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देवदासी: एक प्रथा जिसने छीन लिया सिंदूर

लेखकरा. श्यामसुंदर

मेरा नाम कुरंगी है और मेरी मां ही नहीं, मेरी दादी -परदादी भी देवदासी थीं. शायद लकड़दादी भी. खैर, मां ने वैसे विधिवत ब्याह कर लिया था. लेकिन जब उन के पहली संतान हुई तो उसे तीव्र ज्वर हुआ और उस ज्वर में उस बच्चे की आंखें जाती रहीं. उस के बाद एक और संतान हुई. उसे भी तीव्र ज्वर हुआ और उस तीव्र ज्वर में उस की टांगें बेकार हो गईं और वह अपाहिज हो गया.

बस, फिर क्या था. लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि यह देवताओं का प्रकोप है. अगर हम देवदासियों ने देवता की चरणवंदना छोड़ दी तो हमारा अमंगल होगा. इसलिए जब मैं होने वाली थी तब मां ने मन्नत मानी थी कि अगर मुझे कुछ नहीं हुआ तो वह फिर से देवदासी बन जाएंगी.

पैदा होने के बाद मुझे दोनों भाइयों की तरह तीव्र ज्वर नहीं हुआ. मां इसे दैव अनुकंपा समझ कर महाकाल के मंदिर में फिर से देवदासी बन गईं. मां बताती हैं, पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, लेकिन उन्होंने एक न सुनी और मुझे ले कर महाकाल के मंदिर में आ गईं.

मंदिर के विशाल क्षेत्र में हमें एक छोटा सा मकान मिल गया. हमारे मकान के सामने कच्चे आंगन में जूही का एक मंडप था और तुलसी का चौरा भी. रोज शाम को मां तुलसी के चौरे पर अगरबत्ती, धूप, दीप जला कर आरती करती थीं और मुंदे नयनों से ‘शुभं करोति कल्याणं’ का सस्वर पाठ करती थीं. झिलमिल जलते दीप के मंदमंद प्रकाश में मां का चेहरा देदीप्यमान हो उठता था और मुझे बड़ा भला लगता था.

जब मैं छोटी थी तब मैं मां के साथ मंदिर में जाती थी. जब मां नृत्य करने के लिए नृत्य मुद्रा में खड़ी होतीं तो मैं गर्भगृह में लटकते दीवटों को एकटक निहारती रहती थी और सोचती रहती थी कि गर्भगृह में सदा इतना अंधेरा क्यों रहता है. कहीं यह ईश्वर रूपी महती शक्ति को अंधेरे में रख कर लोगों को किन्हीं दूसरे माध्यमों से भरमाने का पाखंड मात्र तो नहीं?

ऐसा लगता जैसे देवदासियों का यह नृत्य ईश्वर की आराधना के नाम पर अपनी दमित वासनाओं को तृप्त करने का आयोजन हो. वरना देवालय जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे नृत्यों का क्या प्रयोजन है, जिन में कामुकतापूर्ण हावभाव ही प्रदर्शित किए जाते हों.

देवस्थान के अहाते में बैठे दर्शनार्थियों की आंखें सिर्फ देवदासियों के हर अंगसंचालन और भावभंगिमाओं पर मंडराती रहतीं. पहले तो मुझे ऐसा लगता था जैसे ईश्वर आराधना के बहाने वहां आने वाले युवकों द्वारा मां का बड़ा मानसम्मान हो रहा है. हर कोई उस के नृत्य की सराहना कर रहा है.

लेकिन यह भ्रम बड़ा होने पर टूट गया और यह पता लगते देर नहीं लगी कि नृत्य  की सराहना एक बहाना मात्र है. वे तो रूप के सौदागर हैं और नृत्य की प्रशंसा के बहाने वे लोग इन नर्तकियों से शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहते हैं. तब मुझे लगा कि इन देवदासियों के जीविकोपार्जन का अन्य कोई साधन भी तो नहीं.

मुझे लगा, कहीं मुझे भी इस वासनापूर्ण जीवन से समझौता न करना पड़े. फिर लगा, स्वयं को दूसरों को समर्पित किए बगैर उस मंदिर में रहना असंभव है. मेरी सहेलियां भी धन के लोभ में खुल्लमखुल्ला यही अनैतिक जीवन तो बिता रही हैं और मुझ पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रही हैं.

वैसे मैं बचपन से ही मंदिर में झाड़नेबुहारने, गोबर से लीपापोती करने, दीयाबाती जलाने, कालीन बिछाने, पालकी के पीछेपीछे चलने, त्योहारों, मेलों में वंदनवार सजाने और प्रसाद बनाने का काम करती थी.

दूरदूर से जो साधुसंत या दर्शनार्थी आते हैं, उन  के बरतन मांजने, कपड़े धोने, उन को मंदिर में घुमा लाने, उन के लिए बाजार से सौदा लाने का काम भी मैं ही किया करती थी. कभीकभी किसी का कामुकतापूर्ण दृष्टि से ताकना या कुछ लेनदेन के बहाने मुझे छू लेना बेहद अखरने लगता था. कभीकभी वे छोटे से काम के लिए देर तक उलझाए रखते.

मुझे अपना भविष्य अंधकारमय लगता. कोई राह सुझाई न देती. मां की राह पर चलना बड़ा ही घृणास्पद लगता था और न भी चलूं तो इस बात की आशंका घेरे रहती थी कि कहीं मुझे भी देवताओं का कोपभाजन न बनना पड़े.

दिन तो जैसेतैसे बीत जाता था पर सांझ होते ही जी घबराने लगता था और मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगती थीं. मां तो मंदिर में नृत्य करने चली जाती थीं या अपने किसी कृपापात्र को प्रसन्न करने और मैं अकेली जूही के गजरे बनाया करती थी.

उस दिन भी मैं गजरा बना रही थी. मैं अपने काम में इतनी मग्न थी कि मुझे इस बात का पता ही नहीं चला कि कोई मेरे सामने आ कर मेरी इस कला को एकटक निहार रहा है.

चौड़े पुष्ट कंधों वाला, काफी लंबा, गौरवर्ण, बड़ीबड़ी आंखें, काली घनी मूंछें, गुलाबी मोटे होंठ, ठुड्डी में गड्ढे, घने काले बाल. ऐसा बांका सजीला युवक मैं ने पहली बार देखा था. मेरी तो आंखें ही चौंधिया गईं, जी चाहा बस, देखती ही रहूं उस की मनमोहक सूरत.

‘‘आप गजरा अच्छा बना लेती हैं.’’

मैं उस की ओजस्वी आवाज पर मुग्ध हो उठी. हवा को चीरती सी ऐसी मरदानी आवाज मैं ने पहले कभी नहीं सुनी थी.

‘‘आप लगाते हैं?’’

‘‘मैं,’’ वह खिलखिला कर हंस पड़ा. उस की उज्ज्वल दंतपंक्ति चमक उठी. फिर एक क्षण रुक कर वह बोला, ‘‘गजरा तो स्त्रियां लगाती हैं.’’

तभी एक युवक अपने दाएं हाथ में गजरा लपेटे घूमता हुआ आता दिखाई दिया. मैं ने कहा, ‘‘देखिए, पुरुष भी लगाते हैं.’’

‘‘लगाते होंगे लेकिन मुझे तो स्त्रियों को लगाना अच्छा लगता है.’’

‘‘आप लगाएंगे?’’ इतना कहते हुए मुझे लज्जा आ गई और मैं अपने मकान की तरफ भागने लगी.

‘‘अरे, आप गजरा नहीं लगवाएंगी?’’ वह युवक पूछता रह गया और मैं भाग आई.

मेरा हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा. यह क्या कर दिया मैं ने? कहीं मैं अपनी औकात तो नहीं भूल गई?

अगले दिन और उस के अगले दिन भी मैं उस युवक से बचती रही. वह मुचुकुंद की छाया में खड़ा रहा. फिर अपने घोड़े पर सवार हो कर चला गया. तीसरे दिन वह नहीं आया और मैं ड्योढ़ी में खड़ी उस की प्रतीक्षा करती रही. चौथे दिन भी वह नहीं आया और मैं उदास हो उठी.

सोचने लगी, क्या मैं उस के मोहजाल में फंसी जा रही हूं? मैं क्यों उस युवक की प्रतीक्षा कर रही हूं? वह मेरा कौन लगता है? लगा, हवा के विरज झोंकों से जिस तरह वृक्ष झूमने लगते हैं और आकाश में चंद्रमा को देख कर कुमुदिनी खिलने लगती है, उसी तरह उस के मुखचंद्र को देख कर मैं प्रफुल्ल हो उठी थी और उस की निकटता पा कर झूमने लगी थी.

एक दिन मैं उसी के विचारों में खोई हुई थी कि उस ने पीछे से आ कर मेरे सिर के बालों में गजरा लगा दिया. इस विचार मात्र से कि उस युवक ने मेरे बालों में गजरा लगाया है मेरे मन में कलोल सी फूटने लगी. फिर न जाने क्यों आशंकित हो उठी. गजरा लगाने का अर्थ है विवाह. क्या मैं उस से विवाह कर सकूंगी? फिर देवताओं का कोप?

‘‘नहीं…नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती,’’ और मैं पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी.

उस युवक ने मुझे झिंझोड़ कर पूछा, ‘‘क्यों? आखिर क्यों?’’

‘‘मैं देवदासी की कन्या हूं.’’

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘मैं भी देवदासी ही बनूंगी.’’

‘‘सो भला क्यों?’’

‘‘यही परंपरा है.’’

‘‘मैं इन सड़ीगली परंपराओं को नहीं मानता.’’

‘‘न…न, ऐसा मत कहिए. मां ने भी ऐसा ही दुस्साहस किया था,’’ और मैं ने उसे मां और अपने अपाहिज भाइयों के बारे में सबकुछ बता दिया.

‘‘यह तुम्हारा भ्रम है. ऐसा कुछ नहीं होगा. मैं तुम से विवाह करूंगा.’’

‘‘मां नहीं मानेंगी.’’

‘‘अपनी मां के पास ले चलो मुझे.’’

‘‘मैं आप का नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘मेरा नाम इंद्राग्निमित्र है. मैं महासेनानी पुष्यमित्र का अमात्य हूं.’’

‘‘आप तो उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं और मैं एक क्षुद्र दासी. नहीं…नहीं, आप ब्राह्मण तो देवता के समान हैं और मैं तो देवदासी हूं. देवताओं की दासी बन कर ही रहना है मुझे.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है अगर तुम उस प्रस्तर प्रतिमा की दासी न बन कर मेरी ही दासी बन जाओ.’’

उस का अकाट्य तर्क सुन कर मैं चुप हो गई. लेकिन मेरी मां कैसे चुप्पी साध लेतीं?

जब इंद्राग्निमित्र ने मां के सामने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोलीं, ‘‘न…न, गाज गिरेगी हम पर अगर हम यह अधर्म करेंगे. पहले ही हम ने कम कष्ट नहीं झेले हैं. 2-2 बच्चों को अपनी आंखों के सामने अपाहिज होते देखा है मैं ने.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा. लीक पीटना मनुष्य का नहीं पशुओं का काम है, क्योंकि उन में तार्किक बुद्धि नहीं होती,’’ इंद्राग्निमित्र ने कहा.

बहुत कहने पर भी मां न…न करती रहीं. आखिर इंद्राग्निमित्र चला गया और मैं ठगी सी खड़ी देखती रही.

अगले 2 दिनों तक इंद्राग्निमित्र का कोई संदेश नहीं आया.

तीसरे दिन एक अश्वारोही महासेनानी पुष्यमित्र का आदेश ले आया. मां को मेरे साथ महासेनानी पुष्यमित्र के सामने उपस्थित होने को कहा गया था.

इतना सुनते ही मां के हाथपांव कांपने लगे. इंद्राग्निमित्र की अवज्ञा करने पर महासेनानी उसे दंड तो नहीं देंगे? वह शुंग राज्य का अमात्य है. चाहता तो जबरन उठा ले जा सकता था. लेकिन नहीं, उस ने मां से सामाजिक प्रथा के अनुसार मेरा हाथ मांगा था और मां ने इनकार कर दिया था.

महासेनानी पुष्यमित्र का तेजस्वी चेहरा देख कर और ओजस्वी वाणी सुन कर मां गद्गद हो उठीं.

कुशलक्षेम के बाद महासेनानी ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘जानती हो, मेरी बहू इरावती और अग्निमित्र की पहली पत्नी देवदासी थी?’’

तर्क अकाट्य था और मां मान गईं. इंद्राग्निमित्र के साथ मेरा विवाह हो गया. मां भी मेरे साथ मेरे महल में आ कर रहने लगीं…जब मुझे 2 माह चढ़ गए तो मां की आशंकाएं बढ़ने लगीं और वह इस विचारमात्र से कांपने लगीं कि कहीं मेरी संतान भी दैव प्रकोप से अपाहिज न हो जाए.

लेकिन मां की शंका निर्मूल सिद्ध हुई. मेरे एक स्वस्थ कन्या पैदा हुई.

हमारे प्रासाद में जाने कितने नौकरचाकर थे. उन सब के नाम मां को याद नहीं रहते थे और मां एक के बदले दूसरे को पुकार बैठती थीं. फिर कहतीं, ‘‘जब मेरी ही यह हालत है तो उस ईश्वर की क्या हालत होगी? अरबोंखरबों जीवों का वह कैसे हिसाबकिताब रखता होगा?’’

कहीं यह कोरी गप तो नहीं कि परंपरा से हट कर चलने से वह श्राप दे देता है? आखिर ये परंपराएं किस ने चलाई हैं? हम लोगों ने ही तो. ये मंदिर हम ने बनवाए. यह देवदासी प्रथा भी हम ने ही प्रचलित की.

इन्हीं दिनों बौद्ध भिक्षु आचार्य सोणगुप्त बोधगया से पधारे. इंद्राग्निमित्र उन्हें अपना अतिथि बना कर अपने प्रासाद में ले आए.

मैं अचंभे में पड़ गई. बाद में पता चला कि सोणगुप्त इंद्राग्निमित्र के सहपाठी ही नहीं अंतरंग मित्र भी रहे हैं. लेकिन इंद्राग्निमित्र को राजनीति में दिलचस्पी थी और सोणगुप्त को बौद्ध धर्म में. इसलिए इंद्राग्निमित्र अमात्य बन गए और सोणगुप्त बौद्ध भिक्षु.

वर्षों बाद मिले मित्र पहले तो अपने विगत जीवन की बातें करते रहे, फिर धर्म और राजनीति पर चर्चा करने लगे.

इंद्राग्निमित्र बोले, ‘‘राज्य व्यवस्था धर्म के बल पर नहीं चलनी चाहिए. राजनीति सार्वजनिक है और धर्म वैयक्तिक. एक भावना से संबंध रखता है तो दूसरा कार्यकारण से. इसलिए मैं राज्य व्यवस्था में धर्म का हस्तक्षेप गलत मानता हूं.’’

‘‘तो फिर राज्य व्यवस्था को भी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.’’

‘‘नहीं, देवदासी प्रथा हिंदू धर्म पर कोढ़ है और मैं समझता हूं राज्य की तरफ से इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए.’’

