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लालबत्ती वाली गाड़ी

शर्माजी अपनी लालबत्ती लगी गाड़ी का इस्तेमाल दुनियाभर में रोब जमाने के लिए करते. लेकिन जब सरकारी हंटर ने उन से यह सुविधा छीनी तो लालबत्ती के मारे बेचारे ऐंबुलैंस की शरण में जा पहुंचे. क्यों? अरे भई, लालबत्ती का बुखार जो ठहरा.

‘‘शर्माजी, जब से आप की गाड़ी से लालबत्ती हटा दी गई है, आप तो नजरें ही नहीं मिलाते, शर्म से पानीपानी क्यों हुए जा रहे हैं?’’ मेरे इस प्रश्न पर वे बोले, ‘‘सक्सेनाजी, आप को क्या पता लालबत्ती वाली गाड़ी के जलवे. लालबत्ती वाली गाड़ी स्टेटस सिंबल होती है. यह स्टेटस को अपग्रेड ही नहीं करती बल्कि गाड़ी रखने वाले के कौन्फिडैंस को भी बढ़ाती है. नगरपालिका के स्कूल से वर्षों पहले 5वीं फेल हुए चेहरे का विश्वास भी इन गाडि़यों से उतरने के बाद बढ़ा हुआ नजर आता है. श्याम रंग भी श्वेत प्रतीत होता है. उन में शर्म भाव नहीं रहता, बल्कि विश्वास भाव की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है. स्टेटस हो या न हो, स्टैंडर्ड में तो चारचांद लगा ही देती है लालबत्ती वाली गाड़ी.

बिना स्टेटस वाले लोगों के लिए तो सोने के पत्रक (वरक, आवरण) का काम करती है लालबत्ती वाली गाड़ी. कभी भी, कहीं भी और किसी भी सड़क की रैडलाइट जंप कर सकती है लालबत्ती वाली गाड़ी, उस का चालान नहीं होता. लालबत्ती वाली गाडि़यों को दिल्ली के इंडिया गेट तक पर दूर से ही देख कर ट्रैफिक पुलिस वाले अन्य वाहनों को रोक कर राजपथ पर पहले गुजरने देते हैं और सलाम अलग से ठोकते हैं. जिस के पास लालबत्ती वाली गाड़ी नहीं होती उस के पास कितना भी बैंक बैलेंस, कई लक्जरी गाडि़यां क्यों न हों, सब बेकार. अब तो आप समझ ही गए होंगे कि आम से खास बनने के लिए कितनी जरूरी होती है लालबत्ती वाली गाड़ी.’’

मैं ने फिर से निसंकोच हो कर उन से कहा, ‘‘जनाब, आप तो जानते ही हैं कि अपने देश में कितने लोग ऐसे हैं जो अधिकृत न होने के बावजूद अपनी गाडि़यों पर लालबत्ती लगा लेते हैं. ऐसे में जो मुहिम चलाई जा रही है उस के तहत जज, सैक्रेटरी, होम सैक्रेटरी, विधायक, मेयर और सुपरिंटैंडैंट का ट्रैफिक पुलिस ने पिछले दिनों अवैध लालबत्ती के इस्तेमाल पर किसी को नहीं बख्शा. इस संबंध में देशभर में एक जागरूकता अभियान भी चलाया गया कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, पूर्व राष्ट्रपति, लोकसभा के अध्यक्ष, प्रधान न्यायाधीश और संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों व राज्यों के उन के समकक्षों के लिए ही लालबत्ती वाली गाड़ी की व्यवस्था की गई है. इसे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों तक सीमित किया गया है मगर आप तो फिर भी नहीं माने, अब आ गए लपेटे में और हट गई आप की गाड़ी की लालबत्ती तो इस में शर्म की क्या बात है?’’

वे बोले, ‘‘देखिए, आप को पता है न कि अध्यक्ष तो मैं भी हूं. यह बात अलग है कि मैं लोकसभा अध्यक्ष नहीं हूं मगर लोक सोसायटी की प्रबंध समिति का अध्यक्ष तो हूं ही न? लोकसभा में भी सभाएं होती हैं और हमारी सोसायटी में भी रैजिडैंट वैलफेयर को ले कर सभाएं होती हैं. जनता का ध्यान उधर भी रखा जाता है और इधर भी. उधर नेता रखते हैं, इधर प्रबंध समिति के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष. तो फिर मुझे भी अपनी गाड़ी पर लालबत्ती लगाने का हक तो मिलना ही चाहिए न?’’

मैं ने कहा, ‘‘शर्माजी, देशभर में लालबत्ती वाली गाडि़यों के अंधाधुंध दुरुपयोग पर चिंता जताई जा रही है, चैकिंग की जा रही है, उन्हें हटाया जा रहा है. ऐसे में यदि आप को लालबत्ती वाली गाड़ी से इतना ही प्रेम हो गया है कि इस के वियोग में आप के आंसू थम ही नहीं रहे तो अपनी रैजिडैंट वैलफेयर सोसायटी की प्रबंध समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दीजिए और किसी पांचसितारा अस्पताल की ऐंबुलैंस के ड्राइवर बन जाइए. जब आप की लालबत्ती वाली गाड़ी यानी ऐंबुलैंस सड़कों पर से गुजरेगी तो फिर आप को लोग सजगता के साथ पहले गुजरने का स्थान दे देंगे. यहां पर आप को किऊंकिऊं की आवाज वाले सायरन बजाने की छूट भी मिलेगी. परिणामस्वरूप, आप को सड़कों पर सायरन बजाने के लाभों के बारे में अतिरिक्त ज्ञान हो जाएगा, जो हो सकता है लालबत्ती वाली निजी गाड़ी के लाल बल्ब से ज्यादा हो.

‘‘आप तो समाजसेवी हैं, अपनी सोसायटी में भी समाजसेवा करते हैं और वहां पर भी करते रहेंगे. इसलिए आप को बिलकुल भी फर्क नहीं पड़ना चाहिए. हां, यह जरूर है कि वहां पर सभाएं जरूर नहीं हुआ करेंगी. लेकिन सुना है कि पांचसितारा अस्पतालों के ड्राइवरों को अस्पताल की प्रबंध समिति की तरफ से बेहतर ड्रैस और कैंटीन में खाना मुफ्त में मिलता है. ड्राइवरों को रोगी के तीमारदार की तरफ से कभीकभी टिप भी मिल जाती है.

‘‘ऐंबुलैंस में रखे हुए औक्सीजन के सिलैंडर आप के भी काम आ सकते हैं. अस्पताल के स्टोरकीपर से यदि सैटिंग हो जाए तो इन्हें बाजार में बेच कर मुनाफा कमा सकते हैं. कुल मिला कर, लाभ ही लाभ है, सोसायटी की प्रबंध समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर किसी भी लालबत्ती वाली सायरनयुक्त एंबुलैंस का ड्राइवर बनने में.’’

शर्माजी बोले, ‘‘सक्सेनाजी, आप तो कमाल की सोच रखते हैं. पहले क्यों नहीं बताया. मैं तो खामखां परेशान हो रहा था अपनी निजी गाड़ी की लालबत्ती हटाए जाने पर. आज ही रैजिडैंट वैलफेयर सोसायटी की प्रबंध समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर किसी अस्पताल में ऐंबुलैंस का ड्राइवर बनने का जुगाड़ लगाता हूं ताकि मेरा लालबत्ती वाली गाड़ी का सामाजिक रुतबा फिर से मुझे वापस मिल सके.’’

शर्माजी की बात सुन कर मुझे समझ आ गया कि आजकल रोब जमाने के लिए प्रतिष्ठित पद नहीं बल्कि लालबत्ती वाली गाड़ी जरूर होनी चाहिए क्योंकि इस देश के अधिकांश लोग स्टेटस और स्टैंडर्ड के फर्क को जानते ही नहीं, और न ही जालसाजी के कामों से बाज आना चाहते हैं.

हवा का झोंका: भाग-5

घर वालों को नन्ही सी नूरी की भी चिंता नहीं. जी में आया भैया के सामने जा कर तन कर खड़ी हो जाऊं और चिल्लाचिल्ला कर कहूं कि वे सचाई को स्वीकार करना सीखें. पल्लवी की नादानी का परिणाम 2 परिवारों की दुश्मनी में न बदलने दें. परंतु हिम्मत नहीं हो पाई. कल क्या उन्होंने कुछ कम सुनाया था. कह कर अपनी ही बेइज्जती करानी पड़ती.

भैया सब को समझाते रहे कि कल कचहरी में जज के सामने तरुण व उस के मांबाप के खिलाफ क्याक्या कहना है? कौन से आरोप लगाने हैं? कितने सुबूत प्रस्तुत करने हैं?

मां और पिताजी भैया की बातों को देर तक रटते रहे ताकि सबकुछ ठीकठाक याद हो जाए और कचहरी में उन का पलड़ा हलका न पड़े.

लेकिन मैं हतप्रभ थी. तरुण के विरुद्ध अनर्गल विषवमन किस प्रकार से कर पाऊंगी? उस सीधे, सच्चे, निर्दोष इंसान पर मिथ्या दोषारोपण कैसे कर पाऊंगी? उस की आत्मीयता, स्नेह का क्या यही बदला रह गया है मेरे पास? मैं कशमकश के भारी दौर से गुजर रही थी.

