चाचा की हूबहू तसवीर मेरे सामने थी. चाचा का अंश सामने खड़ा वही सब कर रहा था जो चाचा ने 30 साल पहले किया था. छाती पर मूंग कैसे दली जाती है कोई इन महापुरुषों से सीखे.
‘‘इस का दिमाग तो खराब है ही, सीमा का दिमाग भी खराब कर दिया इस औरत ने.’’
एक झन्नाटेदार हाथ पड़ा विजय के गाल पर. मेरे पिता बीच में चले आए थे.
‘‘दिमाग तो हम सब का खराब था जो तुम दोनों को इस घर में पैर भी रखने दिया. भाई का खून था जो संभालना पड़ा, जहां तक हिस्से का सवाल है इस परिवार ने सदा दिया है तुम दोनों को, तुम से लिया कुछ नहीं. अपने बाप की तरह दूसरों के कंधों पर पैर रख कर चलना बंद करो. भूल जाओ, तुम्हारे सहारे कोई जीने वाला है. तुम अपना निर्वाह खुद कर लो, उतना ही बहुत है. निकल जाओ इस घर से. न सीमा अपना घर बेचेगी और न ही इस घर में अब तुम्हारा कुछ है,’’ पापा ने सचमुच विजय की अटैची उठा कर बाहर फेंक दी.
‘‘हम ही समझदार नहीं हैं जो बारबार भूल जाते हैं कि किस पर प्यार लुटाना है और किस पर नहीं. तभी निकाल दिया होता तो आज किसी ढाबे पर बरतन मांज रहे होते. लाखों लगा कर तुम्हें पढ़ालिखा दिया यही हमारी बेवकूफी हुई. सच कहा तुम ने बेटा. यह औरत तो जरा सी भी समझदार नहीं है. बेवकूफ है, एक बहुत बड़ी पागल है.’’
‘‘मैं अदालत में जाऊंगा.’’
‘‘तुम सुप्रीम कोर्ट चले जाओ. इस घर में तुम्हारा कुछ नहीं. सीमा को भी मैं ने यहीं बुला लिया है, अपने पास. उस को भी रुलारुला कर मार रहे हो न तुम. जाओ, निकल जाओ.’’
पापा इतना सब जानते हैं, मुझे नहीं पता था. मैं तो सोच रहा था अभीअभी आग धधकी है. नहीं जानता था काफी दिन से जराजरा आग सुलग रही है जो छोटी मां, पापा और सीमा को जला रही है. 10 साल से उसे पाल रही थीं छोटी मां, मेरी सुलेखा चाची. असहाय नजरों से बंद दरवाजा देखने लगीं. मानो बीच चौराहे पर किसी ने चाची को वस्त्रहीन कर दिया हो. विस्फारित नजरों से बारीबारी सब का चेहरा देखने लगीं.
‘‘चलो बेटा, अंदर चलो.’’
पापा ने चाची के कंधे पर हाथ रखा. पत्थर सी सन्न होती चाची चल पड़ीं पापा के साथ. पापा के इशारे पर हम दोनों चाची को उन के कमरे में ले गए. कोई किस से क्या पूछता, एक और रिश्ते का दाहसंस्कार जो अभीअभी हुआ था.
तो यह बात थी. विजय को अपने फ्लैट के लिए खूब सारा पैसा चाहिए.
वह उसे उस की मां दे या भावी पत्नी, उस की मर्दानगी को कोई फर्क नहीं पड़ता.
सुबह तक कोई नहीं सो पाया. तरस आ रहा था हमें चाची पर. रोना रुपए का नहीं था, रोना था ठगे जाने का. विजय के पिता ने विदेश जाने के लिए घर की जमीन तक बिकवा दी थी और बेटा अपना घर बनाने के लिए बचाखुचा रिश्ता भी नोच कर खाना चाहता था.
सुबह आई और अपने साथ एक और सत्य ले कर आई. सीमा का संदेश आया चाची को. उस ने विजय से अपना रिश्ता तोड़ दिया था.
‘‘सुलेखा मौसी. मैं विजय की नीयत समझ नहीं पा रही हूं. ऐसा इंसान जिस की अपनी कोई जड़ ही नहीं, वह कबकब बेल की तरह मुझ से लिपट कर सहारा ही तलाशता रहेगा, कौन जाने. उस के पास न रीढ़ की हड्डी है न रिश्तों की समझ. उस की सोच सिर्फ अपने मतलब तक है.
