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लॉकडाउन की त्रासदी: फिर औरैया में कुचले गए मजदूर

मजदूरों को जब शहरों में काम नही मिला तो भूख से मरने से बचने के लिए वह अपने गांव घर पहुचने के लिए चल पड़े जिससे उनका जीवन सुरक्षित रह सके. उनको यह नही पता था कि रास्ते मे मौत उनका इंतजार कर रही है. जो उनको लीलने के लिए तैयार खड़ी है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने आदेश में कहा था कि कोई भी प्रवासी मजदूर सड़क मार्ग पर साइकिल, मोटरसाइकिल और ट्रक या ऐसे किसी वाहन से यात्रा ना करे. मुख्यमंत्री ने पुलिस और प्रशासन यानि कि डीएम और एसपी को यह सुनिश्चित करने को कहा था कि इस तरह लोग सफर ना करे. पुलिस इनको रोके और इनकी देख भाल के के सरकारी बसों से इनको इन सभी के घर भेजे.

हादसों पर हादसे

मुख्यमंत्री के आदेशों का किस तरह से पालन हो रहा यह औरैया जिले में देखने को मिला. उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में 15/16 मई की रात में बड़ा सड़क हादसा हो गया. हरियाणा के फरीदाबाद से 81  मजदूरों को लेकर आ रहे  ट्राला में  डीसीएम ने टक्कर मार दी. जिंसमे 18 की मौत 25 से अधिक घायल हो गए. घायलों को जिला अस्पताल भर्ती किया गया. गंभीर घायलों को कानपुर के हैलट होस्पिटल रेफर किया गया. यह हादसा कोतवाली औरैया के चिहुली  इलाके में हाइवे पर हुआ.  यह मजदूर फरीदाबाद से गोरखपुर जा रहे थे. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के ही रहने वाले है.

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असल मे मजदूरों के दुःखों की शुरुआत का अंत होता नहीं दिख रहा है. 22 मार्च से 16 मई के बीच 56 दिन बीत गए है. तमाम सारी योजनाओं और घोषणाओं के बाद भी मजदूरों की हालत जस की तस है.  उनका सड़क मार्ग से घर वापसी का सिलसिला जारी है. इससे पता चलता है कि सरकार की योजनाएं पूरी तरह से खोखली है.

भारी पड़ रहा रोजीरोजगर का संकट

सभी मजदूरों का एक ही दर्द है. शहर में कमाई का कोई साधन नही था. वँहा रहने का किराया और खाने का इंतजाम करना मुश्किल काम था. सरकार कोई इंतजाम नहीं कर रही थी ऐसे में अपने पर भरोसा करके जो रास्ता सुझा उसी पर चल दिये. पंकज नामक मजदूर का कहना है कि सड़क पर अपने जैसे दूसरे साथियों को चलता देख हौसला बद्व गया और सफर शुरू हो गया.

किसी भी शहर की कोई सड़क ऐसी नही होगी जिस पर कोई मजदूर अपने परिवार और बच्चो के साथ अपने घर पहुचने की जद्दोजहद करता ना दिख रहा हो. कुछ लोग रास्तों में ही हादसों का शिकार होते जा रहे है. सड़को पर मरने वालों की संख्या का कोई सटीक आंकड़ा तक सरकार के पास नही है.

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औरैया में हुए हादसे के बाद पुलिस इन मजदूरों और गरीबो को सड़कों पर चलने से रोकेगी. मजबूरी यह है कि सरकार के पास इन गरीब और मजदूरों को मदद करने के नाम पर कोई प्लान नही है. अब वह जबरन इनको सड़क पर चलने से रोकना चाहती है जिससे इस तरह की दुर्घटनाएं रोकी जा सके.

लॉकडाउन में बेरोजगारों की आत्महत्या और सरकार की चालाकी

उत्तरप्रदेश के बांदा जिले के लोहारी गाँव का 25 वर्षीय सूरज वर्मा आगरा की जिस प्राइवेट कंपनी में काम करता था वह लॉकडाउन के चलते बंद हो गई तो वह परिवार सहित अपने गाँव लोहारी वापस आ गया. लोहारी में भी उसे कोई काम नहीं मिला तो उसने 14 मई को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. सूरज की शादी कोई सवा साल पहले कोर्रम गाँव की रजनी से हुई थी इन दोनों को इस साल के शुरुआत में ही एक बेटी हुई थी जो 8 दिन बाद ही गुजर गई थी लेकिन लॉकडाउन इनकी ज़िंदगी में उससे भी बड़ा कहर बनकर आया.

सूरज के पिता रामपाल वर्मा ने पुलिस को दिये अपने बयान में माना भी कि गाँव वापस आने पर भी सूरज को कहीं काम नहीं मिला था जिससे वह तनाव और परेशानी मे रहने लगा था  यह पूरा परिवार ही मजदूरी करता है हालांकि इस परिवार के पास चार बीघा जमीन भी है लेकिन जाहिर है उससे पूरे परिवार की गुजर नहीं हो सकती . सूरज ने लोहारी आकर काम के लिए हाथ पाँव मारे लेकिन वह नहीं मिला तो उसने रजनी की साड़ी का फंदा बनाकर घर के खपरेल से लटककर जान दे दी. यह सूरज के यूं मरने की उम्र नहीं थी देखा जाये तो उसकी ज़िंदगी की तो अभी कायदे से शुरुआत ही नहीं हुई थी.

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लॉकडाउन से पैदा हो रही बेरोजगारी से ख़ुदकुशी का यह पहला या आखिरी मामला नहीं था बल्कि यह अब रोज रोज की बात हो चली है. 8 मई को मेरठ के नकारजान मोहल्ले के नईम ने भी सूरज की तरह फांसी लगाकर जान दे दी थी. मजदूरी कर पेट पालने बाला नईम भी लॉकडाउन के बाद काम न मिलने से परेशान चल रहा था. ख़ुदकुशी करने से पहले उसने अपनी माँ से कुछ पैसे मांगे थे लेकिन माँ की जमापूंजी भी खत्म हो गई थी इसलिए उन्होने भी हाथ खड़े कर दिये तो नईम को लगा कि अब जीना बेकार है सो उसने मौत को गले लगा लेना बेहतर समझा.

