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एक और अध्याय : भाग 2

  लेखक: यदु जोशी ‘गढ़देशी’

‘‘समय बीता और चांदनी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. बहुत खुशी हुई, जीने की आस बलवती हो गई. चांदनी की बहन नीना कब तक रहती, वह भी चली गई. इस बीच, एक आया रख ली गई. बिस्तर गीला है तो आया, दूध की दरकार है तो आया. हर्ष जब घर में होता, बच्चों की देखभाल में सारा दिन गुजार देता. औफिस का तनाव और घर की जिम्मेदारी ने हर्ष को चिड़चिड़ा बना दिया. हर्ष मेरे सामने छोटीछोटी बात पर भड़क उठता.

‘‘नोक झोक और तकरार में 3 वर्ष बीत गए. मुझ से रहा नहीं गया. एक दिन मैं ने बहू से कह ही दिया कि वह बच्चों को खुद संभाले, दूसरे पर निर्भर होना ठीक नहीं है. हमारे जमाने में यह सब कहां था, सब खुद ही करना पड़ता था.

‘‘जब पता लगा कि चांदनी का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब है तो मुझे दुख हुआ. वहीं, इस बात से भी दुख हुआ कि किसी ने मुझे नहीं बताया. क्या मैं सब के लिए पराई हो गई थी?

‘‘पराए होने का एहसास तब हुआ जब एक दिन हर्ष ने मुझे ऐसा आघात दिया जिसे सुन कर मैं तड़प गई थी. वह था, वृद्धाश्रम में रहने का. उस दिन हर्ष मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘मां, तुम्हें यहां न आराम है और न ही मानसिक शांति. मैं चाहता हूं कि तुम वृद्धाश्रम में सुखशांति से रहो.’

‘‘मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं. मैं जिस मुगालते में थी, वह एक फरेब निकला. संभावनाओं की घनी तहें मेरी आंखों से उतर गईं. कैसे मैं ने अपनेआप को संभाला, यह मैं ही जानती हूं. विचार ही किसी को भला और बुरा बनाते हैं. मेरे विचारव्यवहार बेटाबहू को रास नहीं आए. मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दिया गया. महीनों तक मैं बिन पानी की मछली सी तड़पती रही. आंसू तो कब के सूख चुके थे.

‘‘वृद्धाश्रम की महिलाएं मुझे समझती रहीं, कहतीं, ‘मोह त्याग कर भक्ति का सहारा ले लो. यही भवसागर पार कराएगा. यहां कुछ अपनों के सताए हुए हैं, कुछ अपने कर्मों से.’ मैं ने तो अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारी थी. बुजुर्गों को आदर अपने व्यवहार से मिलता है जिस की मैं हकदार नहीं थी.’’दादीमां कुछ देर के लिए चुप हो गईं, फिर मेरी ओर कातर दृष्टि से देखती हुई बोलीं, ‘‘बस, यही है कहानी, बेटा.’’

मैं दादीमां की कहानी से कुछ समझने की कोशिश में था. समझ तो एक ही कारण, बुढ़ापा और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाना.

‘‘5 महीने वृद्धाश्रम में काट दिए हैं, बेटा. बेटाबहू कभीकभार मिलने आ जाते हैं. मोहमाया से कौन बच पाया है, न ऋषिमुनी, न योगी. मैं भी एक इंसान हूं. बहूबेटे की अपराधिन हूं. बच्चों की जिंदगी में दखल देना बड़ी भूल थी जिस का पश्चात्ताप कर रही हूं.’’

तभी कमरे की कुंडी किसी ने खड़खड़ाई. विचारों के साथसाथ बातों की शृंखला टूट गई. दादीमां के खाने का वक्त हो गया है, मैं उठ खड़ा हुआ. दादीमां का शाम का समय आपसी बातों में कट जाएगा जबकि लंबी रात व्यर्थ के चिंतन और करवटें बदलने में. सुबह का समय व्यायाम को समर्पित है तो दोपहर का बच्चों की प्रतीक्षा में.

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3 दिन बीते, तब लगा कि दादीमां से मिलना चाहिए. मैं तैयार हो कर सीधे वृद्धाश्रम जा पहुंचा. दादीमां नहानेधोने से फ्री हो चुकी थीं. मुझे देख कर उत्साह से भर गईं और कमर सीधी करते हुए बोलीं, ‘‘बच्चों की छुट्टियां कब तक हैं, बेटा? राह देखतेदेखते मेरी आंखें पथरा गई हैं.’’

‘‘क्या कहूं दादी मां, उन बच्चों को उन के मातापिता ने बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया, अब वहीं रह कर पढ़ेंगे,’’ मैं ने बु?ो मन से कहा. अब तो मैं वह काम ही नहीं करता. आप को बच्चों से मिलाने के लिए मैं ने यह रूट पकड़ा था.

‘‘क्या? बच्चों को मु?ा से दूर कर दिया. यह अच्छा नहीं किया उन के मातापिता ने. तू ही बता, अब मैं किस के सहारे जिऊंगी? इस से तो अच्छा है कि जीवन को त्याग दूं,’’ दादीमां फूटफूट कर रो पड़ीं.

‘‘दादी मां, मन छोटा मत करो. छुट्टी के दिन बोर्डिंग स्कूल से लाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली है. मैं बच्चों से मिलवा दिया करूंगा,’’ मैं दिलासा देता रहा, जब तक दादीमां शांत न हुईं.

‘‘तू ने बहुत उपकार किए हैं मुझ पर. ऋण नहीं चुका पाऊंगी मैं.’’

‘‘कौन सा?ऋण? क्या आप मेरी दादीमां नहीं हैं, बताइए?’’ मैं ने कहा.

दादीमां ने आंखें पोंछीं और आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए बोलीं, ‘‘हां, तेरी भी दादीमां हूं, मैं धन्य हो गई, बेटा.’’

‘‘फिर ठीक है, कल रविवार है, मैं सुबह आऊंगा आप को लेने.’’

‘‘झूठ तो नहीं कह रहा है, बेटा? अब मुझे डर लगने लगा है,’’ दादीमां ने शंकित भाव से कहा.

‘‘सच, दादी मां, होस्टल से लौट कर रमा से भी मिलवाऊंगा, चलोगी न?’’

‘‘कौन रमा,’’ दादीमां चौंकी.

‘‘मेरी पत्नी, आप की बहू. वह बोली थी कि दोपहर का खाना बना कर रखूंगी, दादीमां को लेते आना.’’

‘‘ना रे, बमुश्किल 2 रोटी खाती हूं,’’ दादीमां थोड़ी देर सोचती रहीं, फिर आंखें बंद कर बुदबुदाईं, ‘‘ठीक है, बहू को नेग देने तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कौन सा नेग?’’

‘‘यह तू नहीं समझेगा,’’ दादीमां ने अपने गले में पड़ी सोने की भारी चेन को बिना देखे टटोला, फिर निस्तेज आंखों में एक चमक आ कर ठहर गई.

तभी बाहर कुछ आहट होने लगी. दादीमां ने बिना मुड़े लाठी टटोलतेटटोलते बाहर ?ांका. हर्ष और चांदनी बच्चों के साथ खड़े थे. वे आवाक रह गईं.

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‘‘मां, तुम्हें लेने आए हैं हम. बच्चे आप के बिना नहीं रह सकते,’’ हर्ष सिर ?ाकाए बोल रहा था.

घरवालों के बीच मैं क्या करता. अब मेरा क्या काम रह गया था. मैं वहां से चलने लगा, तो दादीमां ने रोक लिया.

‘‘तू कहां जा रहा है,’’ और मुझे हर्ष से मिलवाया. उस ने मुझे धन्यवाद कहा और मां से फिर चलने को कहा.

दादीमां को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, आतुर हो कर पूछ बैठीं, ‘‘यह सच बोल रहा है न, चांदनी?’’

‘‘सच कह रहे हैं मांजी, हम से जो गलतियां हुईं उन्हें क्षमा कर दीजिए, प्लीज,’’ चांदनी गिड़गिड़ाई.

‘‘क्या गलतियां मुझ से नहीं हुईं, लेकिन अभी एक काम बाकी रह गया है…’’ दादीमां सोच में डूब गईं.

‘‘कौन सा काम, मांजी?’’ चांदनी ने पूछा.

‘‘पहले मैं अपनी छोटी बहू से मिलूंगी. तुम्हें पता है, मुझे एक बेटाबहू और मिले हैं.’’

दादीमां के कहने का मंतव्य सब की समझ में आ गया. सभी की निगाहें मेरी तरफ मुड़ गईं. उधर दादीमां खुशी के मारे बिना लाठी लिए खड़ी थीं मानो कहानी का एक और अध्याय प्रारंभ करने वाली हों. हर्ष बोला, ‘‘ठीक है, हम सब रमेश के यहां चलेंगे. मैं ड्राइवर को कह देता हूं, गाड़ी वहीं ले आए.’’ हर्ष बिना हिचक मां व अपनी पत्नी के साथ मेरी गाड़ी में बैठ गया.

नन्हा सा मन : भाग 2

लेखिका: डा. अनिता श्रीवास्तव

वह अपनी मम्मी से यह नहीं कह सकती कि खुशबू आंटी को ले कर पापा से मत झगड़ा किया करो. क्या हुआ अगर पापा ने उन्हें कार में बिठा लिया या उन्हें शौपिंग करा दी. और न ही वह पापा से कह सकती है कि जब मम्मी को बुरा लगता है तो खुशबू आंटी को घुमाने क्यों ले जाते हो. वह जानती है कि वह कुछ भी कहेगी तो उस की बात कोई नहीं सुनेगा. उलटे, उस को दोचार थप्पड़ जरूर पड़ जाएंगे. मम्मी अकसर कहती हैं कि बड़ों की बातों में अपनी टांग मत अड़ाया करो.

पिंकी के मन में भय बैठता जा रहा था. वह भयावह यंत्रणा झेल रही थी. धीरेधीरे पिंकी का स्वास्थ्य गिरने लगा. वह अकसर बीमार रहने लगी. मम्मी और पापा दोनों उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने खूब सारे टैस्ट किए जिन की रिपोर्ट नौर्मल निकली. डाक्टर ने उस से कई सवाल पूछे, पर पिंकी एकदम चुप रही. उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं, फिर पापा से बोले, ‘लगता है इसे किसी बात की टैंशन है या किसी बात से डरी हुई है. आप इसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक को दिखाएं जिस से इस की परेशानी का पता चल सके.’

