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लक्ष्मण-रेखा : लीना आकाश के तरफ देखते हुए क्या सोच रही थी ?

लीना अपनी थकी हुई, झुकी हुई गर्दन उठाकर आकाश की ओर देखने लगी. उसकी आँखों में एक विचित्र सा भाव था, मानो भीतर कही कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, अपने अंदर घुटी हुयी साँसों को गतिमान करने की, किसी मृत स्वप्न को जीवित करने की, और इस कोशिश में सफल न हो रही हो.

दोपहर की उस सूनी सड़क पर जैसे मानो कोई शाप की छाया मँडरा रही थी. मनुष्य ने इस धरती केअनेक टुकड़े कियें. देश, महादेश बनायें. प्रत्येक देश और महादेश की एक परिसीमा तय की गयी. प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक इन सीमाओं के लिये युद्ध होते रहे हैं. लेकिन, कोरोना बिना अनुमति सीमाओं को तोड़ती हुई अपना साम्राज्य फैलाती गयी. बिना किसी पासपोर्ट, बिना कोई वीजा, आज वो विश्व की लगभग हर शहर में मातम बाँटती घूम रही है. उसके भय से सभी अपने-अपने घरों में बंदी थें, जीवित रहने की यह महत्वपूर्ण शर्त जो थी.

भारत के अन्य शहरों की तरह फिरोजपुर में भी लॉकडाउन था. लीना विवाहिता थी, एक बच्चे की माँ. उसके पति का नाम अमरीश सिंह है. रेलवे में काम करता है. वे उसी हैसियत से रेलवे के इन क्वाटर्ररों में रहते हैं. पहले प्रातः काल नौ बजे चले जाता था. उसके बाद दोपहर में खाना खाने घरआता, फिर घंटे भर बाद पुनः जाकर शाम छ बजे तक लौट आता था. कभी-कभी दोस्तों के साथ पीने बैठे जाता तो देर भी हो जाया करती थी.

पर लॉकडाउन ने दिनचर्या बदल कर रख दी थी. दस बजे सोकर उठना, नाश्ता करना, स्नान करना, टी वी देखना, दोपहर का भोजन करना, उसके बाद फिर से पैर फैलाकर सो जाना. शाम में चाय के साथ पकौड़े का आनंद उठाना, बालकोनी से चिल्लाकर कुछ दोस्तों से बातें करना, उसके बाद टी वी देखने बैठ जाना, रात का खाना खाना और पुनः बिस्तर पर गिर जाना. लेकिन, कुछ ही दिनों में इस अत्यधिक आराम से परेशान हो गये बेचारें. पिछले कई दिनों से उकताया हुआ घूम रहा था. पहले काम का रोना रोता था, अब आराम का.

घर के काम में लीना की सहायता के लिये आरती आती थी. लेकिन लॉकडाउन में उसे भी छुट्टी मिल गयी थी. अमरीश को लीना की यह मुसीबत दिखती नहीं थी. वो लीना को भी कहाँ ठीक से देख पाया था. देखना क्या मात्र आँखों से होता है ! यदि हाँ तो, अमरीश लीना को नहीं,एक लोथ को रोज देखता था.

एक लोथ जिसकी आत्मा मर चुकी थी. एक लोथ जिसके चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचकर उसकी रक्षा की जा रही थी. एक लोथ जिसे निर्णय करना आता ही कहाँ था. उसके लिये प्रश्न करना निषेध था. कभी-कभी शारीरिक अत्याचारों से पीड़ित होकर वह लोथ अपने स्वामीसे एक क्षीण फ़रियाद करती. उसकी व्यथा को कोई उत्तर नहीं मिलता. लोथ एक शरीर कहाँ थी ! वह  दान में दे दी गयी एक वस्तु थी, जिसे अपने कष्टों के लिये मात्र आँसू गिराने का अधिकार था. अमरीश उस लोथ से अपनी भूख मिटाता था !

लीना पढ़ी-लिखी थी. वो अपने अधिकारों को भी जानती थी. उसने बीएड किया था. केन्द्रीय विधालय में उसका चयन भी हो गया. चार-पाँच महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में उसकी पोस्टिंग की खबर प्राप्त हुयी थी.

लेकिन अमरीश के अनुसार लीना शहर से बाहर जाकर काम करने लायक नहीं थी. दूसरी बात यह भी थी कि वो चली जाती तो घर का काम कौन करता ! सब कुछ सोच-समझकर, लीना की नौकरी करने की इच्छा का सम्मान करते हुये, अमरीश ने उसे फिरोजपुर में ही किसी प्राइवेट स्कूल को जॉइन करने की आज्ञा दे दी थी.

अपने अधिकारों को जानना और उनके लिये आवाज उठाना दो अलग विषय हैं. इस समाज के लिये लीना एक माँ थी, बेटी थी, बहू थी, पत्नी थी, स्त्री थी, कुटुंब की इज्जत थी; मात्र मनुष्य नहीं थी. लीना भी एक ऐसे भ्रमजाल में कैद थी, जहाँ उसने स्वयं को खो दिया था. डूबने से बचने के लिये हाथ तो मारना ही पड़ता है, पर लीना के दोनों हाथ पीछे बंधे हुये थें. एक प्रयास बंधन को खोल सकता था, लेकिन प्रयास करना वो भूल गयी थी.

पिछले एक घंटे से लीना खिड़की पर खड़ी थी. जब उन्होंने भोजन समाप्त किया तब दो बजने वाले थें. अमरीश सोने की बात कहकर बेडरूम में चला गया था. बेटा तो पहले ही सो गया था.  वो खड़ी रह गयी थी.

तभी दूर कुछ खड़का. एकाएक वह चौंकी, फिर वही खड़ी-खड़ी अपने-आप में ही एक लंबी-सी थकी हुयी साँस के साथ बोली-“तीन बज गये..” मानो एक लंबी यात्रा का समापन हुआ हो.

तभी रसोई में खुले हुये नल ने कहा-टिप-टिप-टप..

“पानी ..” इतना कहकर वो ऐसे उछली जैसे बिजली की नंगी तार को छू दिया हो. रसोई में बर्तनों की खनखनाहट के बीच वो बर्तन धोने लगी.

जब लीना बर्तन धो चुकी तो सोचा चलकर कुछ पढ़ लिया जाये. वो पिछले एक महीने से शिवानी का उपन्यास कृष्णकली पढ़ रही थी. नहीं-नहीं, पढ़ना कहना गलत होगा, पढ़ने का प्रयास कर रही थी. हाँ, तो आज पुनः पढ़ने का सोच ही रही थी कि ‘खट’ आवाज के साथ बेटे की एक तेज चीख कानों से आकर टकरायी. वो उस तरफ दौड़ी. आज फिर कृष्णकली प्रतीक्षा करती रह गयी. यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.

अमरीश बेटे के पास ही सो रहा था. गुस्से और खीझ के मिले-जुले स्वर में चिल्लाया, “क्या हुआ !” जैसे समझ ही नहीं पा रहा कि क्या हुआ !

शिशु चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा था. लीना उसे हृदय से लगाकर चुप कराने का प्रयास करने लगी. करुणा-भरे स्वर में बोली-“चोट बहुत लग गयी बेचारे को ! आपने देखा ..” अपनी बात को स्वयं ही चबा गयी थी.

चटाक..

एक छोटे क्षण भर के लिये लीना स्तब्ध रह गयी, फिर एकाएक उसके मन ने, उसके समूचे अस्तित्व ने, स्वयं को दुत्कार दिया.

अमरीश बोलता जा रहा था-“इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है. तुमसे एक बच्चा नहीं संभाला जाता ! दिन भर घर में बैठ कर बस मोटी होती जा रही हो ! बाहर जाकर दो आदमी से बात करने लायक नहीं हो ! मैं भी सोचता हूँ, चलो मूर्ख है घर देख लेगी ! लेकिन नहीं ! एक फूहड़ गृहणी हो तुम ! आराम का जीवन मिला है ना, इसलिये मेहनत करना जानती ही नहीं हो !”

अमरीश का यह थप्पड़, पहला नहीं था. यह अमावस्या लीना के जीवन में आती रहती थी. किंतु जब से लॉकडाउन हुआ, अमावस्या स्थायी हो गयी थी.

कुछ ही देर में, पूर्ववत शांति हो गयी थी. अमरीश फिर लेटकर ऊँघ रहा था.

मृतवत जड़ता के साथ लीना अपने शिशु को लेकर चली गयी.

घर में काफ़ी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन भावनाशून्य ही रहा. लीना को ऐसा लगा जैसे ये नीरसता और निर्जीवता उसे घेर लेगी. इसमें एक प्रतीक्षा भी थी. उसका अपना मन स्वयं के उठने की प्रतीक्षा कर रहा था.

शिशु अब नीचे बैठकर खेल रहा था. तभी अमरीश उठकर आ गया. पहले उसने लीना की ओर देखा और फिर बाहर बालकोनी में जाकर खड़ा हो गया.

थोड़ी देर बाद जैसे उसे ध्यान आया कि वह चाहकर भी बाहर नहीं जा सकता. घर में पड़ी बीयर की बोतलें भी समाप्त हो गयी थी. सामने की बालकोनी में अनिल खड़ा सिगरेट पी रहा था. अमरीश पर नजर पड़ते ही, हाथ हिलाकर इशारा किया. अमरीश ने भी हाथ हिला दिया. सिगरेट की एक तलब उसके भीतर भी जग गयी थी. वो झुंझलाया सा लीना के सामने पड़ी हुयी कुर्सी पर आकर बैठ गया था.

“मन कड़वाहट से भर रहा है. आजकल दिन तो जैसे समाप्त ही नहीं होता. गली-गली, चौक-मुहल्ले सब जैसे मर गये हैं. अब और नहीं बैठा जाता घर में. मैं जेल में नहीं रह सकता. कोई सजायाफ़ता कैदी हूँ क्या ! कल अनिल का फोन आया था. जरूरी सामान लेने का बहाना करके बाहर घूमने जाया जा सकता है. अरे ! कुछ नहीं होता ! मैं बाहर से आता हूँ !” इतना कहकर वो उठ खड़ा हुआ.

लीना ने कुछ नहीं कहा, कुछ कहना भी नहीं चाहती थी. वैसे भी लीना के कहने का कोई लाभ नहीं था. अमरीश उसकी सुनता ही कहा था. थोड़ी ही देर बाद वो चला गया.

अमरीश के जाते ही कमरे में सूर्यास्त आ गया और लीना उस अरुणिमा में भींग गयी थी. वैसे भी ऐसे एकांत लीना को प्रिय थें. कुछ देर का यह काल्पनिक संसार, उसके मन को प्रसन्नता से भर दिया करती था.

दूध पीकर और थोड़ी देर खेलकर शिशु भी पुनः सो गया था. लीना ने उसे बिस्तर पर लिटाकर दोनों तरफ से तकिया लगा दिया और स्वयं बालकोनी में आकर खड़ी हो गयी.

