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Hindi Love Stories : दो बाेल अनकहे

Hindi Love Stories : वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोई थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार का इजहार. प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया. Hindi Love Stories 

Social Story : उपाध्यक्ष महोदय – उपाध्यक्ष का पद क्यों होता है भारीभरकम?

Social Story : जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है.

उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है, जो होते हुए भी नहीं होता है और नहीं होते हुए भी होता है. वह टीम का 12वां खिलाड़ी होता है, जो पैडगार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाए किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में लघुशंका तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर गु्रपफोटो के लिए बुला लिया जाता है.

उपाध्यक्ष कार्यकारिणी का ‘खामखां’ होता है. किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ्य की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उन का बहुत हितैषी हो. वह संस्था के लौन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने और खासतौर पर न आने की आहट लेता रहता है.

अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं, तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाए रखता है और बहुत विनम्रता व गंभीरता से बिलकुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो. जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं, जिस का कारण अपरिहार्य होता है और सामान्यत: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा जाहिर करता है जैसे उस के लिए यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो.

वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है. फिर कोई गंभीर बात न होने की घोषणा पर संतोष कर के गहरी सांस लेता है. अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उस के कंधों पर है.

आमतौर पर उपाध्यक्ष, अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं. कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हैं क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है.

उपाध्यक्षों के 2 ही भविष्य होते हैं, एक तो वे अध्यक्ष के मर जाने, पागल हो जाने या निकाल दिए जाने की स्थिति में अध्यक्ष बना दिए जाते हैं या फिर झींक कर अंतत: दूसरी संस्था में चले जाते हैं जहां पहली संस्था में व्याप्त अनेक अनियमितताओं के बारे में रामायण के अखंड पाठ की तरह लगातार बताते रहते हैं.

उपाध्यक्षों का सपना संस्था का अध्यक्ष बनने का होता है और संस्था इस प्रयास में रहती है कि इस व्यक्ति को ऐसे कौन से तरीके से निकाल दिया जाए कि यह संस्था की ज्यादा फजीहत न कर सके.

मंच पर उपाध्यक्षों के लिए कोई कुरसी नहीं होती है. वहां अध्यक्ष बैठता है, सचिव बैठता है, विशिष्ट अतिथि बैठता है पर उपाध्यक्ष नहीं बैठता है, केवल उस की दृष्टि वहां स्थिर हो कर बैठी रहती है. कभीकभी जब फूलमालाएं अधिक आ जाएं तब मुख्य अतिथि से उस का परिचय कराने के लिए मंच से घोषणा की जाती है कि अब हमारी संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि को माला पहनाएंगे. बेचारा मरे कदमों से मंच पर चढ़ता है और माला डाल कर उतर आता है. फोटोग्राफर उस का फोटो नहीं खींचता इसलिए वह मुंह पर मुसकान चिपकाने की भी जरूरत नहीं समझता.

उपाध्यक्ष किसी संस्था का वैसा ही हिस्सा होता है जैसे कि शरीर में फांस चुभ जाए, आंख में तिनका पड़ जाए या दांतों के बीच कोई रेशा फंस जाए. सूखने डाले गए कपड़े पर की गई चिडि़या की बीट की भांति उस के सूख कर झड़ जाने की प्रतीक्षा मेें पूरी संस्था सदैव तत्पर रहती है क्योंकि गीले में छुटाने पर वह दाग दे सकता है.

उपाध्यक्ष के दस्तखत न चेक पर होते हैं न वार्षिक रिपोर्ट पर. न उसे संस्था के संस्थापक सदस्य पूछते हैं न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी. न उसे अंत में धन्यवाद ज्ञापन को कहा जाता है और न ही प्रारंभ में विषय प्रवर्तन को. न उस का नाम निमंत्रणपत्रों में होता है और न प्रेस रिपोर्टों में. गलती से यदि कभी अखबार की रिपोर्टों में नाम चला भी जाता है तो समझदार अखबार वाले समाचार बनाते समय उसे काट देते हैं. अगले दिन सुबह वह अखबार देखता है और उसे पलट कर मन ही मन सोचता है कि लोकतंत्र के 3 ही स्तंभ होते हैं. काश, चौथा भी होता तो मैं भी उस पर बैठ कर प्रकाशित हो लेता.

वैसे मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं और इस साहस को हमेशा कायरतापूर्ण कृत्य बता कर तथाकथित बहादुर बना घूमता हूं पर फिर भी मेरा यह विश्वास है कि किसी संस्था का उपाध्यक्ष बनने की तुलना में आत्महत्या कर लेना लाखगुना अच्छा है. Social Story

Family Story In Hindi : तेरी ‘बेटी’ हूं मां – जब बहू बनी बेटी

Family Story In Hindi : सुकृति व गौरव शादी के बाद गुरुग्राम में रहने लगे. दोनों का औफिस वहीं है. वैसे, लौकडाउन की वजह से आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. सो, दोनों का अधिकतर समय घर पर बीत रहा है. सुकृति दिल्ली की है तो उस का अपने परिवारजन से मिलनाजुलना हो जाता है. किंतु गौरव का घर आगरा में होने से उस का घरवालों से मिलना कम हो पाता है.

आज लंच करते हुए मम्मी का फोन आया तो गौरव बारबार यही कह रहा था, “आते हैं, जल्द ही मिलेंगे. कुछ दिनों में आ कर मिलते हैं.”

बात ख़त्म होते ही सुकृति कहने लगी, “क्यों न हम आगरा चलें, अगला वीकैंड वहीं मनाते हैं. सब से मिलना हो जाएगा और 2 दिन संग रह भी लेंगे.”

“आइडिया तुम्हारा अच्छा है. मन तो मेरा भी जाने का है.”

“तो फिर चलते हैं. तुम कल फोन कर मम्मी को आने का बता देना.”

सुकृति आगरा जाने के प्रोग्राम से खुश थी. उसे अपनी सासुमां बीना जी से मिल कर अच्छा लगता है. घर में सासससुर के अलावा जेठ, जेठानी शिल्पी और उन की 3 साल की बिटिया गिन्नी भी है. खैर, नियत समय वे आगरा के लिए निकल लिए और समय से पहुच गए. सब से मिल अच्छा लग रहा था. गौरव तो पहुंचते ही गिन्नी संग खेलने में लग गया.

दोनों की पसंद का खाना बीना जी ने बनाया. खापी कर देररात तक गपों का दौर चला. अगले दिन थोड़ी देर से नींद खुली. फटाफट ब्रेकफास्ट तैयार किया गया. फिर लंच की तैयारी में लग गए.

आज लंच पर गौरव के चाचाचाची व उन के बच्चे आने वाले हैं. बीना जी का स्वभाव ही इतना मिलनसार है कि सारे परिवार को एकसूत्र में बांधा हुआ है. किसी न किसी को अपने यहां खानेपीने, मिलनेमिलाने के लिए बुलाती रहती हैं. सुकृति और उस की जेठानी ने बीना जी के साथ सभी की पसंद का लज़ीज़ खाना तैयार कर दिया. सब ने एकसाथ बैठ खाने का आनंद लेते हुए सुकूनभरा दिन बिताया.

सब के जाने के बाद बीना जी गरमागरम चाय बना लाईं. अपनी दोनों बहुओं को देते हुए कहने लगीं, “चाय पी लो, बेटा. आज मेरी बेटियां काम कर थक गई होंगी. सुबह से ही कुछ न कुछ करने में लगी हुई हैं.”

“और मां आप, आप तो हम से भी पहले से काम कर रही हो. थकी आप हो, न कि हम.” सुकृति के ऐसा बोलते ही बीना जी उसे व शिल्पी को गले लगाती हुई बोलीं, “मेरी सारी थकान तो अपनी बेटियों को खुश देख मिट जाती है. तुम बच्चे खुश रहो और हम मातापिता को क्या चाहिए. तुम्हारी खुशी में ही हमारी खुशी है.”

“ओह मां. मां, आप हमारा कितना ध्यान रखती हो. हम सब की अच्छी मां,” कह सुकृति फिर गले लग गई. अगला दिन भी इधरउधर आनेजाने में निकल गया.

