘द कैरेवान’ की रिपोर्ट पर मचा था तहलका
निचली अदालतों के अलावा सुप्रीम कोर्ट की घपलेबाजी आएदिन उजागर होती रहती है, जिस के बारे में प्रशांत भूषण कुछ गलत नहीं कह रहे हैं कि पिछले 6 सालों में लोकतंत्र की हत्या में जजों ने अहम भूमिका निभाई है. इस आशय के कई मामले खूब चर्चित भी रहे हैं जिन में सुप्रीम कोर्ट और दूसरी कई एजेंसियों की भूमिका संदिग्ध रही है. ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट के जज बृजगोपाल लोया की रहस्मय मौत का है जिसे बेहद तथ्यपरक तरीके से दिल्ली प्रैस की लोकप्रिय इंग्लिश पत्रिका ‘द कैरेवान’ ने उठाया था तो देशभर में इस की चर्चा रही थी.
जज लोया चर्चित सोहराबुद्दीन की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या के उस मामले की सुनवाई कर रहे थे जिस में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मुख्य आरोपी थे. द कैरेवान ने लोया की मृत्यु के बारे में गहरी जांचपड़ताल कर कई रिपोर्टें प्रकाशित की थीं जिन का सार यह था कि लोया की मौत की जांच होनी चाहिए. तब लोया के साथी अन्य 4 जजों ने उन की मौत को प्राकृतिक करार दिया था. लेकिन, द कैरेवान के तर्कों और तथ्यों ने जो सवाल खड़े किए थे उन्होंने तहलका मचा दिया था. इस मामले में दायर कई जनहित याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए स्वतंत्र जांच करने से इनकार कर दिया था.
बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी, लेकिन इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के पक्ष में दलीलें देने वाले वरिष्ठ वकीलों की कड़ी आलोचना करते कहा था कि इन के खिलाफ अवमानना का मुकदमा चलाना चाहिए लेकिन वह इस का आदेश नहीं दे रहा है. यह उदारताभरी धौंस शांति भूषण मामले जैसी ही थी जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे.
इस के बाद मीडिया और आम लोगों का ध्यान सुप्रीम कोर्ट के गड़बड़झाले पर गया था. लोगों को याद आया था कि 28 जून, 2013 को जस्टिस पी सदाशिवम ने एक इंटरव्यू में माना था कि ऊंची अदालतों में भी भ्रष्टाचार है और कुछ जजों ने निष्पक्ष व तटस्थ ढंग से न्याय करने की अपनी कसम तोड़ी है. याद यह भी आया था कि जिन जस्टिस एस एच कपाडि़या पर प्रशांत भूषण ने स्टरलाइट मामले में उंगली उठाई थी, उन्होंने ही युधिष्ठिर की भूमिका में आते 2011 में यह कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मूल्य उस की सत्यनिष्ठा है और न्यायपालिका को स्वतंत्रता व जवाबदेही के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है. उन्होंने यह भी माना था कि उच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार हो सकता है और देश का संविधान ऐसी स्थिति को अकल्पनीय नहीं मानता.
एक तरह से इन दोनों ने मान लिया था कि सुप्रीम कोर्ट और न्याय व्यवस्था में सबकुछ ठीकठाक नहीं है और लोग जो इस के बारे में सोचते हैं उस की वजहें व उदाहरण भी हैं. लेकिन अहम बात 4 जजों का जस्टिस लोया की मौत को प्राकृतिक करार देना है कि उन की बात को क्या इस आधार पर सच मान लिया गया कि वे जज हैं और जज पंडेपुजारियों की तरह कभी झूठ नहीं बोलते. द कैरेवान की रिपोर्ट को कानून की दुनिया और देशभर के बुद्धिजीवियों ने ऐसी कई वजहों के चलते उतनी ही गंभीरता से लिया था जितना आज प्रशांत भूषण के अवमानना प्रकरण को लिया जा रहा है.
धर्मकर्म सिखाती अदालतें
प्रशांत भूषण की मंशा साफ है कि अदालतें, खासतौर से सुप्रीम कोर्ट, का सरकारीकरण हो रहा है. जाने क्यों वे सीधे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे कि दरअसल अदालतों का धार्मिकीकरण भी हो रहा है. इस की एक मिसाल 2 अगस्त को हाईकोर्ट की इंदौर बैंच के एक फैसले से समझ में आई. अप्रैल के महीने में विक्रम बागरी नाम के युवक ने एक महिला से छेड़छाड़ की थी. पीडि़ता ने उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. विक्रम जब जमानत के लिए हाईकोर्ट पहुंचा तो अदालत ने जमानत देने में अजीब सी शर्त रखी जो धर्मप्रेरित ज्यादा लगती है, कानून से तो उस का कोई वास्ता है, ऐसा लगता ही नहीं.
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि 3 अगस्त को रक्षाबंधन के दिन विक्रम अपनी पत्नी सहित पीडि़ता के घर जा कर उस से आग्रह करेगा कि वह उसे भाई के रूप में स्वीकार ले और वह पीडि़ता को उस की रक्षा का वचन भी देगा. इतना ही नहीं, वह मिठाई और 11 हजार रुपए भी पीडि़ता को देगा. अगर वह ऐसा करता है और इस के फोटोग्राफ भी अदालत में पेश करता है तो उसे जमानत दे दी जाएगी. ऐसा हुआ भी. राखी के दिन विक्रम पीडि़ता के घर गया और अदालत की शर्त का पालन किया.
