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तो आलिया भट्ट बनेंगी गंगूबाई काठियावाड़ी!

आलिया भट्ट के सितारे बुलंदियों पर हैं. एक तरफ उनकी फिल्म ‘‘गली ब्वाय’’ को औस्कर के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप भेजी गयी है. तो दूसरी तरफ वह अपने पिता महेश भट्ट के निर्देशन में फिल्म ‘‘सड़क 2’’ की शूटिंग कर रही हैं. और अब संजय लीला भंसाली के निर्देशन में काम करने का उनका सपना टूटने के बाद भी साकार होने जा रहा है.

पिछले एक वर्ष से चर्चा थी कि आलिया भट्ट और सलमान खान को लेकर संजय लीला भंसाली फिल्म ‘‘इंशा अल्लाह’’ बना रहे हैं. इस फिल्म की शूटिंग के लिए सेट भी बन गए. मगर शूटिंग शुरू होने से एक सप्ताह पहले इस फिल्म को अचानक बंद कर दिया गया और तब कहा जाने लगा कि संजय लीला भंसाली के निर्देशन में काम करने का आलिया भट्ट का सपना अधूरा रह गया. लेकिन अब की बार फिर आलिया भट्ट के चेहरे पर खुशी लौट आयी है. जी हां! आलिया भट्ट, संजय लीला भंसाली के निर्देशन में  फिल्म ‘‘गंगूबाई काठियावाड़ी’’ करने जा रही हैं. जो कि अगले वर्ष 11 सितंबर 2020 को सिनमाघरों में पहुंचेगी. इसकी शूटिंग नवंबर माह में शुरू हो जाएगी. इसका सह निर्माण पेन मूवीज के जयंतीलाल गाड़ा करेंगें. आलिया भट्ट ने खुद ही अपने ट्वीटर हैंडल पर इस बात की जानकारी दी है.

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सूत्रों की माने तो फिल्म ‘‘गंगूबाई काठियावाड़ी’’ की कहानी  मुंबई के रेड लाइट एरिया कमाठीपुरा के एक वेश्यालय की मैडम के जीवन पर आधारित है. कहा जाता है कि इस महिला ने कमाठीपुरा और वेश्या बाजार का चेहरा बदल कर रख दिया. यह मुंबई के इतिहास की सबसे ज्यादा याद की जाने वाली महिलाओं में से एक है. कहा जाता है कि गंगूबाई को बहुत कम उम्र में वेश्यावृत्ति में धकेल दिया गया था और यह शहर के कई नामचीन अपराधियों की सेवा करने वाली सबसे प्रभावशाली दलाल बन गई थी.

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‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: इस खास मौके पर होगा कार्तिक और नायरा का मिलन

स्टार प्लस का मशहूर सीरियल  ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  में धमाकेदार ट्विस्ट चल रहा है. जी हां अभी इस सीरियल की कहानी कायरव की कस्टडी को लेकर चल रही है. इस कस्टडी केस को लेकर सस्पेंस बना हुआ है. आखिर ये केस कार्तिक या नायरा, किसे मिलेगी ?

दरअसल नायरा, कार्तिक से केस खत्म करने को कहती है. लेकिन कार्तिक कोर्ट में चला जाता है. कार्तिक अपनी वकील दामिनी मिश्रा से कहता है कि वो आज कोर्ट में नायरा के साथ किसी तरह का गलत बर्ताव ना करें. लेकिन नायरा और उसके भाई नक्ष को लगता है कि कार्तिक अपनी वकील को नायरा के खिलाफ भड़का रहा है.

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जैसे ही कोर्ट में केस की सुनवाई शुरू होती है तो वकील दामिनी मिश्रा फिर से नायरा को उल्टा सीधा सुनाने लगती है, वो कहती है कि आप ना  अच्छी बीवी हैं, ना अच्छी मां हैं और ना ही अच्छी इंसान हैं. ये सारी बातें सुनकर कार्तिक को बहुत तेज गुस्सा आता है. वो वहीं उठ खड़ा होता है और खूब गुस्सा करता है. जज ने जब कार्तिक पर गुस्सा किया कि तो उसने कहा कि उसे कुछ कहना है. इसके बाद वो विटनेस बौक्स में जाता है और वो नायरा से अपने गुस्से और मिसबिहैव के लिए नायरा से माफी मांगता है.

वो कोर्ट में कहता है कि नायरा बुरी मां नहीं है ना ही वो बुरी इंसान है. हम उसे जानते नहीं हैं, लेकिन जो लोग जानते हैं उसे वो ये बात जानते हैं कि नायरा अच्छी बेटी, अच्छी बहू और अच्छी मां है. इसके बाद वो कहता है कि मैंने अपनी वकील से कहा था कि मैं केस विड्रा करना चाहता हूं लेकिन दामिनी मानी नहीं और नायरा पर इल्जाम लगाने लगी. मैं कायरव की सोलो कस्टडी नायरा को सौंपता हूं और ये केस विड्रा करता हूं.

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खबरों के मुताबिक अपकमिंग एपिसोड में दिवाली के  मौके पर नायरा और कार्तिक का मिलन होगा. अब देखना ये दिलचस्प होगा कि नायरा और कार्तिक का मिलन कैसे होता है. उनका मिलन दर्शकों के लिए ट्रिट की तरह साबित होगा.

मिठाई कारोबार में आई बहार

नवरात्र शुरू हुए नहीं कि पटाखों और मिठाइयों की दुकानों में रौनकें चटखने लगी. दीवाली आते-आते तो यह रौनकें अपनी चरम पर होती हैं. मिठाई की दुकानों पर लोग टूटे पड़ते हैं. भला मिठाई बिना भी कोई त्योहार मनाता है? कितना भी चौकलेट या ड्राई फू्रट के पैकेट्स खरीद लाओ, मगर जब तक घर में मिठाई का डिब्बा न आ जाए, त्योहार का मजा ही नहीं आता. श्राद्ध खत्म होते ही मिठाई दुकानदारों की व्यस्तता बढ़ जाती है. मेवे, खोये, दूध, घी के व्यापारियों के फोन घनघनाने लगते हैं. कोई फोन पर चिल्ला रहा है कि – अरे भाई, बीस किलो नहीं, पचास किलो मावा भिजवाना, इस बार मांग बहुत ज्यादा है, तो कोई डेयरी प्रोडक्ट्स के दामों पर माथापच्ची कर रहा है. दूध-घी के दाम आसमान पर चढ़े जा रहे हैं, मगर मिठाई दुकानदार अपने प्रोडक्ट की क्वालिटी और अपने ग्राहकों के टेस्ट से समझौता करने को कतई तैयार नहीं हैं. खासतौर पर दिल्ली के वह पुराने और स्थापित दुकानदार, जिनका नाम ही मिठाई की शुद्धता की गारंटी है. फिर वह चाहे पुरानी दिल्ली के श्याम स्वीट्स हों, कल्लन मिठाईवाला, चैनाराम हों या नई दिल्ली के हीरा स्वीट्स और बिट्टू टिक्की वाले. मिठाई मार्केट में यह नाम खुद में ब्रैंड बन चुके हैं. शुद्ध देसी घी, दूध, मलाई, खोया, काजू, बादाम, पिस्ते, किशमिश, अंजीर, खजूर और न जाने किन-किन मावों से बनी मिठाइयां खूबसूरत डिजाइनर डिब्बों में सजधज कर दिल्लीवालों का दिल ही नहीं लूट रहीं हैं, बल्कि अन्य राज्यों और समन्दर पार के ग्राहकों का मुंह भी मीठा कर रही हैं.

मिठाई हमारी संस्कृति का अंग है. कोई भी उत्सव बिना मिठाई के तो पूरा हो ही नहीं सकता. दीवाली की मिठाई तकरीबन संपूर्ण भारत में भगवान के भोग के बाद ही परोसी जाती है. भारतीय खाने की तरह भारतीय मिठाइयों में भी बहुत विविधता है. पूर्वी भारत में जहां छेना आधारित मीठा अधिक प्रचलित है, वहीं अधिकांश उत्तर भारत में खोया आधारित मिठाईयां – लड्डू, हलवा, खीर, बरफी आदि बहुत लोकप्रिय हैं. एक समय था जब मुंबईवालों की जुबान केवल लड्डू, पेड़े, श्रीखंड, मैसूर पाक, खाजा, हलवा, जैसी पांच-छह तरह की मिठाइयों का स्वाद ही जानती थी.  मुंबई में तब अधिकाँश मिठाइयां कोलकाता से आती थीं. लेकिन देश के विभिन्न प्रांतों के लोग जब रोजी रोटी की तलाश में मुंबई आए तो साथ में अपनी मिठाइयां भी लेते लाए. यहां बृजवासी दुग्ध प्राइवेट लिमिटेड ने छेने की मिठाइयों की शुरूआत की. हीरा मिष्ठान्न के सुरेशचंद्र अग्रवाल बताते हैं, ‘उत्तर प्रदेश से आए बृजवासियों ने ही सबसे पहले अलग-अलग स्थान व अलग-अलग जातियों की मिठाइयों और उन्हें बनाने के तरीके से मुंबई का परिचय कराया और यहां के बाशिंदों की जुबान को उनका स्वाद लगा दिया.’

कभी हलवाई की दुकानों से शुरू हुआ मुंबई का मिठाई व्यवसाय आज कौपोर्रेट की शक्ल में है. मिठाइयां फैक्टरियों में बनती हैं, डिपार्टमेंटल स्टोर्स के रैक्स में जगह पाती हैं, एक्सपोर्ट की जाती हैं, मांगलिक समारोहों व स्टार होटेल्स के साथ कापोर्रेट आयोजनों और विमानों में परोसी जाती हैं और औन लाइन डिलीवरी से सीधे आपके डायनिंग टेबल पर हाजिर हो जाती हैं. आज मिष्ठान्न मुंबई में सबसे बड़ा माने जाने वाले खान-पान उद्योग का प्रमुख हिस्सा है. दीवाली के इन दिनों यह उद्योग पूरी रवानी पर है.

अबकी दीवाली पर देशवासियों का मुंह मीठा कराने के लिए मिठाई बाजार नए कलेवर में सजकर तैयार है. तरह- तरह की परम्परागत मिठाइयों के साथ ही इस बार डिजाइनर मिठाई भी लोगों का ध्यान खींच रही है. दिवाली पर सूखे मेवे और चौकलेट देने का चलन भी बढ़ा है. चौकलेट का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ रहा है. फूड नेविगेटर-एशिया की रिपोर्ट की मानें, तो साल 2005 में भारत में चौकलेट का उपभोग 50 ग्राम प्रति व्यक्ति था, जो साल 2013-14 में बढ़कर 120 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गया. साल 2018 में चौकलेट का 58 अरब रुपये का कारोबार हुआ था और 2019 में बढ़कर 122 अरब रुपये तक पहुंच गया है. चौकलेट की लगातार बढ़ती मांग की वजह से बाजार में घटिया किस्म के चौकलेट की भी भरमार हो गई है. मिलावटी और बड़े ब्रांड के नाम पर नकली चौकलेट भी बाजार में खूब बिक रही हैं. इस सच्चाई से ग्राहक बखूबी परिचित है. शायद यही वजह है कि इस बार लोगों का रुझान मिठाइयों की ओर ही ज्यादा है.