लॉकडाउन के तीसरे चरण में ही 10 मई को लुधियाना की राजीव गांधी कालोनी में रहने बाले 37 वर्षीय प्रवासी मजदूर अजित कुमार ने भी आत्महत्या कर ली थी . पुलिस को दिये अपने बयान में अजित कुमार की पत्नी ने बताया था कि घर में खाने को अन्न का एक दाना भी नहीं बचा था और पूरा परिवार भूखा था पति ने प्रशासन के आगे हाथ फैलाये लेकिन उन्हें मुफ्त का राशन देने से इंकार कर दिया गया. साफ दिख रहा है कि अजित अपने परिवार की भूख से घबरा गया था

जमशेदपुर के 28 वर्षीय अमित गुप्ता ने भी 21 अप्रेल को लॉकडाउन के बाद की बेरोजगारी से घबराकर आत्महत्या कर ली थी अमित एक मोबाइल कंपनी में पैसों के कलेक्शन का काम करता था ठीक इसी दिन खूंटाडीह मुखी बस्ती के 38 वर्षीय दीपक मुखी ने भी आत्महत्या कर ली थी. उसकी पत्नी ममता भी यहाँ वहाँ काम करती है लेकिन दीपक को काम नहीं मिल रहा था.

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लॉकडाउन के बाद उपजी बेरोजगारी से आत्महत्या करने बालों की कहानियाँ बेहद मार्मिक हैं जो कई सवाल भी खड़े करती हैं. पेशे से पेंटर 30 वर्षीय मुकेश कुमार बिहार के बाराँ गाँव का रहने बाला था जो गुड़गांव के सरस्वती कुंज की झुग्गी बस्ती में तकरीबन 10 साल से रह रहा था . घर में पत्नी पूनम के अलावा चार बच्चे भी थे . पूनम के मुताबिक इस साल के शुरू से ही काम और पैसों की तंगी थी लेकिन लॉकडाउन के बाद तो हालत बिलकुल बिगड़ गई थी मुकेश बतौर दिहाड़ी मजदूर काम करने लगा था पर मजदूरी भी मिलना बंद हो गई जिससे फाँकों की नौबत आ गई . मुकेश को उम्मीद थी कि 14 अप्रेल को लॉकडाउन खुलेगा तो काम मिलने लगेगा लेकिन लॉकडाउन बढ़ गया तो मुकेश तनाव में रहने लगा.

कुछ और न सूझा तो मुकेश ने अपना मोबाइल फोन 2500 रु में बेच दिया और उस पैसे से गर्मी में झुलसते बच्चों को पंखा और घर का राशन ले आया और फिर आत्महत्या कर ली क्योंकि आइंदा के लिए उसके पास बेचने को कुछ नहीं बचा था और काम मिलने की तो कोई उम्मीद ही नहीं बची थी .

सरकार है जिम्मेदार –

अजित, सूरज, दीपक, नईम, मुकेश और अमित तो चंद उदाहरण भर हैं नहीं तो हकीकत में लॉकडाउन के बाद की बेरोजगारी के चलते हजारो मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला थमेगा यह कहने की कोई वजह नहीं . खासतौर से युवाओं में रोजगार को लेकर जो हताशा और मायूसी पसर रही है वह कोरोना से कहीं ज्यादा भयावह है जिसकी तरफ से सरकार आंखे मूँदे बैठी है. लाखों करोड़ों के राहत पेकेज बेरोजगारों में उम्मीद नहीं जगा पा रहे हैं यह सरकार की नाकामी नहीं तो और क्या है. लॉकडाउन के बाद कितने बेरोजगारों ने ख़ुदकुशी की इसके  आंकड़े जब आएंगे तब आएंगे लेकिन यह बात आईने की तरह साफ है कि कोरोना से ज्यादा मौतें बेरोजगारी और भूख से हो रहीं हैं. घर वापसी के दौरान ही हजारों की तादाद में मजदूर रास्ते में दुर्घटनाओं और भूख प्यास के अलावा बीमारियों से दम तोड़ रहे हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो यानि एनसीआरबी के मुताबिक साल 2018 में हर दिन 71 बेरोजगारों ने आत्महत्या की थी यानि हर दो घंटे में तीन बेरोजगारों ने ख़ुदकुशी की थी.  अब लॉकडाउन के बाद बढ़ी बेरोजगारी ने इसमें कितना इजाफा किया इसके आंकड़े दो साल बाद आएंगे जो इनसे कहीं ज्यादा भयावह और दिल दहलाने बाले होंगे क्योंकि लॉकडाउन में यह याद रखना चाहिए कि हो उल्टा रहा है नए बेरोजगारों को तो रोजगार मिल ही नहीं मिल रहा लेकिन जिनके पास रोजगार था वह उनसे छिन रहा है.

सोचा और पूछा जाना लाजिमी और जरूरी है कि सरकार क्या कर रही है उसकी लाखों करोड़ों की घोषणाओं से बेरोजगारों को उम्मीद क्यों नहीं बंध रही. जाहिर है सरकार गरीब तबके का भरोसा खो चुकी है क्योंकि वह ऊटपटाँग बातें कर रही है मसलन गर्व करो , हिम्मत रखो ,दुनिया बड़ी उम्मीदों से हमारी तरफ देख रही है, हमारी संस्कृति बड़ी पुरानी और वैज्ञानिक है हमारे पूर्वज बड़े महान और बुद्धिमान थे, हम आत्मनिर्भर बन रहे हैं बगैरह बगैरह …..

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बातों के इन बताशों और पटाखों से रोजगार पैदा नहीं होने बाले और न ही भूखों का पेट भरने बाला. ये गरीब भूखे किस बात पर गर्व करें यह सरकार नहीं बता पा रही. जो संस्कृति रोटी न दे पाये उसका तो गंगा जी में पिंडदान ही कर देना चाहिए रही बात उम्मीद और आस की तो वह भी बेकार का झुनझुना साबित हो रही है. इस भगवा सरकार से यह उम्मीद क्या खाकर की जाये जो इस आपदा में भी चालाकी दिखाते सरकारी पैसा भी पैसे बालों को ही दे रही है, मजदूरों को कानूनी तौर पर पैसे बालों का गुलाम बना रही है और राग गरीबों के भले का अलाप रही है.