दो दिन कैसे हंसतेबतियाते बीत गए, मालुम ही न पड़ा. वापस गुरुग्राम जाने के वक्त एकाएक गौरव की शर्ट का बटन टूट गया. उस को परेशान देख बीना जी ने सुकृति से कहा, “जा बेटा, मेरी अलमारी की दराज से सूईधागा निकाल ला. अभी बटन टांक देती हूं.”

सुकृति ने जैसे ही अलमारी खोली, अव्यवस्थित कपड़ों तथा सामान को देख स्तब्ध रह गई. खैर, सूईधागा बीना जी को दे गौरव की ओर देख बोली, “हम आज नहीं जा रहे. मुझे कुछ अत्यंत जरूरी काम याद आ गया है जो आज ही पूरा करना है. तुम भी यहीं से काम कर लो.”

ऐसा सुन गिन्नी तो मटकने लगी और झट से गौरव की गोद में जा बैठी. बीना जी भी बच्चों की तरह चहकती हुईं बोलीं, “बहुत अच्छा किया जो तुम दोनों रुक गए. आज तुम लोगों की पसंद का खाना ही बनाऊंगी.”

“मां…मां,” सुकृति बीना जी की बात बीच में ही काटती हुई बोली, “क्या आप के कमरे में कुछ देर अकेली बैठ सकती हूं, कुछ काम करना है?”

“कैसी बात कर रही है, बेटा. तेरी मां का ही तो कमरा है. पूछने की क्या जरूरत है. वैसे भी, तुम्हारा अपना घर है, जहां मन करे, उठोबैठो, मेरी बिटिया रानी.”

“हां मां,” कह सुकृति ने पहले औफिस से छुट्टी ली, फिर बीना जी के कमरे में चली गई. अलमारी खोल एकएक कर सभी कपड़े बाहर पलंग पर रख उन की तह बना, उन्हें जमाती गई. अब कुछ ब्लाउज़ के हुक टूटे हुए थे तो सूईधागे से वापस टांक दिए. जिन पेटीकोट के नाड़े ढीले लगे, उन में नए नाड़े डाल अच्छे से तह बना कर अलमारी में रख दिए. सब से बाद में जो भी अव्यवस्थित सामान डब्बों में रखा हुआ था उन्हें भी व्यवस्थित ढंग से रख दिया. छोटेछोटे गहने, जैसे गले की चेन या कान के टौप्स ज़रूर अलमारी के ही लौकर में डब्बों के अंदर भलीभांति जमा दिए ताकि आसानी से देख कर पहने जा सकें.

‌अलमारी का काम करने में करीब 2-3 घंटे लग गए. बीना जी व शिल्पी रसोई में खाने की तैयारी में लगी हुई थीं. दोनों ही जन एकदो दफ़ा आवाज लगा चुकी थीं- ‘सुकृति, आ कर चाय ले ले.’ अब की बार भी न आने पर बीना जी और उन के पीछेपीछे शिल्पी भी कमरे में चली आईं.

सुकृति को अलमारी खोले देख जैसे ही बीना जी की नजर अंदर की ओर गई, एकाएक मुंह से निकला, “अरे, यह क्या मेरी अलमारी है. सभी कपड़े व सामान अपनी जगह करीने से सजे हुए ‌दिखाई दे रहे हैं. ‌अच्छा, तो इतनी देर से यही काम कर रही थी. बहुत ही अच्छा किया जो तूने सभी कपड़े तथा सामान सही ढंग से रख दिए. सोच तो कई दिन से मैं भी रही थी यह काम करना है पर व्यस्तता तथा घुटनों के दर्द की वजह से टालती जा रही थी. खैर, मेरी बेटी ने कर दिया, शाबाश, मेरी बच्ची.”

“मां आप से कुछ कहना चाहती हूं. आज मैं ने एक छोटा सा काम किया है पर न जाने ऐसे कितने ही व्यक्तिगत कार्य होंगे जो घर की तमाम जिम्मेदारियों, व्यस्तताओं तथा घुटने की तकलीफ की वजह से आप नहीं कर सकती होंगी. न तो मेरा, न ही शिल्पी भाभी का ध्यान कभी इस ओर जा पाया कि आप को छोटेछोटे कार्यों में भी हमारी मदद की जरूरत पड़ सकती है. यदि हम लोग अनजाने में न समझ सकें तो आप तो शिल्पी भाभी या मुझ से हक के साथ वे सभी पर्सनल काम करने को कह सकती हैं जिन्हें करने में आप असमर्थ हैं.

“मां, हमेशा आप इतना प्यार देती हो, जरूरत से ज़्यादा हमारा खयाल रखती हो, दिनभर बेटीबेटी बोलती रहती हो तो बेटी के कर्तव्यों-फ़र्ज़ का भी हम से निर्वाह करवाओ. क्यों न वे सभी काम आप हम से करने के लिए कहें जो किसी कारणवश नहीं कर पा रही हों.

“मां कहनेभर से हम बहुओं को बेटियां मत मानो. हमारे ऊपर अपना अधिकार समझ अपने दिल की हर बात हम दोनों से साझा करें. जो भी आप के मन में काम के प्रति विचारविमर्श हो रहा हो या करने की सोच रही हों, तुरंत एक आवाज दे हम से कराएं. आप के इस व्यवहार से ही हम सही माने में आप की बेटियां बन सकेंगी. मां, हमारी खुशियों का ध्यान रख हमारे मनमाफिक काम करते रहने से, सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए ही सोचते रहने से हम आप की बेटी कहलाने लायक नहीं हो सकेंगी, इसलिए ज्यादा सोचेसमझे बिना वो सारे काम हमें करने को कहें जिन्हें करने में आप परेशानी महसूस करें.

“मां, एक बार फिर दिल से यही बात कहना चाहूंगी कि आप व पापाजी दोनों ही अधिकार और अपनेपन से मुझे और शिल्पी भाभी से जो भी काम या फिर मन की बात कहना चाहें, कहें और हमेशा ही कहते रहें.”

“ठीक है, मेरी बच्ची ठीक है,” भावविह्वल हो बीना जी बोलीं, “आइंदा से तुम दोनों से कुछ भी कहने से न तो सोचूंगी, न ही हिचकूंगी. सालों से सोचती थी ईश्वर ने एक बेटी दी होती, कितना अच्छा होता. अपने मन की कहसुन पाती. पर मुझे क्या पता था, इस जीवन में एक के बजाय दो बेटियां मिलेंगी जो अपनी मां से बेइंतहा प्यारस्नेह करेंगी,” कहतीकहती बीना जी ने दोनों को गले लगा लिया और उन की बेटियां भी उन से मासूम बच्चे की भांति लिपट गईं.”

“आज भूख हड़ताल है, लंच नही मिलेगा क्या?” गौरव की आवाज सुन सब कमरे से बाहर आए. बीना जी हंसती हुई कहने लगीं, “तेरी पसंद का ही खाना बनाया है. जल्दी से आ जा और सब को भी खाने के लिए आवाज लगा दे. तुम सभी बैठो, मैं गरमागरम फुल्के सेंक खिलाती हूं…”

बीना जी की बात खत्म भी न हुई कि सुकृति व शिल्पी ने लगभग एकसाथ ही कहा, “फटाफट लंच निबटा, हम सभी बाजार अथवा मौल जाएंगे. फिर वहीं से मां और पापा के लिए उन की पसंद के कपड़े खरीदेंगे.”

“हांहां, बिलकुल. और बहुत सारी शौपिंग,” बीना जी के कहने का अंदाज ही कुछ ऐसा था कि सभी की सम्मिलित हंसी से घर गूंज उठा. Family Story In Hindi

Social Story In Hindi : दुनिया नई पुरानी

Social Story In Hindi : एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से

जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता.

दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे. Social Story In Hindi

Family Story : हंसने की चाह – बेटे को सफल बनाने के लिए दिलीप क्या प्रयास कर रहा था?