वह निश्चल खड़ी, स्थिर दृष्टि से पश्चिमी आकाश को देखती रही. आस-पास कोई सुरम्य दृश्य नहीं था, लेकिन सब कुछ सुंदर लग रहा था. वो देखती रही, और देखती रही.

लीना को उस निर्जन वातावरण में भी एक संगीत सुनायी दे रहा था. तभी एक जानी-पहचानी कर्कश ध्वनि उसके कानों से टकरायी.

‘आए..आए..मार डाला’

लीना ने थोड़ा लटककर नीचे झाँका. चार-पाँच पुलिसवालों से घिरा अमरीश कराह रहा था. घमंडी अमरीश घर से बिना मास्क लगाये निकाल गया था. कुछ दूर पर ही पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गया था. डंडे से उसकी पूजा हो चुकी थी. अब उठक-बैठक की तैयारी हो रही थी.

“भाई माफ कर दो ..” अमरीश गिड़गिड़ा रहा था.

एक पुलिसवाला बोला-“एक तो बिना मास्क लगाये निकाल आया ! जब मना किया तो गाली देता है ! झूठा ! समान लेने निकला था तो थैला कहाँ है !?”

“सर ! सर मैं सच कह रहा हूँ, मेरा घर सामने ही है !मैं रेलवे का कर्मचारी ही हूँ ! पहचान पत्र घर में रह गया है. वो..वो.. मेरे घर की बालकोनी है ! लीना .. लीना .. लीना..” अमरीश चिल्लाया था.

किसी शक्ति के वशीभूत लीना तुरंत नीचे बैठ गयी थी. जब अमरीश और पुलिसवालों ने ऊपर देखा, वहाँ कोई नहीं था.

“पागल औरत ! वैसे तो पूरे टाइम बालकोनी में टंगी रहती है, और आज पता नहीं कहाँ गायब है ! सर .. सर .. मैं ..हाय !” पैर पर डंडा पड़ते ही उसका गुस्सा कराह में बदल गया था.

उठक-बैठक आरंभ हो गयी थी. पुलिसवाले गिनती कर रहे थें. अपने-अपने घरों से पूरा मोहल्ला तमाशा देख रहा था. कुछ लोग शायद वीडियो भी बना रहे थें. चिल्लाने के स्थान पर अमरीश अब रो रहा था.

लीना कोई गीत गुनगुना रही थी. एक प्रतीक्षा समाप्त हो गयी थी. एक मुर्दा शरीर में कोई प्राण फूँक गया था. देखते ही देखते पूरा आसमान बादलों से ढँक गया. मौसम बदल रहा था. चुभती गर्मी को मात देने के लिये किसी आंधी की आवश्यकता नहीं होती, वर्षा की मंजुल फुहारें ही बहुत होती हैं.

एक चुप,अत्याचारी को ताकत और प्रताड़ित को भय देता है. एक साहसिक विरोध पहले विचारों में पनपता है, फिर क्रिया में उतरता है.

लीना वहाँ बैठी घंटों, मिनटों, परिस्थति के अत्यधिक विश्लेषण में बिता सकती थी, उन टुकड़ों को फिर से जोड़ने की कोशिश में और सोचने में कि शायद ऐसा हो सकता था, या वैसा हो सकता था. लेकिन उसने उन टुकड़ों को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

“सर ! ये मेरे पति श्री अमरीश सिंह हैं ! इनसे गलती ही गयी !”

लीना की शांत और दृढ़ आवाज सुनते ही पुलिसवालों ने अमरीश को रुकने का इशारा कर दिया.

उनमें से एक बोला-“मैडम ! आप जैसे पढ़े-लिखे लोग नहीं समझोगे तो जो बेचारे अनपढ़ है उनसे क्या उम्मीद करें ! घर में रहो, सुरक्षित रहो !”

लीना ने कहा-“जी ! आप सही कह रहे हैं !”

फिर दूसरा पुलिसवाला अमरीश की तरफ देख कर बोला-“भाग्यशाली हो कि घर है ! उनका सोचो जिनके घर ही नहीं हैं ! चलो जाओ ! मैडम आ गयीं, इसलिये छोड़ रहे हैं !”

अमरीश ने धीमे से सिर हिलाया और लीना का सहारा लेकर घर की तरफ चल पड़ा था. अपमान और पीड़ा से कराहता हुआ वो आगे बढ़ रहा था. लेकिन उसका दंभ अभी भी समाप्त नहीं हुआ था.

फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचते ही लीना की कलाई को मड़ोड़ कर बोला-“कहाँ मर गयी थी ! जितना दर्द मुझे हुआ है, उससे कहीं ज्यादा तुझे न दिया तो मेरा नाम अमरीश नहीं !

बिना एक पल गवायें, लीना ने अमरीश का हाथ छोड़ दिया. आकस्मिक हुये इस आघात के लिये अमरीश प्रस्तुत नहीं था. वो लड़खड़ा कर लीना के पैरों के पास गिर पड़ा था.

एक रहस्यमयी मुस्कान लीना के होंठों पर खेल गयी थी.

वो नीचे झुकी और अमरीश के कानों में बुदबुदाई-“चोट लगी ! दर्द हुआ ! मुझे भी दर्द होता है !”

अमरीश की आँखें फटी की फटी रह गयीं. लीना के चेहरे पर भय के स्थान पर आत्मविश्वास आ गया था, दबे हुये कंधें तन गये थें, सदा झुकी रहने वाली गर्दन आज स्वाधीनता के साथ खड़ी थी. वो समझ ही नहीं पाया कि इतने कम समय में यह परिवर्तन कैसे आ गया. वो कहाँ जानता था कि परिवर्तन के लिये समय नहीं, आंतरिक शक्ति का जागना आवश्यक होता है.

लीना ने उसे सहारा देकर पुनः खड़ा किया और लगभग धकेलते हुए अंदर ले गयी.

अमरीश को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अपने पति के चेहरे पर आते भावों का आनंद उठाते हुये लीना बोली-“आज से लेकर लॉकडाउन के समाप्त होने तक घर की यह चौखट, तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है. बाहर निकलने की सोचना भी मत!”

“तू भूल गयी है, मैं कौन हूँ ! तेरी लक्ष्मण रेखा तो मैं बनाऊँगा !” अमरीश ने भय का जाल फिर फेंका.

इस बार लीना डरी नहीं बल्कि मुस्कुराई.

वो बोली-“मैं तो जानती ही हूँ कि तुम कौन हो ! लेकिन मैं अब यह भी जान गयी हूँ कि मैं कौन हूँ ! तुमने शायद ध्यान नहीं दिया, तुम्हारी बनायी डर की लक्ष्मण रेखा मैंने कब की पार कर ली ! अब मुझपर भूलकर भी हाथ मत उठाना क्योंकि मेरे हाथ भी खुल गये हैं. और हाँ, लॉकडाउन के कारण नीचे गली में पुलिसवालों का आना-जाना भी लगा रहेगा”

इतना कहकर लीना आगे बढ़ी ही थी कि सहसा उसे कुछ याद आ गया.

अमरीश की आँखों में आँखें डालकर बोली- “मैंने अपनी नौकरी जॉइन करने का निर्णय ले लिया है !”

सारा जहां अपना : अंजलि के लिए रिश्तों से ऊपर पैसे थे ?

मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.

‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.

‘‘वायरल फीवर है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.

‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’

‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’

‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.

‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’

वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.

अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.

अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.

बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.

6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.

वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.

‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’

‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘

‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’

मयंक तिलमिला कर रह गया.

‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’

‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’

मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.

मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’

‘ये तुम्हारा काम है.’

‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’

इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.

मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.

एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.

‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’

‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’

‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’

‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’

‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’

‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’

‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’

‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’

उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.

मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.

अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.

बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.

वह 4 साल का हो गया था.

रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.

‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’

‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’

‘फोन तो रिसीव कर लेती.’

‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’

‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.

‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’

‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’

‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’

‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’

‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.

‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’

‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’

पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.

दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.

अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो ड्रिंक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.

पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’

थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले, ‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’

मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.

सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.

बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.

वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.

‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’

‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’

‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’

‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया.

मयंक ने उस का माथा चूम लिया.

अजनबी : आखिर कौन था दरवाजे के बाहर ?

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्ंि?डग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ंिडग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

पीडीए यानी पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक भी चला समाजवाद की राह

4 अक्टूबर, 1992 को जब समाजवादी पार्टी बनी तो उस की विचारधारा समाजवाद रखी गई थी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की राजनीति किसानों पर आधारित थी. मुलायम सिंह की राजनीतिक शुरुआत किसान नेता चौधरी चरण सिंह के सान्निध्य में हुई थी. मुलायम उन को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. चौधरी चरण सिंह के बाद लोकदल का बंटवारा हुआ. तब मुलायम सिह यादव ने देवीलाल का दामन थाम लिया. जनता दल के बाद मुलायम सिह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाई. समाजवादी पार्टी के नाम में भले ही समाजवाद था पर उस के संगठन में समाजवाद की कोई जगह नहीं थी.

यह बात और है कि मुलायम सिंह यादव ने पार्टी को चलाने के लिए जो जातीय ढांचा तैयार किया उस में पिछड़ी जातियों को एक स्थान दिया. यह केवल दिखावेभर के लिए था. समाजवादी पार्टी में सब से प्रमुख स्थान मुलायम सिंह यादव ने अपने परिवार को दिया, दूसरा स्थान अपनी यादव जाति को दिया. धीरेधीरे ये दोनों ही पार्टी पर हावी होते गए. समाजवादी पार्टी को मुसिलम वोटबैंक का मजबूत साथ 1990 से ही मिलना शुरू हो गया था जब मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाई थी. उस दौर में मुलायम सिंह यादव का नाम ‘मुल्ला मुलायम’ भी पड़ गया था.

तब से मुसलिम और यादव समाजवादी पार्टी का सब से मजबूत वोटबैंक बन गया था. बाकी जातियों को जरूरतभर का महत्त्व मिलता था. जरूरत थी तो मुलायम सिह यादव ने बसपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. इस के बाद बसपा नेता मायावती को खत्म करने की राजनीति के तहत 2 जून, 1995 को लखनऊ का गेस्टहाउस कांड हो गया. 2003 में मुलायम सिंह यादव ने लोकदल के चौधरी अजित सिंह और भाजपा छोड़ कर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाने वाले कल्याण सिंह के साथ समझौता कर सरकार बनाई.

खुद ही मुख्यमंत्री बने पर 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा से वे हार गए. इस के बाद 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया. इस के बाद का समाजवाद पूरी तरह से परिवारवाद में बदल गया. समाजवादी पार्टी ही नहीं, मुलायम परिवार भी टूट गया. मुलायम सिह यादव के भाई शिवपाल यादव अलग हुए. उस के बाद समाजवादी पार्टी कोई चुनाव जीती नहीं. जबकि उस ने कांग्रेस, बसपा और लोकदल के साथ समझौता कर चुनाव लड़े थे.