लॉकडाउन के दौरान कितने करोड़ लोग बेरोजगार हुये हैं यह आंकड़ा वह छिपा रही है पर यह जरूर गिनाने से नहीं चूक रही कि इतने करोड़ लोगों को मुफ्त का राशन दिया जाएगा इतना और उतना पैसा गरीब जरूरतमंदों में बांटा जाएगा.

यह सफ़ेद झूठ और फरेब नहीं तो क्या है, अजित कुमार जैसे गरीब मजदूरों को मुफ्त का राशन मिल रहा होता तो वे आत्महत्या क्यों करते, लोहारी में रोजगार होता तो सूरज क्यों पत्नी की साड़ी का फंदा बनाकर लटक जाता, नईम की जेब में तो फूटी कोडी भी नहीं बची थी,  मुकेश को अगर काम की आस भी होती तो वह जिंदा रहता लेकिन उसे समझ आ गया था कि इस देश में भाषणवाजी होती है. अमित ने देख लिया था कि बाजार से पैसा खत्म हो चला है और जब वह कंपनी को पैसा इकट्ठा कर नहीं दे पाएगा तो कंपनी कहाँ से उसे पगार देगी.

कोफ्त तो तब ज्यादा होती है जब सरकार यूं बातें करती है मानों घर घर में पैसा जा रहा है और काम देने बाले पीले चावल लेकर गाँव देहातों में घूम रहे हैं कि भैया चलो काम आपका इंतजार कर रहा है. और ये मेहनतकश काम करने बाले नखरे दिखाते ख़ुदकुशी कर रहे हैं तो सच है सरकार का क्या दोष.

FOWICE ने वर्चुअल मीटिंग में तय की शूटिंग शुरू करने की गाइड लाइन

फेडरेशन आफ वेस्टर्न इंडिया सिने एम्प्लाइज (Federation of Western India Cine Employees) ने एक वर्चुअल मीटिंग में फिल्मों की शूटिंग को कुछ सुरक्षा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए शुरू करने  पर चर्चा किया .हालांकि फ़िल्मों या धारावाहिको की शूटिंग जुलाई से पहले शुरू नहीं हो पायेगी. यह बैठक  फेडरेशन ऑफ वेस्टर्न इंडिया सिने एम्प्लाइज (एफडब्ल्यूआईसीई) के पदाधिकारियों की सिने एंड टीवी आर्टिस्ट एसोसिएशन- सिनटा (सीआईएनटीएए) के पदाधिकारियों के साथ हुई.

एफडब्ल्यूआईसीई के  प्रेसिडेंट बी.एन. तिवारी और जनरल सेक्रेटरी अशोक दुबे तथा  ट्रेजरार गंगेश्वरलाल  श्रीवास्तव ने कहा कि सिंटा के साथ हमारी बैठक के बाद हमने सभी एसोसिएशंस के साथ मिलकर यह फैसला किया है कि हम फिल्मों की शूटिंग कुछ दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए ही शुरू करेंगे. हम  इन नियम और कानूनों को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और श्रम मंत्रालय तथा राज्य सरकार को भेजेंगे. वही इसपर अंतिम फैसला लेंगे. फिलहाल हमारे वर्कर बिना उचित सुरक्षा के शूटिंग नहीं करेंगे.इसके लिए दो दिन बाद फिर एक बैठक आयोजित की जारही है.

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इस गाइडलाइन में  सभी निर्माताओं और निर्देशकों को अपने सेट पर कुछ नियमों का पालन करने का आदेश देने पर चर्चा हुई. इन निर्देशों के तहत सेट पर पहुंचने वाले हर कलाकार और क्रू के सदस्य को अपनी सेहत का एक परीक्षण करवाना होगा. इस दौरान उनके शरीर का तापमान भी जांचा जाएगा. यह प्रक्रिया हर रोज दोहराई जाएगी. अगर कोई बात बिगड़ती है तो हर रोज सेट पर डॉक्टर और नर्स को भी रखने के निर्देश हैं. यह नियम शूटिंग शुरू होने के शुरुआती तीन महीने तक लागू रहेंगे.

शूटिंग शुरू होने का मोटा मोटा अंदाजा लगाते हुए एफडब्ल्यूआईसीई के प्रमुख बीएन तिवारी ने बताया की शूटिंग लगभग जुलाई तक शुरू हो सकती हैं. उन्होंने कहा, ‘हम शूटिंग के लिए अपने किसी भी कर्मचारी की सेहत को खतरे में नहीं डाल सकते.’ एफडब्ल्यूआईसीई के सचिव अशोक दुबे ने बताया कि मीटिंग में सेट पर काम करने वाले लोगों का जीवन बीमा करने की भी बात उठाई गई है.

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शूटिंग शुरू करने को लेकर जिन गाइडलाइन पर चर्चा हुई वो निम्नलिखित हैं:

1 सभी कलाकार अपने घर से ही मेकअप और स्टाइलिंग का काम करेंगे और सेट पर सिर्फ एक स्टाफ सदस्य के साथ ही आएंगे.

2 सभी फिल्मों के निर्माता अपनी सेट पर काम करने वाले हर एक सदस्य को 12 घंटे के शूट के दौरान चार मास्क उपलब्ध कराएंगे.

3 शूटिंग शुरू होने के 3 महीने तक सेट पर उन लोगों को काम ना करने दिया जाए जिनकी उम्र 60 साल से ऊपर है.

4 हर सेट पर डॉक्टर नर्स और सुपरवाइजर की नियुक्ति अनिवार्य हो.

मदर्स डे स्पेशल: तू-तू,मैं-मैं से काफी आगे है सास-बहू का रिश्ता!  

सामान्यतः सासबहु के रिश्तो की बात आते ही एक टकरार वाले रिश्ते का तस्वीर सामने आता हैलेकिन दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई परिवारों से की गई बातचीत के नतीजे बताते हैं कि अब इस रिश्ते के स्थिति में काफी बदलाव आया है. समाजिक बदलाव और आधुनिक विचारधारा ने इस पवित्र रिश्तो कों नया स्वरूप प्रदान किया है.आज भी कई परिवारों में कई मामलों पर सास-बहु एक दूसरे के सामने आ जाती है, लेकिन कुछ बाते ऐसी भी होती है, इनके बीच दिल का रिश्ता स्थापित करती है. 