‘‘हिंदू धर्म के लिए तुम जो करना चाहते हो सो तो करोगे ही. अब लगेहाथ बौद्ध धर्म के लिए भी कुछ कर दो.’’

‘‘आज्ञा करो, मित्र.’’

‘‘मित्र, बोधगया में हम एक और विहार की जरूरत महसूस कर रहे हैं. प्रस्तुत विहार में इतने बौद्ध भिक्षु- भिक्षुणियां एकत्र हैं कि चौंतरे और वृक्ष तले सुलाना पड़ रहा है. अभी तो खैर वे खुले में सो लेंगे लेकिन वर्षा ऋतु में क्या होगा, इसी बात की चिंता सता रही है. अगर तुम एक और विहार बनवा दो तो बहुत सारे बौद्ध भिक्षुभिक्षुणियों के आवास की समस्या हल हो जाएगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तुम निश्चिंत रहो. मैं थोड़े दिनों के बाद बोधगया आ कर इस का समुचित प्रबंध कर दूंगा.’’

सोणगुप्त आश्वस्त हो कर लौट गए.

इंद्राग्निमित्र देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए व्यग्र हो उठे. इस प्रथा का अंत कैसे हो? क्यों न इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए और राज्य भर में घोषणा कर दी जाए. यह निश्चय कर के वह महासेनानी पुष्यमित्र के पास गए.

‘‘महासेनानी, देवदासियों की वजह से मंदिर व्यभिचार और अनाचार के गढ़ बन गए हैं. और मैं चाहता हूं कि इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया जाए.’’

‘‘विचार तो बुरा नहीं, लेकिन इस पर प्रतिबंध लगाने पर काफी विरोध होने की आशंका है. अगर तुम डट कर इस विरोध का प्रतिरोध कर सको तो मुझे कोई आपत्ति नहीं.’’

इंद्राग्निमित्र ने राज्य की तरफ से देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध लगते ही इंद्राग्निमित्र की आलोचना होने लगी.

‘‘थू,’’ मंदिर की एक देवदासी ने पान की पीक इंद्राग्निमित्र के मुंह पर थूक दी.

इंद्राग्निमित्र अपमान की ग्लानि से भर उठे. फिर भी वह अपने विचार पर अडिग रहे. अगले दिन रथयात्रा थी और रथ के आगेआगे देवदासियां नृत्य करती हुई चलने वाली थीं. इंद्राग्निमित्र अपने दलबल के साथ वहां पहुंच गए.

लोग तरहतरह की बातें करने लगे. ‘‘बड़ा आया समाज सुधार करने वाला. देवदासी का उन्मूलन करने वाला…अरे, एक देवदासी को घर बसा लिया तो क्या हुआ? किसकिस का घर बसाएगा? धार्मिक मामलों में दखल देने वाला यह कौन होता है?’’

रथ को तरहतरह के फूलों से सजा कर सब दीयों को जला दिया गया. रथ के आगे ढोल बजाने वाले आ कर खड़े हो गए. उन्हें घेरे असंख्य नरनारी आबालवृद्ध एकत्र हो गए. पालकी के पास चोबदार खड़े थे और कौशेय में लिपटे पुजारी. पालकी के दोनों ओर सोलह शृंगार किए देवदासियां नृत्य मुद्रा में खड़ी हो गईं.

इस से पहले कि वे नृत्य आरंभ करतीं अपने घोड़े पर सवार इंद्राग्निमित्र वहां आ गए और बोले, ‘‘रोको. ये नृत्य नहीं कर सकतीं. देवदासियों पर प्रतिबंध लग चुका है.’’

हिंदू धर्म में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले उबल पड़े. कुछेक प्रगतिशील विचारों वाले युवकों ने उन का विरोध किया. दर्शनार्थी 2 दलों में बंट गए और दोनों में मुठभेड़ हो गई. पहले तो मुंह से एकदूसरे पर वार करते रहे. जिस के हाथ में जो आया उठा कर फेंकने लगा, पत्थर, ईंट, गोबर.

जुलूस में भगदड़ मच गई. इंद्राग्निमित्र  भ्रमित. यह क्या हो गया. वह दोनों गुटों को समझाने लगे लेकिन कोई नहीं माना. तभी उन्होंने अपने वीरों को छड़ी का उपयोग कर के भीड़ को नियंत्रित करने का आदेश दिया. क्रोधोन्मत्त भीड़ भागने लगी. तभी किसी ने इंद्राग्निमित्र की तरफ भाले का वार किया और वह अपनी छाती थाम कर कराहते हुए वहीं ढेर हो गए.

मेरी मांग सूनी हो गई और मैं विधवा हो गई. अब मेरे आगे एक लंबा जीवन था और था एकाकीपन. महल के जिस कोने में जाती इंद्राग्निमित्र से जुड़ी यादें सताने लगतीं. जीवन अर्थहीन सा लगता.

संवेदना प्रकट करने वालों का तांता लगा रहता. इसी बीच सोणगुप्त आया और संवेदना प्रकट करने लगा. तभी याद आया इंद्राग्निमित्र ने सोणगुप्त से विहार बनवाने की प्रतिज्ञा की थी. मैं उस के साथ बोधगया चली गई.

देवदासी प्रथा का क्या हुआ, यह तो मैं नहीं जानती लेकिन इतना जानती हूं कि प्रथाओं और परंपराओं का इतनी जल्दी अंत नहीं होगा. मैं तो इस बात को ले कर आश्वस्त हूं कि मैं ने और मेरे पति ने अपनी तरफ से इसे मिटाने का भरसक प्रयत्न किया.

मगर हर कोई अपनीअपनी तरफ से प्रयत्न करे तो ये गलत प्रथाएं और परंपराएं अवश्य ही किसी दिन मिट कर रहेंगी.

 

तुम प्रेमी क्यों नहीं : शेखर ने मुझे बताया प्रेमी और पति में अंतर

शेखर के लिए मन लगा कर चाय बनाई थी, पर बाहर जाने की हड़बड़ी दिखाते हुए एकदम झपट कर उस ने प्याला उठा लिया और एक ही घूंट में पी गया. घर से बाहर जाते वक्त लड़ा भी तो नहीं जाता. वह तो दिनभर बाहर रहेगा और मैं पछताती रहूंगी. ऐसे समय में उसे घूरने के सिवा कुछ कर ही नहीं पाती.

मैं सोचती, ‘कितना अजीब है यह शेखर भी. किसी मशीन की तरह नीरस और बेजान. उस के होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो आदमी तरस ही जाए. उस का हर काम बटन दबाने की तरह होता है.’ कई बार तो मारे गुस्से के आंखें भर आतीं. कभीकभी तो सिसक भी पड़ती, पर कहती उस से कुछ भी नहीं.

शादी को अभी 3 साल ही तो गुजरे थे. एक गुड्डी हो गई थी. सुंदर तो मैं पहले ही थी. हां, कुछ दुबली सी थी. मां बनने के बाद वह कसर भी पूरी सी हो गई. आईने में जब भी अपने को देखती हूं तो सोचती हूं कि शेखर अंदर से अवश्य मुरदा है, वरना मुझे देख कर जरा सी भी प्रशंसा न करे, असंभव है. कालिज में तो मेरे लिए नारा ही था, ‘एक अनार सौ बीमार.’

दूसरी ओर पड़ोस में ही किशोर बाबू की लड़की थी नीरू. बस, सामान्य सी कदकाठी की थी. सुंदरता के किसी भी मापदंड पर खरी नहीं उतरती थी. परंतु वह जिस से प्यार करती थी वह उस की एकएक अदा पर ऐसी तारीफों के पुल बांधता कि वह आत्मविभोर हो जाती. दिनरात नीरू के होंठों पर मुसकान थिरकती रहती. कभीकभी उस की बहनें ही उस से जल उठतीं.

नीरू मुझ से कहती, ‘‘क्या करूं, दीदी. वह मुझ से खूब प्यार भरी बातें करता है. हर समय मेरी प्रशंसा करता रहता है. मैं मुसकराऊं कैसे नहीं. कल मैं उस के लिए गाजर का हलवा बना कर ले गई तो उस ने इतनी तारीफ की कि मेरी सारी मेहनत सफल हो गई.’’

वास्तव में नीरू की बात गलत न थी. अब कोई मेहनत कर के आग की आंच में पसीनेपसीने हो कर खाना बनाए और खाने वाला ऐसे खाए जैसे कोई गुनाह कर रहा हो तब बनाने वाले पर क्या गुजरती है, यह कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है.

जाने शेखर ही ऐसा क्यों है. कभीकभी सोचती हूं, उस की अपनी परेशानियां होंगी, जिन में वह उलझा रहता होगा. दफ्तर की ही क्या कम भागदौड़ है. बिक्री अधिकारी है. आज यहां है तो कल वहां है. आज इस समस्या से उलझ रहा है तो कल किसी दूसरी परेशानी में फंसा है. परंतु फिर यह तर्क भी बेकार लगता है. सोचती हूं, ‘एक शेखर ही तो बिक्री अधिकारी नहीं है, हजारों होंगे. क्या सभी अपनी पत्नियों से ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’

वैसे आर्थिक रूप से शेखर बहुत सुरक्षित है. उस का वेतन हमारी गृहस्थी के लिए बहुत अधिक ही है. वह एक भरेपूरे घर का ऐसा मालिक भी नहीं है कि रोज नईनई उलझनों से पाला पड़े. परिवार में पतिपत्नी के अलावा एक गुड्डी ही तो है. सबकुछ तो है शेखर के पास. बस, केवल नहीं हैं तो उस के होंठों में शब्द और एक प्रेमी अथवा पति का उदार मन. इस के साथ नीरू तो दो पल भी न रहे.

मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी शेखर ने मुंह पर मेरे व्यवहार या सुंदरता की तारीफ की हो. मुझ पर कभी मुग्ध हो कर स्वयं को सराहा हो.

अब उस दिन की ही बात लो. नीरू ने गहरे पीले रंग की साड़ी पहन ली थी, जोकि उस के काले रंग पर बिलकुल ही बेमेल लग रही थी. परंतु रवि जाने किस मिट्टी का बना था कि वह नीरू की प्रशंसा में शेर पर शेर सुनाता रहा.

नीरू को तो जैसे खुशी के पंख लग गए थे. वह आते ही मेरी गोद में गिर पड़ी थी. मैं ने घबरा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ नीरू, कोई बात हुई?’’

‘‘बात क्या होगी,’’ नीरू ने मेरी बांह में चिकोटी काट कर कहा, ‘‘आज क्या मैं सच में पीली साड़ी में कहर बरपा रही थी. कहो तो.’’

मैं क्या उत्तर देती. पीली साड़ी में वह कुछ खास अच्छी न लग रही थी, पर उसे खुश करने की गरज से कहा, ‘‘हां, सचमुच तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो.’’

‘‘बिलकुल ठीक,’’ नीरू चहक उठी, ‘‘रवि भी ऐसा ही कहता था. बस, वह मुझे देखते ही कवि बन जाता है.’’

मुझे याद है, एक बार पायल पहनने का फैशन चल पड़ा था. ऐसे में मुझे भी शौक चढ़ा कि मैं भी पायल पहन लूं. मेरे पैर पायलों में बंध कर निहायत सुंदर हो उठे थे. जिस ने भी उन दिनों मेरे पैर देखे, बहुत तारीफ की. पर चाहे मैं पैर पटक कर चलूं या साड़ी उठा कर चलूं, पायलों का सुंदर जोड़ा चमकचमक कर भी शेखर को अपनी ओर न खींच पाया था. एक दिन तो मैं ने खीझ कर कहा, ‘‘कमाल है, पूरी कालोनी में मेरी पायलों की चर्चा हो रही है, पर तुम्हें ये अभी तक दिखाई ही नहीं दीं.’’?

‘‘ऐं,’’ शेखर ने चौंक कर कहा, ‘‘यह वही पायलों का सेट है न, जो पिछले महीने खरीदा था. बिलकुल चांदी की लग रही हैं.’’

अब कैसे कहती कि चांदी या पायलों को नहीं, शेखर साहब, मेरे पैरों के बारे में कुछ कहिए. असल बात तो पैरों की तारीफ की है, पर कह न पाई थी.

यह भी तो तभी की बात है. नीरू ने भी मेरी पसंद की पायलें खरीदी थीं. उन्हें पहन कर वह रवि के पास गई थी. बस, जरा सी ही तो उन की झंकार होती थी, मगर बड़ी दूर से ही वे रवि के कानों में बजने लगी थीं. रवि ने मुग्ध भाव से उस के पैरों की ओर देखते हुए कहा था, ‘‘तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, नीरू.’’

कितनी छोटीछोटी बातों की समझ थी रवि में. सुनसुन कर अचरज होता था. अगर नीरू ने उस से शादी कर ली तो दोनों की जिंदगी कितनी प्रेममय हो जाएगी.

मैं नीरू को सलाह देती, ‘‘नीरू, रवि से शादी क्यों नहीं कर लेती?’’

पर नीरू को मेरी यह सलाह नहीं भाती. मुसकरा कर कहती, ‘‘रवि अभी प्रेमी ही बना रहना चाहता है, जब तक कि उस के मन की कविता खत्म न हो जाए.’’

‘‘कविता?’’ मैं चौंक कर रह जाती. रवि का मन कविता से भरा है, तभी उस से इतनी तारीफ हो पाती है. कितना आकुल रहता है वह नीरू के लिए. शेखर के मन में कविता ही नहीं बची है, वह तो पत्थर है, एकदम पत्थर. सामान्य दिनों को अगर मैं नजरअंदाज भी कर दूं तो भी बीमारी आदि होने पर तो उसे मेरा खयाल करना ही चाहिए. इधर बीमार पड़ी, उधर डाक्टर को फोन कर दिया. फिर दवाइयां आईं और मैं दूसरे दिन से ही फिर रसोई के कामों में जुट गई.

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

एक दिन मैं ने शादी वाली साड़ी पहनी थी. शेखर ने देखा और एक हलकी सी मिठास से वह घुल भी गया, पर वह बात नहीं आई जो नीरू के रवि में पैदा होती. मुझे इतना गुस्सा आया कि मुंह फुला कर बैठ गई. घंटों उस से कुछ न बोली. शेखर को किसी भी चीज की जरूरत पड़ी तो गुड्डी के हाथों भिजवा दी. शेखर ने रूठ कर कहा, ‘‘अगर गुड्डी न होती तो आप हमें ये चीजें किस तरह से देतीं?’’

‘‘डाक से भेज देती,’’ मैं ने ताव खा कर कहा. शेखर हंसने लगा, ‘‘इतनी सी बात पर इतना गुस्सा. हमें पता होता कि बीवियों की हर बात की प्रशंसा करनी पड़ती है तो शादी से पहले हम कुछ ऐसीवैसी किताबें जरूर पढ़ लेते.’’

मैं ने भन्ना कर शेखर को देखा और बिलकुल रोनेरोने को हो आई, ‘‘प्रेमी होना हर किसी के बस की बात नहीं होती. तुम कभी प्रेमी न बन पाओगे. रवि को तो तुम ने देखा होगा?’’

‘‘कौन रवि?’’ शेखर चौंका, ‘‘कहीं वह नीरू का प्रेमी तो नहीं?’’

