दुनिया के कुल ग्वार उत्पादन का 80 फीसदी भारत में होता है. ग्वार एक प्राचीन व बहुद्देशीय दलहनी फसल है, जो मुख्य रूप से शुष्क व अर्धशुष्क इलाकों में उगाई जाती है. ग्वार गरम मौसम की फसल है. इसे अकसर ज्वार या बाजरे के साथ मिला कर बोया जाता है. भारत में पारंपरिक रूप से ग्वार की खेती राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक व महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में की जाती है.
वैसे तो अलगअलग जगहों पर ग्वार को अलगअलग नामों से जाना जाता है. इसे मध्य प्रदेश राज्य में चतरफली के नाम से जाना जाता है, वहीं उत्तर प्रदेश में इसे ग्वार की फली के रूप में जानते हैं. ग्वार का ज्यादातर इस्तेमाल जानवरों के चारे के रूप में होता है. पशुओं को ग्वार खिलाने से उन में ताकत आती है
और दुधारू पशुओं में दूध देने की कूवत बढ़ती है.
ग्वार से गोंद भी बनाया जाता है. इस गोंद का इस्तेमाल अनेक चीजों को बनाने में होता है. ग्वार की फली की सब्जी बनाई जाती है. साथ ही, इसे दूसरी सब्जियों के साथ मिला कर भी बनाया जाता है, जैसे आलू के साथ, दाल या सूप बनाने में, पुलाव वगैरह में भी इसे डाल कर स्वादिष्ठ बनाया जा सकता है.ग्वार फली स्वाद में मीठी व फीकी हो सकती है, पर यह पेट में देर से पचती है, क्योंकि यह शीतल प्रकृति की और ठंडक देने वाली है, इसलिए इस के ज्यादा सेवन से कफ की शिकायत हो सकती है, लेकिन ग्वार शुष्क इलाकोेंके लिए एक पौष्टिक भोजन है.
ग्वार की फली में कई पौष्टिक तत्त्व पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं. यह भोजन में अरुचि को दूर कर के भूख को बढ़ाने वाली होती है. इस के सेवन से मांसपेशियां मजबूत बनती हैं. ग्वार फली में प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है.
मधुमेह के मरीजों के लिए ग्वार की फली को किसी भी रूप में लेना फायदेमंद है. यह शुगर लैवल को नियंत्रित करती है. साथ ही, यह पित्त को खत्म करने वाली है. ग्वार फली की सब्जी खाने से रतौंधी की बीमारी दूर हो जाती है. ग्वार फली पीस कर पानी के साथ मिला कर मोच या चोट वाली जगह पर इस का लेप लगाने से आराम मिलता है.
पौध के बीज में ग्लैक्टोमेनन नामक गोंद होता है. इस गोंद का इस्तेमाल दूध से बनी चीजें जैसे आइसक्रीम, पनीर वगैरह में किया जाता है. इस के बीजों से बनाया जाने वाला पेस्ट भोजन, औषधीय उपयोग के साथ ही अनेक उद्योगों में भी काम आता है.
ग्वार की नई प्रजाति
पूसा नवबहार : यह प्रजाति आईएआरआई द्वारा पूसा सदाबहार और पूसा मौसमी के संकर से निकाली गई है. फली15 सैंटीमीटर लंबी, हरी, मुलायम, पौधे में कम टहनियां होती हैं. खरीफ और गरमी के मौसम
के लिए यह प्रजाति उपयुक्त है. यह लोजिंग और बैक्टीरियल ब्लाइट से जल्दी प्रभावित नहीं होती. उपज तकरीबन 12 टन प्रति हेक्टेयर है.
मिट्टी : ऐसी उपजाऊ मिट्टी, जिस का पीएच मान साढे़ 7 से 8 हो, अच्छी मानी गई है. साथ ही, पानी निकासी का बंदोबस्त बेहतर हो.जलवायु : इस प्रजाति की देर से बोई गई फसल भी अच्छी होती है. यहां तक कि यह कहींकहीं बारिश में भी पैदा हो जाती है.
खेत की तैयारी : 2 या 3 जुताई गहरी करें या 2 जुताई हैरो से करने के बाद पाटा चला कर समतल कर लें.
