Download App

ब्रोकली बनाए सेहत और पैसा

ब्रोकली का खाने वाला भाग छोटीछोटी अनेक पुष्प कलिकाओं का गुच्छा होता है जो फूल खिलने से पहले काट लिया जाता है. फूलगोभी में जहां एक पौधे से एक फूल मिलता है, वहीं ब्रोकली के पौधे से एक मुख्य गुच्छा काटने के बाद भी कुछ शाखाएं निकलती?हैं और इन शाखाओं से बाद में ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने या खाने के लिए मिल जाते?हैं. इस का वर्ण हरा होता?है इसलिए इसे हरी गोभी भी कहा जाता है.

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सर्दियों में इस की खेती सुगमता से की जा सकती है, जबकि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मूकश्मीर में इस के बीज भी बनाए जा सकते हैं.

जलवायु : ब्रोकली की अच्छी क्वालिटी की ज्यादा उपज लेने के लिए ठंडी व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है. अगर दिन अपेक्षाकृत?छोटे हों तो फूल की बढ़वार अधिक होती है.

फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने पर फूल छितरे, पत्तेदार और पीले हो जाते हैं. इस वजह से उपज पर बुरा असर पड़ता?है और उन की पौष्टिकता भी कम हो जाती है.

जमीन : ब्रोकली को विभिन्न प्रकार की जमीनों में उगाया जा सकता है, पर इस की सफल खेती के लिए सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, जिस में सही मात्रा में जैविक पदार्थ हो, अच्छी मानी गई है. हलकी जमीन में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डाल कर इस की खेती सुगमता से की जा सकती है.

ये भी पढ़ें- खाली खेत में केला उगाने में पाई कामयाबी

किस्में: ब्रोकली की 3 प्रकार की किस्में हैं जैसे श्वेत, हरी व बैगनी, लेकिन हरी ब्रोकली की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है.

हरी किस्में : नाइन स्टार, पेरिनियल, इटेलियन ग्रीन स्प्राउटिंग, केलेब्रस, बाथम 29 और ग्रीन हेड खास हैं.

हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र कटराईन, हिमाचल प्रदेश द्वारा ब्रोकली की केटीएस 9 किस्म विकसित की गई है. इस के पौधे मध्यम ऊंचाई के, पत्तियां गहरी हरी, शीर्ष कठोर और छोटे तने वाले होते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने पूसा ब्रोकली 1 किस्म खेती के लिए जारी की है.

नोट : इस किस्म के बीज थोड़ी मात्रा में पूसा संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र, कटराईन, हिमाचल प्रदेश से हासिल किए जा सकते हैं.

संकर किस्में : पाईरेट पेकमे प्रिमिय क्राप, क्लीपर, क्रुसेर, स्टिक व ग्रीन सर्फ खास हैं.

उगाने का उचित समय : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में ब्रोकली उगाने का सही समय ठंड का मौसम होता है. इस के बीज के अंकुरण व पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस तापमान होना चाहिए.

इस की नर्सरी तैयार करने का सही समय अक्तूबर माह का दूसरा पखवाड़ा होता है, जबकि पर्वतीय इलाकों में कम ऊंचाई वाले इलाकों में सितंबरअक्तूबर, मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में अगस्तसितंबर और ज्याद ऊंचाई

वाले इलाकों में मार्चअप्रैल में नर्सरी तैयार की जाती है.

बीज दर : फूलगोभी की तरह ब्रोकली के बीज भी बहुत छोटे होते हैं. एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पौध तैयार करने के लिए तकरीबन 375-400 ग्राम बीज पर्याप्त होते हैं.

ये भी पढ़ें- जैविक खेती से सुधरे जमीन की सेहत

पौध तैयार करना : बंदगोभी की तरह ब्रोकली की पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है और बाद में रोपाई की जाती है. कम संख्या में पौधे उगाने के लिए 3 फुट लंबी और 1 फुट चौड़ी जमीन की सतह से 1.5 सैंटीमीटर ऊंची क्यारी में बीज की बोआई की जाती?है. क्यारी को अच्छी तरह तैयार कर के और उस में गोबर की सड़ी खाद मिला कर बीजों को पंक्तियों में 4-5 सैंटीमीटर की दूरी पर तकरीबन 2.5 सैंटीमीटर की गहराई पर बो देते हैं.

बीज बोने के बाद क्यारी को घासफूस की पतली परत से ढक देते हैं और समयसमय पर सिंचाई करते रहते हैं. जैसे ही बीज अंकुरित होने लगें, ऊपर से घासफूस हटा दी जाती है.

नर्सरी में पौधों को कीटों से बचाने के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र का छिड़काव करें. नर्सरी में जब पौध 4 हफ्ते के हो जाएं, तब उन की रोपाई कर दें.

रोपाई : तैयार पौध को खेत में लाइन से लाइन में 15-60 सैंटीमीटर का अंतर रख कर और पौधे से पौधे में 45 सैंटीमीटर के अंतर पर रोपाई कर देते हैं. रोपाई करते समय जमीन में सही नमी होनी चाहिए और रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आखिरी बार रोपाई की तैयारी करते समय प्रति 10 वर्गमीटर क्षेत्रफल में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद, 1 किलोग्राम नीम की खली और

1 किलोग्राम अरंडी की खली. इन सब खादों को अच्छी तरह मिला कर रोपाई से पहले समान मात्रा में बिखेर दें. इस के बाद खुदाई कर के रोपाई कर दें. प्रति हेक्टेयर 50-60 टन गोबर की खाद डालनी चाहिए. उर्वरकों का उपयोग मिट्टी की जांच के बाद करना चाहिए. यदि किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो निम्न मात्रा में प्रति हेक्टेयर उर्वरक डालना चाहिए:

नाइट्रोजन : 100-120 किलोग्राम.

फास्फोरस : 45-50 किलोग्राम.

गोबर की खाद और फास्फोरस वाले उर्वरक की मात्रा को खेत की तैयारी से पहले मिट्टी में भलीभांति मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 भागों में बांट कर रोपाई के क्रमश: 25, 45 व 60 दिन बाद डालना चाहिए. नाइट्रोजन की दूसरी मात्रा डालने के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

पौध संरक्षण उपाय

खरपतवार नियंत्रण : ब्रोकली की जड़ और पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए खेत में उगे खरपतवारों को निकालना बहुत ही जरूरी काम है. ऐसा करने से पौधों का विकास व बढ़ोतरी तेजी से होती है. निराई के बाद पौधों के पास मिट्टी चढ़ाने से पानी देने पर पौधे नहीं गिरते हैं. निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में वायु संचार तेजी से होता है, जिस से जड़ों का विकास अच्छा होता है.

कीट नियंत्रण

तेला : यह कीट हरे रंग का होता है, जो पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता?है. इस वजह से पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर बुरा असर पड़ता?है. इस कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान की 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में?घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

काला विगलन : यह रोग जैंथोमोनास कैंपस्ट्रिस नामक फफूंदी के चलते होता है. पत्तियों के किनारों पर कीटों द्वारा घाव बना दिए जाते हैं. इस वजह से वे मुरझा कर अंगरेजी के ‘वी’ आकार की तरह हो जाते?हैं जो आधार से मध्य शिरा की ओर बढ़ते हैं. बाद में वे काले रंग के हो जाते हैं और अंत में सड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय अपनाने चाहिए:

* बीज बोने से पहले 30 मिनट तक उसे पानी में भिगोना चाहिए. उस के बाद 5 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान वाले गरम पानी में 30 मिनट तक रखना चाहिए और बाद में ‘स्ट्रेप्टोमाइसिन’ की 1 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी के घोल में

30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए, फिर उन्हें छाया में सुखाना चाहिए.

* जब फूलों का बनना शुरू हो जाए, तब ‘स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के?घोल (10 ग्राम प्रति 100 लिटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए.

तना विगलन : यह रोग ‘स्केलोरोटिया स्क्लेराटिओरस’ नामक फफूंदी के चलते होता है. रोगी पौधे मटमैले सफेद रंग के हो जाते हैं और अंत में पीले रंग के हो जाते?हैं. तनों पर गहरे भूरे से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बड़े हो कर तने को जमीनी स्तर तक ढक लेते हैं. इस वजह से तना सड़ जाता है. फूल अपनी सघनता छोड़ देते हैं. इस के बाद सफेद विगलन के लक्षण दिखाई देते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय अपनाने चाहिए:

* प्रभावित भागों को अलग कर के उन्हें जला देना चाहिए.

* फूल निर्माण से फूल बनने तक

10-15 दिन के अंतराल पर ‘कार्बंडाजिम’ (0.03 फीसदी) और मैंकोजेब (0.25 फीसदी) के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

डाउनी मिल्ड्यू : यह रोग ‘परनोस्पोरा एरोसिटिका’ नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग के कारण तने पर गहरे भूरे रंग के दबे हुए चकत्ते बन जाते हैं, जिस में बाद में मृदु रोमिल की बढ़वार हो जाती है. पत्तियों की निचली सतह पर बैगनी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग के कारण फूलों को अधिक नुकसान होता है और बुरा असर पड़ता है.

इस रोग पर नियंत्रण पाने के लिए निम्न उपचार करना चाहिए:

* बीजों को बोने से पहले गरम पानी से उपचारित करना चाहिए.

* फिर बीजों को 0.3 फीसदी थायरम से उपचारित करना चाहिए.

* प्रभावित फूलों को निकाल दें और 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड का छिड़काव करना चाहिए.

* फसल पर 10-15 दिन के अंतराल पर 0.2 फीसदी मैंकोजेब के घोल का छिड़काव करना चाहिए. पहला छिड़काव रोग का प्रकोप होते ही करें.

* खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें.

* सही फसल चक्र अपनाएं.

सिंचाई : मिट्टी, मौसम और पौधों की बढ़वार को ध्यान में रख कर फसल को 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ताकि अच्छी उपज मिल सके.

ये भी पढ़ें- जैविक खेती से सुधरे जमीन की सेहत

फसल की कटाई

ब्रोकली की समय पर कटाई करें. कटाई तब करें, जब फसल में हरे रंग की कलियों का मुख्य गुच्छा बन कर तैयार हो जाए.

आमतौर पर रोपने के 65-70 दिन बाद शीर्ष तैयार हो जाते?हैं तो इस को तेज चाकू या दरांती से कटाई कर लें.

ध्यान रखें कि कटाई के साथ गुच्छा खूब गुंथा हुआ हो और उस में कोई कली खिलने न पाए.

ब्रोकली की यदि तैयार होने के बाद देर से कटाई की जाएगी तो वह ढीली हो कर बिखर जाएगी और उस की कली खिल कर पीला रंग दिखाने लगेगी. ऐसी अवस्था में कटाई किए गए गुच्छे बाजार में बहुत कम कीमत पर बिकते?हैं. मुख्य गुच्छा काटने के बाद ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने के लिए सही होंगे.

उपज

ब्रोकली की उपज कई बातों पर निर्भर करती?है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म और फसल

की देखभाल प्रमुख है. ब्रोकली की अच्छी खेती से प्रति हेक्टेयर 12-15 टन तक उपज मिल जाती है.

