लेखक- शैलेंद्र सिंह, नसीम अंसारी कोचर, सोमा घोष, गरिमा पंकज.

अब मुनासिब वक्त है कि कोरोना के कहर की जिम्मेदारी किस की, यह तय किया जाए. जो साफतौर पर दिख रहा है, वह यह है कि देश में इस के जानलेवा फैलाव और उस के बाद स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की एक बहुत बड़ी वजह अदूरदर्शिता है.

सदियों की गुलामी ढोने वाले भारतीय असल में आजादी के 70 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी राजाओं के चमत्कारी किस्सेकहानियों की मानसिक दास्तां से मुक्त नहीं हो पाए हैं.

लोगों ने मान रखा है कि राजा भगवान का दूसरा रूप होता है और बड़ा न्यायप्रिय और बुद्धिमान होता है. वह कई दैवीय शक्तियों का मालिक होता है वगैरह, जबकि हकीकत में लोकतंत्र में मुखिया राजा नहीं, बल्कि एक मैनेजर होता है जिस की बातों और वादों पर भरोसा करते हुए वोटर देश उसे सौंप देता है. कोरोना जैसे कहर या त्रासदी तय करते हैं कि मैनेजर अच्छा था या अच्छा नहीं था.

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दोटूक कहा जाए, तो बहैसियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना के मोरचे पर नाकाम साबित हो चुके हैं. 7 साल के कार्यकाल में पहली बार उन से इस्तीफे की मांग उठी है, उन की अदूरदर्शिता और कुप्रबंधन पर सवाल उठ रहे हैं और उन्हें ले कर लोगों के भ्रम टूट रहे हैं, क्योंकि जो परेशानियां लोगों ने उठाईं, वे जरूर मानव निर्मित हो कर असहनीय और अमानवीय थीं.

राजा जिद्दी, अहंकारी और क्रूर भी होते थे, पर लोकतंत्र के मैनेजर इस राह पर चल पड़ें तो वे नजारे कतई हैरत की बात नहीं, जिन्हें बीते दिनों देशभर के लोगों ने देखे और भोगे भी. 11 मई को उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नदी में बहती लाशें इस बात की गवाही दे रही थीं कि देश का सिस्टम तारतार हो चुका है.

लोगों ने कैसीकैसी नारकीय यातनाएं उठाईं, जिन की जिम्मेदार कैसे नरेंद्र मोदी और उन की विशाल बहुमत से चुनी हुई सरकार के साथसाथ राज्य सरकारें भी हैं.  पौराणिक काल होता तो राजा प्रजा का ध्यान बंटाने के लिए कोई बड़ा यज्ञहवन कर डालता, लेकिन 73 साल के लोकतंत्र ने लोगों को इस काबिल तो बना दिया है कि वे इस की छूट उन्हें नहीं दे रहे.

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आम लोगों द्वारा सवाल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को ले कर ज्यादा हो रहे हैं. यह एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन अफसोसजनक बात यह कि कारवां गुजर जाने के बाद गुबार में हो रहे हैं. जो सवाल 7 नहीं, एक साल पहले होने चाहिए थे, वे उस वक्त हो रहे हैं जब सरकार की कलई खुल चुकी है. लाखों लोग बेमौत मारे गए हैं और अभी भी मारे जा रहे हैं. ये सभी कोरोना से नहीं मरे हैं, बल्कि अधिकतर लोग इलाज, दवा और औक्सीजन के अभाव में और बदइंतजामी के चलते मरे हैं, जिस की दोषी सरकार ही होती है.

भक्ति बनी श्राप

सरकार यह जिम्मेदारी सही से क्यों नहीं निभा पाई, इस के लिए पीछे मुड़ कर देखना जरूरी है कि मोदी सरकार के 7 साल के कार्यकाल में क्या हुआ. साल 2014 में एक ताबड़तोड़ चुनावप्रचार अभियान के तहत नरेंद्र मोदी लोगों का ब्रेनवाश करने में कामयाब रहे थे कि देश आजादी के बाद से नेहरूगांधी परिवार को सत्ता सौंपता रहा है, जो गले तक भ्रष्टाचार में डूबा है और लोग क्यों उसे ही चुनते हैं, जबकि उन के सामने एक सशक्त विकल्प मौजूद है. कांग्रेस मुसलिम तुष्टीकरण को ले कर भी कठघरे में खड़ी की गई थी.

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ऐसी कई  झूठी और कुछ सच्ची बातों का असर हुआ और लोगों ने एक बड़े भरोसे के साथ सत्ता उन्हें सौंप दी. कुरसी संभालने के बाद से ही शुरू हुआ मोदी भक्ति और ऊंची जातियों का पुनभर्क्तिकरण दौर, जिस में किसी ने उन की मनमाने और बेतुके फैसलों पर गौर नहीं किया, उलटे नोटबंदी से ले कर 3 तलाक, धारा 370 और जीएसटी जैसे नुकसानदेह फैसलों के भी फायदे गिनाने शुरू कर दिए. कई भाजपा नेताओं ने मोदी को अवतार और भगवान कहा, जो इंदिरा गांधी के दौर के कांग्रेसी चाटुकारों को भी मात करती हुई बात थी.

गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार वल्लभभाई पटेल की 3,000 करोड़ रुपए की मूर्ति की स्थापना और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर अरबों रुपए जनता की खूनपसीने की गाड़ी कमाई के बेरहमी से फूंक दिए गए. इस में भी कई लोगों को देश ( दरअसल ऊंची जातियों द्वारा बना गया हिंदुत्व) का हित नजर आया. नतीजा यह हुआ कि वे मनमानी को ही लोकतंत्र सम झ बैठे, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका में कट्टरवादी डोनाल्ड ट्रंप को शुरू में लोकतंत्र का मसीहा प्रचारित किया गया था. 7 साल देश में मोदी ही दिखते रहे, जिन्होंने महंगी विदेश यात्राएं भी जम कर कीं. इन यात्राओं पर भी कहा गया कि विदेशों में भारत की इमेज विश्वगुरु और सब से बड़ी आर्थिक शक्ति की बन रही है.

आज जो त्राहित्राहि देश में मची है, उस में ये आत्ममुग्ध कर देने वाली बातें न केवल कचोट रही हैं, बल्कि खी झ और खिसियाहट भी पैदा कर रही हैं कि कहां है उन का वह चमत्कारी और दैवीय व्यक्तित्व और अवतार, जो हर मुश्किल को चुटकियों में हल कर देने का दावा करता था. असल में कोई आपदा कोरोना जैसी तब तक नहीं आई थी, जो यह बताती कि ठोस कुछ नहीं हो रहा है, बल्कि शोशेबाजी हो रही है. 7 साल में ऐसा कोई काम नरेंद्र मोदी और उन की सरकार ने नहीं किया, जिस से आम लोगों का भला हुआ हो और लोगों की जिंदगी आसान हुई हो या परेशानियां हल हुई हों, उलटे जो दुश्वारियां बढ़ीं, उन्हें भी प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया गया.

नरेंद्र मोदी और उन की सरकार की कार्यशैली के बारे में एक राजनीतिक विश्लेषक और पत्रकार संजय बारू, जो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार भी रहे हैं, ने ‘द एक्सिडैंटल प्राइम मिनिस्टर’ के बाद अपनी नई किताब ‘इंडियाज पावर इलीट क्लास कास्ट एंड ए कल्चर रेवोल्यूशन’ में बेबाक बयानी की है. बीती 9 मई को इस किताब के विमोचन के मौके पर पत्रकार कूमी कपूर ने कहा, ‘‘भारत में अब वैश्विक उच्च वर्ग के बुद्धिजीवी और उदारवादियों को संदिग्ध के तौर पर देखा जाता है और इन्हें मध्यमवर्ग के हिंदू राष्ट्रवादियों से बदलने की कोशिश की जा रही है. ऐसे राष्ट्रवादियों से जो जाहिर तौर पर इंडिया के बजाय भारत के बड़े लक्ष्य के लिए काम करें. इस नई आस्था पर किसी भी तरह का प्रतिवाद स्पष्ट शत्रुता के तौर पर देखा जाता है.’’

बकौल कूमी कपूर, मोदी सिर्फ संस्थानों को निशाना नहीं बना रहे, बल्कि वे सैंट्रलविस्टा बना कर लुटियंस दिल्ली पर अपनी छाप छोड़ना चाहते हैं. इस छोटे से वक्तव्य से जाहिर यह होता है कि 7 साल नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदुत्व वाली इमेज को गढ़ते रहे, बाकी कामों से उन्होंने कोई दिलचस्पी और सरोकार नहीं रखा. कोरोना का कहर उन में से एक है.

एक साल बाद

यहां तक लोग उन्हें  झेलते रहे, फिर आया कोरोना, जिस के बारे में किसी को कुछ खास नहीं मालूम था. नरेंद्र मोदी ने मार्च 2020 में कोरोना के संभावित कहर को न सम झते हुए दीए जलवाए, बिजली गुल करवाई, तालीथाली बजवाई और लोगों ने बजाई भी.

यह अवैज्ञानिक, बेहूदा और बचकाना टोटका कुछ दिन तो पौराणिक काल के यज्ञों की तरह लोगों का ध्यान बंटाने में कारगर रहा, लेकिन जब लोग कोरोना की गिरफ्त में आने लगे, मरने लगे, देशभर में दहशत फैलने लगी और भगदड़ मचने लगी, तो उन्होंने विदेशों की देखादेखी लौकडाउन घोषित कर दिया, लेकिन इस में भी जल्दबाजी और अदूरदर्शिता साफसाफ दिखी कि इस के संभावित दुष्परिणामों पर कतई विचार नहीं किया गया और लोगों को उन के हाल पर छोड़ दिया गया.

कोरोना की पहली लहर दूसरी जितनी जानलेवा नहीं थी. अधिकांश लोग कुछ दवाओं के इलाज से ठीक हो रहे थे, पर तभी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खुल गई थी कि सबकुछ ठीकठाक नहीं है. इस में और सुधार की जरूरत है. कड़े लौकडाउन का असर यह हुआ कि कोरोना का कहर कम हुआ और बड़े नुकसान के बाद जिंदगी पटरी पर लौटने लगी. बड़ी चूक यही हुई कि सरकार ने मान लिया कि कोरोना हमेशा के लिए चला गया. सरकार ने दुनियाभर के वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की चेतावनी को सरासर नजरअंदाज किया कि अभी खतरा टला नहीं है और एहतियात नहीं बरती गई, तो जो होगा वह कल्पना से परे होगा.

