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सेल्फी लेने की आदत है जानलेवा, पढ़ें पूरी खबर

आजकल युवाओं के बीच में सेल्फी के लिए जैसा क्रेज देखा जा रहा है वो हैरान कर देने वाला है. इससे उनका काफी नुकसान होता है. लोगों की ये आदत अब जानलेवा बन चुकी है. हाल ही में हुई एक स्टडी में ये बात सामने आई कि सेल्फी लोगों में कौस्मेटिक सर्जरी के लिए प्रौत्साहित करती है.

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स्टडी के मुताबिक, सेल्फी लेने के बाद लोगों में मानसिक दबाव अधिक हो जाता है. ज्यादा सेल्फी लेने वाले लोग अधिक चिंतित महसूस करते हैं. उनका आत्मविश्वास कम हो जाता है और वे शारीरिक आकर्षक में कमी महसूस करते हैं. ज्यादा सेल्फी लेने वाले लोगों में अपने लुक्स को लेकर काफी हीन भावना बढ़ जाती है, ये भावना इतनी तीव्र होती है कि वो अपनी कौस्मेटिक सर्जरी कराने की सोचने लगते हैं.

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इस स्टडी में करीब 300 लोगों को शामिल किया गया है.  अध्ययन में पाया गया कि किसी फिल्टर का उपयोग किए बिना सेल्फी पोस्ट करने वाले लोगों में चिंता बढ़ने और आत्मविश्वास में कमी देखी जाती है. सेल्फी लेने और उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के बाद मूड खराब होता है और इसका सीधा असर आत्मविश्वास पर पड़ता है.

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स्टडी में ये भी देखा गया है कि ये मरीज सेल्फी लेने और उन्हें सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के बाद अधिक चिंतित, आत्मविश्वास में कमी और शारीरिक आकर्षण में खुद को कमतर आंकते हैं. यही नहीं, जब मरीजों ने अपनी सेल्फी बार-बार ली तथा अपनी सेल्फी में बदलाव की तो सेल्फी के हानिकारक प्रभाव को महसूस किया.

आतंकवादी नहीं हूं मैं

पूर्व कथा

एक दिन देर रात तक जब रज्जाक घर नहीं लौटा तो रानो को उस की चिंता सताने लगी. परेशान रानो सुलेमान बेकरी में फोन करती है. उसे पता चलता है कि वह सुबह ही किसी अनजान आदमी के साथ बिना बताए कहीं चला गया है. यह सुन कर रानो परेशान हो जाती है और अतीत की गलियों में खो जाती है.

वह एम.ए. की परीक्षा के बाद ननिहाल आई थी. जिस दिन उस ने अपने घर लौटने का प्रोग्राम बनाया था उस से पिछली रात कुछ अज्ञात आतंकवादी आधी रात को ननिहाल में सब को गोलियों से भून देते हैं पर रानो बच जाती है. एक आतंकवादी उसे देख लेता है और उस की जान बख्श देता है.

गांव में दहशत फैलाने के बाद वे नशे में धुत्त हो जाते हैं तो उन में से एक आतंकवादी रानो के पास आता है. वे दोनों वहां से भाग जाते हैं.

बस में बैठी रानो अपने घर वालों को याद कर के रोने लगती है. वह उसे सांत्वना देता है और उस को जम्मू उस के घर छोड़ने जाता है. रानो के मातापिता उसे जलीकटी सुना कर घर से निकाल देते हैं.

अनजान जगह पर बैठे दोनों भविष्य की योजना बनाते हैं. वह रानो को अपने अतीत के बारे में बताता है. रानो को वहीं छोड़ वह अपनी मां के पास दिल्ली जा कर पैसे ले कर आता है.

दिल्ली में ही दोनों किराए के मकान में रहने लगते हैं. एक दिन वह रानो के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है और दोनों मंदिर में जा कर शादी कर लेते हैं. काम की तलाश में भटकता वह सुलेमान बेकरी पहुंचता है और अब आगे…

रज्जाक की मौत के बाद रानो पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. एक ओर उस की मौत का सदमा तो दूसरी तरफ हिमायत की भूखी नजरें, दिनरात उस का पीछा किया करतीं. रानो जाए तो जाए कहां. अपनों के सहारे की तलाश में भटकती रानो एक बार फिर अपने मासूम बेटे अरमान को ले कर निकल पड़ी. बेसहारा लड़की द्वारा संघर्ष कर के जीवन की ऊंचाइयों को छूने की मर्मस्पर्शी कहानी नलिनी शर्मा द्वारा.

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

राजा के आग्रह पर सुलेमान ने उसे 2 दिन के लिए रख लिया. राजा ने पहले दिन बेकरी में जो बिस्कुट बनाए उन का स्वाद चख कर सुलेमान के मुंह से निकल पड़ा, ‘वाह, क्या लाजवाब स्वाद है. कहां से सीखा यह सब बनाना बर्खुरदार?’

राजा ने विनम्रता से सिर झुका कर कहा,  ‘आप सब बड़ों के आशीर्वाद का फल है.’

योग्यता व विनम्रता का अपूर्व संगम देख सुलेमान ने तुरंत राजा को 2 हजार रुपए मासिक की नौकरी पर रख लिया और एक अच्छे महल्ले में उस के रहने के लिए घर की व्यवस्था कर दी.

अब राजा व रानो दोनों खुश थे. सुलेमान व उन की बेगम आयशा भी दोनों को बहुत चाहते थे. जीवन की गाड़ी सुख के साथ चलने लगी. औलाद के लिए तरसते सुलेमान दंपती राजा व रानो को अपनी औलाद समझते और उन्हें भरपूर प्यार देते. दोनों ने यह खुशखबरी अपनेअपने मांबाप के पास भेजी, पर कोई जवाब नहीं आया. 1 साल बाद रानो ने एक खूबसूरत बेटे को जन्म दिया जिस का नाम उन्होंने अरमान रखा. धीरेधीरे अरमान 3 साल का हुआ और पास के नर्सरी स्कूल में जाने लगा. जब वह 5 साल का हुआ तो राजा ने उसे एक अच्छे पब्लिक स्कूल में भरती करवा दिया.

राजा के कारण बेकरी दिनदूनी रात चौगुनी प्रगति कर रही थी. सुलेमान बेकरी के व्यंजन खरीदने दूरदूर से लोग आते. साथ ही बडे़बडे़ होटल व थोक दुकानदार सप्लाई करने के लिए बड़ेबडे़ आर्डर देते.

एक रात सुलेमान की नींद में ही हार्टअटैक से मृत्यु हो गई. शोकाकुल आयशा को राजा व रानो ने संभाल लिया. सुलेमान की अचानक मौत से स्तब्ध राजा को यह जान कर एक और धक्का लगा  कि उन्होंने अपनी वसीयत में बेकरी सहित सारी जायदाद उस के नाम कर दी है.

शोक प्रकट करने आए आयशा के रिश्तेदारों को यह जान कर बहुत बुरा लगा कि सुलेमान ने अपनी पत्नी आयशा को कुछ नहीं दे कर सबकुछ एक अजनबी नौकर के नाम कर दिया है. पर आयशा आश्वस्त थी, उसे राजा पर पूरा भरोसा था.

आयशा के भाई हिमायत की नजर अपनी बहन की संपूर्ण धनसंपत्ति पर थी. बहन को प्यार से फुसला कर हिमायत ने राजा के बारे में सच उगलवा लिया. सब जानते ही हिमायत अपने गांव गया और अपनी पत्नी सलमा व दोनों बच्चों को ले आया. सब मिल कर आयशा की सेवा करते और उस को लुभाने का हर संभव प्रयास करते. बेऔलाद आयशा ने भी अपने भाई के दोनों बच्चों को कलेजे से लगा लिया.

हिमायत व उस के परिवार की उपस्थिति से राजा अचानक अपने को वहां बेगाना समझने लगा. यही नहीं, हिमायत ने बेकरी के हिसाबकिताब का  चार्ज राजा से छीन लिया और उसे धमकाया,  ‘मैं तुम्हारी असलियत जान चुका हूं. तुम आतंकवादी हो. सबकुछ मेरे नाम कर दो और पहले जैसे नौकर बन कर काम करो, वरना…’

‘वरना क्या?’ पूछा राजा ने.

‘मैं कुछ भी कर सकता हूं. अभी पुलिस में कंप्लेंट…’ वाक्य अधूरा छोड़ दिया हिमायत ने.

राजा पुलिस व इतवारी को पूर्ण रूप से भूल चुका था. सिहर उठा दोनों को याद कर के. सच्ची लगन व ईमानदारी से सेवा कर के उस ने बेकरी को बुलंदियों पर पहुंचाया था. हिमायत के आक्रामक रुख से वह तनावग्रस्त रहने लगा. रानो के  कई बार पूछने पर भी उस ने उसे कुछ नहीं बताया क्योंकि वह उसे इन सब पचड़ों से दूर रखना चाहता था.

राजा रात भर घर नहीं लौटा तो चिंतित रानो दिन निकलते ही बेकरी जा पहुंची. वहां तहमद बांधे भारीभरकम शरीर का हिमायत काउंटर पर बैठा था. तड़के रूपसी को सामने देख कर हिमायत की आंखें रानो के पूरे शरीर का जायजा लेने लगीं.

रानो की आवाज सुन कर उस का सम्मोहन भंग हुआ,  ‘‘राजा कहां है?’’

हिमायत के मुख खोलने के पहले ही उस के पीछे बैठी आयशा चौंक पड़ी,  ‘‘कौन, रानो? इतनी सवेरे?’’

‘‘अम्मी, राजा रात घर नहीं लौटा.’’

आयशा ने आगे बढ़ कर रानो को गले लगा लिया और आश्चर्य से बोली,  ‘‘क्या कहा, राजा नहीं आया? कहां गया?’’

आयशा ने हिमायत की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा तो उस ने अनजान बनते हुए कंधे उचका दिए. बेकरी के अन्य कर्मचारी भी अनभिज्ञ थे. सुखदेव को कुछ अटपटा सा लगा था. वह शंकाग्रस्त था. आयशा को उस ने बता दिया.

रानो को डर लगा कि अगर राजा ने कहीं अचानक आ कर उसे बेकरी में देख लिया तो उस की खैर नहीं. वह वापस घर लौट आई. दरवाजे पर ही पेपर वाला दैनिक समाचारपत्र रख गया था. मुखपृष्ठ पर 2 मृत व्यक्तियों की तसवीरें थीं जिस में एक राजा की थी. राजा की तसवीर देखते ही वह गश खा कर जमीन पर गिर पड़ी.

शोर सुन कर रानो को होश आया तो देखा अरमान उसे देख कर रो रहा था तथा आसपड़ोस के लोग राजा की झूठी  ‘असलियत’ को सच मान कर थूथू कर रहे थे. पासपड़ोस की औरतें उसे सहारा देने के बजाय  ‘आतंकवादी की बीवी’ कह कर डर के मारे अपनेअपने घरों में दुबक गई थीं. उसी समय आयशा दौड़ती हुई आई और रानो और अरमान दोनों को अपने अंक में समेट लिया. फिर तमाशबीनों की ओर देख कर दहाड़ी,  ‘‘राजा एक नेक बंदा था. वह आतंकवादी नहीं था. तुम सब हो आतंकवादी, जो एक निरीह बेवा व उस के बच्चे को सता रहे हो.’’