पिंकी को उस के मम्मीपापा दूसरे डाक्टर के पास ले गए. करीब एक सप्ताह तक वे पिंकी को मनोचिकित्सक के पास ले जाते रहे. वे डाक्टर आंटी बहुत अच्छी थीं, उस से खूब बातें करती थीं. शुरूशुरू में तो पिंकी ने गुस्से में उन का हाथ झटक दिया था, उन की मेज पर रखा गिलास भी तोड़ दिया था. पर वे कुछ नहीं बोलीं, जरा भी नाराज नहीं हुईं. वे डाक्टर आंटी उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरतीं, उसे दुलार करतीं और उस के गालों पर किस्सी दे कर उसे चौकलेट देतीं. फिर कहतीं, ‘बेटा, अपने मन की बात बताओ. तुम बताओगी नहीं, तो मैं कैसे तुम्हारी परेशानी दूर कर पाऊंगी?’ उन्होंने पिंकी को आश्वासन दिया कि वे उस की परेशानी दूर कर देंगी. नन्हा सा मन आश्वस्त हो कर सबकुछ बोल उठा. रोतेरोते पिंकी ने डाक्टर आंटी को बता दिया कि वह मम्मीपापा दोनों के बिना नहीं रह सकती. जब मम्मीपापा लड़ते हैं तो वह बहुत भयभीत हो उठती है, एक डर उस के दिल में घर कर लेता है जिस से वह उबर नहीं पाती. उस का दिल मम्मीपापा दोनों के लिए धड़कता है. दोनों के बिना वह जी नहीं सकती. उस दिन वह खूब रोई थी और डाक्टर आंटी ने उसे अपने सीने से चिपका कर खूब प्यार किया था.

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बाहर आ कर उन्होंने पिंकी के मम्मीपापा को खूब फटकारा था. आप दोनों के झगड़ों ने बच्ची को असामान्य बना दिया है. अगर बच्ची को खुश देखना चाहते हैं तो आपस के झगड़े बंद करें, उसे अच्छा माहौल दें, वरना बच्ची मानसिक रूप से अस्वस्थ होती चली जाएगी और आप अपनी बच्ची की बीमारी के जिम्मेदार खुद होंगे.

उस दिन पिंकी ने सोचा था कि आज उस ने डाक्टर आंटी को जो कुछ बताया है, उस बात को ले कर घर जा कर उसे मम्मी और पापा दोनों खूब डांटेंगे, खूब चिल्लाएंगे. वह डरी हुई थी, सहमी हुई थी. पर उस के मम्मीपापा ने उसे एक शब्द नहीं कहा. डाक्टर आंटी के फटकारने का एक फायदा तो हुआ कि उस के मम्मी और पापा दोनों बिलकुल नहीं झगड़े, लेकिन आपस में बोलते भी नहीं थे.

उस ने जो सारे खिलौने तोड़ दिए थे, उन की जगह उस के पापा नए खिलौने ले आए थे. मम्मी उस का बहुत ध्यान रखने लगी थीं. रोज रात उसे अपने से चिपका कर थपकी दे कर सुलातीं. पापा भी उस पर जबतब अपना दुलार बरसाते. पर पिंकी भयभीत और सहमीसहमी रहती. वह कभीकभी खूब रोती. तब उस के मम्मीपापा दोनों उसे चुप कराने की हर कोशिश करते.

एक रात पिंकी को हलकी सी नींद आईर् थी कि पापा की आवाज सुनाई दी. वे मम्मी से भर्राए स्वर में कह रहे थे, ‘तुम मुझे माफ कर दो. मैं भटक गया था. भूल गया था कि मेरा घर, मेरी गृहस्थी है और एक प्यारी सी बच्ची भी है. पिंकी की यह हालत मुझ से देखी नहीं जाती. इस का जिम्मेदार मैं हूं, सिर्फ मैं.’ पापा यह कह कर रोने लगे थे. उस ने पहली बार अपने पापा को रोते हुए देखा था. उस की मम्मी एकदम पिघल गईं, ‘आप रोइए मत, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है. पिंकी भी हम दोनों के प्यार से ठीक हो जाएगी. अपने ?ागड़े में हम ने इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया.’

थोड़ी देर वातावरण में गहरी चुप्पी छाई रही. फिर मम्मी बोलीं, ‘अपनी नौकरी के चक्कर में मैं ने आप पर भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. औफिस का काम भी घर ले आती थी. आप एकदम अकेले पड़ गए थे, इसीलिए खुशबू…’ इस  से आगे उन के शब्द गले में ही अटक कर रह गए थे.

‘नहींनहीं, मैं ही गलत था. अब मैं पिंकी की कसम खा कर कहता हूं कि मैं खुशबू से कोई संबंध नहीं रखूंगा. मेरी पिंकी एकदम अच्छी हो जाए और तुम खुश रहो, इस के अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए.’ पापा धीरेधीरे मम्मी के बालों में उंगलियां फेर रहे थे और मम्मी की सिसकियां वातावरण में गूंज रही थीं.

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पिंकी मन ही मन कह रही थी, ‘मम्मी मत रो, देखो न, पापा अपनी गलती मान रहे हैं. पापा, आप दुनिया के सब से अच्छे पापा हो, आई लव यू पापा. और मम्मी आप भी बहुत अच्छी हैं. मैं आप को भी बहुत प्यार करती हूं, आई लव यू मौम.’

पिंकी की आंखें भर आई थीं पर ये खुशी के आंसू थे. अब उसे किसी अलादीन के चिराग की जरूरत नहीं थी. उस के नन्हे से मन में दुनिया की सारी खुशियां सिमट कर समाहित हो गई थीं. आज उस का मन खेलना चाहता है. दौड़ना चाहता है, और इन सब से बढ़ कर दूर बहुत दूर आकाश में उड़ना चाहता है.

अनोखा प्रेमी : भाग 1

पटना सुपर बाजार की सीढि़यां उतरते हुए संध्या ने रूपाली को देखा तो चौंक पड़ी. एक मिनट के लिए संध्या गुस्से से लालपीली हो गई. रूपाली ने पास आ कर कहा, ‘‘अरे, संध्याजी, आप कैसी हैं?’’
संध्या खामोश रही तो रूपाली ने आगे कहा, ‘‘मैं जानती हूं, आप मुझ से बहुत नाराज होंगी. इस में आप की कोई गलती नहीं है. आप की जगह कोई भी होता, तो मुझे गलत ही समझता.’’

संध्या फिर भी चुप रही. उसे लग रहा था कि रूपाली सिर्फ बेशरम ही नहीं, बल्कि अव्वल नंबर की चापलूस भी है. रूपाली ने समझाते हुए आगे कहा, ‘‘संध्याजी, मेरे मन में कई बार यह खयाल आया कि आप से मिलूं और सबकुछ आप को सचसच बता दूं. मगर सुधांशुजी ने मुझे कसम दे कर रोक दिया था.’’

सुधांशु का नाम सुनते ही संध्या के तनबदन में आग लग गई. वही सुधांशु, जिस ने संध्या से प्रेम का नाटक कर के उस की भावनाओं से खेला था और बेवफाई कर के चला गया था. संध्या के जीवन के पिछले पन्ने अचानक फड़फड़ा कर खुलने लगे. वह गुस्से से लालपीली हुई जा रही थी. रूपाली, संध्या का हाथ पकड़ कर नीचे रैस्तरां में ले गई, ‘‘आइए, कौफी पीते हैं, और बातें भी करेंगे.’ न चाहते हुए भी संध्या रूपाली के साथ चल दी.

रूपाली ने कौफी का और्डर दिया. संध्या अपने अतीत में खो गई. लगभग 10 साल पहले की बात है. पटना शहर उन दिनों आज जैसा आधुनिक नहीं था. शिव प्रसाद सक्सेना का परिवार एक मध्यवर्गीय परिवार था. वे पटना हाईस्कूल में मास्टर थे. 2 बेटियां, संध्या और मीनू, बस, यही छोटा सा परिवार था. संध्या के बीए पास करते ही मां ने उस की शादी की जिद पकड़ ली. उस की जन्मकुंडली की दर्जनों कापियां करा कर उन पर हलदी छिड़क कर तैयार कर ली गईं. एक तरफ पापा ने अपने मित्रों में अच्छे लड़के की तलाश शुरू कर दी तो दूसरी ओर मां ने टीपन की कापी हर बूआ, मामी और चाचियों में बांट दी.

दिन बीतते रहे पर कहीं भी विवाह तय नहीं हो पा रहा था. मां को परेशान देख कर एक दिन जौनपुर वाली बूआ ने साफसाफ कह दिया, ‘देखो, छोटी भाभी, मैं ने तो संध्या के लिए जौनपुर में सारी कोशिशें कर के देख लीं पर जो भी सुनता है कि रंग थोड़ा दबा है, बस, नाकभौं सिकोड़ लेता है.’

‘अरे दीदी, रंग थोड़ा दबा है तो क्या हुआ, कोई मेरी संध्या में खोट तो निकाल दे,’ मां बोल उठीं.
‘हम जानते नहीं हैं क्या, छोटी भाभी? पर जब ये लोग लड़के वाले बन जाते हैं, तब न जाने कौन सा चश्मा लगा के 13 खोट और 26 कमियां निकालने लगते हैं.’ मां और बूआ का अपनाअपना राग दिनभर चलता रहता था

इस के बाद तो हर साल, लगन आते ही मां मीनू से टीपन उतरवाने और उस पर हलदी छिड़क कर आदानप्रदान करने में लग जातीं और लगन समाप्त होते ही निराश हो कर बैठ जातीं. अगले साल जब फिर से नया टीपन तैयार होता तब उस में संध्या की उम्र एक साल बढ़ा दी जाती.