Family Story : उस दिन दिलीप को कितनी खुशी हुई थी कि वह अपने बेटे अमित के डाक्टर बनने के सपने को पूरा कर पाएगा। आईएससी करने के बाद 1 साल अमित ने जम कर मैडिकल ऐंट्रैंस की तैयारी की थी। 1 वर्ष उस ने बीएससी में ऐडमिशन भी नहीं कराया था। पर जब सफलता नहीं मिली थी तो उस ने बीएससी में ऐडमिशन ले लिया था। पर तैयारी मैडिकल ऐंट्रैंस की ही करता रहा था।

दूसरे प्रयास में भी सफलता नहीं मिली थी। और यही परिणाम रहा था तीसरे प्रयास में भी। बस संतोष की बात यही थी की हर बार कटऔफ मार्क्स के ज्यादा नजदीक होता गया था वह। पर इस से ऐडमिशन तो नहीं मिलना था। निराश हो अमित ने अपना ध्यान बीएससी पर लगा दिया था। जितना दुख अमित को था उतना ही दुख दिलीप को भी था। उस की भी चाहत थी कि उस का बेटा डाक्टर बने। पर कुछ भी किया नहीं जा सकता था।

फरवरी में उस के पास किसी व्यक्ति ने कौल किया था। उस ने खुद को मैडिको हैल्प डेस्क का कर्मचारी बताया था। उस ने उसे आश्वस्त किया था कि वह उस के बेटे को एमबीबीएस में ऐडमिशन दिलवा देगा। इस के लिए उस ने 2 विकल्प सुझाए थे। महाराष्ट्र के कालेज में नामांकन के लिए ₹90 लाख और कर्नाटक के कालेज में नामांकन के लिए ₹95 लाख का भुगतान करना था। अफरात पैसे तो थे नहीं उस के पास कि कितने भी पैसे लगे दे देगा इसलिए ₹5 लाख कम होने के कारण उस ने महाराष्ट्र में ऐडमिशन करवाना बेहतर समझा।

दिलीप ने महाराष्ट्र के एक कालेज के बारे में पूछा तो उसे बताया गया कि ₹58 लाख फीस के और ₹32 लाख कैपिटेशन चार्ज के जमा करने होंगे। विशेष जानकारी के लिए उसे नोएडा के औफिस के पते पर आ कर मिलने के लिए कहा गया था।

खुशी से रात भर वह सो नहीं पाया था। उस की यह हालत खुशी के मौके पर और गम के मौके पर भी होती थी। गम के मौके पर तो फिर भी देरसवेर सो जाता था पर खुशी के मौके पर उसे नींद नहीं आती थी। करवटें बदलते, कभी वाशरूम जाने किए लिए उठते हुए रात बिताई। वह तो खुश था ही उस की पत्नी और उस के बेटे को भी कम खुशी नहीं थी। सभी इसे ईश्वर की कृपा समझ रहे थे। उस की पत्नी यह समाचार सुन कर चहक कर बोली थी मैगजीन में उस ने राशिफल पढ़ा था। अमित के राशिफल में अप्रत्याशित सुखद समाचार मिलने की इस महीने संभावना बताई गई थी।

ऐसा नहीं था कि ₹90 लाख उस के लिए बहुत छोटी रकम थी। पर बेटे के सपने को पूरा करने के लिए वह कृतसंकल्प था। उस ने मन ही मन अनुमान लगाया कि ₹40 लाख तो उस के खाते में हैं फिक्स्ड डिपौजिट के रूप में। पीपीएफ खाते में भी ₹8 लाख जमा थे और उस से 3-4 लाख रुपए निकाल ही सकता था। शेष रकम वह उधार ले लेगा। और नहीं तो ऐजुकेशन लोन तो मिल ही जाएगा। उस ने सुना था कि विद्यालक्ष्मी पोर्टल पर जा कर पसंद के बैंक में और पसंद की शाखा से ऐजुकेशन लोन के लिए अप्लाई किया जा सकता है।

उस ने मन ही मन अपने बैंक की उसी शाखा से लोन लेने की योजना बना ली जिस में उस का वेतन खाता है। आखिर पुराने ग्राहक होने के नाते बैंक वाले उस की सहायता जरूर करेंगे। 1-2 स्टाफ से उस की अच्छी जानपहचान भी थी।

खुशी में रात बाहर नींद नहीं आई थी। सुबह प्रतीक्षा की घड़ियां उसे काफी लंबी लग रही थी। उस ने अपने औफिस में छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया था बीमारी का बहाना बना कर। और नोएडा स्थित मैडिको हैल्प डेस्क के औफिस पहुंच गया था।

औफिस खुलने का समय 10 बजे बताया गया था पर वह 9 बजे ही वहां पहुंच चुका था। जब वह औफिस में पहुंचा तो सिर्फ चौकीदार था वहां। उस ने बताया कि 10 बजे ही साहब लोग आते हैं। 1 घंटा इधरउधर घूमते हुए उस ने समय बिताया। इस बीच वह बेटे के कैरियर के हसीन सपनों में खो जाता था। 5 साल बाद बेटा एमबीबीएस हो कर निकलेगा फिर वह एमडी या एमएस भी करवा देगा। आजकल एमडी या एमएस किए बिना अच्छे हौस्पिटल में नौकरी नहीं मिलती डाक्टरों को। उस ने निश्चय कर लिया।

जैसे ही औफिस खुला वह अंदर गया। वहां रामकुमार नामक व्यक्ति ने उस का स्वागत किया। उस ने उस का परिचय राजेश नामक व्यक्ति से करवाया जो वहां का हैड था। राजेश ने उस से उस के बेटे का मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो मांगा ताकि ऐडमिशन के लिए प्रोसेसिंग किया जा सके। वह कुछ भी ले कर नहीं आया था क्योंकि फोन पर उसे इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया था।

“मैं 1-2 घंटे में ला कर सभी चीजें दे दूंगा,” उस ने घबराते हुए कहा था। उसे लगा कहीं इस कारण से बेटे के ऐडमिशन में परेशानी न आ जाए।

“अरे ऐसी कोई जल्दीबाजी नहीं। आप कल सभी कागजात दे जाएं। साथ ही बेटे को भी ले आएं। इंटरव्यू की औपचारिकता भी पूरी कर लेंगे,” राजेश ने एहसान जताते हुए कहा था।

अगले दिन वह बेटे अमित के साथ आया था, मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो ले कर। साथ ही उस ने पैनकार्ड और अन्य दस्तावेज भी रख लिए थे। कहीं किसी दस्तावेज की आवश्यकता न पङ जाए। राजेश ने अमित से कुछ मामूली सवाल पूछे थे जिस का अमित ने पूरे विश्वास से जवाब दिया था। दिलीप को काफी गर्व हुआ था अपने बेटे की काबिलियत पर।

राजेश ने आश्वस्त किया कि वांछित कालेज में अमित का मैनेजमेंट कोटा में नामांकन हो जाएगा। इस के लिए उसे एमओयू साइन करना होगा और ₹12लाख 1 सप्ताह के अंदर जमा करने होंगे। वहां और भी कुछ अभिभावक अपनेअपने बच्चों के साथ आए हुए थे।

1 सप्ताह की प्रतीक्षा कौन करता? दिलीप ने अगले ही दिन अपना फिक्स्ड डिपौजिट तुड़वा कर चेक से भुगतान कर दिया। उस चेक को अगले ही दिन भूना भी लिया गया। कुछ दिनों के बाद उस से ₹70लाख की मांग की गई और इस के अतिरिक्त ₹8लाख रुपए देने के लिए कहा गया। चूंकि नामांकन की कोई प्रक्रिया प्रारंभ नहीं की गई थी और फीस तो साल दर साल जमा होना चाहिए था इसलिए दिलीप ने पहले नामांकन करवाने की जिद की। इस पर उसे महाराष्ट्र स्थित कालेज में जाने के लिए कहा गया।

इतनी जल्दी टिकट मिलना मुश्किल था। हवाई जहाज के टिकट काफी मह॔गे थे। किसी प्रकार तत्काल में टिकट बुक कर दोनों बापबेटे कालेज गए। कालेज में उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया तो उस ने रामकुमार को फोन किया। रामकुमार ने जवाब दिया कि वे विलंब से आए हैं और अब कुछ नहीं हो सकता। इस के बाद उस ने फोन काट दिया और फिर रामकुमार के साथ ही राजेश का फोन भी अनरिचेबल आने लगा।

