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प्रेम विवाह: क्या आसान है निभाना?

मध्य प्रदेश के विष्णुपुरी इलाके के शिवम अपार्टमैंट में रहने वाली 32 वर्षीया आकांक्षा के दिलोदिमाग में एक सवाल रहरह कर बेचैन किए जा रहा था कि आखिर उपेंद्र से शादी कर उसे क्या मिला? तन्हाई, रुसवाइयां और अकेलापन? क्या इसी दिन के लिए मैं सईदा से आकांक्षा बनी थी? अपना वजूद, अपनी पहचान सबकुछ तो मैं ने उपेंद्र के प्यार पर न्योछावर कर दिया था और वह है कि अब फोन पर बात तक करना गंवारा नहीं कर रहा. क्या मैं ने उपेंद्र से प्रेम विवाह कर गलती की थी? उस के लिए धर्म तो धर्म, परिवार, नातेरिश्तेदार सब छोड़ दिए और वह बेरुखी दिखाता सैकड़ों किलोमीटर दूर बालाघाट में अपनी बीवी के साथ बैठा सुकून भरी जिंदगी जी रहा है. क्या मैं उस के लिए महज जिस्म भर थी?

पर उपेंद्र ने आकांक्षा को जिंदा रहने के लिए एक मकसद दिया था और वह मकसद पास ही बैठा 11 साल का बेटा वेदांत था. वेदांत काफी कुछ समझने लगा था. मम्मी और पापा के बीच फोन पर हुई बातचीत से वह इतना जरूर समझ गया था कि मम्मी अभी गुस्से में हैं इसलिए भूख लगने के बावजूद वह यह कह नहीं पा रहा था कि मुझे भूख लगी है, खाना दे दो. लेकिन जब भूख बढ़ गई तो उस से रहा नहीं गया और काफी इंतजार के बाद उसे कहना पड़ा कि मम्मी, भूख लगी है.

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बेटे की इस बात पर मां की ममता थोड़ी जागी और आकांक्षा ने फोन पर खाना और्डर कर वेदांत को छाती से भींच लिया तो हलकी सी उम्मीद वेदांत को बंधी कि अब सबकुछ ठीक हो जाएगा. थोड़ी देर बाद खाना आ गया. खाने के बाद आकांक्षा फिर विचारों के भंवर में फंस गई और सोचतेसोचते उस ने एक सख्त फैसला ले लिया.

आकांक्षा के जेहन में फिर उपेंद्र आ गया था-हट्टाकट्टा स्मार्ट पुलिस वाला जो खुशमिजाज भी था और रोमांटिक भी. उस के व्यक्तित्व पर सईदा ऐसी मरमिटी थी कि दोनों प्यार के बाद शादी के अटूट बंधन में बंध गए. उपेंद्र ने भी अपनी पहली पत्नी की परवा नहीं की और सईदा को पत्नी का दरजा दिया लेकिन चूंकि परिवार और समाज के लिहाज के चलते उसे साथ नहीं रख सकता था इसीलिए अलग इंदौर में रहने की व्यवस्था कर दी थी और हर महीने पर्याप्त पैसे भी भेजा करता था.

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दर्दनाक अंत

शुरूशुरू में तो वक्त आरजू और इंतजार में कट गया लेकिन धीरेधीरे उपेंद्र का इंदौर आनाजाना कम होता गया. आकांक्षा जब भी इस बाबत शिकायत करती तो उस का रटारटाया जवाब होता था कि तुम तो सब जानती हो और यह बात शादी के पहले ही मैं ने तुम्हें बता दी थी. इसलिए आकांक्षा ज्यादा सवाल नहीं कर पाती थी. लेकिन अब आकांक्षा के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था. लिहाजा, रोजरोज फोन पर कलह होने लगी. एक दफा तो बात इतनी बढ़ गई कि उस ने गुस्से मेें गले में फांसी का फंदा मासूम वेदांत के सामने ही डाल लिया था. तब से वेदांत मां से खौफ खाने लगा था.

वेदांत अपने कमरे में जा कर सो गया.  रात डेढ़ बजे के लगभग खटपट की आवाज सुन कर वेदांत की नींद खुली तो वह उठ कर आकांक्षा के कमरे की तरफ आया. वहां का नजारा देख वह सन्न रह गया. आकांक्षा कुरसी पर चढ़ी पंखे से दुपट्टा बांध रही थी यानी अपने लिए फांसी का फंदा तैयार कर रही थी. बेटे को आते देख उस के चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं आए, न ही ममता जागी और वह मशीन की तरह फंदा कसती रही. वेदांत की जान हलक में आ रही थी फिर भी वह हिम्मत जुटा कर बोला, ‘मम्मी प्लीज फांसी मत लगाओ.’

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यह नजारा कलात्मक फिल्मों के दृश्यों को भी मात करता हुआ था. आकांक्षा ने बेहद सर्द आवाज में जवाब दिया, ‘तू भी आ जा बेटा, दोनों साथ फांसी लगा लेते हैं.’ वेदांत आकांक्षा की तरफ दौड़ा लेकिन उस के पहुंचने से पहले ही आकांक्षा ने कुरसी पैरों से खिसका दी. मां को फांसी पर झूलता देख वह बाहर गया और सिक्योरिटी गार्ड को आवाज दी. थोड़ी देर ही में शिवम अपार्टमैंट में हलचल मच गई.

आकांक्षा उर्फ सईदा मर चुकी थी. पुलिस आई. फंदा काट कर आकांक्षा का शव नीचे उतारा और कागजी कार्यवाही पूरी की. यह घटना 2 जुलाई की रात की है. जिस ने भी सुना या देखा उस के रोंगटे खड़े हो गए.

प्यार और अव्यावहारिकता

इस तरह एक ऐसी कहानी खत्म हुई जिस में मां की आत्महत्या के अपराध की सजा बेटा अब जिंदगीभर भुगतेगा. कहने या सोचने की कोई वजह नहीं कि  2 जुलाई, 2014 की रात का खौफनाक दिल दहला देने वाला दृश्य देखने के बाद वेदांत सामान्य जीवन जी पाएगा. कम पढ़ीलिखी आकांक्षा जैसी युवतियां दरअसल दूसरी जाति या धर्म में शादी तो कर लेती हैं पर उस के माहौल और रंगढंग में खुद को ढाल नहीं पातीं तो सारा दोष दूसरे तरीकों से पति के सिर मढ़ने की और साबित करने की गलती गुनाह की शक्ल में कर बैठती हैं.

परिवार और समाज के स्वीकारने, न स्वीकारने की परवा इन दोनों ने भी नहीं की थी पर आकांक्षा हकीकत का सामना ज्यादा वक्त तक नहीं कर पाई. जिंदगी के प्रति उस का नजरिया नितांत अव्यावहारिक और अतार्किक था जो उस की मौत की वजह भी बना पर इस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ. उपेंद्र जिंदगीभर खुद को कोसता रहेगा और वेदांत पर क्या गुजरेगी इस की कल्पना भर की जा सकती है. आजकल हिम्मत और बगावत कर प्रेम विवाह करना पहले के मुकाबले आसान हो गया है पर निभाना कठिन होता जा रहा है जिस की वजह पुरुष कम और महिलाएं ज्यादा शर्तें थोपती हैं.

देखा जाए तो आकांक्षा और उपेंद्र के बीच कोई खास समस्या नहीं थी. परंपरागत ढंग से और रीतिरिवाजों से शादी करने वाली महिलाओं को भी पति से वक्त न देने की शिकायत रहती है पर वे खुदकुशी नहीं कर लेतीं, हालात के प्रति व्यावहारिक नजरिया रखते हुए समस्या का हल ढूंढ़ लेती हैं और जब बच्चे हो जाते हैं तो उन की परवरिश और कैरियर बनाने में व्यस्त हो जाती हैं या फिर खुद को व्यस्त रखने के लिए दूसरे तरीके खोज लेती हैं. मसलन, पार्ट टाइम जौब या अपने शौक पूरे करना आदि. और जब वे ऐसा नहीं करतीं या कर पातीं तो खासी परेशानियां पति और बच्चों के लिए खड़ी करने लगती हैं. इसे स्त्रियोचित जिद और नादानी ही कहा जा सकता है. पति की नौकरी या व्यवसाय और उस की व्यस्तताओं व परेशानियों से वास्ता रखना तो दूर की बात है उलटे जब पत्नियां इस पर कलह करने लगती हैं तो बात बिगड़ना तय होता है.

गैरजातीय प्रेम विवाह

दूसरी जाति और धर्म में शादी करने वाली महिलाओं को तो और संभल कर व समझौते कर रहना जरूरी होता है. परिवार और समाज किसी भी विद्रोह को अब शर्तों पर स्वीकारते हैं. जब प्यार होता है तो प्रेमियों की हिम्मत और दुसाहस देखते बनता है पर शादी के बाद उन के रंगढंग बदलने लगते हैं. वजहें बाहरी कम अंदरूनी ज्यादा होती हैं. एक स्त्री अपने प्रेमी से वादा करती है कि शादी कर लो, मैं सबकुछ बरदाश्त कर लूंगी, धर्म के कोई खास माने नहीं, तुम्हारे मुताबिक चलूंगी, अलग रह लूंगी और कोई शिकवाशिकायत नहीं करूंगी. शादी के बाद ये सारी बातें हवा हो जाती हैं. आकांक्षा इस की ताजा मिसाल है. वह पति की हदें और मजबूरियां भूल गई थी. लिहाजा, उस ने खुद को सही साबित करने के लिए पति के कान खाने शुरू कर दिए. इस पर भी बात नहीं बनी तो खुदकुशी कर ली.

यह टकराव और शिकायतें समस्या का हल नहीं थे जो अकसर खुद पत्नियां पैदा करती हैं. समझदार पत्नी वास्तविकता को स्वीकारती है और हर हाल में सुख से रहती है. वह जानतीसमझती है कि बेवजह की कलह और टकराव से सिवा अलगाव और तलाक के कुछ हासिल नहीं होने वाला क्योंकि पति के बरदाश्त करने की भी हदें होती हैं जो जिंदगी में कई मोरचों पर लड़ रहा होता है. मैं ने उन के लिए धर्म या जाति छोड़ कर अहसान किया है यह मानसिकता ही सारे फसाद की जड़ है जो ममता और दूसरी जिम्मेदारियों पर भी भारी पड़ती है.