कहीं भी शादी तय नहीं हो पा रही थी. दिन बीतते गए, संध्या में एक हीनभावना घर करने लगी. हर बार लड़की दिखाने की रस्म के बाद वह मानसिक और शारीरिक दोनों रूप में मलिन हो जाती. उसे गुस्सा भी आता और ग्लानि भी होती. पापा के ललाट की शिकन और मां की चिंता उसे अपने दुख से कहीं ज्यादा बेचैन करती थी.

सिलसिला सालदरसाल चलता रहा. धीरेधीरे संध्या में एक परिवर्तन आने लगा. वह हर अपमान और अस्वीकृति के लिए अभ्यस्त हो चुकी थी. मगर मांबाप को उदास देखती, तो आहत हो उठती थी.
आखिर एक दिन मां को उदास बैठे देख कर संध्या बोली, ‘मां, मैं ने फैसला कर लिया है कि शादी नहीं करूंगी. तुम लोग मीनू की शादी कर दो.’

‘तो क्या जीवनभर कुंआरी ही बैठी रहोगी?’ मां ने डांटा.

‘तो क्या हुआ, मां, कितनी ही लड़कियां कुंआरी बैठी हैं. मैं बिन ब्याही रह गई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. देखो, स्मिता दीदी ने भी तो शादी नहीं की है, क्या हो गया उन्हें, मौज से रह रही हैं.’

‘हमारे खानदान की लड़कियां कुंआरी नहीं रहतीं,’ इतना कह कर मां गुस्से में पैर पटकती हुई चली गईं.
5 वर्ष बीत गए. संध्या ने एमए कर लिया और मगध महिला कालेज में लैक्चरर की नौकरी भी मिल गई. अपने कालेज और पढ़ाने में ही वह अपने को व्यस्त रखती थी. संध्या अकसर सोचा करती, यह कैसी विडंबना है कुदरत की कि रूपआकर्षण न होने की वजह से उस के साथसाथ पूरे परिवार को पीडि़त होना पड़ रहा है. वह कुदरत को अपने प्रति हुई नाइंसाफी के लिए बहुत कोसती थी. वह सोचती कि आखिर उस का कुसूर क्या है. शादी के समय लड़की के गुणों को रूप के आवरण में लपेट कर न जाने कहां फेंक दिया जाता है.

एक दिन पापा ने जब मनोहर बाबू से रिश्ते की बात चलाई तो मां सुनते ही आगबबूला हो गईं, ‘आप सठिया तो नहीं गए हैं. मनोहर अपनी संध्या से 14 साल बड़ा है. आप लड़का ढूंढ़ने चले हैं या बूढ़ा बैल.’

पापा ने मनोहर बाबू की नौकरी, अच्छा घराना, और भी कई चीजों का वास्ता दे कर मां को समझाना चाहा, मगर मां टस से मस नहीं हुईं.

एक दिन संध्या जब कालेज से घर लौटी तो उस ने देखा, बरामदे में कोई पुरुष बैठा मम्मीपापा के साथ बड़े अपनेपन से बातें कर रहा था. वह उसे पहचान पाने में विवश थी. तभी पापा ने परिचय कराते हुए कहा, ‘मेरी बड़ी बेटी संध्या. यहीं मगध महिला कालेज में लेक्चरर है, और आप हैं, शोभा के देवर, सुधांशु.’
संध्या ने देखा, बड़े ही सलीके से खड़े हो कर उस ने हाथ जोड़े. उत्तर में संध्या ने नमस्ते किया. फिर वह अंदर चली गई.

सुधांशु अकसर संध्या के घर आनेजाने लगा. बातचीत करने में माहिर सुधांशु बहुत जल्दी ही घर के सभी सदस्यों का प्यारा बन गया. पापा से राजनीति पर बहस होती, तो मां से धार्मिक वार्त्तालाप. मीनू को चिढ़ाता भी तो बहुत आत्मीयता से. मीनू भी हर विषय में सुधांशु की सलाह जरूरी समझती थी. कई बार मम्मीपापा उसे झिड़क भी देते थे, जिसे सुधांशु हंस कर टाल देता.

सुधांशु स्वभाव से एक आजाद खयाल का व्यक्ति था. वह साहित्य, दर्शन, विज्ञान या प्रेम संबंधों पर जब संध्या से चर्चा करता तब उस की बुद्धिमत्ता की बरबस ही सराहना करने को उस का जी चाहता था. उस की आवाज में एक प्रवाह था, जो किसी को भी अपने साथ बहा कर ले जाने में सक्षम था

सुधांशु, संध्या के कुंठित जीवन में हवा के ताजा झोंके की तरह आया. संध्या को धीरेधीरे सुधांशु का साथ अच्छा लगने लगा. अब तक संध्या ने अपने को दबा कर, मन मार कर जीने की कला सीख ली थी. मगर अब सुधांशु का अस्तित्व उस के मनोभावों पर हावी होने लगा था. और संध्या अपनी भावनाओं पर से अंकुश खोने लगी थी. अंजाम सोच कर वह भय से कांप उठती थी, क्योंकि प्रेम की राहें इतनी संकरी होती हैं कि इन से वापस लौट कर आने की गुंजाइश नहीं होती.

रहस्यमय है ब्रह्मांड

ब्रह्मांड शुरू से ही दार्शनिकों, वैज्ञानिकों के लिए कुतूहल और रहस्य का विषय रहा है. आज कई तरह के वैज्ञानिक उपकरणों, दूरबीनों और कृत्रिम उपग्रहों के जरिए इस के बारे में बहुत सी जानकारी हम ने प्राप्त कर ली है. लेकिन इस की उत्पत्ति और खगोलियों, पिंडों की रचना के बारे में बहुत सी बातें अभी हम नहीं जानते हैं.

कुछ समय पहले ब्रह्मांड के एक कण ‘हिंग्स बोसोन’ की खोज हुई है. इसे कुछ लोग गौड पार्टिकल भी कहते हैं. हालांकि, ये कहने की बातें हैं. यह वह कण है जो पदार्थ को भार प्रदान करता है. अगर कणों में भार नहीं होता तो ब्रह्मांड और जीवन नहीं होता.

इस खोज से भौतिक विज्ञान के बारे में बहुत सी नई जानकारियों के आने की संभावना है. इस की खोज से वैज्ञानिक जगत में एक नई क्रांति के द्वार खुल गए हैं. इस से संचार की दुनिया में कई बदलाव होंगे. इंटरनैट की स्पीड कई गुना बढ़ जाएगी. अंतरिक्ष तकनीक में सुधार होगा और इस की मदद से दूसरे ग्रहों के रहस्यों से भी परदा उठेगा. नैनो तकनीक में क्रांति आने से हमारी पूरी जीवनशैली बदल सकती है. एमआरआई और पीईटी स्कैन में भी यह खोज मददगार होगी. इस तरह से बीमारियों के इलाज का नया रास्ता खुलेगा.
इस कण की सब से पहले परिकल्पना भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने की थी. 1924 में उन्होंने एक शोधपत्र एलबर्ट आइंसटीन को भेजा था. इस की महत्ता को समझते हुए खुद आइंसटीन ने इस का जरमन भाषा में अनुवाद कर के जरमन जर्नल में प्रकाशित कराया था. बोस की खोज को बोस आइंसटीन स्टिक्स के नाम से जाना जाता है और यह क्वांटम मैकेनिक्स आधार बना.

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आइंसटीन ने पाया कि इस खोज का भौतिकी के लिए खास महत्त्व है क्योंकि इस ने उप परमाणु कण (सब एटौमिक पार्टिकल) की खोज का मार्ग प्रशस्त कर दिया है. इस का नाम उन्होंने अपने सहयोगी के नाम पर ‘बोसोन’ दिया. 1965 में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिंग्स ने ‘हिंग्स बोसोन’ अथवा गौड पार्टिकल की परिकल्पना पेश की थी. हिंग्स ने बोस और आइंसटीन के कार्य को आगे बढ़ाया जिस से आज की खोज संभव हो सकी.

तलाश में जुटे हैं वैज्ञानिक

ब्रह्मांड के इस सूक्ष्म कण ‘हिंग्स बोसोन’ की खोज में कई देशों के हजारों वैज्ञानिकों ने योगदान दिया. मगर 3 लोगों का इस में खास योगदान है. इन में जोसेफ इनकैनडेला और फैबियोला जियानोती ने 2 शेष टीमों का नेतृत्व किया, जिस ने इस खोज को अंजाम दिया और सर्न के डायरैक्टर जनरल रौल्फ ह्यूअर ने अहम भूमिका निभाई.

फैबियोला का कहना है कि 1995 में टौप क्वार्क (पदार्थ का मौलिक कण) की खोज के बाद गौड पार्टिकल की खोज को ले कर वैज्ञानिकों में जनून आया. हमें इस प्रकार की चीजों को समझना था कि क्यों टौप क्वार्क इतना भारी है और इलैक्ट्रोन इतना हलका है. मेरे लिए यह घटना आगमन बिंदु भी है और प्रस्थान बिंदु भी.

आगमन इसलिए है क्योंकि यह वैज्ञानिकों का सपना था. हालांकि, अभी बहुत से सवालों के जवाब खोजने हैं. खोज से जुड़े यूरोपियन आर्गेनाइजेशन फौर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) के महानिदेशक ह्यूअर के अनुसार, हिंग्स पहला मौलिक स्केलर पार्टिकल हो सकता है. उन के मुताबिक, टौप क्वार्क और हिंग्स की खोज में अंतर यह है कि हमें टौप क्वार्क की मौजूदगी के बारे में पता था, लेकिन हिंग्स के बारे में उम्मीद की जा रही थी कि इस की मौजूदगी हो भी सकती है और नहीं भी.

जोसेफ इनकैनडेला के मुताबिक, पहले खोजे गए पार्टिकल्स या तो मैटर पार्टिकल्स हैं या उन की प्रतिकृति हैं. हिंग्स उस से संबंधित है. 1970 में सामने आए फिजिक्स के स्टैंडर्ड मौडल के मुताबिक, ब्रह्मांड मूल कणों से मिल कर बना हुआ है. वैज्ञानिकों ने 11 कण तो खोज लिए हैं, लेकिन 12वें कण की उन्हें तलाश थी, जिसे हिंग्स बोसोन माना जा रहा है.

