तलाक की अवधारणा हिन्दू धर्म, संस्कृति और समाज के बुनियादी उसूलों से मेल ही नहीं खाती जिसमें औरत को फख्र से पैर की जूती, दासी और नर्क का द्वार करार दिया गया है. धर्म ग्रन्थों में जगह-जगह महिलाओं को निर्देशित किया गया है कि उनका धर्म और कर्तव्य यह है कि वे पति परमेश्वर की सेवा करती रहें फिर चाहे वह कितना ही लंपट, दुष्ट, जुआरी, शराबी, कबाबी, व्यभिचारी और पत्नी पर कहर ढाने बाला क्यों न हो.
सार ये कि औरत गुलाम रहे. बचपन में वह पिता के, जवानी में भाई के और शादी के बाद पति के संरक्षण में रहे और शर्त ये कि इन तीनों ही अवस्थाओं में खामोश रहते हुए ज़्यादतियां और जुल्मों सितम बर्दाश्त करती रहे. इसी में उसके जीवन की सार्थकता है. जब तक ऐसा था (हालांकि अभी भी बहुतायत से ऐसा होता है) तब तक हिन्दू समाज बड़ा सुखी, सम्पन्न और संस्कारवान धर्म के ठेकेदारों के बही खाते में था.
हिन्दू धर्म में तलाक का कभी प्रावधान ही नहीं था. हां पुरुषों को यह छूट जरूर थी कि वे जब चाहें कोई सटीक वजह हो न हो पत्नी को छोड़ दें और दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी शादी कर लें. आजादी मिलने तक समाज पर मर्दों का यह दबदबा कायम रहा लेकिन जैसे ही हिन्दू कोड बिल में तलाक का प्रावधान आया तो धर्म के ये ठेकेदार तिलमिला उठे क्योंकि आजाद भारत का संविधान और कानून महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते थे.
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डाक्टर भीमराव अंबेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिंदूवादियों के उग्र विरोध को नजरंदाज करके किश्तों में महिलाओं को उनके हक दिये थे जिसे लेकर वे आज भी यह कहते हुए कोसे जाते हैं कि हिन्दू धर्म के इन दुश्मनों ने उसे तोड़ मरोड़ कर रख दिया.
गुजरे कल की इन बातों का आज से गहरा ताल्लुक स्थापित करने की कोशिश ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान को कहा जाएगा जिसमें उन्होने तलाक की बढ़ती दर पर चिंता जताई है और इस चिंता की चीर फाड़ भी उम्मीद के मुताबिक ही हो रही है.
अहमदाबाद में उन्होने स्वयं सेवकों से कहा– इन दिनों तलाक के अधिक मामले शिक्षित और सम्पन्न परिवारों में सामने आ रहे हैं क्योंकि शिक्षा और संपन्नता अहंकार पैदा कर रहा है जिसका नतीजा परिवार का टूटना है इससे समाज भी खंडित होता है क्योंकि समाज भी एक परिवार है.
आइये अब इस बयान का दूसरा हिस्सा भी देखें जो पहले हिस्से से ज्यादा अहम है. उन्होने कहा, समाज की ऐसी स्थिति इसलिए है कि हम पिछले 2 हजार साल से परम्पराओं का अनुपालन कर रहे हैं. हमने महिलाओं को घर तक सीमित कर दिया यह स्थिति 2 हजार साल पहले नहीं थी वह हमारे समाज का स्वर्णिम युग था.
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विरोधाभास और चालाकी–
ऐसा लगता है कि मोहन भागवत खुलकर स्पष्ट शब्दों में अपनी मंशा पूरी तरह उजागर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये लेकिन इशारों में उन्होंने महिला शिक्षा को इस स्थिति का जिम्मेदार ठहरा ही दिया. इस बात से शायद ही कोई मुकर पाये कि शिक्षा से जागरूकता आती है अब अगर इसे अहंकार कहते तलाक की वजह माना जाये तो सी ग्रेड की ही सही एक्ट्रेस मिनी माथुर का यह तंज़ ही बात को समझने काफी है कि, चलिये हम सब अनपढ़ रहते हैं और आर्थिक रूप से गरीब रहते हैं कम से कम इससे तलाक तो नहीं होगा.
इससे पहले एक और अभिनेत्री सोनम कपूर ने भी ताना मारा था कि कौन समझदार इंसान ऐसी बातें करता है, यह पिछड़ा हुआ मूर्खतापूर्ण बयान है.
इन दोनों अभिनेत्रियों ने बहुत कम शब्दों में महिलाओं का पक्ष रख दिया है कि जब तक वह आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर थी और अशिक्षित थी तब तक कोई एतराज किसी को नहीं था क्योंकि उस स्थिति में वह तलाक की बात सोच भी नहीं पाती थी अब आत्मनिर्भरता और शिक्षा ने उसे स्वाभिमान से जीने के मौके दे दिये हैं तो लोगों के पेट में तलाक को लेकर मरोड़ें उठने लगी हैं.
