पानी की जरूरत से ज्यादा अहमियत की वजह से ही इसे अमृत और जीवन का आधार माना जाता है. रोटीचावल वगैरह चीजें मुहैया कराने वाली खेती भी पानी पर टिकी होती है और पानी की किल्लत जगजाहिर है. मौजूदा हालात में बरसात का पानी बचा कर ही खेती का भला हो सकता है.
बारिश के भरोसे खेती करने के दिन अब लद गए हैं. बारिश के पानी के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठे किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए खुद ही इंतजाम करने की जरूरत है. इस के लिए कुछ खास मेहनत और खर्च करने की जरूरत नहीं है, बल्कि बारिश के पानी को बचा कर रखने से ही सिंचाई की सारी मुश्किलों से छुटकारा मिल सकता है. बरसात के पानी के भरोसे खेती करने के बजाय सिंचाई के पुराने तरीके अपना कर उम्दा खेती की जा सकती है. बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय प्रखंड के कथौली गांव के किसान बृजनंदन प्रसाद ने अपने गांव में 10 एकड़ जमीन में तालाब बनाए हैं, जिस से करीब 200 एकड़ खेत में लगी फसलों को पानी मिलता है. उन्होंने सिंचाई की आस में हाथ पर हाथ धर कर सरकार और किस्मत को कोसने वाले किसानों को नया रास्ता दिखाया है. बृजनंदन कहते हैं कि खुद को और खेती को बरबाद होते देखने से बेहतर है कि अपने आसपास के पुराने और बेकार पड़े तालाबों और पोखरों को दुरुस्त कर के खेती और सिंचाई की जाए.
कुछ इसी तरह के जज्बे और हौसले की कहानी बांका जिले के बाबूमहल गांव के किसान नुनेश्वर मरांडी की भी है. 32 एकड़ में फैले लहलहाते बाग मरांडी की मेहनत और लगन की मिसाल हैं. उन्होंने अपने गांव में छोटेछोटे तालाब बना कर बरसात का पानी जमा किया और अपने गांव की बंजर जमीन में जान फूंक दी. उन्होंने पुराने और छोटे तालाबों को धीरेधीरे बड़ा किया और नए तालाब भी खुदवाए. तालाबों के पानी से सिंचाई कर के उन्होंने अपनी 32 एकड़ जमीन में पपीता और अमरूद के बाग का लहलहा दिए. तालाब के पानी से खेतों की सिंचाई करने के साथसाथ वे उस में मछलीपालन भी कर रहे हैं और अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.
कृषि विभाग के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में सिंचित क्षेत्र ज्यादा होने के बाद भी किसान समय पर फसलों की सिंचाई नहीं कर पाते हैं. पिछले 6 सालों में सिंचित क्षेत्रों में करीब 2 लाख हेक्टेयर की कमी आई है. अभी कुल सिंचित क्षेत्र 35 लाख 20 हजार हेक्टेयर है. इस में 10 लाख 11 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की नहरों से, 1 लाख 17 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की तालाबों से और 23 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की कुओं से सिंचाई हो पाती है. कुओं और तालाबों जैसे सिंचाई के परंपरागत तरीकों की अनदेखी करने की वजह से यह गिरावट आई है.
कृषि वैज्ञानिक बीएन सिंह कहते हैं कि कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्नत बीज, खाद, मिट्टी, कीटनाशकों के साथ पानी की सब से बड़ी भूमिका होती है और हम पानी को बचाने को ले कर ही सब से ज्यादा लापरवाह बने हुए हैं. बारिश के पानी के भरोसे बैठे रहने वाली किसानों की मानसिकता ने ही खेती और किसानों का बेड़ा गर्क किया है. बारिश के मौसम में कब, कहां और कितनी बारिश होगी? इस का सटीक अंदाजा लगाना आज भी मुश्किल है. फसलों को पानी के अभाव में बरबाद होने से बचाने के लिए बारिश के पानी को बचाने और उस के सही इस्तेमाल के तरीके किसानों को सीखने होंगे. बिहार में 93.29 हजार हेक्टेयर में तालाब और पोखर हैं. इस के अलावा 25 हजार हेक्टेयर में जलाशय और 3.2 हजार हेक्टेयर में सदाबहार नदियां हैं. देश भर में आमतौर पर 15 जून के बाद से बारिश शुरू होती है और धान की नर्सरी डालने का सही समय 25 मई से 6 जून तक का होता है. मिसाल के तौर पर पटना जिले के पिछले 40 सालों के बारिश के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि वहां जून में 134 मिलीमीटर, जुलाई में 340 मिलीमीटर, अगस्त में 260 मिलीमीटर और सितंबर में 205 मिलीमीटर की औसत बारिश होती है. जून में 6 दिन, जुलाई में 13 दिन, अगस्त में 12 दिन और सितंबर में 10 दिन ही बरसात होती है. बारिश के पानी को बेकार बहने से बचाने को ले कर किसानों को जागरूक होना पड़ेगा और तालाबों व पोखरों वगैरह को बचाना होगा. इस से किसान किसी महीने में कम बारिश होने पर भी अपनी फसलों को सूखने से बचा सकेंगे. इस के साथ ही सिंचाई पर होने वाली लागत में भी कमी आएगी.
