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सुख की गारंटी : एक अकल्पनीय राज की कहानी

एक दिन काफी लंबे समय बाद अनु ने महक को फोन किया और बोली,”महक, जब तुम दिल्ली आना तो मुझ से मिलने जरूर आना.”

“हां, मिलते हैं, कितना लंबा समय गुजर गया है. मुलाकात ही नहीं हुई है हमारी.”

कुछ ही दिनों बाद मैं अकेली ही दिल्ली जा रही थी. अनु से बात करने के बाद पुरानी यादें, पुराने दिन याद आने लगे. मैं ने तय किया कि कुछ समय पुराने मित्रों से मिल कर उन पलों को फिर से जिया जाए. दोस्तों के साथ बिताए पल, यादें जीवन की नीरसता को कुछ कम करते हैं.

शादी के बाद जीवन बहुत बदल गया व बचपन के दिन, यादें व बहुत कुछ पीछे छूट गया था. मन पर जमी हुई समय की धूल साफ होने लगी…

कितने सुहाने दिन थे. न किसी बात की चिंता न फिक्र. दोस्तों के साथ हंसीठिठोली और भविष्य के सतरंगी सपने लिए, बचपन की मासूम पलों को पीछे छोड़ कर हम भी समय की घुड़दौड़ में शामिल हो गए थे. अनु और मैं ने अपने जीवन के सुखदुख एकसाथ साझा किए थे.  उस से मिलने के लिए दिल बेकरार  था.

मैं दिल्ली पहुंचने का इंतजार कर रही थी. दिल्ली पहुंचते ही  मैं ने सब से पहले अनु को फोन किया. वह स्कूल में पढ़ाती है. नौकरी में समय निकालना भी मुश्किल भरा काम है.

“अनु मै आ गई हूं… बताओ कब मिलोगी तुम? तुम घर ही आ जाओ, आराम से बैठैंगे. सब से मिलना भी हो जाएगा…”

“नहीं यार, घर पर नही मिलेंगे, न तुम्हारे घर न ही मेरे घर. शाम को 3 बजे मिलते हैं. मैं स्कूल समाप्त होने के बाद सीधे वहीं आती हूं, कौफी हाउस, अपने वही पुराने रैस्टोरेंट में…”

“ठीक है शाम को मिलते हैं.“

आज दिल में न जाने क्यों अजीब सी बैचेनी हो रही थी. इतने वर्षों में हम मशीनी जीवन जीते संवादहीन हो गए थे. अपने लिए जीना भूल गए थे.   जीवन एक परिधि में सिमट गया था. एक भूलभूलैया जहां खुद को भूलने की कवायत शुरू हो गई थी. जीवन सिर्फ ससुराल, पति व बच्चों में सिमट कर रह गया था. सब को खुश रखने की कवायत में मैं खुद को भूल बैठी थी. लेकिन यह परम सत्य है कि सब को खुश रखना नामुमकिन सा होता है.

दुनिया गोल है, कहते हैं न एक न एक दिन चक्र पूरा हो ही जाता है. इसी चक्र में आज बिछडे साथी मिल रहे थे. घर से बाहर औपचारिकताओं से परे. अपने लिए हम अपनी आजादी को तलाशने का प्रयत्न करते हैं. अपने लिए पलों को एक सुख की अनुभूति होती है.

मैं समझ गई कि आज हमारे बीच कहनेसुनने के लिए बहुत कुछ होगा. सालों से मौन की यह दीवार अब ढहने वाली है.

नियत समय पर मैं वहां पहुंच गई. शीघ्र ही अनु भी आ गई. वही प्यारी सी मुसकान, चेहरे पर गंभीरता के भाव, पर हां शरीर थोडा सा भर गया था, लेकिन आवाज में वही खनक थी. आंखे पहले की तरह प्रश्नों को तलाशती हुई नजर अाईं, जैसे पहले सपनों को तलाशती थीं.

समय ने अपने अनुभव की लकीरें चेहरे पर खींच दी थीं. वह देखते ही गले मिली तो मौन की जमी हुई बर्फ स्वत: ही पिघलने लगी…

“कैसी हो अनु, कितने वर्षों बाद तुम्हें  देखा है. यार तुम तो बिलकुल भी नहीं बदलीं…”

“कहां यार, मोटी हो गई हूं… तुम बताओ कैसी हो? तुम्हारी जिंदगी तो मजे में गुजर रही है, तुम जीवन में कितनी सफल हो गई हो… चलो अाराम से बैठते हैं…”

आज वर्षो बाद भी हमें संवादहीनता का एहसास नहीं हुआ… बात जैसे वहीं से शुरू हो गई, जहां खत्म हुई थी. अब हम रैस्टोरेंट में अपने लिए कोना तलाश रहे थे, जहां हमारे संवादों में किसी की दखलंदाजी न हो. इंसानी फितरत होती है कि वह भीड़ में भी अपना कोना तलाश लेता है. कोना जहां आप सब से दुबक कर बैठे हों, जैसेकि आसपास बैठी 4 निगाहें भी उस अदृश्य दीवार को भेद न सकें. वैसे यह सब मन का भ्रमजाल ही है.

अाखिरकार हमें कोना मिल ही गया. रैस्टोरेंट के उपरी भाग में कोने की खाली मेज जैसे हमारा ही इंतजार कर रही थी. यह कोना दिल को सुकून दे रहा था. चायनाश्ते का और्डर देने के बाद अनु सीधे मुद्दे पर आ गई. बोली,”और सुनाओ कैसी हो, जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है. अाज इतना बड़ा मुकाम, पति, बच्चे सब मनमाफिक मिल गए तुम्हें. मुझे बहुत खुशी है…”

यह सुनते ही महक की आंखो में दर्द की लहर चुपके से आ कर गुजर गई व पलकों के कोर कुछ नम से हो गए. पर मुसकान का बनावटीपन कायम रखने की चेष्टा में चेहरे के मिश्रित हावभाव कुछ अनकही कहानी बयां कर रही थी.

“बस अनु सब ठीक है. अपने अकेलेपन से लड़ते हुए सफर को तय कर रही हूं, जीवन  में बहुत उतारचढाव देखें हैं. तुम तो खुश हो न? नौकरी करती हो, अच्छा कमा रही हो, अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी रही हो… सबकुछ अपनी पंसद का मिला है अौर क्या सुख चाहिए?  मैं तो बस यों ही समय काटने के लिए लिखनेपढ़ने लगी,” मैं ने बात को घुमा कर उस का हाल जानने की कोशिश करनी चाही.

“मै भी बढ़िया हूं. जीवन कट रहा है. मैं पहले भी अकेली थी, आज भी अकेली हूं.  हम साथ जरूर हैं पर कितनी अलग राहें हैं जैसे नदी के 2 किनारे…

“यथार्थ की पथरीली जमीन बहुत कठोर है. पर जीना पडता है… इसलिए मैं ने खुद को काम में डूबो दिया है…”

“क्या हुआ, एेसे क्यों बोल रही हो? तुम दोनों के बीच कुछ हुआ है क्या?”

“नहीं यार, पूरा जीवन बीत जाए तो भी हम एकदूसरे को समझ नहीं  सकेंगे. कितने वैचारिक मतभेद हैं, शादी का चार्म, प्रेम पता नही कहां 1 साल ही खत्म हो गया. अब पछतावा होता है. सच है, इंसान प्यार में अंधा हो जाता है.”

“हां, सही कहा. सब एक ही नाव पर सवार होते हैं पर परिवार के लिए जीना पड़ता है.”

“हां, तुम्हारी बात सही है, पर यह समझौते अंतहीन होते हैं, जिन्हें निभाने में जिंदगी का ही अंत हो जाता है.  तुम्हें तो शायद कुदरत से यह सब मिला है पर मैं ने तो अपने पैरों पर खुद कुल्हाडी मारी है. प्रेमविवाह जो किया है.

“सब ने मना किया था कि यह शादी मत करो, पर आज समझ में आया कि मेरा फैसला गलत था. यार,  विनय का व्यवहार समझ से परे है. रिश्ता टूटने की कगार पर है. उस के पास मेरे लिए समय ही नहीं है या फिर वह देना नहीं चाहता… याद नहीं कब दोपल सुकून से बैठै हों. हर बात में अलगाव वाली स्थिति होती है.”

“अनु सब को मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिलता.  जिंदगी उतनी आसान नहीं होती, जितना हम सोचते हैं. सुख अपरिभाषित है. रिश्ते निभाना इतना भी अासान नहीं है. हर रिश्ता आप से समय व त्याग मांगता है. पति के लिए जैसे पत्नी उन की संपत्ति होती है जिस पर जितनी चाहे मरजी चला लो. हम पहले मातापिता की मरजी से जीते थे, अब पति की मरजी से जीते हैं. शादी समझौते का दूसरा नाम ही है, हां कभीकभी मुझे भी गुस्सा आता है तो मां से शिकायत कर देती हूं पर अब मैं ने स्थिति को स्वीकार करना सीख लिया है. अब दुख नहीं होता. तुम भी हौंसला रखो, सब ठीक हो जाएगा.”

“नहीं महक, अब उम्मीद बाकी नहीं है. शादी करो तो मुश्किल, न करो तो भी मुश्किल. सब को शादी ही अंतिम पडाव क्यों लगता है? मैं ने भी समझौता कर लिया है कि रोनेधोने से समस्या हल नहीं होगी.

“अनु, तुम्हारे पास तो कला का हुनर है उसे और निखारो. अपने शौक पूरे करो. एक ही बिंदू पर खड़ी रहोगी तो घुटन होने लगेगी.

“एक बात बताओ कि एक आदमी किसी के सुख का पैमाना कैसे हो सकता है? अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर असहमति होती है, यहां हर रिश्ता आग की दहलीज पर खड़ा होता है, हरकोई आप से संतुष्ट नहीं होता.”

“महक बात तो तुम्हारी सही है, पर विवाह में कोई एक व्यक्ति, किसी दूसरे के जीने का मापदंड कैसे तय कर सकता है? समय बदल गया है, कानून में भी दंड का प्रावधान है. हमें अपने अधिकारों के लिए सजग रहना चाहिए. कब तक अपनी इच्छाओं का गला घोटें… यहां तो भावनाअओं का भी रेप हो जाता है, जहां बिना अपनी मरजी के अाप वेदना से गुजरते रहो और कोई इस की परवाह भी न करे.”