राजा के घर में ताला लगा कर आयशा, रानो व अरमान दोनों को अपने घर ले आई. रानो व अरमान के प्रति आयशा का स्नेहभाव हिमायत को तनिक भी पसंद नहीं था. लेकिन जिस दिन से उस ने रानो को देखा था उसे अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता था. परिस्थितियां अनुकूल पा कर हिमायत ने अपनी बहन को इस बात के लिए पटा लिया कि वह रानो को उस से विवाह करने के लिए राजी करेगी.

एक दिन सवेरे आयशा बोली,  ‘‘देख रानो, तेरा दुनिया में कोई नहीं है. तेरे मायके व ससुराल वालों के लिए तू कब की मर चुकी है. मेरी बात मान, फिर से शादी कर के घर बसा ले.’’

रानो को चुपचाप सुनते देख कर उस ने उस का चेहरा अपने दोनों हाथों में थाम लिया और  प्यार से उस के माथे को चूमते हुए असली विषय पर आई,  ‘‘ये रूप की आग बड़ी जालिम है, कहीं तुझे जला कर खाक न कर दे. तेरी किस्मत बहुत अच्छी है कि मेरा भाई हिमायत तेरे से निकाह करना चाहता है. इस तरह से तू मेरी आंखों के सामने सदा रहेगी.’’

स्तब्ध रानो के आंसू सूख गए. मुख से आवाज नहीं निकली. स्नेह से हाथ दबा दिया चुपचाप हिमायत की बीवी सलमा का. आंखों से इशारा किया शांत रहने के लिए और निर्णय लिया कि वह वापस जम्मू जाएगी और अरमान को बुजुर्गों की गोदी में डाल कर सहारा मांगेगी. शायद वे पोते को देख कर पसीज जाएं.

हिमायत से खतरा वह बहुत पहले भांप चुकी थी. सलमा को रसोई में अकेले पा कर रानो  ने वहां से बच निकलने की अपनी योजना उसे समझाई और उस से सहयोग मांगा. खुशीखुशी सलमा ने सब की आंख बचा कर रानो व अरमान को शाम के धुंधलके में बिदा कर दिया.

बेकरी में शाम को होने वाली अपार भीड़ को अकेला संभालता, काउंटर पर हिसाबकिताब करता हिमायत जब रात को 12 बजे अपनी बहन के साथ फुरसत पा कर घर के अंदर आया तो उसे भनक तक नहीं थी कि उस का शिकार उस से बहुत दूर जा चुका है.

जम्मू पहुंच कर रानो सब से पहले राजा के अब्बू से मिली. उसे देखते ही वह क्रोध से फट पड़े,  ‘‘तेरे कारण मेरे लड़के ने  ‘इतवारी’ से दुश्मनी मोल ली. उस ने आ कर मेरी बेकरी व व्यापार चौपट कर दिया. किस मुंह से आई है तू यहां?’’

गिड़गिड़ाने लगी रानो,  ‘‘अरमान, आप के बेटे की अमानत है. इसे अपना लीजिए.’’

‘‘नहीं, नहीं, इस से हमारा कोई सरोकार नहीं. बुढ़ापे में हम कोई झंझट पालना नहीं चाहते. यहां से जाओ.’’

वहां से निराश रानो ने अपने मांबाप से विनती की तो उस के पिता बोले,  ‘‘तू हमारे लिए उसी दिन मर गई थी जिस दिन उस आतंकवादी के साथ आई थी.

‘‘तेरे कारण कोई भला आदमी तेरी बहनों से शादी नहीं करना चाहता. तेरे कर्मों की सजा भुगत रहे हैं हम.’’

रानो ने अरमान को बंद दरवाजे के बाहर बैठा दिया और जातेजाते आवाज लगाई, ‘‘मां, अरमान को दरवाजे पर बिठा कर नौकरी की तलाश में जा रही हूं. प्लीज, मां, उस का ध्यान रखना.’’

मन पक्का कर के रानो निकल पड़ी. उसे पूरी आशा थी कि उस की मां, नाती का मुख देख कर अवश्य पसीज जाएंगी. दिन भर वह अपने पुराने परिचितों को तलाशती रही, मिलती रही, नौकरी की तलाश में घूमती रही. थकहार कर जब मां के घर वापस लौटी तो बाहर अरमान को न पा कर कुछ राहत महसूस हुई. खुशी के मारे वह आगे बढ़ कर दरवाजे की घंटी दबाने ही वाली थी कि अपने पीछे से ‘मम्मी’ शब्द सुन कर पलटी तो सन्न रह गई.

अरमान गोरखा चौकीदार की गोद में था. आघात से रानो अपने स्थान पर जड़ हो गई. उसे ऐसा लगा कि किसी ने उसे आकाश से जमीन पर धकेल दिया है.

गोरखा बोला, ‘‘बहनजी, दोपहर में हम इस तरफ से निकले तो देखा बच्चा बाहर अकेला बैठा रो रहा है. हम से सहन नहीं हुआ. हम छोटे लोग हैं बहनजी, अगर तकलीफ न हो तो मेरी कोठरी में रह जाओ, जब तक कोई दूसरा ठिकाना नहीं मिल जाता.’’

कृतज्ञता से अभिभूत रानो बोली,  ‘‘काका, कौन कहता है तुम छोटे हो. तुम्हारे कर्म बहुत ऊंचे हैं.’’

कुछ झिझकता सा बोला गोरखा,  ‘‘यहां एक एन.जी.ओ. है, जरूरतमंद स्त्रियों के लिए. यदि बुरा न मानें तो…’’

‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ रानो ने हामी भरी.

वहां पहुंच कर रानो सुखद आश्चर्य से झूम उठी. वहीं उस की पुरानी प्रिंसिपल इंचार्ज थीं. रानो को देख कर वह भी खुश हुईं.

वह बोलीं,  ‘‘रानो, तू कहां चली गई थी. तू ने एम.ए. में विश्वविद्यालय टाप किया था. मैं ने खुद कालिज में लैक्चरर के लिए तुझे आफर भेजा था.’’

जवाब में रानो ने अपनी आपबीती उन्हें सुना दी. सुन कर श्रीमती कौल गंभीर हो गईं और बोलीं,  ‘‘रानो, तेरी त्रासदी के लिए जिम्मेदार केवल तेरे मातापिता हैं. हमारे समाज में लड़की की शुचिता पर इतना अधिक जोर डाला जाता है कि मातापिता बेटी के प्रति क्रूर हो जाते हैं.’’

श्रीमती कौल की सहायता से अगले ही दिन एक निजी शिक्षण संस्था में रानो को संस्कृत शिक्षिका की नौकरी मिल गई. उसी स्कूल में अरमान का दाखिला हो गया. पति की मृत्यु के बाद अकेली रह रही श्रीमती कौल ने अपने ही घर में रानो के रहने की व्यवस्था कर दी. इस तरह रानो के जीवन की गाड़ी फिर से पटरी पर चल पड़ी. उस ने फिर कभी मायके व ससुराल का रुख नहीं किया.

अब रानो के जीवन का एक ही मकसद था, अरमान को पढ़ालिखा कर उसे अपने पैरों पर  खड़ा करना. उस के मकसद को पूरा करने  में अरमान पूरा सहयोग दे रहा था. वह पढ़ाई में सदा अव्वल रहता. समय पंख लगा कर उड़ चला.

12वीं में अव्वल आने के बाद अरमान का दिल्ली आई.आई.टी. में चयन हो गया. पलक झपकते 4 वर्ष बीत गए. कैंपस इंटरव्यू में अरमान का एक ग्लोबल कंपनी में चयन हो गया और वह नौकरी करने अमेरिका चला गया.

रानो को घर के बाहर से ही खदेड़ने वाले मातापिता और सासससुर अब उस से मिलने आने लगे और मानमनौअल करते उसे अपनेअपने घर ले जाने के लिए, लेकिन रानो उन्हें देख कर जड़ हो जाती. सच तो यह कि उन्हें देख कर उस के सूखते घाव फिर से हरे हो जाते और रिसने लगते. उसे चुप्पी साधे देख कर वे लौट जाते.

अरमान को गए 3 वर्ष हो रहे थे. ढेरों पैसा बैंक में जमा हो रहा था. पहली बार अरमान मां से मिलने भारत आया तो जम्मू की एक बेहद पौश कालोनी में सुंदर सा बंगला खरीद कर मां को भेंट कर दिया. अब तो दूर के भी रिश्तेदार रानो के इर्दगिर्द मंडराने लगे थे. रानो जानती थी कि जितने चेहरे उस के आसपास मंडरा रहे हैं वे सब स्वार्थी हैं. बेटे के विदेश की कमाई का आकर्षण ही उन्हें खींच कर लाया है.

रानो की मां तो अब हर रोज ही आने लगी थीं. उन्होंने रानो पर दबाव डाला कि कुछ धन खर्च कर के अपने छोटे भाई शलभ को कोई छोटीमोटी दुकान खुलवा दे, क्योंकि उस की पढ़ाईलिखाई में रुचि नहीं है. रानो के पिता रिटायर हो चुके थे. जमापूंजी बेटियों की शादी में चुक गई थी.

रानो की चुप्पी से त्रस्त हो गईं मां. बेटे की आवारागर्दी और पति की बीमारी से वह टूट चुकी थीं. वह रानो से विनती करने लगीं कि शलभ को वह संभाल ले. जब रानो पर कोई असर नहीं हुआ तो उस की मां क्रोध से चीखने लगीं, ‘‘बहुत घमंड हो गया है तुझे पैसे का. बहुत पछताएगी तू, अगर शलभ किसी के गलत हाथों में पड़ गया और गलत रास्ते पर चल पड़ा.’’

मां के इस कथन पर प्रस्तर प्रतिमा बनी रानो चौंक पड़ी, ‘‘क्या कहा, मां? आप को बेटे की बड़ी चिंता है कि कहीं वह गलत हाथों में न पड़ जाए. मुझे 20 वर्ष की आयु में निरपराध घर से निकाला था. मेरी चिंता क्यों नहीं की? मैं भी तो गलत हाथों में पड़ सकती थी. उस छोटी सी उम्र में मुझे आप के सहारे की जरूरत थी. क्या कुसूर था मेरा? यही कि मैं जिंदा क्यों बच गई. अक्षम्य नहीं थी मैं मां…अक्षम्य नहीं थी मैं?’’

बहुत दिन बाद चुप्पी टूटी तो वर्षों से बांधा आंसुओं का बांध ध्वस्त हो गया. रोतेरोते बोली रानो, ‘‘मां, आप के क्रूर व्यवहार ने मुझे रेगिस्तान का कैक्टस बना दिया है, जिस में नफरत के फूल खिलते हैं…संवेदनशून्य बना दिया है आप ने मुझे अपने समान.’’

अपराधभाव से मां सिर झुका कर हकलाईं, ‘‘लोग नहीं मानते कि तू रात भर राजा के साथ रह कर भी…’’

‘‘लोगों की नहीं अपनी कहो. अपनी बेटी पर विश्वास नहीं था आप को? राजा ने मुझे संभाल लिया नहीं तो मेरा क्या हश्र होता?’’

अचानक मां फूटफूट कर रोते हुए बोलीं,  ‘‘मैं तेरी अपराधी हूं. क्षमा कर दे मुझे.’’

मां उसे गले लगाने के लिए आगे बढ़ीं तो रानो दूर हटती हुई क्रंदन कर उठी,  ‘‘जाओ मां, जाओ, राख न कुरेदो. अरमान को आप के दरवाजे पर बिठा कर नौकरी ढूंढ़ने गई थी. हृदय नहीं पसीजा आप का? अभी तक घाव से खून रिसता है याद कर के.’’