दिनभर प्रतीक्षा करने के बाद कोई चारा नहीं था दोनों के पास। फिर तत्काल में टिकट बुक करवा कर वापस आए। वापस आ कर दिलीप तमतमाता हुआ नोएडा स्थित कार्यालय गया। पर वहां लटका ताला उस का इंतजार कर रहा था।आसपास पता करने पर मालूम हुआ के वे अपराधी किस्म के व्यक्ति थे और कई लोगों को उन्होंने इसी प्रकार छला था। अब एक ही उपाय था पुलिस में शिकायत करना।

पुलिस थाने में उस ने एफआईआर तो कर दिया पर अपनी बुद्धि पर उसे तरस आ रहा था कि बिना कोई छानबीन किए वह कैसे अपराधियों के जाल में फंस गया। हंसने की चाह ने उसे रुला दिया। मगर अब हो भी क्या सकता था, ₹12 लाख तो पानी में डूब गए थे। अब न ईश्वर काम आ रहा था और न ही राशिफल। Family Story

Prime Minister : मोदी क्यों जपते रहते हैं नेहरू का नाम

Prime Minister : जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज पर विपक्ष आक्रामक हुई उन्होंने सफाई देने की जगह नेहरू पर आरोप लगाए हैं. उन के अकसर अपने वक्तव्य में नेहरू का जिक्र किसी न किसी बहाने करते हैं. आखिर इस की वजह क्या है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मानसून सत्र में लोकसभा में दिए गए अपने भाषण में 14 बार भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया. वो अपने अधिकांश भाषणों में नेहरू का जिक्र कर उन की ‘गलतियां’ गिनाते हैं. लोकसभा में 102 मिनट तक नरेंद्र मोदी कांग्रेस के संदर्भ पर बोलते रहे. इस के केंद्र में जवाहर लाल नेहरू रहे. वैसे देखे तो नरेंद्र मोदी ने नेहरू को न तो देखा होगा न ही उन के समयकाल में वह राजनीतिक सामाजिक मुद्दों की समझ रखते रहे होंगे.

मई 1964 में जब नेहरू का निधन हुआ होगा तब नरेंद्र मोदी 14 साल के रहे होंगे. देश में तमाम प्रधानमंत्री इस के बाद हुए, इन में से कई कांग्रेसी और कई गैर कांग्रेसी भी थे. भारत में 13 अलगअलग प्रधानमंत्री हुए हैं. इस के बाद भी नरेंद्र मोदी हमेशा जवाहरलाल नेहरू के नाम की ही माला जपते रहते हैं. देखा जाए तो नरेंद्र मोदी की पहली राजनीतिक लड़ाई इंदिरा गांधी से होनी चाहिए. उन के लगाई इमरजैंसी में उन्हें और सैकड़ों आरएसएस स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया था.

इस के पीछे विचारधारा की लड़ाई है. जवाहरलाल नेहरू महिला अधिकारों के पुरजोर समर्थक थे और उन का मानना था कि कानूनों और परंपराओं के कारण महिलाओं का दमन होता है. जिस से उन्हें संपत्ति, कानूनी अनुबंध, और पारिवारिक कानून में समान अधिकार मिलना चाहिए. हिंदू कोड बिल द्वारा लाने का उन का उद्देश्य भी यही था.

मोदी को अखरता है नेहरू का धर्म निरपेक्ष होना

यही नहीं संसदीय चुनावों में महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर भी उन का जोर रहता था. उस समय महिलाएं राजनीतिक रूप से इतनी जागृत नहीं थीं. वह इस बात का समर्थन करते थे कि राजनीति में ज्यादा से ज्यादा महिलाएं आगे आए. अपने दौर में कई महिलाओं को आगे लाने का काम भी किया था. देश के पहले चुनाव के नतीजों के बाद 18 मई, 1952 को जवाहरलाल नेहरू ने देश के मुख्यमंत्रियों को लिखा ‘मुझे बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि महिलाएं कितनी कम संख्या में निर्वाचित हुई हैं और मुझे लगता है कि राज्य विधानसभाओं और परिषदों में भी ऐसा ही हुआ होगा. इस का मतलब किसी के प्रति नर्म पक्ष दिखाना या किसी अन्याय की ओर इशारा करना नहीं है, बल्कि यह देश के भविष्य के विकास के लिए अच्छा नहीं है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारी वास्तविक प्रगति तभी होगी जब महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिलेगा.”

पंडित जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के थे. उन की पूरी कोशिश थी कि भारत कभी ‘हिंदू राष्ट्र’ न बने. वो हमेशा ही हिंदुत्ववादी ताकतों से उलझते रहते थे. उन्हें हाशिए पर डालने, यहां तक कि उन्हें बहिष्कृत करने की हर संभव कोशिश करते थे. नाथूराम गोडसे के महात्मा गांधी की हत्या ने हिंदू सांप्रदायिकता को हर मोड़ पर चुनौती देने के उन के संकल्प को और मजबूत कर दिया. उस समय आरएसएस के लिए नेहरू सब से बड़े ‘शत्रु’ थे. जिन से वे वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद नफरत करते थे.

1940 से 1973 तक आरएसएस के सरसंघचालक के रूप में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान, गोलवलकर नेहरू को अपना प्रमुख विरोधी मानते थे. वो उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मानते थे जो हिंदुत्व को लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने से रोक रहे थे. उसी विचारधारा में पलेबढ़े नरेंद्र मोदी भी इसी कारण से नेहरू विरोध का राग अलापते रहते हैं. 2014 में वह जब से प्रधानमंत्री बने हैं लगातार नेहरू का विरोध करने का काम करते हुए उन के कद को छोटा करना चाहते हैं. इस में आरएसएस उन के साथ है. चाहे वह योजना आयोग को भंग करना हो, सिंधु जल संधि को निलंबित करना हो, नेहरू के मुकाबले पटेल या सुभाष चंद्र बोस के कद को बढ़ाना हो, उन को बड़ा उद्देश्य स्पष्ट है.

नेहरू की खामियों को उजागर कर के और उन की कई उपलब्धियों को नकार कर उन का कद छोटा करना. मोदी लगातार प्रधानमंत्री बने रहने का नेहरू का रिकौर्ड तोड़ना चाहते हैं. इसलिए 2029 का लोकसभा चुनाव उन के लिए बेहद चुनौती भरा है. इसी लिए 11 साल प्रधानमंत्री बने रहने और तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जब भी लोकसभा में भाषण देने का मौका मिलता है मोदी 102 मिनट 14 बार जवाहरलाल नेहरू का नाम लेते रहते हैं. नेहरू ने हिंदू कोड बिल और हिंदू विवाह और उत्तराधिकार कानून में जिस तरह से महिलाओं को अधिकार दिया उस से दक्षिणपंथी लोगों के मन में नेहरू के प्रति नफरत भरी है.

हिंदू कोड बिल की पहली फांस

1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए. नेहरू ने हिंदू कोड बिल को अपना मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया था. उन का कहना था कि ‘अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जीतती है तो वे इसे संसद से पारित कराने में सफल होंगे. कांग्रेस को भारी जीत मिली और नेहरू फिर से प्रधानमंत्री बने और उन्होंने एक ऐसा विधेयक तैयार करने के लिए व्यापक प्रयास शुरू किया जिसे पारित किया जा सके. नेहरू ने कोड बिल को चार अलगअलग विधेयकों में विभाजित किया. जिन में हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम शामिल थे. 1952 और 1956 के बीच प्रत्येक विधेयक को संसद में प्रभावी ढंग से पेश किया गया और उन को पारित भी करा लिया गया.

हिंदू कोड बिल लागू करने में नेहरू का सब से बड़ा उद्देश्य हिंदू महिलाओं को कानूनी हक दिलाने का था. वह कानूनी समानता से हिंदू समुदाय के भीतर के भेदभावों को मिटाना, हिंदू सामाजिक एकता का निर्माण करना और महिलाओं को बराबर का हक देने का था. नेहरू यह मानते थे कि चूंकि वह हिंदू थे इसलिए मुसलिम या यहूदी कानून के विपरीत विशेष रूप से हिंदू कानून को संहिताबद्ध करना उन का विशेषाधिकार था.

हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान हिंदू आबादी के बड़े हिस्से ने विरोध किया और बिलों के खिलाफ रैलियां कीं. बिलों की हार की पैरवी करने के लिए कई संगठन बनाए गए और हिंदू आबादी में भारी मात्रा में साहित्य वितरित किया गया. इस तरह के मुखर विरोध के सामने नेहरू को हिंदू कोड बिलों के पारित होने को उचित ठहराना पड़ा.