सास बहु का रिश्ता  तू-तू मै-मैं से भरा होता है. सदियों से इस रिश्ते कों लेकर कई बातें कही जाते आ रही है.  कोई इसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ रिश्ता मनाता है, तों कोई इसे नटखट और टकरार का रिश्ता मनाता है. तों कोई इस रिश्ते कों एक मजबूत पारिवारिक डोर मनाता है, जो पुरे परिवार कों एक सूत्र में बांध कर रखता है.  आधुनिक परिवेश में इस रिश्ते के ऊपर कई टीवी सीरियल बनाते आ रहे है . आज से तकरीबन डेढ़ दशक पहले  एकता कपूर ने अपने सीरियल कभी सास भी बहु थी  के द्वारा इस रिश्तो के मर्म कों समझने की शानदार कोशिश किया था, उसके बाद और उससे पहले भी छोटे पर्दे से  बड़े पर्दे पर इस रिश्ते  ने कई लोगो कों मनोरंजित किया तों कई संदेश कों समाज तक पहुचने का काम किया .

सास बहु के इस रिश्तो कों आधुनिक परिवेश में समझने और  आखिर इस रिश्तो पर आधुनिकता कितना हावी है? क्या पहले से इस रिश्ते में कुछ बदलाव आया है, या अब भी वही हल है ? सामजिक बदलावों का इस रिश्ते पर कितना असर हुआ है ?  जैसे कई सवालों का जवाब खोजने के लिए  दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहारके 100 परिवारों के सास बहु से अलग-अलग बात किया गया . बातचीत में सासू मां और बहु रानी से अलग अलग पांच-पांच प्रश्न पूछ गया. दोनों से बातचीत के दौरान गोपनीयता का पूरा ख्याल रखा गया ताकि मिलने वाला जवाब किसी दबाव में ना हो. गांव  के संयुक्त परिवार से लेकर शहर के हम दो हमारे दो के परिवार तक, छोटे शहर की सास-बहु से महानगर की सास-बहु तक बातचीत किया, साथ ही इस वार्तालाप में उन कुछ परिवारों कों भी शामिल किया गया, जो कस्बे और बस्ती में निवास करते है. हर परिवारों के बातचीत कों परखने-समझने के बाद अन्तः यही नतीजा निकला है, कि आज की सास अपनी बहु के और नजदीक आने के दिशा में प्रयासर्था है, तो बहु की आधुनिक सोच नए बदलाव का संदेश बयां कर रही है.

बातचीत के दौरान पाया गया कि कुछ सास के कुछ व्यवहार दुर्भावना है, सास का बात-बात पर ताना किसी बहु कों पसंद नही आता है. लेकिन सही समय पर सास का अनुभव बहु के मुश्किलों कों आसन करता है . कई बहु मानती है कि वह अपने घर अपनी मां की राय और उनके आदेश को ना मानती थी, जिनका पचतावा अब होता है, क्यों कि कई बार ना चाहते हुए भी सासू जी की बात मानना पड़ती है. सास बहु के रिश्तो पर बहु मानती है 49 फीसदी से अधिक बहु मानती है कि उन्होंने जैसे सास के बारे में सुना था, उस तरह की सास उन्हें नही मिलती है, कुल मिला-जुला कर वह अपने सासू मां से खुश नजर आती है . वही 35 फीसदी महिला मानती है कि उनकी सास थोड़ी  गर्म मिजाज की है , लेकिन हर काम में पूरा सह्रोग करती है,इनके सास कों अनुशासन और सही व्यवहार पसंद है . वही आज भी 16 फीसदी बहु अपने सास के ताने से तंग रहती है . इन सबके बीच अधिकांश बहु अपने सास के कई बातो से खुश दिखती है , जैसे उनकी सास उनके बच्चो का खास परवरिस के लिए हमेशा चिंतित रहती है . इस तरह कुछ मिला कर कहे तों बहुओ का एक बड़ा तबका अपने सास से खुश है , वही सास बदलाव के दौर कों समझते हुए बहु के और नजदीक जाने की कोशिश कर रही है.

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सास-बहू का संबंध एक बेहद नाजुक और महीन धागे से बंधा हुआ होता है. जो उन्हें एक-दूसरे से जोड़ कर रखता है. परिवार में शांति और जीवन को सुखद बनाए रखने के लिए जरूरी है कि प्रेमपूर्वक रहा जाए . कोई भी लड़की सास के लिए अपना मायका छोड़कर नहीं आती है, वह तो अपने पति के साथ घर बसाने के लिए ससुराल आती है. इस रिश्ते में प्यार बरकरार रखने के लिए बहुत जरूरी है कि सास और बहू, दोनों में तालमेल पॉजिटिव हो.  अगर बहू के साथ बेटी जैसा व्यवहार करें तो उसकी गलतियों को माफ करना आसान हो जाता है. वहीं अगर महिलाएं भी अपने ससुराल वालों को अपने माता-पिता का दर्जा देती हैं, तो उन्हें कभी उनकी उपस्थिति बोझ नहीं लगेगी और अगर वह कुछ कहते भी हैं तो उनकी डांट में भी प्यार नजर आएगा.

 क्या  कहती है बहु – 

 सासू मां  याद आती है 

ऐतिहासिक शहर मेरठ की अर्चना  मानती है कि  मैं जब तक सासू मां के साथ गाँव  में रहती थी तब मैंने उन्हें समझने में काफी भूल किया था.  आज जब मै अपने पति के साथ शहर में रहती हूँ तों  यहां सारा काम अकेले करना पड़ता है . लंच बनाने से लेकर घर की देखभाल भी अकेले करना पड़ता है . ससुराल में सबके साथ रहने पर काम के नाम पर सिर्फ रात को सब्जी बनाना पड़ता था. अब कभी बीमार पड़ जाने पर भी कोई साथ नही होता, थकान और बीमारी में भी अपने कामो कों पूरी तरह करना पड़ता है. इन दिनों  सासू माँ की बहुत याद आती है . सयुक्त परिवार होने के कारण सासू माँ साल में एक दो महीने के लिए ही हमारे पास रहने आती है . इसी लिए अब मै हर छुट्टी पर अपने सास में मिलने जरुर जाती हूं .