भारत का सब से गहरा सीढ़ीदार कुआं 

चांद बाओरी चांद बावड़ी

राजस्थान की एक जगह बांलीकुल में 800 ई.पू. में एक ऐसा सीढ़ीदार कुंआ तैयार किया गया था, जिसे बनाने वाले स्थानीय कारीगर थे. यहां के राजा चंदा के नाम पर ही इस बावड़ी को नाम दिया गया चंदा या चांद बावड़ी.

इस बावड़ी का सब से पुराना भाग आठवीं शताब्दी में तैयार किया गया था. कमाल यह है कि ये सीढ़ीदार कुंआ 18वीं शताब्दी तक तैयार होता रहा और यह हिस्सा कुएं के सब से ऊपरी भाग में आज भी देखा जा सकता है.

चांद बावड़ी में कुल 2500 संकरी सीढि़यां हैं और ये सीढि़यां नीचे से ऊपर तक 13 मंजिलों तक फैली हैं.चूंकि राजस्थान में पानी की बेहद कमी है, इसलिए ज्यादा से ज्यादा पानी बचाने के लिए ही इस बावड़ी को तैयार किया गया था. अगर हम बावड़ी के सब से नीचे बनी सीढि़यों पर पहुंच जाएं तो यहां का तापमान ऊपर के हिस्से के तापमान से करीब 5 डिग्री कम होता है.

जब इस इलाके में भीषण गरमी पड़ती है तो आसपास के लोग इसी बावड़ी में इकट्ठा हो जाते. इस बावड़ी में एक ऐसा स्थान भी है जहां पर शाही लोग जमा होते थे. इस बावड़ी को आज भी यहां के दौसा इलाके में देखा जा सकता है. जिस गांव में ये बावड़ी बनी है, वह है आभानेरी.

ये भी पढ़ें- विश्व धरोहर मोंट सेंट माइकल चर्च     

आज इस बावड़ी को लोग कौतूहल से सिर्फ देखने आते हैं. बावड़ी के ज्यामितीय आकार की नकल करना भी आज मुश्किल है. सीढि़यों की वजह से यहां धूप और छांव से जो आकार उभरते हैं, वे पर्यटकों को रोमांच से भर देते हैं. चांद बावड़ी के एक तरफ मंदिर भी तैयार किया गया था. इस सीढ़ीदार कुएं की कुल गहराई 100 फुट के करीब है.

ये भी पढ़ें- बच्चे की जिज्ञासा से 27 साल बाद खुला रहस्य 

फैसला इक नई सुबह का : भाग 2

लेकिन उस के सासससुर बहुत अच्छे थे. उन्होंने उसे बहुत प्यार व अपनापन दिया. सास तो स्वयं ही उसे पसंद कर के लाई थीं, लिहाजा वे मानसी पर बहुत स्नेह रखती थीं. उन से मानसी का अकेलापन व उदासी छिपी नहीं थी. उन्होंने उसे हौसला दे कर अपनी पढ़ाई जारी रखने को कहा, जोकि शादी के चलते अधूरी ही छूट गई थी. मानसी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. हालांकि राजन को उस का घर से बाहर निकलना बिलकुल पसंद नहीं था परंतु अपनी मां के सामने राजन की एक न चली. मानसी के जीवन में इस से बहुत बड़ा बदलाव आया. उस ने नर्सिंग की ट्रेनिंग पूरी की. पढ़ाई पूरी होने से उस का आत्मविश्वास भी बढ़ गया था. पर राजन के लिए मानसी आज भी अस्तित्वहीन थी.

मानसी का मन भावनात्मक प्रेम को तरसता रहता. वह अपने दिल की सारी बातें राजन से शेयर करना चाहती थी, परंतु अपने बिजनैस और उस से बचे वक्त में अपनी रंगीन जिंदगी जीते राजन को कभी मानसी की इस घुटन का एहसास तक नहीं हुआ. इस मशीनी जिंदगी को जीतेजीते मानसी 2 प्यारे बच्चों की मां बन चुकी थी.

बेटे सार्थक व बेटी नित्या के आने से उस के जीवन को एक दिशा मिल चुकी थी. पर राजन की जिंदगी अभी भी पुराने ढर्रे पर थी. मानसी के बच्चों में व्यस्त रहने से उसे और आजादी मिल गई थी. हां, मानसी की जिंदगी ने जरूर रफ्तार पकड़ ली थी, कि तभी हृदयाघात से ससुर की मौत होने से मानसी पर मानो पहाड़ टूट पड़ा. आर्थिक रूप से मानसी उन्हीं पर निर्भर थी. राजन को घरगृहस्थी में पहले ही कोई विशेष रुचि नहीं थी. पिता के जाते ही वह अपनेआप को सर्वेसर्वा समझने लगा. दिनोंदिन बदमिजाज होता रहा राजन कईकई दिनों तक घर की सुध नहीं लेता था. मानसी बच्चों की परवरिश व पढ़ाईलिखाई के लिए भी आर्थिक रूप से बहुत परेशान रहने लगी. यह देख कर उस की सास ने बच्चों व उस के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपनी आधी जायदाद मानसी के नाम करने का निर्णय लिया.

यह पता लगते ही राजन ने घर आ कर मानसी को आड़े हाथों लिया. परंतु उस की मां ने मानसी का पक्ष लेते हुए उसे लताड़ लगाई, लेकिन वह जातेजाते भी मानसी को देख लेने की धमकी दे गया. मानसी का मन बहुत आहत हुआ, जिस रिश्ते को उस ने हमेशा ईमानदारी से निभाने की कोशिश की, आज वह पूरी तरह दरक गया. उस का मन चाहा कि वह अपनी चुप्पी तोड़ कर जायदाद के पेपर राजन के मुंह पर मार उसे यह समझा दे कि वह दौलत की भूखी नहीं है, लेकिन अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए उस ने चुप्पी साध ली.

समय की रफ्तार के साथ एक बार फिर मानसी के कदम चल पड़े. बच्चों की परवरिश व बुजुर्ग सास की देखभाल में व्यस्त मानसी अपनेआप को जैसे भूल ही चुकी थी. अपने दर्द व तकलीफों के बारे में सोचने का न ही उस के पास वक्त था और न ही ताकत. समय कैसे गुजर जाता था, मानसी को पता ही नहीं चलता था. उस के बच्चे अब कुछ समझदार हो चले थे. ऐसे में एक रात मानसी की सास की तबीयत अचानक ही बहुत बिगड़ गई. उस के फैमिली डाक्टर भी आउट औफ स्टेशन थे. कोई दूसरी मदद न होने से उस ने मजबूरी में राजन को फोन लगाया.

‘मां ने जब तुम्हें आधी जायदाद दी है तो अब उन की जिम्मेदारी भी तुम निभाओ. मैं तो वैसे भी नालायक औलाद हूं उन की,’ दोटूक बात कह कर राजन ने फोन काट दिया. हैरानपरेशान मानसी ने फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपनी सास का इलाज अपनी काबिलीयत के बल पर किया. उस ने उन्हें न सिर्फ बचाया बल्कि स्वस्थ होने तक सही देखभाल भी की. इतने कठिन समय में उस का धैर्य और कार्यकुशलता देख कर डाक्टर प्रकाश, जोकि उन के फैमिली डाक्टर थे, ने उसे अपने अस्पताल में सर्विस का औफर दिया. मानसी बड़े ही असमंजस में पड़ गई, क्योंकि अभी उस के बड़े होते बच्चों को उस की जरूरत कहीं ज्यादा थी. पर सास के यह समझाने पर कि बच्चों की देखभाल में वे उस की थोड़ी सहायता कर दिया करेंगी, वह मान गई. उस के जौब करने की दूसरी वजह निसंदेह पैसा भी था जिस की मानसी को अभी बहुत जरूरत थी.

अब मानसी का ज्यादातर वक्त अस्पताल में बीतने लगा. घर पर सास ने भी बच्चों को बड़ी जिम्मेदारी से संभाल रखा था. जल्द ही अपनी मेहनत व योग्यता के बल पर वह पदोन्नत हो गई. अब उसे अच्छी तनख्वाह मिलने लगी थी. पर बीचबीच में राजन का उसे घर आ कर फटकारना जारी रहा. इसी के चलते अपनी सास के बहुत समझाने पर उस ने तलाक के लिए आवेदन कर दिया. राजन के बारे में सभी भलीभांति जानते थे. सो, उसे सास व अन्य सभी के सहयोग से जल्द ही तलाक मिल गया.

कुछ साल बीततेबीतते उस की सास भी चल बसीं. पर उन्होंने जाने से पहले उसे बहुत आत्मनिर्भर बना दिया था. उन की कमी तो उसे खलती थी लेकिन अब उस के व्यक्तित्व में निखार आ गया था. अपने बेटे को उच्चशिक्षा के लिए उस ने कनाडा भेजा तथा बेटी का उस के मनचाहे क्षेत्र फैशन डिजाइनिंग में दाखिला करवा दिया. अब राजन का उस से सामना न के बराबर ही होता था. पर समय की करवट अभी उस के कुछऔर इम्तिहान लेने को आतुर थी. कुछ ही वर्षों में उस के सारे त्याग व तपस्या को भुलाते हुए सार्थक ने कनाडा में ही शादी कर वहां की नागरिकता ग्रहण कर ली. इतने वर्षों में वह इंडिया भी बस 2 बार ही आया था. मानसी को बहुत मानसिक आघात पहुंचा. पर वह कर भी क्या सकती थी. इधर बेटी भी पढ़ाई के दौरान ही रजनीश के इश्क मेें गिरफ्तार हो चुकी थी. जमाने की परवा न करते हुए उस ने बेटी की शादी रजनीश से ही करने का निर्णय ले लिया.

मुंह पर प्यार से मांमां करने वाला रजनीश बेगैरत होगा, यह उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. परंतु जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो किसे दोष देना. अभी कुछ वक्त पहले ही उस ने यह फ्लैट खरीदने के लिए 20 लाख रुपयों से दामाद की मदद की थी, परंतु वह तो…सोचतेसोचते उस की आंखों में पानी आ गया.

‘मैं हर सीरियल या फिल्म के सेट पर पहले दो दिन नर्वस रहती हूं’: मौनी राय

पूरे नौ वर्षों तक लगातर टीवी काम करते हुए मौनी रौय ने ‘कसम से’, ‘देवो के महादेव’ और ‘नागिन’ जैसे कई सीरियलों में अभिनय कर जबरदस्त शोहरत बटोरी. उसके बाद अक्षय कुमार के साथ फिल्म ‘गोल्ड’ में अभिनय कर फिल्मों में कदम रखा. ‘गोल्ड’ को अच्छी, खासी सफलता मिली, जिसके चलते वह जौन अब्राहम के संग फिल्म ‘रा’ में नजर आयीं. अब वह राज कुमार राव के साथ मिखिल मुसाले निर्देशित ‘मेड इन चाइना’ में नजर आने वाली हैं. जो कि 25 अक्टूबर को प्रदर्शित होगी. इसके अलावा मौनी रौय इन दिनों आलिया भट्ट, रणबीर कपूर व अमिताभ बच्चन के साथ ‘ब्रम्हास्त्र’ के अलावा दूसरी फिल्में भी कर रही हैं.

