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मेरी पत्नी प्रैग्नैंट है, उसके लिए क्या खास करूं?

सवाल

मेरी उम्र 30 साल की है, मेरी पत्नी को प्रैग्नैंट हुए 2 महीने हुए हैं. मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मु?ो बच्चे बहुत पसंद हैं. मेरी पत्नी मु?ो इतनी बड़ी खुशी देने वाली है, इसलिए मेरा मन करता है उसे बहुत खुश रखूं, उसे स्पैशल फील करवाऊं. लेकिन सम?ा नहीं पा रहा कि ऐसा क्या करूं?

जवाब

हम यही चाहेंगे कि आप की यह खुशी यों ही बरकरार रहे. आप अपनी प्रैग्नैंट पत्नी के साथ डीपर लैवल पर कनैक्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है क्योंकि प्रैग्नैंसी और चाइल्डबर्थ पति व पत्नी दोनों के लिए ही बहुत स्पैशल जर्नी होती है.

चलिए, हम बताते हैं कि आप प्रैग्नैंसी के 9 महीनों के दौरान अपनी पत्नी को स्पैशल कैसे फील करवाएं. आप अपनी पत्नी को पैंपर करने के लिए उस के पैरों की मसाज कर सकते हैं. दरअसल प्रैग्नैंसी में कई महिलाओं के पैर सूजने लगते हैं और पैरों में दर्द भी

हो सकता है. मसाज के लिए आप एसैंशियल औयल या नरिशिंग लोशन का इस्तेमाल कर सकते हैं और बैकग्राउंड में सौफ्ट म्यूजिक बजा सकते हैं. आप के द्वारा मिलने वाली यह अटैंशन उसे काफी पसंद आएगी.

आप दोनों शादी के बाद हनीमून पर गए थे और अब पेरैंटिंग फेज में एंटर हो कर बेबीमून के फेज में हैं. आप अपनी पत्नी को पूरी तरह यकीन दिलाएं कि हमारी जिंदगी पूरी तरह बदलने वाली है लेकिन वह हमेशा आप के लिए उतनी ही अहमियत रखेगी.

पत्नी को सराहें कि वह कितना खूबसूरत तोहफा देने वाली है. आप उसे खुश करने के लिए उस की पसंद का तोहफा दे सकते हैं. इस तरह की रिटेल थेरैपी आप की पत्नी के मूड को उस वक्त अच्छा कर सकती है जब उसे ब्लौटिड या मौर्निंग सिकनैस महसूस हो रही हो.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

माटी का दीया : सुमि अपना पुराना समय वापस पा सकी

सुमि अपने कमरे में पलंग पर  यों ही खाली सी बैठी थी.  अब तक तो उसे तैयार हो जाना चाहिए था. उमेश आता ही होगा उसे लेने के लिए. आज उन की एक नई दुकान का मुहूर्त होना था और ऐसे अवसरों पर सुमि की उपस्थिति का महत्त्व तो होता ही है.

उस के पास ही पड़े डब्बे के अधखुले ढक्कन में से नई साड़ी झांक रही थी. यही उसे आज पहननी थी. सुमि ने ढक्कन उठा कर एक ओर रख दिया और साड़ी अपने हाथों में ले ली. पीले रेशम की चौड़े बौर्डर की यह साड़ी वास्तव में बहुत खूबसूरत थी. कपड़ों के विषय में उमेश की पसंद हमेशा ऊंची रही है.

सुमि को याद आया, जब उमेश उस के लिए पहली बार रेशम की साड़ी खरीद कर लाया था तो कैसे देर तक वह उस पर हाथ फिराफिरा कर साड़ी की रेशमी स्निग्धता को अपने भीतर उतारती रही थी. आज तो ऐसी अनगिनत साडि़यों से उस की अलमारियां भरी पड़ी थीं, किंतु एक समय वह भी था जब उस के लिए नई साड़ी खरीदने का मौका किसी तीजत्योहार पर ही आता था. तब जैसेतैसे कर के जमा की गई अपनी छोटी सी पूंजी जेब में ले कर वह और उमेश बड़ीबड़ी दुकानों के बाहर सजी, शीशे के भीतर से झांकती साडि़यों को कैसी ललचाई नजरों से देखा करते थे. अपनी वह अकिंचन पूंजी तब उन्हें ऐसी दुकानों के भीतर पांव रखने की अनुमति नहीं देती थी. घूमफिर कर किसी एक छोटी सी दुकान से मोलभाव कर के तब उन्हें वही साड़ी खरीदनी होती थी जो उन के बजट में समा जाए.

घर आने पर जब बाजार की चकाचौंध नजरों से ओझल हो जाती तो सुमि को अपनी वही साड़ी कीमती लगने लगती और वह उमेश से कहती, ‘नाहक इतने पैसे बरबाद किए. वही ले लेते, जो इस के पहले देखी थी. 50 रुपए की बचत हो जाती.’

किंतु उमेश के मन में वह चकाचौंध इतनी शीघ्र समाप्त नहीं होती थी, ‘सुमि, जल्द ही एक समय ऐसा आएगा जब मैं तुम्हें ढेर सारी साडि़यों से लाद दूंगा. ऐेसेऐसे गहने बना कर दूंगा कि सब देखते रह जाएंगे.’ उमेश के ऐसे उद्गारों पर सुमि फूली न समाती थी. कितना प्यार करता था वह उस से. उसी प्यार की सुगंध से महकी- महकी वह उस के कंधे पर सिर टिका देती और कहती, ‘तुम्हारी ये दोनों भुजाएं ही हजारों आभूषणों से बढ़ कर हैं.’

उमेश तब उसे अपनी बांहों में भर लेता और कहता, ‘तुम बहुत भोली हो, सुमि. इसीलिए तो मैं तुम से इतना प्यार करता हूं. मैं एक बड़ा आदमी बनना चाहता हूं और बन कर दिखाऊंगा.’

उसे बांहों में लिएलिए वह भविष्य के रंगीन सपनों में खो जाया करता था. तब बहुत आशावादी था उमेश.  शादी के तीसरे वर्ष सुमि ने एक बच्चे को जन्म दिया. दीवाली के दिन ही उन दोनों ने मिल कर उस का नाम रखा दीपक. उस दिन दोनों कितने प्रसन्न थे. अमावस की वह काली रात उन्हें ऐसी लग रही थी मानो सौसौ सूरज उग आए हों उन के जीवन में. उस के बाद तो उमेश का छोटा सा व्यवसाय दिन पर दिन बढ़ता ही गया मानो दीपक अपनी नन्ही हथेलियों में सुखसमृद्धि  रूपी प्रकाश को ले आया था. अब तो यह हाल हो गया कि उमेश के छूने से मिट्टी भी सोना बन जाती.

उमेश ने अपने वचन के मुताबिक सुमि को गहनों व कपड़ों से लाद दिया था. अपना छोटा सा घर छोड़ कर अब वे बडे़ घर में आ गए थे. इतने बड़े घर की देखभाल अकेली सुमि कर नहीं सकती थी इसलिए नौकरचाकर उस ने रख लिए. धीरेधीरे उस का रसोईघर भी एक कुशल रसोइए के हाथों में चला गया क्योंकि घर पर अब आएदिन पार्टियों के आयोजन होते रहते थे.

दीपक का कमरा खिलौनों से इस कदर भरा हुआ था कि वह कमरा कम, खिलौनों की दुकान अधिक लगता था. दीपक एक न एक खिलौना उठाए घर भर में चहकता फिरता था.

दौलत की यह बाढ़ बहुत कुछ ले कर आई मगर बहुत कुछ नष्ट भी कर गई. उमेश जब इस बाढ़ के पानी को लांघ कर उस तक पहुंचा तो वह उस का पहले वाला उमेश नहीं रह गया था. अब वह था उमेश चंद माथुर. शहर के प्रमुख व्यवसायियों में से एक. दिन पर दिन उस के गोदामों की संख्या बढ़ती जा रही थी. इस के लिए अनेक कर्मचारी व प्रबंधक थे. फिर भी अब तक ऊपरी देखभाल उमेश स्वयं ही करता था. सुबह 8 बजे जो वह घर से निकलता तो रात 10 बजे के पहले कभीकभार ही लौट पाता था.

आरंभ में तो अकसर उमेश सुमि से फोन पर कह दिया करता था कि दोपहर के खाने पर वह उस की प्रतीक्षा न करे, किंतु अब तो फोन आना भी बंद हो गया था क्योंकि अब यह रोजमर्रा की बात हो गई थी. अब तो रात का खाना भी सुमि अकसर अकेली ही खाती थी क्योंकि व्यवसाय के सिलसिले में उमेश की शामें किसी न किसी व्यापारी के साथ ही गुजरती थीं. फिर उसे ले कर वह किसी अच्छे रेस्तरां में खाना खा कर ही आता.

जब तक सुमि दीपक के साथ व्यस्त थी तब तक उसे समय उतना भारी मालूम नहीं पड़ता था. अपने खाली समय का एकएक क्षण वह दीपक की किलकारियों से भर लेती. लेकिन जल्दी ही दीपक के लिए एक आया का प्रबंध कर दिया गया. फिर 4 साल का होतेहोते उमेश ने दीपक को नैनीताल के एक नामी स्कूल के होस्टल में भेज दिया.