पीडीए भी केवल नाम का

लगातार हार का सामना कर रहे अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए पीडीए का नारा दिया. पीडीए की परिभाषा वे लगातार बदलते रहे. पहले पीडीए का मतलब पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक बताया गया. जो मुसलिम वर्ग साथ था उस के बारे में खुल कर बोलने से अखिलेश यादव बचते रहे. इस के बाद ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा बदलते हुए उस को इंग्लिश का ’ए’ समझाते हुए कहा गया ‘ए’ फौर ‘अगड़ा’ यानी सवर्ण और ‘ए’ फौर ‘आधी आबादी’ भी होता है. सपा ने अपने सब से बड़े वोटबैंक मुसलिम को अल्पसंख्यक कहा जिस से उस में बौद्ध, जैन जैसे अल्पसंख्यकों के साथ मुसलिम को रखा जा सके. उस के बाद अल्पसंख्यक की ‘ए’ कैटेगरी बनाई गई जिस में औरतों और अगड़ों को जगह दी गई.

इस तरह से पीडीए की कल्पना लगातार बदलती रही. जब राज्यसभा जैसे मौके आए तो 3 में से 2 स्थान यानी आलोक रंजन और जया बच्चन को टिकट दिया गया. जो अगड़ा वर्ग से आते हैं. रामजी लाल सुमन को टिकट दिया गया. इस तरह से पीडीए का ध्यान यहां नहीं रखा गया. इस को ले कर अखिलेश यादव निशाने पर हैं. समाजवाद की ही तरह से सपा में पीडीए भी केवल नामभर के लिए रह गया है. समाजवाद का अर्थ होता है समाज के हर वर्ग को समान अधिकार. समाजवादी पार्टी में न तो कभी समाजवाद था और न ही पीडीए में हर वर्ग को जगह दी गई.

समाजवादी पार्टी की सब से बड़ी परेशानी यह है कि वह अपनी विचारधारा पर कभी खरी नहीं उतरी. धर्मनिरपेक्षता की बात करतेकरते वह सनातन की राह पर चल देती है. वह शंकर का मंदिर भी बनवा रही है. पार्टी मुखिया पहले भी परशुराम का फरसा लगवा चुके हैं. बिना विचारधारा के कोई राजनीतिक दल चुनाव नहीं जीत सकता है. पीडीए भी समाजवाद की तरह सपा की फाइलों में कैद है. सपा की नीतियों में न पीडीए दिख रहा है, न समाजवाद.

कथावाचकों के चक्रव्यूह में जनता, बिना अच्छी किताबें पढ़ें कैसे बनेगा देश विश्वगुरु

20 फरवरी को 58 साल की होने जा रहीं सिंडी क्रौफर्ड 80-90 के दशक की कामयाब और चर्चित माडल व ऐक्ट्रैस थीं जिन के पोस्टर युवा अपने कमरों में लगाया करते थे. न केवल अमेरिका बल्कि पूरे यूरोप और दुनियाभर के युवा सिंडी क्रौफर्ड के दीवाने थे. यह वह दौर था जब भारत के युवा ड्रीमगर्ल के खिताब से नवाज दी गईं ऐक्ट्रैस हेमामालिनी के पोस्टर अपने कमरों में लगाया करते थे.

दुनिया की टौप फैशन ब्रिटिश मैगजीन ‘वोग’ ने फरवरी 2024 के मुख पृष्ठ पर सिंडी की तसवीर उन की बेटी केया गेरवर के साथ छापी है लेकिन इस बार ‘वोग’ का फ्रंट पेज फैशन से ज्यादा पढ़नेपढ़ाने को ले कर चर्चित हो रहा है.

22 वर्षीया केया गेरवर ने हाल ही में अपना बुक क्लब ‘लाइब्रेरी साइंस’ लौंच किया है. बकौल केया, किताबें पढ़ना उन का जनून है. लाइब्रेरी साइंस को वे एक ऐसा कम्युनिटी मंच बताती हैं जिस में वे नए लेखकों को पेश करती हैं, किताबों को साझा करती हैं और पसंदीदा कलाकारों के इंटरव्यूज लेती हैं.

केया का उत्साह बेवजह नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में युवा किताबों की तरफ लौट रहे हैं. 1997 से ले कर 2012 के बीच जन्मी पीढ़ी को जेन जी कहा जाता है. अब अमेरिका और यूरोप के ये युवा सोशल मीडिया के शोरगुल और गपों से तंग आ चुके हैं और तेजी से किताबों के पन्नों में सुकून, ज्ञान और मनोरंजन ढूंढ़ रहे हैं जो उन्हें मिल भी रहा है.

साल 2023 के आंकड़े युवाओं के इस बदलते रुझान की पुष्टि भी करते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में इस साल कोई 145 करोड़ किताबें बिकीं. सुखद व हैरानी की बात यह है कि इन में से 80 फीसदी खरीदार युवा थे. यानी, युवाओं का मोह अब सोशल मीडिया और काफीहाउसों के शोरगुल से भंग हो रहा है. उन के कदम 70 के दशक के युवाओं की तरह लाइब्रेरियों की तरफ मुड़ रहे हैं, जहां आ कर किताबें पढ़ने वाले युवाओं की तादाद बीते साल 71 फीसदी बढ़ी है.

साहित्य और किताबों के लिए चर्चित प्लेटफौर्म ‘बुक्स औन द बेडसाइड’ की कोफाउंडर हैली ब्राउन युवाओं की दिलचस्पी को उधेड़ते बताती हैं कि उन की किताबों की दुनिया अविश्वसनीय रूप से व्यापक है. उस में कथा साहित्य के अलावा अनुदित कहानियां, संस्मरण और परंपरागत साहित्य भी लोकप्रिय हैं. एक और आंकड़े के मुताबिक, बीते साल अमेरिका में प्रिंटेड किताबों की बिक्री बढ़ी है. यूगाव की एक स्टडी के मुताबिक, 2023 में 40 फीसदी अमेरिकियों ने कम से कम एक किताब पढ़ी.

हमारे युवा कहां खड़े हैं

अमेरिका घोषित तौर पर क्यों विश्वगुरु है, केया गेरवर जैसी यंग सैलिब्रिटीज की सार्थक पहल इस सवाल का जवाब देती हुई कहती हैं कि आप को अगर दौड़ में बने रहना है तो पढ़ना तो पड़ेगा ही. मंदिरों में नाचगाने और राजनीति से आप देश के युवाओं को कुछ नहीं दे सकते, हां, काफीकुछ छीन लेने का गुनाह जरूर करते हैं. और यह गुनाह आज से नहीं, बल्कि सदियों से हो रहा है कि पढ़नेलिखने का अधिकार सिर्फ एक वर्गविशेष का हो, जिसे ब्राह्मण और अब दक्षिणापंथी कहा जाता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में पढ़ने का हक केवल ब्राह्मणों को ही दिया गया है. यह उन की रोजीरोटी का जरिया भी रहा है. अब हालांकि पूरी तरह ऐसा नहीं है लेकिन एक साजिश के तहत युवाओं का ध्यान और रुझान साहित्य से भटकाया जा रहा है. कैसे, इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर सब को पढ़नेलिखने का अधिकार मिला कैसे और अब कैसेकैसे इसे छीना जा रहा है.

साल 1850 तक देश में गुरुकुल प्रथा चली आ रही थी जिन में केवल ऊंची जाति वाले युवाओं को ही शिक्षा दी जाती थी. यह शिक्षा भी धर्म आधारित होती थी. लार्ड मैकाले ने इसे खत्म किया जिस से ब्रिटिश हुकूमत को क्लर्क मिलते रहें (क्योंकि साहब लोग तो ब्रिटेन से ही आए थे). आजादी के बाद सरकारी के साथसाथ कौन्वेंट और पब्लिक स्कूल खुलना शुरू हुए जिस से आजादी के बाद शिक्षा सभी को सुलभ हो गई. यह और बात है कि यह केवल कहनेभर को रही.

जैसी भी हुई, हो तो गई लेकिन हिंदी दुर्लभ होती गई. अब आज मोबाइल और इंटरनैट के दौर में हिंदी केवल बोलने की भाषा होती जा रही है. नए दौर के बच्चे न तो इंग्लिश प्रभावी ढंग से जानते हैं और न ही उन की पकड़ अपनी मातृभाषा पर रह गई. नतीजतन, वे त्रिशंकु जैसे अधर में लटके हैं.

यों बदनाम किया उत्कृष्ट साहित्य को

जब थोक में अधकचरी भाषा वाले बच्चे जिंदगी के मैदान में उतरे तो उन का इकलौता मकसद नौकरी हासिल करना रह गया, जो अब तक है. लेकिन यह पीढ़ी बौद्धिकता के मामले में यूरोप और अमेरिका के युवाओं से काफी पिछड़ी हुई है. थोड़ी इंग्लिश और कंप्यूटर लैंग्वेज जानने वाले देश में और विदेश जा कर भी पैसा तो अच्छा कमा रहे हैं पर सुकून की तलाश में वे भटक भी रहे हैं. उन की इस ऊहापोह का फायदा धर्म के ठेकेदार उठा रहे हैं जिन्होंने धर्म को ही ज्ञान साबित कर दिया है.

लाख टके का सवाल यह है कि भारतीय युवा क्यों पढ़ाई के मामले में पिछड़ रहे हैं तो उस की एक बड़ी वजह भाषा है. ये युवा रागदरबारी पढ़ और समझ नहीं पा रहे हैं. जब इस दिक्कत को कुछ जागरूक प्रकाशकों ने समझा तो उन्होंने नफानुकसान की परवा न करते बहुत सस्ते दामों में अच्छी पत्रिकाएं उपलब्ध कराना शुरू किया. अब तक बड़ी तादाद में पिछड़े युवा पढ़ने लगे थे और कुछ दलित आदिवासी भी औपचारिक शिक्षा से इतर साहित्य में रुचि लेने लगे थे.

80-90 के दशक में जासूसी उपन्यास भी इफरात से पढ़े गए. इन से, हालांकि पाठकों को सिवा मनोरंजन के कुछ और हासिल नहीं हो रहा था लेकिन अच्छी बात यह थी कि लोगों की दिलचस्पी पढ़ने में बढ़ रही थी जिस के चलते वे धर्म संबंधी बहुत से सच नजदीक से समझने लगे थे.

