मध्य प्रदेश के विष्णुपुरी इलाके के शिवम अपार्टमैंट में रहने वाली 32 वर्षीया आकांक्षा के दिलोदिमाग में एक सवाल रहरह कर बेचैन किए जा रहा था कि आखिर उपेंद्र से शादी कर उसे क्या मिला? तन्हाई, रुसवाइयां और अकेलापन? क्या इसी दिन के लिए मैं सईदा से आकांक्षा बनी थी? अपना वजूद, अपनी पहचान सबकुछ तो मैं ने उपेंद्र के प्यार पर न्योछावर कर दिया था और वह है कि अब फोन पर बात तक करना गंवारा नहीं कर रहा. क्या मैं ने उपेंद्र से प्रेम विवाह कर गलती की थी? उस के लिए धर्म तो धर्म, परिवार, नातेरिश्तेदार सब छोड़ दिए और वह बेरुखी दिखाता सैकड़ों किलोमीटर दूर बालाघाट में अपनी बीवी के साथ बैठा सुकून भरी जिंदगी जी रहा है. क्या मैं उस के लिए महज जिस्म भर थी?

पर उपेंद्र ने आकांक्षा को जिंदा रहने के लिए एक मकसद दिया था और वह मकसद पास ही बैठा 11 साल का बेटा वेदांत था. वेदांत काफी कुछ समझने लगा था. मम्मी और पापा के बीच फोन पर हुई बातचीत से वह इतना जरूर समझ गया था कि मम्मी अभी गुस्से में हैं इसलिए भूख लगने के बावजूद वह यह कह नहीं पा रहा था कि मुझे भूख लगी है, खाना दे दो. लेकिन जब भूख बढ़ गई तो उस से रहा नहीं गया और काफी इंतजार के बाद उसे कहना पड़ा कि मम्मी, भूख लगी है.

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बेटे की इस बात पर मां की ममता थोड़ी जागी और आकांक्षा ने फोन पर खाना और्डर कर वेदांत को छाती से भींच लिया तो हलकी सी उम्मीद वेदांत को बंधी कि अब सबकुछ ठीक हो जाएगा. थोड़ी देर बाद खाना आ गया. खाने के बाद आकांक्षा फिर विचारों के भंवर में फंस गई और सोचतेसोचते उस ने एक सख्त फैसला ले लिया.

आकांक्षा के जेहन में फिर उपेंद्र आ गया था-हट्टाकट्टा स्मार्ट पुलिस वाला जो खुशमिजाज भी था और रोमांटिक भी. उस के व्यक्तित्व पर सईदा ऐसी मरमिटी थी कि दोनों प्यार के बाद शादी के अटूट बंधन में बंध गए. उपेंद्र ने भी अपनी पहली पत्नी की परवा नहीं की और सईदा को पत्नी का दरजा दिया लेकिन चूंकि परिवार और समाज के लिहाज के चलते उसे साथ नहीं रख सकता था इसीलिए अलग इंदौर में रहने की व्यवस्था कर दी थी और हर महीने पर्याप्त पैसे भी भेजा करता था.

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दर्दनाक अंत

शुरूशुरू में तो वक्त आरजू और इंतजार में कट गया लेकिन धीरेधीरे उपेंद्र का इंदौर आनाजाना कम होता गया. आकांक्षा जब भी इस बाबत शिकायत करती तो उस का रटारटाया जवाब होता था कि तुम तो सब जानती हो और यह बात शादी के पहले ही मैं ने तुम्हें बता दी थी. इसलिए आकांक्षा ज्यादा सवाल नहीं कर पाती थी. लेकिन अब आकांक्षा के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था. लिहाजा, रोजरोज फोन पर कलह होने लगी. एक दफा तो बात इतनी बढ़ गई कि उस ने गुस्से मेें गले में फांसी का फंदा मासूम वेदांत के सामने ही डाल लिया था. तब से वेदांत मां से खौफ खाने लगा था.

