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कोविड के दूसरी लहर से मुझे बहुत डर लगता है, पति और बच्चे बाहर जाते रहते हैं क्या करें?

सवाल

देश में फिर से कोविड 19 की जो प्रचंड आंधी आ गई है उस से मन हरदम शंकित रहता है. घर से बिलकुल बाहर नहीं जाते. पूरी सावधानी बरतते हैं, फिर भी मन घबराया सा रहता है. पति, बच्चों के लिए चिंता लगी रहती है. सोचती हूं, मु झे कुछ हो गया तो क्या होगा? अजीबअजीब से खयाल आते हैं. मन कैसे शांत करूं?

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जवाब

आप की चिंता व्यर्थ नहीं है लेकिन आप खुद सोचिए कि चिंता करने से क्या परेशानी खत्म हो जाएगी. मुसीबत की जो घड़ी आई है हमें उस का सामना करना है, घबराना नहीं है. यह वक्त इमोशनल होने का नहीं, सम झदारी दिखाने का है.

सब से पहले यह सोचें कि आप को खुद को और अपने परिवार को इस महामारी की चपेट में नहीं आने देता है. पूरी सावधानी बरतें. बच्चों से भी घर में शारीरिक दूरी बना कर रखें.

घर का माहौल सकारात्मक बना कर रखें. घर में कोरोना संक्रमण से संबंधित ज्यादा न्यूज न चलाएं. टैलीविजन पर बच्चों को उन के पसंदीदा कार्यक्रम देखने दें. बच्चों को कुछ न कुछ गतिविधियों जैसे चित्रकारी, लेखन, किताबें पढ़ना, सिंगिंग, माइंड गेम में व्यस्त रख सकती हैं.

स्वयं भी अपने पसंद के गाने सुनें. पति के साथ बैठे कर रोमांटिक बातें करें. अभी उन के पास वक्त है, आप के पास भी है तो क्यों नहीं इस का फायदा उठाएं और अपने रिश्ते को और करीबी बनाएं.

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यह सब करेंगी, तो दिमाग में उलटेसीधे खयाल नहीं आएंगे. बुरा वक्त आया है तो जाएगा भी, यह सोच कर चलें.

Mother’s Day 2022: अब हम समझदार हो गए हैं- भाग 2

एक प्रश्नचिह्न था शेष सब के चेहरे पर. बस, एक चाची थीं जो तटस्थ थीं. न कोई खुशी, न कोई गम. खुशी भी मनातीं तो क्या सोच कर और दुखी भी होतीं तो क्यों. ऐसा क्या था जो उन्होंने खो दिया था और एक भी ऐसी कौन सी आशा थी जो अब इस उम्र में जागती.

बीमारी की हालत में ही रहे चाचा कुछ दिन. विजय सहमासहमा था शायद चाची से. पता चला 2 साल पहले चाचा ने विजय की मां को तलाक दे दिया था. वह बीमार थी, चाचा साथ रखना नहीं चाहते थे.

‘क्या? बीमार थी इसलिए चाचा ने तलाक दे दिया?’

अवाक् रह गया था मैं. 15-16 साल के बच्चे की मां को चाचा ने इसलिए तलाक दे दिया कि वह बीमार थी. तरस आया था मुझे उस औरत पर. दबेघुटे शब्दों में यह भी कानों में पड़ा कि वह चरित्रहीन भी थी. मैं हैरान था कि वह बीमार भी थी और चरित्रहीन भी. हाथ छोड़ना हो तो मनुष्य क्याक्या बहाने बना लेता है. और निभाना हो तो कोई सीमा ही नहीं. चाची बेचारी बिना साथ के ही निभाए जा रही हैं और चाचा ने हाथ छोड़ दिया क्योंकि वह बीमार थी. कैसा बेमेल रिश्ता है दो बेमेल इंसानों में. क्योंकि चाचा बीमार थे. कोई दयाभाव, कोई तरसभाव ही ले कर सब सेवा करते रहे और लगभग 2 महीने बाद चाचा भी चले गए उस पार. यह विजय रह गया था अकेला. चाची धीरेधीरे इस अनाथ बच्चे से प्यार करने लगीं. एक धोखेबाज पति की संतान से घुलनेमिलने लगी थीं. मां बन कर इसे सहेजने लगीं. भूल गई थीं वह सब. मात्र इंसान बन कर इंसान से प्यार करने लगी थीं.

‘लावारिस है न यह भी मेरी तरह. हम दोनों का प्यार और स्नेह का नहीं, मात्र दर्द का रिश्ता है. आज की तारीख में इस से बड़ा बदनसीब और कौन होगा, सोमू.’ समझ सकता था मैं. चाची को भी जीने का आसरा मिल गया था. मिलीजुली मिट्टी के गीलेअधगीले लौंदे को कोई आकार दे कर चाची मूर्त बनाने की कोशिश करने लगीं. चाची का भी मन लगने लगा. अपनी जमापूंजी लगा कर चाची उसे पढ़ानेलिखाने का प्रयास करने लगीं और विजय ने भी पूरी लगन से अपना जीवन संवारा.

धीरेधीरे समय बीता, विजय ने एमबीए कर लिया. चाची की एक मित्र बेंगलुरु में थीं. वे ही उस की एक तरह से लोकल गार्जियन भी थीं. चाची खुश थीं, पिता उस का नहीं हुआ पर बेटा तो उस का हुआ. अच्छी कंपनी में नौकरी भी मिल गई. चाची भी सुखी बुढ़ापे के सपने देखने लगी थीं.

मित्र की बेटी पसंद आ गई थी विजय को, चाची ने स्वीकार कर लिया था. सोच लिया था दोनों की शादी हो जाएगी. अभी एमबीए पूरी नहीं हुई थी तभी चाची की मित्र और उन के पति का कार दुर्घटना में देहांत हो गया था जिस वजह से यह रिश्ता और भी सहज हो गया था. मानो 3-3 बेसहारा लोग एक ही छत के नीचे मिल जाने वाले हों. मित्र की पुत्री बहू बन जाएगी तो सासबहू, मांबेटी की तरह जीवन गुजार लेंगी. लेकिन सहसा ऐसा क्या हो गया कि चाची को इतने कड़वे शब्दों का इस्तेमाल  करना पड़ा?

‘‘निकल जाओ मेरे घर से. आज के बाद मेरातुम्हारा कोई रिश्ता नहीं.’’

‘‘क्या हो गया, चाची?’’ लड़खड़ाती चाची को संभाला मैं ने.

‘‘कुछ नहीं हुआ, सोमू. सिर्फ मेरी ममता का इनाम मिला है मुझे. मैं ही भूल गई थी सांप का बच्चा संपोला ही निकलता है. अरे, जो लड़का अपनी जन्म देने वाली का सगा न हुआ वह मेरा सगा क्या होता. यह तो मौकापरस्त इंसान है जिसे सिर्फ अपना मतलब निकालना आता है. रिश्ते निभाना आता होता तो मरती मां का साथ कभी न छोड़ता.’’

चाची का हाथ पकड़ अपने कमरे में ले आया मैं और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया.
‘‘क्या हो गया, छोटी मां?’’

‘‘मैं किसी की मां नहीं हूं. मैं ने कभी किसी संतान को जन्म नहीं दिया. तुम क्यों मांमां की रट लगाए जा रहे हो. छोड़ो मुझे.’’

पगलाई सी लगीं मुझे चाची. मेरी पत्नी ने चाची को संभाला.

‘‘इस घर में मेरा है क्या? जमीनजायदाद तो कानूनन विजय और सोमू की आधीआधी है. रहा सवाल मेरा. मुझे तो देखभाल के लिए चौकीदार बना कर लाया था न तुम्हारा चाचा. कल उस के मांबाप की आया थी, बाद में उस के बेटे की आया बनी. आज वह अपना हिस्सा बेच कर बेंगलुरु जा कर रहेगा अपनी पत्नी के साथ. मेरा न कल कोई घर था न ही आज. मेरा प्यार कभी किसी की समझ में ही नहीं आया.’’

‘‘बड़ी मां, दरवाजा खोलिए,’’ विजय बाहर से दरवाजा पीट रहा था, ‘‘सोमू भैया, दरवाजा खोलिए.’’

पगला सी गई थीं चाची. मैं ने दरवाजा खोल दिया. भीतर चला आया विजय. ‘‘इतनी सी बात पर आप इतना नाराज क्यों हो रही हैं. मैं ने गलत क्या कह दिया. पापा की और आप की कभी बनी नहीं तो उस में कुछ दोष तो आप का भी होगा न. आप का तो स्वभाव ही ऐसा है. कभी आप पापा पर दोष लगाती हैं, कभी मुझे बुरा कहती हैं. रिश्ते निभाना आप को आता कहां है. आप तो जरा भी समझदार नहीं हैं.’’

‘‘विजय,’’ मेरी पत्नी ने चीख कर उस का नाम लिया.

मानो तो जड़ हो गया मैं भी. जिस लड़के की अपनी चादर में हजार छेद वही मेरी चाची पर आरोप लगा रहा था. कीचड़ का ढेर निर्मल नदी पर आरोप लगा रहा था कि वह गंदी है. समझदार नहीं है चाची.

‘‘क्या बक रहे हो, विजय? क्या हो गया तुम्हें?’’ मैं उस का हाथ पकड़ कर बाहर ले आया.

‘‘ठीक ही तो कह रहा हूं. चाची होंगी आप की, सोचा जाए तो ये मेरी लगती भी क्या हैं, जो मैं बकवास सुनूं. आप मुझे मेरा हिस्सा दे दीजिए. बेंगलुरु में मेरा एक फ्लैट निकला है ‘लकी ड्रा’ में. मुझे

30 लाख रुपया अभी चाहिए. पापा ने सारी उम्र कमा कर इसी घर को तो भरा है. अपने बाप का कमाया ही तो मांग रहा हूं. खुद भी पैसे देना नहीं चाहतीं और उसे भी मना कर दिया है कि मुझे पैसे न दे. ये दोनों मिल कर मेरा जीना हराम कर रही हैं.’’

मेरी पत्नी भी बाहर चली आई थी.

‘‘यह दूसरी कौन है?’’

‘‘सीमा और कौन? न बड़ी मां खुद पैसे दे रही हैं और न ही सीमा को देने दे रही हैं.’’

‘‘सीमा, इतने पैसे कहां से लाएगी?’’

‘‘अपना घर बेच कर और कहां से?’’

बेशर्मी की पराकाष्ठा मेरे सामने थी. सच कहा चाची ने, सांप का बच्चा संपोला.

‘‘सीमा और छोटी मां को मेरे साथ रहना है तो मेरा कहना मानना पड़ेगा.’’

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Crime Story : फंदे पर लटकी मोहब्बत

सौजन्या-सत्यकथा

कानपुर शहर से 30 किलोमीटर दूर बेला-बिधूना मार्ग पर एक गांव है-कंजती. कंजती गांव कानपुर देहात जनपद के चौबेपुर थाना अंतर्गत आता है. इसी गांव में रहने वाले सुनील की बेटी सोनी शिवली में स्थित ताराचंद्र इंटर कालेज में पढ़ती थी. इस कालेज में लड़केलड़कियां साथ पढ़ते थे. सोनी के साथ उसी की कक्षा में शिववीर भी पढ़ता था.

शिववीर धनपत का बेटा था. वह सोनी के घर के पास ही रहता था. शिववीर पढ़ने में होशियार था. जब वह 8वीं कक्षा में पढ़ता था, तभी उस की दोस्ती सोनी से हो गई थी. गंभीर प्रवृत्ति का शिववीर सोनी को इतना अच्छा लगता था कि उस का दिल चाहता था कि हर घड़ी वह उसी के साथ रहे. शायद उस का यही लगाव जल्दी ही प्यार में बदल गया. शिववीर को भी सोनी अच्छी लगती थी. वैसे तो क्लास में और भी लड़कियां थीं, लेकिन शिववीर को सोनी सब से अलग दिखती थी.

Crime Story : 2 प्रेमियों के बीच

जैसे ही दोनों को लगा कि वे एकदूसरे से प्यार करने लगे हैं, अन्य प्रेमियों की तरह उन्होंने भी साथ जीनेमरने की कसमें खा लीं. उसी बीच एक दिन सोनी के पिता ने उसे बुला कर कहा, ‘‘पता चला है कि तू किसी जाटव के लड़के के साथ घूमतीफिरती है. तुझे पता नहीं कि हम यादव हैं. यादव और जाटव का कोई जोड़ नहीं, इसलिए तू उस से दूर ही रह.’’

पिता की बातें सुन कर सोनी सन्न रह गई. जाति की बात तो उस ने सोची ही नहीं थी. बस, शिववीर उसे अच्छा लगता था, इसलिए वह उसे प्यार करने लगी थी. अब उस की समझ में आया कि प्यार भी जाति पूछ कर किया जाता है. वह सोच में पड़ गई कि अब क्या होगा.