चौकन्ने, चालाक श्रेष्ठ वर्ग को इस से चिंता होना स्वाभाविक बात थी क्योंकि शिक्षित कौम उन की गुलामी करना बंद कर देती है. मैकाले का मकसद कोई भारत को शिक्षित करना नहीं था बल्कि उसे लोग चाहिए थे जो बहीखाता और हिसाबकिताब लिखने लगें जिस से ब्रिटिश राज चलता रहे. इस चक्कर में आजादी के बाद लोग सचमुच पढ़ने लगे तो दिक्कत धर्म के दुकानदारों को हुई. इसी दौर में प्रेमचंद हुए और इसी दौर में भीमराव अंबेडकर भी हुए जिन्होंने साबित कर दिया कि देश के पिछड़ेपन की वजह अशिक्षा यानी शिक्षा पर एकाधिकार एक वर्ग का है.
ऐसी ही एक पत्रिका ‘सरस सलिल’ है लेकिन दक्षिणापंथियों ने इस के बारे में यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि यह घटिया और सैक्सी मैगजीन है जो युवाओं को बिगाड़ रही है. इस में नंगीपुंगी तसवीरें छपती हैं. उलट इस के, हकीकत यह थी कि ‘सरस सलिल’ युवाओं को तर्क करना सिखा रही थी, अंधविश्वासों और पाखंडों से आगाह कर रही थी. यह चूंकि धर्म के धंधे पर चोट कर रही थी, इसलिए दक्षिणापंथियों को अखरने लगी थी. आज भी स्थिति ज्यों की त्यों है. ‘सरस सलिल’ दिलचस्पी से पढ़ी जा रही है लेकिन उस के बारे में दुष्प्रचार यथावत है.

इस तरह की पत्रिकाओं और साहित्य को हर स्तर पर हतोत्साहित करने का एक बड़ा फर्क यह जरूर पड़ा कि नए पाठक पैदा होना बंद हो गए, जो महंगी पत्रिकाएं और साहित्य अफोर्ड नहीं कर सकते थे. इत्तफाक से इसी दौर में मोबाइल का चलन बढ़ा था जिस के खतरों से अब हर कोई चिंतित है. इस की अधिकता से हैरानपरेशान युवा कैसे किताबों की तरफ भाग रहे हैं, इस से आगाह करने को हमारे पास कोई केया गेरवर नहीं है. लेकिन आज नहीं तो कल होगी जरूर क्योंकि हमारे युवा भी मोबाइल से ऊबने लगे हैं. लेकिन बाजार में दिमाग को खुराक देने वाली पत्रिकाएं और किताबें बहुत सीमित बची हैं. वे हमेशा की तरह ही पैसे वालों के लिए हैं जो आमतौर पर ऊंची जाति वाले आज भी हैं.

कथावाचकों की चांदी

बाजार में जो बहुतायत से मौजूद हैं वे समाज को भ्रष्ट करने वाले कथावाचक हैं. उन्हें हिंदू समाज का पथभ्रष्टक न कहना उन के साथ ज्यादती ही होगी. उन के फलनेफूलने की एक बड़ी वजह युवाओं के सामने अच्छे ज्ञानवर्धक, व्यावहारिक और तार्किक साहित्य की सीमितता तो है ही लेकिन दूसरी इस से बड़ी वजह हमारी पढ़ने की कम, सुनने की आदत ज्यादा है जिसे, अपने स्वार्थ के लिए ही सही, लार्ड मैकाले ने ध्वस्त किया था.

पंडेपुजारी हमें सदियों से ही कथाएं सुनाते रहे हैं. इस से जो नुकसान हुए उन में एक यह था कि धर्मग्रंथों का सच लोग जानसमझ ही न पाएं. कथावाचकों ने अपने हिसाब से इसे तोड़ामरोड़ा और पैसा बनाया. आज भी हो यही रहा है कि व्यास पीठ पर विराजा महाराज बड़ी बेशर्मीभरे आत्मविश्वास से कहता है कि लहसुन और प्याज कुत्ते के पेशाब से उत्पन्न हुए और पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है तो भक्तों की भीड़ तालियां बजा कर उसे सच मान लेती है.

ऐसी सैकड़ोंहजारों बातें धर्म की आड़ में बोली जाती हैं और उस से भी ज्यादा चिंता और अफसोस की बात कि वे पूरी श्रद्धा से सुनी जाती हैं. ऐसे में भारत कैसे विश्वगुरु बनेगा, सवाल तो है. इस के बजाय सोचा यह जाना चाहिए कि क्या ऐसे ही भारत, कथित तौर पर, विश्वगुरु बना होगा.

तुम हो नागचंपा – भाग 2

कामिनी को ले कर महीप अगले दिन सुबहसुबह स्वामीजी के आश्रम में चला गया. प्रवचन शुरू होने में समय था इसलिए कुछ लोग ही थे वहां पर. कामिनी सब से आगे की पंक्ति में बैठ गई. महीप उन लोगों की लाइन में लग गया जो आज स्वामीजी का विशेष दर्शन करना चाहते थे. यह दर्शन प्रवचन के बाद स्वामीजी के कमरे में होते थे. कितना समय स्वामीजी के साथ व्यतीत करना है उस के अनुसार पैसे दे कर पर्ची काटी जाती थी.

प्रवचन शुरू होतेहोते बहुत लोगों के एकत्र हो जाने से वहां काफी भीड़ हो गई थी. नीचे मोटी दरी बिछी थी जहां बैठे लोग बेसब्री से स्वामीजी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे. स्वामीजी जल्द ही आ गए. पीली धोती, पीला कुरता, माथे पर लंबा तिलक. भीड़ पर मुसकान फेंकते स्वामीजी सिंहासननुमा कुरसी पर विराजमान हो गए. व्याख्यान आरंभ करते हुए बोले, “आज मैं उन स्त्रियों के विषय में बताऊंगा जो पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं और उन की सेवा न करने पर उन्हें अगले जन्म में कैसेकैसे पाप भोगने पड़ते हैं.”

सभी ध्यानपूर्वक उन को सुन रहे थे. कामिनी को आशा थी कि पत्नी के हित में भी स्वामीजी कुछ कहेंगे लेकिन उसे यह विचित्र लगा कि पति के एक भी कर्तव्य की बात स्वामीजी ने नहीं की. पत्नी के लिए अनेक उलटेसीधे नियम बताए जो कामिनी पहली बार सुन रही थी, फिर भी वह प्रवचन सुनने और समझने का पूरा प्रयास कर रही थी.

व्याख्यान पूरा हुआ तो महीप ने उसे बताया कि दर्शनों के लिए बनी आज की सूची में उस का व कामिनी दोनों का नाम है. जल्द ही उन को एक कमरे में बुला लिया गया, जहां स्वामीजी मखमली कुरसी पर विराजमान थे. सामने 4 प्लास्टिक की कुरसियां रखीं थीं. एक सहायक हाथ में कागजपैन लिए आज्ञाकारी सा स्वामीजी की बगल में खड़ा था. महीप व कामिनी के पहुंचते ही सहायक ने उन का परिचय नपेतुले शब्दों में स्वामीजी को दे दिया.

दोनों स्वामीजी के सामने बैठ गए. स्वामीजी के ‘बोलो…’ कहते ही महीप ने एक बार में पत्नी के गर्भवती न होने का दुखड़ा सुनाया. कामिनी सिर झुकाए खड़ी थी.

उस पर ऊपर से नीचे भरपूर दृष्टि डालने के बाद स्वामीजी ने कहा, “कामिनी कुछ दिन आश्रम में बिताए तो अच्छा है. एक विशेष अनुष्ठान द्वारा इस के पापों का नाश कर शुद्धिकरण कर दिया जाएगा. चाहो तो आज ही इसे यहां छोड़ दो.”

“लेकिन मैं तो कोई सामान नहीं लाया. कामिनी के कपड़े…” महीप की बात अधूरी रह गई.

स्वामीजी बीच में बोल उठे, “यहां आश्रम के दिए कपड़े पहनने होंगे, ले कर आते तो भी व्यर्थ ही रहता तुम्हारा लाना.”

“ठीक है, इसे आज यहीं छोड़ कर जा रहा हूं मैं,” महीप स्वामीजी की ओर देख हाथ जोड़ते हुए बोला. कामिनी क्या चाहती है, यह किसी ने जानना भी आवश्यक नहीं समझा. महीप वापस घर लौट गया. कामिनी को आश्रम के एक कमरे में भेज दिया गया जहां बैंच लगे थे. कुछ अन्य लोग भी किसी प्रतीक्षा में वहां थे. सभी को शांत रहने व आपस में बातचीत न करने को कहा गया था. दोपहर को एक सेविका ने खाने की थाली ला कर दे दी.

धीरेधीरे सब लोग चले गए. कामिनी अकेले गुमसुम सी बैठी अपनी बीती जिंदगी में विचर रही थी. रहरह कर उसे आकाश की याद आ रही थी. आकाश उस के पिता का प्रिय शिष्य था. बचपन से ही उन के घर आताजाता था. साइकोलौजी में पीएचडी करने के बाद कामिनी के कालेज में पढ़ाने लगा था. वहां पढ़ने वाली लड़कियां आकाश सर का बहुत सम्मान करती थीं. वह उन सभी को कभी कमजोर न पड़ने और आंखें खोले रखने को कहा करता था.

कामिनी को भी वह विपत्ति में ढांढ़स बंधाते हुए हिम्मत बनाए रखने को कहता था. जब मां के बीमार हो जाने पर क्लास टैस्ट में कामिनी को बहुत कम अंक मिले थे तो आकाश ने उसे कहा था, “एक बेटी का फर्ज निभाते हुए पढ़ाई को समय न दे पाने मतलब यह नहीं कि हाथ से सब फिसल गया. अब वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए यह सोच कर मेहनत करना कि अपने लिए भी कुछ फर्ज निभाने हैं और खुद को अब समय देना है तुम्हें.”

“काश, आकाश आज यहां होता तो बताता कि कहां कमी रह गई? क्या उस ने पत्नी का फर्ज नहीं निभाया? क्या सचमुच उस ने पाप किए हैं? शादी के बाद पतिपत्नी अपने रिश्ते को निभाते हुए आनंदित हों तो क्या यह गलत है? मन के साथ देह मिलन क्या बुरी सोच है? क्या संतान को जन्म देना ही उद्देश्य है विवाह का?’ सोचते हुए कामिनी उठ कर खिड़की से बाहर झांकने लगी.

शाम का झुटपुटा रात की ओर चल दिया. वापस बैंच पर बैठ थकी कामिनी ने आंखें मूंद दीवार से सिर टिका लिया.

“वहां चली जाओ,” कानों में आश्रम की एक सेविका का स्वर पड़ा तो कामिनी की तंद्रा भंग हो गई. चुपचाप उठ कर उस कमरे की ओर चल दी जहां सेविका ने इशारा किया था. बंद दरवाजा उस के जाते ही खुल गया. यह देख वह आश्चर्यचकित रह गई कि स्वामीजी ने उस के लिए स्वयं दरवाजा खोला है.