प्रस्तुत है मौनी रौय के संग हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश…

पिछली फिल्म ‘‘रा’’ को कैसा रिस्पांस मिला?

बहुत अच्छा रिस्पांस मिला. लोगों ने मेरे किरदार को काफी सराहा. पहली बार लोगों ने मुझे एकदम अलग किरदार में देखा, पहली बार लोगों ने मुझे अंडरस्टेटेड किरदार में देखा, जहां मै चुलबुली नहीं थी. यह एकदम साफ और फोकस्ड किरदार रहा. जिस तरह से एक भारतीय डिप्लोमेट को होना चाहिए. इसी तरह के भारतीय डिप्लोमेट सत्तर के दशक में हुआ करते थे. मैं काफी यात्राएं करती रहती हूं. यात्रा के दौरान भी लोगों से अच्छे रिस्पांस मिले. दुबई मे एक प्रशंसक ने कहा कि मेरा किरदार इम्पावरिंग और एकदम सटीक था. लोगों ने मुझे इस तरह के किरदार में देखने की उम्मीद नहीं की थी. उन्हें लगा था कि मैं नाचते गाते या चुलबुली लड़की के ही किरदार में नजर आउंगी.

mouni-roy

आपको नहीं लगता कि ‘‘रा’’ से आपकी ईमेज में बदलाव आया?

मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं. टीवी पर भी मुझे विविधतापूर्ण किरदार निभाने का मौका मिले. टीवी पर मैं नौ वर्ष से काम करती आयी हूं. मैंने देवों के देव महादेव, नागिन, झलक दिखला जा जैसे कई सीरियल किए. इसीलिए मैं लगातार काम कर रही हूं. अब मैं ‘मेड इन चाइना’ को लेकर अति उत्साहित हूं.

ये भी पढ़ें- ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: कायरव को पता चल गया नायार कार्तिक के रिश्ते की सच्चाई

फिल्म ‘‘मेड इन चाइना’’ से जुड़ने की कोई खास वजह?

फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट और निर्देशक बहुत खास हैं. इसके अलावा इस फिल्म का निर्माण कर रही कंपनी ‘मैडाक फिल्मस’ ने अब तक अमेजिंग विषयों पर अमेजिंग फिल्मों का निर्माण किया है. जब उन्होंने मुझे यह कहानी सुनायी तो मै एक्साइटेड हो गयी. मैं मूलतः बंगाली हूं और मुझे इसमें गुजराती हाउस वाइफ का किरदार निभाना था, यह सुनकर मैंने कहा कि मुझे यह फिल्म करनी है. मेरे लिए यह किरदार काफी चुनौतीपूर्ण लगा.

RAJ-KUMAR-RAO-AND-MOUNY-ROY-IN-FILM--MADE-IN-CHINA--AP8A1907-00

अपने किरदार के लिए आपने किस तरह का होमवर्क किया?

बहुत कुछ करना पड़ा.सबसे हम सभी के लिए किरदार के सही लुक को पकड़ना आवश्यक था. जब किरदार के अनुरूप लुक सही हो जाए, तो आधा काम हो जाता है. लुक को अंतिम रूप देने में स्टाइलिश शीतल के अलावा निर्देशक सहित पूरी टीम ने काफी योगदान दिया. शीतल ने मुझे एकदम गुजराती बना दिया. उसके बाद लेखकों ने बैठकर मुझे संवाद का एक एक वाक्य समझाया.

गुजरातियों की अपनी एक अलग भाषा के साथ बौडी लैंग्वेज भी अलग है. उसे आपने कैसे पकड़ा?

मैंने अहमदाबाद जाकर कई गुजराती घरेलू महिलाओं से मुलाकात की. इसके अलावा सेट पर भी हमेषा एक गुजराती लड़की हमारे साथ होती थी,जो कि मुझे मैनेरिजम की बारीकियों से अवगत कराती थी.दूसरी बात निर्देषक नहीं चाहते थे कि मेरा किरदार पूरी तरह से गुजरातियों का कैरीकेचर नजर आए.इसके अलावा मेरा किरदार काफी अलग है.रूक्मणी गुजराती होते हुए भी मुंबई या दिल्ली जैसे महानगर में रही है और उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं, वह अपनी जिंदगी में काफी कुछ करना चाहती है. फिर जब उसे रघु से प्यार हो जाता है,  तो वह किस तरह सब कुछ छोड़कर रघु के साथ अहमदाबाद में रहती है. इसलिए वह गुजराती एसेंट मे कम सामान्य हिंदी में ही ज्यादा बात करती है.

दर्शक फिल्म क्यों देखना चाहेगा?

यह फिल्म एक मध्यमवर्गीय दंपति की यात्रा है. यह कहानी उस इंसान की है जो कि लूजर है, पर हर बार वह नई नई आइडिया लेकर आता है और व्यापार में सफल होना चाहता है. अंततः एक मोड़ पर उसे सफलता मिलती है. इसके साथ ही काफी फन एलीमेंट है. अंडररेटेड जोक्स हैं. यह पूरी तरह से एक पारिवारिक फिल्म है. इसमें राज कुमार राव, बोमन ईरानी, गजराज राव,सुमित व्यास व परेश रावल जैसे दिग्गज कलाकार हैं.

ये भी पढ़ें- विवेक ओबेरौय : “मुंबई आर्ट फेयर कला को अभिजात्य नही तो अधिक प्रवेश के योग्य सुलभ बनाता है

राजकुमार राव, बोमन ईरानी व परेश रावल के साथ आपकी यह पहली फिल्म है. क्या अनुभव रहे?

परेश रावल के साथ मेरे सीन नही है. बोमन ईरानी के साथ सिर्फ गाने में हूं. राज कुमार राव साथ काम करके काफी कुछ सीखा. वह ब्रीलिएंट कलाकार हैं. जबकि शुरूआत में मैं थोड़ा सा हिचक रही थी कि मैं राज कुमार राव के साथ कैसे काम करुंगी. क्योंकि जब आप किसी बेहतरीन कलाकार के साथ काम करते हैं, तो आपके सीन को भी वह बेहतर बना देते हैं. आपको उसके साथ काम करके काफी कुछ सीखने को मिलता है. राज कुमार राव से मैने बहुत कुछ सीखा.

पर आप डरी हुई क्यों थी?

बात डर की नहीं, बल्कि आपको अंदर से लगता है कि आप एक ऐसे क्लेबर के कलाकार के साथ काम करने जा रहे है, तो आप क्या कर पाएगी. फिर नर्वसनेस होना अच्छी बात होती है. मैं हर सीरियल या फिल्म के सेट पर पहले दो दिन नर्वस रहती हूं क्योंकि तब हमारे दिमाग में किरदार को लेकर कई चीजे चल रही होती हैं. जब किरदार का टोन तय हो जाता है, तब सब कुछ ठीक हो जाता है. नर्वसनेस का होने का मतलब है कि आप अपने काम को गंभीरता से लेते हैं.

ये भी पढ़ें- मैं युवा पीढ़ी की विशेषताओं को समझने की कोशिश करता हूं : विक्रम भट्ट

मेकअप/लुक सही हो तो उसका फायदा अभिनय में मिलता है?

बिलकुल..लेकिन आपको उतनी ही इमानदारी के संग काम भी करना पड़ता है. मसलन,  जब हमें राजस्थानी किरदार निभाना है और हमने राजस्थानी घाघरा व चोली पहनी है, पूरी तरह से राजस्थानी लग रही हूं, तो वह अभिनय में मददगर साबित होता है. ऐसा ही रूक्मणी के किरदार के साथ हुआ. मैं लुक वाइज गुजराती लग रही थी.

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: कायरव को पता चल गया नायरा कार्तिक के रिश्ते की सच्चाई

टीवी का मशहूर सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  दर्शकों को लगातार एक से बढ़कर एक ट्विस्ट देखने को मिल रहे हैं.  हाल ही में आपने देखा कि नशे की हालत में नायरा और कार्तिक अपनी पुरानी बातों को याद करने लगे और फिर इमोशनल हो गए थे और एक दूसरे के साथ रोमांटिक पल भी गुजारे. नशे के हालत में ही दोनों ने  फिर से शादी कर ली.

आपको रीसेंट एपिसोड के बारे में बताते हैं. नायरा की बड़ी दादी रोते हुए कार्तिक के बारे में कहती हैं कि कार्तिक ने नायरा को बेवजह कोर्ट कचहरी में खींचा. तो वहीं कायरव दादी के पीछे खड़ा होकर सारी बाते सुन लेता है. और वो सोचता है कि पापा उसकी मम्मा को क्यों परेशान कर रहे हैं? वो नीचे आता है और वहां सुनता है कि नायरा भी अपने भाई नक्ष से कस्टडी केस के बारे में बात कर रही होती है, कायरव ये सब सुनकर बहुत अपसेट होता है.

ये भी पढ़ें- मैं युवा पीढ़ी की विशेषताओं को समझने की कोशिश करता हूं : विक्रम भट्ट

दूसरी तरफ वेदिका, कार्तिक को परेशान देखकर वो भी परेशान  हो जाती है. वेदिका ये सोचकर बहुत उदास है कि नायरा उसकी वजह से और उसकी-कार्तिक की शादी बचाने के लिए इस शहर में नहीं रहना चाहती है.

जल्द ही इस शो में वेदिका का खुलासा होने वाला है. जी हां, उसके एक्स-हसबैंड की एंट्री होने वाली है. वेदिका ने अपने  बीते हुए कल के बारे में सबसे छुपाया है. लेकिन जल्द ही उसका सच सबके सामने आने वाला है.

इस शो के अपकमिंग एपिसोड में देखना दिलचस्प होगा कि  कार्तिक की वकील दामिनी मिश्रा कस्टडी केस जीतने के लिए नायरा पर किस तरह का आरोप लगाती है और कार्तिक का क्या रिएक्शन होता है.

ये भी पढ़ें- औडीशन में मुझे पसंद किया गया, ‘मगर’ : शिवम भार्गव

अब नहीं मिलेगा खाने पर डिस्काउंट

बढ़ती टेक्नोलौजी और इंटरनेट की दुनिया ने सच में बहुत कुछ बदल दिया है. आज लोग पहनने से लेकर खाने तक के लिए औनलाइन ऐप्लीकेशन्स का सहारा लेते हैं. ऐसे ही एप्लिकेशन्स है जोमेटो और स्वीगी. यह दोनों ही फूड डिलीवरी प्लेटफौर्म हैं जिनके माध्यम से कोई भी घर बैठेबैठे गर्मा-गर्म खाना मंगवा सकता है. इन के तार सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेश तक फैले हुए हैं. वैसे ऐसे और भी फूड एप्लीकेशन्स हैं जैसे फूडपांडा, उबरइट्स इत्यादि.

इन एप्लीकेशन्स के साथ कई रेस्टोरेंट जुड़े हुए होते हैं. शुरुआत में इन एप्लीकेशन्स ने रेस्टोरंट के मालिकों से उपयोग करने को कहा. कुछ समय बाद इन कंपनी ने लौजिस्टिक्स कंपनी की मदद से एक बड़ा डिलीवरी नेटवर्क खड़ा कर लिया. इससे लोगों को उन के मनपसंद रेस्टोरंट से गर्मागर्म खाना उनके दरवाजे पर मिलने लगा साथ ही रेस्टोरेंट के चक्कर काटने से उन्हें मुक्ति मिल गई.