उस के पार उसे कुछ नजर नहीं आता. ऐसा इंसान जो आप का सम्मान नहीं कर पाया, वह मुझे कब चौराहे का मजाक बना दे, कौन जाने. मैं दूसरी सुलेखा नहीं बनना चाहती. मौसी, मैं यह शादी नहीं करना चाहती. मुझे माफ कर दीजिएगा.’’
‘‘यह तो होना ही था,’’ चाची के होंठों से निकला.
हम डर रहे थे, पता नहीं क्या होगा. सुबहसवेरे चाची उठ भी पाएंगी कि नहीं. मगर सामान्य लगीं मुझे, चाची. नहाधो कर कालेज जाने को तैयार मिलीं. मैं चाय का कप ले कर पास ही आ बैठा था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे चाची से बात शुरू करूं. सीमा का लंबाचौड़ा एसएमएस मेरे हाथ में था और मैं चाची को सुना चुका था.
‘‘तरस आ रहा था मुझे विजय पर. बाप को मरने के लिए यह घर तो नसीब हुआ था. सोच रही हूं रिश्तों के नाम पर इस के पास क्या होगा?’’
चाची के शब्द सदा साफ और सटीक होते हैं. विजय का भविष्य उन्हें साफसाफ दिखाई दे रहा था. चाची टूटी नहीं थीं, यह देख मुझे बड़ा चैन मिला. चाची कालेज के लिए निकल चुकीं और मेरी नजरें उन के कमजोर कंधों से ही चिपकी रहीं देर तक. चाची के शब्द कानों में बजते रहे, ‘रिश्तों के नाम पर विजय के पास कल क्या होगा?’ मैं भी सोचने लगा.
2 दिन बीत गए. शायद विजय ने कानूनी सलाह ले ली होगी. समझ गया होगा कि कानूनी तरीका उसे कुछ नहीं दे सकता. मेरे औफिस चला आया विजय. जरा सा नरम लगा मुझे. दोबारा घर आना चाहता था.
‘‘काठ की हांडी बारबार आग पर नहीं चढ़ाई जा सकती, विजय. जिस औरत ने तुम पर अपने जीवनभर की जमापूंजी लगा दी उसी का तुम ने अपमान कर दिया. सच कहा था तुम ने, वह तुम्हारी लगती भी क्या है. तुम्हारी बकवास इसीलिए सुन ली क्योंकि तुम से प्यार करती थीं वरना तुम ने और तुम्हारे पापा ने इस रिश्ते में कौन सी ईमानदारी रोपी है, जरा सोचो. किस रिश्ते से चाची ने तुम्हें पढ़ायालिखाया, जरा सोचो. चाचा के मरते ही तुम्हें भी धक्के दे कर निकाल देतीं तो आज तुम कहां होते, सोच लो. विश्वास खो दिया है तुम ने हम सब का. शुक्रगुजार होना चाहिए था तुम्हें चाची का जो आज इज्जत की रोटी कमा कर खा सकते हो. अब घर लौटने का सपना बिसार दो. माफ कर दो हमें.’’
सहसा मुझे कुछ याद आया, ‘‘तुम तो अदालत में जाने वाले थे न? क्या पता चला? तुम्हारे पिता के नाम कुछ भी नहीं है. दादाजी ने सब छोटी मां के नाम कर दिया था. समझदार थे न हमारे बुजुर्ग जो उन्हें सब नजर आ गया था. हम तो नासमझ हैं जो संपोले को ही पालते रहे. छोटी मां बेचारी प्यार की आस में ही मारी गईं.
‘‘आज सोचता हूं, वे सच में समझदार नहीं हैं. क्या मिला उन्हें? तुम्हारे पिता को छोड़ कहीं और घर बसा लेतीं तो आज उन की भी भरीपूरी गृहस्थी होती. तुम्हारे पापा ने कभी कुछ डौलर किसी पर बरसाए होंगे तो उस से कहीं ज्यादा उन्होंने हम से पाया भी होगा. तुम्हारे पापा ने भी सिर्फ लूटा है हमें जिस तरह तुम ने. चाची ने सदा अपना कमा कर खाया है.’’
‘‘सोमू भैया, आप मुझे समझने की कोशिश…’’
‘‘अब हम समझदार हो गए हैं, बेटा. तुम्हारी नीयत जान चुके हैं. अब और नहीं.’’
उठ खड़ा हुआ मैं, अब मेरे पास भी विजय को सुनने का समय नहीं था. सदा रिश्तों को भुनाता ही रहे जो इंसान उसे मैं क्यों सुनूं. क्यों भरोसा करूं उस का जो न जाने कब मुझे चौराहे का मजाक बना दे. हाथ के इशारे से चले जाने को कह दिया मैं ने. क्योंकि अब हम सब समझदार हो गए थे.