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Robotic Dog Champak : बच्चों की पत्रिका ‘चंपक’ नाम के इस्तेमाल को लेकर घिरा बीसीसीआई

Robotic Dog Champak : दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन की ओर से प्रकाशित हाेने वाली बच्चों की पत्रिका ‘चंपक’ ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया है. प्रकाशन समूह की ओर से उस ‘रोबोटिक डॉग’ को लेकर आपत्ति जताई गई है जिसका इस्तेमाल बीसीसीआई एक आकर्षण के रूप में इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के दौरान कर रही है. दरअसल, इस ‘रोबोटिक डॉग’ का नाम ‘चंपक’ है. प्रकाशक की ओर से न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी ने मुकदमे को लेकर नोटिस जारी किया है. प्रकाशक का आरोप है कि बीसीसीआई ने अपने ‘रोबोटिक डॉग’ को ‘चंपक’ नाम देकर पत्रिका के पंजीकृत ट्रेडमार्क का उल्लंघन किया है. हाईकोर्ट में इस मामले पर अगली सुनवाई 9 जुलाई को होगी.

यह इस्तेमाल अनाधिकृत

इस मामले पर दिल्ली प्रेस की ओर से एडवोकेट अमित गुप्ता ने अदालत में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि ‘चंपक’ पत्रिका बच्चों के बीच बेहद पॉपुलर है. ऐसे में, बीसीसीआई की ओर से आईपीएल में इसके नाम का इस्तेमाल करना प्रकाशक के पंजीकृत ट्रेडमार्क का स्पष्ट उल्लंघन है. प्रकाशक समूह का पक्ष रखते हुए अमित गुप्ता ने यह भी कहा कि कथित तौर पर फैन वोटिंग के आधार पर 23 अप्रैल को इस एआई टूल ‘रोबोटिक डॉग’ का नाम चंपक रखा गया. मीडिया में इस ‘रोबोटिक डॉग’ को लेकर लगातार खबरें आ रही है. हालांकि इस पर अदालत की ओर से यह पूछा गया कि नाम के इस तरह के इस्तेमाल किए जाने से प्रकाशकों को क्या हानि हो रही है, तो इसके जवाब में अमित गुप्ता का कहना था कि यह इस्तेमाल अनाधिकृत है.

विराट कोहली का नाम आया सामने

सुनवाई के दौरान अदालत का सवाल था कि क्या ‘चीकू’ चंपक पत्रिका का एक पात्र है? और क्या यही नाम क्रिकेटर विराट कोहली का उपनाम भी है? इस पर अमित गुप्ता ने स्वीकार किया कि ‘चीकू’ वास्तव में पत्रिका का पात्र है, तो इस पर अदालत का कहना था कि फिर इस उपयोग को लेकर कोई मुकदमा नहीं किया गया.
इस पर अमित गुप्ता ने प्रकाशक का पक्ष रखते हुए कहा कि आमतौर पर लोग कॉमिक बुक्स और फिल्मों के पात्रों के आधार पर उपनाम रखते हैं. इसके बाद कोर्ट की ओर से एडवोकेट से पूछा कि इस मामले में व्यावसायिक दोहन और अनुचित लाभ का दावा कैसे किया जा सकता है.
इस पर अभियोजन पक्ष के वकील अमित गुप्ता ने जवाब दिया कि प्रकाशक इस नाम का पंजीकृत स्वामी है और बीसीसीआई बिना अनुमति के उपयोग कर रही है.
एडवाेकेट अमित गुप्ता का पक्ष, “मेरी पत्रिका पशु-पात्रों (एनिमल कैरेक्टर्स) के लिए जानी जाती है. मान लेते हैं कि उत्पाद अलग है, लेकिन नाम का उपयोग ही नुकसान पहुंचा रहा है. यह नाम की प्रतिष्ठा को कमजोर कर रहा है.
हालांकि, अदालत ने टिप्पणी की कि याचिका में अनुचित लाभ का कोई स्पष्ट आरोप नहीं लगाया गया है.
अदालत की ओर से कहा गया कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह सिद्ध हो कि इससे कोई क्षति या नाम की प्रतिष्ठा में कमी आई हो.

कोहली कोई उत्पाद नहीं लॉन्च कर रहे

इस पर एडवाेकेट अमित गुप्ता ने तर्क दिया कि उत्पाद का विज्ञापन और विपणन ही व्यावसायिक दोहन को दर्शाने के लिए पर्याप्त है. उन्होंने कहा कि आईपीएल एक व्यावसायिक उपक्रम है.
इस पर अदालत ने व्यंग्यात्मक रूप से कहा कि प्रकाशक विराट कोहली के खिलाफ ‘चीकू’ नाम के उपयोग पर रॉयल्टी कमा सकता था लेकिन गुप्ता ने कहा कि विराट कोहली कोई उत्पाद नहीं लॉन्च कर रहे हैं. अगर कोहली ‘चीकू’ नाम से कोई उत्पाद लॉन्च करते, तो वह व्यावसायिक दोहन माना जाता. दूसरी ओर, गुप्ता ने कहा कि चंपक एक पंजीकृत ट्रेडमार्क है और इसका व्यावसायिक उपयोग उल्लंघन माना जाएगा.
बीसीसीआई की ओर से कोर्ट में पेश हुए सीनियर एडवोकेट जे. साई दीपक ने तर्क दिया कि चंपक एक फूल का नाम भी है. उनकी ओर से यह भी कहा गया कि रोबोटिक डॉग एक सीरीज के पात्र से जुड़ा है, न कि पत्रिका से. इसका हवाला टीवी शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ से दिया.
अदालत ने इस मामले में नोटिस जारी किया है और अगली सुनवाई के लिए तारीख तय की है लेकिन यह भी कहा कि फिलहाल एकतरफा अंतरिम राहत देने का कोई ठोस आधार नहीं है.

Entertainment : मल्टीप्लैक्स कल्चर बरबाद कर रहा भारतीय सिनेमा को

Entertainment : मल्टीप्लैक्स की लत लग जाने के चलते दर्शक अब सिंगल थिएटर में जाना अपनी तौहीन सम झते हैं, तो वहीं मल्टीप्लैक्स के महंगे टिकट खरीद कर फिल्म देखने के लिए उन की जेब गवाही नहीं देती. इस से नुकसान फिल्म इंडस्ट्री का हो रहा है.

अपने जन्म के साथ ही सिनेमा हर आम इंसान के लिए मनोरंजन का अहम साधन रहा है. हकीकत तो यह है कि भारत में हर आम इंसान के लिए सिनेमा देखना पारिवारिक उत्सव की तरह रहा है. गांवों में आम जनता पूरे परिवार के साथ किसी न किसी मेले में जा कर मनोरंजन कर पाती थी. कुछ मेलों में ट्यूरिंग टाकीज के रूप में या शामियाना लगा कर फिल्मों का भी प्रदर्शन हुआ करता था. लेकिन धीरेधीरे ‘मेला’ संस्कृति खत्म होती गई, असम को छोड़ कर ‘ट्यूरिंग टाकीज’ या ‘शामियाना’ लगा कर फिल्मों के प्रर्दशन की संस्कृति भी खत्म हो गई. सबकुछ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों तक सीमित हो गया. परिणामतया फिल्म संस्कृति पनपती गई.

कुछ लोग हर सप्ताह अपने पूरे परिवार के साथ घर से बाहर आउटिंग के लिए जाने लगे और सिनेमाघरों में फिल्म देखने के साथ ही किसी छोटे रैस्टोरैंट में खानपान कर घर वापस लौटने लगे और पूरा परिवार इस कदर संतुष्ट होता जैसे कि वह मेले का आनंद ले कर आ गया.

उस वक्त फिल्म देखने के लिए टिकट की दरें भी बहुत ज्यादा नहीं थीं. मु झे अच्छी तरह से याद है कि 1976 में मुंबई के विलेपार्ले इलाके में एक सिंगल थिएटर ‘लक्ष्मी’ टाकीज हुआ करती थी. जहां पर डेढ़ रुपए और 2 रुपए के टिकट थे. उस की चारदीवारी लोहे के पतरे की हुआ करती थी, जोकि गरमी में गरम होती थी पर लोग बड़े चाव से फिल्में देखते थे. उस थिएटर के इर्दगिर्द हिंदी, मराठी व इंग्लिश भाषा के निजी और सरकारी मिला कर करीबन 10 स्कूल और 2 बड़े कालेज थे. लोग 15-15 दिनों पहले से टिकट खरीद कर रखते थे. अन्यथा टिकट नहीं मिलता था. यों तो इस थिएटर में ज्यादातर स्कूल व कालेज में पढ़ने वाले बच्चे ही दर्शक हुआ करते थे पर अब यहां पर ‘शान’ नामक मल्टीप्लैक्स है, जहां कई वर्षों से ‘हाउसफुल’ का बोर्ड नहीं लगा पर मल्टीप्लैक्स के प्रादुर्भाव से सिंगल थिएटर खत्म होने लगे.

जयपुर में 1,245 सीटों का एक आलीशान सिंगल थिएटर ‘जेम’ है. 4 जुलाई, 1964 को लक्ष्मीकुमार कासलीवाल ने राजस्थान का पहला सब से बड़ा और अत्याधुनिक सिनेमाघर ‘जेम’ की शुरुआत एवीएम की फिल्म ‘पूजा के फूल’ के प्रदर्शन के साथ की थी तब वहां पर टिकट महज 2 रुपए 64 पैसे का हुआ करता था. उस वक्त जयपुर का वह 6ठा सिंगल थिएटर था. वहां सिनेप्रेमी दर्शकों की इतनी भीड़ जुटती थी कि थिएटर मालिक को भीड़ को नियंत्रित करने के लिए घुड़सवार पुलिसबल को बुलाना पड़ता था.

लोगों को एकएक सप्ताह तक टिकट नहीं मिलता था. वर्ष 2005 में टिकट 10 रुपए का था. फिर मल्टीप्लैक्स कल्चर के कारण इसे बंद करना पड़ा था. लेकिन 2021 से यह सिनेमाघर फिर से शुरू हुआ पर अफसोस अब न तो यहां हाउसफुल का बोर्ड लग रहा है और न ही मल्टीप्लैक्स में. इस की मूल वजह यह है कि सिर्फ जयपुर शहर में ही 45 से अधिक मल्टीप्लैक्स हो गए हैं.

मल्टीप्लैक्स की लत

मल्टीप्लैक्स में टिकट के दाम इतने अधिक हैं कि मल्टीप्लैक्स की अफीम की तरह लत लग चुकी होने के चलते दर्शक सिंगल थिएटर में जाना अपनी तौहीन सम झते हैं तो वहीं मल्टीप्लैक्स का टिकट खरीद कर फिल्म देखने के लिए उन की जेब गवाही नहीं देती.

मल्टीप्लैक्स कल्चर के चलते तकरीबन 20 से अधिक सिंगल थिएटर सिर्फ जयपुर शहर में बंद हो चुके हैं. खुद जेम सिनेमा के मालिक सुधीर कासलीवाल कहते हैं, ‘‘अब 30 से 50 सीट वाले छोटे सिनेमाघर यानी मल्टीप्लैक्स आ गए हैं. अब लोगों का ध्यान लग्जरी पर ज्यादा हो रहा है. इस वजह से सिनेमा मारा जा रहा है. 16 वर्षों बाद सिंगल थिएटर ‘जेम’ को शुरू करने के पीछे हमारी सोच यही रही कि हम एक बार फिर नई पीढ़ी के उन दर्शकों को सिंगल स्क्रीन में बैठ कर फिल्म देखने का अनुभव प्रदान करें जिस ने सिंगल स्क्रीन देखी ही नहीं है.

‘‘लोग तो 100 या 150 सीट वाले सिनेमघर में फिल्म देख रहे थे. जब हम ने ‘जेम’ को दोबारा शुरू किया तो लोगों को अचंभा हुआ. दोबारा जेम सिंगल सिनेमा शुरू होने पर जयपुरवासियों के लिए फिल्म देखने का अद्भुत तजरबा रहा. अब तो वैसे भी जयपुर शहर में मुश्किल से ‘जेम’ व ‘राजमंदिर’ सहित 2-3 सिंगल थिएटर ही बचे हैं, बाकी बंद हो गए या गिरा कर मौल वगैरह बना दिए गए.

‘‘जेम की ही तरह राजमंदिर थिएटर भी बहुत ही अलग किस्म का है. जेम सिनेमा का आर्किटैक्चर ही अलग है. यह आज भी खूबसूरत लगता है. पहले तो सिनेमा देखना त्योहार जैसा होता था. पूरा परिवार या दोस्तों का दल एकसाथ निकलता था. फिल्म देखने पर मल्टीप्लैकस कल्चर की वजह से अब यह सब सपना हो गया है.’’

जैसा कि सुधीर कालसीवाल ने जयपुर के ही सिंगल थिएटर ‘राजमंदिर’ का जिक्र किया है तो 1976 से स्थापित ‘राजमंदिर’ पूरे विश्व में तीसरे नंबर का दर्शनीय सिनेमाघर और देश की शान बनाए हुए है. राजमंदिर सिनेमा को अपनी शानदार वास्तुकला के लिए ‘प्राइड औफ एशिया’ भी कहा जाता है. पहली बार जयपुर जाने वालों की तमन्ना ‘राजमंदिर’ को देखने की जरूर होती है.

राज मंदिर के मालिक 90 वर्षीय कुशलचंद सुराणा कहते हैं, ‘‘सिनेमा देखने का जो मजा सिंगल थिएटर में आता है, वह मल्टीप्लैक्स में नहीं मिल सकता. सिनेमा देखना एक त्योहार तक रहा है, मेला जाने जैसा रहा है. यही मानव स्वभाव है. मल्टीप्लैक्स में 80 से 150 दर्शक होते हैं और लोग उस तरह से सिनेमा देखते समय अपनी भावनाएं नहीं व्यक्त कर पाते, इस के अलावा मल्टीप्लैक्स में टिकटों के दाम 300 रुपए से ले कर 2,500 रुपए तक हैं. जहां लग्जरी सुविधाएं देने का वादा किया जाता है. मगर इस के बदले दर्शक पर कई पाबंदियां लाद दी जाती हैं.

‘‘शुरुआत में मल्टीप्लैक्स आए तो इन की शानोशौकत को देख कर मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देख कर सीना चौड़ा कर चलने की अफीम की ऐसी लत पड़ी कि बेचारे दर्शक अब खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं.’’

गरीबों की सिंगल स्क्रीन

जब मल्टीप्लैक्स नहीं थे, तब लोग बैलगाड़ी या ट्रैक्टर में भरभर कर आते थे सिनेमा देखने, जिसे देख कर एहसास होता था कि लोग सिनेमा का त्योहार मना रहे हैं या यों कहें कि मेले का आनंद ले रहे हैं. लोग फिल्म देखने के बाद सिनेमाघर के बाहर लगे हुए ठेले या खोमचे वालों से खानेपीने की चीजें खरीद व खा कर घर रवाना हो जाते थे. जी हां, तभी तो हर सिंगल थिएटर व सिनेमाघर के बाहर सिनेमा देखने के लिए टिकट खरीदने के लिए लंबीलंबी कतारें नजर आया करती थीं.

लोग ब्लैक में यानी कि 10 रुपए के टिकट को 100 रुपए में खरीद कर फिल्में देखते रहे हैं. यह हालत तब रही है जब सिंगल थिएटर में हर शो में एकसाथ 500 से 1,500 तक की संख्या में लोग फिल्म देख सकते थे. जब भी नई फिल्म रिलीज होती थी, चंद घंटों में ही हाउसफुल का बोर्ड लग जाता था. लेकिन मल्टीप्लैक्स कल्चर ने लोगों की सिनेमा जाने की आदत पर ही विराम लगवा दिया. अब तो 80-सीटर मल्टीप्लैक्स स्क्रीन भी खाली पड़ी रहती है.

माना कि उस वक्त सिंगल थिएटर के मालिक थिएटर के अंदर साफसफाई का पूरा खयाल नहीं रखते थे. इस पर लोग कहते थे कि अरे, ये गांव वाले हैं. इन्हें इस से फर्क नहीं पड़ता. यह तो जिस सीट पर बैठेंगे, उस के बगल में ही थूक देंगे वगैरहवगैरह. मु झे याद है, एक बार राजश्री प्रोडक्शन के मालिक व फिल्म वितरक ताराचंद बड़जात्या ने हम से कहा था, ‘‘हम हमेशा इस बात का खयाल रखते हैं कि दर्शक हमारी फिल्में देखने आएं तो उन्हें साफसुथरा टौयलेट वगैरह मिले. इसलिए जिस थिएटर में हमारी फिल्म रिलीज होने वाली होती थी, उस थिएटर को फिल्म का प्रिंट देने से पहले मैं स्वयं या अपनी कंपनी के एक जिम्मेदार इंसान को थिएटर में भेजता था और जब सिनेमाघर के अंदर साफसफाई अच्छी होती थी, तभी हम उसे अपनी फिल्म लगाने के लिए देते थे.’’

जी हां, यह भी सच है कि मल्टीप्लैक्स कल्चर से पहले लगभग पूरे देश के सिंगल थिएटर मालिक कुछ मामलों में लापरवाह रहे हैं. लेकिन उस वक्त कुछ सिनेमाघरों में सवा रुपए का टिकट भी रहा है. मुंबई में अंधेरी रेलवेस्टेशन से काफी नजदीक नवरंग सिनेमा नामक सिंगल थिएटर है. कभी यहां की सीटें टूटी रहती थीं. मच्छर व खटमलों का भी आतंक रहता था. इस के बावजूद यहां हाउसफुल का ही बोर्ड नजर आता था पर समय के साथ यहां भी बदलाव आया. अब यहां भी सीटें अच्छी हो गई हैं. साफसफाई भी रहती है पर यहां मल्टीप्लैक्स की तरह 200 से 2,500 रुपए तक के टिकट नहीं हैं और न ही यहां पर पौपकौर्न 250 रुपए से 500 रुपए तक का मिलता है.