जब यह स्पष्ट हो गया कि हिंदुओं का विशाल बहुमत बिलों का समर्थन नहीं करता है. इस कानून के समर्थकों में संसद के भीतर और बाहर विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थे. हिंदू वादियों के दबाव में नेहरू को इस बिल में शास्त्रीय हिंदू सामाजिक व्यवस्था को शामिल करना पड़ा. जिस के तहत यह माना गया कि हिंदू के लिए विवाह एक पवित्र संस्कार है. विवाह कानून में इस को मानना पड़ा.

इस के बाद भी नेहरू ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने की बात में कोई बदलाव नहीं किया. 2005 में इस में संशोधन कर के महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार दे दिया गया. नरेंद्र मोदी इस कारण से ही नेहरू और सोनिया गाधी का सब से अधिक विरोध करने का काम करते हैं. संपत्ति में महिलाओं को हक देने का अधिकार नेहरू के कार्यकाल में हुआ और उन को समान अधिकार 2005 में दिया गया. जब डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यूपीए की प्रमुख थी. विपक्षी उन को सुपर पीएम कहते थे.

नेहरू नहीं उन की विचारधारा से दिक्कत

नेहरू के बाद गांधी परिवार से दो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी थे. राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक समझ न के बराबर थी. वह विदेश में पढ़ेलिखे थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने केवल देश का आधुनिक बनाने की दिश में काम किया. मारूती और कंप्यूटर उन की पहचान बनी. इंदिरा गांधी ने लंबे समय तक देश में राज किया. वह विचारधारा के मामले में आरएसएस के साथ लंबाचौड़ा विवाद करने से बचती रही. उन के राजनीतिक संबंध कई धार्मिक नेताओं के साथ रहे. कई धर्मगुरू उन के साथ रहते थे. सामाजिक अधिकारों को ले कर कोई बड़ा काम नहीं किया. राजीव गांधी भी इसी तरह की राजनीति का शिकार हो गए थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी और आरएसएस का पूरा विरोध नेहरू तक ही सीमित हो गया है.

दक्षिणापंथी लोगों को यह पता है कि अगर महिलाओं में धर्म के प्रति आस्था खत्म हो गई तो हिंदू राष्ट्र का सपना कभी पूरा नहीं होगा. ऐसे में वह महिलाओं को मानसिक रूप से गुलाम बना कर रखना चाहते हैं. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होने मुसलिम महिलाओं के लिए तो तीन तलाक कानून में सुधार का काम किया लेकिन हिंदू महिलाओं को जल्द तलाक मिल सके इस पर कानून विचार बनाने का विचार नहीं किया. क्या वह हिंदू महिलाओं को तलाक के लिये कोर्ट में भटकते देखना चाहते हैं.

एक तरफ नेहरू थे जो हिंदू महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी है जिन के लिए हिंदू महिलाओं से अधिक तीन तलाक कानून बनाने की जल्दी थी. उन को हिंदू महिलाओं के बारे में सोचने का समय नहीं है. विचारधारा का यही संकट दोनों के बीच अंतर को दिखाता है. इसी कारण मोदी लगातार नेहरू और सानिया गांधी का विरोध करते हैं. राजीव और इंदिरा से उन को खास दिक्कत नहीं होती है. Prime Minister

Father Son Relationship : एक तरफ पिता एक तरफ बेटा, न्यूट्रल रहती है मां

Father Son Relationship : अकसर मां पति और बेटे के बीच नैतिक पशोपेश में तब फंसती है जब दोनों के फैसलों में से किसी एक का चुनाव करना होता है. पति जिस के साथ जीवन जी रही है और बेटा जो मां का प्यारा होता है. ऐसे में क्या करे मां?

देश में जब भी आजादी की बात होती है 15 अगस्त को बड़ी घूमधाम से मनाया जाता है. असल में 15 अगस्त को देश अंगरेजों से आजाद हुआ था. देश के अंदर तमाम रीति रिवाज, कुरीतियां, ऊंचनीच और भेदभाव आजादी के बाद आज तक कायम है. जिस आजादी का जश्न हम बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, क्या हम अपने घरों में उसी तरह से आजाद हैं? आज हमारे घरों में भी विचारों की और अपनी बात कहने की आजादी नहीं है. घरों में मातापिता और बच्चों के बीच यह सवाल बारबार उठता है.

सोशल मीडिया पर एक रील वायरल है. जिस में बेटा अपने पिता को बता रहा होता है कि आज मैं ने मां से पूछा कि ‘मां मैं इतना बड़ा कब हो जाऊंगा कि मैं बिना आप से पूछे घर से बाहर जा सकूं, जो मन हो वह कर सकूं, अपने मन का खा संकू.’ पिता पूछता है ‘तो फिर मां ने क्या कहा ?’ बेटा बोला ‘मां ने जो कहा वह सुन कर मै हैरान हूं. वह बोली इतना बड़ा तो तेरा बाप नहीं हुआ.’

घरों की आजादी का कुछ यही हाल है. आज भी मातापिता ही ज्यादातर मामलों में बच्चों के कैरियर, शादी विवाह और उन के घर आनेजाने के समय को तय करते हैं. थोड़ा बहुत मातापिता बच्चों की बात सुनने लगे हैं पर अभी भी पूरी आजादी नहीं है. ज्यादातर मामलों में पिता पुत्र के बीच टकराव हो जाता है. जैसे लोकसभा और विधानसभाओं में सत्ता पक्ष और विपक्ष होते हैं. अब इन की बहस को रोकने के लिए वहां स्पीकर होता है घर में यह काम मां का होता है. पिता पुत्र के विवाद में वह न्यूट्रल होती है.

पिता बनाम पुत्र में मां ‘न्यूट्रल’

पिता पुत्र के बीच मतभेद या विवाद की हालत में मां की भूमिका ‘न्यूट्रल’ होती है. पिता और पुत्र के बीच झगड़ा होने पर मां को मध्यस्थता करनी चाहिए. दोनों ही पक्ष उस की बात को सुनते हैं. मां ही दोनों को शांत कर सकती है. इस के लिए माता को पहले पिता और पुत्र दोनों की बातें सुननी चाहिए. यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि विवाद है क्या ? कौन गलत है कौन सही है ? मां ही वह है जिस को दोनों ही सम्मान देते हैं. मां दोनों को ही शांत कर सकती है. उन को आपस में मिला भी सकती है. उन के बीच के मतभेद को खत्म कर सकती है.

पिता पुत्र के बीच झगड़ा एक आम बात है, खासकर जब पुत्र युवावस्था में हो. यह झगड़े कम मतभेद ज्यादा होते हैं. इन के बीच टकराव का कारण विचारों का आपस में न मिलना होता है. दोनों के बीच एक जनरेशन गैप होता है. पिता हर बात में इस बात का उदाहरण देता है कि उस के दौर में क्या था ? कैसे वह अपने मांबाप की बात मानता था. आज की पीढ़ी आजाद हो गई है मातापिता की बात नहीं मानती है. बेटा तर्क देता है कि जमाना बदल गया है वह आजाद है पर उस को आजादी मिल नहीं रही है. आजादी मिले तो वह बहुत कुछ कर सकता है.

जनरेशन गैप क्या है ?

पिता और पुत्र के बीच पीढ़ी गत अंतर को जरनेशन गैप कहा जाता है. इस के कारण ही अकसर दोनों के बीच विवाद होते हैं. यह अंतर विचारों, मूल्यों, और जीवनशैली में भिन्नता के कारण पैदा होता है. जिस से दोनों पक्षों में गलतफहमी और टकराव हो सकता है. पिता और पुत्र दोनों अपनेअपने समय के सामाजिक परिवेश और अनुभवों के आधार पर सोचते हैं. इस से उन के विचारों में अंतर आ जाता है. खासकर आधुनिकता और पारंपरिकता के मुद्दों पर यह विचार एकदम विपरीत होते हैं. पिता अकसर ‘हमारे समय में’ और ‘आज के समय में’ जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं. यही पीढ़ीगत अंतर यानि जनरेशन गैप को दिखाता है.