अब तो हालत यह है कि घर परिवार के बीच, दोस्तों के बीच, औफिस में कहीं भी, कहीं भी भूख लगती है हम झट से अपना मोबाइल फोन निकाल कर फूड एप्लीकेशन्स की मदद से खाना और्डर कर देते है और सबसे बढ़िया बात तो तब होती है जब फूड के साथ स्पेशल डिस्काउंट मिल जाता है. यानी रेस्टोरेंट से कम पैसे में घर बैठे खाना. लेकिन शायद अब यह डिस्काउंट न मिले.

दरअसल, जोमैटो और स्वीगी जैसी फूड डिलीवरी कंपनियां ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों को अपनी तरफ लुभाने के लिए तरह तरह की स्कीम चलाती हैं, डिस्काउंट देती हैं. हाल में ही जोमैटो ने भी जोमेैटो गोल्ड जैसी स्कीम चला रखी है. जिससे ग्राहक को तो फायदा होता है लेकिन रेस्टोरेंट को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है.

क्या है गोल्ड मेम्बरशिप

जोमैटो गोल्ड की वर्षिक सदस्यता 2000 रुपये से शुरू होती है और 3 महीने की सदस्यता 800 रूपय से. 10 लाख से ज्यादा लोगों ने गोल्ड मेम्बरशिप ली हुई है. जोमैटो का गोल्ड मेम्बरशिप में जो ग्राहक जुड़े होते है, उन्हें जोमैटों फूड और ड्रिंक्स पर  50 प्रतिशत तक का डिस्काउंट देता है. यह डिस्काउंट के साथ अपने कस्टमर को कौम्पलीमेंटरी मिल की सुविधा भी देता है. जैसे इस स्कीम में आप जो भी और्डर करेंगे उसके साथ आपको एक डिश फ्री मिलेगी. अगर आप दो ड्रिंक्स और्डर करते हैं तो आपको दो और ड्रिंक्स मुफ्त मे मिलेंगी. इनके ऐसे कई और भी तरीके होते हैं. एक तो यह कि रेस्टोरेंट में फूड कि जो कीमतें होती हैं, उनसे कम कीमतों पर ये फूड एग्रीगेटर आपको खाना दे देते हैं. दूसरे, वे आपको कौम्पलीमेंटरी डिश देते हैं, यानी आपने एक डिश और्डर की तो दूसरा डिश आपको उसके साथ मुफ़्त में देते हैं. इसके अलावा उनकी कैश बैक स्कीम भी होती है, यानी आपने जितने का खाना लिया, उसका एक हिस्सा आपको बाद में वापस कर देते हैं, मतलब आप उतने पैसे का कोई दूसरा खाना और्डर कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें- वर्ल्ड फूड डे: टेक्नोलौजी में करियर

कैसे होता है कस्टमर को फायदा

जोमैटो गोल्ड मेम्बरशिप के द्वारा कस्टमर एक डिश और्डर नहीं कर सकता. अगर कोई कस्टमर 3 डिश और्डर करता है तो उस डिश में जो सबसे ज्यादा महंगा डिश है वो उन्हें कौम्पलीमेंटरी मिल जाता है. यदि कोई व्यक्ति 200 रूपय की पनीर की सब्जी, 400 रूपय की बिरयानी और 300 रूपय का नान या कोई अन्य डिश मंगवाता है तो उसका कुल मिलाकर 900 रुपये का बिल आता है. लेकिन जोमैटो गोल्ड के मेम्बर होने के कारण उस व्यक्ति को मात्र 500 रूपय देने होंगे यानी 400 रूपय का फायदा. इसके साथ कस्टमर को 10 से 20 प्रतिशत डिस्काउंट अलग से मिलता है.

जोमैटो गोल्ड में ड्रिंक्स पर 2+2 का स्कीम है. इसमें कस्टमर को 2 ड्रिंक्स के साथ 2 ड्रिंक्स मुफ्त मिलती है. जिससे कस्टमर को डबल फायदा होता है. इसके अलावा यदि कोई कस्टमर रेस्टोरेंट में खाना खाने की सोच रहा है और अगर वो रेस्टोरेंट जोमैटो का गोल्ड पार्टनर है तो कस्टमर को वहां भी कुछ प्रतिशत डिस्काउंट मिलता है. रेस्टोरेंट में डिस्काउंट के लिए कस्टमर को पहले से टेबल बुक करनी पड़ती है. लेकिन शायद अब इतना डिस्काउंट न मिले.

क्यों हुआ डिस्काउंट देना बंद

इस स्कीम से जोमटो-स्वीगी के साथ ग्राहक को फायदा तो हो रहा था लेकिन रेस्टोरेंट वालों को इस स्कीम से घाटा होने लगा. लोगों को उनके मनपसंद रेस्टोरेंट से घर बैठे खाना मिल रहा था साथ में समय कि बचत भी. ऐसे में भला कोई रेस्टोरेंट क्यों जाएगा? इससे परेशान रेस्टोरेंट वालों ने जोमटो और स्वीगी के खिलाफ आंदोलन चला दिया है. इस में फेडरेशन औफ होटल्स एंड रेस्टोरेंट एसोशिएसन औफ इंडिया (एफएचआरएआई) ने भी सपोर्ट किया. एएचआरआई ने फूड एग्रीगेटर्स यानी जो कंपनियांरेस्टोरेंट से घर-घर खाना पहुंचाने का काम करती हैं, उन्हें कहा है कि वे तुरन्त हर तरह का डिस्काउंट और स्कीम बंद कर दें. एफएचआरएआई ने जोमैटो, स्विगी के साथ साथनियरबाई, डाइनआउट प्रायस हाइट्स, इजडाइनर, मैजिकपिन को भी यह चेतावनी दी है.

रेस्टोरेंट ने किया बौयकाट

स्वीगी और जोमटो 1500 से अधिक रेस्टोरेंट ने बौयकाट कर लिया है. दरअसल, डिस्काउंट और फ्री फूड के स्कीम को देखते हुए रेस्टोरेंट वालों का कहना है कि इससे उनके काम को काफी नुकसान पहुंच रहा है. जंगपुरा में छोटा सा कैफे चलाने वाले सुमित का कहना है “यह लोग औनलाइन तो डिस्काउंट देते है जिससे ग्राहक को काफी सस्ता पड़ता है और सस्ते में जब कुछ अच्छा मिल रहा हो तो कोई भी उसका लुत्फ उठाना चाहेगा. लेकिन सोचिए कभी लोग सीधा रेस्टोरेंट में खाना खाने आते है तो उनको यहां फूड रेस्टोरेंट के अनुसार तय की गई कीमत पर ही मिलेगा. जो उनको महंगा लगने लगेगा. ऐसे में वह लोग रेस्टोरेंट आने के बजाय घर पर ही औनलाइन और्डर कर के खाना खाना पसंद करेंगे. इससे नुकसान तो रेस्टोरेंट वालों को ही होगा.”

रेस्टोरेंट वालों को घाटा होने का मुख्य वजह यह है कि जोमटो और स्वीगी जो भी डिस्काउंट देती है वह अपनी जेब से नहीं बल्कि रेस्टोरेंट वालों को जेब से देती है. ऐसे में रेस्टोरेंट वालों का कहना है कि “अगर आपको डिस्काउंट देना है तो अपनी तरफ से दें.”

इस पर एफ़एचआरएआई के उपाध्यक्ष गुरबक्शीस सिंह कोहली ने कहा, ‘फ़ूड एग्रीगेटर के ख़िलाफ़ शिकायत यह है कि उनके क़रार एकतरफा होता हैं, ये पूरे उद्योग में एक समान नहीं होते और

स्टार्ट अप के खिलाफ अनफेयर ट्रेंड प्रैक्टिस होता हैं.’ उन्होंने कहा है कि इस तरह का व्यापार होना चाहिए जिससे सबको लाभ हो. उन्होनें जोमटो पर निशाना साधते हुए कहा उस पर यहअव्यावहारिक डिस्काउंट देता है, जो कभी किसी रूप में उचित नहीं है.

इसके बाद जोमटो के ख़िलाफ ट्विटर पर #LogOutCampaign चला दिया गया देखते ही देखते 1,200 से अधिक रेस्टोरेंट ने ज़ोमैटो का बौयकौट कर दिया.

जोमैटो के संस्थापक दीपेंदर गोयल ने इसके बाद मामला संभालने की कोशिश की और कहा कि वह हर तरह का डिस्काउंट बंद करने पर राजी हैं.

ये भी पढ़ें- देश की पहली नेत्रहीन महिला IAS के बारे में जानिए दिलचस्प कहानी

कैसा होगा बदलाव

  • जोमैटो ने कहा है कि वह अपने गोल्ड मेंबरशिप प्रोग्राम में बदलाव करने पर विचार करेगा.
  • जोमैटो इंफिनिटी “जितना चाहो उतना खाओ’ वाली स्कीम पर रोक लगा सकता है.
  • स्वीगी पर हर रेस्टोरेंट पर डिस्काउंट की स्कीम को भी हटाया जा सकता है.
  • जोमैटो का यह भी कहना है कि वह और्डर लेने में देरी होने और डिलीवरी टाइम मिस होने पर लेट फाइन वसूल किए जाने का प्रस्ताव भी वापस ले लेगा.
  • अन्य रेस्टोरेंट को भी ऐसी स्कीम हटाने कि बात कही गई है.

जोमैटो पर पहले भी हुआ है विवाद

फूड डिलीवरी एप जोमटो पर 31 जुलाई को एक युवक ने डिलिवरी बौय न बदलने पर ट्वीट किया था, जो सोशल मीडिया पर हाईलाइट हो गया था. दरअसल, इस पूरे मामले की शुरुआत एक और्डर कैंसल करने पर हुई. जबलपुर के अमित शुक्ला नामक एक शख्स ने अपना और्डर सिर्फ इसलिए कैंसिल कर दिया क्योंकि उसे कोई गैर हिंदू डिलीवर करने वाला था. जिस पर अमित शुक्ला ने ट्वीट किया था ‘जोमटोपर खाने का ऑर्डर कैंसिल कर दिया. क्योंकि उन्होंने एक गैर हिंदू को ओर्डर देने के लिए भेजा था. कंपनी ने कहा कि वह डिलिवरी करने वाले शख्स को बदल नहीं सकती साथ ही ऑर्डर कैंसिल करने पर मुझे रिफंड भी वापस नहीं दिया जा सकता.

तभी जोमैटो ने भी इस पर एक ट्वीट करते हुए लिखा “खाने का कोई धर्म नहीं होता. यह अपने आप में एक धर्म है.” इस ट्वीट को लोगों ने बहुत पसंद किया.

इस पूरे मामले पर लोगों ने अपनी अलग अलग राय दी. कोई जोमैटो के सहयोग में था तो कोई  अमित शुक्ला द्वारा किए गए बेमतलब के ट्वीट को सही ठहराता नजर आ रहा था.