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मिठाई का विकल्प चौकलेट नहीं

पुरानी दिल्ली में चांदनी चौक इलाके में मिठाई की मशहूर दुकान ‘श्याम स्वीट्स’ की स्थापना 1910 में बाबूराम हलवाई ने की थी, आज इस दुकान को बाबूराम की छठी पीढ़ी देख रही है. दीवाली में यहां तिल धरने की जगह नहीं होती है. लोगों को अपनी पसंद की मिठाई पैक करवाने के लिए लाइन में धक्कामुक्की तक करनी पड़ती है. दुकान के कर्ताधर्ता भरत अग्रवाल कहते हैं कि दिल्लीवालों की मांग तो हमें पूरी करनी ही है, हमारे पास अमृतसर, चंडीगढ़, मेरठ, लखनऊ, कानपुर, सहारनपुर से जो और्डर्स आ रहे हैं, उन्हें भी समय पर पूरा करना है.

BHARAT-AGARWAL

भरत अग्रवाल अपने पिता अजय अग्रवाल और चाचा संजय अग्रवाल के साथ कारोबार को संभालते हैं. वह बताते हैं कि बीच में चौकलेट और ड्राईफ्रूट देने का चलन काफी हो गया था, लेकिन अब लोग वापस मिठाई की ओर लौट आये हैं. वजह यह है कि बाहरी कम्पनियों की इम्पोर्टेड चौकलेट्स की पैकिंग तो बड़ी आकर्षक होती है, मगर अन्दर ठन-ठन गोपाल! लोगों को जल्दी ही समझ में आ गया कि चॉकलेट्स के बड़े-बड़े आकर्षक डिब्बों में कुछ खास नहीं है, उनका पैसा सिर्फ कार्डबोर्ड पर खर्च हो रहा है और विभिन्न रंगों की चौकलेट्स का स्वाद भी एक जैसा ही है. तो अब लोगों का रुझान एक बार फिर भारतीय व्यंजनों, नमकीन और मिठाईयों की ओर हुआ है. मिठाईयों में कई तरह के स्वाद का लुत्फ उठाया जा सकता है और यह चौकलेट से सस्ती पड़ती है. अब बड़ी-बड़ी कौरपोरेट कम्पनियां अपने कर्मचारियों को मिठाई के डिब्बे ही देना पसंद कर रही हैं. इस साल मिठाई की मांग बीते साल की अपेक्षा ज्यादा है. काफी पाजिटिव रिस्पौन्स है, काफी और्डर्स आ रहे हैं.

वहीं फतेहपुरी मस्जिद के पास मिठाई की पुरानी और ख्यात दुकान ‘चैनाराम’ के मालिक हरीश गिडवानी को भी दम लेने की फुर्सत नहीं है. उन्होंने अपने वर्करों की संख्या दोगुनी कर दी है. मांग के अनुसार शुद्ध, स्वादिष्ट और आकर्षक मिठाईयां तैयार करना, उनकी आकर्षक पैकिंग करवा कर समय पर उनकी डिलीवरी करना कोई आसान काम नहीं है. मिठाई की फील्ड में ‘चैनाराम’ का नाम 118 वर्ष पुराना है. चैनाराम की मिठाइयों का स्वाद पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आया है.

HARISH-GIDWANI

हरीश गिडवानी बताते हैं कि जब देश का बंटवारा नहीं हुआ था, तब उनकी दुकान ‘चैनाराम सिंधी हलवाई’ के नाम से लाहौर के अनारकली बाजार में हुआ करती थी. यह वहां सन् 1901 में खुली थी. 1947 में बंटवारे के बाद हरीश गिडवानी के दादा पूरे परिवार को लेकर लाहौर से भारत चले आये. पहले यह परिवार हरिद्वार में रुका. वह भारी असमंजस के कठिन दिन थे. दादाजी को मिठाई बनाने में महारत हासिल थी. एक दिन परिवार को हरिद्वार में छोड़ कर वह एक दुकान की तलाश में दिल्ली आये. चांदनी चौक में फतेहपुर मस्जिद के पास यह दुकान उनको भा गयी. फिर क्या था देखते ही देखते लाहौर का ‘चैनाराम सिंधी हलवाई’ दिल्ली में ‘चैनाराम स्वीट्स’ के नाम से छा गया. मजे की बात यह है कि इस दुकान में बनने वाले ‘कराची हलुवा’ के स्वाद में आज भी रत्ती भर का फर्क नहीं आया है. पिन्नी, पतीसा, खुर्मा, कोकोनेट बर्फी, पिस्ता हलवा, बादाम हलवा और काजू हलवा तो इस दुकान की शान हैं.

हरीश गिडवानी कहते हैं कि मार्केट में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कितने भी प्रोडक्ट आ जाएं, चौकलेट, टाफियां, बेकरी आइटम छाए रहें, मगर हम भारतीय पारम्परिक चीजों में ही विश्वास करते हैं. हमारी होली-दीवाली मिठाई के बिना अधूरी है. भारतीय आदमी चौकलेट या ड्राईफ्रूट से त्योहार नहीं मनाता है. उसको तो मिठाई चाहिए, भोग लगाने के लिए भी और बांटने के लिए भी. हम इस भावना का सम्मान करते हैं और इसीलिए हम अपनी मिठाईयों की क्वालिटी से कोई समझौता नहीं करते. क्वालिटी अच्छी है तो फिर ग्राहक पैसा नहीं देखता, वह बस अच्छा माल खरीद लेता है.

बाजार मटिया महल में जामा मस्जिद के गेट नम्बर -1 के सामने कल्लन स्वीट्स की दुकान की शानो-शौकत भी दशहरा, दीवाली और ईद में देखने लायक होती है. यह वही मिष्ठान भंडार है जहां कभी मशहूर आर्टिस्ट स्व. एम.एफ. हुसैन नंगे पैर मीठा दूध पीने चले आते थे और जाते-जाते शाही टोस्ट खाना नहीं भूलते थे. जानेमाने तबलावादक उस्ताद जाकिर हुसैन सर्दियों में गाजर का हलवा खाने का अपना लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं और कल्लन स्वीट्स तक दौड़े आते हैं. यहां का हलवा खाकर ही उनकी आत्मा तृप्त होती है. ‘हीरोपंती’ फिल्म की शूटिंग के दौरान एक्टर टाइगर श्राफ ने भी कल्लन स्वीट्स की मिठाइयों का खूब स्वाद चखा और चर्चित हास्य टीवी शो ‘भाभी जी घर पर हैं’ के विभू उर्फ विभूति नारायण मिश्रा यानी कलाकार आसिफ शेख भी यहां से मिठाइयों के डिब्बे ले जाना नहीं भूलते हैं.

‘कल्लन स्वीट्स’ सन् 1939 में हाजी कल्लन के द्वारा स्थापित की गयी थी. आज उनकी तीसरी पीढ़ी के मोहम्मद शान और मोहम्मद नावेद इस दुकान का संचालन कर रहे हैं. मोहम्मद शान बताते हैं कि हाजी कल्लन अनाथ थे. वे सन् 1912 में अपनी चाची के साथ पेशावर से दिल्ली आये थे. फिर यहीं पले-बढ़े और यहीं उनकी शादी हुई.  कल्लन साहब का रंग कुछ दबा हुआ था. उनके रंग की वजह से उनका नाम ‘कल्लन’ पड़ गया था, फिर उन्होंने इसी नाम से दुकान खोल ली और आज यह नाम एक ब्रांड बन चुका है. मटिया महल इलाके में जामा मस्जिद के ठीक सामने जब उन्होंने यह दुकान खरीदी तो पहले दूध और दही बेचना शुरू किया था. जल्दी ही वह दिल्ली वालों को पूड़ी-सब्जी का नाश्ता भी कराने लगे. जब 1947 में बंटवारा हुआ और भारी मारकाट मची तो हाजी कल्लन बहुत डर गये और उन्होंने अपनी बीवी बिस्मिल्लाह से पाकिस्तान चलने की बात की, मगर बिस्मिल्लाह बी अड़ गयीं कि यह हमारा मुल्क है, हमारा घर है, हम इसे छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. वे अपनी दिल्ली से बहुत प्यार करती थीं. उनकी जिद के आगे हाजी कल्लन की एक न चली. धीरे-धीरे जब माहौल शांत हुआ तो कल्लन की दुकान फिर चल निकली. धीरे-धीरे कल्लन और बिस्मिल्लाह बी ने तरह-तरह की मिठाईयों से दिल्ली वालों का दिल जीत लिया. उनकी बनायी बर्फी, लड्डू और गुलाब जामुन का तो कोई तोड़ ही न था. काम बढ़ा तो सन् 1963 में हाजी कल्लन ने बगल वाली दुकान भी खरीद ली. सन् 1975 में हाजी कल्लन के गुजरने के बाद उनके बेटे हबीब उर रहमान और अजीज उर रहमान ने दुकान का काम और नाम बढ़ाया. इन दोनों भाइयों की मृत्यु के उपरांत अब हाजी कल्लन के पोते मोहम्मद शान और मोहम्मद नावेद इस दुकान को चला रहे हैं. तब से अब तक हालांकि मिठाईयों के रूप-रंग और संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हो चुकी है, मगर कुछ मिठाईयों की पुरानी रेसेपीज से मोहम्मद शान ने कोई छेड़छाड़ नहीं की. वह आज भी अपने दादा-दादी की रेसेपीज से ही कई मिठाईयां तैयार करते हैं.

कल्लन स्वीट्स का शाही टुकड़ा बहुत मशहूर है. रबड़ी, कराची हलुवा, हब्शी हलुवा, बादाम पाकीजा, वरक पाकीजा, खजूर की बर्फी का स्वाद तो बस यहीं मिलता है. मोहम्मद शान बताते हैं कि कुछ साल पहले वह दुबई गये थे, जहां उन्होंने खजूर की बर्फी खायी. वह उन्हें बहुत लजीज मालूम पड़ी. शुगर के मरीजों और उन ग्राहकों के लिए जो चीनी से परहेज करते हैं, खजूर की बर्फी बहुत अच्छा विकल्प है, यह सोच कर उन्होंने इसे अपने मैन्यू में शामिल किया और आज इसकी खूब मांग है, खासकर रमजान के दिनों में तो इसकी बिक्री काफी बढ़ जाती है. खजूर की बर्फी में चीनी का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता, वहीं मां बनने वाली महिलाओं के लिए देसी घी में बना गोंद का हलुवा और गोंद के लड्डू तो यहां सालोंसाल उपलब्ध हैं, जो शरीर को ताकत देते हैं. इसमें तमाम तरह के ड्राई फ्रूट्स डाले जाते हैं. पनीर की जलेबी, कीमा समोसा और खोया समोसा इस दुकान की खास चीजें हैं, जिनकी बहुत मांग है. मशहूर शेफ विकास खन्ना ने भी कल्लन स्वीट्स से ही पनीर की जलेबी बनाने का हुनर सीखा, वहीं कीमे के समोसे की रेसिपी कल्लन पारिवारिक का एक रहस्य है, जिसमें डाले जाने वाले मसाले सिर्फ इसी परिवार को मालूम हैं. आज भी मोहम्मद शान की अम्मी ही अपने हाथों से समोसे में भरा जाने वाला कीमा विभिन्न मसालों के साथ तैयार करती हैं और यहां बनने वाला कीमा समोसा अमेरिका, दुबई और आस्ट्रेलिया तक फ्रीज करके भेजा जाता है.