निराश मां चली गईं. मां के जाते ही रानो को याद आया कि दोषी उस की मां है, भाई नहीं. यह विचार आते ही वह अपने भाई का जीवन संवारने को उद्यत हो गई. मां के घर पहुंचने के पहले ही उस ने शलभ को फोन कर के अपने पास बुला लिया.

सुखद एहसास हुआ उसे कि जीवन के कड़वे अनुभवों ने उसे पूरी तरह से बंजर नहीं बनाया था. उस में मानवीय संवेदनाएं अभी शेष थीं.

रिश्ता

पूर्व कथा

आकाश के बीमार होने की खबर अन्नू श्रावणी को देती है. वह नहीं चाहती कि उस के मायके में किसी को इस बात का पता चले. इसलिए वह कालिज के काम से लखनऊ जाने की बात अपने पापा से कहती है. ट्रेन में बैठते ही वह अतीत की यादों में खो जाती है.

कालिज के वार्षिक समारोह में अन्नू श्रावणी का परिचय अपने भैया आकाश से करवाती है. पहली ही मुलाकात में आकाश और श्रावणी एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगते हैं. दोनों शादी करने का फैसला करते हैं तो श्रावणी के पिता शादी में जल्दबाजी न करने की सलाह देते हैं पर वह नहीं मानती.

शादी की पहली रात को वह आकाश का बदला रूप देख कर चौंक जाती है. एक दिन पिक्चर हाल में आकाश छोटी सी बात पर हंगामा खड़ा कर देता है और घर आ कर सब के सामने उसे अपमानित करता है और अंतरंग क्षणों में उस से माफी मांगने लगता है. श्रावणी आकाश के इस दोहरे व्यवहार को समझ नहीं पाती. शादी के बाद वह आकाश के साथ पहली बार मायके जाती है तो घर के बाहर एक कार चालक से वह लड़ने लगता है.

समय बीतने लगता है. अन्नू की शादी तय हो जाती है और श्रावणी भी गर्भवती हो जाती है. आकाश उस पर गर्भपात कराने का दबाव बनाने लगता है. उस के इस व्यवहार से घर के सभी लोग दुखी हो जाते हैं. श्रावणी एक बेटे को जन्म देती है. उधर अन्नू की शादी की तारीख करीब आने लगती है लेकिन आकाश का तटस्थ व्यवहार देख सब परेशान होते हैं और शादी की सारी जिम्मेदारी श्रावणी को निभानी पड़ती है, और अब आगे…

आकाश की आदर्शवादी बातों से प्रभावित हो कर श्रावणी ने पिता की इच्छा के विरुद्ध उस से शादी की, लेकिन शादी के बाद आकाश के दोगले और तटस्थ व्यवहार से श्रावणी बिखर कर रह गई. पढि़ए, पुष्पा भाटिया की कहानी.

गतांक से आगे…

अंतिम भाग

अम्मां के आग्रह पर अब सुबहशाम पापा आ जाते थे. पापा के साथ उन की कार में बैठ कर मैं बाहर के काम निबटा लिया करती थी. मां घर और चौके की देखभाल कर लिया करती थीं. बहू के अति विनम्र स्वभाव को देख कर अम्मां आशीर्वादों की झड़ी लगा कर मुक्तकंठ से मेरी मां से सराहना करतीं, ‘बहनजी, जितना सुंदर श्रावणी का तन है, उतना ही सुंदर मन भी है. श्रावणी जैसी बहू तो सब को नसीब हो.’

अन्नू का ब्याह हो गया. मां और पापा घर लौट रहे थे. अम्मां ने एक बार फिर मेरी प्रशंसा मां से की तो मां के जाते ही आकाश के अंत:स्थल में दबा विद्रोह का लावा फूट पड़ा था :

‘वाहवाही बटोरने का बहुत शौक है न तुम्हें? अपने जेवरात क्यों दे दिए तुम ने अन्नू को?’

मैं ने आकाश के साथ उस के परिवार को भी अपनाया था. फिर इस परिवार में मां और बहन के अलावा था भी कौन? दोनों से दुराव की वजह भी क्या थी? मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘जेवर किसी पराए को नहीं अपनी ननद को दिए हैं. अन्नू तुम्हारी बहन है, आकाश. जेवरों का क्या, दोबारा बन जाएंगे.’

‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते, श्रावणी, मेहनत करनी पड़ती है.’

मैं अब भी उन के मन में उठते उद्गारों से अनजान थी. चेहरे पर मायूसी के भाव तिर आए थे. रुंधे गले से बोले, ‘इन लोगों ने मुझे कब अपना समझा. हमेशा गैर ही तो समझा…जैसे मैं कोई पैसा कमाने की मशीन हूं. उन दिनों 7 बजे दुकानें खुलती थीं. सुबह जा कर मामा की आढ़त की दुकान पर बैठता. वहां से सीधे दोपहर को स्कूल जाता. तब तक घर का कामकाज निबटा कर मां दुकान संभालती थीं. शाम को स्कूल से लौट कर पुन: दुकान पर बैठता, क्योंकि मामा शाम को किसी दूसरी दुकान पर लेखागीरी का काम संभालते थे. इन लोगों ने मेरा बचपन छीना है. खेल के मैदान में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखता तो मां की गोद में सिर रख कर कई बार रोया था मैं, लेकिन मां हर समय चुप्पी ही साधे रहती थीं.’

मनुष्य कभी आत्मविश्लेषण नहीं करता और अगर करता भी है तो हमेशा दूसरे को ही दोषी समझता है. आकाश इन सब बातों का रोना मुझ से कई बार रो चुके थे. अपनी सकारात्मक सोच और आत्मबल की वजह से मैं, अलग होने में नहीं, हालात से सामंजस्य बनाने की नीति में विश्वास करती थी. हमेशा की तरह मैं ने उन्हें एक बार फिर समझाया :

‘अम्मां की विवशता परिस्थितिजन्य थी, आकाश. असमय वैधव्य के बोझ तले दबी अम्मां को समझौतावादी दृष्टिकोण, मजबूरी से अपनाना पड़ा होगा. जिस के सिर पर छत नहीं, पांव तले जमीन नहीं थी, देवर, जेठ, ननदों…सभी ने संबंध विच्छेद कर लिया था तो भाई से क्या उम्मीद करतीं? अम्मां को सहारा दे कर, उन के बच्चों की बुनियादी जरूरतें पूरी कीं, उन्हें आर्थिक और मानसिक संबल प्रदान किया. ऐसे में यदि अम्मां ने बेटे से थोड़े योगदान की उम्मीद की तो गलत क्या किया?

‘आखिर मामा का अपना भी तो परिवार था और फिर अम्मां भी तो हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठी थीं. यही क्या कम बात है कि अपने सीमित साधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद, अम्मां ने तुम्हें और अन्नू को पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाया कि आज तुम दोनों समाज में मानसम्मान के साथ जीवन जी रहे हो.’

सुनते ही आकाश आपे से बाहर हो गए, ‘गलती की, जो तुम से अपने मन की बात कह दी…और एक बात ध्यान से सुन लो. मुझे मां ने नहीं पढ़ाया. जो कुछ बना हूं, अपने बलबूते और मेहनत से बना हूं.’

उस दिन आकाश की बातों से उबकाई सी आने लगी थी मुझे. पानी के बहाव को देख कर  बात करने वाले आकाश में आत्मबल तो था ही नहीं, सोच भी नकारात्मक थी. इसीलिए आत्महीनता का केंचुल ओढ़, दूसरों में मीनमेख निकालना, चिड़चिड़ाना उन्हें अच्छा लगता था. खुद मित्रता करते नहीं थे, दूसरों को हंसतेबोलते देखते तो उन्हें कुढ़न होती थी.

अन्नू अकसर घर आती थी. कभी अकेले, कभी प्रमोदजी के साथ. नहीं आती तो मैं बुलवा भेजती थी. उस के आते ही चारों ओर प्रसन्नता पसर जाती थी. अम्मां का झुर्रीदार बेरौनक चेहरा खिल उठता. लेकिन बहन के आते ही भाई के चेहरे पर सलवटें और माथे पर बल उभर आते थे. जब तक वह घर रहती, आकाश यों ही तनावग्रस्त रहते थे.

अन्नू के ब्याह के कुछ समय बाद ही अम्मां ने बिस्तर पकड़ लिया था. मेरा प्रसवकाल भी निकट आता जा रहा था. अम्मां को बिस्तर से उठाना, बिठाना काफी मुश्किल लगता था. मैं ने आकाश से अम्मां के लिए एक नर्स नियुक्त करने के लिए कहा तो उबल पडे़, ‘जानती हो कितना खर्चा होगा? अगले महीने तुम्हारी डिलीवरी होगी. मेरे पास तो पैसे नहीं हैं. तुम जो चाहो, कर लो.’

घरखर्च मेरी पगार से चलता था. मैं ने कभी भी खुद को इस घर से अलग नहीं समझा, न ही कभी आकाश से हिसाब मांगा. अन्नू के ब्याह पर भी अपने प्राविडेंट फंड में से पैसा निकाला था. फिर इस संकीर्ण मानसिकता की वजह क्या थी? किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. मां के इलाज के लिए पैसेपैसे को रोने वाले बेटे को चमचमाती हुई कार दरवाजे के बाहर पार्क करते देख कर कोई पूछ भी क्या सकता था? डा. प्रमोद ही अम्मां की देखभाल करते रहे थे.

कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

‘मैं शुरू से ही जानता था. तुम्हें ऐसे ही लोग पसंद हैं जो औरतों के इर्दगिर्द चक्कर लगाते हैं और खासकर के तुम्हारी जीहुजूरी करते हैं,’ फिर मां और पापा को संबोधित कर के बोले, ‘प्रमोद जैसा लड़का ढूंढ़ दीजिए अपनी बेटी को,’ और धड़धड़ाते हुए वह कमरे से बाहर निकल गए.

आकाश का ऐसा व्यवहार मैं कई बार देख चुकी थी. बरदाश्त भी कर चुकी थी. कई बार दिल में अलग होने का खयाल भी आया था लेकिन कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिस कर वह चूरचूर हो गया. आकाश के झूठ, दंभ और पशुता को मैं इसीलिए अपनी पीठ पर लादे रही कि समाज में मेरी इमेज, एक सुखी पत्नी की बनी रहे. लेकिन आकाश ने इन बातों को कभी नहीं समझा. वहां आए रिश्तेदारों के सामने, मां की मृत्यु के मौके पर वह मुझे इस तरह जलील करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी मुझे.

तेरहवीं के दिन, शाम के समय मां और पापा ने मुझे साथ चलने के लिए कहा तो, सभ्य रहने की दीवार जो मैं ने आज तक खींच रखी थी, धीरे से ढह गई. पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन हो कर, जड़ संबंधों को कोई कब तक ढो सकता था? चुपचाप चली आई थी मां के साथ.

इसे औरत की मजबूरी कहें या मोह- जाल में फंसने की आदत. बरसों तक त्रासदी और अवहेलना के दौर से गुजरने के बाद भी, उसी चिरपरिचित चेहरे को देखने का खयाल बारबार आता था. क्रोध से पागल हुआ आकाश, नफरत भरी दृष्टि से मुझे देखता आकाश, अम्मां को खरीखोटी सुनाता आकाश, अन्नू को दुत्कारता, प्रमोदजी का अनादर करता आकाश.