“अनु, जब विवाह किया है तो निभाना भी पङेगा. क्या हमें मातापिता, बच्चे, पङोसी हमेशा मनचाहे ही मिलते हैं?  क्या सब जगह आप तालमेल नहीं  बैठाते? तो फिर पतिपत्नी के रिश्ते में वैचारिक मदभेद होना लाजिमी है. हाथ की सारी उंगलिया भी एकसमान नहीं होतीं, तो 2 लिंग कैसे समान हो सकते हैं?
“इन मैरिज रेप इज इनविजिवल, सो रिलैक्स ऐंड ऐंजौय. मुंह सूजा कर रहने में कोई मजा नहीं है. दोनों पक्षों को थोड़ाथोङा झुकना पडता है. किसी ने कहा है न कि यह आग का दरिया है अौर डूब कर जाना है, तो विवाह में धूप व छांव के मोड़ मिलते रहते हैं.“

“हां, महक तुम शायद सही हो. कितना सहज सोचती हो. अब मुझे भी लगता है कि हमें फिर से एकदूसरे को मौका देना चाहिए.  धूपछांव तो आतीजाती रहती हैं…”

“अनु देख यार, जब हम किसी को उस की कमी के साथ स्वीकार करते हैं तो पीडा का एहसास नहीं होता. सकारात्मक सोच कर अब अागे बढ़, परिवार को पूर्ण करो, यही जीवन है…”

विषय किसी उत्कर्षनिष्कर्ष तक पहुंचती कि तभी वेटर आ गया और दोनों चुप हो गईं.

“मैडम, आप को कुछ अौर चाहिए?” कहने के साथ ही मेज पर रखे खाली कपप्लेटें समेटने लगा. उन के हावभाव से लग रहा था कि खाली बैठे ग्राहक जल्दी से अपनी जगह छोङे.

“हम ने बातोंबातों में पहले ही चाय के कप पी कर खाली कर दिए.”

“हां, 2 कप कौफी के साथ बिल ले कर आना,”अनु के कहा.

“अनु, समय का भान नहीं हुआ कि 2 घंटे कैसे बीत गए. सच में गरमगरम कौफी की जरूरत महसूस हो रही है.”

मन में यही भाव था कि काश वक्त हमारे लिए ठहर जाए. पर एेसा होता नहीं है. वर्षो बाद मिलीं सहेलियों के लिए बातों का बाजार खत्म करना भी मुश्किल भरा काम है. गरमगरम कौफी हलक में उतरने के बाद मस्तिष्क को राहत महसूस हो रही थी. मन की भड़ास विषय की गरमी,  कौफी की गरम चुसकियों के साथ विलिन होने लगी. बातों का रूख बदल गया.

आज दोनों शांत मन से अदृश्य उदासी व पीङा के बंधन को मुक्त कर के चुपचाप यहीं छोड रही थीं.

मन में कडवाहट का बीज  जैसे मरने लगा. महक घर जाते हुए सोच रही थी कि प्रेमविवाह में भी मतभेद हो सकते हैं तो अरैंज्ड मैरिज में पगपग पर इम्तिहान है. एकदूसरे को समझने में जीवन गुजर जाता है. हर दिन नया होता है. जब अाशा नही रखेंगे तो  वेदना नामक शराब से स्वत: मुक्ति मिल जाएगी.

अनु से बात करके मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि हर शादीशुदा कपल परेशानी से गुजरता है. शादी के कुछ दिनों बाद जब प्यार का खुमार उतर जाता है तो धरातल की उबङखाबड जमीन उन्हें चैन की नींद सोने नहीं देती है. फिर वहीं से शुरू हो जाता है आरोपप्रत्यारोपों का दौर.  क्यों हम अपने हर सुखदुख की गारंटी अपने साथी को समझते हैं? हर पल मजाक उङाना व उन में खोट निकालना प्यार की परिभाषा को बदल देता है. जरा सा नजरिया बदलने की देर है .

सामाजिक बंधन को क्यों न हंस कर जिया जाए.  पलों को गुनगुनाया जाए? एक पुरुष या एक स्त्री किसी के सुख की गांरटी का कारण कैसे बन सकते हैं? हां, सुख तलाश सकते हैं और बंधन निभाने में ही समझदारी है.

अाज मैं ने भी अपने मन में जीवनसाथी के प्रति पल रही कसक को वहीं छोङ दिया, तो मन का मौसम सुहाना लगने लगा. घर वापसी सुखद थी. शादी का बंधन मजबूरी नहीं प्यार का बंधन बन सकता है, बस सोच बदलने की देर है.

कुछ दिनों बाद अनु का फोन आया,”शुक्रिया महक, तुम्हारे कारण मेरा जीवन अब महकने लगा है. हम दोनों ने नई शुरुआत कर दी है. आपसी तालमेल निभाना सीख लिया है. अब मेरे आंगन में बेला के फूल महक रहे हैं. सुख की गांरटी एकदूसरे के पास है.”

दोनों खिलखिला कर हंसने लगीं.

वॉल्वो सी 40 रिचार्ज द सेफ ड्राइव ऑफ मदरहुड

 

वॉल्वो सी 40 रिचार्ज द सेफ ड्राइव ऑफ मदरहुड के अंतर्गत पेश है डा. कृपाली की रोजमर्रा की जिंदगी. डा. कृपाली वर्किंग वुमन हैं और डेली लाइफ में परिवार की सुरक्षा और खुशियों से कोई समझौता नहीं करतीं. फिर चाहे बात घर के लिए किसी छोटे डिसीजन की हो या फिर सुरक्षित कार चुनने की. इस दौरान मोटरिंग वर्ल्ड के तीर्थ ने उन्हें वॉल्वो सी 40 रिचार्ज के बारे में बताया जोकि उनकी कसौटी पर खरी उतरती है. वॉल्वो सी 40 रिचार्ज के आधुनिक सेफ्टी फीचर्स, ईको फ्रेंडली डिजाइन जिसमें इंटीरियर में इस्तेमाल किया गया रिसाइकल्ड मेटेरियल भी शामिल है, इत्यादि से डा. कृपाली बेहद प्रभावित हुईं. इस कार के साथ एक पूरा दिन बिताने के बाद डा. कृपाली ने कार के कम्फर्ट और वन पेडल ड्राइविंग का सुखद अनुभव किया और पाया कि यह कर उनके लिए सही विकल्प है. पूरे सफर में मदर्स डे के महत्व को इस तरह समझा गया कि मांओं के महत्व को सम्मान देने के साथ साथ प्रकृति मां को सुरक्षित रखना भी हम सबकी जिम्मेदारी है.

एक का फंदा : एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स यानी एक ब्रह्म, एक पार्टी, एक नेता…

लेखकः भारत भूषण श्रीवास्तव और शैलेन्द्र सिंह

‘एक देश एक चुनाव’ का ढिंढोरा जम कर पीटा जा रहा है जिसे लागू कराने के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे, इसलिए हो रहे आम चुनाव में भाजपा को 400 पार की जरूरत है. इस तरह की डैमोक्रेसी से व्यक्तिवाद और तानाशाही के खतरे बढ़ेंगे क्योंकि यह संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है.

भारत जब अपना संविधान बना रहा था उस समय चर्चा का सब से बड़ा विषय यह था कि देश का संविधान कैसा हो? लंबी बहस के बाद यह तय हुआ कि भारत का संविधान उदार हो. समय, काल और परिस्थितियों की जरूरत के हिसाब से उस में संशोधन हो सकें. यह हुआ भी. संविधान लागू होने के बाद 104 संशोधन उस में हो चुके हैं. संविधान के उदार होने का मतलब यह होता है कि देशहित के लिए विचारविमर्श होता रहना चाहिए.

संविधान के इस सिद्धांत के तराजू में ‘एक देश एक चुनाव’ को रख कर देखें तो यह संविधान की मूल भावना के एकदम खिलाफ दिखता है. ‘एक देश एक चुनाव’ असल में ‘एक नेता’ को सामने रख कर गढ़ा गया सिद्धांत है.

हमारे देश के विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जनता सब से पहले विधायक और सांसद चुनती है. इस के बाद सब से बड़े दल के सांसद या विधायक अपना नेता चुनते हैं. मुख्यमंत्री पद के लिए राज्यपाल और प्रधानमंत्री पद के लिए राष्ट्रपति महोदय पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं. इस के बाद मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रिमंडल के नाम तय होते हैं.

हाल के कुछ सालों में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चेहरा पहले से चुने जाने का चलन होने लगा है. असल में यह नेता थोपने की बात है. इस में पार्टी एक चेहरा चुन लेती है. इस के बाद सांसद या विधायक केवल औपचारिकता के लिए सदन में पार्टी मीटिंग के दौरान नाम का प्रस्ताव और समर्थन जैसा दिखावा करते हैं.

‘एक देश एक चुनाव’ भी इसी तरह की औपचारिकता भर रह जाएगी. इस में एक नेता ही अपना चेहरा सामने रखेगा. पूरे देश में उसी के नाम पर चुनाव होगा. भारत विविधता वाला देश है. एक देश एक चुनाव के जरिए इस की खासीयत को खत्म करने का प्रयास हो रहा है.

संविधान संशोधन का अधिकार

भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है. इस तरह के परिवर्तन भारत की संसद के द्वारा किए जाते हैं. इन्हें संसद के प्रत्येक सदन से पर्याप्त बहुमत के द्वारा अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को राज्यों द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए.

1950 में संविधान के लागू होने के बाद से इस में 104 संशोधन किए जा चुके हैं. विवादास्पद रूप से भारतीय सुप्रीम कोर्ट के एक महत्त्वपूर्ण फैसले के अनुसार संविधान में किए जाने वाले प्रत्येक संशोधन को अनुमति देना संभव नहीं है.

संशोधन इस तरह से हो कि जो संविधान की मूल सरंचना का सम्मान करे. संविधान की मूल संरचना में किसी तरह का बदलाव संभव नहीं है. संशोधन की शुरुआत संसद में संबंधित प्रस्ताव को पेश करने के साथ होती है जिसे बिल कहा जाता है. इस के बाद उसे संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अनुमोदित किया जाता है.

संशोधन के लिए प्रत्येक सदन में इसे उपस्थित सांसदों का दोतिहाई बहुमत प्राप्त होना चाहिए. इस के अलावा सभी सदस्यों का साधारण बहुमत प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए. एक बार जब सभी जरूरतें पूरी कर ली जाती हैं तब इस संशोधन पर देश के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त की जाती है.

मौजूदा केंद्रीय सरकार देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ ‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए जोर लगा रही है. इस के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया.