तरह तरह के प्रयोग

हिंग्स बोसोन के बारे में पता करने के लिए उतनी ऊर्जा की जरूरत थी जो बिग बैंग यानी 14 अरब साल पहले ब्रह्मांड के जन्म के समय रही होगी. इस के लिए जेनेवा के पास 27 किलोमीटर लंबी गोलाकार सुरंग लार्ज हैड्रौन कोलाइडर (एलएचसी) बनाई गई.

इस सुरंग में प्रोटोनों को प्रकाश की रफ्तार की विपरीत दिशाओं में छोड़ कर आपस में टकराया गया. यहां वैसी सभी परिस्थितियां पैदा की गईं जो अरबों साल पहले बिग बैंग के दौरान थीं. इस में वजूद में आए कण को ही गौड पार्टिकल माना जा रहा है. दुनियाभर के 6,000 वैज्ञानिकों ने 10 अरब डौलर से ज्यादा की धनराशि खर्च कर के यह महाप्रयोग किया जिस से इस कण के अस्तित्व का पता चला.

ब्रह्मांड की उत्पत्ति के एक बहुप्रचलित सिद्धांत के अनुसार इस की उत्पत्ति 14 अरब साल पहले एक महापिंड के महाविस्फोट (बिग बैंग) से हुई थी. इस महाविस्फोट (बिग बैंग) के बाद सैकंड के पहले अरबवें हिस्से के दौरान भाररहित भौतिक कण प्रकाश की गति से ब्रह्मांड में बिखरने लगे. लेकिन संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त ऊर्जा क्षेत्र के संपर्क में जब ये कण आए तो भारी हो गए. इस ऊर्जा क्षेत्र की परिकल्पना हिंग्स ने की थी. इसलिए इसे ‘हिंग्स फील्ड’ के नाम से जाना जाता है.

इस भार की वजह से ही एक कण दूसरे से जुड़ते चले जाते हैं. इन में से कुछ कण ऐसे होते हैं जो अन्य कणों की तुलना में इस फील्ड से ज्यादा चिपके रहते हैं. यानी कि सिद्धांत के अनुसार, बिग बैंग की घटना के बाद भौतिक कण भाररहित थे. लेकिन फील्ड के संपर्क में आते ही वे भारी हो गए.

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यूरोपियन सैंटर फौर न्यूक्लियर रिसर्च यानी सर्न के वैज्ञानिक अल्बर्ट डी राइक का अनुमान है कि इस खोज के साथ ही प्रकृति को चलाने वाले वास्तविक नए सिद्धांतों की खोज की जा सकेगी. वैज्ञानिकों का मानना है कि इस खोज के बाद किसी भी वस्तु का द्रव्यमान हटा लेने पर उसे प्रकाश की गति से कहीं भेजा जा सकेगा.

बहरहाल, इस खोज से ब्रह्मांड की उत्पत्ति और रचना के नए रहस्यों का पता चलेगा. लेकिन, ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई, कब हुई, कैसे सूरज, चांद, तारे और ग्रहउपग्रह बने, इन सब के बारे में अभी बहुत सी बातें अज्ञात और रहस्य बनी हुई हैं. आज भी खगोल विज्ञान के सामने बहुत से प्रश्न अनुत्तरित हैं जो ब्रह्मांड की विशालता और मानव बुद्धि की सीमाओं को रेखांकित करते हैं. इस ब्रह्मांड के बारे में हम जितना जानने की कोशिश करते हैं उतनी ही हमारी जिज्ञासा व अज्ञानता बढ़ती जाती है. शायद इसीलिए ब्रह्मांड को अनादि और अनंत कहा गया है.

घरखर्च में पेरैंट्स का दखल कितना सही ?

एक मध्यवर्गीय घर में पतिपत्नी के बीच सब से ज्यादा चर्र्चा का विषय होता है घरखर्च. हर घर में घरखर्च पर होने वाले विवादों की स्क्रिप्ट लगभग एक सी होती है, जिसे ‘तोहमतों की स्क्रिप्ट’ भी कह सकते हैं. उस में पति कहता है, ‘‘आजकल घर के खर्चे कुछ ज्यादा ही बढ़ रहे हैं, जरा संभल कर घर चलाओ. पैसे पेड़ पर नहीं उगते.’’

अब बीवी भी कहां पीछे रहने वाली है. वह भी सुनाती है, ‘‘खर्च तो तुम लोगों के ऊपर ही होता है. मैं तो नमक से भी रोटी खा कर खुश हूं.’’

इस पर पति कहता है, ‘‘नमक से रोटी खा कर खुश हो, मगर जो सारा दिन एसी चला कर टीवी देखती हो, बिजली का बिल बढ़ाती हो उस का क्या?’’

‘‘मेरा टीवी दिखता है और तुम जो गरमियों में भी गरम पानी से नहाने में बिजली फूंकते हो,
10 बार चायकौफी में चीनीपत्ती और गैस खर्च करवाते हो उस का क्या?’’

घर के साथ यह जो ‘खर्च’ शब्द जुड़ा है, हर इंसान के लिए उस की अलगअलग परिभाषा होती है. उदाहरण के लिए एक परिवार जिस में सासससुर, पतिपत्नी और उन के 2 बच्चे हैं, बाहर रैस्टोरैंट में खाना खाने गए जिस का क्व1,500 बिल आया. सास के लिए बाहर खाना खाने का मतलब कामचोरी और ऐयाशी था. उन के लिए वह क्व1,500 का खर्च बिलकुल फुजूल था. वे बारबार खाते हुए यही बड़बड़ा रही थीं, ‘‘इस से अच्छा तो मैं घर पर ही बना लेती… आजकल तो बाहर खाने के लिए लोग अपना घर और सेहत बरबाद कर रहे हैं.’’

ससुर की नजरों में यह खर्च रिश्तों में इनवैस्टमैंट थी. वे यह देख कर बहुत खुश थे कि इतने दिनों बाद पूरा परिवार एकसाथ बाहर आया है और खुश है. उन के अनुसार ऐसी आउटिंग परिवार के लिए बेहद जरूरी है.

बहू के लिए वह लंच जरूरत थी, क्योंकि उस की कमर में दर्द था और वह खाना बनाने में असमर्थ थी. बाहर आ कर खाने से उसे भी रसोई के 10 कामों से छुट्टी मिली. पति को यह सोच कर राहत थी कि अब बच्चे उसे अगले कुछ दिनों तक यह नहीं सुनाएंगे कि पापा हमें कितने दिनों से बाहर नहीं ले गए.

देखा आपने? अलगअलग दृष्टिकोण के कारण एक ही खर्च के कितने मतलब निकल गए. किसी के लिए फुजूल, तो किसी के लिए इनवैस्टमैंट, किसी के लिए जरूरत, तो किसी के लिए राहत.

जहां दृष्टिकोण अलग हों और एकदूसरे के दृष्टिकोण के लिए स्वीकारभाव न हो, वहीं विवाद पैदा होते हैं और जब 2 विवादग्रस्त लोगों के बीच हैल्दी कम्यूनिकेशन न हो तो उन के बीच बाहरी हस्तक्षेप शुरू हो जाता है. यदि विवाद का मुद्दा घरखर्च है तो यह हस्तक्षेप होता है पतिपत्नी दोनों की माओं का. वह इसलिए, क्योंकि एक लड़का जैसे अपनी मां को घरखर्च चलाते देखता है, वह सोचता है वही सही तरीका है और चाहता है उस की पत्नी भी वैसे ही घर चलाए. यही बात पत्नी पर भी लागू होती है. उस ने अपने मायके में जैसे देखा है उस के भीतर भी घर चलाने के वैसे ही गुण आते हैं.

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रजनी ने अपनी मां को कभी बचा खाना फेंकते नहीं देखा. ऐसा करना उन की मां की नजरों में खाने का अपमान भी है और फुजूलखर्ची भी. वहीं रजनी में एक अजीब संस्कार भी है. दिल ढलते ही वह पूरे घर की लाइट औन कर देती है. शाम को घर में अंधेरा रखना उस की नजरों में अपशकुन है. ये दोनों आदतें मायके से सीख रजनी जब ससुराल आई तो वहां इस से उलटी ही रीत थी. वे लोग एक समय का बचा खाना अगले दिन तो क्या, उसी दिन दूसरे समय भी नहीं खाते. उन की नजरों में यह अपव्यय नहीं है. वही दूसरी ओर दिन हो या रात, बिना जरूरत के लाइट, पंखा खुला छोड़ देने पर उस की सास बहुत गुस्सा करतीं.

घरखर्च पर चल रहे विवाद में मांओं के हस्तक्षेप से बात बिगड़ने की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं, क्योंकि अकसर देखा गया है कि ऐसे विवादों में सास अपने बेटे का और मां अपनी बेटी का पक्ष ही सुनती है. अपनीअपनी औलाद का व्यर्थ खर्च भी उन्हें जरूरत और दूसरे का जरूरी खर्च भी ‘फुजूल’ लगता है और वे इसी आधार पर अपनी राय देती हैं.

मां और सास का दखल कितना सही

यदि बहूबेटे इंडिपैंडेंट हैं, अलग घर में रह रहे हैं और अपने बड़ों पर आर्थिक रूप से निर्भर नहीं हैं तो बेहतर है कोई भी मां किसी भी तरह का दखल न दे. यदि सास दखल देगी तो पत्नी को ऐतराज होगा और अगर पत्नी की मां दखल देगी तो पति को ऐतराज होगा. बेहतर यही है कि वे स्वयं को मध्यस्थ की भूमिका से दूर रखें. यदि सास या मां ने बच्चों के साथ ऐसी हैल्दी रिलेशनशिप बनाई है कि वे मां का कहा अन्यथा न लें तो मां कुछ बातों पर अपनी सलाह दे सकती है और उन्हें घरखर्च चलाने के गुर सिखा सकती है.

हैल्दी कम्यूनिकेशन को प्रेरित करें

मधु अपने पति राजीव की इस आदत से बहुत परेशान थी कि वह हर छोटेबड़े घरखर्च की पूरी जानकारी लिखित तौर पर रखना चाहता था. हालांकि राजीव ऐसा इसलिए करना चाहता था ताकि उस के आधार पर वह आगे की बजट प्लानिंग कर सके. मगर मधु को इस पर ऐतराज था. उसे लगता था राजीव उस पर भरोसा नहीं करता. इसीलिए घरखर्च को ले कर इतनी पूछताछ करता है और उसे खर्च लिखने को कहता है.