मां और पापा, सुबहशाम की सैर को निकल जाते तो मुझे तिनकेतिनके जोड़ कर बनाया अपना घरौंदा याद आता, एकांत और अकेलापन जब असहनीय हो उठता तो दौड़ कर अन्नू को फोन मिला देती. अन्नू एक ही उत्तर देती कि सागर में से मोती ढूंढ़ने की कोशिश मत करो श्रावणी. आकाश भैया अपनी एक सहकर्मी मालती के साथ रह कर, मुक्ति- पर्व मना रहे हैं. हर रात शराब  के गिलास खनकते हैं और वह दिल खोल कर तुम्हें बदनाम करते हैं.

बिट्टू के जन्म के समय भी आकाश की प्रतीक्षा करती रही थी. पदचाप और दरवाजे के हर खटके पर मेरी आंखों में चमक लौट आती. लेकिन आकाश नहीं आए. अन्नू प्रमोदजी के साथ आई थी. मेरी पसीने से भीगी हथेली को अपनी मजबूत हथेली के शिकंजे से, धीरेधीरे खिसकते देख बोली, ‘मृगतृष्णा में जी रही हो तुम श्रावणी. आकाश भैया नहीं आएंगे. न ही किसी प्रकार का संपर्क ही स्थापित करेंगे तुम से. जब तक तुम थीं तब तक कालिज तो जाते थे. परिवार के दायित्व चाहे न निभाए, अपनी देखभाल तो करते ही थे. आजकल तो नशे की लत लग गई है उन्हें.’

अन्नू चली गई. मां मेरी देखभाल करती रहीं. लोग मुबारक देते, साथ ही आकाश के बारे में प्रश्न करते तो मैं बुझ जाती. मां के कंधे पर सिर रख कर रोती, ‘बिट्टू के सिर से उस के पिता का साया छीन कर मैं ने बहुत बड़ा अपराध किया है, मां.’

‘जिस के पास संतुलित आचरण का अपार संग्रह न हो, जो झूठ और सच, न्यायअन्याय में अंतर न कर सके, वह समाज में रह कर भी समाज का अंग नहीं बन सकता, न ही किसी दृष्टि में सम्मानित बन सकता है,’ पापा की चिढ़, उन के शब्दों में मुखर हो उठती थी.

मां, पुराने विचारों की थीं, मुझे समझातीं, ‘बेटी, यह बात तो नहीं कि तू ने प्रयास नहीं किए, लेकिन जब इतने प्रयासों के बाद भी तुझे तेरे पति से मंजूरी नहीं मिली तो क्या करती? साए की ओट में दम घुटने लगे तो ऐसे साए को छोड़ खुली हवा में सांस लेने में ही समझदारी है.’

‘लेकिन जगहजगह उसे पिता के नाम की जरूरत पड़ेगी तब?’

‘अब वह जमाना नहीं रहा, जब जन्म देने वाली मां का नाम सिर्फ अस्पताल के रजिस्टर तक सीमित रहता था और स्कूल, नौकरी, विवाह के समय बच्चे की पहचान पिता के नाम से होती थी. आज कानूनन इन सभी जगहों पर मां का नाम ही पर्याप्त है.’

मां की मृत्यु पर भी आकाश नहीं दिखाई दिए थे. अन्नू और प्रमोदजी ही आए थे. मैं समझ गई, जिस व्यक्ति ने मुझ से संबंध विच्छेद कर लिया वह मेरी मां की मृत्यु पर क्यों आने लगा. जाते समय अन्नू ने धीरे से बतला दिया था, ‘आजकल आकाश भैया सुबह से ही बोतल खोल कर बैठ जाते हैं. मैं ने सौ बार समझाया और उन्होंने न पीने का वादा भी किया, लेकिन फिर शुरू हो जाते हैं,’ फिर एक सर्द आह  भर कर बोली, ‘लिवर खराब हो गया है पूरी तरह. प्रमोदजी काफी ध्यान रखते हैं उन का लेकिन कुछ परहेज तो भैया को भी रखना चाहिए.’

सोच के अपने बयावान में भटकती कब मैं झांसी पहुंची पता ही नहीं चला. तंद्रा तो मेरी तब टूटी जब किसी ने मुझे स्टेशन आने की सूचना दी. लोगों के साथ टे्रन से उतर कर मैं स्टेशन से सीधे अस्पताल पहुंच गई. अन्नू पहले से ही मौजूद थी. प्रमोद डाक्टरों के साथ बातचीत में उलझे थे. मैं ने आकाश के पलंग के पास पड़े स्टूल पर ही रात काट दी. सच कहूं तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. मेरा मन सारी रात न जाने कहांकहां भटकता रहा.

सुबह अन्नू ने चाय पी कर मुझे जबर्दस्ती घर के लिए ठेल दिया. आकाश तब भी दवाओं के नशे में सोए हुए थे.

घर आ कर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. पराएपन की गंध हर ओर से आ रही थी. नहाधो कर आराम करने का मन बना ही रही थी, पर अकेलापन मुझे काटने को दौड़ रहा था. घर से निकल कर अस्पताल पहुंची तो आकाश, नींद से जाग चुके थे. अन्नू के साथ बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देख कर भी कुछ नहीं बोले. मैं ने धीरे से पूछा, ‘‘तबीयत कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन का जवाब ठंडे लोहे की तरह लगा. किसी के बारे में कुछ पूछताछ नहीं की. यहां तक कि बिट्टू के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. अन्नू ही कमरे में मौन तोड़ती रही. हम दोनों के बीच पुल बनाने का प्रयास करती रही. डाक्टरों की आवाजाही जारी थी. सारे दिन लोग, आकाश से मिलने आते रहे. मुझे देख कर हर आने वाला कहता, ‘अच्छा हुआ आप आ गईं,’ पर 3 दिन में, एक बार भी मेरे पति ने यह नहीं कहा, ‘अच्छा हुआ जो तुम आ गईं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा था मैं.’

आकाश की हालत काबू में नहीं आ रही थी. प्रमोदजी ने मुझ से धीरे से कहा, ‘‘भाभीजी, आकाश भैया की हालत अच्छी नहीं लग रही है. आप जिसे चाहें खबर कर दें.’’

मैं जब तक कुछ कहती या करती, आकाश ने दम तोड़ दिया. अन्नू फूटफूट कर रो रही थी. प्रमोदजी उसे ढाढ़स बंधा रहे थे. मेरे तो जैसे आंसू ही सूख गए थे. इस पर क्या आंसू बहाऊं? जिस आदमी ने मुझे कभी अपना नहीं समझा…मेरे बेटे को अपना समझना तो दूर उस का चेहरा तक नहीं देखा, मैं कैसे उस आदमी के लिए रोऊं? यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

जाने कितने लोग, शोक प्रकट करने आ रहे थे. हर आदमी, इतनी कम उम्र में इन के चले जाने से दुखी था, पर मैं जैसे जड़ हो गई थी. इतने लोगों को रोते देख कर भी मैं पत्थर की हो गई थी. मेरे आंसू न जाने क्यों मौन हो गए थे? सब कह रहे थे, मुझे गहरा शौक लगा है. इन दिनों आकाश की सारी बुराइयां खत्म हो गई थीं. हर व्यक्ति को उन की अच्छाइयां याद आ रही थीं. मैं खामोश थी.

पापा का फोन मेरे मोबाइल पर कई बार आ चुका था. मैं उन्हें 1-2 दिन का काम और है बता कर फोन काट देती थी.

तेरहवीं के बाद सब ने अपनाअपना सामान बांध लिया. मेरी उत्सुक निगाहें मालती को ढूंढ़ रही थीं. अन्नू से ही पूछताछ की तो बोली, ‘‘आकाश भैया का सारा पैसा अपने नाम करवा कर वह तो कभी की चली गई झांसी छोड़ कर. कहां है, कैसी है हम नहीं जानते. भला ऐसी औरतें रिश्ता निभाती हैं?’’

झांसी से टे्रन के चलते ही मैं ने राहत की सांस ली. ऐसा लगा, जैसे मैं किसी कैद से बाहर आ गई हूं. झांसी की सीमा पार करते ही मुझे पहली बार एहसास हुआ कि झांसी से मेरा रिश्ता सचमुच टूट गया है. अब मैं यहां क्यों आऊंगी? रिश्तों के दरकने का मुझे पहली बार एहसास हुआ. मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

4 टिप्स: स्किन के लिए भी फायदेमंद हैं अंडे की सफेदी

खाने में जितना अंडा पोषक होता है, आपकी स्किन के लिए भी ये उतना ही असरदार होता है. यह एंटी-एजिंग भी है. अंडे का मास्‍क हमारी स्किन को जवां बनाने के साथ निखार भी देता है. इससे स्किन मजबूत नजर आती है और साथ ही झुर्रियां भी दूर होती हैं. अंडे के सफेद हिस्से में प्रोटीन और एलबुमिन की प्रचुर मात्रा होती है जिससे स्किन टोनिंग होती है. अंडे का मास्‍क ब्‍लेकहैड्स, झाइयां और अन्‍य तकलीफें भी दूर करता है. इससे आपकी स्किन सौफ्ट और शाइनी हो जाती है. अंडे की सफेदी यानी एग व्हाइट फेस मास्क से स्किन टाइट होती है और यह स्किन का सारा औयल सोख लेता है. यही नहीं, इसमें पाए जाने वाले विटामिन्स और मिनरल्स स्किन के लिए भी फायदेमंद होते हैं.

1. स्किन टाइटनिंग में असरदार है अंडे की सफेदी

skin-tighting

अंडे की सफेदी में ऐसे गुण होते हैं जो स्किन के पोरस् को छोटा कर स्किन टाइट बनाने में मदद करते हैं. आप अंडे की सफेदी का मास्क बनाकर उसमें नींबू में डाल सकती हैं. इसे अपने चेहरे पर लगाएं. कुछ मिनट तक इंतजार करें. इसके बाद गुनगुने पानी से धुल लें. आप सप्ताह में दो बार इसका इस्तेमाल कर सकती हैं.

2. औयली स्किन के लिए भी है असरदार अंडे की सफेदी…

औयली स्किन में मुंहासो और एक्ने की प्रौब्लम ज्यादा होती है. अंडे की सफेदी औयली स्किन के लिए भी बहुत कारगर है. इससे आपकी स्किन में मौजूद अतिरिक्त औयल बाहर निकल जाता है. मास्क लगाने से पहले अपने चेहरे को गुनगुने पानी से धुल लें. अंडे की पतली परत चेहरे पर लगाएं और सूख जाने दें. सूखने के बाद ठंडे पानी से धो लें. अपने चेहरे को पोंछने के लिए मुलायम तौलिए का इस्तेमाल करें.

3. अंडे की सफेदी से मिलेगा कील-मुंहासों से छुटकारा

pimples

ऐक्ने ऑयली स्किन या त्वचा की ऊपरी परत पर धूल जमा होने की वजह से होते हैं. अंडे की सफेदी से आपकी त्वचा का एक्स्ट्रा तेल निकल जाता है जिससे अपने आप ऐक्ने और पिंपल खत्म हो जाते हैं. जिन जगहों पर एक्नै हों, वहां पर सावधानी से मास्क लगाएं. सख्त ब्रश का इस्तेमाल ना करें. योगर्ट, हल्दी भी इसमें ऐड कर सकते हैं.

4. चेहरे के बाल को हटाने में है कारगर अंडे की सफेदी

चेहरे पर उगे छोटे-छोटे बालों से छुटाकारा दिलाने में भी अंडे की सफेदी मददगार है. माथे, गाल और अपर लिप्स पर छोटे-छोटे बाल हटाने के लिए एग व्हाइट लगा सकते हैं. जब यह सूख जाए तो मास्क को खींचकर हटा लें.