इस का इकलौता हल है बेवजह शिकायतों का पिटारा खोले न बैठे रहना, शिकवे और तानों से दूर रहना और यह याद रखना कि पति ने भी काफी कुछ छोड़ा है, त्यागा है. इस के बाद भी वह खयाल रखता है, खर्च देता है और वक्त मिलने पर आताजाता है  कई नामीगिरामी व्यक्तियों ने दूसरे धर्मों में शादी की है और 2-2 भी की हैं लेकिन यह पत्नियों की समझदारी है कि वे पति को कोसती नहीं रहतीं और खुदकुशी कर पति व बच्चों को बिलखता नहीं छोड़ जातीं बल्कि अपने फैसले को सही साबित कर के दांपत्य में अपनी तरफ से खलल नहीं डालतीं. वक्त रहते लोग इस तरह की शादियों को मान्यता भी देते हैं और स्वीकार भी कर लेते हैं लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए पत्नियों को लंबे इम्तिहान से गुजरते खुद को समझदार और व्यावहारिक साबित करना पड़ता है नहीं तो खुद वे ही अपने फैसले को गलत साबित करती हैं जिस का खमियाजा पति और बच्चों को भुगतना पड़ता है.

बेबस -भाग 3 : शैलेश एकटक देखते हुए किसकी तरफ इशारा कर रहा था

लेखकमनोज शर्मा

जानते हो, एक रोज जब परीक्षा आरंभ होने वाली थी, मैं ने एक प्रश्न के डाउट्स के लिए मैडम को रात में फोन लगा दिया. उस समय 8 बजे थे. उन्होंने कहा कि तुम एक मर्तबा घर आ सकते हो.

मैं ने क्यों पूछा, तो उन का जवाब था कि इस टौपिक पर उन के पास कुछ किताबें व नोट्स हैं, जिन की सहायता से यह टौपिक अच्छे से क्लीयर हो सकता है. मैं ने बिना सोचे देर ना लगाई और प्रोमिला मैडम के यहां पहुंच गया. पर ये क्या…?

बोलतेबोलते वह रुक गया.

मैं उसे देखता रहा. उस की आंखें खुली थीं एक अजीब उत्साह से (चूंकि अब तक उसे भी ये सब अच्छा लगने लगा था) बताता रहा. ना जाने क्यों उस रोज उन का घर पर बुला लेना मुझे अच्छा लग रहा था. शायद एक ओर उन का मेरे प्रति, मेरी शिक्षा के प्रति इतनी परवाह. एक अनजाने शहर में मुझ जैसे मुफलिस स्टूडैंट को कोई इतनी तरजीह दे. घर बुला कर इज्जत दे, किताबें दे और कठिन टौपिक को समझाने में सहायता करे.

मेरे लिए एक अच्छा मौका था कि मैं परीक्षा से पूर्व इस टौपिक को गहराई से जान सकूं.

मैं ने देर न लगाते हुए उन के घर का रुख किया. उन का दरवाजा खुला. वे बालों को जूड़े में बांधते हुए सामने आईं. मुझे लगा कि उन के पति घर पर होंगे. मैं हलकी मुसकराहाट के साथ घर के अंदर घुसा, पर अंदर शायद कोई नहीं था, क्योंकि घर में कोई आहट नहीं थी.

डायनिंग टेबल की कुरसी निकाल कर उन्होंने मेरी ओर बढ़ा दी और सामने वाली कुरसी पर वो स्वयं बैठ गई. पिंक गाउन में वे उस रोज ज्यादा ही खिल रही थीं. उस से पहले मैं ने इस तरह उन्हें कभी नहीं देखा था. मैंने पूछा, ‘‘सर नहीं हैं क्या?’’

मेरी बात पर वे मुझे देखती रहीं. क्यों उन से भी मिलना है क्या? होंठों पर जबान फिराते वे पूछने लगीं. ‘‘नहीं… नहीं,’’ मैं ने तो ऐसे ही पूछा मैडम. ‘‘आप कुछ किताबे और नोट्स आदि बता रही थीं,’’ मैं ने नीचे देखते हुए पूछा.

‘‘हां… हां, अभी देती हूं. सबकुछ देती हूं,’’ वे बोलीं. उन का चेहरा खिला था. घर में हम 2 लोग ही थे. पता चला कि वे अपने पति से बिलकुल खुश नहीं हैं, बल्कि मुझ से ही वो सब चाहती हैं, जो उन के साथ कभी नहीं चाहती.

और उन के पति उस रोज वहां नहीं थे, किसी काम से किसी दूसरे राज्य में गए हुए थे.बात करतेकरते वो उठीं और किताब नोट्स मुझे थमाते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ, डू यू लव मी?’’

मैं कुछ ना बोल सका. कमरा महक रहा था. मेरी धड़कनें तेज हो गई थीं. मैं उन्हें अपलक देखता रहा. उस रोज वो हो गया, जो शायद नहीं होना था. मुझे पहले तो यकीन नहीं आ रहा था कि ये सच है, पर धीरेधीरे मुझे भी सब अच्छा लगने लगा.

‘‘यस, आई लव यू मैडम,’’ मैं ने उन से चिपक कर कहा. मेरी एमए पूरी हुई. परिणाम मनमाफिक रहा. मैडम ने मुझे पीएचडी करने का औफर दिया, वो भी उन्हीं के अंडर.अब मेरे लिए पीएचडी करना जरूरी भी हो गया था, क्योंकि उस के उपरांत ही मैं उसी यूनिवर्सिटी में पढ़ा सकता था. मैं ने इस औफर को एक झटके में लपक लिया.

मैं शोध के दौरान अकसर ही उन के यहां जाया करता था. दोएक बार उन के पति को काफी उपेक्षित पाया और महसूस किया कि वो उन से छुटकारा चाहती थीं. बगल वाली टेबल की ओर देखा. वहां के लोग बदल चुके थे. हमें भी बैठे काफी समय हो चुका था. वेटर हमें देखता हुआ करीब आ कर बोला, ‘‘जी सर, और कुछ चलेगा?’’

‘‘हां, जोकुछ भी खास हो, यहां दो ले आओ,’’ मैं ने उस को मुसकरा कर कहा. एक रोमांटिक गाने की धुन पर पैर की थाप साथसाथ चल रही थी.दूर कोने में कपल्स एकदूसरे की आंखों में खोए हुए दिखाई दे रहे थे. पीली रोशनी में चेहरे उन्माद से भरे प्रतीत हो रहे थे मानो सारे जगत का प्यार यहां बैठे लोगों की आंखों में ठहर गया हो.

अब हम यानी मैं और प्रोमिला मैडम खुले में मिलने लगे थे. शैलेश गंभीर हो कर बोलने लगा. उन्होंने एक रोज मुझ से कहा कि क्या तुम मुझ से शादी करोगे? मेरे पैरों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. जाने मुझ से कोई मेरे सारे पापों का हिसाब के बदले में मेरी जान मांग रहा हो.

मैं ने मना करना चाहा. पर उन्होंने तलाक के कागज मुझे दिखाते हुए कहा कि देख लो, मैं ने तो तुम्हें पाने के लिए सारे बंधंनों को तोड़ दिया है.

‘‘पर, ये सब आप क्यों कर रही है?’’ मैं ने सकपकाते हुए मैडम से पूछा, तो उन्होंने कहा कि वो मुझे पाने के लिए कुछ भी कर सकती हैं. मैं सचाई से मुंह मोड़ कर पलभर के लिए खुश हुआ.

 

रक्षक-भक्षक : वंदना चाहकर भी उन लड़कियों की मदद क्यों नहीं कर पाई

जीबी रोड दिल्ली की बदनाम जगहों में से एक है. रेड लाइट एरिया. तमाम कोठे, कोठा मालकिनें और देहव्यापार में लगी सैक ड़ों युवतियां यहां इस एरिया में रहती हैं. मैं सेन्ट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स (सीआईएसएफ) में सब इंस्पेक्टर के तौर पर तैनात थी. ट्रेनिंग पूरी हुए अभी छह महीना ही हुआ था. नई ज्वाइनिंग थी. एक रोज दिल्ली मेट्रो में सफर के दौरान एक लड़की लेडीज कोच में बेहोश हो गई थी. रात नौ बजे का वक्त था. उस लड़की को संभालने के लिए जो दो लोग आगे बढ़े उनमें एक मैं थी और दूसरी वंदना. तब मैं वंदना को जानती नहीं थी. वह तो उस रोज उस मेट्रो मे मेरी सहयात्रि भर थी. उस बेहोश लड़की को लेकर हम कोच से बाहर आए. तब तक मेट्रो कर्मचारी भी पहुंच गए थे.

काफी देर बाद उस लड़की को होश आया. मैं और वंदना तब तक उसके साथ ही रहे. उसका पता पूछ कर हम रात के ग्यारह बजे ऑटो से उसके घर तक छोड़ने गए. वापसी में मैंने पहली बार वंदना से उसका नाम पूछा था और उसने मेरा. फिर पता चला कि वह एक पत्रकार है, आगरा से दिल्ली आयी है, किसी पत्रिका में काम करती है. वंदना मुझे बहुत कुछ अपनी तरह ही लगी. मेरी ही उम्र की थी. हिम्मती, बेखौफ, तेज, मददगार और मिलनसार. हमारी दोस्ती हो गई. फोन पर लम्बी-लम्बी बातें होतीं. छुट्टी मिलती तो दोनों साथ ही शॉपिंग भी करते और फिल्में भी देखते थे.

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उस रोज हम रेस्त्रां में बैठे इडली-सांभर खा रहे थे कि अचानक वंदना ने मुझे जीबी रोड चलने का न्योता दे दिया. पुलिस में होते हुए भी मुझे एकबारगी झिझक लगी, मगर फिर मैंने हामी भर दी. पूछा, ‘किस लिए जाना है? क्या स्टोरी करनी है?’

उसने कहा, ‘वहां मेरा एक जासूस है, जब भी वहां कोई नई लड़की या लड़कियों का झुंड आता है, वह मुझे खबर दे देता है. पता चला है कल रात नेपाल से काफी लड़कियां आई हैं, जिनमें से बहुत सी नाबालिग हैं.’
‘अच्छा…’ मुझे आश्चर्य हुआ, ‘लोकल पुलिस को पता है?’ मैंने पूछा.

‘पता तो होगा, सब उनकी नाक के नीचे ही होता है.’ वंदना ने जवाब दिया. मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ, उससे कोफ्त भी हुई कि क्या समझती है ये पुलिस को? मैंने गुस्से में कहा, ‘अगर वहां ऐसा कुछ हुआ है तो पुलिस अब तक कार्रवाई कर चुकी होगी.’

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वंदना ने इडली खाते हुए इत्मिनान से जवाब दिया, ‘पुलिस कुछ नहीं करती है, कल चल कर देख लेना. मुझे भी बस स्टोरी करनी है, बौस ने कहा है इसलिए… मैं भी उन पर लिख कर क्या उखाड़ लूंगी, जब सिस्टम ही काम नहीं करता.’

वंदना की बातों ने मुझे खीज से भर दिया था. ये तो सरासर आरोप लग रहा है वर्दी पर. कैसे सहन होता. ट्रेनिंग के दौरान सत्य, न्याय, देशभक्ति, कानून, साहस, वीरता के ढेरों पाठ पढ़े थे, ये लड़की तो उनके पन्ने फाड़ने पर तुली है. बड़ी पत्रकार बनी फिर रही है, कल तो इसके साथ जाना ही होगा.