इस प्रकार सुमि का अकेलापन दिन पर दिन बढ़ता गया. उमेश चाहता था कि वह भी शेष संपन्न स्त्रियों की भांति किटी पार्टियों में जाया करे और अपने घर में भी ऐसी पार्टियों का आयोजन किया करे. इस से उस का समय आसानी से व्यतीत होता और धनाढ्य परिवारों की स्त्रियों में उस का उठनाबैठना भी होता. किंतु सुमि को यह सब बिलकुल पसंद न था. अपनी दौलत के नशे में डूब कर ताश के पत्ते फेंटती और किटी पार्टियों में अपने कपड़े और गहनों की नुमाइश करती स्त्रियों की बनावटी बातों से वह जल्दी ही ऊब जाती थी. वे सामने होने पर जिस से हंस कर बातें करतीं, पीठ पीछे उसी की बुराई करने लग जाती थीं. स्वयं को दूसरों से बड़ा कर के दिखाना ही उन का उद्देश्य होता था.

सुमि के लिए तो बस, वही दिन उत्साह से भरे होते थे जब उसे दीपक से मिलने होस्टल जाना होता था या दीपक अपनी छुट्टियां व्यतीत करने के लिए घर आने वाला होता था. तब वह दिनदिन भर बाजार घूम कर उस की पसंद की चीजें इकट्ठा करती थी. लेकिन दीपक के वापस जाते ही फिर वही खालीपन उसे घेर लेता था.

उमेश का साथ तो अब उसे किसी पार्टी व आयोजन में साथ जाने भर तक ही मिलता था. वहां जा कर भी वह अपने मित्रों में व्यस्त हो जाता था. देर रात में वे दोनों थके हुए लौटते और सो जाते. सुमि उन दिनों की याद में खो जाती, जब वे घंटों बैठे इधरउधर की बातें किया करते थे. अचानक दरवाजा खुला, तो सुमि की विचारशृंखला भंग हो गई.

‘‘तुम अभी तक ऐसे ही बैठी हो, दुकान से 2 बार फोन आ चुका है. सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’

‘‘अ…हां…अभी तैयार होती हूं,’’ अतीत की स्मृतियों को जबरन पीछे धकेल कर वह जैसे ही खड़ी हुई उसे जोर का चक्कर आने लगा. वह दोनों हाथों से सिर थाम कर पलंग पर निढाल गिर पड़ी.

यह देख कर उमेश ने घबराहट में नौकरों को आवाज दे डाली और स्वयं डाक्टर को टैलीफोन करने लगा. 15-20 मिनट में ही डाक्टर आ पहुंचे. इस बीच वह बौखलाया सा सुमि का सिर दबा रहा था तो कभी उस के ठंडे हाथों को अपने हाथों की गरमी पहुंचाने का प्रयत्न कर रहा था.

डाक्टर ने आ कर भलीभांति जांच की, एक इंजैक्शन लगाया और एक कागज पर कुछ दवाओं के नाम लिख दिए. उस ने उमेश को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘अधिक चिंता की वजह से इन के दिमाग पर बोझ है. डरने की कोई बात नहीं है. हां, कमजोरी काफी है पर जल्दी ही ठीक हो जाएंगी. लेकिन इन्हें अधिक प्रसन्न रखने का प्रयत्न कीजिए.’’

डाक्टर के जाते ही उमेश ने स्वयं न आ सकने की सूचना अपने प्रबंधक रामदयाल को दे दी और कहा कि कार्यक्रम की तारीख आगे बढ़ा दी जाए. फोन पर ही उस ने उस दिन के अपने शेष कार्यक्रम भी रद्द कर दिए और 1-2 दिन घर पर ही सुमि के साथ रहने का निश्चय किया.

सुमि को अभी तक होश नहीं आया था. उमेश पलंग के पास आरामकुरसी घसीट कर बैठ गया. कुरसी की पीठ से उस ने अपना सिर टिका दिया और आंखें मूंद लीं. एक अरसे के बाद ऐसी फुरसत से बैठना उसे नसीब हुआ था. उस ने अनुभव किया कि इन पिछले कुछ वर्षों में मानो वह तेज गति वाले वाहन पर सवार था, जिस की रफ्तार वह और अधिक बढ़ाता जा रहा था. एकाएक ही वाहन के आगे कोई छाया सी आई. तब उसे एक झटके से ब्रेक लगाना पड़ा. वाहन रुक तो गया लेकिन उस के रुकते ही वह छाया आहत हो चुकी थी, उतर कर देखा तो वह छाया कोई नहीं उस की सुमि ही थी.

‘‘नहीं,’’ ऐसे भयानक विचारों से घबरा कर उस ने अपने सिर को जोर का झटका दिया और आंखें खोल दीं. ‘‘क्या हुआ?’’ सुमि अपनी क्षीण आवाज में पूछ रही थी. अपने ही ध्यान में उसे पता न चल सका कि सुमि को होश आ गया है. उस ने लपक कर पहले उस के माथे पर हाथ रखा. फिर हलके हाथों से उस की दोनों बांहें सहला कर पूछने लगा, ‘‘कैसी हो, सुमि?’’

‘‘तुम क्या सोच रहे थे? गए नहीं? मैं अब ठीक हूं,’’ थकीथकी सी सुमि बोल रही थी.

उस की बात का उत्तर न दे कर उमेश ने रधिया को आवाज लगाई कि सुमि के लिए एक गिलास गरम दूध ले आए. ‘‘मैं ठीक हूं. तुम व्यर्थ में परेशान हो रहे हो. काम पर नहीं जाओगे आज?’’ सुमि ने पुन: उसे टोका.

‘‘आज कहीं नहीं जाऊंगा, सुमि. मैं बहुत तेज भाग रहा था, तुम ने मुझे चेता दिया. बस, तुम जल्दी ठीक हो जाओ, काम तो होते ही रहेंगे. तुम कैसी हो गई हो, मैं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया, आखिर तुम्हें किस बात का दुख है, सुमि?’’

‘‘मेरी अमावस मुझे लौटा दो, उमेश. वही शांत और स्निग्ध अमावस, जिस दिन मैं ने दीपक को जन्म दिया था. तुम्हारी दौलत की चकाचौंध से मुझे घबराहट होने लगी है. हम ने संपन्नता का सपना देखा तो साथसाथ था लेकिन उसे भोग रहे हैं अलगअलग. तुम मुझ से दूर चले गए हो, दीपक दूर हो गया है. मुझे मेरे दीपक की रोशनी लौटा दो. दीवाली आने में कुछ ही दिन रह गए हैं, तुम जा कर उसे ले आओ. कम से कम दीवाली पर तो उसे हमारे साथ होना चाहिए.’’

इतना कहने में ही सुमि थक सी गई और चुप हो कर उमेश के चेहरे पर नजर गड़ाए देखती रही. उमेश के भीतर भी भावनाओं का ज्वार उमड़ आया था.

‘‘मैं कल ही जाऊंगा और दीपक को अपने साथ ले कर आऊंगा, अब वह यहीं रहेगा हमारे साथ. आखिर इस शहर में अच्छे स्कूलों की कोई कमी तो है नहीं, अब वह यहीं पढ़ेगा.’’

‘‘सच, उमेश, सच कह रहे हो.’’

‘‘मैं न जाने किस अंधेरे में गुम हो गया था. मैं धन का अंबार तो लगाता गया पर यह न देख सका कि हमारे संबंध उस के नीचे दबते चले जा रहे हैं,’’ उमेश धीरेधीरे कह रहा था मानो अपनेआप से बात कर रहा हो.

डाक्टर की दवा से सुमि शीघ्र ही अच्छी हो गई, कुछ कमजोरी रह गई थी, लेकिन मन में उत्साह पुन: उमड़ने लगा था. वह पूरे मनोयोग से दीवाली की तैयारियों में जुट गई. तीसरे दिन दीपक को साथ ले कर उमेश लौट आया.

दीवाली के दिन हर साल की तरह उमेश चंद माथुर की कोठी आनेजाने वाले लोगों का ध्यान अपनी सजावट से आकर्षित कर रही थी. रंगबिरंगे बल्बों की लडि़यां पेड़पौधों तक को जगमगा रही थीं, लेकिन सुमि ने तो बाहर निकल कर वह सब देखा भी नहीं. वह तो माटी के दीयों में तेल भरने में व्यस्त थी और मन ही मन सोच रही थी कि माटी की पवित्रता की स्पर्धा भला बिजली के बल्ब कैसे कर सकेंगे.

दीपक मां के आसपास ही मंडरा रहा था. तभी उमेश भी भीतर आ गया, ‘‘लाओ, बाकी काम मैं खुद कर दूं, तुम जा कर तैयार हो जाओ.’’

सुमि काम छोड़ कर उठ खड़ी हुई और हंस कर उमेश की तरफ देखा. उमेश ने दीपक को अपने पास बुलाया और फिर दोनों मिल कर शेष दीयों में तेल भरने लगे. तब सुमि की आंखों में प्रसन्नता की नदी तैरने लग गई थी.

