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Foreign Policy : असमंजस में विदेश नीति

Foreign Policy : दुनिया के सभी देशों की विदेश नीतियों में एकदम बदलाव आ रहा है. अमेरिका को डोनाल्ड ट्रंप ने मिट्टी का ढेर बना दिया है तो कुछ दूसरे देशों के ट्रंप जैसे नेताओं, जैसे व्लादिमीर पुतिन ने रूस को, बेंजामिन नेतन्याहू ने इजरायल को और तालिबानियों ने अफगानिस्तान को ऐसे आक्रामक पैंतरों में धकेल दिया है कि पुराने दोस्त अब दुश्मन लगने लगे हैं.

भारत का भी यही हाल है. हमारी घरेलू आक्रामक नीतियों के कारण पहले मालदीव, फिर श्रीलंका, फिर नेपाल और अब बंगलादेश पूरी तरह भारत के प्रभाव क्षेत्र से निकल चुके हैं. विदेश मंत्री ओवरटाइम लगा कर टूटी दोस्तियों पर बैंडएड लगा रहे हैं लेकिन कुछ हो नहीं पा रहा.

जिस बंगलादेश के निर्माण पर हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के खरबों रुपए खर्च किए थे, वह अब न केवल भारत की मित्र शेख हसीना की सरकार को देशनिकाला दे चुका है, बल्कि मार्च के अंतिम सप्ताह में उस के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद यूनुस भारत के दुश्मन चीन की राजधानी बीजिंग में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दरवाजे पर पहुंच कर अपनी निष्ठा जता आए हैं, नई दिल्ली ताकती रह गई है.

यूनुस ने चीनी कंपनियों को अपने बंगलादेश में निवेश करने का निमंत्रण दिया है और साथ ही, तीस्ता नदी पर बांध बनाने में सहायता करने का भी निमंत्रण दिया है. एक तरह से बंगलादेश व चीन दोस्ती पहले से चली आ रही पाकिस्तानचीन दोस्ती की तरह होती जा रही है.

उधर, नेपाल ने भी भारत सरकार पर आरोप लगाया है कि वह राजशाही को वापस लाने वालों को शह दे रही है. पिछले दिनों वामपंथी सरकार के खिलाफ पंडावादी लोगों ने सत्ता से निकाले जा चुके राजा ज्ञानेंद्र को वापस सत्ता सौंपने की मांग शुरू कर दी है. इस के लिए नेपाल की चुनी हुई सरकार भारत सरकार को दोष दे रही है.

दोस्तों को दुश्मन बनाना और भाइयों से युद्ध करना हमारी पौराणिक सोच में अंदर तक घुसा हुआ है. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में कहा जाता है कि हिंदूमुसलिमों ने कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष किया और उस से पहले और बाद में गोरे अंगरेजों से ज्यादा आम हिंदुओं के लिए विधर्मी ही दुश्मन रहे हैं.

अमेरिका, रूस, इजरायल और भारत जैसे देश सदियों से साथ रह रहे अपने ही नागरिकों को दुश्मन घोषित कर रहे हैं तो दुनिया का कौन सा देश उन पर भरोसा करेगा. भारत के विदेश व वित्त मंत्रालयों को मालूम नहीं कि एक तरफ डोनाल्ड ट्रंप से और दूसरी तरफ मोहम्मद यूनुस से कैसे निबटा जाए.

Hindi Kahani : छत – दीबा उस समय इतने प्रेम से क्यों आवाज दे रही थी ?

Hindi Kahani : ‘‘सुनते हो जी,’’ दीबा ने धीरे

से उस के हाथों को छूते

हुए पुकारा.

‘‘क्या है,’’ वह इस कदर थक चुका था कि उसे दीबा का उस समय इतने प्रेम से आवाज देना और स्पर्श करना भी बुरा लगा.

उस का मन चाह रहा था कि वह बस यों ही आंखें बंद किए पलंग पर लोटपोट करता रहे और अपने शरीर की थकान दूर करता रहे.

उस दिन स्थानीय रेलगाड़ी में कुछ अधिक ही भीड़ थी और उसे साइन स्टेशन तक खड़ेखड़े आना पड़ा था और वह भी इस बुरी हालत में कि शरीर को धक्के लगते रहे और लगने वाले हर धक्के के साथ उसे अनुभव होता था, जैसे उस के शरीर की हड्डियां भी पिस रही हैं.