नये प्रयोग और नयी पैकेजिंग

इसमें शक नहीं कि बीते एक दशक में मिठाईयों के दामों में बहुत तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. वहीं त्योहारों में लड्डू या बर्फी देने का चलन अब कम है और इनकी जगह रिच और फैंसी मिठाईयों ने ले ली है, जिनको बनाने में लागत भी काफी आती है. श्याम स्वीट्स के संचालक भरत अग्रवाल कहते हैं कि मिठाईयों के दाम इसलिए बढ़े हैं क्योंकि रा मिटीरियल का दाम लगातार बढ़ रहा है. हम अपनी क्वालिटी के साथ समझौता नहीं कर सकते हैं, लिहाजा मिठाई का दाम बढ़ना स्वाभाविक है. इस बार मार्केट में मिठाईयों के दाम चार सौ रुपये किलो से शुरू होकर दो-ढाई हजार रुपये किलो तक हैं. पिस्ते और चिलगोजे की मिठाईयों के दाम दो से तीन हजार रुपये किलो है. ग्राहक अपने परिवार, दोस्तों वगैरह में बांटने के लिए औसतन आठ से नौ सौ रुपये किलो वाली मिठाई खरीदना ही पसंद करता है. हजार रुपये में तो अच्छी मिठाई आ जाती है.

packing

मिठाई के साथ-साथ दुकानदारों को पैकेजिंग पर भी खासा ध्यान देना पड़ता है. श्याम स्वीट्स के भरत अग्रवाल कहते हैं कि आजकल डिब्बे के अन्दर मिठाइयों के साथ बच्चों को चॉकलेट और बेकरी आइटम भी चाहिए तो बड़े-बूढ़ों को ड्राईफ्रूट भी, इसलिए हम ऐसी पैकेजिंग करते हैं ताकि सबकी चाहतों को पूरा कर सकें. इसकी वजह से भी कुछ दाम बढ़ा है. अबकी दीवाली में हमने ऐसी मिठाइयां भी तैयार की हैं, जिसके अन्दर चौकलेट्स भी हैं और ड्राईफ्रूट्स भी और वह भी अलग-अलग फू्रट फ्लेवर्स की कोटिंग में. इसको काफी पसन्द किया जा रहा है. एल्फांजो बाइट, कीवी बाइट, स्ट्राबेरी बाइट, ग्वावा बाइट, पाइनेपिल बाइट, मिक्स ड्राईफ्रूट बाइट, मिक्स शाही ड्राईफ्रूट बाइट, इन सारी मिठाइयों के अन्दर काजू, बादाम और पिस्ता भरा हुआ है. इसको बनाने के लिए पानी या दूध इस्तेमाल नहीं किया जाता है. लिक्विड का इस्तेमाल न होने से यह मिठाईयां डेढ़ से दो महीने तक ठीक रहती हैं. जैसे-जैसे लोगों का टेस्ट बदल रहा है, हमने भी कुछ एक्सपेरिमेंट किये हैं, मगर कुछ पुरानी मिठाईयां जैसे सोहन हलवा, सोन टिक्की, बादाम टिक्की, जो  हमारे पूर्वज बनाते और खिलाते थे, आज भी वह स्वाद ढूंढते हुए लोग हमारी दुकान पर आते हैं. उनके लिए उस स्वाद को हमने ज्यों का त्यों रखा है. यूथ और बच्चों के लिए इस बार हम काफी कुछ नया लेकर आये हैं.

मिठाइयों के दाम को लेकर कल्लन स्वीट्स के मोहम्मद शान भी भरत की बातों से इत्तेफाक रखते हैं. उनका कहना है पिछले  पांच सालों में दूध और देसी घी के दाम तीस से चालीस प्रतिशत बढ़ गये हैं, इसका सीधा असर मिठाई कारोबार पर पड़ा है. मिठाईयों के दाम बढ़ने से हालांकि ग्राहकों की संख्या में तो कमी नहीं आयी है, लेकिन मिठाई की क्वांटिटी कम हो गयी है. पहले जो लोग अपने रिश्तेदारों को पांच किलो या दो किलो मिठाई के डिब्बे भेंट करते थे, वे अब एक किलो या आधा किलो पर आ गये हैं. काजू कतली का डिब्बा भी ज्यादातर लोग आधा किलो का ही मांगते हैं.

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शुगर रोगियों के लिए भी है कुछ खास

जिस तरह भारतीय समाज में फिटनेस के प्रति जागरूकता बढ़ी है और शुगर के मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है, लोग लो शुगर मिठाईयां या शुगर फ्री मिठाईयों की मांग करने लगे हैं. ग्राहकों की इस मांग को मिठाई दुकानदारों ने सिर-आंखों पर लिया है. श्याम स्वीट्स की दुकान पर फिटनेस फ्रीक और शुगर के मरीजों के लिए देसी खांड की मिठाइयां तैयार की गयी हैं. भरत अग्रवाल बताते हैं कि यह ज्ञान हमने अपने बुजुर्गों से पाया कि देसी खांड की बनी मिठाई सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं और यह चीनी की मिठाई से ज्यादा बेहतर है. अबकी दीवाली पर हमने शुगर के मरीजों को ध्यान में रखते हुए देसी खांड की मिठाईयां तैयार की हैं. यह बच्चों के लिए भी लाभकारी हैं. जो लोग लो कैलोरी मिठाईयों की मांग करते हैं, उनके लिए पनीर और खोये की मिठाईयां हैं. गाय के दूध का बना पनीर या छेना काफी हल्का होता है. स्पंज रसगुल्ला या रस मलाई इस छेने से बनती है, जो हल्की और सुपाच्य होती हैं. शुगर के मरीजों को भरत अग्रवाल यह सुझाव देते हैं कि वे छेने का रसगुल्ला खाएं मगर खाने से पहले थोड़ा निचोड़ लें ताकि शीरा निकल जाए.

मोहम्मद शान खजूर की मिठाई को शुगर के मरीजों के लिए ज्यादा बेहतर मानते हैं. ‘कल्लन स्वीट्स’ में ज्यादातर रिच मिटीरियल है. देसी घी और दूध के स्वाद में रची-बसी मिठाईयां हैं. मोहम्मद शान अपने दादा के जमाने से चली आ रही मिठाईयों के ओरिजनल फ्लेवर से छेड़छाड़ नहीं करते हैं. कल्लन स्वीट्स के कलाकंद में किसी तरह का फ्लेवर या रंग नहीं डाला जाता है, बस दूध को फाड़ा और जमा दिया. इससे घी-दूध का स्वाद बना रहता है. वे शाही टुकड़े में भी बाहरी रंग या फ्लेवर नहीं डालते हैं, जबकि अन्य छोटे दुकानदार केवड़ा या वैनिला एसेंस का इस्तेमाल खुश्बू के लिए करते हैं.

नमकीन की मांग भी खूब है 

अब त्योहारों में मीठे के साथ-साथ नमकीन के पैकेट देने का चलन भी बढ़ रहा है. इसको देखते हुए श्याम स्वीट्स ने अपने ग्राहकों के लिए विशेषतौर पर दाल की कचौड़ी, मटर का समोसा, गोभी का समोसा व अन्य कई तरह के नमकीन तैयार किये हैं. उनकी खासियत यह है कि उनके किसी भी व्यंजन में प्याज, लहसुन का इस्तेमाल नहीं होता है. वहीं बेकरी प्रोडक्ट में वे अंडा नहीं डालते हैं. उनकी एक स्पेशल नमकीन डिश है – बेड़मी, जो त्योहार के मौसम में खूब खायी जाती है. पुरानी दिल्ली के वासी इस जायके से खासे परिचित हैं. बेड़मी कचौड़ी की तरह बनायी जाती है, मगर इसका आटा दरदरा मोटा होता है. इस वजह से तले जाने पर यह ज्यादा घी नहीं पीता है और काफी सुपाच्य होता है. बेड़मी में उड़द दाल की पिट्ठी बना कर भरी जाती है और इसको आलू की सब्जी, छोले, सीताफल की सब्जी, कचालू और घिया के अचार के साथ सर्व करते हैं. इतवार और छुट्टी के रोज श्याम स्वीट्स का यह स्पेशल ब्रेकफास्ट दिल्ली वालों को चांदनी चौक तक खींच ही लाता है. बेड़मी के साथ लोग नागौरी हलवे की फरमाइश भी करते हैं. यह पुरानी दिल्ली का छिपा हुआ नाश्ता है, जो नई दिल्ली के ज्यादातर लोगों को नहीं मालूम है. नागौरी हलुवे का स्वाद पुरानी दिल्ली के पुराने हलवाइयों की दुकानों पर ही मिल सकता है. इसमें छोटी-छोटी करारी क्रिस्पी सूजी की पूड़ियां बनायी जाती हैं. इन पूड़ियों में हलुवा और सब्जी दोनों भर कर खाया जाता है यानी यह नमकीन और मीठे का बेहतरीन मिक्सचर होता है. इसकी खूबी यह कि इसे वह बच्चा भी आराम से खा सकता है जिसके दूध के दांत अभी नहीं आये हैं और वह बुजुर्ग भी जिसके सारे दांत गिर चुके हैं. नागौरी हलुवा देखने में कड़ा लगता है, लेकिन खाने में यह बेहद मुलायम होता है और मुंह में डालते ही घुल जाता है.