अदालत जाते वक्त भी मैं तनावग्रस्त थी व अपनेआप पर संयम रखने का पूरा प्रयास कर रही थी. यह वक्त मेरी अग्निपरीक्षा जैसा था. फिर लोगों की भारी भीड़ के बीच मेरे मांबाप, भैयाभाभी तरुण व उस के मांबाप के ऊपर भांतिभांति के लांछन लगाते रहे.

भैया के वकील ने भी कोई कमी नहीं छोड़ी. जब मेरा नाम ले कर पुकारा गया तो मेरे पैर दोदो मन के हो रहे थे. एक कदम बढ़ाना भी भारी लग रहा था.

मैं ने देखा, थोड़ी दूर खड़े भैया मेरी ओर आंखें फाड़े यों घूर रहे थे जैसे कच्चा चबा डालेंगे.

मां, भाभी, पिताजी सभी की निगाहों में एक ही भाव था कि मैं वही बोलूं जो कुछ भैया ने रटवाया है. फालतू का बोल कर उन का मामला न बिगाड़ूं.

वकील फुसफुसाया, ‘‘श्वेताजी, आप अदालत को साफसाफ बतला दीजिए कि आप की बहन को ससुराल में किस प्रकार से मारापीटा जाता था, सतासता कर लड़की पैदा करने की सजा दी जाती थी. लड़का पैदा न हुआ, इस बात पर तानेउलाहने दिए जाते थे.’’

तरुण को फंसाने के लिए वकील ने यह नया मुद्दा ढूंढ़ा था. अच्छेभले इंसान पर इतने अधिक झूठे आरोप, मैं आपा

खो बैठी, ‘‘वकील साहब, आप को गलतफहमी है. तरुण ने कभी बेटाबेटी में भेदभाव नहीं रखा. उस ने कभी पल्लवी को नहीं सताया. वह एक अच्छा इंसान है. उस की जितनी प्रशंसा की जाए, कम रहेगी. पल्लवी अपनी नासमझी से दुर्घटनाग्रस्त हुई थी क्योंकि उसे घर के काम करने की समझ नहीं थी. वह मायके में भी कई बार जली थी. कपड़ों में आग लगाई थी. सीढि़यों पर फिसल कर हाथपैर तोड़े थे. बिजली की इस्तिरी से चिपकी थी…’’

पता नहीं मैं कब तक सचाई बखानती रही, न्यायाधीश के सम्मुख काहे का भय? फैसला तो सचाई के रास्ते पर ही होना है.

जब मेरा मुंह बंद हुआ तो सब हैरानी से घूर रहे थे. जज, वकील, पुलिस वाले, सभी की आंखों में विस्मय उतर आया था. भैया की आंखें क्रोध की अधिकता से लाल हो रही थीं, जैसे घर जाते ही मेरा खून कर देंगे.

मैं कठघरे से निकल कर बाहर की तरफ बढ़ी तो मांपिताजी दोनों मेरे नजदीक आ कर अनापशनाप सुनाने लगे कि मैं ने भावनाओं में बह कर भारी गलती कर डाली है. मुकदमे का रूप ही बिगाड़ डाला है.

भाभी व्यंग्य कसने लगीं, ‘‘देख लिया तुम्हारा भगिनी प्रेम. तुम किसी की सगी नहीं हो. तुम ने हमारे सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया.’’

मुझे किसी की परवा नहीं थी क्योंकि मैं सचाई के रास्ते पर थी.

तभी मुझे अपनी पीठ पर किसी के हाथ के स्पर्श का आभास हुआ. देखा, तरुण था. उस की आंखें कृतज्ञता के आंसुओं से तरबतर थीं. बोला, ‘‘तुम कितनी महान हो, श्वेता, तुम्हारी

प्रशंसा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं.’’

‘‘रहने दो यह चापलूसी,’’ मैं आगे बढ़ने लगी.

तभी तरुण के मातापिता भी आ गए. उन सब की जमानतें स्वीकृत हो चुकी थीं. वे सब मेरी प्रशंसा के पुल बांधने लगे. बारबार कृतज्ञता प्रकट करने लगे.

मैं सोच रही थी, घर पहुंच कर मांपिताजी, भैयाभाभी से अपमानित भी तो होना पड़ेगा. तरुण के दोनों मामाओं ने मुझे अपनी कार में बैठा लिया. घर छोड़ने के लिए साथ आ गए. रास्तेभर दोनों मुझे सच बोलने के लिए शाबाशी देते रहे.

मांपिताजी, भैयाभाभी किराए की टैक्सी ले कर घर आए और बगैर मुझ से कुछ बोले, गुस्से से दनदनाते हुए अपना सामान उठा कर उसी टैक्सी में बैठ कर स्टेशन चले गए.

मैं भी अपना सामान बांधने लगी. मुझे भी छात्रावास में वापस लौटना था. पराए नीड़ में कब तक रह सकती थी?

कुछ वक्त बाद तरुण, उस के मांबाप, महाराजिन अन्य गाड़ी में बैठ कर घर पहुंच गए. उन सब ने मुझे रोकने की बहुत चेष्टा की.

तरुण की मां बोलीं, ‘‘बेटी, तुम ने हमारी इज्जत बचाई है, यह घर अब तुम्हारा ही है, तुम यहीं रहो.’’

‘‘नहीं, मांजी, मैं ने यह घर पाने के लालच में सच नहीं बोला है, बल्कि अपना फर्ज निभाया है.’’

मैं किसी प्रकार नहीं रुकी तो तरुण मुझे कार में बैठा कर स्टेशन छोड़ गया. रास्तेभर मौन रहा, पर तरुण की भावपूर्ण आंखें बहुत कुछ कह रही थीं.

हफ्तेभर के अंदर तरुण के मांबाप कानपुर जा पहुंचे. तरुण की मां आंचल पसार कर बोलीं, ‘‘मैं तरुण के लिए तुम्हारा हाथ मांगने आई हूं. इनकार कर के मेरा मन मत दुखाना.’’

‘‘लड़कियों का विवाह उन के मांबाप तय करते हैं. आप लोगों को वहीं जाना चाहिए था.’’

‘‘हम वहां हो आए हैं, वे लोग

तैयार हैं. बस, तुम्हारी स्वीकृति लेनी रह गई थी.’’

मैं क्या बोलती, मेरा मौन ही मेरी स्वीकृति थी.

शीघ्र ही मेरा व तरुण का विवाह संपन्न कर दिया गया.

विदाई की बेला आने से पूर्व मैं ने सुना, भाभी एक कोने में खड़े भैया से फुसफुसा रही थीं, ‘‘तुम ने बेकार ही उन लोगों पर मुकदमा ठोंका था. बेहतर रहता, हम उन्हें सजा दिलवाने के नाम पर डराधमका कर 2-4 लाख रुपए ऐंठ लेते.’’

‘‘अब पछताने से क्या होता है?’’ भैया ने ठंडी सांस ली, ‘‘सोने की चिडि़या हमारे हाथ से निकल चुकी है. श्वेता हम से अधिक होशियार निकली. सच बोल कर बाजी मार ली.’’

मेरे होंठों पर मुसकराहट फैल गई. भाभीभैया का लालच अभी समाप्त नहीं हो पाया था.

विवाह की प्रथम रात्रि में तरुण ने भारी स्वर में कहा, ‘‘मैं अपराधी हूं, तुम्हारी जगह तुम्हारी बहन को चुन लिया था.’’

‘‘ऐसा मत सोचो,’’ मैं ने लरजता हाथ तरुण के होंठों पर रख दिया, ‘‘पल्लवी तो मात्र हवा का एक झोंका थी. हम दोनों के बीच में आई और अपनी निशानी छोड़ कर सर्र से उड़ गई.’’

मेरी आंखें गीली हो उठीं, पल्लवी अपना सारा सुखवैभव मेरे लिए ही तो छोड़ गई थी.

हवा का झोंका: भाग-4

पल्लवी के रोमरोम में अल्हड़ता व नासमझी विद्यमान थी. उस के रैकेट थामने वाले हाथ गृहस्थी की बागडोर नहीं संभाल पाए. उस की रुचि रसोईघर में बैठ कर व्यंजन बनाने में नहीं बल्कि बनठन कर बाजारों, क्लबों में घूमने व अपने रूप की प्रशंसा सुन कर गर्वित होने में थी.

उसे तरुण से भी लगाव नहीं था. वह तरुण की ओर से लापरवा बनी गृहस्थी को बंधन मान कर कुड़मुड़ाती रहती कि उस की इच्छा तो सफल खिलाड़ी बनने की थी, सेठानी बनने की नहीं. मांबाप ने नाहक ही विवाह के बंधन में बांध दिया.

जब कभी नौकर, नौकरानी छुट्टी कर लेते तो पल्लवी को एक वक्त का भोजन बनाना भी भारी पड़ जाता. सब्जी काटती तो चाकू से उंगलियों में जख्म हो जाते. उबलती सब्जियों के भगौने हाथों से छूट पड़ते. खौलती चाय हाथपैरों पर आ पड़ती. 2 बार उस की लापरवाही से गैस सिलैंडर में आग लगतेलगते बची थी.