कमरा गुलाब की महक से गुलजार था. होता भी क्यों न? गुलाब ही गुलाब दिख रहे थे यहांवहां. स्वामीजी की मोटे कुशन वाली आराम कुरसी और बड़े से पलंग पर गुलाब की पंखुड़ियां बिखरीं थीं. कांच की साइड टेबल पर गुलाब के फूल की छोटी सी टहनी एक पतले गुलदस्ते में सजी थी. कुछ दूरी पर दीवार से सटी लकड़ी की नक्काशी वाली डाइनिंग टेबल थी, लेकिन कुरसियां केवल 2 ही लगी थीं. टेबल पर एक गिलास में गुलाबी पेयपदार्थ रखा दिख रहा था.

“बहुत थक गई होंगी. यहां कुरसी पर बैठ जाओ, इसे पी लो. दूध है जिसमें गुलाब का शरबत मिला है,” स्वामीजी ने कहा तो थकान से बेहाल कामिनी ने गिलास मुंह से लगा खाली कर दिया.

कुछ देर बाद एक सेवक खाना ले कर आ गया. 2 प्लेटें और कई व्यंजनों के डोंगे मेज पर सज गए. स्वामीजी कुछ देर चुप रहे फिर होंठों पर मुसकान लिए बोले, “तुम जानती हो कि पत्नी के पापी होने पर गर्भधारण में समस्या आती है. कुछ दिन मेरे साथ रहो, मैं स्वयं अपने हाथों से शुद्धिकरण कर पापों से मुक्ति दिलवा दूंगा. अनुष्ठान आज से ही प्रारंभ हो जाएगा. तुम को केवल अपना ध्यान सब ओर से हटा लेना होगा. ये गुलाब के फूल भी इसी अनुष्ठान के कारण बिछे हैं बिस्तर पर. सुगंध से शांति मिलेगी. आज जो दूध तुम ने पिया है उस में भी विशेष भस्म डाली गई है जो तुम को सब चिंताओं से दूर कर चैन की नींद सुला देगी. खाना खा लो अब, नहीं तो नींद आने लगेगी.”

कामिनी को सचमुच तेज नींद घेरने लगी. इस का कारण कामिनी की थकान थी या दूध में मिली भस्म, वह समझ नहीं पाई. पलपल गहराता नशा उस के सोचनेसमझने की शक्ति छीन रहा था. बैठेबैठे लुढ़कने लगी तो स्वामीजी ने उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर लेटा दिया.

कुछ देर में खाना खा कर स्वामीजी कामिनी के पास आ कर बैठ गए. उसे हौले से सहलाते हुए वे कुछ बुदबुदा रहे थे. कामिनी ने आंखें खोल उन का हाथ हटा असहमति जताई. नींद से बोझिल कामिनी स्वयं को शक्तिहीन सा महसूस कर रही थी. अधखुले नेत्रों से अत्यंत व्याकुल हो उस ने स्वामीजी की ओर देखा तो मुसकराते हुए वे बोले, “डरो मत. मैं कुछ मंत्र पढ़ रहा हूं. तुम्हारी देह से पापमूलक तत्त्व मेरे स्पर्श के साथ बाहर निकलते जाएंगे. आराम से लेटी रहो तुम.”

कामिनी का स्वयं पर नियंत्रण नहीं था. चाह कर भी उठ नहीं पा रही थी. उसे अच्छी तरह समझ में आ रहा था कि यह स्वामी भेड़ की खाल में भेड़िया है. स्वामी अपनी पिपासा शांत कर सो गया. कामिनी की नींद आधी रात को टूटी. सोच रही थी कि क्या करे अब? महीप तो स्वामी पर इतना विश्वास करता है कि कामिनी द्वारा सब सच बता देने के बाद भी वह स्वामी का ही पक्ष लेगा. शायद इस चक्रव्यूह से वह निकल नहीं पाएगी.

महीप 2 दिनों बाद आया तो स्वामी ने कामिनी को कुछ दिन और वहां रहने का परामर्श दिया. कामिनी वापस जाने की कल्पना करती तो महीप की अप्रसन्न भावभंगिमाएं और क्रूर व्यवहार ध्यान आ जाता. यहां स्वामी की लोलुपता कांटे सी चुभ रही थी.
आश्रम में बैठे हुए जब स्वामीजी की अनुपस्थिति में कामिनी को महीप से कुछ देर बात करने का अवसर मिला तो कामिनी ने स्वामीजी की नीयत को ले कर शंका जताई. जैसा उस ने सोचा था वही हुआ. महीप ने उसे आंखें तरेर कर देखते हुए धीमी आवाज में 2-4 भद्दी गालियां दे डाली.

स्वामीजी की आज्ञा मान कामिनी को वहां कुछ और दिनों के लिए छोड़ महीप वापस चला गया. आश्रम में कामिनी को एक सेविका के सुपुर्द कर दिया गया. उस के खानेपीने, कपड़ों और दिन में क्याक्या करना है इस का प्रबंध वह सेविका कर रही थी. पूरा दिन स्वामी प्रवचन व भक्तों से मिलनेजुलने में व्यतीत करता और रात कामिनी के अंक में. इस बार महीप आया तो कामिनी को वापस भेजने की अनुमति स्वामी ने दे दी.

दिन बीतते रहे, लेकिन महीप के व्यवहार में कामिनी को कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया. बातबात पर उस का हाथ उठा देना और एक रात के अतिरिक्त बाकी समय कामिनी के सामने त्योरियां चढ़ाए रखना अनवरत जारी था. कामिनी दिनरात महीप को सही राह सुझाने का उपाय सोचती, अपरोक्ष रूप से स्वामी का विरोध भी करती लेकिन महीप पर तो स्वामी जैसे लोगों का जादू सिर चढ़ा रहता है जो अपना भलाबुरा भी नहीं सोचते.

कामिनी का प्रयास होता कि महीप जब उसे आश्रम चलने को कहे वह कोई बहाना बना कर टाल दे. आश्रम से अनुष्ठान पूरा न हो पाने के फोन महीप के पास लगातार आ रहे थे. कामिनी पर एक दिन जब उस ने आश्रम चलने के लिए जोर डाला तो कामिनी के मना करते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. महीप द्वारा अनुष्ठान के बाद पाप धुल जाने और गर्भधारण करने की संभावना जतलाने का भी कामिनी पर कोई असर न दिखा तो आगबबूला हो उस ने कामिनी को तेज धक्का दे दिया. फर्श पर पेट के बल गिरी कामिनी का सिर दीवार से टकरातेटकराते बचा. हक्कीबक्की सी घबरा कर वह जल्दी से उठी. कुछ देर यों ही खड़ी रही, फिर दनदनाती हुई महीप के पास गई और उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया. महीप के क्रोध की आग में इस थप्पड़ ने घी का काम किया.

“अब तो तुम्हें स्वामीजी के आश्रम में चलना ही पड़ेगा. जाते ही तुम्हारी शिकायत लगाऊंगा उन से,” कामिनी का हाथ पकड़ उसे खींचता हुआ महीप दरवाजे की ओर चल दिया. कामिनी को कुछ नहीं सूझ रहा था. चुपचाप आंखों में आंसू लिए महीप के साथ चल पड़ी.

आश्रम से सभी भक्त श्रोता जा चुके थे. स्वामीजी के कक्ष में महीप ने कामिनी के साथ प्रवेश किया. कामिनी को देख स्वामीजी गदगद हो उठे. महीप ने समीप रखे दानपात्र में 100 के नोटों की गड्डी डाल प्रणाम में सिर झुका दिया. स्वामीजी का आशीर्वाद पा कर महीप ने कामिनी के हाथ उठाने की बात उन को बताई. स्वामीजी मुसकराए, महीप का मन खिला कि अब कामिनी से वे अवश्य क्षमा मंगवा कर रहेंगे.

स्वामीजी ने कामिनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा फिर बोले, “इस का मुखमंडल देख रहे हो? कैसा दपदप कर रहा है. अनुष्ठान के प्रथम चरण का प्रभाव है यह. कोई पुण्यात्मा ही जन्म लेगी भविष्य में इस के गर्भ से. इस की मार को तुम ईश्वर का प्रसाद समझ कर ग्रहण करो. यह कुपित हो गई तो तुम पर दुखों का पहाड़ टूट सकता है.”

महीप मन ही मन सहमति, असहमति के बीच झूलता हुआ भीगी बिल्ली बना बैठा रहा. कामिनी को स्वामीजी अनुष्ठान के लिए अपने कमरे में ले गए. महीप उस के कमरे से बाहर आने की प्रतीक्षा में आश्रम में यहांवहां टहल रहा था कि उसे आश्रम के दान कक्ष में बुला लिया गया. स्टाफ ने विशेष चढ़ावे की मांग की क्योंकि उन का कहना था कि ऐसा अवसर भाग्यशाली लोगों को ही मिलता है, जिस के परिवार के किसी सदस्य का स्वामीजी स्वयं शुद्धिकरण करते हैं. महीप ने प्रसन्न हो कर सामर्थ्य से अधिक दान दे दिया.

3-4 बार आश्रम जाने के बाद कामिनी ने यह जान लिया था कि उसे स्वामीजी की विशेष अतिथि मान वहां खूब सत्कार होता है. पति की रुखाई और दुर्व्यवहार से आहत कामिनी अब वहां जाने के लिए मना नहीं करती थी. स्वामीजी अब उसे कुछ दिनों के लिए रोक लेते और महीप को वापस भेज देते. घर में कामिनी व स्वयं पर एक रुपया भी खर्च करना महीप को अखर जाता था, लेकिन आश्रम में दानदक्षिणा दे अपनी जेब ढीली करवा कर वह प्रसन्न था.

स्वामीजी ने जब से कामिनी की मार को प्रसाद समझ कर ग्रहण करने को कहा था, तब से महीप कामिनी की ओर आंख उठा कर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था. उस के बाद जब भी वह कामिनी के समीप गया तो कामिनी ने मुंह फेर लिया. महीप ने हाथ बढ़ा कर उस का मुंह अपनी ओर करना चाहा तो कामिनी ने हाथ झटक दिया. महीप लाचार सा चुपचाप सो गया.

कामिनी को अपने इस व्यवहार पर खुद से शिकायत थी, लेकिन यह अचानक तो हुआ नहीं था. स्वामी के चक्रव्यूह में महीप भी फंसा था और कामिनी को भी फंसा दिया था उस ने. यद्यपि आश्रम में कामिनी को एशोआराम की जिंदगी मयस्सर थी, लेकिन उसे यह चाहिए ही कब था? वह तो महीप की अर्धांगिनी बन कर पति से वह सब चाहती थी जो जीवन बगिया महका दे।

कोई रास्ता न सूझने पर कामिनी को उकताहट होने लगी. कुछ दिनों के लिए उस ने मायके जाने का कार्यक्रम बना लिया. मायके पहुंच कर भी अपनी पीड़ा मन में दबाए रही. 2 छोटे भाइयों के सामने एक खुशहाल दीदी बने रहना पड़ता और मातापिता के सम्मुख उन की समझदार, सहनशील बेटी. महीप को ले कर कुछ कहना शुरू भी करती तो उन से वही रटारटाया जवाब मिलता, “बेटियों को ससुराल में बहुत कुछ सहना पड़ता है, इस में कोई बड़ी बात नहीं है. बड़ी बात तब है जब रिश्ता टूट जाए, लड़की मायके वापस लौट आए और उस के मांबाप किसी को मुंह दिखाने के काबिल न रहें.”