मोहन भागवत का यह बयान सरासर स्त्री विरोधी और विकट का विरोधाभासी है उन्हें पहले यह बताना चाहिए कि संपन्नता और शिक्षा अहंकार कैसे पैदा करते हैं ये तो जागरूकता लाते हैं और इसी जागरूकता की देन तलाक की बढ़ती दर है. इससे परिवार टूट रहे हैं तो इसमें हर्ज की बात क्या है अगर वजहें कुछ भी हों पति पत्नी में पटरी नहीं बैठ रही है तो वे क्यों परिवार और समाज को अखंडित रखने खुद खंड खंड घुटन भरी ज़िंदगी जिए. वे क्यों न तलाक लेकर अपनी मर्जी से आजादी की ज़िंदगी जिए.
वैवाहिक जीवन का तनाव झेल रहे या फिर तलाक के मुकदमे में पेशियां कर रहे पति और खासतौर से पत्नी ही बेहतर बता सकते हैं कि इस हालत की वजह कोई शिक्षा या संपन्नता नहीं बल्कि उनके विचारों का न मिलना है. तलाक की वजह उनका अहंकार नहीं बल्कि स्वाभिमान है और यह निहायत ही व्यक्तिगत बात है. आप इस पर किसी धर्म या समाज की एकजुटता के नाम पर उंगुली उठाने का अधिकार नहीं रखते.
आप तो क्या कोई और भी यह अधिकार नहीं रखता कि वह आर्थिक आधार पर समाज को सम्पन्न और निर्धन कहते उसका वर्गीकरण तलाक के मद्देनजर करे. शायद मोहन भागवत नहीं जानते या जानबूझकर इस हकीकत को छुपाना चाहते हैं कि तलाक हर वर्ग में हो रहे हैं और अशिक्षित समाज भी इससे अछूता नहीं है जो पीपल के पेड़ के नीचे लगने बाली पंचायत में तलाक ले लेता है. अब इस वर्ग की गिनती मानव मात्र में या हिन्दू समाज में की जानी चाहिए या नहीं यह भी मोहन भागवत जैसे चिंतक और दार्शनिक स्पष्ट कर देते तो समाज उनसे उपकृत ही होता क्योंकि इस तबके में दलित आदिवासी और अशिक्षित गरीब पिछड़े ही आते हैं जिनके हिन्दू होने न होने को लेकर आए दिन बबाल मचता रहता है.
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आरएसएस क्यों स्त्री विरोधी संगठन माना जाता है यह उसके मुखिया ने स्पष्ट कर दिया है कि उससे यह स्थिति सहन नहीं हो रही कि महिलाएं तलाक लेने की जुर्रत करने लगीं हैं वे पुरुष की गुलामी ढोने से इंकार कर रही हैं वे अपने मुताबिक जीने लगी हैं और अभी यह देश में शुरुआती दौर में है. जब महिला स्वतंत्रता के आगाज पर ही इतनी तिलमिलाहट है तो अंजाम पर कैसी होगी इसका सहज अंदाजा सोनम कपूर और मिनी माथुर जैसी अभिनेत्रियों की प्रतिक्रियाओं से लगाया जा सकता है.
रही बात 2 हजार साल के पहले के स्वर्णिम युग की तो उसे समझने सीता त्याग का प्रचलित उदाहरण ही पर्याप्त है जिसके तहत अपनी प्रतिष्ठा के लिए मर्यादा पुरषोत्तम कहे जाने बाले राम ने बेरहमी से चरित्र शंका के चलते लंका मे रही सीता को अग्नि परीक्षा देने मजबूर कर दिया था.
इस प्रसंग पर पोंगा पंथी हिंदूवादियो पर तरस ही आता है जब वे इसे भी तरह तरह के किस्से कहानी गढ़ते लीला बताते हैं इतना ही नहीं एक मंचीय कवि कुमार विश्वास (शर्मा) जो राम कथा बांचकर भी पैसा कमाते हैं यह हास्यास्पद दलील देकर राम का बचाव करने की असफल कोशिश करने से नहीं चूकते कि बाल्मीकि रामायण में तो उत्तरकाण्ड था ही नहीं यह तो भगवान की छवि खराब करने बाद में शरारती और षड्यंत्रकारियों ने रामायण में जोड़ा. ये लोग कौन थे यह इस कवि को नहीं मालूम और न ही वह यह कह पाते कि दुर्भावनापूर्ण मंशा से जोड़े गए उत्तरकाण्ड को रामायण से अलग कर या फाड़ कर फेक दिया जाना चाहिए .
मुद्दे की बात बढ़ती तलाक दर है तो उसका स्वागत यह कहते किया जाना चाहिए कि लोग जागरूक हो रहे हैं तलाक उनका संवैधानिक अधिकार है लेकिन अगर किसी को इससे समाज टूटता लगता है तो तलाक कानून को खत्म कर फिर से खासतौर से औरतों की आजादी छीन लेनी चाहिए फिर न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी.
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