8 होममेड टिप्स : ऐसे पाएं दो मुंहे बालों से छुटकारा

बालों पर अत्‍यधिक रसायनिक उत्पाद का इस्तेमाल, बार-बार धोना, खराब तरह से बालों की देखभाल आदि से भी बालों पर बुरा असर पड़ता है. जब बालों को सही पोषण नही मिलता तो वह खराब होने लगते हैं. फिर यही खराब बाल धीरे धीरे दो मुंहे हो जाते हैं. अगर बालों कि अच्‍छी देखभाल न की गई तो उनकी जान को खतरा हो सकता है. हमारे घरों में इतनी प्राकृतिक चीजे हैं, जिसका इस्तेमाल कर आप अपने बालों को दो मुंहा होने से बचा सकती हैं. तो आइए जानते हैं इसके बारे में.

  1. पपाया पैक आपके बालों के लिए काफी अच्छा हो सकता है. इस पैक को बनाने के लिये पपीते को मिक्‍सी में पीस कर उसमें आधा कप दही मिलाइये. इस हेयर पैक को पूरे बालों में लगाइये खास कर कि दो मुंहे बालों पर. फिर आधे घंटे के बाद बाल धो लीजिये.

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2. आधा कप दूध ले कर उसमें 1 चम्‍मच क्रीम मिक्‍स कीजिये और सिर पर लगा लीजिये. इसे 15 मिनट छोड़ने के बाद अच्‍छे से धो लीजिये.

3. अरंडी के तेल में बादाम तेल और औलिव औयल को एक सीमित मात्रा में डालें. फिर इसे अपने बालों में लगाइये और बालों को तौलिये से ढंक लीजिये, 30 मिनट के बाद पानी से धो लीजिये.

4. अंडे की जर्दी ले कर उसमें 1 चम्‍मच बादाम तेल मिलाइये. इससे सिर कि मसाज कीजिये और 1 घंटे के लिये छोड़ दीजिये, फिर शैंपू से बालों को धो लीजिये.

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5. आधा कप काली उरद दाल को 1 चम्‍मच मेथी के दानों के साथ बारीक पीस लीजिये. उसके आधा कप दही मिलाइये और बालों पर लगा कर दो घंटों के लिये छोड़ दीजिये. फिर हल्‍के शैंपू से बालों को धो लीजिये.6

6. 1 चम्‍मच शहद और आधा चम्‍मच दही मिला कर सिर पर लगाइये और दो मुंहों को इससे ढांक दीजिये. 20 मिनट के बाद सिर को पानी से धो लीजिये.

5 टिप्स: स्किन को लेमन बनाएगा सौफ्ट और ब्यूटीफुल

7. थोड़े से औलिव औयल को गैस पर हल्‍का सा गरम कीजिये और इससे बालों तथा सिर की मसाज कीजिये. 30 मिनट के बाद सिर को धो लीजिये.8

8. अपने शैंपू के साथ दो बूंद जोजोबा औयल मिलाइये. इसे लगाने से बालों मुलायम हो जाएंगे और उन्‍हें नमी मिलेगी.

तो अब सरोगसी पर फिल्में

भारत में संस्कृति व साहित्य का वैभवशाली इतिहास है. हमारे यहां फिल्मों के लिए कहानियों या विषयों की कोई कमी नही है. इसके बावजूद भेड़चाल का शिकार बौलीवुड एक ही समय में एक ही विषय पर एक साथ कई फिल्में बनाते हुए आपस में ही प्रतिस्पर्धा करता रहता है. इसी के चलते इन दिनों एक तरफ करण जौहर सरोगसी पर फिल्म बना रहे हैं ,तो दूसरी तरफ दिनों वीजन भी सरोगसी पर ही फिल्म बना रहे हैं.

2012 तक बनी सरोगसी पर फिल्में

सूत्रों के अनुसार जब सरोगसी पद्धति से माता पिता बनना बहुत ज्यादा चलन में नहीं था,तब भी सरोगसी पर बौलीवुड में इक्का दुक्का फिल्में बनती रही हैं. सबसे पहले 1983 में लेख टंडन ने विक्टर बनर्जी, शर्मिला टैगोर व शबाना आजमी को लेकर फिल्म ‘‘दूसरी दुल्हन’’ बनायी थी. उसके बाद 2001 में अब्बास मस्तान ने सुष्मिता मुखर्जी, सलमान खान और प्रीति जिंटा को लेकर फिल्म ‘‘चोरी चोरी चुपके चुपके’’ बनायी थी. फिर 2002 में मेघना गुलजार ने तब्बू, सुष्मिता सेन, संजय सूरी और पलाश सेन को लेकर फिल्म ‘‘फिलहाल’’ बनायी थी. इन तीनो फिल्मों में से ‘दूसरी दुल्हन’ में शबाना आजमी और ‘चोरी चोरी चुपके चुपके’ में प्रीति जिंटा ने सरोगसी मदर का किरदार निभाया था,जो कि असलियत में वेश्या होती हैं. यानी कि सभ्य परिवार की औरत को ‘सरोगेटेड मदर’ के रूप में यह फिल्मकार नहीं दिखा पाए थे. इसके बाद 2010 में ओनीर ने ‘आई एम आफिया’ तथा 2012 में शुजीत सरकार ने ‘विक्की डोनर’ बनायी थी. ‘आई एम आफिया और ‘विक्की डोनर’ में सरोगसी के साथ साथ स्पर्म डोनर का भी मसला रहा. जबकि 2011 में समृद्धि पोरे ने मराठी भाषा में सरोगसी पर फिल्म ‘‘मला आई व्हायचे’’ बनाई थी, जिसमें वेश्या की बजाय मजबूरी में एक गरीब महिला के सरोगेट मदर बनने की कहानी थी. मगर यह सभी फिल्में सरकार द्वारा सरोगसी को जायज ठहराने वाले 2016 में बनाए गए कानून से पहले बनी थीं.

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सरोगसी से फिल्मी हस्तियों में माता पिता बनने की मची है होड़

सरकार द्वारा सरोगसी पर कानून बनाए जाने से पहले ही शाहरुख खान व गौरी खान (अबराम का जन्म मई 2013 में) आमीर खान व किरण राव (आजाद का जन्म दिसंबर 2011 में) सोहेल खान व सीमा खान (योहान खान का जन्म जून 2011 में) इसी पद्धति से माता पिता बने थे. मगर सरोगसी पर कानून बनने के बाद करण जोहर, एकता कपूर, तुषार कपूर, श्रेयश तलपड़े व उनकी पत्नी दीप्ति, साक्षी तंवर, कृष्णा अभिषेक व उनकी पत्नी कष्मीरा शाह, सनी लियोनी और उनके पति डैनियल, जय भानुशाली और उनकी पत्नी माही विज, समीर सोनी और उनकी पत्नी नीलम कोठारी, गुरमीत चैधरी और उनकी पत्नी दैबलीना बनर्जी अब तक सरोगसी पद्धति से माता पिता बन कर खुश हैं.

अब करण जौहर और एकता की राह पर चलेंगे विपुल

अब होगी सरोगसी पर फिल्मों की बाढ़

सूत्रों का दावा है कि 2016 में सरकार द्वारा ‘सरोगसी’ पर कानून बनाए जाने के बाद अब एक बार फिर सरोगसी के विशय पर बौलीवुड में कई फिल्में बन रही हैं. इनमें से एक फिल्म दिनेश वीजन बना रहे हैं. सूत्रों के अनुसार 2011 की मराठी में सरोगसी पर बनी फिल्म ‘‘माला आई व्हायचे’’ के अधिकार हासिल कर  अब ‘‘मैडौक फिल्मस’’ के दिनेश वीजन ने इसे हिंदी में ‘‘मामा मिया’’ के नाम से बना रहे हैं. इस फिल्म में कृति सैनन के होने की भी बात कही जा रही है. जबकि कृति सैनन की तरफ से इसकी स्वीकृति नहीं हो पा रही है. सूत्र बताते है कि फिल्म ‘‘मामा मिया’’ की पटकथा लिखी जा रही है. यह मराठी फिल्म का ज्यों का त्यों रीमेक नही है, बल्कि मराठी फिल्म के कौन्सेप्ट को लेकर नए सिरे से कथा व पटकथा लिखी जा रही है. सूत्र दावा कर रहे हैं कि हिंदी फिल्म की पृष्ठभूमि और किरदार बहुत अलग होगे.

फिल्म समीक्षा: गंभीर विषय पर एक कमजोर फिल्म ‘तर्पण’

बौलीवुड में चर्चा है कि करण जौहर निर्मित और राज मेहता के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘‘गुड न्यूज’’ को रोमांटिक कौमेडी फिल्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि यह फिल्म भी कथित तौर पर सरोगसी पर ही है. इस फिल्म में अक्षय कुमार, करीना कपूर खान, दिलजीत दोसांज, किआरा अडवाणी व जिम्मी शेरगिल की अहम भूमिकाएं हैं. इतना ही नही कुछ दूसरे फिल्मकार भी सरोगसी पर फिल्में बना रहे हैं, पर इन्होंने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं.

वोट राजनीति में धर्म-जाति

देश में हो रहे आम चुनावों के लिए किए गए पार्टियों के गठबंधनों, ट्विटर व फेसबुक पर पोस्टों, और उन पर कमैंटों से जो तसवीर निकल रही है उस से यह साफ हो रहा है कि कांग्रेस के अलावा तकरीबन सभी पार्टियों में जम कर पौराणिक स्मृतिप्रद जाति, धर्म, भेद का जहर फैला हुआ है. विशुद्ध ब्राह्मण व उन के भक्त, जिन में कुछ वैश्य, कायस्थ और अमीर किसान या सरकारी नौकरी वाले शामिल हैं, दूसरी पार्टियां छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में जा रहे हैं. वे अपने गुरुओं के आदेशों पर अमल कर रहे हैं.

समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी अपनीअपनी जातियों की पार्टियां हैं. वे न तो देश, न आर्थिक नीतियों की सोच रही हैं, उन्हें जातियों पर वर्चस्व बनाए रखना ज्यादा जरूरी लग रहा है. यही लालू प्रसाद यादव की पार्टी का हाल है. पश्चिम बंगाल व ओडिशा में ऊंची जातियों के नेता भाजपा के खिलाफ हैं इसलिए कि वहां गरीबी के कारण उत्पन्न हुए रोष के आगे पौराणिक व्यवस्था ढीली हो गई. ममता बनर्जी और नवीन पटनायक बाकायदा पूजापाठी हैं पर वे उस का झंडा नहीं उठा रहे. दोनों ने अपनेअपने राज्य पर एकाधिकार का लाभ जातिगत भेदभाव को भुनाने में नहीं उठाया.

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भाजपा इन दोनों राज्यों में ब्राह्मणों और भक्त वैश्यों के बल पर कुछ दम दिखाने की कोशिश में लगी है. कांग्रेस 1947 से या यों कहिए 1895 से ही ऊंची जातियों की पार्टी रही है. लेकिन उस ने नीची जातियों को कभी दुत्कारा नहीं. हां, ऐसा भी कुछ नहीं किया कि जातिभेद समाप्त हो जाए. भाजपा और कांग्रेस में फर्क यह है कि भाजपा जातिभेद को भड़का कर लाभ उठाना चाहती है जबकि कांग्रेस इस पर वालपेपर चढ़ा कर. शिक्षा, तार्किक विचारों, स्वतंत्रताओं के नारों के 150 वर्षों बाद आज भी भारत पूरा का पूरा जातीय दलदल में फंसा है.

