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सेक्सोफोन का अनोखा आकर्षण

सेक्सोफोन का जिस तरह फिल्मों में उपयोग हुआ और संगीत की तान गूंज उठी तो जनता जनार्दन  उसकी दीवानी हो गई फिल्मी दुनिया के महान संगीतकार सचिन देव बर्मन यानी एसडी बर्मन ने सेक्सोफोन का अपने संगीत में अनेक  फिल्म मे उपयोग किया और लोगों ने उसका लोहा माना. इन छत्तीसगढ़ में शहर दर शहर सैक्सोफोन के विराट कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं जिसके पीछे पत्रकार राजकुमार सोनी का अहम योगदान है. सबसे बड़ी बात यह है कि राजधानी रायपुर एवं दुर्ग के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्वयं उपस्थित होकर सेक्सोफोन की स्वर लहरियों का आनंद लेने से नहीं चूके. प्रस्तुत है सेक्सोफोन की अजब गजब कहानियों से बुनी हुई एक रिपोर्ट-

सेक्सोफोन की दुनिया यूं ही मुरीद नहीं है. इस  मदहोश करने वाले वाद्ययंत्र में दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह की हुकूमत को चुनौती देने की ताकत शायद  आज भी  बरकरार है. अगर आप यह जानने के इच्छुक है कि यह हिम्मत और ताकत इस जिद्दी वाद्ययंत्र को बजाने वालों ने कैसे जुटाई थी तो  आगामी  रविवार 13 अक्टूबर 2019 की शाम ठीक साढ़े पांच बजे कला मंदिर सिविक सेंटर भिलाई में आप इस आयोजन के साक्षी अवश्य बनिए. यहां यह बताना जरूरी है कि यह साज़ एक साथ कई एक्सप्रेशन की ताकत रखता है. इसके स्वर में कोमलता, उत्तेजना, उन्मुक्तता, जुनून और स्व्छंदता है…तो आंसू, उदासी और विद्रोह का जबरदस्त तेज भी मौजूद है.अपना मोर्चा डौट कौम और संस्कृति विभाग के सहयोग से आयोजित सेक्सोफोन की दुनिया कार्यक्रम इसके पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हो चुका है और जबरदस्त ढंग से सफल भी रहा है. इस कार्यक्रम की अब गूंज विदेशों तक जा पहुंची है. इस बार भिलाई में होने वाले खास आयोजन के मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री  भूपेश बघेल होंगे. सेक्सोफोनिस्ट विजेंद्र धवनकर पिंटू, लीलेश कुमार और सुनील कुमार जानदार और शानदार गीतों की धुन पर धमाल मचाएंगे.फिल्म समीक्षक अनिल चौबे पर्दे पर छोटी-छोटी क्लिपिंग के जरिए यह जानकारी देंगे कि फिल्मों में सेक्सोफोन की उपयोगिता क्यों और किसलिए है ?

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सेक्सोफोन के अंदाज बयां कुछ और है

इस आकर्षक साज को बेल्जियम के एडोल्फ सेक्स ने बनाया था उनके पिता  वाद्य यंत्रों के निर्माता थे. सेक्स का बचपन बहुत  नारकीय स्थितियों में बीता , जब वह पांच साल का था तो दूसरी मंजिल से गिर गया. इस हादसे में उसका पैर टूट गया फिर बीमार  हुआ. लंबे समय तक वह कमजोरी का शिकार रहा. एक बार उसकी मां ने यह तक कह दिया कि वह सिर्फ नाकामियों के लिए ही पैदा हुआ है. इस बात से दुखी होकर एडोल्फ सेक्स ने सल्फरिक एसिड के साथ खुद को जहर दे दिया. फिर कोमा में कुछ दिन गुजारे. जब वह कुछ उबरा तो उसने सेक्सोफोन बनाना प्रारंभ किया. सेक्सोफोन बन तो गया, लेकिन इस साज़ को किसी भी तरह के आर्केस्ट्रा या सिंफनी में जगह नहीं मिली. अभिजात्य वर्ग ने उसे ठुकरा दिया, लेकिन सेक्सोफोन बजाने वालों ने उसे नहीं ठुकराया. धीरे-धीरे ही सही  यह वाद्य लोगों के दिलों में अपना असर छोड़ता चला गया . यह वाद्य जितना विदेश में लोकप्रिय हुआ उतना ही भारत में भी मशहूर हुआ.

सेक्सोफोन की फिल्मी दुनिया में धूम

किसी समय तो इस वाद्ययंत्र की लहरियां हिंदी फिल्म के हर दूसरे गाने में सुनाई देती थीं, सचिन देव बर्मन जैसे महान संगीतकार ने इसका अपने संगीत में इस्तेमाल किया. लेकिन सिथेंसाइजर व अन्य इलेक्ट्रानिक वाद्ययंत्रों की धमक के चलते बड़े से बड़े संगीतकार सेक्सोफोन बजाने वालों को हिकारत की नजर से देखने लगे. उनसे किनारा करने लगे. इधर एक बार फिर जब दुनिया ओरिजनल की तरफ लौट रही है तब लोगों का प्यार इस वाद्ययंत्र पर उमड़ रहा है. ऐसा इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि बाजार के इस युग में अब भी सेक्सोफोन को एक अनिवार्य वाद्य यंत्र मानने वाले लोग मौजूद है.अब भी संगीत के बहुत से जानकार यह मानते हैं कि दर्द और विषाद से भरे अंधेरे समय को चीरने के लिए सेक्सोफोन और उसकी धुन का होना बेहद अनिवार्य है. बेदर्दी बालमां तुझको… मेरा मन याद करता है… है दुनिया उसकी जमाना उसी का… गाता रहे मेरा दिल…हंसिनी ओ हंसिनी… सहित सैकड़ों गाने आज भी इसलिए गूंज रहे हैं क्योंकि इनमें किसी सेक्सोफोनिस्ट ने अपनी सांसे रख छोड़ी है. छत्तीसगढ़ में भी चंद कलाकार ऐसे हैं जिन्होंने इस वाद्ययंत्र की सांसों को थाम रखा है.

सेक्सोफोन पर लग चुका है प्रतिबंध

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले  के निवासी  ( अब नागपुर ) कथाकार मनोज रुपड़ा ने सेक्सोफोन को केंद्र पर रखकर साज-नासाज नामक  कहानी  लिखी हैं. इस बहुचर्चित  कहानी पर दूरदर्शन ने  फिल्म भी बनाई है.

एक समय लेटिन अमेरिका के एक देश में जन विरोधी सरकार के खिलाफ लाखों लोगों का एक मार्च निकला था. सेक्सोफोन बजाने वालों की अगुवाई में लाखों लोगों की भीड़ जब आगे बढ़ी तो तहलका मच गया. अभिजात्य वर्ग को सेक्सोफोन की असली ताकत तब समझ में आई. फिर तो ये सिलसिला बन गया. हर विरोध प्रदर्शन में जन आक्रोश को स्वर देने और उसकी रहनुमाई करने की जिम्मेदारी को सेक्सोफोन ने बखूबी निभाया.

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संगीत मे अद्भुत ताकत!