उस के बाद पैदल सफर, दफ्तर के काम की थकान, इन सारी बातों से उस का बात करने तक का मन नहीं हो रहा था.

बड़ी मुश्किल से उस ने कपड़े बदल कर मुंह पर पानी के छींटे मार कर स्वयं को तरोताजा करने का प्रयत्न किया था. इस बीच दीबा चाय ले आई थी. उस ने चाय कब और किस तरह पी थी, स्वयं उसे भी याद नहीं था.

पलंग पर लेटते समय वह सोच रहा था कि यदि नींद लग गई तो वह रात का भोजन भी नहीं करेगा और सवेरे तक सोता रहेगा.

‘‘दोपहर को पड़ोस में चाकू चल गया,’’ दीबा की आवाज कांप रही थी.

‘‘क्या?’’ उसे लगा, केवल एक क्षण में ही उस की सारी थकान जैसे कहीं लोप हो गई और उस का स्थान भय ने ले लिया है. उसे अपने हृदय की धड़कनें बढ़ती अनुभव हुईं, ‘‘कैसे?’’

‘‘वह अब्बास भाई हैं न…उन का कोई मित्र था. कभीकभी उन के घर आता था. आज शायद शराब पी कर आया था और उस ने अब्बास भाई की पत्नी पर हाथ डालने का प्रयत्न किया. पत्नी सहायता के लिए चीखी…उसी समय अब्बास भाई भी आ गए. उन्होंने चाकू निकाल कर उसे घोंप दिया…उस के पेट से निकलने वाला वह खून का फुहारा…मैं वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती,’’ दीबा का चेहरा भय से पीला हो गया था.

‘‘फिर?’’

‘‘किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आ कर उस घायल को उठा कर ले गई. पता नहीं, वह जिंदा भी है या नहीं. अब्बास भाई फरार हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ़ रही है. पुलिस वाले पड़ोसियों से भी पूछने लगे कि सबकुछ कैसे हुआ. मुझ से भी पूछा… परंतु मैं ने साफ कह दिया कि मैं उस समय सोई हुई थी.’’

दीबा की सांसें तेजी से चल रही थीं. उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जैसे वह दृश्य अब भी उस की आंखों के सामने नाच रहा हो. स्वयं उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं. उस ने जल्दी से उन्हें पोंछा कि कहीं दीबा उस की स्थिति से इस बात का अनुमान न लगा ले कि वह इस बात को सुन कर भयभीत हो उठा है. वह यही कहेगी, ‘आप सुन कर इतने घबरा गए हैं तो सोचिए, मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. मैं ने तो वह दृश्य अपनी आंखों से देखा है.’

‘‘पड़ोसी कह रहे थे,’’ दीबा आगे बताने लगी, ‘‘अब्बास भाई ने जो किया, अच्छा ही किया था. वह आदमी इसी सजा का हकदार था. शराब पी कर अकसर वह लोगों के घरों में घुस जाता था और घर की औरतों से छेड़खानी करता था. अब्बास भाई का तो वह दोस्त था, परंतु उस ने उन की पत्नी के साथ भी वही व्यवहार किया…’’ उस ने दीबा का अंतिम वाक्य पूरी तरह नहीं सुना क्योंकि उस के मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा था. ‘अब्बास भाई के पड़ोस में ही उस का घर था. दीबा घर में अकेली थी… अगर वह आदमी…’

‘‘आप कहीं और खोली नहीं ले सकते क्या?’’ दीबा की सिसकियों ने उस के विचारों की शृंखला भंग कर दी. वह उस के सीने पर अपना सिर रख कर सिसक रही थी.