मिलावटखोरों से रहें सावधान

त्योहार का मौसम शुरू होते ही मिलावटखोरों के कारनामे अपनी चरम पर होते हैं. मिलावटी और सस्ती मिठाइयां सेहत को बेतरह नुकसान पहुंचाती हैं. ऐसे में स्थापित और पुरानी दुकानों से ही मिठाई खरीदना ठीक रहता है. स्थापित दुकानदार थोड़े से प्राफिट के लिए कभी भी दशकों की मेहनत से बना अपना नाम खराब नहीं करना चाहते हैं. इसलिए हमारी सलाह तो यही है कि अबकी त्योहारों पर आप भले ही मिठाई कम खरीदें, मगर उन्हीं दुकानों से खरीदें जो पुरानी और मशहूर हों. मोहम्मद शान कहते हैं मिठाई चखने पर ही आपको असली और नकली का पता चल जाता है. अगर आप दो सौ रुपये किलो खोये की मिठाई ढूंढ रहे हैं तो आपको खुद सोचना चाहिए कि दो-ढाई सौ रुपये किलो में आज असली खोया नहीं आ रहा है, 54 रुपये किलो दूध है, देसी घी के रेट आसमान छू रहे हैं, तो ऐसे में आपको इस रेट में खालिस मिठाई कैसे मिलेगी और अगर कोई इतनी सस्ती मिठाई बेच रहा है तो वह मिलावटी और नकली खोये की ही है, इसमें कोई संदेह नहीं है.

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 आकर्षक पैकिंग का बड़ा महत्व है

त्योहार के मौसम में बड़ी कारपोरेट कम्पनियां अपने कर्मचारियों, स्टेक होल्डर्स और अन्य सहयोगियों को जो मिठाई के डिब्बे गिफ्ट करती हैं, उसमें डिब्बे की पैकिंग बहुत महत्वपूर्ण रोल अदा करती है. वे चाहते हैं कि पैकिंग इतनी आकर्षक हो कि लोग देखते ही मोहित हो जाएं. इसलिए हमने बकायदा डिजाइनर रखे हैं जो इन डिब्बों को सजाते हैं. एक कहावत है कि किताब को उसके कवर से जज नहीं करना चाहिए, मगर गिफ्ट के मामले में यह कहावत उलटी काम करती है. यहां कवर से ही किताब को जज किया जाता है. अगर हम डिब्बे को खूबसूरत नहीं बनाएंगे तो अन्दर रखी चीज कितनी भी स्वादिष्ट हो, लोगों को मजा नहीं देगी. कोई भी चीज जो आंखों को भा जाए वह मन को भी भाती है. इस दीवाली हमारे ग्राहकों को बहुत आकर्षक डिजाइनर पैकिंग में मिठाईयां मिलेंगी. उनके साथ दिवाली की बधाई देती सुन्दर मोमबत्तियां और दिये भी होंगे तो ड्राई फ्रूट और चौकलेट्स भी.

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– भरत अग्रवाल,  श्याम स्वीट्स, चांदनी चौक, दिल्ली

डायबिटीज के रोगी भी मुंह मीठा करें

शुगर के मरीजों के लिए हमारे पास खास खजूर बर्फी है. इसमें सिर्फ खजूर, ड्राई फ्रूट और घी है. मगर सलाह यह भी है कि इसे बहुत ज्यादा न खाएं. इसके अलावा पनीर का रसगुल्ला और छेने की रसमलाई ऐसे लोगों के लिए अन्य मिठाइयों से बेहतर है. यह दोनों ही कम मीठी और हल्की हैं. रसगुल्ले में से रस निचोड़ कर खाएं, त्योहार का लुत्फ उठाएं और स्वस्थ रहें.

– मोहम्मद शान, कल्लन स्वीट्स, बाजार मटिया महल, चांदनी चौक

फेस्टिवल स्पेशल 2019: ऐसे बनाएं वेज पुलाव

आज आपको वेज पुलाव की रेसिपी बताते हैं. जो आप त्यौहार के मौके पर आसानी से बना सकती हैं. इसे गर्मागर्म मेहमानों और फैमिली को सर्व करें.

 सामग्री :

– चावल (02 कप पका हुआ)

– प्याज (01 बारीक कटा हुआ)

– गाजर (01 पतला व लंबाई में कटा)

– हरे मटर (1/2 कप)

– शिमला मिर्च (01 पतला व लंबाई में कटा)

– हरी मिर्च (04 कटी हुई)

– दालचीनी (01 टुकड़ा)

– इलायची पाउडर ( 1/4 छोटा चम्मच)

– जीरा ( 1/2 छोटा चम्मच)

– लौंग ( 04 नग)

– लहसुन  (01 चम्मच कुटा हुआ)

– हरी धनिया  (01 छोटा चम्मच कटी हुई)

– तेल/घी ( 02 बड़े चम्मच)

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वेज पुलाव बनाने की विधि :

– सबसे पहले पैन में घी/तेल लेकर गर्म करें.

– घी/तेल गरम होने पर उसमें जीरे का छौंक लगाएं.

– फिर उसमें प्याज डालकर उसे सुनहरा होने तक भूनें.

– प्याज भुनने के बाद पैन में दालचीनी, लौंग, इलायची पाउडर डालें और भूनें.

– मसाले से हल्की सी खुश्बू आने पर उसमें कूटा हुआ लहसुन डालें और भूनें.

– इसके बाद कटी हुई सब्जियां, मटर, हरी मिर्च और नमक डालकर ढककर 5 मिनट तक धीमी आंच पर पकाएं.

– सब्जियों के गल जाने पर इसमें पके हुए चावल डालकर अच्छी तरह से मिक्स कर लें.

– अब आपका पंजाबी पुलाव  तैयार है. इसमें ऊपर से कटी हई हरी धनिया छिड़कें और प्लेट में निकाल कर टेस्ट करें.

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जनसंख्या का दुरुपयोग

अगर मोटर वाहनों को रामरथ बनाने से देश का कल्याण होता तो 1988 से 2004 के दौरान और 2014 के बाद औटो उद्योग को दोगुनाचारगुना फलनाफूलना चाहिए था. जिस तरह से भरभर कर तीर्थयात्राएं की जा रही हैं, कांवडि़ए ट्रकों, टैंपुओं में भरभर कर गातेबजाते रातभर सड़कों पर चलते हैं, मंदिरों के सामने पार्किंग की समस्या पैदा हो रही है, ऐसे में औटो उद्योग को तो सोना बरसने की उम्मीद होनी चाहिए, लेकिन चिंतनीय यह है कि लगभग सब से पुरानी कंपनी टाटा मोटर्स को 2019-20 की पहली तिमाही में 3,680 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है.

टाटा मोटर्स की पिछले साल अप्रैलजून में 66,619 करोड़ रुपए की बिक्री हुई थी पर इस ‘सुनहरे’ साल में उस की 61,467 करोड़ रुपए की ही बिक्र्री हुई जिस से उस का घाटा 1,863 करोड़ से बढ़ कर 3,680 करोड़ रुपए हो गया.

ऐसा सिर्फ औटो उद्योग के साथ ही नहीं हो रहा, सभी उद्योग भयंकर मंदी की चपेट में हैं. कृषि उत्पादन कम हो रहा है, इसलिए गांवोंकसबों में बिक्री कम हो रही है.

देश की प्रगति के लिए जिस माहौल की जरूरत है वह इस तरह के समाचारों से फीका पड़ता नजर आ रहा है. लोग अपनी जमापूंजी को संभाल कर रख रहे हैं. सरकार के दोषपूर्ण प्रयासों के चलते लोगों ने भारी रकम नकद के रूप में घर में रखनी शुरू कर दी है. क्योंकि अगर मकान खरीदें तो पहले उस का मिलना तय नहीं, और अगर मिल जाए तो उस से पर्याप्त आय नहीं हो रही. लोगों के पास जितना पैसा है उसे वे संभाल रहे हैं, सामान नहीं खरीद रहे क्योंकि भविष्य शंकित है. ब्याज तक अब सुरक्षित नहीं है. बैंकों ने केवाईसी के चक्कर में लोगों के चालू खाते तक फ्रीज करने का रिवाज बना डाला है.

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वाहनों की कम होती बिक्री के पीछे सरकारी नियमों में हर रोज फेरबदल भी है. कभी कहा जाता है कि 10 साल बाद वाहन बेकार हो जाएगा, कभी ड्राइविंग लाइसैंस को ईलाइसैंस करने की कवायद में लोगों को लगा दिया जाता है तो कभी हर कोने पर खड़े वरदीधारियों की चालान मशीन का डर रहता है.

सड़कों पर आज असुरक्षा का माहौल है. जो लोग दिन में गौरक्षक बने रहते हैं वे शाम को चोरउचक्के बन जाते हैं. वे जानते हैं कि पकड़े जाने पर उन्हें छुड़ाने के लिए भीड़ आ जाएगी. उधर, लोग वाहनों को अब शान का प्रतीक नहीं, एक जरूरतभर सम झ रहे हैं और गाडि़यों में ठूंसी जा रही नई तकनीक से प्रभावित नहीं हो रहे.

यह स्थिति सुधरेगी, इस की उम्मीद कम ही है. पश्चिम एशिया ने धर्म के कारण अपना आर्थिक विकास नष्ट कर डाला है. उन की दो पीढि़यां आरामतलब व  झगड़ालू हो गईं. इसलाम फैलाने के नाम पर अरब, जिन की तूती पूरे हिंद महासागर में फैलती थी, 20वीं सदी आने तक पिछड़े गड़रिए भर रह गए थे. अभी उन के पास तेल का पैसा है. पर, अब तेल का भाव वह नहीं रहा, लाभ कम हो चुका है. वहीं, भारत देश के पास भारी जनसंख्या की अहम पूंजी है पर अफसोस कि हम उसे निर्माण में नहीं, विध्वंस में लगा रहे हैं.

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25000 करोड़ के मालिक ने की हत्या: भाग 2

25000 करोड़ के मालिक ने की हत्या: भाग 1

आखिरी भाग

अब आगे पढ़ें- 

25 नौकाओं के जरिए 200 से अधिक पुलिसकर्मी और 3 गोताखोर उन की तलाश में लग गए. हेलीकौप्टर और खोजी कुत्तों को भी मदद ली जा रही थी. लापता सिद्धार्थ ने आखिरी बार फोन पर किस से बात की थी, इस की भी छानबीन की जा रही थी.

60 वर्षीय वीजी सिद्धार्थ का जन्म कर्नाटक के चिकमंगलुरु में हुआ. उन का परिवार लंबे समय से कौफी उत्पादन से जुड़ा था. सिद्धार्थ ने मंगलुरु यूनिवर्सिटी से इकोनौमिक्स में मास्टर की डिग्री ली थी. वह अपने दम पर कुछ करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने विरासत में मिली खेती से आराम की जिंदगी न गुजार कर अपने सपने पूरा करने की ठानी.

21 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को बताया कि वह मुंबई जाना चाहते हैं. इस पर उन के पिता ने उन्हें 5 लाख रुपए दे कर कहा कि अगर वह असफल हो जाएं तो वापस आ कर परिवार का कारोबार संभाल सकते हैं. 5 लाख रुपए में से सिद्धार्थ ने 3 लाख रुपए की जमीन खरीदी और 2 लाख रुपए बैंक में जमा कर दिए.