अगले रोज शिववीर कालेज में मिला तो उस ने उसे पिता की चेतावनी के बारे में बताया. शिववीर ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘प्यार करने वालों की राह आसान नहीं होती सोनी. हमें मजबूत बनना होगा. तभी हमें मंजिल मिलेगी.’’ सोनी को लगा कि शिववीर सब संभाल लेगा. लेकिन 8वीं पास करतेकरते सोनी और शिववीर के प्यार की चर्चा गांव वालों तक पहुंच गई थी. इस के बाद गांव वाले सुनील से कहने लगे कि वह अपनी बेटी पर नजर रखें, वरना वह नाक कटा कर रहेगी.

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सुनील को लगा कि गांव वाले सच कह रहे हैं, इसलिए उस ने सोनी की पढ़ाई पर रोक लगा दी. जबकि शिववीर पढ़ता रहा. सुनील का सोचना था कि शिववीर से अलग हो कर सोनी उसे भूल जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. दोनों लगातार मिलते रहे. जब इस बात की जानकारी सुनील को हुई तो उसे गहरा आघात लगा. उस ने बेटी को डांटा कि अगर उस ने उस जाटव के लड़के से मिलना नहीं छोड़ा, तो सख्त रुख अपनाना पड़ेगा.

गांव में सुनील की बेटी की आशिकी चर्चा का विषय बनती जा रही थी. लेकिन सुनील को ही नहीं, पूरे गांव को चिंता थी कि अगर यादव की बेटी जाटव के साथ भाग गई, तो उन की बिरादरी पर कलंक लग जाएगा. सुनील पर गांव वालों का दबाव बढ़ने लगा कि वह अपनी बेटी को संभाले. सोनी को जब पता चला कि उसे शिववीर से दूर करने की साजिश रची जा रही है तो वह घबरा गई. लेकिन उस के इरादे कमजोर नहीं पड़े. उस ने तय कर लिया कि कुछ भी हो, वह किसी भी कीमत पर शिववीर को नहीं छोड़ेगी.

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इस के बाद वह बागी होती गई. एक दिन उस ने अपनी मां संतोषी से खुल कर कह दिया, ‘‘आखिर क्या कमी है शिववीर में? दिखने में भी अच्छा है. पढ़ाई में भी ठीक है. सब से बड़ी बात तो यह है कि वह मुझे प्यार करता है.’’ बेटी की बात सुन कर संतोषी सन्न रह गई. उसे लगता था कि अभी बेटी छोटी है. डांटनेफटकारने से रास्ते घर आ जाएगी. लेकिन बेटी तो बहुत आगे निकल चुकी थी. तब मां ने सोनी को डांटा, ‘‘एक जाटव के लड़के के साथ तेरी शादी कभी नहीं हो सकती. समाज में रहने के लिए उस के नियमों को मानना पड़ता है.’’

लेकिन सोनी ने तय कर लिया था कि वह किसी की नहीं मानेगी. वह वही करेगी जो उस का दिल चाहता है. दूसरी ओर शिववीर के पिता धनपत को पता नहीं था कि वह यादव की बेटी से प्यार करता है. लेकिन जब इस बात की जानकारी उन्हें हुई तो उन्होंने उसे समझाया कि वह जो कुछ कर रहा है, वह ठीक नहीं है.
आज भी समाज में ऊंचनीच की दीवार कायम है. अगर किसी ने उस दीवार को तोड़ने की कोशिश की है तो उस के साथ बुरा ही हुआ है.

धनपत बेटे के लिए परेशान रहने लगा था, उसे डर था कि यादव जाति के लोग उसे कोई नुकसान न पहुंचा दें. उसे शिववीर के सिर पर खतरा मंडराता नजर आया तो वह उस पर नजर रखने लगा. ऐसे में सोनी ने जब शिववीर से पूछा कि उस ने भविष्य के बारे में क्या सोचा है तो उस ने कहा, ‘‘हम समाज की बेडि़यों से बंधे हैं. अगर यह समाज हमें साथ जीने नहीं देगा तो हमें साथ मरने से तो नहीं रोक सकता.’’ ‘‘मरने की बात कहां से आ गई शिववीर? मैं अभी जीना चाहती हूं, वह भी तुम्हारे साथ.’’ सोनी बोली.

शिववीर ने उसे समझाया कि जीना तो वह भी चाहता है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है. तब सोनी ने कहा, ‘‘चलो, हम घर छोड़ कर भाग चलते हैं.’’तभी शिववीर ने कहा, ‘‘नहीं, ऐसा करने से दोनों के घर बरबाद हो जाएंगे. हम अपनी खुशियों के लिए अपने घर वालों की खुशियां नहीं छीन सकते. सोनी, हमारे सामने जो हालात हैं, उन्हें देख कर यही लगता है कि अब हमारे सामने एक ही रास्ता है कि हम मर कर सभी को दिखा दें कि हमारा प्यार सच्चा था. हमें मिलने से कोई नहीं रोक सका.’’

इधर सोनी पर घर वालों की बंदिशें इतनी बढ़ चुकी थीं कि वह परेशान रहने लगी थी. एक दिन उस ने शिववीर को फोन कर के बताया, ‘‘शिव, मुझे तो लगता है कि हम कभी नहीं मिल पाएंगे. क्योंकि घर वाले मेरी शादी की बात कर रहे हैं.’’ शिववीर ने सोचा कि अब उसे कोई निर्णय ले ही लेना चाहिए. समाज की पाबंदियों की वजह से जीवन के प्रति उस की उदासीनता बढ़ रही थी. उस के पास न तो ऐसे कोई साधन थे और न ही हिम्मत कि वह अपनी प्रेमिका को कहीं दूर ले जा कर अपना आशियाना बसा ले.

ऐसे में उस के सामने एक ही रास्ता था कि वह प्रेमिका के साथ मौत को गले लगा ले. ताकि इस जहान में न सही, उस जहान में तो मिल सके. वहां उन्हें रोकने के लिए न तो समाज होगा और न ही ऊंचनीच की कोई दीवार. एक शाम गांव के बाहर रवि के बगीचे में दोनों का आमनासामना हुआ. बातचीत के दौरान सोनी ने पूछा, ‘‘शिववीर, क्या सोचा है तुम ने? क्योंकि अब मैं बंदिशों से परेशान हो गई हूं. घर वाले मुझ से काफी नाराज हैं.’’

‘‘सोनी, हम ने साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं. अब तक हमारी समझ में यह आ गया है कि हम साथसाथ जी नहीं सकते. लेकिन हम साथसाथ इस जालिम दुनिया को अलविदा तो कर ही सकते हैं.’’
‘‘शिववीर, मैं ने तुम्हें जीवन भर साथ निभाने का वचन दिया है, इसलिए पीछे नहीं हटूंगी. लेकिन मेरी इच्छा है कि मैं सुहागन हो कर मरूं. अगर हम ने इस जन्म में शादी नहीं की तो अगले जन्म में भी साथ नहीं रह सकेंगे.’’

शिववीर ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही होगा. मरने से पहले हम शादी कर लेंगे.’’ इधर परेशान सुनील ने अपनी बेटी सोनी की शादी बिल्हौर थाना क्षेत्र के धंसी निवादा रहने वाले मेवाराम यादव के बेटे अमर के साथ तय कर दी. 20 मार्च को तिलक और 30 मार्च, 2021 को शादी की तारीख भी तय हो गई. इस के बाद वह शादी की तैयारी में जुट गया.

सोनी को अपनी शादी की बाबत पता चला तो वह परेशान हो उठी. उस ने शादी तय होने और 30 मार्च को बारात आने की जानकारी शिववीर को दी तो वह भी परेशान हो उठा. उस ने सोनी को समझाया भी. लेकिन सोनी ने साफ कह दिया कि वह दुलहन तो बनेगी, लेकिन किसी और की नहीं, केवल अपने मन के मीत की.
सुनील बेटी की शादी धूमधाम से करना चाहता था. घर में खुशी का माहौल था. घर में नातेरिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था. मंडप भी गड़ गया था और मंडप के नीचे मंगल गीत गाए जाने लगे थे. सोनी की काया को निखारने के लिए उस के शरीर पर उबटन लगाया जाने लगा था.

28 मार्च, 2021 को होली का त्यौहार था. रात 10 बजे होली जलाई गई. रात 12 बजे जब घर के लोग सो गए तो सोनी ने शिववीर को फोन किया और पूरी तैयारी के साथ उसे गांव के बाहर शीतला देवी के मंदिर पर मिलने को कहा. उसी रात शिववीर घर से निकल कर शीतला देवी मंदिर पहुंच गया, जहां सोनी उस का इंतजार कर रही थी. रात में ही उन्होंने मां शीतला को साक्षी मान कर मंदिर में शादी कर ली. शिववीर ने सोनी की मांग भर कर उसे पत्नी बना लिया.

रात भर दोनों एकदूसरे की बांहों में समाए रहे. रात का अंधेरा और तारे उन की मोहब्बत के गवाह बने.
सुबह 4 बजे शिववीर ने कहा, ‘‘सोनी, अब हमें लंबे सफर पर चलना होगा.’’ इस के बाद सोनी और शिववीर कमल कटियार के खेत पहुंचे. खेत के किनारे नीम का पेड़ था. इस पेड़ पर दोनों चढ़ गए. सामान को उन्होंने 2 शाखाओं के बीच रखा, फिर रस्सी का फंदा गले में डाल कर दोनों झूल गए. कुछ देर में ही उन के प्राणपखेरू उड़ गए.

सुबह 7 बजे कंजती गांव का आशू कटियार दिशामैदान को गया तो उस ने नीम के पेड़ पर रस्सी के सहारे प्रेमी युगल को लटकते देखा. वह भाग कर गांव आया और गांव वालों को जानकारी दी. इस के बाद तो कंजती गांव में सनसनी फैल गई. कुछ ही देर में वहां भीड़ जुट गई.

सुनील की बेटी सोनी तथा धनपत का बेटा शिववीर भी अपनेअपने घर से नदारद थे. उन का माथा ठनका. सुनील अपनी पत्नी संतोषी के साथ घटनास्थल पहुंचा. वहां अपनी बेटी सोनी को फांसी के फंदे पर झूलता देख कर वह दहाड़ मार कर रो पड़ा. धनपत भी बेटे की मौत पर आंसू बहाने लगा. इसी बीच गांव के प्रधान राजेश ने प्रेमी युगल द्वारा जीवनलीला समाप्त करने की सूचना थाना चौबेपुर पुलिस को दे दी. सूचना पाते ही थानाप्रभारी कृष्णमोहन राय पुलिस बल के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. उन्होंने घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया.

मृतका सोनी और मृतक शिववीर कंजती गांव के ही रहने वाले थे. सोनी करीब 21 वर्ष की थी, जबकि शिववीर 22 वर्ष का था. सोनी की मांग में सिंदूर था. देखने से ऐसा लग रहा था कि मरने के पहले दोनों ने शादी कर ली थी. थानाप्रभारी कृष्णमोहन राय अभी निरीक्षण कर ही रहे थे कि यादव और जाटव बिरादरी के लोगों में कहासुनी होने लगी. तनाव बढ़ता देख श्री राय ने सूचना पुलिस अधिकारियों को दी. सूचना पा कर एसपी (देहात) केशव कुमार चौधरी तथा डीएसपी संदीप सिंह वहां आ गए.

पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का निरीक्षण किया तथा दोनों पक्षों के लोगों को समझा कर शांत किया. इस के बाद उन्होंने फंदे पर लटके दोनों शवों को नीचे उतरवाया. उन्होंने मृतकों के घर वालों से पूछताछ की. मृतक शिववीर की जामातलाशी ली गई तो उस की जेब से मोबाइल फोन, पैन कार्ड, आधार कार्ड, डेबिट कार्ड तथा 597 रुपए मिले. इस के अलावा पेड़ की डाल पर चुनरी, गमछा, मोबाइल फोन, हाथ घड़ी, 2 जींस, पेड़ के नीचे लेडीज चप्पलें तथा पानी की बोतल मिली. पुलिस ने बरामद सामान को सुरक्षित किया तथा दोनों शवों को पोस्टमार्टम हाउस माती भिजवा दिया.

थाना चौबेपुर पुलिस ने प्रेमी युगल आत्महत्या प्रकरण को जीडी में दर्ज तो किया, लेकिन दोनों की मृत्यु होने से उन्होंने इस प्रकरण की फाइल बंद कर दी. बेटी के गलत कदम से सुनील का सिर झुक गया था. यादव समाज का तिरस्कार उसे भारी पड़ रहा था.