‘‘आप सुबह दफ्तर चले जाते हैं और शाम को आते हैं. मुझे दिन भर अकेले रहना पड़ता है. अकेले घर में मुझे बहुत डर लगता है. दिन भर आसपास लड़ाईझगड़े, मारपीट होती रहती है. कभी चाकू निकलते हैं तो कभी लाठियां. पुलिस छापे मार कर कभी शराब, अफीम बरामद करती है तो कभी तस्करी का सामान. कभी कोई गुंडा किसी औरत को छेड़ता है तो कभी किसी खोली में कोई वेश्या पकड़ी जाती है. हम कब तक इस गंदगी से बचते रहेंगे. कभी न कभी तो हमारे दामन पर इस के छींटे पड़ेंगे ही… और कभी इस गंदगी का एक छींटा भी मेरे दामन पर पड़ गया तो मैं दुनिया को अपना मुंह दिखाने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझूंगी,’’ उस के सीने पर सिर रख कर दीबा सिसक रही थी.

उस की नजरें छत पर जमीं थीं. मस्तिष्क कहीं और भटक रहा था, उस का एक हाथ दीबा की पीठ पर जमा था और दूसरा हाथ उस के बालों से खेल रहा था.

दीबा ने जो सवाल उस के सामने रखा था, उस ने उसे इतना विवश कर दिया था कि वह चाह कर भी उस का उत्तर नहीं दे सकता था. न वह दीबा से यह कह सकता था कि ‘ठीक है, हम किसी दूसरे घर का प्रबंध करेंगे और न ही यह कह सकता था कि यहां से कहीं और जाना हमारे लिए संभव नहीं है.

इस बात का पता दीबा को भी था कि कितनी मुश्किल से यह घर मिला था.

शकील का एक जानपहचान वाला था जो पहले यहीं रहता था. उस ने अपने वतन जाने का इरादा किया था. उसे पता था कि शकील मकान के लिए बहुत परेशान है. उस ने पूरी सहानुभूति से उस की सहायता करने की कोशिश की थी.

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक बंबई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर बंबई आया था. उस समय भी बंबई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह बंबई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी बंबई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर बंबई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर बंबई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर बंबई चला आया. बंबई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह बंबई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि बंबई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम बंबई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी बंबई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

Hindi Story : गियर वाली साइकिल – क्या विक्रम की इच्छा पूरी हो पाई

Hindi Story : टनटनटन…’ साइकिल की घंटी बजती तो दफ्तर के गार्ड विक्रम साहब की साइकिल को खड़ी करने के लिए दौड़ पड़ते. विक्रम साहब की साइकिल की इज्जत और रुतबा किसी मर्सडीज कार से कम न था.

विक्रम साहब ठसके से साइकिल से उतरते. अपने पाजामे में फंसाए गए रबड़ बैंड को निकाल कर उसे दुरुस्त करते, साइकिल पर टंगा झोला कंधे पर टांगते और गार्डों को मुन्नाभाई की तरह जादू की झप्पी देते हुए अपनी सीट की तरफ चल पड़ते.

विक्रम साहब एक अजीब इनसान थे. साहबी ढांचे में तो वे किसी भी एंगल से फिट नहीं बैठते थे या यों कहें कि अफसर लायक एक भी क्वालिटी नहीं थी उन में. न चाल में, न पहनावे में, न बातचीत में, न स्टेटस में. 90 हजार रुपए महीना की तनख्वाह उठाते थे विक्रम साहब, पर अपने ऊपर वे 2 हजार रुपए भी खर्च न करते थे. दाल, चावल, सब्जी, रोटी खाने के अलावा उन्होंने दुनिया में कभी कुछ नहीं खाया था. अपने मुंह से तो यह सब वे बताते ही थे, उन के डीलडौल को देख कर लगता भी यही था कि उन्होंने रूखी रोटी और सूखी सब्जी के अलावा कभी कुछ खाया भी नहीं होगा.

काग जैसा रूप था उन का, पर अपनी बोली को उन्होंने कोयल जैसी मिठास से भर दिया था. औरतों के तो वे बहुत ही प्रिय थे. मर्द होते हुए भी औरतें उन से बेझिझक अपनी निजी बातें शेयर कर सकती थीं. उन्हें कभी नहीं लगता था कि वे अपने किसी मर्द साथी से बात कर रही हैं. लगता था जैसे अपनी किसी प्रिय सखी से बातें कर रही हैं. उन्हें विक्रम साहब के चेहरे पर कभी हवस नहीं दिखती थी.

दफ्तर में 10 मर्दों के साथ 3 औरतें थीं. बाकी 7 के 7 मर्द विक्रम साहब की तरह औरतों में लोकप्रिय बनने के अनेक जतन करते, पर कोई भी कामयाब न हो पाता था.