राहुल से शादी का सवाल क्यों किया गया क्योंकि शादी करना व्यक्तिगत जरूरत से ज्यादा औरतों को सामाजिक गुलाम बनाए रखना है 

लोकसभा के लिए देश में हो रहे चुनाव में राजनेता राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी की तरफ से इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. इस से पहले सोनिया गांधी यहां से चुनाव लड़ती थीं. राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी ने यहां चुनावप्रचार का पूरा जिम्मा उठा रखा है. वे अमेठी और रायबरेली का चुनाव प्रबंधन भी देख रही हैं.
रायबरेली में चुनावप्रचार के दौरान जब प्रियंका और राहुल गांधी प्रचार कर रहे थे तब वहां एक युवक ने राहुल गांधी से सवाल किया कि, ‘शादी कब करोगे?’ राहुल गांधी वह सवाल सही से सुन नहीं पाए तो प्रियंका गांधी ने हंसते हुए राहुल से कहा, ‘पहले उस के सवाल का जवाब दो.’ यानी, प्रियंका भी चाहती थीं कि राहुल शादी के बारे में कुछ मन बनाएं.
राहुल गांधी ने कौरेस्पौंडेंटों से पूछा, ‘सवाल क्या है?’ तो उक्त युवक ने अपना सवाल दोहरा दिया. वहां खड़े प्रमोद तिवारी, प्रियंका गांधी व दूसरे कई नेताओं के साथ खुद राहुल भी हंसने लगे. हंसते हुए ही राहुल गांधी ने कहा, ‘अब तो जल्दी ही करनी पडेगी.’
हमारे देश में शादी को ले कर सवाल बहुत पूछे जाते है. किसी भी लड़के या लड़की की शादी नहीं हुई, तो लोग पूछते हैं कि शादी क्यों नहीं की? राहुल गांधी और सलमान खान की तरह से तमाम लोग ऐसे हैं जिन से यह सवाल अकसर पूछा जाता है. सिंगल वुमेन की तुलना में कंआरी लड़की, जिस ने शादी नहीं की, से यह सवाल ज्यादा पूछा जाता है.

शादी सफलता का पैमाना नहीं

जिस तरह से रैली में हिस्सा ले रहे युवक ने राहुल गांधी से उन की शादी को ले कर सवाल किया लेकिन उस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कोई सवाल कर सकता है क्या कि अपनी पत्नी को साथ क्यों नहीं रखा? राहुल आम लोगों से अधिक कनैक्ट होने का प्रयास करते हैं, जनता के बीच सहज होते हैं, उन से एक परिवार का रिश्ता बनाने की बात करते हैं. ऐसे में उन से पर्सनल सवाल भी बिना हिचक के लोग पूछ लेते हैं. इस की वजह यह है कि पत्नी छोड़ देना समाज को स्वीकार है और कई देवताओं ने भी ऐसा किया जो नरेंद्र मोदी कर रहे हैं.
अब सवाल उठता है कि भारत में शादी का सवाल इतना गंभीर क्यों माना जाता है? क्या गैरशादीशुदा सफल नहीं होते या वे देश और समाज के लिए कमतर होते हैं? भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेई ने शादी नहीं की, वे भाजपा के पहले नेता थे जो देश के प्रधानमंत्री बने. वैज्ञानिक और राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी शादी नहीं की थी.
रतन टाटा ने भी शादी नहीं की पर उन का योगदान देश के विकास में कम नहीं. केवल पुरुषों में ही नहीं, महिला नेताओ में भी जिन्होंने शादी नहीं की वे भी सफल रही हैं. जयललिता, ममता बनर्जी और मायावती किसी से कम नहीं हैं. इन की देश और समाज के विकास में ख़ास भूमिकाएं रही हैं. शादी न करने से सफलता का कोई मतलब नहीं होता. असल में गैरशादीशुदा ज्यादा परिपक्वता के साथ काम कर सकते हैं.

शादी औरतों को गुलाम बनाए रखने की साजिश

शादी औरतों को गुलाम और कमजोर बनाए रखने की साजिश होती है. चार्ल्स डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत के हिसाब से देखें तो यह बता पता चल सकती है कि औरतों को कमजोर रखने की साजिश हजारों साल पहले से शुरू हो गई थी. इस के पीछे धर्म एक बड़ा रोल रहा. जिस समय आदमी और औरत पेड़ों से उतर कर होमो इरेक्टस या होमो सेपियंस बने उस समय इंसान के रूप में उन की कदकाठी करीबकरीब एकजैसी थी. पुरुष को यह बात पंसद नहीं थी कि औरत उस के जैसी ताकतवर, लंबी कदकाठी की रहे. ऐसे में पुरुषों ने सैक्स और बच्चा पैदा करने के लिए उन औरतों को ज्यादा पसंद किया जो कमनीय काया की होती थीं. जो मर्द जैसी दिखती थीं उन को दरकिनार किया जाने लगा. उस का धीरेधीरे यह प्रभाव हुआ की औरतें कमनीय काया वाली होने लगीं. आदमियों जैसी औरतें कम होने लगीं. इस तरह से औरतों को कमजोर बनाया गया.
कमजोर बनाने के बाद अब जरूरत यह थी कि उन को गुलाम कैसे बनाया जाए? इस के लिए जरूरी था कि उन को परिवार और बच्चों तक सीमित रखा जाए. जीवों में स्तनधारी समूह की खासीयत यह होती है कि उन की मादा अपने बच्चे को अपना दूध पिला कर बड़ा करती है. इस में गाय, बकरी, भेड़, भैंस, ऊंट, चमगादड़, व्हेल मछली, कंगारू, बंदर और इंसान प्रमुख रूप से आते हैं.

सैक्स और बच्चे पालने की जरूरत

स्तनधारियों में इंसान दो तरह से अलग होता है. पहले, उस का सैक्स जीवन दूसरे जीवों की तरह केवल प्रजनन के लिए नहीं होता. दूसरे, जीव सैक्स केवल प्रजनन के लिए करते हैं. उन के प्रजनन काल का एक खास समय होता है. एक बार मादा गर्भवती हो जाए तो पशु में नर उस के साथ सैक्स नहीं करता है. इंसान इस से अलग है. नर इंसान के लिए महिला के गर्भवती होने का कोई प्रभाव नहीं होता. महिला तब तक बच्चे को जन्म दे सकती है जब तक उस के गर्भ में अंडाणु बनते रहें.
नर के शुक्राणु बनने की प्रक्रिया में उम्र की कोई सीमा नहीं होती. किशोरावस्था से यह बनना शुरू हो जाते हैं जो बुढ़ापे तक बनते रहते हैं. ऐसे में वह किसी भी उम्र में बच्चे पैदा कर सकता है. मादा मेनोपौज के बाद बच्चे नहीं पैदा कर सकती. इंसान में प्रजनन के अलावा भी सैक्स संबंधों की इच्छा होती है. ऐसे में नर के लिए मादा का साथ होना जरूरी होता है. औरत को दूसरे जिस काम के लिए ज्यादा जरूरत होती है वह होता है बच्चे का पालना. सभी जीवों में इंसान का ही बच्चा ऐसा होता है जिस का बचपन सब से लंबा होता है. उसे पालनपोषण के लिए मां की जरूरत होती है.
औरत बच्चे पैदा करे और मर्द की सैक्स की जरूरत को पूरा करे, इस के लिए परिवार को साथ रहने की जरूरत थी. बच्चा पैदा करना इसलिए जरूरी था जिस से कि अलगअलग झुंड अपनी अहमियत बनाए रखें. यही भावना झुंड से होते हुए कबीलों में बदली, फिर देश और राज्य बनने लगे. सीमाओं का विस्तार हुआ. जिस के पास अधिक पुरुष होते थे वह लड़ाई जीत लेता था. अब व्यवस्था इस तरह की बनी कि औरत का काम बच्चे पैदा कर के उस की देखभाल करे. बूढ़े औरतआदमी घर में रहने लगे. आदमी कबीलों, राज्यों की ताकत बन कर युद्ध में जाने लगे.
ऐसे में मर्द का काम बच्चा पैदा कर के लड़ने वालों की फौज को तैयार करना था जो अपने देश, धर्म, जाति, कबीले और समाज के लिए लड़ सके. पहले औरत को कमजोर किया गया जिस से उस में शारीरिक क्षमता कम हो. वह पुरुष के मुकाबले ताकत में कम हो. औरत की शारीरिक ताकत भले कम हो, उस में प्यार की एक अलग ताकत ने जन्म लिया. इस का मानसिक प्रभाव उस को ताकतवर बनाता है. इस प्यार के कारण ही वह दूसरे जीवों के मुकाबले सैक्स संबंधों में अपने पार्टनर को कम बदलती है.