मंदिर, चुनाव को वरीयता

तब जरूरत इस बात की थी कि कहीं पर भी बड़ी भीड़ जमा न हो, जो आमतौर पर धार्मिक और चुनावी आयोजनों में ज्यादा होती है, लेकिन सरकारी शह पर पंडेपुजारियों की दानदक्षिणा के लिए हरिद्वार कुंभ में लाखों लोग जमा होने दिए गए और 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव की रैलियों और रोड शो में सरकारी गाइडलाइन की धज्जियां इफरात से उड़ाई गईं. भाजपा किसी भी कीमत पर खासतौर से पश्चिम बंगाल की सत्ता हथियाना चाहती थी. लिहाजा, उस ने लाखों लोगों की जिंदगी दांव पर लगाने से परहेज न करने की क्रूरता दिखाई.

कुंभ के मेले में कोरोना गाइडलाइन नदारद थी ही, लेकिन चुनावी रैलियों में भी नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ सरीखे दर्जनों दिग्गज देश के कर्णधार ही न तो मास्क पहने दिखे और न ही उन्होंने जनता को ऐसा करने के लिए प्रेरित किया, तो देशभर की अदालतें  झल्ला गईं, जिन्होंने जम कर नेताओं और सरकार को लताड़ लगाई.

अप्रैल के महीने से जो हालात बिगड़े तो हाहाकार मच गया. कुंभ से लौटे श्रद्धालुओं ने देशभर में संक्रमण फैलाया और चुनावों में गए लोगों ने भी. लोग दवाओं, बैड, एंबुलैंसों, वैंटिलेटरों, इलाज और औक्सीजन के अभाव में जल बिन मछली की तर्ज पर सड़कों पर तड़पते दिखे. श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लाशों को जलाने और दफनाने के लिए लाइनें लगानी पड़ीं. लाखों घर देखते ही देखते उजड़ गए.

महंगी पड़ रही लापरवाही और अनदेखी

यहां मोदी सरकार की भयंकर भूल और चूक उजागर हुई कि उस ने सालभर कुछ नहीं किया. न तो अस्पतालों की हालत सुधारने के लिए कोई पहल की गई, न औक्सीजन का इंतजाम किया गया और न ही कोरोना से निबटने के लिए कोई कार्ययोजना बनाई गई.

135 करोड़ की आबादी वाले देश में सरकारी और प्राइवेट मिला कर महज 70,000 अस्पताल हैं, जिन में 19 लाख बैड हैं. इन्हें बढ़ाने के लिए एक साल में सोचा ही नहीं गया, फिर कोशिश करना तो दूर की बात है.

इसी तरह कुल 550 मैडिकल कालेज हैं, जिन से 60,000 डाक्टर भी सालभर में नहीं निकलते, जबकि जरूरत 3 लाख सालाना की है.

देश में आईसीयू बिस्तरों की संख्या भी न के बराबर है यानी सिर्फ 95,000 हैं, जबकि आम दिनों में भी जरूरत इस से 10 गुना ज्यादा की होती है. कुल 50,000 वैंटिलेटरों के भरोसे 135 करोड़ लोगों को छोड़ देना भी किसी गुनाह से कम नहीं कहा सकता. सब से बड़ा गुनाह तो नरेंद्र मोदी सरकार का यह रहा कि उस ने वैक्सीन विदेशों को भेज दी. इस दरियादिली, जो दरअसल नोबेल पुरस्कार हासिल करने की हवस है, की कीमत देश अभी तक चुका रहा है.

और क्याक्या हुआ और नहीं हुआ, इसे प्रदेशवार देखें तो लगता है कि हम किसी असभ्य, असंवेदनशील, आदिम और बर्बर युग में रह रहे हैं. व्यवस्था, सत्ता, सरकार और प्रशासन कहनेभर की बातें हैं. जब केंद्र सरकार को ही लोगों की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं था, तो राज्य सरकारों को क्या गरज पड़ी थी. लिहाजा, सभी कोरोना के कहर से बचने के लिए प्रवचन से देते रहे, लेकिन जरूरी इंतजाम किसी ने नहीं किए. लापरवाही और बदइंतजामी के साथसाथ कोरोना मरीजों और उन के परिजनों ने क्याक्या बरदाश्त नहीं किया होगा, इस की कल्पना कर ही दिल दहल उठता है. यहां पेश हैं, देश के अलगअलग राज्यों में हुई कुछ घटनाएं, जिन्होंने मानवता को शर्मसार कर के रख दिया :

उत्तर प्रदेश में कुछ उत्तम नहीं

झारखंड की रहने वाली लकीसुरीन कुछ सालों से लखनऊ में रह रही हैं. लकी देश की प्लससाइज मौडलिंग में एक जानापहचाना नाम हैं. अपने भाईबहनों में सब से छोटी होने के कारण घरपरिवार में सब से लाड़ली भी रहीं.

लकी के जीवन में अप्रैल 2021 उथलपुथल भरा रहा. सब से पहले घर में बड़े भाई की तबीयत खराब हुई. उन का ब्लडप्रैशर बढ़ा, जिस की वजह से औपरेशन की जरूरत आ पड़ी. लकी और उन के परिवार ने उन्हें रेलवे अस्पताल में भरती कराया. वहां उन के सिर का क्रिटिकल औपरेशन हुआ.

एक मुसीबत अपने साथ दूसरी मुसीबत ले कर आती है. लकी की  63 साल की मां नूरा सुरीन और उन की भाभी दोनों को बुखार आने लगा. जब जांच हुई, तो दोनों ही कोविड पौजिटिव निकलीं. भाई तो खराब हालत में थे ही, मां और भाभी के बीमार होने से लकी और अकेली पड़ गईं. इसी बीच लकी की मां का औक्सीजन लेवल घटने लगा.