बोने का समयमार्च के महीने में चारे की फसल लेने के लिए बोआई करें, वहीं बीज की फसल के लिए जुलाई का महीना मुफीद है.
बीज की मात्रा : प्रति हेक्टेयर  10-15 किलोग्राम बीज की फसल के लिए, वहीं दूसरी ओर 35-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर चारा फसल के लिए मुफीद है.
बोआई और दूरी : 1 किलोग्राम बीज को पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें. इस के बाद बीज को 5-7 सैंटीमीटर गहरा और 45 से 50 सैंटीमीटर लाइन में बोना चाहिए, वहीं झाडि़यों वाली फसल के लिए और 30 सैंटीमीटर तना वाली जातियों के लिए बोना सही रहता है.
खाद : 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस फसल बोने से पहले मिट्टी में डालें.
सिंचाई : यह बरसात के मौसम में लगाते हैं. बारिश न होने पर 1-2 सिंचाई कर देनी चाहिए. गरमियों में 2-3 सिंचाई देनी चाहिए. खरीफ मौसम में पानी निकासी का बंदोबस्त सही होना चाहिए, क्योंकि ग्वार पानी बरदाश्त नहीं कर सकता है. ग्वार में फूल आने से पहले500 पीपीएम साइकोसील का छिड़काव करने से उपज में बढ़ोतरी होती है.
खरपतवार की रोकथाम : 1 या 2 गुड़ाई शुरू के 25-30 दिन बोने के बाद ही करनी चाहिए. बीज की फसल के लिए बासालीन ढाई लिटर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए.बीमारी और कीट  बैक्टीरियल ब्लाइट : इस बीमारी में धब्बे और ब्लाइट साथसाथ होती है, खासकर बरसात में हवा में ज्यादा नमी के समय और ज्यादा गरमी में हमला जल्दी होता है.
यह बीमारी बीज से होती है. बीज को स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.02 फीसदी घोल के साथ उपचारित करना चाहिए. साथ ही, प्रतिरोधक जातियां लगानी चाहिए. सडे़ पौधे दिखने पर हटा देने चाहिए.आल्टरनेरिया लीफ स्पौट : इस बीमारी में पत्तियों के कोने पर गोलाकार धब्बे 2 से10 मिलीमीटर आकार के होते हैं. मैंकोजेब या जिनेब 0.25 फीसदी घोल के साथ स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.02 फीसदी घोल का मिश्रण बोने के 5 हफ्ते बाद छिड़काव करने से रोकथाम की जा सकती है.
पाउडरी मिल्ड्यू : इस बीमारी में ग्वार की पत्तियों पर असर होता है. साथ ही, सफेद माइसिलिया के बिंदुनुमा धब्बे फलों पर होते हैं. बेनोमील 0.2 फीसदी या डाइनोकेप 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करने से रोकथाम की जा सकती है.
ड्राई रूटराट : यह बीमारी जड़ के सड़ने के साथ शुरू होती है. बाद में तनों में भूरापन व कालापन होता है. फसल चक्र या ऐसी फसलें लगाएं, जिन पर यह बीमारी कम होती है.बीज को कार्बंडाजिम 0.2 फीसदी से उपचारित करने से कम बीमारी होती है या ट्राइकोडर्मा 2,500 ग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छनी गोबर की खाद में मिला कर मिट्टी में मिला दें.
एंथ्रेक्नोज : जब ग्वार की फसल में यह बीमारी लगती है, तो तने, पत्तियां और फलियां प्रभावित होती हैं. जो भाग प्रभावित होता है, वह भूरे रंग का हो जाता है और किनारे लाल या पीले रंग के हो जाते हैं. साथ ही, प्रभावित तने फट कर सड़ जाते हैं. फलियों पर भी छोटेछोटे काले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. इस रोग से पूरी फसल खराब हो सकती है. यह रोग ग्रसित बीज से फैलता है.