उन्नीसवी सदी के प्रारंभ में जैज संगीत आया. जैज संगीत अफ्रीकी–अमेरिकी समुदायों के बीच से निकला था और उसकी जड़ें नीग्रो ब्लूज़ से जुड़ी हुई थी. जैज ने भी सेक्सोफोन को तहेदिल से अपनाया क्योंकि सेक्सोफोन चर्च की प्रार्थनाओं में ढल जाने वाला वाद्य नहीं था. उसकी आवाज में दहला देने की ताकत थी. खुद जैज अपने आप में एक विस्फोटक कला-रूप था. उसने अपनी शुरूआत से ही उग्र रूप अपनाया था. उसने थोपी हुई नैतिकता और बुर्जुआ समाज के खोखले आडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. बहुत जल्द वो समय आ गया जब सत्ता और जैज आमने–सामने आ गए .सत्ता का दमन शुरू हो गया तो यूएसएआर में 1948 में सेक्सोफोन और जैज म्यूजिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया. उसके ऊपर अभद्र असामाजिकऔर अराजक होने का आरोप था.

ठीक उसी तरह हिटलर के युग में जर्मनी में भी सेक्सोफोन और जैज पर  प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन हर तरह के दमन और अपमान जनक बेदखलियों के बावजूद सेक्सोफोन ने अपनी जिद नहीं छोड़ी क्योंकि वह एक बहुत हठीला जनवाद्य यंत्र है. उसी समय की एक बात है. घूरी रंगया के जंगल में एक बार एक गुप्त कंसर्ट चल  रही थी. इस बात की भनक पुलिस को लग गई और वे दलबल के साथ जंगल की तरफ बढ़े लेकिन  वहां हजारों की तादाद में संगीत सुनने वाले मौजूद थे. पुलिस को यह उम्मीद नहीं थी कि शहर से इतनी दूर जंगल में लोग इतनी बड़ी तादाद में संगीत सुनने जाते होंगे. संगीत की लहरों में झूमते हुए लोगों पर हवाई फायर का भी जब कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें बल प्रयोग करना पड़ा. भीड़ तितर-बितर हो गई.संगीत भी बजना बंद हो गया लेकिन तभी एक सेक्सोफोन बजाने वाला एक बहुत ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयाऔर वहां पेड़ के ऊपर सेक्सोफोन बजाने लगा. उसके इस बुलंद हौसले को देखकर पूरा जनसमूह फिर से जोश में आ गया. पुलिस ने भले ही पुलिस की वर्दी पहन रखी थी, लेकिन आखिरकार वे भी तो इंसान थे.  तो हुआ ये कि उस धुन ने  पुलिस वालों  के दिलों को  भी अपने वश में कर लिया में  कर लिया और वे भी भाव विभोर हो गए.

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हृदय को स्पर्श करने वाली स्वर लहरियां

अब यहां एक सवाल ये हो सकता है कि  इन साजिंदों के वादन में ऐसी क्या खास बात थी जो सत्ता को नागवार लगती थी ? न तो ये संगीतकार किसी जन आंदोलन से जुड़े थे न ही उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा थी. वे तो सिर्फ ऐसी धुनें रचते थे जो लोगों के दिलों पर छा जाती थी. प्रत्यक्ष रूप से वे किसी भी राजसत्ता का विरोध नहीं कर रहे थे , या उन्होने ये सोचकर संगीत नहीं रचा था कि किसी का विरोध करना है. दरअसल उनकी धुनों में ही कुछ ऐसी बात थी कि लोग दूसरी तमाम बातों को भुलाकर उनकी तरफ़ खींचे चले आते थे. अब जरा सोचिए कि  हिटलर पूरे  पूरे जोश-खरोश के साथ कहीं भाषण दे रहा है और लोग उसकी बातों से प्रभावित होकर हिटलर-हिटलर का जयकारा  कर रहे हैं और अचानक कहीं सेक्सोफोन बजने लगे और लोगों का ध्यान हिटलर से हटकर सेक्सोफोन की तरफ़ चला जाए तब क्या होगा .

घर और घाट : भाग 1

मूर्खतापूर्ण धारणाओं तथा पति के धनदौलत के नशे में चूर हो कर रीता ने अपने सगेसंबंधियों को खुद से बहुत दूर कर दिया था. लेकिन आकाश की मृत्यु के बाद उसे अपना यह कदम कितना महंगा पड़ा? ससुराल वालों को अपमानित करती बहू की कहानी पूर्णिमा गुप्ता द्वारा.

मेरे पति आकाश का देहांत हो गया था. उम्र 35 की भी नहीं हुई थी. उन्हें कोई लंबी बीमारी नहीं थी. बस, अचानक दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. अभी तक तो मित्रगण आते रहे थे, लेकिन पति के देहांत के बाद कोई नहीं आया. इस में उन का भी दोष नहीं. वहां की जिंदगी थी ही इतनी व्यस्त.

पहली 3 रातें मेरे साथ किरण सोई थी. अब से रातें अकेले ही गुजारनी थीं. शायद हफ्ता गुजरने तक दिन भी अकेले बिताने होंगे. क्या करूंगी, कहां रहूंगी, कुछ सोचा नहीं था.

यों तो कहने को मेरी ननद भी अमेरिका में ही रहती थीं लेकिन वह ऐसे मौके पर भी नहीं आई थीं. साल भर पहले कुछ देर के लिए आई थीं. तब मुझ से कह गई थीं, ‘रीता, आकाश बचपन से बड़ा विनोदप्रिय किस्म का है. तुम्हें दोष नहीं देती, लेकिन आकाश को कुछ हो गया तो भुगतोगी तुम ही. तुम लोगों की शादी को 10 बरस हो गए. देखती हूं पहले आकाश की हंसी जाती रही. फिर माथे पर अकसर बल पड़े रहने लगे. साथ ही वह चुप भी रहने लगा. 5 बरस से सिगरेट और शराब का सहारा भी लेने लगा है. रक्तचाप से शुरुआत हुई तनाव की. उस का कोलेस्ट्राल का स्तर ज्यादा है…’

मुझे तो लगता है उन को और कुछ नहीं था, बस, दीदी ही की टोकाटाकी खा गई थी. उन से मेरा सुख नहीं देखा गया था.

रहरह कर अतीत मेरे दिमाग में घूमने लगा. मैं ने दशकों से बहुओं के ऊपर होते हुए अत्याचारों को देखतेसुनते मन में ठान ली थी कि मैं कभी अपने ऊपर किसी की ज्यादती नहीं होने दूंगी. अगर आप जुल्म न सहें तो कोई कर ही कैसे सकता है. इस तरह समस्या जड़ से ही उखड़ जाएगी.

लेकिन मैं जैसी शरीर की बेडौल हूं वैसी अक्ल की भी मोटी हूं. मेरी लंबाई कम और चौड़ाई ज्यादा है. जहां तक खूबसूरती का सवाल है, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ होगी ही वरना क्यों आकाश जैसा खूबसूरत नौजवान, वह भी अमेरिका में बसा हुआ सफल इंजीनियर, मुझ 18 बरस की अल्हड़ को एक ही बार देख पसंद कर लिया था. ऊपर से उन्होंने न तो दहेज की मांग की थी, न ही खर्च की नोकझोंक हुई थी.

मेरे मांबाप भी होशियार निकले थे. उन्होंने एक बार की ‘हां’ के बाद आकाश और उस के कितने रिश्तेदारों के कहने पर भी उन्हें एक और झलक न मिलने दी थी. मां ने कह दिया था, ‘शादी के बाद सुबहशाम अपनी दुलहन को बैठा कर निहारना.’

डर तो था ही कि कहीं लेने के देने न पड़ जाएं. मां ने शादी के वक्त भी अपारदर्शी साड़ी में मुझ को नख से शिख तक छिपाए रखा था. क्या मालूम बरात ही न लौट जाए. खैर, जैसेतैसे शादी हो गई और मैं सजीधजी ससुराल पहुंच गई.

