मूलतया मध्य प्रदेश निवासी और ?यूनेस्को गांधी मैडल 2018 पुरस्कार विजेता व राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2018 के विजेता फिल्मकार प्रवीण मोरछले ने कैरियर की शुरुआत थिएटर से की थी. इस के बाद उन्होंने कई लघु फिल्में निर्देशित कीं. 2013 में बतौर लेखक व निर्देशक अपनी पहली फीचर फिल्म ‘बेयरफुट टू गोवा’ से उन्होंने इंटरनैशनल स्तर पर पर अपनी एक पहचान हासिल की. क्रिटिक्स ने उन्हें एक नई लहर के रूप में भारतीय सिनेमा के फिल्म निर्माता के रूप में देखा. वे अपने सरल, सूक्ष्म, काव्य सिनेमा के लिए जाने जाते हैं. उन की दूसरी फिल्म ‘वाकिंग विद द विंड’ को 2018 में 3 राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया. यह लद्दाखी भाषा की फिल्म थी.
अब उन की तीसरी फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ ने 6 माह के अंदर 5 इंटरनैशनल अवार्ड जीते हैं, जबकि 11 इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल्स में इंटरनैशनल कंपीटिशन का हिस्सा रही. इसराईल, कोरिया, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में फिल्म ने धूम मचाई है.
प्रवीण मोरछले से यह पूछने पर कि आप की पिछली फिल्म ‘वोकिंग विद द विंड’ को 3 राष्ट्रीय पुरस्कारों के अलावा कुछ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे. इस का आप के कैरियर व जिंदगी पर क्या असर हुआ? क्या अब आप की नई फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ को फायदा मिल रहा है? वे कहते हैं, ‘‘देखिए, राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ कि मेरे पास निर्माताओं की कतार लग गई हो और सभी ने मुझ से कहा हो कि मेरे साथ फिल्में बनाना चाहते हैं. मगर राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर हमें गर्व का एहसास होता है कि हमारे देश ने हमारे काम को सराहा. लेकिन इस के चलते ऐसा कुछ नहीं हुआ कि कुछ बेहतरीन कहानीकारों ने मेरे सामने अपनी कहानी ला कर रख दी हो कि इस पर फिल्म बननी चाहिए. किसी ने मुझे पैसा ला कर नहीं दिया कि आप फिल्म बनाएं, धन हम लगाते हैं.
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‘‘पर मैं चुप नहीं बैठा. फिल्म ‘वाकिंग विद द विंड’ को 3 राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने के बाद मैं ने अपने पैसे लगा कर नई फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ का निर्माण किया है.’’
आमतौर पर माना जाता है कि जब किसी निर्देशक की फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है तो उस के लिए अपनी अगली फिल्म को भी सिनेमाघरों में पहुंचाना आसान हो जाता है. आप के अनुभव क्या हैं? इस प्रश्न पर प्रवीण जवाब देते हैं, ‘‘मुझे तो ऐसा कुछ नहीं लगता. हालात जिस तरह से बदतर हुए हैं उस में अच्छी से अच्छी फिल्म को भी सिनेमाघर में ले आना टेढ़ी खीर हो गया है. आज की तारीख में सबकुछ गणित पर चल रहा है. अब सिनेमाघरों में फिल्म के पहुंचने के कई पैमाने हो गए हैं.
‘‘फिल्म में कलाकार कौन हैं, स्टार कलाकार हैं या नहीं, फिल्म कितने दिन सिनेमाघर में चल पाएगी, फिल्म कितनी कमाई करेगी और डिस्ट्रिब्यूटर को या सिनेमाघर के मालिक को कितना कमा कर देगी? इन सभी के आधार पर फिल्म रिलीज होती है. मेरी फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ में सभी नए कलाकार हैं. कुछ तो नौन आर्टिस्ट हैं.
‘‘फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज करने की दूसरी समस्या यह है कि दर्शकों को सिनेमा घर तक ले कर आना आसान काम नहीं है. इस की वजह यह है कि दर्शकों की सोच यह बन गई है कि यह छोटे बजट की फिल्म है अथवा पुरस्कृत फिल्म है, तो बहुत जल्दी टीवी पर या किसी सैटेलाइट चैनल या नैटफ्लिक्स और एमेजौन पर आएगी, तब देख लेंगे.’’
फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ क्या है? इस पर प्रवीण कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ की कहानी कश्मीर की ‘हाफ विडो’ की है. यह शब्द बहुत दुख देने के साथ ही अच्छा भी नहीं लगता. कश्मीर में ‘हाफ विडो’ उन महिलाओं को कहा जाता है जिन महिलाओं के पति गायब हैं. कश्मीर में पिछले 40 वर्षों के दौरान तमाम औरतों के पति गायब होते रहे हैं जिन का कुछ पता नहीं चलता कि वे मर गए या जिंदा हैं. यदि जिंदा हैं, तो कहां हैं? उन की मृत्यु स्थापित नहीं हो पाती है. इस के चलते इन महिलाओं को विधवा नहीं माना जाता.
‘‘हमारी फिल्म की कहानी बहुत मार्मिक है. यह कहानी आसिया नामक एक ऐसी महिला की है जो अपने पति की मौत का प्रमाणपत्र लेने के लिए दरदर भटक रही है. हर किसी को पता है कि भारतीय कानून के अनुसार 7 साल तक किसी को भी मृत नहीं माना जाता. कश्मीर की औरतें अपने पति के गायब होने पर 7 साल तक दुख और जिल्लतभरी जिंदगी जीती हैं. यह एक गंभीर और सोचने पर मजबूर करने वाली कहानी है. इसी के चलते पूरी दुनिया में इस फिल्म को बहुत सराहा गया.’’
यह कहानी आप के दिमाग में कैसे आई? थोड़ा विचारने पर प्रवीण उत्तर देते हुए कहते हैं, ‘‘2 साल पहले किसी अखबार में एक खबर पढ़ी थी जिस में ‘हाफ विडो’ का जिक्र था. मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं ने अब तक विधवा, शादीशुदा या कुंआरी कन्या यही सब सुना था. मुझे पता ही नहीं था कि ‘हाफ विडो’ भी होता है. इस से मेरे मन में कुतूहल जागा. फिर मैं ने इंटरनैट वगैरह पर काफी रिसर्च की तो पता चला कि कश्मीर की औरतें किस तरह दर्दनाक जिंदगी जी रही हैं. 10 दिनों के अंदर मैं कश्मीर पहुंच गया. कई गांवों में गया. कुछ औरतों से बातचीत की. कुछ सरकारी अफसरों से दफ्तरों में जा कर बात की. कुछ डौक्युमैंट्स इकट्ठे किए. फिर वहां मौजूद कुछ किताबें पढ़ीं. उसी आधार पर मैं ने अपनी फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ की पटकथा तैयार की.’’
प्रवीण से पूछने पर कि आप ने अपनी फिल्म में किस बात को प्रधानता दी है, तो वे कहते हैं, ‘‘मेरी आदत है कि मैं एक मुख्य किरदार के इर्दगिर्द कई दूसरे किरदार रचता हूं. इस में कुछ किरदार बहुत ही व्यंग्यप्रधान हैं, तो कुछ बहुत साधारण. इस के अलावा कहानी कश्मीर की है तो कश्मीर का पूरा माहौल है. मेरी फिल्में मेलोड्रामा नहीं होतीं. मैं कभी भी किसी भी मुद्दे पर जजमैंटल नहीं होता. बहुत ज्यादा कटाक्ष नहीं करता. मेरी कोशिश होती है कि मैं अपनी तरफ से सारे तथ्य सामने रख दूं, उस के बाद दर्शक खुद देख कर अपना निर्णय लें. मैं ने एक बहुत ही गंभीर फिल्म बनाई है जो लोगों को प्रभावित करेगी.’’
इस के बाद की क्या योजना है? इस पर वे कहते हैं, ‘‘मैं अपनी अगली फिल्म कश्मीर में ही बनाने वाला था. लेकिन अभी जो परिस्थितियां हैं, उस के हिसाब से वहां काम करना आसान नहीं है. तो मैं परिस्थितियों के सुधरने का इंतजार करूंगा.’’
