Indian Penal Code 1860 : पश्चिमी देशों की उदारता की भावना से प्रेरित हो कर भारतीय जनता पार्टी ने 1860 के इंडियन पीनल कोड में जो थोड़ेबहुत बदलाव किए हैं उन में से एक छोटे अपराधों के लिए सामाजिक कार्य शामिल हैं. भारतीय न्याय संहिता की धारा 4 (एफ) के अंतर्गत किए जाने वाले सामाजिक कार्यों में दिल्ली सरकार ने अस्पतालों, लाइब्रेरियों, क्लासरूमों, बागों, पब्लिक बिल्डिंगों की सफाई के काम तय किए हैं.

आत्महत्या के प्रयास, सरकारी कर्मचारियों के प्राइवेट बिजनैस करने, छोटी चोरियों, आम जगह पर शराब पीने, मानहानि जैसे अपराधों के लिए मजिस्ट्रेट अपराध सिद्ध होने पर अपराधी को एक साल की सजा या इस तरह के सामाजिक काम करने की जिम्मेदारी दे सकते हैं.

यह सिद्धांत रूप में तो अच्छा लगता है पर हमारे यहां के उद्दंड अपराधी, खासतौर पर ऊंची जातियों के अपराधी सफाई जैसे काम आम दफ्तरों में सुपरवाइजरों के सामने करेंगे, यह लगभग असंभव है. ये लोग इन जगहों पर सिर्फ उत्पात मचाएंगे और धीरेधीरे सारे विभाग इस तरह के अपराधियों को अपने यहां सामाजिक कार्य करने देने से इनकार कर देंगे.

वी शांताराम ने कभी ‘2 आंखें 12 हाथ’ जैसी फिल्म इसी थीम पर बनाई थी. राजेश खन्ना की एक फिल्म ‘दुश्मन’ में भी ऐसी ही सजा दी गई थी. पर ये मामले फिल्मी कहानियों के हैं. असल में उस समाज में जहां जातिगत कामों का जहर बचपन से ठूंसठूंस कर भर दिया जाता हो और जहां पूरी राजनीति जाति के नाम पर चल रही हो वहां सरकारी कानून के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के आदेश पर अपराधी अपने अपराध के प्रायश्चित्त करने के रूप में वास्तव में सामाजिक काम करेंगे, असंभव है.

हमारे यहां अंगरेजों ने 1857 के पहले रेजिमैंटों में ब्राह्मणों और राजपूतों को रखा था पर जब चरबी में डूबे कारतूसों को काटने का सवाल आने लगा तो इन सिपाहियों का गांवों में भी हुक्कापानी बंद होने लगा. मंगल पांडे जैसे सिपाहियों का गोरों के खिलाफ बंदूक उठाने के पीछे जाति का सवाल ही था. वह 1857 के विद्रोह से पहले कई साल तक बंदूक तो भारतीयों पर ही चलाया करता था क्योंकि ब्रिटिश कंपनी की फौजें भारतीय राजाओं से ही लड़ती रहीं, फ्रैंच या डच से नहीं.

सजा का यह नियम प्रयोग के तौर पर लगता अच्छा है पर सरकारी स्कूलों तक में सफल नहीं होता जहां ऊंची जातियों के बच्चे सजा के तौर पर स्कूल की सफाई करने से इनकार कर देते हैं और उन के मांबाप आ खड़े होते हैं.

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