क्या यह जमानत का आधार होना चाहिए था जिस में अदालत ने कानून को किनारे करते धर्मकर्म के तौरतरीकों से काम लिया और जबरन उस आदमी को पीडि़ता का भाई बनवा दिया, जिस ने उसे सरासर छेड़ते मानसिक व शारीरिक तौर पर प्रताडि़त किया था. क्या यह न केवल पीडि़ता, बल्कि समूची स्त्रीजाति की अवमानना नहीं है. इस से समाज में क्या मैसेज जाएगा. जाहिर यही है कि पहले औरतों को छेड़ो, फिर राखी बंधवा कर जमानत ले लो.
इस ऊटपटांग फैसले पर हर कोई हैरान है कि अदालतें न्याय की यह कौन सी परिभाषा और उदाहरण पेश कर रही हैं जिस से छेड़छाड़ की प्रवृत्ति पर बजाय अंकुश लगने के, उसे और बढ़ावा मिलेगा. हाईकोर्ट ने सरासर पुरुषवादी मानसिकता दिखाई और भाईबहन के पवित्र रिश्ते को पंचायतछाप इंसाफ देते कलंकित ही किया है क्योंकि उस पर किसी का नियंत्रण नहीं है. अब साफ दिख रहा है कि आरोपी बाइज्जत बरी भी हो जाएगा क्योंकि पीडि़ता अब यह नहीं कह सकती कि उस के मुंहबोले भाई ने उसे छेड़ा था. इस मामले में भी अदालत की अवमानना खुद अदालत ने ही कर डाली है.
31 अगस्त के फैसले से भी महसूस हुआ कि मुद्दा धार्मिकता बनाम तार्किकता हो गया था जिसे न तुम हारे न हम जीते की तर्ज पर ला कर पिंड छुड़ा लिया गया, ठीक वैसे ही जैसे महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का वध किया था. यह प्रसंग बड़ा दिलचस्प है कि सिचुएशन कुछ ऐसी हो गई थी कि अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को मारा जाना अनिवार्य हो गया था यानी बीच का रास्ता यानी सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाला यह निकाला गया कि अर्जुन युधिष्ठिर को गाली दे दे, इस से ही उन की मृत्यु हुई मान ली जाएगी.
क्षमा, धर्म और संयोग
फैसले वाले दिन एक अजब इत्तफाक देखने में आया कि जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट प्रशांत भूषण के सामने लगभग लाचार होते उन से माफी मांग लेने की गुजारिश कर रहा था तब दिगंबर जैन समुदाय के लोग परिचितों से माफी मांग रहे थे. दरअसल, जैन धर्म के सिद्धांतों में से पहला और अहम है उत्तम क्षमा मांगना जिसे बाकायदा समारोहपूर्वक संपन्न किया जाता है. 10 दिवसीय प्रयूषण पर्व की समाप्ति इस क्षमावाणी पर्व से होती है. इस दिन जैनी सामने वाले से सालभर में जानेअनजाने में किए गए ऐसे कृत्यों के लिए माफी मांगते हैं जिन से किसी का दिल दुखा हो. क्षमा मांगने के लिए मिच्छामी दुकडुम शब्द का इस्तेमाल किया जाता है.
माफी बड़ी अच्छी चीज है जिस का प्रावधान हरेक धर्म में है कि पहले गलती या पाप करो, फिर माफी मांग कर उस की सजा से बच जाओ. इस से खुद के पापी न होने की फीलिंग भी आती है. सार यह है कि हर धर्म की नजर में आदमी प्राकृतिक और स्वाभाविक पापी है, इसलिए उस से हर कभी कहलवाया जाता है कि हे प्रभु, मेरे पापों को माफ करना (फिर भले ही वे उस ने न किए हों. हालांकि, इस का निर्धारण धर्मग्रंथ और गुरु करते हैं).
सुप्रीम कोर्ट प्रशांत भूषण पर माफी का दबाव डाल कर या विकल्प दे कर उन्हें पापमुक्त ही करना चाह रहा था, लेकिन, प्रशांत भूषण ने आध्यत्मिक सा जवाब यह दिया कि अगर माफी मांगूंगा तो यह अंतरात्मा यानी चेतना की अवमानना होगी. यानी, माफी मुंह से नहीं, दिल से मांगी जाती है. जैन धर्म में एक और दिलचस्प बात यह कही गई है कि क्षमा मांगने वाले से बड़ा क्षमा कर देने वाला होता है. आई एम सौरी, माफ कर दो या मिच्छामी दुकडुम तो मुंह उठा कर कोई भी बोल सकता है लेकिन किसी को माफ करने के लिए जो कलेजा चाहिए वह आजकल के मानवों में नहीं मिलता. यह कहीं स्पष्ट नहीं है कि जो माफी न मांगे उसे माफ किया जा सकता है या नहीं.
अच्छा तो यह होता और शायद 10 सितंबर को हो भी कि बड़प्पन दिखाते खुद सुप्रीम कोर्ट ही प्रशांत भूषण को माफ कर दे क्योंकि वे नादान हैं और उन्हें नहीं मालूम (या औरों से बेहतर मालूम है) कि वे क्या कह रहे हैं. अदालत नहीं चाहती, कोई धर्म भी नहीं चाहता कि आप सिर पर गिल्ट की गठरी लादे जिएं,? वह भी उस सूरत में जब माफी निशुल्क और सहजता से उपलब्ध हो.