शादी के बंधन में बंधी औरत की आजादी

औरत को क्रमिक रूप से कमजोर किया गया. इस के बाद उस को एहसास कराया गया कि उस की रक्षा के लिए पुरुष की बेहद जरूरत है. कभी पिता, कभी भाई, कभी पति के रूप में उसे एक पुरुष चाहिए. इन संबंधों को बांधने के लिए शादी की डोर बांधी गई. वहां भी भेदभाव किया गया. 1956 के पहले जो हिंदू विवाह कानून था उस में कई तरह के रीतिरिवाजों से शादियां की जाती थीं. एक से अधिक शादी करना भी पुरुष के लिए गलत नहीं था. औरतों के लिए बंधन था कि वह दूसरी शादी नहीं कर सकती. वह तलाक नहीं ले सकती. उसे पतिव्रता बन कर रहना है. वह पति के साथ चिता में जल सकती है. सतीप्रथा का सिद्धांत भी उस के लिए ही था.
शादी एक तरह का ऐसा बंधन था जिस में प्यार और परिवार के नाम पर औरत को बांधने का काम किया जाता था. पुरुष कई शादियां करने के लिए आजाद था. देश आजाद हुआ तो 1956 में विवाह कानून बना जिस के तहत औरतों को उत्तराधिकार और तलाक का अधिकार दिया गया. इस के बाद भी सदियों से मानसिक गुलामी औरतों ने सही थी. उस के बाद वह उसी में रचबस गई है. वह आज भी पुरुषवादी सत्ता की गुलाम है. बिना किसी कानून के गुलाम है. इस की वजह यह है कि धर्म उस के जीवन के लिए ऐसे रीतिरिवाज बनाने में सफल रहा है जो कानून से भी अधिक ताकतवर हैं.

धर्मसत्ता के लिए शादी है जरूरी

औरतों को सब से अधिक पुरुष के नाम पर डराया जाता है. औरत को उस के बेटे और पति के नाम पर डराया जाता है. इन के नाम पर उस से धर्म के बंधन में जकड़ कर रखा जाता है. वह इन रीतिरिवाजों को तोड़ने की सोच भी नहीं सकती. इस के लिए जरूरी है कि आदमी शादी जरूर करे. अगर वह शादी नहीं करेगा तो औरत उस की गुलाम कैसे बनेगी. यह वह मानसिकता है जिस में हर पुरुष यह चाहता है कि दूसरा पुरुष भी शादी करे. औरत भी चाहती है कि दूसरी औरत भी शादी करे जिस से की वे आपस में बराबर रह सकें. बिना शादी वाली औरत के फैसले अलग होंगे. समाज उस को अलग रूप से देखेगा.
आज पढ़ीलिखी औरतें भी गुलामी की मानसिकता के साथ पुरुषवादी सत्ता से बाहर नहीं आ सकी हैं. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिलाएं भी बिना पुरुष यानि पति से पूछे कोई बड़ा काम नहीं करती हैं. उन के लिए मेरा पति मेरा देवता होता है. पतियों को देवता मानने वाली औरतों की संख्या कम न हो, लड़ने के लिए मर्द कम न हों, इस के लिए शादी जरूरी है. गैरशादीशुदा आदमी से इतने सवाल पूछो की वह शादी करने को मजबूर हो जाए. शादी धर्मसत्ता को बनाए रखने का सब से प्रमुख हथियार है, जिस की गुलामी से औरतें न आजाद हो सकती हैं, न ही वे आजाद होना चाहती हैं.
देश की बड़ी पार्टी का बड़ा नेता राहुल गांधी इस सामाजिक गुलामी करने के षड्यंत्र का हिस्सा न बनें, यह लोगों को पच नहीं रहा. वे देवताओं वाले काम करने वाले, अपनी पत्नी को छोड़ने वाले से कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं रखते.

‘चारधाम यात्रा’ मोक्ष के चक्कर में बेमौत मर रहे श्रद्धालु

शादाब शम्स एक बेहद वफादार भाजपाई नेता और विकट के मोदीभक्त हैं. उत्तराखंड भाजपा के प्रवक्ता रहे शादाब को 2 साल पहले उत्तराखंड वक्फ बोर्ड का चेयरमैन बनाया गया है. 15 मई को वे रुड़की स्थित पिरान कलियर दरगाह साबिर पाक में खासतौर से गए थे जहां उन्होंने चादरपोशी के बाद लंगर भी खिलाया और अपने अल्लाहतआला से दुआ मांगी कि नरेंद्र मोदी ही तीसरी बार प्रधानमंत्री बनें क्योंकि न केवल देश को, बल्कि दुनिया को भी उन की जरूरत है जो हर लिहाज से बुरे दौर, जंग और अस्थिरता से गुजर रही है.

इस मौके पर नरेंद्र मोदी की तारीफों में कसीदे गढ़ती जम कर कव्वालियां भी हुईं. शादाब उन इनेगिने मुसलिम नेताओं में से एक हैं जो नरेंद्र मोदी को मुसलमानों का सच्चा हमदर्द मानते हैं. वे मानते हैं कि मोदी के राज में मुसलमान खतरे में नहीं हैं.

लेकिन उन्हीं के राज्य उत्तराखंड में हिंदू खतरे में हैं, यह बात उन्होंने ठीक 2 साल पहले खुल कर इन शब्दों में बयां की थी- देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी के आव्हान पर चारधाम यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ रही है. जिन लोगों की यात्रामार्ग में मौत हो जाती है तो, उन के मुताबिक, उन्हें मोक्ष मिलेगा. लोगों की चारधाम के प्रति सच्ची आस्था है.

इस पर कांग्रेस क्यों खामोश रहती, लिहाजा, पलटवार में उस की प्रवक्ता प्रतिमा सिंह ने कहा, ‘चारधाम यात्रा में मोक्ष का मतलब मृत्यु नहीं है बल्कि श्रद्धालु धाम में पहुंच कर अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त कर सुखद जीवन की कामना करता है.’

2022 और 2023 में भी सैकड़ों श्रद्धालु चारधाम यात्रा के दौरान मारे गए थे. इस साल 14 मई को ही यह आंकड़ा दहाई अंक में पहुंच गया है. 10 मई को यह यात्रा शुरू हुई थी और 4 दिनों में ही 11 श्रद्धालु मोक्ष या मृत्यु कुछ भी कह लें को प्राप्त हो चुके थे. अगर हालत यही रही, जिस की उम्मीद ज्यादा है, तो मरने वालों की तादाद कितने सौ पार करेगी, गारंटी से इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहां मामला राजनीति का नहीं, बल्कि धर्म का है.

15 मई तक ही 27 लाख से भी ज्यादा श्रद्धालु चारधाम यात्रा का रजिस्ट्रेशन करा चुके थे. इस संख्या के इस साल 80 लाख तक पहुंचने की संभावना है. यह अपनेआप में एक रिकौर्ड होगा. 15 मई तक ही कोई 2 लाख 76 हजार श्रद्धालु धामों के दर्शन भी कर चुके थे. रोज हजारों नए भक्त पहाड़ों पर पहुंच रहे हैं, वहां गंद और प्रदूषण फैला रहे हैं. इन्हें संभाल पाना किसी सरकार तो दूर की बात है अब भगवान के बस की भी बात नहीं. 11 श्रद्धालु मर चुके थे तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने इन पहाड़ों और उन की दुर्गम यात्रा में बेहाल होंगे.

15 मई को उमड़ी भीड़ से यमुनोत्री धाम के रास्ते पर 4 किलोमीटर लंबा जाम लगा था जिस के चलते श्रद्धालु खानेपीने और मलमूत्र त्यागने तक को तरस गए थे. जैसे ही यमुनोत्री धाम के कपाट खुले, आदत के मुताबिक, लोग मंदिर की तरफ दौड़ पड़े मानो ट्रेन छूटी जा रही हो या हाट लुटी जा रही हो. जगहजगह जाम और बदइंतजामी के चलते प्रशासन ने औफलाइन रजिस्ट्रेशन पर रोक लगा दी जो हरिद्वार और ऋषिकेश में हो रहे थे. लेकिन इस से रास्ते में फंसे यात्रियों को कोई राहत नहीं मिली जिन्हें पैदल चलने भी जगह नहीं मिल रही थी. यह स्थिति अभी भी सुधरी नहीं है. अफरातफरी और भगदड़ न मचे, इस बाबत श्रद्धालुओं को जगहजगह रोक दिया गया. इस वक्त तक अकेले यमुनोत्री के रास्ते पर 6 भक्त मर चुके थे.