पल्लवी की नासमझी के लिए मेरे मांबाप अधिक दोषी थे, जिन्होंने उसे गृहस्थी का काम सिखलाए बगैर उस का विवाह कर डाला था. उस की मौत का कारण उसी की नासमझी से लगी आग थी. पर मेरे मांबाप को यह सब कौन समझा सकता था, जो बदले की भावना से अंधे हुए बैठे थे.

हवालात में बंद तरुण, उस के मांबाप, भोजन बनाने वाली महाराजिन को पुलिस वालों ने कचहरी में जज के सामने पेश किया तो तरुण के ननिहाल वाले बौखला उठे.

तरुण की मां के दोनों भाई ऊंचे पद पर नौकरी करने वाले संपन्न, सम्मानित अफसर थे. बहन को अपराधियों के कठघरे में खड़ी देख कर उन के चेहरों पर कालिमा छा गई थी. दोनों भाई बहनबहनोई की जमानत कराने हेतु हाईकोर्ट के चक्कर लगा रहे थे, पर सफलता कोसों दूर थी.

जनआक्रोश के भय से पुलिस वाले भी उन तीनों को अपराधी सिद्ध करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाए हुए थे. यह देख कर दोनों भाई मेरे मांबाप के सामने गिड़गिड़ा उठे.

‘‘देखिए साहब, आप की बेटी की मौत आप के लिए बहुत बड़ा हादसा है लेकिन हम भी कम दुखी नहीं हैं. होनी को कौन टाल सकता है? यह जानते हुए भी कि पल्लवी की मौत अपनी खुद की गलती से हुई है, आप खामखां हमारे बहनबहनोई को नीचा दिखला रहे हैं.’’

भैया बिगड़ उठे, ‘‘हम कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं. कौन दोषी है, इस का फैसला अदालत ही करेगी.’’

उन दोनों ने मेरे मांबाप, भैयाभाभी को काफी ऊंचनीच समझाई, पर कोई टस से मस नहीं हुआ. सभी को कानून के फैसले की प्रतीक्षा थी परंतु कोई फैसला न हो सका.

कचहरी के शोरगुल, पुलिस वालों, वकीलों की भीड़ से बचने के लिए मैं एक कोने में सिमट कर नूरी को छाती से चिपकाए, उसे संभालने के लिए प्रयासरत थी. अकस्मात किसी ने आ कर कुछ कहा तो मैं चौंक कर आगंतुक की तरफ ताकने लगी.

आगंतुक कुछ दूरी पर पुलिस से घिरे तरुण की ओर इशारा कर के बोला, ‘‘वे साहब आप को बुला रहे हैं.’’

सशंकित मन से मैं तरुण की ओर बढ़ गई. वह आत्मीयताभरी निगाहों से मेरी ओर ताक रहा था. बोला, ‘‘तुम्हें बच्चे खिलाने की आदत नहीं है, इसे घर में नौकर के पास छोड़ आतीं.’’

‘‘इतनी छोटी बच्ची बिना मां के कैसे रह सकती है,’’ मैं जल्दीबाजी में कह गई. फिर अपनी बात पर खुद ही झेंप कर बोली, ‘‘मैं मां तो नहीं बन सकती, पर मौसी बन कर थोड़ी सी ममता तो दे ही सकती हूं.’’

‘‘मौसी भी तो मां होती है. तुम्हें मां बनने से कोई नहीं रोक सकता, श्वेता.’’

तरुण के शब्दों ने मुझे फिर से सिहरा दिया. मुझे लगा तरुण की निगाहें कह रही हैं, तुम अपना अधिकार ले सकती हो, श्वेता.

पुलिस वालों से घिरे तरुण के मांबाप मेरे नजदीक आ कर कहने लगे, ‘‘हम ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया था, बेटी. हमें अपनी गलती की सजा मिल गई.’’

पुलिस वाले अपनी गाड़ी में उन सब को बैठा कर चले गए. उन सब के दयनीय चेहरे देख कर मेरा मन दुख से भर उठा था. मैं देर तक सोचती रह गई.

हम सब घर लौटे तो तरुण के दोनों मामा भी हमारे साथ चले आए. उन दोनों का उद्देश्य मेरे मांबाप, भैयाभाभी को समझाबुझा कर मुकदमा समाप्त कराना था.

देर तक गरमागरमी होती रही. पिताजी, भैया मुकदमा वापस लेने को तैयार नहीं हो पाए तो वे दोनों तैश में भर कर देख लेने की धमकी देने लगे.

तरुण के बड़े मामा रविमोहन आस्तीनें चढ़ा कर गरजने लगे, ‘‘तुम लोग अंधे कानून पर घमंड किए बैठे हो पर सारा कानून तुम्हारे ही पक्ष में नहीं बोलेगा. थोड़ाबहुत हम भी कानून जानते हैं. हमारे वकील तुम से अधिक जानदार हैं. हम तुम्हें उलटा फंसाएंगे, सुबूत मौजूद हैं. तुम ने अपनी नाबालिग बेटी बालिग बतला कर मेरे भांजे के गले से मढ़ दी थी. उस अपराध में तुम सब जेल की हवा खाओगे…’’

‘‘कौन कहता है मेरी बेटी नाबालिग थी.’’

‘‘यह सुबूत देखो,’’ रविमोहन ने, पल्लवी की कालेज की पढ़ाई के प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां सब के सम्मुख पटक दीं.

हम सब भौचक्के से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. पिताजी को पछतावा हुआ, नाहक ही उन्हें पल्लवी की आयु स्कूल में दाखिले के वक्त डेढ़ वर्ष कम लिखवाई थी. पर यह तो खानदान का रिवाज ठहरा, पिताजी के पिताजी ने भी उन के साथ यही किया था. पिताजी तो अपने पिता के पदचिह्नों पर ही चल रहे थे.

तरुण के दोनों मामा सब की ओर व्यंग्य से घूरते हुए विजयी मुद्रा में अकड़ते हुए चले गए. भैया की हालत हारे हुए जुआरी की भांति हो गई.

पिताजी खिसिया कर कह उठे, ‘‘कालेज के प्रमाणपत्रों से क्या होता है? सुबूत के तौर पर मेरे पास पल्लवी की जन्मपत्री मौजूद है.’’

‘‘अदालत में जन्मपत्रियां नहीं, जन्म के प्रमाणपत्र चलते हैं,’’ भैया ने बात काट दी, ‘‘पर अब वर्षों बाद प्रमाणपत्र भी नहीं बन पाएगा, वे भी लिखित सुबूत मांगेंगे.’’

‘‘तब क्या मेरी बेटी के हत्यारों को कुछ नहीं हो पाएगा?’’ मां ने निराशाभरी सांस ली.

‘‘होगा क्यों नहीं, मैं किसलिए हूं?’’ भैया ने ताव में भर कर सीना ठोंका, ‘‘अगर वे अदालत से छूट भी गए, तो मैं इस घर में आग लगवा दूंगा. आजकल किसी ट्रक वाले को 15-20 हजार रुपए दे कर ऐक्सिडैंट करा देना मामूली बात है.’’

मैं भय से कांप उठी. आंखों के सामने तरुण का पिचका हुआ स्कूटर, लहू से लथपथ बेजान जिस्म साकार हो उठा.

लगा, बदले की भावनाएं दोनों परिवारों का सत्यानाश कर डालेंगी. भैया तरुण की जान के दुश्मन बनेंगे और तरुण के मामा भैया की जान के. इस पारिवारिक दुश्मनी का अंत न मालूम कहां, कब व कैसे होगा.

आगे पढ़ें- घर वालों को नन्ही सी नूरी की भी चिंता नहीं. जी में आया…

हवा का झोंका: भाग-2

‘‘अत्याचार? कैसा अत्याचार? ऐसा तो कुछ भी नहीं लिखा? वह यहां हर तरह से खुश थी, सभी प्रकार के ऐशोआराम व वैभव उपलब्ध थे उसे. फिर तरुण तो उसे हथेली पर रखता था. अत्याचार कौन करता?’’

मेरी बात बीच में ही काट कर तरुण का बूढ़ा नौकर बोल उठा, ‘‘हम भी तो इन से यही कह रहे हैं कि पल्लवी बिटिया इस घर में पूरी तरह से सुखी थीं. पूरे घर में उन्हीं का हुक्म चलता था. घर में उन के अतिरिक्त रहता ही कौन था? तरुण सुबह 9 बजे तक उलटासीधा नाश्ता कर के अपनी फैक्टरी पर चले जाते और मालिकमालकिन दुकान पर.’’

‘‘चुप रहो,’’ भैया ने नौकर को डांट दिया और मेरी तरफ क्रोध से आंखें तरेरीं, जैसे मैं ने नौकर के सामने सचाई बखान कर के बहुत बड़ा जुल्म कर डाला हो.

‘‘तुम बाहर जा कर बैठो, हमारी बातों में दखल मत दो,’’ तभी मां ने नौकर को जाने का इशारा किया. वह उठ कर बाहर निकल गया.