विक्रम साहब सीट पर आते ही सब से पहले डस्टर ले कर अपनी मेज साफ करने लगते थे, फिर पानी का जग ले कर वाटर कूलर की तरफ ऐसे दौड़ लगाते थे जैसे अपने गांव के कुएं से पानी भरने जा रहे हों.

चपरासी शरमाते हुए उन के पीछे दौड़ता, ‘‘साहब, आप बैठिए. मैं पानी लाता हूं.’’

विक्रम साहब उसे मीठी डांट लगाते, ‘‘नहीं, तुम भी मेरी तरह सरकारी नौकर हो. तुम को मौका नहीं मिला इसलिए तुम चपरासी बन गए. मुझे मौका मिला इसलिए मैं अफसर बन गया. इस का मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे पानी पिलाओगे. तुम्हें सरकार ने सरकारी काम के लिए रखा है और पानी या चाय पिलाना सरकारी काम नहीं है.’’

विक्रम साहब के सामने के चारों दांत 50 की उम्र में ही उन का साथ छोड़ गए थे. लेकिन कमाल था कि अब 59 साल की उम्र में भी उन के चश्मा नहीं लगा था. दिनभर लिखनेपढ़ने का काम था इसलिए पूरा का पूरा स्टाफ चश्मों से लैस था. एक अकेले विक्रम साहब नंगी आंखों से सूई में धागा भी डाल लेते थे.

फुसरत के पलों में जब सारे लोग हंसीमजाक के मूड में होते तो विक्रम साहब से इस का राज पूछते, ‘‘सर, आप के दांत तो कब के स्वर्ग सिधार गए, पर आंखों को आप कौन सा टौनिक पिलाते हैं कि ये अभी भी टनाटन हैं?’’

विक्रम साहब सब को उलाहना देते, ‘‘मैं तुम लोगों की तरह 7 बजे सो कर नहीं उठता हूं और फिर कार या मोटरसाइकिल से भी नहीं चलता हूं. मैं दिमाग को भी बहुत कम चलाता हूं, केवल साइकिल चलाता हूं रोज 40 किलोमीटर…’’

विक्रम साहब के पास सर्टिफिकेटों को अटैस्ट कराने व करैक्टर सर्टिफिकेट बनाने के लिए नौजवानों की भीड़ लगी रहती थी. बहुत से गजटेड अफसरों के पास मुहर थी, पर वे ओरिजनल सर्टिफिकेट न होने पर किसी की फोटोकौपी भी अटैस्ट नहीं करते थे. डर था कि किसी गलत फोटोकौपी पर मुहर व दस्तखत न हो जाएं.

लेकिन विक्रम साहब के पास कोई भी आता, उन की मुहर हमेशा तैयार रहती थी उस को अटैस्ट कर देने के लिए. वे कहते थे, ‘‘मेरी शक्ल अच्छी तरह याद कर लो. जब तुम डाक्टर बन जाओगे तो मैं अपना इलाज तुम्हीं से कराऊंगा.’’

नौजवानों के वापस जाते ही वे सब से कहते, ‘‘ये नौजवान ऐसे ही बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं. फार्म पर फार्म भरे जा रहे हैं. हम इन्हें नौकरी तो नहीं दे सकते हैं, पर कम से कम इन के सर्टिफिकेट को अटैस्ट कर के इन का मनोबल तो बढ़ा ही सकते हैं.’’

सब उन की सोच के आगे खुद को बौना महसूस कर अपनेअपने काम में बिजी होने की ऐक्टिंग करने लगते.

विक्रम साहब में गुण ठसाठस भरे हुए थे. वे कभी किसी पर नहीं हंसते थे, दुनिया के सारे जुमलों को वे खुद में दिखा कर सब का मनोरंजन करते थे.

विक्रम साहब जिंदादिली की मिसाल थे. दफ्तर में हर कोई हाई ब्लडप्रैशर की दवा, कोई शुगर की टिकिया, कोई थायराइड की टेबलेट खाखा कर अपनी जिंदगी को तेजी से मौत के मुंह में जाने से थामने की कोशिश में लगा था, पर विक्रम साहब को इन बीमारियों के बारे में जानकारी तक नहीं थी. उन्हें कभी किसी ने जुकाम भी होते नहीं देखा था.