हम सिर्फ मुंबई ही नहीं, बल्कि देश के लगभग हर छोटेबड़े शहर के सिंगल थिएटरों के नाम के साथ बता सकते हैं कि अब सिंगल थिएटरों में हालात काफी अच्छे हो गए हैं. उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश में कानपुर से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर शुक्लागंज में सिंगल थिएटर सरस्वती टाकीज को लें, या उन्नाव शहर में ‘लक्ष्मी’ या ‘सुंदर’ थिएटर को लें, यहां भी अच्छी सुविधाएं हैं पर अब लोग सिंगल थिएटर में फिल्म देखने को निजी तौहीन सम झ कर जितने रुपए में वे लक्ष्मी या सुंदर या सरस्वती टाकीज में फिल्म देख सकते हैं उतनी राशि तो वे किराए के रूप में कानपुर या लखनऊ के मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने के लिए खर्च कर डालते हैं. ऊपर से मल्टीप्लैक्स के टिकटों के अनापशनाप दाम. अब इस तरह शाही खर्च कर कितने दिन मनोरंजन लिया जा सकता है?

इतना ही नहीं, लखनऊ से लगभग 30 किलोमीटर दूर बाराबंकी शहर में कभी 6 सिंगल थिएटर हुआ करते थे पर मल्टीप्लैक्स कल्चर के चलते लोग बाराबंकी के सिंगल थिएटर में फिल्म देखने के बजाय लखनऊ भागने लगे. आज की तारीख में बाराबंकी में एक भी सिंगल थिएटर नहीं है.

वहां पर तो मल्टीप्लैकस भी नहीं है. अब बाराबंकी के लोगों के पास फिल्म देखने के लिए 30 किलोमीटर दूर लखनऊ जाने के अलावा विकल्प नहीं बचा. बाराबंकी से लखनऊ जाने के लिए काफी धन खर्च करना पड़ता है. परिणामतया लोगों ने फिल्में देखना बंद कर दिया या सिर्फ मोबाइल का ही सहारा बचा. इसी वजह से सिंगल थिएटर के साथसाथ मल्टीप्लैक्स से भी दर्शक दूर हो गया.

मल्टीप्लैक्स कल्चर से कैसे बरबाद हुआ सिनेमा

शुरुआत में मल्टीप्लैक्स का नयानया अनुभव, एसी में फिल्म देखने, साफसुथरे, चमकदार और खुशबूदार टौयलेट आदि की चकाचौंध से हर इंसान की आंखें इस तरह चौंधियाने लगीं कि उस की सम झ में ही नहीं आया कि मल्टीप्लैक्स ओनर तो उन की जेब पर डाका डालने पर आमादा है.

इस बात को सम झने के बजाय दर्शक सिंगल थिएटर में जाना बंद कर, सिंगल थिएटर की बुराइयां गिनाने लगे. उधर मल्टीप्लैक्स ने पीने के पानी के भी अनापशनाप पैसे वसूलना शुरू कर दिया.

मल्टीप्लैक्स ने पौपकौर्न ही नहीं समोसा, चाय, कोल्डड्रिंक के लिए भी अनापशनाप रकम ऐंठना शुरू कर दिया. आज की तारीख में साधारण तौर पर एक फिल्म देखने के लिए एक परिवार को 10 से 15 हजार रुपए खर्च करना पड़ते हैं.

मल्टीप्लैक्स यहीं पर नहीं रुके. उन्होंने फिल्म देखने के लिए लग्जरी सुविधाओं के नाम पर दर्शकों की सीट के पास ‘लैंप’, खानेपीने का सामान रखने के लिए मूवेबल टेबल, तकिया, चादर, आप चाहे तो अपनी कुरसी को लंबा कर लेट कर फिल्म देखें, कुरसी पर ही खानेपीने का सामान पहुंचाने जैसी सुविधाएं देते हुए अलग से धन वसूलना शुरू कर दिया.

जैसेजैसे मल्टीप्लैक्स ने नईनई सुविधाएं शुरू कीं, वैसेवैसे लोगों को उस का आनंद आने लगा और पहली बार धन दे कर खुद को दर्शकों ने गौरवान्वित भी महसूस किया पर यह कब तक चलता? आखिर, अब हर इंसान को सम झ में आ गया कि फिल्म देखने यानी कि मनोरंजन के नाम पर वह किस तरह फुजूल अपनी जेब ढीली कर रहा है.

देखिए, आप साधारण कुरसी पर बैठ कर फिल्म देखें या लेट कर, फिल्म तो वही रहेगी. सच यह भी है कि लेट कर फिल्म देखने का आनंद कभी नहीं आता. अकसर देखा गया कि दर्शक एसी में लेट कर फिल्म देखते हुए सो गया. कुल मिला कर फिल्म देखने के लिए यह सारी लग्जरी सुविधाएं बेमानी हैं और इन के नाम पर धन खर्च करना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं.

मल्टीप्लैक्स दर्शकों को सिनेमा से विमुख करने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं. हर मल्टीप्लैक्स कार या स्कूटर पार्किंग के नाम पर भी अनापशनाप धन वसूलता है. किसी भी मल्टीप्लैक्स में क्लौकरूम नहीं है, जहां दर्शक अपने उस सामान को रख सके, जिसे सिनेमाघर के अंदर नहीं ले जाने दिया जाता.

टिकट दरों पर पाबंदी

हर सिनेमाघर में टिकट के दाम इतने होने चाहिए कि हर इंसान फिल्म देख सके. इसलिए टिकट की दरें 100 रुपए से 200 रुपए के बीच ही होनी चाहिए. दक्षिण भारत में तेलंगाना व आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में सिनेमाघर मालिक, सिंगल थिएटर या मल्टीप्लैक्स टिकट के दाम 150 रुपए से अधिक नहीं रख सकते. इसी के चलते फिल्म ‘पुष्पा 2’ के निर्माताओं को सरकार से टिकट के दाम बढ़ाने की इजाजत मांगनी पड़ी, उस वक्त वहां की सरकार ने सिर्फ 4 दिन ही टिकट के दाम बढ़ाने की इजाजत दी जबकि मुंबई, दिल्ली सहित हिंदीभाषी राज्यों में टिकट के दाम 500 रुपए से 4,000 रुपए तक बढ़ाए गए थे.

अब कर्नाटक सरकार के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 7 मार्च को अपने बजट प्रैजेंटेशन में घोषणा की कि राज्य के सिनेमाघरों में मूवी टिकट, सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लैक्स दोनों की कीमत 200 रुपए तक सीमित होगी.

मल्टीप्लैक्स चैन के मालिक और बौलीवुड में शोमैन के रूप मे मशहूर निर्माता सुभाष घई ने कहा है कि सिनेमाघर में फिल्म के टिकट की कीमत 150 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए. सुभाष घई ने आगे कहा, ‘‘असल में टिकट की कीमत 100 रुपए से 150 रुपए के ऊपर होनी ही नहीं चाहिए. सभी सिनेमाघर मालिकों को ऐसा कर के देखना चाहिए. इस से छोटी और बड़ी फिल्में दोनों चलेंगी. बाकी यह मार्केटिंग, पब्लिसिटी कुछ नहीं है. लोग फिल्म का ट्रेलर देख सम झ जाते हैं कि उन्हें फिल्म देखनी है कि नहीं.’’

हकीकत यह है कि मल्टीप्लैक्स बेवजह के खर्च वसूलता है. फिल्म के शौकीन इंसान को इस तरह के खर्च वहन करने की जरूरत ही नहीं है. धीरेधीरे दर्शकों की आंखों पर पड़ा हुआ चकाचौंध का परदा हटा और उस ने मल्टीप्लैक्स जाना यानी कि सिनेमाघर जाना बंद कर दिया और इस का खमियाजा सिनेमा को ही भुगतना पड़ रहा. सो, सिनेमा इंडस्ट्री डूबने के कगार पर पहुंच चुकी है.

इस तरह देखा जाए तो फिल्म इंडस्ट्री को बरबाद करने में पीवीआर, आयनोक्स, सिनेपोलिस जैसे मल्टीप्लैक्स की अहम भूमिकाएं हैं. ये अगर अभी भी सुधर जाएं और टिकटों के दाम वाजिब रखें, खानेपीने की चीजों के दाम वाजिब रखें तो फिल्म इंडस्ट्री के साथ ही इन का भी भला होगा.

Government of India : विदेशी जेलों में बंद भारतीयों के लिए क्या कर रही है सरकार

Government of India : विदेशी जेलों में विचाराधीन भारतीय कैदियों की संख्या 10,152 है. कई कैदी जेलों में दम तोड़ चुके हैं और कुछ को मौत की सजा दे दी गई है मगर सरकार इक्कादुक्का मामलों को छोड़ इन कैदियों को ले कर कोई कदम उठा रही हो, ऐसा लगता नहीं है.

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की रहने वाली शहजादी खान, जो यूएई में मौत की सजा का सामना कर रही थी, को आखिरकार 15 फरवरी, 2025 को यूएई के नियमकानून के मुताबिक मौत की सजा दे दी गई. उस पर एक 4 वर्षीय बच्चे की हत्या करने का आरोप था. शहजादी का केस किस ने लड़ा, उस को अपने बचाव का कोई मौका मिला या नहीं, भारत सरकार ने उस की क्या मदद की, उस के लिए जो कानूनी लड़ाई लड़ी वह किस वकील ने लड़ी, उस पर कितना पैसा खर्च हुआ, हुआ भी या नहीं, उस के लिए कोई लड़ा भी या नहीं, इन सब सवालों के जवाब सरकार ने नहीं दिए.

शहजादी के परिवार वाले यानी उस के बूढ़े मांबाप और भाई उस के जनाजे में शामिल नहीं हो सके क्योंकि शहजादी के पिता शब्बीर खान और उन की बीवी इतने कम वक्त में अबूधाबी के सफर का इंतजाम नहीं कर पाए थे. न सरकार ने उन्हें बेटी के अंतिम संस्कार में पहुंचने के लिए कोई मदद मुहैया कराई. बस, दूतावासों से फोनफोन का खेल चलता रहा.

5 मार्च को अबूधाबी के कब्रिस्तान में शहजादी का शव दफना दिया गया. अबूधाबी के अधिकारियों ने पहले ही कह दिया था कि शहजादी की लाश 5 मार्च तक मुर्दाघर में रहेगी. इस के बाद अगर परिवार का कोई शख्स नहीं आता है तो उसे दफना दिया जाएगा.

शहजादी को अबूधाबी के अल बाथवा जेल में 15 फरवरी की सुबह ठीक साढ़े 5 बजे फायरिंग स्क्वायड ने दिल पर गोली मार कर सजा ए मौत दी थी. फायरिंग स्क्वायड में कुल 5 लोग थे. शहजादी को एक खास किस्म का कपड़ा पहना कर एक पोल से बांध दिया गया था. उस के दोनों हाथ पीछे की तरफ बंधे थे. दिल के ठीक ऊपर एक कपड़े का टुकड़ा लगाया गया था ताकि गोली चलाने वाले के लिए दिल का निशाना ले कर गोली चलाना आसान हो.

भारत के एडिशनल सोलिसिटर जनरल चेतन शर्मा का कहना है कि यूएई में भारतीय दूतावास को 28 फरवरी को शहजादी खान की फांसी के बारे में आधिकारिक सूचना मिली थी. अथौरिटी सभी संभव सहायता प्रदान कर रही थी मगर उन का अंतिम संस्कार 5 मार्च, 2025 को तय हो चुका था.

सरकार का असंवेदनशील रवैया

भारत में यह मामला तब सामने आया जब शहजादी खान के पिता शब्बीर खान ने अदालत का रुख किया और अपनी बेटी की वर्तमान कानूनी स्थिति व उस की भलाई के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए याचिका दायर की. कोर्ट ने विदेश मंत्रालय से जवाब तलब किया तो शहजादी की मृत्युदंड की जानकारी परिवार को मिली. मंत्रालय ने अपना पक्ष अदालत के सामने रखा और अदालत ने इस याचिका को ‘दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण’ घटना बताते हुए निबटा दिया.

15 फरवरी को अबूधाबी में शहजादी को सजा ए मौत दिए जाने के ठीक 13 दिनों बाद 28 फरवरी को 2 और भारतीयों को यूएई के ही अलाइन जेल में दिल पर गोली मार कर मौत की सजा दी गई. दोनों केरल के रहने रहने वाले थे. इन में से एक का नाम मोहम्मद रिनाश और दूसरे का मुरलीधरन था. रिनाश पर एक यूएई नागरिक के कत्ल और मुरलीधरन पर एक भारतीय नागरिक के कत्ल करने का इलजाम था.

शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन तीनों के ही परिवारवालों का कहना है कि इन की सजा ए मौत रोकने के लिए भारत सरकार समेत किसी ने भी उन की मदद नहीं की. यहां तक कि उन्हें सहीसही जानकारी भी नहीं दी गई. शहजादी की मौत की जानकारी तो उस के घरवालों को दिल्ली हाईकोर्ट से मिली जब वे अपनी याचिका की सुनवाई के संबंध में कोर्ट पहुंचे थे.

शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन तीनों ने एक ही दिन, एक ही तारीख और एक ही वक्त पर यानी 14 फरवरी को अपनेअपने घर आखिरी बार फोन किया था. इस के बाद 15 फरवरी की सुबह शहजादी को और 28 फरवरी की सुबह रिनाश और मुरलीधरन को मौत की सजा दे दी गई. स्पष्ट है कि उन्हें अपने बचाव का कोई मौका नहीं मिला. भारत सरकार ने उन की कोई मदद नहीं की और उन के घरवालों से बिलकुल आखिरी वक्त में उन की चंद मिनटों की बातचीत कराई गई और उस के बाद गोली मार कर उन्हें खत्म कर दिया गया.

हालांकि सरकार कहती है कि 2 सितंबर, 2024 को भारतीय दूतावास ने यूएई के विदेश मंत्रालय में शहजादी को माफी देने के लिए मर्सी पिटीशन दाखिल की थी. भारतीय एंबैसी ने यूएई में शहजादी की मदद के लिए लीगल फर्म को भी हायर किया था. भारत सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को यह भी बताया कि भारतीय एंबैसी के जरिए यूएई की सरकार को 6 नवंबर, 2024 को मनाए जाने वाले उन के नैशनल डे पर भी माफी पाने वालों की लिस्ट में शहजादी का नाम शामिल करने की मांग की गई थी. मगर उस को दया नहीं मिली.

यूएई सरकार ने भारत सरकार की रिक्वैस्ट को कूड़े की टोकरी में डाल दिया. जबकि, यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान से प्रधानमंत्री मोदी अपनी काफी निकटता बताते हैं. प्रधानमंत्री राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान को उन के व्यक्तिगत सहयोग और अबूधाबी में बीएपीएस मंदिर के निर्माण के लिए भूमि देने में उन की दयालुता की प्रशंसा करते नहीं थकते.

खैर, शहजादी की मौत की सजा कुछ अखबारों ने छापी तो देशवासियों को इस का पता चला मगर रिनाश और मुरलीधरन की तो कहीं कोई चर्चा ही नहीं हुई. इन मामलों पर जब विपक्ष ने सदन में आवाज उठाई और विदेश मंत्रालय से पूछा गया कि कितने भारतीय विदेशी जेलों में बंद हैं? कब से बंद हैं? और सरकार उन के लिए क्या कर रही है? तब विदेश राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन ने सदन में यह बात उजागर की कि शहजादी ही नहीं, बल्कि संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में मौत की सजा पाए भारतीय नागरिकों की संख्या 25 है. हालांकि, अभी इस फैसले पर अमल नहीं हुआ है. सरकार उन के लिए क्या कर रही है, क्या लीगल मदद मुहैया करा रही है, मृत्युदंड से बचाने के लिए सरकार ने वहां की सरकार से क्या बातचीत की है, इन सब सवालों के जवाब सिरे से गायब हैं. सरकार का मुंह सिला हुआ है.

विदेशी जेलों में भारतीय

विदेश राज्यमंत्री कीर्ति वर्धन सिंह ने सदन में सिर्फ इतना बताया कि मंत्रालय के पास उपलब्ध जानकारी के अनुसार, वर्तमान में यूएई में मौत की सजा पाए 25 भारतीयों के अलावा विदेशी जेलों में विचाराधीन भारतीय कैदियों की संख्या 10,152 है. (यह एक बड़ी संख्या है) मंत्री ने कहा कि सरकार विदेशी जेलों में बंद भारतीय नागरिकों की सुरक्षा, संरक्षा और कल्याण को उच्च प्राथमिकता देती है. मगर सरकार के इस दावे की पोल शहजादी, रिनाश और मुरलीधरन के परिजनों के दर्दभरे बयानों से खुल चुकी है.

विदेश मंत्रालय की मानें तो मलेशिया, कुवैत, कतर और सऊदी अरब में कई भारतीयों को मौत की सजा दी जा चुकी है. 2024 में कुवैत और सऊदी अरब में तीनतीन भारतीयों को मृत्युदंड दिया गया. वहीं एक भारतीय को जिम्बाब्वे में मौत की सजा दी गई. 2023 में कुवैत में

5 और सऊदी अरब में भी 5 भारतीयों को मृत्युदंड दिया गया. जबकि, इस साल मलेशिया में एक व्यक्ति को मृत्युदंड दिया गया.

संयुक्त अरब अमीरात का कोई आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है क्योंकि वहां के अधिकारियों ने यह सा झा ही नहीं किया. यानी विदेश में पैसा कमा कर भारत में अपने परिवारों का भरणपोषण करने वाले लोग कब किसी जुर्म में जेल में डाल दिए जाएं, कब मौत के घाट उतार दिए जाएं इस का कोई ब्योरा हमारे विदेश मंत्रालय के पास नहीं होता है. शर्मनाक!