हम दूसरे दिन दोपहर में वहां पहुंच गए. वंदना के कहने पर मैंने सलवार-सूट और दुपट्टा ओढ़ा हुआ था, जबकि आमतौर पर मैं जींस टीशर्ट ही पहनती हूं, या वर्दी में रहती हूं. वंदना ने एक कोठे के नीचे पहुंच कर किसी को फोन किया. थोड़ी देर में एक दुबला-पतला आदमी आया और वंदना से बोला, ‘मुंह ढंक लीजिए, यहां आप मेरी रिश्तेदार हैं.’

वंदना ने तुरंत अपने दुपट्टे को मुंह पर लपेट लिया, बस आंखें खुली रखीं. मुझे इशारा किया तो मैंने भी वैसा ही किया. वह आदमी हमें लेकर ऊपर कोठे पर चढ़ गया. हम वहां काफी देर एक कमरे में जमीन पर बिछी दरी पर बैठे रहे. वहां तमाम लड़कियां थीं. हर तरफ पर्दे जैसे पड़े थे. ग्राहक आते और लड़कियां उनके साथ पर्दे के पीछे चली जातीं. काफी देर हो गई. मैं बैठे-बैठे उक्ता रही थी. शाम हो चुकी थी. वंदना धीरे-धीरे उस आदमी से बातें कर रही थी. वह इसी कोठे में रहता था. नाम था इदरीस. तभी मैंने छह लड़कियों को अंदर आते देखा. लड़कियां छोटी थीं. यही कोई बारह से पंद्रह वर्ष के बीच की. उनके साथ चार आदमी भी थे. वे सभी अंदर आते ही एक-एक लड़की के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गए. दो लड़कियां बच गईं, जो मेरे सामने ही आकर बैठ गईं. मैं हैरानी से देख रही थी.

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वंदना की बात बिल्कुल सच थी. लड़कियां वाकई नाबालिग थीं. नेपाली थीं. यहां इस कोठे के नीचे ही सटी हुई पुलिस चौकी है, क्या उन्हें अपने एरिया में आने वालों के बारे में पता नहीं लगा होगा? आखिर कैसे ये नाजायज काम यहां आराम से चल रहा है? यह सवाल मेरे मन में उथल-पुथल मचा ही रहा था कि दरवाजे से दो वर्दीधारी भीतर घुसे. कंधे पर चमचमाते बैच बता रहे थे कि दोनों सब इंस्पेक्टर रैंक के थे. मेरे शरीर में अचानक करेंट दौड़ गया. विजयी मुस्कान चेहरे पर आ गई. लो आ गए कानून के रखवाले छापा मारने…
वंदना ने मेरे हाथ पर हाथ रख कर दबाया. खामोश रहने का इशारा दिया. मेरे अंदर जैसे कुछ टूट गया. तड़ाक… तड़ाक… धम्म…. चेहरा निस्तेज हो गया… सामने बैठी दोनों नाबालिग बच्चियां उन दोनों वर्दी वालों के साथ पर्दे के पीछे लोप हो गईं.

रबी अनाज भंडारण की वैज्ञानिक तकनीक

लेखक-प्रो. रवि प्रकाश मौर्य

रबी फसलों की कटाई समाप्ति की ओर है. कटाईमड़ाई के बाद सब से जरूरी काम अनाज भंडारण का होता है. अनाज के सुरक्षित भंडारण के लिए वैज्ञानिक विधि अपनाने की जरूरत होती है, जिस से अनाज को लंबे समय तक चूहे, कीटों, नमी, फफूंद आदि से बचाया जा सके. ?भंडारण की सही जानकारी न होने से 10 से 15 फीसदी तक अनाज नमी, दीमक, घुन, बैक्टीरिया वगैरह द्वारा नष्ट हो जाता है. अनाज को रखने के लिए गोदाम की सफाई कर दीमक और पुराने अवशेष आदि को बाहर निकाल कर जला कर नष्ट कर दें. दीवारों, फर्श व जमीन आदि में यदि दरार हो, तो उन्हें सीमेंट, ईंट से बंद कर दें.

टूटी दीवारों आदि की मरम्मत करा दें. भंडारण में होने वाली इस क्षति को रोकने के लिए किसान दिए गए सु?ावों को ध्यान में रख कर अनाज को भंडारित कर सकते हैं. अनाजों को अच्छी तरह से साफसुथरा कर के धूप में सुखा लेना चाहिए, जिस से कि दानों में 10 फीसदी से ज्यादा नमी न रहने पाए. अनाज में ज्यादा नमी रहने से फफूंद और कीटों का हमला ज्यादा होता है. अनाज को सुखाने के बाद दांत से तोड़ने पर कट की आवाज करे तो सम?ाना चाहिए कि अनाज भंडारण के लायक सूख गया है. इस के बाद अनाज को छाया में रखें. इस के बाद ठंडा होने पर ही भंडारगृह में रखना चाहिए.

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अनाज से भरे बोरे को भंडारगृह में रखने के लिए फर्श से 20 सैंटीमीटर से 25 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर बांस या लकड़ी के तख्ते का मंच तैयार करना चाहिए, जो दीवार से कम से कम 75 सैंटीमीटर की दूरी पर हो. बोरियों के छल्लियों के बीच भी तकरीबन 75 सैंटीमीटर खाली जगह रखना फायदेमंद होता है. गोदाम में पक्षियों व चूहों के आनेजाने के रास्ते को बंद कर देना चाहिए. कुछ पारंपरिक अन्न भंडारण के तरीके जैसे दलहन में कड़वा (सरसों) तेल लगभग 5 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम की दर से मिला कर रखना, गेहूं में नीम, लहसुन व करंज के पत्ते कोठी में बिछाना, सूखे हुए लहसुन के डंठल रखना आदि है. भंडारण में पुराना अनाज और भूसा आदि को निकाल कर एक महीने पहले सफाई कर चूहों द्वारा किए गए छेद और दूसरी टूटफूट की मरम्मत कर नीम की पत्ती का धुआं कर के अच्छी तरह से भंडारण को बंद कर दें, जिस में छिपे हुए भंडारण कीट नष्ट हो जाएं और बोरी को खौलती नीम की पत्ती वाले पानी में शोधित कर अच्छी तरह सुखा लें.

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अनाज का भंडारण करते समय हवा के रुख का जरूर ध्यान रखें. अगर पुरवा हवा चल रही हो, तब अन्न का भंडारण न करें. पछुआ हवा के समय भंडारण करना उचित होता है. अनाज भंडारण में नीम की पत्ती का इस्तेमाल करते समय नीम की पत्ती सूखी होनी चाहिए. इस के लिए नीम की पत्ती को भंडारण से 15 दिन पहले किसी छायादार स्थान पर कागज पर रख कर सुखा लें, उस के बाद अनाज की बोरी या बखार में 2 किलोग्राम पत्ती प्रति क्विंटल अनाज की दर से रखें. भंडारण के लिए वैसे भंडारगृह का चयन करना चाहिए, जहां सीलन (नमी) न हो और चूहों से अनाज का बचाव किया जा सके.

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भंडारगृह हवादार हो और जरूरत पड़ने पर वायुरुद्ध भी किया जा सके. भंडारण से पहले पक्का भंडारगृह व धातु की कोठियों को साफसुथरा कर लेना चाहिए. बोरियों में अनाज भर कर रखने के पहले इन बोरियों को 20-25 मिनट तक खौलते पानी में डाल देना चाहिए. इस के बाद धूप में अच्छी तरह सुखा देना चाहिए. नीम से बनी नीमफास दवा का इस्तेमाल अनाज भंडारण में कर सकते हैं. भूल कर भी कीटनाशकों का इस्तेमाल न करें. यह सेहत के लिए काफी नुकसानदायक है.

उदास क्षितिज की नीलिमा -भाग 3 : आभा को बहू नीलिमा से क्या दिक्कत थी

अच्छा पूजापाठ की बात कह कर मजाक बनाया जा रहा. वह दुखी हो जाता मन ही मन.

उस की हंसी उड़ती और वह अलसाए कदमों को खींचते हुए उन से दूर चला जाता, हमेशा एकाकी.

पहाड़ी मंदिर पर दर्शनार्थी का पूजा निबटा कर अभी नल में हाथमुंह धोते हुए वह दुनियाभर की इन्हीं बातों पर अपना सिर पीट रहा था कि नीलिमा ने उसे आवाज दी- “पंडित जी.”

“क्या है?” पुकारने वाले को बिना देखे ही वह चिड़चिड़ा कर बोल पड़ा था. मन ही मन जिस बात पर खफा था, दुखी था, उसी शब्द के कानों में पड़ते ही उस ने पलट कर जवाब दिया. मगर जैसे ही उस ने बोलने वाले की ओर देखा, खूबसूरत नीलिमा को पा कर सकपका गया. अभी तक वह सास के साथ ही ऊपर आती थी, इसलिए क्षितिज ने कभी उस पर गौर नहीं किया था.

आज पीली सिफोन की साड़ी में सोने सा उस का उज्ज्वल रंग सुनहरे सूरज सा चमक रहा था. 5.4 फुट की हाइट, लंबी, भींगी, एक अलसायी सी चोटी, ललाट पर गोल लाल बिंदी और कलाई में पीली चूड़ियों की धूम थी.

क्षितिज ने शांति से निहारा, वह नल पर अपना पैर धोती रही. फिर क्षितिज की ओर मुखातिब हुई, “आप को देर तो न हो जाएगी? पूजा कर देंगे?”

“हां, क्यों नहीं? देर किस बात की?”

“आप को कचहरी जाना है न.”

“हां, आप को किस ने बताया?”

“आप के पापा ने मेरी सासुमां को बताया था, आप वहां जूनियर वकील हैं.”

“चलिए, पूजा कर देता हूं.”

पूजा की थाली ले  कर मंदिर के गर्भगृह तक चलते हुए नीलिमा पिछड़ जाती है तो क्षितिज मुड़ कर देखता है. नीलिमा लंगड़ा कर चल रही थी.

“अरे, क्या हुआ आप को?” क्षितिज ने चौंकते हुए पूछा. नीलिमा ने घटना बताई. क्षितिज ने पूजा की थाली उस के हाथ से ले ली और उसे सहारा दे कर मंदिर के गर्भगृह तक ले आया.

पूजा करते हुए उसे बारबार नीलिमा के बारे में जानने की इच्छा होती रही. पूजा के बाद किसी  तरह क्षितिज ने नाम से बातचीत शुरू की.

“अगर बुरा न मानें तो आप का नाम जान सकता हूं?”

“नाम तो नीलिमा है, लेकिन बुरा क्यों मानने लगी?”

“आप शादीशुदा हैं न, शादीशुदा स्त्री में दिलचस्पी लेना…”

“देखिए, शादीशुदा स्त्री कोई अजूबा नहीं होती, वह शादी के बाद अपने सारे अधिकार खो नहीं देती.”