पिछले साल, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, चारधाम यात्रा में 200 श्रद्धालुओं की मौत हुई थी जिन में सब से ज्यादा 96 केदारनाथ में मरे थे. यमुनोत्री धाम में 34 , गंगोत्री धाम में 29 और बद्रीनाथ धाम में 33 श्रद्धालु मारे गए थे जबकि हेमकुंड साहिब में 7 और गोमुख ट्रैक पर एक मौत हुई थी. इस के पहले 2022 में 232 श्रद्धालुओं की मौत हुई थी जबकि 2021 में 300 लोग मरे थे. यानी, हर साल सैकड़ों लोग, बकौल शादाब शम्स, मोक्ष को प्राप्त होते हैं और सरकार खामोशी से इस मुक्ति को देखती रहती है.
मीडिया के जरिए वह दावा जरूर करती है कि सबकुछ चाक चौबंद है लेकिन हकीकत इस से कोसों दूर होती है. 14-15 मई को हजारों यात्रियों ने अपने व्हीकल्स में रात गुजारी. पार्किंग इंतजाम के क्या ही कहने. खानेपीने का कोई ठौरठिकाना नहीं था लेकिन इस का जिम्मेदार अकेले सरकार को नहीं ठहराया जा सकता. उस से ज्यादा तो वे भक्त दोषी हैं जो पाप, मुक्ति और मोक्ष की चाहत में मुंह उठा कर चारधाम यात्रा पर निकल पड़ते हैं, जो कईयों के लिए आखिरी यात्रा साबित होती है.

पहाड़ों पर मौसम का बदलना बहुत आम है. कभी भी तेज बारिश होने लगती है, लैंड स्लाइडिंग के नजारे भी आम हैं. बर्फबारी होने से पूरा ट्रैफिक जाम हो जाता है. 2013 में आफत बाढ़ की शक्ल में आई थी और चारों धामों में बैठा भगवान भी कुछ नहीं कर पाया था. तब मोक्ष फुटकर में नहीं, बल्कि थोक में मिला था. ऐसे हादसों से धर्म के अंधे कुछ सीखते होते तो आज जान जोखिम में डाल कर यह आत्मघाती यात्रा न करते.

गंगोत्री मार्ग पर 6 दिनों से फंसे कोई 7 हजार भक्त खून के आंसू रो दिए थे. जिन्हें पानी की बोतल 50 रुपए में खरीदना पड़ा था और एक बार शौच जाने के सौ रुपए अदा करने पड़े थे. टैक्सीवाले इन दिनों और इन हालात में मनमाना किराया वसूलते हैं, जिन पर किसी का कोई जोर नहीं चलता. लेकिन उन की कोई खास गलती नहीं जब लोग अपनी मरजी से लुटने आते हैं तो वे क्यों कोई रहम करेंगे, वे तो पैसे ले कर मदद ही करते हैं.

ये तमाम परेशानियां अभी शुरुआती दौर में हैं जिन्हें भांपते कुछ ही समझदार श्रद्धालु वापस लौट रहे हैं. मीडिया भी गा-गा कर यह बता रहा है कि चारधाम यात्रा के वक्त क्याक्या सावधानियां रखें, मसलन बीमार लोग दवाइयां साथ रखें, हार्ट, शुगर और बीपी के मरीज ये और वे एहतियात रखें वगैरहवगैरह ताकि परेशानी न हो. यह कोई नहीं कह रहा कि पाप, मुक्ति और मोक्ष तो काल्पनिक बातें हैं, धर्म के दुकानदारों के गढ़े हुए कहानीकिस्से हैं ये. मौत एक वास्तविकता ही सही लेकिन जान जोखिम में डालना खुदकुशी करने जैसा ही काम है, जिस से एक ही सूरत में बचा जा सकता है कि आप वहां न जाएं.

जड़ में मोक्ष और पापमुक्ति

खतरों से वाकिफ होने के बाद भी लोग क्यों मौत के मुंह में जाते हैं, यह सच खुलेतौर पर दरगाह पर चादर चढ़ा कर नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की मन्नत मांगने वाले धर्मभीरु शादाब शम्स बता चुके हैं. लेकिन हिंदू धर्मग्रंथ, धार्मिक मान्यताएं और गढ़े गए पौराणिक किस्सेकहानियों में मोक्ष और पापमुक्ति के लिए चारधाम यात्रा करने के लिए इफरात से उकसाया गया है.

यह आम मान्यता है कि चारधाम की यात्रा करने से मोक्ष मिलता है और पापों से मुक्ति भी मिलती है. शिवपुराण के मुताबिक, केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन और पूजन के बाद जो भी व्यक्ति जल ग्रहण करता है उस का पृथ्वी पर दोबारा जन्म नहीं होता. लोग कहीं केदारनाथ के ही दर्शन-पूजन कर न खिसक लें, इसलिए यह गप भी जोड़ दी गई है कि केदारनाथ के बाद अगर बद्रीनाथ के दर्शन-पूजन नहीं किए तो फल नहीं मिलता. इसलिए जो लोग केदारनाथ जाते हैं वे आठवां वैकुण्ठ कहे जाने वाले बद्रीनाथ की यात्रा भी करते हैं. यानी वहां के पंडेपुजारियों को भी दानदक्षिणा देते हैं. रोजीरोटी के मुफ्त के इंतजाम की यह एक और बेहतर मिसाल है.

इन मंदिरों में मुख्य शिवलिंग है लेकिन वैष्णवों को लुभाने के भी किस्से हैं. मसलन, भगवान विष्णु बद्रीनाथ धाम में विश्राम करते हैं. इस की स्थापना उन्होंने सतयुग में ही कर दी थी. यहां वे नरनारायण रूप में हैं. सारे पापों के नष्ट हो जाने और मोक्ष की गारंटी का शिवपुराण के कोटि रूद्र संहिता में भी जिक्र है.

एक और किस्से के मुताबिक पांडवों ने इन्हीं पहाड़ों में शिव की आराधना की थी क्योंकि उन्हें अपने ही भाइयों यानी कौरवों को मारने का गिल्ट मन में था. यह कहानी पुराने जासूसी उपन्यासों सरीखी रोमांचक है कि शिव पांडवों को आता देख छिप गए लेकिन पांडवों ने उन्हें देख लिया और उन के पीछेपीछे चलने लगे. यह देख शिव ने भैंसे का रूप रख लिया. भीम ने उन्हें अपनी एक खास ट्रिक से पहचान लिया. आखिर में शिव पांडवों की भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हें पापमुक्ति का वरदान दे दिया. दूसरी कहानियों की तरह यह कहानी भी कम दिलचस्प नहीं जिस के तहत भैंसा बने शिव का मुंह नेपाल में निकला जिसे पशुपति नाथ मंदिर कहा जाता है.

और एक कहानी के मुताबिक, आदि शंकराचार्य यहीं कहीं धरती में समाए थे लेकिन समातेसमाते अपने भक्तों के लिए गरम पानी का एक कुंड बना गए थे.
अब भला ऐसे दर्जनों किस्सेकहानियों को सुन कर किस भक्त का जी पापमुक्ति के लिए नहीं मचलेगा कि पहले तो भाइयों की हत्या करने जैसा जघन्य अपराध करो और फिर केदारनाथ जा कर पापमुक्त हो जाओ. यहां यह तर्क कोई नहीं करता कि विष्णु के अवतार कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के दौरान ही अर्जुन को गीता का उपदेश देते कहा था कि दुश्मन अगर भाई हो तो उसे टपका देने से पाप नहीं लगेगा बल्कि यश मिलेगा.

मजेदार बात तो यह भी है कि हरेक तीर्थस्थल पर मोक्ष और पापमुक्ति का विधान है. काशी में तो जगहजगह लिखा है कि यहां जो मरता है उसे मोक्ष मिलता ही मिलता है. जब यह सहूलियत हर जगह है तो चारधाम ही क्यों, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि खुद श्रद्धालुओं के दिलोदिमाग में इन कहानियों को सुन शंका रहती है कि वाकई में असल मोक्ष कहां मिलेगा, इसलिए मोक्ष के मारे वे यहां से वहां भटकते व दानदक्षिणा देते रहते हैं.

ये भक्त इतने अंधविश्वासी होते हैं कि मुमकिन है कि मन में यह मन्नत ले कर जाते हों कि हे प्रभु, चारधाम की यात्रा में ही कहीं हमें उठा लेना जिस से जन्ममरण के चक्र से मुक्ति मिले. ऊपरवाला अभी तक 11 की सुन चुका है, पिछले सालों में कितनों की सुनी थी, यह ऊपर बताया ही जा चुका है.

हम भाईबहन के रिश्ते में दूरी आ गई है, क्या करूं?

सवाल

हम भाईबहन के रिश्ते में दूरी आ गई है. क्या करूं?

हम बहनभाई की उम्र में सिर्फ डेढ़ साल का फर्क है. भाई मु?ा से बड़ा है. मेरी उम्र 26 साल की है और 4 महीने पहले ही मेरी शादी हुई है. मेरी शादी के एक महीने बाद ही भाई की शादी हो गई. हम भाईबहन में बहुत प्यार था. सारी बातें एकदूसरे से शेयर करते थे. लेकिन पता नहीं क्यों शादी के बाद भाई के पहले जैसे प्यार के लिए मैं तरस गई हूं. उदास रहने लगी हूं. पति सम?ाते हैं कि शादी के बाद अकसर ऐसा हो जाता है, वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा, मैं कुछ ज्यादा ही सोच रही हूं. लेकिन मु?ो कुछ अच्छा नहीं लग रहा. आप ही बताएं, ऐसा क्या करूं कि सब पहले जैसा हो जाए?