एक देश एक चुनाव

‘वन नेशन वन इलैक्शन’ यानी ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना पर विचार करने के लिए बनी समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद उस ने रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में आने वाले वक्त में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथसाथ नगरपालिकाओं और पंचायत चुनाव करवाने के मुद्दे से जुड़ी सिफारिशें दी गई हैं.

191 दिनों में तैयार 18,626 पन्नों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ सा?ा किए थे जिन में से 32 राजनीतिक दल ‘एक देश एक चुनाव’ के समर्थन में थे. केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़ कर बाकी 32 दलों ने न केवल साथसाथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए

यह विकल्प अपनाने की जोरदार वकालत की.

रिपोर्ट में ही कहा गया है कि ‘एक देश एक चुनाव’ का विरोध करने वालों ने दलील दी थी कि इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा. यह अलोकतांत्रिक, संघीय

ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलगथलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा. ‘एक देश एक चुनाव’ व्यवस्था देश को राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगी.

समिति के सुझाव

रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस छोड़ गए नेता गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन के सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डा. सुभाष कश्यप, सुप्रीम कोर्ट में भाजपा के मामलों की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ विजिलैंस कमिश्नर संजय कोठारी शामिल थे. इस के अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डा. नितेन चंद्रा भी समिति में थे. सभी लोग भाजपा समर्थक ही थे, यह नामों से स्पष्ट है.

समिति का कहना है कि सभी चुनाव एकसाथ न कराने से नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है. पहले हर 10 साल में 2 चुनाव होते थे, अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं. इसलिए सरकार को साथसाथ चुनाव के चक्र को बहाल करने के लिए कानूनी रूप से तंत्र बनाना चाहिए. चुनाव 2 चरणों में कराए जाएं. पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एकसाथ कराए जाएं, दूसरे चरण में एकसाथ नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों.

इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह कोऔर्डिनेट किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के 100 दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए. इस के लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए जाएं. इसे निर्वाचन आयोग की सलाह से तैयार किया जाए.

समिति की सिफारिश के अनुसार, त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं.

इस स्थिति में नए लोकसभा

(या विधानसभा) का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद सदन को भंग माना जाएगा. इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा. वहीं 5 साल के कार्यकाल के खत्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा.

आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के जरिए इस अनुच्छेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं. इस दिन को ‘निर्धारित तिथि’ कहा जाएगा. इस तिथि के बाद लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक खत्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी चुनाव एकसाथ कराए जा सकेंगे.

लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए जरूरी लौजिस्टिक्स, जैसे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी खरीद, मतदानकर्मियों और सुरक्षाबलों की तैनाती व अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करेगा. वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा किए जाने की बात है.

ये सब बातें वे हैं जिन का न देश की राजनीति से कोई मतलब है न समस्याओं से. ये पौवर गेन का हिस्सा हैं.

क्यों हो रहा विरोध

औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख और हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, ‘जल्दीजल्दी चुनाव होने से सरकारों को भी परेशानी होती है. वन नेशन वन इलैक्शन से कई तरह से संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं. सब से बुरा यह होगा कि सरकार को 5 साल तक लोगों की नाराजगी की कोई चिंता नहीं रहेगी. यह भारत के संघीय ढांचे के लिए मौत की घंटी के समान होगा. यह भारत को एक पार्टी सिस्टम में बदल कर रख देगा.’

कांग्रेस नेता और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे ने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा है, ‘एक देश, एक चुनाव कैसे हो सकता है जब मौजूदा भाजपा सरकार जनादेश को स्वीकार ही नहीं कर रही? क्या पूर्व राष्ट्रपति और समिति के अन्य सदस्यों ने इस साठगांठ से पाए गए बहुमत पर भी कोई सिफारिश की है?’

करना पड़ेगा संविधान संशोधन

‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. इस के लिए कानूनी पैनल बनाया गया है. जस्टिस (रिटायर्ड) रितुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाला यह पैनल संविधान में एक नया चैप्टर जोड़ सकता है. असल में इसे संविधान को समाप्त कर देने वाला चैप्टर कहा जा सकता है. इस के जरिए चुनाव आयोग 2029 तक देश में लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एकसाथ कराने की सिफारिश कर पाएगा. जो जानकारियां मिल रही हैं उन के अनुसार अगले

5 सालों में 3 चरणों में विधानसभाओं को एकसाथ लाने की योजना है. जिस से पहला एकसाथ चुनाव मईजून 2029 में हो सके. तब देश में 19वीं लोकसभा के लिए चुनाव होंगे.

2024 के लोकसभा चुनावों के साथ

5 विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं. महाराष्ट्र, हरियाणा और ?ारखंड के विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में होने हैं.

सिफारिशों के अनुसार ‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने के लिए कई राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल घटेगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हाल ही में चुनाव हुए हैं. इसलिए इन विधानसभाओं का कार्यकाल 6 महीने बढ़ा कर जून 2029 तक किया जाएगा. उस के बाद सभी राज्यों में एकसाथ विधानसभा-लोकसभा चुनाव होंगे. हरियाणा, महाराष्ट्र, ?ारखंड और दिल्ली की सरकार के कार्यकाल में

5-8 महीने कटौती करनी होगी और जून 2029 तक इन राज्यों में मौजूदा विधानसभाएं चलेंगी.

बिहार का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा. इस के बाद का साढ़े 3 साल ही रहेगा. असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी के मौजूदा कार्यकाल 3 साल 7 महीने घटेंगे. उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब व उत्तराखंड का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा, उस के बाद का कार्यकाल

सवा 2 साल रहेगा. गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा का मौजूदा कार्यकाल 13 से 17 माह घटेगा. यह सब जनता के अधिकारों का हनन है पर 400 सीटों के दंभ में इसे लागू कराने के लिए मोदी सरकार कुछ भी कर सकती है.

देश की सभी विधानसभाओं का कार्यकाल जून 2029 में समाप्त होगा. कोविंद कमेटी विधि पैनल से एक और प्रस्ताव मांगेगी, जिस में स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल करने की बात कही जाएगी. भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलगअलग समय पर होते हैं. ‘एक देश एक चुनाव’ का मतलब है कि पूरे देश में एकसाथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों. मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय

पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे.

लोगों को डर आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही हुए थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग हो गईं. उस के बाद 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई. इस वजह से एक देश एक चुनाव की परंपरा टूट गई.

खर्च की बात करें तो देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अगर एकसाथ कराए जाते हैं तो हर 5 साल में सिर्फ ईवीएम पर 10 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च होंगे. एक ईवीएम

15 साल ही प्रयोग होती है. यदि एकसाथ चुनाव कराए जाते हैं तो मशीनों के दो सैट बनवाने होंगे. एक सैट का इस्तेमाल 3 बार चुनाव कराने के लिए किया जा सकता है.

यह भी पता चला है कि लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ा कर 6 साल किया जा सकता है.

यह है मंशा

लोगों को गलत भी नहीं लग रहा है क्योंकि अकसर नेताओं की असल मंशा होती कुछ और है और वे उसे दिखाते कुछ और हैं. बात अगर नरेंद्र मोदी की हो तो यह शक और गहरा हो जाता है. इस का एक बेहतर उदाहरण उन का नोटबंदी का फैसला है जिस की घोषणा करते वक्त उन्होंने 8 नवंबर, 2016 को जनता को भरोसा दिलाया था कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, जाली करैंसी व कालाधन वगैरह सब बंद और खत्म हो जाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, पिछले 8 साल इस के गवाह हैं.

ताजी मिसाल बीती 4 मई को ही पुंछ में हुआ आतंकी हमला है जिस में एयरफोर्स का एक जवान मारा गया और 4 घायल हो गए.

उस के ठीक 4 दिनों पहले छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र बौर्डर पर अबू?ामाड़ के जंगलों में नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों की मुठभेड़ में 10 नक्सली मारे गए थे. खबर अच्छी थी लेकिन चिंताजनक इस लिहाज से है कि नक्सली गतिविधियां खत्म नहीं हुईं हैं बल्कि आतंकी घटनाओं की तरह एक अनियमित अंतराल से होती रहती हैं. मारे गए नक्सलियों के पास से हथियारों का जखीरा बरामद होने से तो साबित यही होता है कि नक्सलियों के पास नोटों की कमी नहीं.

ठीक इसी दिन बिहार के मोतिहारी से कोई 13 लाख रुपए के जाली नोट बरामद होने का सिलसिला जारी रहने की पुष्टि हुई थी.

ये कुछ ताजी घटनाएं नोटबंदी के फैसले को जबरन देश पर थोपने की हकीकत बयां करती हुई हैं जिस की असल मंशा उत्तर प्रदेश का 2017 में होने वाला विधानसभा चुनाव था जिस में खासतौर से सपा और बसपा कंगाल हो गए थे और पैसों की कमी के चलते चुनाव हार गए थे.

इस के बाद तो नरेंद्र मोदी की कुछ भी करगुजरने की हिम्मत बढ़ती गई. जब इस फैसले से लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूटने लगा था तो 5 दिनों बाद ही वे गोवा में यह कहते रो दिए थे कि मु?ो 30 दिसंबर तक का वक्त दो, इस के बाद अगर मेरी गलती निकल आए तो किसी भी चौराहे पर मु?ो जो चाहो सजा दे देना. उन के आंसू देख जनता जज्बाती हो गई थी और बात आईगई हो गई थी. लेकिन नोट बदलने के चक्कर में सैकड़ों लोग बेमौत मारे गए थे.

इस के बाद ‘एक देश एक टैक्स’ के नाम पर 1 जुलाई, 2017 से जीएसटी लागू कर दी गई. इस की एक वजह लोगों का उन्हें नोटबंदी के फैसले की बाबत माफ सा कर देना भी था. जीएसटी पर देश के व्यापारी आज तक ?ांकते नजर आते हैं. इस से भी, ऐलान के मुताबिक, घपलेघोटाले खत्म नहीं हुए जिस के ताजे उदाहरण हैं 27 अप्रैल को गोरखपुर में एक स्क्रैप व्यापारी सुनील सेठ के यहां पड़ा छापा जिस में लाखों की टैक्स चोरी पकड़ी गई.