“वह तो ठीक है लेकिन पति को पसंद नहीं होता न.”

“पत्नी को भी पति की ढेरों बातें पसंद नहीं होतीं, क्या पति, पत्नी के अनुसार चलता है?

और मेरी तो बात ही अलग है. पति ही पसंद नहीं, तो पति की पसंद पर जाऊं ही क्यों?”

क्षितिज अचरज से उसे देख रहा था, बोला, “काश, आप मेरी दोस्त हो पातीं. आप में तो गजब का आत्मविश्वास है.”

“दोस्त होने में दिक्कत क्या है. मैं कल से आधा घंटा पहले आ जाया करूंगी, फिर हमें बात करने को कुछ वक्त मिल जाया करेगा. दोस्ती तो एकदूसरे को अच्छी तरह जानने से ही होगी न.”

दोनों ने अब अपने लिए समय निकालना शुरू किया.

नीलिमा का खिला रूप, धूपधूप सा आत्मविश्वास, जिंदगी को तसल्ली से जीने की इच्छा… उदास क्षितिज में भी आसमानी रंग भरने लगे, उस की झिझक जाती रही.

नीलिमा और क्षितिज मंदिर के पीछे पहाड़ पर बैठ कुछ देर बातें करते.

“जानते हो क्षितिज, मैं शादी से पहले की जिंदगी को खूब याद करती हूं.”

“क्यों, ऐसा क्या था पहले, जो अब नहीं है?”

“कालेज, घूमनाफिरना, अपनी पसंद का खाना, पहनना, अपने शौक…सबकुछ. ग्रेजुएशन करते हुए मैं ने केक बनाना सीखा. शादी से पहले तक मेरा बिसनैज अच्छा चल निकला था.”

“फिर शादी की जल्दी क्या थी?”

“जल्दी मुझे नहीं, मेरे बड़े भाई व भाभी को थी.

“बचपन में पापा की मौत के बाद मां ने बड़ी मुश्किल से हमें संभाला और बड़े भाई, जो मुझ से 5 साल बड़े हैं, मात्र 19 साल के होते ही पापा के औफिस में नौकरी में लगा दिए गए. नौकरी लग गई, तो 22 साल में 20 साल की लड़की से मां ने उन का विवाह भी करवा दिया. इसलिए जैसे ही मेरी स्नातक पूरी हुई, बड़े भाईभाभी ने मेरी शादी का कर्तव्य निभा कर छुट्टी पा जाने में ही अपनी भलाई समझी.

“जब भाई की शादी 22 साल में हुई तो मां के पास भी चारा नहीं था कि वे मेरी शादी रोक लें और वह भी तब जब अच्छाभला लड़का मिल गया था.  इकलौता लड़का, अपना अच्छा बड़ा घर, सरकारी नौकरी और सास के सिवा कोई जिम्मेदारी भी न थी. अब अलग बात है कि यह अकेली सास सौ बोलने वाली औरतों के बराबर है.

“अभी तो यह हाल है कि हमारा जिंदा रहना ही पूजापाठ और कर्मकांड के लिए रह गया है.

आएदिन तीनचार घंटे पूजा की तैयारी में लगाओ,  पूजा की सामग्री के पीछे पैसा और समय बहा, अपने शौक और जरूरी कामों को मारो.  इस के बाद भी सास की सहेली मंडली के नाज उठा कर बदनामी भी सहो. एक और बड़ी मुश्किल मेरी ड्रैस को ले कर है. मैं वैस्टर्न ड्रैस की शौकीन हूं, लेकिन यहां तो बहू का ऐसा लेबल लग गया है कि साड़ी के सिवा कुछ पहन ही नहीं सकती.”

“तुम्हारी जिंदगी तो बिलकुल मेरी जैसी है नीलू.”

नीलिमा ने देखा क्षितिज की ओर. आसमान की नीलिमा से क्षितिज के संधिस्थल की दूरी मिट चुकी थी. नीलिमा धीरे से उठ कर क्षितिज के बिलकुल पास बैठ गई. दोनों के चेहरे पास थे, सांसें गहरी हो चली थीं. क्षितिज ने उम्रभर की शिद्दत जुटा कर नीलू के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. नीलू की आंखें बंद हो गईं.

क्षितिज ने हटते हुए कहा- “नीलू, मुझे माफ करो. प्यार पर जोर न चल सका.”

“अब कोई माफी नहीं होगी.”

क्षितिज का चेहरा पीला पड़ने लगा. नीलिमा ने उसे गले से लगा लिया और उस के होंठों पर भरपूर चुंबन रख दिया.

“नीलू…”

“अब पाप की धारणा में मत बहना. अगर पाप ही कहना है तो मेरा निरूपम से रिश्ता पाप है, वह रिश्ता जहां सिर्फ शरीर के सुख के लिए एक स्त्री को रौंदा जाता है. अगर पाप है तो वही है. प्रेम तो सब से शुद्ध है, शांत है, आनंद है.”

“नीलू,  पापा बता रहे थे तुम्हारा मायका टाटी सिलवे है, सुवर्ण रेखा नदी से आगे. क्यों न मायके जाओ और उधर मैं सुवर्ण रेखा के तट पर तुम से मिलूं?”

“जाने नहीं देते और घर में चाहता भी कौन है कि मैं वहां जाऊं. लेकिन हम सुवर्ण रेखा पर मिलेंगे जरूर. तुम बता देना, मैं आ जाऊंगी.”

और इस तरह दोनों का सफर शुरू हुआ.

नीलिमा जब भी आती, अपने पसंदीदा वैस्टर्न ड्रैस में. और क्षितिज को भी मिल गई थी अपने पसंद से जीनेपहनने की आजादी.

वैसे यह सबकुछ उन्हें मिला था कुछ कीमत चुका कर ही.

कभी झूठ, कभी बहाने- नीलिमा और क्षितिज  को बड़ी मुश्किलों से  निभानी पड़ रही थी यह दोस्ती.

लेकिन जब 2 दिलों के दर्द एक थे, उदासियां एक थीं, सपने और जिंदगी एक सी थी, तो दोस्ती की सारी बाधाओं को तो पार पाना ही था.

नीलिमा और क्षितिज आज के युवा थे, उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि उन के जीवन और इच्छा की डोर किसी और के हाथों में बंधी रहे.

जब दोनों ने कुछ अपनी कही, कुछ उन की सुनी, लगा उन का दर्द उन की असुविधाएं अलग कहां.

नीलिमा ने उस दिन नदी के किनारे बैठ क्षितिज से पूछा- “तो तुम्हारा आखिरी फैसला यही है?”

“हां, बस यही. तुम न मत कहना.”

नीलिमा और क्षितिज वापस घर आ गए थे. वे बेचैन थे. क्या यह फैसला सही था? क्षितिज ने  इस बारे में रामेश्वर सर से बात की. उन्होंने भी माना, इस तरह चोरीछिपे मिलना सही नहीं. अब ज्यादा दिन ऐसे ही बीते तो निश्चित ही परिवार व समाज के हाथों उन दोनों की बुरी गत होगी.

रामेश्वर सर ने क्षितिज को सारी बातें समझा दीं.

महीनेभर नीलिमा ने जैसेतैसे बिताया.

एक दिन रामेश्वर सर नीलिमा की ससुराल आए. उन लोगों से कहा कि वे नीलिमा के पापा के दोस्त हैं, उन के घरवालों ने नीलिमा को खाने पर बुलाया है, साथ ले जाने आए हैं, शाम तक नीलिमा को वापस भेज देंगे. नीलिमा सारी बातें जानती थी, वह रामेश्वर के साथ चली आई.

शाम को नीलिमा के बदले आया नीलिमा के निरूपम से तलाक के कागज. वे अवाक रह गए. ससुराल और मायके में हड़कंप मच गया.

नीलिमा ने साफ कर दिया कि वह बालिग है, जिंदगीभर मरमर कर नहीं जिएगी.

सारा कुसूर, सारा दोष जब लड़की का ही है और उसे शांति से, अपनी मरजी से सजनेसंवरने व पसंदीदा काम करने का अधिकार ही नहीं, तो वह घुटघुट कर नहीं जी सकती.

चूंकि तलाक के साथ नीलिमा ने किसी संपत्ति की मांग नहीं की थी, उसे बहुत जल्द तलाक मिल गया.

रामेश्वर के पास अपने 3 मकान थे. उन में 2 को वे किराए पर दिया करते थे.  उन में से एक के किराएदार पहले से ही घर खाली करने वाले थे. उन के घर खाली करते ही क्षितिज और नीलिमा  कोर्टमैरिज का फैसला कर रामेश्वर के इस बढ़िया हवादार मकान में साथ रहने चले आए.

अब सेवाराम की नींद उड़ी. बेटे को बुलवा कर लाख समझाया लेकिन बेटा टस से मस नहीं हुआ. तो सेवाराम बिफर पड़े- “पंडित हो कर कुर्मी की शादीशुदा औरत से विवाह. बहुत हेठी होगी, पूरा धंधा चौपट हो जाएगा, पंडित बिरादरी में नाक कटेगी, यजमानों के घर छूट जाएंगे. कुछ तो समझो.”

“कुछ नहीं समझना है पिताजी. प्यार में निर्णय लिया जाता है, आप समझें मेरी परेशानी.

पूजापाठ बहुत हुआ, अब मुझे मेरी जिंदगी जीने दीजिए. और यह मेरी अकेली की बात भी नहीं, नीलिमा को अकेला क्यों छोड़ दूं? उस ने तो मेरी खातिर इतनी हिम्मत की. अगर आज की युवा पीढ़ी अंधविश्वास और कर्मकांड के पीछे, जातपांत, भेदभाव और कुसंस्कार के पीछे अपना सुकून गंवा दे, तो उस की सारी ऊर्जा व्यर्थ चली जाएगी. समाज के लिए, आर्थिक और राजनीतिक बेहतरी के लिए एक युवा क्या कुछ नहीं कर सकता है. आप लोग उन की क्षमता को अंधविश्वास व भेदभाव की परंपरा में नष्ट करना चाहते हैं?”

क्षितिज खुद आश्चर्य में था कि उस ने अपनी दिल की बात इतनी बेझिझक कही कैसे? क्या यह नीलिमा की दी हुई शक्ति और प्रेरणा है…

सेवाराम अब भी अड़े थे- “बेटा, तू यह सब बातें छोड़, चल एक काम कर, तुझे जितना रहना है उस के साथ रह ले, घूम ले, शादी मत करना. ब्राह्मण का बेटा सोने की अंगूठी है, सोने की अंगूठी में दोष नहीं होता. एकदो साल बाद मैं तेरे लिए  ब्राह्मण की अच्छी लड़की ले आऊंगा.”

