दिन में 11 बजने वाला था. धीर सुबह की पैट्रोलिंग कर लौटा ही था. उसे अभी अपने कपड़े बदलने तक का अवसर नहीं मिला था और न हीं एक चाय ही नसीब हुई थी. वह केवल बाहर कुरसी निकाल कर उस पर बैठ ही पाया था कि तभी 2 ग्रामीण दौड़तेहांफते आए और जंगल में आग लगने की सूचना दी. सूचना पाते ही धीर ने फटाफट अपने चारों साथियों को सूचना दी और जंगल की ओर दौड़ लगा दी.

अप्रैल का महीना अपने अंत की ओर था. हलकीहलकी हवा चल रही थी. दौड़ते हुए धीर के दिमाग में कई विचार भी दौड़ लगा रहे थे कि आग बुझाने के उस के पास अच्छे संसाधन नहीं है, न ही पर्याप्त व्यक्ति. इसीलिए वह एक साथी को वहीं चौकी पर छोड़ आया था, जिस से कि वह उच्चाधिकारियों को इस बात की इतला दे सके, जिस से संभव है कि कुछ संसाधन आग बुझाने के उसे मुहैया हो सकें और दोनों ग्रामीणों से अनुनयविनय कर वह उन्हें भी अपनी सहायता के लिए साथ ले गया था.

अभी तो अपने साथियों के साथ धीर जंगल से लौटा था. तब कहीं पर आग नहीं लगी थी. फिर अचानक से यह आग कैसी लगी? जरूर किसी अराजक तत्त्व का इस में हाथ था जो उसे परेशान होते देखना चाहता था. ऐसा होने के कारण भी थे क्योंकि उस ने आसपास के दर्जनों वन अपराधियों की नाक में नकेल डाल रखी थी. उन सब की आंखों में धीर एक कांटे की तरह चुभ रहा था.

आज हलकी हवा चलते देख अराजक तत्त्वों ने धीर को सबक सिखाने की ही नियत से संभवतया यह करतूत की हो. आग ने कहीं विकराल रूप न धारण कर लिया हो. कैसे वह उसे बुझाएगा? आज उसे सस्पैंड होने से कोई बचा नहीं सकता. अचानक लगी आग निश्चित रूप से बड़ा नुकसान कर सकती है. उस पर कार्यवाही एक अलग बात है, पर न जाने कितने वन्यजीव आज इस आग की भेंट अकारण चढ़ जाएंगे, यह सब सोच कर वह परेशान था.

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