इस के कुछ दिनों ही पहले जबलपुर रेलवे स्टेशन के पार्सल विभाग में भी तगड़ी टैक्स चोरी पकड़ी गई थी. टैक्स चोरी जीएसटी के बाद भी बदस्तूर जारी है और लाखों छोटे व्यापारी व कारोबारी इस से कंगाल व तबाह हो गए थे. आम लोग महंगाई से कराहने लगे हैं जो खानेपीने के आइटमों पर भी टैक्स भर रहे हैं. जीएसटी का विरोध भी फुस्स हो कर रह गया तो सरकार को सम?ा आ गया कि कुछ भी करते रहो, बहुत बड़ा विरोध नहीं होगा क्योंकि देश में अंधभक्तों की भरमार है जो मंदिर और हिंदूमुसलिम के चक्कर में उल?ो हां में हां मिलाते रहते हैं. इन लोगों को बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कोई सरोकार नहीं है.

अब ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ की चर्चा पर भी हो वही रहा है जैसा कि सरकार चाहती है कि लोग ?ांसे में आ कर 400 पार करा दें. नई व्यवस्था वजूद में आने के बाद 5 साल कुछ भी करते रहो उस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इस के पीछे छिपी मंशा कम ही लोग सम?ा पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बहुत सधे कदमों से मनमानी की तरफ बढ़ रहे हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं चाहते.

अहं ब्रह्मास्मि की तरफ

‘एक देश एक चुनाव’ के जो फायदे आज गिनाए जा रहे हैं वे नोटबंदी और जीएसटी सरीखे ही काल्पनिक व सपने दिखाने वाले हैं. चुनावी खर्च इस से कम होगा, इस की कोई गारंटी नहीं है. सरकार को अगर जनता के पैसे की इतनी ही चिंता है तो पहले उसे अपनी फुजूलखर्ची कम करनी चाहिए. खुद चुनाव आयोग भी बहुत दरियादिली, जिसे बेरहमी कहना ज्यादा सटीक होगा, से पैसा खर्च करता है जिस पर कोई सवाल नहीं उठाता मानो यह कोई धार्मिक अनुष्ठान हो जिस के खर्च के बारे में सवाल करने से ही पाप लग जाएगा.

चुनाव के खर्च पर हालफिलहाल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पिछले 35 सालों से चुनावी खर्च पर नजर रख रहे सैंटर फौर मीडिया स्टडीज के मुताबिक इस बार के चुनाव पर 2019 के चुनाव से दोगुना खर्च हो रहा है. देश में इस वक्त 96.6 करोड़ वोटर हैं. 2019 के चुनाव में प्रतिवोटर 31.52 रुपए खर्च आया था जो कि 60,000 करोड़ रुपए था. अब महज 5 साल में इस से दोगुना खर्च हो रहा है तो इस की एक वजह बढ़ते वोटर और पोलिंग बूथ भी हैं. इन्हें एक देश एक चुनाव में कम नहीं किया जा सकता. दूसरे, कुछ खर्च कम हो सकते हैं लेकिन वे इतने नहीं होंगे कि भारीभरकम बचत हो जाए और देश से गरीबी हट जाए.

अंदाजा यह भी है कि पार्टियों और प्रत्याशियों के खर्च भी इस में जोड़ दिए जाएं तो प्रतिवोटर खर्च हजारों में हो जाएगा. क्या चुनाव आयोग या दूसरा कोई इन पर अंकुश लगा सकता है? जवाब बेहद साफ है कि नहीं. इस बार तीसरे चरण का मतदान आतेआते ही तगड़ा कैश देशभर से बरामद हुआ था जिस से लगा था कि असल ?ां?ाट लगभग 2 महीने तक चलने और 7 चरणों में होने वाले चुनाव हैं जिस की तुक ही सम?ा से परे हैं.

चुनाव पहले भी होते थे और एकदो चरण में संपन्न हो जाते थे. लिहाजा, पैसा कम खर्च होता था. अब तो मतदाता जागरूकता के नाम पर ही मोटा पैसा खर्च किया जा रहा है जो दूसरे कई खर्चों की तरह गैरजरूरी है. तमाम कोशिशों और बेतहाशा खर्च के बाद भी मतदान 60-70 फीसदी पार नहीं कर पा रहा तो इस का उत्तर ‘एक देश एक चुनाव’ नहीं है.

सनातन के नाम पर वोट

एक कड़वा सच यह है कि अब लोगों को चुनाव का औचित्य ही सम?ा नहीं आ रहा कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल आखिर किस और किन मुद्दों पर वोट चाह रहे हैं. प्रचार इतना उबाऊ और एक हद तक फूहड़ है कि लोग वोट न डालना ही बेहतर सम?ा रहे हैं. कहने को तो एक विकल्प नोटा है लेकिन वह कोई प्रत्याशी नहीं है जिस का बटन दबाने से खास फर्क पड़ता हो. हाल तो यह है कि खुलेआम धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगे गए, सनातन की रक्षा के नाम पर वोट डालने की अपीलें की गईं, जिस से वोटर का मन उचटा.

इस कथित धर्मनिरपेक्ष देश में 5 मई को भाजपा ने एक विज्ञापन जारी किया था जिस में कहा गया था कि हम महाकाल की तर्ज पर धर्मस्थलों का विकास करेंगे, इसलिए भाजपा को वोट दो. आचार संहिता और संविधान के इस खुले उल्लंघन पर चुनाव आयोग का ध्यान भी नहीं गया, न ही विपक्ष ने कोई एतराज जताया तो चुनाव आयोग की मतदान बढ़ाने की कवायद एक शिगूफा और औपचारिकता ही लगती है.

हालांकि खर्च कम हो सकता है लेकिन वह ‘एक देश एक चुनाव’ के नाम पर ही कम हो सकता है, यह दलील सिरे से न सम?ा आने वाली है.

बारबार चुनावों से होता यह है कि सरकार पर जनता का दबाब बना रहता है कि एक भी गलत या मनमाना फैसला केंद्र और राज्यों से बेदखल कर सकता है ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा से कई राज्य छिन गए थे. इन में दिल्ली, पंजाब, बिहार, ?ारखंड, सहित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे गढ़ भी शामिल थे. 2017 के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भाजपा अगर काबिज हो पाई थी तो इस की सियासी वजहें थीं. नोटबंदी को भी तब इतना वक्त नहीं हुआ था कि लोगों को इस का खुद की जिंदगी पर पड़ता असर साफतौर पर महसूस होने लगता.

इस के बाद धर्म, मंदिर और जाति की राजनीति की हवा चली तो वह अब तक थमने का नाम नहीं ले रही है. चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दे जमीनी कम हवाहवाई ज्यादा हैं, मसलन राम मंदिर, हिंदूमुसलिम और पाकिस्तान वगैरह. ‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे मंशा यही है कि इन मुद्दों को एक बार में ही भुना लिया जाए और फिर एक नेता 5-6 साल बैठ कर इत्मीनान से राज करे क्योंकि तब तक जनताजनार्दन के हाथ कटे रहेंगे. किसी मुद्दे या फैसले पर ज्यादा विरोध होगा तो उस नेता के पास उस की अनदेखी करने और सख्ती से निबटने के कई रास्ते होंगे.

तो यह एक एक बड़ी साजिश है जिसे कानून का जामा पहना कर नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि 5 साल उन के अलावा कोई और न दिखे और उन्हें बारबार मेहनत न करनी पड़े. एक ही चेहरा और एक ही नेता नजर आए. अभी तो विपक्ष दिख भी जाता है और उस का दबाव भी सरकार के उलटेसुलटे फैसलों पर रहता है. आशंका इस बात की भी है कि सरकार मनमाने फैसले चुनाव के 2-3 साल बाद तक ले लेगी और चौथेपांचवें साल में मुफ्त के राशन जैसी कोई लोकलुभावनी योजना ले आएगी या जाति की कारपेट फिर बिछा लेगी व हिंदूमुसलिम को बड़े पैमाने पर भुनाएगी जिस से लोग नोटबंदी और जीएसटी की तरह भूल जाएं कि उन का और देश का अहित व नुकसान करते फैसलों का कितना, क्या और कैसा खमियाजा भुगतना पड़ा था.

खतरा एक का

गणित में भले ही एक की अपनी अलग अहमियत हो लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में एक बड़ा खतरा है जो मूलतया तानाशाही का संकेत देता है. इतिहास में जितने भी तानाशाह हुए हैं वे कोई रातोंरात तानाशाह नहीं बन गए थे. जरमनी का एडोल्फ हिटलर, इटली का बेनिटो मुसोलनी, सोवियत संघ का व्लादिमीर इलीइच लेनिन, जोसेफ स्टालिन या चीन का माओ त्से तुंग इन, युगांडा के ईदी अमीन से ले कर इराक के सद्दाम हुसैन तक के कोई दर्जनभर नाम दुनिया के तानाशाहों में शुमार किए जाते हैं.

ये सभी या कोई एक खास किस्म की सनक के लिए तानाशाह बने थे जिस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सनक क्या थी, वामपंथी या दक्षिणपंथी. अहम यह बात है कि उन की सनक, जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, ने जम कर खूनखराबा कराया, लाशों के ढेर लगा दिए, अनगिनत औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों को अनाथ बना दिया. इन्होंने लोगों की आजादी छीनी और दहशत फैलाई.

होता इतना भर है कि इन्होंने और इन की सरकारों ने संवैधानिक सीमाओं को तोड़ते सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में कैद कर लिए थे और लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया था. इतिहास बताता है कि आधुनिक यानी तथाकथित लोकतांत्रिक तानाशाहों में और प्राचीन तानाशाहों में बड़ा फर्क होता है. अब तानाशाही का मतलब सामूहिक नरसंहार नहीं बल्कि पूंजी को मुट्ठीभर हाथों को सौंप देना हो गया है और इस के लिए किसी विचार या दर्शन का नहीं बल्कि धर्म का सहारा लिया जाने लगा है, जिस से आम लोग गुलामों की तरह शासक के इशारे पर नाचने लगते हैं. यह भी राजशाही वाली तानाशाही की तरह ही घातक और नुकसानदेह है.

‘एक देश एक चुनाव’ की धारणा तानाशाही की तरफ तीसरा कदम है जिस के लिए 1950 के संविधान की दुहाई चुनावप्रचार के दौरान बारबार दी तो गई जबकि उसी संविधान को तारतार किए जाने की मंशा छिपी हुई है. और इसी से हरकोई चिंतित है.

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान होने का भ्रम होने लगता है. इस भ्रम को विश्वास में बदलने के लिए वह जनता की सहमति लेने को संविधान को अपनी मरजी के मुताबिक ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ता.

हिटलर विकट का धार्मिक था और तानाशाही के उत्तरार्ध में शुद्ध नस्ल के आदमी पर जोर देने लगा था. यह एक मूर्खतापूर्ण बात थी जिस का दोहराव मौजूदा शासकों में दूसरे तरीकों से देखने में आता है लेकिन वह धार्मिक सिद्धांतों, जो पूर्वाग्रह ज्यादा हैं, से इतर नहीं है.