पिता और पुत्र दोनों को एकदूसरे की बात ध्यान से सुननी चाहिए. अपनी बात स्पष्ट रूप से कहनी चाहिए. दोनों के बीच बातचीत कम से कम होती है. पुत्र जिस तरह से मां के साथ खुल कर बात कर लेता है उस तरह से पिता के सामने बात नहीं करता है. बिना कहे दोनों ही मां को बोलते हैं जिस से पिता और पुत्र दोनों को समझ आ जाए कि वह क्या चाहते हैं. पिता को लगता है कि वह अपने अनुभव के आधार पर कह रहा है. पुत्र को यह लगता है कि पिता उस के उपर नियत्रंण करना चाहते हैं. इस के साथ ही साथ पिता और पुत्र के बीच पारिवारिक जिम्मेदारियों को ले कर भी मतभेद हो सकते हैं.

पिता और पुत्र दोनों को एकदूसरे से खुल कर बात करनी चाहिए. एकदूसरे की बात सुननी चाहिए. पिता को बेटे की मानसिकता को समझने की कोशिश करनी चाहिए और बेटे को भी पिता के अनुभव और सलाह का सम्मान करना चाहिए. दोनों पक्षों को एकदूसरे का सम्मान करना चाहिए और एकदूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए. एकदूसरे के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करनी चाहिए. एकदूसरे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहिए. साथ में समय बिताने से भी रिश्ते मजबूत होते हैं. जरूरत पड़ने पर किसी मित्र, डाक्टर या सलाहकार की मदद लेने में संकोच नहीं करना चाहिए.

मां की भूमिका होती है खास

पिता और पुत्र के बीच किसी भी किस्म के विवाद को सुलझाने में मां की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. वह अकसर दोनों के बीच न्यूट्रल रहती है. अपनी इस भूमिका में रहते हुए उसे दोनों पक्षों को शांत करने की कोशिश करनी चाहिए. कई बार यह देखा गया है कि मां ही जिस बात के लिए बेटे को डांट रही होती है उस में जैसी ही पिता की इंट्री होती है मां बेटे की तरफ खड़ी हो जाती है. ऐसे में पिता को कई बार समझ ही नहीं आता की मां चाहती क्या है ? असल में मां के दिल में बेटे के प्रति अधिक प्यार होता है. वह पिता को भी यह समझा ले जाती है कि उस की कितनी चिंता और फिक्र है उसे. इस के चलते ही पिता और पुत्र दोनों ही उस की बात का पूरा सम्मान करते हैं.

जब पिता और पुत्र के बीच विवाद हो रहा हो तो मां को दोनों की बात को सुनना चाहिए. मां को यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि झगड़े का कारण क्या है ? इस को ले कर पिता पुत्र दोनों की भावनाएं क्या हैं? यहां सब से जरूरी यह है कि वह खुद बेहद शांत और धैर्य बना कर रहे. उस को गुस्से में या उत्तेजित हो कर कोई भी बात नहीं कहनी चाहिए. दोनों पक्षों की बात को समझते हुए उस को समझौते की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. एक सकारात्मक महौल में हंसीमजाक और प्यारदुलार के साथ मामले को सुलझाना चाहिए. मां को पिता और पुत्र दोनों को यह याद दिलाना चाहिए कि परिवार कितना महत्वपूर्ण है और उन के बीच का झगड़ा परिवार के लिए कितना हानिकारक हो सकता है.

मां को कभी एक पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहिए. उस को निष्पक्ष यानि न्यूट्रल रहना चाहिए. दोनों पक्षों को समान रूप से सुनना चाहिए. केवल बात को सुनने मात्र से ही कई बार आधी परेशानी खत्म हो जाती है. मां अगर गुस्से में या उत्तेजित हो कर कोई भी प्रतिक्रिया देगी तो झगड़ा खत्म होने की जगह पर बढ़ सकता है. मां को किसी को भी दोषी नहीं ठहराना चाहिए. इस से झगड़ा और बढ़ सकता है. मां को बातचीत से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उन्हें दोनों पक्षों को एकदूसरे से बात करने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.

अहम है पिता पुत्र का रिश्ता

पिता पुत्र का रिश्ता बेहद अहम है. पुत्र ही पिता का कानूनी वारिस होता है. अगर दूसरी शादी या बिना शादी के भी पिता से पुत्र है तो उसे मां से अधिक कानूनी अधिकार प्राप्त है. आदमी भले ही दूसरी औरत के प्रति बिना शादी के जवाबदेह न हो पर उस से पैदा पुत्र को अपना उत्तराधिकारी मानने से इंकार नहीं कर सकता है. जब पतिपत्नी के बीच तलाक हो जाता है उस के बाद भी पुत्र या पुत्री के भरणपोषण की जिम्मेदारी से वह मुकर नहीं सकता है. पिता चाह कर भी अपनी जायदाद से पुत्र को बेदखल नहीं कर सकता है.

पुत्र का पिता की पैतृक संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार होता है. पिता पुत्र इस से बेदखल नहीं कर सकता है. यह बात और है कि पिता अपने द्वारा बनाई गई संपत्ति का मालिक होता है. उसे अपनी मर्जी से किसी को भी दे सकता है. चाहे वह पुत्र हो या कोई और. 2005 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के संशोधन के बाद पुत्रियों को भी पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त हैं.

अगर पतिपत्नी में तलाक होता है तो पिता को बच्चे की संयुक्त कस्टडी के लिए आवेदन करने का अधिकार है. जिस में वह बच्चे के साथ समय बिताने और उसके निर्णयों में भाग लेने का हकदार होगा.

पिता को बच्चे की एकल कस्टडी के लिए भी आवेदन करने का अधिकार भी है. जिस में उसे बच्चे की देखभाल और पालन पोषण की जिम्मेदारी मिलेगी. पिता को बच्चे के साथ मिलने जुलने का अधिकार है. जिसे पेरेंटिंग टाइम कहा जाता है. पिता को अपने बच्चे के भरण पोषण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने की जिम्मेदारी है. पिता अपने बच्चे का कानूनी प्रतिनिधि होता है. वह 21 वर्ष की आयु तक उसके भरण पोषण के लिए जिम्मेदार होता.

इस तरह से देखें तो चाहे कानूनी पहलू हो या सामाजिक पिता और पुत्र का रिश्ता बेहद अहम होता है. एक पिता ही अकेला ऐसा आदमी होता है जो अपने पुत्र को खुद से आगे देखने का काम कर सकता है. यह बात और है कि पिता और पुत्र दोनों ही जीवन भर इस रिश्ते और अपनेपन का इजहार नहीं करते हैं. जिस तरह से पुत्र मां से अपने प्यार का इजहार करता है उस तरह से पिता के साथ नहीं कर पाता है. दो नदी के किनारे जैसे होते हैं जो साथसाथ तो चलते हैं पर मिल नहीं पाते. मां दोनों के बीच पुल का काम करती है. इसी लिए वह इन के विवादों में न्यूट्रल रहते हुए पुल का काम करती है. Father Son Relationship 

Rural girls of Bihar : सारी सीमाएं तोड़तीं बिहारी लड़कियां – संघर्ष, सामर्थ्य और सशक्तीकरण की दास्तां

Rural girls of Bihar : बिहार में लड़कियों को भले आगे बढ़ने को मौके सीमित मिले पर उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को न सिर्फ निखारा बल्कि हर क्षेत्र में वे आगे बढ़ीं. आज भी वे लगातार संघर्षरत हैं.

आजकल मेनस्ट्रीम मीडिया महिलाओं को विलेन साबित करने में जुटा हुआ है. उस का यह मकसद है कि महिलाओं को कानूनी रूप से जो अधिकार दिए गए हैं उन्हें कैसे उन से छीन लिया जाए. इसलिए आजकल ऐसे मामलों को मेनस्ट्रीम मीडिया ज्यादा जोर दे कर दिखा रहा है ताकि जल्दी से जल्दी कानून में संशोधन हो और एक बार फिर महिलाओं को गुलामी के जंजीर में जकड़ा जा सके.