वेदांत अपने कमरे में जा कर सो गया.  रात डेढ़ बजे के लगभग खटपट की आवाज सुन कर वेदांत की नींद खुली तो वह उठ कर आकांक्षा के कमरे की तरफ आया. वहां का नजारा देख वह सन्न रह गया. आकांक्षा कुरसी पर चढ़ी पंखे से दुपट्टा बांध रही थी यानी अपने लिए फांसी का फंदा तैयार कर रही थी. बेटे को आते देख उस के चेहरे पर किसी तरह के भाव नहीं आए, न ही ममता जागी और वह मशीन की तरह फंदा कसती रही. वेदांत की जान हलक में आ रही थी फिर भी वह हिम्मत जुटा कर बोला, ‘मम्मी प्लीज फांसी मत लगाओ.’

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यह नजारा कलात्मक फिल्मों के दृश्यों को भी मात करता हुआ था. आकांक्षा ने बेहद सर्द आवाज में जवाब दिया, ‘तू भी आ जा बेटा, दोनों साथ फांसी लगा लेते हैं.’ वेदांत आकांक्षा की तरफ दौड़ा लेकिन उस के पहुंचने से पहले ही आकांक्षा ने कुरसी पैरों से खिसका दी. मां को फांसी पर झूलता देख वह बाहर गया और सिक्योरिटी गार्ड को आवाज दी. थोड़ी देर ही में शिवम अपार्टमैंट में हलचल मच गई.

आकांक्षा उर्फ सईदा मर चुकी थी. पुलिस आई. फंदा काट कर आकांक्षा का शव नीचे उतारा और कागजी कार्यवाही पूरी की. यह घटना 2 जुलाई की रात की है. जिस ने भी सुना या देखा उस के रोंगटे खड़े हो गए.

प्यार और अव्यावहारिकता

इस तरह एक ऐसी कहानी खत्म हुई जिस में मां की आत्महत्या के अपराध की सजा बेटा अब जिंदगीभर भुगतेगा. कहने या सोचने की कोई वजह नहीं कि  2 जुलाई, 2014 की रात का खौफनाक दिल दहला देने वाला दृश्य देखने के बाद वेदांत सामान्य जीवन जी पाएगा. कम पढ़ीलिखी आकांक्षा जैसी युवतियां दरअसल दूसरी जाति या धर्म में शादी तो कर लेती हैं पर उस के माहौल और रंगढंग में खुद को ढाल नहीं पातीं तो सारा दोष दूसरे तरीकों से पति के सिर मढ़ने की और साबित करने की गलती गुनाह की शक्ल में कर बैठती हैं.

परिवार और समाज के स्वीकारने, न स्वीकारने की परवा इन दोनों ने भी नहीं की थी पर आकांक्षा हकीकत का सामना ज्यादा वक्त तक नहीं कर पाई. जिंदगी के प्रति उस का नजरिया नितांत अव्यावहारिक और अतार्किक था जो उस की मौत की वजह भी बना पर इस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ. उपेंद्र जिंदगीभर खुद को कोसता रहेगा और वेदांत पर क्या गुजरेगी इस की कल्पना भर की जा सकती है. आजकल हिम्मत और बगावत कर प्रेम विवाह करना पहले के मुकाबले आसान हो गया है पर निभाना कठिन होता जा रहा है जिस की वजह पुरुष कम और महिलाएं ज्यादा शर्तें थोपती हैं.