सभी धर्म और उन के ग्रंथों का निचोड़ यही है कि ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान है, पूजनीय है और अपनी बात अपने प्रतिनिधियों के जरिए कहता है जिन की हैसियत भगवान से कम नहीं होती. हालांकि समयसमय पर नीत्शे जैसे दार्शनिक भी हुए हैं जिन्होंने ईश्वर की परिकल्पना को ही तर्कों से तारतार कर दिया लेकिन नीत्शे जैसे दार्शनिक चूंकि ‘मैं’ पर जोर नहीं देते इसलिए वक्त रहते अप्रांसगिक होते गए.

रूस में व्लादिमीर पुतिन भी लगभग भगवान होते जा रहे हैं और चीन में शी जिनपिंग भी साम्यवादी विचारधारा को ले कर अनियंत्रित होते जा रहे हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का भगवान होने का भ्रम अब एक खतरनाक जिद में तबदील हो चुका

है जिस के चलते वे अनापशनाप बातें करने लगे हैं. वे जैसे भी हों, जो बाइडेन को अपदस्थ कर सत्ता हथिया लेना चाहते हैं.

यह सारा ?ामेला एक और उस से उपजी सनक ‘मैं’ का है.

भारत में यह अद्वैत दर्शन की वजह से है. नरेंद्र मोदी की मंशा अब विकास या देश चलाना नहीं रह गई है, बल्कि वे अद्वैत को थोपने में जुट गए हैं. अहं ब्रह्मास्मि बृहदारण्यक उपनिषद का एक महावाक्य है जिस की लोकतंत्र में भूमिका की चर्चा सब से पहले एकात्म मानववाद के रूप में जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने की थी. यह दर्शन अंत में अनंत ब्रह्मांड की बात करने लगता है.

लोकतंत्र में धार्मिक दर्शनों या सिद्धांतों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि इस में सब की भागीदारी होती है जिसे खत्म कर देने के लिए संविधान को बदलने की बात से ही जिम्मेदार लोग चिंतित हैं.

पहली चिंता जानेमाने अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर ने इन शब्दों में जताई-

‘‘अगर नरेंद्र मोदी सरकार दोबारा सत्ता में वापस लौटती है तो आप और चुनाव की उम्मीद मत कीजिए. इस के बाद चुनाव होगा ही नहीं. देश का संविधान और नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. आप लालकिले से नफरत की बातें सुनेंगे जो काफी खतरनाक हैं. जो आज मणिपुर में हुआ वह कहीं और भी हो सकता है. किसानों और लद्दाख जैसा हाल पूरे देश का होने वाला है.’’ प्रभाकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण के पति हैं और भाजपा में रह चुके हैं. इस नाते भी उन की इस चेतावनी को नजरंदाज करना बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती.

निरंकुशता की तरफ

अब औक्सफोर्ड डिक्शनरी के एक शब्द औटोक्रेसी की बात करें तो इस का मतलब होता है कि किसी देश की वह शासन व्यवस्था जिस में एक ही व्यक्ति के हाथों में सारी शासन व्यवस्था होती है. सहूलियत के लिए इसे अधिनायकवाद का पर्याय भी माना जा सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर एक पर जोर देते रहे हैं, वन रैंक वन पैंशन, एक विधान एक टैक्स और अब एक देश एक चुनाव इसी सीरीज की अहम कड़ी है. इस में वे घोषिततौर पर लोकतांत्रिक तानाशाह लगते हैं. विपक्ष ने इसे कई बार मुद्दा बनाने की कोशिश की है लेकिन हर बार उस की आवाज को धार्मिक शोर तले बड़ी चालाकी से दबा दिया गया. दबे शब्दों में एक ही धर्म की बात की जाती है क्योंकि दूसरे बड़े धर्म को विदेशी कह दिया जाता है.

इसी से ताल्लुक रखती स्वीडन के गोथेनबर्ग में स्थित वी डेम इंस्टिट्यूट यानी वेरायटीज औफ डैमोक्रेसी की बीती 7 मार्च को जारी एक रिपोर्ट, जिस का शीर्षक है ‘डैमोक्रेसी विनिंग एंड लूजिंग एट द बैलेट’, में कहा गया है कि भारत 2023 में ऐसे टौप 10 देशों में शामिल रहा जहां अपनेआप में तानाशाही या निरकुंश शासन व्यवस्था है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 2018 में चुनावी तानाशाही में नीचे चला गया और आखिर तक इसी श्रेणी में बना रहा. इस में एक दिलचस्प बात यह भी कही गई है कि इस समूह के 10 में से 8 देश निरंकुशता की शुरुआत से पहले लोकतांत्रिक थे. उन 8 में से 6 देशों- भारत, हंगरी, मौरिशस, कोमोरोस, निकारागुआ और सर्बिया में लोकतंत्र खत्म हो गया. इस लंबी रिपोर्ट में देश की मौजूदा हालत को कुछ यों भी बयां किया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ बहुलता विरोधी, हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा ने उदाहरण के लिए आलोचकों को चुप कराने के लिए राजद्रोह, मानहानि और आतंकवाद विरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया. भाजपा सरकार ने 2019 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूपीए में संशोधन कर के धर्मनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता को कमजोर किया.

एक मंदिर एक देवता क्यों नहीं

भाजपा के 5 मई को प्रकाशित धार्मिक विज्ञापन ऐसे तमाम आरोपों की पुष्टि ही करता है कि यहां राजनीति धर्म की ही चलती है. बाकी छिटपुट बातें तो खाने में सलाद की तरह होती हैं. धर्मस्थलों के विकास के वादे वाला विज्ञापन सरासर जन प्रतिनिधित्व अधिनयम की धारा 123 (3) को धता बताता हुआ तो था ही, इस में सुप्रीम कोर्ट के 2 जनवरी, 2017 के उस फैसले का भी उल्लंघन भी था जिस में 7 जजों की बैंच ने कहा था कि प्रत्याशी या उन के समर्थकों द्वारा धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है. चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है, सो, धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है.

इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या के रामलला मंदिर में साष्टांग थे. हालांकि पूरे चुनाव प्रचार में वे राधेराधे और रामश्याम ही करते रहे थे जिस से उन का कोर वोटर भी ?ाल्ला गया था कि कभीकभार ही सही कुछ तो कायदे की बात करो.

भाजपा का पूरा चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द ही सिमटा रहा था जिसे गोदी मीडिया ने जितना हो सकता था उस से भी ज्यादा स्पेस दिया. हर सीट पर भाजपा उम्मीदवारों ने यही कहा कि चुनाव मोदीजी लड़ रहे हैं आप का वोट उन्हीं को जाएगा. खुद नरेंद्र मोदी ने भी कई बार कहा कि आप का वोट मोदी को मिलेगा.

जब वोट भी एक ही को देना है तो पूरी 542 सीटों पर मोदी खुद ही लड़ लेते तो कोई पहाड़ न टूट पड़ता. एक की रट लगाए वे लगेहाथ यह भी बता देते कि आखिर एक मंदिर एक देवता की बात या व्यवस्था कब की जाएगी जिस से बहुतों को पूजने की ?ां?ाट ही खत्म हो जाए.

लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाएगा क्योंकि ये बहुत से देवीदेवता ही हिंदू धर्म की दुकान के बड़े प्रोडक्ट हैं जिन से श्रेष्ठि वर्ग को रोजगार मिला हुआ है, इसीलिए इन दुकानों को सरकारी खर्चे पर और चमकाया जा रहा है जिस से आमदनी ज्यादा से ज्यादा हो और लोग जातियों में बंटे रहें. इस बाबत पटेल और अंबेडकर तक के मंदिर बना दिए गए हैं.

4 जून के नतीजे क्या होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन एक देश एक चुनाव की व्यवस्था अगर लागू हो पाई तो देश का क्या हाल होगा, इस का जरूर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

 

डिग्री : यश के पिता क्या कहना चाहते थे

रोहन दोपहर के खाने के बाद औफिस में सुस्ता रहा था. औफिस का कामधंधा तो बढ़िया टनाटन चल रहा है, फिर भी सोच उन की पुत्री नेहा पर अटक गई.

नेहा 32  वर्ष की हो गई है. रोहन की सोच नेहा के विवाह की थी. इस उम्र तक पुत्री का विवाह हो जाना चाहिए.

हुआ कुछ यों, पहले नेहा ने विवाह के लिए इनकार कर दिया. जब तक उस की पढ़ाई समाप्त नहीं हो जाती, वह विवाह नहीं करेगी. नेहा पढ़ने में होशियार थी. बी कौम के साथ चार्टर्ड अकाउंटेंसी की पढ़ाई कर रही थी. बी कौम फर्स्ट डिवीजन में पास कर ली. सीए इंटर भी पास हो गया. सीए फाइनल में अटक गई. नेहा ने ठान लिया जब तक सीए नहीं बन जाती, शादी नहीं करेगी. एक ग्रुप अटका हुआ था, आखिर 2 वर्ष बाद सफलता मिल ही गई. नेहा सीए बन गई और नौकरी भी करने लगी.

रोहन ने पत्नी रिया के माध्यम से नेहा से कहना आरंभ कर दिया. विवाह कर ले. नेहा ने अपनी पसंद से विवाह की बात की.

कालेज के दिनों में नेहा की मित्रता नयन से गाढ़ी हो गई थी. नयन के पिता का अपना व्यापार था. नेहा और नयन एकदूसरे के घर आतेजाते रहते थे. रिया को ऐसा महसूस हुआ, नेहा की पहली और अंतिम पसंद नयन ही है.

रोहन और रिया को नयन के साथ रिश्ते में कोई आपत्ति नहीं थी. उन्हें नेहा की हरी झंडी की प्रतीक्षा थी.

जहां नेहा ने फर्स्ट डिवीजन में बी कौम किया, नयन थर्ड डिवीजन में पास हुआ. उस ने भी सीए में दाखिला तो लिया लेकिन इंटर में लुढ़क गया और सीए की पढ़ाई छोड़ कर अपने पिता के व्यापार में सैट हो गया.

नेहा के सीए बनने पर रोहन और रिया ने एक शानदार पार्टी का आयोजन किया और अपने दिल की बात नयन के पिता को बता ही दी. नयन के पिता ने एक सप्ताह बाद बातचीत करने को कहा.