अभी तक तो घूंघट में कट गई. मरफी का सिद्धांत है कि यदि कुछ गलत होने की गुंजाइश है तो अवश्य हो कर रहेगा. मैं कमरे में आ कर बैठी ही थी कि ननद ने पीछे से आ कर घूंघट सरका दिया. मैं बुराभला सब सुनने को तैयार थी. मगर किसी ने कुछ कहा ही नहीं. मुंह दिखाई के नाम पर कुछ चीजें और रुपए मिलने अवश्य शुरू हो गए. दीदी तो अमेरिका से आई थीं. उन्होंने वहीं का बना खूबसूरत सैट मुझे मुंह दिखाई में दिया. बाकी रिश्तेदार और अड़ोसीपड़ोसी भी आते रहे.

इतने में ददिया सास आईं. दीदी झट बोलीं, ‘लता, जरा आगे बढ़ कर दादीजी के पैर छू लो.’

मैं ने वहीं बैठेबैठे जवाब दे दिया, ‘पैर छुआने का इतना ही शौक था तो ले आतीं गांव की गंवार. मैं तो बी.ए. पास शहरी लड़की हूं.’

दीदी को ऐसा चुप किया कि वह उलटे पांव लौट गईं. कुछ देर बाद एक कमरे के पास से गुजर रही थी तो खुसरफुसर सुनाई पड़ी, ‘इस को इतना गुमान है बी.ए. करने का. एक आकाश की मां एम.ए. पास आई थी, जिस के मुंह से आज तक भी कोई ऐसीवैसी बात नहीं सुनी.’

अब आप ही बताइए, सास के एम.ए. करने का मेरे पैर छूने से क्या सरोकार था? खैर, मुझे क्या पड़ी थी जो उन लोगों के मुंह लगती. मुझे कल मायके चले जाना था, उस के 4 दिन बाद आकाश के संग अमेरिका. वहां दीदी जरूर मेरी जान की मुसीबत बन कर 4 घंटे की दूरी (200 किलोमीटर) पर रहेंगी. मैं पहले दिन से ही संभल कर रहूंगी तो वह मेरा क्या बिगाड़ लेंगी. अनचाहे ही मुझे किसी कवि की लिखी पंक्ति याद आ गई, ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात.’

लेकिन देखूंगी, दीदी की क्षमा कब तक चलेगी मेरे उत्पात के सामने. बड़ी आई थीं मेरे से दादीजी के पैर छुआने. डाक्टर होंगी तो अपने लिए, मेरे लिए तो बस, एक सठियाई हुई रूढि़वादी ननद थीं.

सच पूछिए तो पिछले 4 दिन में मैं एक बार भी उन को याद नहीं आई थी. मैं पिछले दिनों अपनी एक सहेली के यहां गई थी. पूरा 1 महीना उस की देवरानी उस के घर रह कर गई थी. एक मेरी ननद थीं, जिन के चेहरे पर जवान भाई के मरने पर शिकन तक नहीं आई थी.

जब मैं 10 बरस पहले आकाश के साथ इस घर में घुसी थी तो गुलाब के फूलों का गुलदस्ता हमारे लिए पहले से इंतजार कर रहा था. उसे ननद ने भेजा था. आकाश ने मुझ को घर की चाबी थमा दी थी, लेकिन मुझे ताला खोलते हुए लगा था जैसे ननद वहां पहले से ही विराजमान हों.

घर क्या था, जैसे किसी राजकुमार की स्वप्न नगरी थी. मुझ को तो सबकुछ विरासत में ही मिला था. भले ही वह सब आकाश की 4 साल की कड़ी मेहनत का इनाम था. मैं इतनी खुश थी कि मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. मेरे सब संबंधियों में इतना अच्छा घरबार उन के खयाल से भी दूर की चीज थी.

मैं ने गुलाब के फूल बैठक में सजा लिए. मगर दीदी का शुक्रिया तो क्या अदा करती, उन की रसीद तक नहीं पहुंचाई. दोचार दिन बाद उन का फोन आया तो कह दिया, ‘हां, मिल तो गए थे.’

उंची उड़ान: भाग 2

उंची उड़ान: भाग 1

आखिरी भाग

आखिरकार रोजरोज की किचकिच से तंग आ कर जय के परिवार वालों ने तृप्ति जो चाहती थी, वही कर दिया. उन्होंने उसे चिखली के साईं अपार्टमेंट घरकुल सोसायटी में एक किराए का फ्लैट ले कर दे दिया. अब तृप्ति पूरी तरह से आजाद थी. उस के मन में जो आता, वह करती थी. अनापशनाप खर्चा, पार्टी और सहेलियों दोस्तों के साथ कंपीटिशन करना उस की आदत में शुमार हो गया.

इस बीच वह एक बच्चे की मां भी बन गई थी. फिर भी उस की आदतों में कोई सुधार नहीं आया था. वह जब तृप्ति को समझाने की कोशिश करता तो वह यह कह कर उसे चुप करा देती कि भगवान ने जिंदगी दी है तो ऐश करो.

तृप्ति का मन घर के कामों के बजाए सोशल मीडिया पर अधिक लगता था. वह फेसबुक, वाट्सऐप पर अपने नएपुराने मित्रों के साथ चैटिंग में लगी रहती थी.

पति से नईनई फरमाइश करती थी. नहीं मिलने पर उस से झगड़ा करती थी. लाचार जय किसी तरह उस की मांगें पूरी करता. पैसे न होने पर वह दोस्तों से पैसे उधार लेता. इस के लिए कर्जदार भी हो गया. लाखों रुपए का कर्जदार होने के बावजूद भी तृप्ति के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया था.

हर रोज नएनए फैशनपरस्त कपड़े पहन कर वह अलगअलग ऐंगल से फोटो खींच कर उन्हें फेसबुक और वाट्सऐप पर डालती और यह दिखाने की कोशिश करती कि वह भी किसी से कम नहीं है.

इस के लिए जब पति मना करता तो वह जय से झगड़ा कर के मारपीट पर उतर आती थी. इतना ही नहीं, वह पति पर व्यंग्य कसते हुए कहती, ‘‘तुम्हारी तरह मेरे दोस्त और सहेलियां भिखारी नहीं हैं. वे सब मेरे फोटो लाइक करते हैं. मुझ से फेसबुक और वाट्सऐप पर बातें करते हैं. देशविदेश की सैर करते हैं. वहां के खूबसूरत फोटो भेजते हैं. तुम ने आज तक मेरे लिए क्या किया है? देशविदेश तो छोड़ो, कभी पुणे तक में नहीं घुमाया. पता नहीं मेरे मांबाप ने तुम में क्या देखा था. मेरी तो किस्मत ही फूट गई है. तुम में मेरे शौक पूरे कराने की भी हैसियत नहीं है.’’

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‘‘तृप्ति जब तुम यह सब जानती हो तो हैसियत से बड़े सपने क्यों देखती हो? हमारी आर्थिक स्थिति तुम्हारे दोस्तों जैसी नहीं है. मैं एक मामूली इंसान हूं. तुम्हारे लिए मैं लाखों रुपए का कर्ज तो पहले ही ले चुका हूं. अब और कर्ज नहीं ले सकता.’’ जय तेलवानी बोला.

इस बात पर तृप्ति को इतना गुस्सा आया कि उस ने अपने पति के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया और कहा, ‘‘चुपचाप रहो, मूर्ख इंसान. तुम क्या जानो सपना क्या होता है?’’