ममता का करिश्मा

इस सवाल का जवाब इतिहासकार व सामाजिक वैज्ञानिक कभी भी नहीं खोज पाएंगे कि मानव सभ्यता को धर्म ने बनाया या धर्म ने समाज के सभ्य होते ही उसे काबू कर लिया. यह जरूर है कि सदियों से धर्म ने मानव के हर काम को नियंत्रित किया है, उसे मरनेमारने को भी तैयार किया. भारत में 40-50 वर्षों से धर्म के नाम पर राजनीति का दौर, 1947 के विभाजन पर हुई हिंसा से सबक सीखने के बाद भी, बखूबी चल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उन की भारतीय जनता पार्टी सत्ता पाने व सत्ता में बने रहने के लिए धर्म को खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल कर रही है.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह को लगा था कि राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट से मैनेज्ड फैसला घोषित करवा लेने के बाद अब वे ममता बनर्जी जैसी छोटी चींटी को मसल कर रख देंगे और नीलेसफेद बंगाल को भगवा रंग में लपेट देंगे. उन्हें यह एहसास नहीं था कि धर्म को हथियार बनाए बिना भी ममता बनर्जी जैसी जुझारू नेता ने पश्चिम बंगाल को बता दिया था कि उन्हें अपने लिए नहीं, जनता के लिए राज करना है. केंद्र सरकार के गृहमंत्री व भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने एक के बाद एक कितने ही ऊंची जातियों के तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को भाजपा में शामिल होने को मजबूर कर दिया था और इस पर उन्हें इतना गरूर हो गया था कि बंगाल फतह का मोरचा खोल डाला मानो ममता बनर्जी भारतीय महिला नहीं,

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बल्कि मक्का, मदीना या रोम से सीधे आ टपकी हों. ममता के लिए ‘दीदी… ओ… दीदी…’ कह कर अपमानित करने वाली भाषा का इस्तेमाल किया गया. मोदी और शाह को पक्का भरोसा था कि वे ममता को अपमानित कर बंगाली मतदाताओं को बेवकूफ बनाने में कामयाब हो जाएंगे और भाजपा की झोली में 200 सीटें आ जाएंगी. बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 128 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी. नरेंद्र मोदी भूल गए कि उन के राज की पोल खुल चुकी थी. कोविड संकट से वे व उन की सरकार जिस तरह से निबट रहे हैं वह बेहद नाराजगीभरा है, ठीक उन के आदर्श राम की तरह. राम ने जिस तरह दुर्वासा के श्राप के डर से लक्ष्मण को सरयू में समाधि लेने को कह दिया था, वैसे ही नरेंद्र मोदी ने कोविड के श्राप पर देश की जनता को मरने के लिए छोड़ दिया है. नरेंद्र मोदी 2020 के कोविड आतंक के मद्देनजर बजाय अस्पताल बनाने, वैंटिलेटर बनाने, औक्सीजन का इंतजाम करने के किसानों, दिल्ली सरकार से भिड़ने और नए संसद भवन के निर्माण में जुटे रहे जिस की सब को जरूरत नहीं.

इस से यह साफ हो गया कि उन्हें देश की जनता की चिंता नहीं है. उन्हें केवल उन भक्तों की चिंता है जो हिंदू धर्म की दुकानदारी कर के रोजीरोटी कमा रहे हैं. इन में अंबानी, अडानी के साथ मंदिरों के पुजारी, आयुर्वेदिक व योग बेचने वाले, मंदिरों के आगे फूल बेचने वाले, कुंभ जैसे मेले कराने वाले, तीर्थों पर हांक कर ले जाने वाले आदि शामिल हैं. ये सब जनता द्वारा दिए/भरे गए धर्मटैक्स पर मौज करते हैं और साथ ही, उसी जनता को बहकातेफुसलाते रहते हैं कि धर्म की शरण में आओ, तो ही जातपांत के चक्कर से छूटोगे, लक्ष्मी मिलेगी, स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी.

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करोड़ों भारतीयों को बहकाने को हर समय तैयार धर्म सेनाएं जैसे कार्यकर्ताओं के हुजूम की सहायता से नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पश्चिम बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु व केरल में भी विजय का भरोसा था. डराने के लिए उन के पास पुलिस व अदालतों में दाखिल मामले, एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट के छापे और किसी पर भी देशद्रोही के आरोप मढ़ने के हथियार थे ही. ममता बनर्जी ने वह किया जो आज तक इंदिरा गांधी के अलावा कोई नहीं कर पाया. हर तरफ के विरोध के बावजूद उन्होंने करिश्माई विजय पाई. उन का पश्चिम बंगाल के चुनाव को केवल जीत ही लेना नहीं बल्कि दोतिहाई बहुमत पा लेना बताता है कि कर्मठता और हिम्मत का परिणाम फलदायी होता है, रामनवमी की रथयात्राएं या जय श्री राम बेचारे का ढोंग नहीं. धर्मजीवी सरकार मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बस में चढ़ कर करोड़ों भक्त बनाए थे जो जन्म से यह पाठ पढ़ते आए हैं कि पूजापाठ करने से ही जीवन मिलता है,

सुख मिलता है, समृद्धि मिलती है, लक्ष्मी मिलती है और अगला जन्म अच्छे घर में होता है. ये भक्त भाजपा के लिए मरनेमारने को तैयार तो हैं, पर देश या समाज के लिए कुछ करने को तैयार हैं, यह एकदम अस्पष्ट है. 5 विधानसभाओं के लिए हो रहे चुनावों में इस बार फिर भारतीय जनता पार्टी देश निर्माण, औद्योगिक निर्माण, इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण आदि की नहीं, बल्कि राममंदिर, कृष्णमंदिर, गंगा किनारे घाटों, चारधामों, हिंदूमुसलिम, हिंदू राष्ट्र की ही बात करती दिखी. एक भक्त को चूंकि लगता है कि इसी से तो उस का धर्म के प्रति कर्तव्य पूरा होगा, कोई न कोई भगवान प्रसन्न होगा और फिर वह छप्पर फाड़ कर कटोरे में खाना डाल देगा और लक्ष्मी भी. आम हिंदूजन मंदिरों में पूजापाठ अपनी गलतियों के लिए दुख प्रकट करने नहीं जाता, वह तो मंदिर से कुछ पाना चाहता है बिना हाथपैर हिलाए.

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लगता है यह बात महाभारत युग में कृष्ण को मालूम थी कि उन के युग में भी लोग कामचोर थे, तभी तो कृष्ण बारबार कहते रहे कि कर्म में लगे रहो. हां, यह बात दूसरी कि गीता बारबार यह भी कहती रही कि इस कर्म का फल तुम ही पाओगे, यह जरूरी नहीं. अब कर्म किया है तो कोई तो फल पाएगा न. और फल पाने वाले उस युग में भी और आज भी या तो राजा और उस के प्रिय बाश्ंिदे थे या मंदिरों के रखवाले या उन से जुड़े लंबेचौड़े व्यवसाय करने वाले. भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी में ऐसा प्रचारक देखा जो एक सुंदर भविष्य के सपने दिखा कर लोगों के कर्म का फल छीन सकता था और उन से अपनी भक्ति भी करवा सकता था. ज्यादातर धर्मों में यही हुआ है पर आज शायद सिर्फ नरेंद्र मोदी विश्व के इकलौते शासक हैं जो धर्म का वादा कर के लोगों को खुश करने की क्षमता रखते हैं. यह तो कोरोना वायरस का भीषण आक्रमण है कि जिस ने कलई खोली है. हमारे पौराणिक ग्रंथ भी इसी तरह की कहानियों से भरे हैं. अमृतमंथन क्यों हुआ? क्योंकि लोग मर रहे होंगे और तथाकथित सदा जीवित रखने वाले अमृत की जरूरत थी. यह बात दूसरी कि दस्युओं से कर्म करा कर फल का सारा रस देवता पी गए. कोरोना वायरस का आक्रमण बुरी तरह धार्मिक मान्यताओं को कुचल रहा है और ऋषियों, मुनियों के जपतप, यज्ञों का भी असर नहीं हो रहा और बारबार विष्णु की गुहार भी काम नहीं आ रही.

आजकल तो लोग भीख में एक बैड, एक औक्सीजन सिलैंडर, एक वैंटिलेटर मांगते नजर आ रहे हैं. लोग रेमडेसिविर दवा या ब्लड प्लाज्मा ढूंढ़ रहे हैं जिन से लाभ मिलने की कोई गारंटी भी नहीं है. कोई भी समाज कभी भी धर्म की गाड़ी पर चढ़ कर उन्नत नहीं हुआ है. हां, हर समाज में धर्म चलती गाड़ी पर चढ़ गया और बातें बना कर गाड़ीवान की जगह बैठ गया. भाजपा ने यही किया. उस ने निर्माण नहीं किया. निर्माण की आदत नहीं डाली, निर्माण की प्रेरणा नहीं दी, सिर्फ पूजने और पुजवाने का काम किया. सो, इस का असर तो पड़ना ही था. झूठ दर झूठ नरेंद्र मोदी की सरकार अपनी कमियों का दोष उन सरकारों पर डालने की कोशिश कर रही है जो विरोधी दलों द्वारा चलाई जा रही हैं. सीधे तो नहीं पर भाजपा समर्थक सोशल मीडिया पर लगातार यह बात कर रहे हैं कि दिल्ली में बैड कम हैं या औक्सीजन की कमी है तो सरकार तो आम आदमी पार्टी की है और इस के लिए दोषी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं. किसी झूठ को बहुत ज्यादा बार कहा जाए तो काफी लोग उसे सही समझने लगते हैं. धर्म की पूरी सल्तनत इसी बात पर टिकी है कि झूठ को बारबार बोलते रहो. जीसस ऐसे पैदा हुए थे,

मोहम्मद साहब ने यह किया वह किया, बुद्ध ने यह बदलाव ला दिया, वेदों में ज्ञान है और विज्ञान है. इन व इन जैसे वाक्यों को धर्म के व धर्म की राजनीति करने वालों के एजेंट अगर बारबार दोहराएंगे, तो बहुत सारे लोग इन्हें सच मानने लगेंगे. देश का तकरीबन पूरा उद्योग और व्यापार केंद्र सरकार के हाथ में है. तरहतरह की अनुमतियां चाहिए होती हैं जिन में अधिकांश केंद्र सरकार ही देती है या केंद्र के निर्देश पर राज्य सरकारें देती हैं. दिल्ली में तो पिछले ही दिनों राज्य के कानून को बदल कर भाजपा को मिली करारी हार का बदला लेने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अनदेखा कर राज्यपाल को सर्वेसर्वा बना दिया. अरविंद केजरीवाल चुप रहे, शायद उन्हें डर था कि दिल्ली को जो सहायता मिल रही है, वह भी बंद न हो जाए. दिल्ली में औक्सीजन और अस्पतालों में बैडों की कमी के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है क्योंकि औक्सीजन लगाने का लाइसैंस केंद्र देता है और दिल्ली की जमीन की मालिक केंद्र सरकार है. अगर 7 वर्षों में भाजपा ने अपनेआप 10-20 अस्पताल बनवाए होते तो वह अपनी ताल पीटती, पर वह तो दूसरों पर दोष मढ़ने में माहिर है. दरअसल, यह पौराणिक परंपरा है.

राम को देश निकाला क्यों दिया गया क्योंकि एक ब्राह्मण ने दशरथ को श्राप दिया कि वे पुत्रमोह में मरेंगे. अहल्या पत्थर क्यों बनी, क्योंकि ऋ षि गौतम ने उसे इंद्र के साथ सोने पर श्राप दिया था. पुराणों में हर घटना के साथ एक और घटना जोड़ी गई है ताकि वह दोष को किसी और घटना से जोड़ दे. भारतीय जनता पार्टी के प्रचारक, जो अब शासक बन गए हैं, इस बात के आदी हो गए हैं कि वे हर रोज की राजनीति में तर्क, तथ्य व तंत्र पेश करने की जगह बहाने ढूंढ़ते हैं. भाजपा की यह आदत अब तकरीबन पूरे समाज में पड़ गई है. कोरोना के लिए हर कोई दूसरे पर दोष मढ़ रहा है. पहले तबलीगी जमात के मरकज पर दोष मढ़ा गया. टीवी मीडिया ने खूब होहल्ला मचाया. अब अस्पतालों पर दोष डाला जा रहा है.

हां, इतना फर्क है कि इस बार दोषारोपण भाजपा पर भी बहुत जोर से हो रहा है कि उस ने क्यों कुंभ होने दिया, क्यों पश्चिम बंगाल में विशाल रैलियां कीं और क्यों दोनों नेताओं ने न तो नियमित मास्क पहने और न ही सोशल डिस्टैंसिंग का पालन किया, साथ ही, भक्तों को भी खुली छूट दे दी. नरेंद्र मोदी तो पुलकित होते रहे भीड़ देख कर कि जहां तक नजर जाती है, आदमी ही आदमी. प्रियजन की मृत्यु पर केवल 20 जने जाएं लेकिन चुनाव जीतने के लिए 20 लाख लोगों को चुनावी सभा में धकेलने दिया गया. यह दोगला चरित्र देश की रगरग में घुसा है. घर, परिवार और व्यवसाय सब इस से प्रभावित होते हैं. झूठ तो हमारे यहां बचपन से बोला जाता है, मांएं भी सिखाती हैं, गुरु भी.

फिल्म ‘‘हंगामा 2’’भी आएगी ओटीटी प्लेटफार्म पर

2003 में प्रियदर्शन के  निर्देशन में बनी ‘‘वीनस फिल्मस’’निर्मित हास्य फिल्म ‘‘हंगामा’’ने तब सफलता के परचम लहराए थे. यही वजह है कि जब इस फिल्म का सिक्वअल ‘‘हंगामा 2’’के निर्माण की घोषणा की गयी,तो दर्शकों  के अंदर इसे देखने का उत्साह पैदा हो गया था.