सासबहु के बीच का शीत युद्ध

इलाहाबाद , सिविल लाईन की रीता सिंह का कहना है कि जब तक किसी भी घर परिवार में सास अपने बहु कों बेटी के नजर से देखना नहीं सीख जाती, तब तक घर में कुरुक्षेत्र चलता रहेगा. सास बहु के बीच का टकरार सदियों से चला आ रहा है और इतिहास के पन्नो में और घर परिवार के कहानियो  में सास-बहु के बीच का शीत युद्ध का तभी अंत होता है, जब दोनों तरफ से सकारात्मक पहल हो . क्यों कि कई दफा इस तरह के नोक झोक का अंत किसी भयंकर घटना से होता है .

सास और बहू के रिश्ते सिक्के के दो पहलू

नीतू  जो बनारस की रहने वाली है, उनका ममना है कि सास और बहू के रिश्ते सिक्के के दो पहलू की तरह होते हैं. आपको प्यार चाहिए तो आपको प्यार देना भी पड़ेगा. नीतू कहती है कि पहली बार जब उन्होंने सास को देखा था तो वह टिपिकल सास लगीं थी . लेकिन बाद में साथ रहने पर वैसी नहीं लगीं. मैं जब भी अपनी ससुराल जाती हूं या मेरी सास यहां आती हैं तो हम दोनों मिलकर सारे काम निपटाते हैं. उन्होंने कभी भी मुझे किसी चीज के लिए मना नहीं किया. यहां तक कि मेरे बेटे का जन्म ससुराल में ही हुआ. मेरी सास ने मेरी सेवा की और मैंने उन्हें मेवा दिया.

कभी तगड़ी नोक झोक नही हुई  

आगरा  की सरिता का कहना है कि  मेरी शादी आज से आठ साल पहले अरेंज मैरिज हुई , इन आठ सालो में मैंने जिंदगी के सफर में बहुत उतरा चढाव देखे  लेकिन आज तक सास से कभी तगड़ी नोक झोक नही हुई और ना ही ससुराल में बहुत कुछ अलग महसूस नहीं हुआ. मैंने मानती हूं कि आज भी कुछ सास पुराने विचारो से सोचती है, लेकिन कई सास ऐसी भी है, जो अपनी बहु कों बेटी कि तरह मानती है .

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जिन्दगी में सासू मां की अहम भूमिका 

दिल्ली , मयूर विहार की आराधना का कहना है कि अगर उनके जिन्दगी में सासू माँ की अहम भूमिका है. आराधना और उनके पति रोहित दोनों मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते है, काम के व्यस्तता के कारण वह शुरू से ही अपने बच्चो कों काम समय दे पाते है ,लेकिन आज भी उनके बच्चे पूर्ण संस्कारी और आज्ञाकारी है. आराधना बताती है कि मेरा बेटा अपनी दादी के पास रहकर ही बड़ा हुआ है. हम दोनों पति-पत्नी ऑफिस जाते हैं. ऐसे समय में बेटे को तो सासू माँ  ही संभालती थी. पुरे दिन का काम और रात में भी कई महत्वपूर्ण कामो कों सासू माँ मेरे आने से पहले ही कर देती है . यही नहीं वह मुझे अपने बेटी कि तरह मानती है, मै भी उन्हें अपने माँ से काम नही मानती.

अब मैं सासू मां से डरती नही 

साहिबाबाद की दीपिका  शादी के पहले की सासू माँ के बारे में सोच कर घबरा जाती थी लेकिन अब वह सासू माँ से डरती नही, बल्कि उन से सब कुछ शेयर करती है. दीपिका का कहना है कि शादी के पहले मैंने अपने आस पड़ोस में सास बहु के काफी नोक झोक सुना था, इसलिए मेरे दिल में डर बैठ गया था, लेकिन शदी के बाद मैंने अपने सास में अपनी माँ से कुछ अलग नही देखा, वह मेरे हर समस्या का समाधान हसते हुए कर देती है. शादी के एक साल बाद में समझ चुकी हूँ कि मेरे सास औरो से अलग है .

क्या  कहती है सासू मां

समय के साथ बदले है रिश्ते

काशी विश्वनाथ की नगरी की 55 वर्षीय  लीलावती देवी का मानना है कि उनके जमाने के सास- बहु के रिश्ते और अब के सास-बहु के रिश्ते में बहुत बदलाव आया है. लीलावती कहती है कि मै जब बहु बन कर आई थी तों उस समय मुझे अपनी सास से बहुत डर लगता था, उस ज़माने में इतना खुलापन और आधुनिकता नही था , रीति-रिवाजों के कारण हर समय यह ध्यान देना होता था कि मेरे किसी बात का गलत अर्थ सासू जी ना लगा ले. लेकिन भगवान के कृप्या से मेरी सास बहुत सम्मान जनक तरीके से मेरे साथ व्यवहार करती थी . आज मेरी भी तीन बहु है, मै उन्हें कभी यह महसूस नही होने देते कि वह पराये घर की बेटी है.

रिश्तो पर आधुनिकता हावी 

48 वर्षीय कमला देवी पिछले 25 सालो से मेरठ में रहती है, कमला कहती है कि आज के समय में हर काम में आधुनिकता आ गई है, हर रिश्ता आधुनिकता के चादर से ढकते जा रहा है, लेकिन इस दौर में भी सास बहु का रिश्ता सबसे अलग और अपने पुराने स्वरूप में ही नजर आता है, हाँ एक बात जरुर है कि इस दौर में सास-बहु के रिश्तो का अंदाज जरुर बदल गया है . इस दौर की बहुए बहुत जल्दी थक जाती है, काम का बोझ काम होने पर भी उन्हें हर समय तनाव बना रहता है. मेरी दो बहु है, दोनों अपने स्वभाव से मेरा दिल जीत लेती है, मै भी हर समय उनका तनाव कम करने और उन्हें खुश करने की कोशिश में लगी रहती हूं.

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नोकझोक का रिश्ता

दिल्ली, साकेत की शांति दत्त मानती है कि सास बहु का रिश्ता नोक- झोक का रिश्ता है . 54 वर्षीय दत्त कहती है कि आज वह सास है, कभी वह भी बहु थी इसलिए आज वह पूरी तरह समझती है कि जब एक लड़की अपने पिता के घर कों छोड़ अपने पति के घर आती है तों अपने साथ कई यादो कों लेकर आती है, वह हर याद उसके दिलो से जुडी होती है. पति के घर में यह हर एक पहलू से अनजान होती है. इस समय अगर कोई उसे समझने वाला नही होता तों गलतिया होना लाजमी होता है . मेरी एक बहु है मै उसके साथ पूरी तरह एक दोस्त के तरह व्यवहार करती हूँ . वह भी मुझे हर कुछ बताती है, और हर समय सलाह लेती रहती है .