अतीत में और भी मामले

याद होंगे सरबजीत और कुलभूषण जाधव, दोनों पाकिस्तान की जेलों में बंद थे. इन की चर्चाओं से देश के अखबारों के पूरेपूरे पृष्ठ रंगे रहते थे, क्योंकि मामला पाकिस्तान से जुड़ा था. ध्रुवीकरण में उस्ताद भाजपा सरकार ने इन दोनों के मामलों को खूब उछाला और इस पर खूब जम कर वोटों की राजनीति हुई.

कुलभूषण जाधव को जासूस और आतंकवादी बताते हुए पाकिस्तान में मौत की सजा सुनाई गई थी. उन से पहले पंजाब के किसान सरबजीत को भी पाकिस्तान में आतंकवाद के आरोपों में फंसा दिया गया था. वे अनजाने में 30 अगस्त, 1990 को सीमा पार पाकिस्तानी इलाके में चले गए थे.

सरबजीत की बहन ने अपने भाई को बचाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी होम कर दी. जिस वक्त यह उम्मीद जगी कि अब सरबजीत रिहा हो कर वतन वापस आ जाएगा, तभी 26 अप्रैल, 2013 को लाहौर की कोट लखपत जेल में कैदियों ने सरबजीत पर बर्बरता से हमला कर उन को जख्मी कर दिया और 2 मई, 2013 को उन की मृत्यु हो गई. भारत सरकार ने इस विषय में क्या कदम उठाए, इस की कोई जानकारी मीडिया को नहीं है. मगर सरबजीत जब तक जीवित रहे, उन के नाम पर पाकिस्तान को घेरने, गरियाने की कवायद जारी रही. वैसी आवाज यूएई, अमेरिका, जिम्बाब्वे आदि देशों के खिलाफ क्यों नहीं निकलती?

याद होगा, कुलभूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने वकील हरीश साल्वे के नाम की भी काफी चर्चा हुई थी. साल्वे की गिनती देश के सब से महंगे वकीलों में होती है. उन्होंने इंटरनैशनल कोर्ट औफ जस्टिस में कुलभूषण जाधव का बचाव किया और इस के एवज में मात्र एक रुपया फीस ली. साल्वे की जिरह के बाद अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट ने जाधव के मृत्युदंड के मामले में रोक लगा दी थी. चूंकि यह मामला भी पाकिस्तान से जुड़ा था इसलिए इस की खूब चर्चा फैलाई गई. मगर अन्य देशों में जब भारतीय नागरिकों को सजा सुनाई जाती है, मौत की सजा दी जाती है तो देश को भनक तक नहीं लगती.

Online Hindi Story : हिम्मत – जब माधुरी ने अपने पति को सब कुछ बता दिया

Online Hindi Story : काफी सोचने के बाद माधुरी ने अपने और अशोक के बारे में पति आकाश को सबकुछ बता देने का फैसला किया. अशोक के रास्ते पर चलने से उसे बरबाद होने से कोई नहीं बचा सकता था. पति को सचाई बता देने से शायद वह उस की गलती माफ कर उसे स्वीकार कर सकता था.

माधुरी अपने मातापिता की एकलौती औलाद थी. उस के पिता एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे और किराए के मकान में रहते थे. उस की मां घरेलू थी.

माधुरी के पिता के पास कोई जायदाद नहीं थी. उन का एक ही सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर बहुत बड़ी अफसर बने. माघुरी भी अपने पिता का सपना पूरा करना चाहती थी. उस का सपना पूरा नहीं हुआ. जो कुछ भी हुआ, उस की कल्पना उस ने नहीं की थी.

स्कूल तक माधुरी ने खूब अच्छी तरह पढ़ाई की थी, मगर कालेज में जाते ही उस का मन पढ़ाई से हट गया था. इस की वजह यह थी कि कालेज में जाते ही अशोक से उस की आंखें लड़ गईं. वह बड़ा ही हैंडसम और स्मार्ट लड़का था. मौका देख कर एक दिन अशोक ने माधुरी को आई लव यू कह दिया, तो माधुरी भी अपनेआप को रोक न सकी. उस ने अपने दिल की बात कह दी, ‘‘मैं भी तुम्हें प्यार करती हूं.’’

इस के बाद वे दोनों बराबर अकेले में मिलनेजुलने लगे. 6 महीने बाद एक दिन अशोक माधुरी को अपने घर ले गया.

अशोक ने माधुरी को बताया था कि शहर में वह अकेले ही किराए के मकान में रहता है. उस का परिवार गांव में रहता है. उस के  पिता के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं है. उस के पिता हर महीने उसे 20 हजार रुपए भेजते हैं.

माधुरी अशोक से बहुत प्रभावित थी. वह उस पर पूरा भरोसा भी करती थी, इसीलिए यह जानते हुए भी कि वह अकेला रहता है, वह उस के घर चली गई थी. बंद कमरे में प्यारमुहब्बत की बातें करतेकरते अचानक अशोक ने माधुरी को अपनी बांहों में भर लिया.

माधुरी ने विरोध किया, तो अशोक ने उसे यह कह कर यकीन दिला दिया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह उस से शादी कर लेगा. फिर माधुरी ने अशोक का कोई विरोध नहीं किया और अपनेआप को उस के हवाले कर दिया, फिर तो यह सिलसिला चल निकला.

अशोक का वादा झूठा था, इस का पता माधुरी को तब चला, जब वह पेट से हो गई.

माधुरी ने शादी करने के लिए अशोक से कहा, तो वह अपने वादे से मुकर गया. उसे बच्चा गिरवा लेने की सलाह दी.

माधुरी किसी भी हाल में बच्चा नहीं गिराना चाहती थी. वह तो अशोक से शादी कर के बच्चे को जन्म देना चाहती थी.

माधुरी ने धमकी भरे लहजे में अशोक से कहा, ‘‘तुम मुझ से शादी नहीं करोगे, तो मैं पुलिस की मदद लूंगी. पुलिस को बताऊं गी कि शादी का झांसा दे कर तुम ने मेरी इज्जत से खिलवाड़ किया है.’’

‘‘अगर तुम ऐसा करोगी, तो मैं भी चुप नहीं रहूंगा. पुलिस को बताऊंगा कि तुम धंधेवाली हो. जिस्म बेच कर पैसा कमाना तुम्हारा पेशा है. मुझ से तुम ने 5 लाख रुपए मांगे थे. मैं ने रुपए देने से मना कर दिया, तो मुझे ब्लैकमेल करना चाहती हो.

‘‘मैं सबकुछ साबित भी कर दूंगा. तुम सुबूत देखना चाहती हो, तो देख लो,’’ कहने के बाद अशोक ने जेब से एक लिफाफा निकाला और माधुरी को दे दिया. धड़कते दिल से माधुरी ने लिफाफा खोला, तो वह सन्न रह गई. लिफाफे में 4 फोटो थे. पहले फोटो में वह अशोक के साथ हमबिस्तर थी और बाकी 3 फोटो में वह अलगअलग लड़कों के साथ थी.

माधुरी हैरान हो कर फोटो देख रही थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अशोक उस के साथ ऐसा भी कर सकता है.  माधुरी को चुप देख कर अशोक ने ही कहा, ‘‘तुम यही सोच रही होगी कि फोटो में तुम मेरे अलावा दूसरे लड़कों के साथ कैसे हो, जबकि तुम मेरे सिवा कभी किसी मर्द के साथ सोई ही नहीं?

‘‘मैं जानता था कि दूसरी लड़कियों की तरह तुम भी आसानी से मेरी बात नहीं मानोगी, इसीलिए तुम्हें धंधेवाली साबित करना जरूरी था.

‘‘एक दिन मैं ने तुम्हारी चाय में बेहोशी की दवा मिला दी थी. तुम बेहोश हो गई, तो योजना के तहत बारीबारी से अपने 3 साथियों को सुलाया. उन के साथ फोटो खींचे और वीडियो फिल्म बनाई.

‘‘अब मेरी बात ध्यान से सुन लो. फोटो और सीडी पाना चाहती हो, तो तुम्हें 3 लाख रुपए देने होंगे, नहीं तो तुम्हारे फोटो इंटरनैट पर डाल दूंगा. फिर तुम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाओगी.’’

माधुरी हैरान हो कर अशोक की बातें सुन रही थी. अशोक बोले जा रहा था, ‘‘अगर तुम एकसाथ 3 लाख रुपए नहीं दे सकती, तो एक साल तक तुम्हें मेरे साथ धंधेवाली वाला काम करना होगा.

‘‘जिस मर्द को मैं तुम्हारे पास भेजा करूंगा, उसे तुम्हें खुश करना होगा. एक साल बाद फोटो और सीडी मैं तुम्हें लौटा दूंगा.’’

माधुरी समझ गई कि वह अशोक के जाल में बुरी तरह फंस चुकी है. उस ने रोरो कर के उस से गुजारिश की कि वह उसे धंधेवाली बनने पर मजबूर न करे, मगर अशोक ने उस की एक न सुनी.

आखिरकार माधुरी ने सोचनेसमझने के लिए उस से एक हफ्ते का समय मांगा. 5 दिन बाद भी माधुरी को अशोक से छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने खुदकुशी करने का फैसला कर लिया.

वह खुदकुशी करती, उस से पहले ही एक दिन अखबार में उस ने पढ़ा कि एक लड़की को ब्लैकमेल करने के आरोप में पुलिस ने अशोक को गिरफ्तार कर लिया है.

माधुरी ने राहत की सांस ली. अब वह पढ़ाई छोड़ कर जल्दी से शादी कर शहर से दूर चली जाना चाहती थी. इस के लिए एक दिन उस ने मां को बताया, ‘‘अब मेरा मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.’’

उस की मां समझदार थी. अपने पति से बात की और उस के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई. जल्दी ही माधुरी के लिए अच्छा लड़का मिल गया. फिर उस की शादी आकाश से हो गई.

आकाश कोलकाता का रहने वाला था. वह एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर था. उस के मातापिता नहीं थे.

प्यार करने वाला पति पा कर माधुरी बहुत जल्दी अशोक को भूल गई. वैसे भी अशोक को 3 साल की सजा हुई थी. उस लड़की ने अदालत में अपना आरोप साबित कर दिया था.

माधुरी को यकीन था कि अशोक उस की जिंदगी में अब कभी नहीं आएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ.

3 साल बाद एक दिन अशोक ने उसे फोन किया और यह कह कर होटल में बुलाया कि अगर वह नहीं आएगी, तो उस के पति आकाश को उस की फोटो और सीडी दे देगा.

होटल के बंद कमरे में अशोक ने माधुरी के साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की, लेकिन सीडी और फोटो लौटाने की 3 साल पहले वाली शर्त उसे याद दिला दी. माधुरी रुपए देने में नाकाम थी. वह पति से रुपए मांगती, तो क्या कह कर मांगती.

माधुरी पति के साथ बेवफाई भी नहीं करना चाहती थी, इसलिए अंजाम की परवाह किए बिना उस ने अशोक को अपना फैसला सुना दिया, ‘‘न तो मैं तुम्हें रुपए दूंगी और न ही पति के साथ बेवफाई करूंगी. तुम्हें जो करना है कर लो.’’

अशोक जल्दबाजी में कोई गलत कदम नहीं उठाना चाहता था, इसलिए उस ने माधुरी को फिर से सोचने के लिए 2 दिन का समय दिया.

होटल से घर आ कर माधुरी तब से यह लगातार सोचने लगी. अब उसे कौन सा रास्ता चुनना चाहिए. सबकुछ पति को बता देना चाहिए या अशोक की बात मान कर धंधेवाली बन जाना चाहिए? आखिर में माधुरी ने पति को सचाई बता देने का फैसला किया.

आकाश शाम 7 अजे घर आया, तो वह अपनेआप को रोक न सकी. वह आकाश से जा कर लिपट गई और रोने लगी.

आकाश ने बड़ी मुश्किल से उसे चुप कराया और पूछा, ‘‘क्या बात है? तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं, इसलिए तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता.’’

माधुरी ने आकाश को अशोक के बारे में सब सचसच बता दिया. पति आकाश से माधुरी ने कुछ नहीं छिपाया.

आकाश बहुत समझदार था. वह रिश्ते को तोड़ने में नहीं जोड़ने में यकीन रखता था. किसी को उस की गलती की सजा देन में नहीं, बल्कि माफ कर उसे सुधारने में यकीन करता था.

आकाश ने माधुरी को माफ कर दिया और उसे बांहों में भर कर कहा, ‘‘जो हुआ, उसे दुखद सपना समझ कर भूल जाओ. पुलिस में कई बड़े अफसरों से मेरी जानपहचान है. वे लोग अशोक का सही इंतजाम करेंगे. कोई जान नहीं पाएगा कि वह कहां चला गया. अब तुम किसी बात की चिंता मत करो.’’

माधुरी की आंखों से निकलती आंसुओं की गरम बूंदों ने आकाश के सीने को नम कर दिया.

Hindi Kahani : तलाक के बाद – स्मिता के साथ जिंदगी ने कैसा खेल खेला

Hindi Kahani : आखिरकार 11 साल बाद कोर्ट का फैसला आ ही गया. वह जो चाहती थी, वही हुआ था. उसे अपने पति से तलाक मिल गया था. लेकिन 11 साल बाद अब इस तलाक का क्या औचित्य था. जब उस ने तलाक के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया था, तब वह 25 वर्ष की यौवन के भार से लदी सुंदर युवती थी. अब वह 36 साल की प्रौढ़ा हो चुकी थी. चेहरे पर उम्र की परतों को दिखाने वाली मोटी चरबी चढ़ गई थी, जिस पर झुर्रियां पड़ने लगी थीं. बाल सफेद होने की यह कोई उम्र तो नहीं थी, लेकिन गमों के सायों ने उस पर सफेदी फेरनी शुरू कर दी थी.

यौवन पता नहीं कब चला गया था. हर सालज़्उसे वसंत का इंतजार रहता कि अब उस के जीवन में भी फूल खिलेंगे. न जाने कितने वसंत उस के जीवन में आए और गुजर गए, लेकिन उस के मन की बगिया में फूल नहीं खिले. हवा में खुशबू नहीं फैली. 36 वसंत देखने के बाद भी उसे लगता कि उस के जीवन में कोई वसंत नहीं आया था. दूरदूर तक, जहां तक नजर जाती थी, पतझड़ ही पतझड़ दिखता था और आंखों में रेगिस्तान था. उस के जीवन के गुजरे साल सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ते हुए उस के दिल में भयावह सन्नाटे का एहसास करा रहे थे.

इतने सालों बाद तलाक का आदेश पा कर वह गुम सी हो गई थी. आज वह यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि पति से तलाक तो मिल गया, लेकिन अब आगे क्या होगा?

वह बिलकुल अकेली है. मां कई साल पहले गुजर गई थीं. पिता उसी की चिंता में घुलते रहे और इसी कारण वे भी जल्दी मौत को गले लगा चले गए. मांबाप की मृत्यु के बाद बड़े भाई ने उस से किनारा कर लिया. भाभी से हमेशा 36 का आंकड़ा रहा. उस को ले कर भैयाभाभी में अकसर तनातनी चलती रहती. वह सब देखती थी, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी. उस का भार, उस के मुकदमे का भार, कौन कब तक उठाता. वह एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. उस से केवल उस के मुकदमे का ही खर्चज़्निकल पाता था. अब वह किराए के एक छोटे से कमरे में रहती थी.

बवंडर की तरह विचार उस के मस्तिष्क में उमड़घुमड़ रहे थे. विचारों में खोई वह अदालत की सीढि़यां उतर कर नीचे आई. चारों तरफ  लोगों की भीड़ और चीखपुकार मची थी. आज का शोर उस के कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रहा था. लग रहा था, शोर की अधिकता से उस के कान बहरे हो गए थे. किसी तरह वह कोर्टज़्परिसर से बाहर आई और बेमकसद एक तरफ चल दी.

जनवरी का महीना था और धूप में तीव्रता का एहसास होने लगा था. चलतेचलते वह एक छोटे से पार्कज़्के पास पहुंची, तो उस के अंदर चली गई. कुछ लड़केलड़कियां वहां बैठ कर चुहलबाजी कर रहे थे. उस ने उन की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और एक पेड़ के नीचे जा कर बैठ गई. वहां वह धूपछांव दोनों का आनंद ले सकती थी, लेकिन उस के जीवन में आनंद कहां था?

जिन प्रश्नों पर वह कई बार विचार कर चुकी थी, वही बारबार उस के दिमाग में आ रहे थे. आज से 11 साल पहलेज़् जब उस की शादी हुई थी, तब वह नहीं जानती थी कि एक दिन वह बिलकुल अकेली होगी, एक तलाकशुदा स्त्री, जिस के जीवन में पतझड़ की वीरानी के सिवा और कुछ नहीं होगा.

शादी से पहलेज़्उस की सहेलियां उस से कहती थीं कि वह घमंडी और अपनी खूबसूरती के मद में चूर लड़की है. वह नहीं जानती थी कि उस के स्वभाव में ये सारे अवगुण कैसे आए थे. ये जन्म से थे या हालात के तहत उस के स्वभाव में समा गए थे. तब वह जवानी और अपनी खूबसूरतीज़्के मद में चूर थी, इसलिए अपने इन अवगुणों की तरफ देखने, सोचने व उन में सुधार लाने की तरफ उस का ध्यान नहीं गया. मांबाप ने भी कभी उसे नहीं टोका कि उस में कोई ऐसा अवगुण है जो उस के जीवन को बरबाद कर देगा. भाई को उस से कोई मतलब नहीं था.

शादी के समय मां ने उसे सीख दी थी, ‘बेटी, अब तुम्हारे जीवन का दूसरा पक्ष शुरू होने जा रहा है. यह बहुत महत्त्वपूर्णज़् है और इस में यदि तुम ने सोचसमझ कर कदम नहीं रखा तो जीवनभर पछताने के अलावा और कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं आएगा. पति को काबू में रखना, सासससुर को दबा कर रखना, उन के रिश्तेदारों को भाव न देना वरना सब आएदिन तुम्हारे ऊपर बोझ बन कर खड़े रहेंगे. कोशिश करना कि सासससुर से अलग रह कर अपना स्वतंत्र जीवन बिताओ. इस के लिए हर समय पति को टोकते रहना. एक न एक दिन वह तुम्हारी बात मान कर अलग रहने लगेगा.’