“पिताजी, आप इतने वर्षों से पूजापाठ करते आ रहे हैं, लेकिन आप ने पूजा का अर्थ नहीं समझा. जिस दिन मानव से प्रेम कर लेंगे, धर्मजाति का भेद भूल जाएंगे. आप की पूजा पूरी हो जाएगी. मैं नीलिमा के साथ जिंदगीभर का साथ निभाने जा रहा हूं पिता जी.  हां, आप की जरूरतों पर मैं हमेशा आप का साथ दूंगा.”

कोर्टमैरिज के बाद नीलिमा और क्षितिज के नए घर में प्रेम की नीलवर्णी अपराजिता खिल उठी. वह उदास क्षितिज नीलिमा की गहराई में समा कर आशा का आकाश हो गया था.

 

सरकार, जज और साख खोती न्याय व्यवस्था

‘‘जज 2 तरह के होते हैं- एक वे जो कानूनों को अच्छे से जानते हैं और एक वे जो कानून मंत्री को अच्छे से जानते हैं.’’ उक्त कथन फरवरी 2012 में तब की विपक्ष में बैठी भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली द्वारा एक कौन्फ्रैंस में व्यक्त किया गया था. इस कथन के कई सटीक माने थे जो न्याय की बागडोर संभालने वाले जजों का उपहास उड़ा रहे थे, साथ ही, सीधा प्रहार न्यायिक व्यवस्था पर कर रहे थे जिसे लोकतंत्र का सब से मजबूत खंबा घोषित किया गया है. हालांकि, यह बात अलग है कि विपक्ष में रह कर अच्छेअच्छे निरंकुश सोच रखने वाले लोग भी लोकतांत्रिक और निष्पक्षता की दुहाई देने लगते हैं और सत्ता में आने के बाद अच्छेअच्छे लोकतांत्रिक लोग निरंकुश कदमों को दर्शा जाते हैं.

उसी दौरान अरुण जेटली ने कहा था कि रिटायरमैंट के फौरन बाद जजों को किसी नए सरकारी पद पर नियुक्त करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. यह बात और है कि उन की इस सलाह को उन की ही सरकार में कोई तवज्जुह नहीं दी गई या शायद यह जुमला भी तभी तक ठीक रहा जब तक वे विपक्ष में रहे. बहरहाल, जेटली के कथन से वाजिब सवाल तो बनता ही है कि क्या सही में जजों के फैसले और समयसमय पर उठते उन पर विवाद न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर कर रहे हैं? और अगर ऐसा है, तो न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास कैसे कायम हो पाएगा? अब आते हैं हालिया मामले पर, 3 अप्रैल को गुजरात हाईकोर्ट के 60 साल पूरे हुए,

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जिसे याद करते हुए एक वर्चुअल इवैंट का आयोजन किया गया था और जिस में प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी व अन्य मंत्रीगण, सुप्रीम कोर्ट व गुजरात हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश, सोलिसिटर जनरल व कई अधिवक्ता उपस्थित थे. यह आयोजन रखा तो इसलिए गया था कि गुजरात हाईकोर्ट के यादगार सफर, उस के चैलेंज और जिम्मेदारियों पर रोशनी डाली जाए लेकिन कुछ देर बाद वहां भी मुख्य लोग प्रधानमंत्री की गाथा गाते पाए गए. सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एम आर शाह, जो गुजरात हाईकोर्ट को अपनी ‘कर्मभूमि’ मानते हैं का एक ‘जज’ होने के नाते यह भी मानना था, ‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरभाई मोदी सब से अधिक लोकप्रिय, जीवंत और दूरदर्शी व्यक्तित्व हैं,’’ अब शब्दों को नहीं, शब्दों की गहराइयों को सम झे जाने की जरूरत है.

जाहिर है सीएए, नए कृषि कानून, लेबर कोड बिल, नोटबंदी इत्यादि को ले कर प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता जस्टिस एम आर शाह जरूर भांप ही रहे होंगे. ध्यान हो तो अगस्त 2019 में जस्टिस एम आर शाह, तब पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे, ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ में कसीदे पढ़े उन्हें ‘मौडल’ और ‘हीरो’ भी बताया था. उसी कार्यक्रम में गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विक्रम नाथ ने भी हाथ आया मौका फुजूल जाने नहीं दिया. उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कह दिया कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का राज उन के समर्पण, लोगों को प्रेरणा देना और निष्पक्षता पर है. उन का कहना था, ‘‘प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के पीछे अपने कर्तव्यों के प्रति उन की मूलभूत न्यायनिष्ठा की अहम भूमिका रही है. माननीय प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्यनिष्ठा निभाते हुए पूरे विश्व की सुरक्षा का संकल्प चरितार्थ किया है.

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यदि नेतृत्व इस प्रकार न्यायवान हो तो घर के सदस्यों को समान प्रतिभाव की शक्ति सदा मिलती रहती है,’’ वहीं, उसी इवैंट में विक्रम नाथ ने गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी को गौरवपूर्ण नेतृत्व करने वाला मुख्यमंत्री बताया. कार्यक्रम में सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जिन्होंने मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले 2014 तक गुजरात हाईकोर्ट में प्रैक्टिस की, कहते हैं, ‘‘प्रधानमंत्री के जीवंत नेतृत्व में हमारे देश ने पहले ही विश्वगुरु बनने की राह पकड़ ली है.’’ ऐसा नहीं है कि जजों का इस प्रकार महिमामंडन कर विवाद में आना कोई नया मामला हो, इस से पहले पिछले साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अरुण मिश्रा ने इंटरनैशनल जुडिशियल कौन्फ्रैंस 2020 में प्रधानमंत्री मोदी को बहुमुखी प्रतिभावान और वैश्विक स्तर पर दूरदर्शी बताया था.

जिसे ले कर बाद में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और बार एसोसिएशन औफ इंडिया ने जस्टिस अरुण मिश्रा की खूब आलोचना की. लेकिन सवाल यह है कि आखिर इन वाकयों का आज के समय में क्या अर्थ है? संदेह के घेरों में राजनीतिक हितों के फैसले और नियुक्तियां सत्ता में आने से पहले वर्ष 2012 में अरुण जेटली ने जजों पर कटाक्ष करते हुए भारतीय जनता पार्टी की लीगल कौन्फ्रैंस में कहा था, ‘‘रिटायर होने से पहले के जजमैंट, रिटायरमैंट के बाद की जौब से प्रभावित होते हैं,’’ साथ ही, उसी कार्यक्रम में नितिन गडकरी ने कहा था, ‘‘मेरा सु झाव है कि सेवानिवृत्ति के बाद किसी अन्य जगह नियुक्ति से पहले 2 साल का अंतर होना चाहिए,

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अन्यथा सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अदालतों को प्रभावित कर सकती है और देश में एक स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका का सपना कभी भी साकार नहीं होगा.’’ अब जब भाजपा नेताओं के तीर कमान से निकले ही हैं तो मोदी एरा में इस उदाहरण के ऐसे विवादित जज भी सामने आए हैं जिन्होंने मौजूदा सरकार की कथनी और करनी में भारी अंतर पेश किया. जेटली और गडकरी की भाषा में कहें तो देश की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ भारी सम झौता किया, जिस की अगुआ खुद भाजपा सरकार बनी.

जुलाई 2018 में जस्टिस ए के गोयल को सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में सेवानिवृत्त होने वाले दिन ही नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का चेयरमैन नियुक्त किया गया. उसी साल इस से पहले मई के आखिरी हफ्ते में जस्टिस आर के अग्रवाल को नैशनल कंज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रैसल कमीशन (एनसीडीआरसी) का उन के सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होने के कुछ ही हफ्ते के अंदर चेयरमैन बनाया गया. सेवानिवृत्ति के कुछ ही दिनों बाद हुईं इन नियुक्तियों पर कुछ लोगों ने सवाल खड़े किए. सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद हुई नियुक्तियों से पता चलता है कि इन नियुक्तियों को ले कर फैसले संबंधित सरकारों ने पहले ही यानी जजों के कार्यकाल के दौरान ही ले लिए थे. अब जाहिर है इन नियुक्तियों से उन फैसलों पर सवाल उठते हैं जिन मामलों में संबंधित सरकार के दांव लगे हों.

इस कड़ी को देखा जाए तो सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद हुई नियुक्तियों वाले जज रिटायरमैंट से पहले उन मामलों को देख रहे थे जिन का सीधा जुड़ाव सरकार या मुख्य न्यायाधीश से था. जहां जस्टिस ए के गोयल की अगुआई वाली बैंच रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड मामले में ट्रिब्यूनल के पुनर्गठन का मामला देख रही थी. वहीं जस्टिस आर के अग्रवाल ने उस बैंच का नेतृत्व किया था जिस ने सीबीआई के विशेष निदेशक के तौर पर आर के अस्थाना की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्ति के फैसले पर सवाल उठाने वाली याचिका को खारिज किया था. इस के अलावा जस्टिस आर के अग्रवाल विशेष रूप से उस मामले के अध्यक्ष थे जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट पर लगे भ्रष्टाचार की जांच कर रही थी और उस बैंच का भी हिस्सा थे जिस ने जस्टिस चेलमेश्वर की बैंच के उस आदेश को रद्द कर दिया था जिस में मैडिकल कालेज रिश्वत मामले में विशेष जांच के आदेश दिए गए थे. इसी कड़ी में पूर्व सीजेआई पी सतशिवम की विवादित नियुक्ति को कैसे भूला जा सकता है.

पोस्ट रिटायरमैंट जौब के चलते ऐसे सवाल 2014 में उन के ऊपर तब खड़े हुए थे जब उन्हें 4 माह बाद ही मोदी सरकार द्वारा केरल का 21वां राज्यपाल बना दिया गया था. सतशिवम भारतीय सर्वोच्च न्यायलय के 40वें मुख्य न्यायाधीश थे. और यह पहली बार हुआ था जब मुख्य नयायाधीश को किसी राज्य का गवर्नर बनाया गया हो. दरअसल, पी सतशिवम पर यह आरोप लगा कि उन की यह नियुक्ति तुलसीराम प्रजापति मामले में भाजपा के जनरल सैक्रेटरी अमित शाह के खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने के चलते की गई. इस मामले की अलग से जांच की मांग सीबीआई कर रही थी. हालांकि, उन्होंने यह बात खारिज की. राज्यपाल के रूप में पी सतशिवम को तब शर्मिंदगी का सामना करना पड़ गया जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए लाए गए सरकारी अध्यादेश पर उन्हें हस्ताक्षर करना था. ऐसा नहीं है कि विवाद सिर्फ जजों के रिटायरमैंट के बाद ही देखे गए, बल्कि जजों की नियुक्तियां भी सनसनीखेज विवादों में घिरी हैं. सुप्रीम कोर्ट के कौलेजियम ने वर्ष 2018 में इलाहाबाद हाईकार्ट के लिए जिन जजों की सिफारिश की थी उन में से कई विवादस्पद ऐसे नाम भी थे जिन की सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों से करीबी रिश्तेदारी थी.

