कोरोना वायरस का कहर देश पर ही नहीं, पूरी दुनिया पर भारी पड़ रहा है. चीन से शुरू हुआ चमगादड़ों और सांपों से उत्पन्न यह वायरस अभी तक हर चुनौती का मुकाबला कर रहा है. और छूत की बीमारी होने से इस का असर कब, किस से, किसे हो जाए, पता नहीं. दुनियाभर के भीड़भाड़ के कार्यक्रम टाल दिए गए हैं. इटली तो तकरीबन पूरा बंद हो गया. चीन, जहां से यह शुरू हुआ, बेहद एहतियात बरत रहा है. भारत में भी इस का डर फैला हुआ है. इस बार होली देशभर में फीकी रही.
प्रकृति का कहर कब, कहां टूट पड़े, यह पहले से जानना असंभव है. हालांकि, मानव बुद्धि और तकनीक इतनी विकसित हो चुकी है कि सब को भरोसा है कि सालभर में इस वायरस की वैक्सीन बना ही ली जाएगी. हर देश ने इस के शोध के लिए खजाने खोल दिए हैं क्योंकि जान है तो जहान है.
भारत में शोध पर तो ज्यादा खर्च नहीं हो पा रहा पर जो भी उपाय उपलब्ध हैं, उन का प्रयोग इस के फैलाव को रोकने के लिए तो करने ही होंगे. घनी आबादी वाले शहरों में यह फैलने लगा, तो अंधभक्ति व सांप्रदायिक वायरस से भी ज्यादा खतरनाक साबित होगा. आज हमारे यहां अंधभक्ति, खासतौर से सांप्रदायिक अंधभक्ति, जानें ले रही है. पर कोरोना वायरस फैल गया तो हमारी गंदगी, लापरवाही, साधनों के अभाव में यह बुरी तरह फैलेगा और गरीबअमीर, हिंदूमुसलिम, भाजपाईकांग्रेसी सब को बराबर का डसेगा.
ये भी पढ़ें-#coronavirus: कोरोना ने मचाई दुनिया में हाहाकार
हमारे यहां अनुशासन की बेहद कमी है. हम वायरस को गंभीरता से नहीं लेंगे. देश की 80-90 फीसदी जनता अनपढ़ या अनपढ़ों के बराबर ही है जो वायरस के फैलने पर जो सावधानियां जरूरी हैं उन्हें न अपना कर टोनेटोटकों को अपनाना ज्यादा अच्छा समझेगी. जब यूरोप, अमेरिका में वायरस से बचने के लिए चर्चों में प्रार्थना करने का सहारा लिया जा सकता है तो यहां तो प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से ले कर अस्पतालों के डाक्टर तक पूजापाठ में ही तो शरण ले लेते हैं. ये सब वायरस के कहर को समझेेंगे नहीं. 10-20 लाख लोग मर जाएं, तो क्या फर्क पड़ता है अगर वे दूसरे धर्म, जाति, महल्ले, शहर या पार्टी के हों. लेकिन अगर खुद पर मौत आने लगे तो इसे पिछले जन्मों का प्रताप माना जाएगा.
कोरोना वायरस भीड़ वाली जगह में आसानी से फैलता है. पर हमारे यहां तो यह धारणा है कि कुंभ, आरतियों, तीर्थों में यह नहीं फैलेगा.
इस बारे में भ्रांतियां अंधभक्तों में जितनी जल्दी फैलती हैं उस का जवाब नहीं. मैक्सिको के राष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें तो गले मिल कर अभिवादन करना ही होगा, इस से कुछ नहीं होगा, गौड विल सेव. अमेरिकी राष्ट्रपति आधे खब्ती आधे भक्त डोनाल्ड ट्रंप भी इसी गिनती में आते हैं. उन का अमेरिकियों को राष्ट्रव्यापी संबोधन कुछ ऐसा ही प्रयास था, विषय की गंभीरता से कहीं परे. कनाडा के प्रधानमंत्री को कोरोना का इन्फैक्शन हो गया है. ब्राजील के राष्ट्रपति को होने का डर है.
हमारे देश भारत में झुग्गियों में चिपक कर सोना होता है, ट्रेनोंबसों में चिपक कर सफर करना होता है, यहां अगर यह फैला तो बचाव का कोई उपाय नहीं है.
ये भी पढें-दंगा और राजनीति
खाली होता खजाना
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आते ही पंडित अरुण जेटली ने जिस तरह से भारत को सब से तेज गति से बढ़ता देश घोषित किया था वह भारत का विश्वगुरु होने जैसा धोखा देने वाला झूठा दावा था. अरुण जेटली ने संपत्ति मंत्री की हैसियत से अपने कार्यकाल के दौरान बारबार पौराणिक आदेश देने शुरू किए कि देश के नागरिकों को अपने पास चलायमान संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. सभी पैसा राज्य यानी सरकार के बैकों में रखा जाना चाहिए. यह राजा की इच्छा है कि वह इस पैसे का क्या करे. जो सोच रहे थे कि उन का बैंकों के पास रखा पैसा सुरक्षित है, वे मोह के बंधन में थे. पर हां, मोह से मुक्ति दिलाने के कई कदम उठाए जा चुके हैं.
