पश्चिम बंगाल में भाजपा को मिली करारी हार ने मानो विपक्ष को संजीवनी ला कर दे दी हो. इस चुनाव ने यह दिखा दिया कि यदि सही रणनीति, कौशलता, सू झबू झ व कड़ी मेहनत से चुनाव लड़ा जाए तो भाजपा के धनबल, दमखम, मीडिया और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसी चालों को बुरी तरह मात दी जा सकती है. यही कारण है कि विपक्ष के पास अगले चुनावों में ममता फैक्टर ही सब से अधिक काम आने वाला है जिस की शुरुआत यूपी फतह से संभव है.
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में एक समानता रही है कि दोनों ही जगह भाजपा और उस के हिंदुत्व के मुद्दे को जनता ने नकार दिया. भाजपा के आक्रामक प्रचार से दोनों प्रदेशों की जनता प्रभावित नहीं हुई. जनता को अब यह एहसास हो गया है कि भाजपा केवल प्रचार के सहारे चुनाव जीतती है. जनता ने अब विरोधी नेताओं पर भरोसा करना शुरू कर दिया है. बंगाल में ममता बनर्जी में उसे उम्मीद दिखी तो उत्तर प्रदेश में उसे अखिलेश यादव में उम्मीद दिख रही है.
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ममता फैक्टर से उत्तर प्रदेश के नेता सीख ले सकते हैं. अगर उत्तर प्रदेश के नेताओं ने बंगाल चुनावों से सीख ली, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतना मुश्किल होगा. भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला करने के लिए ममता फैक्टर एक उम्मीद बन कर उभरा है. भाजपा को अजेय मान कर सभी नेताओं ने अपने शस्त्र डाल दिए थे जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने न केवल भाजपा का मुकाबला किया बल्कि भाजपा की ‘चतुरर्णी सेना’ को धूल चटा दी. राजनीति के जानकार अब मंथन कर रहे हैं कि ममता बनर्जी में क्या खास बात थी कि जिस की वजह से भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा.
पश्चिम बंगाल में जीत के बाद ममता बनर्जी पर पूरे विपक्ष की निगाह है. विपक्ष उन टिप्स को जानना चाहता है जिन से ममता ने भाजपा को हराया. आंकड़ों के आधार पर देखें तो 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा और ममता बनर्जी के बीच मुकाबला बराबरी का था. इस का आकलन 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनों ही को मिलने वाले वोट प्रतिशत से किया जा रहा था. लोकसभा चुनाव में टीएमसी यानी तृणमूल कांग्रेस को लोकसभा की 22 सीटें मिली थीं और 43.3 प्रतिशत वोट मिले थे. भाजपा को 18 सीटें और 40.7 प्रतिशत वोट मिले थे.
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लोकसभा के परिणाम के आधार पर यह आकलन किया गया था कि विधानसभा में टीएमसी को 164 और भाजपा को 121 सीटों पर बढ़त हासिल होगी. 2016 के विधानसभा चुनाव के आधार को देखें तो टीएमसी को 211 सीटें और 44.9 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि भाजपा को केवल 3 सीटें और 10.2 प्रतिशत वोट मिले थे. उस चुनाव में 32 सीटें और 26.1 प्रतिशत वोट लेफ्ट को मिले थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में लेफ्ट को 6.3 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए थे. 2016 से 2019 के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन काफी बेहतर था. भाजपा को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे, अमित शाह की आक्रामक चुनावप्रचार शैली, आरएसएस और भाजपा के कार्यकर्ताओं का मुकाबला ममता बनर्जी नहीं कर पाएंगी. भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल चुनाव जीतना बेहद खास था. ममता बनर्जी अकेली ऐसी नेता थीं जो भाजपा का मुखर विरोध कर रही थीं. पश्चिम बंगाल चुनाव में जीत से भाजपा की ताकत और आत्मविश्वास बढ़ जाता. पश्चिम बंगाल में जीत के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी.
