‘‘जज 2 तरह के होते हैं- एक वे जो कानूनों को अच्छे से जानते हैं और एक वे जो कानून मंत्री को अच्छे से जानते हैं.’’ उक्त कथन फरवरी 2012 में तब की विपक्ष में बैठी भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली द्वारा एक कौन्फ्रैंस में व्यक्त किया गया था. इस कथन के कई सटीक माने थे जो न्याय की बागडोर संभालने वाले जजों का उपहास उड़ा रहे थे, साथ ही, सीधा प्रहार न्यायिक व्यवस्था पर कर रहे थे जिसे लोकतंत्र का सब से मजबूत खंबा घोषित किया गया है. हालांकि, यह बात अलग है कि विपक्ष में रह कर अच्छेअच्छे निरंकुश सोच रखने वाले लोग भी लोकतांत्रिक और निष्पक्षता की दुहाई देने लगते हैं और सत्ता में आने के बाद अच्छेअच्छे लोकतांत्रिक लोग निरंकुश कदमों को दर्शा जाते हैं.

उसी दौरान अरुण जेटली ने कहा था कि रिटायरमैंट के फौरन बाद जजों को किसी नए सरकारी पद पर नियुक्त करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. यह बात और है कि उन की इस सलाह को उन की ही सरकार में कोई तवज्जुह नहीं दी गई या शायद यह जुमला भी तभी तक ठीक रहा जब तक वे विपक्ष में रहे. बहरहाल, जेटली के कथन से वाजिब सवाल तो बनता ही है कि क्या सही में जजों के फैसले और समयसमय पर उठते उन पर विवाद न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर कर रहे हैं? और अगर ऐसा है, तो न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास कैसे कायम हो पाएगा? अब आते हैं हालिया मामले पर, 3 अप्रैल को गुजरात हाईकोर्ट के 60 साल पूरे हुए,

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