गजब का आकर्षण था उस अजनबी महिला के चेहरे पर. उस से हुई छोटी सी मुलाकात के बाद दोबारा मिलने की चाह उसे तड़पाने लगी थी. लेकिन यह एकतरफा चाह क्या मृगमरीचिका जैसी नहीं थी? बसस्टौप तक पहुंचतेपहुंचते मेरा सारा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था. पैंट की जेब से रूमाल निकाल कर गरदन के पीछे आया पसीना पोंछा, फिर अपना ब्रीफकेस बैंच पर रख कर इधरउधर देखने लगा. ऊपर बस नंबर लिखे थे. मुझे किसी भी नंबर के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

फिर भी अनमने भाव से कोई जानापहचाना सा नंबर ढूंढ़ने लगा, 26, 212, 50... पता नहीं कौन सी बस मेरे औफिस के आसपास उतार दे. तभी अचानक वहां आई एक महिला से कुछ पूछना चाहा. स्लीवलैस ब्लाउज और पीली प्रिंटेड साड़ी में लिपटी वह महिला बहुत ही तटस्थ भाव से काला चश्मा लगाए एक ओर खड़ी हो गई. महिला के सिवा और कोई था भी नहीं. सकुचाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘सैक्टर 40 के लिए यहां से कोई बस जाएगी क्या?’’ ‘‘827,’’ उस का संक्षिप्त सा उत्तर था. ‘‘क्या आप भी उस तरफ जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

हालांकि मुझे उस अनजान महिला से इस तरह कुछ पूछना तो नहीं चाहिए था परंतु देर तक कोई बस न आती दिखाई दी तो चुप्पी तोड़ने के लिए पूछ ही बैठा. ‘‘जी,’’ उस ने फिर संक्षिप्त उत्तर दिया. आधा घंटा और खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं आई. 10 बजने वाले थे. देर से औफिस पहुंचूंगा तो कैसे चलेगा. एकदम सुनसान था बसस्टौप. ‘‘क्या सचमुच यहां से बसें जाती हैं?’’ मैं ने मुसकरा कर कहा. हालांकि मैं ने कुछ उत्तर सुनने के लिए नहीं कहा था, मगर फिर भी उस महिला ने कहा, ‘‘आज शायद बस लेट हो गई हो.’’ बस का इंतजार करना मेरी मजबूरी बन चुका था. आसपास कहीं औटो या रिकशा होता तो शायद एक क्षण के लिए भी न सोचता. तभी वही बस पहले आई जिस का इंतजार था. मुझे 3 महीने हो गए थे इस छोटे से शहर में. बसस्टौप से थोड़ी ही दूर मेरा फ्लैट था.

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