और तभी से दर्शकों  से फिल्म के प्रदर्शन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.वास्तव में 2021 की यह सबसे बहु प्रतीक्षित फिल्मों में से एक है.प्रियदर्शन  निर्देषित इस फिल्म में मिजान, प्रणिता सुभाष,परेशरावल,शिल्पा शेट्टीकुंद्रा,आशुतोष राणा, मनोजजोशी, राजपाल यादव, जॉनीलीवर और टीकूतल सानिया भी प्रमुख भूमिकाओं में दिखाई देंगे.इस वर्ष की शुरुआत में फिल्म की शूटिंग पूरी कर ली गई थी और यह फिल्म हास्य के दीवाने दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए पूरी तरह तैयार है.

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अब तक इस फिल्म के निर्माता अपनी इस मल्टी स्टारर फिल्म‘‘हंगामा 2’’को सिनेमाघरों में ही प्रदर्षित करने के लिए कमर कसे हुए थे.लेकिन ‘कोविड 19’की दूसरी लहर ने ऐसा आतंक मचाया है कि देश के अधिकांश राज्यो ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पूर्ण रूप से लॉकडाउन लगा दिया है.पूरे देश के सिनेमाघर बंद पड़े हुए हैं.परिणामतः इस फिल्म के निर्माता रतन जैन ने अब इस बहु प्रतीक्षित फिल्म को ओटीटी प्लेटफार्म पर ही प्रदर्षित करने का निर्णय ले लिया है.

एक आधिकारिक बयान में, रतन जैन ने कहा है-‘‘फिल्म ‘हंगामा 2’ एक हल्की-फुल्की हास्य फिल्म है,जिसका आनंद सभी आयु के लोग उठा सकते हैं.हमें पूरा यकीन है कि हमारी यह फिल्म दर्शकों का भरपुर मनोरंजन करेगी और कोरोना के इस कठिन समय में उनके अंदर कुछ उत्साह जगाएगी. हम फिल्म को डिजिटल पर रिलीज करेंगे. इस साल फिल्म प्रेमी अपने घरों में आराम से हंसी के दंगल का आनंद ले सकते हैं.हमने ‘हंगामा 2’को बेहद प्यार से बनाया है और हमें विश्वास है कि हमारी फिल्म लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाएगी.हम बहुत जल्द ओटीटी प्लेटफार्म के नाम की विधिवत घोषणा करने वाले है.कुछ उत्कृष्ट ओटीटी प्लेटफार्म से हमारी बात चीत अपने अंतिम पड़ाव पर है.‘‘

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‘वीनस रिकॉर्ड्स एंडटेप्स एलएलपी प्रोजेक्ट’के बैनर तले बनी फिल्म ‘‘हंगामा 2’’का निर्माण रतन जैन, गणेश जैन, चेतन जैन और अरमान वेंचर्स ने किया है.

Indian Idol 12: किशोर कुमार विवाद में फंसे आदित्य नारायण तो बचाव के लिए आगे आएं पापा उदित नारायण

इंडिन आइडल 12 के मंच से किशोर कुमार विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. बीते वीकेंड के शो में आदित्य नारायण ने एक कमेंट करके इस शो को और भी ज्यादा हवा दे दी है. आदित्य ने कुमार सानू , अनुराधा पौडवाल और रूप राठौड़ के सामने अमित कुमार पर फिर से तंज कस दिया.

जिसके बाद सोशल मीडिया पर आदित्य नारायण की जमकर ट्रोलिंग हुई. इस मामले को ठंड़ा करने के लिए आदित्य को अपने पिता उदित नारायण का साथ मिला है. उदित नारायण ने अपने बेटे का पक्ष लेते हुए कहा कि उनके अंदर काफी बचपना है. वो सिर्फ एक शो के होस्ट हैं. ऐसे में सारा विवाद उन पर डालना सही नहीं है.

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आगे उन्होंने कहा आदित्य काफी इमोशनल है वह दूसरे लोगों कि तरह चुप नहीं बैठा इसलिए सारा दोष उसी पर डाल दिया गया. वहीं अमित कुमार वाले मामले पर उदित नारायण ने एक रिपोर्ट से बात करते हुए कहा कि अगर आप किसी शो में आने के लिए तैयार हो गए तो आपको बाहर आकर बुराई नहीं करनी चाहिए कि आपको यहां आकर अच्छा नहीं लगा.

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इसका मतलब तो ये है कि केवल पैसे लेकर आप मेकर्स और कंटेस्टेंट कि तारीफ की थी. अब देखना यह है कि यह विवाद ठंड़ा कब होगा. खैर आदित्य नारायण को लोग इंडियन आइडल में देखना काफी ज्यादा पसंद करते हैं.

Jasmin Bhasin अपनी इस गलती की वजह से हुईं ट्रोलर्स की शिकार, यूजर्स ने पूछा ये सवाल

बिग बॉस फेम जैस्मिन भसीन  हमेशा सोशल मीडिया पर एक्टिव रहती हैं और फैंस को नए -नए अपडेट देती रहती हैं. हाल ही में सोशल मीडिया पर जैस्मिन भसीन का एक नया फोटो वायरल हो रहा है जिसे देखकर आप भी शायद सवाल पूछेंगे कि पैंट क्यों नहीं पहना है.

बीते दिनों जैस्मिन भसीन को जूहू इलाके में स्पॉट किया गया. जहां वह लाल रंग कि हुड़ी पहने नजर आईं. एक्ट्रेस ने हुड़ी के नीचे काले रंग का शॉट्स भी पहना हुआ था. जिसमें उनका लुक बाकी दिनों से इस बार अलग लग रहा था.

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बता दें कि जैस्मिन का शॉट्स इतना छोटा था कि लोगों को नजर नहीं आ रहा था. इसके बाद क्या था ट्रोलर्स को एक मौका मिल गया और वह जैस्मिन भसीन से सवाल पूछने लगे. जैस्मिन भसीन ट्रोलर्स के निशाने पर तबसे हैं जबसे उन्होंने बिग बॉस 14 में रुबीना दिलैक को नीचा दिखाया था.

जिसके बाद से ट्रोलर्स को जैस्मिन भसीन के गलती का इंतजार था फिर क्या था सोशल मीडिया पर एक के बाद एक सवाल पूछने लगें. एक यूजर ने लिखा कि अरे तुम इतनी बड़ी एक्ट्रेस कब बन गई कि पैंट पहनना भूल गई तो एक ने लिखा कि पैंट आखिर पहना क्यों नहीं जिसके बाद से कई गंदे कमेंट आने शुरू हो गए .

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जैस्मिन भसीन की यह तस्वीर  इंस्टाग्राम अकाउंट पर है. जिसे अली गोनी ने लाइक भी किया है. बता दें कि कुछ दिनों पहले जैस्मिन भसीन ने सोशल मीडिया के जरिए इस बात की जानकारी दी थी कि उन्हें और अली गोनी को कोरोना हो गया था. अब वह दोनों ठीक है.

हाल ही में दोनों कश्मीर से वापस लौटे हैं. गौरतलब है कि बिग बॉस के बाद से जैस्मिन भसीन के पास कई सारे ऑफर्स आ चुके हैं. खबर ये भी है कि वह जल्द एक वेब सीरीज में नजर आने वाली हैं.

देश में कोरोना का कहर जिम्मेदार कौन?

लेखक- शैलेंद्र सिंह, नसीम अंसारी कोचर, सोमा घोष, गरिमा पंकज.

अब मुनासिब वक्त है कि कोरोना के कहर की जिम्मेदारी किस की, यह तय किया जाए. जो साफतौर पर दिख रहा है, वह यह है कि देश में इस के जानलेवा फैलाव और उस के बाद स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की एक बहुत बड़ी वजह अदूरदर्शिता है.

सदियों की गुलामी ढोने वाले भारतीय असल में आजादी के 70 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी राजाओं के चमत्कारी किस्सेकहानियों की मानसिक दास्तां से मुक्त नहीं हो पाए हैं.

लोगों ने मान रखा है कि राजा भगवान का दूसरा रूप होता है और बड़ा न्यायप्रिय और बुद्धिमान होता है. वह कई दैवीय शक्तियों का मालिक होता है वगैरह, जबकि हकीकत में लोकतंत्र में मुखिया राजा नहीं, बल्कि एक मैनेजर होता है जिस की बातों और वादों पर भरोसा करते हुए वोटर देश उसे सौंप देता है. कोरोना जैसे कहर या त्रासदी तय करते हैं कि मैनेजर अच्छा था या अच्छा नहीं था.

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दोटूक कहा जाए, तो बहैसियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना के मोरचे पर नाकाम साबित हो चुके हैं. 7 साल के कार्यकाल में पहली बार उन से इस्तीफे की मांग उठी है, उन की अदूरदर्शिता और कुप्रबंधन पर सवाल उठ रहे हैं और उन्हें ले कर लोगों के भ्रम टूट रहे हैं, क्योंकि जो परेशानियां लोगों ने उठाईं, वे जरूर मानव निर्मित हो कर असहनीय और अमानवीय थीं.

राजा जिद्दी, अहंकारी और क्रूर भी होते थे, पर लोकतंत्र के मैनेजर इस राह पर चल पड़ें तो वे नजारे कतई हैरत की बात नहीं, जिन्हें बीते दिनों देशभर के लोगों ने देखे और भोगे भी. 11 मई को उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नदी में बहती लाशें इस बात की गवाही दे रही थीं कि देश का सिस्टम तारतार हो चुका है.

लोगों ने कैसीकैसी नारकीय यातनाएं उठाईं, जिन की जिम्मेदार कैसे नरेंद्र मोदी और उन की विशाल बहुमत से चुनी हुई सरकार के साथसाथ राज्य सरकारें भी हैं.  पौराणिक काल होता तो राजा प्रजा का ध्यान बंटाने के लिए कोई बड़ा यज्ञहवन कर डालता, लेकिन 73 साल के लोकतंत्र ने लोगों को इस काबिल तो बना दिया है कि वे इस की छूट उन्हें नहीं दे रहे.

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आम लोगों द्वारा सवाल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को ले कर ज्यादा हो रहे हैं. यह एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन अफसोसजनक बात यह कि कारवां गुजर जाने के बाद गुबार में हो रहे हैं. जो सवाल 7 नहीं, एक साल पहले होने चाहिए थे, वे उस वक्त हो रहे हैं जब सरकार की कलई खुल चुकी है. लाखों लोग बेमौत मारे गए हैं और अभी भी मारे जा रहे हैं. ये सभी कोरोना से नहीं मरे हैं, बल्कि अधिकतर लोग इलाज, दवा और औक्सीजन के अभाव में और बदइंतजामी के चलते मरे हैं, जिस की दोषी सरकार ही होती है.

भक्ति बनी श्राप

सरकार यह जिम्मेदारी सही से क्यों नहीं निभा पाई, इस के लिए पीछे मुड़ कर देखना जरूरी है कि मोदी सरकार के 7 साल के कार्यकाल में क्या हुआ. साल 2014 में एक ताबड़तोड़ चुनावप्रचार अभियान के तहत नरेंद्र मोदी लोगों का ब्रेनवाश करने में कामयाब रहे थे कि देश आजादी के बाद से नेहरूगांधी परिवार को सत्ता सौंपता रहा है, जो गले तक भ्रष्टाचार में डूबा है और लोग क्यों उसे ही चुनते हैं, जबकि उन के सामने एक सशक्त विकल्प मौजूद है. कांग्रेस मुसलिम तुष्टीकरण को ले कर भी कठघरे में खड़ी की गई थी.

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ऐसी कई  झूठी और कुछ सच्ची बातों का असर हुआ और लोगों ने एक बड़े भरोसे के साथ सत्ता उन्हें सौंप दी. कुरसी संभालने के बाद से ही शुरू हुआ मोदी भक्ति और ऊंची जातियों का पुनभर्क्तिकरण दौर, जिस में किसी ने उन की मनमाने और बेतुके फैसलों पर गौर नहीं किया, उलटे नोटबंदी से ले कर 3 तलाक, धारा 370 और जीएसटी जैसे नुकसानदेह फैसलों के भी फायदे गिनाने शुरू कर दिए. कई भाजपा नेताओं ने मोदी को अवतार और भगवान कहा, जो इंदिरा गांधी के दौर के कांग्रेसी चाटुकारों को भी मात करती हुई बात थी.

गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार वल्लभभाई पटेल की 3,000 करोड़ रुपए की मूर्ति की स्थापना और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर अरबों रुपए जनता की खूनपसीने की गाड़ी कमाई के बेरहमी से फूंक दिए गए. इस में भी कई लोगों को देश ( दरअसल ऊंची जातियों द्वारा बना गया हिंदुत्व) का हित नजर आया. नतीजा यह हुआ कि वे मनमानी को ही लोकतंत्र सम झ बैठे, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका में कट्टरवादी डोनाल्ड ट्रंप को शुरू में लोकतंत्र का मसीहा प्रचारित किया गया था. 7 साल देश में मोदी ही दिखते रहे, जिन्होंने महंगी विदेश यात्राएं भी जम कर कीं. इन यात्राओं पर भी कहा गया कि विदेशों में भारत की इमेज विश्वगुरु और सब से बड़ी आर्थिक शक्ति की बन रही है.