इस बीमारी की रोकथाम के लिए बोने से पहले बीजों को सेरेसान, कैप्टान या फिर थीरम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें, वहीं डाईथेन एम-45 या बाविस्टिन0.1 फीसदी का घोल बनाएं और रोग से ग्रसित पत्तियों व फलियों पर छिड़क दें. इस प्रक्रिया को 7-10 दिन के अंतराल पर फिर से करें.
जड़ गलन : जब फसल में पौधों की जड़ों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ने लगें तो समझ लें कि फसल को जड़ गलन बीमारी लग गई है. इस बीमारी के फैलने से पौधे मुरझा जाते हैं.
इस रोग से फसल को बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले वीटावैक्स 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. मई से जून माह में सिंचाई व जुताई करें. इस के बाद खेत को खुला छोड़ दें. साथ ही, फसल को खरपतवारों से रहित रखें.
मोजेक : ग्वार की फसल में मोजेक एक विषाणुजनित बीमारी है. इस में पौधे की पत्तियों पर गहरे हरे रंग के धब्बे होने लगते हैं, तो वहीं पत्तियां अंदर की तरफ सिकुड़ जाती हैं और पूरा पौधा पीला पड़ कर सड़ जाता है. इस रोग से फसल को बचाने के लिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ दें. साथ ही, कीटनाशक दवा न्यूवाक्रौन या फिर मैटासिस्टौक्स 1 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी का घोल बना कर छिड़कें.
चूर्णी फफूंद :
इस बीमारी का असर पौधे के सभी भागों पर पड़ता है. इस में पौधों की पत्तियों पर सब से पहले सफेद धब्बे पड़ते हैं, जो तने और हरी फलियों पर भी फैल जाते हैं. इस में पौधों की पत्तियां और हरे भागों पर सफेद चूर्ण जैसेधब्बे दिखाई देते हैं. इस रोग के प्रकोप से पत्तियां सड़ कर गिरने लगती हैं.इस बीमारी से फसल को बचाने के लिए पौधों की अच्छी तरह देखभाल करें. रोग दिखते ही घुलनशील गंधक की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़क दें या कैराथेन दवा की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लिटर पानी में घोल बना लें और पौधों पर छिड़क दें. इस से फसल में चूर्णी फफूंद नहीं लगेगी.
इस के अलावा फसल पर ब्लाइट रोग यानी झुलसा अंगमारी का भी हमला होता है. इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी 2 से 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर व 18 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से घोल बना कर छिड़कें, वहीं फसल पर हरा तैला यानी जैसिड, तेलीया यानी एफिड व सफेद मक्खी का प्रकोप भी देखा गया है.
रस चूसने वाले इन कीटों के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 36 एसएल 1 लिटर या एसीटामीप्रीड 150 ग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.फली बीटल (पिस्सू कीट) : इल्लियां आमतौर पर खेत में रह कर जड़ को खाती हैं. बीज पत्रों और छोटे पौधे की पत्तियों को छेद कर खाती हैं. इस से फसल की बढ़वार घट जाती है. फसल पर 5 फीसदी फौलीडाल चूर्ण 28 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए, वहीं 10 फीसदी सेविन चूर्ण का भुरकाव करने पर इस कीट से बचा जा सकता है.
खरीफ का टिड्डा : इस कीट के शिशु शुरू में कोमल छोटी पत्तियों और तनों को काट कर खाते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर पौधों की बढ़वार रुक जाती है और ग्रसित पौधों मेंछोटी फलियां लगती हैं. क्विनालफास
1.5 फीसदी चूर्ण या मिथाइल पैराथियान2 फीसदी चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें.
कटाई व धुनाई : सब्जी वाली फसल के लिए 6-7 हफ्ते में फलियां खाने योग्य हो जाती हैं. मुलायम रहते हुए ही ग्वार की फलियां तोड़ लेनी चाहिए. फलियों की पैदावार तकरीबन 8-10 टन प्रति हेक्टेयर मिलती है. दानों की फसल 90 से 100 दिन में तैयार हो जाती है. हलकी मिट्टी में फसल 10-15 दिन पहले तैयार होती है. फसल कटने पर पक्के फर्श पर फैला कर उस पर बैल या ट्रैक्टर चलाते हैं. तकरीबन 9-10 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर हासिल होता है.

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