इस पर जोमैटो के फाउंडर दीपक गोयल ने भी ट्वीट किया, ‘हमें आइडिया औफ इंडिया और हमारे ग्राहकों एवं साझेदारों की विविधता पर गर्व है’.

कई लोगों ने अमित शुक्ला के ट्वीट पर यह भी लिखा की “ आप ड्राइविंग भी न करें क्योंकि पेट्रोल पंप पर जरूरी नहीं सभी हिंदू या पंडित हों.

धर्म के नाम पर यह अलग ही मसला बन गया. जोमैटो पर यह भी इल्जाम लगा है कि उस के डिलिवरी बौय खाना जूठा कर के डिलीवर करते हैं.

मैं युवा पीढ़ी की विशेषताओं को समझने की कोशिश करता हूं : विक्रम भट्ट

फिल्मी माहौल में ही पले बढ़े विक्रम भट्ट बतौर निर्देशक 27 साल से कार्यरत हैं. ‘फरेब’, ‘कसूर’, ‘राज’,‘गुलाम’,‘फुटपाथ’,‘जुर्म’,‘1920’,‘राज थ्री डी’,‘लव गेम्स’,‘राज बूट’ सहित लगभग 40 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. बीच में एक वेब सीरीज में उन्होंने अभिनय भी किया. और अब बतौर निर्देशक हौरर फिल्म ‘‘घोस्ट’’ लेकर आ रहे हैं, जो कि 18 अक्टूबर को सिनेमाघरों में पहुंचेगी.

27 साल के आपके करियर के टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

बौलीवुड के किसी भी निर्देशक के मुकाबले मेरा करियर बतौर निर्देशक काफी अलग रहा. मेरे कैरियर में उतार-चढ़ाव भी बहुत रहे. मेरे कैरियर का टर्निंग प्वाइंट भी काफी अलग रहे हैं. मेरे पिता बहुत बड़े कैमरामैन थे. मैंने बतौर सहायक निर्देशक कैरियर की शुरुआत की थी. जब मैंने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत की, तो शुरुआत की मेरी चारों फिल्में सुपर फ्लौप रहीं. इसके बाद सफलता मिली. उसके बाद कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कुछ समय के लिए बेकार बैठना पड़ा. मैंने अपने 27 साल के निर्देशन कैरियर में सीखा कि हमें हमेशा कुछ नया करना पड़ेगा. बदलते जमाने के बदलते लेखक या बदलते दर्शक या आज की युवा पीढ़ी चाहती है कि कुछ नया किया जाए. अब फिल्म ‘1920’ की युवा पीढ़ी तो है नहीं. बहुत कुछ बहुत तेजी से बदला है. जब से मोबाइल आया है, तब से तो कहानी में भी बहुत बदलाव आ गया है. जब फोन नहीं हुआ करते थे, कहानी में एक अलग दृष्टिकोण था. अब मोबाइल है.. फेसबुक है. ट्यूटर है. इंस्टाग्राम है. अब आपकी पहचान दो दुनिया में है. एक हमारी अपनी दुनिया और दूसरी इंटरनेट यानी कि सोशल मीडिया की दुनिया. वर्तमान समय में हम सभी लोग सोशल मीडिया में ही ज्यादा जीते हैं. तो अब इन चीजों को ध्यान में रखकर फिल्में बनानी पड़ती है. मैं अभी भी निर्देशन के क्षेत्र में जमा हुआ हूं. इसकी एकमात्र वजह यह है कि मैं युवा पीढ़ी की बहुत सुनता हूं. युवा पीढ़ी की बात पर गौर करता हूं. युवा पीढ़ी की जो विशेषताएं हैं, उन्हें समझने की कोशिश करता हूं.

आपने अपनी बेटी कृष्णा के साथ भी काम किया है?

जी हां! वह तो कृष्णा ही है. मैं तो कहता हूं कि भगवान है. लेकिन उसकी सोच बहुत अलग है. वह मुझसे बहुत बहस करती है. कभी-कभी मुझे लगता है कि नए लोगों को लेने का फायदा यही है कि हमें उनका नया प्वाइंट औफ व्यू मिलता है. नए लोगों को लेकर फिर अपनी चलाना गलत है. तो मेरी बेटी कृष्णा ने बहुत अलग फिल्म बनाई है.

Mahesh-Bhatt-and-Vikram-Bhatt--0

जब आपकी बेटी और और आपके बीच बहस होती है, उस वक्त आप अपने आप को कितना बेबस महसूस करते हैं ?

मैं तो उससे खुलकर कर बात करता हूं. मैंने उससे कह रखा है कि जहां मैं निर्देशक रहूंगा, वहां मेरी चलेगी, जहां आप निर्देशक हो, आपकी चलेगी. अच्छा काम करने के लिए हमने यह नियम बना रखा है. फिर भी गड़बड़ी हो जाती है. एक दिन मैंने यूं ही उसे कुछ सलाह दे दी. तो भड़क गई. सीधे कह दिया कि, ‘फिर आप ही निर्देशन कर लीजिए.’ मैंने उससे कहा कि यह क्या बदतमीजी है? इस पर उसने तपाक से जवाब दिया, ‘कोई बदतमीजी नहीं कर रही हूं. आपने ही नियम बनाया था कि जब मैं निर्देशक रहूंगी, तो मेरी ही चलेगी. आपने वादा किया था कि आप मुझे मेरी फिल्म बनाने दोगे.’ मैंने उससे कहा कि मैं सिर्फ सलाह दे रहा हूं, जो कि किसी को भी हक है. मैने यह नहीं कहा कि तुम्हें मेरी ही सुननी पड़ेगी,  तो उसने कहा कि, ‘आप तो पिता की तरह आदेश दे रहे हैं.’ अंत में मुझे अपनी बेटी से कहना पड़ा ठीक है, आज से मैं आपके सहायक की ही तरह रहूंगा.

आज की युवा पीढ़ी के साथ ऐसा ही है. आज की पीढ़ी रिश्तो को भी नहीं समझती, खुद अपनी मनमानी करना चाहती. वह दूसरों से दबना भी नहीं जानती. उनकी अपनी अलग आवाज है.

VIKRAM-BHATT

ये भी पढ़ें- ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’: क्या वापस नहीं लौटेंगी दया बेन, जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर

आपकी नई फिल्म ‘‘घोस्ट’’ की कहानी की प्रेरणा कहां से मिली?

यह एक सत्य कथा से प्रेरित फिल्म है. वास्तव में1920, शापित, हंटेड, डैंजरस इश्क, क्रिएचार और 1921 जैसी हौरर फिल्म बनाने के बाद कुछ नया करने के लिए मैं रिसर्च कर रहा था. तभी मैंने एक खबर पढ़ी कि, 1981 में इंग्लैंड की अदालत में एक अजीबोगरीब मुकदमा आया था, जिसका नाम था ‘द डेविल इन द कोर्ट’. इस मुकदमे की वहां के अखबारों और मीडिया में बहुत चर्चा हुई थी. यह मुकदमा जौनसन पर चला था. जौनसन नामक एक इंसान ने अपने मकान मालिक को मार दिया था. अपने बचाव में जौनसन ने अदालत में कहा कि उस पर एक आत्मा का वश है. उसने मकान मालिक को नहीं मारा है. बल्कि उसके अंदर जो शैतान बस गया है, उस शैतान ने उसके हाथ से मकान मालिक को मरवाया है. अदालत में जज ने कहा कि बेवकूफी वाली बातें मत करो. कानून व न्याय हमेशा इंसानों पर लागू होता है,आत्माओं या भूत प्रेत पर लागू नहीं होता.इस पर अदालत में काफी बहस हुई.अंत में जज ने उसे सजा तो दी, मगर सिर्फ 5 साल की. जबकि हत्या की सजा तो उम्रकैद या फांसी होना चाहिए. जब मैंने यह केस पढ़ा, तो मुझे यह बहुत अनोखा केस लगा. मेरे दिमाग में भी सवाल आया कि यदि भूत किसी की हत्या कर देता है और उस हत्या के सिलसिले में आप फंस जाते हैं, तो आप अदालत में कैसे साबित करेंगे कि यह हत्या आपने नहीं, किसी भूत ने की है. यह बात अदालत में कैसे साबित करेंगे?  इतना सोचते ही मुझे यह कंसेप्ट बहुत रोचक लगा. मैंने सोचा कि अगर कानून और भूत प्रेत का आमना सामना हो जाए, तो इंसान क्या करेगा?  जज क्या करेगा? यह बहुत नया एंगल था. इसको लिखने और बनाने में बहुत मजा आया. यह बहुत ही अलग तरह की कहानी है.

 ‘गुलाम’  जैसी फिल्में निर्देशित करते करते आप हौरर फिल्में बनाने लगे?

एक वक्त था जब हर निर्देशक अलग-अलग तरह की फिल्में बनाता था और लोग उन फिल्मों को पसंद भी करते थे. पर अब समय का दौर बहुत बदल चुका है. अब हर कोई अपना ब्रांड बनाना चाहता है. अब सिर्फ ब्रांड ही बिक रहा है. बिना ब्रांड के गाड़ी,  जींस,  पैंट, शर्ट कुछ भी हो ब्रांड के बगैर नहीं बिक सकता. मैं आपको सत्तर व अस्सी के दशक में ले जाना चाहूंगा. फिल्म निर्देशक स्व. मनमोहन देसाई की अपनी एक अलग पहचान थी. उनकी हर फिल्म का अपना एक ब्रांड था. अब डेविड धवन साहब की बात करें,तो उनका कॉमेडी का अपना ब्रांड है.रोहित शेट्टी के सिनेमा का अपना एक अलग ब्रांड है. हर निर्देशक का अपना एक अलग ब्रांड है. कुछ लोग हंसाना पसंद करते हैं. कुछ लोग रुलाना पसंद करते हैं. ऐसे में मैंने सोचा कि क्यों ना मैं लोगों को डराउं. आप कह सकते हैं कि अब मैं लोगों को डराना पसंद करता हूं.

वैज्ञानिक उन्नति व मौडर्न युग में हौरर फिल्में ?

जब हम कहते हैं कि हमारे शरीर में आत्मा है, जो कि अजर अमर है. आत्मा की मृत्यु नहीं होती. इंसान की मृत्यु होने पर शरीर जलाया जाता है यानी कि इंसान की मृत्यु के बाद आत्मा मौजूद रहती है. यही तो गीता में भी लिखा है कि आत्मा अजर अमर है. तो फिर भूत प्रेत क्या है? आप मानते हैं कि शरीर और आत्मा है, तो फिर भूत प्रेत को ना मानना गलत है.

इस फिल्म के लिए आपने टीवी कलाकार सनाया ईरानी और नए अभिनेता शिवम भार्गव को ही क्यों चुना?