उठाए गए कदमों में नोटबंदी एक था. इस में गरीब और अमीर सभी को मजबूर किया गया कि जितना नकद धन घर में पाप के रूप में है, उसे वे राजा के सरकारी बैंकों में ‘लगभग’ दान के रूप में जमा करा दें. अपने पैसे जमा कराने पर कोई रुकावट नहीं थी. हां, मूर्ति पर चढ़ाए धन और मिष्ठान्न में से भोग के बाद कितना वापस मिलेगा, यह चक्रवर्ती राजा ने ऋषियोंमुनियों द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार ही किया.
नया पुराण लिखा गया और भारतीय रिजर्व बैंक समयसमय पर उस पुराण की व्याख्या भक्तों को संपत्तिविहीन करने के लिए करता गया.
बैंकों में गए इस पैसे का क्या हुआ, अब यह स्पष्ट हो रहा है. संपत्ति मंत्री पंडित अरुण जेटली ने जनता के नाम से संचित धन को श्रेष्ठियों व ज्येष्ठियों को बांट दिया कि वे इस से बड़ेबड़े मंदिर बनवाएं, और राष्ट्र व धर्मसुरक्षा का प्रबंध करें. इस संपत्ति का कितना अंश पापिन जनता को मिलेगा, यह उन के साथ हुए अनावश्यक शास्त्रविरोधी अनुबंधों से तय नहीं होगा, बल्कि नए पुराण के रचयिता भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तय होगा.
बैंकों के खजाने खाली हो गए और देश के गिनेचुने ज्योषियों, श्रेष्ठियों, जिन में अधिकांश पावनभूमि गुजरात से संबंधित थे, को भरपूर संपत्ति मिली. जनता को अपने परिश्रम से बनाए गए पैसे को पाने के लिए अब फिर लाइनों में लगना पड़ रहा है. हाल में यस बैंक का संपत्तिमुक्ति कार्यक्रम चला है.
यह शुरुआत है. धीरेधीरे पूरे देशवासियों से कंदमूल और बक्कल
वस्त्र पहनने को कहा जाए, तो बड़ी बात नहीं. दिल्ली में जिस तरह पहले विश्वविद्यालयों, फिर विद्यार्थियों के साथ हिंसा, हत्या व अग्नि से भस्म करने का प्रयोजन किया गया और जिस तरह ज्ञानियों व पंडितों से भरे निदेशक मंडलों ने विघ्नों के बावजूद इस सब का अनुमोदन किया, उस से स्पष्ट है कि पौराणिक क्रांति सफल ही होगी और धन का मोह भी समाप्त होगा.
कांग्रेस में नेतृत्व संकट
कांग्रेस में छोटे से भूचाल महसूस किए जा रहे हैं. कांग्रेस के पिछले अध्यक्ष, नेहरू खानदान के वारिस राहुल गांधी एक तरह से अपनी पार्टी को चलाने की जिम्मेदारी उठाने के लायक साबित नहीं कर पाए हैं. कांग्रेस की बागडोर आजकल बीमार, वृद्ध और कमजोर होती सोनिया गांधी के हाथों में है, जो किसी तरह से जिम्मेदारी से छुटकारा चाहती हैं.
कांग्रेस अभी एक मरी पार्टी नहीं. भाजपा के अलावा कांग्रेस ही है जो देश के कोनेकोने में मौजूद है.
कांग्रेस आज पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अकेले राज कर रही है. कर्नाटक, केरल, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा व कई उत्तरपूर्व राज्यों में अकेली विपक्षी पार्टी है. महाराष्ट्र व झारखंड में सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है. लोकसभा व राज्यसभा में वह सब से बड़ी विपक्षी पार्टी है. उस के काफी विधायक देशभर में हैं. जिला परिषदों, नगरपालिकाओं, पंचायतों में उस की मौजूदगी है. कांग्रेस में अगर कमी है तो उस के केंद्रीय नेतृत्व में.
भारतीय जनता पार्टी का उफान अब थम गया है. उस ने देश की अर्थव्यवस्था का बंटाधार तो कर दिया ही है, उस के नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी की चर्चा के चलते उस के खिलाफ मुसलिमों, दलितों व पिछड़ों ने मोरचा खोल दिया है. मई 2019 में भारी जीत के बाद भाजपा एकएक कर के राज्यों के चुनाव हारती नजर आ रही है.