पतिपत्नी एकदूसरे के पूरक बन कर रिश्तों को संभालें

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 11 फरवरी को पत्नी से प्रताड़ित हो कर एक युवक ने एसपी औफिस के बाहर जहर खा कर जान दे दी. 2 महीने पहले ही उस की शादी हुई थी. प्रदीप नाम का वह व्यक्ति अपनी पत्नी की प्रताड़ना से परेशान था. पुलिस ने उस की शिकायत दर्ज नहीं की थी. इस के बाद वह एसपी आवास के बाहर पहुंचा और वहां उस ने जहर खा लिया.

मिर्जापुर में 8 फरवरी को पत्नी से परेशान हो कर एक व्यक्ति कलेक्ट्रेट में धरने पर बैठ गया. पीड़ित पति ने धरनास्थल पर बैनर लगाया जिस में उस ने पत्नियों से सावधान रहने के लिए लोगों से अपील की. उस का कहना था कि उस की सुनवाई नहीं हो रही है. उस ने अपनी पत्नी को गुजाराभत्ता देने की लिए एक बौक्स बनाया जिस में उस ने एक स्लिप चिपका रखी थी. उस में लिखा था- ‘पत्नी गुजाराभत्ता की भीख’. वह इस तरह प्रशासन को अपनी स्थिति से अवगत कराने का प्रयास कर रहा था.

ऐसा नहीं है कि पति ही प्रताड़ित होते हैं. अखबारों में पत्नियों पर हो रहे प्रताड़ना के समाचार भरे पड़े हैं. 30 जनवरी को एक पत्नी के साथ जबरदस्ती रेप के आरोप में पति को कोर्ट ने 20 साल की सजा सुनाई. बिहार के चंपारण में अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने आरोपी पति को दोषी मानते हुए 20 वर्ष कठोर कारावास की सजा सुनाई, साथ ही, 60 हजार रुपए जुर्माना भी लगाया.

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़े देखें तो पिछले साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी. इस के अनुसार, हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है. देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा है.

नेशनल फैमिली हैल्थ रिपोर्ट के अनुसार, हर 3 में से एक महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती है. वर्ष 2022 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने घरेलू हिंसा के 6,900 मामले दर्ज किए.

दरअसल यहां समस्या पति व पत्नी के बीच आपसी तालमेल और एकदूसरे को समझने की है. पुरुषों को बचपन से यह सिखाया जाता है कि पत्नी उस के अधीन रहेगी. उसे पत्नी और परिवार का खर्च उठाना है. वह मालिक होगा और पत्नी उस की गुलाम. पत्नी ही उस के सारे काम करेगी. वहीं लड़कियों को बचपन से ही यह घुट्टी पिलाई जाती है कि पति ही परमेश्वर है. हर हालत में पति की बात माननी होगी. घर, परिवार और बच्चों को संभालना होगा. खाना बनाना होगा. पति के सारे काम करने होंगे.

पुराणों में महिलाओं को यह भी सिखाया जाता है कि वे अपने पतियों को नाम से न बुलाएं. दरअसल स्कंद पुराण में लिखा है कि पतियों को नाम से बुलाने पर उन की उम्र घटने लगती है. इसलिए पतियों की लंबी आयु के लिए महिलाएं कभी भी उन्हें उन के नाम से संबोधित नहीं करतीं. पत्नी को पतिव्रता बनने के धर्म सिखाए जाते हैं.

स्कंद पुराण में यह भी लिखा है कि वही महिलाएं पतिव्रता स्त्री कहलाती हैं जो अपने पतियों के खाने के बाद ही भोजन करती हैं. जो महिलाएं अपने पतियों के सोने के बाद सोती हैं और सुबह पति के उठने से पहले उठ जाती हैं उन्हें ही पतिव्रता पत्नी का दर्जा दिया जाता है. यदि उन का पति किसी कारणवश उन से दूर रहता हो तो एक पतिव्रता स्त्री को कभी श्रृंगार नहीं करना चाहिए.

गरुण पुराण के 18 अध्याय के 108वें श्लोक में पत्नीधर्म का वर्णन नीचे लिखे श्लोक में दिया गया है:

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा.
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता.

मतलब, पत्नी वही है जो गृहकार्य में दक्ष हो, सब से प्रिय वचन बोले, बड़ों की इज्जत करे, पति को सर्वोपरि का दर्जा दे और पत्नी के जीवन में पति के अतिरिक्त कोई पुरुष न हो.

ऐसेहु पति कर किए अपमाना. नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा. कायं बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥

भावार्थ: ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भांतिभांति के दुख पाती है. शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही, धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है.

इस तरह की मान्यताएं और मिलने वाली सीखें ही दांपत्य जीवन में जहर घोलती हैं. क्योंकि इस से एकदूसरे से अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ जाता है. जिसे उठाना पतिपत्नी दोनों के लिए ही आसान नहीं. वे एकदूसरे को गलत समझने लगते हैं. खुद को पीड़ित मान बैठते हैं. लड़की पढ़ीलिखी या पैसे वाले घर की हो तो उस का ईगो भी हर्ट होने लगता है. वह खुद को गुलाम समझने से इनकार करती है. यहीं से ईगो का क्लैश शुरू हो जाता है.

हाल ही में रिलीज हुई शिल्पा शेट्टी की फिल्म ‘सुखी’ एक हाउसवाइफ की जिंदगी के स्ट्रगल्स को दिखाती है. वह केवल एक दिन के लिए अपने दोस्तों से मिलने दिल्ली जाना चाहती है मगर उस के पति और बेटी ने उस को साफ मना कर दिया कि फिर घर कौन संभालेगा? मतलब, एक औरत घर संभालने और दूसरों को सुविधाएं देने के लिए ही बनी है, अपनी ख़ुशी के लिए उसे एक दिन भी नहीं मिल सकता. शिल्पा पति के मना करने के बावजूद चली जाती है और अपने दोस्तों के साथ मिल कर जिंदगी जीने का नया नजरिया ढूंढ़ती है. अपनी सभी पुरानी समस्याओं को भूल कर वह आगे बढ़ती है और अपनी जिंदगी को नए सिरे से जीने की कोशिश करती है. इस फिल्म में दिखाया जाता है कि एक कौमन हाउसवाइफ भी अनकौमन हो सकती है.

इसी तरह वर्ष 2000 में रिलीज हुई फिल्म ‘अस्तित्व’ भी महिलाओं की स्थिति दिखाती है. भारत के पितृसत्तात्मक समाज को दिखाने वाली यह फिल्म एक्सट्रामैरिटल अफेयर, पति का एब्यूज और एक महिला के अपनी पहचान को खोजने की कहानी है. आखिर में वह महिला अपने पति और बेटे को छोड़ कर चली जाती है और उस की होने वाली बहू उस का साथ देती है जो खुद अपने बौयफ्रैंड को छोड़ देती है.

वहीं, ‘पद्मावत’ जैसी फिल्में भी हैं. संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ में रानी पद्मावती का जौहर बेहद भव्य तरीके से दिखाया गया है. रानियों और राज्य की सभी महिलाओं ने खुद को क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी और उस की सेना से बचाने के लिए आग में कूद कर अपनी जान दे दी. फिल्म में जौहर को जितनी भव्यता से दिखाया गया है और उस का महिमामंडन किया गया उसे आज के समाज में स्वीकारना संभव नहीं. पुराने समय में जौहर के साथ सतीप्रथा भी काफी प्रचलित थी.

वह ऐसा समय था जब भारतीय समाज में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को अपनी पवित्रता और प्रेम साबित करने के लिए पति की चिता के साथ ही जिंदा जला दिया जाता था. कई स्त्रियां इसे प्रेम से करती थीं लेकिन कई स्त्रियों को सिर्फ प्रथा के नाम पर आग में जिंदा जलने के लिए झोंक दिया जाता था. उन की चीखें, दर्द सबकुछ इस प्रथा की आड़ में छिप जाते थे.

आज की स्त्री पढ़ीलिखी है. वह भी अपना वजूद साबित करना चाहती है और इस में कुछ बुराई नहीं है. हम अपने बच्चों को अगर यह सिखाना शुरू करें कि शादी के बाद अपने रिश्तों को कैसे संभालना है और एकदूसरे का ख़याल रखते हुए शादी कैसे मैनेज करना है तो यह बेहतर होगा.

हमें समझना होगा कि पतिपत्नी एक ही गाड़ी के 2 पहिए हैं. दोनों में कोई अगर अपना काम करना बंद कर दे तो जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतर जाती है. इसलिए एकदूसरे को सपोर्ट देने से ही दांपत्य जीवन सही से चल पता है. कार के गियर की तरह उन्हें एकदूसरे के साथ मैनेज करना होगा. गियर के दांत एक अक्ष पर गियर के दांतों के साथ दूसरे अक्ष पर जाल बनाते हैं और इस प्रकार दोनों अक्षों के घूमने के बीच एक संबंध बनता है. जब एक धुरी घूमती है तो दूसरी भी घूमती है. गियर को अलगअलग पैटर्न में व्यवस्थित किया जाता है. वैसे ही, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में एकदूसरे के पूरक बन कर आगे बढ़ें.

मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं, क्या मैं एक बच्चा अपनी बहन को गोद दे दूं ?

सवाल

मैं 36 वर्षीय पुरुष हूं. मेरा 3 बार तलाक हो चुका है. पत्नी से एक भी बच्चा नहीं है. अब मैं शादी करना नहीं चाहता. इसीलिए मैं ने सरोगेसी से बच्चे करने के बारे में सोचा और ऐसा किया. पहले मेरे परिवार की तरफ से भी इस फैसले को ले कर कोई परेशानी नहीं थी, परंतु अब हुआ यों कि डाक्टर ने बताया कि सरोगेसी से मेरे एक नहीं, बल्कि 2 यानी जुड़वां बच्चे होने वाले हैं. इस पर मेरी बहन ने आपत्ति जताते हुए यह कहा कि मुझे दोनों में से एक बच्चा किसी को गोद दे देना चाहिए, जबकि मुझे और मेरे मातापिता को लगता है कि दोनों बच्चों की जिम्मेदारी और लालनपालन में कोई कमी नहीं होगी. मेरी बहन को लगता है यह असंभव है. मैं दुविधा में हूं कि क्या मुझे एक बच्चे को गोद दे देना चाहिए?