मधु को बुरा इसलिए भी लगता था, क्योंकि उस ने अपने पापा को कभी ऐसा करते नहीं
देखा था. इसलिए मधु और राजीव में इस बात  को ले कर अकसर झड़प हो जाती थी. एक
दिन तो गुस्से में मधु ने घरखर्च के लिए दिए गए पैसे राजीव के सामने पटक दिए और बोली, ‘‘लो, अब खुद ही घर चलाओ और खुद ही हिसाब रखो.’’

जब मधु ने अपनी मां से इस घटना का जिक्र शिकायती लहजे में किया तो उस की मां ने उसे समझाया, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है बेटी कि राजीव घर के मनी मैनेजनैंट में इतनी रुचि ले रहा है. यह दिखाता है कि उस की नजरों में घर की कितनी अहमियत है. तुम्हारे पापा ने तो घर की और बचत की कभी परवाह ही नहीं की. सारा बोझ हमेशा मेरे ऊपर ही रहा. राजीव से लड़ने के बजाय बेहतर है उस से बात करो, उस की भावनाओं को समझो और उसे अपनी भावनाओं से भी अवगत कराओ. मिलबैठ कर तय करो कि कहां खर्च करना है, कहां नहीं, कितनी सेविंग करनी है और कहां करनी है.’’

मां के कहे अनुसार जब मधु ने राजीव से बैठ कर बात की तो सारा विवाद सुलझ गया.
यदि विवाद सुलझाने की नीयत हो तो ऐसा कोई विवाद नहीं है जिसे बातचीत से सुलझाया न जा सके. अत: दोनों मांओं का दायित्व बनता है कि वे हस्तक्षेप के बजाय पतिपत्नी को आपसी बातचीत के लिए प्रेरित करें.
तेरामेरा नहीं हमारा लौजिक तो कहता है कि जिन घरों में पत्नियां वर्किंग हैं, वहां घरखर्च पर विवाद नहीं होने चाहिए, क्योंकि वहां डबल इनकम आती है, मगर होता इस के ठीक उलटा है. ऐसे पतिपत्नियों के बीच खर्च को ले कर ज्यादा विवाद होते हैं. कारण, वही दृष्टिकोण का है. अपना खर्च जरूरत और दूसरे का खर्च फुजूल दिखता है. अपने खर्च को हर कोई तर्कसंगत ठहरा देता है. यदि आप किसी ऐसे इंसान से बात करें जो मोबाइल भी कपड़ों की तरह बदलता है, तो वह भी इस के पक्ष में इतने सटीक तर्क दे देगा कि आप को ही चुप होना पड़ेगा.

घरेलू पत्नी घरखर्च पर चल रहे विवाद में फिर भी थोड़ा झुक जाती है, क्योंकि वह कमाती नहीं, मगर वर्किंग वूमन नहीं झुकती. इसलिए ऐसे विवाद अकसर ‘तू तेरा देख, मैं मेरा देखूंगा/देखूंगी’ के भाव के साथ खत्म होते हैं. ऐसा न हो इस के लिए दोनों मांओं को बेटाबेटी की शादी से पहले ही उन्हें यह समझाने की जिम्मेदारी बनती है कि शादी के बाद वे एक छत शेयर करने नहीं, बल्कि एक जिंदगी शेयर करने जा रहे हैं. उस में तेरामेरा नहीं चलता, बल्कि हमारा हो कर जीना होता है, उन्हें एकदूसरे की इच्छाओं का सम्मान करना होता है. एकदूसरे की सहमति से ही खर्च करना सीखना होगा वरना घर कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाएगा.

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यह मेरा मत है

मां या सास जब भी बेटेबहू को घरखर्च को ले कर कोई सलाह दें तो इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि उन की सलाह सलाह ही लगे. थोपी हुई बात को आजकल की जैनरेशन नहीं मानती, उलटा उस का जोरदार प्रतिकार करती है.

रजनी और उस के पति जब अपने अलग घर में रहने लगे तो वह अपने हिसाब से घर चलाने लगी. यानी बचा खाना फ्रिज में रख लेती और अगले भोजन के समय गरम कर के परोस देती. एक बार जब सास उस के पास रहने आईं तो उस की इस आदत पर बारबार टोकाटाकी करने लगीं कि मेरे घर में कभी ऐसा नहीं होता. बारबार सुनने के बाद एक दिन रजनी ने भी जवाब दे दिया कि आप के घर में नहीं होता होगा, मगर यह मेरा घर है और यहां ऐसा होता है. रजनी का जवाब सुन कर सास का मुंह उतर गया.

कहने का मतलब यह है कि यदि आप को बहू या बेटे का घर चलाने का तरीका अखर रहा है तो आप अपनी बात कहें, मगर उसे अपनी राय बता कर कहें जैसे कि मैं ऐसा सोचती हूं, मेरा ऐसा मत है, आगे तुम्हारी मरजी. और यह राय भी बारबार न दें. जिन की शादी हो चुकी है, जाहिर है वे इतने छोटे तो नहीं होंगे कि आप को उन्हें बारबार कुछ सिखाना पड़े. उन्हें अपने अनुभव  से सीखने दें. इसी में उन की और आप की  भलाई है.

अपने खर्च खुद मैनेज करने दें

कुछ पेरैंट्स संतानों के प्रति अति मोहग्रस्त होते हैं और उन की शादी के बाद भी उन्हें
छोटा बच्चा ही समझते हैं. वे चाहते हैं कि  बच्चों के घरखर्च का हिसाब किताब उन्हीं के  हाथों में रहे. बैंक डिटेल्स, सेविंग डिटेल्स सब उन को पता हो. यह भी पतिपत्नी के बीच  विवाद का जोरदार मुद्दा बनता है.

पेरैंट्स को ऐसा नहीं करना चाहिए. अगर बच्चे बोलें भी तो भी बेहतर है कि स्वयं पर निर्भर रखने के बजाय
उन्हें मनी मैनेजमैंट सिखा कर आत्मनिर्भर  बनाएं, क्योंकि आप हमेशा उन के साथ नहीं रहने वाली हैं.
कुछ मांओं की ऐसी भी आदत होती है कि जरा सा बेटी या बेटे ने बढ़ते घरखर्च का रोना रोया नहीं, वे उसे झट से अतिरिक्त पैसे दे कर मदद कर देती हैं. इसे वे प्यार या केयर का नाम देती हैं, किंतु वे यह नहीं जानती कि यह प्यार नहीं, बल्कि बच्चों को बिगाड़ने का काम है. इस तरह तो वे कभी सही तरीके से घर चलाना,  बचत करना, इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सीखेंगे ही नहीं.

यदि आप अपने बेटे या बेटी की वास्तव  में भलाई चाहती हैं तो प्यार के नाम पर ऐसा हस्तक्षेप बिलकुल न करें. हर किसी को अपनी चादर देख कर पैर पसारना आना चाहिए. यदि आप उन्हें कमी का अनुभव ही नहीं होने देंगी तो वे कैसे हाथ संभाल कर खर्च करना सीखेंगे.

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अपने बच्चों को उन की किशोरावस्था से ही मनी मैनेजमैंट यानी पैसों का हिसाबकिताब रखना, बचत का खयाल रखना, जरूरत और इच्छा में फर्क समझ कर गैरजरूरी खर्चों पर नियंत्रण रखना सिखाएं ताकि भविष्य में वे अपना घर अच्छी तरह चला सकें.

अमरूद की कारोबारी

लेखक: मदन कोथुनियां 

विश्व मानचित्र पर भले ही राजस्थान के सवाई माधोपुर की पहचान रणथंभौर राष्ट्रीय वन्य जीव अभयारण्य व गढ़ रणथंभौर की वजह से होती रही हो, लेकिन अब यहां की पहचान स्वादिष्ठ और मीठे रसीले अमरूदों के लिए भी होने लगी है. सवाई माधोपुर जिला अमरूदों के बागों की धरती के रूप में विश्व मानचित्र पर अपनी धाक जमा चुका है.

सवाई माधेपुर जिले में पैदा होने वाले अमरूदों का फुटकर बाजार तकरीबन 10,000 किसानों की आमदनी का बेहतरीन जरीया सिर्फ अमरूद है. यहां की अर्थव्यवस्था में सिरमौर रहे रणथंभौर पर्यटन व्यवसाय को पछाड़ कर अमरूद का कारोबार पहले स्थान पर आ गया है.

गौरतलब है कि पर्यटन के लिहाज से साल 2018 में कुल 37,134 पर्यटक सवाई माधोपुर में आए थे. 6,000 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च के हिसाब से पर्यटन महकमे को महज 222 करोड़ रुपए की आमदनी हुई थी.
एक पक्के बीघा में 150 से 200 अमरूदों के पेड़ लगे हुए हैं. जिले में फल दे रहे अमरूदों के पौधों की तादाद तकरीबन 40 लाख है. एक पौधा औसतन 100 से 125 किलोग्राम अमरूद की उपज देता है यानी जिले में 40 करोड़ किलोग्राम अमरूद का उत्पादन हो रहा है. यहां के अमरूद की औसतन फुटकर कीमत
25 रुपए किलोग्राम आंकी गई है. इस हिसाब से जिले में अमरूद का रिटेल कारोबार 10 अरब रुपए के आसपास पहुंच चुका है.

जिले के उद्यान महकमे के मुताबिक, इस साल यानी 2019-20 में जिले में 1,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा इलाके में अमरूदों के बाग लगाए गए हैं. इस से आने वाले 3-4 सालों में अमरूद के बागों का क्षेत्रफल और कारोबार सवा से डेढ़ गुना बढ़ने का अनुमान है.

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गौरतलब है कि देश का 60 फीसदी अमरूद केवल राजस्थान में पैदा होता है. इस 60 फीसदी का भी 75-80 फीसदी हिस्सा केवल सवाई माधोपुर जिले का है.