कौलेजियम और सरकार के बीच नियुक्ति को ले कर तकरार 2014-15 में शायद रही ही इसी बात पर हो कि इस तरह का एडवांटेज सिर्फ न्यायाधीशों को ही क्यों मिले. नियुक्तियों में अनदेखी केंद्र द्वारा अपने अनुसार जजों की पोस्ट रिटायरमैंट जौब का विवाद तो उठता ही रहा है, साथ ही, सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति में अनदेखी करने का विवाद शुरू से ही गरमाया हुआ है. इन में जस्टिस जोसेफ और मशहूर वकील गोपाल सुब्रमण्यम के नाम सुर्खियां बटोर चुके हैं. दिलचस्प यह है कि गोपाल सुब्रमण्यम का नाम चर्चा में था फिर बाद में यू यू ललित को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया जो कि सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह के वकील रहे थे. इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट के कौलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट के 4 जजों के नामों की सिफरिश भेजी. यह सिफारिश रंजन गोगोई के तहत 5 मुख्य जजों द्वारा भेजी गई थी. ध्यान देने वाली बात, उन के औफिस से जुड़ने के लगभग एक महीने बाद की ही यह बात है. वर्ष 2018 अक्तूबरनवंबर में 2 नाम बड़े विवादास्पद रहे. एक एम आर शाह जिन की बात हम पहले भी मुक्कमल कर चुके हैं.

2016 के किस्से में तो यह बात मुखर तरह से आई जब तत्कालीन सीजेआई टी एस ठाकुर को वरिष्ठ अधिवक्ता यतिन ओझा ने आरोप लगाते हुए खत लिखा, ‘‘पीएम मोदी और अमित शाह से उन की निकटता के चलते एम आर शाह का तबादला नहीं किया जा रहा है,’’ वहीं जस्टिस गुप्ता पहले प्रवर्तन निदेशालय की जांच से जुड़े थे. यह एजेंसी उन की पत्नी अलका गुप्ता के खिलाफ मनी लौडिं्रग के आरोपों की जांच कर रही थी. उस समय के ईडी सहायक निदेशक गोपेश बयाडवाल ने इस बात को रेखांकित करते हुए एक विस्तृत नोट भेजा, ‘‘जस्टिस गुप्ता और उन की पत्नी को शैल संस्थाओं के ढांचे के माध्यम से मनी लौंडिं्रग की प्रक्रिया में सहयोगी और लाभार्थी के रूप में पहचाना गया है,’’ ध्यान देने वाली बात यह है कि केंद्र ने मात्र 48 घंटों में ही कौलेजियम की इन सिफारिशों पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस चेलमेश्वर ने भी 2018 में केंद्र सरकार पर खुल कर यह आरोप लगाया कि वह जजों की नियुक्ति में मनमानी कर रही है. चीफ जस्टिस और अन्य 22 जजों को 5 पन्नों का एक लंबा पत्र लिखते हुए उन्होंने कहा, ‘‘केंद्र सरकार कौलेजियम के सु झावों को बेहद चुनिंदा और मनमाने तरीके से स्वीकार रही है. सु झाए गए जिन नामों से सरकार सहज नहीं है,

उन की नियुक्ति या तो रद्द की जा रही है या उसे लंबित छोड़ा जा रहा है. यह न्यायिक स्वतंत्रता के लिए बेहद घातक है.’’ रंजन गोगोई का अध्याय निराला मार्च 2018 में गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच ने कहा था, ‘‘यह एक वैध दृष्टिकोण है कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है,’’ जाहिर है यह ‘धब्बा’ जस्टिस गोगोई को दूसरों के मामले में ही लगता रहा क्योंकि अपने कथनों को पलटते हुए गोगोई नवंबर 2019 में अपना कार्यकाल खत्म होने के मात्र 4 महीने के अंदर ही मार्च 2020 में मनोनीत सांसद बन संसद पहुंच गए. इस फैसले के बाद उन की चहुं दिशाओं से आलोचना हुई थी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने गोगोई को ले कर कहा कि उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर महान सिद्धांतों से सम झौता किया है. कइयों ने आरोप लगाया कि यह मोदी सरकार का दिया हुआ वह तोहफा है जो उन्होंने अपने फैसलों से सरकार के राजनीतिक हितों को साधा था.

अब कहने वाले तो कहेंगे ही और चटकारे लेने वाले तो चटकारे लेंगे ही जब कथनी और करनी में अंतर आया हो तो. मसला इसी चीज का ही तो है. हालांकि यह बात भारत की भोलीभाली जनता के लिए अधिकतम माने नहीं रखती क्योंकि लंबे समय से वह यही सब तो देखती आई है और कोर्टकचहरी के चक्करों से दूरी ही बनाए रखती है. मास्टर औफ रोस्टर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार कहा था, ‘‘जनता का विश्वास ही न्यायपालिका की सब से बड़ी पूंजी है,’’ लेकिन उक्त घटनाओं का सब से अधिक नुकसान जिसे उठाना पड़ा वह भारतीय लोकतंत्र और भारतीय न्याय व्यवस्था रही है जिस पर आम जनता का भरोसा लगतार घटता जा रहा है. यह समस्या कहीं न कहीं मौजूदा समय में अधिकाधिक देखने में आ रही है. रंजन गोगोई के कार्यकाल को मोदी युग के लिए सब से उपयोगी समय गिना जाता है. यह देखा भी गया कि सर्वोच्च न्यायालय में रंजन गोगोई के कार्यकाल में ऐसे फैसलों की सुनवाई हुई जिन्हें मोदी सरकार के पक्ष में अहम निर्णय के तौर पर देखा गया है और जिस ने लोगों की नजरों में न्यायालय के प्रति भारी संशय की स्थिति पैदा की.

इन फैसलों में अयोध्या का जजमैंट सब से ऊपर रखा जाता है. नवंबर 2019 में सीजेआई गोगोई की अगुआई वाली पीठ ने अयोध्या में एक भूखंड के स्वामित्व पर दशकों पुराने विवाद को समाप्त किया जिसे हिंदू कथित भगवान राम के जन्मस्थान के रूप में दावा करते थे और मुसलिम इसे अपने इबादत स्थल के रूप में देखते थे. चूंकि इस आए फैसले के बाद इतने सालों से न्याय खोजती आंखें भी पस्त हो चुकी थीं और इस अध्याय को किसी भी तरह खत्म होना ही न्याय की परिभाषा लगने लगा था, इसलिए यह कराह रहे लोगों को भी अंतिम चोट ही लगा जिसे सहना ही सब की भलाई में था. लेकिन इस जजमैंट के बाद कहीं न कहीं कुछ तरह के मनोभाव जरूर न्याय व्यवस्था को ले कर खड़े हुए. इसी प्रकार उसी महीने विवादित राफेल घोटाले के मामले में रंजन गोगोई की अध्यक्षता में बैंच ने नरेंद्र मोदी सरकार को क्लीन चिट दी. साथ ही, इस न्यायिक पीठ ने राफेल मामले के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधने वाली टिप्पणी ‘चौकीदार चोर है’ के लिए राहुल गांधी के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्रवाई शुरू की थी. जानकारों द्वारा यह भी कहा जाता है कि एनआरसी जैसे विवादित कानून को बीजखाद डालने में रंजन गोगोई की भूमिका रही है.

गोगोई उस बैंच का हिस्सा रहे जिस ने दिसंबर 2014 से अगस्त 2019 तक असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के कार्यान्वयन का निर्देशन और निरीक्षण किया. गौरतलब है कि असम में इस के लागू होते ही 19.06 लाख लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए, जिस में से अधिकतर संख्या बंगाली हिंदुओं की थी. यहां यह नहीं कहा जा रहा कि इन प्रक्रियाओं के लिए फैसले गलत या फिर पक्षपातपूर्ण हैं. यहां इन तथ्यों के आधार पर सिर्फ यह कहने की कोशिश की जा रही है कि सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद होने वाली जजों की नियुक्तियां और किसी खास पार्टी अथवा नेता से निकटता के चलते उन के दिए फैसलों पर संदेह की गुंजाइश की संभावना बढ़ जाती है, भले ही वे फैसले सही भी क्यों न हों. सवाल यह भी बनता है कि हमेशा सम्माननीय पोस्ट रिटायरमैंट के बाद उन्हें ही क्यों मिलती है या नियुक्ति उन्हीं की जल्दी क्यों हो जाती है जिन की सरकार के फैसलों के साथ अच्छी दाल गलती रही हो?

इसलिए बारबार यह कहासुना भी जाता है कि इंसाफ न केवल होना चाहिए बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए कि इंसाफ हुआ है. साल दर साल विवाद, न्याय व्यवस्था पर चोट हांलाकि राज्यसभा के सांसद रंजन गोगोई कोई अपवाद नहीं हैं. मोदी कार्यकाल में इस बीच कई फैसले व टिप्पणियां आई हैं जिन से आमजन में न्याय व्यवस्था को ले कर अविश्वास बढ़ा है फिर चाहे वह जज लोया केस हो, भीमा कोरेगांव का मसला हो, कश्मीर मामला हो, सीबीआई-अलोक वर्मा केस हो, नोटबंदी और चुनावी बौंड को चुनौती में देरी से सुनवाई का मसला हो सभी में यह देखने में आया है कि न्यायालय के भीतर राजनीतिक हस्तक्षेप काफी बढ़ गया है. हालिया समय में देखा जाए तो मोदी के दूसरे कार्यकाल के बाद से ही आमजन के भीतर भी न्याय व्यवस्था को ले कर काफी असहमतियां उजागर हुई हैं. इसे 2019 के प्रकरण में सीएए-एनआरसी, 2020 में लौकडाउन में माइग्रेंट मजदूरों की सुनवाई और कृषि कानूनों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका से सम झा जा सकता है जहां सर्वोच्च न्यायालय को भारी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है. यहां तक कि,

कृषि कानूनों में अंतरिम रोक लगाने के बावजूद न्यायालय से असहमति जताते हुए किसानों का आंदोलन चलता रहा है. पिछले वर्ष देश के सामने ऐसा विवाद भी सामने आया जिस ने कई लोगों को सकते में डाल दिया. सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर अकसर तीखी टिप्पणी करने वाले सीनियर वकील प्रशांत भूषण को कोर्ट ने पिछले साल अगस्त में अवमानना का दोषी करार दिया. दरअसल, 27 जून को प्रशांत भूषण ने सीजेआई एस ए बोबडे, और 4 पूर्व सीजेआई की आलोचना करते हुए 2 अलगअलग ट्वीट किए थे. प्रशांत भूषण ने अपने पहले ट्वीट में लिखा था कि जब भावी इतिहासकार देखेंगे कि कैसे पिछले 6 वर्षों में बिना किसी औपचारिक इमरजैंसी के भारत में लोकतंत्र को खत्म किया जा चुका है, तो वे इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भागीदारी पर सवाल उठाएंगे और मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को ले कर सवाल पूछेंगे. 28 जून को चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की एक तसवीर सामने आई थी. भूषण ने तसवीर को ट्वीट किया था और सीजेआई बोबड़े की आलोचना की थी. तसवीर में वे एक महंगी बाइक पर बैठे नजर आ रहे थे.