2019 का यह चुनाव इस दलदल को और बदबूदार बना रहा है. 2014 में नरेंद्र मोदी ने विकास, भ्रष्टाचारमुक्त, रोजगार, देशरक्षा के नारे लगाए थे जिस से पिछड़ी, निचली जातियों को लगा था कि बीमार कांग्रेस के मुकाबले सक्रिय भाजपा जातीय कहर से कहीं ज्यादा मुक्ति दिलाएगी, लेकिन हुआ उलटा.

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भाजपा के गलीगली के नुमाइंदे आज पौराणिक नियमों के चौकीदार बन बैठे हैं. वे हाथ में लट्ठ रख रहे हैं पौराणिकद्रोह के खिलाफ. ‘मैं भी चौकीदार’ की आवाज कट्टरपंथी सोच की सुरक्षा की आवाज है. किसी भी देश का विकास तब तक संभव नहीं जब तक उस का हर यूनिट एकमन से अपने विकास के लिए काम न करे. दूसरे का विध्वंस कुछ न देगा. आपस में वैरभाव शक्ति और पैसा दोनों खर्च तो कराता ही है, यह नई सोच पर लोहे की दीवार जैसी चौकीदारी भी खड़ी करता है. यहां दीवारें और उन पर खड़े चौकीदार सीमा पर नहीं, गलीगली, महल्लेमहल्ले, गांवगांव में हैं.

भूल जाइए कि देश में कोई सामाजिक या आर्थिक क्रांति होने वाली है, चुनावों में चाहे कोई जीते. मोदीजेटली की चौकीदारी बैंकों के बारे में जो भी आंकड़े दिए जाते हैं वे इतने उलझे व अगरमगर वाले होते हैं कि उन्हें समझना कठिन होता है, पर फिर भी जो बात मोटीमोटी समझ आ रही है उस के हिसाब से वर्ष 2017-18 में भारतीय बैंकों के, रिजर्व बैंक औफ इंडिया के मुताबिक, 41,167 करोड़ रुपए धोखेबाज खा गए.

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चौकीदारों में मोदीजेटली मौजूद हैं पर 2016-17 के मुकाबले 2017-18 में धोखेबाजों ने बैंकों को 72 प्रतिशत ज्यादा चूना लगा डाला. चौकीदार रातदिन कहते रहते हैं कि एक कालाबाजारी न बचेगा, एक रिश्वतखोर न बचेगा, एक करचोर न बचेगा. पर देश का धन इस तरह रातदिन बरबाद हो रहा है, यह निहायत ही शर्म की बात है. बैंकों की मारफत ही स?ारा लेनदेन हो, इस के लिए मोदीजेटली उपाय ढूंढ़ते रहते हैं जिन्हें वे आमजन पर जबरन थोप सकें. लेकिन बैंकों में जमा पैसे धोखेबाज भी निकाल ले जा रहे हैं और वे भी जो दिए गए कर्ज को चुका नहीं पा रहे. बैंकों के 10,39,700 करोड़ रुपए के कर्ज शक के दायरे में हैं. वे शायद लौटाए नहीं जाएंगे.

किसानों के कर्ज माफ करने पर हल्ला मचाने वाले मोदीजेटली उन 10 लाख करोड़ रुपयों के कर्ज के बारे में बहुत कम ही कुछ कहते हैं क्योंकि 5 वर्षों के अपने शासन में वे तो बैंकों का धंधा बढ़ाने में ही लगे रहे थे. नोटबंदी और जीएसटी से उन्होंने बैंकों को खूब धंधा दिया. बैंकों ने इसे भगवान का छप्पर फाड़ कर दिया समझा और उसे ऐसे ही लुटाया जैसे योगी आदित्यनाथ अनावश्यक कुंभ पर, शिवराज सिंह चौहान नर्मदा यात्रा पर और नरेंद्र मोदी पटेल की मूर्ति पर खर्च करने में सीना फुलाते हैं.

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बैंकों का पैसा जनता की धरोहर है, पर अब बैंक इसे जनता से मिला टैक्स मानने लगे हैं और बैंकों के अफसर महापंडों की तरह उसे उन्हें दे डालते हैं जिन्हें वे खुश करना चाहते हैं. मोदीजेटली के युग में भारतीय रिजर्व बैंक से ले कर छोटे से छोटा बैंक सरकारी इशारे पर चल रहा है और अपने खर्च पूरा करने के लिए जजमानों को तरहतरह के दामों की फेहरिस्त पकड़ा रहा है. बैंकों ने हर अकाउंट में से कुछ पैसे बिना पूछे निकालने के कंप्यूटरों से प्रोग्राम बना डाले हैं और शिकायत करने वाले को सिबिल के ग्रहचक्कर में डाल कर धर्मभ्रष्ट होने का विधान बना डाला है.

बैंकों के साथ यह खिलवाड़ देश के व्यापार में बढ़ती मंदी का परिणाम है. देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े ऊंचाइयां छू रहे हैं. इन आंकड़ों से खुश न हों क्योंकि भारत ही दुनिया का सब से ज्यादा तेजी से जनसंख्या बढ़ाने वाला देश भी है. ज्यादा लोग काम करेंगे, चाहे कितना खराब करें, कुल मिला कर तो उत्पादन बढ़ेगा. देखना तो यह है कि प्रतिव्यक्ति आय कितनी सुधर रही है. इस में भारत पड़ोसी चीन से 5 गुना कम है और अमेरिका से 30 गुना कम. जो नेता बैंकों को नहीं संभाल पा रहे, उन्हें आंकड़ेबाजी पर हल्ला करने का हक नहीं है, न ही कैशलैस का मंत्र पढ़ने का हुक्म देने का है.

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पीरियड्स के दर्द से बचना है तो इन बातों का रखें ध्यान

महिलाओं को मासिक धर्म यानि पीरियड्स में काफी परेशानी होती है. सुस्ती और मूड स्विग्स के अलावा उन्हें काफी तेज दर्द का सामना भी करना पड़ता है. कई लड़कियां इस वक्त में इसता परेशान होती हैं कि वो डिप्रेशन में चली जाती हैं. इन दिनों में आपको काफी सोच समझ कर और संतुलित खान पान रखना चाहिए. मासिक धर्म के दौरान अपनी सेहत को बनाए रखने के लिए आपको पौष्टिक आहार लेना चाहिए. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि इस दौरान आप किस तरह की खानपान से दूरी बनाएं जिससे आपको ज्यादा परेशान ना होना पड़े.

  • फैट वाले खानों से रहे दूर

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इस दौरान आप फैट वाले खानों से दूर रहें. जैसे मीट में भारी मात्रा में सैच्यूरेटेड फैट पाया जाता है. इसके सेवन से आपके पेट में सूजन और दर्द हो सकता है. पिरीयड्य में ये परेशानी काफी ज्यदा बढ़ जाती है. इस दौरान अगर आपको नौन वेज में कुछ खाना हो तो आप मछली का सेवन कर सकती हैं.

  • शराब

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शराब हमेशा नुकसानदायक होता है. इसे कभी भी हाथ नहीं लगाना चाहिए. पर खास कर के इस वक्त शराब को और भी ज्‍यादा नुकसानदायक होती है. इससे ये डिप्रेशन होती है. यह खून को और भी ज्‍यादा पतला बनाती है, जिससे पीरियड्स कई दिनों के लिये बढ़ सकते हैं. चाय पीजिये ना कि शराब.

  • गैस बनाने वाले खानों को कहें ना

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पीरियड्य के दौरान ऐसे सभी खाद्य पदार्थों से आप दूरी बना लें जो गैस बनाती हों. फास्ट फूड, तले हुए खानोंसे बचें और साबुत आहार खाएं जो कि हेल्‍दी होते हैं. असके अलावा आप मेवे भी खा सकती हैं.

  • चीनी युक्‍त खाद्य पदार्थों से बनाएं दूरी

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कोशिश करें कि स दौरान चीनी युक्‍त खाद्य पदार्थ पीरियड्स के समय ना खाएं. ये और भी ज्‍यादा दर्द पैदा करते हैं.पर अगर मीठा खाने का मन करे भी तो, आप मीठे फल जैसे, आम, तरबूज या सेब आदि खा सकती हैं.

  • बेक किया हुआ फूड

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बेक्ड फूड हमेशा लोगों को काफी आकर्षित करते हैं. ये काफी टेस्टी होते हैं. पर इसमें भी ट्रांस फैट भारी मात्रा में होता है. पीरियड्स के दौरान इससे दूरी बनाएं क्योंकि यह आपके एस्‍ट्रोजन लेवल को बढ़ा सकता है और इससे यूट्रस में दर्द होता है. इसकी जगह पर आप ब्रेड खा सकती हैं, जिससे आपको काफी सारा फाइबर मिले.

अपना अपना वनवास

एक बड़े महानगर से दूसरे महानगर में स्थानांतरण होने के बाद मैं अपने कमरे में सामान जमा रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. ‘‘कौन है?’’ यह सवाल पूछते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने एक अल्ट्रा माडर्न महिला खड़ी थी. मुझे देख कर उस ने मुसकरा कर कहा, ‘‘गुड आफ्टर नून.’’ ‘‘कहिए?’’ मैं ने दरवाजे पर खड़ेखड़े ही उस से पूछा. ‘‘मेरा नाम बसंती है. मैं यहां ठेकेदारी का काम करती हूं,’’ उस ने मुझे बताया. लेकिन ठेकेदार से मेरा क्या रिश्ता…यहां क्यों आई है?

ऐसे कई सवाल मेरे दिमाग में आ रहे थे. मैं कुछ पूछती उस के पहले ही उस ने कहना जारी रखते हुए बताया, ‘‘आप को किसी काम वाली महिला की जरूरत हो तो मैं उसे भेज सकती हूं.’’ मैं ने सोचा चलो, अच्छा हुआ, बिना खोजे मुझे घर बैठे काम वाली मिल रही है. मैं ने कहा, ‘‘जरूरत तो है…’’ पर मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि वह कहने लगी, ‘‘बर्तन साफ करने के लिए, झाडू़ पोंछा करने के लिए, खाना बनाने के लिए, बच्चे संभालने के लिए…आप का जैसा काम होगा वैसी ही उस की पगार रहेगी.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘उस की पगार पर मेरा 2 प्रतिशत कमीशन रहेगा.’’ ‘‘तुम्हारा कमीशन क्यों?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हमारा रजिस्टे्रेशन है न मैडम, जिस काम वाली को हम आप के पास भेज रहे हैं उस के द्वारा कभी कोई नुकसान होगा या कोई घटनादुर्घटना होगी तो उस की जिम्मेदारी हमारी होगी,’’ उस ने मुझे 2 प्रतिशत कमीशन का स्पष्टीकरण देते हुए बताया. ‘‘यहां तो काम…’’ ‘‘बर्तन मांजने का होगा, आप यही कह रही हैं न,’’ उस ने मेरी बात सुने बिना पहले ही कह दिया,

‘‘मैडम, कितने लोगों के बर्तन साफ करने होंगे, बता दीजिए ताकि ऐसी काम वाली को मैं भेज सकूं.’’ ‘‘तुम ने अपना नाम बसंती बताया था न?’’ ‘‘जी, मैडम.’’ ‘‘तो सुनो बसंती, मेरे घर पर बर्तन मांजने, पोंछने वाली मशीन है.’’ ‘‘सौरी मैडम, कपड़े साफ करने होंगे? तो कितने लोगों के कपड़े होंगे? मुझे पता चले तो मैं वैसी ही काम वाली जल्दी से आप के लिए ले कर आऊं.’’ ‘‘बसंती, तुम गजब करती हो. मुझे मेरी बात तो पूरी करने दो,’’ मैं ने कहा. ‘‘कहिए, मैडमजी.’’ ‘‘मेरे घर पर वाशिंग मशीन है.’’