तृप्ति के इस व्यवहार से जय सन्न रह गया. उसे तृप्ति से ऐसी आशा नहीं थी. उसे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन कड़वा घूंट समझ कर पी गया. उस ने सोचा बात बढ़ाने से क्या फायदा, बदनामी उस की ही होगी.

लेकिन उस की इस चुप्पी से तृप्ति का हौसले बुलंद हो गए. वह आए दिन जय से छोटीछोटी बातों को ले कर उलझ जाती थी. इतना ही नहीं, वह सोशल मीडिया पर अपने पति की बुराई कर सहानुभूति बटोरती थी.

उस ने और ज्यादा सहानुभूति पाने के लिए अपना टिकटौक एकाउंट खोला और उस पर नईनई वीडियो बना कर अपलोड करने लगी. बिना यह सोचे कि आगे चल कर इस का क्या नतीजा निकलेगा.

तृप्ति का सोशल मीडिया पर इतना ज्यादा एक्टिव होना जय और उस के परिवार वालों को बुरा लगता था. तृप्ति पति पर बुरी तरह हावी थी. ऊपर से सोशल मीडिया में जय की जो बदनामी हो रही थी, वह अलग बात थी. जय ने जबजब पत्नी को समझाने की कोशिश की, तबतब वह भड़क जाती थी. कहती थी कि क्या अच्छा है, क्या बुरा मैं सब समझती हूं. मैं जो कर रही हूं करने दो. तुम लोग हमारे बीच में मत पड़ो. नहीं तो मैं कुछ कर लूंगी तो पछताओगे.

तृप्ति की आत्महत्या करने की धमकी से जय और उस का पूरा परिवार डर गया था. तृप्ति अपने दोस्तों के साथ नएनए वीडियो तैयार करती और सोशल मीडिया पर अपलोड कर देती. इस से उसे सहानुभूति तो मिलती ही थी, एकाउंट में अच्छाखासा पैसा भी आ जाता था. जिन्हें वह अपने शौक और यारदोस्तों के साथ पार्टियों में खर्च करती थी.

घर और परिवार की बदनामी से तृप्ति का कोई लेनादेना नहीं था. हद तो तब हो गई जब एक दिन तृप्ति ने जय से बड़ी रकम की मांग कर दी. उस ने पैसे देने में असमर्थता जताई तो तृप्ति ने योजना बना कर अपने पति पर एक वीडियो बनाई.

उस वीडियो में उस ने पति को ब्लड कैंसर का मरीज बताया. फिर उस वीडियो में उस ने किसी दूसरे की आवाज डाल कर के सोशल मीडिया पर डाल दिया. साथ ही उस ने आर्थिक मदद करने का भी अनुरोध किया.

इस से तृप्ति को ढेर सारी सहानुभूति तो मिली ही, साथ ही उस के एकाउंट में काफी पैसा भी आया. लेकिन इस से जय को जिस मानसिक तनाव से गुजरना पड़ा, उसे वह बरदाश्त नहीं कर पाया. उस की सारे दोस्तों और नातेरिश्तेदारों में काफी बदनामी हुई.

पत्नी के इस कृत्य से वह अपनों से नजरें नहीं मिला पा रहा था, क्योंकि अब वह लोगों की नजरों में कैंसर का ऐसा मरीज बन गया था, जो लोगों से इलाज के लिए पैसे मांग रहा था. लोग उसे सहानुभूति की नजरों से देखते और धीरज बंधाते थे.

वह उस बीमारी को ले कर जी रहा था, जिस का उसे पता ही नहीं था. वह तृप्ति के व्यवहार से बुरी तरह टूट गया था. अंतत: उस ने एक दिन दिल दहला देने वाला निर्णय ले लिया. अपने मांबाप से फोन पर बात करने के बाद जय ने मौत को गले लगा लिया.

जय तेलवानी के परिवार वालों की शिकायत और सोशल मीडिया की जांचपड़ताल कर एसआई रत्ना सावंत ने तृप्ति से पूछताछ कर उसे विधिसम्मत गिरफ्तार कर लिया. उस के विरुद्ध भादंवि की धारा 306 के तहत मामला दर्ज कर कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उसे यरवदा जेल भेज दिया गया.

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कुल्हाड़ी से खड़ी कर दीं ये इमारतें

शाहजहां ने अपनी प्रिय बेगम मुमताज महल की याद में ताजमहल बनवाया था, जो न केवल दुनिया के 7 अजूबों में शामिल है, बल्कि इसे देखने के लिए हर साल देशविदेश के लाखों पर्यटक आते हैं. झूठ सच तो पता नहीं लेकिन कहा जाता है कि शाहजहां ने ताजमहल का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद इसे बनाने वाले कारीगरों के हाथ कटवा दिए थे ताकि वे ऐसी कोई दूसरी इमारत न बना सकें.

इसी तरह की कहानी रूस की ओनेत्रा झील में स्थित एक द्वीप पर बने किझी पोगोस्त  की भी है. यह रूस की परंपरागत काष्ठकला का अनुपम नमूना है. इस द्वीप पर विशेष तरह के स्कौट देवदार की लकड़ी से 2 चर्च और एक घंटाघर बनाए गए हैं.

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17वीं शताब्दी में 37 मीटर ऊंचे इन चर्चों में एक में 22 और दूसरे में 9 गुंबद हैं. पिछले 300 सालों से खड़ी लकड़ी की इन इमारतों को बनाने के लिए एक खास तरह की कुल्हाड़ी के अलावा कोई भी किसी तरह का औजार इस्तेमाल नहीं किया गया.

इतना ही नहीं, इन्हें जोड़ने में भी कील का इस्तेमाल भी नहीं हुआ. इन्हें बनाने वाले का नाम किसी को भी मालूम नहीं है, लेकिन बताया जाता है कि ऐसी इमारत कोई और न बना सके, इस के लिए उस ने जिस कुल्हाड़ी से इसे बनाया था, उसे झील में फेंक दिया था.

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 खाली खेत में केला उगाने में पाई कामयाबी

सरकारें खेती और खेती से जुड़े दूसरे कामों को भले ही उद्योगों का दर्जा दे पाने में नाकाम रही हों, लेकिन जिन किसानों ने खेती को उद्योग के नजरिए से अपनी आजीविका का साधन बनाने की कोशिश की है, उस में उन्होंने निश्चित ही कामयाबी पाई है. उस कामयाबी के पीछे कड़ी मेहनत, खेती के प्रति उन का समर्पण रहा है.

ऐसे किसान उन्नत खाद, बीज व उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल कर के दूसरे किसानों के लिए नजीर पेश करते हैं. ऐसे ही एक युवा किसान हैं, अशोक कुमार त्रिपाठी, जो बस्ती जनपद हर्रैया नगर पंचायत के अंबेडकर नगर वार्ड के रहने वाले?हैं. उन के 20 बीघा खेत में केले की उन्नत प्रजातियां लहलहा रही हैं. यह सब है, खेती में किए गए उन के द्वारा उन्नत प्रयोगों के चलते संभव हुआ.

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अनुपजाऊ जमीन पर खेती

अशोक कुमार त्रिपाठी द्वारा केले की खेती को नकदी फसल लिए जाने के पीछे की वजह उन की अनुपजाऊ जमीन रही है, क्योंकि उन के 20 बीघा खेत, जो पूरी तरह से बलुई मिट्टी से युक्त हैं, पर खरीफ की फसल लेना संभव नहीं रहता था. ऐसी दशा में वे सालभर में बड़ी मुश्किल से महज एक बार ही पारंपरिक फसलें ले पाते थे, जबकि बाकी समय खेत खाली पड़ा रहता था.