जवाब

भाईबहन का रिश्ता ऐसा खूबसूरत रिश्ता है जिस में प्यार, लगाव, दोस्ती, केयर सब होता है. बचपन से लड़ने?ागड़ने वाले भाईबहन बड़े होने पर एकदूसरे के सब से बड़े सपोर्टर बन जाते हैं. हालांकि, भाईबहन की शादी के बाद उन के रिश्ते में कुछ बदलाव आने लगता है. दोस्तों की तरह रहते भाईबहन के जीवन में उन के जीवनसाथी के आने के बाद आपसी दूरी बढ़ने लगती है.

आप के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा है. वजह जो हमें नजर आ रही है, पहली तो यह है कि आप की शादी भाई की शादी से पहले हो गई और भाईभाभी दोनों के साथ रहने का आप को मौका नहीं मिला. कहने का मतलब है कि भाभी के साथ आप की बौंडिंग बन ही नहीं पाई. आप की भी नईनई शादी हुई थी, इसलिए आप भी अपनी नई गृहस्थी, परिवार में बिजी हो गईं.

फिर जैसे आप अपनी गृहस्थी में बिजी हो गईं वैसे ही आप का भाई भी अपनी नई शादी, पत्नी, परिवार में बिजी हो गया और इस बात से तो आप भी इनकार नहीं करेंगी कि शादी के बाद पति के लिए पत्नी सब से अहम हो जाती है. आप की नईनई शादी हुई है, आप भी तो चाहती होंगी कि आप का पति आप को सब से ज्यादा अहमियत दे. हर चीज में पहले आप को रखे. यही स्थिति आप के भाई की भी होगी, इस बात को आप सम?ाने की कोशिश करें.

आप के पति सम?ादार हैं. वे सही कह रहे हैं कि शादी के बाद अकसर ऐसा हो जाता है लेकिन वक्त के साथसाथ सब नौर्मल हो जाता है.

आप कुछ ज्यादा ही सोच रही हैं. चीजों को अपने हिसाब से ठीक करने की कोशिश करनी चाहिए. फोन पर भाभी से बात करती रहें. थोड़ी गप्पें मारें, कुछ उन की सुनें, कुछ अपनी कहें, भाभी की सहेली बनने की कोशिश करें. भाभी की हरसंभव मदद करने की कोशिश कीजिए. जिस से वे अपनी ससुराल (जो आप का मायका है) में आसानी से घुलमिल जाएं. इस से भाभी और आप के बीच प्यार बढ़ेगा. भाभी से प्यार बढ़ेगा तो भाई से दोगुना प्यार मिलेगा.

कभीकभी मायके जाएं तो भाईभाभी के लिए तोहफा जरूर ले जाएं. भाईभाभी के सामने कोई डिमांड न रखें, न ही उन के बीच आने की कोशिश करें. रिश्ते कांच की तरह होते हैं. संभाल कर रखने होने हैं. धूलमिट्टी नहीं पड़ने देंगे, तो चमकते रहेंगे.

क्यों घर से भाग कर पछताती नहीं लड़कियां

लड़कियों, खासतौर से नाबालिगों, का घर से भागना हमेशा से ही बड़ी परेशानी रही है. लड़कियां आखिर क्यों घर से भागने पर मजबूर हो जाती हैं, इस के पीछे जो वजहें जिम्मेदार मानी जाती रही हैं उन में खास हैं गरीबी, अशिक्षा, घरेलू कलह, घर में बुनियादी सहूलियतों का न होना, घर में प्यार की जगह नफरत और अनदेखी किया जाने और रातोंरात हेमा मालिनी व माधुरी दीक्षित बन जाने की उन की अपनी ख्वाहिश. लेकिन अब यह पूरा सच नहीं रहा, कुछ बदलाव इस में भी आ रहे हैं.

इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट यानी आईआईएम इंदौर की एक ताजी रिपोर्ट की मानें तो आजकल घर से भागने वाली अधिकतर लड़कियां बाहरी चकाचौंध की गिरफ्त में आ कर नहीं भाग रहीं और न ही उन के सिर पर अब फिल्म ऐक्ट्रैस बनने का भूत सवार रहता है. हां, यह जरूर है कि उन के घर से भागने की अहम वजहें घर में होने वाली रोकटोक,    झगड़े और दीगर परेशानियां हैं. ज्यादातर लड़कियां अब अपना कैरियर बनाने के लिए भाग जाती हैं क्योंकि घर पर रहते हुए उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता है.

इस रिपोर्ट, जिस में 5 साल के आंकड़े शामिल हैं, के मुताबिक गुमशुदगी वाले बच्चों में 13 से 17 साल की लड़कियां ज्यादा होती हैं. आईआईएम इंदौर ने पुलिस के सहयोग से उन इलाकों में जांचपड़ताल यानी रिसर्च की जहां से बच्चे ज्यादा गायब होते हैं. ये वे इलाके हैं जहां शहरी लोग भी रहते हैं और स्लम यानी कि    झुग्गियां भी हैं.

हैरानी वाली एक बात यह उजागर हुई कि गुम होने वाले बच्चों में 75 फीसदी लड़कियां होती हैं. रिसर्च के दौरान 75 ऐसे मामलों पर काम किया गया तो यह खुलासा भी हुआ कि कम उम्र की लड़कियां जिन लड़कों के साथ भागीं उन में अधिकतर की उम्र 18 से 23 साल है और वे लड़कियों के जानपहचान वाले पड़ोसी या रिश्तेदार हैं.

कैरियर की चाह

आईआईएम की टीम ने जब इन लड़केलड़कियों से बात की तो दिलचस्प बात यह भी सामने आई कि कोई 50 फीसदी लड़कियां वापस घर नहीं लौटना चाहतीं और घर से भागने के अपने फैसले को भी वे गलत नहीं मानतीं. जाहिर है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है और वे अपनी मौजूदा जिंदगी व हालात से खुश हैं.

स्लम इलाकों की तंग जिंदगी कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही जहां लड़कियों के हिस्से में डांटफटकार और शोषण ही आते हैं. जैसे ही इन लड़कियों को यह एहसास होता है कि भेदभाव करने वाले मांबाप उन्हें बो   झ सम   झते हैं तो वे बगावत करने पर उतारू हो आती हैं. एक बेहतर कल की उम्मीद उन्हें बाहर दिखती है तो ये उम्र में अपने से थोड़े बड़े लड़के का हाथ थाम घुटनभरी जिंदगी से नजात पाने को घर छोड़ जाती हैं.

इन लड़कियों को यह भी सम   झ आ जाता है कि उन के भाग जाने से कोई पहाड़ मांबाप पर नहीं टूट पड़ना है. हां, इस बात का अफसोस जरूर उन्हें होगा कि मुफ्त की नौकरानी हाथ से छूट गई जो नल से पानी भर कर लाती थी, खाना बनाती थी,    झाड़ूबुहारी करती थी, कपड़े भी धोती थी और इस से ज्यादा अहम यह कि गुस्सा उतारने के काम भी आती थी जिसे कभी भी डांटापीटा जा सकता था.

शायद बाहर कुछ अच्छा हो या मिल जाए, यह आस लिए वे गुलामीभरी जिंदगी को ठोकर मार भाग जाती हैं. यह भी वे सोच चुकी होती हैं कि भाग कर भी अगर यही नरक मिला तो उसे भी भुगत लेंगे. लेकिन एक उम्मीद तो है कि शायद तनहाई में देखे गए वे सपने पूरे हो जाएं कि मेरा भी अपना अलग एक वजूद है, सांस लेने को खुली हवा है और प्यार करने वाला जानू साथ है जो मेरे लिए मेरी ही तरह अपना घरद्वार छोड़ने को तैयार है.

जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही. कई बार उन का पाला एक और बड़े नर्क से भी पड़ता है जिस की दुश्वारियों को इन लड़कियों ने फिल्मों और वीडियोज में देखा होता है. फिर भी वे रिस्क उठाती हैं क्योंकि उन्हें फौरी तौर पर घुटनभरी जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. आईएमएम इंदौर की रिसर्च बताती है कि आधी लड़कियों के सपने पूरे हो जाते हैं. बची आधियों में जरूरी नहीं कि उन के हिस्से में बदतर जिंदगी ही आती होगी. हां, उन में से कुछ जरूर गलत हाथों में पड़ कर ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती हैं जिस में रोजरोज मरना पड़ता है. ये वे लड़कियां होती हैं जो ट्रैफिकिंग यानी तस्करी का शिकार हो जाती हैं.

इन की चिंता कितनों को है और इन की बाबत क्या कुछ किया जाता है, इस का कोई रिकौर्ड किसी के पास नहीं. अलबत्ता कई खबरें जरूर आएदिन मीडिया की सुर्खियां बनती हैं कि देहव्यापार के दलदल में फंसी इतनी या उतनी लड़कियों को छुड़ाया गया. इस के बाद क्या होता है, यह कोई नहीं जानता. घरवापसी के इन के रास्ते बंद हो चुके होते हैं, लिहाजा, ये यहां से वहां भटकती रहती हैं. चंद लड़कियों को कोई एनजीओ सहारा और रोजगार दे देता है पर तब तक इन लड़कियों के सपने और हालात से लड़ने की हिम्मत दोनों पूरी तरह टूट चुके होते हैं.