आम की फसल पर मंडरा रहा रोग, बरतें सावधानी

आम के बागबान फसल को ले कर आशंकाओं से घिरे हुए हैं. एक ओर जहां उन की फसल में रोगों का प्रकोप बढ़ रहा है, वहीं उन की उचित कीमत न मिल पाने का भी मलाल सता रहा है.

मेरठ के दो कस्बों शाहजहांपुर- किठौर फल पट्टी क्षेत्र में आम की फसल पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. आम के बागों में बौर को कई प्रकार के रोगों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है, लेकिन कीटनाशक न मिलने से आम की फसल को भारी नुकसान होने का अनुमान है.

उत्तर प्रदेश में मेरठ के दो कस्बों शाहजहांपुर-किठौर आम की पैदावार के मामले में देश और दुनिया में अलग पहंचान रखते हैं. बागबानों की माने तो करीब 400 किस्म के आमों का उत्पादन यहां होता है.

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मेरठ में 8,125 हेक्टेयर इलाके में तकरीबन एक लाख टन आम पैदा होता है, जिस में शाहजहांपुर-किठौर की बहुत बड़ी भागीदारी है. यहां से आम का निर्यात विदेशों में होता है.

लखनऊ, मलीहाबाद के बाद किठौर, शाहजहांपुर का इलाका आम उत्पादन के लिए जाना जाता है. बागबानों का कहना है कि इस बार देर तक सर्दी पड़ने की वजह से बौर देरी से निकला. आने वाले दिनों में इस का फल पर भी व्यापक असर देखने को मिला. कई तरह की बीमारियां जैसे कीड़ा, फफूंदी की शुरूआत हो चुकी है.अगर समय रहते दवाओं का छिड़काव नहीं किया गया तो बीमारियों के बढ़ने की संभावनाएं और मजबूत होंगी.

शाहजहांपुर के एक बागबान का कहना है कि आम उत्पादकों के लिए संकट और बढ़ गया है. आम का निर्यात नहीं होगा, तो फसल बागों में ही बर्बाद हो जाएगी.

यहां दशहरी, फजरी, लंगड़ा, तोतापरी, बंबइया, चौसा, रामकेला, देसी, सफेदा गुलाब जामुन खास है.

आम के बौर को ऐसे बचाएं रोग से

आम के बौर में फफूंद जैसे रोग दिख रहे हैं. तो तुरंत संभल जाइए और उचित कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए. अन्यथा आम बागबानों लगने वाले रोग से तबाह हो जाएंगे और वे इसे अच्छे दामों में नहीं बेच पाएंगे.

तमाम कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि आम की फसल को नुकसान से बचाने के लिए बौरों पर फफूंदनाशी रसायनों का छिड़काव करना चाहिए. इस से नुकसान की आशंका कम हो जाती है.

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आम की बौर या मंजरी पेड़ों पर लगी हुई हैं. बादल छाए रहने या हलकी बारिश बौरों के लिए बेहद ही नुकसानदेह है. आर्द्रता बढ़ जाने के कारण आम में फफूंद से जुड़े रोग लगने की आशंका बढ़ जाती है.

पूसा कृषि संस्थान, नई दिल्ली के एक वैज्ञानिक एके सिंह के मुताबिक, चूर्णिल एक फफूंदजनित रोग है. इस की चपेट में आने के बाद मंजरियां पहले भूरी हो जाती हैं, बाद में काली पड़ जाती हैं. इन में फल बिलकुल नहीं लगते हैं. काली हो चुकी मंजरियों को तोड़ कर पेड़ से दूर फेंक देना चाहिए.

वहीं उपचार के लिए आम के बौरों को चूर्णिल जैसे फफूंदजनित रोगों से बचाने के लिए केराथेन नामक रसायन को 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में मिला कर एक घोल बना तैयार लेना चाहिए. इस का छिड़काव आम के बौरों पर कर देना चाहिए.

अगर चूर्णिल से जुड़े लक्षण मंजरियों पर दिखाई देते हैं या आर्द्रता आगे भी बनी रहती है, तो 10-15 दिन बाद इस दवा का एक बार और छिड़काव कर देना चाहिए.

अगर बाजार में केराथेन नामक दवा नहीं उपलब्ध है तो कोई बात नहीं. आम के पौधों को चूर्णिल रोग से बचाने के लिए सल्फर भी डाला जा सकता है. इसे 2 ग्राम प्रति लिटर 0.2 फीसदी गंधक घुलनशील का घोल बना कर पेड़ों पर छिड़काव करना चाहिए. केराथेन की तुलना में यह काफी सस्ता है और बाजार में आसानी से मिल जाता है.

इस मामले में किसान सावधानी बरतें. इस बात का ध्यान रखें कि आम को फफूंद से बचाने के लिए किसी दूसरे कीटनाशक का इस्तेमाल न करें. आम के फल परागण के माध्यम से लगते हैं, इसलिए इस समय में आम के पेड़ों पर कीटनाशकों का छिड़काव करने से मित्र कीट भी नष्ट हो जाएंगे, जिस से परागण क्रिया अच्छी तरह नहीं होगी. इस से आम की फसल उत्पादकता खराब हो सकती है.

जिस समय आम के पेड़ों में मंजरियां आती हैं, उस समय पेड़ों को सिंचाई करने से बचना चाहिए, क्योंकि आर्द्रता बढ़ने से पेड़ों के फफूंदजनित रोगों की चपेट में आने की संभावना रहती है. इसलिए सलाह दी जाती है कि जब तक आधी मंजरियों से आम के फल नहीं बन जाते हैं, तब तक खेतों को पानी के छिड़काव से बचना चाहिए.

आम की मंजरियों में और भी रोग लगते हैं जैसे गुच्छा रोग, फुदका रोग. इस में आम की मंजरियों के बीच छोटेछोटे पत्ते आ जाते हैं, बाद में ये मिल कर एक गुच्छा जैसा बना लेते हैं. इस रोग के फैलने से आम के फल नहीं लगते हैं. इन्हें पेड़ों से काट कर अलग कर देना चाहिए, क्योंकि ये पौधे के पोषक तत्वों का अनावश्यक इस्तेमाल करते हैं.