एक तरह से पूरा मुकाबला खरगोश और कछुए की कहानी सा लग रहा था. अंत में जीत कछुए की ही हुई. विपक्षी एकजुटता जरूरी 2021 के विधानसभा चुनाव में पुराने आकलन फेल हो गए. ममता बनर्जी और टीएमसी को 213 सीटें और 47.9 प्रतिशत वोट मिले. यह प्रदर्शन 2016 और 2019 दोनों से बेहतर था. इस से साफ हो गया कि ममता बनर्जी पर 10 साल के सत्ताविरोधी मतों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. भाजपा को 77 सीटें और 38.1 प्रतिशत वोट मिले जो 2019 के आकलन के हिसाब से कम थे. टीएमसी और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले में कांग्रेस और वामदल कहीं नहीं थे. भाजपा ने जिन प्रदेशों में अच्छा प्रदर्शन किया वहां विपक्षी दलों से सीधा मुकाबला नहीं था. भाजपा कांग्रेस के अलावा सीधे मुकाबले में किसी भी दल से जीत नहीं पाती है.
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बिहार विधानसभा लोक जनशक्ति पार्टी और दूसरी छोटीछोटी पार्टियों के चुनाव मैदान में उतरने का लाभ भाजपा को हुआ और नुकसान राजद यानी राष्ट्रीय जनता दल को हुआ. बिहार में मुसलिम समाज एकजुट नहीं हो पाया था. ऐसे में भाजपा-जदयू गठबंधन को सरकार में वापस आने का मौका मिल गया था. ममता बनर्जी के मामले में अच्छी बात यह रही कि उन्होंने पूरी लड़ाई सीधी लड़ी. वोटों का बंटवारा नहीं हो सका. सांप्रदायिक धुव्रीकरण को रोकना भाजपा की जीत में धार्मिक धु्रवीकरण का सब से बड़ा हाथ होता है. पश्चिम बंगाल में भी भाजपा ने ममता बनर्जी पर यह आरोप लगाया कि वहां ‘जयश्री राम’ का नारा लगाना मना है. ममता बनर्जी को ‘जयश्री राम’ का नाम पसंद नहीं है.
भाजपा की योजना थी कि ममता बनर्जी को मुसलिमवादी नेता के रूप में प्रचारित किया जाए जिस से हिंदुओं का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में हो सके. पश्चिम बंगाल में जनता एकसाथ मिल कर काम करती रही है. ऐसे में वह हिंदूमुसलिम में बंट नहीं सकी. अगर भाजपा 50 से 60 प्रतिशत हिंदुओं को भी एकजुट कर लेती तो वह चुनाव जीत लेती. अगर भाजपा के खिलाफ चुनाव जीतना है तो वोट का धार्मिक धु्रवीकरण रोकना होगा. केवल मुसलिम वोट से चुनाव नहीं जीता जा सकता. ममता ने अपनी हर रैली में जनता को यह सम झाने का काम किया कि कुछ लोग बंगाल की जनता को हिंदूमुसलिम में बांटना चाहते हैं पर मैं आप का पूरा समर्थन चाहती हूं. ममता की इस तरह की पहल से वोटों के धार्मिक धु्रवीकरण के प्रभाव को रोकने में सफलता मिली जो उन की जीत का कारण बना.
अगर हिंदुओं का धार्मिक धु्रवीकरण हो गया होता और भाजपा को 5 से 10 प्रतिशत वोट ज्यादा मिल जाते और तब ममता बनर्जी हार सकती थीं. सीधी सरल छवि भाजपा का चुनावप्रचार आक्रामक था. बहुत सारे नेता व कार्यकर्ता अहं के साथ प्रचार कर रहे थे. अमित शाह ने ‘200 पार’ का नारा दिया तो नरेंद्र मोदी ने ‘2 मई दीदी गई’ का नारा दिया. भाजपा के नेताओं से बात करते समय साफ लगता था कि मतगणना की कोई जरूरत ही नहीं है. भाजपा चुनाव जीत गई है. भाजपा के घमंड के मुकाबले में ममता बनर्जी ने बहुत ही सम झदारी व सरलता से अपना चुनावप्रचार किया. वे केवल यही कहती रहीं कि पश्चिम बंगाल की जनता को बंटने नहीं देंगे. भाजपा के चुनावप्रचार में दर्जनों हैलिकौप्टर थे, तो ममता बनर्जी के पास एक हैलिकौप्टर था. भाजपा के पास स्टार प्रचारकों की लंबी लिस्ट थी तो ममता बनर्जी अकेला चेहरा थीं.