कुल मिला कर देश का 80 फीसदी अमरूद अकेला सवाई माधोपुर जिला पैदा कर रहा है. मालूम हो कि विश्व में सब से ज्यादा अमरूद भारत में पैदा होता है.

उद्यान महकमे के सर्वेयर अरविंद कुमार का कहना है कि अमरूद यहां के किसानों की पहचान बन चुका है.  पहले यहां के किसान रबी और खरीफ की कमरतोड़ मेहनत के बाद मुश्किल से पेट भरने व आजीविका चलाने का जुगाड़ कर पाते थे, पर अब अमरूदों के दम पर वे मोटी कमाई कर पा रहे हैं.
अब तमाम किसान बगीचों की अहमियत समझ चुके हैं. अब हर वंचित किसान भी इस की ओर आकर्षित हो रहा है. बहुत से किसानों की आज शहरी अमीरों जितनी आमदनी है. कुलमिला कर अमरूद का भविष्य सुनहरा है.

गौरतलब है कि तकरीबन 3 दशक पहले महज 5 बीघा बगीचे से शुरू हुई अमरूदों की पैदावार अब 8,000 से भी ज्यादा क्षेत्रफल में हो रही है. साल 1985 में सब से पहले करमोदा के बाशिंदे याकूब अली ने 5 बीघा जमीन पर अमरूद का बगीचा लगाया था. सवाई माधोपुर में उन्हें अमरूदों के बागों का जनक माना जाता है. यहां के अमरूद इसलिए करमोदा के नाम से भी मशहूर हैं.

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यहां अमरूद का बगीचा ज्यादा आसान और ज्यादा फसल देने वाला साबित हो रहा है. ज्यादातर किसान सालभर पौधों की देखभाल करते हैं और फूल आने के साथ ही बगीचा ठेके पर दे देते हैं. ठेकेदार ज्यादा बड़े पेड़ का 2,500 से 3,000 और मध्यम पेड़ का 1,500 से 2,000 रुपए भुगतान करते?हैं. पेड़ से फल तोड़ कर मंडी में पहुंचाना या आगे बेचने का काम खुद ठेकेदार ही करता है. औसतन किसान एक बीघा के बगीचे से तकरीबन डेढ़ लाख से 2 लाख रुपए सालाना कमा पा रहा है.

अमरूद के थोक कारोबारियों के मुताबिक, सवाई माधोपुर के अमरूदों की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. यहां जैसा स्वादिष्ठ व मीठा अमरूद दूसरी जगह पैदा नहीं हो रहा है.

यहां के अमरूदों का आकार और स्वाद दूसरी मिट्टी में पैदा होने वाले अमरूदों से अलग है. यही वजह है कि यहां के अमरूदों की खाड़ी देशों तक में खासी मांग बनी रहती है.

यहां पैदा होने वाले अमरूदों में सब से ज्यादा बरफ खान गोला, एल 49, सफेदा व इलाहाबादी किस्म के अमरूद पैदा होते हैं, जो पेड़ से टूटने के 8-10 दिन तक बिना किसी नुकसान के रह जाते हैं.

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यहां का अमरूद जयपुर, कोटा, दिल्ली व मुंबई की बड़ी मंडियों में जा रहा है. थोक कारोबारी इन को यहां से खरीदने के बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र समेत खाड़ी देशों तक पहुंचा रहे हैं.

गरबा स्पेशल 2019: ऐसे बनाएं दही बड़ा विद पनीर सिंघाड़ा

त्योहारों का सीजन चल रहा है. अगर आप कुछ स्पेशल डिश बनाना चाहते हैं तो दही बड़ा विद पनीर सिंघाड़ा बना सकते है. ये बहुत ही टेस्टी रेसिपी है. तो देर किस बात की, झट से बताते हैं इसे बनाने का तरीका.

सामग्री

पनीर आधा कप

सिंघाड़े का आटा एक कप

1 कप उबले मैश आलू,

1 स्पून अदरक पिसा हुआ

दरदरे पिसे काजू पाव कटोरी

1 बारीक कटी हरी मिर्च

2 कप फेंटा दही

सेंधा नमक

शक्कर

जीरा पावडर

अनारदाने

तलने के लिए पर्याप्त मात्रा में तेल.

मोरधन चावल का फलाहारी उपमा

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बनाने की विधि :

सबसे पहले पनीर को कद्दूकस करके इसमें आलू, काजू, किशमिश, हरी मिर्च, अदरक व सेंधा नमक मिला लें. उसके छोटे-छोटे गोले बना लें.

अब सिंघाड़े के आटे का घोल बनाएं. बड़ों को इस घोल में डुबोकर गरमा-गरम तेल में सुनहरे तल लें. दही में शक्कर मिला लें. अब एक प्लेट में भल्ला परोस कर दही, जीरा पावडर व अनारदाने से सजाकर पेश करें.

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ब्रेस्ट रैशेज से राहत पाने के लिए अपनाएं ये 5 होममेड टिप्स

अक्सर महिलाओं को रैशेज की समस्या हो जाती है. पर ये  परेशानी का सबब बन जाते हैं. रैशेज होने के कई कारण होते हैं.

जैसे-  ब्रा का ज्यादा टाइट होना, पसीना, फंगल इंफेक्शन आदि. लेकिन  इस समस्या से आप राहत पा सकते हैं. इसके लिए आप ये खास घरेलू टिप्स  अपना सकते हैं. तो चलिए जानते हैं ये खास घरेलू टिप्स.

  1. आइस पैक

रैशेज में होने वाली जलन से आइस पैक के जरिए तुरंत राहत पाई जा सकती है. एक कपड़े में चार आइस क्यूब्स लें और उसे प्रभावित हिस्से पर रखें. यह तरीका न सिर्फ जलन की समस्या बल्कि रैश के आकार को भी छोटा कर देगा.

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2. ऐलोवेरा जेल

ऐलोवेरा जेल रैशज या जलन की समस्या में तुरंत राहत देता है. चाहे तो आप इस जेल को बाजार से खरीद सकती हैं या फिर अगर आपके घर में ऐलोवेरा है तो उसे दो हिस्सों में काटकर स्पून से जेल निकालते हुए उसे प्रभावित हिस्से पर लगा सकती हैं.

3. हल्दी

एक बोल में दो टेबलस्पून चम्मच हल्दी लें और इसमें एक टेबलस्पून गुलाब जल मिलाएं. इस पेस्ट को रैशेज वाले हिस्से पर लगाएं और उस पर कोई कपड़ा या पट्टी बांध लें. रातभर इसे लगे रहने दें और सुबह धो लें.

4. ग्रीन टी

अगर रैशज का कारण पसीन या इंफेक्शन है तो ग्रीन टी बैग को ठंडे पानी में डुबाएं और फिर पानी निकालते हुए बैग को रैशेज पर रखें. दो ही दिन में आपकी रैशेज वाले हिस्से पर बहुत राहत महसूस होगी.

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5. शहद

एक बोल में तीन टेबलस्पून शहद लें और उसमें दो टेबलस्पून गुलाबजल मिलाएं. इस मिक्स को हल्के हाथ से रैशेज पर लगाएं और एक घंटे बाद गीले कपड़े से मिक्स को साफ कर लें.

कापीराइट एक्ट का उल्लंघन करने का हक किसी को नहीं है: प्रवीण मोरछले

बौलीवुड में दूसरे लेखक की कहानी को हड़प कर फिल्म बना लेना,दूसरी सफल फिल्मों की कहानी चुराकर फिल्म बनाना आम बात हो गयी है.अब तक कई फिल्मकारों पर आरोप लगते हैं.कुछ दिन पहले प्रदर्शित फिल्म‘‘साहो’’पर एक फ्रेंच फिल्म निर्देशक ने आरोप लगाया. पर इन मोटी चमड़ी वाले भारतीय फिल्मकारों पर कोई असर नहीं होता. अब फिल्म ‘‘बाला’’ के निर्माता पर भी चोरी का इल्जाम लगा है. निर्माता दिनेश वीजन व ‘जियो स्टूडियो’ की फिल्म ‘‘बाला’’ में आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर, यामी गौतम, जावेद जाफरी जैसे कलाकार हैं. मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्मकार प्रवीण मोरछले ने जब फिल्म ‘‘बाला’’ के निर्माताओं को अपनी ‘‘मिस्टर योगी’’ कहानी को चुराने का आरोप लगाते हुए कानूनी नोटिस भेजी, तो फिल्म ‘‘बाला’’के निर्माता ने इस नोटिस का जवाब देने की बजाय आनन फानन में अपनी फिल्म की शूटिंग कर डाली. और अब यह फिल्म 15 नवंबर को सिनेमाघरों में पहुंचने वाली है.

‘बाला’के निर्माता के इस रवैये को देखते हुए अंततः प्रवीण मोरछले ने फिल्म ‘बाला’ के निर्माता व अभिनेता आयुष्मान खुराना के खिलाफ ‘‘कौपीराइट एक्ट’’ के उल्ल्ंघन का आरोप लगाते हुए मुंबई हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. हमने इसी मसले पर प्रवीण मोरछले से ‘‘एक्सक्लूसिव’’बातचीत की.

आपको फिल्म ‘‘बाला’’ के निर्माता के खिलाफ अदालत जाने का कदम क्यो डठाना पड़ा?

मैं इस साल की शुरूआत से ही अपनी कश्मीर पर आधारित नई फिल्म ‘‘विडो आफ सायलेंस’’को लेकर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में घूम रहा था. मई 2019 में जब मैं मुंबई आया, तो मैंने एक दिन अखबार में पढ़ा कि ‘‘प्री मैच्योर बाल्डिंग मतलब कम उम्र में बाल गिरने की कहानी’’ पर एक फिल्म ‘बाला’ बना रही है. जिसमें व्यंग भी है. तो मुझे एकदम से झटका लगा. क्योंकि इस विषय पर मैंने 2005 में ‘‘मिस्टर योगी’’नामक कहानी लिखकर ‘राइटर्स एसोसिएशन’ में रजिस्टर्ड कराया था. उसके बाद इस पर फिल्म बनाने के लिए मैंने बौलीवुड में कई बार कई लोगों को कहानी सुनायी थी. मेरी इस कहानी की जानकारी मेरे दोस्तों को भी है. मेरे दोस्त जानते हैं कि एक न एक दिन मैं इस फिल्म को बनाऊंगा. जो कि हर किसी को पसंद भी आएगी. खबर पढ़ने के बाद मैंने खोजबीन की.