गरीब मजदूरों की हालत से खुल गई विश्व गुरु की पोल

गरीब और मजदूर कंही रेल गाड़ी की पटरी पर सोते हुए ट्रैन के नीचे आ कर कट जा रहे है, तो कंही सड़क पर किसी बड़े वाहन के नीचे कुचल जा रहे, कंही भूख और प्यास से रास्ते मे ही दम तोड़ दे रहे. कई बार घर पहुचते पहुचते इस हालत के हो जाते है की वँहा पहुँच कर जान गंवा दे रहे. मज़दूरो की हालत बताती है कि देश और प्रदेश की सरकारों को उनकी कोई चिंता नहीं है.

सोशल मीडिया के जरिये देश की जनता की आंखों के सामने गरीब मजदूरों की हालत साफ साफ दिख रही है. ऐसी तस्वीरों को देश ही नही पूरी दुनिया देख रही है. विश्वगुरु बनने की दिशा में बढ रहे भारत मे  गरीब और मजदूरों के हालात किस कदर बिगड़े हुए है.

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गरीब मजदूरों का पलायन भारत की छवि को विश्व स्तर पर बुरी तरीके से प्रभावित कर रहा है यह बात अब बंद शब्दों में केंद्र सरकार की तारीफ करने वाले लोग समझ रहे हैं . सरकार ने बस, रेल और हवाई जहाज से प्रवासियों को अपने घरों तक ले जाने का दिखावा कर   वाहवाही लूटने का प्रयास किया. अखबारों में खबरों के जरिये इन बातों का प्रचार भी किया गया.

जब मजदूर और गरीबो का हुजूम सड़को पर दिखने लगा तब सबकी आंखे खुली की खुली रह गई कि यह गरीब और मजदूर कौन है ? जनता की सहानुभूति मजदूरों के साथ बढ़ने लगी. लोगो को यह साफ होने लगा था कि सरकार मजदूरों के नाम पर छलावा और दिखावा दोनो कर रही है. मजदूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं से जनता के मन मे उपजी सहानुभूति से सरकार की बाते अब लोग सुन नहीं रहे है.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गोमतीनगर का इलाका ऐसा है जंहा से उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल, बिहार और पश्चिम बंगाल जाने का सड़क मार्ग जाता हैं. लॉक डाउन के बाद से सड़क मार्ग से जाने वाले गरीब और मजदूर दोनो दिख जाते है. यह किसी भी हालत में अपने गांव घर पहुचना चाहते है. “लोग सड़कों पर पैदल ना चले” सरकार का यह आदेश कोई मानने को तैयार नही है.

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इन सड़कों पर आने वालों को खाने और पानी की व्यवस्था में लगी समाजसेवी और “पॉवर विंग” की प्रेसिडेंट सुमन सिंह रावत बताती है “50 दिनों में एक भी दिन ऐसा नही बीता जब सड़को पर वापस घरो को जाते बेबस लोग ना दिखे हो. यह किसी भी हालत के गांव जाना चाह रहे है. इनके पैरों में पड़े छाले और दूसरी मुश्किलें भी इनको रोक नही पा रही. 8 माह की गर्भवती महिला भी पैदल आपने पति के साथ जाती दिखी. हर मजदूर की अपनी दुःख भरी कंहानी है थी पर कोई सुनने वाला  नही है. यह सभी व्यवस्था से पूरी तरह गुस्साए हुए है.

निराश हो रहे समर्थक

सरकार का समर्थन कर रहे लोग यह मान रहे हैं कि सड़कों पर गरीब और मजदूरों के भूखे प्यासे दिखने से सरकार का विरोध करने वाले लोगों को आलोचना करने का मौका मिल गया. इसकी वजह से सरकार द्वारा किया गया अब तक का सारा काम है मिथ्या हो गया है और गरीब मजदूरों के पलायन के बाद उपजे हालात सरकार की छवि पर भारी पड़े हैं.

परेशानी की बात यह कि गरीब जनता का दुःख और दर्द लोगो के सामने दिख रहा है. ऐसे में सरकार का समर्थन करने वाले लोग भी उनका बचाव नही कर पा रहे. सरकार को अपने समर्थकों के बीच बिगड़ती छवि की चिंता हो रही है. सड़को पर गरीब और मजदूरों के हालात बिगड़ते देख कर विरोधियों को भो अपनी बात कहने का मौका मिल गया है.

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सरकार के घड़ियाली आंसू

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते है “केंद्र सरकार प्रवासी मजदूरों की दयनीय दशा पर महज घड़ियाली आंसू बहा रही है. अखिलेश यादव ने कहा कि कोरोना वायरस के संकट से निबटने में अदूरदर्शिता तथा अव्यवहारिक निर्णयों के चलते भाजपा सरकार पूर्णतया विफल साबित हुई है.  वह जनता को सिर्फ गुमराह कर रही है. लम्बे लाॅकडाउन के बावजूद संकट बढ़ रहा है. श्रमिकों के पलायन और उनकी बेरोजगारी से अराजकता जैसी स्थिति बन रही है. रेल पटरियों से लेकर राजमार्ग, खेत से लेकर खलिहान तक गरीब मजदूर लहूलुहान हो रहे हैं.

सड़को पर गरीब और मजदूरों के हालत दिख रहे है इंदौर बाईपास पर बारी-बारी एक युवक फिर महिला बैलगाड़ी में एक बैल की जगह खुद जुतकर परिवार को खींच रहा हैं यह दृश्य निहायत शर्मनाक और अमानवीय है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भरी दोपहरी में श्रमिक पलायन करने को लाचार है. आगरा में एक महिला अपने बच्चे के साथ सामान को घसीटते हुए ले जाने को मजबूर है.