कांग्रेस की दिक्कत यह है कि सोनिया गांधी के बाद उस के दिल्ली के नेताओं में शशि थरूर, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, मनीष तिवारी जैसे अंग्रेजीदां नेता ही बचे हैं. कोई भी सड़कों और गलियों में खाक छानने वाला नहीं है. कोई कन्हैया कुमार नहीं है. कोई जगन रेड्डी नहीं है. कोई हार्दिक पटेल नहीं है. जो हैं उन्हें दिल्ली में पार्टी के कर्णधार घास नहीं डालते.
प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी की तरह हिचकिचाती नेता हैं जो सप्ताह में एक बार से ज्यादा मुंह नहीं खोलतीं. उन पर पति रौबर्ट वाड्रा पर चल रहे मामलों का गहरा काला साया भी पड़ा हुआ है.
कांग्रेस को नेता चाहिए, राजा चाहिए. फौज तैयार है पर कमांडर नहीं है. कांग्रेस की हालत 2014 से पहले वाली भाजपा जैसी है जब भाजपा लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज जैसे कमजोर हाथों में थी. नरेंद्र मोदी ने धुआंधार भाषणों से बाजी पलट दी.
अब कांग्रेस को नेता इंपोर्ट करना पड़ेगा जैसे भाजपा ने 2014 में गुजरात से किया था. युवाओं में से किसी को चुनना होगा. राहुल और प्रियंका को अपनी खातिर, पार्टी की खातिर व देश की खातिर कोई कौर्पाेरेट रैवोल्यूशन करनी होगी. कांग्रेसियों में तो कोई मिलने वाला नहीं है, यह पक्का है.
ब्रिटेन से सबक
भारतीय मूल के 3 हिंदू आजकल ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में शामिल हैं. रिषी सुनक 39 वर्षीय बैंकर हैं जिन के पुरखे पंजाब से अफ्रीका गए थे और फिर ब्रिटेन पहुंच गए थे. उन्होंने इनफोसिस के नारायण मूर्ति की बेटी से प्रेम विवाह किया है. 47 वर्षीया प्रीति पटेल का परिवार भी अफ्रीका होते हुए ब्रिटेन पहुंचा था. आलोक शर्मा भी मंत्रिमंडल में हैं, जो आगरा से हैं.
रिषी सुनक वित्त मंत्री हैं, प्रीति पटेल गृह मंत्री और आलोक शर्मा व्यापार व एनर्जी मंत्री. क्या ये घुसपैठिए हैं? ये विधर्मी क्या इंग्लैंड की आस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं? क्या इन की मंत्रिमंडल में मौजूदगी तुष्टीकरण की नीति है?
भारत में जो शोर रोज सुनाई देता है उस से तो ऐसा लगता है कि जो भी देश के बहुसंख्यकों में शामिल नहीं, वह गद्दार है और गोली का हकदार है. वह अपने देशप्रेम को हर रोज साबित करे और देश की ‘कृपा’ पर जीने का अभ्यास कर ले. जो हिंदू नहीं, वह पक्का पाकिस्तानी है, दुश्मन है, इस तरह के नारे खुलेआम सांसदोंमंत्रियों ने दिल्ली के चुनावी भाषणों में दिए थे. गृह मंत्री ने इनकार कर दिया कि इन नारों से
खास नुकसान हुआ होगा और ऐसे सांसदोंमंत्रियों का मुंह बंद करने की कोशिश तो की ही नहीं गई. जो पहले ऐसे शब्द बोलते रहे, 5 से 25 का जमाजोड़ समझाते रहे, वे देश में ऊंचे नहीं, बहुत ऊंचे पदों पर हैं. यदि यही भावना ब्रिटेन में हो, तो क्या भारतीय मूल के 3-3 हिंदू वहां के मंत्रिमंडल में होते?
अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, स्कैंडिनेवियाई देश अपने देशों में मुसलिमों को पनाह लेने दे रहे हैं. वे जानते हैं कि इन में से कुछ उद्दंड होंगे, कुछ कट्टरपंथी होंगे पर ज्यादातर उन के देशों की अर्थव्यवस्था को मजबूती देंगे. वे वहां की लेबर की बढ़ती गंभीर कमी को पूरा करेंगे. उन्हें वोट का हक भी दे दिया जाता है बिना चिंता किए कि गोरों की गिनती कम हो जाएगी.
हमारे देश में मौजूदा केंद्रीय सरकार के अधीन जिस तरह का अलगाव वाला रवैया अपनाया जा रहा है उस का नतीजा दिखना शुरू हो गया है. देश की आर्थिक प्रगति थम गई है. क्या हमारे शासक गुरु और धर्मगुरु यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया में बढ़ती राजनीतिक व आर्थिक हैसियत से कुछ सीखेंगे? देश की तरक्की के लिए क्या अलगाव का रवैया छोड़ सब का साथ ले कर सब का विकास करने की ओर कदम बढ़ाएंगे?