एक रैस्त्रां में रोहन और रिया नयन के मातापिता से मिले. कुछ औपचारिक कुशलक्षेम की बातें हुईं और फिर रोहन सीधे मुद्दे की बात पर आए.

“नेहा और नयन कालेजके दिनों से घनिष्ठ मित्र हैं और मेरी इच्छा है हम दोनों के विवाह के लिए सहमत हो जाएं.”

नयन के मातापिता का जवाब सुन कर रोहन का माथा घूम गया.

“माना दोनों बहुत वर्षों से दोस्त हैं. दोस्ती का यह मतलब नहीं होता, वे आपस में विवाह भी करें.”

“अच्छी दोस्ती का सीधा अर्थ होता है, वे एकदूसरे को अच्छी तरह समझते हैं. विवाह सफल रहेगा,” रोहन ने अपना मत रखा.

“देखिए, नयन बी कौम है और हमारे पारिवारिक व्यवसाय में रचबस गया है. उस के लिए कई व्यापारिक घरानों से रिश्ते आ रहे हैं. हम उन रिश्तों पर भी विचार कर रहे हैं.”

“मेरा भी अपना व्यापार है. दादा जी ने एक दुकान से काम आरंभ किया था, अब 2 फैक्ट्री हैं,” रोहन ने नयन के पिता को प्रभावित किया.

“वह तो ठीक है लेकिन हमें अधिक पढ़ीलिखी लड़की बहू के रूप में स्वीकार्य नहीं है.”

“शादी का पढ़ाई से क्या संबंध है. लड़का और लड़की जब एकदूसरे को पसंद करते हैं तब पढ़ाई आड़े नहीं आती.”

“हम आप की बात से सहमत नहीं हैं. आप की लड़की हमारे लड़के से अधिक पढ़ी है. स्वाभाविक रूप से वह अपनी पढ़ाई का रोब डाल कर लड़के से ऊपर रहेगी. नयन कुंठा में नहीं जीना चाहता. हमें सिर्फ बी कौम पास लड़की ही चाहिए, जो नयन की बराबरी करे लेकिन ऊपर रहने का रोब न डाले,” नयन के पिता ने दो टूक कह दिया.

रोहन ने बात संभालने का प्रयास किया, “नेहा और नयन एकसाथ घूम फिर रहे हैं. दोनों खुश हैं. मुझे तो कभी एहसास नहीं हुआ, नेहा को अपने सीए होने का घमंड हो या नयन को कभी ताना मारा हो. जब अच्छे मित्र पतिपत्नी बनते हैं तब उन का प्यार और निखरता है. नेहा सीए है, उस की पढ़ाई आप के काम आएगी. उस के ज्ञान और टैक्स की जानकारी से आप को फायदा होगा, आप के व्यापार को फायदा होगा.”

“फिर तो हमारे ऊपर भी रोब डालेगी, हमें कुछ नहीं आता. सब ज्ञान उसी को है. हम जिस सीए से काम कराते हैं वह हमें सलाम मारता है और झुक कर काम करता है. उस को मालूम है अधिक टूंटा की तो किसी और सीए से काम करवा लेंगे. अगर नेहा ने हमारा काम संभाला तब वह बहू नहीं, हमारा बाप बन जाएगी जो हम नहीं चाहते.”

रोहन नयन के पिता के तर्क सुन कर चुप हो गया. उस ने कभी सोचा नहीं था आज के आधुनिक युग में भी पुरानी सोच के लोग जी रहे हैं.

नेहा और नयन अच्छे मित्र तो थे लेकिन पतिपत्नी नहीं बन सके. जो सपने संजोए थे उन्होंने, धाराशाही हो गए.

कुछ दिनों बाद नयन की शादी का समाचार मिला. एक बार फिर रिया ने बात छेड़ी.

“तेरी कोई पसंद हो, तो बता. कोई औफिस सहपाठी या फिर कोई मित्र?”

नेहा ने कुछ समय मांगा. अभी नौकरी बदलनी है. कुछ समय बाद सोचेगी. लड़की सीए है, अच्छी नौकरी है. सैलरी बढ़िया है. रिश्तेदारों ने भी अपने लड़कों के लिए रिश्ते भेजने बंद नहीं किए थे.

रोहन औफिस में यही सोच रहा था. लड़की हो या लड़का, हर किसी को शारीरिक जरूरतों के लिए विवाह के बंधन में बंधना होता है. कुदरत के नियम पर समाज ने अपनी मोहर लगाई है. नयन की शादी हो गई. नेहा को कुछ सोचना चाहिए. जब उसे खुली छूट दी है, जिस लड़के को पसंद करेगी उसी से विवाह करा देंगे. इसी उधेड़बुन में रिया को फोन लगाया.

“मैं आज रात फाइनल बात करती हूं. आज भी मेरे पास 2 रिश्ते आए हैं, क्या जवाब दूं. कब तक मना करती रहूं. एक समय बाद तो रिश्ते आने भी बंद हो जाएंगे.”

रात को नेहा ने कह दिया, “नयन के बाद कोई लड़का उसके जीवन में नहीं है. आप के सुझाए लड़के पर वह विचार करेगी.”

रोहन और रिया को इस जवाब पर प्रसन्नता हुई. आए रिश्तों पर चर्चा होने लगी. कुछ लड़के नेहा की 32 वर्ष उम्र देखते ही पीछे हट गए, हमें अपने से बड़ी उम्र की लड़की नहीं चाहिए.

बिरादरी के होली मिलन पर रोहन, रिया और नेहा हंस-मिल कर सभी से बातें कर रहे थे. कुछ आंखें संभावित बहू और वर की तलाश में थीं.

“और रिया, अपने को खूब मेंटेन कर रखा है,” सुकन्या ने हायहेलो करते हुए पूछा.

“थैंकयू, और बता, क्या चल रहा है?”

“इस से तो मिलवा,” नेहा को देख कर पूछा.

“अब वर्षों बाद मिल रही है, भूल गई क्या. मेरा एक ही तो बच्चा है, नेहा.”

“हाऊ स्वीट, बड़ी प्यारी बच्ची है. शादी का कोई इरादा है क्या?”

“सीए बन गई है. गुरुग्राम में नौकरी कर रही है. कोई लड़का हो तो बताना,” रिया ने सुकन्या के कान में बात डाल दी.

“नेकी और पूछपूछ. वह सामने देख लड़का, जंचे तो बता. अभी मिलवा देती हूं.”

“कौन है?”

“मेरी भाभी का लड़का है. गुरुग्राम में सौफ्टवेयर इंजीनियर है.”

सुकन्या रिया का हाथ पकड़ कर अपनी भाभी से मिलवाने ले गई. लड़के का नाम यश था. रिया और यश को मिलवाया. खैर, मिलने का पहला अवसर था. बस, हायहेलो हुई.

रिया ने यह अवसर लपक लिया. सुकन्या और उस की भाभी से पूरी जानकारी प्राप्त कर ली.

नेहा खूबसूरत थी. यश भी हैंडसम था. पहली नजर में दोनों एकदूसरे के परिवार को पसंद आ गए. 2 दिनों बाद रविवार था. सुकन्या के घर मिलने का कार्यक्रम तय हुआ. रोहन का पहला अनुभव खट्टा रहा था, इसलिए उस ने एक रैस्त्रां में मिलने का कार्यक्रम तय किया.

रैस्त्रां में नेहा और यश अलग टेबल पर बैठ कर बातचीत करने लगे.

रोहन ने यश के परिवार को स्पष्ट कर दिया. नेहा सीए है और यश सिर्फ बी टैक है. देखा जाए तो नेहा की डिग्री बड़ी है. और दूसरी बात यह है कि नेहा की उम्र 32 वर्ष है और यश की आप ने 30 वर्ष बताई है. मुझे और रिया को कोई फर्क नहीं पड़ता. भारतीय समाज में आज भी कुछ पुरानी सोच के व्यक्ति हैं जो विवाह के समय लड़की का कम पढ़ा होना और छोटी उम्र का होना पसंद करते हैं.

यश के पिता ने रोहन का हाथ पकड़ा और एक अलग टेबल पर ले गए. रोहन को कुछ समझ नहीं आया. आखिर, एकांत में क्या कहना चाहते हैं.

“देखो, एक अंदर की बात बताता हूं. मैं इन बातों पर विश्वास नहीं रखता हूं.”

“यह तो आप का बड़प्पन है,” रोहन ने यश के पिता का शुक्रिया अदा किया कि वे दकियानूस नहीं हैं.

“पहले नेहा और यश अपनी पसंद बताएं. उन की पसंद मिल जाए तो आप को वह बात बताऊंगा जिस के लिए मैं आप को अलग टेबल पर लाया हूं.”

कुछ बातें हुईं. खाना हुआ और सभी अपने घर वापस आ गए. रोहन उस बात को समझने की कोशिश कर रहा था, यश के पिता क्या कहना चाहते थे, कहीं बेवकूफ तो नहीं बना रहे.

रात को नेहा और यश ने अपनी अपनी स्वीकृति प्रदान की. रोहन और रिया के चेहरे पर रौनक आ गई. अगले रविवार शगुन की थाली ले कर रोहन यश के घर पहुंचे. रिश्ता पक्का हुआ.

मुसकराते हुए यश के पिता रोहन को फिर एकांत में ले गए.

“वह एक बात रह गई जो उस दिन रैस्त्रां में बतानी थी.”

“जी, कहिए.”

“शादी के समय मैं सिर्फ 12वीं पास था. 33 फीसदी के साथ पास हुआ. कालेज में एडमिशन के लिए कम से कम 40 फीसदी नंबर चाहिए होते हैं. मैं तो स्टौकब्रोकर बन गया. यश की मां एमए पास है. जब मुझे मालूम हुआ, नेहा सीए है तब सब से बड़ी खुशी मुझे हुई. नेहा से कहना, नौकरी छोड़ कर मेरे औफिस में हाथ बंटाए.”

रोहन मुसकरा दिया. यश के पिता को गले लगाया. मुड़ कर देखा, नेहा और यश एकदूसरे कमरे में बतिया रहे थे. उन दोनों को डिग्री से अधिक एकदूसरे के विचारों से मतलब था.

मेरा बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है, कैसे उसे समझाएं?

सवाल

बेटा शादी के लिए तैयार नहीं. बेटे की उम्र 28 साल है. जहां तक कैरियर में सैटल होने की बात है तो वह अच्छी नौकरी कर रहा है. घर में किसी चीज की कमी नहीं है. मातापिता होने के नाते घर हम चलाते हैं. बेटे से हम ने कभी उस की सैलरी का एक पैसा भी नहीं लिया.  हां, अपने खर्चे वह खुद करता है. हम उसे यह सम?ाते हैं कि शादी करनी है तो यह सही उम्र है. तुम्हारे ऊपर कोई पारिवारिक जिम्मेदारी भी नहीं. लेकिन वह राजी ही नहीं होता शादी के लिए. कैसे उसे विवाह के लिए तैयार करें?

