लेखक- अनुराग चतुर्वेदी

लौकडाउन हुए एक महीना बीत गया था. रीमा पूरा घर का काम कर रही थी क्योंकि काम वाली लौकडाउन की वजह से नहीं आ रही थीं.  सोसायटी वालों ने उन का आना बंद करा दिया है. अशोक ने पूछा, "काम वाली के पैसे देने हैं क्या?"

मैं ने कहा, "देने तो पड़ेगे पर कौन देने जाए?”

अशोक बोले, "मैं दे आऊं?”

मैं तुरंत बोली, “इस से बढ़िया क्या होगा.” मैं ने तुरंत पैसे निकाल कर दे दिए. तब तक पड़ोस में रहने वाली किरन दिखाई दी, वो बोली, "आंटी आप काम वाली को इस महीने के पैसे दोगी?"

मैं बोली हां तो इस पर वो बोली, “अरे काम तो किया नहीं है तो फिर पैसे किस बात के?"

उस को ये उम्मीद थी कि शायद मैं भी नही दुंगी. मेरी बात सुन कर वह अपने घर में घुस गई. थोड़ी देर में सोसायटी में एक गाड़ी, जिस पर लाउडस्पीकर लगा था, उस में से लोग आवाज लगा कर कोरोना पीड़ित के लिए दान मांग रहे थे. वे लोग सोसायटी के पदाधिकारी के साथ घरों में आ गए.

मेरी घंटी बजी तो मैं ने दरवाजा खोला. मेरे पड़ोस में रहने वाली किरन मुझे देखते ही बोली "मैं ने भी दिए हैं कोरोना पीड़ितो के लिए 2 हजार रुपए आप भी दे दो." मैं ने मना कर दिया.

जब वे चले गए तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं अपनी पड़ोसन से बोली, "ये दोहरा मापदंड क्यों किरन? एक तरफ अपनी काम वाली को जो पूरा साल तुम्हारे घर बिना नागा आती रही उसे घर बैठे पैसे देना तुम्हें खल रहा है और ये जो कोरोना पीड़ित के नाम पर चंदा मांग रहे हैं जिस में तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि वास्तव में उन के पास मदद पहुंची कि नहीं, उन्हें तुम 2 हजार रुपए देने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाई. ये कैसा दोहरा मापदंड है?”

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