चूंकि अशोक कुमार त्रिपाठी के इन खेतों की मिट्टी पूरी तरह से बलुई थी, इसलिए फसल में लागत भी ज्यादा आती थी. वे अपने खेतों से कम लागत में सालभर की फसल लेने के प्रयास में लगे रहते?थे. इस के लिए वे अकसर तमाम कृषि संस्थानों व कृषि विशेषज्ञों से संपर्क कर फसलों की जानकारी लेते रहते थे. इसी दौरान उन्हें किसी ने बताया कि अगर इस जमीन पर केले की उन्नतशील प्रजातियों की खेती की जाए तो कम लागत में भारी मुनाफा लिया जा सकता है.

किसान अशोक कुमार त्रिपाठी के मन में यह बात बैठ गई और बलुई मिट्टी वाले 20 बीघा खेत में केले की खेती शुरू किए जाने का पक्का मन बना लिया. इस के लिए उन्होंने जरूरी जानकारी हासिल कर 20 बीघा खेत में महाराष्ट्र के जलगांव से केले की जी 9 प्रजाति के 6,200 पौधों को रोपने के लिए मंगाया.

अपने खेत की अच्छी तरह जुताई करा कर उन्होंने उस में सड़ी हुई गोबर की खाद व फसल में कीटों और दीमक से पौधों को बचाव के लिए कीटनाशक को मिट्टी में मिला कर खेत की तैयारी की.

संतुलित खादउर्वरक का इस्तेमाल

किसान अशोक कुमार त्रिपाठी ने केले की खेती में मिट्टी जांच के आधार पर संस्तुत मात्रा में खादउर्वरक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. नतीजा यह रहा कि उन की फसल का विकास सही ढंग से हुआ. साथ ही, खाद के अंधाधुंध प्रयोग में कमी आने से खाद व उर्वरक के ऊपर आने वाले खर्च से भी नजात मिल गई.

अशोक कुमार त्रिपाठी का कहना है कि वे अपनी फसल में उतनी ही खादउर्वरक का प्रयोग करते हैं, जितनी फसल को जरूरत होती है. इस के लिए वे तकनीकी प्रबंधन पर खासा ध्यान देते हैं. फसल में डीएपी, यूरिया, पोटाश, सिंगल सुपर फास्फेट, माइक्रोन्यूट्रिएंस व सागरिका का प्रयोग करते हैं. वे एक पौधे में एक बार में 250 ग्राम खादउर्वरक का इस्तेमाल करते हैं.

अशोक कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि पूरी फसल के दौरान कुल 6 बार उर्वरक व खाद देने की जरूरत होती है. फल में खादबीज के संतुलित प्रयोग से उन के केले की खेती में भरपूर फसल आई है.

लाइलाज बीमारी पर नियंत्रण

किसान अशोक कुमार त्रिपाठी एक समय बहुत घबरा गए?थे?क्योंकि उन के द्वारा ली गई केले की फसल में एक ऐसी बीमारी लग गई थी जिस से सिर्फ वही नहीं, बल्कि जिले के बाकी किसान भी परेशान थे, क्योंकि इन के केले की फसल सही देखभाल के चलते बड़ी तेजी से विकास कर रही?थी.

बीते ठंड के मौसम में अशोक कुमार त्रिपाठी के केले की पौधों की पत्तियां गल कर नष्ट होने लगीं, जिस से उन्हें लगा कि कहीं उन की पूरी फसल इस रोग से खराब न हो जाए. इस के लिए उन्होंने कई दवाओं का प्रयोग किया, लेकिन उन की फसल लगातार खराब होती जा रही थी. ऐसे में उन्हें लाखों रुपए डूबने का डर भी सता रहा था.

फिर भी अशोक कुमार त्रिपाठी ने हार नहीं मानी और तमाम संस्थानों और कृषि विशेषज्ञों के बताए अनुसार केले की फसल में कौपर औक्सीक्लोराइड नामक दवा का प्रयोग शुरू किया. इस का असर यह रहा कि उन की फसल में लगे रोग का प्रभाव धीरेधीरे कम होना शुरू हो गया. उन की सक्रियता और फसल में समय से दवाओं के चलते केले में आई बीमारी से जो पौधे खराब होने लगे थे, वह सही होने लगे और फिर धीरेधीरे उन की फसल को पूरी तरह से बीमारी से नजात मिल गई.

सही प्रबंधन से आई लागत में कमी

किसान अशोक कुमार त्रिपाठी ने केले की फसल को पूरी तरह से आधुनिक मौडल को आधार बना कर उगाया. नतीजा यह रहा है कि दूसरे किसानों की अपेक्षा उन के उत्पादन के हिसाब से लागत में काफी कमी आई है.

उन्होंने बताया कि अगर छोटे किसान केले की खेती को उन्नत तरीकों के आधार पर करें तो उन्हें दूसरी पारंपरिक खेती की अपेक्षा ज्यादा मुनाफा हासिल होगा. इस के आधार पर किसान कम समय में अपनी माली हालत को न केवल सुधार सकते हैं, बल्कि अपनी शोहरत में भी काफी इजाफा कर सकते?हैं.

उन के मुताबिक, एक बीघा खेत में 25,000 से 30,000 रुपए की लागत आती है. फसल अच्छी  होने पर 1 लाख रुपए की खालिस आमदनी होने की संभावना रहती है. उन्होंने बताया कि अगर फसल की बढ़वार अच्छी है, तो केले की घार का औसत वजन 25 किलोग्राम से 40 किलोग्राम के बीच होता है.

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जंगली जानवरों से बचाएं फसल

किसान अशोक कुमार त्रिपाठी द्वारा लगाए गए केले की फसल को जंगली सूअर, साही और नीलगाय ने नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया तो उन्होंने फसल की सुरक्षा को ले कर तमाम उपाय अपनाए लेकिन इन जानवरों के चलते उन की फसल को नुकसान पहुंच रहा था. उन्होंने इस से बचाव के लिए अपने खेतों के चारों तरफ सुरक्षा बाड़ लगाने का निश्चय किया और आरसीसी के खंभे व कंटीले तार वाली जाली से उन्होंने खेतों की फैंसिंग कराई जिस से उन के केले की फसल पूरी तरह से महफूज है.

अशोक कुमार त्रिपाठी से सीख ले कर अगर दूसरे किसान भी ऐसी ही नकदी फसलों की खेती वैज्ञानिक तरीके से कृषि विशेषज्ञों द्वारा सुझाए अनुसार करें तो न केवल उन की खेती की लागत में कमी आएगी, बल्कि उन्हें मार्केटिंग व कीमतें तय करने की समस्या से नजात मिलेगी, क्योंकि नकदी फसलों की खरीदारी अकसर आढ़ती और लोकल दुकानदार खेतों से ही करते हैं.

फेस्टिवल स्पेशल 2019: घर पर बनाएं काजू की पूड़ियां  

काजू की पूड़ियां बनाना काफी आसान है और  आप इसे बहुत कम समय में बना भी लेंगी. आप इन पूड़ियों को स्नैक्स में भी यूज कर सकती हैं. तो चलिए जानते हैं काजू की पूड़ियां कैसे बनाएं.

सामग्री

1 कप पिसा हुआ काजू

3 चम्मच दूध

3 हरी इलायची का चूर्ण

100 ग्राम चीनी

2 बूंद बादाम एसेंस

1/4 चम्मच केसर

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बनाने की वि​धि

एक बाउल लें और उसमें इलायची पाउडर, बादाम एसेंस, काजू और चीनी डालें और इन्हें अच्छी तरह से मिला लें.