बाइक के शौकीन जस्टिस बोबड़े अपने गृहनगर नागपुर में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान वहां खड़ी एक महंगी बाइक पर बहुत थोड़े समय के लिए बैठे थे. हांलाकि, यह एक संयोग था कि जिस बाइक पर वे बैठे थे वह भाजपा नेता के बेटे की निकली. यह भी देखने में आ रहा है कि न्यायालय की ऊलजलूल टिप्पणियां अलगअलग विवाद खड़े कर रही हैं जिस से न्यायालय की साख पर बुरा असर पड़ रहा है. हाल ही में जनवरी में बौंबे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ की जस्टिस पुष्पा गनेड़ीवाल ने 19 जनवरी को पारित एक आदेश में कहा कि यौन हमले का कृत्य माने जाने के लिए ‘यौन मंशा से त्वचा से त्वचा का संपर्क होना’ जरूरी है. अब इस पर हल्ला मचना जरूरी था. किसी नाबालिग के ब्रैस्ट को बिना ‘स्किन टू स्किन’ कौंटैक्ट के छूने पर पोस्को के तहत अपराध न मानने के हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. सुप्रीम कोर्ट ने बौंबे हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी है.

इस विवाद का असर थोड़ा थम पाया था कि सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 1 मार्च को एक सुनवाई को दौरान आश्चर्यजनक टिप्पणी करते हुए नाबालिग से रेप के एक आरोपी से पूछा कि क्या वह पीडि़ता से शादी करने को तैयार है? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे ने रेप अभियुक्त से कहा, ‘‘यदि तुम शादी करोगे तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं. यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और तुम जेल जाओगे,’’ इस टिप्पणी के बाद सुप्रीम कोर्ट की काफी किरकिरी हुई और जनता के बीच सर्वोच्च न्यायालय को ले कर गंभीरता में कमी आई. जाहिर है इस समय सरकार और मीडिया अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो चुके हैं. ऐसे समय में न्याय व्यवस्था का यों विवाद दर विवाद उल झे रहना न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. लोकतंत्र का गिरता ग्राफ पिछले कुछ समय से लोकतंत्र के गिरते ग्राफ में भारत एक मुख्य उदाहरण बन कर उभर रहा है.

अभी कुछ ही रोज बीते होंगे जब वर्ल्ड फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. इस रिपोर्ट की संवेदनशीलता न सिर्फ मोदी के औथेरिटेरियन सरकार चलाए जाने के रवैए से थी बल्कि भारत का सब से मजबूत स्तंभ कहे जाने वाले न्यायालय की कार्यवाहियों को भी संदेहों में धकेले जाने से थी. रिपोर्ट में कहा गया, ‘मोदी कार्यकाल में भारत की ज्युडिशियल स्वतंत्रता भी प्रभावित हुई है.’ इस प्रकार की रिपोर्ट अपनेआप में भारत की न्याय व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है. फिलहाल देश में तथाकथित प्रतिनिधिक जनतंत्र है जहां देश के वयस्क नागरिक अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और चुने प्रतिनिधियों को जनता वह तमाम जिम्मेदारियां और अधिकार सौंप देती है जिस से वे राज्य व्यवस्था चला सकें. लेकिन जिम्मेदारियां और अधिकार बहुत बार सत्ता को तानाशाही तक भी ले कर जा सकते हैं, इसलिए इन प्रतिनिधियों को निरंकुश और तानाशाह होने के खतरे से बचाने के लिए संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया गया और देश में केंद्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों में शक्तियों का विभाजन कर संघीय ढांचा खड़ा किया गया, साथ ही, अगर संविधान में किसी भी प्रकार के आमूल परिवर्तन करने हों तो उस के लिए दोनों सदनों में उचित बहुमत की जरूरत का प्रावधान लाया गया.

इन सब की निगरानी के तौर पर स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था (सुप्रीम कोर्ट) को मुख्य जिम्मेदारी सौंपी गई जो संघीय ढांचे को संविधान के दायरों में बांध कर रख पाए और केंद्र को निरंकुश होने से रोक पाए. लेकिन समस्या यह है कि इन दिनों खुद सुप्रीम कोर्ट का स्वतंत्र चरित्र शक के घेरे में है. जिसे संविधान की रक्षा का फर्ज निभाना है वह खुद अपनी रक्षा करने के लिए जू झ रहा है. आज भारत का संबंध उन देशों से जोड़ा जा रहा है जहां दक्षिणपंथी सरकारों को वहां की मेजोरिटेरियन जनता ने चुना है ताकि उन्हें किसी संवैधानिक सीमाओं में बंधने की जरूरत न पड़े और यह अधिकार लोकतंत्र के बाकी स्तंभों को जर्जर कर सके. 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद तमाम तरीके से ये बातें सामने आईं कि किस प्रकार मौजूदा सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमलावर रही है.

लेकिन देश के लिए अधिक निराशा का विषय यह रहा कि विभिन्न संस्थाओं पर किए गए इन हमलों से सुरक्षा देने में न्याय व्यवस्था विफल रही. बल्कि, यह कहा जा सकता है कि आपातकाल के बाद से आज फिर उच्चतम न्यायालय अपने सब से कठिन समय से गुजर रहा है और यह सिर्फ इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट में आज फिर से जजों का ढुलमुल व कमजोर व्यक्तित्व इंदिरा काल से भी अधिक खराब स्थिति में पहुंच चुका है जहां सरकारी फरमान पर जजों की नियुक्ति की गई, ट्रांसफर किया गया और सरकार के दबाव में रहना पड़ा.

बेरोजगार युवा और मोदी सरकार

देश भर में मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पढ़ेलिखे बेरोजगारों की गिनती हर साल बढ़ती जा रही है. कोराना के चक्कर में लाखों छोटे व्यापार व कारखाने बंद हुए है और उन की जगह विशाल कारखानों ने ले ली या बाहरी देशों के सामान ने ले ली है. इन में काम कर रहे औसत समझ के पढ़ेलिखे युवा अब बेकार हो गए हैं. ये ऐसे हैं जो अब खेतों में जा कर काम भी नहीं कर सकते. खेतों में भी अब काम कम रह गया है.

इन युवा बेरोजगारों को लूटने के लिए सैंकड़ों कैब साइटें बन गई है और धड़ाधड़ व्हाट्सएप मैसेज भेजे जाते हैं कि साइट पर आओ, औन लाइन फार्म भरो. बहुत बार तो औन लाइन फार्म भरतेभरते बैंक अकाउंड का नंबर व पिन भी ले लिया जाता है जो बचेखुचे पैसे होते हैं, वे हड़प लिए जाते हैं.

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कुछ मामलों में युवाओं को सिक्यूरिटी के नाम पर थोड़ा सा पैसा किसी अकाउंट में भेजने को कहा जाता है. इन को चलाने वाले शातिर कुछ दिन अपना सिम बंद रखते हैं और फिर दूसरे फोन में लगा कर इस्तेमाल करने लगते हैं. पुलिस के पास शिकायत करने वालों की सुनने की फुरसत नहीं होती.

आज 20 से 25 साल हर चौथा युवा यदि पढ़ नहीं रहा तो बेरोजगार है. जो काम कर भी रहे हैं वे आधाअधूरा कार्य कर रहे हैं. उन की योग्यता का लाभ उठाया नहीं जा रहा. मांबाप पर बोझ बने ये युवा आज की पढ़ाई का कमाल है कि अपने को फिर भी शहंशाह से कम नहीं समझे और स्मार्ट फोन लिए टिकटौक जैसे वीडियो बना कर सफल समझ रहे है.

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यह समस्या बहुत खतरनाक हो सकती है. आज से पहले युवाओं को कहीं न कहीं कुछ काम मिल जाता था. किसी को सेना में, किसी को ट्रक में क्लीनर का, किसी को खेत पर. पढऩे के बाद इन सब नौकरियों को अछूत माना जाने लगा है. यह और परेशानी की बात है. घर वालों से लड़झगड़ कर झटके पैसों को खर्च कर के आज कम चल रहा है पर कल जब मां बाप खुद रिटायर होने लगेंगे तब क्या होगा पता नहीं.

आज जब बच्चे होते हैं तो पिता की आयु वैसे ही 25-30 की होती है और जब तक बच्चा बड़ा होता है, पिता 50 के आसपास हो जाता है और वह जो भी काम कर रहा होता है उस में आधा अधूरा रह जाता है. वह अपना और बच्चों का बोझ नहीं संभाल सकता.

बहुत मामलों में तो दकियानूसी मांबाप बेरोजगार बेटेबेटी की शादी भी कर देते हैं. कहीं से भी पैसों का जुगाड़ कर मोटा पैसा शादी में खर्च कर दिया जाता है और यदि कोई काम नहीं मिले तो रातदिन रोना ही रोना रहता है.

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मोदी सरकार ने 2-4 साल इस फौज के भगवा दुपट्टे पहना कर वसूली का अच्छा काम किया था पर वह भी अब फीका पडऩे लगा है. मंदिरों के बंद होने से तो एक बड़े अधपढ़े युवाओं के हिस्स्से में बेकारी छा गई है.

औन लाइन व्यापार ने थोड़ी सी नौकरियां दी हैं पर उस में इतना कंपीटीशन हैकि हर रोज आमदनी कम हो रही है और जोखिम बढ़ रहा है. दिक्कत यह है कि देश में ऐसे कारखाने न के बराबर लग रहे हैं जिन में बेरोजगारों की खपत हो, जो भी काम हो रहा है वह विदेशी मशीनों से हो रहा है जहां बेरोजगारी की परेशानी कम है.

भारत सरकार जल्दी ही कुंभ जैसे और प्रोग्राम करवाए जहां लोगों को नंगे रह कर जीना खिाया जाए क्योंकि अब बड़ी गिनती में पढ़ेलिखे नौजवानों और लड़कियों के लिए जानवरों की तरह ही रहना सीखना होगा.

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 2

लेखिका -डा. के रानी

“पता नहीं आप की समझ में मेरी बात क्यों नहीं आती?”

“सुधा, आज पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है. डिंपी एक अच्छी खिलाड़ी है. उसे प्रदर्शन का मौका तो मिलना चाहिए।”

“तुम्हारी छूट के कारण ही तो डिंपी मेरी एक बात नहीं सुनती। तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है.”

“तुम टैंशन मत लिया करो सुधा. हर बच्चे का अपना शौक होता है. लड़की अपना शौक मायके में ही तो पूरा करती है,”परेश बोले तो सुधा चुप हो गई.

समय के साथ डिंपी जवान हो रही थी और उस के व्यवहार में भी बहुत खुलापन आ गया था. वह कहीं जाती तो किसी को कुछ बताने की जरूरत तक नहीं महसूस करती.