जवाब

आप ने जब सरोगेसी का फैसला लिया तो क्या आप ने दीनदुनिया के विचारों पर आश्रित हो कर यह फैसला लिया था? आप और आप के मातापिता को यदि लगता है कि आप 2 बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम हैं तो आप को अपनी बहन का कहा नहीं सुनना चाहिए. आप खुद सोच कर देखिए, किसी भी पिता के लिए अपने बच्चे को गोद देना कोई आसान काम नहीं है. बच्चे एक हों या 2, आप के लिए तो दोनों ही समान हैं.

वैसे भी बच्चा गोद देना या लेना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है. फिर भी आप ऐसा सोचेंगे तो जरूरी  नहीं कि कोई गोद लेने लायक परिवार मिल ही जाए. देखा जाए तो यह तो अच्छी बात है कि आप के एक की जगह 2 बच्चे हो रहे हैं. दोनों को एकदूसरे का साथ मिल जाएगा. वे आप को परेशान भी नहीं किया करेंगे. और आप की गैरमौजूदगी में भी वे अकेलापन महसूस नहीं करेंगे.

पैंसठ की उम्र में भी क्या मां बनना संभव है, जानें एक्सपर्ट से

एक विवाहित युगल के लिए मां-बाप बनना उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण होता है, लेकिन कभी-कभी तमाम प्रयासों के बावजूद शादीशुदा जोड़े अपने घर के आंगन में बच्चों की किलकारियां सुनने से महरूम रह जाते हैं. ऐसे दम्पत्तियों के लिए आईवीएफ सेंटर्स एक वरदान साबित हो रहे हैं. आईवीएफ उपचार के चमत्कारी परिणाम देखे जा रहे हैं. ‘पैंसठ साल की आयु में भी मां बनने का सुख उठाने वाली उस महिला की खुशी का अंदाजा आप नहीं लगा सकते, जिसने पूरी जवानी एक बच्चे की आस में गुजार दी. दुनिया भर के ट्रीटमेंट कर डाले, मगर उनके आंगन में खुशी का फूल खिला तो आईवीएफ उपचार के बाद…’. ऐसा कहना है दिल्ली के नारायणा विहार स्थित ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज का.

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी औफ नौटिंघम से रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त करने वाली डा. अर्चना धवन बजाज एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी और आईवीएफ के क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित नाम बन चुका है. आज ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में भारतीय दम्पत्ति ही नहीं, बल्कि विदेशी दम्पत्ति भी बच्चे की उम्मीद लेकर आते हैं, और अपने साथ खुशियों की सौगात लेकर जाते हैं.

आईवीएफ के प्रति आज भी लोगों में कई तरह की भ्रांतियां व्याप्त हैं. इससे जुड़े अलग-अलग प्रकार के ट्रीटमेंट से भी लोग वाकिफ नहीं हैं. इसके साथ ही आजकल गली-मोहल्लों में तेजी से खुल रहे आईवीएफ सेंटर्स में ठगे जाने के बाद कई दम्पत्ति निराश हो जाते हैं. आईवीएफ और उससे जुड़ी तकनीकी बातों पर डा. अर्चना धवन बजाज ने दिल्ली प्रेस की एसोसिएट एडिटर नसीम अंसारी कोचर से विस्तृत बातचीत की और आईवीएफ के बारे में विस्तृत जानकारी दी.

आईवीएफ क्या है?

आईवीएफ मतलब इन विट्रो फर्टिलाइजेशन अर्थात जो काम शरीर के अन्दर नहीं हो पा रहा है, उसको लैब में टेस्ट्यूब में सम्पन्न कराया जाता है और इस तरह एक महिला को मां बनने का सुख हासिल होता है. आमभाषा में इसको टेस्ट्यूब बेबी कहते हैं. महिलाएं कई कारणों से मां नहीं बन पाती हैं, जैसे उनकी फेलोपियन ट्यूब बंद हो या यूटेसर सम्बन्धी कोई रोग हो, या अनियमित मासिक हो अथवा कोई अन्य वजह हो, तो ऐसी महिला को हारमोंस के इंजेक्शन देकर हम उसके गर्भाशय में अंडे बनने की प्रक्रिया को तेज करते हैं. तैयार अंडों को ओवरी से बाहर निकाल कर लैबोरेटरी में उसके पति के स्पर्म के साथ फर्टीलाइज कराके एम्ब्रियो तैयार किया जाता है और तीन या पांच दिन के एम्ब्रियो को महिला की बच्चेदानी में डाल दिया जाता है. जब गर्भाशय की दीवार से एम्ब्रियो एटैच होकर मल्टीप्लाई करने लगता है तब कहते हैं कि महिला को गर्भ ठहर गया है. हम एक बार में ही दो या तीन एम्ब्रियो गर्भाशय में डालते हैं, ताकि गर्भ धारण में आसानी हो, लेकिन महिला की उम्र यदि ज्यादा है, अथवा अंडो की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, अथवा वह पहले भी आईवीएफ करवा चुकी है और वह फेल हो चुका है तो हम पांच या छह एम्ब्रियो भी डालते हैं ताकि गर्भधारण की सम्भावना बढ़ जाए.

आईवीएफ ट्रीटमेंट में कितना वक्त लगता है?

एक आईवीएफ साइकल को पूरा होने में बीस से पच्चीस दिन लगते हैं. ये निर्भर करता है महिला के अंडो की क्वालिटी पर भी. यदि क्वालिटी अच्छी नहीं है तो हम क्वालिटी इम्प्रूव करने के लिए कुछ दवाएं देते हैं. ऐसे में कुछ अधिक समय लग सकता है.

आईवीएफ द्वारा गर्भधारण करने के उपरान्त डिलीवरी नौरमल होती है अथवा सिजेरियन से बच्चा पैदा होता है. 

इस बारे में कोई हार्ड एंड फास्ट रूल नहीं है. यह पेट के अन्दर बच्चे की कंडीशन पर निर्भर करता है. यदि बच्चे की पोजिशन गर्भाशय में बिल्कुल ठीक है, ब्लड सप्लाई ठीक है, बच्चे के आसपास द्रव्य बेहतर है, तो नौरमल डिलीवरी भी होती है. लेकिन यदि किसी तरह की दिक्कत है, बच्चा आड़ा है, उसका वजन ज्यादा है, या जुड़वां बच्चे हैं तो आमतौर पर महिलाएं किसी तरह का रिस्क नहीं लेना चाहती हैं, इसलिए सिजेरियन कराना ही पसन्द करती हैं. आईवीएफ के जरिये बच्चा पाना किसी भी दम्पत्ति के लिए फाइनेंशियल और इमोशनल मैटर होता है, इसलिए वह बच्चे के जन्म के वक्त किसी तरह की परेशानी नहीं चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उनका बच्चा बिल्कुल सेफ रहे, अत: ज्यादातर दम्पत्ति सिजेरियन द्वारा ही बच्चे को जन्म देने के इच्छुक होते हैं.

आईवीएफ से पहला बच्चा पाने वाली महिला को क्या भविष्य में नौरमल प्रेग्नेंसी भी ठहर सकती है? 

हां बिल्कुल हो सकती है. दरअसल आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान महिला को जो दवाएं मिलती हैं, उससे गर्भाशय में अंडों की क्वालिटी अच्छी हो जाती है. इसलिए ऐसा हो सकता है कि बाद में वह नॉरमल तरीके से भी गर्भ धारण कर ले. ऐसे बहुत से उदाहरण मेरे सामने आये हैं.  कभी-कभी ये पता नहीं चलता कि गर्भधारण क्यों नहीं हो रहा है. ऐसी स्थिति में अगर पहला बच्चा आईवीएफ से हुआ है तो बहुत सम्भव है कि दूसरी बार महिला नौरमल तरीके से ही गर्भ धारण कर ले.

अगर एक बार में गर्भाशय में दो से चार एम्ब्रियो डाले जाते हैं तो क्या जुड़वा या इससे ज्यादा बच्चे होने की सम्भावना नहीं होती?

जी हां, बिल्कुल होती है. दो या कई बार तीन बच्चे भी हो जाते हैं. कई कपल्स तो इस बात से बहुत खुश होते हैं कि उनका परिवार एक ही बार के एफर्ट में पूरा हो गया. मगर कई बार आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्ति दो या तीन बच्चे होने पर उतनी खुशी व्यक्त नहीं कर पाते. इसके अलावा एक परेशानी बच्चे की सेहत को लेकर भी होती है. यदि तीन बच्चे मां के गर्भ में हैं तो आमतौर पर उनका वजन कम होता है. कभी-कभी डिलिवरी वक्त से पहले हो जाती है. ऐसे में जन्म के उपरान्त बच्चों को लम्बे समय तक इंटेंसिव केयर यूनिट में रखना पड़ता है, जिसके कारण दम्पत्ति पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है.

कम से कम और अधिक से अधिक कितनी उम्र की महिलाएं आईवीएफ के लिए आपके पास आती हैं? 

अधिक से अधिक मैंने पैंसठ साल की महिला का आईवीएफ किया है. वह बच्चा पाकर बहुत खुश हुई थीं. मगर इस उम्र में आईवीएफ कराने की राय मैं नहीं देती हूं. क्योंकि जब आप पच्हत्तर साल के होंगे, तब आपका बच्चा सिर्फ दस साल का होगा. ऐसे में उसकी देखभाल, शिक्षा और अन्य जिम्मेदारी आप किसके कंधे पर डाल कर जाएंगे? फिर साठ या पैंसठ साल की उम्र में महिलाओं का शरीर काफी कमजोर हो चुका होता है. अंडों की क्वालिटी भी अच्छी नहीं रहती. ऐसे में होने वाले बच्चे में भी स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियां पैदा हो सकती हैं. वह मानसिक रूप से कमजोर हो सकता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर शादी के सात से दस साल के अन्दर आप मां नहीं बन पायी हैं तो पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच आपको आईवीएफ करवा लेना चाहिए. इस उम्र में महिला शारीरिक रूप से भी तंदरुस्त होती है और मानसिक रूप से भी. वहीं कम उम्र में आईवीएफ उसी हालत में कराना चाहिए जब गर्भाशय सम्बन्धित कोई सीरियस प्रौब्लम महिला को हो, या उसकी फेलोपियन ट्यूब ही पूरी तरह से बंद हो. ऐसे में आईवीएफ ही गर्भधारण का एक रास्ता बचता है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट के दौरान पेशंट को काफी इंजेक्शन्स लगते हैं. इसके क्या साइड इफेक्ट होते हैं और यह कितने वक्त तक बने रहते हैं?