और जिन के सपने पूरे हो जाते हैं उन्हें मानो दोनों जहां मिल जाते हैं. जाहिर है, ये लड़कियां प्लान बना कर और सोचसम   झ कर घर छोड़ती हैं. उन के सपने भी बहुत छोटे होते हैं कि बस एक घरगृहस्थी हो, साथ रहते प्यार करने वाला और खयाल रखने वाला पार्टनर हो. पैसा तो ये छोटेबड़े काम कर कमा ही लेती हैं. कम पढ़ीलिखी ये लड़कियां अपने भले को ले कर चौकन्नी भी रहती हैं. दुनियादारी तो वे अपने घर और बस्ती में बहुत कम उम्र में सीख चुकी होती हैं.

यह ठीक है कि कुछ भी कर लिया जाए, बच्चों का घर से भागना पूरी तरह खत्म या बंद नहीं हो सकता लेकिन इसे कम किया जा सकता है. इस के लिए जरूरी है कि बच्चों के साथसाथ मांबाप की भी काउंसलिंग हो जिस के तहत उन्हें यह बताया जाए कि लड़कियां कोई बो   झ नहीं होतीं बल्कि मौका मिले तो कई मामलों में लड़कों को भी मात दे देती हैं. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि उन्हें पढ़ाया जाए, उन के साथ भेदभाव और मारपीट न की जाए, उन में कोई हुनर है तो उसे निखारा जाए और उन्हें भी लड़कों के बराबर सहूलियतें व आजादी दी जाए.

तीर्थस्थल बने मैरिज डैस्टिनेशन

धर्म के नाम पर मानसिक गुलामी के तौरतरीके एकदो ही नहीं हैं बल्कि बहुत सारे हैं. हर धर्म की चेष्टा रहती है कि उस के भक्तों का पलपल उस के नियंत्रण में रहे चाहे वे उस नियंत्रण में सुखी रहें या दुखी. धर्म दक्षिणा वसूलने का अधिकार तो रखता है, उसे नियंत्रण करने का अधिकार भी रखता है लेकिन मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का उस का कोई दायित्व नहीं होता.

चारधाम यात्राओं के कारण उत्तराखंड और्केयोलौजिकल डिजास्टर की ओर बढ़ रहा है और नए निर्माणों के कारण वहां की खोखली जमीन धंसने लगी है. धार्मिक स्थलों को अब केवल स्वर्ग पाने की सीढ़ी नहीं बनाया जा रहा बल्कि डैस्टिनेशन मैरिजों का केंद्र भी बनाया जा रहा है. मजेदार बात यह है कि ये विवाह रिजौर्टों में नहीं, मंदिरों में हों, ऐसा प्रचारित किया जा रहा है. उखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में ऐसा ही एक मंडप बनाया गया है.

धर्मप्रचार चूंकि मौखिक प्रचार से चलता है और लोग उस की असलियत छिपा कर उस का बड़ा गुणगान करते हैं, इसलिए यह सफल भी होगा. जो भक्त होते हैं वे सब कष्ट सह लेते हैं पर धर्मपालन करते समय होने वाली किसी परेशानी को वे होंठों तक नहीं लाते.

विवाह दो जनों का आपसी समझौता है. इस पर सदियों से धर्मों ने कब्ज़ा कर लिया है. धर्म ने नियम भी बना डाले और उन्हें लागू भी करवा डाला. धर्म के दखल से विवाह सुखी हुए हों, ज्यादा चले हों, कोई विधुर न हुआ हो, बच्चे हुए हों, जो बच्चे हुए वे सभी स्वस्थ हुए हों इस सब की गारंटी किसी धर्म ने नहीं ली. शादी पर रिश्तेदारों, दोस्तों का जमावड़ा तो हो जाता है पर बाद में कोई तकलीफ होती है तो सब कन्नी काट जाते हैं, वह धर्म का दुकानदार भी जिस के प्रांगड़ में या जिस की मौजूदगी में शादी हुई थी.
धर्म न तो बाल विवाह रोक पाया, न दहेज रोक पाया, न आत्महत्याओं के अभिशाप से औरतों को मुक्ति दिला पाया, न औरतों को सौतनों से बचा पाया. दरअसल धर्म की ऐसी कोई रुचि भी नहीं थी कि विवाह बाद सबकुछ ठीक रहे. शिवपार्वती और रामसीता के विवाहों तक में जब विवाद होते रहे तो कलियुग के पुजारीपंडे भला क्यों कोई गारंटी लेंगे पर विवाह के समय वे नए दंपती को लूटने में आगे रहते हैं.

विवाह जब से होटलों और रिजौर्टों में होने लगे हैं, शहरों के बीच बनी मंदिरों के साथ की धर्मशालाओं में विवाह का धंधा लगभग चौपट हो गया है. जो शानबान ये होटल या रिजौर्ट उपलब्ध कराते वह मंदिर या धर्मशाला में संभव नहीं. सो, लोग छिटकने लगे और एक विवाह में धर्म के दुकानदारों को बहुत छोटा सा अंश ही विवाह संपन्न करते समय मिलने लगा. सो, अब उत्तराखंड या अन्य धार्मिक स्थल, जो शहरों से कुछ दूर हैं और जिन के आसपास मंदिरों की बड़ी जमीन है, डैस्टिनेशन मैरिज के लिए हाथपैर मार रहे हैं. उन्हें व लोगों को लालच दिया जा रहा है कि भगवानों की नजरों के नीचे हुए विवाह ज्यादा सुखी होंगे.

ऐसे भक्त लाखों में हैं जो विवाह में मंदिरों को इस्तेमाल कर के अपने को धन्य समझेंगे. इस्कान, जो आधी विदेशी संस्था है और जिस का प्रबंधन पढ़ेलिखे कुछ देशी, कुछ विदेशी लोगों ने हथिया लिया, विवाह आयोजन बड़ी सफलता से करा लेता है. उन्हें प्रबंधन की कला आती है. उन्होंने तो मंदिर ही इस तरह बनाए हैं कि उन में 400-500 लोग ठहराए जा सकें. पूजाओं के दिनों में वहां काफी लोग ठहरते हैं और अब तो वहां शादियां कर के भी ठहरने लगे हैं.

अब बाकी मंदिर भी यही करेंगे और कुछ करने भी लगे हैं. जिन के पास खाली जगह है वे वहां आकर्षक टैंट लगाने लगे हैं. वहां चूंकि पैसा सीधे ज्यादा नहीं लिया जाता, इसलिए परिवार को लगता है कि काम सस्ते में हो रहा है. हालांकि, मंदिर के प्रबंधन वाले एक तो हर बराती से मूर्ति के सामने चढ़ावा के तौर पर कुछ पा ही जाते हैं और फिर हर बराती का नामपता मंदिर में जमा हो जाता है, सो महीनोंसालों तक वे मार्केटिंग करते रहते हैं. ईसाइयों में तो हर विवाह चर्च में ही होता है. वहां प्रीस्ट बाहर कम जाता है, लोग विवाह कराने चर्च में आते हैं.

बहरहाल, शादी के बहाने यह अच्छी कमाई है जिसे हिंदू मंदिर अब तक हासिल नहीं कर रहे थे. अब यह शुरू हो गया है. विवाह कराने वाला तो धर्म का एजेंट ही होगा, अब स्थान और खानेपीने की व्यवस्था भी उसी के पास होगी. वहीं, इस विवाह में दहेज नहीं होगा, बाद में पति का रौद्र रूप नहीं होगा, इस की कोई गारंटी नहीं. सुविधा केवल विवाह के दिन के लिए है. विवाह के बाद की सर्विसिंग चाहिए तो उस के लिए अलग से खर्च करना पड़ेगा.

यूएसए यूएसए : उस बुजुर्ग ने क्या कहा?

आजकल इन पेरैंट्स के पास एक ही काम है. गंगाधर उन पेरैंट्स की बात कर रहा है जिन के पुत्रपुत्री नौकरी के वास्ते सात समुंदर पार अमेरिका जा बैठे हैं. बेटे के साथ बहू, बेटी के साथ दामाद भी हैं. हमारी या आप की भी जितने ऐसे लोगों से फोन पर बात होती है या आमनेसामने की मुलाकात तो उस में से न्यूनतम आधे थोङी ही देर बाद वार्तालाप को अमेरिका पर मोड़ लाते हैं. वे कहेंगे कि यूएसए जा रहे हैं या वहां हैं.थे या वहां से आए हैं जस्ट.

कल बाजार में परिचित शर्माजी मिल गए अब सेवानिवृत अधिकारी हैं. हायहैलो हुई. यहांवहां की बातें हुईं. उन्होंने मुझ से कहा कि इस समय तो स्थानीय निकाय चुनाव के कारण व्यस्त होंगे. चूंकि वे गले तक यूएसए से भरे हुए थे इसलिए मेरे जवाब देने तक उन से रहा न गया.