‘‘जी हां, वही,’’ मैं ने नमकमिर्च लगाते हुए कहा, ‘‘नीरू की एकएक बात की तारीफ हजार शब्दों में करता है. तुम्हारी तरह हर समय चुप्पी साधे नहीं रहता. बातचीत में भी इतनी कंजूसी अच्छी नहीं होती.’’

‘‘अरे, तो मैं क्या करूं. बिना प्रेम का पाठ पढ़े ही ब्याह के खूंटे से बांध दिए गए. वैसे एक बात है, प्रेमी बनना बड़ा आसान काम है समझीं, मगर पति बनना बहुत मुश्किल है.

‘‘जाने कितनी योग्यताएं चाहिए पति बनने के लिए. पहले तो उत्तम वेतन वाली नौकरी जिस से लड़की का गुजारा भलीभांति हो सके. सिर पर अपनी छत है या नहीं, घर कैसा है, उस के घर के लोग कैसे हैं, घर में कितने लोग हैं. लड़के में कोई बुराई तो नहीं, उस के अच्छे चालचलन के लिए पासपड़ोसियों का प्रमाणपत्र आदि चाहिए और जब पूरी तरह पति बन जाओ तो अपनी सुंदर पत्नी की बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न करो. अपनेआप को ही लो. तुम्हें सोना, सजनासंवरना, गपें मारना, फिल्में देखना आदि यही सब तो आता था. नकचढ़ी भी कितनी थीं तुम. हमारे घर की सीमित सुविधाओं में तुम्हारा दम घुटता था.’’

अब शेखर बिलकुल गंभीर हो गया था, ‘‘तुम जानती ही हो कैसे मैं ने धीरेधीरे तुम्हें बिलकुल बदल दिया. व्यर्थ गपें मारना, फिल्में देखना सब तुम ने बंद कर दिया. फिर तुम ने मुझे भी तो बदला है,’’ शेखर ने रुक कर पूछा, ‘‘अब कहो, तुम्हें शेखर की भूमिका पसंद है या रवि की?’’

‘‘रवि की,’’ मैं दृढ़ता से बोली, ‘‘प्रेम ही जिंदगी है, यह तुम क्यों भूल जाते हो?’’

‘‘क्यों, मैं क्या तुम से प्रेम नहीं करता. हर तरह से तुम्हारा खयाल रखता हूं. जो बना कर देती हो, खा लेता हूं. दफ्तर से छुट्टी मिलते ही फालतू गपशप में उलझने के बजाय सीधा घर आता हूं. तुम्हें जरा सी छींक भी आए तो फौरन डाक्टर हाजिर कर देता हूं. क्या यह प्रेम नहीं है?’’

‘‘यह प्रेम है या कद्दू की सब्जी?’’ मैं बिलकुल झल्ला गई, ‘‘तुम्हें प्रेम करना रवि से सीखना पड़ेगा. दिनरात नीरू से जाने क्याक्या बातें करता रहता है. उस की तो बातें ही खत्म नहीं होतीं. नीरू कुछ भी ओढ़ेपहने, खाएपकाए रवि उस की प्रशंसा करते नहीं थकता. नीरू तो उसे पा कर किसी और चीज की तमन्ना ही नहीं रखती.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. तब तुम ने नीरू से कभी यह क्यों नहीं कहा कि वह रवि से शादी कर ले.’’

‘‘कहा तो है…’’

‘‘फिर वह विवाह उस से क्यों नहीं करता?’’

‘‘रवि का कहना है कि जब तक उस के अंदर की कविता शेष न हो जाए तब तक वह विवाह नहीं करना चाहता. विवाह से प्रेम खत्म हो जाता है.’’

‘‘सब बकवास है,’’ शेखर उत्तेजित हो कर बोला, ‘‘आदमी की कविता भी कभी मरती है? जिस व्यक्ति ने सभ्यता को विनाशकारी अणुबम दिया, उस के अंदर की भी कविता खत्म नहीं हुई थी. ऐसा होता तो वह कभी अपने अपराधबोध के कारण आत्महत्या नहीं करता, समझीं. असल में रवि कभी भी नीरू से शादी नहीं करेगा. यह सब उस का एक खेल है, धोखा है.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

‘‘असल में बात तो प्रेमी और पति बनने के अंतर की है, यह रवि का चौथा प्रेम है. इस से पहले भी उस ने 3 लड़कियों से प्रेम किया था.

‘‘जब पति बनने का अवसर आया, वह भाग निकला. प्रेमी बनना बड़ा आसान है. कुछ हुस्नइश्क के शेर रट लो. कुछ विशेष आदतें पाल लो…और सब से बड़ी बात अपने सामने बैठी महिला की जी भर कर तारीफ करो. बस, आप सफल प्रेमी बन गए.

‘‘जब भी शादी की बात आएगी, देखना कैसे दुम दबा कर भाग निकलेगा.

‘‘तुम देखती चलो, आगेआगे होता है क्या? अब भी तुम्हें शिकायत है कि मैं रवि जैसा प्रेमी क्यों नहीं हूं? और अगर है तो ठीक है, कल से मैं भी कवितागजल की पुस्तकें ला कर तैयारी करूंगा. कल से मेरी नौकरी बंद. गुड्डी की देखभाल बंद, तुम्हारे शिकवेशिकायतें सुनना बंद, बाजारघर का काम बंद. बस, दिनरात तुम्हारे हुस्न की तारीफ करता रहूंगा.’’

शेखर के भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई. अब मैं कहती भी क्या क्योंकि यथार्थ की जमीन पर आ कर मेरे पैर जो टिक गए थे.

खाली समय न होइए अकेलेपन का शिकार, अपनाएं ये उपाय

56 साल की कविता शर्मा दिल्ली के साधारण से महल्ले में दो कमरे के मकान में रहती हैं. उन के पति की मृत्यु हो चुकी है और वह अपने बेटेबहू के साथ रहती हैं. उन की एक 2 साल की पोती भी है. वह पूरा दिन या तो पोती की देखभाल में या फिर बालकनी में बाहर आतेजाते लोगों को देखते हुए बिताती है. कभीकभी घर के छोटेमोटे काम में अपनी बहू का भी हाथ भी बंटाती रहती हैं. साथ ही दूसरों से बहू की शिकायतें करने या उस से झगड़ने में भी उन का समय जाता है. इस के अलावा उन की जिंदगी में और कोई खास काम नहीं.

आजकल उन की बहू अकसर मायके जाने लगी है. पोती भी साथ चली जाती है और बेटा भी कई बार बहू के घर चला जाता है. ऐसे में कविता अपने घर में बिल्कुल अकेली रह जाती हैं और यह अकेलापन उन्हें खाने को दौड़ता है. वह बालकनी से बाहर झांकती रहती हैं या सोती रहती हैं. बाकी उन के पास करने को कुछ भी नहीं होता. क्योंकि इस समय बहू नहीं है तो बहू की शिकायतें कैसे करें और उस से झगड़ा भी कैसे करे? बस महल्ले वालों को जरूर बहू की शिकायत करती नजर आती हैं कि जब देखो बहू मायके चली जाती है.

इधर उन्हीं की उम्र की एक महिला प्रज्ञा राज भी उसी मोहल्ले में रहती हैं. उन की आर्थिक स्थिति भी लगभग समान ही है. वह बिल्कुल अकेली हैं लेकिन फिर भी बहुत खुश रहती हैं. ना किसी की शिकायतबाजी और न लड़ाईझगड़ा. उन के पास समय ही नहीं होता कि वह यह सब कुछ करें. न ही वह बालकनी में ताकझांक का काम करती है. वह अपने में बिजी रहती हैं. उन के पास बहुत काम है. ऐसा नहीं है कि वह जौब करती हैं. लेकिन सुबह से शाम तक उन का एक रूटीन बना हुआ है.

सुबह उठते ही मौर्निंग वाक के लिए जाना, व्यायाम करना, अपनी फिटनेस का ख्याल रखना, अच्छा खानापीना और उस के बाद घर से राइटिंग का काम करना. इस में उन का आधा दिन चला जाता है. बाकी समय अच्छीअच्छी किताबें पढ़ती हैं. कभीकभी शौपिंग के लिए निकल जाती हैं और अपने लिए अच्छे ड्रैसेज खरीद कर लाती है. बाकी बचे समय में वह कुछ एक्साइटिंग करती हैं जैसे बैडमिंटन खेलना, दिलचस्प फिल्में देखना या मनोरंजक और ज्ञानवर्धक किताबें पढ़ना. कभीकभी घर की साफसफाई और अपने लिए कुछ अच्छा बनाने में भी समय लगाती हैं.

अब सोचिए इन दोनों की जिंदगी में क्या अंतर है ? अंतर यह है की कविता देवी अकेली न हो कर भी अकेलेपन से जूझती रहती हैं जबकि प्रज्ञा को उन का अकेलापन कभी सालता नहीं. परेशान नहीं करता. वह उस में बहुत खुश हैं. उसे एंजोय करती हैं.

दरअसल ऐसी परिस्थिति किसी की भी जिंदगी में आ सकती है कि उसे कुछ समय अकेला बिताना पड़े. जो शादीशुदा इंसान होते हैं यानी जिन के बेटेबहू हैं, पोते पोतियां हैं उन्हें भी कभीकभी अकेला रहना पड़ सकता है. मगर इस का मतलब यह नहीं कि वह उस समय को दुखी हो कर, परेशान हो कर या बोर हो कर गुजारे. अगर आप को समय मिला है, आप अकेले हैं तो उसे अच्छे से इस्तेमाल करें और एंजोय करें. बाकी समय आप पोतेपोतियों या बहू बेटों में बिजी रहती हैं. तो इस समय का उपयोग करें. वह सब करें जो आप उन लोगों के रहने में नहीं कर पाती थीं. अपने आप को समय दीजिए. अपने लिए भी कुछ कीजिए. जो आप को अच्छा लग रहा है उस में समय लगाइए. फिर आप बोर कैसे होंगे?

सच तो यह है कि अकेले रहना आप को शानदार मौका देता है यह पता लगाने के लिए कि वास्तव में कौन सी चीज आप को खुशी देती है और आप को अपनेआप को बेहतर तरीके से जानने का भी पूरा मौका मिलता है. अकेले रहने से आप को समय और स्वतंत्रता मिलती है. आप जो भी अपने स्वयं के हिसाब से करना चाहते हैं वो कर सकते हैं. जिन चीजों को दूसरे के होने के कारण आपको करने का समय नहीं मिलता था यही वह समय है जब आप उन सभी कामों को कर सकें. इस से आप को अकेले रहने पर भी खुशी महसूस होगी.

दरअसल कुछ लोगों को खुद के साथ वक्त बिताना बहुत पसंद होता है लेकिन कुछ लोगों के लिए दुनिया में इस से मुश्किल काम कोई नहीं हो सकता. ऐसे लोग अकेलेपन या अकेले रहने से दूर भागते हैं और हमेशा किसी न किसी की कंपनी तलाशते रहते हैं फिर चाहे वे बात करने के लिए हो या कहीं घूमने के लिए. मगर आप की यह निर्भरता आप के आत्मविश्वास को चोट पहुंचा सकता है. हमेशा खुशियों के लिए दूसरों का सहारा ढूंढने वाले लोग अकसर भावनात्मक रूप से चोटिल होते रहते हैं और फिर तनाव के शिकार हो जाते हैं.

अगर आप भी अकेली हैं तो कुछ इस तरह के कामों में समय लगाएं और फिर देखें अकेलापन कितना बहाने लगेगा आप को.

अकेले होने पर खुद को व्यस्त रखें

दुनिया की फिक्र और तमाम तरह की तकलीफों से बचने के लिए सब से अच्छा उपाय खुद को व्यस्त रखना है. अकेले रहते हुए इंसान के दिमाग में तरहतरह की चीजें शुरू हो सकती हैं. इसलिए अकेलेपन की नकारात्मकता से बचने के लिए आप को खुद को व्यस्त रखना चाहिए. जब आप जिंदगी में अकेले हों तो खाली समय में खुद को व्यस्त रखने के लिए अपनी पसंदीदा एक्टिविटी करें, कहीं घूमने जाएं या कोई किताब पढ़ें.

व्यायाम करें फिट रहें

स्वस्थ तन एक स्वस्थ मन का घर होता है. जब आप अपने मन को खुश रखने के लिए तन को स्वस्थ रखते हैं तो आप के शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है. एक नया व्यायाम शेड्यूल बनाएं जो आप के शरीर को स्वस्थ आकार में लाने में मदद करेगा. व्यायाम करें, मौर्निंग वाक पर जाएं, डांस करें. इस से आप अपने शरीर के बारे में अच्छा महसूस करेंगी और आप में खुद को ले कर आत्मविश्वास पैदा होगा.

व्यायाम करने से शरीर में एंडोर्फिन हार्मोन रिलीज होता है. यह आप के मस्तिष्क में उन न्यूरोट्रांसमीटर को रिलीज करने में मदद करता है जो आप को खुश महसूस कराता है. व्यायाम करने से आप के शरीर में एनर्जी आती है और आप दिनभर तरोताजा महसूस करते हैं.

अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलें

आप ज्यादा से ज्यादा उन चीजों को करने की कोशिश करें जो आपने पहले कभी नहीं की हैं. कोशिश करें कि आप पर कोई पाबंदी न हो और आप सभी संभावनाओं के लिए खुले रहें. अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने का एक शानदार तरीका ये भी है कि आप हर हफ्ते कहीं न कहीं कुछ नया और मजेदार करें.

अपने पैशन को पहचानें और उस पर काम करें

ऐसा कुछ आप के मन में भी होगा जो हमेशा से करने की चाहत रखते थे. क्यों न उसे अब ट्राय करें? जब आप अकेले होते हैं तो आप के प्लान को बिगाड़ने वाला पास में कोई नहीं होता है. ऐसे में खुद को चैलेंज दें. चाहे वो जो भी हो. बस आप को यह सोचना है कि आप इस चीज को ले कर हमेशा से उत्साहित थे. यदि आप को डांस पसंद है तो डांस करें. आप का फोटोग्राफी में इंटरेस्ट है तो फोटोग्राफी करें. किसी एक काम में खुद को फंसा कर न रखें. बाहर निकलें और कला का आनंद लें. थिएटर, आर्केस्ट्रा, सिनेमा, शो और वार्ता में भाग लें.

खुद को पैंपर करें

अपने व्यस्त जीवन में हमें शायद ही अपने लिए समय मिल पाता है. अपनेआप को समय देना और खुद को पैंपर करना बहुत जरूरी है. तो एक अच्छे स्पा सेशन के लिए जाएं या अपने पसंदीदा रेस्तरां में खाना खाएं. अपने शेड्यूल से थोड़ा ब्रेक लें. यकीनन आप को अच्छा लगेगा. अपनी अलमारी को व्यवस्थित ढंग से रखें. फैशन पत्रिका खरीदें और देखें कि लोग क्या पहन रहे हैं. लेकिन अपने फिगर के अनुसार स्टाइलिश पोशाक पहनें और ढेर सारे रंग जोड़ें.