भैया इस प्रकार मुझे समझाने लगे जैसे मैं बहुत छोटी नासमझ बच्ची हूं, ‘‘देखो श्वेता, हमें इस वक्त अपना केस मजबूत करना है तभी हम इन लोगों को सख्त सजा दिलवाने में सफल हो पाएंगे. इन का क्या है, ये तो पुलिस को रुपया भर कर छूट जाएंगे पर हमारी तो जगहंसाई हो जाएगी. लोग हमारे ऊपर व्यंग्य कसेंगे कि हम कायर थे, लड़की की मौत का बदला नहीं ले पाए. इन लोगों के दबदबे में डर कर खामोश बैठ गए.’’

‘‘मैं अपनी बेटी की मौत का बदला अवश्य लूंगी,’’ मां छाती ठोंक कर कठोरता से कह उठीं, ‘‘मैं भरी अदालत में जज के सामने खड़ी हो कर चिल्लाचिल्ला कर कहूंगी कि मेरी बेटी रोरो कर मुझे फोन करती थी. उस के ससुराल वाले उस पर सैकड़ों प्रकार के जुल्म ढा रहे थे. उसे भूखा रखा जाता था, ढेर सारा काम कराया जाता था. मायके से दहेज लाने के लिए विवश किया जाता था…’’

भैया ने मां की बात बीच में ही काट दी, ‘‘मां, तुम जोश में होश खो रही हो, ऐसी उलटीसीधी बातें करने से तो हमारा मामला ही गड़बड़ा जाएगा. भूखा रखने और ढेर सारा काम कराने की बात जम नहीं पाएगी. उन का वकील हमारे इस मुद्दे को तिनके की भांति तोड़ कर रख देगा. सभी जानते हैं इस घर में खाने की कमी नहीं है. रसोई की अलमारियां, फ्रिज वगैरह खाद्यान्नों से ठसाठस भरे रहते हैं. दुबलीपतली पल्लवी विवाह के 6 महीने बाद ही फूल कर काफी मोटी हो चुकी थी. रही बात घर का काम करने की, सो भोजन बनाने वाली महाराजिन, बच्ची को खिलाने वाला और घर की पहरेदारी करने वाला यह बूढ़ा नौकर और झाड़ूपोंछा लगाने व बाजार से सामान लाने वाला पहाड़ी छोकरा क्या घास छीलने के लिए घर में रह रहे थे.’’

मां सिटपिटा कर चुप बैठ गईं. भाभी ने अपना सुझाव पेश किया, ‘‘मैं लोगों से कहूंगी कि पल्लवी दीदी अकसर मेरे पास बैठ कर अपने पति की चरित्रहीनता का दुखड़ा रोया करती थीं. कहती थीं, तरुण के कई लड़कियों के साथ अनैतिक संबंध थे.’’

‘‘परंतु उन लड़कियों को लाओगी कहां से? वकील और जज तो पूरे सुबूत मांगेंगे. लड़कियों को कोर्ट में पेश करने को कहेंगे. फिर तुम्हारा झूठ क्षणभर में शीशों के टुकड़ों की भांति छिन्नभिन्न हो कर बिखर जाएगा,’’ भैया ने कहा तो भाभी का मुंह लटक गया, मां और पिताजी ने हाथों पर सिर थाम लिए.

फिर मां के मुंह से कराह जैसा स्वर निकला, ‘‘मेरी बेटी बड़ी भली थी. उस ने कभी अपने ससुराल वालों की बुराई नहीं की. किसी भी पत्र में कोई ऐसीवैसी बात नहीं लिखी.’’

‘‘मां, चुप भी करो, दीवारों के भी कान होते हैं,’’ भैया झुंझला उठे, ‘‘इस वक्त हमें ऐसी कोई बात नहीं कहनी है जो पल्लवी के सासससुर, पति के पक्ष में हो. मुझे पल्लवी की नासमझी पर क्रोध आ रहा है. चार बरतन होते हैं तो खटका भी करते हैं. कौन विश्वास कर सकता है कि 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में उस का अपने सासससुर या पति से झगड़ा न हुआ होगा. पर उस ने पत्रों में वह सब लिखा क्यों नहीं? उस का लिखा हुआ पत्र हमारे लिए सब से बड़ा सुबूत होता. फिर कानून के सभी पहलू हमारे पक्ष में होते.’’

‘‘तब क्या मेरी बेटी के हत्यारे, निर्दोष छूट जाएंगे?’’ पिताजी के स्वर में निराशा झलक उठी.

‘‘मेरे रहते ऐसा नहीं हो सकेगा. मैं इन लोगों से गिनगिन कर बदला लूंगा. मेरा सुबूत पक्का है. मैं पुलिस वालों से कह चुका हूं कि तरुण ने हम लोगों से मोटरगाड़ी की मांग की थी. हम देने में असमर्थ थे इसलिए उस ने क्रोध में भभक कर पल्लवी को जला कर मार डाला.’’

‘‘ठीक है, तुम जैसा उचित समझो करना, हम सब तुम्हारी हां में हां मिलाते जाएंगे,’’ पिताजी बोले. उन्हें अपने

बेटे के साहस व कर्मठता पर पूरा विश्वास था.

तभी मेरी गोद में दुबकी नूरी भूख से व्याकुल हो कर रोने लगी. उस के लिए दूध की आवश्यकता थी. मैं नूरी को गोद में लिएलिए ही रसोईघर की ओर बढ़ गई. वह बूढ़ा नौकर वहीं दीवार से चिपका कमरे की ओर कान लगाए खड़ा था.

मुझे देख कर वह मेरी ओर लपक आया, ‘‘बेटी, मैं सच कहता हूं, बहूरानी की मौत के लिए कोई दोषी नहीं है. इस घर के लोग तो बिलकुल देवता हैं, वह तो दुर्घटना थी. बहूरानी अपनी गलती से जल गई थीं, वे बिटिया के लिए दूध गरम कर रही थीं, तभी…’’

‘‘मैं जानती हूं, काका, पर मांपिताजी, भैयाभाभी को कैसे समझाऊं? सभी तो आक्रोश से भरे बैठे हैं.’’

‘‘लाओ, बच्ची को मुझे दे दो, तुम बहुत देर से लिए बैठी हो, थक गई होगी.’’

‘‘नहीं, रहने दो, इसे गोद में लेना मुझे अच्छा लग रहा है,’’ मैं नूरी को लिएलिए ही दूध गरम करने लगी.

तभी मुझे अपने पीछे किसी के खड़े होने का आभास हुआ, देखा भाभी थीं जो शायद चाय बनाने के लिए रसोई में आई थीं.

वह मेरा व नौकर का वार्त्तालाप सुन चुकी थीं, इसलिए झुंझला कर नौकर को झिड़कने लगीं, ‘‘तुम अभी तक सोए नहीं? अपने कमरे में जाओ या बाहर बैठ कर घर की पहरेदारी करो. हमारी बातों से तुम्हें क्या लेनादेना है? हम जो चाहें करें.’’

आगे पढ़ें- भाभी के ऊंचे स्वर ने मुझे भी सहमा कर रख दिया. दूध…

International Mother Language Day: जानें क्यों मनाया जाता है मातृभाषा दिवस

1952 में बांग्लादेश में भाषा को लेकर एक आंदोलन चला था, भाषा के लिए हुए इस आन्दोलन में हजारों लोगों ने अपनी जान दी थी. यह आंदोलन तत्कालीन पाकिस्तान सरकार द्वारा देश के पूर्वी हिस्से पर भी राष्ट्रभाषा के रूप में उर्दू को थोपे जाने के विरोध से हुई थी.

कहा जाता है कि भाषा  के लिए शुरू हुआ यह आन्दोलन  देश की आजादी का आन्दोनल बन गया, इस आन्दोलन में पडोसी देश का पूरा साथ भारत ने दिया और  नौ महीने तक चले मुक्ति संग्राम की परिणति  बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग होकर एक नए स्वतंत्र देश के रूप में विश्व पटल पर उभरा. आगे चल कर हर वर्ष 21 फरवरी के दिन बांग्लादेश में भाषा दिवस मनाया शुरू हो गया.

फिर 17  नवंबर, 1999  को सयुक्त राष्ट्र संघ के प्रभाग यूनेस्को ने इसे स्वीकृति देते हुई, यह घोषणा किया था कि हर वर्ष 21 फ़रवरी के दिन को अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जायेगा. तब से हर वर्ष  विश्व में भाषाई एंव सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा देने के उद्देश से इसे ऐसी तिथि पर विश्व भर में मनाई जाती है.

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2008  को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष के रूप में मनाया गया था. यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली, बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है.

2009 में संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की पूर्व संध्या पर एक चौकाने वाला आंकड़ा जारी कर सबको चौका दिया था . दुनियाभर के कई मातृभाषा  में संरक्षण के अभाव और अंग्रेजी के वर्चस्व ने सैंकड़ों भाषाओं कों  समाप्ति के कगार पर ला खड़ा कर दिया हैं .  तीन साल पहले जारी इस आंकड़े के अनुसार  दुनियाभर में ऐसी सैंकड़ों भाषाएं हैं जो विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गईं है  और भारत के बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका में स्थिति काफी चिंताजनक है जहां 192 भाषाएं दम तोड़ती नजर आ रही हैं.

