शंखधर ने बीते एक हफ्ते से घरवालों से बातचीत बंद कर रखी है. उसके चेहरे पर उदासी की गहरी छाया हर वक़्त नज़र आती है. लॉक डाउन के दूसरे महीने के बाद से ही वह हर समय गुमसुम सा दिख रहा है. बस खिड़की पर बैठा सामने खाली पड़ी सड़क को ताकता रहता है. लॉक डाउन में नौकरी गवां चुके शंखधर को बस एक चिंता खाये जा रही है कि पता नहीं दूसरी नौकरी कब और कैसे मिलेगी. पिछली नौकरी बड़ी जोर-जुगत लगा कर पाई थी उसने. जिस बन्दे ने लगवाई थी उसको भी काफी कमीशन दिया था. अब तो खाने के पैसे भी धीरे धीरे ख़त्म हो रहे हैं. सर पर कर्जा अलग चढ़ा है. शंखधर की पत्नी और माँ लाख दिलासा दें कि लॉक डाउन ख़तम होने पर सब ठीक हो जाएगा, मगर शंखधर को मालूम है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा. कैसे चलाएगा वो पांच लोगों का परिवार? कहाँ से लाएगा खाने-पहनने को? दोनों बच्चों की स्कूल की फीस, घर का किराया, बाइक की किश्त सब तो देनी है. सर पर पांच लाख का क़र्ज़ भी है जो पिछले साल माँ के लिवर के ऑपरेशन के लिए राम दयाल से लिया था. उसकी किश्त कैसे चुकाएगा?

शंखधर गहरे अवसाद में जा रहा है, यह अवसाद उसको आत्महत्या के लिए उकसा रहा है और किसी को इसका पता नहीं है. सब यही सोच रहे हैं कि वह सिर्फ चिंताग्रस्त है, लॉक डाउन ख़त्म होने पर सब ठीक हो जाएगा. शंखधर जैसे बहुतेरे लोग हैं जो लॉक डाउन के दौरान बेरोज़गार हो चुके हैं और पैसे की किल्लत और भविष्य की चिंता में गहरे अवसाद में उतारते जा रहे हैं.

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