भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय आजकल संघ के एजेंडे को देश में लागू करवाने के लिए सड़क से सुप्रीम कोर्ट तक जोर लगा रहे हैं. भाजपा और संघ के एजेंडे में जितनी बातें हैं वही उन की ‘जनहित याचिकाओं’ में नजर आती हैं. उपाध्याय चाहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत के संघ की इच्छानुसार हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करने के लिए जो चीजें होनी जरूरी हैं उन पर देश की सब से बड़ी अदालत अपनी मोहर लगा दे.
सवर्णों के हाथों शोषित और मनुवादी व्यवस्था से उकता चुके दलित और आदिवासी लोग बीते कई दशकों से बौद्ध, ईसाई या इसलाम धर्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं. इन्हें हिंदू धर्म में रोके रखने की कोशिश संघ और भाजपा की है. यही वजह है कि चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दलितों की झोपडि़यों में नजर आने लगते हैं. वे कहीं उन के पैर पखारते दिखते हैं तो कहीं उन के साथ पत्तल में खाना खाते नजर आते हैं. लेकिन चुनाव खत्म होते ही दलित फिर उन के लिए अछूत हो जाते हैं.
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भाजपा व भाजपाइयों के इन पाखंडों को अब दलित और आदिवासी समाज अच्छी तरह सम झने लगा है. बीते कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है. संघ और भाजपा इस बात को ले कर चिंतित हैं और उन की चिंता का निवारण करने के लिए अश्विनी कुमार उपाध्याय जैसे वकील ‘जनहित याचिका’ के माध्यम से कोर्ट और सरकार के डंडे का इस्तेमाल कर के हिंदू धर्म को बचाने की बेढंगी कोशिशों में जुटे हैं.
कितना हास्यास्पद है और कैसी दुर्गति है सब से श्रेष्ठ धर्म की कि अब इस को बचाने के लिए सरकारी डंडे की जरूरत पड़ रही है. कोर्ट से आग्रह किया जा रहा है कि वह सरकार को निर्देश दे कि वह हिंदू को हिंदू बनाए रखने के लिए कानून बनाए और सजा का प्रावधान करे. लेकिन क्या ऐसा संभव है? कदापि नहीं.
जनहित के नाम पर संघहित
अश्विनी उपाध्याय सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं और आएदिन जनहित याचिकाएं दायर करते रहते हैं. यह और बात है कि उन की अधिकतर याचिकाएं कोर्ट कूड़े के डब्बे में डाल देता है, यानी खारिज कर देता है, साथ ही उन को फटकारता भी है मगर उपाध्याय फिर भी बाज नहीं आते हैं. उन की हालिया याचिका काला जादू, अंधविश्वास और जबरन धर्मांतरण को ले कर थी जिसे उच्चतम न्यायालय ने 9 अप्रैल को यह कह कर खारिज कर दिया कि यह किस प्रकार की याचिका है?
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अश्विनी कुमार उपाध्याय हमेशा उन मुद्दों पर जनहित याचिकाएं दायर करते हैं जो उन की पार्टी व संघ के एजेंडे में सब से ऊपर हैं, जैसे योग, वंदे मातरम, निकाह, हलाला, धर्मांतरण रोकना इत्यादि. दरअसल उन की याचिकाएं जनहित की नहीं बल्कि संघहित, भाजपाहित व राजनीतिकहित साधने की ज्यादा होती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल को उन की जो नई याचिका खारिज की है उस में उपाध्याय ने कोर्ट से प्रार्थना की थी कि केंद्र और राज्यों को काले जादू, अंधविश्वास और धार्मिक रूपांतरण को नियंत्रित करने, धमकाने, धमकी देने और उपहारों व मौद्रिक लाभों के माध्यम से नियंत्रित करने के लिए निर्देश देने का कष्ट करे. मगर सुप्रीम कोर्ट में 3 जजों-न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऋषिकेश रौय की पीठ ने न सिर्फ उन की याचिका खारिज कर दी बल्कि वे इस से काफी नाखुश भी दिखे.