सनाया ईरानी बहुत अच्छी कलाकार हैं. फिल्म पूरी होने के बाद जब मैंने फिल्म देखी, तो मैंने पाया कि इस फिल्म के सिमरन सिंह के किरदार को सनाया से बेहतर कोई दूसरा कलाकार कर ही नहीं सकता था. शिवम भार्गव अच्छा लड़का है. अच्छा कलाकार है. देखिए, मेरा मानना है कि जब हम कोई नई कोशिश करने जा रहे हूं और उसके कलाकार नए हों, तो वह पूरी फिल्म नई लगती है.लेकिन सोच, कहानी नई हो, कंटेंट नया हो, मगर फिल्म में पुराने कलाकार हों, तो वह फिल्म पुरानी ही लगती है. आपको पता है कि मेरी फिल्म ‘‘घोस्ट’’ की कहानी बहुत अनोखी है. इसलिए मैंने नए कलाकारों को जोड़ा. मेरी राय में आज सिनेमा का जो दौर चल रहा है, उसमें स्टार कलाकार के होने ना होने के कोई मायने नहीं है. स्टार कलाकार होने से फिल्म कोई फर्क नहीं पड़ता. फिल्म के लिए अच्छी कहानी चाहिए, दर्शक अच्छी कहानी व अच्छा कंटेंट देखना चाहता है. अब फिल्में टीवी, सेटेलाइट चैनल से लेकर ओटीटी प्लेटफौर्म, अमेजान व नेटफ्लिक्स पर चार सप्ताह के बाद आ जाती हैं. इसके चलते दर्शक कहता है कि थिएटर में पैसे क्यों दिए जाएं? हम इस फिल्म को 5 सप्ताह बाद देख लेंगें. इसलिए यदि आपकी फिल्म में कुछ ऐसा होगा कि दर्शक सिनेमाघर तक दौड़ें, तभी वह आएगा. हम कहानी के नाम पर ही दर्शक को थिएटर में ला सकते हैं. कहानी बहुत अच्छी होनी चाहिए. जब दर्शक कहानी देखना चाहता है, तो फिर स्टार कलाकारों के पीछे भागने की बनिस्बत अच्छे बेहतरीन कलाकारों को लेकर फिल्म बनाई जा सकती है. सोशल मीडिया ने अब लोगों को नया स्टार बना दिया है. कई नए कलाकार फिल्म सीरियल और वेब सीरीज में महज इसलिए बुला कर काम पा रहे हैं, क्योंकि इंस्टाग्राम पर या सोशल मीडिया के किसी दूसरे प्लेटफार्म पर उनके फौलोअर्स की संख्या बहुत ज्यादा है.

Vikram-Bhat

क्या आप मानते हैं कि सोशल मीडिया के यह जो स्टार हैं या कलाकारों के सोशल मीडिया पर जो फौलोअर्स हैं, उससे से बौक्स औफिस पर कोई असर होता है?

देखिए, मैं समझता हूं कि यह सारा खेल डिमांड और सप्लाई का है. हमारी फिल्म इंडस्ट्री में गिनती के दो चार स्टार हैं. या यूं कहें कि बड़े कलाकार हैं, जिनसे हर आम फिल्मकार की मुलाकात संभव नही है. अब देखिए, तीनों खान, सलमान शाहरुख और आमिर से तो हर निर्माता-निर्देशक मिल नहीं सकता. रितिक रोशन भी मिलने से रहे. अजय देवगन साल में बाहरी निर्माता की फिल्म करते हैं, बाकी अपने प्रोडक्शन हाउस की करते हैं. यही हाल अक्षय कुमार का है. जबकि हमारे यहां हर वर्ष कम से कम 200 फिल्में बनती हैं. तो सवाल है कि आखिर निर्माता क करे? निर्माताओं की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि, उन्हें देखकर घर पर खाली बैठा कलाकार अचानक अपनी कीमत जरूरत से ज्यादा बढ़ा देता है. मैं कहता हूं कि ‘यह हीरो बाई च्वाइस नहीं, बल्कि हीरो बाई नो च्वाइस हैं.’ अब ऐसे कलाकार के पास जब निर्माता पहुंचता है, तो यह कलाकार अपनी कीमत बढ़ा देता है. लेकिन असल में उसकी इतनी डिमांड नहीं है कि उसे इतने अधिक पैसे दिया जाए. आप उसे मार्केट से कहीं ज्यादा पैसा दे देते हैं, फिर उसकी फिल्म चलती नहीं है. तब आप उसको कोसते हैं, जो कि स्टार ही नहीं है. देखिए, उसने कब कहा था कि वह स्टार है. आप खुद उसके पास गए थे. फिर उसने जो कीमत मांगी, आपने दे दिया. इसमें उसकी कहां गलती? गलती ऊंची कीमत देने वाले की है. शुक्रवार को उसकी कीमत दो करोड़ की होती है, और आप उसे 5 करोड़ दे देते हैं. यह गलती निर्माता की है.ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि अभी भी तमाम लोग कहानी की कीमत नहीं समझ रहे हैं. लोग सोचते हैं कि उन्हें दो-तीन बड़े स्टार कलाकार मिल जाएंगे, तो उनकी फिल्म सफल हो जाएगी. वह कहानी पर ध्यान ही नहीं देते. लेकिन ऐसा नहीं है. यही वजह है कि पहले फिल्में 25 हफ्ते चलती थीं. अब सिर्फ तीन दिन का मामला होता है. लेकिन उसमें भी अब शुक्रवार को आने वाला दर्शक, शनिवार से आना बंद कर देता है. फिल्म को इतना नुकसान होता है कि उसकी भरपाई कहीं से नहीं हो पाती. अब तो बड़ी-बड़ी फिल्मों की भी वीकेंड की गारंटी नहीं है. आज की तारीख में एक ही चीज गारंटी देती है कि आप अच्छी व नई कहानी लेकर फिल्म बनाएं, तो नुकसान नहीं होगा. अच्छी और नई कहानी होगी, तो दर्शक सिनेमाघर में जरूर आएगा.

पिछले पांच छह वर्षों में कई स्टूडियो बंद हो गए. तो आपको लगता है कि इन स्टूडियो में भी वही गलती की. कहानी पर ध्यान नहीं दिया, कलाकार को उनकी औकात से कहीं ज्यादा पैसे थमा दिए?

देखिए,यह बजट में खेलने वाले लोग बहुत खतरनाक होते हैं.मेरे दादा जी कहते थे कि,‘बेटा इस बात का ध्यान रखना कि जब फिल्म रिलीज हो,तो निर्माता के घर पर फ्रिज आना चाहिए या फ्रिज नहीं आना चाहिए. मगर उसके घर में मौजूद फ्रिज बिकना नहीं चाहिए. लेकिन यहां हो यह रहा है कि फ्रिज तो छोड़िए, निर्माता की गाड़ी व घर तक बिक रहे हैं. एक वक्त था, जब इंडिविजुअल  निर्माता हुआ करते थे.वह अपने घर का या अपने दोस्तों से पैसा लेकर फिल्में बनाया करता था.मगर इन स्टूडियो के पास तो कारपोरेट व पब्लिक का पैसा है. यह बिना सोचे समझे कलाकार को ऊंची कीमत दे देते हैं और यह भूल जाते हैं कि साल के अंत में इन्हें भी अपनी बैलेंस सीट दिखानी पड़ेगी.फिर एक बार आप डूबने लगते हैं,तो फिर उबर पाना मुश्किल हो जाता है. जब आपकी चार फिल्में असफल हो चुकी होती है, आपको 400 करोड़ का नुकसान हो जाता है. उसके बाद यदि आपकी एक दो फिल्में सफल हो जाएं और आप 50 करोड़ कमा भी लें, तो चार सौ करोड़ का घाटा पूरा नहीं हो पाता.

अब स्टूडियो प्रोफेशनल तरीके से काम करते हुए कहानी के अलावा बाकी चीजों पर पैसा खर्च कर रहा है.एक लेखक को अभी भी अच्छे पैसे नहीं मिलते हैं. स्टूडियो सिस्टम के आने के बाद वैनिटी वैन, सिक्योरिटी, बाउंसर, वाकी टाकी, चार चार मानीटर आदि पाल रखे हैं. कलाकार के साथ मेकअप मैन भी होगा. हेअर ड्रेसर भी होगा. उनका असिस्टेंट भी होगा. पहले केवल एक अटेंडेंस होता था, अब अटेंडेंस का सहायक भी होने लगा है. मगर कहानी नहीं है. मेरा मानना है कि इन सारे चोचलों व शोबाजी पर हम कितना पैसा खर्च करते हैं, उसका कुछ हिस्सा अगर हम कहानी पर खर्च करना शुरू करें, तो हमारी फिल्में अच्छी बनेंगी. दर्शक ऐसी फिल्में देखना चाहेगा. लेखकों को अच्छे पैसे दिए जाएं, तो हमारी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा. यदि फिल्म इंडस्ट्री में बदलाव नहीं आया, तो हम डूब जाएंगे.

अब हमारे देश में कई तरह की फिल्में बनना बंद हो गई है. पारिवारिक व सामाजिक फिल्में बनती ही नहीं है. ‘घर एक मंदिर’जैसी फिल्म बने हुए जमाना हो गया. इंद्र कुमार ने एक फिल्म ‘बेटा’ बनाई थी, उसके बाद वह ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी फिल्में बना रहे हैं. जब टीवी शुरू हुआ, तो परिवार टीवी में चला गया था. अब टीवी के भी हालात बदतर हैं. सभी फिल्मकार सामाजिक व सांसारिक फिल्मों से दूर हो गए हैं. इतना ही नहीं सही मायने में देखा जाए, तो एक्शन फिल्में बनना बंद हो गई हैं. अब एक्शन फिल्में बनानी हो तो आपको ‘मिशन इंपासिबल’ या ‘अवेंजर्स’ का मुकाबला करना पड़ेगा. हाल यह है कि हम कुछ सेक्सी फिल्में बना रहे हैं. कुछ कौमेडी फिल्में बना रहे हैं. कुछ बायोपिक फिल्म बना रहे हैं. बायोपिक फिल्मों का एक नया दौर चल गया है. सच यह है कि हमारे देश में फिल्मों का जो जौनर हुआ करता था, वह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है. अगर हम लेखकों को बढ़ावा नहीं देंगे, तो आने वाले दिनों में हम सभी कहानियों का सूखा जरूर महसूस करेंगे.

ये भी पढ़ें- ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: ‘नैतिक’ के किरदार में हो सकती है ‘करन मेहरा’ की वापसी

इसके बाद की क्या योजना है?

फिल्म ‘‘घोस्ट’’ रिलीज होने के बाद मेरी बेटी कृष्णा की फिल्म ‘‘बदनाम’’ रिलीज होगी. उसके बाद मैं एक हुमा खान के साथ फिल्म बना रहा हूं, जो कि जनवरी में आएगी. वेब सीरीज का हमारा काम लगातार चल रहा है.

फेस्टिवल स्पेशल 2019: घर पर बनाएं कद्दू की लौंजी

त्यौहारों का सीजन चल रहा है. बेशक आप खाने में  ऐसा कुछ स्पेशल बनना चाहती होगी, जो खाने में सबको पसंद आए. तो ऐसे मौकों के लिए कद्दू की लौंजी परफेक्ट रेसिपी है. आइए,  आपको बताते हैं इस आसान रेसिपी के बारे में.