जवाब

मातापिता यही चाहते हैं कि उन के बच्चों की शादी हो जाए और उन का घर बस जाए. ठीक भी है. यदि शादी करनी है तो समय से हो जाए तो हर तरह से ठीक रहता है. शारीरिक रूप से भी और आर्थिक रूप से भी. लेकिन आजकल देखने में आ रहा है कि बच्चे उम्र होने के बावजूद, सैटल हो जाने के बाद भी शादी नहीं करना चाहते. यहां तक देखने को मिल रहा है कि वे रिलेशनशिप में रहने लगते हैं लेकिन शादी नहीं करना चाहते.

खैर, आप बेटे की शादी से इनकार करने की वजह जानें. अगर समस्या का हल निकल सकता है तो जरूर निकालें. कई बार युवा बच्चे अपने कैरियर को ले कर ज्यादा गंभीर होते हैं तो इस बारे में भी उन्हें सम?ाएं कि पूरी तरह सैटल तो व्यक्ति 35-40 की उम्र में जा कर होता है. तब तक का इंतजार करना बेवकूफी है.

कई बार ऐसा होता है कि अपनी पसंद का जीवनसाथी नहीं मिलने की वजह से वे शादी से भागने लगते हैं. ऐसे में आप अपने बेटे से इस बारे में खुल कर बात करें कि उसे किस तरह का जीवनसाथी चाहिए. शादी के लिए लड़की ढूंढ़ने में बच्चे की पसंद का ध्यान रखें.

हो सकता है आप के बेटे ने कोई लड़की पसंद कर रखी हो और वह आप के मापदंडों पर पूरी न उतरती हो या किसी लड़की को वह पसंद करता हो लेकिन उस से बोलने की हिम्मत न कर पा रहा तो इस में भी आप मातापिता होने के नाते उस की मदद कर सकते हैं. उस लड़की के घरवालों से आप बात कर सकते हैं.

आखिर में हम यह बात जरूर कहना चाहेंगे कि बेटे पर शादी को ले कर किसी तरह का दबाव न बनाएं. इस से उस की मैंटल हैल्थ पर काफी असर पड़ेगा. इतना ही नहीं, कई बार दबाव में आ कर बच्चे शादी तो कर लेते हैं लेकिन बाद में आने वाली परेशानियों का ठीकरा पेरैंट्स पर फोड़ते हैं. ऐसे में हमेशा बच्चे से बात करने और उस की हां बोलने के बाद ही शादी की बात आगे चलाएं.

अमीर देशों में प्रजनन दर में निरंतर गिरावट

पिछले दिनों भाजपा नेता बड़ा होहल्ला मचा रहे थे कि हिंदुओं की संख्या कम हो रही है, मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, हिंदू खतरे में है, वगैरहवगैरह. हालांकि, लोकसभा चुनाव के दौरान ध्रुवीकरण की कोशिश के मद्देनजर जिस आंकड़े के आधार पर वे होहल्ला मचा रहे थे वह, दरअसल, 1950 और 2015 के बीच की स्टडी थी.

मोदी सरकार ने तो जाति आधारित जनगणना कभी करवाई ही नहीं कि जिस से पता चले कि किस धर्म-जाति के लोगों की संख्या बढ़ी या कम हुई. फिर यह समझना भी जरूरी है कि जन्मदर में बदलाव के पीछे आर्थिक और सामाजिक कारण होते हैं और इस का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं होता है. जन्मदर में गिरावट शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच का नतीजा है.

बीते एक दशक में दुनियाभर के देशों में प्रजनन दर बहुत तेजी से गिर रही है. यूएस सैंटर फौर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवैंशन की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि 2023 में अमेरिका की प्रजनन दर में 2 फीसद की गिरावट आई है. कोरोना महामारी के चरम समय प्रजनन दर में कुछ वृद्धि हुई थी क्योंकि लगभग 2 साल तक लौकडाउन के चलते पतिपत्नी घर पर एकसाथ रहे और उन के एकांत में खलल डालने वाले रिश्तेदार उन से दूर रहे. लिहाजा, औरतें ज्यादा प्रैगनैंट हुईं, यह दुनियाभर में हुआ परंतु यह वृद्धि अस्थाई थी.

हालांकि, 1971 के बाद से अमेरिकी प्रजनन दर लगातार गिर रही है. अधिक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में यदि अन्य औद्योगिक देशों को देखें तो सभी जगह समान पैटर्न दिखाई दे रहा है. जापान, दक्षिण कोरिया और इटली में प्रजनन दर सब से कम है.

अमेरिका और आस्ट्रेलिया में वर्तमान प्रजनन दर 1.6 है. ब्रिटेन में यह 1.4 है. वहीं दक्षिण कोरिया में यह मात्र 0.68 है. ये देश लगातार सिकुड़ रहे हैं. दक्षिण कोरिया तो बहुत तेजी से सिकुड़ रहा है. इस का मतलब यह है कि इन देशों में जितने लोग पैदा हो रहे हैं उस से ज्यादा लोग मर रहे हैं. इस से काम करने वाले हाथ कम हो रहे हैं, गरीबी बढ़ रही है और लोग अपनी देखभाल के लिए दूसरों पर या सरकार पर अधिक निर्भर हो रहे हैं.

किसी जनसंख्या के वर्तमान आकार को बनाए रखने के लिए, अर्थात न तो वह सिकुड़े और न ही बहुत ज्यादा हो, कुल प्रजनन दर प्रति महिला 2.1 से ऊपर होनी चाहिए. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें मातापिता दोनों के मरने के बाद उन की जगह लेने के लिए पर्याप्त बच्चे पैदा करने की जरूरत होती है– एक बच्चा मां की जगह लेता है और दूसरा पिता की जगह लेता है और शिशु मृत्युदर के लिए थोड़ा अतिरिक्त.

संक्षेप में समझें तो यदि हम चाहते हैं कि जनसंख्या बढ़े, तो महिलाओं को 2 से अधिक बच्चे पैदा करने की आवश्यकता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई पश्चिमी देशों में बिलकुल यही हुआ था. महिलाएं 2.1 से अधिक बच्चों को जन्म दे रही थीं, जिस के परिणामस्वरूप शिशु जन्म में वृद्धि हुई. कई परिवारों में 3 या अधिक बच्चे हो गए. मगर अब महिलाएं एक या दो बच्चे ही पैदा कर रही हैं और बहुतेरी तो बच्चा पैदा ही नहीं करना चाहती हैं. जिस की वजह से दुनिया के देशों में प्रजनन दर में भारी कमी देखी जा रही है. यह चिंता का विषय है.

प्रजनन दर कम होने की कई वजहें हैं और एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं. शिक्षा के प्रचारप्रसार के कारण दुनियाभर में औरतें शिक्षित हुई हैं. भारत में भी औरतों की शिक्षा के क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है. पहले लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती थी. 17-18 साल की उम्र में वे मां बन जाती थीं. उन के पास मां बनने के लिए अधिक साल भी थे. पिछली पीढ़ी पर ही नजर डालें तो अनेक घरों में 5 से 8 या 10 बच्चे तक हैं.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 6 भाईबहन हैं जबकि नरेंद्र मोदी निसंतान हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 5 भाईबहन हैं जबकि नीतीश कुमार का सिर्फ एक बेटा है. संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर 14 भाईबहन थे, सुभाष चंद्र बोस भी 14 भाईबहन थे, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई 7 भाईबहन थे. अपने गृहमंत्री अमित शाह 7 भाईबहन हैं, तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव 10 भाईबहन हैं और लालू यादव के 9 बच्चे हैं. जबकि अगली पीढ़ी में बच्चों की संख्या घट कर एक या दो रह गई है.

शिक्षा और उच्च शिक्षा ग्रहण करने और फिर कैरियर बनाने के चलते लड़के और लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ कर 28-35 हो गई है. इस उम्र में शादी होने पर बच्चे भी एकाध ही हो रहे हैं. इस के अलावा दुनियाभर में औरतें सिर्फ गृहिणी नहीं रहीं, बल्कि नौकरीपेशा हैं, व्यवसाय कर रही हैं, ऊंचे पदों पर नियुक्त हैं, ग्लैमर की दुनिया में हैं. इस व्यस्तता के कारण भी वे अधिक बच्चे नहीं चाहती हैं.

आज के समय में संयुक्त परिवार टूट चुके हैं. पहले बहू को यदि बच्चा न हुआ तो लड़के की मां, दादी, बूआ, मौसी, चाची सब उस को टोकती थीं, इलाज के लिए डाक्टर से ले कर साधुसंतों या झाड़फूक वालों के चक्कर काटती थीं. जब तक बहू की गोद न भर जाए, बड़ीबूढ़ी चैन से नहीं बैठती थीं. अगर तमाम दवाइलाज के बाद भी बच्चा न हुआ तो लड़के की दूसरी शादी भी करवा दी जाती थी. अगर लड़के में दोष हुआ तो चुपचाप घर के दूसरे पुरुषों से संसर्ग करवा कर बच्चा पाया जाता था. मगर संयुक्त परिवार के टूटने से नवविवाहिताएं घर की बड़ीबूढ़ियों के तानों से आजाद हो गई हैं. अब अगर शादी के कई साल तक बच्चा न भी हुआ तो चिंता नहीं है. अनेक ऐसे कपल हैं जो निसंतान है और खुश हैं. किसी को बच्चे की ज्यादा चाह हुई तो आईवीएफ से एक बच्चा पा लिया या गोद ले लिया.

उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छी नौकरी या व्यवसाय में लगी बहुतेरी महिलाएं शादी कर के किसी बंधन में नहीं बांधना चाहती हैं, इसलिए भी प्रजनन दर लगातार प्रभावित हो रही है. आस्ट्रेलियाई महिलाएं पुरुषों की तुलना में बेहतर शिक्षित हैं. आस्ट्रेलिया में दुनिया की सब से अधिक शिक्षित महिलाएं हैं. अधिकांश महिलाएं मां नहीं बनना चाहती हैं.

आज युवाओं को हर चीज में देरी हो रही है. युवाओं के लिए उच्च शिक्षा पाना, स्थिर नौकरी प्राप्त करना और अपना घर खरीदना शादी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. ये ऐसे कारक हैं जो पहले बच्चे के जन्म के लिए भी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं. इसलिए, कई युवा आर्थिक और आवास असुरक्षा के कारण बच्चा पैदा करने में देरी करते हैं.

