राष्ट्र के नाम अपने लगभग 33 मिनिट के सम्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या क्या बोल गए और उनकी मंशा क्या थी यह किसी की समझ नहीं आ रहा है फिर भी जो लोग कुछ मतलब निकालने की कोशिश कर रहे हैं वह या तो उनका पेशा है या फिर भक्ति है. उनकी सारी बातें असम्बद्ध थीं और एक हद तक आत्ममुग्धता का शिकार भी थीं. लग ऐसा भी रहा था मानों कक्षा 12बी का कोई छात्र स्वेट मार्टन की किताब पढ़ते दुनिया जीतने का हौसला और जज्बा खुद में और औरों में पैदा कर रहा हो जिसका असर बेहद तात्कालिक होता है और व्यावहारिकता से तो उसका कोई संबंध होता ही नहीं.

मोदी के इस सम्बोधन का निचोड़ निकालें तो वह आयुर्वेद के काढ़े या अर्क जैसा है जिसे महज आस्था के चलते अपने जोखिम पर पिया जाता है. रोग का ठीक होना न होना ऊपर बाले की ज़िम्मेदारी होती है. उन्होने अपना भाषण तीन तरफ ज्यादा फोकस किया पहला कोरोना, दूसरी अर्थव्यवस्था और तीसरा आत्मनिर्भरता. यह त्रिफला चूर्ण लाक डाउन से पचे लोगों के गले इसलिए भी नहीं उतरा कि उनकी आवाज में न तो पहले जैसा उत्साह था और न ही चेहरे पर आत्मविश्वास दिख रहा था जो उनकी सबसे बड़ी पूंजी हुआ करती थीं. उम्मीद नहीं थी कि कभी उन्हें इस स्थिति में भी देखना पड़ेगा.

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बहरहाल उन्होने तीन बार संस्कृत के लघु श्लोक और सूक्तियाँ पढ़े, भारतीय संस्कृति और सभ्यता का बखान किया, 130 करोड़ लोगों की जीवटता और त्याग तपस्या की तारीफ की और फिर दर्शनशास्त्र के छज्जे से कूदकर अर्थशास्त्र की जमीन पर आते 20 लाख करोड़ के पेकेज की घोषणा कर दी और फिर हवा में तैरते आत्मनिर्भर होने का इशारा किया. यह बात कुछ कुछ देश के विश्वगुरु बनने जैसी थी कि अगर हम खुद उत्पादन और निर्माण कर खुद ही उसका उपभोग करें तो कल्याण पूरी दुनिया का होगा. यह बात उन्होने बहुत अस्पष्ट ढंग से समझाने की असफल कोशिश भी की भारत ऐसा कैसे कर सकता है और पूरी दुनिया को भी राह दिखा सकता है.

प्रधानमंत्री मेंटर की भूमिका में आएं यह बात कतई हर्ज की नहीं लेकिन जिस और जिन लोगों के त्याग और तपस्या की तारीफ वे कर रहे थे उनमें से कई सड़कों पर ही समाधिस्थ हो चुके थे और कई इसके विभिन्न चरणों से गुजर रहे हैं. समाधि भी क्यों इसे तो सल्लेखना या संथारा कहा जाना चाहिए जिसमें साधक अन्न जल त्याग कर धीरे धीरे मृत्यु नाम के शाश्वत सत्य का वरण करता है यह और बात है कि इस कृत्य को मृत्यु नहीं बल्कि मोक्ष करार दिया जाता है. मोदी जी ने सीधे सीधे भूख प्यास से सड़कों पर घर पहुँचने से पहले मरे लोगों का स्मरण भी अपनी शैली में लेकिन सकुचाते हुये किया.

क्या यह वक्त आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाने का था इस पर बहस या चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि मरते और हैरान परेशान करोड़ों मजदूरों के मोर्चे पर सरकार अनुत्तीर्ण हो चुकी है. आपदा तो अवसर में नहीं बदली लेकिन दो गज की दूरी का नारा सुनने समझने से पहले कई लोग (जाहिर है गरीब मजदूर) दो गज जमीन और दो गज कपड़े के कफन के बिना ही यह देखे बिना ही दुनिया से विदा हो गए कि उनके देश की तरफ पूरी दुनिया देख रही है. इन बेचारों को तो अपने ही देशवासियों ने नहीं देखा . ये अनाम शहीद कुछ दिन और जी जाते तो देख पाते कि लघु और मझोले कुटीर टाइप के उद्ध्योगो के लिए सरकार ने 20 लाख करोड़ रु की इमदाद मुहैया कराने का वादा किया है जिससे इनकी ज़िंदगी संवर जाती.

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जो जिंदा हैं उन्होने भी इस घोषणा से कोई इत्तफाक नहीं रखा. ये भुक्तभोगी जानते समझते हैं कि ऐसी राहत घोषणाओं के दाँत दिखावे के होते हैं यहाँ तो दो वक्त के खाने के लाले पड़े हैं उसके लिए तो सरकार कुछ नहीं कर पा रही. निश्चित रूप से बात क्रूर है और संकट के वक्त में ऐसी निराशाजनक बातें करना शोभा नहीं देता. ये बातें न की जातीं अगर प्रधानमंत्री ने 33 मिनिट में से 3 सेकंड के लिए भी संवेदनाएं दिखाते सरकार की भूमिका के लिए खेद व्यक्त किया होता.

इन सब बातों से परे मुद्दे की बात जिसकी वजह से लोग कल टीवी से चिपके थे वह यह थी कि लाक डाउन का क्या होगा इस पर मोदी जी ने कहा वह रहेगा और नए रंग रूप में आएगा . यह बात भी लगभग मीनिंगलेस और गोलमोल थी जिसके माने लोग अपनी तरह से निकालते रहे फिर थकहार कर बोले कल देखा जाएगा जब डिटेल्स आएंगे . यही बात 20 लाख करोड़ के पेकेज के बारे में सोची गई.

हालांकि न्यूज़ चेनल्स पर भाड़े के विशेषज्ञो जो अपनी बाजारू कीमत के लिहाज से दो चार दस हजार रुपयों के मेहनताने और स्क्रीन पर दिखने के लालच में विरोध व समर्थन में बोलने आधी रात को भी मुस्तैद रहते हैं की फौज मोदी जी की बातों का मतलब निकालने विराजमान थी लेकिन लाक डाउन रहेगा यह सुनते ही आम लोगों ने रिमोट का लाल बटन दबा लिया.

इधर सोशल मीडिया पर त्वरित टिप्पणियाँ ये आईं कि प्रधानमंत्री जी ने लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया है और इस बार का सबसे बड़ा टास्क उन्हें सुनना ही था. शायद यही 33 मिनिट के उनके सम्बोधन का सार था जिसे जो न समझे उसे खुद को अनाड़ी मान लेना चाहिए और आगे के लिए राशन पानी का इंतजाम कर लेना चाहिए. रही बात कोरोना की तो अब उसके कहर के भी कोई माने विषमताओं के चलते नहीं रहे लोग उसके साथ रहकर जीना सीख गए हैं.

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