आज जो त्राहित्राहि देश में मची है, उस में ये आत्ममुग्ध कर देने वाली बातें न केवल कचोट रही हैं, बल्कि खी झ और खिसियाहट भी पैदा कर रही हैं कि कहां है उन का वह चमत्कारी और दैवीय व्यक्तित्व और अवतार, जो हर मुश्किल को चुटकियों में हल कर देने का दावा करता था. असल में कोई आपदा कोरोना जैसी तब तक नहीं आई थी, जो यह बताती कि ठोस कुछ नहीं हो रहा है, बल्कि शोशेबाजी हो रही है. 7 साल में ऐसा कोई काम नरेंद्र मोदी और उन की सरकार ने नहीं किया, जिस से आम लोगों का भला हुआ हो और लोगों की जिंदगी आसान हुई हो या परेशानियां हल हुई हों, उलटे जो दुश्वारियां बढ़ीं, उन्हें भी प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया गया.

नरेंद्र मोदी और उन की सरकार की कार्यशैली के बारे में एक राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार संजय बारू, जो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार भी रहे हैं, ने ‘द एक्सिडैंटल प्राइम मिनिस्टर’ के बाद अपनी नई किताब ‘इंडियाज पावर इलीट क्लास कास्ट एंड ए कल्चर रेवोल्यूशन’ में बेबाक बयानी की है. बीती 9 मई को इस किताब के विमोचन के मौके पर पत्रकार कूमी कपूर ने कहा, ‘‘भारत में अब वैश्विक उच्च वर्ग के बुद्धिजीवी और उदारवादियों को संदिग्ध के तौर पर देखा जाता है और इन्हें मध्यमवर्ग के हिंदू राष्ट्रवादियों से बदलने की कोशिश की जा रही है. ऐसे राष्ट्रवादियों से जो जाहिर तौर पर इंडिया के बजाय भारत के बड़े लक्ष्य के लिए काम करें. इस नई आस्था पर किसी भी तरह का प्रतिवाद स्पष्ट शत्रुता के तौर पर देखा जाता है.’’

बकौल कूमी कपूर, मोदी सिर्फ संस्थानों को निशाना नहीं बना रहे, बल्कि वे सैंट्रलविस्टा बना कर लुटियंस दिल्ली पर अपनी छाप छोड़ना चाहते हैं. इस छोटे से वक्तव्य से जाहिर यह होता है कि 7 साल नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदुत्व वाली इमेज को गढ़ते रहे, बाकी कामों से उन्होंने कोई दिलचस्पी और सरोकार नहीं रखा. कोरोना का कहर उन में से एक है.

एक साल बाद

यहां तक लोग उन्हें  झेलते रहे, फिर आया कोरोना, जिस के बारे में किसी को कुछ खास नहीं मालूम था. नरेंद्र मोदी ने मार्च 2020 में कोरोना के संभावित कहर को न सम झते हुए दीए जलवाए, बिजली गुल करवाई, तालीथाली बजवाई और लोगों ने बजाई भी.

यह अवैज्ञानिक, बेहूदा और बचकाना टोटका कुछ दिन तो पौराणिक काल के यज्ञों की तरह लोगों का ध्यान बंटाने में कारगर रहा, लेकिन जब लोग कोरोना की गिरफ्त में आने लगे, मरने लगे, देशभर में दहशत फैलने लगी और भगदड़ मचने लगी, तो उन्होंने विदेशों की देखादेखी लौकडाउन घोषित कर दिया, लेकिन इस में भी जल्दबाजी और अदूरदर्शिता साफसाफ दिखी कि इस के संभावित दुष्परिणामों पर कतई विचार नहीं किया गया और लोगों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया.

कोरोना की पहली लहर दूसरी जितनी जानलेवा नहीं थी. अधिकांश लोग कुछ दवाओं के इलाज से ठीक हो रहे थे, पर तभी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई थी कि सबकुछ ठीकठाक नहीं है. इस में और सुधार की जरूरत है. कड़े लौकडाउन का असर यह हुआ कि कोरोना का कहर कम हुआ और बड़े नुकसान के बाद जिंदगी पटरी पर लौटने लगी. बड़ी चूक यही हुई कि सरकार ने मान लिया कि कोरोना हमेशा के लिए चला गया. सरकार ने दुनियाभर के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की चेतावनी को सरासर नजरअंदाज किया कि अभी खतरा टला नहीं है और एहतियात नहीं बरती गई, तो जो होगा वह कल्पना से परे होगा.

मंदिर, चुनाव को वरीयता

तब जरूरत इस बात की थी कि कहीं पर भी बड़ी भीड़ जमा न हो, जो आमतौर पर धार्मिक और चुनावी आयोजनों में ज्यादा होती है, लेकिन सरकारी शह पर पंडेपुजारियों की दानदक्षिणा के लिए हरिद्वार कुंभ में लाखों लोग जमा होने दिए गए और 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव की रैलियों और रोड शो में सरकारी गाइडलाइन की धज्जियां इफरात से उड़ाई गईं. भाजपा किसी भी कीमत पर खासतौर से पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियाना चाहती थी. लिहाजा, उस ने लाखों लोगों की जिंदगी दांव पर लगाने से परहेज न करने की क्रूरता दिखाई.

कुंभ के मेले में कोरोना गाइडलाइन नदारद थी ही, लेकिन चुनावी रैलियों में भी नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ सरीखे दर्जनों दिग्गज देश के कर्णधार ही न तो मास्क पहने दिखे और न ही उन्होंने जनता को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया, तो देशभर की अदालतें  झल्ला गईं, जिन्होंने जम कर नेताओं और सरकार को लताड़ लगाई.

अप्रैल के महीने से जो हालात बिगड़े तो हाहाकार मच गया. कुंभ से लौटे श्रद्धालुओं ने देशभर में संक्रमण फैलाया और चुनावों में गए लोगों ने भी. लोग दवाओं, बैड, एंबुलैंसों, वैंटिलेटरों, इलाज और औक्सीजन के अभाव में जल बिन मछली की तर्ज पर सड़कों पर तड़पते दिखे. श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लाशों को जलाने और दफनाने के लिए लाइनें लगानी पड़ीं. लाखों घर देखते ही देखते उजड़ गए.

महंगी पड़ रही लापरवाही और अनदेखी

यहां मोदी सरकार की भयंकर भूल और चूक उजागर हुई कि उस ने सालभर कुछ नहीं किया. न तो अस्पतालों की हालत सुधारने के लिए कोई पहल की गई, न औक्सीजन का इंतजाम किया गया और न ही कोरोना से निबटने के लिए कोई कार्ययोजना बनाई गई.

135 करोड़ की आबादी वाले देश में सरकारी और प्राइवेट मिला कर महज 70,000 अस्पताल हैं, जिन में 19 लाख बैड हैं. इन्हें बढ़ाने के लिए एक साल में सोचा ही नहीं गया, फिर कोशिश करना तो दूर की बात है.

इसी तरह कुल 550 मैडिकल कालेज हैं, जिन से 60,000 डाक्टर भी सालभर में नहीं निकलते, जबकि जरूरत 3 लाख सालाना की है.

देश में आईसीयू बिस्तरों की संख्या भी न के बराबर है यानी सिर्फ 95,000 हैं, जबकि आम दिनों में भी जरूरत इस से 10 गुना ज्यादा की होती है. कुल 50,000 वैंटिलेटरों के भरोसे 135 करोड़ लोगों को छोड़ देना भी किसी गुनाह से कम नहीं कहा सकता. सब से बड़ा गुनाह तो नरेंद्र मोदी सरकार का यह रहा कि उस ने वैक्सीन विदेशों को भेज दी. इस दरियादिली, जो दरअसल नोबेल पुरस्कार हासिल करने की हवस है, की कीमत देश अभी तक चुका रहा है.

और क्याक्या हुआ और नहीं हुआ, इसे प्रदेशवार देखें तो लगता है कि हम किसी असभ्य, असंवेदनशील, आदिम और बर्बर युग में रह रहे हैं. व्यवस्था, सत्ता, सरकार और प्रशासन कहनेभर की बातें हैं. जब केंद्र सरकार को ही लोगों की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं था, तो राज्य सरकारों को क्या गरज पड़ी थी. लिहाजा, सभी कोरोना के कहर से बचने के लिए प्रवचन से देते रहे, लेकिन जरूरी इंतजाम किसी ने नहीं किए. लापरवाही और बदइंतजामी के साथसाथ कोरोना मरीजों और उन के परिजनों ने क्याक्या बरदाश्त नहीं किया होगा, इस की कल्पना कर ही दिल दहल उठता है. यहां पेश हैं, देश के अलगअलग राज्यों में हुई कुछ घटनाएं, जिन्होंने मानवता को शर्मसार कर के रख दिया :

उत्तर प्रदेश में कुछ उत्तम नहीं

झारखंड की रहने वाली लकीसुरीन कुछ सालों से लखनऊ में रह रही हैं. लकी देश की प्लससाइज मौडलिंग में एक जानापहचाना नाम हैं. अपने भाईबहनों में सब से छोटी होने के कारण घरपरिवार में सब से लाड़ली भी रहीं.

लकी के जीवन में अप्रैल 2021 उथलपुथल भरा रहा. सब से पहले घर में बड़े भाई की तबीयत खराब हुई. उन का ब्लडप्रैशर बढ़ा, जिस की वजह से औपरेशन की जरूरत आ पड़ी. लकी और उन के परिवार ने उन्हें रेलवे अस्पताल में भरती कराया. वहां उन के सिर का क्रिटिकल औपरेशन हुआ.

एक मुसीबत अपने साथ दूसरी मुसीबत ले कर आती है. लकी की  63 साल की मां नूरा सुरीन और उन की भाभी दोनों को बुखार आने लगा. जब जांच हुई, तो दोनों ही कोविड पौजिटिव निकलीं. भाई तो खराब हालत में थे ही, मां और भाभी के बीमार होने से लकी और अकेली पड़ गईं. इसी बीच लकी की मां का औक्सीजन लेवल घटने लगा.

इस बात की जानकारी लकी ने लखनऊ के कोविड कमांड सैंटर को दी. घर में बीमार मां को अकेली छोड़ लकी सीएमओ औफिस के चक्कर लगाने लगीं. इस की वजह यह थी कि लकी को अपनी मां को किसी अस्पताल में भरती कराने के लिए सीएमओ औफिस से रैफरल लेटर लेना जरूरी था.

लकी कहती हैं, ‘‘काफी मेहनत के बाद हमें 48 घंटे के बाद रैफरल लेटर मिल सका, जबकि यह कहा जा रहा था कि रैफरल लेटर की जरूरत नहीं है. मैं अपनी मां को ले कर लोहिया अस्पताल गई. वहां गार्ड ने ही अस्पताल में घुसने नहीं दिया. वह बोला, ‘जब तक रैफर लैटर नहीं है, तब तक अंदर जाने को नहीं मिलेगा.’ उस समय तक अस्पताल में बैड खाली था.

‘‘जब मैं रैफरल लेटर ले कर आई, बैड खाली नहीं था. एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल मां को ले कर अपनी गाड़ी से भटक रही थी. हर अस्पताल में बैड खाली नहीं है, कह कर भगा दिया जा रहा था. अस्पताल के लोग संवेदना भरे दो शब्द भी नहीं बोल रहे थे. जैसे लोग भिखमंगों को भगा देते हैं, वैसे हमें दुत्कारा जा रहा था.

‘‘परेशान हो कर मैं ने फिर से कोविड सैंटर को फोन कर यह पता करने की कोशिश की कि किस अस्पताल में बैड खाली मिल जाएगा. जो सूचना कंप्यूटर पर एक क्लिक पर मिल जानी चाहिए थी, उस के लिए कोविड कमांड सैंटर को 4 घंटे बताने में लगे.

‘‘हमें अपने घर से 30 किलोमीटर दूर एशिया अस्पताल में बैड मिला. वहां की भी व्यवस्था अच्छी नहीं थी. ऐसे में एक दिन मां को वहां रखने के बाद जब हालत में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा था, तब हम एसजीपीजीआई अस्पताल ले कर गए. पर यहां की हालत और भी खराब थी. बेहतर व्यवस्था न देख हम वापस मां को ले कर एशिया अस्पताल आ गए.

‘‘मेरी दिक्कत यह थी कि मैं अपनी मां की देखभाल करने वाली अकेली थी. कोविड मरीज होने के कारण कोई भी जानपहचान वाला मदद करने को तैयार नहीं था. सब ने एक दूरी सी बना ली थी. मु झे अपनी मां को भी देखना था. उन के इलाज के लिए दवाओं का भी इंतजाम करना था और इस के लिए आर्थिक जरूरत को भी सम झना था.