औनलाइन जो कुछ पढ़ा, उससे यह पक्का हो गया कि यह कहानी लगभग लगभग वही है, जो मैंने 2005 में लिखी थी.तब मैंने कानूनी सलाहकार से बातकर फिल्म ‘‘बाला’’ के निर्माता को कानूनी नोटिस भेजी.उनेहोंने कहा कि हमें कुछ समय दीजिए. उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया. तो एक माह बाद रिमाइंडर भेजा कि आप जल्दी जवाब दें, यह कापीराइट का मसला है. जिस तरह से हमारी फिल्म इंडस्ट्री में होता, कापीराइट के मसले को बहुत हल्के तरीके से लिया जाता है.

आपकी कहानी का शीर्षक क्या था, जिस पर फिल्म‘‘बाला’’बन रही है?

मैंने 2005 में यह कहानी लिखनी शुरू की थी. मैंने अपनी कहानी का रजिस्ट्रेशन ‘‘मिस्टर योगी’’ के नाम से कराया था. यह कहानी इक्कीस बाइस साल के युवक की है. उसके सिर के बाल गिर रहे हैं और उसकी पूरी जिंदगी उसके बाल गिरने और बचाने के पीछे घूमती है. वह किस तरह से बाल बचाने का प्रयास करता है. क्या-क्या उपाय करता है, किन परिस्थितियों से उबरता है. किस तरह की सिच्युएशन में फंस जाता है. यही सब हमारी कहानी में है. जो कि बहुत ही सटायर रीयल सोशल कहानी थी. कौमेडी फिल्म थी. जब मैंने लोगों को यह कहानी सुनायी थी,तो लोगों ने मुझसे कहा-‘अरे यार, ऐसी फिल्म तो नहीं चलती.’ तो मुझे लगा था कि मैंने समय से बहुत पहले ही इस फिल्म को लिख दिया था. उस समय लोग इस बारे में सोचते भी नहीं थे. तब तो मल्टीप्लैक्स भी नहीं थे.

मैं अपने लेखन में समय से पहले ही नयापन ले आया था. मेरी ज्यादातर कहानियां बहुत अलग होती है. मेरी दूसरी दो कहानियों पर भी हिंदुस्तान में फिल्में बन चुकी हैं. इनमें बड़े स्टार कलाकार थे. उस वक्त मैं चुप रहा. अब तीसरी बार हुआ है. इस बार पीछे नही हटूंगा.

उनका जिक्र करना चाहेंगे?

जी नहीं. क्योंकि जो हो गया,वह हो गया. अब उन पर बात करना कोई मतलब नहीं है. यदि उसी समय कुछ कदम उठाया होता,तो आज नाम ले सकता था.जबकि वह फिल्में ‘100 करोड़ क्लब’ का हिस्स बनी.

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फिल्म‘‘बाला’’के निर्माता ने आपके द्वारा भेजी गयी कानूनी नोटिस का जवाब दिया नहीं?

फिल्म‘बाला’के निर्माताओं के लिए लेखक और उसके आइडिया की लगभग कोई वैल्यू नहीं है. हमने उन्हें दूसरी बार नोटिस भेजी, तब उन्होंने जवाब दिया कि उनकी फिल्म मौलिक है. तब मुझे लगा अब मुझे ‘कापीराइट एक्ट’ के इस मसले को अदालत में ले जाना चाहिए. क्योंकि यह बहुत जरूरी है कि एक लेखक की मौलिक सोच, मौलिक आइडिया या पटकथा या कहानी को निश्चित रूप से एक मुकाम मिलना चाहिए. बौलीवुड में तो हमेशा कापीराइट को बहुत हल्के ढंग से लिया जाता है. यह एक बहुत बड़ा मिसकंसेप्शन चलाया जाता रहा है कि,‘जब आपने मुझे कहानी नही सुनायी, तो मैंने आपकी कहानी कैसे चुरायी.’ मान लीजिए आपने मुझे कहानी नही सुनाई, तो मैं कैसे आपकी कहानी चुरा सकता हूं. क्योंकि मान लीजिए दो इंसानों को एक ही आइडिया आ जाए, तो फिर पहले किसका हक माना जाएगा. तो फिर जिसकी आइडिया पहले आयी,उसको जाना चाहिए. जी हां या तो फिर दोनों में कितनी समानता है, इसे तय करना पड़ेगा.लेकिन चोरी जैसा इल्जाम तो तब होता,जब मैं सीधे कहूं कि मैंने आपको कहानी सुनायी और आपने मुझे बिना बताए उसे छाप दिया. मेरा कहना है कि यह कापीराइट का उल्लंघन ही माना जाएगा, यदि मैंने अपनी कहानी, अपनी आइडिया पहले लिखा और उसे लेखक संघ में रजिस्टर्ड किया है. दूसरी बात मैंने यह कहानी बौलीवुड से जुड़े कम से कम सौ लोगों को सुनाई है. तो मुझे लगा कि बौलीवुड में कहीं ना कहीं कोई ना कोई आदमी एक दूसरे से जुड़ा ही रहता है. मैंने किसी को कहानी सुनाई,उसने आपको सुना दी हो. फिर आपने सोचा कि इस पर काम किया जाए. मुझे तो यह सब मालूम नहीं है. इसलिए अदालत को इस मसले पर निर्णय लेने देते हैं. मुझे अदालत पर पूरा भरोसा है. अदालत का जो भी निर्णय आएगा, वह लेखक व कौपीराइट कानून दोनों के लिए बेहतर होगा. उनके लिए बहुत ही फायदेमंद होगा.
यह कहना कि हमसे मिले नहीं, आपने हमको कहानी नहीं सुनाई थी, इसलिए हम गलत नही है. कहना ही गलत है. गलत तरीके से लोग बातें फैला रहे हैं. कापीराइट एक्ट का मतलब यह नहीं है. कापीराइट एक्ट का मतलब है कि माने लीजिए मैंने लिखा. हमारे पास हजार शब्द है, मैंने इन हजार शब्द को एक अलग ढंग से व्यवस्थित कर दूं, अरेंज कर दूं, तो एक कविता बन जाएगी. वह कविता मेरी रचना होगी. शब्द मेरे नहीं है. उसी तरह से जो आप का स्क्रीनप्ले होगा, जो आपकी कहानी होगी, वह मेरा कापीराइट है. तो देखते हैं कि अब कोर्ट क्या बोलता है.

आप इस मामले को लेकर अदालत कब पहुंचे?

मैंने उनको नोटिस देने के बाद दो माह तक उनके जवाब का इंतजार किया. 28 अगस्त को हम लोगों ने हाई कोर्ट में अप्रोच किया और हमने अपने वकील के माध्यम से केस दायर कर दिया.

अभी इसमें कोई प्रगति हुई है या नहीं हुई है?

नहीं…अभी तो अदालत में मामला गए हुए 10 दिन ही हुए हैं.अदालत की एक कार्यशैली है. वह सामने वालों को नोटिस भेजेगी. उनका जो भी कानूनी प्रोसेस है,वह होगा.

बौलीवुड से जुड़े लोगों का संघ राइटर्स एसोसिएशन है. वह इस मामले में ढीली क्यों रहती है. कभी भी लेखक का साथ दे नहीं पाती है?

अगर आप ध्यान से देखेंगे, तो राइटर एसोसिएशन की अपनी सीमाएं हैं. उनका काम है, जिस दिन हम अपनी कहानी या पटकथा लेकर उनके पास रजिस्ट्रड कराने गए, तो वह उस पर एक स्टैंप लगा तारीख लिखकर हमें वापस दे देते हैं. इसके बाद उनका काम खत्म. मगर ऐसा सिस्टम राइटर्स एसोसिएशन मे होना चाहिए, जिससे इस तरह के कौपीराइट के मसले अदालत के बाहर भी सुलझाए जा सकें. मान लीजिए मैंने कहा कि यह मेरी कहानी है. एक अन्य लेखक ने दावा किया कि यह उनकी कहानी है. ऐसे में राइटर्स एसोसिएशन एक पैनल बनाए. यह पैनल दोनों की कहानी को पढ़़कर आदेश जारी करे. यदि पूरे पांच दृश्य में से एक भी दृश्य मिलता है, तो आप कौपीराइट के निशाने पर आ जाते हैं. यदि दोनो में कोई समानता नही है तो कोई समस्या ही नही है. अदालत तक जाने की नौबत ही न आए.

अदालत का रूख करने से पहले आपने राइटर्स एसोसिएशन में बात की थी?

नहीं…मुझे लगा कि पहले भी ऐसे कई केस हुए हैं,जहां राइटर्स एसोसिएशन ने अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा कि,‘हम क्या कर सकते है. अगर आपको किसी तरह का कोई औब्जेक्शन है,तो यह कानूनी मसला बनता है.’ मुझे ऐसा लगता है कि राइटर एसोसिएशन भी इस मुद्दे पर ज्यादा रूचि नहीं लेना चाहता.

अक्सर होता यह है कि लोग फिल्म की पूरी शूटिंग करते हैं. फिर अदालत में कह देते हैं कि हमारी फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है. उस अदालत के भी हाथ बंधे होते हैं. तक कुछ दंडस्वरुप रकम के साथ मामला रफा दफा हो जाता है.

जी हां! ऐसा होता है,मगर यह गलत तरीका है.

तो इस मामले में आप अदालत के सामने किस तरह की मांग रखेंगें ?

जब इनकी शूटिंग शुरू होने वाली थी, तभी हमने इन्हें नोटिस दी थी. मैंने निवेदन किया था कि यह कहानी आपकी नहीं मेरी है, इसलिए शूटिंग न करें. और आगे किसी भी तरह की गतिविधि इस फिल्म को लेकर न करें. मैंने जिस दिन इन्हें कानूनी नोटिस भेजी, उसी दिन मेरा केस रजिस्टर्ड हो गया. मैंने साफ साफ कहा था कि आप आगे न बढ़े. इनको उसी वक्त शूटिंग करने की बजाय हमसे इस मसले को निपटाना चाहिए था. पर इन्होंने हमारी कानूनी नोटिस को महत्व ही नही दिया. तो यह उनकी गलती है. खैर,हमें तो यह देखना है कि अब हमसे अदालत क्या कहती है. पर उनका अदालत में जाकर यह कहना कि उन्होंने फिल्म की शूटिंग कर ली है या उनकी फिल्म सिनेमाघरों में पहुंचने वाली है, हमने कई करोड़ रूपए इस पर खर्च कर दिए हैं. मायने नही रखना चाहिए.