प्रकृति के साथ समय बिताएं

प्रकृति के साथ कुछ समय बिताना खुश रहने का सबसे अच्छा तरीका है. चाहे आप पार्क में टहलना पसंद करें या बैठना या व्यायाम करना. ऐसी कोई भी गतिविधि जो आप को प्रकृति के करीब लाती है आप के लिए अच्छी है. यात्रा करें और नई जगहें देखें. जीवन के प्रति थके हुए दृष्टिकोण को फिर से जीवंत करने के लिए यात्रा से बेहतर कुछ नहीं है. आप पुनः स्फूर्तिवान हो कर लौटेंगे और नई चीज़ों को आज़माने के लिए तैयार होंगे. साथ ही, आप के कई नए दोस्त भी बन सकते हैं और उन में से कुछ आपसे मिलने भी आ सकते हैं.

चीजों के प्रति अपना नजरिया बदलें

आप को इस बात का अहसास होना चाहिए कि कोई भी चीज आप को खुश या दुखी नहीं बना सकती. अपनी खुशी या गम के लिए आप ही जिम्मेदार हैं. खुशी हासिल करने के लिए आप को चीजों को देखने का अपना नजरिया बदलने की जरूरत है. सकारात्मक सोच और विचार आप को खुश रख सकते हैं.

दोस्त बनाएं

नएनए दोस्त बनाएं. ऐसे लोगों से दोस्ती करें जो आप की उम्र के करीब हों. उन के साथ समय बिताएं. इस के अलावा कम उम्र के लोगों से भी दोस्ती करें. वे आप के अंदर ताजगी भरेंगे. क्लबों और अन्य समूहों में शामिल हों. इस तरह आप जीवन के सभी क्षेत्रों से समान रुचियों वाले लोगों से मिलेंगे. जब आप दूसरों के साथ अपनी रुचि साझा करते हैं तो उम्र मायने नहीं रखती. इसलिए आप के पास विभिन्न आयु समूहों में मित्र बनाने और एकदूसरे से सीखने का मौका होता है. रिश्तेदारों, लंबे समय से खोए दोस्तों और अन्य लोगों से मिलें. उन लोगों से मिलें जिन्हें आपने कई वर्षों से नहीं देखा है.

किताबें पढ़ें

किताबों से बेहतर कोई दोस्त नहीं होता. पत्रिकाएं पढ़ें. अपने स्थानीय पुस्तकालय से अपना परिचय कराएं. यह सोने की खान है. आप विश्वास नहीं करेंगे कि लाइब्रेरी कितनी मजेदार हो सकती है. साथ ही लाइब्रेरी में बहुत सारे संभावित मित्र भी मिलेंगे.

जानवर पालें

एक पालतू जानवर पालने पर भी विचार कर सकती हैं. जब आप अकेले हों तो उस का साथ अमूल्य होगा. वे आप के सुख दुःख के साथी बनेंगे.

मई का दूसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार राज कुमार राव का नहीं चला जादू, दीपक तिजोरी भी डूबे

2024 में प्रदर्शित बड़े बजट की दो फिल्मों के बौक्स औफिस पर बुरी तरह से घुटने टेकने के बाद बौलीवुड में हाहाकार मचा हुआ है लेकिन फिल्म के निर्माता और उन की पीआर टीम सुधरने का नाम ही नहीं ले रही है. मई माह के दूसरे सप्ताह 10 मई को दीपक तिजोरी निर्मित व निर्देशित फिल्म ‘तिप्सी’ के अलावा तुशार हीरानंदानी निर्देशित फिल्म ‘श्रीकांत’ प्रदर्शित हुई. दोनों फिल्में अपनी लागत वसूलने में असफल रहीं जबकि अमरजीत निर्देशित और गिप्पी ग्रेवाल, गिप्पी के बेटे शिंडा ग्रेवाल व हीना खान के अभिनय से सजी पंजाबी फिल्म ‘शिंडा शिंडा नो पापा’ ने साढ़े 6 करोड़ कमा लिए. जबकि सभी को पता है कि पंजाबी फिल्मों का बजट काफी कम होता है. कहा जा रहा है कि ‘शिंडा शिंडा नो पापा’ ने तो कमाई में रिकौर्ड बना डाला.
तुशार हीरानंदानी निर्देशित फिल्म ‘श्रीकांत’ मशहूर बोलांत इंडस्ट्रीज’ के मालिक व जन्म से ही अंधे श्रीकांत बोला की बायोपिक फिल्म है. इस फिल्म में श्रीकांत बोला का किरदार राजकुमार राव ने निभाया है. इस के अलावा अन्य कलाकारों में ज्योतिका, अलाया एफ, शरद केलकर, जमाल खान जैसे कलाकारों का समावेश हैं.
फिल्म की लागत लगभग 50 से 60 करोड़ रूपए है, मगर यह फिल्म बौक्स औफिस पर महज 17 करोड़ 85 लाख रूपए ही एकत्र कर सकी, जिस में से निर्माता के हाथ में बामुश्किल 6 से 7 करोड़ ही आएंगे. वैसे निर्माता का दावा है कि उन की फिल्म ने पूरे 7 दिन में 23 करोड़ कमा लिए. यदि निर्माता की बात सच मान लें, तो भी निर्माता के हाथ में मुश्किल से 8 से 9 करोड़ ही आएंगे. कुल मिला कर यह फिल्म बौक्स औफिस पर बुरी तरह से बर्बाद हो चुकी है.
तुशार हीरानंदानी निर्देशित फिल्म ‘श्रीकांत’ की कहानी प्रेरणा दायक है. इंटरवल से पहले फिल्म अच्छी है, इंटरवल के बाद फिल्म जरुर थोड़ा गड़बड़ा गई है. मगर राज कुमार राव अपने अभिनय के बल पर दर्शकों को सिनेमाघरों तक नहीं खींच पाए. जबकि फिल्म के निर्माता ने लगातार दो दिन तक दोतीन अंगरेजी के बड़े अखबारों व सोशल मीडिया पर पूरे पेज के विज्ञापन छापे, जिस में फिल्म आलोचकों व उन के अखबार व पत्रिका के नाम के साथ बताया गया कि किस ने इस फिल्म को 4 से 5 स्टार दिए. मगर निर्माता के साथ साथ राज कुमार राव व फिल्म के सभी कलाकारों की गलती यह रही कि फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म को ठीक से प्रचारित नहीं किया.
फिल्म के पीआर ने दावा किया था कि कलाकार के पास ज्यादा पत्रकारों से बात करने के लिए समय नहीं है. सिर्फ ट्रेलर लांच व सांग लांच में पूरे प्रेस को बुलाया गया था. उस के बाद यह निर्माता व पीआर सिर्फ सोशल मीडिया के भरोसे रह कर फिल्म को डुबा दिया. यदि फिल्म का ठीक से प्रचार किया जाता तो यह फिल्म न डूबती. इस के बावजूद राज कुमार राव अभी भी हवा में उड़ रहे हैं और अपनी 31 मई को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस’ (फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस’ के निर्माता करण जोहर तो कैमरे पर कबूल कर चुके हैं कि वह पत्रकारों को पैसा दे कर स्टार खरीदते हैं) के लिए भी ठीक से प्रचार नहीं कर रहे हैं.
जबकि कुछ दिन पहले ही मुंबई के ‘मराठा मंदिर’ और ‘जी 7’ मल्टीप्लैक्स के मालिक मनोज देसाई, फिल्म वितरक राठी सहित कई लोग खुल कर अखबारों में बयान दे चुके हैं कि इन कलाकारों को पहले की तरह पत्रकारों के साथ बात करना चाहिए, इंटरव्यू देने चाहिए. तभी फिल्म इंडस्ट्री बच सकेगी.
बौलीवुड की हालत ‘भैंस के आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुराय…’ जैसी है. बहरहाल, बौलीवुड में हालात ऐसे हैं कि आप यह नहीं कह सकते कि फिल्म का निर्माता, फिल्म के कलाकार और उन के पीआरओ आखिर क्या साबित करने पर तुले हुए हैं.
तो वहीं 10 मई को ही दीपक तिजोरी की फिल्म ‘तिप्सी’ भी प्रदर्शित हुई, जिस में दीपक तिजोरी के साथ ही अलंकृता जैसे कलाकारों ने अभिनय किया है. इस फिल्म का भी प्रचार ठीक से नहीं हुआ. खुद दीपक तिजोरी ने भी फिल्म के प्रचार के लिए कुछ नहीं किया. परिणामतः यह फिल्म एक करोड़ भी नहीं कमा सकी.

न्यूजक्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ की अवैध गिरफ्तारी से सरकार की मंशा पर उठते सवाल

न्यूजक्लिक के 74 वर्षीय प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ 6 महीने जेल में रहने के बाद आखिरकार जमानत पर रिहा हो गए. सुप्रीम कोर्ट ने उन की गिरफ्तारी को अमान्य करार दिया और कहा कि जब 4 अक्टूबर, 2023 को रिमांड आदेश पारित किया गया था, तो उस से पहले प्रबीर पुरकायस्थ या उन के वकील को रिमांड की कौपी क्यों नहीं दी गई? इस का मतलब यह है कि गिरफ्तारी का आधार उन्हें लिखित रूप में नहीं दिया गया. इस लिहाज से उन की गिरफ्तारी वैध नहीं है और इस वजह से प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को कोर्ट निरस्त कर उन्हें जमानत पर रिहा करने का आदेश देता है.

न्यूजक्लिक एक स्वतंत्र मीडिया संगठन है जो अपने मिशन का वर्णन ‘प्रगतिशील आंदोलनों पर विशेष ध्यान देने के साथ, भारत और उस से परे समाचारों को कवर करने के लिए समर्पित’ के रूप में करता है. प्रबीर पुरकायस्थ इस के संस्थापक होने के साथसाथ प्रधान संपादक भी हैं. इस संस्था से अनेक वरिष्ठ पत्रकार जुड़े हुए हैं. अभिसार शर्मा, औनिंद्यो चक्रवर्ती, भाषा सिंह, उर्मिलेश, सुमेधा पाल, अरित्री दास, इतिहासकार सोहेल हाशमी और व्यंग्यकार संजय राजौरा जैसे न्यूजक्लिक से जुड़े अनेक पत्रकार उन लोगों में शामिल थे, जिन के ऊपर 3 अक्टूबर 2023 को पुलिस ने छापा मारा, उन के घरों की तलाशी ली और उन के कंप्यूटर, लैपटौप, फोन आदि जब्त कर लिए. आरोप था कि न्यूजक्लिक प्लेटफौर्म से ‘राष्ट्रविरोधी प्रचार’ के लिए चीनी फंडिंग हो रही है.

ये छापेमारी 17 अगस्त 2023 को न्यूयौर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के आधार पर की गई थी. रिपोर्ट में न्यूजक्लिक वेबसाइट पर आरोप लगाए गए थे कि उस ने चीनी प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए एक अमेरिकी करोड़पति से फंडिंग प्राप्त की है. उस समय दिल्ली पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा ने न्यूजक्लिक के खिलाफ केस दर्ज किया था. इस के बाद ईडी ने भी इस मामले में केस दर्ज किया था.

उक्त कार्रवाई गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और भारतीय दंड की धारा 153 ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 120 बी (आपराधिक साजिश के लिए सजा) के प्रावधानों के तहत दर्ज की गई पहली सूचना रिपोर्ट पर आधारित थी. हालांकि न्यूजक्लिक ने इन सभी आरोपों का खंडन किया था. न्यूजक्लिक से जुड़े पत्रकारों के खिलाफ यूएपीए की धाराएं इसीलिए लगाई गई थीं ताकि गिरफ्तारी के बाद वो जमानत पर आसानी से छूट न सकें.

पुलिस ने न्यूज वेबसाइट के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और एचआर हेड अमित चक्रवर्ती को गिरफ्तार किया. इस के बाद पुलिस ने करीब 30 स्थानों की तलाशी ली और 46 लोगों से पूछताछ की. दक्षिण दिल्ली में संस्था के कार्यालय को सील कर दिया और तमाम डिजिटल उपकरणों, मोबाइल फोन व अन्य दस्तावेजों आदि को जब्त कर लिया. मजे की बात यह है कि दिल्ली पुलिस ने इस केस में सोशल एक्टिविस्ट गौतम नवलखा और अमेरिकी कारोबारी नेविल रौय सिंघम को भी नामित किया था. जबकि गौतम नवलखा एल्गार परिषद-माओवादी संबंध मामले में 4 साल से हाउस अरेस्ट थे और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जमानत पर छूटे हैं.

प्रबीर पुरकायस्थ गिरफ्तारी के बाद से ही दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे और जमानत के लिए प्रयासरत थे. हाई कोर्ट से उन को पहले ही जमानत मिल जानी चाहिए थी मगर नहीं मिली और इस कवायत में सुप्रीम कोर्ट तक मामले को आतेआते 6 महीने का वक्त गुजर गया.

सुप्रीम कोर्ट में प्रबीर पुरकायस्थ की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि 3 अक्टूबर 2023 को प्रबीर पुरकायस्थ को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने उन के वकील को सूचित किए बिना दूसरे दिन सुबह 6 बजे ही जल्दबाजी में मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर रिमांड पर ले लिया और जेल भेज दिया. शीर्ष अदालत यह सुन कर आश्चर्यचकित रह गई कि प्रबीर पुरकायस्थ के वकील को उन की रिमांड अर्जी मिलने से पहले ही रिमांड आदेश पारित कर दिया गया.

सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि गिरफ्तारी की प्रक्रिया जैसे कि गिरफ्तारी का आधार बताना, आरोपी को अपना वकील देने का मौका देने तक का इस मामले में पालन नहीं किया गया. कपिल सिब्बल ने कोर्ट को बताया कि जब श्री पुरकायस्थ ने इस पर आपत्ति जताई, तो जांच अधिकारी ने उन के वकील को टेलीफोन के माध्यम से सूचित किया और रिमांड आवेदन उन्हें व्हाट्सऐप पर भेज दिया, जो कतई ठीक नहीं था, क्योंकि यह जानकारी लिखित में दी जाती है.

पुलिस की जल्दबाजी पर हैरानी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और रिमांड की प्रक्रिया को गैरकानूनी करार देते हुए उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली दो सदस्यों वाली बेंच ने यह भी कहा कि पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और उस के बाद उन्हें हिरासत में रखा जाना कानून की नजर में पूरी तरह अवैध था. पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के समय यह नहीं बताया गया कि इस का आधार क्या था. इस की वजह से गिरफ्तारी निरस्त की जाती है.

अब जबकि प्रबीर पुरकायस्थ और गौतम नवलखा को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल चुकी है, पत्रकार संगठनों ने दोनों की जमानत का स्वागत करते हुए राजनीति कारणों से की गई इन गिरफ्तारियों की कड़े शब्दों में निंदा की है. वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने एक्स पर लिखा – ‘माननीय न्यायमूर्ति गण, आपने भारत के पत्रकारों को थोड़ा और निर्भय बनाने का काम किया है. न्यूजक्लिक के प्रबीर पुरकायस्थ और भीमा कोरेगांव कांड में अभियुक्त गौतम नवलखा तथा उन के कई साथियों को जमानत दे कर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रैस की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों की रक्षा की है.