किसान सलाहकार रजत यादव बताते हैं कि खेतों की मेंड़ों की ऊंचाई को बढ़ा कर मानसून के दौरान बारिश के पानी को खेतों में रोक कर रखा जा सकता है. मेंड़ की ऊंचाई जितनी ज्यादा होगी, उतने ही बारिश के पानी को बचा कर रखा जा सकेगा. अमूमन मेंड़ों की ऊंचाई 7 सेंटीमीटर से 15 सेंटीमीटर तक होती है. बारिश के पानी को खेतों में महफूज रखने के लिए मेंड़ों की ऊंचाई 20 से 25 सेंटीमीटर और मोटाई 10 से 15 सेंटीमीटर कर लेना जरूरी है. यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि खेतों में इतना पानी न जमा हो जाए कि फसलों को नुकसान होने लगे. जरूरत से ज्यादा पानी खेतों में न जमा हो, इस के लिए पानी की निकासी का भी इंतजाम करना चाहिए. ज्यादा समय तक खेतों में पानी भरे रहने से धान के पौधों के गलने का खतरा भी बढ़ सकता है.
बारिश के पानी को खेतों में बचा कर रखने से केवल सिंचाई का ही फायदा नहीं होता है, बल्कि सिंचाई पर होने वाले खर्च में कमी आती है. गौरतलब है कि डीजलपंप से सिंचाई करने पर किसानों को हर घंटे 80-90 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. इस से खेती की लागत, पैदावार और किसानों की आमदनी पर बुरा असर पड़ता है. खेत में ज्यादा समय तक बारिश का पानी जमा रहने से जमीन के नीचे के पानी के स्तर को बढ़ावा मिलता है.
पेंच में फंसा वर्षा जल संरक्षण
बारिश का पानी जमा करने के लिए आम लोगों को जागरूक बनाने के लिए सरकार विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन बिहार में 2 विभागों के अफसरों के पेंच में यह योजना फंसी हुई है. सूबे के 8 सूखा प्रभावित जिलों में बहुत तामझाम के साथ इस योजना को शुरू करने का ढिंढोरा पीटा गया. मगर यह योजना कृषि विभाग और ग्रामीण विकास मंत्रालय के बीच उलझ कर रह गई है. बिहार कृषि विभाग केंद्रीय कृषि मंत्रालय को योजना का प्रस्ताव भेज चुका है. पर उस के लिए फंड मुहैया कराने का जिम्मा ग्रामीण विकास विभाग के पास है. पैसे की कमी की वजह से सूबे में बारिश के पानी को जमा करने की योजना ठप पड़ी हुई है. राज्य में जलछाजन के तहत 40 योजनाओं के जरीए 1.92 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा बहाल करने पर काम शुरू किया गया था. पिछले साल 64 नई योजनाओं को इस में शामिल किया गया है. इस से 3 लाख हेक्टेयर में बारिश के पानी से सिंचाई का इंतजाम किया जाना है. इस योजना के पूरा होने से गया, नवादा, बांका, मुंगेर, जमुई, रोहतास, कैमूर और औरंगाबाद जिलों में सिंचाई का ठोस इंतजाम हो जाएगा.
गौरतलब है कि राज्य सरकार ने अगले 15 सालों में सिंचाई का इंतजाम न होने वाले 28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई का पानी पहुंचाने की योजना बनाई है, लेकिन 2 विभागों के चक्कर में उलझ कर यह योजना दम तोड़ रही है.