‘‘जिंदगी में ऐसे हालात पहली बार देख रही थी. हर दिन का 40,000 रुपया हमें अस्पताल को देना था और इस के बाद कुछ जरूरी दवाओं का इंतजाम भी करना था. हमें 6 इंजैक्शन रेमडेसिविर लाने को कहा था.

‘‘पहले 2 इंजैक्शन में हमें 30-30 हजार रुपए खर्च करने पड़े. इस के बाद किसी तरह से 4 और इंजैक्शन की व्यवस्था 40,000 रुपए में हुई. एक लाख के केवल रेमडेसिविर इंजैक्शन ही मिल सके.

‘‘इस के अलावा हमें 3 औक्सीमीटर लेने पड़े, जो 2,200 रुपए में मिले. इस की कीमत 1,200 रुपए लिखी थी. इस में भी 2 औक्सीमीटर खराब मिले. छोटा औक्सीजन सिलैंडर भी हमें 30,000 रुपए खर्च करने के बाद मिला.

‘‘5 दिन हम दौड़भाग करते रहे. इस के बाद भी हम अपनी मां को बचा नहीं सके. 5 दिन में मां के इलाज पर हम ने 5 से 7 लाख रुपए खर्च कर दिए.

‘‘अस्पतालों में जिस को देखा, वह परेशान दिख रहा था. सब से बड़ी दिक्कत यह थी कि सरकार की बातों और मीडिया में दिखाए जा रहे हालात में बहुत अंतर दिख रहा था. खबरों में लग रहा था कि मरीजों को सभी तरह की सुविधाएं मिल रही हैं, पर जमीनी हकीकत बहुत अलग थी.’’

लकी कहती हैं, ‘‘हमें लगता है कि अगर लोगों को इलाज सही से समय पर मिल जाता, तो उन की जान को बचाया जा सकता था. अस्पतालों में मरीजों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जा रहा था.

‘‘कई अस्पतालों में तो यह हालत थी कि मरीजों के ही बगल में कुत्तेबिल्ली तक घूम रहे थे. मरीजों के साथ आए लोग मौका पा कर औक्सीजन सिलैंडर तक चुरा ले रहे थे. बेहद अफरातफरी भरा माहौल था. अभी भी वे सारे दृश्य आंखों के सामने घूम रहे हैं.

‘‘मेरा भाई अभी भी अस्पताल में है. भाभी की रिपोर्ट नैगेटिव आ गई है. हमें सब से ज्यादा परेशान करने वाली बात यह रही कि हमें इलाज के लिए इसलिए भटकना पड़ा, क्योंकि सरकार ने लिखापढ़ी के लिए तमाम काम बढ़ा रखे थे. अस्पतालों को केवल आधारकार्ड ले कर मरीज को भरती कर लेना था. इस से भागदौड़ बच जाती.

‘‘आज शहरों में छोटेछोटे परिवार हैं. ऐसे में मरीज के साथ रहने वाले लोग नहीं मिल रहे. मैं अकेली लड़की अपनी मां का साथ देती या अस्पताल के चक्कर लगाती, या फिर दवा, औक्सीजन का इंतजाम करती.

‘‘एक सप्ताह तक हम ने रातदिन एक कर के अपनी मां को बचाने का प्रयास किया, पर अंत में हार गई. मेरी मां बीमारी से नहीं मरी, बल्कि इलाज में हो रही लापरवाही और अव्यवस्था से नहीं लड़ पाई. उन के दाह संस्कार के लिए हमें खुद ही पूरा प्रबंध करना पड़ा.

‘‘मां के न रहने के 10 दिन बाद मैं खुद को बेहद अकेली पा रही हूं. सरकार और उस की व्यवस्थाओं से मैं बुरी तरह से क्षुब्ध हूं.’’

बिहार बीमार

बिहार की रुचि की दुर्गति तो लकी से भी ज्यादा दिल दहला देने वाली रही. यह दास्तां बिहार के भागलपुर की रुचि रोशन शर्मा की है. चंद दिनों पहले तक उस का नोएडा में हंसताखेलता छोटा सा घर हुआ करता था, जिस में पेशे से सौफ्टवेयर पति रोशनचंद्र दास शर्मा के अलावा नन्ही परी सी बिटिया थी.

होली के दिनों में रुचि और रोशन अपने घर भागलपुर आए थे, जहां  9 अप्रैल को रोशन को सर्दीबुखार की शिकायत हुई, तो उन्हें भागलपुर के एक प्राइवेट अस्पताल ग्लोबल में भरती कराया गया. रोशन 17 से 22 अप्रैल तक इस अस्पताल में रहे.

कोरोना के रूटीनी इलाज से कोई फायदा नहीं हुआ, तो 19 अप्रैल को उन्हें रेमडेसिविर के इंजैक्शन दिए गए, जो सामान्य से कई गुना ज्यादा कीमत पर यानी ब्लैक में मिले थे. यहां रोशन को औक्सीजन भी दी गई थी, लेकिन बकौल रुचि, केवल मास्क लगाया गया था, सप्लाई चालू नहीं की गई थी. बाद में वह पति को मायागंज मैडिकल कालेज अस्पताल ले गई थी.

अस्पतालों में ऐसे अनुभव किसी के लिए भी नए नहीं कहे जा सकते, लेकिन रुचि उस वक्त सकते में आ गई, जब वह अर्धबेहोश पति का शौच साफ करने गई, क्योंकि यहां साफसफाई के लिए कोई स्वीपर ही नहीं था. हमेशा टिपटौप रहने वाले पति, जिसे प्यार से वह बाबू कहती थी, को घंटों गंदगी में पड़े रहना देख

उसे गवारा नहीं हुआ, लेकिन मौजूद कर्मचारियों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया, बल्कि एक कर्मचारी ने उस का दुपट्टा खींचा और पूरी बेशर्मी से उस की कमर में हाथ डाल दिया.

रुचि कहती है, ‘‘मन में तो आया कि इसे चप्पल उतार कर जड़ दूं, लेकिन पति की हालत देख खामोश रह गई. बेबसी से वे यह सब देख रहे थे और कमजोरी के चलते कुछ भी करने में असमर्थ थे.

रोशन औक्सीजन की कमी के चलते छटपटा रहे थे, लेकिन न तो कोई ध्यान देने वाला था और न ही सुनने वाला था. जब उस ने मौजूद डाक्टरों को यह बात बताई, तो वे भी तल्ख अंदाज में बोले, ‘‘हम आराम नहीं करें क्या, क्या हमें आराम का हक नहीं.’’

यहां भी फायदा होता नहीं दिखा, तो चिंतित रुचि पति को मायागंज अस्पताल ले गई. बाद में 26 अप्रैल को उन्हें पटना के राजेश्वर अस्पताल में भरती कराया गया. अब तक रुचि पूरी तरह टूट चुकी थी. यह बात तो उसे सम झ आ गई थी कि एक दफा कोरोना का इलाज हो सकता है, लेकिन अस्पतालों में पसरी मनमानी लापरवाहियों और भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं. अब तक रोशन भी निराश हो चले थे शायद, इसीलिए उन्होंने रुचि से कहा था कि बेटी का खयाल अब तुम्हें ही रखना है.

पटना के डाक्टर कभी रोशन को क्रिटिकल, तो कभी सुधार होने की बात कहते रहे.

यहां भी एक कर्मचारी ने रुचि से छेड़छाड़ करने की कोशिश की. एक बार फिर वह पति के लिए खून का घूंट पी कर रह गई. यहां उसे आश्चर्य एक नर्स द्वारा यह कहने पर लगा कि ‘अरे… अभी तक यह बिस्तर खाली नहीं हुआ.’

रुचि कहती है, ‘‘ऐसा लगता है कि वे मेरे पति के मरने का इंतजार कर रहे थे, जिंदा रखने का इलाज नहीं कर रहे थे.’’ आखिरकार 26 दिन तक जिंदगी की जंग लड़ते हुए रोशन ने 8 मई को हथियार डाल दिए.

पति की मौत के बाद रुचि रोतीबिलखती रही कि उन लोगों ने मेरे बाबू को मार डाला.

रुचि की बातों पर होहल्ला मचा और कानूनी कार्यवाही भी चल रही है, पर साफ यह हो गया कि एक बार कोई सावित्री यमराज के पंजे से तो अपने पति सत्यवान को छुड़ा सकती है क्योंकि वह कहानी काल्पनिक है, लेकिन आज की रुचि अस्पतालों और डाक्टरों से अपने रोशन को नहीं बचा सकती.

बिलखती रह गईं मध्य प्रदेश की आन्द्रियाना

आन्द्रियाना भगत मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के चंदेरी थाने में बतौर सबइंस्पैक्टर पदस्थ हैं. नजदीक के मुंगावली कसबे में उन के पति कमलेश भगत पटवारी हैं. इन के 2 किशोर बच्चे हैं, जिन के साथ दिन हंसीखुशी से कट रहे थे.

पतिपत्नी दोनों ही सरकारी कर्मचारी थे, इसलिए किसी चीज की कमी नहीं थी. आम दंपतियों की तरह दोनों की इकलौती बड़ी ख्वाहिश यही थी कि बच्चे जल्द बड़े हो कर अपना कैरियर बनाएं, तो जिंदगी का मकसद पूरा हो.

कोरोना कहर के चलते दोनों एहतियात बरतते हुए अपनीअपनी ड्यूटी मुस्तैदी से बजा रहे थे. मई के पहले सप्ताह में कोरोना संक्रमण छोटे कसबों और गांवों तक में फैलने लगा था, जिस के चलते हर कोई दहशत में था, क्योंकि इलाज के लिए अफरातफरी और मारामारी इन जगहों पर भी दिखने लगी थी. जिला अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में भी न तो सहूलियतें थीं और न ही पर्याप्त स्टाफ था.

अब लोग कोरोना के साथसाथ अव्यवस्थाओं से भी डरने लगे थे कि अगर संक्रमण की गिरफ्त में आए, तो फिर मुश्किल हो जाएगी. जिन लोगों के पास इलाज के लिए पैसा था वे भी बेफिक्र नहीं थे, क्योंकि लगातार बदतर होते हालात किसी से छिपे नहीं रह  गए थे.

आखिरकार कोरोना ने भगत परिवार का भी दरवाजा खटखटा ही दिया. कमलेश में इस के लक्षण दिखे तो इलाज शुरू हो गया, लेकिन 3 मई को उन की हालत बिगड़ गई.

घबराई आन्द्रियाना पति को ले कर अशोक नगर अस्पताल इस उम्मीद के साथ ले आईं कि वहां इलाज और औक्सीजन मिल जाएगा, तो कमलेश ठीक हो जाएंगे. लेकिन कुछ नहीं मिला. अस्पताल न जाने किस भगवान के भरोसे चल रहा था. कमलेश की औक्सीजन कम होने से उन्हें घबराहट होने लगी थी.

अस्पताल पहुंचते ही आन्द्रियाना ने वैंटिलेटर की मांग की, लेकिन उन्हें बिस्तर तक नहीं मिला. बाहर तक मरीज पड़े थे और अस्पताल में उन की सुनने वाला कोई नहीं था.

आन्द्रियाना इधरउधर भागादौड़ी करती रहीं, गुहार लगाती रहीं, लेकिन वरदी का लिहाज भी किसी ने नहीं किया. दोनों बच्चे सहमे से सारा नजारा देख रहे थे. उन्हें लग रहा था कि अभी मम्मी आएंगी और कहेंगी कि चलो पापा को ले कर अंदर. वहां बैड और औक्सीजन का इंतजाम हो गया है.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था. सुबह होतेहोते कमलेश ने दम तोड़ दिया. आन्द्रियाना और दोनों बच्चे शव के पास बैठे रोतेबिलखते रहे, पर कोई हिम्मत बंधाने भी नहीं आया. मुंगावली तहसील के केटेनमैंट जोन इंचार्ज कमलेश ने अस्पताल के फर्श पर आखिरी सांस ली.

आन्द्रियाना कहती हैं, ‘‘न तो पति को देखने कोई डाक्टर आया और न ही औक्सीजन मिली, जिस से उन की मौत हो गई. कई घंटों तक हम तीनों रोतेबिलखते रहे.’’

कौन है कमलेश जैसे हजारों मौतों का जिम्मेदार और गुनाहगार, यह तय कर पाना अब मुश्किल काम नहीं रह गया है.

काम न आईं पत्नी की सांसें

आगरा के विकास कालोनी के सैक्टर-7 की रहने वाली रेनू सिंघल के पति रवि सिंघल को कई दिनों से बुखार था. वे घर में ही आइसोलेशन में थे. रवि को जब सांस लेने में तकलीफ होने लगी, तो रेनू उन्हें अस्पताल ले कर दौड़ी.

रेनू पति को औटोरिकशा से अस्पताल ले कर पहुंची. यहां उस को अस्पताल में बैड तो मिल गया, लेकिन औटोरिकशा से दोनों उतरते इस से पहले ही रवि सिंघल की हालत बिगड़ने लगी. वह रेनू की गोद में ही बेसुध हो कर लुढ़क गया.