इस के बाद मुंबई आ कर उन्होंने जेएम फाइनेंशियल सर्विसेज (अब जेएम मौर्गन स्टैनली) में मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में काम करना शुरू कर दिया. यहां उन्होंने 2 साल तक काम किया. 2 साल की ट्रेनिंंग के बाद सिद्धार्थ ने अपना कारोबार शुरू करने की सोची. नौकरी छोड़ कर वे बंगलुरु वापस आ गए.

उन के पास 2 लाख रुपए बचे थे. उस पैसे से उन्होंने वित्तीय कंपनी खोलने का फैसला किया. सोचविचार कर उन्होंने सिवन सिक्योरिटीज के साथ अपने सपने को साकार किया. यह कंपनी इंटर मार्केटिंग टे्रनिंग के लिए थी. उस दौर में इंटर मार्केटिंग से पैसे बनाना आसान था. इस के लिए वे अपने मुंबई (तब बंबई) के दोस्तों के शुक्रगुजार थे. इसी दौर में उन्होंने स्टौक मार्केट से खूब कमाई की.

बहरहाल, सन 1985 में सिद्धार्थ ने कौफी की फसल खरीदनी शुरू कर दी. धीरेधीरे सिद्धार्थ का यह कारोबार 3 हजार एकड़ में फैल गया. उन के परिवार में कौफी का यह कारोबार 140 वर्षों से चलता आ रहा था. इस के बाद सिद्धार्थ ने कारोबार का विस्तार किया. यहीं से सीसीडी की बुनियाद भी रखी जाने लगी.

वह कर्नाटक के ऐसे पहले इंटरप्रेन्योर थे,  जिन्होंने सन् 1996 में सीसीडी की स्थापना की थी. इस काम में उन्हें बहुत बड़ी सफलता मिली.

कैफे कौफी डे कंपनी के भारत के 250 शहरों में 1751 आउटलेट हैं. इस के अलावा आस्ट्रिया, मलेशिया, मिस्र, नेपाल, कराची और दुबई आदि में भी कंपनी के आउटलेट हैं.

वीजी सिद्धार्थ के सितारे बुलंदियों पर थे. उन के लिए यह ऐसा समय था कि अगर वे मिटटी को भी छू देते तो सोना बन जाती थी. 5 लाख से बिजनेस आरंभ करने वाले सिद्धार्थ 25000 करोड़ के मालिक बन गए थे. वे फर्श से उठ कर अर्श तक पहुंचे थे. उद्योगजगत में सिद्धार्थ का नाम बड़े उद्योगपतियों के रूप में लिया जाता था. सफलता की बुलंदियों पर पहुंचते ही कैफे कौफी डे का सीधा मुकाबला टाटा ग्रुप की स्टारबक्स से हुआ.

मुकाबला टाटा ग्रुप के स्टारबक्स से ही नहीं, बल्कि बरिस्ता और कोस्टा जैसी कंपनियों से भी था. इस के अलावा कंपनी को चायोस से भी चुनौती मिल रही थी.

सिद्धार्थ अमीरी की जिंदगी जरूर जी रहे थे, लेकिन ऐसा नहीं था कि सामान्य लोगों की तरह उन के जीवन में तनाव नहीं था. सच तो यह है कि उन की जिंदगी कांटों की सेज पर बनी हुई थी. वह करवट बदलते थे तो उन्हें तनाव भरे कांटें चुभते थे.

दरअसल, कैफे कौफी डे का परिचालन करने वाली सीसीडी इंटरप्राइजेज में कारपोरेट संचालन का मुद्दा रहरह कर उठता रहा.

सन 2018 में कंपनी में उस समय भूचाल आ गया जब आयकर विभाग ने वीजी सिद्धार्थ की परिसंपत्तियों पर छापे मारे. आयकर विभाग को पता चला था कि सीसीडी कंपनी ने बड़े पैमाने पर टैक्स की चोरी की है. इसी सिलसिले में विभाग ने छापे डाले थे.

सिद्धार्थ ने स्वीकार किया कि उन के पास 365 करोड़ की अघोषित संपत्ति है. इसी दौरान कंपनी माइंडट्री में हिस्सेदारी बेचने और इस्तेमाल को ले कर भी सवाल उठे. इस पर कई विभागों की नजर जमी थी.

दरअसल, सिद्धार्थ ने माइंडट्री में भी निवेश कर रखा था. माइंडट्री में सिद्धार्थ की करीब 21 फीसदी हिस्सेदारी थी. हालांकि पिछले दिनों उन्होंने अपने शेयर एलएंडटी को बेच दिए थे. इस सौदे से उन्हें करीब 2856 करोड़ रुपए का फायदा हुआ था. वह करीब एक दशक से इस कंपनी में निवेश कर रहे थे और 18 मार्च, 2019 को उन्होंने एलएंडटी से 3269 करोड़ रुपए का सौदा किया था.

बहरहाल, पिछले 2 सालों में सीसीडी के विस्तार की रफ्तार घटी और कंपनी कर्ज में डूबती चली गई. सीएमआईई के डाटा के अनुसार, कंपनी पर मार्च 2019 तक 6547.38 करोड़ रुपए का कर्ज चढ़ चुका था. जबकि कंपनी (सीसीडी) ने मार्च 2019 में खत्म हुई तिमाही में 76.9 करोड़ रुपए की स्टैंडअलोन नेट सेल्स दर्ज की थी.

मार्च तिमाही में कंपनी को 22.28 करोड़ रुपए का लौस भी हुआ था. इस से साल भर पहले की इसी तिमाही में लौस का यह आंकड़ा 16.52 करोड़ रुपए था. कंपनी में लगातार हो रहे लौस से वीजी सिद्धार्थ परेशान थे, लेकिन वे इस बात से और भी ज्यादा परेशान थे कि आखिर कंपनी में यह लौस कैसे और क्यों हो रहा है. यह बात उन की समझ से परे थी.

कंपनी में लगातार हो रहे लौस और कर्ज के संकट से उबरने के लिए उन्होंने अपनी रियल एस्टेट प्रौपर्टी को बेचने का फैसला कर लिया था.

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इस के लिए कोका कोला कंपनी से 8 से 10 हजार  करोड़ में बेचने की बात भी चल रही थी. लेकिन इस  में सफलता नहीं मिल पा रही थी. ऐसा नहीं था कि अगर 10 हजार करोड़ में संपत्ति बिक जाती तो वे आर्थिक संकट से निबट जाते. हां, आर्थिक मुश्किलें कुछ कम जरूर हो जातीं.

जब वे इस में सफल नहीं हुए तो 29 जुलाई, 2019 से देश के एक बड़े बैंक से 1600 करोड़ रुपए का कर्ज लेने की कोशिश कर रहे थे, यहां पर भी बात बनती नजर नहीं आ रही थी, जिस से वे तनाव में आ गए और जिंदगी से हार मान बैठे. 29 जुलाई, 2019 को उन्होंने उफनती नेत्रवती नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली.

बहरहाल, लापता होने के तीसरे दिन यानी 31 जुलाई, 2019 की दोपहर में पुल से करीब एक किमी दूर सिद्धार्थ की लाश बरामद हुई. सिद्धार्थ के बेटों और दोस्तों ने उन के शव की पहचान की. शव मिलने के बाद मंगलुरु के सरकारी हौपिस्टल में उस का पोस्टमार्टम कराया गया.

पोस्टमार्टम के बाद शव को उन के बेटों को सौंप दिया गया. उन का अंतिम संस्कार सीसीडी कंपनी के परिसर में किया गया. सिद्धार्थ के इस आत्मघाती फैसले से उद्योग जगत में शोक की लहर दौड़ गई थी, आखिरकार इस असामयिक मौत के लिए जिम्मेदारी कौन है? यह सवाल मुंह बाए खड़ा है.

सौजन्य: मनोहर कहानियां

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सम्मान : भाग 2

संस्था के अध्यक्ष ने तमाम साहित्यिक संस्थाओं को जीभर कर कोसा. सब को उन्होंने फर्जी, झूठा और ठग करार दिया. भारत सरकार, राज्य सरकार और तमाम बड़े संगठनों को कोसा जिन्होंने उन की संस्था को आर्थिक सहायता देना मंजूर नहीं किया था. उन के आमंत्रण पर जो लोग नहीं आए थे और सहायता देने में असमर्थता जाहिर की थी, उन्हें भी मंच से आड़ेहाथों लिया. तमाम वरिष्ठ, गरिष्ठ और कनिष्ठ लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों को भरभर कर कोसा. क्योंकि मंच संचालक उर्फ संस्था अध्यक्ष स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय लेखक कह चुके थे और उन की रचनाओं को सभी बड़ीछोटी पत्रिकाएं अस्वीकृत कर चुकी थीं. उन्होंने उन सब को साहित्यविरोधी, राष्ट्रविरोधी कहा.

हम सभी दर्शक दीर्घा में बैठे जब तालियां बजाने में सुस्ती दिखाते तो वे जोर से कहते, ‘‘जोरदार तालियां होनी चाहिए?’’ फिर भी करतल ध्वनि उन के हिसाब से नहीं बजती तो वे कह उठते, ‘भारत माता की’  सब को ‘जय’ कहना ही पड़ता.

अंत में उन्होंने लेखकों की निरंतर बढ़ती जनसंख्या पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि वे सौ सम्मान और बढ़ाएंगे जो हिंदी व इंग्लिश के लेखकों, देश के तमाम प्रधानमंत्रियों के नाम पर दिए जाएंगे. हां, बढ़ती महंगाई के कारण उन्होंने प्रविष्टि शुल्क बढ़ाने पर जोर दिया और इसे संस्था की मजबूरी बताया. उन्होंने लेखकों से सहयोग शुल्क, चंदा, आर्थिक सहयोग भेजते रहने की अपील की ताकि पुरस्कार पाने के इच्छुक (लालची) लेखकों की यह संस्था अनवरत चलती रहे.

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उन्होंने पूरी बेशर्मी के साथ यह भी कहा कि पुरस्कार पाने के लिए संस्था पर दबाव न डालें. हम निष्पक्ष हो कर श्रेष्ठता के आधार पर चयन करते हैं. आर्थिक सहयोग दे कर अपनी उदारता दिखाएं.

मैं बैठा सोच रहा था कि पैसा कमाने की कला हो, तो लोग साहित्यकारों की जेब से भी पैसा निकाल कर कमा लेते हैं. सम्मान की भूख ने कितनी सारी दुकानें खुलवा दीं. दुकानदारों को तो शर्म आने से रही. हम लेखक हो कर इतने बेशर्म कैसे हो सकते हैं? अंत में उन्होंने यही कहा कि पढ़ने वालों की कमी है. यह चिंता का विषय है. कुछ सरकार को कोसते रहे. कुछ सिनेमा और टीवी को दोष देते रहे. इस तरह प्रत्येक मुख्य अतिथि कम से कम 45 मिनट बोलता रहा और दर्शक दीर्घा में बैठे लेखक ताली बजाबजा कर थक चुके थे, जिन में एक मैं भी था.