इस बात की जानकारी लकी ने लखनऊ के कोविड कमांड सैंटर को दी. घर में बीमार मां को अकेली छोड़ लकी सीएमओ औफिस के चक्कर लगाने लगीं. इस की वजह यह थी कि लकी को अपनी मां को किसी अस्पताल में भरती कराने के लिए सीएमओ औफिस से रैफरल लेटर लेना जरूरी था.

लकी कहती हैं, ‘‘काफी मेहनत के बाद हमें 48 घंटे के बाद रैफरल लेटर मिल सका, जबकि यह कहा जा रहा था कि रैफरल लेटर की जरूरत नहीं है. मैं अपनी मां को ले कर लोहिया अस्पताल गई. वहां गार्ड ने ही अस्पताल में घुसने नहीं दिया. वह बोला, ‘जब तक रैफर लैटर नहीं है, तब तक अंदर जाने को नहीं मिलेगा.’ उस समय तक अस्पताल में बैड खाली था.

‘‘जब मैं रैफरल लेटर ले कर आई, बैड खाली नहीं था. एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल मां को ले कर अपनी गाड़ी से भटक रही थी. हर अस्पताल में बैड खाली नहीं है, कह कर भगा दिया जा रहा था. अस्पताल के लोग संवेदना भरे दो शब्द भी नहीं बोल रहे थे. जैसे लोग भिखमंगों को भगा देते हैं, वैसे हमें दुत्कारा जा रहा था.

‘‘परेशान हो कर मैं ने फिर से कोविड सैंटर को फोन कर यह पता करने की कोशिश की कि किस अस्पताल में बैड खाली मिल जाएगा. जो सूचना कंप्यूटर पर एक क्लिक पर मिल जानी चाहिए थी, उस के लिए कोविड कमांड सैंटर को 4 घंटे बताने में लगे.

‘‘हमें अपने घर से 30 किलोमीटर दूर एशिया अस्पताल में बैड मिला. वहां की भी व्यवस्था अच्छी नहीं थी. ऐसे में एक दिन मां को वहां रखने के बाद जब हालत में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा था, तब हम एसजीपीजीआई अस्पताल ले कर गए. पर यहां की हालत और भी खराब थी. बेहतर व्यवस्था न देख हम वापस मां को ले कर एशिया अस्पताल आ गए.

‘‘मेरी दिक्कत यह थी कि मैं अपनी मां की देखभाल करने वाली अकेली थी. कोविड मरीज होने के कारण कोई भी जानपहचान वाला मदद करने को तैयार नहीं था. सब ने एक दूरी सी बना ली थी. मु झे अपनी मां को भी देखना था. उन के इलाज के लिए दवाओं का भी इंतजाम करना था और इस के लिए आर्थिक जरूरत को भी सम झना था.

‘‘जिंदगी में ऐसे हालात पहली बार देख रही थी. हर दिन का 40,000 रुपया हमें अस्पताल को देना था और इस के बाद कुछ जरूरी दवाओं का इंतजाम भी करना था. हमें 6 इंजैक्शन रेमडेसिविर लाने को कहा था.

‘‘पहले 2 इंजैक्शन में हमें 30-30 हजार रुपए खर्च करने पड़े. इस के बाद किसी तरह से 4 और इंजैक्शन की व्यवस्था 40,000 रुपए में हुई. एक लाख के केवल रेमडेसिविर इंजैक्शन ही मिल सके.

‘‘इस के अलावा हमें 3 औक्सीमीटर लेने पड़े, जो 2,200 रुपए में मिले. इस की कीमत 1,200 रुपए लिखी थी. इस में भी 2 औक्सीमीटर खराब मिले. छोटा औक्सीजन सिलैंडर भी हमें 30,000 रुपए खर्च करने के बाद मिला.

‘‘5 दिन हम दौड़भाग करते रहे. इस के बाद भी हम अपनी मां को बचा नहीं सके. 5 दिन में मां के इलाज पर हम ने 5 से 7 लाख रुपए खर्च कर दिए.

‘‘अस्पतालों में जिस को देखा, वह परेशान दिख रहा था. सब से बड़ी दिक्कत यह थी कि सरकार की बातों और मीडिया में दिखाए जा रहे हालात में बहुत अंतर दिख रहा था. खबरों में लग रहा था कि मरीजों को सभी तरह की सुविधाएं मिल रही हैं, पर जमीनी हकीकत बहुत अलग थी.’’

लकी कहती हैं, ‘‘हमें लगता है कि अगर लोगों को इलाज सही से समय पर मिल जाता, तो उन की जान को बचाया जा सकता था. अस्पतालों में मरीजों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जा रहा था.

‘‘कई अस्पतालों में तो यह हालत थी कि मरीजों के ही बगल में कुत्तेबिल्ली तक घूम रहे थे. मरीजों के साथ आए लोग मौका पा कर औक्सीजन सिलैंडर तक चुरा ले रहे थे. बेहद अफरातफरी भरा माहौल था. अभी भी वे सारे दृश्य आंखों के सामने घूम रहे हैं.