विक्रम साहब चकरघिन्नी की तरह दिनभर काम के चारों ओर चक्कर काटा करते थे. वे अपने अलावा दूसरों के काम के बोझ तले दबे रहते थे. सारा काम खत्म करने के बाद शाम 5 बजे वे लंच के लिए अपने झोले से रोटियां निकालते थे.

यों तो विक्रम साहब की कभी किसी से खिटपिट नहीं होती थी लेकिन आखिर थे तो वे इनसान ही. बड़े साहब के अडि़यल रवैए ने उन को एक बार इतना खिन्न कर दिया था कि उन्होंने अपनी सीट के एक कोने में हनुमान की मूरत रख ली थी और डंके की चोट पर ऐलान कर दिया था, ‘‘जब एक धर्म वालों को अपने धार्मिक काम पूरे करने के लिए दिन में 2-2 बार काम बंद करने की इजाजत है तो उन को क्यों नहीं? उन के यहां त्रिकाल संध्या का नियम है. वे दफ्तर नहीं छोड़ेंगे त्रिकाल संध्या के लिए, लेकिन दोपहर की संध्या के लिए वे एक घंटा कोई काम नहीं करेंगे.’’

विक्रम साहब के इस सवाल का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. दफ्तर में धर्म के नाम पर सरकारी मुलाजिम समय का किस तरह गलत इस्तेमाल करते हैं, इस का गुस्सा सालों से लोगों के अंदर दबा पड़ा था. विक्रम साहब ने उस गुस्से को आवाज दे दी थी.

महीने के तीसों दिन रात के 8 बजे तक दफ्तर खुलता था. रोटेशन से सब की ड्यूटी लगती थी. इस में तीनों औरतों को भी बारीबारी से ड्यूटी करनी पड़ती थी.

रात 8 बजे तक और छुट्टियों में ड्यूटी करने में वे तीनों औरतें खुद को असहज पाती थीं. उन्होंने एक बार हिम्मत कर के डायरैक्टर के सामने अपनी समस्या रखी थी.

डायरैक्टर साहब ने उन्हें टका सा जवाब दिया था, ‘‘जब आप ऐसी छोटीमोटी परेशानी भी नहीं उठा सकतीं तो नौकरी में आती ही क्यों हैं?’’

साथी मर्द भी उन औरतों पर तंज कसते, ‘‘जब आप को तनख्वाह मर्दों के बराबर मिल रही है तो काम आप को मर्दों से कम कैसे मिल सकता है?’’

लेकिन विक्रम साहब के आने के बाद औरतों की यह समस्या खुद ही खत्म हो गई थी. वे पता नहीं किस मिट्टी के बने थे, जो हर रोज रात के 8 बजे तक काम करते और हर छुट्टी के दिन भी दफ्तर आते थे.

6 बजते ही वे तीनों औरतोें को कहते, ‘‘आप जाएं अपने घर. आप की पहली जिम्मेदारी है आप का परिवार. आप के ऊपर दोहरी जिम्मेदारियां हैं. हमारी तरह थोड़े ही आप को घर जा कर बनाबनाया खाना मिलेगा.’’

विक्रम साहब की इस हमदर्दी से सारे दूसरे मर्द कसमसा कर रह जाते थे. विक्रम साहब न तो जवान थे, न हैंडसम और न ही रसिकमिजाज, इसलिए औरतों के प्रति उन की इस दरियादली पर कोई छींटाकशी करता तो लोगों की नजर में खुद ही झूठा साबित हो जाता.

विक्रम साहब की इस दरियादिली का फायदा धीरेधीरे किसी न किसी बहाने दूसरे मर्द साथी भी उठाने लगे थे.

विक्रम साहब जब सड़क पर साइकिल से चलते तो वे एक साधारण बुजुर्ग से नजर आते थे. कोई साइकिल चलाने वाला भरोसा भी नहीं कर सकता था कि उन के बगल में साइकिल चला रहा यह आदमी कोई बड़ा सरकारी अफसर है.