‘‘फिर आप को झाड़ ूपोंछा करने वाली बाई चाहिए…है न?’’ ‘‘बिलकुल नहीं.’’ उस ने यह सुना तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. कहने लगी, ‘‘कपड़े धोने वाली नहीं, बर्तन मांजने वाली नहीं, झाड़ ूपोंछे वाली नहीं, तो फिर मैडमजी…’’ ‘‘क्योंकि मेरे घर पर वेक्यूम क्लीनर है, बसंती.’’ ‘‘फिर खाना बनाने के लिए?’’ उस ने हताशा से अंतिम आशा का तीर छोड़ते हुए पूछा. ‘‘नो, बसंती. खाना बनाने के लिए भी नहीं, क्योंकि मैं पैक फूड लेती हूं और आटा गूंथने से ले कर रोटी बनाने की मेरे पास मशीन है,’’ मैं ने विजयी मुसकान के साथ कहा. उस के चेहरे पर परेशानी झलकने लगी थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस नए घर से उसे 2 प्रतिशत की आमदनी होने वाली थी उस का क्या होगा.

उस ने हताशा भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडमजी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि जब सबकुछ की मशीन आप के पास है तो आखिर आप को काम वाली महिला क्यों चाहिए? उस का तो कोई उपयोग है ही नहीं.’’ मुझे भी हंसी आ गई थी. मुझे हंसता देख कर उस की उत्सुकता और बढ़ गई. उस ने बडे़ आदर के साथ पूछा, ‘‘मैडमजी, बताएं तो फिर वह यहां क्या काम करेगी?’’

कुछ देर चुप रही मैं. उस ने अंतिम उत्तर खोज कर फिर कहा, ‘‘समझ गई.’’ ‘‘क्या समझीं?’’ ‘‘घर की रखवाली के लिए चाहिए?’’ ‘‘नहीं.’’ ‘‘बच्चों की देखरेख के लिए?’’ ‘‘नो, बसंती. मैं ने अभी शादी भी नहीं की है.’’ ‘‘तो मैडमजी, फिर आप ही बता दें, आप को काम वाली क्यों चाहिए?’’ अब मैं ने उसे बताना उचित समझा.

मैं ने कहा, ‘‘बसंती, पिछले दिनों मैं दिल्ली में थी और आज नौकरी के चक्कर में बंगलौर में हूं. मुझे अच्छी पगार मिलती है. मेरा दिन सुबह 5 बजे से शुरू होता है और रात को 11 बजे तक चलता रहता है. मेरी सहेली कंप्यूटर है. मेरे रिश्तेदार सर्वे, डाटा, प्रोजेक्ट रिपोर्ट हैं. सब सिर्फ काम ही काम है. मेरे घर में सब मशीनें हैं. मुझे एक महिला की जरूरत है जो मेरे खाली समय में मुझ से बातचीत कर सके. मुझे इस बात का एहसास कराती रहे कि मैं भी इनसान हूं. मैं भी जिंदा हूं. मैं मशीन नहीं… समाज का अंग हूं.’’

मैं ने उसे विस्तार से अपनी पीड़ा बताई. मेरी बात सुन कर वह ठगी सी रह गई. उस ने आगे बढ़ कर मुझ से कहा, ‘‘मैडमजी, आप को ऐसी काम करने वाली महिला मैं भी नहीं दिला पाऊंगी,’’ कह कर वह कमरे से निकल गई. मुझे लगा कि सब को अपनेअपने एकांत का वनवास खुद ही भोगना होता है. मैं फिर अपने कमरे का सामान जमाने में लग गई.

लड़ाई

उस दिन चौपाल पर रामखिलावन की रामायण बंच रही थी. उस का लड़का सतपाल बलि का बकरा बनेगा. सरकार ने उस के बाप को जमीन दी थी ठाकुरों वाली, बड़े नीम के उत्तर में नाले की तरफ ठाकुरों का सातपुश्तों का अधिकार था. पहले सरकार ने चकबंदी का चक्कर चलाया, फिर खेत नपाई हुई और आखिर में नाले के उत्तर की जमीन सरकार ने कब्जे में कर ली.

अब भला सरकार का कैसा कब्जा? वहां घूमने वाले सूअरों को क्या सरकार ने रोक दिया? क्या अब भी वहां शौच को लोग नहीं जाते? नाले की सड़ांध सरकार साथ ले गई क्या? जी हां, कुछ भी नहीं बदला. बस, फाइलों में पुराने नाम कट गए, नए नाम लिख गए.

पिछले साल बुढ़ऊ के मेले में मंत्री साहब आए थे. गरीबों का उद्धार शायद उन्हीं के हाथों होना था. गांव के 13 गरीब भूमिहीन लोगों को जमीन के पट्टे दिए गए. रामखिलावन भी उन में से एक था.

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उन 13 भूमिहीन लोगों ने गांव से तहसील तक के 365 चक्कर लगाए और अंत में थकहार कर बैठ गए. रामखिलावन भी उधारी का आटा पोटली में बांध कर कचहरी को सलाम कर आया.

सारी जमीन ठाकुर अयोध्यासिंह की थी. गांव के गरीब मजदूर ठाकुर साहब की रैयत के समान थे. ठाकुर साहब को दया आ गई. तहसील वगैरह के चक्कर और खर्चपानी को देख कर उन्होंने 400-400 रुपए उन गरीबों को दान दे कर उन के आंसू पोंछ दिए, साथ ही स्टांप पर उन से हस्ताक्षर करा लिए.

संयोग से रामखिलावन को उन दिनों पेचिश हो गई. गिरिराज की बुढि़या मां के बारहवें में 35 लड्डू निगले तो पेट में नगाड़े बज उठे. और फिर जो पीली नदी का बांध टूटा तो रामखिलावन 20 घंटे लोटा लिए दौड़ते नजर आए. किसी ने सलाह दी कि पीपरगांव के मंगलाप्रसाद हकीम की दवा फांको.

40 कोस तय कर के पीपरगांव जा पहुंचा रामखिलावन. यहां वह 20 दिन रहा. बांध पर पक्की सीमेंट की गिट्टियां चढ़वा कर वह गांव लौटा. सब की सुनी तो दौड़ादौड़ा गया ठाकुर की हवेली. ठाकुर अयोध्यासिंह ‘लाम’ पर गए हुए थे. उसे अज्ञातवास भी कह सकते हैं. कोई नहीं जानता था कि उन का वह ‘लाम पर जाना’ क्या होता था, लेकिन जब लौट कर आते थे तो ढेर सारा मालमत्ता ले कर आते थे.

रामखिलावन का समय ही खराब था. उन्हीं दिनों ठाकुर साहब का साला हरगोविंद आया हुआ था. हरगोविंद थोड़ा बिगड़ा मिजाज रईस था. लेकिन उस के आने से गांव में रौनक आ जाती थी. कल्लू मियां की कव्वाल जमात, गणेशीराम की भगत मंडली, प्यारेदुलारे का स्वांग, शिवशंकर की नौटंकी, गोविंदराम की रामलीला मंडली, हरगोपाल की रासलीला, आगरे की नत्थोबाई, बनारस की सदाबहार सुंदरी शहजादी, कभी मुजरे, कभी नाच, कभी नाटक…मतलब यह कि रातरात भर मेले लगते गांव में.

उस समय रामखिलावन निराश हो कर लौट रहा था कि सामने से हरगोविंद आते दिखाई दिए. हरगोविंद ने नाक सिकोड़ कर उसे देखा और रामखिलावन लगे अपना राग अलापने, ‘‘बड़ा अन्याय हुआ है हमारे साथ, बाबू. ठाकुर साहब ने सब को जमीन के रुपए चुका दिए लेकिन मुझे फूटी कौड़ी भी नहीं मिली. गिरिराज, पंचोली, नथुआ, भुट्टो, दीना, वीरो, भज्जू सब को रुपए मिल गए लेकिन बाबू साहब, मुझे नहीं मिला एक पैसा भी.’’

अब हरगोविंद आए थे छुट्टन की झोंपड़ी से खापी कर झूमते हुए. पहले तो उन्होंने रामखिलावन को पुचकारा. फिर गले लिपट कर प्यार किया, फिर पैर पकड़ कर खूब रोए और फिर जो उन्होंने रामखिलावन की धुनाई की तो रामखिलावन को पुरखे याद आ गए.

वह तो अच्छा हुआ कि गायत्री चाची ने एक लोटा पानी हरगोविंद के सिर पर डाल कर उसे ठंडा कर दिया, नहीं तो उस दिन रामखिलावन की खैर नहीं थी.

रामखिलावन 33 करोड़ कथित देवताओं को रोपीट रहा था. तभी उस का बेटा सतपाल आ गया उस के पास.

सतपाल सेना में रंगरूट बन गया था. सुना था कि अब कोई बड़ा अफसर है. बंदूक चलाता था और हुक्म देता था.

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सेना का लीपापोता रंगरूट व जवान सतपाल सूरत और मिजाज दोनों से ही अक्खड़ था. वैसे वह पिता रामखिलावन की ही कौन सी इज्जत करता था. बड़े तालाब के मेले पर भीड़ के सामने उस ने बाप को थप्पड़ मारा था, लेकिन उस समय तो वह सेना का अफसर था, किस की मजाल थी जो उस के बाप को हाथ भी लगा पाता.

सबकुछ सुन कर सतपाल ने अपनी वरदी कसी, टोपी जरा ठीकठाक की, फिर हाथ में बड़ा गंड़ासा ले कर जा पहुंचा ठाकुर की हवेली पर.

हरगोविंद कहीं बाहर निकल चुका था. लेकिन सतपाल खाली हाथ कैसे लौटता, दरवाजे पर खड़ा हरगोविंद का विलायती कुत्ता अंगरेजी में भौंके जा रहा था. सतपाल ने एक ही बार में उसे चीर कर रख दिया. फिर हौज भरे पानी में गंड़ासा धो कर घर लौट आया.

शायद उसी रात ठाकुर अयोध्यासिंह गांव लौट आए थे. वह बहुत देर तक सतपाल की हरकत पर क्रोध से लालपीले होते रहे थे.

शांत होने पर फंटी को सतपाल के घर भेजा. रामखिलावन से फंटी बोला, ‘‘तुम मूर्ख, जल में रह कर मगरमच्छ से बैर करोगे. रामकरन को देखा है. आज भी बैसाखी के सहारे चलता है. कुंती मौसी को तो जानते हो न. ठाकुर साहब को बदनाम करने के लिए होहल्ला किया तो उस का लड़का परमू जंगल में ही रह गया. लाश भी नहीं मिली. कुंती मौसी आज भी ठाकुर के घर रोटी बनाती है और ठाकुर की नजरें गरम रखती है. तुम तो भुनगे हो, भुनगे. अगर ठाकुर साहब की आंख भी टेढ़ी हो गई तो कहीं भी जगह नहीं मिलेगी. सतपाल की लाश कुत्ते की तरह किसी नालेपोखर में पड़ी सड़ती नजर आएगी.’’