सामग्री

कद्दू (250 ग्राम छिला और कटा हुआ)

मिर्च पाउड  (3 चम्मच)

अमचुर (3 चम्मच)

गुड़ (आधा कप)

धनिया की पत्ती (1 चम्मच)

नमक (स्वादानुसार)

रिफाइन्ड औइल  (आधा कप)

मेथी (आधा चम्मच)

2 पीस लाल मिर्च

काला सरसों (आधा चम्मच)

जीरा (आधा चम्मच)

ये भी पढ़ें- ऐसे बनाएं ककोरा की कुरकुरी सब्जी

बनाने की वि​धि

इस स्वादिष्ट डिश को बनाने के लिए एक पैन में तेल गर्म करें और उसमें सरसों, मेथी और लाल मिर्च को डालकर छौंक लें.

पैन में कटे हुए कद्दू को डालें और थोड़ी देर पकने दें.

इसमें खटाई पाउडर और लाल मिर्च पाउडर डालें और पैन को ढक दें.

इसे धनिया की पत्ती के साथ सजाकर सर्व करें.

ये भी पढ़ें- फेस्टिवल स्पेशल 2019: ऐसे बनाएं फूलगोभी करी

पारिवारिक विवादों से बचाव के लिए वसीयत जरूरी

हंसतेखेलते परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद उस के उत्तराधिकारी संपत्ति के लिए आपस में लड़नेझगड़ने लगते हैं. यहां तक कि कोर्टकेस की नौबत तक आ जाती है. कोर्ट में समय, श्रम और धन की बरबादी होती है. वर्र्षों तक मामला अटका भी रहता है. कई बार दादा द्वारा किए केस का फैसला पोते तक भी नहीं हो पाता. नतीजतन, संपत्ति होते हुए भी उस के वास्तविक हकदार वर्षों तक उस का उपयोग नहीं कर पाते.

यों तो देशभर की अदालतों में हजारों मामले ऐसे चल रहे हैं जिन के कारण दूसरीतीसरी पीढ़ी भी संपत्ति का सही ढंग से उपयोग नहीं कर पा रही है लेकिन इस संबंध में देश के सब से बड़े व्यावसायिक घराने अंबानी भाइयों का मामला उल्लेखनीय है.

वर्ष 2002 में धीरूभाई अंबानी का देहांत हो गया. उन्होंने कोई वसीयत नहीं लिखी. इस कारण उन के बेटे मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के बीच लंबे समय तक विवाद रहा. मुकदमेबाजी की परिस्थितियां बन गईं.

वर्ष 2005 में उन की मां कोकिला बेन की मध्यस्थता में दोनों भाइयों के बीच कंपनियों का बंटवारा किया गया. बड़े भाई मुकेश अंबानी को पैट्रोकैमिकल, रिफाइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग से जुड़ी कंपनियां मिलीं जबकि छोटे भाई अनिल अंबानी को बिजली, टैलीकौम और वित्तीय सेवाओं से जुड़ी कंपनियों का स्वामित्व मिला. इस के बाद भी दोनों भाइयों में विवाद की स्थितियां बनी रहीं.

ऐसे मामले सामने आते रहते हैं. इन का सब से उपयुक्त समाधान परिवार के मुखिया द्वारा वसीयत करना ही है. यह देखा गया है कि अधिकांश भारतीय वसीयत नहीं करते. बहुत से लोगों का मानना है कि वसीयत करना पैसे वालों का काम है, हम क्यों वसीयत करें. वास्तव में जिस व्यक्ति के पास थोड़ीबहुत जितनी भी संपत्ति है, उस के उत्तराधिकारी बिना लड़ेझगड़े उपयोग करते रहें, इस के लिए वसीयत करना जरूरी होता है.

ये भी पढ़ें- भूलकर भी रिलेशनशिप में रेड फ्लेग्स न करें इग्नोर

व्यावसायिक घरानों में पारिवारिक विवादों को बचाने में वसीयत बहुत कामयाब होती है. हालांकि, फिर भी भाइयों के विवाद होते रहते है. कई बार तो बहुत छोटे मामले को ले कर गंभीर विवाद पैदा हो  जाता है.

किर्लोस्कर ब्रदर्स जानीमानी हैवी मशीनरी वाली कंपनी है, इस के 60 वर्षीय संजय किर्लोस्कर और 61 वर्षीय अतुल किर्लोस्कर में पूना की मौडल कालोनी में विवाद खड़ा हुआ जिस में

82 वर्षीय सुमन किर्लोस्कर और सब से छोटा बेटा संजय भी चपेट में आ गए. हजारों करोड़ों की मिल्कीयत वाली कंपनी में 10 करोड़ की जमीन को ले कर विवाद चला जो किसी की भी मृत्यु के बाद वसीयतों को ले कर फिर उग्र हो उठेगा.

विजयपत सिंघानिया और गौतम सिंघानिया का विवाद तो बहुत चर्चित हुआ जिस में रेमंड कंपनी के वृद्ध मालिक को घर से निकल कर दरदर भटकना पड़ा. रैनबैक्सी परिवार कई हजार करोड़ का हो गया था और इन की दवाएं दुनियाभर में बिक रही थीं पर जैसे ही दवाओं की क्लालिटी पर सवाल उठने खड़े हुए, परिवार में भी फूट पड़ गई और हाथापाई तक  की नौबत आ गई. इस की जड़ में भी विरासत संबंधी मनमुटाव रहा है.

क्या है वसीयत

वसीयत परिवार के मुखिया द्वारा लिखा गया एक कानूनी दस्तावेज है जिस के जरिए वह स्वअर्जित संपत्ति और पूर्वजों से मिली वह संपत्ति जो उस के नाम है, को अपनी इच्छा के अनुसार परिवार के सदस्यों में बंटवारा करता है. वसीयत मकान, जमीनजायदाद के साथसाथ गहनों, शेयर, बैंक जमाओं, साझेदारी के हित आदि के साथ अन्य मूल्यवान चल व अचल संपत्तियों की हो सकती है.

कब लिखें वसीयत

व्यक्ति अपने जीवनकाल में कभी भी वसीयत लिख सकता है लेकिन जितना जल्दी संभव हो, लिख दी जानी चाहिए. लिखी हुई वसीयत को वह चाहे जितनी बार परिवर्तित कर सकता है और चाहे तो पुरानी वसीयत के स्थान पर नई वसीयत लिख सकता है. परिवर्तन की दशा में अंतिम परिवर्तन वाली वसीयत को ही वैध माना जाता है. यदि वसीयत नई लिखी गई है तो जो सब से नई लिखी गई वसीयत है, उस को ही वैधानिक रूप से स्वीकार किया जाता है.

क्या लिखें वसीयत में

वसीयत में सारी चल और अचल संपत्ति का विवरण स्पष्ट रूप से किया जाना जरूरी है, साथ ही, संपत्ति का कितनाकितना हिस्सा परिवार के किसकिस सदस्य को दिया जाना है, इस का उल्लेख भी किया जाना जरूरी है. अचल संपत्ति का नक्शा भी लगाया जा सकता है. संपत्ति का उचित और न्यायपूर्ण बंटवारा भी जरूरी है.

परिवार की लड़कियों और अन्य किसी सदस्य, जो मुखिया पर ही निर्भर है, के हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए. वसीयत करने वाले के वसीयतनामे पर हस्ताक्षर अवश्य ही होने चाहिए. साथ ही 2 गवाहों के हस्ताक्षर व नामपते भी होने चाहिए. वे यह प्रमाणित करेंगे कि वसीयत उन के सामने लिखी गई है और वसीयतनामे पर किए गए हस्ताक्षर असली हैं. वसीयत सादे कागज पर भी की जा सकती है और स्टांपपेपर पर भी. वसीयत लिखते समय किसी वकील या कानूनी मामलों के जानकार की सहायता लेना ज्यादा उपयुक्त रहता है.

ये भी पढ़ें- क्या हैं रिलेशनशिप के मायने

रजिस्टर्ड कराना जरूरी नहीं

वसीयत को सबरजिस्ट्रार औफिस में रजिस्टर्ड कराना जरूरी नहीं है. इस के बिना भी वसीयत कानूनी रूप से मान्य होती है. लेकिन, वसीयत को रजिस्टर्ड करा लेना ज्यादा सुरक्षित रहता है. यदि वसीयत पर कोईर् विवाद हो तो रजिस्टर्ड वसीयत को अनरजिस्टर्ड वसीयत की तुलना में कानूनी रूप से ज्यादा मान्यता मिलती है.

वसीयत करने वाला वसीयत की प्रति अपने पास सुरक्षित स्थान पर रख सकता है. रजिस्टर्ड वसीयत की प्रति सबरजिस्ट्रार औफिस में भी रखी जाती है. वसीयत को व्यक्ति अपने जीवनकाल में भी घोषित  कर सकता है और चाहे तो इस के विवरण को छिपा कर भी रख सकता है.

एक्जिक्यूटर की नियुक्ति

अपनी मृत्यु के बाद वसीयत का सही ढंग से निष्पादन करने हेतु वसीयत करने वाला व्यक्ति एक निष्पादक या एक्जिक्यूटर भी नियुक्त कर सकता है. वह व्यक्ति कोई वकील या कानूनी मामलों का जानकार हो तो बेहतर रहता है. उस का कार्य व्यक्ति की मृत्यु के बाद उस की इच्छा के अनुसार संपत्तियों और दायित्वों को निबटारा करने और संपत्ति का वसीयतकर्ता की इच्छा के अनुसार बंटवारा करना होता है. जब यह काम पूरा हो जाता है तब एक्जिक्यूटर की नियुक्ति अपनेआप समाप्त हो जाती है.

वसीयत लिखे जाने पर मुखिया की मृत्यु की दशा में उस के सब उत्तराधिकारी उस की इच्छा को सामान्यतया सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं और हरेक उत्तराधिकारी अपने हिस्से में प्राप्त संपत्ति का अपनी इच्छा के अनुसार उपयोग करने हेतु स्वतंत्र हो जाता है. इस से परिवार में गैरजरूरी कलह और विवाद नहीं रहता और परिवार के लोग आपसी मेलजोल व सुखशांति से रहते हैं.

यदि आप परिवार के मुखिया हैं और आप ने अपनी वसीयत नहीं की है तो इस दिशा में जरूर सोचें और जितनी जल्दी हो सके, अपनी वसीयत लिख दें, ताकि आप भी सुखी और संतुष्ट रहें व बाद में परिवार के किसी सदस्य के साथ अन्याय न हो और उन के बीच आपसी मेलमिलाप बना रहे.

ये भी पढ़ें- कहीं भार न बन जाए प्यार

सांप सीढ़ी : भाग 2

रहरह कर एक ही प्रश्न हृदय को मथ रहा था कि प्रशांत ने ऐसा क्यों किया? मांबाप का दुलारा, 2 वर्ष पहले ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी. अभी उसे इसी शहर में एक साधारण सी नौकरी मिली हुई थी, पर उस से वह संतुष्ट नहीं था. बड़ी कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. अपने दोस्त की बहन उसे जीवनसंगिनी के रूप में पसंद थी. मौसी और मौसाजी को एतराज होने का सवाल ही नहीं था. लड़की उन की बचपन से देखीपरखी और परिवार जानापहचाना था. तब आखिर कौन सा दुख था जिस ने उसे आत्महत्या का कायरतापूर्ण निर्णय लेने के लिए मजबूर कर दिया.