‘वर्ल्ड कार फ्री डे’ के दिन कुछ नेता व अफसर अपनीअपनी कारें एक दिन के लिए छोड़ कर साइकिल से या पैदल दफ्तर जाने की नौटंकी करते हुए अखबारों में छपने के लिए फोटो खिंचवा रहे थे. विक्रम साहब के पास कुछ लोगों के फोन भी आ रहे थे कि वे सिफारिश कर के किसी बड़े अखबार में उन के फोटो छपवा दें.

विक्रम साहब अपनी साइकिल पर बैठ कर उस दिन दिनभर दौड़भाग में लगे थे, उन लोगों के फोटो छपवाने के लिए, पर उस 59 साल के अफसर की ओर न अपना फोटो छपवाने वालों का ध्यान गया था और न छापने वालों का, जो चाहता तो लग्जरी कार भी खरीद सकता था. पर जिस ने इस धरती को बचाने की चिंता में अपने 35 साल के कैरियर में हर रोज साइकिल चलाई थी, उस ने अपनी जिंदगी के हर दिन को ‘कार फ्री डे’ बना रखा था.

विक्रम साहब के रिटायरमैंट में बहुत कम समय रह गया था. सब उदास थे खासकर औरतें. उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि विक्रम साहब के जाने के बाद उन्हें पहले की तरह 8 बजे तक और छुट्टियों में भी अपनी ड्यूटी करनी पड़ेगी.

वे सब चाहती थीं कि विक्रम साहब किसी भी तरह से कौंट्रैक्ट पर दूसरे लोगों की तरह नौकरी करते रहें. विक्रम साहब कहां मानने वाले थे. उन्होंने सभी को अपने भविष्य की योजना बता दी थी कि वे रिटायरमैंट के बाद सभी लोगों को साइकिल चलाने के फायदे बताएंगे खासकर नौजवानों को वे साइकिल चलाने के लिए बढ़ावा देंगे.

विक्रम साहब ने एक बुकलैट भी तैयार कर ली थी, जिस में दुनियाभर की उन हस्तियों की तसवीरें थीं, जो रोज साइकिल से अपने काम करने की जगह पर जाती थीं. उस में उन्होंने दुनिया के उन आम लोगों को भी शामिल किया था, जो साइकिल चलाने के चलते पूरी जिंदगी सेहतमंद रहे थे.

विक्रम साहब ने अपनी खांटी तनख्वाह के पैसों में से बहुत सी रकम बुकलैट की सामग्री इकट्ठा करने व उस की हजारों प्रतियां छपवाने में खर्च कर डाली थीं.

उन तीनों औरतों ने भी विक्रम साहब के रिटायरमैंट पर अपनी तरफ से उन्हें गियर वाली साइकिल गिफ्ट करने के लिए रकम जमा करनी शुरू कर दी थी. उन की दिली इच्छा थी कि विक्रम साहब रिटायरमैंट के बाद गियर वाली कार में न सही, गियर वाली साइकिल से तो जरूर चलें.

Romantic Story : आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन

Romantic Story : रेडियो एफएम पर पुराने गीत बज रहे थे. रमा गीतों के साथसाथ गुनगुनाती हुई अपना काम किए जा रही थी. एक पुस्तक शैल्फ में रखते हुए अचानक उसे लगा कि प्रकाश उस की ही तरफ देख रहे हैं.

रमा ने अपनी आवाज थोड़ी हलकी कर दी और काम कर के दूसरे कमरे में जा कर उस दिन को याद कर खुश हो गई जब पहली बार उस ने यह गीत गुनगुनाया था और तब से आज 4 महीने हो गए, फिर प्रकाश दोबारा उसे किसी उबाऊ कार्यक्रम में नहीं ले गए.

रमा को याद आया अगस्त माह का वह दिन जब शाम के 4 बजे थे. फोन की घंटी ने रमा की नींद खोल दी. प्रकाश का फोन था. उस ने हैलो कहा, तो उधर से आवाज आई, “रमा, आज शाम को तैयार रहना. कामानी थिएटर में एक प्रोग्राम है, चलेंगे और फिर बाहर कहीं खापी कर आएंगे.”

“आज, आज मन नहीं कर रहा है.”

“अरे, चलो न. बहुत दिन हुए गए, हम बाहर नहीं गए. चलो, इसी बहाने घर से बाहर थोड़ी मस्ती करेंगे.”