उच्चतम न्यायालय में दायर अपनी याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने कोर्ट से केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों को जादूटोना, अंधविश्वास और प्रलोभन एवं वित्तीय लाभ के नाम पर धर्मांतरण को रोकने के लिए निर्देश देने का अनुरोध किया था. उन का कहना था कि धर्म का दुरुपयोग रोकने के लिए एक कमेटी नियुक्त कर धर्म परिवर्तन कानून बनाने की संभावना का पता लगाने के लिए निर्देश देने का कष्ट सुप्रीम कोर्ट करे. याचिका में यह भी कहा गया कि प्रलोभन और जोरजबरदस्ती से धर्मांतरण किया जाना न केवल अनुच्छेद 14, 21 और 25 का उल्लंघन है बल्कि यह संविधान के मूल ढांचे के अभिन्न अंग धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ भी है.
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अश्विनी उपाध्याय ने याचिका में कहा कि केंद्र और राज्य जादूटोना, अंधविश्वास और छल से धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने में नाकाम रहे हैं, जबकि अनुच्छेद 51 ए के तहत इस पर रोक लगाना उन का दायित्व है.
समाज की कुरीतियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई कर पाने में नाकामी का आरोप लगाते हुए याचिका में कहा गया कि केंद्र एक कानून बना सकता है जिस में 3 साल की न्यूनतम कैद की सजा हो और जिसे
10 साल की कैद की सजा तक बढ़ाया जा सकता है व जुर्माना भी लगाया जा सकता है. उपाध्याय चाहते हैं कि केंद्र राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी धार्मिक समूहों के मामलों से निबटने और उन के बीच धार्मिक भेदभाव का गहराई से अध्ययन कराने के लिए अधिकार दे.
याचिका में विधि आयोग को जादूटोना, अंधविश्वास और धर्मांतरण पर 3 महीने के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया. याचिका में कहा गया कि जनसंख्या विस्फोट और छल से धर्मांतरण के कारण 9 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं तथा दिनोंदिन स्थिति और खराब होती जा रही है.
संविधान ने दी है आजादी
अश्विनी उपाध्याय की इस याचिका के खारिज होने के बाद से ही सोशल मीडिया पर उन के खिलाफ कई कड़ी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं. और मिलें भी क्यों न, जिस देश का संविधान देश के हर नागरिक को बालिग होने के बाद उसे धर्म और जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता देता है, उस को नियंत्रित करने का आदेश भला सुप्रीम कोर्ट कैसे दे सकता है?
माथे पर तिलक धारण करने वाले, सपत्नी मंदिरमंदिर जा कर पूजा करने वाले बाबाओं और संतों की संगत करने वाले उन के आध्यात्मिक विचारों (जिन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता) से प्रभावित रहने वाले भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय किसी दूसरे को उस की आस्था, उस के विश्वास और उस की पसंदनापसंद पर पाबंदी कैसे लगा सकते हैं. यह बात कोर्ट के जेहन में भी अवश्य आई होगी.
दरअसल अश्विनी उपाध्याय भाजपा और संघ के एजेंडों को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश में हैं ताकि भविष्य की राजनीति में उन का सिक्का भी चल निकले. मगर हालिया याचिका पर उन की काफी भद्द पिट रही है. याचिका खारिज होने के बाद वे अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं, ‘‘कालाजादू, अंधविश्वास
और सामदामदंडभेद द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ मेरी पीआईएल खारिज नहीं हुई है बल्कि मैं ने वापस ली है. मैं अब गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और विधि आयोग को विस्तृत प्रार्थनापत्र दूंगा. अगर 6 महीने में सरकार ने धर्मांतरण के खिलाफ कानून नहीं बनाया तो मैं फिर सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा.’’
आलोचना और नसीहत
उपाध्याय की इस पोस्ट के जवाब में काफी लोगों ने उन की आलोचना की है. सूर्य विक्रम सिंह लिखते हैं, ‘उपाध्यायजी, कभी जिंदगी की मूलभूत जरूरतों पर ध्यान दें, तो कितना अच्छा लगे. मगर सत्ता की तरह आप भी देशवासियों को गुमराह करने में लगे हैं.’
वहीं दीपक नागर कहते हैं, ‘हां, हम जानते हैं कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आप की पीआईएल खारिज कर दी है और कहा है कि 18 साल का बालिग व्यक्ति अपने लिए कोई भी धर्म चुन सकता है, यह उस का मूलभूत अधिकार है और इस तरह की पीआईएल सिर्फ ‘चीप पब्लिसिटी’ (घटिया प्रचार) के लिए फाइल की जाती हैं.’