मां की बात उस ने गांठ बांध ली और शादी के एक हफ्ते बाद ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. सब से पहले तो उस ने सास की बातों की तरफ ध्यान देना बंद किया. सास कुछ कहती तो वह न सुनने का बहाना बनाती. सास पास आ कर कहती, तो वह चिड़चिड़ा कर कहती, ‘आप नहीं कर सकतीं क्या इतना छोटा सा काम? जब देखो, तब मेरे सिर पर खड़ी रहती हैं. मैं जब इस घर में नहीं थी तो क्या ये काम आप नहीं करती थीं.’

वह जानबूझ कर कोई न कोई हंगामा खड़ा कर देती. फिर भी सास उस से तकरार न करती. कुछ ही दिनों बाद उस ने खाने को ले कर घर में हंगामा खड़ा कर दिया, ‘मुझे रोजरोज दालचावल अच्छे नहीं लगते. आप को खाने हों तो बनाइए. मैं अपना अलग खाना बना लिया करूंगी, नहीं तो होटल से मंगा लूंगी.’

पति राजीव ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘तुम को जो पसंद हो, बना लिया करो. कोई मना करता है क्या?’

वह फास्टफूड की शौकीन थी. चाइनीज और कौंटिनैंटल खाना उसे पसंद था. वह जानती थी, ये चीजें घर में नहीं बनाई जा सकती थीं और अगर कोई बना भी ले, तो किचन की गरमीज़्में फुंकने से अच्छा है होटल से मंगा कर खा ले. इसीलिए उस ने इतना नाटक किया था कि घर में खाना बनाने का झंझट न करना पड़े. फिर भी उस ने साफसाफ कह दिया कि वह खाना नहीं बनाएगी.

वह फोन पर और्डर कर के बाहर से अपने लिए खाना मंगवाने लगी थी. इस सब का एक ही मकसद था कि वह राजीव को अपने मांबाप से अलग कर सके. यही नहीं, हर रविवार जिद कर के वह राजीव को बाहर भी ले जाती और महंगे रैस्तरां में खाना खा कर आती. जब भी दोनों बाहर से खाना खा कर आते, वह देखती कि राजीव का मूड उखड़ाउखड़ा सा रहता. लेकिन वह ध्यान नहीं देती.

एक दिन राजीव ने कह ही दिया, ‘स्मिता, अब ये महंगे शौक छोड़ दो. कुछ जिम्मेदारी भी समझो. मेरी पगार इतनी नहीं है कि मैं तुम्हारे लिए रोजाना बाहर से खाना मंगवा कर खिला सकूं. अपने हाथ से बनाना सीखो.’

‘मैं पूरे घर के लिए खाना नहीं बना सकती. मैं तुम्हारी पत्नी बन कर आई हूं, तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. मांबाप से अलग रहो तो मैं घर में खाना बनाऊंगी वरना बाहर से ही मंगवा कर खिलाओ.’

राजीव तिलमिला कर रह गया था. फिर भी वह शांत भाव से बोला, ‘मांबाप हमारे ऊपर बोझ नहीं हैं. यह हमारा पुश्तैनी घर है. उन से अलग रह कर मेरा खर्च दोगुना हो जाएगा. यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती?’

‘तो क्या तुम मेरा और अपना खर्चज़्नहीं उठा सकते?’

‘उठा सकता हूं, मगर अलग रह कर नहीं,’ राजीव ने साफसाफ कहा.

‘तुम मेरा खर्च नहीं उठा सकते तो शादी क्यों की थी? समझ में नहीं आता, लोग कमाते एक धेला भी नहीं, लेकिन सुंदर पत्नी की कामना करते हैं. इस से अच्छा तो कुंआरे रहते?’

‘स्मिता, तुम बात का बतंगड़ क्यों बना रही हो. मेरे पापा को इतनी पैंशन मिलती है कि वे अपना खर्चज़्खुद उठा सकें. वे मेरी तनख्वाह का एक पैसा नहीं लेते, लेकिन जो शौक तुम ने पाल रखे हैं, उन में मेरी तनख्वाह 15 दिन भी नहीं चलती. बाक़ी महीने का खर्च कहां से आएगा. खाने के अलावा घर के और भी खर्चेज़्हैं.’

‘यह तुम जानो, यह तुम्हारा घर है. घर का खर्चज़्चलाना भी तुम्हारा काम है.’

‘सही है, लेकिन अनापशनाप खर्चों से घर नहीं चलता, बल्कि बरबादी आती है.’

‘तो मैं अनापशनाप खर्चज़्करती हूं, खाना ही तो खाती हूं, और क्या? मैं सब समझती हूं, पैसे बचा कर मांबाप को देते हो. अब ऐसा नहीं चलेगा. आइंदा से तनख्वाह मेरे हाथ में रखा करोगे, तब मैं देखती हूं, घरखर्चज़्कैसे नहीं चलता.’

राजीव मान गया. उस ने अगले महीने की पूरी तनख्वाह स्मिता के हाथ में रख दी, ‘यह लो, इस में 5 हजार रुपए निकाल देना. मैं ने एक पौलिसी ले रखी है. इस के अलावा मेरा स्कूल आनेजाने का खर्च 3 हजार रुपए है. बाकी तुम रख लो और घर चलाओ.’

राजीव को 8 हजार रुपए दे कर बाकी पैसे स्मिता ने रख लिए. पैसे हाथ में आते ही वह मनमानी पर उतर आई. बिना कुछ सोचेविचारे उस ने खानेपीने की चीजों और अपने लिए कपड़े खरीद कर एक हफ्ते में ही राजीव की पूरी तनख्वाह खत्म कर दी.

‘तुम्हें तनख्वाह इतनी कम मिलती है, मुझे पता नहीं था. वह तो एक हफ्ते भी नहीं चली,’ स्मिता ने जैसे राजीव पर एहसान करते हुए कहा, ‘बाकी महीना कैसे चलेगा?’

राजीव ने तब भरी निगाहों से उसे देखा था, ‘40 हजार रुपए कम नहीं होते. इतने में 10 आदमी बड़े आराम से एक महीना दालरोटी खा सकते हैं. लेकिन तुम्हारी बेवकूफी से 40 हजार रुपए एक हफ्ते में खर्च हो गए. अब घर में बैठ कर दालरोटी खाओ.’

राजीव की आवाज सख्त नहीं थी, लेकिन उस में थोड़ी तल्खी थी. उसे लगा कि राजीव उसे डांटेगा, इसलिए वह पहले ही लगभग चीख कर बोली, ‘पता नहीं कैसे भिखमंगों के घर में मांबाप ने मुझे ब्याह दिया. इतने अच्छेअच्छे रिश्ते मेरे लिए आए थे, लेकिन उन्हें यह टुटपुंजिया स्कूलमास्टर पसंद आया.’

‘स्मिता, तुम हालात को समझने की कोशिश करो. अमीर से अमीर आदमी भी होटल का खाना खाने से एक दिन कंगाल हो जाता है. तुम घर में खाना बना लिया करो.’

‘मैं इस घर के किचन में अपनी आंखें नहीं फोड़ूंगी. मुझे कहीं से भी पैसे ला कर दो, लेकिन मुझे पैसे चाहिए. मैं एक भिखारिन की तरह इस घर में नहीं रह सकती,’ और वह पैर पटकती हुई बैडरूम में चली गई.

रात में राजीव उसे मना रहा था, ‘स्मिता, मैं समझ सकता हूं कि शादी के पहले तुम्हारी अलग जिंदगी थी, लेकिन शादी के बाद हर लड़की को ससुराल की हालत के अनुसार खुद को ढालना पड़ता है.’

‘मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है. अगर तुम मेरा खर्च नहीं उठा सकते तो मुझे तलाक दे दो. अभी भी मुझे अच्छा घरवर मिल जाएगा,’ स्मिता ने ऐंठ कर कहा.

राजीव तब सन्न रह गया था. इस मुद्दे पर उस ने स्मिता से कोई बहस नहीं की.

स्मिता रोज राजीव से पैसे की मांग करती, लेकिन वह मना कर देता.

एक दिन खीझ कर स्मिता ने कहा, ‘कंगाल आदमी, लो संभालो अपना घर, मैं जाती हूं.’ उस ने तैश में अपने कपड़ेलत्ते समेटे और जातेजाते फिर बोली, ‘जिस दिन मेरे खर्चज़्लायक कमाने लगो, मुझे विदा कराने आ जाना, लेकिन उस के पहले मांबाप से अलग रहने का इंतजाम कर लेना.’

राजीव और उस की मां ने उसे कितना मनाने की कोशिश की, यह याद आते ही स्मिता की आंखों में आंसू आ गए. सोचसोच कर वह दुखी होने लगी, लेकिन अब दुखी होने से क्या फायदा? आज जिस हालत में वह थी, उस की जिम्मेदार तो वह खुद थी.

पार्क की बैंचों पर और पेड़ों के नीचे अब लड़केलड़कियों की तादाद बढ़ने लगी थी. स्मिता ने अपने चारों तरफ  निगाह डाली. लड़के और लड़कियां खुले प्यार का आदानप्रदान कर रहे थे. उस ने एक लंबी सांस ली. उसे कुछ अजीब सा लगने लगा था और वह उठ कर पार्क के बाहर आ गई. शाम होने में अभी थोड़ी देर थी. उस ने अपने घर की तरफ का रुख किया.

रास्ते पर चलते हुए वह फिर उन्हीं विचारों में खो गई, जिन विचारों के दरिया से वह न जाने कितनी बार तैर कर बाहर आई थी.

पति का घर छोड़ कर अपने मायके आई तो मांबाप को बहुत हैरानी हुई. भाई भी परेशान हो गया. सब ने मिलबैठ कर उस से कारण पूछा, तो उस ने बस इतना कहा, ‘अब मैं उस कंगाल घर में नहीं जाऊंगी. आप लोगों ने अपने मन की कर ली, मुझे ब्याह कर आप लोग अपनी जिम्मेदारी से फ्री हो गए. लेकिन अब मुझे अपने ढंग से जीवन जीने दो. मैं राजीव से तलाक चाहती हूं.’

‘तलाक…’ सब के मुंह से एकसाथ निकला. कुछ देर सब मुंहबाए स्मिता का मुंह देखते रहे. फिर मां ने पूछा, ‘ऐसा क्या हो गया तुम्हारे साथ ससुराल में, जो 2 महीने बाद ही तुम तलाक लेने पर उतर आई?’

‘यह पूछो कि क्या नहीं हुआ? छोटे और गरीब लोगों के घर में मुझे ब्याहते हुए आप को शर्म नहीं आई? आप ने यह तक नहीं सोचा कि उस घर में आप की बेटी गुजारा कैसे करेगी? इतने प्यार से मुझे पालपोस कर बड़ा किया. मेरी हर जरूरत पूरी की, ऊंची शिक्षा दी. इस के बाद भी क्या मेरी जिंदगी में वही टुच्चा घर बचा था.’

‘बेटा, यह क्या कह रही हो? वे तुम्हारा खर्च क्यों नहीं उठा पा रहे हैं. तुम्हारे ऐसे कौन से खर्चे हैं, जो उन के बूते में नहीं हैं. अच्छाखासा खातापीता परिवार है,’ उस के पिता ने पूछा.

‘बेटी, ऐसी क्या बात हो गई जो तुम अपने पति से तलाक लेना चाहती हो? हमें कुछ बताओ तो हमें पता भी चले. मैं ने तुम्हें यह शिक्षा तो नहीं दी थी. बस, अलग रहने के लिए कहा था,’ उस के जवाब देने के पहले ही मां ने सवाल दाग दिया.

‘मैं ने कह दिया कि मुझे उस घर में अब लौट कर नहीं जाना, बस. मैं तलाक ले कर दूसरी जगह शादी करूंगी, इस बार खुद घरबार देख कर,’ उस ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया. उस ने न किसी की सुनी, और न किसी की चलने दी. तब उस के पिता नौकरी करते थे, भाई भी नौकरी करने लगा था. मां गृहिणी थी. उस के खानेपीने की कोई परेशानी नहीं थी.

मायके लौटने के दूसरे महीने ही उस ने वकील से सलाह ले कर कोर्टज़्में तलाक का मुकदमा दायर कर दिया. नोटिस मिलने पर राजीव उस से मिलने आया था. वह उस से घर लौट कर चलने के लिए बहुत मिन्नत कर रहा था, लेकिन स्मिता ने उस से साफसाफ कह दिया था, ‘क्या आप ने अलग घर ले लिया है?’

‘नहीं स्मिता, मैं अपने मांबाप से अलग रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता. बचकानी हरकत मत करो. इस से हम दोनों का जीवन बरबाद हो जाएगा.’

लेकिन उस ने समझने की कोशिश नहीं की. ऐंठ कर बोली, ‘तो फिर तलाक के लिए तैयार रहो.’

राजीव ने चलतेचलते कहा था, ‘हर बात में जिद अच्छी नहीं होती. इतना ध्यान रखना कि कोर्ट इतनी आसानी से किसी को तलाक नहीं देता, जब तक उस का कोई ठोस आधार न हो.’

स्मिता तब यह बात नहीं समझी थी. खुद को व्यस्त रखने के लिए उस ने एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली थी.

कोर्टज़्ने वादी स्मिता को 6 महीने का समय दिया, ताकि वह अपने फैसले पर दोबारा विचार कर सके. तब भी अगर उसे लगे कि वह अपने पति के साथ गुजारा नहीं कर सकती तो फिर से याचिका पर सुनवाई होगी. इस 6 महीने के दौरान राजीव ने फिर उस से मिलने की कोशिश की. लेकिन वह उस से बात तक करने को तैयार नहीं हुई. उसे पूरा यकीन था कि

6 महीने बाद उसे तलाक मिल जाएगा और तब वह अपनी मरजीज़्से किसी धनवान लड़के के साथ शादी कर लेगी. उस ने अखबारों, पत्रिकाओं और इंटरनैट पर अपने लिए योग्य वर की खोज भी करनी शुरू कर दी थी.

लेकिन उस की आशाओं पर पहली बार पानी तब फिरा, जब 6 महीने बाद सुनवाई शुरू हुई. हर सुनवाई पर तारीख पड़ जाती, कभी जज छुट्टी पर होते, कभी कोई वकील, कभी वकीलों की हड़ताल होती, कभी जज महोदय अन्य मामलों में बिजी होते. राजीव ने अपना जवाब दाखिल कर दिया था. वह स्मिता को तलाक नहीं देना चाहता था, जबकि तलाक की याचिका में स्मिता ने कहा था कि उस का पति उस का भरणपोषण करने में समर्थ नहीं था. राजीव की आय के प्रमाणपत्र मांगे गए थे.

यह सब करतेकरते 2-3 साल और निकल गए. फिर जज बदल गए. नए जज महोदय ने नए सिरे से सुनवाई शुरू की. हर पेशी पर केस की सुनवाई हुए बिना अगली तारीख पड़ जाती. बहुत दिनों बाद एक जज ने खुद स्मिता और राजीव से व्यक्तिगत तौर पर कुछ प्रश्न किए.

उस के बाद अगली तारीख पर फैसला सुनाया, ‘दोनों पक्षों को सुनने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि वादी के पास अपने पति से तलाक मांगने का कोई उचित कारण नहीं है. उन के बीच कलह का मात्र एक कारण है कि वादी अपने सासससुर से अलग रहना चाहती है, लेकिन पति ऐसा नहीं चाहता.

‘वादी ने दूसरा कारण यह बताया है कि प्रतिवादी उस का खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है. वादी का पति एक शिक्षक है और उस की आय का ब्योरा अदालत में मौजूद है, जिस से यह प्रमाणित होता है कि वह उस का भरणपोषण करने में सक्षम है. वादी के पास प्रतिवादी द्वारा प्रताडि़त करने का कोई प्रमाण भी नहीं है, सो वादी को निर्देश दिया जाता है कि वह पति के साथ रह कर अपना पारिवारिक दायित्य निभाते हुए रिश्तों में सामंजस्य बिठाए. मुझे विश्वास है कि दोनों सुखद दांपत्यजीवन व्यतीत करेंगे. याचिका खारिज की जाती है.’

कोर्ट का आदेश सुन कर स्मिता को गश आ गया था. लगभग 5 वर्षों बाद यह फैसला आया था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह किधर जाए. उसे कोर्टज़्के आदेश के ऊपर गुस्सा नहीं आ रहा था. उस का गुस्सा राजीव के ऊपर था. वह अगर सहमति दे देता तो उसे आसानी से तलाक मिल जाता.

पतिपत्नी साथसाथ रिश्तों में तालमेल बिठा कर रहने की कोशिश करेंगे. साथ रहेंगे तो मतभेद अपनेआप दूर हो जाएंगे, लेकिन स्मिता ऐसा नहीं सोचती थी. वह अपने पति के घर नहीं गई तो राजीव उसे मनाने आया था.

‘स्मिता, तुम अपनी जिद में हम दोनों का जीवन बरबाद कर रही हो,’ उस ने कहा था.

‘मेरा जीवन तो तुम बरबाद कर रहे हो. जब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती तो तुम मुझे तलाक क्यों नहीं दे देते.’

‘पता नहीं तुम कुछ समझने की कोशिश क्यों नहीं करती. शादीब्याह कोई हंसीमजाक नहीं है कि जब चाहा ब्याह कर लिया और जब चाहा तलाक ले लिया. हमारी अदालतें भी इन मामलों को गंभीरता से लेती हैं. वे दांपत्यजीवन को तोड़ने में नहीं, जोड़ने में विश्वास करती हैं. मुझे नहीं लगता, तुम्हें आसानी से तलाक मिल पाएगा.’

‘सबकुछ बहुत आसान है. तुम मुझे छोड़ दो, तो मैं आसानी से दूसरा ब्याह कर सकती हूं.’