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत, अमेरिका और इंडोनेशिया क्रमश पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर है, भारत, अमेरिका के बाद इंडोनेशिया है जहां 147 भाषाओं संकट में है. भाषाएं किसी भी संस्कृति का आईना होती हैं और एक भाषा की समाप्ति का अर्थ है कि एक पूरी सभ्यता और संस्कृति का नष्ट होना. अगर इन रिपोर्टो पर बात करे तों 2009 में भारत  की 196 , अमेरिका की 192 और इंडोनेशिया की 147 सभ्यता संस्कृति पूर्णत लुप्त होने के कगार पर खड़ा है .

इस आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में 6900 भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन इनमें से 2500 भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं की सूची में रखा गया है और समय रहते इसके संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तों ये 2500 भाषाएं पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी.

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संयुक्त राष्ट्र संघ का यह आंकड़ा वर्ष 2001 में किए गए अध्ययन की तुलना में काफी अलग था,  इन दोनों आकलनो के बीच काफी तेजी से बदलाव देखने कों था. इन आकंड़ो कों जारी हुई तीन साल बीत गई है और सभी जानते है कि इस क्षेत्र में कितना काम हो रहा है.

कहा जाता हैं कि मातृभाषा हर इंसान की शुरूआती जुबान होती हैं, लेकिन आज के इस भाग दौड़ के लाइफ में हर कोई चकाचौंध और प्रचलित भाषा के पीछे सब भाग रहे हैं. इस आपाधापी में हम जिंदगी के एक अहम अंग कों अपने से दूर कर रहे है.‘नेशनल ज्‍योग्राफिक सोसायटी एंड लिविंग टंग्‍स इंस्‍टीट्‌यूट फॉर एंडेंजर्ड लैंग्‍वेजेज’ के अनुसार हरेक पखवाड़े एक भाषा की मौत हो रही है. अगर इसके संरक्षण के लिए कुछ खास नही किया गया तों सन्‌ 2100 तक भू-मण्‍डल में बोली जाने वाली सात हजार से भी अधिक भाषाए पूर्णतः लोप हो जाएगी. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरी दुनिया में सात्‍ताईस सौ भाषाएं संकटग्रस्‍त हैं.

भाषा संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञ साफ शब्दों में यह मानते है कि इस तेजी से समाप्त हो रही भाषओं के पीछे एक प्रबल मुख्य कारण है, वह है अंग्रेजी का बढ़ता साम्राज्य. विश्व के अन्य भाषओं के साथ भारत की तमाम स्‍थानीय भाषाएं व बोलियां अंग्रेजी के बढ़ते साम्राज्य के प्रभाव से बेहद नाजुक मोड़ पर आकर खाड़ी हो गई हैं.

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कई स्थानीय भाषा और बोलियों के विनाश का कारण बन अंग्रेजी  आज  व्‍यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्‍सा, अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी की आधिकारिक भाषा चुका है.  भारत सरकार ने उन भाषाओं के आंकड़ों का संग्रह किया है, जिन्‍हें 10 हजार से अधिक संख्‍या में लोग बोलते हैं. 2001 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ऐसी 122 भाषाएं और 234 मातृभाषाएं हैं. जबकि कई भाषा ऐसी थी जिसको बोलने वालो की संख्या बेहद काम है, इसलिए इनका गणना करना मुश्किल है .

जर्मन विद्वान मैक्‍समूलर ने अपने शोध से भारत के भाषा और संस्‍कृति संबंधी तथ्‍यों से जिस तरह समाज को परिचित कराया था. उसी तर्ज पर अब नए सिरे से गंभीर प्रयास किए जाने की जरुरत है, क्‍योंकि हर पखवाड़े भारत समेत दुनिया में एक भाषा मर रही है. तों आईये इस … दिवस पर अपने मातृभाषा कों बचाने के लिए कसम खाये और जहां तक हो सके इसे जिंदा रखे, ताकि एक सभ्यता-संस्कृति विलुप्त हो जाने से बची रहे.

सच्ची कहानी से इंस्पायर है विकी कौशल की ‘भूत-पार्ट वन, डायरेक्टर का खुलासा

राजनीतिक परिवार से जुड़े रहे भानु प्रताप सिंह ने बतौर सहायक निर्देशक बौलीवुड में कदम रखा था और अब भानु प्रताप सिंह स्वतंत्र निर्देशक की हैसियत से फिल्म ‘‘भूत-पार्ट वन द हंटेड शिप’’ लेकर आ रहे हैं.

सवाल. फिल्म की कहानी का बीज कहां से मिला?

बतौर सहायक निर्देशक काम करने के दौरान मैंने कुछ पटकथाएं लिखी थीं. मैं एक फिल्म की पटकथा पर पंजाबी भाषा में फिल्म बनाने जा रहा था. लेकिन मेरे दोस्त और निर्देशक शशांक खेतान ने कहा कि मैं उनके साथ बतौर सहायक काम करुं. शशांक खेतान के साथ बतौर सहायक काम करने के दौरान ही मैंने फिल्म ‘‘भूत पार्ट वन द हॉन्टेड शिप’’ की कहानी लिखी.

इस फिल्म की कहानी का बीज मुझे 2011 में मुंबई के जुहू बीच से मिला. वास्तव में 2011 में विस्डम नामक एक जहाज भटकते हुए जुहू समुद्र के तट पर आ लगा था. लोगों के बीच इसे देखने की उत्सुकता जागृत हो गई थी. तो मैं भी पहुंच गया था. शिप की लंबाई देख मैं चौक गया. फिर मेरे दिमाग में सवाल उठा कि अचानक कोई शिप/जहाज यहां कैसे आ सकता है. क्योंकि इस शिप पर कोई भी इंसान नहीं था. तो मुझे लगा कि इस पर एक बेहतरीन फिल्म बनाई जा सकती है. उसके बाद मैंने शिप को लेकर रिसर्च वर्क किया. मैने पाया कि इस दस मंजिला शिप के अंदर 300 कमरे हैं. तो इसके अंदर हम एक बेहतरीन हॉरर कहानी को जन्म दे सकते हैं. यदि कोई इंसान इसके अंदर सबसे निचली दसवीं मंजिल पर फंस जाए और उसके पीछे भूत पड़ जाए तो वह कैसे बाहर निकलेगा. इसी सोच के साथ मैंने एक कहानी लिखी. जिसे मैंने शशांक खेतान और करण जौहर को सुनाई. उन्हें कहानी पसंद आ गई तो फिल्म बन गई.

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सवाल. आपने हॉरर कहानी ही क्यों सोची?

देखिए मुझे हॉरर फिल्में देखना बहुत पसंद है. हॉरर कहानियां सुनना पसंद है. इसलिए मैंने एक हॉरर कहानी लिखी. इसमें कई बातें हैं. मसलन यह जहाज कहां से और कैसे आया? अब तक इस जहाज के कितने नाम बदले गए? अब इसकी क्या स्थिति है और इसमें यदि कोई इंसान फंस जाए और भूत उसके पीछे पड़ जाए, तो क्या होगा? क्योंकि इस जहाज के अंदर पहले कोई इंसान नहीं था. मुझे रिसर्च के दौरान पता चला कि इस जहाज को कोलंबो पोर्ट से गुजरात के एलन पोर्ट ला रहे थे. गुजरात के भावनगर के पास एलन पोर्ट बहुत बड़ा पोर्ट है. अचानक तूफान आया और यह षिप रास्ता भटक कर जुहू बीच पर पहुंच गया. इस रिसर्च के दौरान मिली कहानी में कुछ काल्पनिक तथ्य जोड़कर मैंने यह हॉरर कहानी लिखी.

सवाल. किस तरह का रिसर्च किया?

मैंने इस शिप को लेकर इंटरनेट पर काफी रिसर्च किया. इसका अगला पिछला जाना. हर शिप के नाम कई बार बदलते हैं और इसके पीछे कई रहस्य छिपे होते हैं. मैंने उन्हें भी जानने की कोशिश की. हमारी फिल्म के अंदर शिप का नाम ‘सी बर्ड’है. पर पांच साल पहले क्या नाम था? इसके लिए जवाब तलाशे तो कई राज सामने आए. यह काफी रोचक है.

सवाल. फिल्म की कहानी क्या है?