देखा जाए तो आकांक्षा और उपेंद्र के बीच कोई खास समस्या नहीं थी. परंपरागत ढंग से और रीतिरिवाजों से शादी करने वाली महिलाओं को भी पति से वक्त न देने की शिकायत रहती है पर वे खुदकुशी नहीं कर लेतीं, हालात के प्रति व्यावहारिक नजरिया रखते हुए समस्या का हल ढूंढ़ लेती हैं और जब बच्चे हो जाते हैं तो उन की परवरिश और कैरियर बनाने में व्यस्त हो जाती हैं या फिर खुद को व्यस्त रखने के लिए दूसरे तरीके खोज लेती हैं. मसलन, पार्ट टाइम जौब या अपने शौक पूरे करना आदि. और जब वे ऐसा नहीं करतीं या कर पातीं तो खासी परेशानियां पति और बच्चों के लिए खड़ी करने लगती हैं. इसे स्त्रियोचित जिद और नादानी ही कहा जा सकता है. पति की नौकरी या व्यवसाय और उस की व्यस्तताओं व परेशानियों से वास्ता रखना तो दूर की बात है उलटे जब पत्नियां इस पर कलह करने लगती हैं तो बात बिगड़ना तय होता है.

गैरजातीय प्रेम विवाह

दूसरी जाति और धर्म में शादी करने वाली महिलाओं को तो और संभल कर व समझौते कर रहना जरूरी होता है. परिवार और समाज किसी भी विद्रोह को अब शर्तों पर स्वीकारते हैं. जब प्यार होता है तो प्रेमियों की हिम्मत और दुसाहस देखते बनता है पर शादी के बाद उन के रंगढंग बदलने लगते हैं. वजहें बाहरी कम अंदरूनी ज्यादा होती हैं. एक स्त्री अपने प्रेमी से वादा करती है कि शादी कर लो, मैं सबकुछ बरदाश्त कर लूंगी, धर्म के कोई खास माने नहीं, तुम्हारे मुताबिक चलूंगी, अलग रह लूंगी और कोई शिकवाशिकायत नहीं करूंगी. शादी के बाद ये सारी बातें हवा हो जाती हैं. आकांक्षा इस की ताजा मिसाल है. वह पति की हदें और मजबूरियां भूल गई थी. लिहाजा, उस ने खुद को सही साबित करने के लिए पति के कान खाने शुरू कर दिए. इस पर भी बात नहीं बनी तो खुदकुशी कर ली.

यह टकराव और शिकायतें समस्या का हल नहीं थे जो अकसर खुद पत्नियां पैदा करती हैं. समझदार पत्नी वास्तविकता को स्वीकारती है और हर हाल में सुख से रहती है. वह जानतीसमझती है कि बेवजह की कलह और टकराव से सिवा अलगाव और तलाक के कुछ हासिल नहीं होने वाला क्योंकि पति के बरदाश्त करने की भी हदें होती हैं जो जिंदगी में कई मोरचों पर लड़ रहा होता है. मैं ने उन के लिए धर्म या जाति छोड़ कर अहसान किया है यह मानसिकता ही सारे फसाद की जड़ है जो ममता और दूसरी जिम्मेदारियों पर भी भारी पड़ती है.

इस का इकलौता हल है बेवजह शिकायतों का पिटारा खोले न बैठे रहना, शिकवे और तानों से दूर रहना और यह याद रखना कि पति ने भी काफी कुछ छोड़ा है, त्यागा है. इस के बाद भी वह खयाल रखता है, खर्च देता है और वक्त मिलने पर आताजाता है  कई नामीगिरामी व्यक्तियों ने दूसरे धर्मों में शादी की है और 2-2 भी की हैं लेकिन यह पत्नियों की समझदारी है कि वे पति को कोसती नहीं रहतीं और खुदकुशी कर पति व बच्चों को बिलखता नहीं छोड़ जातीं बल्कि अपने फैसले को सही साबित कर के दांपत्य में अपनी तरफ से खलल नहीं डालतीं. वक्त रहते लोग इस तरह की शादियों को मान्यता भी देते हैं और स्वीकार भी कर लेते हैं लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए पत्नियों को लंबे इम्तिहान से गुजरते खुद को समझदार और व्यावहारिक साबित करना पड़ता है नहीं तो खुद वे ही अपने फैसले को गलत साबित करती हैं जिस का खमियाजा पति और बच्चों को भुगतना पड़ता है.

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