इस के अलावा, अब हमारे पास सुरक्षित और प्रभावी गर्भनिरोधक है, जिस का अर्थ है कि विवाह के बाहर यौन संबंध संभव है और प्रजनन के बिना यौन संबंध की लगभग गारंटी दी जा सकती है. इन सब का मतलब है कि मातापिता बनने में देरी हो रही है. महिलाएं देर से और कम बच्चे पैदा कर रही हैं.

बच्चे पालना एक महंगा और समय लेने वाला काम है. कई औद्योगिक देशों में बच्चों के पालने पर आने वाली लागत बहुत अधिक है. आस्ट्रेलिया में बच्चों की देखभाल की औसत लागत मुद्रास्फीति से अधिक हो गई है. स्कूल की ट्यूशन फीस, यहां तक कि पब्लिक स्कूलों के लिए भी, मातापिता के बजट का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा खर्च कर देती है. इसलिए लोग एक बच्चे से ज्यादा नहीं पैदा कर रहे हैं.

यदि प्रजनन दर को बढ़ाना है तो सहायक देखभाल के बारे में गंभीरता से सोचना होगा. युवाओं को जल्द से जल्द बेहतर कैरियर और आवास मिले, बच्चों और वृद्ध देखभाल के बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश, बढ़ती उम्र की आबादी का समर्थन करने के लिए तकनीकी नवाचार और ऐसे कार्यस्थलों की आवश्यकता है जो मूल रूप से देखभाल को ध्यान में रख कर तैयार किए गए हों. इस के बगैर लड़केलड़कियों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.

परिवारों में कम बच्चे पैदा होने या बच्चे न होने से एक और समस्या सिर उठाने लगी है. यदि परिवार में एक ही बच्चा है और वह शिक्षा के लिए विदेश गया और वहीं सैटल हो गया तो उस की पैतृक संपत्ति और उस के मातापिता द्वारा अर्जित चल-अचल संपत्ति की देखभाल करने और भोगने वाला कोई नहीं बचता है. दिल्ली में कई ऐसी कोठियां उजाड़ हालत पड़ी हैं, क्योंकि जो बच्चे विदेश में सैटल हो गए, वो वापस भारत नहीं लौटे.

जेरोधा के सहसंस्थापक और अरबपति निखिल कामथ भविष्य की पीढ़ियों के लिए धन जमा करने में विश्वास नहीं करते हैं. निखिल कामथ अपनी अधिकांश संपत्ति परोपकारी कार्यों के लिए दान करने के बाद ‘द गिविंग प्लेज’ में शामिल होने वाले सब से कम उम्र के भारतीय हैं. वे बेंगलुरु स्थित उद्यमियों और गिरवी रखने वाले साथी इन्फोसिस के सहसंस्थापक नंदन नीलेकणि, बायोकोन की संस्थापक किरण मजूमदार शा और विप्रो के संस्थापक अजीम प्रेमजी से प्रेरित हैं. वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए धन जमा करने में विश्वास नहीं करते हैं.

अपने पोडकास्ट, डब्ल्यूटीएफ में, 37 वर्षीय अरबपति निखिल कामथ ने कहा कि वे अपने जीवन के 2 दशक केवल ‘बच्चों की देखभाल’ में नहीं बिताना चाहते हैं केवल यह आशा करने के लिए कि जब वे बूढ़े हो जाएंगे तो उन के बच्चे उन के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे.

कामथ कहते हैं, “मैं बच्चे की देखभाल करतेकरते अपने जीवन के 18-20 साल बरबाद कर दूं और एक दिन वह 18 साल की उम्र में ‘स्क्रू** यू’ कहे और मुझे छोड़ कर चला जाए. मैं अपने जीवन में ऐसी स्थिति नहीं चाहता.”

मंगलसूत्र पर सवार मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक  भाषण में कह डाला है कि कांग्रेस आम लोगों से पैसा छीन कर उन को बांटना चाहती है जिन के बच्चे ज्यादा होते हैं, यानी मुसलमानों को. आम जनता में यह गलतफहमी बड़ी जोर से फैली है कि 4 शादियां कर के मुसलिम ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और 2002 के गुजरात विधानसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी यह कहते घूमे थे कि वे 5 से 25 हो रहे हैं.

हिंदुओं की माताओं और बहनों के मंगलसूत्रों पर कांग्रेस की नजर है जिन्हें छीन कर वह बांटना चाहती है, प्रधानमंत्री ने खुलेआम यह आरोप लगाया. असल बात यह है कि हिंदू औरतों की सोच और संपत्ति यदि कहीं जा रही है तो वह मंदिरों में जा रही है और नरेंद्र मोदी की पार्टी ही नहीं, उस के कर्मठ समर्थक, जो मंदिरों की दुकानदारी चलाते हैं, अब अपने बढ़ते भंडार को देख कर खुश भी हैं और चिंतित भी कि कहीं दूसरी पार्टी सत्ता में आ गई तो उस पर नई सरकार की नजर न पड़ जाए. जो मंगलसूत्र औरतों के गलों से निकल कर मंदिरों में पहुंच चुके हैं उन का आकलन तो किया ही नहीं जा सकता.

तिरुपति मंदिर के कुछ आंकड़े सार्वजनिक हुए. इन के अनुसार, मुख्य मंदिर ट्रस्ट के पास 2023-2024 के वर्ष में 13.287 करोड़ रुपए की फिक्स्ड डिपौजिट है. यही नहीं, उस के सहयोगी ट्रस्टों के पास 5,529 करोड़ रुपए की फिक्स्ड डिपौजिट है. मोदीकाल में यह रकम 970 करोड़ से 800 करोड़ सालाना बढ़ रही है.

तिरुपति मंदिर के पास 800 चल संपत्तियां भी हैं. उन का मूल्य भी बेतहाशा बढ़ा है और अब कुल सकल संपत्ति 2.25 लाख करोड़ रुपए हो गई है. यह बात सिर्फ एक मंदिर की हो रही है.

देश में 5 से 20 लाख तक मंदिर गिने जाते हैं जिन में लाखों सरकारी जमीनें घेर कर बनाए गए हैं. यह संपत्ति है जिसे लूटा जा सकता है. हमारा मौखिक इतिहास इसी संपत्ति को लूटने आए मंगोलों, तुर्की, अफगानों, ग्रीकों, हूण्णों और मुगलों की बात करता है जिसे लूटने ये लोग आते रहे. यह जनता का पैसा तो था ही नहीं, जनता से लूटा जा चुका था. नरेंद्र मोदी ने अच्छा किया कि माताओं और बहनों को अपने गहनों और मंगलसूत्रों की ओर ध्यान दिलाया क्योंकि आज सनातन धर्म जब फिर से शक्तिशाली हो रहा है तो उस की नजर आम लोगों की इसी संपत्ति पर है.

लोगों को खतरा कांग्रेसी मैनिफैस्टो से नहीं, भगवा इरादे से होना चाहिए. कांग्रेस यह तब करेगी जब सत्ता में आएगी और उस की ऐसी कहीं मंशा माइक्रोस्कोप से देखने पर भी मैनिफैस्टो में नहीं मिलती है पर भगवा मैनिफैस्टो तो सभी तरह विदेशियों के शासनों में भी चलता रहा है. और विदेशी शासनों के दौरान भी लोग अपनी संपत्तियां जम कर मंदिरों में चढ़ाते रहे हैं. जो लूट विदेशी शासक जनता से कर रहे थे उस से कई गुना लूट तो मंदिरों की होती रही है.

घटती वोटिंग के पीछे देश के आम चुनाव में देशवासियों की जो रुचि बढ़ रही थी, अचानक घटने लगी है और पहले 3 चरणों में घटा मतदान एक चिंता का विषय बन गया है. यह सिर्फ गरमी की वजह से हुआ, यह बहाना नहीं चल सकता क्योंकि पिछले कई चुनाव इसी तरह की गरमी में ही हुए हैं और लोग उत्साह से मतदान में भाग लेते रहे हैं. यह एक और ही ट्रैंड की निशानी है जिसे देश की सरकार के प्रति गुस्सा ही कहा जा सकता है.

लोगों को लगने लगा है कि उन के वोटों से कुछ नहीं होने वाला और जो भी चुन कर आएगा वह दूध का धुला तो दूर, काले कोलतार से पुता होगा. 2014 में लोगों ने जम कर उत्साह से वोट दिया क्योंकि एक ओर कोयला और 2जी घोटालों के ?ाठे आरोपों से घिरी सरकार को हटाना था तो दूसरी ओर धर्म की स्थापना करने, अच्छे दिनों और भ्रष्टाचारमुक्त सरकार को लाने का मौका मिल रहा था.

देश की सत्ता पर काबिज भाजपा की सरकार ने विपक्षी नेताओं को जेलों में बंद कर वोटरों को जता दिया कि उन के वोट से जीते नेता और उन की राज्य सरकारें व देश की ज्यादातर अदालतें उस के चंगुल में हैं यानी सरकार काम करे या न करे, उस का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता. ऐसे में फिर मतदाताओं के मतदान करने का क्या मतलब, ऐसा सोचा जाना स्वाभाविक है.

सरकार के गठन में जहां भी वोट उत्साह से पड़ते हैं या जब भी भरभर कर वोटों से सरकारें बनती हैं, कुछ चमत्कार होते हैं, ऐसा नहीं है. हां, लोगों को बस यह लगता है कि सरकार उन की सुन तो रही है. अब तो यह साफ हो चुका है कि वोट, आवाज, कोर्ट, अर्जी का कोई मतलब नहीं रह गया. सरकार हाथी नहीं, डायनासोर है, बड़ा बुलडोजर है जो अपनी मरजी से चलेगी और जो सामने आएगा, उसे कुचल देगी. उस के भरोसे कोई कल्याण नहीं होने वाला.

अगर चुनावों के अन्य चरणों में भी यही हुआ तो साफ हो जाएगा कि देश में चुनावी लोकतंत्र का भाव खत्म होने वाला है और पौराणिक काल लौटेगा जिस में ऋषिमुनियों की चलेगी क्योंकि उन्हें भगवानों ने वरदान दिया और वे दुर्वासाओं की तरह सब को धमकाते रहेंगे. जनता का काम तो दान करना रहेगा चाहे वह वोट का दान हो, टैक्स का दान हो, मंदिरों में मंगलसूत्रों का दान हो या किसी के चरणों में देह का दान हो.

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