फिल्म की कहानी पृथ्वी चौहाण की है जिसे विक्की कौशल ने अपने अभिनय से संवारा है. तो वहीं ‘सी बर्ड’ नामक शिप की कहानी है. पृथ्वी चौहाण सर्वेयर की हैसियत से इस शिप की जांच करने पहुंचते हैं. वह डीजी शिपिंग ऑफिस में कार्यरत हैं. यह देश का ऐसा शिपिंग ऑफिस है, जो भारत के सारे शिपिंग को हैंडल करता है. यहां पर कई अवकाश प्राप्त मर्चेंट नेवी वाले लोग काम करते हैं. इसीलिए पृथ्वी चौहाण का किरदार भी वही है. पृथ्वी भी पहले मर्चेंट नेवी में थे. शादी करके जल्दी रिटायरमेंट लेकर अब डीजी शिपिंग में काम करने लगे हैं. यहां वह सरवेयर इन ऑफिसर हैं. मैंने दो-तीन लोगों के किरदार को मिलाकर एक पृथ्वी का किरदार बनाया है. क्योंकि हीरो तो एक ही हो सकता है. पृथ्वी ‘सी बर्ड’ शिप के में जाते हैं. क्योंकि शिप के अंदर जाकर उस पर मौजूद कागज वगैरह देखकर ही उसके बारे में कुछ पता किया जा सकता है. उसके बाद ही तय किया जाएगा कि इस शिप की लैंडिंग करानी है या इसे स्क्रैप करना है. शिप कहां से आयी है, यह भी पता करना है. इससे अधिक कहानी बताना उचित नही होगा.

सवाल. फिल्म के किरदारों पर रोशनी डालें?

फिल्म में पृथ्वी सर्वेयार इन ऑफिसर है. वह सपना (भूमि पेडणेकर) के साथ भाग कर शादी करते हैं. इनकी पिछली जिंदगी के बारे में ज्यादा नहीं है. उन्होंने अपनी एक छोटी सी दुनिया बना रखी है. पर इनके साथ एक घटना घटती है, जिसमें पृथ्वी की पत्नी व बेटी की मौत हो जाती है. इस सदमे से पृथ्वी उबर नही पाया है. क्योंकि इस हादसे के लिए अपने आप को दोषी मानते हैं. यह हादसा उसका पीछा नहीं छोड़ता. मगर पृथ्वी दुनिया के सामने यही दिखाते हैं कि वह सब कुछ भूल चुके हैं. जबकि पृथ्वी ने इन सारी चीजों के साथ जीना सीख लिया है. पृथ्वी के मित्र जोषी (रियाज सिद्दिकी) हैं. जोषी स्कूल के प्रिंसिपल हैं, जो दोनों पहलुओं को बताते हैं कि भूत-प्रेत भगवान इन सब चीजों की वर्तमान समय की दुनिया में क्या मान्यता है, क्या नहीं है.

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सवाल. फिल्म में गाने कितने हैं?

सिर्फ एक गाना है, जो फिल्म की शुरुआत में ही आता है. यह मोंटाज का गाना है, जो पृथ्वी चौहान की पूरी जिंदगी की कहानी को बयां कर देता है. इस फिल्म में बाकी कहीं भी गाने की कोई गुंजाइश नहीं है. मैं जबरन डांस नंबर या आइटम नंबर रखने में यकीन नहीं करता. इस गाने से यह पता चलता है कि पृथ्वी चौहान की जिंदगी क्या थी, कितनी खुशहाल थी और किस हालात में है.

सवाल. फिल्म ‘‘भूत- पार्ट वन द हंटेड शिप’’ देखने के बाद दर्शकों के दिमाग में क्या रहेगा?

मैं यह नहीं जानता कि दर्शक फिल्म देख कर अपने साथ क्या ले जाएगा. मगर फिल्म देखने के बाद लोगों के बीच इस फिल्म को लेकर चर्चाएं बहुत होंगी. इस फिल्म में इतने रहस्य हैं कि यदि दर्शक का एक मिनट के लिए फिल्म से ध्यान भंग हुआ, तो उसे अहसास होगा कि उसने कुछ खो दिया.

सवाल. फिल्म को कहां-कहां फिल्माया है?

पूरी फिल्म को हमने गुजरात के एलन पोर्ट के अलावा मुंबई में ही फिल्माया है. हमारी यह फिल्म भारतीय फिल्मों के इतिहास में पहली फिल्म है, जो कि एलन पोर्ट पर फिल्मायी  गयी है. हमने इसे साठ दिनों में फिल्माया है.

सवाल. आपकी पत्नी अमरीका मे रहती हैं. ऐसे में डिस्टेंस मैरिज को कैसे मैनेज करते हैं?

फिलहाल हम दोनों को एक दूसरे को यकीन है. मेरी पत्नी अमरीका में रह रही हैं. हाल ही में उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया है. लेकिन मैं फिल्म में व्यस्तता के चलते अमरीका जाकर बेटी को देख नहीं पाया. मैने मोबाइल पर ही उसे देखा है. 21 तारीख को फिल्म की रिलीज के बाद अमरीका जाऊंगा. मेरी पत्नी अमरीका में इंटरनेट मार्केटिंग के क्षेत्र में काम कर रही हैं. हम दोनों के बीच अगाध प्यार और यकीन है कि हम दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे. हम दोनों ने एक दूसरे को अपने अपने क्षेत्र में अच्छा काम करने के लिए समय दे रखा है. हमने शुरू में ही तय किया था कि हम एक दूसरे को समझौता करने के लिए नहीं कहेंगे. हम दोनों एक दूसरे के स्पेस और काम की इज्जत करते हैं. मैं उसके करियर की इज्जत करता हूं. वह मेरे करियर की इज्जत करती है. जब मैं बतौर सहायक निर्देशक काम कर रहा था, तभी से मुझे उनका पूरा सपोर्ट मिलता आया है. अब हम दोनों एक मुकाम पर पहुंच गए हैं, तो बहुत जल्द इस दूरी को खत्म करने के बारे में हम लोग निर्णय लेने वाले हैं. अब तक हमारा भरोसा एक दूसरे पर इतना अधिक रहा है कि हम अपने वैवाहिक जीवन/शादी के रिश्ते को संभाल सके हैं.

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भारत आएंगे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ड्रंप, किसको कितना फायदा ?

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश यानी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दो दिवसीय भारत यात्रा पर आने वाले हैं. उनके आगमन को लेकर जोरशोर से तैयारियां चल रही हैं. 24 फरवरी को दोपहर 11.55 पर वो अहमदाबाद एयरपोर्ट पहुंचेंगे. उनका ये भारत दौरा दो दिन का होगा. जिसमें वो तीन शहरों (अहमदाबाद, आगरा, दिल्ली) का भ्रमण करेंगे.

महीनों से हो रही है तैयारी…

महीनों पहले से ही इन तीनों शहरों से रेनोवेशन का काम चल रहा है. जगह-जगह दीवारों पर पेंटिंग्स बनाई गईं हैं. सड़कों की मरम्मत कराई जा रही है. झुग्गियों को हटाया जा रहा है. दीवारों को ट्रंप के आगमन की खुशियों में लीपापोता जा रहा है. ट्रंप सातवें अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जोकि भारत यात्रा पर आ रहे हैं. सवाल ये उठता है कि इससे किसको फायदा होगा. अमेरिका को या फिर भारत को. दुनिया जानती है कि अमेरिका अपने हितों से समझौता नहीं करता.

भारत के साथ होगा बड़ा व्यापारिक समझौता

ट्रंप ने अपने आगमन से पहले कहा था कि भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते आगे बढ़ेंगे और अमेरिका जल्दी ही व्यापारिक समझौता भी करेगा लेकिन ये बयान जितना सकारात्मक है उनका नकारात्मक भी है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संकेत दिए हैं कि अगले सप्ताह होने वाले उनके भारत दौरे के दौरान और यहां तक की इस वर्ष तक भी कोई पूर्ण व्यापार समझौता होने की संभावना कम है, लेकिन साथ ही उन्होंने कहा है कि भारत के साथ एक बड़ा व्यापारिक समझौता प्रस्तावित है.

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ट्रंप ने दिया था ये बयान

उन्होंने मंगलवार को मैरीलैंड में जॉइंट बेस एंड्रई में पत्रकारों द्वारा इस बाबत पूछे गए सवाल पर कहा, “मैं नहीं जानता कि यह चुनाव से पहले हो पाएगा या नहीं, लेकिन हम भारत के साथ बहुत बड़ा समझौता करने वाले हैं.” उन्होने कहा, “मैं बाद के लिए एक बड़े समझौते को बचा कर रख रहा हूं. हम भारत के साथ एक बहुत बड़ा व्यापारिक समझौता कर रहे हैं. हमारे पास यह है.”

व्यापारिक समझौते की प्रगति की शिकायत करते हुए ट्रंप ने कहा, “हमारे साथ भारत बहुत अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है, लेकिन मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बहुत पसंद करता हूं.” ट्रंप ने अपने भारत दौरे को लेकर कहा, “यह काफी मजेदार होने वाला है. मैं उम्मीद करता हूं कि आप सभी इसका मजा उठाएंगे.”

अहमदाबाद में मुख्य कार्यक्रम सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम के उद्घाटन के बारे में संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा, “मोदी ने मुझसे कहा है कि समारोह स्थल और हवाईअड्डे के बीच 70 लाख लोग खड़े रहेंगे.” स्टेडियम के बारे में उन्होंने कहा, “जहां तक मैं समझता हूं, वहां पर कुछ काम हो रहा है, लेकिन यह दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम बनने जा रहा है. इसलिए यह काफी मजेदार होने वाला है.”