‘तुम सुंदर हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम आसानी से दूसरा विवाह कर लोगी. हो सकता है, तुम्हें कोई राजकुमार मिल जाए, परंतु इस बात की क्या गारंटी है कि वह तुम्हें सुख से रखेगा,’ राजीव ने ताना मारते हुए कहा था.

‘मैं उसे खुश रखूंगी तो वह मुझे सुख से क्यों नहीं रखेगा?’

‘यही व्यवहार तुम मेरे साथ भी कर सकती हो. तुम अपनी बेवजह की जिद छोड़ दो, तो खुशियां पाने के बहुत सारे रास्ते खुल जाएंगे.’

‘मैं तुम्हारे साथ ऐडजस्ट नहीं कर सकती. तुम्हारे मांबाप मुझे अच्छे नहीं लगते. तुम मुझे छोड़ दो. मैं ने शादी डौटकौम पर अपना प्रोफाइल डाल रखा है, बहुत अच्छेअच्छे प्रपोजल आ रहे हैं.’ उस ने राजीव से इस तरह कहा, जैसे वह अपना अधिकार मांग रही थी. परंतु राजीव ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. गुस्से से बोला, ‘तुम तो शादी कर लोगी, लेकिन मेरा क्या होगा? मैं दूसरी शादी नहीं कर सकता. पड़ोसी और रिश्तेदार क्या सोचेंगे कि मैं तुम्हारे साथ क्यों नहीं निभा पाया?’

‘किसी गरीब लड़की से शादी कर लो, सुखी रहोगे,’ स्मिता ने मजाक उड़ाते हुए कहा.

राजीव निराश लौट गया था.

अपने ही मांबाप के घर में उसे लगने लगा था कि वह पराई हो गई थी. बड़ा उपेक्षित सा जीवन जी रही थी वह अपने सगों के बीच में. धीरेधीरे उस की समझ में आ रहा था कि एक युवा स्त्री के लिए सही जगह उस की ससुराल ही होती है, मायका नहीं. यह समझने के बावजूद वह राजीव से कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी. इंटरनैट पर आने वाले सुंदर प्रस्ताव उसे लुभा रहे थे. कई लड़कों से वह फोन पर बातें भी कर चुकी थी.

कुछ दिनों बाद जब उस के हाथ में कुछ पैसा आया तो उस के मंसूबों को फिर से पंख लग गए.

उस ने फिर वकील से बात की, ‘वकील साहब, आप किसी तरह मुझे मेरे पति से तलाक दिलवा दो.’

‘फिर से अर्जीज़्देनी होगी. इस बार केस में कोई ठोस वजह बतानी पड़ेगी. पहले वाले जज का तबादला हो गया है. अब नए जज आए हैं. कल तुम फीस के पैसे ले कर आ जाओ. परसों अर्जीज़् दाखिल कर देंगे.’

अर्जीज़्फिर से कोर्ट में दाखिल हो गई. कोर्टज़्ने फिर से विचार के लिए 6 महीने का समय दिया. कानून के तहत यह एक निर्धारित प्रक्रिया थी.

स्मिता नहीं जानती थी कि कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी खिंचती है. इस बार भी 3-4 महीने में एक तारीख पड़ती तो उस में सुनवाई न हो पाती. किसी न किसी कारण फिर से अगली तारीख पड़ जाती. अगली तारीख भी 3-4 महीने बाद की होती. पेशियों की तारीखें लंबी पड़ती थीं, लेकिन उम्र के हाशिए छोटे होते जा रहे थे.

एक मन कहता, अहं छोड़ कर वह राजीव के पास चली जाए, लेकिन तत्काल दूसरा मन उस की इस सोच को दबा देता. क्या वह अपनी हार को स्वीकार कर लेगी. लोग क्या कहेंगे, ससुराल पक्ष के लोग ताने मारमार कर उस का जीना हराम नहीं कर देंगे? क्या वह अपने स्वाभिमान को बचा पाएगी? उस के अंदर अहं का नाग फनफना कर अपना सिर उठा लेता और उसे आगे बढ़ने से रोक लेता. जब भी वह लंबे चलने वाले मुकदमे से हताश और निराश होती, तो उस के कदम पीछे हट कर पति से समझौता करने के लिए उकसाते, लेकिन अहं के पहाड़ की सब से ऊंची चोटी पर बैठी स्मिता नीचे उतरने से डर जाती.

एक बार उस ने अपने वकील से मुकदमा वापस लेने की बात की, तो उस ने कहा, ‘अब इतना आगे आ कर पीछे हटने का कोई मतलब नहीं है.’

वह अपनी सुंदर काया को जला कर राख किए दे रही थी. 36 की उम्र में वह 45 साल की लगने लगी थी. उस के सपने टूटटूट कर बिखरने लगे थे, सौंदर्यज़्के रंग फीके पड़ने लगे थे. उस के जीवन की बगिया में न तो भंवरों की गुनगुनाहट थी, न तितलियों के रंग. उस के चारों तरफ सूना आसमान पसर गया था और पैरों के नीचे तपता हुआ रेगिस्तान था, जिस का कोई ओरछोर नहीं था.

मुकदमा चलता रहा. इस बीच न जाने  कितने जज आए और चले गए,  लेकिन मुकदमा अपनी जगह से एक इंच भी नहीं हिला था. तलाक के प्रति अब उस का मोहभंग हो गया था.

कुछ और साल निकल गए. ढाक के वही तीन पात, कहीं कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था.

जब उस का शरीर सूख गया, आंखों की चमक धूमिल हो गई, सौंदर्य ने साथ छोड़ दिया, बाल चांदी हो गए, तब एक दिन जज ने उस की तरफ देखते हुए पूछा, ‘क्या अभी भी आप तलाक चाहती हैं?’

उस की सूनी आंखें राजीव की तरफ मुड़ गई थीं. वह सिर झुकाए बैठा था. उस की तरफ कभी नहीं देखता था. स्मिता भी नहीं देखती थी. आज पहली बार देखा था. दोनों की आंखें चार होतीं तो बहुत सारे गिलेशिकवे दूर हो जाते. अब तक 10 साल बीत चुके थे और वह अच्छी तरह समझ गई थी कि अब उस के लिए तलाक के कोई माने नहीं थे. वह चुप रही तो उस के वकील ने कहा, ‘हुजूर, हम पहले ही कह चुके हैं कि वादी प्रतिवादी के साथ जीवन नहीं गुजार सकती.’

स्मिता का मन हुआ था कि वह चीखचीख कर कहे, ‘नहीं…नहीं… नहीं….’ लेकिन उस समय जैसे किसी ने उस का गला दबा दिया था. वह कुछ नहीं कह पाई थी और तब कोर्ट ने निर्देश दिया, ‘कुछ दिन और साथ रह कर देखो.’ लेकिन दोनों कभी साथ नहीं रहे. दोनों ही पक्ष इस बात को कोर्टज़्से छिपा रहे थे. वह इसलिए इस तथ्य को छिपा रही थी कि कोर्ट उस के आदेश की अवहेलना मान कर उस के खिलाफ कोई कार्यवाही न कर दे. राजीव पता नहीं क्यों इस तथ्य को छिपा रहा था. संभवतया वह स्मिता की भावनाओं के कारण इस बात को कोर्टज़्से छिपा रहा था.

सब के अपनेअपने अहं थे, अपनेअपने कारण थे. कोर्ट की अपनी रफ्तार थी. वह किसी की निजी जिंदगी से प्रभावित नहीं हो रही थी, लेकिन 2 जिंदगियां अदालती कार्यवाही में फंस कर पिस रही थीं.

सोचसोच कर उस ने अपने को जिंदा लाश बना लिया था. एक दिन वकील का उस के पास फोन आया कि अगली पेशी पर कोर्टज़्का आदेश आएगा. राजीव ने लिख कर दे दिया है कि वह उस को तलाक देना चाहता था. सुन कर स्मिता के दिल में एक बड़ा पहाड़ टूट कर गिर गया. वह अंदर से रो रही थी, परंतु बाहर उस के आंसू सूख गए थे. वह एक सूखी झील के समान थी, जिस में गहराई तो थी, लेकिन संवेदना और जीवन के जल की एक बूंद भी न थी.

राजीव के लिख कर देने के बाद ही शायद वर्तमान जज को यह भान हुआ होगा कि इतने सालों बाद भी अगर पतिपत्नी सामंजस्य नहीं बिठा पाए तो उन्हें तलाक दे देना ही बेहतर होगा. अगली पेशी पर वह कोर्ट गई, राजीव भी आया था. वह भी उस की तरह बूढ़ा हो गया था. दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा था. राजीव की आंखों में गहन पीड़ा का भाव था. वह आहत था, लेकिन अपनी पीड़ा किसी को बयान नहीं कर सकता था. वे दोनों विपरीत दिशा में खड़े हो कर फैसले का इंतजार करने लगे.

और आखिरकार कोर्टज़्का फैसला आ गया था. उसे तलाक मिल गया था, लेकिन वह खुश नहीं थी. 11 साल बहुत लंबा वक्त होता है. इतने सालों के बाद अब तलाक ले कर उस के मन में किस तरह के जीवन की अभिलाषा बची थी.

अब आगे क्या…एक बार फिर से वही प्रश्न उस के सामने था. अंधेरा घिर आया था. चारों तरफ बत्तियां जल गई थीं. लेकिन उस के अंदर असीम अंधेरा था. उस का दिल डूब रहा था, उस का सारा सौंदर्य खत्म हो गया था. सौंदर्यज़्के जाते ही उस का घमंड भी न जाने कहां गायब हो गया था. अब उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे? कोई भी तो उस का नहीं था इस दुनिया में? भाईभाभी पहले ही उस से विमुख हो गए थे. पति से तलाक मिल गया. अब उस का कौन था? आधी उम्र बीत जाने के बाद वह किस के सहारे जीवन बिताएगी. दूसरा विवाह कर सकती थी. बुढ़ापे तक लोग एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ लेते हैं.

उस का मन बैचेन था और वह भाग कर कहीं चली जाना चाहती थी. आज उस का अहं चकनाचूर हो गया था.

मन में एक संकल्प लेने के बाद वह एक तय दिशा में चल पड़ी. गली बड़ी सुनसान थी. चारों ओर अंधेरा था. केवल घरों का प्रकाश खिड़कियों से छन कर गली में आ रहा था. ऐसे में गली में सबकुछ साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था, लेकिन स्मिता के मन के अंदर एक अनोखा प्रकाश व्याप्त हो गया था, जिस में वह सबकुछ साफसाफ देख रही थी. अब उस के मन में कोई दुविधा नहीं थी.

घर के अंदर भी सन्नाटा था. उस ने धीरे से घंटी दबाई, अंदर से घंटी की आवाज सुनाई दी. फिर 2 मिनट बाद दरवाजा खुला. उस के सामने मुदर्नी चेहरा लिए राजीव खड़ा था. मूक, अंदर का प्रकाश स्मिता के चेहरे पर पड़ रहा था. वह पहचान गया था, लेकिन तुरंत उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. स्मिता का दिमाग स्थिर था, मन शांत था. दिल में बस एक गुबार था, जो बाहर निकलने के लिए बेताब हो रहा था.

‘‘राजीव,’’ उस ने भीगे स्वर में कहा. राजीव कुछ कहना चाहता था, लेकिन स्मिता ने उसे लगभग धकेलते हुए कहा, ‘‘मैं बहुत थक चुकी हूं, राजीव, कुछ देर बैठना चाहती हूं.’’ राजीव ने उसे अंदर आने का रास्ता दिया. वह अंदर आ कर धड़ाम से सोफे पर गिर गई और लंबीलंबी सांसें लेने लगी. राजीव दौड़ कर एक गिलास पानी ले आया और उस के हाथ में थमा कर बोला, ‘‘लो, पी लो.’’

राजीव ने सिर झुका कर कहा, ‘‘सबकुछ खत्म हो गया.’’

वह उठ कर सीधी बैठ गई, ‘‘नहीं राजीव, सबकुछ खत्म नहीं हुआ है. जीवन कभी खत्म नहीं होता, आशाएं कभी नहीं मरतीं. अगर कुछ खत्म हुआ है, तो मेरा अज्ञान, मूढ़ता और घमंड. मेरा सौंदर्यज़्भी खत्म हो गया है, लेकिन तुम्हारे लिए प्यार बढ़ गया है.’’

‘‘अब इस का कोई अर्थ नहीं है,’’ राजीव ने मरे स्वर में कहा.

‘‘क्या हम एकदूसरे के पास वापस नहीं आ सकते?’’ उस ने गिड़गिड़ाते स्वर में कहा और उस की बगल में आ कर बैठ गई, ‘‘मैं ने आप को बहुत कष्ट दिया, लेकिन सच मानिए, बहुत पहले ही मेरी समझ में आ गया था कि मैं जो कर रही थी, सही नहीं था.’’

‘‘फिर तभी लौट कर क्यों नहीं आई?’’ राजीव का स्वर थोड़ा खुल गया.

‘‘बस, अविवेक का परदा पूरी तरह से हटा नहीं था. अहं की दीवार तड़क गई थी, लेकिन टूटी नहीं थी. परंतु आप ने क्यों बयान दे दिया कि आप भी तलाक देना चाहते हो?’’

‘‘स्मिता, तुम्हें नहीं पता, अदालतों और वकीलों के चक्कर में न जाने कितने परिवार बरबाद हो गए. पहले मुझे लगता था, दोएक साल तक कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद तुम्हारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी और तुम तलाक का मुकदमा वापस ले लोगी. परंतु जब देखा 11 साल निकल गए, जवानी साथ छोड़ती जा रही है. तब मैं ने कोर्ट में अपनी सहमति दे दी, वरना यह कार्यवाही जीवन के अंत तक समाप्त नहीं होती.’’

स्मिता कुछ पल तक उस के चेहरे को देखती बैठी रही, फिर पूछा, ‘‘तो क्या अदालत का फैसला मानोगे या…’’ उस ने जानबूझ कर अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

राजीव के दिल में एक कसक सी उठी. वह कराह उठा, ‘‘मेरे मन में कभी भी तुम्हें ठुकराने की बात नहीं आई, यह तो तुम्हारी जिद के आगे मैं मजबूर हो गया था, तभी…’’

‘‘तो क्या आप को मन का फैसला मंजूर है?’’

राजीव कुछ नहीं बोला, बस, भावपूर्ण आंखों से उस के मलिन चेहरे पर निगाह गड़ा दी. स्मिता समझ गई और धीरे से अपना सिर उस के कंधे पर रख दिया.

Love Story : मूव औन माई फुट – मिताली और विक्रम का क्या रिश्ता था ?

Love Story : ‘‘तुम यकीन नहीं करोगी पर कुछ दिनों से मैं तुम्हें बेइंतहा याद कर रहा था,’’ विक्रम बोला.

‘‘अच्छा,’’ मिताली बोली.

‘‘तुम अचानक कैसे आ गईं?’’

‘‘किसी काम से दिल्ली आई थी और इसी तरफ किसी से मिलना भी था. मगर वह काम हुआ नहीं. फिर सोचा इतनी दूर आई हूं तो तुम से ही मिलती चलूं. तुम्हारे औफिस आए जमाने हो चले थे.’’

‘‘औफिस के दरदीवार तुम्हें बहुत मिस करते हैं?’’ विक्रम फिल्मी अंदाज में बोला.

वह बहुत जिंदादिल और प्रोफैशनल होने के साथसाथ बेहद कामयाब इंसान भी था.

‘‘यार प्लीज, तुम अब फिर से यह फ्लर्टिंग न शुरू करो,’’ मिताली हंसती हुई बोली.

‘‘क्या यार, तुम खूबसूरत लड़कियों की यही परेशानी है कि कोई प्यार भी जताए तो तुम्हें फ्लर्टिंग लगती है.’’

‘‘सच कह रहे हो… तुम क्या जानो खूबसूरत होने का दर्द.’’

‘‘उफ, अब तुम अपने ग्रेट फिलौसफर मोड में मत चली जाना,’’ विक्रम दिल पर हाथ रख फिल्मी अंदाज में बोला.

‘‘ओ ड्रामेबाज बस करो… तुम जरा भी नहीं बदले,’’ वह खिलखिलाती हुई बोली.

‘‘मैं तुम सा नहीं जो वक्त के साथ बदल जाऊं.’’

‘‘अरे इतने सालों बाद आई हूं कुछ खानेपीने को तो पूछ नालायक,’’ उस ने बातचीत को हलका ही रहने दिया और विक्रम का ताना इग्नोर कर दिया.

‘‘ओह आई एम सौरी. तुम्हें देख कर सब भूल गया. चाय लोगी न?’’

‘‘तुम्हारा वही पुराना मुंडू है क्या? वह तो बहुत बुरी चाय बनाता है,’’ उस ने हंसते हुए पूछा.

‘‘हां वही है. पर तुम्हारे लिए चाय मैं बना कर लाता हूं.’’

‘‘अरे पागल हो क्या… तुम्हारा स्टाफ क्या सोचेगा. तुम बैठो यहीं.’’

‘‘अरे रुको यार तुम फालतू की दादागीरी मत करो. अभी आया बस 5 मिनट में. औफिस किचन में बना कर छोड़ आऊंगा. सर्व वही करेगा,’’ कह वह बाहर निकल गया.

मिताली भी उठ कर औफिस की खिड़की पर जा खड़ी हुई. कभी इसी बिल्डिंग में उस का औफिस भी था और वह भी सेम फ्लोर पर. वह और विक्रम 11 बजे की चाय और लंच साथ ही लेते थे. शाम को एक ही वक्त औफिस से निकलते थे. हालांकि अलगअलग कार में अपने घर जाते थे पर पार्किंग में कुछ देर बातें करने के बाद.

पूरी बिल्डिंग से ले कर आसपास के औफिस एरिया तक में सब को यही लगता था कि उन का अफेयर है. पर…

‘‘तुम फिर अपनी फैवरिट जगह खड़ी हो गई?’’

‘‘बन गई चाय?’’

‘‘और क्या? मैडम आप ने हमारे प्यार की कद्र नहीं की… हम बहुत बढि़या हसबैंड मैटीरियल हैं.’’

‘‘स्वाहा,’’ कह मिताली जोर से हंस पड़ी.

‘‘स्वाहा… सिरमिट्टी सब करा लो पर अब तो हां कर दो.’’

तभी औफिस बौय चाय रख गया.

‘‘अब किस बात की हां करनी है?’’

‘‘मुझ से शादी की.’’

चाय का कप छूटतेछूटते बचा मिताली के हाथ से. बोली, ‘‘पागल हो क्या?’’

‘‘दीवाना हूं.’’

‘‘मेरा बेटा है 3 साल का… भूल गए हो तो याद दिला दूं.’’

‘‘सब याद है. मुझे कोई प्रौब्लम नहीं. उस के बिना नहीं रहना तुम्हें. साथ ले आओ.’’

‘‘अच्छा, बहुत खूब. क्या औफर है. और तुम्हें यह क्यों लगता है कि मैं इस औफर को ऐक्सैप्ट कर लूंगी?’’

‘‘शादी के बाद आज मिली हो इतने सालों बाद पर साफ दिख रहा है तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो. तुम्हारी आंखें आज भी पढ़ लेता हूं मैं.’’

‘‘तो?’’

‘‘मतलब तुम मानती हो तुम अब भी मुझ से ही प्यार करती हो.’’

‘‘नहीं. मैं यह मानती हूं कि मैं तुम से भी प्यार करती हूं.’’

‘‘वाह,’’ विक्रम तलख हो उठा.

‘‘प्यार भी 2-4 से एकसाथ किया जा सकता है, यह मुझे मालूम न था.’’

‘‘ये सब क्या है यार… इतने समय बाद आई हूं और तुम यह झगड़ा ले बैठे.’’

विक्रम जैसे नींद से जागा, ‘‘सौरी, मुझे तुम्हें दुखी नहीं करना चाहिए है न? यह राइट तो तुम्हारे पास है.’’

‘‘विक्रम तुम्हें अच्छी तरह पता है मैं आदित्य से प्यार करती हूं. वह बेहद अच्छा और सुलझा हुआ इंसान है. उसे हर्ट करने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकती. तुम्हारी इन्हीं बातों की वजह से मैं ने तुम्हारा फोन उठाना बंद कर दिया. और अब लग रहा है आ कर भी गलती की.’’

विक्रम बेहद गंभीर हो गया. सीट से उठ कर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ. फिर मुड़ कर पास की अलमारी खोली. अलमारी के अंदर ही अच्छाखासा बार बना रखा था.

मिताली बुरी तरह चौंकी, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘क्यों, दिख नहीं रहा? शराब है और क्या.’’

‘‘यह कब से शुरू की?’’

‘‘डेट नोट नहीं की वरना बता देता.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रही.’’

‘‘मैं भी मजाक नहीं कर रहा.’’

‘‘अच्छा, तो यह नुमाइश मुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने के लिए कर रहे हो कि देखो तुम्हारे गम में मेरी क्या हालत है.’’

‘‘तुम हुईं?’’

‘‘नहीं रत्तीभर भी नहीं,’’ मिताली मुंह फेर कर बोली.

‘‘मुझे पता है तुम स्ट्रौंग हैड लड़की हो… यह तुम्हें मेरे करीब नहीं ला सकता, बल्कि तुम इरिटेट हो कर और दूर जरूर हो सकती हो. वैसे इस से दूर और क्या जाओगी,’’ कह तंज भरी हंसी हंसा.

‘‘मैं ने तो सुना था तुम्हारी सगाई हो गई है. मैं तो मुबारकबाद देने आई थी.’’

‘‘वाह, क्या खूब. तो नमक लगाने आई हो या अपना गिल्ट कम करने?’’

‘‘मैं ने सचमुच आ कर गलती की.’’

‘‘मैं तो पहले ही कह रहा हूं तुम और इरिटेट हो जाओगी.’’

‘‘ठीक है तो फिर चलती हूं?’’

‘‘जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

मिताली उठ खड़ी हुई.

विक्रम बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘सुनो…’’

‘‘कुछ रह गया कहने को अभी?’’

‘‘मुझे ही क्यों छोड़ा?’’

‘‘तुम ज्यादा मजबूत थे.’’

‘‘तो यह मजबूत होने की सजा थी?’’

‘‘पता नहीं, पर आदित्य बहुत इमोशनल है और उसे बचपन से हार्ट प्रौब्लम भी है और यह मैं पहले ही बता चुकी हूं.’’

‘‘तुम्हें ये सब पहले नहीं याद रहा था?’’

‘‘विक्रम क्यों ह्यूमिलिएट कर रहे हो यार… जाने दो न अब.’’

‘‘नहीं मीता… बता कर जाओ आज.’’

‘‘विक्रम मैं इस शहर में पढ़ने आई थी. फिर अच्छी जौब मिल गई तो और रुक गई.’’

‘‘आदित्य और मैं बचपन के साथी थे. उस का प्यार मुझे हमेशा बचपना या मजाक लगा. सोचा नहीं वह सीरियस होगा इतना. फिर तुम्हारे पास थी यहां इस शहर में बिलकुल अकेली तो तुम से बहुत गहरा लगाव हो गया. पर मैं ने शादी जैसा तो कभी न सोचा था न चाहा. न कभी कोई ऐसी बात ही कही थी तुम से. कोई हद कभी पार नहीं की.’’

‘‘अरे कहना क्या होता है?’’ वह लगभग चीख पड़ा, ‘‘सब को यही लगता था हम प्यार में हैं. सब को दिखता था… तुम ने ही जानबूझ कर सब अनदेखा किया और जब उस आदित्य का रिश्ता आया तो मुझे पलभर में भुला दिया. बस एक कार्ड भेज दिया?’’ सालों का लावा फूट पड़ा था.

मिताली चुप खड़ी रही.

‘‘बोलो कुछ?’’ वह फिर चिल्लाया.

‘‘क्या बोलना है अब. मुझे इतना पता है जब आदित्य ने प्रोपोज किया, तो मैं उसे न कर के हर्ट नहीं कर पाई. मेरे और उस के दोनों परिवार भी वहीं थे. पापा को क्या बोलूं कुछ समझ न आया और सब से बड़ी बात आदित्य मुझे ले कर ऐसे आश्वस्त था जैसे मैं बरसों से उसी की हूं. उसे 15 सालों से जानती थी और तुम्हें बस सालभर से. श्योर भी नहीं थी तुम्हें ले कर. तुम्हारे लिए मुझे लगता था तुम खुशमिजाज मजबूत लड़के हो, जल्दी मूव औन कर जाओगे.’’

‘‘मूव औन,’’ विक्रम बहुत ही हैरानी से चीखा, ‘‘मूव औन माई फुट. ब्लडी हैल… साला जिंदगीभर यह सालेगा. इस से तो लड़कियों की तरह दहाड़ें मार कर तुम्हारे आगे रो लिया होता. कम से कम तुम छोड़ के तो न जातीं.’’

‘‘ओ हैलो… कहां खोए हो?’’

विक्रम सोच के समंदर से बाहर आया. मिताली तो कब की जा चुकी थी और वह खुद ही सवालजवाब कर रहा था.

‘‘तुम गई नहीं?’’

‘‘पर्स छूट गया था उसे लेने आई हूं.’’

‘‘बस पर्स?’’

‘‘हां बस पर्स,’’ वह ठहरे लहजे में बोली, ‘‘बाय, अपना खयाल रखना,’’ कह कर

बाहर निकल गई.

लिफ्ट बंद होने के साथ ही उस की आंखें छलक उठीं, ‘‘छूट तो बहुत कुछ गया यहां विक्रम. पर सबकुछ समेटने जितनी मेरी मुट्ठी नहीं. कुछ समेटने के लिए कुछ छोड़ना बेहद जरूरी है.’’

‘‘सर, आप मैडम को बहुत प्यार करते थे न?’’ टेबल से चाय के कप उठाते हुए उस के मुंडू ने पूछा. आखिर वही था जो तब से अब तक नहीं बदला था.

‘‘प्यार तो नहीं पता रे, पर साला आज तक यह बरदाश्त न हुआ कि मुझ पर इतनी लड़कियां मरती थीं… फिर यह ऐसे कैसे छोड़ गई मुझे…’’ कह उस ने गहरी सांस ली.

Best Hindi Story : नो प्रौब्लम – राघव रितिका से शादी क्यों नहीं करना चाहता था

Best Hindi Story : ‘‘प्लीज राघव, मैं अब सोने जा रही हूं. बाहर काफी ठंड है. बाद में बात करते हैं,’’ रितिका ने राघव को समझाया.

सचमुच रितिका को ठंड लग गई थी. पूरा दिन औफिस में खटने के बाद कमरे में मोबाइल पर बात करना तक संभव नहीं था. कारण, वह पीजी में रहती थी. एक कमरा 3 युवतियां शेयर करती थीं. वह तो पीजी की मालकिन अच्छी थीं जो ज्यादा परेशान नहीं करती थीं वरना रितिका इस से पहले 3 पीजी बदल चुकी थी. राघव को उस की परेशानी का भान था पर फिर भी वह उसे बिलकुल नहीं समझता था.

रितिका ने राघव को कई बार दबे स्वर में विवाह के लिए कहना शुरू कर दिया था परंतु वह बड़ी सफाई से बात घुमा देता था. रितिका डेढ़ साल पहले करनाल से दिल्ली नौकरी करने आई थी. रहने के लिए रितिका ने एक पीजी फाइनल किया. जहां उस की रूममेट रिंपी थी जो पंजाब से थी. कमरा भी ठीक था. नई नौकरी में रितिका ने खूब मेहनत की.

रितिका तो दिन भर औफिस में रहती थी, पर रिंपी के पास कोई काम नहीं था. सो वह दिन भर पीजी में ही रहती थी. कभीकभी बाहर जाती तो देर रात ही वापस आती. ऐसे में रितिका चुपके से उस के लिए दरवाजा खोल देती. धीरेधीरे दोनों की दोस्ती गहरी होती जा रही थी. अब रिंपी ने अपने दोस्तों से रितिका को भी मिलवाना शुरू कर दिया था. राघव से भी रिंपी के जरिए ही मुलाकात हुई. तीनों शौपिंग करते, लेटनाइट डिनर और डिस्क में जाते.

पीजी मालकिन ने अचानक दोनों युवतियों को लेटनाइट आते देख लिया. उस ने कुछ कहा तो रितिका ने पीजी मालकिन से झगड़ा कर दिया. उस दिन उस ने शराब पी रखी थी. फिर क्या था, रितिका को पीजी छोड़ना पड़ा. उस के बाद रितिका ने 2 पीजी और बदले. रिंपी भी पंजाब वापस चली गई थी. उस के मातापिता ने उस का रिश्ता पक्का कर दिया था. आज शाम को रितिका को राघव के साथ बाहर जाना था. राघव ने फोन पर कई बार उस से कहा था कि अपनी फ्रैंड्स को भी साथ में लाए.

फ्री की शराब और डिनर के लिए शाइना तैयार हो गई. शाइना को देख कर राघव बहुत खुश हुआ. बेहद खूबसूरत शाइना को देख कर राघव रितिका को बिलकुल भूल ही गया. कार का दरवाजा भी शाइना के लिए राघव ने ही खोला. डिनर और शराब भी शाइना की पसंद की ही मंगवाई गई, लेकिन इस से रितिका को अपना तिरस्कार लगा और रितिका की आंखों में आंसू आ गए.

पीजी आ कर रितिका पूरी रात रोती रही. अगले दिन इतवार था. राघव ने रितिका को एक फोन भी नहीं किया. तभी रात को शाइना रितिका के पास आ कर कहने लगी, ‘‘प्लीज रितिका, तुम अपने बौयफ्रैंड को समझा लो. देखो, कितनी मिस्ड कौल पड़ी हैं. मैं अपनी लाइफ में तुम्हारे स्टुपिड राघव की वजह से कोई प्रौब्लम नहीं चाहती. मेरा बंदा वैसे ही बहुत पजैसिव है मेरे लिए.’’

रितिका को बहुत बुरा लग रहा था. उस ने शाइना को सुझाव दिया कि वह राघव को ब्लौक कर दे. अब राघव ने रितिका को फोन किया. पहले तो उस ने फोन नहीं उठाया, फिर राघव का मैसेज पढ़ा, ‘‘डार्लिंग, तैयार हो जाओ. मैं तुम्हें अपने मम्मीपापा से मिलवाना चाहता हूं.’’

बस, रितिका तुरंत पिघल गई. उस ने पीजी में सभी लड़कियों को सुनासुना कर आगे का मैसेज पढ़ा. ‘‘मैं तुम्हें जैलेस यानी जलाना चाहता था. तुम्हें छोड़ कर मैं किसी लड़की की तरफ नजर भी नहीं डालता. आई लव यू सो मच.’’ रितिका ने गुलाबी रंग का सूट और हलकी ज्वैलरी पहनी. हलके मेकअप में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी. उसे देखते ही राघव बौखला गया, ‘‘यह क्या है. ये सब पहन कर चलोगी मेरे साथ. जाओ, चेंज कर के आओ.’’

‘‘पर तुम अपने पेरैंट्स से मिलवाने वाले थे न,’’ रितिका हैरानी से बोली.

‘‘ओह हां, मेरी मां मौडर्न हैं. आज अचानक मम्मीपापा किसी रिश्तेदार को देखने अस्पताल गए हैं,’’ राघव को गुस्सा आ रहा था. रितिका ने ड्रैस चेंज कर ली. राघव ने बहलाफुसला कर रितिका को समझा दिया था. फिर एक दिन रितिका के पापा ने उसे फोन कर के बताया कि उन्होंने रितिका के लिए लड़का पसंद कर लिया है. उस ने राघव को फौरन अपने मम्मीपापा से मिलवाने को कहा. राघव ने उसे फिर से फुसला कर चुप कराना चाहा, ‘‘मेरे मम्मीपापा यूरोप गए हैं. 2 महीने बाद ही लौटेंगे.’’ ‘‘ठीक है, तो मेरे पापा से मिल लो,’’ इस पर राघव बिना कोई जवाब दिए रितिका को कल मिलने की बात कह कर चला गया.

रितिका बेहद परेशान थी. राघव के साथ वह सारी हदें पार कर चुकी थी. पीजी में रहना तो उस की मजबूरी थी. राघव ने एक छोटे से फ्लैट का इंतजाम किया हुआ था. वहीं रितिका और राघव अपना समय बिताते थे. उस ने रिंपी को फोन किया. राघव के बरताव के बारे में सबकुछ बताया.

रिंपी भी दोस्त न हो कर ऐसे बात कर रही थी मानो अजनबी हो, ‘‘देखो रितिका, मुझे नहीं पता तुम क्या कह रही हो. राघव तो शादीशुदा है. वह तुम से कैसे शादी कर सकता है.’’ ‘‘तुम ने मुझे ऐसे लड़के के साथ क्यों फंसाया,’’ रितिका ने रोना शुरू कर दिया था. ‘‘उस के पैसे से तुम घूमीफिरी, ऐश किया और इलजाम मुझ पर. मुझे आगे से फोन मत करना,’’ रिंपी ने टका सा जवाब दे कर फोन काट दिया, ‘‘और हां, पापा की मरजी से शादी कर लो. अरेंज मैरिज सब से अच्छी होती है. पापा भी खुश और तुम भी खुश. नो प्रौब्लम एट औल.’’

रितिका भी दोचार दिन रोनेधोने के बाद संभल गई. फोन कर के मम्मीपापा को पूछने लगी कि घर कब आना है. इस जमाने में दिल्ली जैसे महानगर में भी पापा की मरजी से शादी करने वाली लड़की पा कर मातापिता निहाल हो गए थे. रितिका ने भी अपनी प्रौब्लम सुलझा ली थी.

Hindi Story : एक चुप, हजार सुख – सुधीर भैया हमेशा लड़ाई क्यों करते थे

Hindi Story : कुछ लोगों की टांगें जरूरत से ज्यादा लंबी होती हैं, इतनी कि वे खुद ही जा कर दूसरों के मामले में अड़ जाती हैं. ऐसे ही अप्राकृतिक टांगों वाले व्यक्ति हैं मेरे बड़े भाई सुधीर भैया. वैसे तो लड़ने या लड़ाई के बीच में पड़ने का उन्हें कोई शौक नहीं है पर किसी दलितशोषित, जबान रहते भी खामोश, मजबूर व्यक्ति पर कुछ अनुचित होते देख कर उन का क्षत्रिय खून उबाल मारने लगता है. फिर वे उस बेचारे के उद्धार में लग जाते हैं. उन के साथ ऐसा बचपन से है. जाहिर है कि स्कूल और महल्ले में वे अपने इस गुण के कारण नेताजी के नाम से प्रसिद्ध रहे हैं.

भैया उम्र में मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. हम दोनों बचपन से बहुत करीब रहे हैं और एक ही स्कूल में होने के कारण हम दोनों को एकदूसरे के पलपल की खबर रहती थी. कब कौन क्लास से बाहर निकाला गया, किस लड़के ने मुझे कब छेड़ा या किस शिक्षक को देखते ही भैया के पांव कांपने लगते थे आदिआदि. जाहिर है कि भैया की अड़ंगेबाजी की नित नई कहानियां मुझे फौरन मिल जाती थीं.

चौथी कक्षा की बात है. भैया को जानकारी मिली कि उन की क्लास के एक शांत सहपाठी का बड़ी क्लास के कुछ उद्दंड छात्रों ने जीना मुश्किल कर रखा था. फिर क्या था, पूरी तफ्तीश करने के बाद लंच के दौरान बाकायदा उन बड़े लड़कों को रास्ते में रोक कर, लंबाचौड़ा भाषण दे कर और बात न मानने की स्थिति में शारीरिक नुकसान पहुंचाने की धमकी दे कर दुरुस्त किया गया.

भैया अपने समाजसेवी कार्य अपने दोस्तों से छिपा कर करते थे. उन्होंने किस बल पर अकेले ही उन लड़कों से लोहा लेने की ठानी, यह मेरे लिए आज भी रहस्य है. उन लड़कों ने भैया के सहपाठी को बिलकुल ही छोड़ दिया, पर उस दिन के बाद से अकसर ही कभी भैया की साइकिल पंक्चर मिलती या होमवर्क कौपी स्याही से रंगी मिलती या कभी बैग में से मेढक निकलते. भैया का उन लड़कों से पीछा तभी छूटा जब हम दोनों का स्कूल बदला.

इस के बाद घटनाएं तो कई हुईं किंतु सब से नाटकीय प्रकरण तब हुआ जब भैया कक्षा 9 में थे. वे गली के मुहाने पर खड़े अपने किसी दोस्त से बतिया रहे थे. सामने सड़क पर इक्कादुक्का गाडि़यां निकल रही थीं. लैंपपोस्ट की रोशनी बहुत अधिक न हो कर भी पर्याप्त थी. एक बूढ़ी दादी डंडे के सहारे मंथर गति से सड़क पार करने लगीं. एक मारुति कार गलती से एफ वन ट्रैक से भटक कर फैजाबाद रोड पर आ गई थी.

दादीजी की गति तो ऐसी थी कि बैलगाड़ी भी उन को टक्कर मार सकती थी. उस कारचालक ने बड़े जोर का ब्रेक लगाया और दादीजी बालबाल बच गईं. वह रुकी हुई कार रुकी ही रही. भैया और उन के मित्र के एकदम सामने ही बीच सड़क पर खड़ी उस कार की अगली सीट की खिड़की का शीशा नीचे गिरा और तीखे स्त्रीकंठ में ‘बुढि़या’ के बाद कुछ अपशब्दों की बौछार बाहर आई. भाईसाहब को बुरा लगना लाजिमी था, टांग अड़ाने का कीड़ा जो था.

‘‘मैडम, वे बहुत बूढ़ी हैं. जाने दीजिए, कोई बात नहीं. वैसे आप लोग भी काफी तेज आ रहे थे.’’ भैया के ये मधुरवचन सुनते ही वह महिला, गोद में बैठे 3-4 साल के बच्चे को अपनी सीट पर पटक, ‘‘तुझे तो मैं अभी बताती हूं,’’ कहते हुए, क्रोध से फुंफकारती हुई भैया की तरफ बड़े आवेश में लपकी. और फिर जो हुआ वह बड़ा अनापेक्षित था. एक जोरदार हाथ भैया के ऊपर आया जिसे उन के कमाल के रिफ्लैक्स ने यदि समय पर रोक न लिया होता तो उन की कृशकाया पीछे बहती महल्ले की नाली में से निकालनी पड़ती और पुलिस को आराम से उन के गाल से अपराधी की उंगलियों के निशान मिल जाते.

बचतेबचते भी उक्त महिला की मैनिक्योर्ड उंगली का नाखून भैया के गाल को छू ही गया. यदि गांधीजी की उस महिला से कभी भेंट हुई होती तो दूसरा गाल आगे कर लेनेदेने की बात के आगे यह क्लौज अवश्य लगा देते कि अतिरिक्त खतरनाक व्यक्ति से सामना होने पर पहले थप्पड़ के बाद उलटेपांव भाग खड़ा होना श्रेयस्कर रहेगा.

असफल हमले की खिसियाहट और छोटीमोटी भीड़ के इकट्ठा हो जाने से वह दंभी महिला क्रोध से कांपती, भैया को अपशब्दों के साथ, ‘‘देख लूंगी’’ की धमकी देते हुए कार में बैठ कर चली गई. उधर, हमारी प्यारी बूढ़ी दादी इस सब कांड से बेखबर अपनी पूर्व धीमी गति से चलते हुए कब गायब हो गईं, किसी को पता भी नहीं चला.

उस दिन भैया और मेरी लड़ाई हुई थी और बोलचाल बंद थी. इस घटना के बाद भैया सीधे मेरे पास आए और पूरी बात बताई. वे घबराए हुए थे. 15 वर्ष की संवेदनशील उम्र में दर्शकगण के सम्मुख अपरिचित से थप्पड़, चेहरे पर भले न लगा हो, अहं पर खूब छपा था. पर क्या भैया सुधरने वालों में से थे.

भैया इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में थे. घर से दूर जाने का प्रथम अनुभव, उस पर कालेज की नईनई हवा. उन की क्लास में हमारे ही शहर का एक अतिसरल छात्र था जिस पर कालेज के कुछ अतिविशिष्ट, अतिसीनियर और अतिउद्दंड लड़कों की एक टोली ने अपना निशाना साध लिया था. बेचारा दिनरात उन के असाइनमैंट पूरे करता रहता था. छुट्टी वाले दिन उन के कपड़े धोने से ले कर खाना बनाने का काम करता था. यह अगर कम था तो उस गरीब को टोली के ऊबे होने की स्थिति में अपनी नृत्यकला और संगीतकला से मनोरंजन भी करना पड़ता था.

दूरदूर तक किसी में भी उन सीनियर लड़कों को रोक सकने या डिपार्टमैंट हैड तक यह बात पहुंचा सकने की हिम्मत नहीं थी. स्थिति अजीब तो थी पर अकेले व्यक्ति के संभाले जा सकने वाली भी न थी. जान कर अपना सिर कौन शेर के मुंह में देता है? यह प्रश्न भले ही अलंकारिक है पर इस का उत्तर है ‘मेरे बड़े भैया.’ परिणाम निश्चित था. मिला भी. गनीमत यह थी कि इस कांड के तुरंत बाद ही दशहरे की छुट्टियां पड़ गईं.

किंतु भैया अब भी समझ गए होते तो यह कहानी आगे क्यों बढ़ती. जख्मों से वीभत्स बना चेहरा और प्लास्टर लगा पैर ले कर भैया, हमारे चचेरे बड़े भाईबहन, प्रियंका दीदी और आलोक भैया के साथ दिल्ली के अतिव्यस्त रेलवे स्टेशन पर लखनऊ की ट्रेन का इंतजार कर रहे थे. दीदी भैया की नासमझी (छोटी हूं इसलिए ‘मूर्खता’ कहने की धृष्टता नहीं कर सकती) से इतनी नाराज थीं कि उन से बात ही नहीं कर रही थीं. आलोक भैया भाईसाहब से पहले ही लंबीचौड़ी गुफ्तगू कर चुके थे.

स्टेशन पर इन तीनों के पास ही कुछ लड़कियों का समूह विराजमान था. वे सभी अपनी यूनिवर्सिटी की पेटभर बुराई करते हुए, स्टेशन से खरीदे अखबार व पौलिथीन में बंधे भोजन का लुत्फ उठा रही थीं. कहने की आवश्यकता नहीं कि भोज समापन पर कूड़े का क्या हुआ. मुझे रोड पर तिनका डालने के लिए भी डांटने वाले भैया का पारा चढ़ना स्वाभाविक था. अब आप सोचेंगे कि यहां कौन दलित या शोषित था. टौफी का छिलका हो या पिकनिक के बाद का थैलाभर कूड़ा, भैया या तो सबकुछ कूड़ेदान में डालते हैं या तब तक ढोते रहते हैं जब तक कोई कूड़ेदान न मिल जाए.

उन शिक्षित लड़कियों के कर्कट विसर्जन के समापन की देर थी कि भैया दनदनाते हुए (जितना प्लास्टर के साथ संभव था) गए, कूड़ा उठाया और लंगड़ाते हुए जा कर वहां रखे कूड़ेदान में डाल आए. वापस आ कर कोई वजनी बात कहना आवश्यक हो गया था. सो, उधर गए और बहुत आक्रामक मुद्रा में बोले, ‘‘बैठ कर यूनिवर्सिटी की बुराई करना आसान है पर अपनी बुराई देख पाना बहुत कठिन होता है.’’ इस डायलौग संचालन का उद्देश्य था उन युवतियों को ग्लानि से त्रस्त कर उन की बुद्धि जाग्रत करना पर हुआ इस का उलटा.

लड़कियों ने भैया की ओर ऐसे क्रोधाग्नि में जलते बाण लक्ष्य किए कि सब उन की ओर पीठ फेर कर बैठ गए भाईसाहब की कमीज में आग नहीं लगी, आश्चर्य है. उन में से एक के पिताजी, जो साथ ही थे, भैया के पास आए और ज्ञान देने की मुद्रा धारण कर बोले, ‘‘बेटा, प्यार से कहने से बात अधिक समझ आती है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने यही बात समझाई है.’’ इस के आगे भी काफी कुछ था जो भैया अवश्य सुनते यदि वे सज्जन अपनी पुत्री और उस की समबुद्धि सहेलियों को भी कुछ समझाते.

सारे प्रकरण का सिर्फ इतना हल निकला कि अगले डेढ़दो घंटे भैया को उस दल ती तीखी नजरों के अलावा बड़ी बहन का अच्छाखासा प्रवचन (जिस का सारांश कुल इतना था, ‘‘अभी भी बुद्धि में बात आई नहीं है? नेता बनना छोड़ दो.’’) और बड़े भाई के मुसकराते हुए श्रीमुख से निकले अनगिनत कटाक्ष बरदाश्त करने पड़े.

घर पहुंच कर दोनों घटनाओं के व्याख्यान के बाद, भाईसाहब की परिवार के प्रत्येक बड़े सदस्य से जम कर फटकार लगवाने और अच्छाखासा लैक्चर दिलवाने के बाद ही दीदी को शांति मिली. भैया मेरे कमरे में आए तो ग्लानि और क्रोध दोनों से ही त्रस्त थे. इस का एक ही परिणाम निकला, पूरी छुट्टियोंभर मेरे सब से अप्रिय विषय की किताब से जम कर प्रश्न हल करवाए गए और स्वयं को मिली डांट का शतांश प्रतिदिन मुझ पर निकाल कर ही भाईसाहब कुछ सामान्य हुए.

ऐसे अनेकानेक प्रकरण हैं जहां मेरे भोलेभाले भैया ने गलत को सही दिशा देने हेतु या किसी मजबूर के हिस्से की आवाज उठाते हुए, कभी रौद्र रूप अपनाया है या कभी आवाज बुलंद की है. घर, कालेज, सड़क, मंदिर, बाजार कहीं भी जहां भाईसाहब को लगा है कि यह गलत है, वहां कभी कह कर, कभी झगड़ कर, कभी डांट कर या लड़भिड़ कर उन्होंने स्थिति सुधारने की बड़ी ईमानदारी से कोशिश है, किंतु हर बार बूमरैंग की भांति उन का सारा आवेश घूम कर आ उन्हें ही चित कर गया है.

नौकरी में आ कर, कई सारे कड़वे अनुभवों के बाद आखिरकार भैया के ज्ञानचक्षु खुले. उन्हें 3 बातों का ज्ञान हुआ. पहली, चुप रहना या बरदाश्त करते रहना हमेशा सीधेसरल या कमजोर व्यक्तियों की मजबूरी नहीं होती बल्कि अकसर ही घाघ, घुन्ने और कांइयां व्यक्तियों का गुण भी होता है. दूसरी, लोगों की जिह्वा और कान दोनों को ही मीठे का चस्का होता है. तीसरी और आखिरी, बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला साहब की रेड़ पिटनी तो पहले से ही निश्चित होती है.

मेरे भैया, यह आत्मज्ञान पा जाने के बाद से बहुत ही अधिक शांत हो गए हैं. सदा ही पांव समेट कर चलते हैं. पर मैं, जो उन्हें अच्छी तरह से जानती हूं, यह समझती हूं कि उन के लिए यह कितना भारी काम है. खैर, भैया शांत भले ही हो गए हों लेकिन स्कूल और कालेज के सभी दोस्तों के बीच उन का नाम अभी भी ‘नेताजी’ ही चलता है.

Romantic Story : दूसरा विवाह – विकास शादी क्यों नहीं करना चाहता था?

Romantic Story : अपने दूसरे विवाह के बाद, विकास पहली बार जब मेरे घर आया तो मैं उसे देखती रह गई थी. उस का व्यक्तित्व ही बदल गया था. उस के गालों के गड्ढे भर गए थे. आंखों पर मोटा चश्मा, जो किसी चश्मे वाले मास्टरजी के कार्टून वाले चेहरे पर लगा होता है वैसे ही उस की नाक पर टिका रहता था लेकिन अब वही चश्मा व्यवस्थित तरीके से लगा होने के कारण उस के चेहरे की शोभा बढ़ा रहा था. कपड़ों की तरफ भी जो उस का लापरवाही भरा दृष्टिकोण रहता था उस में भी बहुत परिवर्तन दिखा. पहले के विपरीत उस ने कपड़े और सलीके से पहने हुए थे. लग रहा था जैसे किसी के सधे हाथों ने उस के पूरे व्यक्तित्व को ही संवार दिया हो. उस के चेहरे से खुशी छलकी पड़ रही थी.

मैं उसे देखते ही अपने पास बैठाते हुए खुशी से बोली, ‘‘वाह, विकास, तुम तो बिलकुल बदल गए. बड़ा अच्छा लग रहा है तुम्हें देख कर. शादी कर के तुम ने बहुत अच्छा किया. तुम्हारा घर बस गया. आखिर कितने दिन तुम ममता का इंतजार करते. अच्छा हुआ तुम्हें उस से छुटकारा मिल गया.’’

उस के लिए चाय बनातेबनाते, मैं मन ही मन सोचने लगी कि इस लड़के ने कितना झेला है. पूरे 8 साल अपनी पहली पत्नी ममता का मायके से लौटने का इंतजार करता रहा. लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रही कि वह नहीं आएगी. विकास को ही अपना परिवार, जिस में उस की मां और एक कुंआरी बहन थी, को छोड़ कर उस के साथ रहना होगा.

विकास के छोटे से घर में उन सब के साथ रहना उस को अच्छा नहीं लगता था. ममता की अपनी मां का घर बहुत बड़ा था. विकास ने उसे बहुत समझाया कि बहन का विवाह करने के बाद वह बड़ा घर ले लेगा. लेकिन ममता को अपने सुख के सामने कुछ भी दिखाई ही नहीं पड़ता था. उस के मायके वालों ने भी उसे कभी समझाने की कोशिश नहीं की. विकास ने ममता की अनुचित मांग को मानने से साफ इनकार कर दिया. लेकिन ससुराल में जा कर ममता को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अंत में वही हुआ, दोनों का तलाक हो गया. उन 8 सालों में हम ने विकास को तिलतिल मरते देखा था. वह मेरे बेटे रवि का सहकर्मी था. अकसर वह हमारे घर आ जाता था. मैं ने उस को कई बार समझाया कि वह अब पत्नी ममता का इंतजार न करे और तलाक ले ले. लेकिन वह कहता कि वह ममता को तलाक नहीं देगा, ममता को पहल करनी है तो करे. ममता को जब यह विश्वास हो गया कि विकास उस की शर्त कदापि पूरी नहीं करेगा तो उस ने विकास से अलग होने का फैसला ले लिया.

चाय पीते हुए मैं ने विकास से उस की नई पत्नी के बारे में पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आंटी, मैं तो शादी करना ही नहीं चाहता था, लेकिन मां और बहन की जिद के आगे मुझे झुकना पड़ा. आप को पता है कि उमा जिस से मैं ने शादी की है, वह एक स्कूल में टीचर है. उस के 2 बच्चे, एक लड़का और एक लड़की हैं. लड़का 12 साल का और लड़की 16 साल की है. उमा भी शादी नहीं करना चाहती थी. उमा के मांबाप तो उसे समझा कर थक गए थे, लेकिन अपने बच्चों की जिद के आगे उस ने शादी करना स्वीकार किया. जब उन बच्चों ने मुझे अपने पापा के रूप में पसंद किया, तभी हमारा विवाह हुआ. ‘‘मेरी होने वाली बेटी ने विवाह से पहले, मुझ से कई सवाल किए, पहला कि मैं उस के पहले पापा की तरह उन से मारपीट तो नहीं करूंगा. दूसरा, मुझे शराब पीने की आदत तो नहीं है? जब उसे तसल्ली हो गई तब उस ने मुझे पापा के रूप में स्वीकार करने की घोषणा की. मैं ने भी उन को बताया कि मेरे ऊपर जिम्मेदारी है, मैं उन को उतनी सुखसुविधाएं तो नहीं दे पाऊंगा, जो वर्तमान समय में उन्हें अपने नाना के घर में मिल रही हैं. मैं ने अभी बात भी पूरी नहीं की कि मेरी बेटी बोली कि उसे कुछ नहीं चाहिए, बस, पापा चाहिए. मुझे पलेपलाए बच्चे मिल गए और उन्हें पापा मिल गए.

‘‘मेरा तो कोई बच्चा है नहीं, अब इस उम्र में ऐसा सुख मिल जाए तो और क्या चाहिए. उमा भी यह सोच कर धन्य है कि उस को एक जीवनसाथी मिल गया और उस के बच्चों को पापा मिल गए. अब घर, घर लगता है. बच्चे जब मुझे पापा कहते हैं तो मेरा सीना गर्व से फूल जाता है. एक बार मेरी बेटी ने मेरे जन्मदिन पर एक नोट लिख कर मेरे तकिए के नीचे रख दिया. उस में लिखा था, ‘दुनिया के बैस्ट पापा’. उसे पढ़ कर मुझे लगा कि मेरा जीवन ही सार्थक हो गया है.’’

उस ने एक ही सांस में अपने मन के उद्गार मेरे सामने व्यक्त कर दिए. ऐसा करते हुए उस के चेहरे की चमक देखने लायक थी. बातबात में जब वह बड़े आत्मविश्वास के साथ ‘मेरी बेटी’ शब्द इस्तेमाल कर रहा था, उस समय मैं सोच रही थी कि कितनी खुश होगी वह लड़की, लोग तो अपनी पैदा की हुई बेटी को भी इतना प्यार नहीं करते. मैं ने कहा, ‘‘सच में, तुम ने एक औरत और उस के बच्चों को अपना नाम दे कर उन का जीवन खुशियों से भर दिया. एक तरह से उन का नया जन्म हो गया है. तुम ने इतना बड़ा काम किया है कि जिस की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है. तुम्हें घर बसाने वाली पत्नी के साथ पापा कहने वाले बच्चे भी मिल गए. मुझे तुम पर गर्व है. कभी परिवार सहित जरूर आना.’’ उस ने मोबाइल पर सब की फोटो दिखाई और दिखाते समय उस के चेहरे के हावभाव से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह कोई नैशनल लैवल का मैडल जीत कर आया है और दिखा रहा है.

‘‘चलता हूं, आंटीजी, बेटी को स्कूल से लेने जाना है. वह मेरा इंतजार कर रही होगी. अगली बार सब को ले कर आऊंगा…’’ और झुकते हुए मेरे पांव छू कर दरवाजे की ओर वह चल दिया. मैं उसे विदा कर के सोच में पड़ गई कि समय के साथ लोगों की सोच में कितना सकारात्मक परिवर्तन आ गया है. पहले परित्यक्ता और विधवा औरतों को कितनी हेय दृष्टि से देखा जाता था, जैसे उन्होंने ही कोई अपराध किया हो. पहली बात तो उन के पुनर्विवाह के लिए समाज आज्ञा ही नहीं देता था और किसी तरह हो भी जाता तो, विवाह के बाद भी ससुराल वाले उन को मन से स्वीकार नहीं करते थे. अच्छी बात यह है कि अब बच्चे ही अपनी मां को उन के जीवन के खालीपन को भरने के लिए उन्हें दूसरे विवाह के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जैसा कि विकास के साथ घटित हुआ है. यह सब देख कर मुझे बहुत सुखद अनुभूति हुई और आज की युवा पीढ़ी की सोच को मैं ने मन ही मन नमन करते हुए आत्मसंतुष्टि का अनुभव किया.

Religion : जरूरत है हिंदू वक्फ बोर्ड की भी

Religion : हिंदू मंदिरों के पास भी पैसा, सोनाचांदी और तमाम जमीने हैं. जिस का उपयोग या तो मंदिर का पुजारी कर रहा है या फिर मंदिर चलाने वाला ट्रस्ट कर रहा है. आखिर मुसलिम वक्फ बोर्ड की ही तरह हिंदू वक्फ बोर्ड क्यों न बने?

वक्फ एक व्यवस्था है. जिस का उद्देश्यों धार्मिक संस्थाओं को दान में मिली संपत्ति का प्रबंधन करना होता है. केंद्र की सरकार ने इस कानून में संशोधन पारित किया है. जिस के जरिए वह बता रही है कि यह कानून कितना अहम है. जिस तरह से वक्फ संपत्ति के प्रबंधन के लिए कानूनी ढांचे की आवश्यकता होती है. उसी तरह से हिंदू मंदिरों की संपत्तियों के प्रबंधन के लिए भी वक्फ कानून की जरूरत है.

हिंदू मंदिरों के पास भी पैसा, सोनाचांदी और तमाम जमीने हैं. जिस का उपयोग या तो मंदिर का पुजारी कर रहा है या फिर मंदिर को चलाने वाला ट्रस्ट कर रहा है. जिस से देश का हित नहीं हो रहा है. मुसलिम वक्फ की ही तरह से हिंदू मंदिरों के लिए भी वक्फ कानून बनना चाहिए.

इस वक्फ बिल का उद्देश्य हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों के लिए एक समान कानूनी ढांचे का निर्माण करना होगा. ताकि उन की संपत्तियों का प्रबंधन सही ढंग से किया जा सके और उन्हें धार्मिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सके. कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को धार्मिक उद्देश्यों के लिए दान करता है. इस संपत्ति का उपयोग धार्मिक संस्थाओं को चलाने, धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने, या धार्मिक संस्थाओं के लिए शिक्षा और कल्याण के कार्यों में किया जाता है.

भारत में वक्फ मुख्य रूप से मुसलिम धर्म से जुड़ा हुआ है. हिंदू धर्म में वक्फ जैसी प्रथा नहीं है. हिंदू वक्फ बिल का उद्देश्य हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों के लिए एक समान कानूनी ढांचे का निर्माण करना होगा. हिंदू वक्फ बिल हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करेगा. जिस से उन की संपत्ति सुरक्षित रहेगी. उन का प्रबंधन सही ढंग से किया जा सकेगा. हिंदू वक्फ बिल वक्फ ट्रस्टों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाने का काम करेगा. जिस से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि संपत्ति का उपयोग धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है. कोई भी अनियमितता नहीं हो रही है.

हिंदू वक्फ बिल हिंदू वक्फ ट्रस्टों के प्रशासन में सुधार लाने का काम करेगा. जिस से उन की कार्यप्रणाली अधिक कुशल और प्रभावी हो जाएगी. मंदिरों की संपत्ति का प्रयोग कल्याणकारी कार्यों जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और गरीब लोगों की मदद में किया जा सकेगा. अभी तक हिंदू मंदिरों की संपत्तियों के प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय संस्था नहीं है. अलगअलग तरह से मंदिरों की संपत्तियों का प्रबंधन किया जा रहा है.

मंदिरों की संपत्तियों पर किस का अधिकार

मंदिरों की संपत्ति में मंदिर का ही अधिकार होता हैं क्योंकि वह यह दान हैं जो भगवान को एक जीवित इंसान मान कर भक्तों द्वारा चढ़ाया जाता हैं. सर्वोच्च अदालत के रामलला केस के इस आदेश से ले सकते है. जिस में भारत में हिंदुओं के देवीदेवताओं को जूरिस्टिक पर्सन यानी लीगल व्यक्ति माना जाता है. इन को आम लोगों की तरह सभी कानूनी अधिकार होते हैं. मंदिरों में देवीदेवताओं को संपत्ति अर्जित करने, बेचने, खरीदने, ट्रांसफर करने और न्यायालय केस लड़ने समेत सभी कानूनी अधिकार होते हैं. मंदिर की संपत्ति पर लोगों की नजर रहती है.

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा एमपी लौ रेवेन्यू कोड 1959 के तहत जारी किए गए दो परिपत्रों को रद्द कर दिया. इन परिपत्रों में पुजारी के नाम राजस्व रिकौर्ड से हटाने का आदेश दिया गया था, ताकि मंदिर की संपत्तियों को पुजारियों द्वारा अनधिकृत बिक्री से बचाया जा सके.

उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि ‘पुजारी को मंदिर की जमीन का मालिक नहीं माना जा सकता है, मंदिर से जुड़ी जमीन के मालिक देवता ही हैं. पुजारी केवल मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन का काम कर सकता है. न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की एक पीठ ने कहा कि पुजारी केवल मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन के उद्देश्य से भूमि से जुड़े काम कर सकता है.

अदातल ने कहा ‘स्वामित्व’ वाले स्तंभ में केवल देवता का नाम ही लिखा जाए. देवता एक न्यायिक व्यक्ति होने के कारण भूमि का स्वामी होता है. भूमि पर देवता का ही कब्जा होता है. जिस के काम देवता की ओर से सेवक या प्रबंधकों द्वारा किए जाते हैं. इसलिए, प्रबंधक या पुजारी के नाम का जिक्र स्वामित्व स्तंभ में करने की आवश्यकता नहीं है.

पीठ ने कहा कि इस मामले में कानून स्पष्ट है कि पुजारी काश्तकार मौरुशी, खेती में काश्तकार या सरकारी पट्टेदार या मौफी भूमि राजस्व के भुगतान से छूट वाली भूमि का एक साधारण किराएदार नहीं है, बल्कि उसे औकाफ विभाग देवस्थान से संबंधित की ओर से ऐसी भूमि के केवल प्रबंधन के उद्देश्य से रख जाता है. पीठ ने कहा पुजारी केवल देवता की संपत्ति का प्रबंधन करने की एक गारंटी है और यदि पुजारी अपने कार्य करने में जैसे प्रार्थना करने तथा भूमि का प्रबंधन करने संबंधी काम में विफल रहे तो इसे बदला भी जा सकता है. इस प्रकार उन्हें भूमिस्वामी नहीं माना जा सकता.

हिंदू मंदिरों पर हो हिंदुओं का अधिकार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने देश में कुछ मंदिरों की स्थिति पर कहा कि मंदिरों की संस्थाओं के संचालन के अधिकार हिंदुओं को सौंपे जाने चाहिए और इन की संपत्ति का उपयोग केवल हिंदू समुदाय के कल्याणार्थ किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत के मंदिरों पर पूरी तरह राज्य सरकार का नियंत्रण है जब कि देश में कुछ हिस्सों में मंदिरों का प्रबंधन सरकार व कुछ अन्य का श्रद्धालुओं के हाथ में है.

भागवत ने सरकार द्वारा संचालित माता वैष्णो देवी मंदिर जैसे मंदिरों का उदाहरण देते हुए कहा कि इसे बहुत कुशलता से चलाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि इसी तरह महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के शेगांव में स्थित गजानन महाराज मंदिर, दिल्ली में झंडेवाला मंदिर, जो भक्तों द्वारा संचालित हैं, को भी बहुत कुशलता से चलाया जा रहा है.

भागवत ने कहा, ‘लेकिन उन मंदिरों में लूट है जहां उन का संचालन प्रभावी ढंग से नहीं हो रहा है. जहां ऐसी चीजें ठीक से काम नहीं कर रही हैं, वहां एक लूट मची हुई है. कुछ मंदिरों में शासन की कोई व्यवस्था नहीं है. मंदिरों की चल और अचल संपत्तियों के दुरुपयोग के उदाहरण सामने आए हैं.’

भागवत ने कहा ‘हिंदू मंदिरों की संपत्ति का उपयोग गैर हिंदुओं के लिए किया जाता है. जिन की हिंदू भगवानों में कोई आस्था नहीं है. हिंदुओं को भी इस की जरूरत है, लेकिन उन के लिए इस का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ मंदिरों के प्रबंधन को ले कर उच्चतम न्यायालय के कुछ आदेश हैं शीर्ष अदालत ने कहा कि ईश्वर के अलावा कोई भी मंदिर का स्वामी नहीं हो सकता. पुजारी केवल प्रबंधक है. इस ने यह भी कहा कि सरकार प्रबंधन उद्देश्यों से इस का नियंत्रण ले सकती है लेकिन कुछ समय के लिए. लेकिन उसे स्वामित्व लौटाना होगा. इसलिए इस पर उचित ढंग से निर्णय लिया जाना चाहिए.’

भागवत ने कहा ‘इस संबंध में भी फैसला लिया जाना चाहिए कि हिंदू समाज इन मंदिरों की देखरेख कैसे करेगा?’ भागवत ने कहा कि जाति और पंथ के बावजूद सभी भक्तों के लिए मंदिर में भगवान के दर्शन, उन की पूजा के लिए गैर भेदभावपूर्ण पहुंच और अवसर भी हर जगह अमल में नहीं लाए जाते, लेकिन इन्हें (गैर भेदभाव पूर्ण पहुंच और अवसर) सुनिश्चित किया जाना चाहिए.

भागवत ने कहा कि यह सभी के लिए स्पष्ट है कि मंदिरों की धार्मिक आचार संहिता के संबंध में कई निर्णय विद्वानों और आध्यात्मिक शिक्षकों के परामर्श के बिना ‘मनमौजी ढंग से’ किए जाते हैं.

यह साफ है कि मंदिरों के संचालन की कोई एक व्यवस्था नहीं है. ऐसे में कई तरह के विवाद है. इन विवादों को हल करने के लिए जरूरत है कि मंदिरों के लिए भी वक्फ बोर्ड बने. अदालतों में सालोंसाल ऐसे विवाद लटकते रहते हैं. मुसलिम वक्फ बोर्ड की ही तरह से हिंदू वक्फ कानून बने और इस का अलग ट्रिब्यूनल कोर्ट बने जहां ऐसे विवाद जल्दी से जल्दी हल हो जाए.

इस बोर्ड में भी शामिल होने वालों के लिए चुनाव हो. जो लोग इस बोर्ड में शामिल हो उन का समयसमय पर चुनाव हो. जिस तरह से गुरूद्वारा प्रबंधन कमेटी का होता है.

पूजा स्थलों के प्रबंधन को ले कर क्या है कानून?

अधिकांश हिंदू मंदिरों का प्रबंधन राज्य के नियमों के तहत किया जाता है. कई राज्यों ने ऐसे कानून बनाए हैं जो मंदिर प्रशासन पर सरकार को अधिकार प्रदान करते हैं. तमिलनाडु का हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग मंदिर प्रबंधन की देखरेख करता है जिस में वित्त और मंदिर प्रमुखों की नियुक्तियां शामिल हैं. आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा तिरुपति मंदिर के प्रबंधन हेतु उत्तरदायी, तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के प्रमुख की नियुक्ति की जाती है.

राज्य को मंदिरों में हस्तक्षेप की ताकत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25(2) से प्राप्त होती है. 2011 की गणना के अनुसार भारत में लगभग 30 लाख पूजा स्थलों में से अधिकांश हिंदू मंदिर हैं. मुसलिम और ईसाई पूजा स्थलों की देखरेख आमतौर पर समुदाय आधारित बोर्डों या ट्रस्टों द्वारा की जाती है, जो सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र हो कर कार्य करते हैं.

सिख, जैन और बौद्ध मंदिरों का प्रबंधन राज्य स्तर सामुदायिक भागीदारी की इन के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है. धार्मिक बंदोबस्त और संस्थाओं को संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में सूचीबद्ध किया गया है जिस से केंद्र और राज्य दोनों को इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार है.

जम्मू और कश्मीर ने श्री माता वैष्णो देवी श्राइन अधिनियम, 1988 के तहत व्यक्तिगत मंदिरों के लिए विशिष्ट कानून बनाए हैं, जो उन के प्रशासन एवं वित्तपोषण की रूपरेखा तैयार करते हैं. 1810 और 1817 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल, मद्रास और बौम्बे में कानून बनाए, जिस से आय के दुरुपयोग को रोकने के लिए मंदिर प्रशासन में हस्तक्षेप की अनुमति मिल गई.

धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863 के तहत ब्रिटिश सरकार के इस अधिनियम का उद्देश्य मंदिर के नियंत्रण को समितियों को हस्तांतरित कर के मंदिर प्रबंधन को धर्मनिरपेक्ष बनाना था लेकिन नागरिक प्रक्रिया संहिता और धर्मार्थ तथा धार्मिक ट्रस्ट अधिनियम 1920 जैसे विधिक ढांचों के माध्यम से सरकारी प्रभाव को बनाए रखा गया.

मद्रास हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1925 के तहत हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती बोर्ड की स्थापना की गई, जो एक वैधानिक निकाय था. इस के साथ ही प्रांतीय सरकारों को मंदिर के मामलों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया, जिस में आयुक्तों के एक बोर्ड को निरीक्षण की अनुमति दी गई. 1950 में भारतीय विधि आयोग ने मंदिर के धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून की सिफारिश की, जिस के परिणामस्वरूप तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1951 को बनाया गया.

इस में मंदिरों और उन की संपत्तियों के प्रशासन, सुरक्षा और संरक्षण के लिए हिंदू धार्मिक तथा धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के गठन का प्रावधान था. लगभग उसी समय धार्मिक संस्थाओं को विनियमित करने के लिए बिहार में बिहार हिंदू धार्मिक ट्रस्ट अधिनियम, 1950 पारित किया गया.

अनुच्छेद 25(1) लोगों को अपने धर्म का पालन, प्रचारप्रसार करने की स्वतंत्रता देता है जो लोक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के अधीन है. यह राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने और सामाजिक कल्याण, सुधार के साथ हिंदू धार्मिक संस्थानों को हिंदुओं के सभी वर्गों के लिये खोलने के लिए कानून बनाने की अनुमति देता है.

शिरूर मठ बनाम आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास मामला, 1954 के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि धार्मिक संस्थाओं को अनुच्छेद 26 के तहत स्वतंत्र रूप से अपने मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार है जबतक कि वे लोक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के विपरीत नहीं होते हैं. राज्य धार्मिक या धर्मार्थ संस्थाओं के प्रशासन को विनियमित कर सकता है. इस मामले से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा के क्रम में महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम हुई.

रतिलाल पानाचंद गांधी बनाम बौम्बे राज्य मामला, 1954 सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धार्मिक प्रथाएं भी धार्मिक आस्था या सिद्धांतों की तरह ही धर्म का हिस्सा हैं लेकिन यह संरक्षण केवल धर्म के आवश्यक एवं अभिन्न अंगों तक ही सीमित है.

पन्नालाल बंसीलाल पित्ती बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामला, 1996 सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर प्रबंधन पर वंशानुगत अधिकारों को समाप्त करने वाले कानून को बरकरार रखा. इस तर्क को खारिज कर दिया कि ऐसे कानून सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होने चाहिए.

1959 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना पहला प्रस्ताव पारित किया जिस में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग की गई. काशी विश्वनाथ मंदिर 1959 अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने उत्तर प्रदेश सरकार से काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन हिंदुओं को वापस करने का आग्रह किया. 2023 में मध्य प्रदेश सरकार ने मंदिरों पर राज्य की निगरानी में ढील देने के लिए कदम उठाए हैं. हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट एक्ट, 1991 में भी ऐसे मंदिर प्रशासन बोर्ड की स्थापना का प्रावधान है.

पूरे मसले को देखने के बाद यह साफ हो गया है कि हिंदू मंदिरों की देखरेख और संपत्ति प्रबंधन के अधिकार के लिए हिंदू वक्फ बोर्ड बनाना होगा तभी देश में फैले मंदिरों के अंदर फैली मनमानी को रोका जा सकता है.

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