‘इन दोनों अलगअलग मामलों में जिस तरह सत्ता और कानूनों का घोर दुरुपयोग कर के आलोचक आवाजजों का दमन किया गया वह भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा था. इसी तरह के काम सरकार पर तानाशाही सोच और इरादों के आरोपों को सुदृढ़ बनाते हैं. सरकार की आलोचना, वैचारिक विरोध आतंकवाद नहीं हैं. उन के आधार पर मनगढ़ंत आरोप लगा कर आतंकवाद निरोधक कानून यूएपीए लगाना बुनियादी संवैधानिक स्वतंत्रताओं पर हमला करना है. आशा है सरकारें और जांच एजेंसियां इन फैसलों से सही सबक लेंगी.’

डिजिटल युग में एक स्वस्थ और मजबूत समाचार पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण को सुनिश्चित करने में मदद करने के इरादे से डिजिटल मीडिया संगठनों द्वारा गठित डिजिपब (DIGIPUB) न्यूज इंडिया फाउंडेशन ने भी कहा, “हम न्यूजक्लिक के खिलाफ पुलिस और एजेंसी की कार्रवाई की लगातार निंदा करते रहे हैं, जहां पत्रकारों से पूछताछ की गई, उन के उपकरणों को जब्त कर लिया गया और उन के घरों पर छापे मारे गए.

“इसी तरह पिछले साल प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी हुई. लोकतंत्र में कोई सरकार स्वतंत्र प्रैस के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों को इस्तेमाल नहीं कर सकती, खासकर उचित प्रक्रिया के अभाव में. पत्रकारों के खिलाफ कानून को हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए, इस से उन का जीवन, स्वतंत्रता और आजीविका जोखिम में पड़ जाती है. हम खुश और आभारी हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार हस्तक्षेप किया है. हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह उन मीडिया घरानों के खिलाफ जानबूझ कर और उन्हें दबाने के लिए की जा रही कोशिशों में सावधानी और संयम बरते, जिन से वह (सरकार) सहमत नहीं हैं. हमें उम्मीद है कि प्रबीर के मामले में कानून के अनुसार निष्पक्ष सुनवाई होगी.”

उल्लेखनीय है कि 3 अक्टूबर 2023 को प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी के समय प्रैस क्लब औफ इंडिया ने न्यूजक्लिक के खिलाफ पुलिस कार्रवाई की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि इस से प्रैस की स्वतंत्रता को बड़ा खतरा है. उसी दिन, एडिटर्स गिल्ड औफ इंडिया (ईजीआई) की कार्यकारी समिति ने वरिष्ठ पत्रकारों के आवासों पर की गई छापेमारी के संबंध में चिंता व्यक्त की थी, जिस में उन के इलैक्ट्रौनिक उपकरणों की जब्ती और दिल्ली पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए हिरासत में लिए जाने पर सवाल उठाया था. एडिटर्स गिल्ड ने उचित प्रक्रिया का पालन करने और कड़े कानूनों के तहत धमकी के माहौल से बचने, एक कामकाजी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति की रक्षा करने की आवश्यकता पर जोर दिया था.

नैशनल अलायंस औफ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन औफ जर्नलिस्ट्स और केरल यूनियन औफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (दिल्ली यूनिट) ने भी सामूहिक रूप से 3 अक्टूबर 2023 को पुलिस छापे और पत्रकारों की गिरफ्तारी की निंदा की थी. उन्होंने मीडिया कर्मियों को निशाना बनाने और इन कार्रवाइयों में अभूतपूर्व जल्दबाजी दिखाने की निंदा करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि मोदी सरकार का उद्देश्य प्रैस की स्वतंत्रता को दबाना है, विशेष रूप से श्रम और कृषि मुद्दों पर न्यूजक्लिक की कवरेज के बाद से सरकार बौखलाई हुई है. उन्होंने प्रैस की स्वतंत्रता पर इस कथित हमले को तत्काल रोकने का आह्वान किया था और मीडिया बिरादरी से सरकार की धमकियों के खिलाफ एकजुट होने का भी आह्वान किया था. जाहिर है न्यूजक्लिक पर पुलिस और ईडी की कार्रवाई सरकार के आदेश पर ख़बरों का मुंह बंद करने के उद्देश्य से हुई थी.

प्रैस की आजादी : भारत की लगातार गिरती साख

पिछले कुछ वर्षों में ‘दैनिक भास्कर’, ‘न्यूजलौंड्री’, ‘न्यूजक्लिक’, ‘द कश्मीर वाला’ और ‘द वायर’ जैसे मीडिया संगठनों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी के बाद यह बात लगातार उठ रही है कि भारत में लोकतंत्र का दमन हो रहा है. केंद्र की भाजपा सरकार की बलपूर्वक कार्रवाइयां केवल उन मीडिया संगठनों और पत्रकारों के खिलाफ जारी हैं जो सत्ता के सामने सच बोलते हैं. विडंबना यह है कि जब देश में नफरत और विभाजन को भड़काने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने की बात आती है तो भाजपा सरकार पंगु हो जाती है.

वैश्विक मीडिया निगरानी संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बौर्डर्स (आरएसएफ) की मई 2023 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक विश्व प्रैस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग 180 देशों में से 161वें स्थान पर खिसक चुकी है. साल 2002 में भारत इस लिस्ट में 150वें पायदान पर था. आरएसएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में सभी मुख्यधारा मीडिया अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी अमीर व्यापारियों के स्वामित्व में हैं और सरकार के समर्थन में काम करते हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी के पास समर्थकों की एक ऐसी फौज है जो सरकार की आलोचना करने वाली सभी औनलाइन रिपोर्टिंग पर नजर रखते हैं और स्रोतों के खिलाफ भयानक उत्पीड़न अभियान चलाते हैं. अत्याधिक दबाव के इन दो रूपों के बीच फंस कर कई पत्रकार, व्यवहार में, खुद को सेंसर करने के लिए मजबूर हैं. पत्रकार सौफ्ट टारगेट (जिन पर निशाना लगाना आसान हो) हैं, खासतौर पर वे जो छोटे न्यूज पोर्टल्स से आते हैं. उन के पास वह सुरक्षा नहीं है जो बड़े संगठनों में मौजूद लोगों के पास है. आज पत्रकारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ले कर अनेक गंभीर सवाल भारत में खड़े हैं, जिन का जवाब सरकार को देना ही होगा.

सरकार, बैंक और उद्योगपति

जब से भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने बैंकों के नौन परफौर्मिंग एसेट यानी डूबा हुआ पैसा अपने टैक्स देने वाली जनता के 30 लाख करोड़ रुपयों से पूरा कर दिया. इस से बैंकों के खाते में मुनाफे बढ़ गए हैं. बैंकों ने कर्ई सालों तक ऐसे लोगों को भरभर कर कर्ज दिया था जिन के सरकार से अच्छे संबंध थे. इन लोगों ने सरकार को खूब समर्थन भी दिया था. इस दरियादिली से आम आदमी को कोई लाभ नहीं हुआ पर बैंकों की बैलेंस शीट सुधर गईं और वे मुनाफे दिखाने लगे हैं.
इस का अर्थ यह नहीं है कि देश में बैंकिंग व्यवस्था सुधर गई है. बैंक चूसने वाले साहूकार थे और आज भी वैसे ही हैं. वे कर्ज, क्रैडिट कार्ड, होम लोन, एजुकेशन लोन, ट्रैवल लोन लेने को लोगों को उकसाते हैं और फिर वसूली के लिए घरदुकान नीलाम करते हैं. बैंकों के नियम हर रोज बदलते है. बैंक आज तमाम सुविधाओं का लालच दे कर लोगों से फिक्स्ड डिपौजिट या अन्य खाता खुलवाने को लुभाते हैं और लोग खाता खुलवा भी लेते हैं. लेकिन उन्हें हक़ रहता है कि अगले किसी भी क्षण वे रिजर्व बैंक के आदेश का हवाला दे कर उन सुविधाओं को कम कर सकते हैं या बंद कर सकते हैं जिन से प्रभावित हो कर ग्राहकों ने खाते खुलवाए.

बैंकों के मुनाफे बढ़ रहे है क्योंकि बैंकिंग व्यवस्था आज हर नागरिक का हर खाता, वह चाहे किसी भी बैंक में हो, खंगाल सकती है. सिबिल प्रणाली से किसी को भी बैंकिंग व्यवस्था से बाहर कर के उसे कंगाल बनाया जा सकता है. केवाईसी का बहाना बना कर किसी का भी पैसा जब्त किया जा सकता है. जब बैंकों के पास सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की शह पर हर तरह के हथियार होंगे तो सरकार की कैशलैस नीतियों और औनलाइन पेमैंट की व्यवस्था का लाभ उन्हें मिलेगा ही और फिर मुनाफा तो होगा ही.
बैंक कस्टमरफ्रैंडली होते हैं, यह सिर्फ कहने की बात है. बैंकों को ढंग से चलाने के नाम पर रिजर्व बैंक असल में बैंकों के ग्राहकों को शिकंजों में कसता है जिस से बैंकों का मुनाफा बढ़ रहा है पर आम ग्राहक पिस रहा है. सभी बैंकों ने मिल कर हर सुविधा की मोटी फीस लगानी शुरू कर दी है जो कभी भी बढ़ाई जा सकती है. केंद्र सरकार और उस के इशारे पर चलने वाला रिजर्व बैंक जनता को चूसने के नएनए तरीके अपना रहे हैं और यह पैसा सरकार के बहुत ही घनिष्ठ उन बड़े उद्योगपतियों के पास जा रहा है जो अरबोंखरबों के कर्ज में डूबे हैं लेकिन दुनिया के अमीरों में गिने जाते हैं.

यह बैंकिंग व्यवस्था की देन है कि भारत के 2 शहरों- दिल्ली व मुंबई- में दुनिया के अमेरिकी डौलर वाले बिलियनायर्स भरे पड़े हैं जो यूरोपीय व अमेरिकी बिलियनायर्स को चिढ़ा रहे हैं कि देखो, इस गरीब देश में बैंकों से मिलीभगत कर के कितना पैसा जमा किया जा सकता है.
बैंक व्यवसायों का साथ दें, उन के साथ मुनाफा कमाएं, इस पर किसी को एतराज नहीं. पर केंद्र सरकार की शह पर ‘वे’ सूदखोर महाजन बन गए हैं, यह देश की दुखद हालत है. देश के 2 लाख किसानों की आत्महत्याएं बैंकों के कर्ज के कारण होने वाली वसूली के जोखिम के कारण ही हुई हैं, यह न भूलें.

जुड़वा बच्चे और फिल्मों में इस के रूपांतरण में है कितना है अंतर, आइए जानें

आपने कई फिल्में जुड़वा बच्चों पर आधारित देखे होंगे जो अधिकतर कौमेडी फिल्में होती हैं. इन फिल्मों में बहुत ही अजीबोगरीब चीजें दिखाई जाती हैं जिसे आम जिंदगी में विश्वास कर पाना मुश्किल होता है, मसलन एक को मार पड़ती है तो दूसरे को चोट लगती है. एक बीमार होता है तो दूसरा भी बीमार हो जाता है.

सलमान खान की फिल्म जुड़वा ऐसी ही फिल्म है जिसे बौक्स औफिस पर काफी सफलता मिली, क्योंकि दर्शकों ने इस फिल्म को खूब एंजोय किया. इस के अलावा एक का किसी लड़की से प्यार होना तो उसी शक्ल सूरत का दूसरे का वहां पहुंच जाना, फिर न जाने कितने ही मजेदार चीजें उन की जिंदगी में घट जाना होता है.

गुलजार की 1982 की बनी फिल्म ‘अंगूर’ भी बौक्स औफिस पर हिट फिल्म रही. दर्शकों ने इसे खूब पसंद किया. इन फिल्मों की संख्या कई है मसलन अनहोनी (1952), हम दोनों (1961), राम और श्याम (1967), कलियां (1968), आराधना (1969), शर्मीली (1971), सीता और गीता (1972), डोन (1978), चालबाज (1989), संगीत (1992), जुड़वा 2 (2017) आदि. सालों से ऐसी फिल्में किसी न किसी रूप में बनाई जाती रही हैं और मनोरंजन की दृष्टि से इन फिल्मों को दर्शक अधिक पसंद भी करते हैं पर रियल लाइफ में जुड़वा बच्चों के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि उन का जन्म और परवरिश दोनों ही बहुत अलग और कठिन होता है, आइए जानते हैं.

क्या  कहना है विज्ञान का

असल में जिन महिलाओं के जुड़वा बच्चे होते हैं उन पर जीन का प्रभाव रहता है. नीदरलैंड के व्रिजे यूनिवर्सिटी के बायोलौजिकल साइकोलौजिस्ट डोरेट बूमस्मा के मुताबिक यदि आप के वंश में किसी के जुड़वा बच्चे हुए हैं तो आप के भी हो सकते हैं. ये एक तरह की अनुवांशिक प्रक्रिया होती है.

अमेरिकन जर्नल औफ ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के तहत महिला और पुरुष के जीन एक साथ मिल कर कुछ विशेष क्रिया के होने से भी जुड़वा बच्चों का जन्म होता है, इस से शुक्राणु सक्रिय हो जाते हैं.

जुड़वा बच्चे भी दो प्रकार के होते हैं. पहला जिसे डायजाइगोटिक कहते हैं, इस में पैदा हुए बच्चे दो लड़के व दो लड़कियां व एक लड़का और एक लड़की हो सकते हैं, इन की आदतें तो काफी कुछ एक जैसी होती हैं, लेकिन इन की शख्ल में थोड़ा अंतर रहता है.

वहीं जुड़वा बच्चों का दूसरा प्रकार है मोनोजाइगोटिक. इस प्रक्रिया के तहत जन्म लेने वाले बच्चे हूबहू एक जैसे दिखते हैं, इन के नेचर से ले कर इन के लुक तक सब कुछ एक समान रहता है. इसलिए इन के बीच पहचान करना बहुत मुश्किल हो जाता है.

डायजाइगोटिक जुड़वा बच्चों का निर्माण तब होता है जब स्त्री पुरुष के शुक्राणु से दो अलग अंडकोशिका में शुक्राणुओं को निषेचित करती है. वहीं कई बार हार्मोनल इंबैलेंस की वजह से भी स्त्री के गर्भ में दो अंडे बनते हैं.

इन अंडों के बनने की प्रक्रिया स्त्री और पुरुष के एक बार संबंध बनाते ही सक्रिय हो जाते हैं. डायजाइगोटिक प्रक्रिया के तहत जन्म लेने वाले बच्चों का जन्म कुछ सैकेंड व मिनट के अंतराल पर होता है, क्योंकि दोनों बच्चे दो अलगअलग अंडों में होते हैं. इसलिए पहले एक बच्चे का जन्म होता है, इस के बाद दूसरे बच्चे का.

मोनोजाइगोटिक बच्चों के जन्म के तहत एक शुक्राणु दो हिस्सों में बंट जाता है. इस कारण इन की शक्ल, कदकाठी और व्यवहार एक जैसा ही होता है, ऐसे बच्चों का जन्म अनुवांशिक असर की वजह से होता है, अगर परिवार में किसी के ऐसे जुड़वा बच्चे हैं, तो आप के भी ऐसे होने की संभावना रहती है.