पति की बिगड़ती हालत देख रेनू ने आसपास के लोगों से मदद की गुहार लगाई, मगर कोरोना के डर से कोई पास नहीं आया. तब पति की जान बचाने के लिए रेनू ने अपने मुंह से उस के फेफड़ों तक सांसें पहुंचाने की कोशिश की और उस की यह कोशिश काफी देर तक चलती रही. मगर रवि ने औटोरिकशा में ही अपनी पत्नी की गोद में तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया.

ऐसे कितने लोग इस तरह मरे, इस की जिम्मेदारी तो मोदी सरकार को आज नहीं तो कल लेनी ही पड़ेगी. जब मंदिरों, मूर्तियों, कानूनों को बनाने और खत्म करने का श्रेय नरेंद्र मोदी ले सकते हैं, तो कोरोना से उपजे हालात की जिम्मेदारी लेने का नैतिक साहस भी उन्हें दिखाना चाहिए. ‘मीठामीठा गप्प और कड़वाकड़वा थू.’

दुनिया के सब से पुराने लोकतंत्र में नहीं चला तो सब से मजबूत लोकतंत्र में भी नहीं चल सकता और यह बात पश्चिम बंगाल चुनाव नतीजे ने साबित भी कर दी है. जिस का संदेश यह है कि लोगों को रामराज्य नहीं चाहिए, उन्हें बुनियादी सहूलियतें चाहिए, जिस की जिम्मेदारी वे सरकार को सौंपते हैं.

इतिहास गवाह है कि कोई धार्मिक राजनेता अपनी गलती नहीं मानता, लेकिन यही इतिहास बताता है कि लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए वही लोग उसे चलता कर देते हैं, जो कंधों पर बैठा कर उसे गद्दी सौंपते हैं.

आम लोगों का जो नुकसान हो चुका है, उस की भरपाई असंभव है, पर भविष्य में इस का दोहराव न हो, इस की जिम्मेदारी तो जनता की ही बनती है.

दिल्ली में कोरोना का तांडव

दिल्ली देश के उन राज्यों में से है, जहां कोरोना ने अपना प्रचंड रूप दिखाया है. राजधानी दिल्ली में मार्च 2021 में उभरी कोरोना की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई है, उस से दिल्ली को उबरने में लंबा वक्त लगेगा. मार्च 2021 से शुरू हुई यह लहर मध्य मई में अपनी पीक पर पहुंच कर उतरनी शुरू हुई, मगर इस बीच दिल्ली का कोई ऐसा परिवार नहीं बचा, जिस ने किसी अपने को नहीं खोया है.

दिल्ली वालों की सांसें उखड़ने लगीं और औक्सीजन सिलैंडर के लिए मारामारी मच गई. वहीं दिल्ली के अस्पताल जिस तेजी से कोरोना संक्रमित मरीजों से भरे उस से दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा कर ढह गई.

इस दौरान न केंद्र सरकार ने दिल्ली को कुछ मदद दी और न ही दिल्ली के उपराज्यपाल ने दिल्ली और दिल्ली वालों की सुध ली.

जनवरीफरवरी माह में दिल्ली के हालात काफी काबू में आ गए थे. होम आइसोलेशन में लोग 14 दिन में ठीक हो रहे थे. तब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी टीवी पर कहा था कि दिल्ली के अस्पतालों में बैड की कमी नहीं है. हम ने अच्छी व्यवस्था कर ली है. आईसीयू वार्ड और वैंटिलेटर्स की भी कमी नहीं है. दवाओं की कमी नहीं है. मगर मार्च, अप्रैल और मई में कोरोनावायरस इतना खतरनाक रूप में सामने आया कि चारों तरफ लाशें ही लाशें गिरने लगीं.

दिल्ली के लोग अपने मरीजों को ले कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दौड़ लगाते दिखने लगे. सारे अस्पताल मरीजों से ओवरलोड हो गए. बैड न मिलने पर गंभीर मरीजों का इलाज भी स्ट्रैचर पर किया जा रहा था और कई अस्पतालों में मरीज अस्पताल परिसर में ही जमीनों पर पड़े नजर आने लगे. कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की थी.

दिल्ली के हालात इतने खराब हो गए कि जगहजगह अस्पतालों के गेट पर सूचनापट्ट लगा दिए गए कि कृपया अस्पताल में किसी मरीज को एडमिट कराने के लिए न लाएं, क्योंकि वहां न तो कोई बैड खाली हैं और न ही औक्सीजन सिलैंडर उपलब्ध हैं.

सरकारी, गैरसरकारी अस्पतालों के सामने एंबुलैंस की लंबी कतारों में उखड़ती सांसों के साथ हजारों मरीज एक अदद औक्सीजन सिलैंडर की आस में यहांवहां दम तोड़ने लगे. हालांकि इस बीच सिखों के कुछ समूहों ने आगे आ कर ‘औक्सीजन लंगर’ जैसे इंतजाम किए और कुछ औक्सीजन सिलैंडरों के जरिए चंद मरीजों को तब तक सांसें दीं, जब तक उन के लिए किसी अस्पताल में बैड का इंतजाम नहीं हो गया. मगर कोरोना की इस लहर में दिल्ली सरकार की सारी व्यवस्थाएं भरभरा के ढह गईं और दिल्ली आंसुओं के सैलाब में डूब गई.

दिल्ली के मशहूर जयपुर गोल्डन अस्पताल में औक्सीजन की कमी से 25 मरीजों की मौत हो गई. बत्रा अस्पताल में 12 कोरोना मरीजों ने औक्सीजन न मिलने पर दम तोड़ दिया. मरने वालों में अस्पताल के गैस्ट्रोएंटरोलौजी विभाग के प्रमुख डा. आर के हिमतानी भी शामिल थे. सर गंगाराम अस्पताल में 22 और 23 अप्रैल को 25 मरीज अचानक खत्म हो गए. कीर्ति अस्पताल, कालरा अस्पताल हर जगह औक्सीजन की कमी के चलते सैकड़ों मरीजों ने दम तोड़ा, वहीं होम आइसोलेशन में भी मरीजों को औक्सीजन न मिलने से सैकड़ों की मौतें हुई हैं. हालत यह थी कि अस्पताल प्रशासन दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और अदालतों से औक्सीजन के लिए गुहार लगाता रहा, मरीजों की मौतों से घबराए डाक्टर सोशल मीडिया पर रोते दिखाई दिए, मगर औक्सीजन का इंतजाम कई दिनों तक नहीं हो पाया.

पानी जब सिर से ऊपर चला गया, तो महाराजा अग्रसेन अस्पताल, मूलचंद अस्पताल, बत्रा अस्पताल सहित दिल्ली सरकार ने भी केंद्र से दिल्ली को औक्सीजन दिलाए जाने की मांग ले

कर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हालांकि इस से पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कई बार औक्सीजन सप्लाई की गुहार लगा चुके थे. इस के लिए पत्राचार भी कर चुके थे, लेकिन मोदीशाह तो जैसे दिल्ली की ओर से आंखें मूंद कर बैठ गए थे. आखिरकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार मिलने के बाद ही केंद्र सरकार ने दिल्ली को कुछ औक्सीजन मुहैया कराई.

दरअसल, केंद्र सरकार लगातार दिल्ली के साथ सौतेला रवैया अख्तियार किए हुए है. दिल्ली को आवंटित की जाने वाली औक्सीजन में भारी कटौती की गई. बहुतेरे परिवार दिल्ली में औक्सीजन संकट को देखते हुए अपने मरीजों को ले कर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों के अस्पतालों की ओर भागे, ताकि उन की जान बचाई जा सके.

कोरोना वैक्सीन की कमी को ले कर भी दिल्ली सरकार केंद्र से लड़ रही है. 12 मई को दिल्ली के 100 वैक्सीनेशन सैंटर इसलिए बंद करने पड़े, क्योंकि दिल्ली के पास कोवैक्सीन की खुराक खत्म हो चुकी थी. कोविशील्ड की डोज भी दिल्ली के पास बस 21 मई तक की ही बची है. मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल इस को ले कर भी लगातार केंद्र सरकार से गुहार लगा रहे हैं, मगर मोदीशाह के कान पर जूं नहीं रेंग रही है.

हालात इतने बदतर हैं कि जिन लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक लग चुकी है, उन की दूसरी खुराक का वक्त ही निकला जा रहा है. कुछ लोग जिन की कुछ जानपहचान है, वह एनसीआर में जा कर अपना वैक्सीनेशन करवा रहे हैं.

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया वैक्सीन की कमी को ले कर केंद्र पर गंभीर आरोप लगाते हैं. उन का कहना है कि केंद्र सरकार के निर्देश पर ही दिल्ली को मिलने वाली कोवैक्सीन की डोज की सप्लाई कंपनी ने रोकी है. दिल्ली सरकार ने एक करोड़, 34 लाख वैक्सीन की डिमांड की थी, जिस में

67 लाख कोविशील्ड और 67 लाख कोवैक्सीन मांगी गई थी, लेकिन भारत बायोटेक की तरफ से दिल्ली सरकार को चिट्ठी लिख कर कहा गया है कि वे वैक्सीन नहीं दे सकते, क्योंकि केंद्र ने उन को ऐसा करने से मना किया है.

इसी के साथ मनीष सिसोदिया ने यह सवाल भी उठाया कि वैक्सीन का निर्यात क्यों किया गया, जब अपने घर में इस की कमी थी? उन्होंने कहा कि देशवासी मर रहे हैं और बाहर वालों को वैक्सीन भेज कर प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ अपनी छवि उज्ज्वल करना चाहते थे?

उन्होंने यह भी कहा कि अगर वैक्सीन विदेशों में नहीं भेजी गई होती तो दिल्ली और मुंबई के लोगों को 2-2 बार वैक्सीन लगाई जा चुकी होती.

किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सीमापुरी शवदाह गृह में इतनी अधिक चिताएं जलेंगी कि आसपास के घर आग का गोला बन जाएंगे. यहां शवदाह गृह में 24 घंटे चिताएं जलने से इस से सटी सनलाइट कालोनी में रहने वाले कई लोग अपने घरों को छोड़ कर दूर चले गए हैं, ताकि कम से कम चिताओं की गरमी और उस के धुएं से बच सकें. जो लोग अभी यहां रह रहे हैं, उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों व छोटे बच्चों को अपने रिश्तेदारों के घर भेज दिया है. इस कालोनी में बने मकानों की छतों पर राख ही राख बिखरी हुई है. यह दिल्ली के लोगों की मजबूरी है कि वे हर सांस के साथ चिताओं से उठता धुआं अपनी सांसों में खींच रहे हैं.

मदर्स डे स्पेशल : बेटा मेरा है तुम्हारा नहीं- भाग 3

पहले तो उस की बातें मुझे मजाक ही लगीं, लेकिन जब फिर उस ने वही बात दोहराई और कहा कि वह मजबूर है, क्योंकि वह अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकता, तो मैं दंग रह गई. ‘यह क्या बोल रहे हो, अखिल? पागल हो गए हो क्या? कुछ भी बक रहे हो,’ मैं ने घबराते हुए कहा.

‘बक नहीं रहा हूं, शिखा. सही कह रहा हूं. मैं अपने मांपापा के खिलाफ नहीं जा सकता. इसलिए हमारा अब एकदूसरे को भूल जाना ही सही होगा.’

उस की उलूलजलूल बातें अब मेरा दिमाग खराब करने लगी थीं. मैं बोली, ‘जब तुम अपने मातापिता के खिलाफ नहीं जा सकते थे, तो क्यों मुझे झांसे में रखा आज तक? क्यों करते रहे मुझ से शादी के वादे? और क्यों भोगते रहे मेरे शरीर को अब तक? अब तुम बताओ क्या करूं मैं इस बच्चे का? क्या जवाब दूं दुनिया वालों को? और मेरे मातापिता, उन्हें मैं क्या समझाऊं?’

लेकिन अखिल मेरी बात समझने के बजाय अपने नग्न रूप में प्रकट हो गया और अत्यंत कठोर स्वर में कहने लगा, ‘देखो शिखा, जो सच है मैं ने तुम्हें बता दिया और यह तुम क्या बोल रही हो कि मैं ने तुम्हारे शरीर को भोगा, क्या उस में तुम्हारी मरजी शामिल नहीं थी? अगर नहीं, तो तुम ने मुझे रोका क्यों नहीं, क्यों खुद को बारबार मेरे करीब आने दिया. बोलो न? और इस में कौन सी बड़ी बात है, अस्पताल जा कर बच्चा गिरवा दो और छुट्टी पाओ. जितने पैसे चाहिए, मैं तुम्हें दे दूंगा.’

‘बच्चा गिरा दूं,’ अपने पेट पर हाथ रख कर बुदबुदाई मैं.

‘हां, गिरा दो. यही सही होगा, शिखा. पैसे की चिंता मत करो. एक क्लीनिक का पता मैं तुम्हें देता हूं. चली जाओ वहां, किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा.’

उस की बातें सुन कर आश्चर्य से मेरी आंखें फैल गईं? लगा एक बाप अपने ही बच्चे के लिए ऐसे शब्द कैसे इस्तेमाल कर सकता है? कैसे अपने ही बच्चे को मरने की बात कह सकता है?