बोले,”मुझे भी औब्जर्वर का काम दे रहे थे पर मैं ने मना कर दिया क्योंकि अगले सप्ताह यूएसए जाना था.”

मैं ने कहा,”क्यों जा रहे हैं?”

बोले,”बस बेटीदामाद हैं. उन के पास जा रहे हैं. यही तो एक काम हम लोगों के पास बचा है. कभी बेटीदामाद तो कभी बेटाबहू के पास.”

परसों की बात है. भोपाल साहित्य संस्थान की आगामी काव्य गोष्ठी में एक मूर्धन्य साहित्यकार बेधड़कजी को मुझे आमंत्रित करना था. इसलिए हम ने फोन किया पर लगा नहीं. हम ने व्हाट्सऐप पर मैसेज डाला. तुरंत ही जवाब आ गया क्योंकि बहुतायत लोगों की तरह वे भी व्हाट्सऐप पर नजरें गङाए हुए थे. मैसेज था कि अभी बच्चे के पास यूएसए में हैं. कोई जा रहा है यूएसए. कोई पहले से गया हुआ है. कोई बस पिछले सप्ताह ही वापस लौटा है, जैसे भूत, वर्तमान व भविष्य सब अमेरिका में ही बस सुरक्षित हैं।

हां, याद आया कि पिछले सप्ताह की ही तो बात है. साहित्यिक पत्रिका अभिलाषा के कार्यालय यों ही जाना हुआ. वहां के संपादक मेरे परिचित हैं. वे वहां उस दिन मिले नहीं. वहां एक खरेजी हैं. उन से पता चला कि अभी कल ही यूएसए से लौटे हैं. 24 घंटे की यात्रा के बाद थकेमंदे हैं. इसलिए 1-2 दिन बाद कार्यालय आएंगे. खरेजी ने आगे यह भी फरमाया कि अब उन को यूएसए जाना है, बेटीदामाद अगले सप्ताह की टिकट बुक कर रहे हैं.

जिन के बेटेबिटिया अमेरिका में हैं, उन मांबाप को उतार की आयु में घडी़घङी यूएसए जाने का काम ही शेष रह जाता है क्या? जब देखो तब वे यूएसए जा रहे हैं या वहां पहले से हैं या कि अभीअभी लौटे हैं.

बेटाबहू या बेटीदामाद टिकट पहले से बुक करवा कर भेज देते हैं. क्यों नहीं भेजेंगे, दोनों कामकाजी जो हैं. अब अमेरिका कोई भारत तो है नहीं कि वहां ₹5-10 हजार में घरेलू काम करने वाला मिल जाए. वहां तो झाङू लगाने वाला भी कार मैंटेन करता है. वैसे, आज के यहां के माहौल से अच्छा है कि आप परदेश में ही रहें. न जाने कब कौन आप का गला व्हाट्सऐप की किसी पोस्ट पर रेत दे.

एक और फायदा है कि उतने दिन आप यहां की टीवी चैनलों की अंतहीन निरर्थक बहसों से भी और नेताओं के ऊलजलूल बयानों से भी बचे रहेंगे. यह सब स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होगा.

वैसे, सौ बात की एक बात तो यह है कि मांबाप, सासससुर से अच्छा देखभाल करने वाला कोई दूसरा मिल भी नहीं सकता. नातीनातिन, पोतेपोतियों के सुख का आकर्षण अपनी जगह है ही. मांबाप, सासससुर की आजकल बल्लेबल्ले है जो यूएसए पहले कभी जा नहीं पाए. वे सब बेटे या दामाद के नौकरीशुदा होने पर यूएसए पर्यटन की ड्यूटी तो बजाते ही हैं, रिजल्टैंट थोङा घूमनाफिरना तो होना ही है. अब यार, इतनी ड्यूटी पूरी करोगे तो बेटेबहू, बेटीदामाद को घूमनेफिरने की व्यवस्था की ड्यूटी करना तो बनता ही है.

जब बूढ़ेबुढ़िया पोतेपोती की सब तरह की देखभाल करते हैं तो ऐसा प्रेम और ज्यादा पल्लवित और पुष्पित होता ही है. आश्चर्यजनक मगर सत्य है कि हिंदुस्तानी मांबाप का स्टैमिना बढ़ती उम्र के साथ मंहगाई की तरह चढ़ता ही जाता है. यदि ऐसा नहीं होता तो कैसे घुटनोंपीठ व कंधे के दर्द से सराबोर घिसट के चलने वाले, बीपी, मधुमेह से पीड़ित 20-24 घंटे की उडा़न हेतु खुशीखुशी तैयार हो जाते हैं. पहले अपने कसबाई शहर से प्रादेशिक राजधानी आओ. वहां से मुंबई दिल्ली आओ. फिर वहां से फ्लाइट अमेरिका के एक शहर की पकडो़. आखिरकार, बेटे या बेटी के श्हर की दूसरी कनैक्टिंग फ्लाइट.

अब तो ऐसे पेरैंट्स भी हो गए हैं जो ताल ठोंक कर कहते हैं कि यह उन की 7वीं या 11वीं यूएसए विजिट है या थी. गिनीज बुक इस बात का भी रिकौर्ड दर्ज करने रिकौर्ड पर ले सकती है.

गंगाधर को लगता है कि इस देश में बुजुर्ग पेरैंट्स की 2 श्रेणियां बन गई हैं. एक जिन के बच्चे यूएसए में नौकरी कर रहे हैं, दूसरे जिन के नहीं कर रहे हैं. जब बातबात पर बंटवारा है तो इन के भी दो फाड़ होने में कौन सी नई चीज है. देश तो और भी हैं जिन में बच्चे गए होते हैं लेकिन इन देशों के नाम से वह यूएसए वाला भाव कहां आता है. जब पेरैंट्स मूंछों पर ताव दे कर (यदि कोई हो तो) कहता है कि यूएसए जा रहा हूं या यूएसए में हूं या 2 माह के बाद जस्ट लौटा हूं.

नरसों की ही बात है, अलसुबह कालोनी के पार्क में कुछ वरिष्ठ रोज की तरह टाकमय वौक कर रहे थे.  चढ्ढा जी ने जब कहा कि उन का बेटा पिछले सप्ताह सिंगापुर चला गया है तो किसी ने कान तक नहीं दिया. लेकिन जैसे ही तिवारीजी ने कहा कि बेटा यूएसए आने दो, टिकटें अगले माह की भेज रहा है तो सब के कान खडे़ हो गए. अब जिन के बच्चे यूएसए में नही हैं वे हीन महसूस न करें तो और क्या करें, आप ही सुझाएं.

अपने एक कजिन से सालभर पहले हुई बात याद आ रही है. लौकडाउन था न. सब एकदूसरे से बात करने को उतावले रहते थे. सब को एकदूसरे के बारे में अंदेशा जो था कि बात कर लो पता नहीं फिर मिलें की नहीं. कजिन न यूएसए जा रहा था न वहां था. और न ही वहां से जस्ट लौटा था. फिर भी परेशान यूएसए के नाम से ही था. असल में उस की बेटी वहां लौकडाउन के कारण 2 साल से फंसी थी. उस से जब भी बात करो तो 10 मिनट की बात में 9 मिनट यूएसए का ही जिक्र आ जाता था.

‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की तरह यूएसए बच्चे वाले एक पेरैंट्स श्रेष्ठ पेरैंटस्. आखिर भले ही वहां स्कूलों, मौलों, सार्वजनिक स्थानों में आएदिन गोलीबारी हो कर दर्जनों निर्दोषों को मार दिया जाता हो. अश्वेत की हत्या पुलिस ज्यादती से हो जाती हो.एअरपोर्ट पर पूरे कपडे़ उतरवा कर जांच करवाता हो फिर भी वहां जा कर आदमी गौरवान्वित होता हो.

शाहरुख खान के जब कपडे़ उतरवा कर उन के हमनाम किसी आतंकवादी के कारण जांच के नाम पर काफी समय के लिए रोका गया था तो उन्होंने कहा था,”मुझे जब हीरोगिरी चढ़ती है तो मैं यूएसए की ओर भागता हूं पर वे हर बार मेरी हीरोगिरी निकाल देते हैं.”

यूएसए की बात छिपती नहीं. ऐसे पेरैंट्स यूएसए को स्वर्ग बताने की पोस्ट फेसबुक, इंस्टा पर बराबर डालते रहते हैं. अरे भैया, जिन के बच्चे नही हैं यूएसए में या जो जा नहीं पाए वहां उन के जले में नमक क्यों छिड़कते हो. ऐसे पेरैंट्स पर ऐसी पोस्ट देख कर क्या बीतती है, उन से कभी पूछो भी तो. ऐसे पेरैंट्स फिर कहते हैं कि सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तां हमारा.

रीता सा शजरे बहारां

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कनुप्रिया पार्किंग में गाड़ी में बैठी सोच रही थी कि कैसे दिन गुजारा जाए, उसी क्षण बालों को ठीक करने के स्टाइल से उसे पहचान लिया. ढेर सारी बातें यह पक्का करने के लिए कीं कि वह वही है न लेकिन…

 

 

 

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