विडंबना देखिए जिन मामलों में लड़कियों को विलेन बना कर दिखाया जा रहा है वे मामले टीवी न्यूज चैनल पर खुद महिला एंकर न्यूज प्रस्तुत करती हैं और इन मामलों पर डिबेट वे पुरुषों से करवाती हैं. डिबेट में ऐसे पुरुष बैठे होते हैं जिन पर खुद कभी न कभी यौनशोषण के केस दर्ज हुए हैं.

कई महानुभाव तो डिबेट में यह तक कहते दिखे कि रेप के आंकड़े दरअसल तथाकथित हैं और अत्यधिक मामले झूठे हैं. लेकिन इन महानुभावों और कोटसूट पहने टीवी एंकर्स को रेप पीड़िता की कहानी नहीं पता. उन्हें नहीं पता कि उस पीड़िता के लिए समाज एक कैदखाना बन चुका है. वहीं अगर आज के जमाने में कोई लड़की हिम्मत कर के अपने पांव पर खड़े होने की कोशिश करती है तो पूरा समाज उसे ताने मारना शुरू कर देता है.

लड़कियां या तो समाज के ताने को सहन कर आगे बढ़ने की कसम खा लेती हैं या फिर टूट जाती हैं और घर की दीवारों को ही दुनिया मान लेती हैं. लेकिन बिहार की लड़कियां ठीक इस के विपरीत हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार की लड़कियों का जज्बा और जनून देख कर तो यही लगता है कि वे धारा के विपरीत बहने का काम कर रही हैं.

बिहार की लड़कियों की कहानी सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि यह भारत के शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के भीतर पल रही क्रांति की कहानी भी है. यह क्रांति बंद कमरे से झांकती नहीं हैं बल्कि उस के दरवाजे तोड़ कर पूरी दुनिया से अपने हक और अधिकार के लिए लड़ती है, और साथ ही, अपने दम पर अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करती है.

बिहार की लड़कियां जितनी तेजी से चूल्हेचौके का काम निबटाती हैं उतनी ही फुरती से खेतों का काम भी निबटाती हैं. बिहार की लड़कियां आज सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक सीमाओं की सोच को तोड़ रही हैं.

शिक्षा में पिछड़ कर भी जीवन की पाठशाला में अव्वल

देश के सब से कम साक्षर राज्यों में बिहार का नाम आता है. साल 2021-22 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के आकंड़ों पर नजर डालें तो बिहार महिला साक्षरता दर 61.1 प्रतिशत है. वहीं केरल में महिला साक्षरता दर 92.2 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 83.9 प्रतिशत है. उपरोक्त आंकड़ा सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं है. यह आंकड़ा सामाजिक व्यवस्था को भी दर्शाता है, जो लड़कियों को किताब से पहले रसोई और खेत की राह दिखाता है. लेकिन सीमित संसाधनों और अवसरों के बावजूद बिहार की लड़कियां जीवन की आत्मनिर्भरता, जिम्मेदारी और संघर्षशीलता के पाठशाला में पास हो रही हैं.

दिनभर बिहार की लड़कियां खेतों में काम करती हैं. धूल, मिट्टी और पानी के बीच जिंदगी से जूझती हैं और शाम होते ही मां और दादी के साथ चूल्हे में हाथ बंटाती है. यह जीवनशैली उन्हें शारीरिक रूप से बहुत मजबूत बनाती है.

शहर की लड़कियां जहां डाइटिंग और जिम के माध्यम से फिटनैस की तलाश में रहती हैं, वहीं बिहार की सामान्य लड़की के पास अद्भुत सहनशक्ति और ताकत होती है.

बिहार की लड़कियों को पढ़ाई के मौके लड़कों के मुकाबले कम ही मिलते हैं, लेकिन अगर किसी बिहारी लड़की को जब अपने सपने सामने दिखते तो वह हर बाधा को पार कर बिहार में शिक्षक, पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं के लिए अपना पूरा जोर लगा देती है. इस के बाद जब परिणाम सामने आता है तो अपने सेवा में रहते हुए समाज में बदलाव लाने की कोशिश करती है और कड़े निर्णय ले कर दिखाती है कि वे लड़कों से कंधे से कंधा मिला कर चलने की क्षमता बिहार की लड़की में है.

वहीं अगर परिणाम विपरीत आते हैं तो भी वह हार नहीं मानती बल्कि इस से अपने इस अनुभव से सीख ले कर आगे बढ़ती है और मेहनत दोगुनी करती है.

बिहार के किशोरियों में औसतन 9 से 12 घंटे का शारीरिक श्रम सामान्य बात है, जो कि शहरी क्षेत्रों की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक है. इस का प्रभाव उन की सहनशक्ति और कार्यक्षमता में दिखता है. इन आंकड़ों को अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो ये यह दर्शाते हैं कि बिहारी लड़कियां किसी ओलिंपिक खिलाड़ी से कम मेहनत नहीं करती हैं.

इस के साथ ही, बिहार में बाल विवाह की स्थिति अभी भी चिंताजनक है. नैशनल हैल्थ फैमली सर्वे – 5 के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले ही हो जाती है. यह आंकड़ा देश के औसत 23.3 प्रतिशत से काफी अधिक है.

इस का सीधा असर लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर पड़ता है. लड़कियों को उन के परिवार द्वारा उन के अधिकारों से वंचित करना, पढ़ाई न करवाना और कम उम्र में शादी करवाने से मानसिक रूप से वे खुद को कमजोर महसूस करने लगती हैं क्योंकि उन के भीतर कई सपने सांसें ले रही होते हैं, जो उन के परिवार के गलत फैसले की वजह से दफन होने को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन यही लड़कियां जब विद्रोह पर उतर जाती है तो अपनी शादी की उम्र भी खुद तय करती हैं और अपने सपनों को पूरा भी करती हैं. इस के लिए चाहे समाज ताने मारे या उन का बहिष्कार कर दे, वे मजबूती से इन का डट कर सामना करती हैं.

बीते सालों में शहरी बिहार में 18 से 24 वर्ष की अधिकतर लड़कियों ने अपनी शादी का विरोध किया और उसे टालने की भपूर कोशिश भी की. इस से यह साफ़ होता है कि बिहार की लड़कियां समाजिक रूप से परिवर्तन चाहती है, लेकिन रूढ़िवादी सामाजिक सोच उन्हें आजाद नहीं देखना चाहता है.

बिहार की लड़कियों को भले ही पढ़ाई के मौके कम मिले लेकिन इस के बावजूद वे अपनी जीवनरक्षा में अव्वल हैं. दिल्ली, मुंबई, पुणे, बेंगलुरु से जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाएं बन कर, फैक्ट्रियों में मजदूरी कर के, ब्यूटीशियन, नर्स, टैक्नीशियन, कौर्पोरेट सहायक और यहां तक कि सेक्सवर्कर तक का काम बिहार की लड़कियां कर रही हैं.

मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में घरेलू सहायिकाओं के रूप में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां बिहार से हैं. इस के साथ ही इन में से कई तो 14 से 15 साल की उम्र में घर छोड़ कर आई होती हैं. ये लड़कियां बहुत ही निम्नवर्ग से बड़े शहरों में आती हैं और अपना काम ईमानदारी व मेहनत से करती हैं.

निम्नवर्ग और नीची जाति होने की वजह से इन का संघर्ष सिर्फ खुद के लिए नहीं होता है, बल्कि अपने परिवार के लिए होता है. ये अपने परिवार की कमाई का जरिया बनती हैं, जिस से पूरा परिवार दो वक्त की रोटी खा पाता है. पढ़ाई और बाकी चीजों में भले ही ये लड़कियां पीछे रह गईं लेकिन जिंदगी की पाठशाला में इन के लिए गोल्ड मैडल भी कम हैं.

देश में मानव तस्करी के मामलों में बिहार अग्रणी राज्यों में हैं. बिहार से बड़ी संख्या लड़कियों को दिल्ली, मुंबई या अन्य बड़े शहरों में नौकरी, शादी और मौडलिंग के नाम पर लाया जाता है और फिर इन लड़कियों को वेश्यावृति के दलदल में धकेल दिया जाता है.

वहीं कई बिहारी लड़कियों ने हाल के वर्षों में आईटी, टैलीकाम, बीपीओ और बैंकिंग सैक्टर में अपनी अगल पहचान बनाई है. बीते 5 वर्षों के दौरान बिहार की ग्रामीण लड़कियों की संख्या कौर्पोरेट क्षेत्र में जबरदस्त बढ़ी है. राज्य की सीमा और समाज के तानेबाने से ऊपर उठ कर बिहार की लड़कियां अब खुद को बड़ी कंपनियों में बड़े पदों पर भी स्थापित कर चुकी हैं.

सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, बिहार की बेटियां मानसिक रूप से भी अब मजबूत होती जा रही हैं. बचपन में घरेलु हिंसा, तंगहाली और यौनहिंसा के शिकार होने की वजह से बिहारी लड़कियां मानसिक रूप से बहुत ज्यादा मजबूत हो जाती हैं. ये घटनाएं उन्हें समय से पहले बड़ा बना देती हैं. लेकिन अब वे इन सब का प्रतिकार करना जानती हैं.

बिहार की अर्धशहरी और ग्रामीण लड़कियों में सैक्स के प्रति हिचक शहरी भारत की तुलना में कम है. इस का एक बड़ा कारण यह है कि आज भी अधिकतर लड़कियों की शादी किशोरावस्था शुरू होते ही करवा दी जाती है. 14 साल की उम्र में विवाह और मातृत्व जैसी जिम्मेदारियों का अनुभव उन्हें सैक्स और शरीर के मुद्दों पर अधिक परिपक्व बनाता है.

आज भी बिहार के कई गांवों में बिजली उपलब्धता बहुत ही सिमित है, या यों समझ लीजिए कि आज भी सुदूर देहात में बिजली नाममात्र के लिए दी जाती है. कई गांवों में औसतन 12 से 14 घंटे ही बिजली की आपूर्ति होती है. वहीं कई गांवों में 9 घंटे से भी कम बिजली की आपूर्ति होती है.

इस के साथ ही तकनीकी कारणों की वजह से जब बिजली बाधित होती है तो इसे दुरुस्त करने में हफ्तेभर का समय आराम से लग जाता है. साफ पीने का पानी के लिए लड़कियों को 1 से 2 किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है.

बिहार में नल जल योजना जमीनी स्तर पर पानी कम और हवा ज्यादा देती है. लेकिन इन सब के बीच अगर बिहार की मिट्टी में कुछ हो रहा है तो वह इन लड़कियों की जिद की वजह से, लड़कियां लालटेन की रोशनी में, ढिबरी जला कर पढ़ाई कर रही और मंजिल तक पहुंचने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा रही हैं.

साल 2023 में बिहार बोर्ड की मैट्रिक परीक्षा में टौप 5 में 4 लड़कियों में अपनी जगह बनाई थी, जो यह साबित करता है कि कम साधनों में भी बड़ी से बड़ी सफलता हासिल की जा सकती है.

बिहार की बेटियां चाहे जिस भी वर्ग से आती हों, आज वे अपने हक के लिए आगे बढ़ कर लड़ रही हैं. किशनगंज, सहरसा, मधेपुरा जैसे जिलों की लड़कियां अब बुर्के से निकल कर सिविल सेवा की तैयारी कर रही हैं. दलित लड़कियां पंचायत चुनाव लड़ और जीत रही हैं. ओबीसी, सवर्ण, मुसलिम, यादव या भूमिहार परिवार की लड़कियां यूपीएससी की परीक्षा पास कर अफसर बन रही हैं. आज बिहार की लड़कियां बिहार के चुनावों में उम्मीदवारी के साथसाथ प्रत्याशियों की हारजीत भी तय कर रही हैं. सीमांचल में कई पंचायत इलाके ऐसे हैं जहां बिहार की बेटियों के वोट प्रत्याशियों के लिए बहुत माने रखते हैं.

बिहार अब सामाजिक रूप से बदलाव के मोड़ पर है. बिहार के रूढ़िवादी समाज को बिहार की बेटियां अपने कौशल और हिम्मत से बदल रही हैं. आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार की लड़कियां बिहार के लिए राजनीतिक रूप से एक नई पटकथा लिखने जा रही है, जो एक इतिहास होगा.

इस बार बिहार की बेटियां विधानसभा चुनाव में जाति या परिवारवाद को अपना सारथी नहीं चुनने वाली, क्योंकि ये उन के आत्मबल पर पाबंदियां लगाते हैं, इन के सपनों के पंख को काट देते हैं. इस बार बिहार की बेटियां खेत, खलिहान, किचन को सस्ता और बिहार में कौर्पोरेट के रास्ते बनाने के लिए और अपनी पहचान के लिए वोट करेंगी. Rural girls of Bihar

Fake Friends : मेरी दोस्त दूसरों से मेरी बातें शेयर कर मजाक बनाती है

Fake Friends : मैं कालेज का छात्र हूं. मेरी एक बहुत अच्छी दोस्त है जिस से मैं अपने हर राज शेयर करता हूं. लेकिन अब वह हर बात को दूसरों को बताने लगी है और मेरी निजी बातें तक मजाक का विषय बन गई हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या मैं उस से दोस्ती खत्म कर दूं?

जवाब : दोस्ती भरोसे की नींव पर टिकी होती है. अगर कोई बारबार आप के विश्वास को तोड़ता है तो यह स्पष्ट संकेत है कि वह व्यक्ति सच्चा मित्र नहीं है. सब से पहले एक बार खुल कर उस से बात करें और उसे बताएं कि उस के इस व्यवहार से आप कैसा महसूस कर रहे हैं.

अगर वह माफी मांगती है और सुधार लाने की कोशिश करती है तो मौका देना उचित हो सकता है. लेकिन यदि वह आप की भावनाओं को महत्त्व नहीं देती तो खुद को ऐसे रिश्ते से दूर कर लेना ही बेहतर है. आत्मसम्मान की रक्षा सब से पहले होनी चाहिए. Fake Friends

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Working Women : नौकरी और परिवार के बीच संतुलन नहीं बन पा रहा है

Working Women : मैं एक बैंक में मैनेजर के पद पर हूं, मेरे 2 छोटे बच्चे हैं (6 और 9 वर्ष के). औफिस का प्रैशर, बच्चों की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी मुझे मानसिक रूप से थका देती है. न मुझे खुद के लिए समय मिलता है और न ही मैं बच्चों को पूरा समय दे पाती हूं. मुझे लगता है, मैं हर जगह अधूरी हूं. मां के रूप में भी और प्रोफैशनल के रूप में भी.

जवाब : यह संघर्ष आज की हर कामकाजी मां का है. सब से पहले आप खुद को दोष देना बंद करें. ‘परफैक्ट’ बनने की कोशिश में हम अकसर खुद की सेहत और मानसिक संतुलन को भूल जाते हैं. आप मां हैं, एक प्रोफैशनल हैं और इंसान भी हैं.

हर भूमिका में सौ फीसदी देना संभव नहीं है. यह समझना ही मानसिक शांति का पहला कदम है.

एक व्यावहारिक तरीका अपनाएं, घर के कामों को बांटना सीखें. आप के पास समय सीमित है तो सोचना होगा कि किस काम को कम किया जाए, किसे बांटा जाए और किसे छोड़ा जा सकता है. हर हफ्ते एक ‘प्लानर’ बनाएं, उस में औफिस, बच्चों और खुद के लिए समय बांटें.

हर जिम्मेदारी सिर्फ आप के कंधों पर क्यों हो? थोड़ा बोझ बांटना सीखिए. पति से और बच्चों से छोटी जिम्मेदारियां लें. बच्चों को भी थोड़ी जिम्मेदारी दें, जैसे स्कूलबैग तैयार करना, खुद खाना लेना. उन्हें यह आत्मनिर्भर बनाएगा और आप को हलका.

कोशिश करें कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रहे. औफिस में भी जहां संभव हो, कुछ जिम्म्मेदारियां डेडीगेट करें. आप मैनेजर हैं, सब खुद करने की जरूरत नहीं.

हर दिन कम से कम 30 मिनट खुद के लिए निकालें. चाहे वह वाक हो, ऐक्सरसाइज हो या किताब पढ़ना. एक खुश मां ही एक खुश परिवार बना सकती है. याद रखें, संतुलन बनाने का मतलब है हर चीज को थोड़ाथोड़ा देना, सबकुछ पूरी तरह नहीं. Working Women

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