अब शहर के व शहर के बाहर के एकदो लेखकों, जोकि नए थे और जिन की पुस्तक का प्रकाशन इसी संस्था ने किया था, की पुस्तकों के विमोचन का कार्य आरंभ हुआ. 2 नवोदित लेखिकाएं मंच पर आईं. उन की पुस्तकों के विमोचन के साथ संस्था के सभी सदस्य फोटो खिंचवाते रहे काफी देर तक. फिर संस्था के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव, उपसचिव, कोषाध्यक्ष और संस्था के अन्य लोगों ने अपने विचार रखे या कहें कि हम पर थोपे. वे बोलते रहे. हम सब सुनते रहे. वे जानते थे कि हम कहीं नहीं जाएंगे क्योंकि हम सब सम्मान लेने के लिए बैठे थे.

अब हम लेखकों को संबोधित करते हुए कहा गया कि यदि आप सम्मान लेते हुए अपना फोटो चाहें तो कोषाध्यक्ष जोकि मंच पर एक कोने में बैठे हैं प्रति फोटो उन के पास सौ रुपए जमा कर दें. फोटो आप के पते पर भेज दी जाएगी.

समय अधिक होने के कारण मुख्य अतिथि एकएक कर के बहाना बना कर निकलने लगे थे. और फिर हम सब के नाम पुकारे जाने लगे. एक लेखक सम्मानित होने के लिए मंच पर पहुंच नहीं पाता कि दूसरे का नाम ले लिया जाता. लग रहा था कि संस्था ने जितने समय के लिए स्कूल का सभागृह किराए पर लिया था, वह पूर्ण होने वाला था या हो चुका था. एक वयोवृद्ध लेखक को यह कह कर रोक लिया गया था कि आप सम्मान करने में सहयोग करें, फिर आप का सम्मान भी होगा.

करीब 15 मिनट में ही दर्शक दीर्घा में बैठे 50 लेखकों का सम्मान निबटा दिया गया. शौल, फूलमाला स्मृतिचिह्न हाथ में थमा दिया गया और दूसरे हाथ में प्रमाणपत्र दे कर तीव्र गति से कैमरामैन फोटो खींचता व इतने में दूसरेतीसरे लेखक मंच पर खड़े हो कर अपनी प्रतीक्षा करते. फिर हम सब को बैठने को कहा गया…भागने के लिए जगह नहीं थी वरना तो कब का निकल कर भाग चुके होते.

हमें बधाई देते हुए आगे भी सहयोग बनाए रखने की अपील की गई. इस के बाद वयोवृद्ध लेखक का सम्मान किया गया. कार्यक्रम तेजी से समाप्त हो गया. बैनर, पोस्टर, कुरसियां तेजी से उठाई जाने लगीं.

मैं अंत में बाहर निकला. मुझे संस्था अध्यक्ष और सचिव की बातें सुनाई दीं. उन्हें मैं दिखाई नहीं दिया.

‘‘कितना बचा? आपस में बांटने पर सब को कितना मिलेगा.’’

‘‘2-2 हजार रुपए सब के हिस्से आएंगे. 20 हजार रुपए बचे हैं. आज रात को जबरदस्त पार्टी होगी. है न बढि़या धंधा. नाम का नाम, पैसे के पैसे. उस पर साहित्यिक संस्था चलाने से शहर के बड़ेबड़े लोगों से परिचय. उन में अपनी धाक.’’

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‘‘यार, अगली बार सम्मानित करने वालों से रजिस्ट्रेशन शुल्क ज्यादा लो.’’

‘‘जैसेजैसे सम्मान के इच्छुक बढ़ेंगे, राशि भी बढ़ा देंगे.’’

‘‘लेखक लोग देंगे बड़ी राशि? इतने में ही तो बहस करते हैं वे.’’

‘‘लेखकों की कोई कमी थोड़े ही है. ढेर मिलते हैं. सम्मान किसे नहीं चाहिए होता है?’’

‘‘और जिन्हें मंच पर बोलने का शौक है वे भी दान, चंदा देते हैं. अपने दुश्मनों के विरुद्ध बोलते हैं. अपने व्यवसाय, व्यक्तित्व का बढ़चढ़ कर ब्योरा देते हैं. उन्हें ऐसा मंच कहां मिलेगा?’’

मैं इतना ही सुन पाया. थकाहारा होटल पहुंचा. वहां से स्टेशन पहुंचा. ट्रेन में धक्के खाते घर पहुंचा. घर में, दोस्तों में, सम्मान मिलने पर तारीफ हुई. मुझे समझ नहीं आया कि मेरा सम्मान हुआ था या अपमान.

सम्मान की भूख से कलम चलाने वालों के सम्मान के नाम पर कितने सारे लोग अपनी साहित्यिक दुकानें चला रहे हैं. जहां भूख होती है वहां ढाबे अपनेआप खुल जाते हैं. सेवा की आड़ ले कर व्यापार किया जा सकता है. जब तक हम जैसे सम्मान के भूखे लेखक जिंदा हैं, व्यापारियों की साहित्य सेवा की दुकानें चलती रहेंगी. अच्छा होगा कि लेखक, खासकर नए लिखने वाले, सम्मान लेने, सम्मानपत्रों की संख्या बढ़ाने के बजाय अपने लेखन पर ध्यान दें ताकि सच्चा लेखन हो सके.

अपने अपमान के और लोगों के साहित्यिक ढाबे चलाने के जिम्मेदार हम खुद हैं. आनेजाने का खर्चा, लौज में रुकने का खर्चा, भोजन, प्रविष्टि शुल्क मिला कर 5 हजार रुपए खर्च हो गए और हाथ आया एक व्यापारी द्वारा दिया हुआ सम्मानपत्र, वह भी हमारे ही पैसों से. कई दिन मन खराब रहा और बहुत विचार के बाद मैं ने अपनी आत्मग्लानि दूर करने के लिए सम्मानपत्र उठा कर पास की नदी में फेंक दिया.

अब जब भी ऐसे लुभावने सम्मान के पत्र, एसएमएस, फोन आते हैं तो गालियां देने को मन करता है. जी तो करता है कि सामने मिल जाएं तो कूट दूं सालों को. लेकिन मैं चुप रह कर आए पत्रों को तुरंत फाड़ कर फेंकता हूं. इस के बाद भी कोई मुझे जानवर समझ कर, कसाई बन कर पकड़ लेता है तो फिर मैं आवाज बदल कर कहता हूं कि जिन को आप पूछ रहे हैं, पिछले हफ्ते ही मर चुके हैं वे. उस तरफ से बिना शोक व्यक्त किए कहा जाता है कि आप चाहें तो अपने पिता की स्मृति में सम्मान दे सकते हैं. आप स्वयं सम्मान चाहें तो भी हम दे सकते हैं. ऐसे में मैं गुस्से से मोबाइल पटक देता हूं जोर से.

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जगमग दीप जले : भाग 2

ज्योंज्यों दीवाली निकट आती जा रही थी, अंजलि का हृदय अब की बार बाहरी चमकदमक देख कर भी न जाने क्यों खुश नहीं हो रहा था. यद्यपि घर के लोगों ने उस का दीवाली पर भरपूर स्वागत किया था, पर जब भी कोई उस से पूछता कि विवेक क्यों नहीं आया तो उस का मन बु झ जाता. उस ने  झूठ बोल कर कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण वे नहीं आ पाएंगे, सब को आश्वस्त तो कर दिया पर उस के चेहरे की उदासी से सभी ने स्पष्ट भांप लिया था कि वह कुछ छिपा रही है, दोनों में कुछ अनबन है.

उसे स्वयं ही अपने ऊपर लज्जा आती. उसे लगता कि अब उस घर में उसे पहले वाली खुशी कभी नहीं मिल पाएगी. इसलिए कि यह घर उस के लिए पराया सा है. बाहरी जगमगाहट उस के लिए निरर्थक है.

बहुत प्रयत्न कर के वह अपनी आंतरिक वेदना को छिपाती रहती और हर प्रकार से खुश दिखने का प्रयत्न करती. दीवाली के निकट आने के साथ ही घर की रौनक बढ़ती जा रही थी. रात को कारों की पंक्तियां उस के पापा के घर के बाहर उन की शान का बखान करती दिखाई देतीं. वह भागभाग कर मेहमानों की अगवानी करती. उसे देखते ही लोग उस की खाली बगल में विवेक को ढूंढ़ते और सब की जिह्वा पर वही प्रश्न तैर जाता कि ‘विवेक कहां है?’ उस का अंतर्मन रो उठता. ऊपर से वह कितनी ही खुश दिखाई देने का प्रयत्न करती पर उसे लगता उस के दिल का एक कोना टूट कर कहीं अलग छिटक गया है विवेक के पास ही.

फिर आ पहुंची दीवाली की रात, चारों ओर धूमधड़ाका होता रहा, आतिशबाजी व पटाखे छूटते रहे. उस की मां ने उसे कीमती साड़ी उपहार में दी. पर उसे पहनने को उस का मन नहीं हुआ. अनमने मन से पहन कर जब वह शीशे के सम्मुख खड़ी हुई तो उसे लगा उस ने स्वयं विवेक का अपमान किया है. विवेक से विवाह कर के उस की पत्नी बनने के बाद मातापिता के पैसे पर उस का कोई अधिकार नहीं रह जाता है. विवेक से रूठ कर इस घर में आने का उसे कोई हक नहीं था.

रहीसही कसर भी तब पूरी हो गई जब उस साड़ी में देख कर शराब व जुए के नशे में  झूमते हुए विक्रांत ने उस पर कटाक्ष किया, ‘‘वह डाक्टर तो सारी उम्र भी ऐसी साड़ी कभी नहीं पहना पाएगा तुम्हें, अंजू. यह तो तुम्हारी मम्मी की ही मेहरबानी दिखाईर् देती है.’’

अंजलि अपमान से तड़प उठी थी. उस ने कमरे में जा कर साड़ी को उतार दिया और अपनी लाई हुई साड़ी पहन कर पलंग पर लेट कर सिसकने लगी. उस समय लोग जुए में व्यस्त थे. शराब के नशे में  झूम रहे थे. उसे पूछने वाला था ही कौन? न जाने कब उस की आंख लग गई. स्वप्न में भी वह विवेक के आगे रोती रही. उस से क्षमायाचना करती रही.

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करीब 3 बजे पूरी कोठी में भागदौड़ और हंगामा सुन कर उस की आंखें खुलीं. सब लोग इधरउधर भाग रहे थे. पकड़ो… पकड़ो…चोर सब माल ले कर भाग रहे हैं.’’ ऊपर की खिड़कियों के सभी शीशे तोड़ कर तिजोरी व गोदरेज की अलमारियों में से सारी रकम, गहने व कीमती वस्त्र ले कर चोर न जाने कहां भाग गए थे. लगता था चोरों के किसी बड़े गिरोह ने पहले से ही योजना बना रखी थी. नीचे हौल में जुआ चलता रहा और ऊपर चोर बेफिक्री से अपना काम करते रहे. माल का कहीं पता न चला तो अंजलि के पापा को भारी सदमा पहुंचा. उन्हें हार्टअटैक हो गया और उसी समय अस्पताल पहुंचाया गया.

