सेक्सोफोन का जिस तरह फिल्मों में उपयोग हुआ और संगीत की तान गूंज उठी तो जनता जनार्दन उसकी दीवानी हो गई फिल्मी दुनिया के महान संगीतकार सचिन देव बर्मन यानी एसडी बर्मन ने सेक्सोफोन का अपने संगीत में अनेक फिल्म मे उपयोग किया और लोगों ने उसका लोहा माना. इन छत्तीसगढ़ में शहर दर शहर सैक्सोफोन के विराट कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं जिसके पीछे पत्रकार राजकुमार सोनी का अहम योगदान है. सबसे बड़ी बात यह है कि राजधानी रायपुर एवं दुर्ग के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्वयं उपस्थित होकर सेक्सोफोन की स्वर लहरियों का आनंद लेने से नहीं चूके. प्रस्तुत है सेक्सोफोन की अजब गजब कहानियों से बुनी हुई एक रिपोर्ट-
सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही मुरीद नहीं है. इस मदहोश करने वाले वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की ताकत शायद आज भी बरकरार है. अगर आप यह जानने के इच्छुक है कि यह हिम्मत और ताकत इस जिद्दी वाद्ययंत्र को बजाने वालों ने कैसे जुटाई थी तो आगामी रविवार 13 अक्टूबर 2019 की शाम ठीक साढ़े पांच बजे कला मंदिर सिविक सेंटर भिलाई में आप इस आयोजन के साक्षी अवश्य बनिए. यहां यह बताना जरूरी है कि यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है. इसके स्वर में कोमलता, उत्तेजना, उन्मुक्तता, जुनून और स्व्छंदता है…तो आंसू, उदासी और विद्रोह का जबरदस्त तेज भी मौजूद है.अपना मोर्चा डौट कौम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम इसके पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हो चुका है और जबरदस्त ढंग से सफल भी रहा है. इस कार्यक्रम की अब गूंज विदेशों तक जा पहुंची है. इस बार भिलाई में होने वाले खास आयोजन के मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल होंगे. सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर पिंटू, लीलेश कुमार और सुनील कुमार जानदार और शानदार गीतों की धुन पर धमाल मचाएंगे.फिल्म समीक्षक अनिल चौबे पर्दे पर छोटी-छोटी क्लिपिंग के जरिए यह जानकारी देंगे कि फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता क्यों और किसलिए है ?
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सेक्सोफोन के अंदाज बयां कुछ और है
इस आकर्षक साज को बेल्जियम के एडोल्फ सेक्स ने बनाया था उनके पिता वाद्य यंत्रों के निर्माता थे. सेक्स का बचपन बहुत नारकीय स्थितियों में बीता , जब वह पांच साल का था तो दूसरी मंजिल से गिर गया. इस हादसे में उसका पैर टूट गया फिर बीमार हुआ. लंबे समय तक वह कमजोरी का शिकार रहा. एक बार उसकी मां ने यह तक कह दिया कि वह सिर्फ नाकामियों के लिए ही पैदा हुआ है. इस बात से दुखी होकर एडोल्फ सेक्स ने सल्फरिक एसिड के साथ खुद को जहर दे दिया. फिर कोमा में कुछ दिन गुजारे. जब वह कुछ उबरा तो उसने सेक्सोफोन बनाना प्रारंभ किया. सेक्सोफोन बन तो गया, लेकिन इस साज़ को किसी भी तरह के आर्केस्ट्रा या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. धीरे-धीरे ही सही यह वाद्य लोगों के दिलों में अपना असर छोड़ता चला गया . यह वाद्य जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ.
सेक्सोफोन की फिल्मी दुनिया में धूम
किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, सचिन देव बर्मन जैसे महान संगीतकार ने इसका अपने संगीत में इस्तेमाल किया. लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते बड़े से बड़े संगीतकार सेक्सोफोन बजाने वालों को हिकारत की नजर से देखने लगे. उनसे किनारा करने लगे. इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार इस वाद्ययंत्र पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी सेक्सोफोन को एक अनिवार्य वाद्य यंत्र मानने वाले लोग मौजूद है.अब भी संगीत के बहुत से जानकार यह मानते हैं कि दर्द और विषाद से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद अनिवार्य है. बेदर्दी बालमां तुझको… मेरा मन याद करता है… है दुनिया उसकी जमाना उसी का… गाता रहे मेरा दिल…हंसिनी ओ हंसिनी… सहित सैकड़ों गाने आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि इनमें किसी सेक्सोफोनिस्ट ने अपनी सांसे रख छोड़ी है. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है.
सेक्सोफोन पर लग चुका है प्रतिबंध
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के निवासी ( अब नागपुर ) कथाकार मनोज रुपड़ा ने सेक्सोफोन को केंद्र पर रखकर साज-नासाज नामक कहानी लिखी हैं. इस बहुचर्चित कहानी पर दूरदर्शन ने फिल्म भी बनाई है.
एक समय लेटिन अमेरिका के एक देश में जन विरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला था. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया.
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संगीत मे अद्भुत ताकत!
उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थी. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था. उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए .सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र असामाजिकऔर अराजक होने का आरोप था.
ठीक उसी तरह हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमान जनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जनवाद्य यंत्र है. उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल रही थी. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयाऔर वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी, लेकिन आखिरकार वे भी तो इंसान थे. तो हुआ ये कि उस धुन ने पुलिस वालों के दिलों को भी अपने वश में कर लिया में कर लिया और वे भी भाव विभोर हो गए.
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हृदय को स्पर्श करने वाली स्वर लहरियां
अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी ? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थी. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे , या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खींचे चले आते थे. अब जरा सोचिए कि हिटलर पूरे पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए तब क्या होगा .