‘‘मेरा भाई अभी भी अस्पताल में है. भाभी की रिपोर्ट नैगेटिव आ गई है. हमें सब से ज्यादा परेशान करने वाली बात यह रही कि हमें इलाज के लिए इसलिए भटकना पड़ा, क्योंकि सरकार ने लिखापढ़ी के लिए तमाम काम बढ़ा रखे थे. अस्पतालों को केवल आधारकार्ड ले कर मरीज को भरती कर लेना था. इस से भागदौड़ बच जाती.

‘‘आज शहरों में छोटेछोटे परिवार हैं. ऐसे में मरीज के साथ रहने वाले लोग नहीं मिल रहे. मैं अकेली लड़की अपनी मां का साथ देती या अस्पताल के चक्कर लगाती, या फिर दवा, औक्सीजन का इंतजाम करती.

‘‘एक सप्ताह तक हम ने रातदिन एक कर के अपनी मां को बचाने का प्रयास किया, पर अंत में हार गई. मेरी मां बीमारी से नहीं मरी, बल्कि इलाज में हो रही लापरवाही और अव्यवस्था से नहीं लड़ पाई. उन के दाह संस्कार के लिए हमें खुद ही पूरा प्रबंध करना पड़ा.

‘‘मां के न रहने के 10 दिन बाद मैं खुद को बेहद अकेली पा रही हूं. सरकार और उस की व्यवस्थाओं से मैं बुरी तरह से क्षुब्ध हूं.’’

बिहार बीमार

बिहार की रुचि की दुर्गति तो लकी से भी ज्यादा दिल दहला देने वाली रही. यह दास्तां बिहार के भागलपुर की रुचि रोशन शर्मा की है. चंद दिनों पहले तक उस का नोएडा में हंसताखेलता छोटा सा घर हुआ करता था, जिस में पेशे से सौफ्टवेयर पति रोशनचंद्र दास शर्मा के अलावा नन्ही परी सी बिटिया थी.

होली के दिनों में रुचि और रोशन अपने घर भागलपुर आए थे, जहां  9 अप्रैल को रोशन को सर्दीबुखार की शिकायत हुई, तो उन्हें भागलपुर के एक प्राइवेट अस्पताल ग्लोबल में भरती कराया गया. रोशन 17 से 22 अप्रैल तक इस अस्पताल में रहे.

कोरोना के रूटीनी इलाज से कोई फायदा नहीं हुआ, तो 19 अप्रैल को उन्हें रेमडेसिविर के इंजैक्शन दिए गए, जो सामान्य से कई गुना ज्यादा कीमत पर यानी ब्लैक में मिले थे. यहां रोशन को औक्सीजन भी दी गई थी, लेकिन बकौल रुचि, केवल मास्क लगाया गया था, सप्लाई चालू नहीं की गई थी. बाद में वह पति को मायागंज मैडिकल कालेज अस्पताल ले गई थी.

अस्पतालों में ऐसे अनुभव किसी के लिए भी नए नहीं कहे जा सकते, लेकिन रुचि उस वक्त सकते में आ गई, जब वह अर्धबेहोश पति का शौच साफ करने गई, क्योंकि यहां साफसफाई के लिए कोई स्वीपर ही नहीं था. हमेशा टिपटौप रहने वाले पति, जिसे प्यार से वह बाबू कहती थी, को घंटों गंदगी में पड़े रहना देख

उसे गवारा नहीं हुआ, लेकिन मौजूद कर्मचारियों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया, बल्कि एक कर्मचारी ने उस का दुपट्टा खींचा और पूरी बेशर्मी से उस की कमर में हाथ डाल दिया.

रुचि कहती है, ‘‘मन में तो आया कि इसे चप्पल उतार कर जड़ दूं, लेकिन पति की हालत देख खामोश रह गई. बेबसी से वे यह सब देख रहे थे और कमजोरी के चलते कुछ भी करने में असमर्थ थे.

रोशन औक्सीजन की कमी के चलते छटपटा रहे थे, लेकिन न तो कोई ध्यान देने वाला था और न ही सुनने वाला था. जब उस ने मौजूद डाक्टरों को यह बात बताई, तो वे भी तल्ख अंदाज में बोले, ‘‘हम आराम नहीं करें क्या, क्या हमें आराम का हक नहीं.’’

यहां भी फायदा होता नहीं दिखा, तो चिंतित रुचि पति को मायागंज अस्पताल ले गई. बाद में 26 अप्रैल को उन्हें पटना के राजेश्वर अस्पताल में भरती कराया गया. अब तक रुचि पूरी तरह टूट चुकी थी. यह बात तो उसे सम झ आ गई थी कि एक दफा कोरोना का इलाज हो सकता है, लेकिन अस्पतालों में पसरी मनमानी लापरवाहियों और भ्रष्टाचार का कोई इलाज नहीं. अब तक रोशन भी निराश हो चले थे शायद, इसीलिए उन्होंने रुचि से कहा था कि बेटी का खयाल अब तुम्हें ही रखना है.

पटना के डाक्टर कभी रोशन को क्रिटिकल, तो कभी सुधार होने की बात कहते रहे.

यहां भी एक कर्मचारी ने रुचि से छेड़छाड़ करने की कोशिश की. एक बार फिर वह पति के लिए खून का घूंट पी कर रह गई. यहां उसे आश्चर्य एक नर्स द्वारा यह कहने पर लगा कि ‘अरे… अभी तक यह बिस्तर खाली नहीं हुआ.’

रुचि कहती है, ‘‘ऐसा लगता है कि वे मेरे पति के मरने का इंतजार कर रहे थे, जिंदा रखने का इलाज नहीं कर रहे थे.’’ आखिरकार 26 दिन तक जिंदगी की जंग लड़ते हुए रोशन ने 8 मई को हथियार डाल दिए.