ममता बनर्जी सूती धोती और हवाई चप्पल में रहीं. यह उन का सदाबहार पहनावा है. वे हर रैली में मास्क का प्रयोग करती दिखती रहीं. भाजपा के नेताओं की बड़ीबड़ी रैलियां होती थीं. नेताओं के लकदक, चमकदार कपड़े होते थे. ऐसे मे जनता को ममता बनर्जी की सादगी और सरलता के साथ सीधी व सरल छवि ने ज्यादा प्रभावित किया. जनता को इस छवि के साथ जुड़ना पसंद आ रहा था. छवि का मुकाबला भी ममता फैक्टर की बड़ी जीत की वजह माना जा रहां है. जनता को दिखावे की जगह पर सरलता रास आती है. उत्तर प्रदेश की बारी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद दूसरा बड़ा चुनावी संग्राम 2022 में उत्तर प्रदेश में होना है. यह भाजपा के लिए सब से बड़ी उम्मीदों वाला प्रदेश है. यहां भाजपा की योगी सरकार सत्ता में है. उत्तर प्रदेश में 2002 के बाद सत्ता पक्ष को दोबारा जीत नहीं मिली है.
पश्चिम बंगाल चुनाव में जिस तरह से ममता बनर्जी ने भाजपा को हराया उस से उत्तर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का मनोबल बढ़ा है. अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के बीच संबंध बहुत अच्छे हैं. अखिलेश यादव ने ममता के चुनावी प्रचार में हिस्सा लिया था. ऐसे में यह बात साफ है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में ममता बनर्जी का मार्गदर्शन जरूर मिलेगा. अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त दी है. 3,050 जिला पंचायत सदस्य के पदों में से सब से अधिक पद समाजवादी पार्टी को मिले हैं. यहां भी भाजपा ने सब से ज्यादा चुनावी प्रचार किया पर उस का प्रचार काम नहीं आया. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि भाजपा की योगी सरकार का गांव के लोगों में जनाधार बढ़ नहीं पाया है.
गांव के लोग छुट्टा जानवरों, महंगाई, बेरोजगारी से तो परेशान थे ही, कोरोनाकाल में उत्तर प्रदेश की नाकामी ने जनता का सरकार से मोहभंग किया है. चुनावों पर पड़ेगा कोरोना अव्यवस्था का असर 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का सब से बड़ा वोटबैंक युवावर्ग था. कोरोना संकट के दौर में युवाओं को सब से बड़ी परेशानी झेलनी पड़ी. उन को अपने मरीजों की देखभाल करनी थी. इन युवाओं ने अपनी आंखों के सामने अपने परिजनों को तड़पते देखा है. वैंटिलेटर, औक्सीजन और अस्पताल की कमी से लोगों की मौत हुई. 4 सालों में प्रचार के बल पर सरकार की चमक दिखाई गई. जब कोरोना संकट में जनता मुश्किल में फंसी तो न अस्पताल मिले न शमशान में जगह खाली मिली.
कोरोनाकाल की अव्यवस्था अगले सभी चुनावों में बड़ी भूमिका अदा करेगी. सभी विधानसभा चुनावों में भाजपा के मुकाबले विपक्ष को संयुक्त हो कर लड़ना पड़ेगा. पश्चिम बंगाल के चुनाव से नेताओं ने यह सबक सीखा है. नेताओं को वोटों का धार्मिक विभाजन रोकना होगा. जनता के बीच सीधा और सरल संवाद स्थापित करना होगा. किसी भी प्रदेश में भाजपा के पास करने के लिए कोई नया काम नहीं है. अयोध्या का मंदिर मुद्दा अब खत्म हो चुका है. सभी राज्य सरकारों के चुनाव फरवरी 2022 तक होंगे. करीब 9 माह का समय है. इस दौर में कोरोना का प्रभाव खत्म होता नजर नहीं आ रहा है. पंचायत चुनावों के नतीजों से साफ है कि जनता भाजपा से नाराज है. खुद भाजपा के नेता गुटबाजी का शिकार हैं. ऐसे में भाजपा की राह आसान नहीं है.