अमेरिका-ईरान के बीच अहम भूमिका निभा सकता है भारत

ट्रंप का ये दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब मध्‍य एशिया में तनाव व्‍याप्‍त है. ईरान ने दो दिन पहले ही अपनी नई मिसाइल का परिचय दुनिया से कराया है. अमेरिका जानता है कि ईरान और भारत के रिश्‍ते वर्षों पुराने और काफी मजबूत हैं. ऐसे में भारत दोनों देशों के बीच अहम भूमिका निभा सकता है. वहीं सऊदी अरब मौजूदा समय में भारत को तेल की बड़ी आपूर्ति कर रहा है.

ऐसे में ट्रंप का भारत आना ईरान और सऊदी अरब दोनों के लिए ही एक संदेश देता दिखाई दे रहा है. ये संदेश कहीं न कहीं ईरान को चेतावनी देना और सऊदी के साथ खड़ा रहना भी हो सकता है.

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भारत के लिए लाभकारी हो सकती ये यात्रा!

फिलहाल ट्रंप के इस दौरे पर दुनियाभर की निगाहें टिकी हुई हैं. ये यात्रा भारत के लिए लाभकारी हो सकती है ये तो आने वाले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा. लेकिन ट्रंप को लेकर भारत में जिस प्रकार की तैयारियां चल रही हैं उससे तो यही लग रहा है कि कुछ बड़ा होने वाला है. ट्रंप का ये पहला भारत दौरा है. जिसके लिए ट्रंप खुद भी बहुत उत्साहित हैं.

जानें, कैसे बनाएं मीठा दलिया

सामग्री :

– गेंहू का दलिया (01 कप)

– दूध ( 01 कप)

– शक्कर (02 बड़े चम्मच)

– मक्खन/घी (02 छोटे चम्मच)

– हरी इलायची (02 नग)

दलिया बनाने की विधि :

– सबसे पहले दलिया को बीन लें और उसकी गंदगी आदि साफ कर लें.

– इसके बाद गैस पर कुकर गरम करें.

– गर्म होने पर उसमें मक्खन डालें.

– जब मक्खन पिघल जाये, उसमें इलायची डालें और हलका सा चला लें.

– इसके बाद कुकर में दलिया डाल दें और चलाते हुए हल्का रंग बदलने तक भून लें.

– दलिया भुन जाने पर कुकर में दूध, दलिया का 3 गुना पानी (1 कप दलिया होने पर 3 कप पानी) और शक्कर डाल दें और कुकर का ढ़क्कन बंद करके धीमी आंच पर पकायें.

– दलिया को लगभग 3 मिनट तक पकने दें, इसके बाद गैस बंद कर दें और कुकर की गैस अपने आप      निकलने दें.

लीजिये, अब आपकी स्वादिष्ट दलिया तैयार है.

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‘सायकोपाथ’ का रोल करना चाहती हैं वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ की ये Hot एक्ट्रेस

सीरियल‘‘साडा हक’’से अभिनय कैरियर की शुरूआत करने वाली अदाकारा हर्षिता गौर बाद में तेलगू फिल्म ‘‘फलकनुमा दास’’ में हीरोईन बनकर आयी थीं. उसके बाद वह ‘अमन’,‘ब्लैक काफी’, ‘मिर्जापुर’, ‘सेक्रेड गेम्स-2’और ‘पंच बीट’जैसी कई वेब सीरीज में नजर आयीं. इन दिनों वह ‘जूम स्टूडियो’’ पर एक फरवरी से प्रसारित हो रहे वेब षो ‘‘हैप्पिली इवर आफ्टर’’ में नजर आ रही हैं. प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के अंश…

सवाल: अपने चार वर्ष के कैरियर को आप किस रूप में देख रही हैं?

मैं बहुत लक्की रही हूं. जब मैं मुंबई पहुंची,तो मेरे हाथ में अभिनय करने के लिए सीरियल‘‘साडा हक’’था. इस सीरियल को करने के बाद मैने सोच लिया था कि मुझे कंटेंट प्रधान सिनेमा ही करना है. उसी वक्त वेब सीरीज का दौर तेजी से शुरू हुआ था. मेरी राय में यह कलाकारों के लिए बहुत अच्छा दौर है.

वेब सीरीज से कलाकारों को कई अच्छे अवसर मिल रहे हैं. टीवी से फिल्म तक की उड़ान हम जैसे गैर फिल्मी परिवार से आने वालों के लिए काफी लंबी हो जाती है. मैं मशहूर मॉडल भी नहीं थी. तो मेरे लिए वेब सीरीज ने देवदूत की तरह काम किया. मैंने‘अमन’,‘ब्लैक काफी’,‘मिर्जापुर’,‘सेक्रेड गेम्स 2’और ‘पंच बीट जैसी वेब सीरीज की. वेब सीरीज करते हुए मैं इंज्वॉय कर रही हूं.

 

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सवाल: आप‘‘मिर्जापुर’’भाग एक और भाग दो दोनों में थी. इस वेब सीरीज को काफी बोल्ड वेब सीरीज माना गया. आपकी क्या राय है?

मुझे ऐसा नहीं लगता. यह तो उस क्षेत्र की कहानी को बताने का जरिया मात्र है. जो वहां की रियल लाइफ है,वही इस वेब सीरीज में दिखाया गया है.‘मिर्जापुर’में जो कुछ दिखाया गया,वह उस क्षेत्र की जिंदगी का हिस्सा न हो,ऐसा नही है. अब जो कुछ रीयल लाइफ में हो रहा है,उसे बोल्ड तो नहीं कह सकते. इस वेब सीरीज में कुछ भी छिपाकर नहीं दिखाया गया. सिर्फ असलियत ही परदे पर उतारी गयी. अब यह तो आप सभी के देखने के नजरिए पर निर्भर करता है कि क्या बोल्ड है और क्या नहीं. सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप सच को किस तरीके से दिखा रहे हैं.

सवाल: वेब सीरीज‘‘हैप्पिली इवर आफ्टर’’से जुड़ना कैसे हुआ?

इस वेब सीरीज के निर्देशक नवजोत गुलाटी ने मेरा वेब सीरीज‘‘मिर्जापुर’’देखा हुआ था. उन्होंने मुझे बुलाया,एक लुक टेस्ट किया और फिर मुझे इससे जुड़ने का अवसर मिल गया.

सवाल:‘हैप्पिली इवर आफ्टर’से जुड़ने के लिए आपको किस बात ने प्रेरित किया?

सच तो यह है कि मेरे घुटने की सर्जरी हुई थी और ‘मिर्जापुर’ खत्म हुआ था. मैं उस वक्त कुछ हल्का फुल्का,मगर रोचक वेब सीरीज करने की सोच रही थी. तभी इसका आफर मुझे मिला. उस वक्त मेरे तीन दोस्त शादी कर रहे थे और मेरे दो दोस्तों की शादी फरवरी माह में हुई. एक तरह से मेरे आस-पास शादी का माहौल था. यह वेब सीरीज भी शादी के इर्द-गिर्द है. तो मुझे लगा कि इससे हर कोई रिलेट कर सकेगा. आजकल माहौल भी ऐसा है कि हर कोई अपनी शादी खुद अपने दम पर करना चाहता है. अब इस वेब सीरीज के यह दो कपल जिंदगी में किन किन उतार चढ़ावों से गुजरते हैं, वह सब हास्य के साथ देखने का अनोखा अनुभव होगा. तो मुझे लगा कि यह कहानी मुझे बतानी चाहिए.

 

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सवाल: किरदार को लेकर क्या कहेंगी?

मैने इसमें 29 वर्षीय पंजाबी परिवार से संबंध रखने वाली अवनी मेहंदीराता का किरदार निभाया है. जो कि सिविल इंजीनियर है. बहुत ही आधुनिक,शॉर्ट टेंम्पर और ब्लंट है. जो उसके दिल में है,वही उसके चेहरे पर है. वह अपनी शादी बहुत धूमधाम व शानोशौकत से करना चाहती है. शादी के बाद उनकी जिंदगी में क्या-क्या होता है,उसी पर यह हास्य वेब सीरीज है.

सवाल: सोशल मीडिया पर क्या लिखना पसंद करती हैं?

मैं बहुत आलसी हूं. सोशल मीडिया पर भी कम एक्टिव हूं. जब कुछ मूड हुआ,तो लिख देती हूं. आजकल सोशल मीडिया पर कलाकारों के फालोअर्स की संख्या देखकर सीरियल या वेब सीरीज के आफर दिए जाने लगे हैं. अब सोशल मीडिया कलाकारों की प्रोफाइल की तरह हो गया है. देखिए,हर चीज के फायदे व नुकसान दोनो हैं. इसके चलते फिल्मकारों के लिए आपसे संपर्क करना,आपका काम देखना आसान हो गया है. फिर वेब माध्यम तो सोशल मीडिया यानी कि इंटरनेट पर है.

 

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सवाल: अब किस तरह के किरदार निभाना चाहती हैं?

अभी तक मैंने बहुत ज्यादा काम नही किया है. अभी तो मुझे ढेर सारे किरदार निभाने हैं. मैं एक रोचक ग्रे किरदार निभाना चाहती हूं. सायकोपाथ किलर का किरदार निभाना चाहती हूं.