पति की मौत के बाद रुचि रोतीबिलखती रही कि उन लोगों ने मेरे बाबू को मार डाला.

रुचि की बातों पर होहल्ला मचा और कानूनी कार्यवाही भी चल रही है, पर साफ यह हो गया कि एक बार कोई सावित्री यमराज के पंजे से तो अपने पति सत्यवान को छुड़ा सकती है क्योंकि वह कहानी काल्पनिक है, लेकिन आज की रुचि अस्पतालों और डाक्टरों से अपने रोशन को नहीं बचा सकती.

बिलखती रह गईं मध्य प्रदेश की आन्द्रियाना

आन्द्रियाना भगत मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के चंदेरी थाने में बतौर सबइंस्पैक्टर पदस्थ हैं. नजदीक के मुंगावली कसबे में उन के पति कमलेश भगत पटवारी हैं. इन के 2 किशोर बच्चे हैं, जिन के साथ दिन हंसीखुशी से कट रहे थे.

पतिपत्नी दोनों ही सरकारी कर्मचारी थे, इसलिए किसी चीज की कमी नहीं थी. आम दंपतियों की तरह दोनों की इकलौती बड़ी ख्वाहिश यही थी कि बच्चे जल्द बड़े हो कर अपना कैरियर बनाएं, तो जिंदगी का मकसद पूरा हो.

कोरोना कहर के चलते दोनों एहतियात बरतते हुए अपनीअपनी ड्यूटी मुस्तैदी से बजा रहे थे. मई के पहले सप्ताह में कोरोना संक्रमण छोटे कसबों और गांवों तक में फैलने लगा था, जिस के चलते हर कोई दहशत में था, क्योंकि इलाज के लिए अफरातफरी और मारामारी इन जगहों पर भी दिखने लगी थी. जिला अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में भी न तो सहूलियतें थीं और न ही पर्याप्त स्टाफ था.

अब लोग कोरोना के साथसाथ अव्यवस्थाओं से भी डरने लगे थे कि अगर संक्रमण की गिरफ्त में आए, तो फिर मुश्किल हो जाएगी. जिन लोगों के पास इलाज के लिए पैसा था वे भी बेफिक्र नहीं थे, क्योंकि लगातार बदतर होते हालात किसी से छिपे नहीं रह  गए थे.

आखिरकार कोरोना ने भगत परिवार का भी दरवाजा खटखटा ही दिया. कमलेश में इस के लक्षण दिखे तो इलाज शुरू हो गया, लेकिन 3 मई को उन की हालत बिगड़ गई.

घबराई आन्द्रियाना पति को ले कर अशोक नगर अस्पताल इस उम्मीद के साथ ले आईं कि वहां इलाज और औक्सीजन मिल जाएगा, तो कमलेश ठीक हो जाएंगे. लेकिन कुछ नहीं मिला. अस्पताल न जाने किस भगवान के भरोसे चल रहा था. कमलेश की औक्सीजन कम होने से उन्हें घबराहट होने लगी थी.

अस्पताल पहुंचते ही आन्द्रियाना ने वैंटिलेटर की मांग की, लेकिन उन्हें बिस्तर तक नहीं मिला. बाहर तक मरीज पड़े थे और अस्पताल में उन की सुनने वाला कोई नहीं था.

आन्द्रियाना इधरउधर भागादौड़ी करती रहीं, गुहार लगाती रहीं, लेकिन वरदी का लिहाज भी किसी ने नहीं किया. दोनों बच्चे सहमे से सारा नजारा देख रहे थे. उन्हें लग रहा था कि अभी मम्मी आएंगी और कहेंगी कि चलो पापा को ले कर अंदर. वहां बैड और औक्सीजन का इंतजाम हो गया है.

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था. सुबह होतेहोते कमलेश ने दम तोड़ दिया. आन्द्रियाना और दोनों बच्चे शव के पास बैठे रोतेबिलखते रहे, पर कोई हिम्मत बंधाने भी नहीं आया. मुंगावली तहसील के केटेनमैंट जोन इंचार्ज कमलेश ने अस्पताल के फर्श पर आखिरी सांस ली.

आन्द्रियाना कहती हैं, ‘‘न तो पति को देखने कोई डाक्टर आया और न ही औक्सीजन मिली, जिस से उन की मौत हो गई. कई घंटों तक हम तीनों रोतेबिलखते रहे.’’

कौन है कमलेश जैसे हजारों मौतों का जिम्मेदार और गुनाहगार, यह तय कर पाना अब मुश्किल काम नहीं रह गया है.

काम न आईं पत्नी की सांसें

आगरा के विकास कालोनी के सैक्टर-7 की रहने वाली रेनू सिंघल के पति रवि सिंघल को कई दिनों से बुखार था. वे घर में ही आइसोलेशन में थे. रवि को जब सांस लेने में तकलीफ होने लगी, तो रेनू उन्हें अस्पताल ले कर दौड़ी.

रेनू पति को औटोरिकशा से अस्पताल ले कर पहुंची. यहां उस को अस्पताल में बैड तो मिल गया, लेकिन औटोरिकशा से दोनों उतरते इस से पहले ही रवि सिंघल की हालत बिगड़ने लगी. वह रेनू की गोद में ही बेसुध हो कर लुढ़क गया.