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कश्मीर से आप को कुछ ज्यादा ही लगाव है? इस पर वे कुछ यों जवाब देते हैं, ‘‘जी हां, मुझे पहाड़ व प्रकृति से लगाव है. दूसरी बात यह है कि कश्मीर खूबसूरत भी बहुत है. वहां बहुत सारी मानवीय कहानियां भी हैं. मेरा मानना है कि जहां बहुत सारी तकलीफें होती हैं, परिस्थितियां सही नहीं होती हैं, वहां पर मानवीय कहानियां भी सब से ज्यादा निकलती हैं. अगर आप देखेंगे तो आज उस चीज के बल पर ही हम जिंदा हैं. मानवता की हमेशा जीत होती है. बहुत सारी चीजें हैं जिन को देख कर लगता है कि यह कहानी लोगों तक पहुंचनी चाहिए. ऐसी कहानियों की कश्मीर में भरमार है.’’
इसराईल और अमेरिका की संस्कृति और माहौल में काफी अंतर है. इन 2 विपरीत माहौल वाले देशों में भी आप की फिल्म को क्यों सराहा गया? इस सवाल पर प्रवीण कहते हैं, ‘‘इसराईल में हमारी फिल्म येरूशलम फिल्म फैस्टिवल में दिखाई गई. फ्रांस, जरमनी, बेल्जियम, ईरान और अमेरिका में भी फिल्म दिखाई गई. बेल्जियम में हमारी फिल्म को अवार्ड मिला. हमारी फिल्म ‘विडो औफ साइलैंस’ भारत की पहली फिल्म होगी जोकि बेल्जियम के सिनेमाघरों में रिलीज होगी. अमेरिका के सभी बड़ेबड़े फिल्म फैस्टिवल्स में यह दिखाई जा चुकी है.
‘‘देखिए, पूरे विश्व के लोगों की भावनाएं एकजैसी हैं. हमारा हंसना, हमारा रोना, हमारे दर्द, ये सारी भावनाएं एकजैसी हैं. फिर चाहे हम एशिया के हों या अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका से क्यों न हों. मानवीय दर्द व व्यथा की कथा पूरे विश्व के लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती है. जब हम इंसानी संघर्ष की बात करते हैं तो हर कोई उस से रिलेट करता है. मेरी फिल्म की कहानी जमीन से जुड़ी होती है, बहुत ही जमीनी सचाई को बयां करती है. इसलिए वह ग्लोबली बहुत बड़ा असर डालती है. मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपनी फिल्म में संवाद कम रख कर दृश्य ज्यादा रखूं.’’
मगर पारिवारिक भावनाएं जितनी भारत, ईरान व इसराईल में गहरी हैं उतनी अमेरिका में नहीं हैं? इस पर वे बताते हैं, ‘‘यदि आप गहराई से देखेंगे तो पता चलेगा कि यूरोप व अमेरिका जैसे देशों में इन दिनों वे फिल्में बहुत पसंद की जा रही हैं जिन में समाज या परिवार की बात की गई हो क्योंकि वहां लोग बहुत ज्यादा बिखर गए हैं, उन्हें अब परिवार की कमी अखर रही है. उदाहरण के लिए आप पिछले वर्ष की औस्कर विजेता फिल्म ‘रोमा’ को ही लें. इस में एक परिवार की कहानी है. परिवार के अंदर जो नौकरानी काम करती है, उस की कहानी है.’’
कश्मीर में शूटिंग के क्या अनुभव रहे? इस प्रश्न पर वे जवाब देते हुए कहते हैं, ‘‘वहां के लोग बहुत अच्छे हैं. कश्मीर के लोगों का खानपान, रहनसहन अच्छा है. वे हर किसी से दिल से मिलते हैं. कमाल के लोग हैं. वे सही मानो में कलाकार हैं. बेसिकली सूफियाना लोग हैं. सूफी आर्टिस्टिक नेचर के होते हैं. यदि आप को उन का दिल जीतना है तो उन को इज्जत देनी पड़ेगी. हमें तो उन्होंने बहुत अच्छे से ट्रीट किया.’’