वास्तव में हमारे देश में ‘कौपीराइट एक्ट’को बहुत आसानी से लिया जाता है. विदेशों में तो इसका बहुत कठोरता से पालन होता है. विदेश में आप एक करोड़ लगाएं या सौ करोड़ या हजार करोड़ रूपए लगाएं.

यदि आपने अपनी फिल्म किसी लेखक की आइडिया से प्रेरित होकर बनाया है, यह उससे मिलती जुलती आइडिया पर उसको बनाया है, तो कापीराइट एक्ट के तहत आप दोषी हैं. वहां यह नहीं देखा कि गलती करने वाले ने कितना खर्च/इंवेस्ट किया है.क्योंकि जिसने लिखा था, या जिसकी स्क्रिप्ट है और जिसका कौपीराइट है,वह भी कल को इस पर हजार करोड़ की फिल्म बना सकता था. उसके लिए ऐसा क्यों माना जाए कि वह नहीं बना सकता है या नहीं बना पाएगा.

आपने किसी अन्य के सपने को तोड़ने की कोशिश की है. तो अदालत इस बात को भी देखेगी. मुझे लगता है कि हिंदुस्तान की कोर्ट दोनों पक्षों का हित रखा जाएगा . लेकिन अगर ऐसे तत्व मिलते हैं जिनसे कापीराइट एक्ट का उल्लंघन किया हुआ है,तो कठोर निर्णय सुनाया जाएगा.

हमारे देश में कौपीराइट के मुकदमों को सिर्फ पब्लिसिटी स्टंट मानकर छोड़ दिया जाता है. कुछ समय बाद लोग भूल जाते हैं.

इसी परंपरा को तोड़ना है.बौलीवुड के फिल्म निर्माता हर बार एक ही बात कहते हैं कि अब तो हमने करोड़ों रूपए खर्च कर फिल्म बना दी. तो अब हम क्या करें. हमारा नुकसान हो जाएगा? इस बहाने पर रोक लगाना जरुरी है.

दूसरी बात यह तो हमसे कभी मिलने नहीं आए,इसलिए इन्होंने हमे कभी अपनी कहानी सुनाई नहीं. तो फिर हमने इनका आइडिया कैसे लिया? इस तरह की बहाने बाजी पर भी पूर्ण विराम लगवाना जरुरी है. आप मुझे बताएं, आज अगर मैं विलियम शेक्सपियर की किताब पर फिल्म बना डालूं और फिर कहूं कि मैं तो विलियम शेक्सपिअर से कभी मिला ही नहीं. मैं तो अपने जीवन में लंदन ही नहीं देखा. तो उसका गुनाह माफ. क्या संसार के किसी भी लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनाकर इस तरह की बहाने बाजी करने का आपका जन्मसिद्ध अधिकर है.

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मान लीजिए, हौलीवुड की किसी फिल्म को देखकर कापी कर दो और फिर दावा करो कि आप अमरीका नही गए, आप कभी इस फिल्म के कलाकार या निर्देशक से नही मिले.

इसी तरह से जो भ्रांति फैला दी गई है कि कौपीराइट एक्ट का उल्लंघन तभी होता है,जब प सामने वाले से मिल चुके होते हैं,गलत है. पीराइट एक्ट का मतलब ही होता है कि मैंने लिखा है,आपने कहां से सुना है,उससे मतलब नहीं है.इससे फर्क नहीं पड़ता है.

हमारे देश में कहानियों का भंडार है फिर भी सिर्फ पैसे के लिए आप इतना सब कुछ करते जाएं, किसी भी नियम कानून को ना माने, यह तो बहुत गलत है.

इसीलिए शायद आज इंडस्ट्री की यह हालत है. बामुश्किल में 12 फिल्में सफल हो पा रही हैं. अगर सिनेमा सिनेमाघर थिएटर देखने नहीं जा रहे हैं, इसके लिए फिल्मकार ही जिम्मेदार हैं. यदि आप किसी एक ही चीज को साइकल करते रहेंगे. ल्म की नकल करते रहेंगे,कुछ नया नही देंगे,आप अपना खुद का कुछ नया नहीं सोचेंगे,तो निश्चित रूप से आप अपनी इंडस्ट्री को ही नुकसान पहुंचा रहे हैं.

लेकिन बौलीवुड के फिल्मकारों की ऐसी प्रवृत्ति क्यों हो गई है? कुछ दिन पहले फ्रेंच निर्देशक ने भी फिल्म ‘‘साहो’’पर उनकी फिल्म की कहानी ज्यों की त्यों चुराने का आरोप लगाया?

यह शर्मनाक हरकत है. वास्तव में सभी असुरक्षा का शिकार है. यदि एक कहानी या फिल्म को थोड़ी सी सफलता मिल गयी,तो दूसरे लोग उसकी नकल करने की चूहा दौड़ में शामिल हो जाते हैं. यह सोच गलत है. यदि ऐसा होता, तो हम कभी नई कहानी पर फिल्म न बनाते. पर इसी गलत सोच के चलते हम नया सोचने, नई कहानी पर फिल्म बनाने का साहस नही दिखा पा रहे हैं. और अंत में हम लोग सारा दोष दर्शक को देते हैं.

जब स्टूडियो सिस्टम और मल्टीप्लेक्स शुरू हुए थे,तो लोगों को लगा था कि अब कुछ अच्छा काम होगा.लेकिन उसके बाद से ही चोरियां ज्यादा हो रही है?

क्योंकि अब सिनेमा सिर्फ 3 दिन, शुक्रवार, शनीवार व रवीवार के लिए बनता है. फिल्मकार सोचता है कि मेरी फिल्म ने तीन दिन कमाई कर ली, तो मेरा बेड़ा पार. जबकि मेरी राय में सिनेमा ऐसा बनना चाहिए, जो कि सदियों तक जीवित रहे. यदि हम पीछे मुड़कर देखेंगे,तो 50 व 60 व 70 के दशक की फिल्में, हम आज भी देखते हैं. हम उन फिल्मों पर बात करते हैं. क्योंकि वह कालजयी फिल्में हैं. अगर आपका सिनेमा 10 साल सरवाइव नहीं करता, तो वह सिनेमा है ही नहीं. पर यहां छह माह बाद ही फिल्म का नाम याद नहीं रहता. इसलिए इसे सिनेमा नही कहा जाना चाहिए.

फिल्म‘‘बाला’’के निर्माता तो नवंबर माह में फिल्म को प्रदर्शित करने की तैयारी कर रहे हैं?

हम इस पर अदालत से रोक लगाने के लिए निवेदन करेंगे.

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: कस्टडी केस जीतने के लिए कार्तिक, नायरा को ब्लेम करेगा ?

स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाला मशहूर सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में लगातार महाट्विस्ट चल रहा है. इस सीरियल की कहानी एक नयी मोड़ ले रही है. कार्तिक और नायरा के बीच कायरव के कस्टडी केस को लेकर महासंग्राम चल रहा है. इधर कायरव नायरा से पूछता है कि वो घर कब जाएगा?

तो उधर वेदिका, कार्तिक से सौरी बोलती है और चाय पीने को कहती है लेकिन वो मना कर देता है. वो कार्तिक से सोने को भी कहती है लेकिन उस बिस्तर पर वेदिका को बैठा देख कार्तिक वहां से चला जाता है. वेदिका सोचती है कि काश ऐसा होता कि नायरा ये केस जीत जाती और वो कायरव को लेकर यहां से दूर कहीं चली जाती.

कार्तिक अपने पापा और चाचा के साथ वकील से मिलने जाता है. वकील दामिनी मिश्रा कार्तिक से वादा करती है कि वो ये केस जिता देगी लेकिन उसकी शर्त ये है कि उससे कोई कुछ सवाल नहीं पूछेगा. और वो ये भी कहती है कि आप बस फैसले का इंतजार कीजिए. प्रोसीजर क्या होगा इससे मतलब मत रखिए. उधर बाहर नक्ष दामिनी मिश्रा से मिलने के लिए इंतजार करता है, वहां दामिनी उसे देखकर कहती है कि आपने लेट कर दिया है, मैंने कार्तिक को हां कह दिया है.

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नक्ष वापस लौटता है और दूसरा वकील हायर कर लेता है. वह नायरा को बताता है कि दामिनी मिश्रा, कार्तिक की तरफ से लड़ रही है. नायरा थोड़ा उदास होती है लेकिन नक्ष से कहती है कि इस केस को थोड़ा डिले करने की कोशिश करना. जिससे मुझे कार्तिक को समझाने का मौका मिल जाए. तभी कार्तिक का कौल आ जाता है वो नायरा से कहता है कि कल 11 बजे फैमिली कोर्ट में मिलो. नायरा उसे समझाने की कोशिश करती है लेकिन कार्तिक फोन काट देता है.

कार्तिक के पास दामिनी मिश्रा का वीडियो कौल आता है वो उनसे कहती है कि जो मैं कहूंगी वही कोर्ट में बोलना होगा, लेकिन कार्तिक मना कर देता है लेकिन वो कहती है कि अगर केस जीतना है तो ऐसा करना पड़ेगा. वो परेशान हो जाता है कि कोर्ट में वो क्या बोलेगा? वो किसी भी तरह नायरा को ब्लेम नहीं करना चाहता है.

तो दूसरी ओर वेदिका उसकी मदद के लिए आती है लेकिन कार्तिक उसे ये कहकर जाने को कह देता है कि वो उसे परेशान ना करे.

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अपकमिंग एपिसोड में देखना ये दिलचस्प होगा कि दामिनी मिश्रा के कहने पर कार्तिक नायरा को ब्लेम करता है या नहीं.

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