पति की बिगड़ती हालत देख रेनू ने आसपास के लोगों से मदद की गुहार लगाई, मगर कोरोना के डर से कोई पास नहीं आया. तब पति की जान बचाने के लिए रेनू ने अपने मुंह से उस के फेफड़ों तक सांसें पहुंचाने की कोशिश की और उस की यह कोशिश काफी देर तक चलती रही. मगर रवि ने औटोरिकशा में ही अपनी पत्नी की गोद में तड़पतड़प कर दम तोड़ दिया.

ऐसे कितने लोग इस तरह मरे, इस की जिम्मेदारी तो मोदी सरकार को आज नहीं तो कल लेनी ही पड़ेगी. जब मंदिरों, मूर्तियों, कानूनों को बनाने और खत्म करने का श्रेय नरेंद्र मोदी ले सकते हैं, तो कोरोना से उपजे हालात की जिम्मेदारी लेने का नैतिक साहस भी उन्हें दिखाना चाहिए. ‘मीठामीठा गप्प और कड़वाकड़वा थू.’

दुनिया के सब से पुराने लोकतंत्र में नहीं चला तो सब से मजबूत लोकतंत्र में भी नहीं चल सकता और यह बात पश्चिम बंगाल चुनाव नतीजे ने साबित भी कर दी है. जिस का संदेश यह है कि लोगों को रामराज्य नहीं चाहिए, उन्हें बुनियादी सहूलियतें चाहिए, जिस की जिम्मेदारी वे सरकार को सौंपते हैं.

इतिहास गवाह है कि कोई धार्मिक राजनेता अपनी गलती नहीं मानता, लेकिन यही इतिहास बताता है कि लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए वही लोग उसे चलता कर देते हैं, जो कंधों पर बैठा कर उसे गद्दी सौंपते हैं.

आम लोगों का जो नुकसान हो चुका है, उस की भरपाई असंभव है, पर भविष्य में इस का दोहराव न हो, इस की जिम्मेदारी तो जनता की ही बनती है.

दिल्ली में कोरोना का तांडव

दिल्ली देश के उन राज्यों में से है, जहां कोरोना ने अपना प्रचंड रूप दिखाया है. राजधानी दिल्ली में मार्च 2021 में उभरी कोरोना की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई है, उस से दिल्ली को उबरने में लंबा वक्त लगेगा. मार्च 2021 से शुरू हुई यह लहर मध्य मई में अपनी पीक पर पहुंच कर उतरनी शुरू हुई, मगर इस बीच दिल्ली का कोई ऐसा परिवार नहीं बचा, जिस ने किसी अपने को नहीं खोया है.

दिल्ली वालों की सांसें उखड़ने लगीं और औक्सीजन सिलैंडर के लिए मारामारी मच गई. वहीं दिल्ली के अस्पताल जिस तेजी से कोरोना संक्रमित मरीजों से भरे उस से दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा कर ढह गई.

इस दौरान न केंद्र सरकार ने दिल्ली को कुछ मदद दी और न ही दिल्ली के उपराज्यपाल ने दिल्ली और दिल्ली वालों की सुध ली.

जनवरीफरवरी माह में दिल्ली के हालात काफी काबू में आ गए थे. होम आइसोलेशन में लोग 14 दिन में ठीक हो रहे थे. तब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी टीवी पर कहा था कि दिल्ली के अस्पतालों में बैड की कमी नहीं है. हम ने अच्छी व्यवस्था कर ली है. आईसीयू वार्ड और वैंटिलेटर्स की भी कमी नहीं है. दवाओं की कमी नहीं है. मगर मार्च, अप्रैल और मई में कोरोनावायरस इतना खतरनाक रूप में सामने आया कि चारों तरफ लाशें ही लाशें गिरने लगीं.

दिल्ली के लोग अपने मरीजों को ले कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दौड़ लगाते दिखने लगे. सारे अस्पताल मरीजों से ओवरलोड हो गए. बैड न मिलने पर गंभीर मरीजों का इलाज भी स्ट्रैचर पर किया जा रहा था और कई अस्पतालों में मरीज अस्पताल परिसर में ही जमीनों पर पड़े नजर आने लगे. कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की थी.

दिल्ली के हालात इतने खराब हो गए कि जगहजगह अस्पतालों के गेट पर सूचनापट्ट लगा दिए गए कि कृपया अस्पताल में किसी मरीज को एडमिट कराने के लिए न लाएं, क्योंकि वहां न तो कोई बैड खाली हैं और न ही औक्सीजन सिलैंडर उपलब्ध हैं.

सरकारी, गैरसरकारी अस्पतालों के सामने एंबुलैंस की लंबी कतारों में उखड़ती सांसों के साथ हजारों मरीज एक अदद औक्सीजन सिलैंडर की आस में यहांवहां दम तोड़ने लगे. हालांकि इस बीच सिखों के कुछ समूहों ने आगे आ कर ‘औक्सीजन लंगर’ जैसे इंतजाम किए और कुछ औक्सीजन सिलैंडरों के जरिए चंद मरीजों को तब तक सांसें दीं, जब तक उन के लिए किसी अस्पताल में बैड का इंतजाम नहीं हो गया. मगर कोरोना की इस लहर में दिल्ली सरकार की सारी व्यवस्थाएं भरभरा के ढह गईं और दिल्ली आंसुओं के सैलाब में डूब गई.