इमरजैंसी में विवेक की ड्यूटी थी. उस ने अथक परिश्रम कर के रात भर जाग कर अपने ससुर के प्राणों की रक्षा की. अंजलि भी रातभर वहीं रही. विवेक अपने कार्य में व्यस्त था और अंजलि मन ही मन उस के कदमों पर  झुकती जा रही थी. दोनों ही कुछ भी बोल नहीं पाए.

एकांत पा कर अंजलि ने विवेक से कहा, ‘‘तुम ने पापा की जिंदगी तो बचा ली, लेकिन उन की आयु भर की कमाई चली गई. दिनेश भैया की अभी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है. उसे अभी कहीं सर्विस में जाने से पहले तीन साल का खर्च चाहिए. कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह, तुम भी अब इतना सम झने लगी हो? अरे, चिंता क्यों करती हो. अभी तो तुम्हारे पापा की मेहनत की बहुत सी कमाई बैंक में होगी, उस से तुम्हारे भैया की पढ़ाई मजे से हो जाएगी और तुम्हारा मनचाहा खर्च भी चल जाएगा.’’ विवेक ने व्यंग्य किया.

अंजलि ने आंखों में आंसू भर कर कहा, ‘‘यह समय ऐसी बातें करने का नहीं है. सच तो यह है कि पापा ने कभी बचाने की सोची ही नहीं. जो कमाया वह सब फूंक दिया या उस का कुछ खरीद लिया. घर भरा हुआ था आभूषणों व कीमती वस्त्रों से. अब कुछ भी नहीं रहा.’’

‘‘तभी तो मैं तुम से कहता रहा हूं कि जितना कमाओ उस में से बचाओ भी. पैर इतने पसारो जितनी चादर हो.’’

‘‘तुम वास्तव में ठीक कहते थे. इंसान थोड़ा कमा कर भी उस में से यदि थोड़ाथोड़ा बचाए तो बहुत हो जाता है. दूसरी ओर अंधाधुंध कमा कर अंधाधुंध खर्च करने से तो कुछ भी हाथ में नहीं रहता.’’

‘‘अब तुम सम झदार हो गई हो, अंजलि. तुम्हें एक बात और सम झा दूं, मु झे अंधाधुंध कमाई में भी विश्वास नहीं है, क्योंकि अनुचित तरीके से कमाए गए पैसे को इंसान उचित तरीके से संभाल नहीं पाता. उसे चोर या डाकू ही ले जाते हैं.’’ विजयभरी मुसकान से विवेक अंजलि को पैसे का महत्त्व बता रहा था.

इतने में अंजलि की मां भी वहीं आ गईं. उन की आंखों की उदासीनता को देख कर विवेक बोला, ‘‘मांजी, आप चिंतित न हों. पापा शीघ्र ही ठीक हो कर काम संभालेंगे. यह तो अच्छा हुआ कि उन्हें उचित समय पर उपचार मिल गया और जान बच गई. यदि मैं भी उस समय शराब में डूबा होता तो अनर्थ हो जाता. दिनेश की पढ़ाई का खर्च जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उठाने को तैयार हूं. आखिर हम बचा कर किस दिन के लिए रख रहे हैं.’’ विवेक ने अंजलि की ओर देख कर कटाक्ष किया.

अंजलि को लगा कि उस का कंजूस पति ही सब से अधिक धनवान है और वह सब से अधिक सुखी है. उसे अपने हाथ में खुशियों के रंगबिरंगे दीए जगमगजगमग करते हुए महसूस हुए. विवेक के कान में जा कर उस ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, विवेक. मु झे जल्दी ही लेने के लिए आ जाना ताकि कोई यह न जान पाए कि मैं तुम से रूठ कर आई थी. बोलो, आओगे न? नाराज तो नहीं हो मुझसे?’’

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विवेक ने शरारतभरी आंखों के साथ कहा, ‘‘अब की बार लेने आ जाऊंगा. पर फिर कभी ऐसी गलती की तो…’’ उस ने गाल पर एक चपत जड़ते हुए आगे कहा, ‘‘तो तुम सोच भी नहीं सकतीं मैं क्या कर जाऊंगा, सम झीं?’’

‘‘नहीं, बाबा, अब ऐसा नहीं होगा. बारबार माफी तो मांग रही हूं.’’ अब अंजलि अनुभव करने लगी थी कि वास्तविक दीवाली तो मनुष्य की आंतरिक खुशी है. दिल में प्यार की रोशनी है तो घर भी रोशन है. बिना प्यार के ऊपरी जगमगाहट व्यर्थ है, दिखावा है.

नमामि गंदे

लेखक: अशोक गौतम

मैं ने उन की फाइल निकालने के सौ सगर्व ले माया के कीटाणुओं से तुरंत छुटकारा पाने के लिए सेनिटाइजर से हाथ धोते उन से पूछा, ‘‘बरखुरदार, तुम ने अपने मोबाइल से वीडियो वगैरह तो नहीं बनाई न?’’ तो वे सहजता से बिना किसी हड़बड़ाहट के दोनों हाथ जोड़ बोले, ‘‘साहब, वीडियो बना कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारनी है क्या? मैं ने भोलाराम की जीवनी पढ़ी है. बेचारे को आज तक पैंशन की दमड़ी नहीं मिली है. और जो चालीस में आप ये बाल देख रहे हो न, ये ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं. दफ्तरदफ्तर में रिश्वत बांट कर ही सफेद हुए हैं. उन के बहकावे में आ सदियों से चली आ रही परंपरा को मैं खत्म करने वालों में से नहीं हूं.’’ यह कह वे सादर बाहर निकले ही थे कि एकाएक वे आ धमके और आते ही मुझ से पूछा, ‘‘यार, यह क्या कर रहे हो?’’

‘‘रिश्वत लेने के बाद हाथ के जर्म्स साफ कर रहा हूं. कहते हैं कि हाथ न धोने से जर्म्स पेट में चले जाते हैं, और फिर पेट से दिमाग में. और जो एक बार ये जर्म्स दिमाग में चले गए तो समझो… सरकार कितना ही डराधमका ले, क्या मजाल जो ये मर जाएं. और…मैं नहीं चाहता कि रिश्वत लेते हुए मैं बीमार हो जाऊं.’’

मैं ने यह कहा तो वे मेरे हाथ से सेनिटाइजर छुड़ाते बोले, ‘‘तू रह जाएगा यहां हाथ साफ करता. चल, जल्दी कर, बहती गंगा में हम भी लगेहाथ हाथ साफ कर लेते हैं.’’

‘‘पर हमारे वैज्ञानिक तो वैज्ञानिक, चारचार पढ़ेलिखे भी सीना ठोंकठोंक कर चेतावनी दे रहे हैं कि गंगा इत्ती मैली है कि वहां नहाने के बाद जो घर में न नहाए, तो भक्त बीमार हो जाए. इतनी चेतावनियों के बाद भी गंगा में हाथ कम से कम मुझ जैसा समझदार तो नहीं धोएगा. और बहती गंगा में तो बिलकुल भी नहीं. मुझे तो ठहरे हुए पानी और इस कुरसी से बेहद लगाव है. यह कुरसी मुझे कितना कुछ देती है. सच कहूं, बहते हुए पानी और बहती जिंदगी से बहुत डर लगता है,’’ मैं ने यह कहा तो उन्होंने अपना सिर धुन लिया. शुक्र है, मेरा नहीं धुना. वरना बड़े लाड़प्यार से संभाल कर सहेजे सिर के चार बाल भी आज उखड़ जाते.

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‘‘पता नहीं यार, तुम कैसे इस पद पर चुन लिए गए हो? कई बार तो तुम्हारी अक्ल देख कर लगता है कि तुम…’’

पर मैं ने आज तक उन की इस बात का बुरा नहीं माना तो नहीं माना. क्योंकि मेरे बारे में जो सच कहता है मैं उसे सहज स्वीकार कर लेता हूं. मैं छल में जीना नहीं चाहता, मेरी सब से बड़ी कमी यही है.

‘‘मैं असली गंगा में हाथ धोने को थोड़े ही कह रहा हूं, मैं तो मुहावरा कह रहा हूं.’’

‘‘मतलब?’’ अब मैं ठहरा सीधासपाट सा आदमी. मेरे लिए सौ का सीधा सा मतलब है पूरे सौ, बस. न एक कम, न एक ज्यादा. मुझे मुहावरेसुहावरे समझ में नहीं आते, तो नहीं आते. असल में मैं जो सीट डील करता हूं वहां मुहावरे न कहने का वक्त होता है न सुनने का.

‘‘मतलब यह कि सरकार ने गंगा की शुद्धि के लिए 20 हजार करोड़ रुपयों का और इंतजाम कर दिया है, मेरे बाप.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो क्या, देखना अब जिन के हाथ साफ हैं वे भी अब गंगा में हाथ धोने को नंगेपांव उतरेंगे.’’

‘‘पर जिन के हाथ साफ हैं उन्हें हाथ धोने की जरूरत ही क्या? और वह भी गंगा में?’’

‘‘सच कहूं यार, यह गंगा है सच्ची की मोक्षदायिनी. सभी का कल्याण करती है, मरने से पहले भी और मरने के बाद भी…’’ उन्होंने यह कहा तो पहले तो मैं ने सोचा कि वे कहीं जेल से बाहर तो नहीं आ गए. अखबार में तो मैं ने खबर पढ़ी नहीं. पर जब ध्यान से उन को देखा तो वे अपने औफिस के ही लगे, तो मैं ने पूछा, ‘‘यार, क्या किसी मठ से बाबा का प्रोफैशनल कोर्स कर रहे हो? कहीं रिटायरमैंट के बाद यह धंधा शुरू करने की तो नहीं सोची है?’’

‘‘नहीं यार, इस नौकरी में ही जनता को काफी उल्लू बना लिया. अब तो बस रिटायरमैंट के बाद ही आगा सुधारूंगा. पर, फिलहाल मन बहती गंगा में हाथ धोने को बेचैन है. खैर, नहाने तो हमें वहां कौन देगा. वहां तो जिधर देखो, घाटों पर एक से बढ़ कर एक नहाते मिलेंगे, मालपुए खाते मिलेंगे,’’ यह कह वे अपलक गंगा की ओर निहारते रहे.

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ब्रोकली बनाए सेहत और पैसा

ब्रोकली का खाने वाला भाग छोटीछोटी अनेक पुष्प कलिकाओं का गुच्छा होता है जो फूल खिलने से पहले काट लिया जाता है. फूलगोभी में जहां एक पौधे से एक फूल मिलता है, वहीं ब्रोकली के पौधे से एक मुख्य गुच्छा काटने के बाद भी कुछ शाखाएं निकलती?हैं और इन शाखाओं से बाद में ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने या खाने के लिए मिल जाते?हैं. इस का वर्ण हरा होता?है इसलिए इसे हरी गोभी भी कहा जाता है.

उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सर्दियों में इस की खेती सुगमता से की जा सकती है, जबकि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मूकश्मीर में इस के बीज भी बनाए जा सकते हैं.

जलवायु : ब्रोकली की अच्छी क्वालिटी की ज्यादा उपज लेने के लिए ठंडी व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है. अगर दिन अपेक्षाकृत?छोटे हों तो फूल की बढ़वार अधिक होती है.

फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने पर फूल छितरे, पत्तेदार और पीले हो जाते हैं. इस वजह से उपज पर बुरा असर पड़ता?है और उन की पौष्टिकता भी कम हो जाती है.

जमीन : ब्रोकली को विभिन्न प्रकार की जमीनों में उगाया जा सकता है, पर इस की सफल खेती के लिए सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, जिस में सही मात्रा में जैविक पदार्थ हो, अच्छी मानी गई है. हलकी जमीन में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद डाल कर इस की खेती सुगमता से की जा सकती है.

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किस्में: ब्रोकली की 3 प्रकार की किस्में हैं जैसे श्वेत, हरी व बैगनी, लेकिन हरी ब्रोकली की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है.

हरी किस्में : नाइन स्टार, पेरिनियल, इटेलियन ग्रीन स्प्राउटिंग, केलेब्रस, बाथम 29 और ग्रीन हेड खास हैं.

हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र कटराईन, हिमाचल प्रदेश द्वारा ब्रोकली की केटीएस 9 किस्म विकसित की गई है. इस के पौधे मध्यम ऊंचाई के, पत्तियां गहरी हरी, शीर्ष कठोर और छोटे तने वाले होते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने पूसा ब्रोकली 1 किस्म खेती के लिए जारी की है.

नोट : इस किस्म के बीज थोड़ी मात्रा में पूसा संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र, कटराईन, हिमाचल प्रदेश से हासिल किए जा सकते हैं.

संकर किस्में : पाईरेट पेकमे प्रिमिय क्राप, क्लीपर, क्रुसेर, स्टिक व ग्रीन सर्फ खास हैं.

उगाने का उचित समय : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में ब्रोकली उगाने का सही समय ठंड का मौसम होता है. इस के बीज के अंकुरण व पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 20-25 डिगरी सैल्सियस तापमान होना चाहिए.

इस की नर्सरी तैयार करने का सही समय अक्तूबर माह का दूसरा पखवाड़ा होता है, जबकि पर्वतीय इलाकों में कम ऊंचाई वाले इलाकों में सितंबरअक्तूबर, मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में अगस्तसितंबर और ज्याद ऊंचाई

वाले इलाकों में मार्चअप्रैल में नर्सरी तैयार की जाती है.

बीज दर : फूलगोभी की तरह ब्रोकली के बीज भी बहुत छोटे होते हैं. एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पौध तैयार करने के लिए तकरीबन 375-400 ग्राम बीज पर्याप्त होते हैं.

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पौध तैयार करना : बंदगोभी की तरह ब्रोकली की पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है और बाद में रोपाई की जाती है. कम संख्या में पौधे उगाने के लिए 3 फुट लंबी और 1 फुट चौड़ी जमीन की सतह से 1.5 सैंटीमीटर ऊंची क्यारी में बीज की बोआई की जाती?है. क्यारी को अच्छी तरह तैयार कर के और उस में गोबर की सड़ी खाद मिला कर बीजों को पंक्तियों में 4-5 सैंटीमीटर की दूरी पर तकरीबन 2.5 सैंटीमीटर की गहराई पर बो देते हैं.

बीज बोने के बाद क्यारी को घासफूस की पतली परत से ढक देते हैं और समयसमय पर सिंचाई करते रहते हैं. जैसे ही बीज अंकुरित होने लगें, ऊपर से घासफूस हटा दी जाती है.

नर्सरी में पौधों को कीटों से बचाने के लिए नीम का काढ़ा या गोमूत्र का छिड़काव करें. नर्सरी में जब पौध 4 हफ्ते के हो जाएं, तब उन की रोपाई कर दें.

रोपाई : तैयार पौध को खेत में लाइन से लाइन में 15-60 सैंटीमीटर का अंतर रख कर और पौधे से पौधे में 45 सैंटीमीटर के अंतर पर रोपाई कर देते हैं. रोपाई करते समय जमीन में सही नमी होनी चाहिए और रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करनी चाहिए.

खाद और उर्वरक : आखिरी बार रोपाई की तैयारी करते समय प्रति 10 वर्गमीटर क्षेत्रफल में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद, 1 किलोग्राम नीम की खली और

1 किलोग्राम अरंडी की खली. इन सब खादों को अच्छी तरह मिला कर रोपाई से पहले समान मात्रा में बिखेर दें. इस के बाद खुदाई कर के रोपाई कर दें. प्रति हेक्टेयर 50-60 टन गोबर की खाद डालनी चाहिए. उर्वरकों का उपयोग मिट्टी की जांच के बाद करना चाहिए. यदि किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो निम्न मात्रा में प्रति हेक्टेयर उर्वरक डालना चाहिए:

नाइट्रोजन : 100-120 किलोग्राम.

फास्फोरस : 45-50 किलोग्राम.

गोबर की खाद और फास्फोरस वाले उर्वरक की मात्रा को खेत की तैयारी से पहले मिट्टी में भलीभांति मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 भागों में बांट कर रोपाई के क्रमश: 25, 45 व 60 दिन बाद डालना चाहिए. नाइट्रोजन की दूसरी मात्रा डालने के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

पौध संरक्षण उपाय

खरपतवार नियंत्रण : ब्रोकली की जड़ और पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए खेत में उगे खरपतवारों को निकालना बहुत ही जरूरी काम है. ऐसा करने से पौधों का विकास व बढ़ोतरी तेजी से होती है. निराई के बाद पौधों के पास मिट्टी चढ़ाने से पानी देने पर पौधे नहीं गिरते हैं. निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में वायु संचार तेजी से होता है, जिस से जड़ों का विकास अच्छा होता है.

कीट नियंत्रण

तेला : यह कीट हरे रंग का होता है, जो पौधे के कोमल अंगों का रस चूसता?है. इस वजह से पौधे की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर बुरा असर पड़ता?है. इस कीट की रोकथाम के लिए मैलाथियान की 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में?घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

काला विगलन : यह रोग जैंथोमोनास कैंपस्ट्रिस नामक फफूंदी के चलते होता है. पत्तियों के किनारों पर कीटों द्वारा घाव बना दिए जाते हैं. इस वजह से वे मुरझा कर अंगरेजी के ‘वी’ आकार की तरह हो जाते?हैं जो आधार से मध्य शिरा की ओर बढ़ते हैं. बाद में वे काले रंग के हो जाते हैं और अंत में सड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय अपनाने चाहिए:

* बीज बोने से पहले 30 मिनट तक उसे पानी में भिगोना चाहिए. उस के बाद 5 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान वाले गरम पानी में 30 मिनट तक रखना चाहिए और बाद में ‘स्ट्रेप्टोमाइसिन’ की 1 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी के घोल में

30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए, फिर उन्हें छाया में सुखाना चाहिए.

* जब फूलों का बनना शुरू हो जाए, तब ‘स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के?घोल (10 ग्राम प्रति 100 लिटर पानी) का छिड़काव करना चाहिए.

तना विगलन : यह रोग ‘स्केलोरोटिया स्क्लेराटिओरस’ नामक फफूंदी के चलते होता है. रोगी पौधे मटमैले सफेद रंग के हो जाते हैं और अंत में पीले रंग के हो जाते?हैं. तनों पर गहरे भूरे से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बड़े हो कर तने को जमीनी स्तर तक ढक लेते हैं. इस वजह से तना सड़ जाता है. फूल अपनी सघनता छोड़ देते हैं. इस के बाद सफेद विगलन के लक्षण दिखाई देते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय अपनाने चाहिए:

* प्रभावित भागों को अलग कर के उन्हें जला देना चाहिए.

* फूल निर्माण से फूल बनने तक

10-15 दिन के अंतराल पर ‘कार्बंडाजिम’ (0.03 फीसदी) और मैंकोजेब (0.25 फीसदी) के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

डाउनी मिल्ड्यू : यह रोग ‘परनोस्पोरा एरोसिटिका’ नामक फफूंदी के कारण होता है. इस रोग के कारण तने पर गहरे भूरे रंग के दबे हुए चकत्ते बन जाते हैं, जिस में बाद में मृदु रोमिल की बढ़वार हो जाती है. पत्तियों की निचली सतह पर बैगनी भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. इस रोग के कारण फूलों को अधिक नुकसान होता है और बुरा असर पड़ता है.

इस रोग पर नियंत्रण पाने के लिए निम्न उपचार करना चाहिए:

* बीजों को बोने से पहले गरम पानी से उपचारित करना चाहिए.

* फिर बीजों को 0.3 फीसदी थायरम से उपचारित करना चाहिए.

* प्रभावित फूलों को निकाल दें और 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड का छिड़काव करना चाहिए.

* फसल पर 10-15 दिन के अंतराल पर 0.2 फीसदी मैंकोजेब के घोल का छिड़काव करना चाहिए. पहला छिड़काव रोग का प्रकोप होते ही करें.

* खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें.

* सही फसल चक्र अपनाएं.

सिंचाई : मिट्टी, मौसम और पौधों की बढ़वार को ध्यान में रख कर फसल को 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए ताकि अच्छी उपज मिल सके.

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फसल की कटाई

ब्रोकली की समय पर कटाई करें. कटाई तब करें, जब फसल में हरे रंग की कलियों का मुख्य गुच्छा बन कर तैयार हो जाए.

आमतौर पर रोपने के 65-70 दिन बाद शीर्ष तैयार हो जाते?हैं तो इस को तेज चाकू या दरांती से कटाई कर लें.

ध्यान रखें कि कटाई के साथ गुच्छा खूब गुंथा हुआ हो और उस में कोई कली खिलने न पाए.

ब्रोकली की यदि तैयार होने के बाद देर से कटाई की जाएगी तो वह ढीली हो कर बिखर जाएगी और उस की कली खिल कर पीला रंग दिखाने लगेगी. ऐसी अवस्था में कटाई किए गए गुच्छे बाजार में बहुत कम कीमत पर बिकते?हैं. मुख्य गुच्छा काटने के बाद ब्रोकली के छोटे गुच्छे बेचने के लिए सही होंगे.

उपज

ब्रोकली की उपज कई बातों पर निर्भर करती?है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म और फसल

की देखभाल प्रमुख है. ब्रोकली की अच्छी खेती से प्रति हेक्टेयर 12-15 टन तक उपज मिल जाती है.

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