सच है, पासपास रहते हुए भी कभीकभी हमारे बीच लंबे फासले उग आते हैं. किसी को जाननेसमझने का दावा करते हुए भी हम उस से कितने अपरिचित रहते हैं. सन्निकट खड़े व्यक्ति के अंतर्मन को छूने में भी असमर्थ रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले तो प्रशांत मेरे घर आया था. थोड़ा सा चुपचुप जरूर लग रहा था, पर इस बात का एहसास तक न हुआ था कि वह इतने बड़े तूफानी दौर से गुजर रहा है. कह रहा था, ‘दीदी, इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ है. चयन की पूरी उम्मीद है.’

सुन कर बहुत अच्छा लगा था. उस की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो, इस से अधिक भला और क्या चाहिए.

और आज? क्यों किया प्रशांत ने ऐसा? मौसी और मौसाजी से तो कुछ पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई. मन में प्रश्न लिए मैं और दिवाकर घर लौट आए.

धीरेधीरे प्रशांत की मृत्यु को 5-6 माह बीत चुके थे. इस बीच मैं जितनी बार मौसी से मिलने गई, लगा, जैसे इस दुनिया से उन का नाता ही टूट गया है. खोईखोई दृष्टि, थकीथकी देह अपने ही मौन में सहमी, सिमटी सी. बहुत कुरेदने पर बस, इतना ही कहतीं, ‘इस से तो अच्छा था कि मैं निस्संतान ही रहती.’

उन की बात सुन कर मन पर पहाड़ सा बोझ लद जाता. मौसाजी तो फिर भी औफिस की व्यस्तताओं में अपना दुख भूलने की कोशिश करते, पर मौसी, लगता था इसी तरह निरंतर घुलती रहीं तो एक दिन पागल हो जाएंगी.

समय गुजरता गया. सच है, समय से बढ़ कर कोई मरहम नहीं. मौसी, जो अपने एकांतकोष में बंद हो गई थीं, स्वयं ही बाहर निकलने लगीं. कई बार बुलाने के बावजूद वे इस हादसे के बाद मेरे घर नहीं आई थीं. एक रोज उन्होंने अपनेआप फोन कर के कहा कि वे दोपहर को आना चाहती हैं.

जब इंसान स्वयं ही दुख से उबरने के लिए पहल करता है, तभी उबर पाता है. दूसरे उसे कितना भी हौसला दें, हिम्मत तो उसे स्वयं ही जुटानी पड़ती है.

मेरे लिए यही तसल्ली की बात थी कि वे अपनेआप को सप्रयास संभाल रही हैं, समेट रही हैं. कभी दूर न होने वाले अपने खालीपन का इलाज स्वयं ढूंढ़ रही हैं.

8-10 महीनों में ही मौसी बरसों की बीमार लग रही थीं. गोरा रंग कुम्हला गया था. शरीर कमजोर हो गया था. चेहरे पर अनगिनत उदासी की लकीरें दिखाई दे रही थीं. जैसे यह भीषण दुख उन के वर्तमान के साथ भविष्य को भी लील गया है.

मौसी की पसंद के ढोकले मैं ने पहले से ही बना रखे थे. लेकिन मौसी ने जैसे मेरा मन रखने के लिए जरा सा चख कर प्लेट परे सरका दी. ‘‘अब तो कुछ खाने की इच्छा नहीं रही,’’ मौसी ने एक दीर्घनिश्वास छोड़ा.

मैं ने प्लेट जबरन उन के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘खा कर देखिए तो सही कि आप की छुटकी को कुछ बनाना आया कि नहीं.’’

उस दिन हर्ष की स्कूल की छुट्टी थी. यह भी एक तरह से अच्छा ही था क्योंकि वह अपनी नटखट बातों से वातावरण को बोझिल नहीं होने दे रहा था.

प्रशांत का विषय दरकिनार रख हम दोनों भरसक सहज वार्त्तालाप की कोशिश में लगी हुई थीं.

तभी हर्ष सांपसीढ़ी का खेल ले कर आ गया, ‘‘नानी, हमारे साथ खेलेंगी.’’ वह मौसी का हाथ पकड़ कर मचलने लगा. मौसी के होंठों पर एक क्षीण मुसकान उभरी शायद विगत का कुछ याद कर के, फिर वे खेलने के लिए तैयार हो गईं.

बोर्ड बिछ गया.

‘‘नानी, मेरी लाल गोटी, आप की पीली,’’ हर्ष ने अपनी पसंदीदा रंग की गोटी चुन ली.

‘‘ठीक है,’’ मौसी ने कहा.

‘‘पहले पासा मैं फेंकूंगा,’’ हर्ष बहुत ही उत्साहित लग रहा था.

दोनों खेलने लगे. हर्ष जीत की ओर अग्रसर हो रहा था कि सहसा उस के फेंके पासे में 4 अंक आए और 99 के अंक पर मुंह फाड़े पड़ा सांप उस की गोटी को निगलने की तैयारी में था. हर्ष चीखा, ‘‘नानी, हम नहीं मानेंगे, हम फिर से पासा फेंकेंगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं. अब तुम वापस 6 पर जाओ,’’ मौसी भी जिद्दी स्वर में बोलीं.

दोनों में वादप्रतिवाद जोरशोर से चलने लगा. मैं हैरान, मौसी को हो क्या गया है. जरा से बच्चे से मामूली बात के लिए लड़ रही हैं. मुझ से रहा नहीं गया. आखिर बीच में बोल पड़ी, ‘‘मौसी, फेंकने दो न उसे फिर से पासा, जीतने दो उसे, खेल ही तो है.’’

‘‘यह तो खेल है, पर जिंदगी तो खेल नहीं है न,’’ मौसी थकेहारे स्वर में बोलीं.

मैं चुप. मौसी की बात बिलकुल समझ में नहीं आ रही थी.

‘‘सुनो शोभा, बच्चों को हार सहने की भी आदत होनी चाहिए. आजकल परिवार बड़े नहीं होते. एक या दो बच्चे, बस. उन की हर आवश्यकता हम पूरी कर सकते हैं. जब तक, जहां तक हमारा वश चलता है, हम उन्हें हारने नहीं देते, निराशा का सामना नहीं करने देते. लेकिन ऐसा हम कब तक कर सकते हैं? जैसे ही घर की दहलीज से निकल कर बच्चे बाहर की प्रतियोगिता में उतरते हैं, हर बार तो जीतना संभव नहीं है न,’’ मौसी ने कहा.

मैं उन की बात का अर्थ आहिस्ताआहिस्ता समझती जा रही थी.

‘‘तुम ने गौतम बुद्ध की कहानी तो सुनी होगी न, उन के मातापिता ने उन के कोमल, भावुक और संवेदनशील मन को इस तरह सहेजा कि युवावस्था तक उन्हें कठोर वास्तविकताओं से सदा दूर ही रखा और अचानक जब वे जीवन के 3 सत्य- बीमारी, वृद्धावस्था और मृत्यु से परिचित हुए तो घबरा उठे. उन्होंने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि संसार उन्हें दुखों का सागर लगने लगा. पत्नी का प्यार, बच्चे की ममता और अथाह राजपाट भी उन्हें रोक न सका.’’

मौसी की आंखों से अविरल अश्रुधार बहती जा रही थी, ‘‘पंछी भी अपने नन्हे बच्चों को उड़ने के लिए पंख देते हैं. तत्पश्चात उन्हें अपने साथ घोंसलों से बाहर उड़ा कर सक्षम बनाते हैं. खतरों से अवगत कराते हैं और हम इंसान हो कर अपने बच्चों को अपनी ममता की छांव में समेटे रहते हैं. उन्हें बाहर की कड़ी धूप का एहसास तक नहीं होने देते. एक दिन ऐसा आता है जब हमारा आंचल छोटा पड़ जाता है और उन की महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी. तब क्या कमजोर पंख ले कर उड़ा जा सकता है भला?’’

मौसी अपनी रौ में बोलती जा रही थीं. उन के कंधे पर मैं ने अपना हाथ रख कर आर्द्र स्वर में कहा, ‘‘रहने दो मौसी, इतना अधिक न सोचो कि दिमाग की नसें ही फट जाएं.’’

‘‘नहीं, आज मुझे स्वीकार करने दो,’’ मौसी मुझे रोकते हुए बोलीं, ‘‘प्रशांत को पालनेपोसने में भी हम से बड़ी गलती हुई. बचपन से खेलखेल में भी हम खुद हार कर उसे जीतने का मौका देते रहे. एकलौता था, जिस चीज की फरमाइश करता, फौरन हाजिर हो जाती. उस ने सदा जीत का ही स्वाद चखा. ऐसे क्षेत्र में वह जरा भी कदम न रखता जहां हारने की थोड़ी भी संभावना हो.’’ मौसी एक पल के लिए रुकीं, फिर जैसे कुछ सोच कर बोलीं, ‘‘जानती हो, उस ने आत्महत्या क्यों की? उसे जिस बड़ी कंपनी में नौकरी चाहिए थी, वहां उसे नौकरी नहीं मिली. भयंकर बेरोजगारी के इस जमाने में मनचाही नौकरी मिलना आसान है क्या? अब तक सदा सकारात्मक उत्तर सुनने के आदी प्रशांत को इस मामूली असफलता ने तोड़ दिया और उस ने…’’

मौसी दोनों हाथों में मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ीं. मैं ने उन का सिर अपनी गोद में रख लिया.

मौसी का आत्मविश्लेषण बिलकुल सही था और मेरे लिए सबक. मां के अनुशासन तले दबीसिमटी मैं हर्ष के लिए कुछ ज्यादा ही उन्मुक्तता की पक्षधर हो गई थी. उस की उचित, अनुचित, हर तरह की फरमाइशें पूरी करने में मैं धन्यता अनुभव करती. परंतु क्या यह ठीक था?

मां और पिताजी ने हमें अनुशासन में रखा. हमारी गलतियों की आलोचना की. बचपन से ही गिनती के खिलौनों से खेलने की, उन्हें संभाल कर रखने की आदत डाली. प्यार दिया पर गलतियों पर सजा भी दी. शौक पूरे किए पर बजट से बाहर जाने की कभी इजाजत नहीं दी. सबकुछ संयमित, संतुलित और सहज. शायद इस तरह से पलनेबढ़ने से ही मुझ में एक आत्मबल जगा. अब तक तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ था पर शायद इसी से एक संतुलित व्यक्तित्व की नींव पड़ी. शादी के समय भी कई बार नकारे जाने से मन ही मन दुख तो होता था पर इस कदर नहीं कि जीवन से आस्था ही उठ जाए.

मैं गंभीर हो कर मौसी के बाल, उन की पीठ सहलाती जा रही थी.

हर्ष विस्मय से हम दोनों की इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया को देख रहा था. उसे शायद लगा कि उस के ईमानदारी से न खेलने के कारण ही मौसी को इतना दुख पहुंचा है और उस ने चुपचाप अपनी गोटी 99 से हटा कर 6 पर रख दी और मौसी से खेलने के लिए फिर उसी उत्साह से अनुरोध करने लगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें