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Women Freedom : लड़की किसी की प्रौपर्टी नहीं

Women Freedom : आज की पीढ़ी की अधिकतर लड़कियां शिक्षित हैं, आत्मनिर्भर हैं और अपने लिए फैसले लेने का साहस रखती हैं. लेकिन समाज आज भी लड़की की आजादी स्वीकार नहीं कर पा रहा. उसे बाहर की दुनिया से जितना हो सके, उतना दूर रखने की कोशिश की जाती है कभी मर्यादा के नाम पर, कभी संस्कृति तो कभी सुरक्षा के नाम पर.

पिछले एक दशक से समाज के दकियानूसी संस्कारों पर ठोकरें लगनी शुरू हुई हैं तो सब उलटपलट सा गया है. लड़कियां पढ़ रही हैं. दुनिया को समझ रही हैं. वे अब अपना भविष्य खुद बनाना चाहती हैं, ऐसे में लड़कियों को निजी प्रौपर्टी समझने वाले समाज के बनावटी उसूल गड़बड़ाने लगे हैं.

समाज अभी लड़कियों को इतनी आजादी देने को तैयार नहीं है. लड़की मतलब घर की वह प्रौपर्टी जिस का परिवार से अलग कोई अस्तित्व नहीं. आजादखयाल लड़की का कौन्सैप्ट हमारे समाज की सोच से भी बाहर की चीज है. ऐसे समाज में आजादखयाल लड़कियों को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

लड़की भी अपने बारे में सोच सकती है. वह किसी लड़के से प्यार कर सकती है. अपनी मरजी से शादी कर सकती है. ये बातें भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य कतई नहीं हैं.

यहां कानून और समाज के बीच भयंकर टकराव है. कौन्स्टिट्यूशन के अनुसार 21 साल की लड़की आजाद है. वह अपने अनुसार जी सकती है, शादी कर सकती है. बिना शादी के अपने पार्टनर के साथ सैक्स कर सकती है लेकिन समाज की नजर में कोई औरत आजाद हो ही नहीं सकती. वह बिना शादी के सैक्स नहीं कर सकती. समाज की नजर में लड़की को सैक्स के लिए पार्टनर की नहीं, पति की जरूरत होगी और लड़की का पति कौन होगा, यह लड़की तय नहीं कर सकती. यहीं से समस्याएं खड़ी होती हैं.

कानून और समाज के बीच मध्यम मार्ग कोई नहीं है और समाज के आगे कानून भी लाचार नजर आता है. कानून का काम तो तब शुरू होता है जब कोई उस के द्वार खटखटाता है. यह कानून की मजबूरी है लेकिन समाज तो हर वक्त लड़की पर नजर बनाए रखता है. ऐसे में लड़की को अपनी मरजी से शादी करनी हो तो वह क्या करे?

शहरों में हालात बदल रहे हैं लेकिन गांवों व कसबों में आज भी लड़कियों के लिए कोई रास्ता नहीं है. वहां बदलाव बस इतना ही हुआ है कि लड़कियों को स्कूल भेजा जाने लगा है. बालविवाह में कमी आई है. लड़कियों की शादी में जल्दबाजी नहीं की जा रही. हर लड़का शादी के लिए औसत पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ़ रहा है, इसलिए मांबाप अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं. स्कूलकालेज जाने से लड़कियों में आत्मविश्वास आने लगा है और यही आत्मविश्वास उन्हें सामाजिक बंधनों के खिलाफ खड़ा कर रहा है.

गांवकसबों की लड़कियां भी अब इतनी नादान नहीं रह गईं कि परिवार की मरजी के आगे अपने जीवन को बलिदान कर दें. जवान होती हुई लड़की अपना भलाबुरा अच्छे से समझ रही है. अब वह किसी की भी प्रौपर्टी बन कर जीना नहीं चाहती. आज की लड़कियां रिश्तों के बंधनों से आजादी चाह रही हैं तो इस में गलत क्या है?

अपनी मरजी से शादी करने वाली लड़कियां गलत क्यों

लड़का अपनी मरजी से शादी कर ले तो ज्यादा होहल्ला नहीं मचता लेकिन लड़की ऐसा साहस करे तो समाज इसे लड़की का दुस्साहस समझता है. अपनी मरजी से शादी करने वाली लड़की को बहुतकुछ झेलना पड़ता है. इस के बावजूद समाज में उस के लिए कोई संवेदना पैदा नहीं होती जबकि लड़की समाज की वजह से ही ऐसा कदम उठाती है. लड़की भाग गई. लड़का भगा ले गया. लड़की ने नाक कटवा दी. ये सब ताने सिर्फ लड़कियों के लिए ही ईजाद किए गए हैं.

शहरों में स्थिति थोड़ी अलग है. शहरों में लड़कियां जौब करती हैं. नौकरी या कोई स्किल सीखने के लिए शहरों की लड़कियां अकेली घर से बाहर जाती हैं. प्रेम करती हैं. शहरों का समाज लड़कियों की आजादी को काफी हद तक स्वीकार कर चुका है. लड़कियों के मामले में शहर ज्यादा उदार हो चुके हैं, इसलिए यहां लव मैरिज एक सामान्य सी बात हो गई है लेकिन देश के कसबे और गांव आज भी लकडि़यों के लिए दड़बे बने हुए हैं, इसलिए गांव और कसबों में इस तरह के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.

कुछ समय पहले बिहार के तात्कालिक डीजीपी एस के सिंघल एक कार्यक्रम में समाज में बढ़ रहे अपराधों पर भाषण दे रहे थे. उन्होंने मातापिता की इच्छा के खिलाफ घर से भाग कर शादी करने की प्रवृत्ति के बढ़ने पर अफसोस का इजहार करते हुए कहा, ‘‘अभी बेटियों में घर से भाग कर शादी करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है. वे मातापिता को बिना बताए भाग कर शादी करने लगी हैं. बाद में इस के बहुत ही बुरे परिणाम देखने को मिल रहे हैं.

एक ओर जहां उन का अपने परिवार से दुराव हो रहा है वहीं दूसरी ओर कई लड़कियों को देह व्यापार के धंधे में उतार दिया जाता है. कई मामलों में लड़कियों का साथी अकेले छोड़ कर भाग जाता है जिस के कारण उन की भावी जिंदगी कष्टकारी हो जाती है. यह न केवल लड़कियों के लिए बल्कि उन के पूरे परिवार के लिए बहुत ही पीड़ा देने वाला होता है.’’

हालांकि, यह अलग बात है कि बिहार के अभिभावकों को अपनी बेटियों को नियंत्रण में रखने का शिष्टाचार सिखाने वाले डीजीपी एस के सिंघल खुद भ्रष्टाचार में पकड़े गए. वे सिपाही बहाली प्रश्नपत्र लीक मामले में दोषी पाए गए.

डीजीपी साहब के भ्रष्टाचार का मामला अलग है. यहां बात उन संस्कारों की हो रही है जिन में लड़कियों को बांधे रखने की वकालत डीजीपी एस के सिंघल जैसे लोग करते हैं. इन्हीं संस्कारों में हजारों वर्षों तक लड़कियों को बांधे रखा गया. लड़की को क्या पहनना है, कहां जाना है, कितना हंसना है, किस से शादी करनी है, कब शादी करनी है, भारतीय समाज में लड़कियों के लिए ये कभी उस के निजी मामले नहीं थे. घरवालों ने जहां तय कर दिया उसे वहीं शादी करनी होती थी और जीवनपर्यंत उस शादी को निभाना भी लड़कियों की जिम्मेदारी थी. ससुराल कैसा भी हो, पति जैसा भी हो लड़की को ही झेलना पड़ता था क्योंकि वह पिता की संपत्ति ही मानी जाती रही है.

बढ़ते अपराध, शादी के साइड इफैक्ट

इधर लगातार ऐसी खबरें सुर्खियों में रहीं जिन में औरतों ने अपने पतियों की बेरहमी से हत्याएं कर दीं. अपराध की ये घटनाएं इस बात को जस्टिफाई नहीं करतीं कि औरतों को संस्कारों के दायरे में कैद रखना सही है.

अगर पिछले एक साल के अपराधों पर नजर डालें तो 70 प्रतिशत मामलों में पतियों ने अपनी पत्नियों की हत्याएं की हैं. इस से मर्दों को संस्कारों में बांधने की वकालत तो कोई नहीं कर रहा. ऐसे मामले में जहां पति या पत्नी अपने जीवनसाथी को रास्ते से हटाने के लिए कत्ल तक करने की हिमाकत करते हैं वहां सवाल तो यह उठना चाहिए कि समाज में तलाक की सहज स्वीकार्यता क्यों नहीं है?

तलाक हमारी संस्कृति में शामिल क्यों नहीं है? लोगों को तलाक से आसान हत्या करना क्यों लग रहा है?

सोनम रघुवंशी, मुसकान रस्तोगी और शबनम शैफी जैसी औरतों ने तलाक का रास्ता क्यों नहीं चुना? अपराधी कोई भी हो सकता है. मर्द भी और औरत भी. लेकिन कुछ अपराधों में शामिल औरतों के उदाहरण ले कर आधी आबादी को कटघरे में खड़ा कर देना कहां तक उचित है?

1860 से 1910 के दशकों में यूरोप में सब से ज्यादा औनरकिलिंग हुईं. उस दौरान बड़ी तादाद में पतियों ने अपनी पत्नियों को मारा और पत्नियों ने अपने पतियों की हत्याएं कीं. यूरोपीय समाज ने इस से सबक लिया और लड़कियों को अपनी मरजी से जीने की छूट दी. यूरोपियन समाज ने परंपरागत शादियों की जगह लव मैरिजेज को बढ़ावा देना शुरू किया. तलाक के नियमों को आसान बनाया गया.

इस से कुछ ही दशकों में यूरोपीय समाज में बड़ी क्रांति देखी गई. 1950 आतेआते यूरोप में कामगार औरतों का अनुपात आश्चर्यजनक रूप से बढ़ गया. 1910 में जहां हैल्थ, एजुकेशन, इंडस्ट्रीज और हौस्पिटैलिटी में लड़कियां महज 9.3 प्रतिशत थीं वहीं 1950 तक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में औरतों की 37 प्रतिशत तक की भागीदारी हो गई.

आधी आबादी की पूरी आजादी जरूरी क्यों

यूरोप ने लड़कियों की क्षमताओं को समझ और उन्हें संस्कारों व परंपराओं की बेडि़यों से आजाद कर दिया. संस्कारों और परंपराओं की आड़ में आधी आबादी को निष्क्रिय कर कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता. औरत का अपना एक अस्तित्व है और इस अस्तित्व की गहराई में भावनाएं हैं, इच्छाएं है, प्रेम हैं, समर्पण है और वासना भी.

अगर औरत के अस्तित्व को ही कैद कर दिया जाए तो उस के अंदर की ये सारी वेदनाएं किसी न किसी रूप में बाहर जरूर निकलेंगी और सबकुछ उलटपलट देंगी. ऐसे में जरूरी है कि औरत को एक इंडिविजुअल के तौर पर भी स्वीकार किया जाए.

औरतों पर जुल्म जिन की रिपोर्टिंग नहीं होती

महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में भारत को दुनिया के सब से खतरनाक देशों में गिना जाता है. भारत में प्रतिदिन तकरीबन 90 रेप के केसेस दर्ज होते हैं. देश की राजधानी दिल्ली में 2022 के डाटा अनुसार हर घंटे औसतन 3 बलात्कार की घटनाएं दर्ज हुईं. क्या ये सभी मामले सोशल मीडिया पर सुर्खियां बटोरते हैं? क्या न्यूज चैनल्स इन खबरों पर चीखपुकार करते हैं?

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नैशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो के मुताबिक, साल 2022 में उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 65,743 मामले दर्ज हुए. यह देश के किसी भी राज्य की तुलना में सब से अधिक है, साथ ही, साल दर साल यह आंकड़ा बढ़ा भी है. आंकड़ा यह भी बताता है कि ‘पाताल से अपराधियों को खोज लाने’ का दावा करने वाली सरकार 2021 तक लंबित मामलों की जांच तक नहीं करा पाई.

आमतौर पर उत्तर प्रदेश की सरकार कानून व्यवस्था का खूब ढोल पीटती है. यूपी सरकार में एनकाउंटर और बुलडोजर न्याय का पर्याय बने हुए हैं लेकिन यूपी में औरतों पर होने वाले अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हुई है जिस पर मेनस्ट्रीम मीडिया, प्रिंट मीडिया और सोशल मीडिया में कोई चर्चा तक नहीं होती क्योंकि औरतें आदमी की प्रौपर्टी है, जैसा मर्जी व्यवहार करो की भावना पूरे पुलिस महकमे में भरद्ध है.

उत्तर प्रदेश के बाद दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान महिलाओं के खिलाफ सर्वाधिक अपराध वाले राज्य हैं. 2021 के मुकाबले 2022 में महिलाओं के प्रति अपराध में 4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. यही वजह है कि ‘महिला, शांति और सुरक्षा सूचकांक 2021’ में भारत 170 देशों में से 148वें स्थान पर है.

नारी के खिलाफ अपराधों में नारी अस्मिता की बकवास करने वाले और नारी को पूजने वाले लोगों की हकीकत उजागर होती है. इस तरह की जघन्य घटनाओं में संस्कार, मर्यादा और संस्कृति की घिसीपिटी दुहाई देने वाले समाज का घिनौना चेहरा भी पूरी तरह बेनकाब हो जाता है.

न्यूज चैनलों पर केवल ‘सिलैक्टिव’ मामले ही सुर्खियों में आते हैं क्योंकि यह सिलैक्टिव विचारधारा की औब्जैक्टिव राजनीति का परिणाम है.

महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग और देश की महिला सांसदों का रवैया क्या है, बताने की जरूरत नहीं. हर साल देश की हजारों बेटियां हवस का शिकार होती हैं. मंदिरमसजिद में मासूम बच्चियों संग गैंगरेप होते हैं लेकिन इस से शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं को कोई फर्क नहीं पड़ता.

सांप्रदायिक मुद्दों पर गला फाड़फाड़ कर चिल्लाने वाली महिला एंकर्स के लिए बलात्कार जैसी घटनाएं भी राजनीति और टीआरपी का खेल बन जाती हैं. किसी बलात्कार पर तभी शोर मचता है जब मामले में सांप्रदायिक पहलू शामिल हो वरना महिलाओं के खिलाफ जघन्यतम मामलों में भी कोई होहल्ला नहीं मचता. जब तक किसी मामले में टीआरपी का ग्राफ ऊपर न उठे तब तक टीवी पर नजर आने वाली महिला एंकरों को नारी पर होने वाले किसी भी अपराध से कोई फर्क नहीं पड़ता.

भारत की महान संस्कृति का दर्शन करने आने वाली विदेशी नारियों के साथ भी रेप हुए लेकिन प्राइम टाइम में कोई शोर न हुआ क्योंकि ये घटनाएं उन राज्यों में घटित हुईं जहां ‘राष्ट्रवादी’ सरकारें हैं. इन घटनाओं पर विदेशों में भारत की ‘महान’ संस्कृति सुर्खियों में रही लेकिन देश की मीडिया और मीडिया में बैठी खूबसूरत बालाएं खामोश रहीं. इस कुसंस्कृति पर वे एक शब्द भी नहीं बोल पाईं लेकिन धार्मिक मामलों में टीवी पर बैठी यही नारी शक्तियां चिल्लाती हुई दिखाई देती हैं.

15 मार्च, 2025 को एक ब्रिटिश महिला का दिल्ली के एक होटल में रेप किया गया. 8 मार्च यानी महिला दिवस के दिन तेलंगाना के हम्पी में 2 इजराइली औरतों का रेप हुआ. फरवरी में ही दिल्ली की एक अदालत ने एक आयरिश महिला के रेप और हत्या मामले में दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई. क्या इन में से कोई भी खबर सुर्खियां बटोर पाई? क्या इन खबरों पर देश में कोई शोर मचा?

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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पत्नियों की हत्या के कुछ ताजा मामले

मार्च 2025 : सारंगढ़, बालोद और कोंडागांव में तीन पत्नियों की हत्याएं.

अप्रैल 2025 : मामूली घरेलू विवादों में 10 जगहों पर पतियों द्वारा पत्नियों का कत्ल कर डाला.

मई 2025 : चरित्र शक और मामूली विवाद में इस महीने भी 10 पत्नियों की हत्या.

15 जून, 2025 : मामूली घरेलू विवाद में 6 जगहों पर पति ने पत्नियों को मार डाला- इन में शक के चलते 10 से ज्यादा मर्डर, 6 बार नशे की हालत में कत्ल, 2 पत्नियों की हत्या संबंध बनाने से इनकार पर, बाकी वजहें- दहेज और तनाव. ये सारे मामले भारत के केवल एक राज्य मध्य प्रदेश के हैं.

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पिछले 2 महीनों में पुरुषों द्वारा अपनी पत्नियों की हत्या के 30 से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं. वहीं पत्नियों द्वारा पतियों की हत्या के मामले इस के आधे भी नहीं हैं लेकिन शोर केवल औरतों द्वारा किए गए अपराधों पर मच रहा है.

सोशल मीडिया और मेनस्ट्रीम मीडिया दोनों पूरी तरह जातिवादी पुरुषों के हाथों में हैं जो औरतों पर होने वाले अत्याचारों व अपराधों को गंभीरता से तभी लेते हैं जब विक्टिम ऊंची जाति की हो और अपराधी निचली जाति से हो या दूसरे धर्म का हो. अगर अपराधी और पीडि़त दोनों अपनी ही जाति से हों तो मामले को एक कोने में सरका दिया जाता है.

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के शोर में बहुत सी बेटियां खामोश कर दी जाती हैं. कुछ पेट में ही मार दी जाती हैं, कुछ खाली पेट मर जाती हैं. लेकिन ये लड़कियां प्राइम टाइम की खबरों में जगह नहीं बना पातीं.

मलाला हो या सबरीमाला, औरत से दिक्कत सभी धर्मों को है क्योंकि औरत की शिक्षा से उस की आजादी से धर्मों की बुनियादें हिलने लगती हैं. सतीप्रथा खत्म हो चुकी है लेकिन औरत को जिंदा जलाने की मानसिकता आज भी मौजूद है. जब मणिपुर की औरतों को सरेआम बीच चौराहे पर उन के जिस्म से आखिरी कपड़ा तक उतार कर उन्हें भरे बाजार में नंगा घुमाया गया तब भी मीडिया में बैठी नारीशक्ति के आंख, कान, जबान सब बंद हो गए थे. नारी केवल प्रौपर्टी है. पुरुष चाहे जैसे उस का दुरुपयोग करे, यह पूरे समाज में फैला है, सिर पर कलश ढोने वालियों में भी और हिजाब पहनने वालियों में भी. Women Freedom

Indian Film Censorship : सैंसर की सीनबंदी “जाति संघर्ष की फिल्में”

Indian Film Censorship : भारतीय फिल्में जब जाति, धर्म या सामाजिक न्याय जैसे संवेदनशील मुद्दों को छूती हैं तो सैंसर बोर्ड की भूमिका विवादों के केंद्र में आ जाती है. हाल के वर्षों में ‘फुले’, ‘संतोष’, ‘धड़क 2’ और ‘चल हल्ला बोल’ जैसी फिल्मों को सैंसरशिप या प्रतिबंध का सामना करना पड़ा, जबकि हिंसा और अश्लीलता से भरपूर फिल्में आसानी से प्रमाणन पा जाती हैं. यह सैंसर बोर्ड का राजनीतिकरण है. ऐसे में क्या फिल्म इंडस्ट्री को अपनी स्वयं की प्रमाणन व्यवस्था बनानी चाहिए?

हालिया रिलीज करण जौहर निर्मित फिल्म ‘धड़क 2’ सैंसर के चंगुल से बालबाल बची. सैंसर बोर्ड ने इस फिल्म को लंबे समय तक लटका कर रखा और उस वक्त कई संवाद व कई दृश्यों पर कैंची चलने की संभावनाओं की बात होती रही.

फिल्म की कहानी के अनुसार एक दलित लड़का अपने कालेज की ब्राह्मण लड़की से प्रेम करने लगता है. लड़की ही सब से पहले उस का साथ देती है. दोनों बांहों में बांहें डाल घूमने से ले कर चुंबन तक करते मिल जाते हैं. निश्चित रूप से यह फिल्म खासतौर पर तथाकथित उच्च जाति के अनेक लोगों की भावनाओं को आहत करती है. फिल्म का कथानक इसी तरह की भावनाओं को उभारता है.

ब्राह्मण लड़की अपनी बड़ी बहन की शादी में इस दलित लड़के को भी निमंत्रित करती है तब समारोह के बीच लड़की का पिता इस दलित लड़के को कोने में ले जा कर सम?ाता है कि उसे उन की बेटी से दूर रहना चाहिए. तभी लड़की का चचेरा भाई और उस के दोस्त वहां पहुंच कर इस लड़के की जबरदस्त पिटाई करने के साथ ही उन में से एक लड़का, इस दलित जाति के लड़के पर पेशाब भी कर देता है.

इस दृश्य को दिखाने के लिए रजामंदी देना सैंसर बोर्ड के लिए आसान तो नहीं रहा होगा. मगर करण जौहर अपने तरीके से लड़ाई लड़ इस सीन को सैंसर बोर्ड से पास करवाने में सफल रहे. फिल्म की रिलीज के बाद इस की निर्देशक शाजिया इकबाल जरूर अपने इंटरव्यू में सैंसर के सवाल पर बचती नजर आती हैं. मगर फिल्म रिलीज होने से पहले ही मीडिया में वह जानकारी आ गई थी जिस में सैंसर बोर्ड ने निर्माता को फिल्म के कुछ दृश्यों व संवादों पर कट लगाने या बदलाव करने के सुझाव दिए थे. लेकिन निर्देशक यह बता कर बात को बढ़ाना नहीं चाहतीं कि उन्होंने कितने कट या बदलाव स्वीकार किए.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड, जो पहले सैंसर बोर्ड के नाम से जाना जाता था, बौलीवुड फिल्मों में हिंसा, कामुकता, राजनीति या धार्मिक संवेदनशीलता सहित अनुचित समझ जाने वाली सामग्री के लिए कटौती को लागू करता है. वर्ष 1952 में यह इसी मकसद से अस्तित्व में आया था. इस से अकसर रचनात्मक समझते, कलात्मक स्वतंत्रता के बारे में गरमागरम बहस और कभीकभी वांछित प्रमाणन रेटिंग को बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण संशोधन होते हैं. लेकिन पिछले डेढ़दो वर्षों से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सैंसर बोर्ड की कार्यशैली में संतुलन नजर नहीं आ रहा है.

सैंसर बोर्ड अब जातिगत मुद्दों व नीची जाति के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानियों पर कुछ ज्यादा ही कड़क हो गया है. फिर चाहे वह महात्मा ज्योतिबा फुले के जीवन पर बनी फिल्म ‘फुले’ हो अथवा अंतरजातीय प्रेम कहानी बयां करने वाली करण जौहर निर्मित फिल्म ‘धड़क 2’ हो या फिल्म ‘संतोष’ ही क्यों न हो. ‘संतोष’ को तो बैन ही कर दिया गया.

दूसरी तरफ पिछले डेढ़दो वर्षों के दौरान फिल्मों में हिंसा, खूनखराबा, गालीगलौच व सैक्स युक्त दृश्यों की बहुतायत हो गई है, मसलन ‘किल’, ‘स्त्री 2’, ‘छावा’, ‘केसरी वीर’ मलयालम फिल्म ‘एल 2: इम्पूरन’ इत्यादि.

ऐसा लगता है कि सैंसर बोर्ड को अब सामाजिक हिंसा से कोई परहेज नहीं है लेकिन वह जातिगत भेदभाव, जो हर स्तर पर फैला है, को उजागर करने वाली और पोल खोलने वाली फिल्मों को परदे पर नहीं आने देता. सामाजिक हिंसा आज धर्म का अहम हिस्सा बन चुकी है और आएदिन विधर्मियों की लिंचिंग, औनरकिलिंग, पुलिस एनकाउंटर, कस्टोडियल किलिंग और टौर्चर किए जाने के समाचार अखबारों के कोनों में एक कौलम में छोटी हेडिंगों में दिख जाएंगे. धर्मनिष्ठ टीवी चैनल उस की बात नहीं करते.

सिनेमा को लंबे समय से समाज के लिए प्रवचनों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचारपत्रों के बाद एक शक्तिशाली दर्पण के रूप में देखा जाता रहा है, जो इस माध्यम के मूल्यों, असुविधाओं, आकांक्षाओं और जटिलताओं को दर्शाता है.

जब फिल्में जाति जैसी गहरी सामाजिक समस्याओं में उतरती हैं तो वे अकसर खुद को कला और विवाद के चौराहे पर पाती हैं. ‘फुले’, ‘संतोष’ या ‘चल हल्ला बोल’ पर लोगों को भड़काने के भी आरोप लगे पर अहम सवाल यह है कि क्या भड़काने से बचना या सुरक्षा करना फिल्म निर्माता की जिम्मेदारी है कि स्क्रीन पर सच बताना भड़काऊ माना जा सकता है भले ही वह वास्तविक इतिहास से लिया गया हो?

सैंसर बोर्ड को सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 के तहत काम करना चाहिए. हमेशा ही सैंसर बोर्ड से जाति और सामाजिक न्याय से संबंधित फिल्मों को काफी विरोध का सामना करना पड़ा है. कुछ मामलों में तो फिल्मों पर सीधा प्रतिबंध लगा दिया गया या उन की कड़ी जांच की गई.

जब आज गहराई में जा कर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के इन निर्णयों पर गौर करें तो पाते हैं कि सैंसर बोर्ड एक खास राजनीतिक दल के फिल्मकार के प्रति अतिलचीला नजरिया अपनाते हुए उन की फिल्मों को प्रमाणपत्र दे रहा है. ऐसी फिल्मों में कहानी की मांग न होते हुए भी देवीदेवताओं व हिंदू धर्म का बेवजह महिमामंडन होता है मगर अतिरंजित हिंसा व खूनखराबा परोसे जाने वाली फिल्मों को अछूता छोड़ा जा रहा है.

इतना ही नहीं, ‘छावा’ जैसी फिल्में तो देश के ज्ञात इतिहास को भी नए रूप में पेश कर रही हैं. हम सभी जानते हैं कि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसे सच मान कर हर बच्चा व युवा प्रभावित होता है.

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय सिनेमा आज की पढ़ाई के खोखले ज्ञान से निकल कर आए युवाओं के लिए प्रभाव का एक बड़ा स्रोत है. वे जानबू?ा कर इसी ज्ञान, दुराज्ञान कहें तो अच्छा है, को अपना आदर्श मानते हैं और अपने दैनिक जीवन में इसे अंतिम सत्य की तरह शामिल करते हैं.

किशोर ज्यादातर फिल्म में दिखाए गए ऐक्शन, हिंसा और अश्लील दृश्यों से प्रेरित होते हैं, जिन्हें वे सच मानते हैं. औरतें और युवतियां, खासतौर पर जिन का बाहरी ज्ञान कम होता है, बहुत हद तक प्रभावित होती हैं.

आज की नई पीढ़ी किताबें पढ़ने में यकीन नहीं करती है. वह फिल्म में ही परोसे गए गलतसलत इतिहास को सौ प्रतिशत सच मान लेती है. इस से भारतीय समाज का कितना बड़ा नुकसान हो रहा है, इस का एहसास किया जा सकता है. लेकिन यहां तो सब की आंखें बंद हैं. ऐसे में यह जांचना अनिवार्य हो जाता है कि क्या बनाया गया है और क्या दिखाया गया है.

स्वायत्तता पर उठते सवाल

यों तो 1918 से ही सैंसर बोर्ड का उपयोग शासक या सरकारें अपने हिसाब से करती रही हैं पर यह प्रतिशत न के बराबर रहा है. मगर कांग्रेस सरकार के बाद आई सरकार का रुख सिनेमा के प्रति नरम होने के बजाय कठोर होता गया.

4 अप्रैल, 2021 को केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने अध्यादेश जारी कर सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव के साथ ही एफसीएटी को ही खत्म कर दिया. तभी से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का राजनीतिकरण हो गया, ऐसा कहा जा सकता है खासतौर पर यह देखते हुए कि सरकार द्वारा गठित पिछली विशेषज्ञ समितियों (जस्टिस मुद्गल समिति और श्याम बेनेगल समिति) ने एफसीएटी को समाप्त करने की नहीं, बल्कि इस का विस्तार करने और इसे सशक्त बनाने की सिफारिश की थी.

सरकार ने फिल्म उद्योग व फिल्म इंडस्ट्री के हितधारकों से बिना किसी तरह का परामर्श किए अध्यादेश के माध्यम से जब एफसीएटी को खत्म किया तो इस का फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से विरोध हुआ था. एफसीएटी के खत्म होने के बाद सैंसर बोर्ड के निर्णय से असहमत होने पर अब फिल्म निर्माताओं के पास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.

किसी भी फिल्म निर्माता के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना आसान नहीं है, क्योंकि फिल्म निर्माता को तो प्रतिदिन बढ़ रहे ब्याज की चिंता सता रही होती है तो दूसरी तरफ निर्माता को शंका रहती है कि क्या एफसीएटी की तरह उच्च न्यायालय में उन का केस फिल्म तकनीक व रचनात्मकता की समझ रखने वाली टीम सुनेगी? यही वजह है कि महेश भट्ट और श्याम बेनेगल सहित तमाम फिल्मकारों ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को खत्म कर इसे फिल्म इंडस्ट्री के हाथों में सौंपने की मांग की पर उन की बात कौन सुनता, जब बौलीवुड की एकजुटता खत्म हो गई हो और बौलीवुड दो खेमों में बंट चुका हो.

एफसीएटी को खत्म करने के साथ ही यह नियम भी बन गया कि सैंसर बोर्ड से पारित किसी फिल्म के रिलीज के बाद यदि समाज के किसी वर्ग से विरोध आया तो फिल्म का प्रदर्शन रोक कर सैंसर बोर्ड उस फिल्म को दोबारा सैंसर करेगा. 2025 में केरल में ऐसा 2 फिल्मों के साथ किया जा चुका है. अब तो देखा जा रहा है कि किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट को दी गई विशेष शक्तियों का इस्तेमाल अब उन अभिनेताओं के खिलाफ हथियार के रूप में किया जा रहा है जो उस क्षेत्र की सत्तारूढ़ पार्टी के लिए खड़े नहीं होते हैं.

2019 में नरहरि गरासिया ने आरोप लगाते हुए कहा था, ‘‘सीबीएफसी पूरी तरह से स्वायत्त नहीं है और स्थिति के अनुसार पदानुक्रम और राजनीतिक प्रभावों के दबाव में काम करता है और सैंसरशिप फिल्म निर्माताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा डालती है.’’

कुछ लोगों का तर्क है कि इस का उपयोग विशिष्ट विचारधाराओं को बढ़ावा देने और असहमतिपूर्ण आवाजों को दबाने के लिए किया जाता है. जाति, धर्म और भेदभाव की पोल खोलने वाली फिल्मों की असंगत रूप से जांच कर उन्हें रोकने के आरोप लग रहे हैं, जबकि अतिराष्ट्रवादी या सनसनीखेज हिंसा प्रधान फिल्मों को नरमी के साथ पारित किए जाने के आरोप लग रहे हैं अगर उन में कोई लोकप्रिय नारेबाजी जोड़ दी जाए.

मसलन, मोहनलाल की मलयालम फिल्म ‘एल2 : एम्पूरन’ को सैंसर बोर्ड के त्रिवेंद्रम कार्यालय ने पारित कर दिया और फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज भी हो गई जबकि इस में गुजरात में 2002 में हुए हिंदूमुसलिम दंगों का जिक्र और हिंसा प्रधान दृश्यों की भरमार है. बाद में भाजपा की तरफ से इस का विरोध किए जाने पर 3 दिनों बाद फिल्म की रिलीज स्थगित कर नए सिरे से सैंसर की गई.

मोहनलाल ने जनता के सामने आ कर माफी मांगते हुए कहा कि उन्होंने कथित ऐतिहासिक संदर्भों पर राजनीतिक आपत्तियों के कारण कट और बदलाव कर दिए हैं. इतना ही नहीं, सैंसर बोर्ड की कार्रवाई के बाद फिल्म के निर्माताओं के यहां ईडी के भी छापे पड़े. 2002 के दंगे चुनाव जिताने के लिए एक बड़ा खजाना रहे हैं.

फिल्म ‘फुले’ पर लगा जातिवाद को बढ़ाने का आरोप

हम आगे बढ़ें उस से पहले कुछ नए विवादों की बात कर लें. 2025 में सब से बड़ा विवाद हुआ फिल्म ‘फुले’ को ले कर. फिल्म ‘फुले’ पर जातिवाद को बढ़ाने का आरोप लगा और सैंसर बोर्ड ने संवादों को संशोधित करने या बदलने के लिए कहा. पहला, ‘शूद्रों को… झाड़ू बांध कर चलना चाहिए’ इस की जगह पर ‘सब से दूरी बना के रखनी चाहिए’, दूसरा, ‘3000 साल पुरानी… गुलामी’ की जगह ‘कई साल पुरानी’, 43 सैकंड का एक संवाद ‘यहां 3 एम हैं और हम वही करने जा रहे हैं’ को हटाया जाए. फिल्म के एक दृश्य में ब्राह्मण लड़का, सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकता है, इसे हटाया जाए. महार, पेशवाई, मांग जैसे शब्दों को हटाना, जाति व्यवस्था से शूद्रों की दुर्दशा का वौयसओवर हटाया जाए वगैरह. कुछ लोगों ने इस कदम को इतिहास को दबाने और दलित बहुजन की कहानी को कमजोर करने की साजिश बताया.

हालांकि ये मामूली बदलाव लग सकते हैं लेकिन इन के गहरे निहितार्थ हैं. ‘जाति’ की जगह ‘वर्ण’ रखना कोई शब्दार्थ परिवर्तन नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक बदलाव है. यह फुले की विरासत को कमजोर करता है, जो जाति आधारित उत्पीड़न के खिलाफ उन के आजीवन संघर्ष में निहित थी. उस वास्तविकता को दरकिनार करना सिर्फ ऐतिहासिक संशोधनवाद नहीं है, उसे मिटाना है.

‘संतोष’ को किया गया बैन

सैंसर बोर्ड ने विश्व स्तर पर सराही गई और औस्कर के लिए यूके की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में चुनी गई फिल्म ‘संतोष’ को भी नहीं बख्शा, जिसे भारत में फिल्माया गया और जिस में भारतीय कलाकारों ने ही अभिनय किया है. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) की आपत्तियों के कारण इसे भारत में रिलीज नहीं किया जा सका. यह फिल्म भी जातिवाद की बात करती है. फिल्म में एक निचली जाति के हवलदार की हत्या हो जाने पर उस की पत्नी को नौकरी मिल जाती है और फिर एक जातिगत अत्याचार की जांच में वह रुचि लेती है, यह सब सैंसर बोर्ड को अखर गया और फिल्म पर प्रतिबंध ही लग गया.

ब्रिटिश-भारतीय फिल्म निर्माता संध्या सूरी द्वारा निर्देशित ‘संतोष’ एक विधवा दलित महिला की कहानी बताती है जो पुलिस बल में शामिल होती है और वह एक अन्य दलित लड़की के बलात्कार व हत्या की जांच करती है. यह फिल्म जाति आधारित हिंसा, स्त्रीद्वेष और संस्थागत इसलामोफोबिया की पड़ताल करती है. ये ऐसे मुद्दे हैं जो भारतीय समाज में गहराई से जड़ जमाए हुए हैं. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि विदेशों में स्वीकार की जाने वाली कहानियों पर अकसर घर में चुप्पी क्यों?

‘चल हल्ला बोल’

प्रख्यात दलित कवि, लेखक, विचारक और दलित पैंथर्स आंदोलन के संस्थापक दिवंगत नामदेव ढसाल से प्रेरित फिल्म ‘चल हल्ला बोल’ भी सैंसर बोर्ड की आपत्तियों के कारण अटक गई है. फिल्म निर्माता व लेखक महेश बंसोड़े ने लोगों के योगदान से यह फिल्म बनाई है. बंसोड़े कहते हैं, ‘‘फिल्म ‘चल हल्ला बोल’ को भारत और विदेशों में 252 फिल्म समारोहों में दिखाया व पुरस्कृत किया गया. अब तक इस ने 32 पुरस्कार जीते हैं पर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड इसे प्रमाणपत्र देने को तैयार नहीं.’’

सैंसर बोर्ड : शुरुआत और स्वतंत्रता के बाद बदलाव

भारत में फिल्म सैंसरशिप की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान 1918 के सिनेमेटोग्राफ अधिनियम के लागू होने के बाद हुई थी और फिल्मों को केवल सख्त सत्यापन और प्रमाणन के बाद ही प्रदर्शित किया जाता था. ब्रिटिश शासक इस बात पर दृढ़ थे कि सिनेमा को उन के औपनिवेशिक हितों की सेवा करनी चाहिए. संबंधित प्रांत में फिल्म के प्रदर्शन को रद्द करने के लिए संबंधित राज्य या जिले के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस आयुक्त को प्रमुख शक्तियां वितरित की गई थीं.

वर्ष 1918 के सैंसरशिप अधिनियम से पहले भारतीय दंड संहिता और सीआरपीसी अधिनियम के मार्गदर्शन में फिल्म निर्माताओं के पास पूरी स्वतंत्रता थी. शुरुआती सैंसर बोर्ड आज के कोलकाता, चेन्नई, मुंबई और लाहौर में स्थापित किए गए थे, जिन में पुलिस आयुक्त, सीमा शुल्क कलैक्टर, भारतीय शैक्षिक सेवाओं के सदस्य और महत्त्वपूर्ण समुदायों के 3 मान्यताप्राप्त नागरिक शामिल थे. सैंसर बोर्ड नग्नता, नशे की हालत में महिलाओं के चित्रण, भावुक प्रेम के प्रति संवेदनशील था.

ब्रिटिश शासकों ने अपने वास्तविक, यानी राजनीतिक इरादों को छिपाने के लिए दर्शकों की सुरक्षा और अपमानजनक या नैतिक प्रदर्शनों की रोकथाम को प्राथमिकता दी. आजादी के बाद इस विरासत को आगे बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, लेकिन नए भारत की सरकारों ने फिल्म सैंसरशिप की व्यवस्था को बरकरार रखा जिस से यह बात उजागर होती है कि नए भारत का उभरता नेतृत्व का बहुमत फिल्म मनोरंजन के साथ नरमी से पेश आने के विचार के खिलाफ था.

उन्होंने इसे हानिकारक पश्चिमी प्रभाव से जोड़ा जिसे खत्म करने या कम से कम रोकने की जरूरत की बात की. उन के कार्यों और कथनों ने पर्याप्त संकेत दिए कि स्वतंत्रता के बाद इस देश में फिल्मों के प्रदर्शन से संबंधित मामलों में नैतिकता और व्यवहार के सिद्धांतों की पवित्रता ‘जैसा कि हमारे पूर्वजों ने निर्धारित किया है’ बारबार लागू की जाएगी.

अफसोस कि उपनिवेशवाद के बाद के युग में सैंसरशिप मशीनरी के संभावित उपयोग के लिए एक और भी महत्त्वपूर्ण संकेत था. नौकरशाही एक सख्त कोड सैंसरशिप को अपनाने के लिए पूरी तरह से तैयार थी. उन्होंने उस दौर की भारतीय फिल्मों में ‘बहुत अधिक तुच्छता’ की शिकायत की और मनोरंजन व शिक्षा के माध्यम के रूप में उन के दावे को सही ठहराने के लिए नैतिकता के अधिक कठोर मानक का पालन करने की मांग की.

जनवरी 1951 में तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री आर बी दिवाकर ने केंद्रीय फिल्म सैंसर बोर्ड को ‘स्वस्थ मनोरंजन, राष्ट्रीय संस्कृति और जन शिक्षा के प्रभावी माध्यम के मौडल के लिए एक सम्मानजनक प्रयास’ के रूप में स्थापित करने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की. आखिरकार सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का गठन किया गया, जिस में 1983 में कुछ संशोधन किए गए.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में कौन

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का मुख्यालय मुंबई में है लेकिन इस के दिल्ली, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि शहरों में क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में एक सीईओ होता है जोकि एक आईएएस अफसर होता है, जिसे केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है. जब कोई फिल्म निर्माता केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के खिलाफ अदालत जाता है तो सैंसर बोर्ड की तरफ से अदालत में फिल्म का परीक्षण करने वाली कमेटी के सदस्य, बोर्ड मैंबर या चेयरमैन के बजाय केवल सीईओ वकील के साथ जाता है.

सीईओ के नीचे चेयरमैन होता है. इस की नियुक्ति भी केंद्र सरकार ही करती है पर 1952 से अब तक चेयरमैन के पद पर सदैव फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा इंसान ही बैठता रहा है.

अगस्त 2017 से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन पद पर प्रसून जोशी आसीन हैं, जोकि मशहूर फिल्म गीतकार व पटकथा लेखक हैं. अब तक चेयरमैन का कार्यकाल 3 वर्ष का होता रहा है लेकिन प्रसून जोशी पिछले 9 वर्षों से इस पद पर आसीन हैं. प्रसून जोशी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कविताएं लिख चुके हैं.

इस के बाद 18 बोर्ड मैंबर होते हैं, जिन की नियुक्ति केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय ही करता है.

इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्यों में मुंबई से फिल्म अभिनेत्री विद्या बालन, रंगकर्मी, अगस्त 2013 से सितंबर 2018 तक एनएसडी के निदेशक रहे वामन केंद्रे, फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्माता व निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री, खास दल से अपरोक्ष रूप से जुड़े हुए नाटककार व लेखक मिहिर भुता, आरआरएस कार्यकर्ता व मराठी साप्ताहिक ‘विवेक’ के संपादक रमेश पतंगे, चेन्नई से गौतमी तदीमाला, दिल्ली से अभिनेत्री व भाजपा की पूर्व महिला अध्यक्ष वाणी त्रिपाठी टिक्कू, हैदराबाद से जीविता राजशेखर, बेंगलुरु से टी एस नागाभरना, पोर्ट ब्लेयर से नरेश चंद्र लाल आदि शामिल हैं.

कितना निष्पक्ष सीबीएफसी

बोर्ड मैंबर कितना निष्पक्ष हो कर रचनात्मक स्वतंत्रता का साथ देते हैं, इस का दावा कोई नहीं कर सकता. इस के बाद हर कार्यालय में फिल्म सैंसर करने यानी कि फिल्म परीक्षण समिति के 180 सदस्य होते हैं. ये समाज के हर क्षेत्र से जुड़े यानी कि कला जगत, पत्रकार, कलाकार, फिल्म इंडस्ट्री, थिएटर, प्रोफैसर, शिक्षाविद वगैरह होते हैं. इन की नियुक्ति भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ही करता है. कहीं भी उद्योग की कोई राय नहीं ली जाती.

एक फिल्म की परीक्षण समिति में इन्हीं 180 में से 4 सदस्य चुने जाते हैं और इन की मदद के लिए एक सरकारी अफसर मौजूद रहता है. सैंसर बोर्ड के हर कार्यालय में 8 से 10 अफसर होते हैं, जिन्हें फिल्म की समझ होती है या नहीं, इस का दावा नहीं किया जा सकता पर ये डैप्युटेशन पर आतेजाते रहते हैं. कार्यालय का सारा काम इन्हीं के कंधों पर रहता है.

परीक्षण समिति के निर्णयों से असहमत होने पर फिल्म निर्माता रिवाइजिंग कमेटी के सामने जा सकता है. अब यहां पर बोर्ड मैंबर जुड़ता है.

हर रिवाइजिंग कमेटी में 8 सदस्यों के साथ एक बोर्ड मैंबर बैठ कर फिल्म देखता है और फिर यह रिवाइजिंग कमेटी अपना निर्णय देती है. रिवाइजिंग कमेटी के निर्णय से असहमत होने पर फिल्म निर्माता के सामने अब उच्च न्यायालय का दरवाजा खखटाने के अलावा विकल्प नहीं.

जबकि 4 अप्रैल, 2021 से पहले फिल्म निर्माता एफसीएटी यानी कि न्यायालयीन प्राधिकरण में जा सकता था. एफसीएटी दिल्ली में हुआ करता था. इस के चेयरमैन रिटायर सुप्रीम कोर्ट जज होते थे. उन के अधीन 2 बोर्ड मैंबर और 16 सदस्य बैठ कर फिल्म देख कर निर्णय लेते थे पर अफसोस कि सरकार ने एक अध्यादेश ला कर 4 अप्रैल, 2021 को एफसीएटी का खात्मा कर दिया.

कहने को फिल्म का मूल्यांकन उस के समग्र प्रभाव के दृष्टिकोण से किया जाता है. फिल्म में दर्शाए गए काल और देश तथा लोगों के समकालीन मानकों के प्रकाश में जांच की जाती है, जिस से फिल्म संबंधित है.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड या उस की फिल्म परीक्षण समिति खुद किसी भी फिल्म के किसी संवाद या दृश्य पर कैंची नहीं चलाती. वह तो केवल गाइडलाइंस का पालन ठीक से हुआ है या नहीं, उस का परीक्षण कर प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है.

क्या कहते हैं सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 सिनेमा रचनात्मक माध्यम है. इसलिए सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 और सिनेमेटोग्राफ (सर्टिफिकेशन) रूल्स 1983 द्वारा ठोस नियम नहीं बनाए गए हैं, बल्कि फिल्म का सार्वजनिक प्रसारण होने पर समाज, राज्य व देश के अंदर हालात न बिगड़ें, इस के लिए कुछ गाइडलाइंस हैं. उन गाइडलाइंस का पालन हर फिल्मकार के लिए करना आवश्यक होता है. हम यहां याद दिला दें कि सैंसर बोर्ड खुद कैंची ले कर नहीं बैठता और न ही सैंसर बोर्ड किसी दृश्य को काटता है.

सैंसर बोर्ड की 4 सदस्यीय परीक्षण समिति केवल इस बात को परखती है कि फिल्मकार ने गाइडलाइंस का पालन करते हुए फिल्म का निर्माण किया है या नहीं और उन गाइडलाइंस के अनुसार ही परीक्षण समिति फिल्म को ‘यू’ या ‘यूए’ या ‘ए’ प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है.

अगर परीक्षण समिति किसी फिल्म के लिए ‘ए’ प्रमाणपत्र की सिफारिश करती है तो वह स्पष्ट रूप से फिल्मकार को बताती है कि ऐसा किन दृश्यों या संवादों के कारण है. निर्माता अपनी फिल्म को ‘ए’ प्रमाणपत्र के साथ रिलीज नहीं करना चाहता तो निर्माता व निर्देशक स्वयं आपत्तिजनक दृश्य व संवाद काट कर अपनी फिल्म के लिए ‘यू’ या ‘यूए’ प्रमाणपत्र ले लेता है. इतना ही नहीं, परीक्षण समिति अंतिम निर्णय पर पहुंचने से पहले उस के सभी चारों सदस्य आपस में विचारविमर्श करते हैं, उस के बाद यह समिति फिल्म के निर्देशक को वस्तुस्थिति बताती है.

फिल्म के निर्माता या निर्देशक को लगता है कि परीक्षण समिति उन की फिल्म के दृश्य, संवाद की रचनात्मक स्तर पर जरूरत को समझ नहीं पा रही है तो फिल्मकार के पास विकल्प होता है कि वह परीक्षण समिति को बताए कि उस दृश्य या संवाद को रखने के पीछे उस की सोच या मंशा क्या है और वह उस की फिल्म के कथानक के अनुसार कितना आवश्यक है. अगर परीक्षण समिति संतुष्ट हो जाती है, तब सारी समस्या हल हो जाती है.

अटपटी हैं गाइडलाइंस

यह व्यवस्था कितनी सरल व स्पष्ट है. इस के बावजूद विवाद पैदा होते हैं. आखिर क्यों? तो इस के मूल में गाइडलाइंस हैं. जी हां, इस तरह के विवाद तब पैदा होते हैं जब एक ही दृश्य या एक ही संवाद को ले कर गाइडलाइंस में कही गई बातों की व्याख्या फिल्म, फिल्मकार और परीक्षण समिति के चारों सदस्य अलगअलग करते हैं. मसलन, फिल्म में ज्सादा हिंसा या खूनखराबा नहीं होना चाहिए.

अहम सवाल यह है कि ज्यादा मतलब कितना? परीक्षण समिति के एक सदस्य की सोच व समझ के अनुसार 2 थप्पड़ मारना भी हिंसा हो सकती है. चार बंदूकधारी 10 लोगों की हत्या कर दें पर यदि कहानी गैंगस्टर की है तो ज्यादा हिंसा में वह नहीं गिना जा सकता.

फिल्म ‘एनिमल’ के निर्देशक के अनुसार रणबीर कपूर द्वारा मशीनगन से 300 लोगों को गोलियों से भून देना भी हिंसा नहीं है. इसलिए इसे सैंसर प्रमाणपत्र मिल गया था, मतलब कि निर्देशक ने परीक्षण समिति को अपना जवाब दे कर संतुष्ट किया होगा.

कई बार फिल्म निर्माता अपनी फिल्म को विवाद में ला कर मुफ्त का प्रचार पाने के लिए जानबूझ कर गाइडलाइंस का उल्लंघन करते हैं और फिर शोरशराबा करते हैं. गाइडलाइंस में साफ लिखा है कि ‘चमार’ या अन्य जातिसूचक शब्दों का उपयोग नहीं किया जा सकता पर करण जौहर ने अपनी फिल्म ‘धड़क 2’ में इन शब्दों का उपयोग किया और महज परीक्षण समिति ने इस पर आपत्ति जताई तो करण जौहर ने इसे ही प्रचार का मुख्य मुद्दा बना लिया.

हालांकि, करण जौहर कहीं यह नहीं कहते कि उन्होंने गाइडलाइंस का जानबू?ा कर उल्लंघन किया. गाइडलाइंस कहती हैं कि महिला का अपमान न हो. अब कहानी और सिचुएशन के अनुसार एक महिला का अपमान एक गाली से या एक थप्पड़ या फिर 10 थप्पड़ से हो सकता है और नहीं भी हो सकता.

साल 1952 में जब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का गठन हुआ था तो यह जो सारी प्रकिया है, उसे देखते हुए तो यह बहुत ही पारदर्शी मसला नजर आता है. इस के बावजूद विवाद पैदा होने या सैंसर बोर्ड की कार्यशैली पर उंगली उठने की मूल वजह अलगअलग इंसान द्वारा गाइडलाइंस को अपनी समझ या अपने हित के अनुसार परिभाषित करना है.

शुरू से परीक्षण समिति के सदस्य सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ही चुनता रहा है. आज भी वही प्रणाली है पर अब 90 प्रतिशत सदस्य सनातन धर्म अथवा एक खास राजनीतिक दल का खुलेआम समर्थन करने वाले लोग ही हैं, फिर चाहे वे पत्रकार हों, कलाकार हों या फिल्म निर्देशक ही क्यों न हों.

अब यदि फिल्म का विषय मनोविज्ञान पर आधारित है और फिल्म परीक्षण समिति में क्राइम रिपोर्टर या नया निर्देशक हो तो उन की सोच अलग हो सकती है. यदि सदस्य किसी खास विचारधारा से जुड़े हैं तब भी विवाद हो सकते हैं.

इन दिनों बढ़ते विवाद की जड़ में कहीं न कहीं परीक्षण समिति के सदस्य भी हैं. इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की परीक्षण समिति के जो सदस्य हैं उन में कलाकार या रंगकर्मी या फिल्म निर्देशक वगैरह ही हैं पर वे सभी ‘संस्कार भारती’ से भी जुड़े हुए हैं. ऐसे में टकराव होना स्वाभाविक है. सिर्फ सदस्य ही क्यों, बोर्ड मैंबर भी एक खास सोच या विचारधारा के हैं.

2025 में एक तरफ हिंदी फिल्में बौक्स औफिस पर दम तोड़ रही हैं तो दूसरी तरफ हर फिल्म को ले कर सैंसर बोर्ड पर उंगली उठ रही है. कहा जा रहा है कि सैंसर बोर्ड अपना संतुलन खो चुका है. इसी वजह से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को खत्म करने अथवा इसे सरकार के चंगुल से मुक्त कर फिल्म इंडस्ट्री के हाथों में सौंप देने की मांग हो रही है. जहां तक हमारी राय है, तो हम केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को समूल नष्ट करने के हिमायती नहीं हैं क्योंकि हमें सिनेमा में जंगल राज नहीं चाहिए.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

=======================================================================================कट्टरपंथी या प्रचार चाहने वाले नागरिक सैंसरी

देश में उन लोगों की कमी नहीं जो खुद को सैंसर बोर्ड से कम नहीं सम?ाते. अश्लीलता पर उन की नैतिकता खौलते तेल में डूबने लगती है या उन के धार्मिक अंधविश्वासों को ठेस पहुंचती है तो वे नजदीकी थाने में एफआईआर दर्ज करा देते हैं या स्थानीय अदालत में उन्हीं धाराओं पर मुकदमा दायर कर देते हैं. हमारी न्याय व्यवस्था ऐसी है कि पहला मजिस्ट्रेट बिना ज्यादा सोचेसमझे गिरफ्तारी का वारंट तक जारी कर देता है. कुछ जगह फिल्म के प्रदर्शन का स्थगन आदेश दे दिया जाता है कि इस से कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी.

निर्मातानिर्देशक और कई बार सितारों को भी पार्टी बना दिया जाता है ताकि भरपूर प्रचार मिले. अदालतें बिना न्यायिक विवेक लगाए हर पार्टी को कोर्ट में तलब कर लेती हैं चाहे वह स्थान मुंबई से 200 किलोमीटर दूर किसी जिले में हो जहां से एयरपोर्ट 300 किलोमीटर दूर क्यों न हो.

2003 में राजस्थान के वकीलों की यूनियन के मामले में निर्मातानिर्देशक को सुप्रीम कोर्ट पहुंचना पड़ा जिन्होंने कहा कि वकीलों की यूनियन अभिव्यक्ति की शर्तों को निर्धारित नहीं कर सकती. सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी पर निर्मातानिर्देशक, जिन्होंने ब्याज वाले कर्ज की रकम से फिल्म बनाई, को इस देरी से क्या व कितना नुकसान हुआ, क्या अंदाजा लगाया जा सकता है.

राजकपूर की फिल्म ‘गंगा तेरा पानी मैला’ के दृश्यों से ले कर ‘पद्मावत’ तक कितने ही मामलों में सड़कछाप लोग सैंसर बोर्ड बन गए.

सिनेमा अनैतिकता से भरा

सिनेमा में नैतिकता की आवश्यकता इस डर से उत्पन्न होती है कि दर्शक ज्यादातर हानिकारक सामग्री और फिल्म में अपने पसंदीदा पात्रों के नकारात्मक चित्रण के प्रति संवेदनशील होते हैं. फिल्मी सितारों द्वारा सिगरेट और मादक पेय का उपयोग दर्शकों को यह विश्वास दिलाता है कि ये पदार्थ बिलकुल भी हानिकारक नहीं हैं. ऐसे में फिल्मों को सैंसर किया जाना कुछ हद तक समझा जा सकता है. मगर जब धीरेधीरे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया हो तो यह नैतिकता का लबादा केवल एक ढोंग लगता है.

मानदंडों की अहमियत

प्रमाणपत्र देने से पहले सीबीएफसी शासी निकाय द्वारा निर्धारित विभिन्न मानदंडों का ध्यान रखता है.

१. हिंसा जैसे असामाजिक तत्त्वों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए.
२. बच्चों को हिंसक दृश्यों में शामिल दिखाने वाले, श्रम करने वाले, जानवरों के साथ क्रूरता करने वाले दृश्यों की जांच की जानी चाहिए.
३. शराब पीने, धूम्रपान करने, ड्रग्स और अन्य नशीले पदार्थों को बढ़ावा देने वाले दृश्यों का महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए.
४. किसी भी तरह से महिलाओं को अपमानित करने वाले दृश्यों पर प्रतिबंध है.
५. धार्मिक आधार पर भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले दृश्यों या शब्दों का ध्यान रखा जाना चाहिए.
६. देश की संप्रभुता और अखंडता पर किसी भी तरह से सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए.
७. राज्य की सुरक्षा को खतरे में नहीं डाला जाना चाहिए, साथ ही, पड़ोसी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों में बाधा नहीं आनी चाहिए.
८. संविधान के खिलाफ कोई अपमानजनक बयान नहीं होना चाहिए.
९. किसी समुदाय, जाति और जनजाति का अनादर नहीं होना चाहिए.
१०. किसी नागरिक की छवि को कम नहीं करना चाहिए.

सैंसर प्रमाणपत्र को ले कर सर्वाधिक विवाद में रही फिल्में

जय भीम: एक आदिवासी व्यक्ति की हिरासत में मौत से जुड़े एक वास्तविक कानूनी मामले से प्रेरित फिल्म ‘जय भीम’ ने जाति और पुलिस की बर्बरता पर अपनी बेबाक नजर के लिए आलोचकों से प्रशंसा हासिल की. फिर भी, इसे सैंसर बोर्ड, कुछ समुदायों से मुकदमों और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा.

पद्मावत: निर्माता संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ 1 दिसंबर, 2017 को रिलीज होने वाली थी, लेकिन सैंसर बोर्ड ने कुछ दस्तावेजों की कमी के कारण इस के प्रदर्शन से इनकार कर दिया. अंत में ‘घूमर…’ गाने में कुछ बदलाव और फिल्म के नाम में बदलाव के साथ यह फिल्म 25 जनवरी, 2018 को रिलीज हुई.

उड़ता पंजाब: फिल्म को सीबीएफसी से विवाद का सामना करना पड़ा, जिस ने निर्माता से ए सर्टिफिकेट देने के लिए 94 कट और 13 सुझाव मांगे. आखिरकार यह फिल्म मुंबई उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद रिलीज हुई.

लिपस्टिक अंडर माय बुर्का: 2017 में फिल्म को सैंसर बोर्ड ने पहले बैन कर दिया था. इसे महिलाओं के लिए अपमानजनक फिल्म कहा गया. इस फिल्म में ढेर सारे यौन दृश्य, अपमानजनक शब्द, औडियो पोर्नोग्राफी और समाज के एक विशेष वर्ग के बारे में कुछ संवेदनशील बातें थीं, इसलिए दिशानिर्देशों के तहत फिल्म को अस्वीकार कर दिया गया. आखिरकार तमाम बदलावों के बाद ए सर्टिफिकेट मिला.

बैंडिट क्वीन : डकैत फूलन देवी के जीवन पर आधारित इस फिल्म को यौन दृश्यों, नग्नता और अपमानजनक अभिव्यक्तियों के कारण सैंसरशिप का सामना करना पड़ा. ‘बैंडिट क्वीन’ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रतिबंधित कर दिया था. क्योंकि फूलन देवी ने इस की प्रामाणिकता के खिलाफ मुकदमा दायर किया था. यह फिल्म 1994 में बनी थी और 1996 में रिलीज हो पाई थी.

गोलियों की रासलीला रामलीला : संजय लीला भंसाली की फिल्म को बोर्ड से विवाद का सामना करना पड़ा था. फिल्म के नाम पर आपत्ति जताते हुए कई संगठनों ने अदालत का रुख किया था. फिर नाम में कुछ बदलाव किया गया. कुछ दृश्य कटे.

मैं हूं रजनीकांत : रजनीकांत ने आपत्ति की थी. रजनीकांत का मानना था कि यह उन की छवि को बाधित कर सकती है.

जोधा अकबर : फिल्म में जोधाबाई के चित्रण पर विरोध के बाद इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया था, बाद में इसे रिलीज किया गया.

ऐसा भी हुआ

फिल्म ‘मोहनजोदड़ो’ में अंतरंग दृश्य थे, पर कोई रोकटोक नहीं हुई थी. वहीं ‘अनइंडियन’ के अंतरंग दृश्यों पर कैंची चली. अमर्त्य सेन पर बनी डौक्यूमैंट्री में भी बोर्ड ने गाय, हिंदू, भारत, गुजरात जैसे शब्दों को बीप करने के लिए कहा.

फिल्म निर्माता अश्विनी कुमार ने अपनी फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ को ए सर्टिफिकेट दिए जाने पर सीबीएफसी से सवाल किया था. उन्होंने कहा था कि उन की फिल्म ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ को एडल्ट सर्टिफिकेट दिया गया था, जिस में कोई एडल्ट सीन नहीं था, जबकि ‘हैदर’ में तो और भी ज्यादा भावुक सीन थे. कुमार ने कहा कि सीबीएफसी कम बजट की स्वतंत्र फिल्मों के लिए बाधा उत्पन्न करता है.

फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ को सैंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से किया इनकार

हेमवंत तिवारी ने विश्व की पहली वन टेक यानी सिंगल शौट की दोहरी भूमिका वाली फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ बनाई है. लेकिन 2 घंटे 14 मिनट की लंबी अवधि वाली इस फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज नहीं किया जा सकता क्योंकि सैंसर बोर्ड ने इसे प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया है जबकि हेमवंत तिवारी कुछ सीन ब्लर करने (शाहरुख खान की फिल्म ‘जवान’ में कुछ नग्न दृश्यों को ब्लर करने पर सैंसर बोर्ड ने पारित किया था) व कुछ संवाद म्यूट कर ‘ए’ प्रमाणपत्र लेने को तैयार थे लेकिन हेमवंत अपनी फिल्म के एक भी सीन पर कैंची नहीं चला सकते. कोई भी कट करने से पूरी प्रक्रिया विफल हो जाएगी, क्योंकि इस से हेमवंत से वन टेक फिल्म बनाने का श्रेय छिन जाएगा. कट, यहां तक कि एक कट भी, ध्यान देने योग्य होगा, वह उन के इस दावे को झुठा साबित करेगा कि उन की फिल्म एक शौट वाली है.

फिल्म ‘कृष्णा अर्जुन’ एक बोल्ड फिल्म है जिस में मंत्री द्वारा एक लड़की के साथ 3 लड़कों से बलात्कार करवाने का आरोप है. अब लड़की गर्भवती है. वह न्याय की भीख मांग रही है. इस लड़ाई में जुड़वां भाई कृष्णा व अर्जुन उस लड़की की मदद कर रहे हैं लेकिन मंत्री के इशारे पर पुलिस स्टेशन के अंदर ही नंगा नाच चल रहा है. इस में मंत्री, जज व पुलिस तंत्र भी जुड़ा हुआ है. अर्जुन की हत्या करने के बाद जज, मंत्री व पुलिस अर्जुन के भाई कृष्णा को पूर्णरूपेण नंगा कर पीटते हैं. इस तरह इस फिल्म में गंदी गालियों की बौछार है तो वहीं एक लंबा नग्न दृश्य भी है.

सैंसर और विवादों में घिरी हालिया फिल्में

4 अप्रैल, 2021 को सिनेमेटोग्राफ एक्ट में हुए संशोधन के बाद केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की शक्तियों को ले कर अजीब सी स्थिति बनी हुई है. किसी भी फिल्म के सिनेमाघरों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन के लिए उस का सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र हासिल करना अनिवार्य होता है. नियमतया सैंसर बोर्ड से पारित फिल्म के प्रदर्शन पर रोक नहीं लगनी चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा है.

कमल हासन की फिल्म ‘ठग लाइफ’ : पिछले दिनों निर्माता व अभिनेता कमल हासन ने तमिल व कन्नड़ भाषा के संदर्भ में बयान देते हुए कह दिया कि कन्नड़ तो तमिल फिल्म से निकली भाषा है. इस पर कर्नाटक में विरोध हो गया और कमल हासन की फिल्म ‘ठग लाइफ’ कर्नाटक में रिलीज नहीं हो पाई. जबकि, कमल हासन की फिल्म को सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र मिला हुआ था. कर्नाटक फिल्म चैंबर्स औफ कौमर्स ने कमल हासन के दिए बयान पर माफी की मांग की. माफी न मांगने पर फिल्म के कर्नाटक में रिलीज पर बैन लगा दिया. कमल हासन ने कर्नाटक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाए लेकिन बात नहीं बनी क्योंकि कमल हासन अपने दिए गए बयान पर माफी मांगने को तैयार नहीं हुए.

120 कट लगाने के बाद भी फिल्म ‘पंजाब 95’ को नहीं मिला सैंसर प्रमाणपत्र :दिलजीत दोसांज निर्मित व हनी त्रेहान निर्देशित फिल्म ‘पंजाब 95’ को सैंसर बोर्ड के 120 कट देने के बाद भी सैंसर प्रमाणपत्र देने के बजाय बैन कर दिया गया. फिल्म प्रमुख सिख मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालरा के जीवन पर आधारित है. फिल्म में 1980 व 1990 के काल में खालिस्तानी अलगाववादियों से लड़ते हुए सुरक्षा बलों द्वारा की गई गुमशुदगी, न्यायेतर हत्याओं व अवैध हिरासतों की घटना को बयां किया गया है.

दिलजीत दोसांज की फिल्म ‘सरदार जी 3’ हुई बैन : दिलजीत दोसांज की फिल्म ‘सरदार जी 3’ को लंदन में फिल्माया गया था. इस में दिलजीत दोसांज के साथ पाकिस्तानी अभिनेत्री हनिया अमीर ने भी अभिनय किया है. इसी वजह से इसे सैंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया. यह फिल्म भारत में रिलीज नहीं हो पाई. मगर इस के निर्माताओं ने इस फिल्म को 27 जून, 2025 को पूरे विश्व में रिलीज किया और यह फिल्म सुपरडुपर हिट हुई.

पंजाबी फिल्म ‘चल मेरा पुत्त 4’ भी हुई बैन : सैंसर बोर्ड ने पंजाबी फिल्म ‘चल मेरा पुत्त 4’ को भी प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया क्योंकि इस फिल्म में भी पाकिस्तानी कलाकार हैं पर यह फिल्म 1 अगस्त, 2025 को विश्व के कई देशों में रिलीज हुई और इसे जबरदस्त सफलता मिली.

तमिल फिल्म ‘मानुषी’ : तमिल फिल्म ‘ मानुषी’ 2 वर्षों से सैंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र पाने के लिए संघर्ष कर रही थी. जून माह में फिल्म के निर्माता व निर्देशक येत्री मारन ने मद्रास हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मगर अदालत भी सैंसर बेर्ड के आगे मजबूर नजर आई.

जून में सैंसर बोर्ड ने अदालत से कह दिया कि उस ने फिल्म में कट लगाने के लिए कहा है. उस के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने येत्री मारन की याचिका को खारिज कर दिया. अब इस के निर्माता फिल्म को सिनेमाघरों के बजाय सीधे ओटीटी पर रिलीज करने की योजना बना रहे हैं.

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सिनेमा देश का सांस्कृतिक राजदूत

हर देश का सिनेमा उस देश का सांस्कृतिक राजदूत होता है. सिनेमा का काम स्वस्थ मनोरंजन के साथ कभीकभार ज्ञान परोसना भी है. सिनेमा की यह पहचान बनी रहनी चाहिए. हर विषय पर फिल्में बननी चाहिए. इस के लिए जरूरी है कि एक संस्था हर फिल्मकार पर निगाह रखे कि वह समाज में द्वेष की भावना न फैलाए, दो धर्मावलंबियों या 2 देशों के बीच वैमनस्यता बढ़ाने वाली चीजें न परोसे. लेकिन तमाम फिल्मकार सैंसर बोर्ड को सरकार के अंकुश से मुक्त करने के पक्ष में हैं.

फिल्म उद्योग इस के लिए सक्षम भी हैं. क्या हम नहीं देख रहे कि फिल्म इंडस्ट्री की अपनी सभी 32 संस्थाएं कितनी कुशलता के साथ कई दशकों से अपने सभी ?ागड़ों को निबटाती आ रही हैं. फिर चाहे वह कलाकारों की एसोसिएशन ‘सिंटा’ हो या निर्माताओं की संस्था ‘इम्पा’ हो या लेखकों का संगठन हो.

फिल्म के नाम से ले कर लेखक, गीतकार, संगीतकार आदि के कौपीराइट हक को भी ये संस्थाएं ही सुरक्षित रखती आई हैं.

फिल्म इंडस्ट्री में आईपीआरएस और इसामरा जैसी संस्थाएं कितनी खूबसूरती से सभी के हक की रौयलिटी इकट्ठा कर उन तक पहुंचा रही हैं. सो, अगर फिल्म इंडस्ट्री खुद फिल्मों को सैंसर करना शुरू करेगा तो वह गाइडलाइंस का बिना विवादों के ज्यादा बेहतर ढंग से पालन करवा सकता है.

क्या टीवी या सैटेलाइट चैनल पर प्रसारित हो रहे टीवी सीरियलों व टीवी कार्यक्रमों पर टीवी फिल्म उद्योग की अपनी संस्था कुशलता से सारी चीजें नहीं कर रही है? कोई विवाद पैदा नहीं होते. सैंसर बोर्ड तो टीवी पर प्रसारित होने वाली फिल्में सैंसर करता है, मगर टीवी के कार्यक्रमों व टीवी सीरियल को सैंसर करने का काम फिल्म इंडस्ट्री खुद करती है. तो जो लोग टीवी सीरियल को हर इंसान के देखने लायक बना सकते हैं, वे फिल्मों में भी गलत चीजें रोक सकते हैं. फिर अपरोक्ष रूप से सरकार का दबाव तो बना ही रहेगा.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सरकार अपने चंगुल से मुक्त कर फिल्म इंडस्ट्री के कर्ताधर्ताओं के हाथ में सौंपेगी, इस की उम्मीद करना दिन में तारे देखना जैसा है. मगर ‘फुले’, ‘धड़क 2’, ‘संतोष’, ‘चल हल्ला बोल’ जैसी फिल्मों को ले कर विवाद महज एक फिल्म के विरोध का मसला नहीं है.

यह भारतीय सिनेमा के सामने आने वाली बड़ी दुविधा के बारे में है, जब वह जाति कथाओं के क्षेत्र में कदम रखता है. इन में से कई फिल्में उत्पीड़न या असमानता का आविष्कार नहीं करती हैं. वे उन घटनाओं, कहानियों या पैटर्न को फिर से बनाती हैं जो इतिहास में प्रलेखित हैं या आज भी विभिन्न रूपों में जारी हैं.

ऐसे घटनाक्रम हम समाज में अपने इर्दगिर्द देखते रहते हैं. इस के बावजूद जब ये कहानियां स्क्रीन पर आती हैं तो उन्हें चुनौती दी जाती है, अकसर काल्पनिक थ्रिलर या हिंसक महाकाव्यों से भी ज्यादा कठोर तरीके से. ऐसा क्यों, जबकि प्रतिबंध या सैंसरशिप के आह्वान के पीछे की मंशा अकसर अशांति को रोकना होती है.

जाति आधारित कथाओं को लगातार चुप कराना महत्त्वपूर्ण सवाल उठाता है. इस पर हर इंसान को आगे बढ़ कर बात करनी चाहिए पर हमारा समाज भी मौन ही रहता है.

जिस तरह से इन दिनों सैंसर बोर्ड काम कर रहा है, उस से दो बातें ही समझ में आती हैं. पहली, सैंसर बोर्ड का राजनीतिकरण हो चुका है और दूसरी, क्या हमारा समाज अपना प्रतिबिंब देखने में असहज है? पर एक इस से बड़ा सवाल भी है कि क्या एक ऐसा देश जो लोकतंत्र और विविधता पर गर्व करता है, सिनेमाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है? Indian Film Censorship

130th Amendment Bill : एक और संविधान तोड़क विधेयक

130th Amendment Bill : केंद्र सरकार संसद में संविधान का 130वां संशोधन विधेयक लाने की जुगत में है जिस के मुताबिक को भी पदासीन नेता जो अपने पद पर रहने के दौरान 30 दिनों से अधिक जेल में बिताता है तो उसे अपना पद छोड़ना होगा. कितना पेचीदा है यह बिल और क्या चुनौतियां हैं, पढ़िए.

‘कुछ न कुछ किया कर, पाजामा फाड़ कर सिया कर’ यह एक पुरानी देहाती कहावत है जिस का मतलब है कोई काम धाम न हो तो अपना ही पजामा फाड़ लो और फिर उसे सिलते रहो. इस से कुछ और हो न हो लेकिन कुछ करने का मुगालता बना रहेगा. यही इन दिनों केंद्र सरकार कर रही है. इस की एक और मिसाल संविधान का 130 वां संशोधन विधेयक है जिस के पारित होने में उतना ही शक है जितना इस बात में कि सूर्य कभी पश्चिम से भी उग सकता है.

यह अनूठा विधेयक बीती 20 अगस्त को गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में पेश किया जिस के मुताबिक कोई भी मंत्री जो अपने पद पर रहने के दौरान 30 दिनों तक किसी ऐसे अपराध के मामले में गिरफ्तार किया जाता है या हिरासत में लिया जाता है जिस में अपराध साबित होने पर 5 साल या उस से ज्यादा की जेल की सजा है तो 31वें दिन उसे प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा पद से हटा दिया जाएगा. हालांकि पद से हटाए जाने के बाद अगर कोई मंत्री रिहा हो जाता है तो उसे वापस अपने पद पर बहाल किया जा सकता है. यह नियम प्रधानमंत्री और सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होगा.

इस के लिए सरकार को संविधान के तीन अनुच्छेदों में बदलाब करना पड़ेंगे पहला अनुच्छेद 75 जो प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्रियों की नियुक्ति और उन की जबाबदेही से जुड़ा है. दूसरा अनुच्छेद 164 जो राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित बाकी मंत्रियों से जुड़ा है और तीसरा अनुच्छेद 239 एए है जो केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों से जुड़ा है. इस प्रस्तावित संशोधन में इन सभी अनुच्छेदों में एक नया क्लाज जोड़ा जाएगा.

गौरतलब है कि अभी तक संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था जिस के तहत किसी मंत्री या मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को पद से हटाया जा सके. लेकिन दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने लगभग 6 महीने जेल में रहते सफलतापूर्वक सरकार को चलाया तो जिल्लेलाहियों को समझ आया कि ऐसा प्रावधान आखिर नहीं है तो क्यों नहीं है. इस कमी पर सफाई देते अमित शाह ने बताया कि कोई भी व्यक्ति जेल से शासन नहीं चला सकता.

संविधान निर्माताओं ने ऐसी कल्पना नहीं की थी कि गंभीर आपराधिक मामलों में गिरफ्तार होने के बावजूद नेता अपने पदों पर बने रहे. भीमराव आंबेडकर और पंडित जवाहरलाल नेहरु सहित समूची संविधान निर्मात्री सभा की इस भूल चूक को (भी) सुधारने के लिए सरकार ने बीड़ा मुंह में रख तो लिया है लेकिन उसे चबा कर निगल पाएगी इस में शक है. संभावना इस बात की ज्यादा है कि उसे थूकना पड़ेगा.

क्यों यह विधेयक पारित नहीं हो सकता इस से पहले इस बात को समझना जरूरी है कि यह विधेयक आखिर लाया क्यों गया. यह दलील बेमानी और खोखली है कि संविधान निर्माताओं को इस बात का ख्याल नहीं आया होगा. यह सीधेसीधे उन का अपमान और मखौल उड़ाती दलील है जिन्होंने दुनिया का सब से बड़ा संविधान रच दिया था.

देखा यह गया है कि इस तरह के किसी प्रावधान का न होना प्रधानमंत्री को तानाशाह होने से रोकता है लेकिन यह लोकतंत्र है कोई मुगलिया दरबार नहीं कि शहंशाह को जो मुसाहिब पसंद नहीं आया या उस के मुताबिक नहीं चला तो एक मुंह जुबानी फरमान के जरिये उसे गद्दी से उतार दिया.

विपक्ष के खिलाफ साजिश

एकएक कर देखें तो सरकार की बदनीयती की एक और स्क्रिप्ट बनता यह बिल एक साजिश है जिस के तहत अलिखित मसौदा इतना भर है कि जब किसी विपक्षी मुख्यमंत्री के पैरों से कुर्सी खींचनी हो तो ईडी को छू करवा कर उसे गिरफ्तार करवा दो और फिर 30 दिन तक जमानत न होने दो. और फिर 31 वें दिन सुबह 8 बजे प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को सिफारिशी चिट्ठी लिखेंगे ( जो कि गिरफ्तारी के दिन ही तैयार हो गई होगी ) और ठीक दो घंटे बाद राष्ट्रपति भवन से यह सनसनाती ब्रेकिंग न्यूज आएगी कि फलां मुख्यमंत्री को 130वें संशोधन विधेयक के जरिये पद से हटाया गया.

देखते ही देखते विपक्ष के कोई आधा दर्जन दिग्गज सीएम की कुर्सी की रेस में शामिल हो जाएंगे. सौदेबाजी और खरीद फरोख्त की खबरें आएंगी और दूसरे तीसरे दिन ही सत्ता रूढ़ दल के आधे के लगभग विधायक भाजपा ज्वाइन कर लेंगे और और कोई भगवाधारी भगवान कसम खा कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहा होगा. कल तक जो पार्टी सत्ता में थी वह विपक्ष की कुर्सियों पर बैठी नजर आएगी और सरकार की मंशा पूरी हो जाएगी. इस के लिए न हल्दी लगेगी न फिटकरी और रंग तो चोखा आएगा ही.

लगता नहीं कि आईडिया खुद से सरकार के दिमाग में आया होगा. लगता यह है कि यह उसे अरविंद केजरीवाल और सेंथिल बालाजी जैसे ताजे मामलों से मिला. 24 मार्च 2024 को शराब नीति घोटाले में ईडी ने अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. भगवा खेमे को तब उम्मीद रही होगी कि वे नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र दे देंगे लेकिन केजरीवाल जरूरत और उन से से भी ज्यादा सयाने निकले. उन्होंने जेल से ही सरकार चलाना शुरू कर दिया और वह भी कोई चार छह दिन तक नहीं बल्कि 6 महीने तक, तो भगवा पेशानी पर बल पड़ गए कि बंदा तो हम से भी ज्यादा समझदार और ढीठ निकला अब क्या करें.

करने के नाम पर भाजपाइयों के पास सिवाय झींकने के कोई और रास्ता था नहीं, सो वे ख़ामोशी से निहारते कसमसाते रहे कि केजरीवाल जेल से ही फैसले ले रहे हैं, फाइलों का अनुमोदन कर रहे हैं और उन पर दस्तखत भी कर रहे हैं और उन पर बिना किसी सवाल जवाब के अमल भी हो रहा है. आम आदमी पार्टी में कोई टूट फूट नहीं हो रही. यह उस के लिए हैरत और सदमे की बात थी. लिहाजा बादशाहों ने तभी फैसला मन ही मन कर लिया था कि यह तो झंझट हो गई. इस का मन्त्र ढूंढा जाना जरुरी है नहीं तो हम से डरेगा कौन. मई में केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली तो वे हिंदी फिल्मों के हीरो की तरह बाहें झटकारते जेल से बाहर आए और व-हैसियत दिल्ली के मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार में जुट गए.

जमानत खत्म होने के बाद वे फिर जेल चले गए. लेकिन नहीं देना था तो तुरंत इस्तीफ़ा न दे कर यह जता दिया कि वे भगवा मनमानी के आगे घुटने नहीं टेकेंगे. लेकिन फिर 17 सितम्बर 2024 को इस्तीफ़ा दे कर तेज तर्रार आतिशी मार्लेना को उन्होंने मुख्यमंत्री बना दिया. जिन्होंने 152 दिन मुख्यमंत्री रहते सरकार का कार्यकाल पूरा किया. लेकिन जब 8 फरवरी 2024 को दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजे आए तो आप 22 सीटों पर सिमट कर रह गई और भाजपा 48 सीटें ले जा कर अपना ख्वाव पूरा करने में कामयाब रही.

31 जनवरी 2024 में जेल वाली गाज झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर भी गिराई गई. ईडी ने उन्हें जमीन घोटाले से जुड़े मनी लांड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार किया. लेकिन हेमंत ने अपने वफादार चम्पई सोरेन को मुख्यमंत्री बना डाला जिस से झामुमो टूट फूट से बच गई. 28 जून 2024 को हेमंत झारखंड हाईकोर्ट से रिहा हुए तो चंपई सोरेन ने खड़ाऊ राज्य की परिपाटी पर अमल करते 4 जुलाई 2024 को गद्दी उन्हें वापस ज्यों की त्यों सौंप दी. इस के बाद झारखंड में दिल्ली का दोहराव नहीं हुआ. 24 नवम्बर 2024 को जब विधानसभा नतीजे घोषित हुए तो इंडिया ब्लाक के खाते में 81 में से 58 सीटें आईं जिन में से झामुमो को 34 व कांग्रेस को 16 सीटें मिली थीं भाजपा 21 पर सिमट कर रह गई.

इन दो मामलों ने भाजपा को सबक सिखाया या ज्ञान दिया कि जेल से सरकार चलाना कोई अच्छी बात नहीं. इसलिए संविधान निर्माताओं की भूल सुधार ली जाए. हालांकि इस से पहले भी कई मुख्यमंत्री जेल में गए लेकिन उन्होंने अरविन्द केजरीवाल की तरह जेल से सरकार नहीं चलाई बल्कि हेमंत सोरेन की तरह अपना खड़ाऊ शासन चलाया. बिहार से लालू यादव, मध्य प्रदेश से अर्जुन सिंह, तमिलनाडु से जयललिता भी इस की मिसाल हैं. लेकिन हालिया विधेयक लाने को मजबूर करने में उनका कोई योगदान नहीं इस की इकलौती प्रेरणा तो अरविंद केजरीवाल ही साबित होते हैं.

एक दूसरी लेकिन संक्षिप्त प्रेरणा तमिलनाडु के बिजली मंत्री सेंथिल बालाजी भी रहे जिन्हें मनी लांड्रिंग सहित भ्रष्टाचार के कई मामलों में गिरफ्तार किया गया था. 14 जून 2023 को सेंथिल को ईडी ने केश फार जौब स्केम में गिरफ्तार किया था लेकिन मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने उन्हें मंत्री पद से हटाया नहीं. हां उन के विभाग जरुर दूसरे मंत्रियों को बांट दिए थे. इस तरह लम्बे वक्त तक वे बिना विभाग के मंत्री रहे और दुनिया देखती रह गई. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन की खिंचाई की थी तब उन्होंने 27 अप्रैल 2025 को मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का निर्देश यह था कि या तो आजादी ले लो या मंत्री पद छोड़ो. उन्होंने आजादी चुनी. तब मजाक में कहा गया था कि तुम मुझे इस्तीफ़ा दो मैं तुम्हे जमानत दूंगा.

ऐसे अमल के माने क्या

अब जिसे मुख्यमंत्री पद से हटाना हो उस का गिरफ्तार होना भी जरुरी है जिस के लिए ईडी से ज्यादा मुफीद एजेंसी कोई नहीं. सरकार इशारा करेगी और सुबह चार पांच बजे ईडी छापा मारने का अपना रिवाज निभाते उस का बाजा बजा देगी. फिर भले ही उस पर कोई अपराध साबित हो या न हो इस के कोई माने नहीं. क्योंकि मंशा तो 30 दिन जेल में रख कर 31वें दिन हटाने की है कि जिस पर विपक्षी नेताओं ने तार्किक प्रतिक्रियाएं दी हैं.

बकौल प्रियंका गांधी इसे भ्रष्टाचार विरोधी उपाय कहना आंखों पर पर्दा डालने जैसी बात है. कल को आप किसी भी मुख्यमंत्री पर कोई भी मुकदमा दर्ज कर सकते हैं, उसे बिना दोषी ठहराए 30 दिनों के लिए गिरफ्तार कर सकते हैं और वह मुख्यमंत्री नहीं रह जाएगा. यह पूरी तरह संविधान विरोधी अलोकतान्त्रिक और बेहद दुर्भावनापूर्ण है. क़ानूनी खामी गिनाते वरिष्ठ अधिवक्ता कांग्रेसी सांसद विवेक तनखा का यह तर्क माने रखता है कि यह अजीब है कि बिल में सिर्फ 30 दिन का समय है. कोर्ट मामले में फैसला सुनाती है इस में बहुत समय लगता है.

यह सही भी है क्योंकि किसी भी आरोपी को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस के पास चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिन का समय होता है. इस के बाद अदालत आरोप तय करती है फिर आरोपी पर मुकदमा शुरू होता है जो सालोंसाल चलता है. फैसले में आरोपी दोषी पाया भी जा सकता है और दोषी नहीं भी पाया जा सकता. अगर वह निर्दोष साबित होते रिहा होता है तो उस के और उस जनता जिस ने उम्मीदों से उसे चुना था की भरपाई कौन करेगा.

यह बात भी हर कोई जानता है कि संविधान के मुताबिक कोई भी आरोपी तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उस पर कोई आरोप साबित न हो जाए .फिर महज 30 दिन में आरोप साबित न होने पर उसे पद से हटाने की सजा क्यों . इस और ऐसे कई सवालों का जबाब अमित शाह शायद ही दे पायें जो कम अहम नहीं लेकिन जिद जब अहम ब्रम्हास्मि की हो तो कोई क्या कर लेगा और फौरी तौर पर विपक्षी सांसद जो कर सकते थे वह उन्होंने किया कि विधेयक की प्रतियाँ फाड़ दीं .

दूसरी कई छोटीमोटी खामियां भी इस विधेयक में हैं मसलन यह कि प्रधानमंत्री मुख्यमंत्रियों और दूसरे मंत्रियों को हटाने की सिफारिश करेंगे लेकिन उन्हें हटाने कौन अनुशंसा करेगा. एक खामी यह भी है कि 31 वे दिन हटाए जाने के बाद अदालत किसी आरोपी मंत्री या मुख्यमंत्री को रिहा कर देती है तो उस की जगह ले चुके किसी दूसरे को कैसे यानी किस नियम कानून के तहत हटाया जाएगा. इसलिए रिहा होने के बाद बहाल किया जा सकेगा जैसी बात बेमानी है.

इस बेतुके विधेयक पर तुक की एक बात असद्दुदीन ओबेसी ने भी कही कि गंभीर मामलों में ईडी जैसी एजेंसियां पीएमएलए यानी प्रिवेंशन औफ मनी लांड्रिंग एक्ट जैसे कानूनों के तहत नेताओं को गिरफ्तार करती हैं इन में जल्दी जमानत मिलना मुश्किल होता है. यह संघवाद और ताकत के बंटबारे के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है. इस से सरकार चुनने का अधिकार कमजोर होगा. आप नेता अनुराग ढांडा ने सरकार की मंशा उधेड़ते दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री सत्येन्द्र जैन का हवाला देते साफ कहा कि यह केंद्र सरकार का तानाशाही भरा कदम है. उस ने पहले भी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार करने और उन पर फर्जी आरोप लगाने के लिए एजेंसियों का इस्तेमाल किया.

विपक्ष के आरोप और आशंकाएं निराधार नहीं हैं क्योंकि मोदी सरकार के वजूद में आने के बाद 2021 तक 85 फीसदी के लगभग मामले विपक्ष के खिलाफ दर्ज किए गए. 2014 के बाद एनडीए के शासन काल में 2022 तक ईडी के इस्तेमाल में 4 गुना बढ़ोतरी हुई. इस दौरान 121 नेता जांच के दायरे में आए जिन में से 115 विपक्ष के हैं.

इसलिए लटकेगा

यह विधयक हाल फ़िलहाल संसद की 31 सदस्यों वाली जेपीसी यानी संयुक्त समिति के पास भेजा गया है जिस में सरकार के 19 और विपक्ष के 12 सांसद हैं. जेपीसी की रिपोर्ट जो सरकार के पक्ष में ही रहेगी के आने के बाद बिल को फिर से लोकसभा में पेश किया जाएगा. जहां एनडीए के 293 वोट हैं जबकि लोकसभा में इसे पारित होने के लिए दोतिहाई यानी 363 सांसदों की दरकार रहेगी. यही हाल राज्यसभा का भी है जिस में भाजपा और उस के सहयोगी दलों के खीसे में 245 में से दो तिहाई बहुमत के लिए 164 सांसदों की जरूरत होगी जबकि हैं कुल 126. ऐसे में यह विधेयक आसानी तो क्या मुश्किल से भी पारित नहीं होने वाला. जरुरी यह भी नहीं कि इस बेतुके विधेयक पर भाजपा का सहयोगी दल उस का समर्थन करेंगे ही.

लेकिन सरकार की एक मंशा यह दिखाने की भी है कि हम पैजामा सिल रहे हैं जिस से आम लोगों को यह लगे कि हम निठल्ले नहीं बैठे. उधर जनता के हाथ में अब पैजामा नहीं बल्कि स्मार्ट फोन है जिस पर वह रील्स देखते अपना मुश्किल वक्त गुजार रही है. महंगाई बेरोजगारी और खुद से ताल्लुक रखते दीगर मुद्दों से उसे कोई सरोकार है या नहीं यह अगले लोकसभा चुनाव नतीजे बताएंगे. लेकिन इतना तय है कि जनता संविधान से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करने वाली. यह वह पिछले लोकसभा चुनाव में जता और बता भी चुकी है जब 400 पार का राग अलाप रही भाजपा को उस ने 243 पर समेट कर रख दिया था. 130th Amendment Bill

Romantic Story In Hindi : पत्‍नी का बेटा

Romantic Story In Hindi : जयंत औफिस के बाद पुलिस थाने होते हुए घर पहुंचे थे. बहुत थक गए थे. शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत ज्यादा थके थे. शारीरिक श्रम जीवन में प्रतिदिन करना ही पड़ता है, परंतु पिछले 1 महीने से जयंत के जीवन में शारीरिक व मानसिक श्रम की मात्रा थकान की हद तक बढ़ गई थी. घर पर पत्नी मृदुला उन की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रतिदिन करती है. उन के आते ही जिज्ञासा से पूछती है, ‘‘कुछ पता चला?’’ आज भी वही प्रश्न हवा में उछला. पत्नी को उत्तर पता था. जयंत के चेहरे की थकी, उदास भंगिमा ही बता रही थी कि कुछ पता नहीं चला था.

जयंत सोफे पर गिरते से बोले, ‘‘नहीं, परंतु आज पुलिस ने एक नई बात बताई है.’’

‘‘वह क्या?’’ पत्नी का कलेजा मुंह को आ गया. जिस बात को स्वीकार करने में जयंत और मृदुला इतने दिनों से डर रहे थे, कहीं वही सच तो सामने नहीं आ रहा था. कई बार सच जानतेसमझते हुए भी हम उसे नकारते रहते हैं. वे दोनों भी दिल की तसल्ली के लिए झूठ को सच मान कर जी रहे थे. हृदय की अतल गहराइयों से वे मान रहे थे कि सच वह नहीं था जिस पर वे विश्वास बनाए हुए थे. परंतु जब तक प्रत्यक्ष नहीं मिल जाता, वे अपने विश्वास को टूटने नहीं देना चाहते थे.

पत्नी की बात का जवाब न दे कर जयंत ने कहा, ‘‘एक गिलास पानी लाओ.’’

मृदुला को अच्छा नहीं लगा. वह पहले अपने मन की जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहती थी. पति की परेशानी और उन की जरूरतों की तरफ आजकल उस का ध्यान नहीं जाता था. वह जानबूझ कर ऐसा नहीं करती थी, परंतु चिंता के भंवर में फंस कर वह स्वयं को भूल गई थी, पति का खयाल कैसे रखती?

जल्दी से पानी का गिलास ला कर पति के हाथ में थमाया और फिर पूछा, ‘‘क्या बताया पुलिस ने?’’

पानी पी कर जयंत ने गहरी सांस ली, फिर लापरवाही से कहा, ‘‘कहते हैं कि अब हमारा बेटा जीवित नहीं है.’’

मृदुला उन को पकड़ कर रोने लगी. वे उस को संभाल कर पीछे के कमरे तक लाए और बिस्तर पर लिटा कर बोले, ‘‘रोने से क्या फायदा मृदुल, इस सचाई को हम स्वयं नकारते आ रहे थे, परंतु अब हमें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए.’’

मृदुला उठ कर बिस्तर पर बैठ गई, ‘‘क्या उन को कोई सुबूत मिला है?’’

‘‘हां, प्रमांशु के जिन दोस्तों को पुलिस ने पकड़ा था, उन्होंने कुबूल कर लिया है कि उन्होंने प्रमांशु को मार डाला है.’’

सुन कर मृदुला और तेजी से रोने लगी. इस बार जयंत ने उसे चुप कराने का प्रयास नहीं किया, बल्कि आगे बोलते रहे, ‘‘लाश नहीं मिली है. पुलिस ने कुछ हड्डियां बरामद की हैं, उन से पहचान असंभव है.’’

मृदुला का विलाप सिसकियों में बदल गया. फिर नाक सुड़कती हुई बोली, ‘‘हो सकता है, वे प्रमांशु की हड्डियां न हों.’’

‘‘हां, संभव है, इसीलिए पुलिस उन का डीएनए टैस्ट कर के पता करेगी कि वे प्रमांशु के शरीर की हड्डियां हैं या किसी और व्यक्ति की. उन्होंने हमें कल बुलाया है. हमारे ब्लड सैंपल लेंगे.’’

‘‘ब्लड सैंपल…’’ मृदुला चौंक गई. उस ने आतंकित भाव से जयंत को देखा.

जयंत ने आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? ब्लड सैंपल देने में कोई तकलीफ नहीं होती.’’

‘‘नहीं, लेकिन…’’ मृदुला का स्वर कांप रहा था.

‘‘इस में परेशानी की कोई बात नहीं है. डीएनए मिलेगा तो वह हमारा प्रमांशु होगा, नहीं मिलेगा तो कोई अनजान व्यक्ति होगा.’’ जयंत के कहने के बावजूद मृदुला के चेहरे से भय का साया नहीं गया. उस का हृदय ही नहीं, पूरा शरीर कांप रहा था. उस के शरीर का कंपन जयंत ने भी महसूस किया. उन्होंने समझा, बेटे की मृत्यु से मृदुला विचलित हो गई है. उन्होंने उस को दवा दे कर बिस्तर पर लिटा दिया. नींद कहां आनी थी, परंतु जयंत उसे अकेला छोड़ कर ड्राइंगरूम में आ गए. सोफे पर अधलेटे से हो कर वे अतीत के जाल में उलझ गए.

जयंत का पारिवारिक जीवन काफी सुखमय रहा था. मनुष्य के पास जब धन, वैभव और वैचारिक संपन्नता हो तो उस के जीवन में आने वाले छोटेछोटे दुख, कष्ट और तकलीफें कोई माने नहीं रखतीं. उन के पिताजी केंद्र सरकार की सेवा में उच्च अधिकारी थे. मां एक कालेज में प्रोफैसर थीं. उन की शिक्षा शहर के सब से अच्छे अंगरेजी स्कूल और फिर नामचीन कालेज में हुई थी. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने भी प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास की और आज राजस्व विभाग में उच्च अधिकारी थे. उन की पत्नी मृदुला भी उच्च शिक्षित थी, परंतु वह नौकरी नहीं करती थी. वह समाजसेवा और घूमनेफिरने की शौकीन थी. शादी के बाद जब उस का उठनाबैठना जयंत के सीनियर अधिकारियों की बीवियों के साथ हुआ, तो उस की पहचान का दायरा बढ़ा और वह शहर के कई क्लबों और सभासमितियों की सदस्या बन गई थी. जयंत खुले विचारों के शिक्षित व्यक्ति थे, सो, पत्नी की आधुनिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे. वह पत्नी के घूमनेफिरने, अकेले बाहर आनेजाने पर एतराज नहीं करते थे. पत्नी के चरित्र पर वे पूरा भरोसा करते थे.

शादी के 5 साल तक उन के घर बच्चे का पदार्पण नहीं हुआ. जयंत इच्छुक थे, परंतु मृदुला नहीं चाहती थी. शादी के तुरंत बाद वह बच्चा पैदा कर के अपने सुंदर, सुगठित शरीर को बेडौल नहीं करना चाहती थी. वैसे भी वह घर और पति की तरफ अधिक ध्यान नहीं देती थी. इस के बजाय वह किटी पार्टियों व क्लबों में रमी खेलने में ज्यादा रुचि लेती थी. तब जयंत के मातापिता जीवित थे, परंतु मृदुला अपने ऊपर किसी का प्रतिबंध नहीं चाहती थी. वह वैचारिक और व्यावहारिक स्वतंत्रता की पक्षधर थी. इसलिए बाहर आनेजाने के मामले में वह किसी की बात नहीं सुनती थी. जयंत बेवजह घर में कोई झगड़ा नहीं चाहते थे, इसलिए पत्नी को कभी टोकते नहीं थे. उन का मानना था कि एक बच्चा होते ही वह घर और बच्चे की तरफ ध्यान देने लगेगी और तब वह क्लब की मौजमस्ती और किटी पार्टियां भूल जाएगी.

परंतु ऐसा नहीं हो सका. शादी के 5 साल बाद उन के यहां बच्चा हुआ, तो भी मृदुला की आदतों में कोई सुधार नहीं आया. कुछ दिन बाद ही उस ने क्लबों की पार्टियों में जाना प्रारंभ कर दिया. बच्चा आया (मेड) और जयंत के भरोसे पलने लगा. जब तक जयंत के मातापिता जीवित रहे तब तक उन्होंने प्रमांशु को संभाला, परंतु जब वह 10 साल का हुआ तो उस के दादादादी एकएक कर दुनिया से चल बसे. बच्चा स्कूल से आ कर घर में अकेला रहता, टीवी देखता या बाल पत्रिकाएं पढ़ता, जिन को जयंत खरीद कर लाते थे ताकि प्रमांशु का मन लगा रहे. वह आया से भी बहुत कम बात करता था.

शाम को जयंत घर लौटते तो वे उस का होमवर्क पूरा करवाते, कुछ देर उस के साथ खेलते और खाना खिला कर सुला देते. रात के 10 बजने के बाद कहीं मृदुला किटी पार्टियों या क्लब से लौट कर आती. तब उसे इतना होश न रहता कि वह प्रमांशु के साथ दो शब्द बोल कर उस के ऊपर ममता की दो बूंदें टपका सके. उस ने तो कभी यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उस का पेटजाया बच्चा किस प्रकार पलबढ़ रहा था, उसे कोई दुख या परेशानी है या नहीं, वह मां के आंचल की ममतामयी छांव के लिए रोता है या नहीं. वह मां से क्या चाहता है, कभी मृदुला ने उस से नहीं पूछा, न प्रमांशु ने कभी उसे बताया. उन दोनों के बीच मांबेटे जैसा कोई रिश्ता था ही नहीं. मांबेटे के बीच कभी कोई संवाद ही नहीं होता था.

धीरेधीरे प्रमांशु बड़ा हो रहा था. परंतु मृदुला उसी तरह क्लबों व किटी पार्टियों में व्यस्त थी. अब भी वह देर रात को घर लौटती थी. जयंत ने महसूस किया कि प्रमांशु भी रात को देर से घर लौटने लगा है, घर आते ही वह अपने कमरे में बंद हो जाता है, जयंत मिलने के लिए उस के कमरे में जाते तो वह दरवाजा भी नहीं खोलता. पूछने पर बहाना बना देता कि उस की तबीयत खराब है. खाना भी कई बार नहीं खाता था. जयंत की समझ में न आता कि वह इतना एकांतप्रिय क्यों होता जा रहा था. वह हाईस्कूल में था. जयंत को पता न चलता कि वह अपना होमवर्क पूरा करता है या नहीं. एक दिन जयंत ने उस से पूछ ही लिया, ‘बेटा, तुम रोजरोज देर से घर आते हो, कहां रहते हो? और तुम्हारा होमवर्क कैसे पूरा होता है? कहीं तुम परीक्षा में फेल न हो जाओ?’

‘पापा, आप मेरी बिलकुल चिंता न करें, मैं स्कूल के बाद अपने दोस्तों के घर चला जाता हूं. उन्हीं के साथ बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर लेता हूं,’ प्रमांशु ने बड़े ही आत्मविश्वास से बताया. जयंत को विश्वास तो नहीं हुआ, परंतु उन्होंने बेटे की भावनाओं को आहत करना उचित नहीं समझा. बात उतनी सी नहीं थी, जितनी प्रमांशु ने अपने पापा को बताई थी. जयंत भी लापरवाह नहीं थे. वे प्रमांशु की गतिविधियों पर नजर रखने लगे थे. उन्हें लग रहा था, प्रमांशु किन्हीं गलत गतिविधियों में लिप्त रहने लगा था. घर आता तो लगता उस के शरीर में कोई जान ही नहीं है, वह गिरतापड़ता सा, लड़खड़ाता हुआ घर पहुंचता. उस के बाल उलझे हुए होते, आंखें चढ़ी हुई होतीं और वह घर पहुंच कर सीधे अपने कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लेता. जयंत के आवाज देने पर भी दरवाजा न खोलता. दूसरे दिन भी दिन चढ़े तक सोता रहता.

यह बहुत चिंताजनक स्थिति थी. जयंत ने मृदुला से इस का जिक्र किया तो वह लापरवाही से बोली, ‘इस में चिंता करने वाली कौन सी बात है, प्रमांशु अब जवान हो गया है. अब उस के दिन गुड्डेगुडि़यों से खेलने के नहीं रहे. वह कुछ अलग ही करेगा.’

और उस ने सचमुच बहुतकुछ अलग कर के दिखा दिया, ऐसा जिस की कल्पना जयंत क्या, मृदुला ने भी नहीं की थी.

प्रमांशु ने हाईस्कूल जैसेतैसे पास कर लिया, परंतु नंबर इतने कम थे कि किसी अच्छे कालेज में दाखिला मिलना असंभव था. आजकल बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा और कोचिंग आदि की सुविधा होने के कारण वे शतप्रतिशत अंक प्राप्त करने लगे थे. हाई स्कोरिंग के कारण 90 प्रतिशत अंक प्राप्त बच्चों के ऐडमिशन भी अच्छे कालेजों में नहीं हो पा रहे थे. जयंत ने अपने प्रभाव से उसे जैसेतैसे एक कालेज में ऐडमिशन दिलवा दिया, परंतु पढ़ाई जैसे प्रमांशु का उद्देश्य ही नहीं था. उस की 17-18 साल की उम्र हो चुकी थी. अब तक यह स्पष्ट हो चुका था कि वह ड्रग्स के साथसाथ शराब का सेवन भी करने लगा था. जयंत के पैरों तले जमीन खिसक गई. प्यार और ममता से वंचित बच्चे क्या इतना बिगड़ जाते हैं कि ड्रग्स और शराब का सेवन करने लगते हैं? इस से उन्हें कोई सुकून प्राप्त होता है क्या? अपने बेटे को सुधारने के लिए मांबाप जो यत्न कर सकते हैं, वे सभी जयंत और मृदुला ने किए. प्रमांशु के बिगड़ने के बाद मृदुला ने क्लबों में जाना बंद कर दिया था. सोसायटी की किटी पार्टियों में भी नहीं जाती थी.

प्रमांशु की लतों को छुड़वाने के लिए जयंत और मृदुला ने न जाने कितने डाक्टरों से संपर्क किया, उन के पास ले कर गए, दवाएं दीं, परंतु प्रमांशु पर इलाज और काउंसलिंग का कोई असर नहीं हुआ. उलटे अब उस ने घर आना ही बंद कर दिया था. रात वह अपने दोस्तों के घर बिताने लगा था. उस के ये दोस्त भी उस की तरह ड्रग एडिक्ट थे और अपने मांबाप से दूर इस शहर में पढ़ने के लिए आए थे व अकेले रहते थे. जयंत के हाथों से सबकुछ फिसल गया था. मृदुला के पास भी अफसोस करने के अलावा और कोई चारा नहीं था. प्रमांशु पहले एकाध रात के लिए दोस्तों के यहां रुकता, फिर धीरेधीरे इस संख्या में बढ़ोतरी होने लगी थी. अब तो कई बार वह हफ्तों घर नहीं आता था. जब आता था, जयंत और मृदुला उस की हालत देख कर माथा पीट लेते, कोने में बैठ कर दिल के अंदर ही रोते रहते, आंसू नहीं निकलते, परंतु हृदय के अंदर खून के आंसू बहाते रहते. अत्यधिक ड्रग्स के सेवन से प्रमांशु जैसे हर पल नींद में रहता. लुंजपुंज अवस्था में बिस्तर पर पड़ा रहता, न खाने की सुध, न नहानेधोने और कपड़े पहनने की. उस की एक अलग ही दुनिया थी, अंधेरे रास्तों की दुनिया, जिस में वह आंखें बंद कर के टटोलटटोल कर आगे बढ़ रहा था.

जयंत के पारिवारिक जीवन में प्रमांशु की हरकतों की वजह से दुखों का पहाड़ खड़ा होता जा रहा था. जयंत जानते थे, प्रमांशु के भटकने की असली वजह क्या थी, परंतु अब उस वजह को सुधार कर प्रमांशु के जीवन में सुधार नहीं लाया जा सकता था. मृदुला अब प्रमांशु के ऊपर प्यारदुलार लुटाने के लिए तैयार थी, इस के लिए उस ने अपने शौक त्याग दिए थे, परंतु अब समय उस के हाथों से बहुत दूर जा चुका था, पहुंच से बहुत दूर. इस बात को ले कर किसी को दोष देने का कोई औचित्य भी नहीं था. जयंत और मृदुला परिस्थितियों से समझौता कर के किसी तरह जीवन के साथ तालमेल बिठा कर जीने का प्रयास कर रहे थे कि तभी उन्हें एक और झटका लगा. पता चला कि प्रमांशु समलैंगिक रिश्तों का भी आदी हो चुका था.

जयंत की समझ में नहीं आ रहा था, यह कैसे जीन्स प्रमांशु के खून में आ गए थे, जो उन के खानदान में किसी में नहीं थे. जहां तक उन्हें याद है, उन के परिवार में ड्रग्स लेने की आदत किसी को नहीं थी. पार्टी आदि में शराब का सेवन करना बुरा नहीं माना जाता था, परंतु दिनरात पीने की लत किसी को नहीं लगी थी. और अब यह समलैंगिक संबंध…?

जयंत की लाख कोशिशों के बावजूद प्रमांशु में कोई सुधार नहीं हुआ. घर से उस ने अपना नाता पूरी तरह से तोड़ लिया था. उस की दुनिया उस के ड्रग एडिक्ट और समलैंगिक दोस्तों तक सिमट कर रह गई थी. उन के साथ वह यायावरी जीवन व्यतीत कर रहा था. बेटा चाहे घरपरिवार से नाता तोड़ ले, मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाए, परंतु मांबाप का दिल अपनी संतान के प्रति कभी खट्टा नहीं होता. जयंत अच्छी तरह समझ गए थे कि प्रमांशु जिस राह पर चल पड़ा था, उस से लौट पाना असंभव था. ड्रग और शराब की आदत छूट भी जाए तो वह अपने समलैंगिक संबंधों से छुटकारा नहीं पा सकता था. इस के बावजूद वे उस की खोजखबर लेते रहते थे. फोन पर बात करते और मिल कर समझाते, मृदुला से भी उस की बातें करवाते. वे दोनों ही उसे बुरी लतों से छुटकारा पाने की सलाह देते.

जयंत और मृदुला को नहीं लगता था कि प्रमांशु कभी अपनी लतों से छुटकारा पा सकेगा. परंतु नहीं, प्रमांशु ने अपनी सारी लतों से एक दिन छुटकारा पा लिया. उस ने जिस तरह से अपनी आदतों से छुटकारा पाया था, इस की जयंत और मृदुला को न तो उम्मीद थी न उन्होंने ऐसा सोचा था. एक दिन प्रमांशु के किसी मित्र ने जयंत को फोन कर के बताया कि प्रमांशु कहीं चला गया है और उस का पता नहीं चल रहा है. जयंत तुरंत उस मित्र से मिले. पूछने पर उस ने बताया कि इन दिनों वह अपने पुराने दोस्तों को छोड़ कर कुछ नए दोस्तों के साथ रहने लगा था. इसी बात पर उन लोगों के बीच झगड़ा और मारपीट हुई थी. उस के बाद प्रमांशु कहीं गायब हो गया था. उस मित्र से नामपता ले कर जयंत उस के नएपुराने सभी दोस्तों से मिले, खुल कर उन से बात की, परंतु कुछ पता नहीं चला. जयंत ने अनुभव किया कि कहीं न कहीं, कुछ बड़ी गड़बड़ है और हो सकता है, प्रमांशु के साथ कोई दुर्घटना हो गई हो.

दुर्घटना के मद्देनजर जयंत ने पुलिस थाने में प्रमांशु की गुमशुदगी की रपट दर्ज करा दी. जवान लड़के की गुमशुदगी का मामला था. पुलिस ने बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया. परंतु जब जयंत ने प्रमांशु की हत्या की आशंका व्यक्त की और पुलिस के उच्च अधिकारियों से बात की तो पुलिस ने मामले को गंभीरता से लिया और प्रमांशु के दोस्तों से गहरी पूछताछ की. जयंत लगभग रोज पुलिस अधिकारियों से बात कर के तफ्तीश की जानकारी लेते रहते थे, स्वयं शाम को थाने जा कर थाना प्रभारी से मिल कर पता करते. थानेदार ने उन से कहा भी कि उन्हें रोजरोज थाने आने की जरूरत नहीं थी. कुछ पता चलनेपर वह स्वयं उन को फोन कर के या बुला कर बता देगा, परंतु जयंत एक पिता थे, उन का दिल न मानता.

और आज पुलिस ने संभावना व्यक्त की थी कि प्रमांशु की हत्या हो चुकी थी. उस के दोस्तों की निशानदेही पर पुलिस ने कुछ हड्डियां भी बरामद की थीं. चूंकि प्रमांशु की देह नहीं मिली थी, उस की पहचान सिद्ध करने के लिए डीएनए टैस्ट जरूरी था. जयंत और मृदुला का खून लेने के लिए पुलिस ने कल उन्हें थाने बुलाया था. वहां से अस्पताल जाएंगे. रात में फिर मृदुला ने शंका व्यक्त की, ‘‘पता नहीं, पुलिस किस की हड्डियां उठा कर लाई है और अब उन्हें प्रमांशु की बता कर उस की मौत साबित करना चाहती है. मुझे लगता है, हमारा बेटा अभी जिंदा है.’’

‘‘हो सकता है, जिंदा हो. और पूरी तरह स्वस्थ हो. फिर भी मैं चाहता हूं, एक बार पता तो चले कि हमारे बेटे के साथ क्या हुआ है. वह जिंदा है या नहीं, कुछ तो पता चले.’’

‘‘परंतु जंगल से किसी भी व्यक्ति की हड्डियां उठा कर पुलिस कैसे यह साबित कर सकती है कि वे हमारे बेटे की ही हड्डियां हैं?’’

‘‘इसीलिए तो वह डीएनए परीक्षण करवा रही है,’’ जयंत ने मृदुला को आश्वस्त करते हुए कहा.

दूसरे दिन वे दोनों ब्लड सैंपल दे आए. एक महीने के बाद जयंत के पास थानेदार का फोन आया, ‘‘डीएनए परीक्षण की रिपोर्ट आ गई है. आप थाने पर आ कर मिल लें.’’

‘‘क्या पता चला?’’ उन्होंने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘आप आ कर मिल लें, तो अच्छा रहेगा,’’ थानेदार ने गंभीर स्वर में कहा. जयंत औफिस में थे. मन में शंका पैदा हुई, थानेदार ने स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बताया? उन्होंने मृदुला को फोन कर के बताया कि डीएनए की रिपोर्ट आ गई है. वे घर आ रहे हैं, दोनों साथसाथ थाने चलेंगे. घर से मृदुला को ले कर जंयत थाने पहुंचे. थानेदार ने उन का स्वागत किया. मृदुला कुछ घबराई हुई थी, परंतु जयंत ने स्वयं को तटस्थ बना रखा था. किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए वे तैयार थे.

थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘आप मेरे साथ आइए,’’ फिर मृदुला से कहा, ‘‘आप यहीं बैठिए.’’ जयंत को एक अलग कमरे में ले जा कर थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘सर, बात बहुत गंभीर है, इसलिए केवल आप से बता रहा हूं. हो सकता है सुन कर आप को सदमा लगे, परंतु सचाई से आप को अवगत कराना भी मेरा फर्ज है. डीएनए परीक्षण के मुताबिक जिस व्यक्ति की हड्डियां हम ने बरामद की थीं, वे प्रमांशु की ही हैं.’’

जयंत को यही आशंका थी. उन्होंने अपने हृदय पर पत्थर रख कर पूछा, ‘‘परंतु उस की हत्या कैसे और क्यों हुई?’’

‘‘उस के जिन दोस्तों को हम ने पकड़ा था, उन से पूछताछ में यही पता चला था कि प्रमांशु ने अपने कुछ पुराने दोस्तों से संबंध तोड़ कर नए दोस्त बना लिए थे. पुराने दोस्तों को यह बरदाश्त नहीं हुआ. उन्होंने उस से संबंध जारी रखने के लिए कहा, तो प्रमांशु ने मना कर दिया. यही उस की हत्या का कारण बना.’’

‘‘क्या हत्यारे पकड़े गए?’’

‘‘हां, वे जेल में हैं. अगले हफ्ते हम अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर देंगे.’’ जयंत ने गहरी सांस ली.

‘‘सर, एक और बात है, जो हम आप से छिपाना नहीं चाहते क्योंकि अदालत में जिरह के दौरान आप को पता चल ही जानी है.’’

‘क्या बात है’ के भाव से जयंत ने थानेदार के चेहरे को देखा.

‘‘सर, प्रमांशु आप की पत्नी का बेटा तो है, परंतु वह आप का बेटा नहीं है,’’ थानेदार ने जैसे धमाका किया. जयंत की आंखें फटी की फटी रह गईं और मुंह खुला का खुला रहा गया. उन्हें चक्कर सा आया. कुरसी पर न बैठे होते तो शायद गिर जाते. जयंत कई पल तक चुपचाप बैठे रहे. थानेदार भी नहीं बोला, वह जयंत के दिल की हालत समझ सकता था. कुछ पल बाद जयंत ने शांत स्वर में कहा, ‘‘थानेदार साहब, जो होना था, हो गया. अब प्रमांशु कभी वापस नहीं आ सकता, परंतु जिस झूठ को अनजाने में हम सचाई मान कर इतने दिनों से जी रहे थे, वह झूठ सचाई ही बना रहे तो अच्छा है. यह हमारे दांपत्य जीवन के लिए अच्छा होगा.’’

‘‘क्या मतलब, सर?’’ थानेदार की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘आप मेरी पत्नी को यह बात मत बताइएगा कि मुझे पता चल गया है कि मैं प्रमांशु का पिता नहीं हूं.’’

थानेदार सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘‘जी सर, यही होगा. मैं आप की पत्नी को गवाह नहीं बनाऊंगा.’’

‘‘हां, यही ठीक होगा. बाकी मैं संभाल लूंगा.’’

‘‘जी सर.’’

जयंत थके उदास कदमों से मृदुला को कंधे से पकड़ कर थाने के बाहर निकले. मृदुला बारबार उतावली सी पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ? थानेदार ने क्या बताया? डीएनए परीक्षण से क्या पता चला? क्या वह हमारा प्रमांशु ही था?’’

गाड़ी में बैठते हुए जयंत ने मृदुला के सिर को अपने कंधे पर टिकाते हुए कहा, ‘‘मृदुल, तुम अपने को संभालो, वह हमारा ही बेटा था. अब वह इस दुनिया में नहीं रहा.’’ मृदुला हिचकियां भर कर रोने लगी. Romantic Story In Hindi 

Hindi Love Stories : दो बाेल अनकहे

Hindi Love Stories : वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोई थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

दुबई से नौकरी छोड़ कर आमिर ने अपना खुद का व्यापार शुरू कर दिया. बेटे सलीम को पढ़ाई के लिए उसे होस्टल में डाल दिया. सबीना का भी आमिर ने अच्छी तरह ध्यान रखा. उसे खूब प्रेम दिया. लेकिन जबजब आमिर सबीना से कहता कि नौकरी छोड़ दो. सबकुछ है हमारे पास. सबीना ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल तुम्हें कोई और भा गई. तुम ने फिर तलाक दे दिया तो मेरा क्या होगा? फिर मुझे यह नौकरी भी नहीं मिलेगी. मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती. इस बात पर अकसर दोनों में बहस हो जाती. घर का माहौल बिगड़ जाता. मन अशांत हो जाता सबीना का.

‘तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है?’ आमिर ने पूछा.

‘नहीं है,’ सबीना ने सपाट स्वर में जवाब दिया.

‘मैं ने तो तुम पर विश्वास किया. तुम्हें क्यों नहीं है?’

‘कौन सा विश्वास?’

‘इस बात का कि हलाला में पराए मर्द को तुम ने हाथ भी नहीं लगाया होगा.’

‘जब निकाह हुआ तो पराया कैसे रहा?’

‘मैं ने इस बात के लिए 3 लाख रुपए खर्च किए थे. ताकि जिस से हलाला के तहत निकाह हो, वह  हाथ भी न लगाए तुम्हें.’

‘भरोसा मुझ पर नहीं किया आप ने. भरोसा किया मौलवी पर. अपने रुपयों पर, या जिस से आप ने गैरमर्द से मेरा निकाह करवाया.’’

‘लेकिन भरोसा तो तुम पर भी था न.’

‘न करते भरोसा.’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे 3 लाख रुपए भी गए और तुम ने रंगरेलियां भी मनाई हों.’ आमिर की इस बात पर बिफर पड़ी सबीना. बस, इसी मुद्दे को ले कर दोनों में अकसर तकरार शुरू हो जाती और सबीना पार्क में आ कर बैठ जाती.

पार्क की बैंच पर बैठे हुए उस की दृष्टि सामने बैठे हुए एक अधेड़ व्यक्ति पर पड़ी. वह थोड़ा चौंकी. उसे विश्वास नहीं हुआ इस बात पर कि सामने बैठा हुआ व्यक्ति अमित हो सकता है. अमित उस के कालेज का साथी. 45 वर्ष के आसपास की उम्र, दुबलापतला शरीर, सफेद बाल, कुछ बढ़ी हुई दाढ़ी जिस में अधिकांश बाल चांदी की तरह चमक रहे थे. यहां क्या कर रहा है अमित? इस शहर के इस पार्क में, जबकि उसे तो दिल्ली में होना चाहिए था. अमित ही है या कोई और. नहीं, अमित ही है. शायद मुझ पर नजर नहीं पड़ी उस की.

अमित और सबीना एकसाथ कालेज में पूरे 5 वर्ष तक पढ़े. एक ही डैस्क पर बैठते. एकदूसरे से पढ़ाई के संबंध में बातें करते. एकदूसरे की समस्याओं को सुलझने में मदद करते. जिस दिन वह कालेज नहीं आती, अमित उसे अपने नोट्स दे देता. जब अमित कालेज नहीं आता, तो सबीना उसे अपने नोट्स दे देती. कालेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दोनों मिल कर भाग लेते और प्रथम पुरुस्कार प्राप्त करते हुए सब की वाहवाही बटोरते. जिस दिन अमित कालेज नहीं आता, सबीना को कालेज मरघट के समान लगता. यही हालत अमित की भी थी. तभी तो वह दूसरे दिन अपनत्वभरे क्रोध में डांट कर पूछता. ‘कल कालेज क्यों नहीं आईं तुम?’

सबीना समझ चुकी थी कि अमित के दिल में उस के प्रति वही भाव हैं जो उस के दिल में अमित के प्रति हैं. लेकिन दोनों ने कभी इस विषय पर बात नहीं की. सबीना घर से टिफिन ले कर आती जिस में अमित का मनपसंद भोजन होता. अमित भी सबीना के लिए कुछ न कुछ बनवा कर लाता जो सबीना को बेहद पसंद था. वे अपनेअपने सुखदुख एकदूसरे से कहते. अमित ने बताया कि उस के घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. घर में बीमार बूढ़ी मां है. जवान बहन है जिस की शादी की जिम्मेदारी उस पर है. अपने बारे में क्या सोचूं? मेरी सोच तो मां के इलाज और बहन की शादी के इर्दगिर्द घूमती रहती है. बस, अच्छे परसैंट बन जाएं ताकि पीएचडी कर सकूं. फिर कोई नौकरी भी कर लूंगा.’’

सबीना उसे सांत्वना देते हुए कहती, ‘चिंता मत करो. सब ठीक हो जाएगा.

सबीना के घर की उन दिनों आर्थिक स्थिति अच्छी थी. उस के अब्बू विधायक थे. उन के पास सत्ता भी थी और शक्ति भी. कभी कहने की हिम्मम नहीं पड़ी उस की अपने अब्बू से कि वह किसी हिंदू लड़के से प्यार करती है. कहती भी थी तो वह जानती थी कि उस का नतीजा क्या होगा? उस की पढ़ाईलिखाई तुरंत बंद कर के उस के निकाह की व्यवस्था की जाती. हो सकता है कि अमित को भी नुकसान पहुंचाया जाता. लेकिन घर वालों की बात क्या कहे वह? उस ने खुद कभी अमित से नहीं कहा कि वह उस से प्यार करती है. और न ही अमित ने उस से कहा.

अमित अपने परिवार, अपने कैरियर की बातें करता रहता और वह अमित की दोस्त बन कर उसे तसल्ली देती रहती. पैसों के अभाव में सबीना ने कई बार अमित के लाख मना करने पर उस की फीस यह कह कर भरी कि जब नौकरी लग जाए तो लौटा देना, उधार दे रही हूं.

और अमित को न चाहते हुए भी मदद लेनी पड़ती. यदि मदद नहीं लेता तो उस का कालेज कब का छूट चुका होता. कालेज की तरफ से कभी पिकनिक आदि का बाहर जाने का प्रोग्राम होता, तो अमित के न चाहते हुए भी उसे सबीना की जिद के आगे झकना पड़ता. कई बार सबीना ने सोचा कि अपने प्यार का इजहार करे लेकिन वह यह सोच कर चुप रह गई कि अमित क्या सोचेगा? कैसी बेशर्म लड़की है? अमित को पहल करनी चाहिए. अमित

कैसे पहल करता? वह तो अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था. अमित सबीना को अपना सब से अच्छा दोस्त मानता था. अपना सब से बड़ा शुभचिंतक. अपने सुखदुख का साथी. लेकिन वह भी कर न सका अपने प्यार का इजहार. प्यार दोनों ही तरफ था. लेकिन कहने की पहल किसी ने नहीं की. कहना जरूरी भी नहीं था. प्यार है, तो है. बीए प्रथम वर्ष से एमए के अंतिम वर्ष तक, पूरे 5 वर्षों का साथ. यह साथ न छूटे, इसलिए सबीना ने भी अंगरेजी साहित्य लिया जोकि अमित ने लिया था. अमित ने पूछा भी, ‘तुम्हारी तो हिंदी साहित्य में रुचि थी?’

‘मुझे क्या पता था कि तुम अंगरेजी साहित्य चुनोगे,’ सबीना ने जवाब दिया.

‘तो क्या मेरी वजह से तुम ने,’ अमित ने पूछा.

‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. सोचा कि अंगरेजी साहित्य ही ठीक रहेगा.’

‘उस के बाद क्या करोगी?’

‘तुम क्या करोगे?’

‘मैं, पीएचडी.’

‘मैं भी, सबीना बोली.’

लेकिन एमए पूरा होते ही सबीना के निकाह की बात चलने लगी. उस के पिता चुनाव हार चुके थे. और सारी जमापूंजी चुनाव में लगा चुके थे. बहुत सारा कर्र्ज भी हो गया था उन पर. जब सबीना ने निकाह से मना करते हुए पीएचडी की बात कही, तो उस के अब्बू ने कहा, ‘बीएड कर लो. पढ़ाई करने से मना नहीं करता. लेकिन पीएचडी नहीं. मैं जानता हूं कि पीएचडी के नाम पर पीएचडी करने वालों का कैसा शोषण होता है? निकाह करो और प्राइवेट बीएड करो. अपने अब्बू की बात मानो. समय बदल चुका है. मेरी स्थिति बद से बदतर हो गई है. अपने अब्बू का मान रखो.’ अब्बू की बात तो वह काट न सकी, सोचा, जा कर अमित के सामने ही हिम्मत कर के अपने प्यार का इजहार कर दे.

अमित को जब उस ने बीएड की बात बताई और साथ ही निकाह की, तो अमित चुप रहा.

‘तुम क्या कहते हो?’

‘तुम्हारे अब्बू ठीक कहते हैं,’ उस ने उदासीभरे स्वर में कहा.

‘उदास क्यों हो?’

‘दहेज न दे पाने के कारण बहन की शादी टूट गई.’ सबीना क्या कहती ऐसे समय में चुप रही. बस, इतना ही कहा, ‘अब हमारा मिलना नहीं होगा. कुछ कहना चाहते हो, तो कह दो.’

‘बस, एक अच्छी नौकरी चाहता हूं.’

‘मेरे बारे में कुछ सोचा है कभी.’

वह चुप रहा और उस ने मुझे भी चुप रहने को कहा, ‘कुछ मत कहो. हालात काबू में नहीं हैं. मैं भी पीएचडी करने के लिए दिल्ली जा रहा हूं. औल द बैस्ट. तुम्हारे निकाह के लिए.’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश कर रहे थे. जो कहना था वह अनकहा रह गया. और आज इतने वर्षों के बीत जाने के बाद वही शख्स नागपुर में पार्क में इस बैंच पर उदास, गुमसुम बैठा हुआ है. सबीना उस की तरफ बढ़ी. उस की निगाह सबीना की तरफ गई. जैसे वह भी उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो.

‘‘पहचाना,’’ सबीना ने कहा.

कुछ देर सोचते हुए अमित ने कहा, ‘‘सबीना.’’

‘‘चलो याद तो है.’’

‘‘भूला ही कब था. मेरा मतलब, कालेज का इतना लंबा साथ.’’

‘‘यह क्या हुलिया बना रखा है,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘अब यही हुलिया है. 45 साल का वक्त की मार खाया आदमी हूं. कैसा रहूंगा? जिंदा हूं. यही बहुत है.’’

‘‘अरे, मरें तुम्हारे दुश्मन. यह बताओ, यहां कैसे?’’

‘‘मेरी छोड़ो, अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं ठीक हूं. खुश हूं. एक बेटे की मां हूं. प्राइवेट स्कूल में टीचर हूं. पति का अपना बिजनैस है,’’ सबीना ने हंसते

हुए कहा.

‘‘देख कर तो नहीं लगता कि खुश हो.’’

‘‘अरे भई, मैं भी 40 साल की हो गई हूं. कालेज की सबीना नहीं रही. तुम बताओ, यहां कैसे? और हां, सच बताना. अपनी बैस्ट फ्रैंड से झठ मत बोलना.’’

‘‘झठ क्यों बोलूंगा. बहन की शादी हो चुकी है. मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं. मैं एक प्राइवेट कालेज में प्रोफैसर हूं. मेरा भी एक बेटा है.’’

‘‘और पत्नी?’’

‘‘उसी सिलसिले में तो यहां आया हूं. पत्नी से बनी नहीं, तो उस ने प्रताड़ना का केस लगा कर पहले जेल भिजवाया. किसी तरह जमानत हुई. कोर्ट में सम?ौता हो गया. आज कोर्ट में आखिरी पेशी है. उसे ले जाने के लिए आया हूं. अदालत का लंचटाइम है, तो सोचा पास के इस बगीचे में थोड़ा आराम कर लूं,’’ उस ने यह कहा तो सबीना ने कहा, ‘‘मतलब, खुश नहीं हो तुम.’’

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘खुश तो हूं लेकिन सुखी नहीं हूं.’’

जी में तो आया सबीना के, कि कह दे कालेज में जो प्यार अनकहा रह गया, आज कह दो. चलो, सबकुछ छोड़ कर एकसाथ जीवन शुरू करते हैं. लेकिन कह न सकी. उसे लगा कि अमित ही शायद अपने त्रस्त जीवन से तंग आ कर कुछ कह दे. लगा भी कि वह कुछ कहना चाहता था. लेकिन, कहा नहीं उस ने. बस, इतना ही कहा, ‘‘कालेज के दिन याद आते हैं तो तुम भी याद आती

हो. कम उम्र का वह निश्छल प्रेम, वह मित्रता अब कहां? अब तो

केवल गृहस्थी है. शादी है. और उस शादी को बचाने की हर

संभव कोशिश.’’

‘‘आज रुकोगे, तुम्हारा तो ससुराल है इसी शहर में,’’ सबीना ने पूछा.

‘‘नहीं, 4 बजे पेशी होते ही मजिस्ट्रेट के सामने समझौते के कागज पर दस्तखत कर के तुरंत निकलना पड़ेगा. 8 दिन बाद से कालेज की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं. फिर, बस खानापूर्ति के लिए, समाज के रस्मोरिवाज के लिए कानूनी दांवपेंच से बचने के लिए पत्नी को ले कर जाना है. ऐसी ससुराल में कौन रुकना चाहेगा. जहां सासससुर, बेटी के माध्यम से दामाद को जेल की सैर करा दी जा चुकी हो.’’ उस के स्वर में कुछ उदासी थी.

‘‘अब कब मुलाकात होगी?’’ सबीना ने पूछा.

इस घने अंधकार में उजाले का टिमटिमाता तारा लगा अमित. सबीना की आंखों में आंसू आ गए. आंसू तो अमित की आंखों में भी थे. सबीना ने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, अब कब मुलाकात होगी.’’

‘‘शायद ऐसे ही किसी मोड़ पर. जब मैं दर्द में डूबा हुआ रहूं और तुम मिल जाओ अचानक. जैसे आज मिल गईं. मैं तो तुम्हें देख कर पलभर को भूल ही गया था कि यहां किस काम से आया हूं. मेरी कोर्ट में पेशी है. अपनी बताओ, तुम कैसी हो?’’

सबीना उस के दुख को बढ़ाना नहीं चाहती थी अपनी तकलीफ बता कर. हालांकि, समझ चुका था अमित कि उस की दोस्त खुश नहीं है. ‘‘बस, जिंदगी मिली है, जी रही हूं. थोड़े दुख तो सब के हिस्से में आते हैं.’’

‘‘हां, यह ठीक कहा तुम ने,’’ अमित ने कहा.

‘‘मेरे कोर्ट जाने का समय हो गया, मैं चलता हूं.’’

‘‘कुछ कहना चाहते हो,’’ सबीना ने कुरेदना चाहा.

‘‘कहना तो बहुतकुछ चाहता था. लेकिन कमबख्त समय, स्थितियां, मौका ही नहीं देतीं,’’ आह सी भरते हुए अमित ने कहा.

‘‘फिर भी, कुछ जो अनकहा रह गया हो कभी,’’ सबीना ने कहा. सबीना चाहती थी कि वह अमित के मुंह से एक बार अपने लिए वह अनकहा सुन ले.

‘‘बस, यही कि तुम खुश रहो अपनी जिंदगी में. मैं भी कोशिश कर रहा हूं जीने की. खुश रहने की. जो नहीं कहा गया पहले. उसे आज भी अनकहा ही रहने दो. यही बेहतर होगा. झठी आस पर जी कर क्यों अपना जीना हराम करना.’’

दोनों की आंखों में आंसू थे और दोनों ही एकदूसरे से छिपाने की कोशिश करते हुए अपनीअपनी अंधेरी सुरंगों की तरफ बढ़ चले. जो पहले अनकहा रह गया था, आज भी अनकहा ही रह गया. Hindi Love Stories 

Social Story : उपाध्यक्ष महोदय – उपाध्यक्ष का पद क्यों होता है भारीभरकम?

Social Story : जब कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली दशा को प्राप्त हो जाता है तो उसे उस संस्था का उपाध्यक्ष बना दिया जाता है.

उपाध्यक्ष पदाधिकारियों में ईश्वर की तरह होता है, जो होते हुए भी नहीं होता है और नहीं होते हुए भी होता है. वह टीम का 12वां खिलाड़ी होता है, जो पैडगार्ड बांधे बल्ले पर ठुड्डी टिकाए किसी के घायल होने की प्रतीक्षा में लघुशंका तक नहीं जाता और मैच समाप्त होने पर गु्रपफोटो के लिए बुला लिया जाता है.

उपाध्यक्ष कार्यकारिणी का ‘खामखां’ होता है. किसी भी कार्यक्रम के अवसर पर वह ठीक समय पर पहुंच जाता है तथा अध्यक्ष महोदय के स्वास्थ्य की पूछताछ इस तरह करता है जैसे वह उन का बहुत हितैषी हो. वह संस्था के लौन में बाहर टहलता रहता है और अध्यक्ष के आने और खासतौर पर न आने की आहट लेता रहता है.

अगर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अध्यक्ष महोदय नहीं आ रहे हैं, तो वह इस बात की जानकारी अपने तक ही बनाए रखता है और बहुत विनम्रता व गंभीरता से बिलकुल पीछे की ओर बैठ जाता है, जैसे उसे कुछ पता ही न हो. जब सचिव आदि अध्यक्ष महोदय के न आने की सूचना देते हैं, जिस का कारण अपरिहार्य होता है और सामान्यत: बहुवचन में होता है, तो वह ऐसा जाहिर करता है जैसे उस के लिए यह सूचना सभी सर्वेक्षणों के विपरीत चुनाव परिणाम आने की सूचना हो.

वह माथे पर चिंता की लकीरें उभारता है और अध्यक्ष महोदय के न आने के पीछे वाले कारणों के प्रति जिज्ञासा उछालता है. फिर कोई गंभीर बात न होने की घोषणा पर संतोष कर के गहरी सांस लेता है. अब वह अध्यक्ष है और संस्था का भार उस के कंधों पर है.

आमतौर पर उपाध्यक्ष, अध्यक्ष से संख्या में कई गुना अधिक होते हैं. कई संस्थाओं में अध्यक्ष तो एक ही होता है पर उपाध्यक्ष एक दर्जन तक होते हैं क्योंकि काम करने वालों की तुलना में काम न करने वालों की संख्या हमेशा ही अधिक रहती है.

उपाध्यक्षों के 2 ही भविष्य होते हैं, एक तो वे अध्यक्ष के मर जाने, पागल हो जाने या निकाल दिए जाने की स्थिति में अध्यक्ष बना दिए जाते हैं या फिर झींक कर अंतत: दूसरी संस्था में चले जाते हैं जहां पहली संस्था में व्याप्त अनेक अनियमितताओं के बारे में रामायण के अखंड पाठ की तरह लगातार बताते रहते हैं.

उपाध्यक्षों का सपना संस्था का अध्यक्ष बनने का होता है और संस्था इस प्रयास में रहती है कि इस व्यक्ति को ऐसे कौन से तरीके से निकाल दिया जाए कि यह संस्था की ज्यादा फजीहत न कर सके.

मंच पर उपाध्यक्षों के लिए कोई कुरसी नहीं होती है. वहां अध्यक्ष बैठता है, सचिव बैठता है, विशिष्ट अतिथि बैठता है पर उपाध्यक्ष नहीं बैठता है, केवल उस की दृष्टि वहां स्थिर हो कर बैठी रहती है. कभीकभी जब फूलमालाएं अधिक आ जाएं तब मुख्य अतिथि से उस का परिचय कराने के लिए मंच से घोषणा की जाती है कि अब हमारी संस्था के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मुख्य अतिथि को माला पहनाएंगे. बेचारा मरे कदमों से मंच पर चढ़ता है और माला डाल कर उतर आता है. फोटोग्राफर उस का फोटो नहीं खींचता इसलिए वह मुंह पर मुसकान चिपकाने की भी जरूरत नहीं समझता.

उपाध्यक्ष किसी संस्था का वैसा ही हिस्सा होता है जैसे कि शरीर में फांस चुभ जाए, आंख में तिनका पड़ जाए या दांतों के बीच कोई रेशा फंस जाए. सूखने डाले गए कपड़े पर की गई चिडि़या की बीट की भांति उस के सूख कर झड़ जाने की प्रतीक्षा मेें पूरी संस्था सदैव तत्पर रहती है क्योंकि गीले में छुटाने पर वह दाग दे सकता है.

उपाध्यक्ष के दस्तखत न चेक पर होते हैं न वार्षिक रिपोर्ट पर. न उसे संस्था के संस्थापक सदस्य पूछते हैं न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी. न उसे अंत में धन्यवाद ज्ञापन को कहा जाता है और न ही प्रारंभ में विषय प्रवर्तन को. न उस का नाम निमंत्रणपत्रों में होता है और न प्रेस रिपोर्टों में. गलती से यदि कभी अखबार की रिपोर्टों में नाम चला भी जाता है तो समझदार अखबार वाले समाचार बनाते समय उसे काट देते हैं. अगले दिन सुबह वह अखबार देखता है और उसे पलट कर मन ही मन सोचता है कि लोकतंत्र के 3 ही स्तंभ होते हैं. काश, चौथा भी होता तो मैं भी उस पर बैठ कर प्रकाशित हो लेता.

वैसे मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं और इस साहस को हमेशा कायरतापूर्ण कृत्य बता कर तथाकथित बहादुर बना घूमता हूं पर फिर भी मेरा यह विश्वास है कि किसी संस्था का उपाध्यक्ष बनने की तुलना में आत्महत्या कर लेना लाखगुना अच्छा है. Social Story

Family Story In Hindi : तेरी ‘बेटी’ हूं मां – जब बहू बनी बेटी

Family Story In Hindi : सुकृति व गौरव शादी के बाद गुरुग्राम में रहने लगे. दोनों का औफिस वहीं है. वैसे, लौकडाउन की वजह से आजकल वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. सो, दोनों का अधिकतर समय घर पर बीत रहा है. सुकृति दिल्ली की है तो उस का अपने परिवारजन से मिलनाजुलना हो जाता है. किंतु गौरव का घर आगरा में होने से उस का घरवालों से मिलना कम हो पाता है.

आज लंच करते हुए मम्मी का फोन आया तो गौरव बारबार यही कह रहा था, “आते हैं, जल्द ही मिलेंगे. कुछ दिनों में आ कर मिलते हैं.”

बात ख़त्म होते ही सुकृति कहने लगी, “क्यों न हम आगरा चलें, अगला वीकैंड वहीं मनाते हैं. सब से मिलना हो जाएगा और 2 दिन संग रह भी लेंगे.”

“आइडिया तुम्हारा अच्छा है. मन तो मेरा भी जाने का है.”

“तो फिर चलते हैं. तुम कल फोन कर मम्मी को आने का बता देना.”

सुकृति आगरा जाने के प्रोग्राम से खुश थी. उसे अपनी सासुमां बीना जी से मिल कर अच्छा लगता है. घर में सासससुर के अलावा जेठ, जेठानी शिल्पी और उन की 3 साल की बिटिया गिन्नी भी है. खैर, नियत समय वे आगरा के लिए निकल लिए और समय से पहुच गए. सब से मिल अच्छा लग रहा था. गौरव तो पहुंचते ही गिन्नी संग खेलने में लग गया.

दोनों की पसंद का खाना बीना जी ने बनाया. खापी कर देररात तक गपों का दौर चला. अगले दिन थोड़ी देर से नींद खुली. फटाफट ब्रेकफास्ट तैयार किया गया. फिर लंच की तैयारी में लग गए.

आज लंच पर गौरव के चाचाचाची व उन के बच्चे आने वाले हैं. बीना जी का स्वभाव ही इतना मिलनसार है कि सारे परिवार को एकसूत्र में बांधा हुआ है. किसी न किसी को अपने यहां खानेपीने, मिलनेमिलाने के लिए बुलाती रहती हैं. सुकृति और उस की जेठानी ने बीना जी के साथ सभी की पसंद का लज़ीज़ खाना तैयार कर दिया. सब ने एकसाथ बैठ खाने का आनंद लेते हुए सुकूनभरा दिन बिताया.

सब के जाने के बाद बीना जी गरमागरम चाय बना लाईं. अपनी दोनों बहुओं को देते हुए कहने लगीं, “चाय पी लो, बेटा. आज मेरी बेटियां काम कर थक गई होंगी. सुबह से ही कुछ न कुछ करने में लगी हुई हैं.”

“और मां आप, आप तो हम से भी पहले से काम कर रही हो. थकी आप हो, न कि हम.” सुकृति के ऐसा बोलते ही बीना जी उसे व शिल्पी को गले लगाती हुई बोलीं, “मेरी सारी थकान तो अपनी बेटियों को खुश देख मिट जाती है. तुम बच्चे खुश रहो और हम मातापिता को क्या चाहिए. तुम्हारी खुशी में ही हमारी खुशी है.”

“ओह मां. मां, आप हमारा कितना ध्यान रखती हो. हम सब की अच्छी मां,” कह सुकृति फिर गले लग गई. अगला दिन भी इधरउधर आनेजाने में निकल गया.

दो दिन कैसे हंसतेबतियाते बीत गए, मालुम ही न पड़ा. वापस गुरुग्राम जाने के वक्त एकाएक गौरव की शर्ट का बटन टूट गया. उस को परेशान देख बीना जी ने सुकृति से कहा, “जा बेटा, मेरी अलमारी की दराज से सूईधागा निकाल ला. अभी बटन टांक देती हूं.”

सुकृति ने जैसे ही अलमारी खोली, अव्यवस्थित कपड़ों तथा सामान को देख स्तब्ध रह गई. खैर, सूईधागा बीना जी को दे गौरव की ओर देख बोली, “हम आज नहीं जा रहे. मुझे कुछ अत्यंत जरूरी काम याद आ गया है जो आज ही पूरा करना है. तुम भी यहीं से काम कर लो.”

ऐसा सुन गिन्नी तो मटकने लगी और झट से गौरव की गोद में जा बैठी. बीना जी भी बच्चों की तरह चहकती हुईं बोलीं, “बहुत अच्छा किया जो तुम दोनों रुक गए. आज तुम लोगों की पसंद का खाना ही बनाऊंगी.”

“मां…मां,” सुकृति बीना जी की बात बीच में ही काटती हुई बोली, “क्या आप के कमरे में कुछ देर अकेली बैठ सकती हूं, कुछ काम करना है?”

“कैसी बात कर रही है, बेटा. तेरी मां का ही तो कमरा है. पूछने की क्या जरूरत है. वैसे भी, तुम्हारा अपना घर है, जहां मन करे, उठोबैठो, मेरी बिटिया रानी.”

“हां मां,” कह सुकृति ने पहले औफिस से छुट्टी ली, फिर बीना जी के कमरे में चली गई. अलमारी खोल एकएक कर सभी कपड़े बाहर पलंग पर रख उन की तह बना, उन्हें जमाती गई. अब कुछ ब्लाउज़ के हुक टूटे हुए थे तो सूईधागे से वापस टांक दिए. जिन पेटीकोट के नाड़े ढीले लगे, उन में नए नाड़े डाल अच्छे से तह बना कर अलमारी में रख दिए. सब से बाद में जो भी अव्यवस्थित सामान डब्बों में रखा हुआ था उन्हें भी व्यवस्थित ढंग से रख दिया. छोटेछोटे गहने, जैसे गले की चेन या कान के टौप्स ज़रूर अलमारी के ही लौकर में डब्बों के अंदर भलीभांति जमा दिए ताकि आसानी से देख कर पहने जा सकें.

‌अलमारी का काम करने में करीब 2-3 घंटे लग गए. बीना जी व शिल्पी रसोई में खाने की तैयारी में लगी हुई थीं. दोनों ही जन एकदो दफ़ा आवाज लगा चुकी थीं- ‘सुकृति, आ कर चाय ले ले.’ अब की बार भी न आने पर बीना जी और उन के पीछेपीछे शिल्पी भी कमरे में चली आईं.

सुकृति को अलमारी खोले देख जैसे ही बीना जी की नजर अंदर की ओर गई, एकाएक मुंह से निकला, “अरे, यह क्या मेरी अलमारी है. सभी कपड़े व सामान अपनी जगह करीने से सजे हुए ‌दिखाई दे रहे हैं. ‌अच्छा, तो इतनी देर से यही काम कर रही थी. बहुत ही अच्छा किया जो तूने सभी कपड़े तथा सामान सही ढंग से रख दिए. सोच तो कई दिन से मैं भी रही थी यह काम करना है पर व्यस्तता तथा घुटनों के दर्द की वजह से टालती जा रही थी. खैर, मेरी बेटी ने कर दिया, शाबाश, मेरी बच्ची.”

“मां आप से कुछ कहना चाहती हूं. आज मैं ने एक छोटा सा काम किया है पर न जाने ऐसे कितने ही व्यक्तिगत कार्य होंगे जो घर की तमाम जिम्मेदारियों, व्यस्तताओं तथा घुटने की तकलीफ की वजह से आप नहीं कर सकती होंगी. न तो मेरा, न ही शिल्पी भाभी का ध्यान कभी इस ओर जा पाया कि आप को छोटेछोटे कार्यों में भी हमारी मदद की जरूरत पड़ सकती है. यदि हम लोग अनजाने में न समझ सकें तो आप तो शिल्पी भाभी या मुझ से हक के साथ वे सभी पर्सनल काम करने को कह सकती हैं जिन्हें करने में आप असमर्थ हैं.

“मां, हमेशा आप इतना प्यार देती हो, जरूरत से ज़्यादा हमारा खयाल रखती हो, दिनभर बेटीबेटी बोलती रहती हो तो बेटी के कर्तव्यों-फ़र्ज़ का भी हम से निर्वाह करवाओ. क्यों न वे सभी काम आप हम से करने के लिए कहें जो किसी कारणवश नहीं कर पा रही हों.

“मां कहनेभर से हम बहुओं को बेटियां मत मानो. हमारे ऊपर अपना अधिकार समझ अपने दिल की हर बात हम दोनों से साझा करें. जो भी आप के मन में काम के प्रति विचारविमर्श हो रहा हो या करने की सोच रही हों, तुरंत एक आवाज दे हम से कराएं. आप के इस व्यवहार से ही हम सही माने में आप की बेटियां बन सकेंगी. मां, हमारी खुशियों का ध्यान रख हमारे मनमाफिक काम करते रहने से, सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए ही सोचते रहने से हम आप की बेटी कहलाने लायक नहीं हो सकेंगी, इसलिए ज्यादा सोचेसमझे बिना वो सारे काम हमें करने को कहें जिन्हें करने में आप परेशानी महसूस करें.

“मां, एक बार फिर दिल से यही बात कहना चाहूंगी कि आप व पापाजी दोनों ही अधिकार और अपनेपन से मुझे और शिल्पी भाभी से जो भी काम या फिर मन की बात कहना चाहें, कहें और हमेशा ही कहते रहें.”

“ठीक है, मेरी बच्ची ठीक है,” भावविह्वल हो बीना जी बोलीं, “आइंदा से तुम दोनों से कुछ भी कहने से न तो सोचूंगी, न ही हिचकूंगी. सालों से सोचती थी ईश्वर ने एक बेटी दी होती, कितना अच्छा होता. अपने मन की कहसुन पाती. पर मुझे क्या पता था, इस जीवन में एक के बजाय दो बेटियां मिलेंगी जो अपनी मां से बेइंतहा प्यारस्नेह करेंगी,” कहतीकहती बीना जी ने दोनों को गले लगा लिया और उन की बेटियां भी उन से मासूम बच्चे की भांति लिपट गईं.”

“आज भूख हड़ताल है, लंच नही मिलेगा क्या?” गौरव की आवाज सुन सब कमरे से बाहर आए. बीना जी हंसती हुई कहने लगीं, “तेरी पसंद का ही खाना बनाया है. जल्दी से आ जा और सब को भी खाने के लिए आवाज लगा दे. तुम सभी बैठो, मैं गरमागरम फुल्के सेंक खिलाती हूं…”

बीना जी की बात खत्म भी न हुई कि सुकृति व शिल्पी ने लगभग एकसाथ ही कहा, “फटाफट लंच निबटा, हम सभी बाजार अथवा मौल जाएंगे. फिर वहीं से मां और पापा के लिए उन की पसंद के कपड़े खरीदेंगे.”

“हांहां, बिलकुल. और बहुत सारी शौपिंग,” बीना जी के कहने का अंदाज ही कुछ ऐसा था कि सभी की सम्मिलित हंसी से घर गूंज उठा. Family Story In Hindi

Social Story In Hindi : दुनिया नई पुरानी

Social Story In Hindi : एक सीधीसादी, संतुष्ट जिंदगी जी रहा था जनार्दन का परिवार. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था लेकिन एक दिन ऐसा जलजला आया जो परिवार की सारी खुशियां बहा ले गया.

पदोन्नति के साथ जनार्दन का तबादला किया गया था. अब वे सीनियर अध्यापक थे. दूरदराज के गांवों में 20 वर्षों का लंबा सेवाकाल उन्होंने बिता दिया था. उन की पत्नी शहर आने पर बहुत खुश थी. गांव की अभावभरी जिंदगी से वह ऊब चुकी थी. अपने बच्चों को पढ़ानेलिखाने में जनार्दन व उन की पत्नी ने खूब ध्यान दिया था.

उन की 2 बेटियां और एक बेटा था. बड़ी का नाम मालती, मंझली मधु और छोटे बेटे का नाम दीपू था. मालती सीधीसादी मगर गंभीर स्वभाव की, तो मधु थोड़ी जिद्दी व शरारती थी, जबकि दीपू थोड़ा नटखट था.

मालती बीए की पढ़ाई कर रही थी, मधु 11वीं में पढ़ रही थी और दीपू तीसरी कक्षा में पढ़ रहा था. समय बीत रहा था.

वहां गांव में जनार्दन पैदल ही स्कूल जातेआते थे. यहां शहर में आ कर उन्होंने बाइक ले ली थी. जिस पर छुट्टी के दिन श्रीमतीजी को बैठा कर जनार्दन शौपिंग करने या घूमने जाते थे. उन की पत्नी दुपहिया वाहन में सैर कर फूले न समाती. कभीकभी दीपू भी जिद कर मांबाप के बीच बैठ कर सवारी का आनंद ले लेता था.

मधु विज्ञान विषय ले कर पढ़ रही थी. जनार्दन ने शहर के एक ट्यूशन सैंटर में भी अब उस का दाखिला करवा दिया था. वह बस से आयाजाया करती. दीपू को जनार्दन खुद स्कूल छोड़ जाया करते और लौटते समय ले आते. एक व्यवस्थित ढर्रे पर जीवन चल रहा था.

नई कालोनी में आ कर जनार्दन की पत्नी बच्चों के लालनपालन में तल्लीन थी. दिन के बाद रात, रात के बाद दिन. समय कट रहा था. बेहद घरेलू टाइप की महिला थी वह. एक ऐसी आम भारतीय महिला जिस का सबकुछ उस का पति, बच्चे व घर होता है. मां का यह स्वभाव बड़ी बेटी को ही मिला था.

मधु ट्यूशन खत्म होते ही बस से ही लौटती. कालोनी के पास ही बस का स्टौप था. ट्यूशन सैंटर के पास एक ढाबा था. शहर के लड़के और बाबू समुदाय अपने खाने का शौक पूरा करने वहां आते थे. एक दिन यहीं पर मधु सड़क पार कर बसस्टौप के लिए जा रही थी, एक कार टर्न लेते हुए मधु के एकदम पास आ कर रुकी. मधु घबरा गई थी. वह पीछे हट गई. कारचालक ने कार किनारे पार्क की और मधु के पास आया, बोला, ‘‘मैडम, सौरी, मैं जरा जल्दी में था.’’  दोनों की आंखें चार हुईं.

‘‘दिखाई नहीं देता क्या,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘अब एकदम ठीक दिखाई देता है मैडम.’’ उस ने मधु की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

‘‘नौनसैंस,’’ मधु ने उसे गुस्से से देख कर कहा.

फिर मधु बसस्टौप की तरफ बढ़ चली. वह उसे जाता हुआ देखता रहा. उस का नाम था शैलेश. शहर के एक कपड़े के व्यापारी का बेटा. अब तो शैलेश अकसर ट्यूशन सैंटर के पास दिखता- कभी ढाबे से निकलते हुए, कभी कार खड़ी कर इंतजार करते हुए. फिर वही हुआ जो ऐसे में होता है. एक शरारत पहचान में, पहचान दोस्ती में, और फिर दोस्ती प्यार में बदल गई.

बस की जगह अब मधु कार या कभी बाइक में ट्यूशन से लौटती. मधु के मातापिता इस बात से अनजान थे. लेकिन कालोनी के एक अशोकन सर को सबकुछ पता था. इधर अशोकन सर

शाम की चहलकदमी को निकलते और कालोनी से कुछ कदम दूर मधु कार से कभी बाइक से उतरती, दबेपांव धीरेधीरे घर की ओर जाती. इन की हायबाय उन्होंने कितनी ही बार देखी.

मां तो यही सोचती कि उस की बेटी सयानी है, विज्ञान की छात्रा है, एक दिन उसे डाक्टर बनना है. वह एक मौडर्न लड़की है. दुनिया में आजकल यही तो चाहिए. पिता को घर की जिम्मेदारियों से फुरसत कहां मिलती है भला.

लेकिन मधु के प्यार की भनक मालती को लग गई थी. उस के फोनकौल्स अब ज्यादा ही आ रहे थे. जब देखो मोबाइल फोन कान से लगाए रहती. एक शाम जब वह काफी देर बातें कर चुकी, तो मालती ने पूछा, ‘‘मधु, कौन था वह जिस से तुम इतनी हंसहंस कर बातें कर रही थी? तुम कहीं ऐसेवैसे के चक्कर में तो नहीं पड़ गईं. अपनी पढ़ाई का खयाल रखना.’’

मधु ने जवाब में कहा, ‘‘नहीं दीदी, ऐसीवैसी कोई बात नहीं है.’’

आखिर एक दिन उस ने दीदी को बता ही दिया कि वह शैलेश से प्यार करने लगी है. वह अच्छा लड़का है.’’

मालती ने मन में सोचा, ‘शायद यह सब सच हो.’

एक दिन अचानक मुख्यभूमि से

जनार्दन के पास फोनकौल आई.

उन्हें अपने पैतृक गांव जाना पड़ा. उन के मित्र वेंकटेश ने फौरन उन के विमान टिकट का बंदोबस्त किया. पापामम्मी दोनों को जाना था. ज्यों ही मम्मीपापा गए, मधु ने दीदी से कहा कि वह 2-3 दिनों के लिए चेन्नई जाना चाहती है. शैलेश 2-3 दिनों के लिए अपने बिजनैस के सिलसिले में चेन्नई जाएगा. वह उसे भी साथ ले जाना चाहता है.

‘‘दीदी, तू साथ दे दे. बस, 2-3 दिनों की ही तो बात है.’’

मालती अवाक रह गई. मगर वह क्या कर पाती भला. उस की ख्वाहिश और बारबार यह आश्वासन कि शैलेश बहुत अच्छा लड़का है, वह उस से शादी करने को राजी है. मालती ने उसे इजाजत दे दी. शैलेश के साथ विमान से मधु चेन्नई चली गई. मालती का जैसे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई थी. पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन चौथे दिन वह शैलेश के साथ लौट आई थी. टूरिस्ट सीजन की वजह से उन्हें किसी ने ज्यादा नोटिस नहीं किया था.

एक सप्ताह के बाद मम्मीपापा मुख्यभूमि से लौट आए थे. गांव की पुश्तैनी जमीन का उन का हिस्सा उन्हें मिलने वाला था. मम्मीपापा के लौट आने पर मालती का मन बेहद हलका हो गया था.

समय गुजरता जा रहा था. जनार्दन और उन की पत्नी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए दिनरात एक कर रहे थे. मालती अब बीए पास कर चुकी थी. वह आगे पढ़ने की सोच रही थी. दीपू 7वीं कक्षा में पहुंच गया था और मधु अब कालेज में पढ़ रही थी.

आधुनिक खयाल की लड़की होने के कारण मधु के पहनावे भी आधुनिक थे. उस की सहेलियां अमीर घरों की थीं. उन लड़कियों के बीच एक नाम बहुत ही सुनाई देता था- बबलू. वैसे उस का सही नाम जसवंत था. बबलू कभी अकेला नहीं घूमता था, 3-4 चेले हमेशा उसे घेरे रहते. क्यों न हों, वह शहर के एक प्रभावी नेता का बेटा जो था. ऊपर से वह तबीयत का भी रंगीन था. उस ने जब मधु को देखा, तो देखता ही रह गया उस की गोरी काया और भरपूर यौवन को. पर मधु भला उस पर क्यों मोहित होती, वह तो शैलेश की दीवानी थी. जब कभी कक्षाएं औफ होतीं तो मधु अपना समय शैलेश के साथ ही बिताती, कभी किसी पार्क या किसी दूसरी जगह पर.

जर्नादन और वेंकटेश की दोस्ती अब पारिवारिक बंधन में बदलने जा रही थी. वेंकटेश के बेटे को मालती बहुत पसंद थी. पिछले बरस उस ने अपनी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और उस की सरकारी नौकरी भी लग गई थी.

एक सुबह वेंकटेश और उन की पत्नी अपने बेटे का रिश्ता मालती के लिए ले कर आ गए थे. और अगले फागुन में शादी की तिथि निकल आई थी. मालती शादी के बाद भी पढ़ाई करे, उन्हें एतराज नहीं था. मां यही तो चाहती थी कि उस की बेटी को अच्छी ससुराल मिले.

इधर, मधु कालेज में अपनी सहेलियों की मंडली में हंसतीखेलती व चहकती रहती. क्लास न होने पर कैंटीन में समय बिताती या लाइब्रेरी में पत्रिकाएं उलटतीपलटती. कभीकभार शैलेश उसे पार्क में बुला लेता. बबलू तो बस हाथ मसोस कर रह जाता. वैसे, बहुत बार उस ने मधु को आड़ेहाथों लेने की कोशिश की थी.

वह गांधी जयंती की सुबह थी. कालेज में हर वर्ष की तरह राष्ट्रपिता की जयंती मनाने का प्रबंध बहुत ही अच्छे तरीके से किया गया था. लड़कियां रंगबिरंगे कपड़ों में कालेज के कैंपस और पंडाल में आजा रही थीं. तभी, बबलू की टोली ने देखा कि मधु शैलेश की कार में बैठ रही है.

अक्तूबर का महीना. सूरज की किरणों में गरमी बढ़ रही थी. शहर से दूर समुद्र के किनारे एक पेड़ के तने से लगे मधु और शैलेश बैठे हुए थे. शैलेश का सिर मधु की गोद में था और मधु की उंगलियां उस के बालों से खेल रही थीं. जब भी दोनों को मौका मिलता तो शहर से दूर दोनों एकदूसरे की बांहों में समा जाते. तभी, शैलेश ने जमीन पर फैले पत्तों में किसी के पैरों की पदचाप सुनी और वह उठ गया, देखा कि सामने एक नौजवान खड़ा है और उस के पीछे 3 और लड़के. मधु ने देखा, वह बबलू था.

और अगले क्षण बबलू ने मधु को हाथों में जकड़ लिया. बब्लू ने मधु को उस की गिरफ्त से छुड़ाना चाहा और पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो और इस बदतमीजी का मतलब…’’ बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि बबलू के बूटों का एक प्रहार उस की कमर पर पड़ा. वह उठ कर भिड़ना ही चाहता था कि बबलू का एक सख्त घूंसा उस के गाल पर पड़ा.

बबलू के इशारे पर 2 लड़कों ने उसे पीटना शुरू कर दिया. शैलेश ने मधु को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठा लिया और पास ही के जंगल की ओर बढ़ चला. मधु प्रतिवाद करती रही. बबलू का तीसरा सहायक भी उन के पीछे पहुंच गया था.

शाम तक मधु के न लौटने पर जनार्दन व उन के घर वाले घोर चिंता में घिर गए. उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी. मालती अनजाने भय से अंदर ही अंदर घबरा रही थी.

अगले दिन यह खबर जंगली आग की तरह फैल गई थी कि शहर से दूर जंगल में एक लड़की का शव और समुद्र के किनारे एक लड़का घायल अवस्था में मिला है. पुलिस हरकत में आई. उस ने शव को अस्पताल पहुंचा दिया और घायल लड़के को अस्पताल में भरती करा दिया.

जनार्दन को पुलिस ने अस्पताल बुला लिया था शिनाख्त के लिए. जब पुलिस अधिकारी ने शव के मुंह से कपड़ा हटाया, जनार्दन के मुंह से चीख निकल गई. वे वहीं गिर पड़े.

दोपहर तक शव कालोनी में लाया गया. कालोनी के लिए वह दिन शोक का था. सभी जनार्दन परिवार के दुख में शामिल थे. मां का रो कर बुरा हाल था, छोटे दीपू को जैसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मालती दहाड़ें मारमार कर रो रही थी. जर्नादन के लिए सबकुछ एक अबूझ पहेली की तरह था. उन के सपनों का महल धराशायी हो गया था. रोरो कर उन का भी बुरा हाल था.

मालती के सिवा कौन जानता था कि मधु के जीवन के ऐसे अंत के लिए मालती भी तो जिम्मेदार थी. काश, शुरू से उस ने उसे बढ़ावा न दिया होता और मांपिताजी को सबकुछ बता दिया होता.

दहाड़े मार कर रोती मालती को अड़ोसीपड़ोसी ढांढ़स बंधा रहे थे. Social Story In Hindi

Family Story : हंसने की चाह – बेटे को सफल बनाने के लिए दिलीप क्या प्रयास कर रहा था?

Family Story : उस दिन दिलीप को कितनी खुशी हुई थी कि वह अपने बेटे अमित के डाक्टर बनने के सपने को पूरा कर पाएगा। आईएससी करने के बाद 1 साल अमित ने जम कर मैडिकल ऐंट्रैंस की तैयारी की थी। 1 वर्ष उस ने बीएससी में ऐडमिशन भी नहीं कराया था। पर जब सफलता नहीं मिली थी तो उस ने बीएससी में ऐडमिशन ले लिया था। पर तैयारी मैडिकल ऐंट्रैंस की ही करता रहा था।

दूसरे प्रयास में भी सफलता नहीं मिली थी। और यही परिणाम रहा था तीसरे प्रयास में भी। बस संतोष की बात यही थी की हर बार कटऔफ मार्क्स के ज्यादा नजदीक होता गया था वह। पर इस से ऐडमिशन तो नहीं मिलना था। निराश हो अमित ने अपना ध्यान बीएससी पर लगा दिया था। जितना दुख अमित को था उतना ही दुख दिलीप को भी था। उस की भी चाहत थी कि उस का बेटा डाक्टर बने। पर कुछ भी किया नहीं जा सकता था।

फरवरी में उस के पास किसी व्यक्ति ने कौल किया था। उस ने खुद को मैडिको हैल्प डेस्क का कर्मचारी बताया था। उस ने उसे आश्वस्त किया था कि वह उस के बेटे को एमबीबीएस में ऐडमिशन दिलवा देगा। इस के लिए उस ने 2 विकल्प सुझाए थे। महाराष्ट्र के कालेज में नामांकन के लिए ₹90 लाख और कर्नाटक के कालेज में नामांकन के लिए ₹95 लाख का भुगतान करना था। अफरात पैसे तो थे नहीं उस के पास कि कितने भी पैसे लगे दे देगा इसलिए ₹5 लाख कम होने के कारण उस ने महाराष्ट्र में ऐडमिशन करवाना बेहतर समझा।

दिलीप ने महाराष्ट्र के एक कालेज के बारे में पूछा तो उसे बताया गया कि ₹58 लाख फीस के और ₹32 लाख कैपिटेशन चार्ज के जमा करने होंगे। विशेष जानकारी के लिए उसे नोएडा के औफिस के पते पर आ कर मिलने के लिए कहा गया था।

खुशी से रात भर वह सो नहीं पाया था। उस की यह हालत खुशी के मौके पर और गम के मौके पर भी होती थी। गम के मौके पर तो फिर भी देरसवेर सो जाता था पर खुशी के मौके पर उसे नींद नहीं आती थी। करवटें बदलते, कभी वाशरूम जाने किए लिए उठते हुए रात बिताई। वह तो खुश था ही उस की पत्नी और उस के बेटे को भी कम खुशी नहीं थी। सभी इसे ईश्वर की कृपा समझ रहे थे। उस की पत्नी यह समाचार सुन कर चहक कर बोली थी मैगजीन में उस ने राशिफल पढ़ा था। अमित के राशिफल में अप्रत्याशित सुखद समाचार मिलने की इस महीने संभावना बताई गई थी।

ऐसा नहीं था कि ₹90 लाख उस के लिए बहुत छोटी रकम थी। पर बेटे के सपने को पूरा करने के लिए वह कृतसंकल्प था। उस ने मन ही मन अनुमान लगाया कि ₹40 लाख तो उस के खाते में हैं फिक्स्ड डिपौजिट के रूप में। पीपीएफ खाते में भी ₹8 लाख जमा थे और उस से 3-4 लाख रुपए निकाल ही सकता था। शेष रकम वह उधार ले लेगा। और नहीं तो ऐजुकेशन लोन तो मिल ही जाएगा। उस ने सुना था कि विद्यालक्ष्मी पोर्टल पर जा कर पसंद के बैंक में और पसंद की शाखा से ऐजुकेशन लोन के लिए अप्लाई किया जा सकता है।

उस ने मन ही मन अपने बैंक की उसी शाखा से लोन लेने की योजना बना ली जिस में उस का वेतन खाता है। आखिर पुराने ग्राहक होने के नाते बैंक वाले उस की सहायता जरूर करेंगे। 1-2 स्टाफ से उस की अच्छी जानपहचान भी थी।

खुशी में रात बाहर नींद नहीं आई थी। सुबह प्रतीक्षा की घड़ियां उसे काफी लंबी लग रही थी। उस ने अपने औफिस में छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया था बीमारी का बहाना बना कर। और नोएडा स्थित मैडिको हैल्प डेस्क के औफिस पहुंच गया था।

औफिस खुलने का समय 10 बजे बताया गया था पर वह 9 बजे ही वहां पहुंच चुका था। जब वह औफिस में पहुंचा तो सिर्फ चौकीदार था वहां। उस ने बताया कि 10 बजे ही साहब लोग आते हैं। 1 घंटा इधरउधर घूमते हुए उस ने समय बिताया। इस बीच वह बेटे के कैरियर के हसीन सपनों में खो जाता था। 5 साल बाद बेटा एमबीबीएस हो कर निकलेगा फिर वह एमडी या एमएस भी करवा देगा। आजकल एमडी या एमएस किए बिना अच्छे हौस्पिटल में नौकरी नहीं मिलती डाक्टरों को। उस ने निश्चय कर लिया।

जैसे ही औफिस खुला वह अंदर गया। वहां रामकुमार नामक व्यक्ति ने उस का स्वागत किया। उस ने उस का परिचय राजेश नामक व्यक्ति से करवाया जो वहां का हैड था। राजेश ने उस से उस के बेटे का मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो मांगा ताकि ऐडमिशन के लिए प्रोसेसिंग किया जा सके। वह कुछ भी ले कर नहीं आया था क्योंकि फोन पर उसे इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया था।

“मैं 1-2 घंटे में ला कर सभी चीजें दे दूंगा,” उस ने घबराते हुए कहा था। उसे लगा कहीं इस कारण से बेटे के ऐडमिशन में परेशानी न आ जाए।

“अरे ऐसी कोई जल्दीबाजी नहीं। आप कल सभी कागजात दे जाएं। साथ ही बेटे को भी ले आएं। इंटरव्यू की औपचारिकता भी पूरी कर लेंगे,” राजेश ने एहसान जताते हुए कहा था।

अगले दिन वह बेटे अमित के साथ आया था, मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो ले कर। साथ ही उस ने पैनकार्ड और अन्य दस्तावेज भी रख लिए थे। कहीं किसी दस्तावेज की आवश्यकता न पङ जाए। राजेश ने अमित से कुछ मामूली सवाल पूछे थे जिस का अमित ने पूरे विश्वास से जवाब दिया था। दिलीप को काफी गर्व हुआ था अपने बेटे की काबिलियत पर।

राजेश ने आश्वस्त किया कि वांछित कालेज में अमित का मैनेजमेंट कोटा में नामांकन हो जाएगा। इस के लिए उसे एमओयू साइन करना होगा और ₹12लाख 1 सप्ताह के अंदर जमा करने होंगे। वहां और भी कुछ अभिभावक अपनेअपने बच्चों के साथ आए हुए थे।

1 सप्ताह की प्रतीक्षा कौन करता? दिलीप ने अगले ही दिन अपना फिक्स्ड डिपौजिट तुड़वा कर चेक से भुगतान कर दिया। उस चेक को अगले ही दिन भूना भी लिया गया। कुछ दिनों के बाद उस से ₹70लाख की मांग की गई और इस के अतिरिक्त ₹8लाख रुपए देने के लिए कहा गया। चूंकि नामांकन की कोई प्रक्रिया प्रारंभ नहीं की गई थी और फीस तो साल दर साल जमा होना चाहिए था इसलिए दिलीप ने पहले नामांकन करवाने की जिद की। इस पर उसे महाराष्ट्र स्थित कालेज में जाने के लिए कहा गया।

इतनी जल्दी टिकट मिलना मुश्किल था। हवाई जहाज के टिकट काफी मह॔गे थे। किसी प्रकार तत्काल में टिकट बुक कर दोनों बापबेटे कालेज गए। कालेज में उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया तो उस ने रामकुमार को फोन किया। रामकुमार ने जवाब दिया कि वे विलंब से आए हैं और अब कुछ नहीं हो सकता। इस के बाद उस ने फोन काट दिया और फिर रामकुमार के साथ ही राजेश का फोन भी अनरिचेबल आने लगा।

दिनभर प्रतीक्षा करने के बाद कोई चारा नहीं था दोनों के पास। फिर तत्काल में टिकट बुक करवा कर वापस आए। वापस आ कर दिलीप तमतमाता हुआ नोएडा स्थित कार्यालय गया। पर वहां लटका ताला उस का इंतजार कर रहा था।आसपास पता करने पर मालूम हुआ के वे अपराधी किस्म के व्यक्ति थे और कई लोगों को उन्होंने इसी प्रकार छला था। अब एक ही उपाय था पुलिस में शिकायत करना।

पुलिस थाने में उस ने एफआईआर तो कर दिया पर अपनी बुद्धि पर उसे तरस आ रहा था कि बिना कोई छानबीन किए वह कैसे अपराधियों के जाल में फंस गया। हंसने की चाह ने उसे रुला दिया। मगर अब हो भी क्या सकता था, ₹12 लाख तो पानी में डूब गए थे। अब न ईश्वर काम आ रहा था और न ही राशिफल। Family Story

Prime Minister : मोदी क्यों जपते रहते हैं नेहरू का नाम

Prime Minister : जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज पर विपक्ष आक्रामक हुई उन्होंने सफाई देने की जगह नेहरू पर आरोप लगाए हैं. उन के अकसर अपने वक्तव्य में नेहरू का जिक्र किसी न किसी बहाने करते हैं. आखिर इस की वजह क्या है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मानसून सत्र में लोकसभा में दिए गए अपने भाषण में 14 बार भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जिक्र किया. वो अपने अधिकांश भाषणों में नेहरू का जिक्र कर उन की ‘गलतियां’ गिनाते हैं. लोकसभा में 102 मिनट तक नरेंद्र मोदी कांग्रेस के संदर्भ पर बोलते रहे. इस के केंद्र में जवाहर लाल नेहरू रहे. वैसे देखे तो नरेंद्र मोदी ने नेहरू को न तो देखा होगा न ही उन के समयकाल में वह राजनीतिक सामाजिक मुद्दों की समझ रखते रहे होंगे.

मई 1964 में जब नेहरू का निधन हुआ होगा तब नरेंद्र मोदी 14 साल के रहे होंगे. देश में तमाम प्रधानमंत्री इस के बाद हुए, इन में से कई कांग्रेसी और कई गैर कांग्रेसी भी थे. भारत में 13 अलगअलग प्रधानमंत्री हुए हैं. इस के बाद भी नरेंद्र मोदी हमेशा जवाहरलाल नेहरू के नाम की ही माला जपते रहते हैं. देखा जाए तो नरेंद्र मोदी की पहली राजनीतिक लड़ाई इंदिरा गांधी से होनी चाहिए. उन के लगाई इमरजैंसी में उन्हें और सैकड़ों आरएसएस स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया था.

इस के पीछे विचारधारा की लड़ाई है. जवाहरलाल नेहरू महिला अधिकारों के पुरजोर समर्थक थे और उन का मानना था कि कानूनों और परंपराओं के कारण महिलाओं का दमन होता है. जिस से उन्हें संपत्ति, कानूनी अनुबंध, और पारिवारिक कानून में समान अधिकार मिलना चाहिए. हिंदू कोड बिल द्वारा लाने का उन का उद्देश्य भी यही था.

मोदी को अखरता है नेहरू का धर्म निरपेक्ष होना

यही नहीं संसदीय चुनावों में महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर भी उन का जोर रहता था. उस समय महिलाएं राजनीतिक रूप से इतनी जागृत नहीं थीं. वह इस बात का समर्थन करते थे कि राजनीति में ज्यादा से ज्यादा महिलाएं आगे आए. अपने दौर में कई महिलाओं को आगे लाने का काम भी किया था. देश के पहले चुनाव के नतीजों के बाद 18 मई, 1952 को जवाहरलाल नेहरू ने देश के मुख्यमंत्रियों को लिखा ‘मुझे बड़े अफसोस के साथ यह कहना पड़ रहा है कि महिलाएं कितनी कम संख्या में निर्वाचित हुई हैं और मुझे लगता है कि राज्य विधानसभाओं और परिषदों में भी ऐसा ही हुआ होगा. इस का मतलब किसी के प्रति नर्म पक्ष दिखाना या किसी अन्याय की ओर इशारा करना नहीं है, बल्कि यह देश के भविष्य के विकास के लिए अच्छा नहीं है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमारी वास्तविक प्रगति तभी होगी जब महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिलेगा.”

पंडित जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के थे. उन की पूरी कोशिश थी कि भारत कभी ‘हिंदू राष्ट्र’ न बने. वो हमेशा ही हिंदुत्ववादी ताकतों से उलझते रहते थे. उन्हें हाशिए पर डालने, यहां तक कि उन्हें बहिष्कृत करने की हर संभव कोशिश करते थे. नाथूराम गोडसे के महात्मा गांधी की हत्या ने हिंदू सांप्रदायिकता को हर मोड़ पर चुनौती देने के उन के संकल्प को और मजबूत कर दिया. उस समय आरएसएस के लिए नेहरू सब से बड़े ‘शत्रु’ थे. जिन से वे वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर बेहद नफरत करते थे.

1940 से 1973 तक आरएसएस के सरसंघचालक के रूप में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान, गोलवलकर नेहरू को अपना प्रमुख विरोधी मानते थे. वो उन्हें एक ऐसा व्यक्ति मानते थे जो हिंदुत्व को लोगों के बीच स्वीकार्यता हासिल करने से रोक रहे थे. उसी विचारधारा में पलेबढ़े नरेंद्र मोदी भी इसी कारण से नेहरू विरोध का राग अलापते रहते हैं. 2014 में वह जब से प्रधानमंत्री बने हैं लगातार नेहरू का विरोध करने का काम करते हुए उन के कद को छोटा करना चाहते हैं. इस में आरएसएस उन के साथ है. चाहे वह योजना आयोग को भंग करना हो, सिंधु जल संधि को निलंबित करना हो, नेहरू के मुकाबले पटेल या सुभाष चंद्र बोस के कद को बढ़ाना हो, उन को बड़ा उद्देश्य स्पष्ट है.

नेहरू की खामियों को उजागर कर के और उन की कई उपलब्धियों को नकार कर उन का कद छोटा करना. मोदी लगातार प्रधानमंत्री बने रहने का नेहरू का रिकौर्ड तोड़ना चाहते हैं. इसलिए 2029 का लोकसभा चुनाव उन के लिए बेहद चुनौती भरा है. इसी लिए 11 साल प्रधानमंत्री बने रहने और तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जब भी लोकसभा में भाषण देने का मौका मिलता है मोदी 102 मिनट 14 बार जवाहरलाल नेहरू का नाम लेते रहते हैं. नेहरू ने हिंदू कोड बिल और हिंदू विवाह और उत्तराधिकार कानून में जिस तरह से महिलाओं को अधिकार दिया उस से दक्षिणपंथी लोगों के मन में नेहरू के प्रति नफरत भरी है.

हिंदू कोड बिल की पहली फांस

1951-52 में भारत में पहले आम चुनाव हुए. नेहरू ने हिंदू कोड बिल को अपना मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया था. उन का कहना था कि ‘अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जीतती है तो वे इसे संसद से पारित कराने में सफल होंगे. कांग्रेस को भारी जीत मिली और नेहरू फिर से प्रधानमंत्री बने और उन्होंने एक ऐसा विधेयक तैयार करने के लिए व्यापक प्रयास शुरू किया जिसे पारित किया जा सके. नेहरू ने कोड बिल को चार अलगअलग विधेयकों में विभाजित किया. जिन में हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम शामिल थे. 1952 और 1956 के बीच प्रत्येक विधेयक को संसद में प्रभावी ढंग से पेश किया गया और उन को पारित भी करा लिया गया.

हिंदू कोड बिल लागू करने में नेहरू का सब से बड़ा उद्देश्य हिंदू महिलाओं को कानूनी हक दिलाने का था. वह कानूनी समानता से हिंदू समुदाय के भीतर के भेदभावों को मिटाना, हिंदू सामाजिक एकता का निर्माण करना और महिलाओं को बराबर का हक देने का था. नेहरू यह मानते थे कि चूंकि वह हिंदू थे इसलिए मुसलिम या यहूदी कानून के विपरीत विशेष रूप से हिंदू कानून को संहिताबद्ध करना उन का विशेषाधिकार था.

हिंदू कोड बिल पर बहस के दौरान हिंदू आबादी के बड़े हिस्से ने विरोध किया और बिलों के खिलाफ रैलियां कीं. बिलों की हार की पैरवी करने के लिए कई संगठन बनाए गए और हिंदू आबादी में भारी मात्रा में साहित्य वितरित किया गया. इस तरह के मुखर विरोध के सामने नेहरू को हिंदू कोड बिलों के पारित होने को उचित ठहराना पड़ा.

जब यह स्पष्ट हो गया कि हिंदुओं का विशाल बहुमत बिलों का समर्थन नहीं करता है. इस कानून के समर्थकों में संसद के भीतर और बाहर विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थे. हिंदू वादियों के दबाव में नेहरू को इस बिल में शास्त्रीय हिंदू सामाजिक व्यवस्था को शामिल करना पड़ा. जिस के तहत यह माना गया कि हिंदू के लिए विवाह एक पवित्र संस्कार है. विवाह कानून में इस को मानना पड़ा.

इस के बाद भी नेहरू ने महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देने की बात में कोई बदलाव नहीं किया. 2005 में इस में संशोधन कर के महिलाओं को संपत्ति में समान अधिकार दे दिया गया. नरेंद्र मोदी इस कारण से ही नेहरू और सोनिया गाधी का सब से अधिक विरोध करने का काम करते हैं. संपत्ति में महिलाओं को हक देने का अधिकार नेहरू के कार्यकाल में हुआ और उन को समान अधिकार 2005 में दिया गया. जब डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यूपीए की प्रमुख थी. विपक्षी उन को सुपर पीएम कहते थे.

नेहरू नहीं उन की विचारधारा से दिक्कत

नेहरू के बाद गांधी परिवार से दो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी थे. राजीव गांधी की अपनी राजनीतिक समझ न के बराबर थी. वह विदेश में पढ़ेलिखे थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने केवल देश का आधुनिक बनाने की दिश में काम किया. मारूती और कंप्यूटर उन की पहचान बनी. इंदिरा गांधी ने लंबे समय तक देश में राज किया. वह विचारधारा के मामले में आरएसएस के साथ लंबाचौड़ा विवाद करने से बचती रही. उन के राजनीतिक संबंध कई धार्मिक नेताओं के साथ रहे. कई धर्मगुरू उन के साथ रहते थे. सामाजिक अधिकारों को ले कर कोई बड़ा काम नहीं किया. राजीव गांधी भी इसी तरह की राजनीति का शिकार हो गए थे. ऐसे में नरेंद्र मोदी और आरएसएस का पूरा विरोध नेहरू तक ही सीमित हो गया है.

दक्षिणापंथी लोगों को यह पता है कि अगर महिलाओं में धर्म के प्रति आस्था खत्म हो गई तो हिंदू राष्ट्र का सपना कभी पूरा नहीं होगा. ऐसे में वह महिलाओं को मानसिक रूप से गुलाम बना कर रखना चाहते हैं. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होने मुसलिम महिलाओं के लिए तो तीन तलाक कानून में सुधार का काम किया लेकिन हिंदू महिलाओं को जल्द तलाक मिल सके इस पर कानून विचार बनाने का विचार नहीं किया. क्या वह हिंदू महिलाओं को तलाक के लिये कोर्ट में भटकते देखना चाहते हैं.

एक तरफ नेहरू थे जो हिंदू महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी है जिन के लिए हिंदू महिलाओं से अधिक तीन तलाक कानून बनाने की जल्दी थी. उन को हिंदू महिलाओं के बारे में सोचने का समय नहीं है. विचारधारा का यही संकट दोनों के बीच अंतर को दिखाता है. इसी कारण मोदी लगातार नेहरू और सानिया गांधी का विरोध करते हैं. राजीव और इंदिरा से उन को खास दिक्कत नहीं होती है. Prime Minister

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