‘मार दूं इस नन्ही सी जान को जो अभी इस दुनिया में आई भी नहीं है? लेकिन इस का कुसूर क्या है, अखिल?’ अप्रत्याशित नजरों से अखिल की तरफ देखते हुए मैं बोली, पर वह कोई जवाब न दे कर वहां से चला गया और मैं धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गई.

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मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से मैं अपने घर तक पहुंची और बिस्तर पर पड़ गई. मेरी आंखों से झरझर आंसू बहे जा रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करूं? कैसे बताऊं अपने परिवार वालों को कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया? किसी तरह हिम्मत कर मैं ने दीदी को यह बात बताई कि अखिल ने मुझ से शादी करने से मना कर दिया. ‘लेकिन अब इस बच्चे का क्या करूं मैं, दीदी? अगर मांपापा जान गए कि मैं अखिल के बच्चे की मां बनने वाली हूं, तब क्या होगा, दीदी?’ बिलखते हुए मैं ने कहा. लेकिन मुझे नहीं पता था कि बाहर खड़ी मां हमारी सारी बातें सुन रही हैं.

अपना सिर पीटपीट कर रोते हुए वे कहने लगीं कि ऐसी बेटी पैदा होने से पहले मर क्यों नहीं गई? अब क्या जवाब देंगी वे दुनिया वालों को जब कोई पूछेगा कि मेरे पेट में पल रहे पाप का बाप कौन है? सुन कर पापा भी घोर चिंता में डूब गए. चिंता की लकीरें उन के माथे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं मुझे. किसी ने रात में खाना भी नहीं खाया. सब चुप थे. मनहूसियत सी छा गई थी घर में और उस की जिम्मेदार थी सिर्फ मैं.

अब मेरा मर जाना ही सही रहेगा. क्या होगा? लोग चार बातें करेंगे, फिर चुप हो जाएंगे. मगर मांपापा को इस दुख से छुटकारा तो मिल जाएगा न. यह सोच कर मैं घर से निकल पड़ी. अभी मैं उस पुल से छलांग लगाने ही वाली थी कि किसी ने मुझे पीछे खींच लिया. देखा तो प्रणय था. ‘क्यों बचाया आप ने मुझे? छोडि़ए, मेरा मर जाना ही सही है क्योंकि इस के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा मेरे पास,’ कह कर मैं झटके से भागने ही वाली थी कि उस ने एक जोर का तमाचा मेरे गाल पर दे मारा और कहने लगा कि क्या मेरे मर जाने से सारी समस्या खत्म हो जाएगी? नहीं, लोग तब भी मांपापा का जीना हराम कर देंगे. ‘तो क्या करूं मैं?’ बोल कर बिलख पड़ी मैं. उस

ने कस कर मुझे अपने सीने से यह कह कर लगा लिया कि सब ठीक हो जाएगा.

प्रणय, मेरी दीदी का देवर, जो मन ही मन मुझे चाहता था, पर कभी बता नहीं पाया, सबकुछ जानतेबूझते हुए भी उस ने न सिर्फ मुझे अपनाया, बल्कि मेरे बेटे रुद्र को भी. रुद्र उस का अपना खून नहीं है, फिर भी प्रणय के प्यार और अपनेपन ने मुझे अखिल के धोखेफरेब को भूलने पर मजबूर कर दिया.

फोन की घंटी ने मुझे वर्तमान में ला कर खड़ा कर दिया. देखा तो प्रणय का फोन था. उस ने कहा कि परसों तक वह घर आ जाएगा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और एक लंबी सांस ली.

दूसरे दिन फिर अखिल का फोन आया और इस बार वह मिन्नतें करने लगा कि, बस, एक बार वह मुझ से मिलना चाहता है. इस बार मैं झूठ नहीं बोल पाई और कहीं बाहर ही मिलने को बुला लिया. क्योंकि मुझे भी उसे दिखाना था कि देखो, छोड़ दिया था न तुम ने मुझे मझधार में? लेकिन किसी ने आ कर बचा लिया मुझे डूबने से. लेकिन मैं तो खुद ही उसे देख कर अवाक रह गई क्योंकि पहले वाला अखिल तो वह कहीं से दिख ही नहीं रहा था. अपनी उम्र से कितना अधिक दिखने लगा था वह. बाल आधे से ज्यादा सफेद हो चुके थे. आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ चुका था और शरीर इतना जर्जर कि जैसे कुपोषण का शिकार हो गया हो. मुझे भी वह कुछ देर तक निहारता रहा. फिर पूछा, ‘‘कैसी हो, शिखा?’’

पर उस की बातों का कोई जवाब देना मैं ने जरूरी नहीं समझा. सो बोली, ‘‘बोलो, किस कारण मिलना चाहते थे मुझ से?’’

‘‘पूछोगी नहीं कि मैं कैसा हूं?’’ वह बोला.

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ बड़े ही रूखे शब्दों में मैं ने जवाब दिया. अच्छा लग रहा था मुझे उस से इस तरह बेरुखी से बातें करना.

फिर कुछ न बोल कर, इशारों से उस ने मुझे बैठने को कहा. फिर कहने लगा, ‘‘मैं जानता हूं शिखा, तुम मेरा चेहरा भी नहीं देखना चाहती होगी. लेकिन फिर भी मेरे बुलाने पर तुम यहां आईं, इस के लिए तहेदिल से शुक्रिया,’’ इतना कह कर उस ने मेरी तरफ देखा. लेकिन मैं अब भी दूसरी तरफ ही देख रही थी, पर सुन रही थी उस की सारी बातें.

‘‘जानती हो शिखा, मैं ने तुम्हारे साथ जो किया, वही सब पलट कर मुझे मिला और मेरे साथसाथ मेरे परिवार को भी.’’

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बताने लगा अखिल कि जब उस के लिए एक पैसे वाले बाप की एकलौती बेटी संजना का रिश्ता आया तो पहले तो उस ने शादी करने से साफ इनकार कर दिया. लेकिन उस के मांपापा ने उसे समझाया कि एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए प्यार से ज्यादा पैसों की जरूरत पड़ती है और संजना से शादी कर के उस के सारे सपने पूरे हो सकते हैं. यह भी कहा उन्होंने कि संजना के पिता के बाद तो सारी संपत्ति का मालिक वही होगा. उसे भी लगा कि उस के पापा सही कह रहे हैं, पैसों की चकाचौंध में वह यह भी भूल गया कि उस ने शिखा से शादी करने व जीवनभर मेरा साथ निभाने का वादा किया था. उसे तो बस, अब अपना सपना पूरा होते दिखने लगा था, जो हुआ भी. संजना से उस की शादी हो गईर् और शिखा ?उस का बीता हुआ कल बन गई. उसे तो तब, बस, संजना ही संजना नजर आती थी.

क्षणभर चुप रहने के बाद, फिर बताने लगा वह, ‘‘शादी के बाद कुछ महीने तक तो सब ठीक रहा. लेकिन फिर संजना अपना असली रूप दिखाने लगी. बिना किसी को कुछ बताए घर से निकल जाती और जब मरजी होती आती. कुछ पूछने पर पलट कर जवाब देती और कहती कि वह वही करेगी जो उस का मन होगा. सासससुर, ननद, पति सब को वह अपने पैरों की जूती समझती थी. ऐसे और्डर देती जैसे वे उस के खरीदे हुए गुलाम हों.

अगले भाग में पढ़ें-  इसलिए वे तुम्हें खरीद लाए, समझे?

भारतीय नारी और टीवी सीरीयल

लेखिका-गीतांजलि चौधरी

सारी कायनात में महिलाओं के शोषण का एकमात्र कारण रहा है उन के इतिहास का न होना, उन की नायिकाओं की कहानियों का न होना. नारी के योगदान को जीवन के हर क्षेत्र में गौण रखने की कवायद दुनिया के सारे समाजों में अनंत काल से जारी है. दरअसल, विश्व में सभ्यता के विकास का इतिहास और नारी जाति के दमन का इतिहास समानांतर चला है.

महिलाओं को सदैव कमजोर माना गया और उन्हें समाज में दोयम दर्जा दिया गया. इस बात की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए आदम व ईव की कहानी, ऋ ग्वेद और अथर्ववेद के श्लोक काफी हैं. बौद्ध धर्म में महिलाओं को मठों में प्रवेश तो मिला लेकिन उन्हें सभी पापों की जड़ भी माना गया. इसलाम धर्म हो या ईसाई धर्म, दोनों ही धर्मों में पुरुषों को प्रधानता दी गई. महिलाओं के लिए 2 दर्जे तैयार किए गए, एक सेविका का और दूसरा देवी का. उन्हें कभी भी सामान्य मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा गया.

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परंतु धीरेधीरे संभ्रांत परिवार की स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और उन के बौद्धिक संपदा का विस्तार हुआ. शिक्षित स्त्रियों ने अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से रखना आरंभ कर दिया. विभिन्न नारीवादी लेखिकाओं ने प्रबुद्ध महिलाओं को नायिका बना कर समाज को यह सोचने को मजबूर कर दिया कि यदि औरतों को अनुकूल माहौल मिले तो वे मर्दों के समान समाज में सकारात्मक योगदान दे सकती हैं.

वक्त बदला और महिलाओं ने अपनी प्रतिभा का लोहा सारी दुनिया से मनवाया. व्यावसायिक, व्यावहारिक और पारिवारिक जीवन में अपनी सक्रिय भूमिका से समाज में उन का दबदबा कायम हुआ. बेशक आज भी महिलाओं को तमाम असमानताओं व परेशानियों से लगातार रूबरू होना पड़ रहा है, पर फिर भी आज वे काफी बेहतर स्थिति में हैं.

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नारी सशक्तीकरण के तमाम उदाहरणों के बावजूद महिलाएं अपने लिए परफैक्ट एजेंडा नहीं तैयार कर पा रही हैं क्योंकि आज की नारीवादी लेखिकाओं की कलम महिलाओं की सनातन काल से चली आ रही सतीसावित्री की छवि पर अटकी हुई है.

आज 21वीं सदी की नारी होने के बावजूद टीवी चैनलों पर ऐसे डेली सोप की भरमार है जिन में स्त्रियों को एक गृहिणी के रूप में स्वयं को स्थापित करना होता है. भारतीय नायिकाओं को अपनेआप को एक टिपिकल पतिव्रता नारी के रूप में साबित करना होता है. जिस का फर्ज होता है पति की सेवा करना, बच्चों की अच्छी परवरिश करना, बड़ेबूढ़ों की खिदमत करना, आश्रितों और नौकरों के साथ अनुग्रहपूर्ण व्यवहार करना और हद तो तब होती है जब ये नायिकाएं अपनी सौत से भी सखी की तरह व्यवहार करती हैं. नायिका की स्थिति तब और ही दयनीय दिखाई देती है जब वे परिवार की इज्जत के लिए पति के रूखे व अनर्गल व्यवहार पर भी गुस्सा नहीं करती हैं.

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इन धारावाहिकों की शुरुआत में भले एक लड़की बड़े सपने ले कर अपने घर से निकलती है पर इन सपनों का प्रारूप किसी बड़े घर के लड़के के साथ शादी करने के बाद बदल जाता है.

भारतीय सीरियल की नायिका सदैव किसी गरीब घर की बेटी होती है और नायक कोई रईसजादा होता है. शुरुआत में सबकुछ अच्छा होता है जहां लड़की आत्मनिर्भर होती है और नायक भी सहृदय होता है. पर मध्याह्न होतेहोते लड़के के परिवार वालों के हृदय में जगह बनाने के लिए सशक्त नायिका उन की रसोई में जगह बना लेती है और वह घर के कामों में उल झी हुई नजर आती है. एक डाक्टर या इंजीनियर लड़की का अपने औफिस हैड के घर चायनाश्ता बनाना, यहां तक कि फर्श और डायनिंग टेबल की सफाई आदि करना पता नहीं दर्शकों के गले से नीचे कैसे उतरता है.

इन्हीं टीवी सीरियलों में जिन महिलाओं को आर्थिकरूप से संपन्न दिखाया गया, उन्हें बेहद आलसी, मगरूर, बदमिजाज, बदतमीज और बहुत हद तक बदचलन दिखाया जाता है. कभीकभी लगता है कि यह कैसी बिसात है जिस पर सदियों से महिलाओं को बिछाया जा रहा है. क्या ये टीवी सीरियल बनाने वाले सदियों से चली आ रही घिसीपिटी परिपाटी को ही नई पीढ़ी का रोल मौडल बनाना चाहते हैं.

पतिव्रता की भूमिका में खरी उतरने वाली नायिका को पूजनीय बनाया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर पढ़ीलिखी, अपने पैरों पर खड़ी, स्वावलंबी महिलाओं को पाश्चात्य कपड़ों का कलेवर चढ़ा कर एक षड्यंत्रकारी खलनायिका के रूप में समाज से त्याज्य कराने की कोशिश की जा रही है. दुख और अफसोस तब और बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि ऐसे डेली सोप बनाने वाली निर्माता, निर्देशक स्वयं महिलाएं हैं.

 

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