अमेरिकन कालेज औफ अब्स्टेट्रिक्स एंड गाइनोकोलौजी में छपी एक स्टडी के मुताबिक जिन महिलाओं का बीएमआई 30 या उस से ज्यादा होता है. उन के भी जुड़वा बच्चे होने की संभावना रहती है. इस के अलावा उम्र बढ़ने पर भी महिलाओं के जुड़वा बच्चे होने की आशंका रहती है.

इस के अलावा गर्भधारण रोकने के लिए महिलाएं गर्भ निरोधक गोलियां खाती हैं, लेकिन इन दवाइयों के सेवन से भी जुड़वा बच्चों का जन्म हो सकता है. दरअसल कुछ समय बाद इन दवाइयों को लेना बंद करने से कई बार हार्मोनल इंम्बैलेंस हो जाता है, जिस के चलते 2 बच्चे पैदा होते हैं.

मौडर्न तकनीक है जिम्मेदार

दुनिया भर में हर साल लगभग 1.6 मिलियन जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं, हर 42 बच्चों में से एक जुड़वां पैदा होता है. विलंबित प्रसव, आईवीएफ, आईसीएसआई कृत्रिम गर्भाधान आदि जैसी चिकित्सा तकनीकों के कारण 1980 के दशक के बाद से जुड़वां बच्चों के जन्म की दर में एक तिहाई की वृद्धि देखी गई है.

ह्यूमन रिप्रोडक्शन जर्नल में एक वैश्विक अवलोकन के अनुसार 30 वर्षों में सभी क्षेत्रों में जुड़वा बच्चों की दर में बड़ी वृद्धि आज शिखर पर है. एशिया में 32 प्रतिशत की वृद्धि से ले कर उत्तरी अमेरिका में 71 प्रतिशत वृद्धि हुई है.

जुड़वा बच्चों का पालनपोषण नहीं आसान

इन बच्चों के पालनपोषण में भी कई समस्याएं मां और परिवार को आती है. मसलन रश्मि 6 साल के जुड़वा दो बेटियों की मां है, दोनों के चेहरे एक जैसे हैं, इसे रश्मि ही पहचान पाती है कि कौन काव्या और कौन नव्या है. वह जौब भी करती है और साथ में इन दोनों बेटियों की देखभाल भी करती है. उन्हें पूरा दिन इन बच्चों के पीछे गुजारना पड़ता है हालांकि इस में उन की मां और पति दोनों ही सहयोग देते हैं लेकिन दोनों बच्चों को पालते हुए घरपरिवार को संभालना उन के लिए आसान नहीं होता, उन्हे हर रात अगले दिन की प्लानिंग करनी पड़ती है, ताकि सुबह से सभी काम ठीक से हो जाए.

सुमन भी दो जुड़वा बेटों रुद्रान्स और रेयान्स की मां है. इन दोनों के चेहरे काफी अलग हैं, दोनों के स्वभाव में भी काफी अंतर है, एक बहुत अधिक जिद्दी तो दूसरा शांत है. इस के अलावा जुड़वा बच्चों के शारीरिक बनावट में भी अंतर आता है, एक थोड़ा कमजोर तो दूसरा मजबूत. इस वजह से दोनों के मानसिक स्तर भी अलग हो सकता है, रश्मि की बेटी नव्या पढ़ाई में कमजोर है तो दूसरी थोड़ी काव्या तेज है.

फिल्मों में जो दिखाया जाता है कि एक को चोट लगने पर दूसरे को उस की पीड़ा होती है, ऐसा रियल में कभी नहीं होता, क्योंकि 35 साल की लबीना और रुबीना दोनों जुड़वा है और दोनों अलगअलग शहरों में रहते हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक को कुछ हुआ हो, तो दूसरे को भी उस का एहसास होता हो. दोनों बहने आम बहनों की तरह ही है, बचपन में जब दोनों छोटी थी, तब एकदूसरे के साथ रहने पर एक की बीमारी दूसरे को हो जाया करती थी, जो किसी भी छोटे भाईबहन के साथ हो सकता है.

जुड़वा बच्चों के पालनपोषण कैसे करें

वैसे तो जुड़वा बच्चे होने पर मातापिता की खुशी दुगुनी हो जाती है, लेकिन दोनों बच्चों का पालनपोषण में दोगुनी चुनौती और समस्याएं भी आती है, जिस का ख्याल पेरैंट्स को रखना पड़ता है, क्योंकि जुड़वा बच्चों के सीखने की क्षमता और आदतें अलगअलग हो सकती हैं, जिसे ले कर मातापिता परेशान रहते हैं. कुछ सुझाव निम्न हैं,

• जुड़वा बच्चों के पालनपोषण का महत्वपूर्ण हिस्सा अच्छी तरह से समय की प्लानिंग करना होता है, ताकि बच्चों की आदतें और शेड्यूल अलग होने पर भी आप उन्हें नियंत्रित कर सकें. इस में महत्वपूर्ण होता है, बच्चों के खाने और सोने का सही शेड्यूल करना, इस से बच्चे की ग्रोथ सही होता है और बच्चे स्वस्थ रहते हैं.

• अपने पेरैंट्स, दोस्तों और पड़ोसियों से बच्चों के पालनपोषण में सहायता के लिए पूछना बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि वे कई बार अधिक अनुभवी होते हैं और जानते हैं कि अलगअलग समय पर बच्चों से कैसे व्यवहार करना है, ऐसा करने पर बच्चों के लालनपालन का सही तरीका आप को पता चलता है.

• माताओं के लिए, दोनों बच्चों को एक ही समय पर स्तनपान की आदत विकसित करना महत्वपूर्ण होता है, इस से आप को जुड़वा बच्चों को एक साथ ब्रेस्ट फीडिंग में मदद मिलेगी और आप की समस्या भी कम हो जाएगी. स्तनपान के बाद एक साथ दो बच्चों को डकार दिलवाना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है, इसलिए आसपास में रह रहे बड़े बुजुर्ग या पति की सहायता लें.

• जुड़वा बच्चों वाले मातापिता से जुड़ कर उन की मदद लें, क्योंकि कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिन में केवल जुड़वा बच्चों के मातापिता ही आप की मदद कर सकते हैं. जिन मातापिता को जुड़वा बच्चों को संभालने का अनुभव है, वे आप को बता सकते हैं कि उन्हें अधिक कुशलता से कैसे संभाला जाए, उन के अनुभव को सुनें.

• मातापिता के लिए सब से कठिन चीजों में से एक है अपने बच्चों को रोते हुए देखना. जुड़वा बच्चों के साथ यह और भी मुश्किल हो सकता है क्योंकि अगर दोनों जुड़वा बच्चे एक साथ रोते हैं, तो उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो सकता है. विशेषज्ञ के अनुसार, जुड़वा बच्चों को कुछ देर रोने देना चाहिए और देखना चाहिए कि उन्हें वास्तव में क्या चाहिए. पहले साल में तो यह और भी मुश्किल हो सकता है, जब वे कुछ बोल नहीं पाते. चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होती है, इस अवस्था में बच्चों का रोना सामान्य होता है.

• जुड़वा बच्चों का आपस में एक बंधन होता है. इसलिए ऐसे बच्चों के पालनपोषण में यह एक महत्वपूर्ण सबक, थोड़ी सख्त होने की होती है.

• बच्चों की सही परवरिश करने के लिए, मातापिता को यह समझने की जरूरत होती है कि उन की अपनी विशिष्ट पहचान है, जिस का उन्हें सम्मान करना और बनाए रखना आवश्यक है. कई मातापिता अपने बच्चों को एक जैसे कपड़े पहनाते हैं, उन्हें एक जैसे खिलौने देते हैं और एक जैसी गतिविधियां कराते हैं. इस से किसी एक जुड़वा बच्चे के विकास में बाधा आ सकती है, जो समस्याग्रस्त हो सकता है. इसलिए उन की मांगों और आदतों को समझें और उस के अनुसार पर्याप्त दिशा निर्देश दें.

• जुड़वा बच्चों के बीच तुलना करना कोई स्वस्थ आदत नहीं है. इस से उन के स्वास्थ्य और मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. जिन जुड़वा बच्चों की विकास प्रक्रिया के हर चरण पर तुलना की जाती है, उन में एकदूसरे के बारे में नकारात्मक विचार विकसित होते हैं जो उन के बंधन और स्वास्थ्य पर प्रभाव डाल सकते हैं. कई जुड़वा बच्चे इस समस्या से पीड़ित होते हैं और लगातार तुलना के कारण उन में दूसरे जुड़वा से नफरत की भावना विकसित हो जाती है. इसलिए बच्चों की समझ को सुनें और उस के अनुसार उन्हें प्रोत्साहित करें.

• प्रत्येक जुड़वां बच्चे के साथ व्यक्तिगत रूप से कुछ समय बिताने से मातापिता को अपने बच्चों की अलग पहचान विकसित करने में मदद मिल सकती है. इस से उन्हें बच्चों को बेहतर ढंग से समझने में भी मदद मिलेगी. वैज्ञानिक शोध के अनुसार, कुछ गुणवत्तापूर्ण समय की योजना बनाना, बैठ कर किताबें पढ़ना, बाजार जाना, गेम खेलना बहुत सकारात्मक प्रभाव डालता है. इस से दोनों बच्चों को भी ध्यान और उपस्थिति का एहसास होता है. उन के जीवन के अनुभव भी उन के व्यक्तिगत अर्थों में विकसित होते हैं, जो बड़े होने पर उन्हें विशिष्ट पहचान बनाने में मदद करते हैं.

धर्म और राजनीति के वार, रिश्ते तार तार

मधु और अंजू की दोस्ती सात साल से ऐसी थी कि दोनों हर सुख दुःख में एक साथ होते, मन की हर बात एक दूसरे से शेयर करते, दोनों रहते भी एक ही सोसाइटी में थे, दो साल पहले मधु के पति की अचानक मृत्यु हो गयी तो अंजू मधु का और भी ध्यान रखने लगी, उसकी हर जरुरत के समय हाजिर रहती,मधु और अंजू दोनों अच्छी दोस्त जरूर थीं  पर दोनों के सोचने का ढंग एक दूसरे से बिलकुल मेल नहीं खाता था, जहाँ मधु हर बात में धर्म और राजनीति में गहरी रूचि रख कर बात करती, वहीँ अंजू विवेक से काम लेने वाली, तर्कसंगत बातों को सोचने वाली इंसान थी.  मधु की कई बातें अंजू को पसंद न आती, पर एक अच्छी दोस्त होने के नाते वह मधु की काफी बातों को इग्नोर कर देती. जबसे मधु के पति की डेथ हुई थी, मधु अपनी हेल्थ के प्रति काफी लापरवाह होती जा रही थी, एक दिन अंजू ने डांटा,” तुम्हे शुगर है, डॉयबिटीज है,न तो टाइम से सो रही हो, न टाइम से खा रही हो, न कहीं सैर के लिए जाती हो,करती क्या हो पूरा दिन?”

”नींद नहीं आती, फोन पर वीडिओज़ देखती रहती हूँ, ”मधु ने गंभीरता पूर्वक कहा.

अंजू को उससे सहानुभूति हुई, फिर कहा,” टाइम से सोने की कोशिश किया करो, धीरे धीरे नींद आने लगेगी.‘’

एक बात और थी कि अंजू और मधु अलग अलग राजनैतिक पार्टी को सपोर्ट करते, अंजू समझ चुकी थी कि मधु अपने सामने कोई भी तर्क, विचार नहीं सुनना चाहती इसलिए वह कभी अब पॉलिटिक्स की बात मधु से न करती, अंजू ने पूछ लिया,” पर कौनसे वीडिओज़ देखती हो?”

”पॉलिटिक्स से सम्बंधित, यू ट्यूब पर.‘’

”अरे, यार, तुम उन वीडिओज़ में अपनी रातें खराब कर रही हो? पता भी नहीं होता है कि क्या झूठ है,क्या सच! कितने सच छुपा दिए जाते हैं, कितने झूठ सामने रख दिए जाते है.”

अब तक अंजू और मधु बिगबॉस का हर सीजन देखती आयी थीं, दोनों सलमान खान की फैन थीं, दोनों इस प्रोग्राम को डिसकस करतीं,खूब हंसती, आनंद लेतीं, अंजू ने पूछ लिया,”एक बात बताओ, बिगबॉस देख रही हो न?”

मधु ने चिढ कर कहा,”नहीं, सलमान खान की न कोई मूवी देखूंगी,न कोई शो !’

”क्यों, भाई, क्या हुआ?”

”बस, नहीं देखूंगी.‘’

मधु के उखड़े स्वर के बाद अंजू ने फिर कुछ नहीं कहा. थोड़े दिन बाद फिर अंजू ने मधु को फोन कर उसके हालचाल लिए, और कहा, हेल्थ का ध्यान रख रही हो न?”

”सारी रात तो जागती हूँ, पर दिन में थोड़ा बहुत सो लेती हूँ.‘’

”रात में फिर क्या करती हो?”

”बताया था न, पॉलिटिक्स में इतना कुछ चल रहा है, सब जानकारी लेने के लिए यू ट्यूब पर वीडिओज़ देखती रहती हूँ, सुबह के पांच बज जाते हैं,पता ही नहीं चलता,” इसके बाद मधु ने बहुत कठोर सी आवाज में कहा,” और तुम मुझे समझाने की कोशिश भी न करना कि मुझे क्या देखना चाहिए, क्या नहीं, तुम्हारे विचार मेरी पार्टी से अलग रहते हैं, मैं समझ गयी हूँ,  मैं जिस पार्टी को सपोर्ट करती हूँ, मुझे उस पर विश्वास है.”

मधु के स्वर में एक अकड़ थी, कटुता थी, अंजू को अपना अपमान महसूस हुआ, वह दिल से मधु को प्यार करती थी, उसकी चिंता करती थी, वह हैरान भी थी कि यह कब होता गया, उनकी दोस्ती में राजनीति ने कब अपनी कड़वी घुसपैठ कर ली ! पता ही नहीं चला ! इससे पहले भी कई बार मधु ने पॉलिटिक्स को लेकर, दूसरों के धर्मों को लेकर  ऐसी बातें की थीं कि अंजू को अच्छा नहीं लगा था,उसने इग्नोर कर दिया था,विचार नहीं मिलते थे,यह तो पता था,पर ऐसी बात तो कभी नहीं हुई थी कि दिल दुखा  हो ! इसके बाद पंद्रह दिन पहली बार बीते कि दोनों ने एक दूसरे से कोई संपर्क नहीं किया, फिर यह अंतराल बढ़ता गया, फिर कभी तीज त्यौहार पर एक दूसरे को विश करने की औपचारिकता ही रह गयी, धीरे धीरे दोनों के बीच में एक दूरी  आती गयी, जिस दोस्ती पर दोनों इतराते थे, वह कहाँ गयी, पता ही नहीं चला !