थोड़ी-सी केसर को एक चम्मच दूध में गर्म कर लें. अब इस दूध को तैयार मिश्रण में डालें और फिर इसे गूथकर छोटी-छोटी लोई बना लें.

अब पौलिथीन की दो शीट्स लें और इन्हें स्लैप पर बिछा लें.

अब आटे की बोल्स को गोलाकार बेल लें.

सारी पूड़ियां तैयार होने के बाद इन्हें बेकिंग ट्रे में रख लें और 15 से 20 मिनट तक 190 डिग्री सेल्सियस पर बेक करें.

आप चाहें तो इन पूड़ियों को बेक करने की जगह तबे पर भी सेक सकती हैं.

फिर ठंडी होने पर सर्व करें.

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मुंह की बदबू से औफिस परेशान!

आशीष यूं तो बहुत अच्छा कर्मचारी है, मन लगा कर काम करता है, हरेक की मदद करने के लिए भी तैयार रहता है, मगर उससे दोस्ती करने या उसके साथ एक प्याली चाय तक पीने के लिए कोई तैयार नहीं होता है. लंच टाइम में वह अकेला ही अपनी डेस्क पर बैठ कर लंच करता है, और चाय के वक्त टीस्टौल पर भी अकेला ही नजर आता है. वजह है उसके सांसों की बदबू, जो उसके साथियों को उससे दूर रखती है. उसके पास चंद मिनट खड़ा होना भी दुश्वार है. औफिस की लिफ्ट में अगर वह गया है तो दूसरा आदमी लिफ्ट में घुसते ही बदबू के मारे नाक पर रूमाल रख कर बाहर हो जाता है.

कई बार हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे मुंह से आने वाली दुर्गन्ध हमारे आसपास के वातावरण को कितना प्रदूषित कर देती है. वहीं दूसरों के मन में हमारी छवि भी बहुत खराब हो जाती है. दांतों की सड़न के कारण मुंह से आने वाली बदबू बीमारियों का कारण भी बनती है. आजकल ज्यादातर औफिस एयरकंडीशनर लगे होने के कारण बिल्कुल बंद बनाये जाते हैं, ताकि ठंडी हवा बाहर न निकले. सारी खिड़कियों पर बंद शीशे होते हैं. ताजी हवा का आवागमन ही बंद होता है. ऐसे में कर्मचारियों के मुंह से निकलने वाली गंदी और बदबूदार हवा उसी हवा में मिल जाती है, जो सब सांस में ले रहे हैं. एक नई स्टडी बताती है कि ऑफिस में ऐसी खराब हवा फैलाने के जिम्मेदार इंसान हैं. शोध में पाया गया है कि एक आम आदमी औफिस  में अमूमन एक हफ्ते में 40 घंटे तक बिताता है. इन घंटों में ऑफिस के बंद कमरों या हॉल में खराब हवा यानी वायु प्रदूषण फैलने की एक बड़ी वजह इंसानों की सांसों की बदबू भी है. अब अमेरिकन असोसिएशन फौर एरोसोल रिसर्च कौन्फ्रेंस में विस्तार से इस समस्या से निपटने पर विचार हो रहा है. यह कॉन्फ्रेंस 14 से 18 अक्टूबर तक पोर्टलैंड में होगी.

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दिन-दिन बढ़ते वायु प्रदूषण का हमारे शरीर और सेहत पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है इसे लेकर दुनियाभर में गंभीरता दिखायी जा रही है और लोग इसे लेकर चिंतित भी हैं. प्रदूषित हवा की वजह से फेफड़ों से जुड़ी कई बीमारियां, दिल से जुड़ी बीमारियां और कैंसर तक होने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है. जब हम वायु प्रदूषण के बारे में सोचते हैं, तो पहला ख्याल यही आता है कि बाहर सड़कों की प्रदूषित हवा से बचें. घर से बाहर हवा में ऐसा जहर अमूमन गाड़ियों से निकलने वाले धुएं और गंदगी घोलते हैं. लेकिन इस शोध के बाद पता चलता है कि इन्सानों की सांसों की बदबू भी वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है.

हवा में किन प्रदूषक तत्वों का हो रहा उत्सर्जन

इस स्टडी के को-औथर ब्रैन्डन बूर कहते हैं कि अगर आप चाहते हैं कि आपके औफिस काम करने वाले कर्मचारियों की प्रौडक्टिविटी बेहतर हो और उन्हें काम करने के लिए बेहतर एयर क्वालिटी मिले तो यह बेहद जरूरी है कि आप इस बात को समझें कि आपके औफिस की हवा में क्या है और किस तरह के प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन हवा में हो रहा है. औफिस की आंतरिक एयर क्वालिटी को क्या चीज प्रभावित करती है और किस तरह इंसान इंडोर एयर पलूशन में भागीदार हैं.

ब्रैन्डन बूर कहते हैं कि औफिस के वेंटिलेशन सिस्टम के अलावा हमारी सांसों में मौजूद कम्पाउंड आइसोप्रीन, बौडी डियोड्रेंट, मेकअप, हेयर केयर प्रोडक्ट्स, बाल, नाखून जैसी चीजों से निकलने वाली स्मेल भी औफिस के अंदर और बाहर की एयर क्वालिटी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है.

डेली ऐक्टिविटीज बनती हैं बदबू का कारण

ज्यादातर लोगों का ऐसा मानना है कि मुंह की साफ-सफाई सही ढंग से न करने या गलत फूड हैबिट्स की वजह से मुंह से बदबू आने लगती है. इनके अलावा दिनभर में हम कुछ ऐसी ऐक्टिविटीज भी करते हैं जो मुंह की बदबू का कारण बनती हैं लेकिन आमतौर पर लोगों को इसके बारे में पता नहीं होता. अमेरिकन डेंटल असोसिएशन के मुताबिक, सही समय पर खाना न खाने से भी मुंह में ड्रायनेस होने लगती है जिससे मुंह से बदबू आ सकती है. इसके अलावा ठीक से ब्रश न करना, सही टूथपेस्ट का इस्तेमाल न करना, दांतों की सड़न, तम्बाकू युक्त चीजों का सेवन, धूम्रपान आदि से उत्पन्न बदबू भी आॅफिस की हवा को खराब करती है.

समस्या को हल्के में न लें

अगर नियमित रूप से और अच्छी तरह से ब्रश करने के बाद भी आपके मुंह से बदबू आती है तो तुरंत डौक्टर से सलाह मशविरा लें. विशेषज्ञों की मानें तो मुंह से लंबे समय तक बदबू आना टाइप 2 डायबीटीज, लंग्स, लिवर और किडनी संबंधित बीमारी होने का संकेत हो सकता है.

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आया ड्राई स्किन का मौसम

सर्दियां शुरू होते ही हमारी त्वचा में बदलाव दिखने लगते हैं. सर्दियों की हवा स्किन में खिचांव, रूखापन और चमक को खत्म कर देती है. सर्दियां आते ही स्किन ड्राई हो जाती है. कभी-कभी तो स्किन पर लाल-लाल रैशेज दिखने लगते हैं. वहीं कुछ लोगों की स्किन सर्दियों में इसकदर रूखी हो जाती है कि जगह-जगह से फटने पर खून तक रिसने लगता है. होंठों का फटना भी सर्दियों में आम है. सर्दियों में स्किन का सबसे ज्यादा ख्याल रखना पड़ता है. हम बदलते मौसम को तो नहीं रोक सकते लेकिन अपने लाइफस्टाइल में कुछ बदलाव कर स्किन को सुंदर और हेल्थी जरूर बना सकते हैं.