सुधा ने उसे कई बार टोका,”डिंपी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं रही हो.”

“तभी तो कहती हूं मम्मी, अब हर बात पर टोकना छोड़ दें।”

“कम से कम बता तो दिया करो तुम क्या कर रही हो?”

“अपने दोस्तों से मिलने जा रही हूं,” कह कर डिंपी चली गई.

उस के ऐसे व्यवहार के कारण सुधा कभीकभी बहुत परेशान हो जाती.

परेश उसे समझाते,”तुम डिंपी पर विश्वास रखो। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी.”

“मुझ से तो वह सीधी मुंह बात तक नहीं करती.”

“तुम उस के साथ प्यार से पेश आया करो तो वह भी तुम से अच्छे ढंग से बात करेगी। मुझ से तो कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलती.”

“मैं मां हूं. मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती है.”

“मैं भी उस की फिक्र करता हूं। वह मेरी भी तो बेटी है.”

“वह आप की छूट का बहुत नाजायज फायदा उठा रही है.”

“मैं तो ऐसा नहीं समझता…”

जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते. यह बात डिंपी भी बखूबी जानती थी. इसी वजह से वह कोई भी बात मम्मी को बताने की जरूरत तक ना महसूस करती. हां, पापा को अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बता देती.

इंटर पास करते ही बीए में आ कर डिंपी कि नजदीकियां अपनी सहेली जया के भाई राहुल के साथ बढ़ने लगी थीं। जया उस की सहपाठी थी. कभीकभार उस के साथ डिंपी उन के घर चली जाती। वहीं पर उस की मुलाकात राहुल से हुई। मुलाकातें घर तक सीमित न रह कर घर से बाहर भी बढ़ने लगी. जानपहचान पहले दोस्ती में बदली और फिर दोस्ती कब प्यार में बदल गई डिंपी को पता ही नहीं चला.

राहुल ने अपने प्यार का इजहार डिंपी के सामने कर दिया था। पापा की बात को ध्यान में रखते हुए डिंपी ने अभी उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी। वह पहले इस के लिए माहौल बनाना चाहती थी और तब घर वालों से इस बारे में बात करना चाहती थी.  वह सही वक्त का इंतजार कर रही थी.

राहुल एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर था। कभीकभी वह डिंपी को छोड़ने घर भी आ जाता। उस की दोस्ती पर परेश और सुधा को कोई एतराज न था।

यह बात डिंपी पापा को पहले ही कह चुकी थी कि राहुल उस का बहुत अच्छा दोस्त है। तब परेश ने उसे समाज की ऊंच नीच समझा दी थी,”डिंपी तुम एक ब्राह्मण परिवार से हो और राहुल जनजाति समाज से है। बेटी, तुम्हें अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए।”

“पापा, मैं छोटी बच्ची थोड़ी हूं. आप के कहने का मतलब मुझे समझ में आ रहा है.”

“मैं तुम से यही उम्मीद करता हूं। कल को ऐसा न हो कि तुम मेरी दी हुई छूट का नाजायज फायदा उठा कर कोई गलत कदम उठा लो.”

“मुझे पता है पापा,” कह कर डिपी ने बात टाल दी थी।

विस्फोट तो उस वक्त हुआ जब एक दिन राहुल डिंपी को घर छोड़ने आया। उस समय रमा भी घर आई हुई थी. डिंपी को राहुल के साथ बेफिक्र हो कर मोटरसाइकिल पर बैठी देख कर सुधा भड़क गई।

रमा को भी अच्छा नहीं लगा। उस के कुछ कहने से पहले ही सुधा बोली,”डिंपी, तुम्हें कुछ खयाल भी है, तुम क्या कर रही हो? सारा मोहल्ला तुम्हें इस हालत में देख कर क्या सोचता होगा?”

राहुल के सामने मम्मी ने जब यह बात कही तो डिंपी उसे सह न सकी और बोली,” आप जानती हैं राहुल मेरा दोस्त है.”

“तो क्या दोस्तों के लक्षण इस तरह के होते हैं?”

“जमाना बहुत बदल गया है मम्मी. अब पहले वाली बात नहीं है. आज लड़के और लड़की की दोस्ती को बुरी नजर से नहीं देखा जाता. वे आपस में बहुत अच्छे दोस्त होते हैं.”

उस का हौसला : हर कोई सुधा की परवरिश पर दोष क्यों दे रहा था- भाग 1

लेखिका -डा. के रानी

सुधा बहुत ध्यान से टीवी धारावाहिक देख रही थी. सामने सोफे पर बैठे परेश अखबार पढ़ रहे थे. टीवी की ऊंची आवाज उन के कानों में भी पड़ रही थी. बीचबीच में  अखबार से नजर हटा कर वे सुधा पर डाल लेते। सुधा के चेहरे पर चढ़तेउतरते भाव से साफ पता चल रहा था कि टीवी धारावाहिक का असर उस के दिमाग के साथ सीमित नहीं था वरन उस के अंदर भी हलचल मचा रहा था.

धारावाहिक की युवा नायिका अपनी मम्मी से सवालजवाब कर रही थी. सुधा को उस के डायलौग जरा भी पसंद नहीं आ रहे थे.

वह बोली,”देखो तो इस की जबान कितनी तेज चल रही है…”

“तुम किस की बात कर रही हो?”

“टीवी पर चल रहे धारावाहिक की.”

“तो इस में इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? सीरियल ही तो है.”

“देखा नहीं, इस की हरकतें अपनी डिंपी से कितनी मिलती हैं.”

“पता नहीं क्यों हर समय तुम्हारे दिल और दिमाग पर डिंपी सवार रहती है. तुम्हें तो हर जगह आवाज उठाने वाली लड़की डिंपी दिखाई देती है. लगता है, जैसे तुम हर नायिका में उसी का किरदार ढूंढ़ती रहती हो.”

“वह काम ही ऐसा कर रही है. खानदान की इज्जत उतार कर रखना चाहती है. भले ही तुम्हें उस की हरकतों पर एतराज न हो लेकिन मैं उसे ले कर बहुत परेशान हूं।”

“सुधा, डिंपी जो करने जा रही है आज वह समाज में आम बात हो गई है।”

“तुम्हारे लिए हो गई होगी. मेरे लिए नहीं. एक उच्च कुल की ब्राह्मण लड़की हो कर वह जनजाति समाज के लड़के से शादी करना चाहती है और तुम्हें इस में कोई बुराई नजर नहीं आ रही?”

“राहुल बहुत समझदार है। उस का पूरा परिवार पढ़ालिखा है. मानता हूं कि कभी वे जनजाति समाज में रहते थे लेकिन आज उन की स्थिति हम से किसी भी हालत में कम नहीं है। अगर डिंपी उस के साथ खुश रह सकती है तो हमें भी उस की खुशियों में शामिल हो जाना चाहिए.”

“जब पापा ही लड़की का इतना पक्ष ले तो बेटी को क्या चाहिए? वह तो कुछ भी कर सकती है.”

“तुम इस बात में मुझे क्यों दोष दे रही हो? डिंपी ने अपने लिए लड़का खुद चुना है लेकिन वह शादी भाग कर नहीं कर रही है.”

“इसी बात का तो मुझे दुख है. भाग कर चली जाती तो कोई परेशानी न होती. आज बाबूजी जिंदा होते तब देखती तुम इस रिश्ते के लिए कैसे राजी होते?”

“जो है नहीं उस के बारे में क्या सोचना? मैं तो वही करना चाहता हूं जो मेरे बच्चों के लिए ठीक हो. तुम केवल अपने तक ही सोच रही हो.”

“इस से पहले हमारे खानदान में किसी लड़की ने ऐसा काम नहीं किया। यह लड़की तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला कर रहेगी.”

“शायद पहले भी किसी में इतना हौसला होता तो वह भी कर लेता। इस के लिए भी सब्र और साहस दोनों ही चाहिए। हर किसी के बस का भी यह सब नहीं होता,” कह कर परेश वहां से उठ गए.

सुधा समझ गई थी कि परेश से इस बारे में कुछ कहना बेकार है. वह जब भी बेटी को ले कर कुछ कहना चाहती है, परेश उसे इसी तरह चुप करा देते.

सुधा आगे कुछ न कह कर इस समय अतीत में उतरने लगी. उसे अपनी बेटी डिंपी का बचपन याद आने लगा था. वह जानती थी कि डिंपी की हरकतें बचपन से हमेशा बहुत उच्छृंखल थी. पढ़ाईलिखाई में उस का जरा भी मन ना लगता था. घर में हरकोई उस की इस कमजोरी को जानता था. खासकर उस की बुआ रमा को तो उस की हरकतें जरा भी पसंद न थीं.

उस के मायके आते ही सुधा डिंपी को ढूंढ कर उसे पढ़ने बैठा देती,”चुपचाप बैठ कर पाठ याद करो.”

“मैं ने अपना सारा काम कर लिया है मम्मी.”

“तभी तो कह रही हूं बैठ कर पाठ याद करो.”

इस के आगे डिंपी की कुछ कहने की हिम्मत न पड़ती. उस की हरकतें देख कर रमा भी भाभी को सुना देती,”भाभी, तुम इस पर जरा भी ध्यान नहीं देती हो.”

“तू ही बता रमा मैं क्या करूं? मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करती हूं। मानती हूं कि वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार नहीं है. वह एक औसत लड़की है और हर इंसान की क्षमता अलगअलग होती है.”

“यह बात डिंपी को अभी से समझ लेनी चाहिए.”

“तुम कुछ समय के लिए मायके आई हो. यहां रह कर आराम करो. छोड़ो इन सब बातों को.”

सुधा बात को टालने की कोशिश करती। वह जानती थी कि डिंपी का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगता पर खेलकूद में और अन्य गतिविधियों में वह बहुत अच्छा प्रदर्शन करती है. खेलने के लिए भी जब वह दूसरे शहर जाना चाहती तो सुधा को यह बात बहुत अखरती थी.

“चुपचाप जो कुछ करना है घर में रह कर करो. इधरउधर जाने की कोई जरूरत नहीं है।”

“कैसी बातें करती हो मम्मी? मेरे साथ की सारी लड़कियां खेलने जा रही हैं. एक आप ही हो जो हर काम के लिए मना कर देती हो.”

“कौन सा तुझे खेल कर गोल्ड मैडल मिलने वाले हैं…”

“जब खेलने का मौका दोगी तो मैडल भी मिल जाएंगे. आप तो शुरुआत में ही साफ मना कर देती हो,” डिंपी अपना तर्क रखती.

हार कर सुधा परेश को समझाती, “परेश, डिंपी बड़ी हो रही है. इस तरह उस का घर से बाहर रहना मुझे ठीक नहीं लगता।”

“वह स्कूल की ओर से खेलने जाती है सुधा. उस के साथ मैडम और स्कूल की और भी लड़कियां हैं. वह अकेले थोड़ी ही है।”

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