सवाल: इसके अलावा क्या कर रही हैं?

दो फिल्में और दो वेब सीरीज हैं. मगर इनके बारे में अभी बात नहीं कर सकती. अगले माह‘मिर्जापुर 3’की शूटिंग शुरू हो जाएगी.

सवाल: आपको किन-किन चीजों का शौक है?

मुझे डांस और मार्शल आर्ट बेहद पसंद है.

एडिट बाय- निशा राय

खंडहर: भाग-2

मैं अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. इस के पहले कि रजनीश उन से उलझता, मैं बोल पड़ा, ‘‘अरे, आप लोग इधर आइए. मेरी बर्थ पर बैठ जाइए.

1-2 स्टेशन की ही बात होगी. उस की तबीयत वास्तव में ठीक नहीं,’’ यह कह कर मैं उठ खड़ा हुआ.

उन उद्दंड यात्रियों में से कुछ ने मेरे इस कदम को अपनी विजय समझी और यों आ कर बैठ गए मानो मुझे ऐसा ही करना चाहिए था.

‘‘अरे अंकल, आप बुजुर्ग हैं, कहां उठ खड़े हुए? आइए, आप भी बैठिए न, कुछ देर का सफर है. फिर आप सो जाइएगा,’’ कहते हुए उन लोगों ने ठहाके लगाए और अपने साथ मुझे भी बैठा लिया. उन के इस आग्रह में आदर नहीं, धृष्टता थी.

‘‘यह अच्छा भी तो नहीं लगता कि आप ही की बर्थ पर हम यात्रा करें और आप बुजुर्ग हो कर खड़े रहें,’’ उन में से किसी ने कहा और डब्बे में एक जोर का ठहाका लगा.

उधर, रजनीश हैरान था कि यह सब क्या हो रहा है. मेरी परेशानी देखते हुए वह भी अपनी बर्थ पर बैठ गया और उन यात्रियों से बोला, ‘‘1-2 लोग इधर मेरी बर्थ पर आ जाइए.’’

‘‘देखो भाइयो? कितनी जल्दी बात समझ में आ गई,’’ कोई बोल उठा. फिर सभी की एक सम्मिलित हंसी पूरे डब्बे में गूंज गई. फिर एक शांति सी छा गई. हठात उन यात्रियों में से एक ने पूछा, ‘‘अंकल, हम लोगों ने आप से तो उठने के लिए कहा नहीं, आप भला क्यों खड़े हो गए?’’

‘‘बेटा, तुम लोगों के ठहाकों के संकेत और परिणाम से वह युवक अनजान था लेकिन कोई 22 वर्ष पूर्व ऐसे ही ठहाकों ने मेरा जीवन ठूंठ में बदल दिया था. मैं इसलिए भयभीत हुआ कि कहीं कोई अनहोनी इस युवक के साथ भी न घटित हो. बस, यही सोच कर मैं ने खड़े हो जाना ही उचित समझा,’’ मैं ने रजनीश की ओर देखते हुए अपनी बात कही.

मेरे इस कथन से वहां एकाएक सन्नाटा जैसा छा गया. सभी मेरी ओर देखने लगे.

‘‘ऐसा क्या हो गया था, अंकल?’’ किसी ने प्रश्न किया.

‘‘तब मेरी उम्र 23-24 वर्ष की रही होगी. हृदय में अपार प्रसन्नता लिए एक उल्लास के साथ मैं अपनी नौकरी ‘जौइन’ करने कलकत्ता जा रहा था. सुनहरे जीवन की कल्पना में मैं खोया हुआ अपनी बर्थ पर लेटा था. सिरहाने एक छोटा सा ब्रीफकेस लगा रखा था जिस में कपड़े, सर्टिफिकेट्स, कुछ रुपए आदि रखे थे. बीच में किसी स्टेशन पर आप ही लोगों की तरह कुछ यात्री चढ़े. अपनी उद्दंडता और आक्रामकता से यात्रियों को आतंकित कर सभी ने बलपूर्वक डब्बे में बैठने की व्यवस्था कर ली. उन्हीं में से एक यात्री मेरी बर्थ पर भी जम गया. थोड़ी देर में उस ने ताश की गड्डी निकाली और इधरउधर कुछ खोजने लगा. तभी उस की दृष्टि मेरे ब्रीफकेस पर गई.

‘‘‘भाई, जरा अपना ब्रीफकेस तो देना,’ उस ने मांगा. मैं ने पूछा, ‘क्यों भाई? ब्रीफकेस क्यों दूं?’

‘‘‘कुछ नहीं यार. ताश के पत्ते फेंकने के लिए एक समतल वस्तु चाहिए,’ उस ने बेशर्मी से कहा.

‘‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई, मैं अपनी वस्तु क्यों दूं भला?’ मैं ने अस्वीकार किया तो वह बोल पड़ा, ‘अरे क्या ब्रीफकेस घिस जाएगा या उस में हीरेजवाहरात भर रखे हैं? चाहो तो तुम भी खेल लो, सफर कट जाएगा. उतरते समय तुम्हें तुम्हारा ब्रीफकेस वापस दे देंगे, भाई.’

‘‘मैं ने फिर मना किया और बात बढ़ती गई. पहले तो उन्हें यह आपत्ति थी कि मैं लेट कर क्यों सफर कर रहा हूं, फिर मेरे द्वारा ब्रीफकेस न देने पर उन्हें हैरानी और क्रोध आया. बस, फिर क्या था, बलपूर्वक उस ने मेरा ब्रीफकेस सिरहाने से खींच लिया. तब तक उन में से किसी ने कहा, ‘फेंक दो साले का ब्रीफकेस टे्रन से बाहर, तब इस की समझ में आएगा.’ और पलक झपकते ही उस ने मेरे ब्रीफकेस को टे्रन से बाहर फेंक दिया. मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई. क्या ले कर कल नौकरी ‘जौइन’ करने जाऊंगा. सारा कुछ तो उसी ब्रीफकेस में था. मैं क्रोध से तिलमिला कर उन से उलझ गया. गालीगलौज शीघ्र ही मारपीट में बदल गई. मुझे क्या पता था कि वे इस हैवानियत तक जा सकते हैं. वे कई थे और मैं अकेला. उन्होंने मुझे खूब पीटा. तभी कोई चिल्लाया, ‘फेंक दो इस साले को भी बाहर, तब समझ में आएगा कि डेली पैसेंजरों से उलझने का परिणाम क्या होता है.’

‘‘फिर क्या था. मैं संभलता कि उन्होंने चलती टे्रन से मुझे नीचे धकेल दिया. मेरे सिर में किसी चीज से चोट लगी. उस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ भी नहीं मालूम.’’

मेरी इतनी कहानी सुनने के बाद उन उद्दंड यात्रियों के चेहरे पर कुछ ग्लानिभरे भाव दिखने लगे. रजनीश भी अब शायद समझ गया था कि इन यात्रियों को मैं ने क्यों अपनी बर्थ पर बैठने की सहमति दे दी थी.

रजनीश ने पूछा, ‘‘इस के बाद क्या हुआ, अंकल?’’

‘‘जब मैं होश में आया तो मैं ने स्वयं को एक अस्पताल में पाया. पास खड़ी नर्स ने मेरा नामपता पूछा, मैं बता न सका. उस ने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने भी मुझ से मेरे बारे में जानना चाहा, मैं उन्हें भी कुछ न बता सका. उन्होंने नर्स से पूछा, ‘इन के पास के सामान से कुछ पता चल पाया कि ये कहां के हैं? कोई पता या और कोई संपर्क सूत्र?’

‘‘नहीं, कुछ भी नहीं, जेब से कुछ रुपए भर मिले हैं.’ डाक्टर और नर्स आपस में न जाने क्याक्या कहतेसुनते रहे और मैं मूर्खों की भांति केवल उन के चेहरे देखता रहा.

‘‘‘मुझे प्रतीत होता है कि यह युवक ‘रिट्रोगे्रड एम्नेशिया’ का शिकार हो चुका है,’ डाक्टर ने कहा तो नर्स बोल पड़ी, ‘ओह, पता नहीं अब यह अपने घर और लोगों तक पहुंच भी पाएगा कि नहीं?’’’

इतनी बातें सुन कर उन यात्रियों व आसपास के लोगों का कुतूहल और बढ़ गया.

‘‘फिर क्या हुआ, अंकल?’’ रजनीश ने पूछा.

‘‘मुझे किसी वार्ड में भेज दिया गया. जो भी डाक्टर या नर्स मेरी देखभाल या उपचार के लिए आते, मेरे प्रति दया और सहानुभूति के दो शब्द बोल कर चले जाते. कहते, इस अनाम रोगी को कहां पहुंचाया जाए. मैं भी क्या करता? एक अनजान स्थान, अपरिचित लोग, भिन्न भाषा और अपने शहर से न जाने कितनी दूर इस अस्पताल में पड़ेपड़े दिन काटने लगा. कभी दवाएं दी जातीं, कभी कोई मनोचिकित्सक मेरी पूर्व स्मृति को वापस लाने के लिए अनेक प्रश्न करता और कोई समाधान न पा कर झुंझला कर चला जाता.’’

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