किसी भी तरह के रसायन का प्रयोग शरीर पर होता है तो कुछ साइड इफेक्ट तो होते ही हैं. आईवीएफ ट्रीटमेंट के बाद भी ऐसा होता है. मगर यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है. आमतौर पर औरतों का वजन बढ़ना, बे्रस्ट का साइज बढ़ना, चिड़चिड़ाहट, थकान, एक्ने या पति के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में दिलचस्पी न होना जैसी समस्याएं होती हैं, मगर यह थोड़े वक्त का ही असर है. कभी-कभी ऐसा होता है कि गर्भाशय में बहुत ज्यादा अंडे बनने से पेट में पानी भर जाता है. इस तरह का साइड इफेक्ट खत्म होने में थोड़ा वक्त लगता है और इसका ट्रीटमेंट करना पड़ता है. आजकल हॉरमोंस के लिए जो इंजेक्शन यूज हो रहे हैं, वह नेचुरल बॉडी हॉरमोंस से बहुत ज्यादा मिलते-जुलते हैं, जिससे साइड इफेक्ट की समस्या अब काफी कम हो गयी है.

आईवीएफ ट्रीटमेंट अभी भी आम जनता के लिए काफी मंहगा है, जिसके चलते कई दम्पत्ति माता-पिता बनने की खुशी से वंचित रह जाते हैं. क्या आपके ‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ में आर्थिक रूप से कमजोर दम्पत्तियों के लिए कुछ विशेष छूट है?

हमारे सेंटर की पौलिसी है कि हम ‘नो प्रोफिट-नो लौस’ के सिद्धान्त पर चलते हैं. कई फार्मास्यूटिकल कम्पनियां हमारे उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी मदद भी करती हैं. हम आर्म्ड फोर्सेस, पैरा मिलिटरी फोर्सेस या एलाइड सर्विस के लोगों को काफी छूट देते हैं. जो पेशंट आर्थिक रूप से कमजोर हैं हमारी कोशिश होती है कि कम से कम खर्च में हम उनको मां-बाप बनने की खुशी दे सकें.

आईवीएफ की सफलता की दर कितनी है?

आईवीएफ की सक्सेस रेट पर अलग-अलग डौक्टर्स की राय अलग-अलग है. मैं मानती हूं कि आईवीएफ चालीस प्रतिशत तक सफल रहता है. साठ फीसदी महिलाओं को पहली बार में गर्भ नहीं ठहरता है और उन्हें दो या तीन बार इस प्रौसेस से गुजरना पड़ता है. इसके कई कारण है. इसमें अगर महिला की उम्र बहुत ज्यादा है, उसका वजन बहुत ज्यादा है, गर्भाशय में प्रौब्लम है, अंडों की क्वालिटी खराब है, मेंटल स्थिति कमजोर है या वह कई बार आईवीएफ ट्रीटमेंट से गुजर चुकी है तो पहली बार में आईवीएफ सफल होना मुश्किल होता है.

जिस तरह से देश में आईवीएफ सेंटर्स गली-मोहल्लों में खुल रहे हैं, उनकी विश्वसनीयता कितनी है?

किसी भी चीज की सफलता निर्भर करती है कि आप कितना डिलिवर कर रहे हैं. आपका आउटपुट कितना है. अगर छोटे आईवीएफ सेंटर में भी अत्याधुनिक मशीनों पर काम हो रहा है तो उसकी सफलता निश्चित है. देखना पड़ता है कि वहां डॉक्टर कितना समझदार है, उसकी क्वालिफिकेशन क्या है, उसकी सफलताएं क्या हैं, वह अपने पेशंट्स के प्रति कितना डेडिकेटेड है, उसकी लैब कैसी है, एम्ब्रियोलोजिस्ट कैसा है. एक छोटी सी जगह में भी एक अच्छी साफ-सुथरी, अत्याधुनिक यंत्रों से सुसज्जित लैब रख कर हम वही  रिजल्ट प्राप्त कर सकते हैं जैसे बड़े क्लीनिक में मिलते हैं. मेरा कहने का आशय है कि जगह महत्वपूर्ण नहीं है, सुविधाएं महत्वपूर्ण हैं. जिनकी छानबीन कर लेनी चाहिए.

संक्षिप्त परिचय

‘द नर्चर आईवीएफ क्लिनिक’ की निदेशक डा. अर्चना धवन बजाज डा. अर्चना धवन बजाज बांझपन उपचार और आईवीएफ के क्षेत्र में एक जाना-माना नाम हैं. चिकित्सा के क्षेत्र में एमबीबीएस, डीजीओ, डीएनबी और एमएनएएस की डिग्रियां हासिल करने के बाद उन्होंने यूके स्थित नाटिंघम विश्वविद्यालय से मेडिकल रिप्रोडक्टिव टेक्नोलौजी में मास्टर्स डिग्री प्राप्त की है. वे हैचिंग, वीर्य भू्रण के संरक्षण, ओवरियन कौर्टिकल पैच, क्लीवेज स्टेज भ्रूण पर ब्लास्टमोर बायोप्सी और ब्लास्टक्रिस्ट की अग्रणी विशेषज्ञ हैं. दिल्ली में नर्चर आईवी क्लिनिक की निदेशक के तौर पर काम करते हुए डा. बजाज ने स्त्रीरोग विशेषज्ञ, एक परामर्शदाता, प्रसूति विशेषज्ञ और फर्टिलिटी एंड आईवीएफ विशेषज्ञ के तौर पर विशेष ख्याति पायी हैं.

करियर और लव लाइफ को बैलेंस करने में हो रही है परेशानी, तो अपनाएं ये 5 टिप्स

Tips to Balance Career and Love : अपने पार्टनर के साथ एक मजबूत और सुखी रिश्ता बनाना साथ ही अपने करियर को भी महत्व देना काफी मुश्किल होता है. खासतौर पर जब आप दोनों ही कामकाजी हैं. व्यस्त दिनचर्या,  बड़े लक्ष्य, अनगिनत प्रोजेक्ट्स और बहुत कुछ इन सभी के कारण आपका सम्बंध प्रभावित होने लगता है जिसके कारण आपके रिश्ते में तनाव बन सकता है. जब आप अपने करियर को काफी अहमियत देते हैं तो एक स्वस्थ रिश्ते को बनाएं रखने के लिए आपको अलग से प्रयास करने होते हैं. पूरे दिन काम करने के बाद अपने साथी के साथ आराम करने और बात करने के लिए समय निकालना भी जरुरी है. अगर आप भी अपने कैरियर और प्यार के बीच संतुलन बनाना चाहते हैं तो ये टिप्स काम आ सकते हैं.

  1. छोटी-छोटी चीजें एक साथ करें

ऐसा जरुरी नहीं है कि आप अपने साथी के साथ समय बिताने के लिए लंच प्लान करें या फिल्म देखने ही जाएं. आप अपने साथी के साथ अपना सारा समय व्यतीत नहीं कर पा रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप जिस समय में उनके साथ है वो बिल्कुल परियों की कहानी जैसा हो. छोटी चीजें भी आपको खुशी दे सकती है. जब आपके पास ऑफिस के ढेर सारे काम होंगे तो आप कुछ विशेष योजना बना पाएं ये थोड़ा मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि जब भी आप साथ में हैं तो हर मिनट को महसूस करें. एक साथ भोजन करें, घर की सफाई करते वक्त या खाना बनाते वक्त आप एक-दूसरे को समय दें. ये छोटी चीजें आपको बेफिजूल लग सकती हैं लेकिन जब आपके पास समय कम हो तो है तो यह अपने साथी से जुड़ने का यह अच्छा तरीका है.

  1. बिना शर्त के सपोर्ट करें

अपने ऑफिस में पूरे दिन काम करने के बाद अपने पति या पत्नी के करियर में रुचि दिखाना मुश्किल हो सकता है लेकिन यह जरुरी है कि आप अपने साथी के करियर से संबंधित बातचीत करें. इस बातचीत के जरिए आप उन्हें बता पाएंगे कि आप उनके काम और करियर को सपोर्ट करते हैं. उन्हें बताएं कि आप उनके लिए हमेशा मौजूद हैं और बिना शर्त उनके काम को अपना समर्थन देते हैं. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपके साथी के मन में असंतोष की स्थिति पैदा हो सकती है. जिससे आपके रिश्ते और करियर के बीच संतुलन बनाना मुश्किल हो जाएगा.

  1. हद से ज्यादा उम्मीदें ना करें

जब आप दोनों कामकाजी है तो आप समझ सकते हैं कि ऑफिस के बाद सम्बंध को संभालना कितना मुश्किल है. इसलिए जरुरी है कि आप अपने साथी से अधिक उम्मीदें ना बांधे क्योंकि समय के अभाव में अगर वो पूरा नहीं कर पाएंगे तो आपको बुरा लगेगा और आपका दिल टूट जाएगा. आपके लिए बेहतर होगा ऐसा सोचना बंद करें कि आपका साथी आपके लिए कोई डेट, होलीडे या पार्टी प्लान करें. अगर वो ऐसा नहीं करेगा तो आपको दुख और निराशा होगी. ये सब मैनेज करने के लिए आपके साथी को समय की जरुरत होगी और वो उनके पास नहीं है. ऐसा नहीं है कि आप उम्मीदें ही ना करें. सोचने की बजाय उनसे बात कर लें कि आप क्या चाहते हैं.

  1. कोई भी फैसला लेने से पहले साथी को बताएं

अगर आप कोई भी फैसला लेते हैं तो इसके लिए दो स्टेप जरुरी है. पहला आप इसके बारे में सोचे और फिर अपने साथी से बात करें. अब आप जीवन में स्वतंत्र रूप फैसले नहीं ले सकते हैं चाहे फिर आप कितने भी बुद्धिमान क्यों ना हों. आपका हर एक व्यक्तिगत फैसला आपके साथी पर भी असर डालेगा. आपको जानने की जरुरत है कि आपका कोई भी फैसले के बारे में आपका पार्टनर क्या सोचता है. जैसे आप जॉब छोड़ने या बदलने की सोच रहे हैं तो इसके बारे में अपने साथी से बात कर लें. हो सकता ऐसे में आपको शहर बदलना पड़े या नई जगह जाना पड़े तो इसका प्रभाव आपके साथी पर भी होगा.

5. जिम्मेदारियां बांट लें

एक रिश्ते में सामंजस्य बिठाना बहुत जरुरी है. अगर आपको रिश्ते में समझौते करने पड़ रहे हैं तो ध्यान रखें कि मिलकर समझौते करें. काम के साथ अपने रिश्ते की जिम्मेदारियों को समझें. खासकर तब जब आप शादीशुदा हैं, एक साथ रहते हैं, आपके बच्चे हैं. ऑफिस जाने के साथ खाना पकाना, बच्चों को स्कूल ले जाना लेकर आना, घर के कामकाज आदि जिम्मेदारियां एक ही व्यक्ति पर ना डालें. आपके रिश्ते में कोई भी एक व्यक्ति सभी समझौते करने के लिए तैयार नहीं होगा. इसलिए सही ढंग से फैसला लें. अधिक कुशलता से काम करें और सबसे महत्वपूर्ण हैं कि हमेशा एक साथ काम करें.

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