तभी सतपाल आ गया. शायद वह फंटी को जानता था. वह मंटो अहीर का लड़का था, ‘बड़ा दादा बनता फिरता है. सुना है कि दूरदूर गांवों में भाड़ा ले कर लट्ठ चलाने जाता है. चलो, आज इस का भी पानी देख लेते हैं.’

‘‘कौन है बे. बिना पूछे घर में कैसे घुस आया?’’

‘‘जानता नहीं है, फंटी बाबू को? सेना में 200 रुपल्ली का सिपाही क्या बन गया, अपनी औकात ही भूल गया. सात पुश्तों से ठाकुरों की पत्तलें चाटचाट कर दिन काट रहे हो. आज चींटी के भी पंख निकल आए हैं. जाओ बच्चू, दूधदही खाके आओ. फिर चोंच लड़ाना हम से. तुम्हारे जैसे तीतरबटेर को तो चुटकी में मसल कर रख देते हैं.’’

सतपाल के गरम खून को वह अपमान बरदाश्त न हुआ. पास ही पड़ा फावड़ा उठा लिया. फंटी भी उस की टांगों में घुस गया और उसे गैंडे की तरह उछाल दिया. पहले तो सतपाल फावड़ा ले कर आंगन की बुखारी में जा पड़ा. उस का सिर फट गया. फिर जो उसे गुस्सा आया तो वह दनादन फावड़ा चलाने लगा. एक फावड़ा सीधा फंटी के कपाल पर लगा और माथे के ऊपर की एक चौथाई चमड़ी फावड़े के साथ नीचे लटक गई. खोपड़ी तरबूज की तरह छिल गई.

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दोनों योद्धा लड़तेलड़ते घर से बाहर आ गए थे. फंटी दरवाजे पर ही गिर पड़ा. किसी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मर गया… खून…खून हो गया. भाग सतपाल…भाग रामखिलावन…भागो…’’

लेकिन दोनों में से कोई भी नहीं भागा. ठाकुर के आदमी तुरंत खाट ले कर आए और अपने वीर योद्धा को उठा कर ले गए.

लोग समझ रहे थे कि अब आएंगे ठाकुर के लोग. अब आएगी पुलिस. अब होगा डट कर खूनखराबा. लेकिन कुछ नहीं हुआ.

ठाकुर चुप, सतपाल चुप. सारा गांव चुप. ठाकुर ने कह दिया, ‘‘नहीं पुलिसवुलिस का क्या काम है? हमारा मामला है, हम खुद सुलट लेंगे.’’

फंटी मरा नहीं. फैजाबाद के अस्पताल में ठीक होने लगा. अयोध्या की हवा ने उसे नई जिंदगी दी.

गांव की चौपाल पर रामखिलावन और सतपाल की ही चर्चा थी, ‘‘छोड़ेगा नहीं ठाकुर सतपाल को. इतनी बड़ी बेइज्जती कैसे सह सकता है?’’

कुछ नौजवान सतपाल के गुट में आ गए…ठाकुरों से कटे हुए, पिटे हुए लोग. कुछ ठाकुर अयोध्यासिंह को कुरेदते, ‘‘कुछ करो, ठाकुर साहब. ऐसे तो इन का दिमाग फिर जाएगा. कुछ रास्ता निकालो.’’

ठाकुर ने तो नहीं, चौधरी बदरीप्रसाद ने जरूर रास्ता निकाल लिया.

चौधरी साहब सत्तारूढ़ पार्टी के अनुभवी घाघ नेता थे. 3 बार सांसद रह चुके थे. इस बार ठाकुरों ने इलाके में नहीं घुसने दिया. वह तो कहो कि पहले की कुछ जमापूंजी थी, जो आज तक चूस रहे थे. नहीं तो रोने को मजदूर भी न मिलते.

सतपाल के कारनामे की खबर उन्हें मिली तो तैश में आ गए. सतपाल को शहर बुलवा लिया. फिर समझानेबुझाने लगे. वकीलों, पेशकारों से सलाहमशवरा किया. कानूनी बातें समझ में बैठाई गईं और फिर ठोक दिया ठाकुर अयोध्यासिंह पर 420, मारपीट, धौंसपट्टी, फसाद, शांतिभंग और लूटपाट का अभियोग. पुलिस में रिपोर्ट के साथसाथ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया.

उधर ठाकुर अयोध्यासिंह को अपनी गलती का एहसास हुआ. बगल में दुश्मन और फोड़े को उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था. खैर, ठाकुरों ने अपनी पंचायत जोड़ी, मैदान संभाला. कोर्टकचहरी साधे, वकीलों- पेशकारों को बुलाया और फिर शुरू हुई एक ठंडी लड़ाई.

ठाकुर के ‘लाम’ के आदमी शायद आ टिके थे हवेली में. उन के लकदक ऊंचे लालसफेद घोड़े, जिन के खड़े कान और लंबी पूंछें उन की ऊंची नस्ल का पता दे रहे थे. ठाकुर की चौपाल पर हुक्कापानी का सिलसिला गुलजार होता गया.

इधर सतपाल के कच्चे मकान के पीछे ईश्वरी प्रसाद के अहाते में 8-9 खाटें बिछ जातीं. कुछ लोग शहर से आए थे. एकदम उजड्ड, एकदम ठूंठ, आसपास की बहूबेटियों को ऐसे देखते, जैसे वे औरतें न हों गुलाबजामुन हों.

दोनों तरफ भीड़ बढ़ने लगी थी. कुछ तनातनी भी चल रही थी. इधर एकाएक ठाकुरों ने चुनौती दी कि या तो 2 दिन के अंदर बाहर के लोगों को बाहर कर दो, वरना सारी बस्ती जला कर खाक कर देंगे.

1 दिन गुजर गया. कुछ राजनीति के फंदे तैयार किए गए. उसी दिन आ गया हरगोविंद. बस, उसे ही मुहरा बनाया गया. सारा कार्यक्रम तय हो गया.

शाम को लोटा ले कर हरगोविंद उत्तरी नाले की ओर निकला. एक हाथ में लोटा, एक हाथ में लाठी. लाठी तो वहां आमतौर पर रखते ही थे न. कोई नई बात नहीं थी. आधी धोती लपेटे, आधी कंधे पर डाले.

पीपल के पास वाली बेरिया की झाड़ी के पीछे उस ने लोटा रखा. तभी पिरबी आती दिखाई दी. सिर पर 2 सेर घास का बोझ, हाथ में हंसिया. पास से निकली. हरगोविंद ने उसे देखा. उस ने उसे देखा. वह मुसकराई और हरगोविंद उस के पीछे.

पिरबी फौरन पलटी और हरगोविंद से लिपट गई और फिर तुरंत ही अपने कपड़े फाड़ने लगी. वह किसी फिल्मी दृश्य की तरह चीखनेचिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ…मार डाला…बचाओ…बचाओ…’’

बचाने वालों को वहां तक आने में देर नहीं लगी. 30-35 जवान हाथों में लाठियां लिए आ गए. हरगोविंद की सामूहिक धुनाईपिटाई कर के उसे गांव में लाया गया.

नथुआ पहले से ही तहसील रवाना हो चुका था. शायद पुलिस को पहले से ही तैयार रखा गया था. शायद शहर से पुलिस अधीक्षक के आदेश अग्रिम रूप से मिल गए थे. तभी तो तहसील की पुलिस ठाकुर की हवेली के लठैतों से पहले पहुंच गई.

हरगोविंद को तहसील ले जाया गया, फिर वहां से शहर. 2 दिन की अदालत की छुट्टी. पक्का बंदोबस्त.

इधर गांवगांव डुग्गी पिटी. अखबारों में छपा. रेडियो में गूंजा. सरकार ने सिर झुका कर इसे निंदनीय कार्य कहा. एक पिछड़े वर्ग की कन्या पर वहशी आक्रमण, पुलिस की सक्रिय भूमिका की सराहना, थानेदार जनार्दनप्रसाद की पदोन्नति.

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दूरदूर के गांवों में संदेशा पहुंचा. 8 तारीख को पिछड़ी जाति की प्रादेशिक सभा, जुर्म के खिलाफ, गुलामी के विरुद्ध, प्रचार के लिए बड़ेबड़े बैनर परचे, लंबाचौड़ा बजट. कौन कर रहा था वह सब खर्च? कौन कर रहा था वह प्रबंध? कोई नहीं जानता था.

लोग भीड़ की इकाई बन कर चुपचाप घिसट रहे थे. सभा में जुड़ रहे थे.

‘‘मुर्दाबाद…मुर्दाबाद’’

‘‘नादिरशाही नहीं चलेगी…’’

‘‘गुंडागर्दी नहीं चलेगी…’’ नारे लग रहे थे.

उधर ठाकुरों की सेना तैयारी कर रही थी. जंगीपुरा की 20 झोंपडि़यों में आग लगा दी गई. 13 आदमी मर गए. किस ने लगाई वह आग? ठाकुरों की जमात में प्रश्न दर प्रश्न.

ठाकुरों के कुएं में मरा हुआ सूअर- 3 टुकड़ों में. पिछड़े वर्ग की सभा में प्रश्न दर प्रश्न…ऐसा किस ने किया?

सतपाल घबरा गया था. चौधरी बदरीप्रसाद का चुनाव क्षेत्र तैयार हो रहा था. उन्होंने खुल कर मैदान पकड़ा था. जानपहचान के नेताओं, मंत्रियों को ले कर गांव में आ गए थे, ‘‘छि:छि:, बहुत बुरी बात है. मरने वालों को 10-10 हजार रुपए…’’

मरने वाले ले जाएं आ कर अपना रुपया? कौन देगा वह रुपया? कलक्टर, तहसीलदार, सरपंच या पटवारी?

झूठ, कुछ नहीं मिलेगा. कुछ भी नहीं मिलेगा. फिर भी, ‘‘चौधरी बदरीप्रसाद जिंदाबाद.’’

‘‘गरीबों का मसीहा…बदरीप्रसाद…’’

उधर फिर नया युद्ध, नई नीति. हरगोविंद को छुड़वा कर शहर रवाना कर दिया गया. नई चाल चली गई और युद्ध का विषय बदल दिया गया.

बदल गया युद्ध का विषय, यानी रमजान रिकशे वाले को दाऊदयाल के लड़के संदीप ने पीट दिया. मकसूद बोल उठे, ‘‘अकेला जान कर पीट रहे हो न. अभी मियांपाडे़ के कसाई आ गए तो काट कर भुस भर देंगे.’’

संदीप अकड़ गया मकसूद से, ‘‘बाप लगता है तेरा. इन जैसे पचासों देखे हैं. चरकटे.’’

और फिर कर दी रमजान की जम कर पिटाई.

मकसूद ले गए उसे निकाल कर. फिर जाने क्या मंत्र फूंका कान में कि शाम को 7 बजे कल्लन, करीम, अकरम और मकसूद को ले कर आ गया रमजान. भरे बाजार में उस ने संदीप को गद्दी से खींच लिया और 10-20 जूते खोपड़ी पर रसीद कर दिए.

बाजार में होहल्ला मच गया. कुछ लोगों ने दूर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए. उन लोगों ने चाकू खोल लिए. फिर सब भाग खड़े हुए.

रात में मंदिरमसजिदों में सभाएं हुईं. प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया गया. रात भर दोनों धर्मों में पत्थरबाजी होती रही.

और उसी दिन सतपाल नौकरी पर लौट गया. ठाकुर अयोध्यासिंह उस लड़ाई को भुलाने का विचार करते-करते सो गए.

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