दिल्ली के मशहूर जयपुर गोल्डन अस्पताल में औक्सीजन की कमी से 25 मरीजों की मौत हो गई. बत्रा अस्पताल में 12 कोरोना मरीजों ने औक्सीजन न मिलने पर दम तोड़ दिया. मरने वालों में अस्पताल के गैस्ट्रोएंटरोलौजी विभाग के प्रमुख डा. आर के हिमतानी भी शामिल थे. सर गंगाराम अस्पताल में 22 और 23 अप्रैल को 25 मरीज अचानक खत्म हो गए. कीर्ति अस्पताल, कालरा अस्पताल हर जगह औक्सीजन की कमी के चलते सैकड़ों मरीजों ने दम तोड़ा, वहीं होम आइसोलेशन में भी मरीजों को औक्सीजन न मिलने से सैकड़ों की मौतें हुई हैं. हालत यह थी कि अस्पताल प्रशासन दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और अदालतों से औक्सीजन के लिए गुहार लगाता रहा, मरीजों की मौतों से घबराए डाक्टर सोशल मीडिया पर रोते दिखाई दिए, मगर औक्सीजन का इंतजाम कई दिनों तक नहीं हो पाया.

पानी जब सिर से ऊपर चला गया, तो महाराजा अग्रसेन अस्पताल, मूलचंद अस्पताल, बत्रा अस्पताल सहित दिल्ली सरकार ने भी केंद्र से दिल्ली को औक्सीजन दिलाए जाने की मांग ले

कर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हालांकि इस से पहले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कई बार औक्सीजन सप्लाई की गुहार लगा चुके थे. इस के लिए पत्राचार भी कर चुके थे, लेकिन मोदीशाह तो जैसे दिल्ली की ओर से आंखें मूंद कर बैठ गए थे. आखिरकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार मिलने के बाद ही केंद्र सरकार ने दिल्ली को कुछ औक्सीजन मुहैया कराई.

दरअसल, केंद्र सरकार लगातार दिल्ली के साथ सौतेला रवैया अख्तियार किए हुए है. दिल्ली को आवंटित की जाने वाली औक्सीजन में भारी कटौती की गई. बहुतेरे परिवार दिल्ली में औक्सीजन संकट को देखते हुए अपने मरीजों को ले कर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों के अस्पतालों की ओर भागे, ताकि उन की जान बचाई जा सके.

कोरोना वैक्सीन की कमी को ले कर भी दिल्ली सरकार केंद्र से लड़ रही है. 12 मई को दिल्ली के 100 वैक्सीनेशन सैंटर इसलिए बंद करने पड़े, क्योंकि दिल्ली के पास कोवैक्सीन की खुराक खत्म हो चुकी थी. कोविशील्ड की डोज भी दिल्ली के पास बस 21 मई तक की ही बची है. मनीष सिसोदिया और अरविंद केजरीवाल इस को ले कर भी लगातार केंद्र सरकार से गुहार लगा रहे हैं, मगर मोदीशाह के कान पर जूं नहीं रेंग रही है.

हालात इतने बदतर हैं कि जिन लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक लग चुकी है, उन की दूसरी खुराक का वक्त ही निकला जा रहा है. कुछ लोग जिन की कुछ जानपहचान है, वह एनसीआर में जा कर अपना वैक्सीनेशन करवा रहे हैं.

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया वैक्सीन की कमी को ले कर केंद्र पर गंभीर आरोप लगाते हैं. उन का कहना है कि केंद्र सरकार के निर्देश पर ही दिल्ली को मिलने वाली कोवैक्सीन की डोज की सप्लाई कंपनी ने रोकी है. दिल्ली सरकार ने एक करोड़, 34 लाख वैक्सीन की डिमांड की थी, जिस में

67 लाख कोविशील्ड और 67 लाख कोवैक्सीन मांगी गई थी, लेकिन भारत बायोटेक की तरफ से दिल्ली सरकार को चिट्ठी लिख कर कहा गया है कि वे वैक्सीन नहीं दे सकते, क्योंकि केंद्र ने उन को ऐसा करने से मना किया है.

इसी के साथ मनीष सिसोदिया ने यह सवाल भी उठाया कि वैक्सीन का निर्यात क्यों किया गया, जब अपने घर में इस की कमी थी? उन्होंने कहा कि देशवासी मर रहे हैं और बाहर वालों को वैक्सीन भेज कर प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ अपनी छवि उज्ज्वल करना चाहते थे?

उन्होंने यह भी कहा कि अगर वैक्सीन विदेशों में नहीं भेजी गई होती तो दिल्ली और मुंबई के लोगों को 2-2 बार वैक्सीन लगाई जा चुकी होती.

किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि सीमापुरी शवदाह गृह में इतनी अधिक चिताएं जलेंगी कि आसपास के घर आग का गोला बन जाएंगे. यहां शवदाह गृह में 24 घंटे चिताएं जलने से इस से सटी सनलाइट कालोनी में रहने वाले कई लोग अपने घरों को छोड़ कर दूर चले गए हैं, ताकि कम से कम चिताओं की गरमी और उस के धुएं से बच सकें. जो लोग अभी यहां रह रहे हैं, उन्होंने अपने परिवार के बुजुर्गों व छोटे बच्चों को अपने रिश्तेदारों के घर भेज दिया है. इस कालोनी में बने मकानों की छतों पर राख ही राख बिखरी हुई है. यह दिल्ली के लोगों की मजबूरी है कि वे हर सांस के साथ चिताओं से उठता धुआं अपनी सांसों में खींच रहे हैं.

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