“अच्छा, क्या मस्ती करेंगे, न जाने कितनी बार आप ने यही वादा किया और फिर क्या होता है? ऐसीऐसी जगह जाना पड़ता है जहां मैं जाना ही नहीं चाहती. और जहां मैं जाना चाहती हूं, वहां के लिए आप के पास टाइम नहीं है.”

“देखो, तुम मेरी व्यस्तता तो जानती ही हो, इन्हीं व्यस्तताओं के बीच समय निकाल कर मस्ती करनी पड़ेगी.”

“यह तो बताइए कि आज मस्ती के लिए कहां, किस कार्यक्रम में ले जा रहे हैं?”

“कामानी थिएटर में.”

“क्या नाटक देखने चल रहे हैं?” उत्सुकतावश उस ने पूछा.

“नहींनहीं, शास्त्रीय संगीत है.”

“क्या, शास्त्रीय संगीत? जिस का मुझे एबीसी तक नहीं पता, वहां जा कर मैं क्या करूंगी?”

“अरे चलो, थोड़ी देर बैठेंगे और फिर घूमफिर कर कहीं बाहर खाना खा कर आ जाएंगे. मैं गाड़ी भेज रहा हूं,” प्रकाश ने कहा.

“ठीक है,” कह कर रमा ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि क्या करूंगी जा कर, पर फिर घर में अकेले शाम बिताने से अच्छा था प्रकाश के साथ ही रहे. वैसे भी घर में अकेले रहना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. दिन तो किसी प्रकार बीत जाता था, पर शाम बिताए नहीं बीतती थी.

शाम को कामानी थिएटर के पास पहुंचते ही लंबी लाइन देख कर उसे अपनेआप पर लज्जा आ गई. जिस कार्यक्रम को देखने के लिए लोग लाइनों में खड़े थे, उस के लिए वह मना कर रही थी.

जैसे ही गाड़ी गेट के सामने पहुंची, कार पर रखा परिचयपत्र देख कर गार्ड ने जोरदार सैल्यूट मारा. एक व्यक्ति भागाभागा आया और दरवाजा खोल कर प्रकाश के स्वागत में खड़ा हो गया. द्वार पर खड़ी लड़कियों ने आरती की व चंदन के टीके से स्वागत कर के प्रकाश व रमा को वीआईपी गेट से अंदर ले जाने लगे, तो एक टीवी चैनल वाला रास्ता रोक कर पूछने लगा, “सर, आप शास्त्रीय संगीत में रुचि रखते हैं?”

“जी हां.”

“क्या आप गाते भी हैं?”

“नहीं, मैं खो जाता हूं.”

तभी व्यवस्थापक ने चैनल वाले से माफी मांगते हुए प्रकाश को अंदर बुला लिया.

रमा तो प्रकाश के जवाब से अचंभित हो गई. शास्त्रीय संगीत में खो जाता हूं. क्या बात है? घर चल कर पूछती हूं कि कहां खो जाते हो? शास्त्रीय संगीत की बात तो दूर, मैं ने तो कभी आप को गीत में भी डूबते नहीं देखा.

कार्यक्रम के अंत तक आतेआते रमा लगभग बोर हो चुकी थी और अपनेआप को कोस रही थी कि क्यों प्रकाश की बातों में आ कर यहां आ गई. जहां पूरा दिन प्रकाश के बिना गुजार देती है, वहां थोड़ी देर और सही. यहां तो सुर, ताल, लय सब सिर के ऊपर से गुजर रहा था और प्रकाश थे कि उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे, जबकि उसे पता था कि उन की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा होगा. पीछे लोगों का खानापीना चल रहा था. अच्छीअच्छी खुशबू आ रही थी. उस का भी मन किया कि कुछ खरीद कर खाए, पर यहां तो वह विशेष अतिथि की पत्नी थी, इसलिए आगे बैठीबैठी कुछ दाने काजू के खा कर मन मसोस रही थी.