तीस वर्षीया सबा खान का अनुभव  बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है, वे बताती हैं, ”जब मैं दूसरी क्लास में थी, स्कूल में  मेरी एक सहेली बनी, रचना खन्ना, आज इतने सालों बाद भी मैं यह अनुभव नहीं भूलती, रचना के साथ मैं स्कूल में खूब खेलती, अचानक उसने मुझसे बोलना छोड़ दिया, बाकी लड़कियों को भी कहा, कि कोई मुझसे न खेले, न बात करे, बहुत दिनों तक मैं चुपचाप बैठी रहती, मैंने रचना से पूछा कि वह मुझसे क्यों नहीं खेल रही है, उसने कहा,” मेरी मम्मी ने मना किया है.‘’

मैंने पूछा ,”क्यों?”

”क्योकि तुम मुस्लिम हो !”

मैं ऐसी हो गयी थी कि न मेरा पढ़ाई में मन लगता, न स्कूल जाने का मन करता, मेरा काम  अधूरा ही रह जाता, टीचर ने मेरे पेरेंट्स को बुलाया और मेरी शिकायत की, सबके सामने मुझसे पूछा गया कि मैं इतनी डल क्यों हो गयी हूँ,” मैंने कहा,”मुझसे न कोई खेलता है, न बात करता है. और उन्हें रचना की बात बताई. रचना को भी बुलाया गया और उसे बहुत समझाया गया कि ऐसी बातें नहीं करते, वह तो अच्छा हुआ कि उसी साल हमारा उस शहर से ट्रांसफर हो गया, अब तो पुरानी बात हो गयी पर मैं यह बात कभी भूलती नहीं.‘’

सबा का बाल मन कितना आहत हुआ होगा, इसका अंदाजा  लगाना मुश्किल नहीं है, उस बच्ची रचना की भी कोई गलती नहीं है, गलती है हमारे समाज की जो तीस साल पहले भी रिश्तों में, दोस्ती में धर्म को महत्त्व देता था, आज भी देता है, आज भी वही हो रहा है जो सालों से होता आ रहा है, मतलब समाज में इस बात में कोई बदलाव नहीं आया कि इंसान इंसानियत को अपना धर्म माने, दोस्ती में ये चीजें न आएं.

किटी पार्टी चल रही थी, एक आरती को छोड़ कर सब की सब महिलाएं राम मंदिर निर्माण पर चर्चा करने लगीं, सुधा ने कहा,” मैं तो मंदिर के लिए खूब चंदा दूँगी, चलो, एक ग्रुप बना कर चंदा लेने का काम करते हैं.‘’

आरती ने कहा,” मैं मंदिर के नाम पर एक पैसा नहीं दूँगी,हाँ, किसी स्कूल या हॉस्पिटल के नाम पर मैं अच्छी खासी रकम देने को तैयार हूँ.‘’

फिर क्या था, सब की सब उसके पीछे पड़ गयीं, सुधा सबमें उम्रदराज थीं, गुस्से से बोलीं,” तुम जैसी महिलाओं ने ही धर्म का सत्यानाश कर दिया है.‘’

आरती भी कब तक उम्र का लिहाज करती ! उसने भी कहा,” आप लोगों ने धर्म की कितनी सेवा कर ली ! इतनी नफ़रतें रखते हो एक दूसरे के लिए, समाज का बेड़ागर्क हुआ जा रहा है, कितने बुद्दिजीवी सताये जा रहे हैं, कोई अपने मन की बात नहीं कर सकता, किसी को तर्कसंगत बात नहीं सुननी, धर्म ने दिया क्या है?” फिर तो जो हुआ, कल्पना से परे था, बात कहाँ से कहाँ पहुँच गयी, सुधा और आरती के चेहरे गुस्से से लाल होते रहे, काफी अपमानजनक बातें सुनने के बाद आरती पानी की एक घूँट भी पिए बिना वहां से उठ  कर घर आ गयी, दस सालों से इस किटी पार्टी की सबसे इंटेलीजेंट, खुशमिजाज मेंबर ग्रुप छोड़कर चली गयी पर सब जरा सी भी गलती माने बिना अपनी बात को सही कहती रहीं.

एक बड़ी कंपनी में कार्यरत सुजय बताते हैं कि ‘आजकल ऑफिस में सबके साथ बैठ कर लंच करना मुश्किल होता जा रहा है, अजीब सी बहस चलती रहती है, कहाँ काम से ब्रेक लेकर आराम से खाना खाने का मन करता है, पर राजनीति पर चलने वाली बहस से सारा मजा खराब हो जाता है, आजकल साथ बैठ कर हंसना बोलना तो जैसे बंद ही होता जा रहा है. किसी के भी विरोध में बोल दो, सामने वाला लड़ने पर उतारू हो जाता है.’

साठ साल के  अनिल इस विषय पर अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं,” मैं बड़ा खुश था, जब हम साथ पढ़े हुए दोस्तों ने एक दूसरे को ढूंढ कर व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाया, सब एक दूसरे से दोबारा जुड़कर बहुत ज्यादा  खुश थे, सारा  दिन ग्रुप पर खूब मन लगता, सब जैसे पुराने दिनों में पहुँच गये थे, पर फिर धर्म से जुड़े,राजनीति से जुड़े फ़ॉर्वर्डेड मेसेजस भेजे जाने लगे, किसी ने आपत्ति की कि यह दोस्तों का ग्रुप है, यहाँ धर्म और राजनीति बीच में नहीं आनी चाहिए क्यूंकि हर  मेंबर के अपने विचार होंगें, पर लोग नहीं माने और फिर आपस में एक दूसरे को तल्खी से जवाब देने लगे, कई बार इतने लम्बे लम्बे मैसेज में एक दूसरे  को कड़वा रिप्लाई करते कि पढ़ते पढ़ते ही लगता कि यह क्या हो रहा है,हम दोस्त हैं या दुश्मन? फिर ग्रुप पर कहा गया कि इन विषयों पर जिसने बहस की, उसे ग्रुप से हटा दिया जायेगा, इसका भी असर नहीं हुआ, शान्ति पसंद लोग धीरे धीरे ग्रुप से दूर होते चले गए, इन मुद्दों पर बहस करने वालों को हटा दिया गया तो ग्रुप की रौनक लौटी.‘’

मसूद  और आलोक एक ही ऑफिस में हैं, दोनों बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए हैं,वे कभी किसी भी धर्म की बात ही नहीं करते, राजनीति पर उनके विचारों में काफी मतभेद हैं, दोनों इस विषय पर खूब बातेंकरते  हैं, अपने अपने पॉइंट्स रखते हैं, दोनों एक दूसरे के विचार बहुत ध्यान से सुनते हैं, सभ्य शब्दों में अपनी सहमति,असहमति दिखा काट टॉपिक चेंज कर देते हैं,पांच सालों में उनकी दोस्ती समय के साथ पक्की ही होती गयी है.

धर्म और राजनीति हमेशा से इंसान व समाज पर अपना गहरा प्रभाव डालते रहे हैं. इतिहास में भी धार्मिक केंद्रों को राजनीतिक सत्ता केंद्र के रूप में भी देखा जाता रहा है, दोनों का आपसी सम्बन्ध चर्चा का विषय बनता रहा है , कभी कभी इनकी मिथ्या प्रस्तुति के कारण विवाद भी पैदा होते रहे हैं पर आपसी रिश्तों में धर्म और राजनीति का आ जाना दुखद है न? हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई,जैन, बौद्ध आदि के बारे में कहा जाता है कि ये धर्म नहीं, सम्प्रदाय हैं, धर्म तो हर मनुष्य का एक ही है, वह है मानव धर्म.आपस के रिश्तों को निभाने के लिए सभी को इस बात का ध्यान रखना होगा कि आपसी प्यार में धर्म और राजनीति को लेकर कोई कड़वाहट न आये, दोस्ती,प्यार में इन चीजों की जगह नहीं, दुनिया में वैसे ही नफ़रतें बढ़ती जा रही हैं, हर आम इंसान का अपनी ओर से समाज में इतना सा योगदान जरूर हो कि वह आपसी रिश्तों का मान रखे, एक दूसरे के विचार से सहमत न हों तो बहस से बचें, अपने विचार दूसरे पर थोपने से बचें.

गलतफहमी: क्या नीना को उसका प्यार मिल पाया

लेखक- संजय कुमार सिंह

नीना के प्रति मेरा आकर्षण चुंबक की तरह मुझे खींच रहा था. एक दिन मैं ने हंस कर सीधेसीधे उस से कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं.’’ वह ठहाका मार कर हंसी, ‘‘तुम बड़े नादान हो रविजी. महानगर में प्यार मत करो, लुट जाओेगे.’’ उस ने फिर कहीं दूर भटकते हुए कहा, ‘‘इस शहर में रहो, पर सपने मत देखो. छोटे लोगों के सपने यों ही जल जाते हैं. जिंदगी में सिर्फ राख और धुआं बचते हैं. सच तो यह है कि प्यार यहां जांघों के बीच से फिसल जाता है.’’ ‘‘कितना बेहूदा खयाल है नीना…’’ ‘‘किस का…?’’ ‘‘तुम्हारा,’’ मैं ने तल्ख हो कर कहा, ‘‘और किस का?’’ ‘‘यह मेरा खयाल है?’’ वह हैरान सी हुई, ‘‘तुम यही समझे…?’’ ‘‘तो मेरा है?’’ ‘‘ओह…’’ उस ने दुखी हो कर कहा, ‘‘फिर भी मैं कह सकती हूं कि तुम कितने अच्छे हो… काश, मैं तुम्हें समझा पाती.’’ ‘‘नहीं ही समझाओ तो अच्छा,’’ मैं ने उस से विदा लेते हुए कहा, ‘‘मैं समझ गया…’’ रास्तेभर तरहतरह के खयाल आते रहे.

आखिरकार मैं ने तय किया कि सपने कितने भी हसीन हों, अगर आप बेदखल हो गए हों, तो उन हसरतों के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए. मैं नीना की जिंदगी से कट सा गया था. मैं नीना को एक बस के सफर में मिला था. वह भी वहीं से चढ़ी थी, जहां से मैं चढ़ा था और वहीं उतरी भी थी. कुछ दिन में हैलोहाय से बात आगे बढ़ गई. वह एक औफिस में असिस्टैंट की नौकरी कर रही थी. बैठनाउठना हो गया. वह बिंदास थी, पर बेहद प्रैक्टिकल. कुछ जुगाड़ू भी थी. मेरे छोटेमोटे काम उस ने फोन पर ही करा दिए थे. उस दिन मैं फैक्टरी से देर से निकला, तो जैक्सन रोड की ओर निकल गया. दिल यों भी दुखी था, क्योंकि फैक्टरी में एक हादसा हो गया था. बारबार दिमाग में उस लड़के का घायल चेहरा आ रहा था. मैं एक मसाज पार्लर के पास रुक गया. यह पुराना शहर था अपनी स्मृति में, इतिहास को समेटे हुए.

मैं ने घड़ी देखी. 7 बज रहे थे. मैं थकान दूर करने के लिए घुस गया. अभी मैं जायजा ले ही रहा था कि मेरी नजर नीना पर पड़ी, ‘‘तुम यहां…?’’ ‘‘मैं इसी पार्लर में काम करती हूं.’’ ‘‘पर, तुम ने तो बताया था कि किसी औफिस में काम करती हो…’’ ‘‘हां, करती थी.’’ ‘‘फिर…?’’ ‘‘सब यहीं पूछ लोगे क्या…?’’ कहते हुए वह दूसरे ग्राहक की ओर बढ़ गई. नशे से लुढ़कतेथुलथुले लोगों के बीच से वह उन्हें गरम बदन का अहसास दे रही थी. यह देख मुझे गहरा अफसोस हुआ. मैं सिर्फ हैड मसाज ले कर वापस आ गया. रास्ते में मैं ने फ्राई चिकन और रोटी ले ली थी. कमरे में पहुंच कर मैं ने अभी खाने का एक गस्सा तोड़ा ही था कि मोहन आ गया. ‘‘आओ मोहन,’’ मैं ने कहा, ‘‘बड़े मौके से आए हो तुम.’’ ‘‘क्या है?’’ मोहन ने मुसकराते हुए पूछा. वह एक दवा की दुकान पर सेल्समैन था. पूरा कंजूस और मजबूर आदमी. अकसर उसे घर से फोन आता था, जिस में पैसे की मांग होती थी.

इस कबूतरखाने में इसी तरह के लोग किराएदार थे, जो दूर कहीं गांवघर में अपने परिवार को छोड़ कर अपना सलीब उठाए चले आए थे. मैं ने थाली मोहन की ओर खिसकाई. बिना चूंचूं किए वह खाने लगा. मोहन बोला, ‘‘यार रवि, तुम्हीं ठीक हो. तुम्हारे घर वाले तुम्हें नोचते नहीं. मैं तो सोचता हूं कि मेरी जिंदगी इसी तरह खत्म हो जाएगी कि मैं वापस भी नहीं जा सकूंगा गांव… पहले यह सोच कर आया था कि 2-4 साल कमा कर लौट जाऊंगा… मगर, 10 साल होने को हैं, मैं यहीं हूं…’’ ‘‘सुनो मोहन, मुझे फोन इसलिए नहीं आते हैं कि मेरे घर में लोग नहीं हैं… बल्कि उन्हें पता ही नहीं है कि मैं कहां हूं… इस दुनिया में हूं भी कि नहीं… यह अच्छा है… आज जिस लड़के के साथ हादसा हुआ, अगर मेरी तरह होता तो किस्सा खत्म था, पर अब जाने क्या गुजर रही होगी उस के घर वालों पर…’’ ‘‘एक बात बोलूं?’’ ‘‘बोलो.’’ ‘‘तुम शादी कर लो.’’ ‘‘किस से?’’ ‘‘अरे, मिल जाएगी…’’ ‘‘मिली थी…’’ मैं ने कहा. ‘‘फिर क्या हुआ?’’ ‘‘टूट गया.’’ रात काफी हो गई थी. मोहन उठ गया. सवेरे मेरी नींद देर से खुली, मगर फैक्टरी में मैं समय से पहुंच गया.

मुझे वहीं पता चला कि उस ने अस्पताल में रात तकरीबन 3 बजे दम तोड़ दिया. मैनेजर ने एक मुआवजे का चैक दिखा कर हमदर्दी बटोरने के बाद फैक्टरी में चालाकी से छुट्टी कर दी. मैं वापस लौटने ही वाला था कि नीना का फोन आया. चौरंगी बाजार में एक जगह वह इंतजार कर रही थी. ‘‘क्या बात है?’’ मैं ने पूछा. ‘‘कुछ नहीं,’’ वह हंसी. ‘‘बुलाया क्यों?’’ ‘‘गुस्से में हो?’’ ‘‘किस बात के लिए?’’ ‘‘अरे, बोलो भी.’’ ‘‘बोलूं?’’ ‘‘हां.’’ ‘‘झूठ क्यों बोली?’’ ‘‘क्या झूठ?’’ ‘‘कि औफिस में…’ ‘‘नहीं, सच कहा था.’’ ‘‘तो वहीं रहती.’’ ‘‘बौस देह मांग रहा था,’’ उस ने साफसाफ कहा. ‘‘क्या…?’’ मैं अवाक रह गया. काफी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘चलो, मुझे माफ कर दो. गलतफहमी हुई.’’ ‘‘गलतफहमी में तो तुम अभी भी हो…’’ ‘‘मतलब…?’’ मैं इस बार चौंका, ‘‘कैसे?’’ ‘‘फिर कभी,’’ नीना ने हंस कर कहा. उस दिन नीना के प्रति यह गलतफहमी रह जाती, अगर मैं उस के साथ जिद कर के उस के घर नहीं गया होता. मेरे घर की तरह दड़बेनुमा मकान था.