मुजफ्फरनगर, सहारनपुर हाई-वे पर हुए दर्दनाक सड़क हादसे में कई प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई. पहले ट्रेन और अब बस हादसा. बिखरी पड़ी चप्पलें, बिस्कुट, पूड़ियां बता रही थी कि कितनी मुसीबतों से लम्बी यात्रा पर वे निकले थे. कानपुर देहात के अकबरपुर कोतवाली क्षेत्र में डीसीएम ट्रक की टक्कर में भी तमाम श्रमिक मरे और घायल हुए. अहमदाबाद से मजदूरों को लेकर डीसीएम बलरामपुर जा रही थी. फतेहपुर, रायबरेली में घर लौट रहे श्रमिक अपनी जान गंवा बैठे. जगह-जगह मजदूरों और कामगारों के मारे जाने की खब़रें विचलित करने वाली है. इस पूरी दुर्दशा के लिए भाजपा सरकारें जिम्मेदार हैं.

Short Story: दोहरा मापदंड

लेखक- अनुराग चतुर्वेदी

लौकडाउन हुए एक महीना बीत गया था. रीमा पूरा घर का काम कर रही थी क्योंकि काम वाली लौकडाउन की वजह से नहीं आ रही थीं.  सोसायटी वालों ने उन का आना बंद करा दिया है. अशोक ने पूछा, “काम वाली के पैसे देने हैं क्या?”

मैं ने कहा, “देने तो पड़ेगे पर कौन देने जाए?”

अशोक बोले, “मैं दे आऊं?”

मैं तुरंत बोली, “इस से बढ़िया क्या होगा.” मैं ने तुरंत पैसे निकाल कर दे दिए. तब तक पड़ोस में रहने वाली किरन दिखाई दी, वो बोली, “आंटी आप काम वाली को इस महीने के पैसे दोगी?”

मैं बोली हां तो इस पर वो बोली, “अरे काम तो किया नहीं है तो फिर पैसे किस बात के?”

उस को ये उम्मीद थी कि शायद मैं भी नही दुंगी. मेरी बात सुन कर वह अपने घर में घुस गई. थोड़ी देर में सोसायटी में एक गाड़ी, जिस पर लाउडस्पीकर लगा था, उस में से लोग आवाज लगा कर कोरोना पीड़ित के लिए दान मांग रहे थे. वे लोग सोसायटी के पदाधिकारी के साथ घरों में आ गए.

मेरी घंटी बजी तो मैं ने दरवाजा खोला. मेरे पड़ोस में रहने वाली किरन मुझे देखते ही बोली “मैं ने भी दिए हैं कोरोना पीड़ितो के लिए 2 हजार रुपए आप भी दे दो.” मैं ने मना कर दिया.

जब वे चले गए तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं अपनी पड़ोसन से बोली, “ये दोहरा मापदंड क्यों किरन? एक तरफ अपनी काम वाली को जो पूरा साल तुम्हारे घर बिना नागा आती रही उसे घर बैठे पैसे देना तुम्हें खल रहा है और ये जो कोरोना पीड़ित के नाम पर चंदा मांग रहे हैं जिस में तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि वास्तव में उन के पास मदद पहुंची कि नहीं, उन्हें तुम 2 हजार रुपए देने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाई. ये कैसा दोहरा मापदंड है?”

यह सुन कर वह तुरंत अंदर से पैसे ले आयी और बोली, “आंटी अंकल को दे दीजिएगा. जब वे जाएं तो मेरे वाले भी दे दें.”

मैं मुस्कुराते हुए उस से गले लग गई.

Crime Story: हसीन लड़कियां वाया “फर्जी फेसबुक” की मादकता 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक इंजीनियरिंग  की पढ़ाई करने वाले शख्स को पुलिस ने इस बिना पर धर दबोचा है कि उसने 14 लड़कियों के फर्जी फेसबुक अकाउंट बनाकर संप्रदायिकता का विष घोलने का काम लगातार किया. इस शख्स का नाम है रवि पुजार . जैसा कि अक्सर हमारे आस पास होता है फर्जी फेसबुक और सोशल मीडिया के बहकावे में आकर हम उस आभासी दुनिया को सच समझ लेते हैं और फालो करने लगते हैं.

ऐसा अक्सर हम अपने आसपास सुनते हैं मगर यह सच है, यह आप इस तथ्यात्मक रिपोर्ट को पढ़कर दावे के साथ कह सकेंगे-

निशा जिंदल फर्जी फेसबुक अकाउंट मामले में बड़ा  खुलासा हुआ है  .पुलिस जांच अभी  में 14  फर्जी फेसबुक अकाउंट सामने आए हैं. फर्जी फेसबुक के माध्यम से सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने का काम करने वाला यह शख्स लंबे समय से यही काम कर रहा था और बचा हुआ था जिससे सिद्ध होता है कि शासन प्रशासन  के काम करने की शैली कितनी कमजोर है.

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हसीन लड़कियों का संजाल 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में  14 फर्जी अकाउंट बनाकर सैकड़ों लोगों को बेवकूफ बनाने वाला यह शख्स इंजीनियरिंग की शिक्षा में लगातार फेल होता रहा और कितने मजे की बात है कि लोग उसके आंख बंद करके फॉलोअर्स हुए जा रहे थे. क्योंकि वह परदे के पीछे था और सामने थी एक से बढ़कर एक हसीन लड़कियों के मुसकुराते  चेहरे.  दरअसल, अकाउंट को महिलाओं की फोटो लगाकर आरोपी चलाता था.जिससे   मनोवैज्ञानिक रूप से सैकड़ों की तादात में लोग उसके  फॉलोअर्स बन गए. राजधानी पुलिस को आरोपी के 3 बैंक अकाउंट की जानकारी भी मिली है.  पुलिस आरोपी के बैंक अकाउंट का डिटेल खंगाल रही है पुलिस  के मुताबिक,  आरोपी रवि  के द्वारा ही महिलाओं की तस्वीर लगाकर इस अकाउंट्स को चलाया जा रहा था. सभी अकाउंट को वह स्वयं  नियंत्रित करता था. जांच में यह बात भी सामने आई है कि इसके द्वारा ऐसे पोस्ट किए जाते थे, जिससे इसके फ्रेंड लिस्ट में शामिल लोगों की आपस में विवाद निर्मित हो जाए.  फिर पोस्ट के समर्थन को लेकर कई लोग सामने आ जाते थे.  मतलब स्पष्ट है कि  पढ़ाई में वह भले ही फैल था मगर  मनोविज्ञान की दुनिया में पहली पंक्ति में था.उसे  पता था किस तरह लोगों को लड़कियों के चेहरे दिखा के अपने संजाल में फंसाया जाता है.

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