रखें स्किन का ख्याल

सर्दियों में कभी भी बहुत ज्यादा गर्म पानी से न नहाएं. नहाने का पानी हमेशा गुनगुना ही होना चाहिए. गर्म पानी स्किन के नेचुरल ऑयल्स को हटा देता है जिसकी वजह से स्किन बहुत ड्राई हो जाती है. अगर आपकी स्किन ड्राई ही है तो चेहरे और शरीर पर साबुन का इस्तेमाल कम करें. साबुन में उपस्थित कास्टिक आपकी स्किन को काफी नुकसान पहुंचाता है. फेस वॉश या बॉडी वाश का पीएच (पोटेशियम हाइड्रोक्साइड) आपकी स्किन के पी.एच के समान होता है जिसके इस्तेमाल से ड्रायनेस काम होती है. फिर भी अगर आपको चेहरे पर रूखापन महसूस हो तो अपने चेहरे को साबुन या फेसवाश की जगह क्लींजिंग मिल्क से साफ करें, सादे पानी से धोकर चेहरे पर अल्कोहल फ्री टोनर और मॉइश्चराइजर का भी इस्तेमाल करें.

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अगर आपकी स्किन ड्राई है तो शरीर के लिए एक अच्छा बौडी लोशन या बौडी बटर का इस्तेमाल करें और चेहरे के लिए एक अच्छा मौइस्चराइजर पास रखें. एक अच्छा मौइश्चराइजर या बौडी लोशन खरीदते समय याद रखें कि उसमें अच्छे नेचुरल औयल्स जैसे बादाम, जैतून और ग्लिसरीन मौजूद हों.

यदि आपकी स्किन औयली है तो भी सर्दियों के मौसम में उसमें पानी की कमी हो जाती है. औयली स्किन वाले चेहरे को एक जेल बेस्ड मौइश्चराइजर की जरूरत होती है जिसमें औयल ना हो पर अच्छे मौइश्चराइजिंग एजेंट्स जैसे एलोवेरा, ग्लिसरीन, हैलुरोनिक एसिड, कुकुम्बर और वाटरमेलन के गुण हों. इसके साथ ही आप जितना ज्यादा पानी पियेंगे, आपकी स्किन उतनी ही हाइड्रेटेड रहेगी. भले ही आपको सर्दियों में कम प्यास लगती हो, पर बदलते मौसम में आपको कम से कम आठ गिलास पानी पीना आवश्यक है. बाहरी जंक फूड के बजाय पौष्टिक खाना खाएं. फल और सब्जियों का अधिक से अधिक प्रयोग करें. हमारा शरीर जितना स्वस्थ होगा उतनी ही सुन्दर और ग्लोइंग हमारी स्किन भी होगी.

जिस तरह हमारा सांस लेना जरूरी है उसी तरह स्किन का सांस लेना भी जरूरी है. हमारी स्किन के ऊपर एक डेड स्किन की परत बन जाती है जिसकी वजह से हमारी स्किन सांस नहीं ले पाती है. डेड सेल्स की वजह से हमारी स्किन सूखी दिखती है और उसमें ग्लो नहीं आता. इन डेड सेल्स को समय-समय पर हटाना बहुत जरूरी होता है जिसे हम एक्सफोलिएशन कहते है. इसके लिए हफ्ते में दो बार फेस स्क्रब का इस्तेमाल जरूर करें ताकि यह डेड स्किन हट जाए. स्किन का हेल्दी होना बहुत जरूरी है क्योंकि वो हमारे शरीर का एक कवच है. इसलिए सिर्फ सुन्दर दिखने के लिए स्किन का ध्यान रखना जरूरी नहीं है, इसका स्वस्थ होना भी जरूरी है.

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यूपी कांग्रेस चीफ अजय कुमार लल्लू के राजनीतिक संघर्ष की दास्तां

आजादी के बाद से ही देश में कांग्रेस की हुकूमत रही. सबसे पुरानी पार्टी ने देश में सबसे ज्यादा शासन किया. केंद्र के साथ कई राज्यों में भी सरकारें रहीं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक कांग्रेस का वर्चस्व होता था. 1999 में पहली बार बीजेपी ने जोड़ तोड़ के सरकार बनाई. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनें. पांच साल तक सरकार चली लेकिन 2004 में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंका. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनियां गांधी ने प्रधानमंत्री पद का त्याग किया और मनमोहन सिंह को पीएम बना दिया गया. 2009 को जनता का आशीर्वाद एकबार फिर कांग्रेस को मिला. लेकिन 2014 में भाजपा ने कांग्रेस को धराशायी कर दिया था. इन पांच सालों में कांग्रेस के खिलाफ कई बड़े जनांदोलन भी हुए जिन्होंने देश की जम्हूरियत का मूड बदल दिया. खैर ये सब इतिहास की बातों का उल्लेख इसलिए भी जरूरी था क्योंकि आज देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस सबसे कमजोर बन चुकी है और पुनर्निमाण की प्रक्रिया से गुजर रही है.
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. कांग्रेस का सामना बीजेपी से तो है ही साथ ही संगठन में बदलाव भी एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है. कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव कर लिया है. प्रदेश अध्यक्ष के लिए पार्टी ने अजय कुमार लल्लू के नाम पर मोहर लगाई है. अजय कुमार लल्लू यूपी कांग्रेस में एक कद्दावर नेता के रूप में अपनी जगह बनाई है. दिल्ली में जिस तरह से अरविंद केजरीवाल को धरना प्रदर्शन के लिए जाना जाता है उसी तरह से यूपी में अजय कुमार को भी धरना के लिए जाना जाने लगा था. कुछ लोग तो उनको धरना कुमार भी कहते थे.

अब हम बताते हैं कि आखिरकार अजय कुमार हैं कौन? कांग्रेस ने काफी मंथन के बाद यूपी की कमान अजय कुमार लल्लू को सौंपी हैं. इस बार यूपी की कमान ऐसे व्यक्ति को सौंपी गई जो जमीन से उठकर ऊपर आया है. वो ऐसा नेता नहीं है कि जो महज आला कमान की जी हुजूरी में लगे रहे. अजय कुमार ऐसे नेता है जिसे श्रमिक और मजदूर भी कहा जा सकता है के हाथों में यूपी की कमान सौंपी जा सकती है. इतना ही नहीं कांग्रेस सूत्रों की मानें तो प्रदेश कांग्रेस कमेटी में युवाओं को ज्यादा ही तरजीह दी जाएगी.

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लल्लू को लेकर 2007 में ही ये ऐलान कर दिया गया थी कि वह एक न एक दिन बड़ा नेता बनेगा. तब लल्लू कांग्रेस नही बल्लिक निर्दल उम्मीदवार थ. ये एक ऐसा नाम है जिसे इलाकाई लोग “धरना कुमार” के नाम से भी जानते, पहचानते हैं. वजह साफ है वह हमेशा से ही संघर्षशील रहे. तमाम मामलों में पुलिस की लाठियां खाईं पर जनहित के मुद्दे को छोड़ा नहीं.

अजय लल्लू को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि 2007 में बतौर निर्दल उम्मीदवार मिली पराजय से उन्होंने काफी कुछ सीखा. हालांकि वह तब बतौर मजदूर दिल्ली चले गए और दिहाड़ी पर काम करने लगे पर अपनी विधासभा के लोगों से उनका संपर्क कायम रहा. लोग उन्हें बुलाते रहे, ऐसे में वह फिर लौटे और शुरू हो गया उनका चिरपरिचित अंदाज में धरना प्रदर्शन का सिलसिला. कभी गन्ना किसानों के लिए तो कभी नदियों की रक्षा और कटान से लेकर होने वाले नुकसान को लेकर.