एक बिल्डिंग में 30-40 परिवार होंगे. सचमुच कभीकभी जिंदगी भी क्या खूब मजाक करती है. वह 2 बूढ़ों को पालते हुए खुद बूढ़ी हो रही थी. उस की मां की आंखों में एक चमक उठी. कुछ अपना रोना रोया, कुछ नीना का. मेरा भी कोई अपना कहने वाला नहीं था. भाई कब का न जाने कहां छोड़ गया था. मांबाप गुजर चुके थे. चाचाताऊ थे, पर कभी साल 2 साल में कोई खबर मिलती. उस दिन नीना का हाथ अपने हाथ में ले कर मैं ने कहा, ‘‘मुझे अब कोई गलतफहमी नहीं है, तुम्हें हो, तो कह सकती हो.’’ ‘‘मुझे है,’’ उस ने हंस कर कहा, ‘‘पर, कहूंगी नहीं.’’ एक खूबसूरत रंग फिजा में फैल कर बिखर गया. उस दिन उस के छोटे बिस्तर पर जो अपनापन मिला, मां की गोद के बाद कभी नहीं मिला था. दो महीने बाद दोनों ने शादी कर ली, बस 10 जने थे. न घोड़ी, न बरात, पर मुझे और नीना को लग रहा था कि सारी दुनिया जीत ली. अगली सुबह मैं अपने साथ खाने का डब्बा ले गया था. इस से बढ़ कर दहेज होता है क्या?

मैं जरा रो लूं : डॉक्टर के पास अकेले क्यों जाना चाहती थी वो?

सुबह जैसे ही वह सो कर उठी, उसे लगा कि आज वह जरूर रोएगी. रोने के बहुत से कारण हो सकते हैं या निकाले जा सकते हैं. ब्रश मुंह में डाल कर वह घर से बाहर निकली तो देखा पति कुछ सूखी पत्तियां तोड़ कर क्यारियों में डाल रहे थे.

‘‘मुझे लगता है आज मेरा ब्लडप्रैशर बढ़ने लगा है.’’

पत्तियां तोड़ कर क्यारी में डालते हुए पति ने एक उड़ती सी निगाह अपनी पत्नी पर डाली. उसे लगा कि उस निगाह में कोई खास प्यार, दिलचस्पी या घबराहट नहीं है.

‘‘ठीक है दफ्तर जा कर कार भेज दूंगा, अपने डाक्टर के पास चली जाना.’’

‘‘नहीं, कार भेजने की जरूरत नहीं है. अभी ब्लडप्रैशर कोई खास नहीं बढ़ा है. अभी तक मेरे कानों से कोई सूंसूं की आवाज नहीं आ रही है, जैसे अकसर ब्लडप्रैशर बढ़ने से पहले आती है.’’

‘‘पर डाक्टर ने तुम से कहा है कि तबीयत जरा भी खराब हो तो तुम उसे दिखा दिया करो या फोन कर के उसे घर पर बुलवा लो, चाहे आधी रात ही

क्यों न हो. पिछली बार सिर्फ अपनी लापरवाहियों के कारण ही तुम मरतेमरते बची हो. लापरवाह लोगों के प्रति मुझे कोईर् हमदर्दी नहीं है.’’

‘‘अच्छा होता मैं मर जाती. आप बाकी जिंदगी मेरे बिना आराम से तो काट लेते.’’ यह कहने के साथ उसे रोना आना चाहिए था पर नहीं आया.

‘‘डाक्टर के पास अकेली जाऊं?’’

‘‘तुम कहो तो मैं दफ्तर से आ जाऊंगा. पर तुम अपने डाक्टर के पास तो अकेली भी जा सकती हो. कितनी बार जा भी चुकी हो. आज क्या खास बात है?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ उस ने चिढ़ कर कहा.

‘‘सो कर उठने के बाद दिमाग शांत होना चाहिए पर, मधु, तुम्हें सवेरेसवेरे क्या हो जाता है.’’

‘‘आप का दिमाग ज्यादा शांत होना चाहिए क्योंकि  आप तो रोज सवेरे सैर पर जाते हो.’’

‘‘तुम्हें ये सब कैसे मालूम क्योंकि तुम तो तब तक सोई रहती हो?’’

‘‘अब आप को मेरे सोने पर भी एतराज होने लगा है. सवेरे 4 बजे आप को उठने को कौन कहता है?’’

‘‘यह मेरी आदत है. तुम्हें तो परेशान नहीं कर रहा. तुम अपना कमरा बंद किए 8 बजे तक सोती रहती हो. क्या मैं ने तुम्हें कभी जगाया? 7 बजे या साढ़े 7 बजे तक तुम्हारी नौकरानी सोती रहती है.’’

‘‘जगा भी कैसे सकते हैं? सो कर उठने के बाद से इस घर में बैल की तरह काम में जुटी रहती हूं.’’

खाना बनाने वाली नौकरानी 2 दिनों की छुट्टी ले कर गई थी पर आज भी नहीं आई. दूसरी नौकरानी आ कर बाकी काम निबटा गई.

नाश्ते के समय उस ने पति से पूछा, ‘‘अंडा कैसा लेंगे?’’

‘‘आमलेट.’’

‘‘अच्छी बात है,’’ उस ने चिढ़ कर कहा.’’

पति ने जल्दीजल्दी आमलेट और 2 परांठे खा लिए. डबलरोटी वे नहीं खा सकते, शायद गले में अटक जाती है.

उस ने पहला कौर उठाया ही था कि पति की आवाज आई, ‘‘जरा 10,000 रुपए दे दो, इंश्योरैंस की किस्त जमा करानी है.’’ चुपचाप कौर नीचे रख कर वह उठ कर खड़ी हो गई. अलमारी से 10,000 रुपए निकाल कर उन के  सामने रख दिए. अभी 2 कौर ही खा पाई थी कि फिर पति की आवाज आई, ‘‘जरा बैंक के कागजात वाली फाइल भी निकाल दो, कुछ जरूरी काम करने हैं.’’ परांठे में लिपटा आमलेट उस ने प्लेट में गुस्से में रखा और उठ कर खड़ी हो गई. फिर दोबारा अलमारी खोली और फाइल उन के हाथ में पकड़ा दी और नौकरानी को आवाज दे कर अपनी प्लेट ले जाने के लिए कहा.

‘‘तुम नहीं खाओगी?’’

‘‘खा चुकी हूं. अब भूख नहीं है. आप खाने पर बैठने से पहले भी तो सब हिसाब कर सकते थे. कोई जरूरी नहीं है कि नाश्ता करते समय मुझे दस दफा उठाया जाए.’’

‘‘आज तुम्हारी तबीयत वाकई ठीक नहीं है, तुम्हें डाक्टर के पास जरूर जाना चाहिए.’’

11 बजे तक खाना बनाने वाली नौकरानी का इंतजार करने के बाद वह खाना बनाने के लिए उठ गई. देर तक आग के पास खड़े होने पर उसे छींकें आनी शुरू हो गईं जो बहुत सी एलर्जी की गोलियां खाने पर बंद हो गईं.

 

उस ने अपने इकलौते बेटे को याद किया. इटली से साल में एक बार, एक महीने के लिए घर आता है. अब तो उसे वहां रहते सालों हो गए हैं. क्या जरूरत थी उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बाहर भेजने की? अब उसे वहां नौकरी करते भी कई साल हो गए हैं. एक महीना मां के पास रह कर वह हमेशा यही वादा कर जाता है, ‘अब की बार आऊंगा तो शादी जरूरी कर लूंगा, पक्का वादा रहा मां.’

झूठा कहीं का. हां, हफ्ते में एक बार फोन पर बात जरूर कर लेता है. उस की जिंदगी में बहुत खालीपन आ गया है. बेटे को याद कर के उसे हमेशा रोना आ जाता है पर आज नहीं आया.

लखनऊ से कितने दिन हो गए, कोई फोन नहीं आया. उस ने भी नहीं किया. पता नहीं अम्माजी की तबीयत कैसी है. वह अपने मांबाप को बहुत प्यार करती है. वह कितनी मजबूर है कि अपनी मां की सेवा नहीं कर पाती. बस, साल में एक बार जा कर देख आती है, ज्यादा दिन रह भी नहीं सकती है. क्या यही बच्चों का फर्ज है?

उस ने तो शायद अपनी जिंदगी में किसी के प्रति कोई फर्ज नहीं निभाया. अपनी निगाहों में वह खुद ही गिरती जा रही थी. सहसा उम्र की बहुत सी सीढि़यां उतर कर अतीत में खो गई और बचपन में जा पहुंची. मुंह बना कर वह घर की आखिरी सीढ़ी पर आ कर बैठ गई थी, बगल में अपनी 2 सब से अच्छी फ्राकें दबाए हुए. बराबर में ही अब्दुल्ला सब्जी वाले की दुकान थी.

‘कहो, बिटिया, आज क्या हुआ जो फिर पोटलियां बांध कर सीढ़ी पर आ बैठी हो?’

‘हम से बात मत करो, अब्दुल्ला, अब हम ऊपर कभी नहीं जाएंगे.’

अब्दुल्ला हंसने लगा, ‘अभी बाबूजी आएंगे और गोद में उठा कर ले जाएंगे. तुम्हें बहुत सिर चढ़ा रखा है, तभी जरा सी डांट पड़ने पर घर से भाग पड़ती हो.’

‘नहीं, अब हम ऊपर कभी नहीं जाएंगे.’

‘नहीं जाओगी तो तुम्हारे कुछ खाने का इंतजाम करें?’

‘नहीं, हम कुछ नहीं खाएंगे,’ और वह कैथ के ढेर की ओर ललचाई आंखों से देखने लगी.

‘कैथ नहीं मिलेगा, बिटिया, खा कर खांसोगी और फिर बाबूजी परेशान होंगे.’

‘हम ने तुम से मांगा? मत दो, हम स्कूल में रोज खाते हैं.’

‘कितनी दफा कहा है कि कैथ मत खाया करो, बाबूजी को मालूम पड़ गया तो बहुत डांट पड़ेगी.’

‘तुम इतनी खराब चीज क्यों बेचते हो?’ अब्दुल्ला चुपचाप पास खड़े ग्राहक के लिए आलू तौलने लगा. सामने से उस के पिताजी आ रहे थे. लाड़ली बेटी को सीढ़ी पर बैठा देखा और गोद में उठा लिया.

‘अम्माजी ने डांटा हमारी बेटी को?’

बहुत डांटा, और उस ने पिता की गरदन में अपनी नन्हीनन्ही बांहें डाल दी.

बचपन के अतीत से निकल कर उम्र की कई सीढि़यां वह तेजी से चढ़ गई. जवान हो गई थी. याद आया वह दिन जब अचानक ही मजबूत हाथों का एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर आ पड़ा था. वह चौंक कर उठ बैठी थी. उस के हाथ अपने गाल को सहलाने लगे थे. बापबेटी दोनों जलती हुई आंखों से एकदूसरे को घूर रहे थे.

पिता ने नजरें झुका लीं और थके से पास में पड़ी कुरसी पर बैठ गए. उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी को जिंदगी में पहला और आखिरी थप्पड़ मारा था. सामने खड़े हो कर अंगारे उगलती आंखों से

उस ने पिता से सिर्फ इतना ही पूछा, ‘क्यों मारा आप ने मुझे?’

‘तुम शादी में आए मेहमानों से लड़ रही थी. मौसी ने तुम्हारी शिकायत की है,’ बहुत थके हुए स्वर में पिता ने जवाब दिया.

‘झूठी शिकायत की है, उन के बच्चों ने मेरा इसराज तोड़ दिया है. आप को मालूम है वह इसराज मुझे कितना प्यारा है. उस से मेरी भावनाएं जुड़ी हुई हैं.’

‘कुछ भी हो, वे लोग हमारे मेहमान हैं.’

‘लेकिन आप ने क्यों मारा?’ वह उन के सामने जमीन पर बैठ गई और पिता के घुटनों पर अपना सिर रख दिया. अपमान, वेदना और क्रोध से उस का सारा शरीर कांप रहा था. पिता उस के सिर पर हाथ फेर रहे थे. यादों से निकल कर वह अपने आज में लौट आई.

कमाल है इतनी बातें याद कर ली पर आंखों में एक कतरा आंसू भी न आया. दोपहर को पति घर आए और पूछा, ‘‘क्या खाना बना है?’’

‘‘दाल और रोटी.’’

‘‘दाल भी अरहर की होगी?’’

‘‘हां’’

वे एकदम से बौखला उठे, ‘‘मैं क्या सिर्फ अरहर की दाल और रोटी के लिए ही नौकरी करता हूं?’’

‘‘शायद,’’ उस ने बड़ी संजीदगी से कहा, ‘‘जो बनाऊंगी, खाना पड़ेगा. वरना होटल में अपना इंतजाम कर लीजिए. इतना तो कमाते ही हैं कि किसी भी बढि़या होटल में खाना खा सकते हैं. मुझे जो बनाना है वही बनाऊंगी, आप को मालूम है कि नौकरानी आज भी नहीं आई.’’

‘‘मैं पूछता हूं, तुम सारा दिन क्या करती हो?’’

‘‘सोती हूं,’’ उस ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मैं कोईर् आप की बंधुआ मजदूर नहीं हूं.’’

पति हंसने लगे, ‘‘आजकल की खबरें सुन कर कम से कम तुम्हें एक नया शब्द तो मालूम पड़ा.’’

 

खाने की मेज पर सारी चीजें पति की पसंद की ही थीं – उड़द की दाल, गोश्त के कबाब, साथ में हरे धनिए की चटनी, दही की लस्सी और सलाद. दाल में देसी घी का छौंक लगा था.

शर्मिंदा से हो कर पति ने पूछा, ‘‘इतनी चीजें बना लीं, तुम इन में से एक चीज भी नहीं खाती हो. अब तुम किस के साथ खाओगी?’’

‘‘मेरा क्या है, रात की मटरआलू की सब्जी रखी है और वैसे भी अब समय ने मुझे सबकुछ खाना सिखला दिया है. वरना शादी से पहले तो कभी खाना खाया ही नहीं था, सिर्फ कंधारी अनार, चमन के अंगूर और संतरों का रस ही पिया था.’’

‘‘संतरे कहां के थे?’’

‘‘जंगल के,’’ उस ने जोर से कहा.

उन दिनों को याद कर के रोना आना चाहिए था पर नहीं आया. अब उसे यकीन हो गया था कि वह आज नहीं रोएगी. जब इतनी बातें सोचने और सुनने पर भी रोना नहीं आया तो अब क्या आएगा.

हाथ धो कर वह रसोई से बाहर निकल ही रही थी कि उस ने देखा, सामने से उस के पति चले आ रहे हैं. उन के हाथ में कमीज है और दूसरे हाथ में एक टूटा हुआ बटन. सहसा ही उस के दिल के भीतर बहुत तेजी से कोई बात घूमने लगी. आंखें भर आईं और वह रोने लगी.

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