ऐसे संघर्षशील व जुझारू नेता पर निगाह गई कांग्रेस की और पार्टी ने उन पर पूरा इत्मिनान जताते हुए टिकट दे दिया. कांग्रेस का यह दांव तब यानी 2012 में सटीक बैठा और अजय लल्लू ने तमकुहीराज सीट कांग्रेस की झोली में डाल दी. इस जीत ने विपक्षियों को चौका दिया. इसके बाद 2017 की वह मोदी लहर भी उनका कुछ न बिगाड़ पाई और उन्होंने लगातार दूसरी बार फतह हासिल कर ली.

लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम आने के बाद पूर्वांचल प्रभारी प्रियंका गांधी की निगाह उन पर पड़ी तो उन्होंने उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी. जिम्मेदारी थी, पूर्वांचल की भंग कांग्रेस कमेटियों के लिए नए पदाधिकारी चुनने का. इसके बाद प्रियंका ने उत्तर प्रदेश में जितने भी मुद्दे उठाए उन सब में अजय लल्लू ने उनका भरपूर साथ दिया. चाहे वह सोनभद्र का उम्भा नरसंहार प्रकरण हो या उन्नाव प्रकरण, या मिर्जापुर में बच्चों को मिड डे मील में नमक रोटी देने का मुद्दा, हर मसले पर लल्लू प्रियंका के साथ कंधा से कंधा मिला कर खड़े नजर आए.

उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में जातीय समावेशी फार्मूले को साधा गया है. कमेटी में लगभग 45 फीसदी पिछड़ी जातियों को प्रतिनिधित्व दिया गया है. पिछड़ी जाति में भी हशिए पर खड़ी अतिपिछड़ी जातियों पर ज्यादा फोकस किया गया है. दलित आबादी को करीब 20 फीसदी का नेतृत्व दिया गया है. इस नेतृत्व में प्रभुत्वशाली दलित जातियों के अलावा अन्य जातियों को भी नेतृत्व का मौका मिला है. मुस्लिम नेतृत्व करीब 15 फीसदी है. जिसमें पसमांदा मुस्लिम कयादत पर भी जोर दिया गया है. नई कांग्रेस कमेटी में लगभग 20 फीसदी सवर्ण जातियों का प्रतिनिधित्व है. कांग्रेस ने जातीय समीकरण को समावेशी जातीय प्रतिनिधित्व के फार्मूले से साधने की कोशिश की है. कमेटी में महिलाओं को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है.

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नई कमेटी में जनाधार वाले संघर्षशील कार्यकर्ताओं को जगह मिली है. जिसमें कई नए चेहरे भी शामिल हैं. कांग्रेस के नए संगठन से साफ-साफ दिख रहा है कि उत्तर प्रदेश की सड़कें जनांदोलनों से खाली नहीं होंगी. कांग्रेस महासचिव ने भी सोनभद्र, उन्नाव और शाहजहांपुर कांड में अपनी सक्रियता दिखाकर पहले ही साफ कर दिया था कि आने वाली कांग्रेस सड़कों पर लड़ती दिखेगी.

सूत्र बताते हैं कि लगभग चार माह से कांग्रेस की कई टीमें उत्तर प्रदेश की खाक छान रहीं थीं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी खुद उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ताओं, नेताओं और बुद्धिजीवियों के साथ बैठक करके सलाह मशविरा ले रहीं थीं. उत्तर प्रदेश में छह राष्ट्रीय सचिव लगातार पूरे प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे. प्रियंका गांधी के टीम के लोग जिले -जिले घूमकर जमीनी पड़ताल कर रहे थे.

उसकी ईमानदारी

अनाज मंडी में मेरी दुकान है. बड़ी और पुरानी दुकान है. मेरे दादाजी ने यह दुकान खरीदी थी और पिताजी के बाद अब इसे मैं देखता हूं. इस दुकान में एक पुराना नौकर है माधव. दस साल से मेरी दुकान में काम कर रहा है. बड़ा ईमानदार और मेहनती है. उस पर पूरा गल्ला छोड़ कर मैं इत्मिनान से खरीदारी के लिए बाहर चला जाता हूं. माधव के होते दुकान पर एक पैसे की भी हेरफेर नहीं होती है.

पांच साल पहले की बात है. माधव की ईमानदारी देखकर मैंने उसकी तनख्वाह पांच सौ रुपये बढ़ा दी थी. जब तनख्वाह वाले दिन मैंने उसे बढ़ी हुई तनख्वाह दी तो रुपये गिनने के बाद उसने पैसे जेब में रख लिये और बिना कुछ बोले अपने काम में लग गया. मुझे बड़ी हैरानी हुई कि उसने पूछा तक नहीं कि मैंने उसे पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा क्यों दिये? मैंने सोचा शायद वह सोच रहा है कि लालाजी ने गलती से पांच सौ रुपये ज्यादा दे दिये हैं. उसने अगर यह जान कर चुपचाप नोट रख लिये हैं तो यह उसकी ईमानदारी पर धब्बा है. खैर, मैं कुछ बोला नहीं. अगले महीने भी तनख्वाह में पांच सौ रुपये एक्स्ट्रा मिलने पर वह कुछ नहीं बोला. चुपचाप नोट लेकर जेब में रख लिये और काम में लग गया.

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दो महीने बीते होंगे कि उसने काम से कई बार छुट्टी ली. मैं देखता था कि इधर काम में उसका मन भी कुछ कम ही लग रहा था. वह ज्यादातर फोन पर लगा रहता था. फिर एक हफ्ते के लिए गायब हो गया. मुझे बड़ी खीज लगी कि देखो मैंने इसकी तनख्वाह बढ़ाई, धन्यवाद देना तो दूर इसने तो काम में चोरी शुरू कर दी है. अगली तनख्वाह में मैंने उसके पांच सौ रुपये काट लिये. लेकिन इस बार भी उसने तनख्वाह लेकर चुपचाप नोट गिने और जेब में रख लिये. फिर खामोशी से काम में लग गया. मैं बड़ा बेचैन था. आखिर ये कुछ बोलता क्यों नहीं? न तब बोला जब मैंने पांच सौ रुपये ज्यादा दिये और न अब बोला जब पांच सौ रुपये मैंने काट लिये.

शाम तक मेरी बेचैनी बढ़ गई. आखिर मुझसे रहा न गया. मैंने उसको बुलाया और पूछा, ‘माधव, जब मैंने तीन महीने पहले तेरी तनख्वाह बढ़ायी थी, तब तू कुछ नहीं बोला था, आज जब मैंने पांच सौ रुपये काटे तब भी तू कुछ नहीं बोला?’

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माधव सिर झुका कर बोला, ‘लालाजी, जब आपने पांच सौ बढ़ाये थे तब मेरी बीवी को लड़का हुआ था तो मैंने सोचा कि वह अपने हिस्से का लेकर आया है, इसमें मेरा क्या है और पिछले हफ्ते मेरी बीमार मां मर गई, तो आज जो आपने पांच सौ काटे तो मुझे लगा कि वह अपने हिस्से का ले गई, इसमें मेरा क्या?’

उसकी बात सुनकर मैं उसकी सोच पर हैरान रह गया. इस दुनिया में आज भी इतने सरल और ईमानदार लोग हैं, विश्वास करना कठिन था, मगर मेरे पास माधव जैसा हीरा है.

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