कार्यक्रम के समाप्त होते ही खाने के लिए सभी अतिथिगण एक अलग कक्ष में जाने लगे, तो अचानक मीडिया के लोगों ने प्रकाश को फिर से घेर लिया और इंटरव्यू लेने लगे. वह चुपचाप वहीं दीवार के सहारे खड़ी हो गई. अंदर ही अंदर वह कुढ़ रही थी, पर चेहरे पर झूठी मुसकान बिखेरे सभी के अभिवादन का जवाब दिए जा रही थी.

तभी एक व्यक्ति ने पास आ कर धीरे से पूछा, “काफी बोर हो चुकी हैं क्या?”

चौंक कर रमा ने कहा, “नहीं तो.”

“आइए, चलिए, खाना खाने चलते हैं. अभी सर को बहुत समय लगेगा.”

“नहींनहीं, मैं ठीक हूं.”

“आप की मरजी. वैसे, आप के चेहरे से साफ पता चल रहा है कि आप काफी बोर हो चुकी हैं और आप को बड़ी जोर की भूख लगी है. मैं भी खाने की तरफ ही जा रहा हूं, इसलिए आप से साथ चलने के लिए आग्रह कर रहा था.”

उस समय तो रमा ने कह दिया, “जी धन्यवाद. मैं बाद में खा लूंगी,” पर, दूसरे ही क्षण उस ने सोचा कि यहां किस को मेरी परवा है? मैं क्यों यहां स्टैच्यू की तरह खड़ी रहूं. पेट में चूहे कूद रहे थे और ये जो प्रकाश मस्ती कराने लाए थे… रमा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच रहा था.

एक क्षण के लिए रमा रुकी, फिर धीरेधीरे चलती हुई खाने की जगह पहुंच गई. गुस्से में पूरा बदन जल रहा था. कैसे मीठीमीठी बातें कह कर मुझे ले कर आए थे कि चलो थोड़ी देर बैठेंगे, फिर कहीं खाने चलेंगे. यह थोड़ी देर है? अभी भी कहां फुरसत है जनाब को?

खाना ले कर वह चुपचाप छोटेछोटे रोटी के टुकड़े तोड़ रही थी कि तभी ‘मैं यहां बैठ जाऊं’ की आवाज से चौंक पड़ी. पीछे मुड़ कर देखा तो वही सज्जन खड़े थे, जो थोड़ी देर पहले साथ खाना खाने का आग्रह कर रहे थे.

थोड़़ा संभल कर रमा बोली, “हां, हां, क्यों नहीं. बैठिए.”

“शास्त्रीय संगीत के बारे में आप के क्या विचार हैं?” उस व्यक्ति ने पूछा.

“अच्छा है, बहुत अच्छा होता है शास्त्रीय संगीत. पर, सच कहूं, मुझे समझ में नहीं आता.”

“मुझे भी शास्त्रीय संगीत में बिलकुल रुचि नहीं है.”

“तो, यहां कैसे?”

“खाने को मुफ्त में मिल जाता है. इसलिए आप को ऐसे कार्यक्रम में हमजैसे लोग मिल ही जाएंगे.”

“हमजैसे लोग से क्या मतलब?”

“हमजैसे लोग से मतलब, जिस के घर में खानेपीने का ठिकाना न हो.”

“क्यों? क्या आप ने शादी नहीं की?”

“शादी, न बाबा, न, शादी कर के कौन मुसीबत में फंसेगा?”

“शादी मुसीबत बिलकुल नहीं है.”

“अच्छा, क्या है शादी?”

“शादी, शादी 2 परिवारों, 2 लोगों का मिलन है.”

“अच्छा, इस मिलन का परिणाम क्या है?”

“क्या मतलब?”

“मतलब, इस मिलन में एक को दूसरे की सुननी पड़ती है, तब कहीं शादी निभती है.”

“तो इस में बुराई क्या है?”

“कोई बुराई नहीं. बस, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के लिए न चाहते हुए शास्त्रीय संगीत सुनने आना पड़ता है. बोर होते हुए भी जबरदस्ती चेहरे पर मुसकान बनाए रखनी पड़ती है. बस और कुछ नहीं.”

“अगर आप का इशारा मेरी तरफ है, तो मैं आप को बता दूं कि प्रकाश ने कोई जबरदस्ती नहीं की, बल्कि मुझ से पूछा था. मैं आना चाहती थी, इसलिए आई.”

“कभी न कह कर देखिए.”

“क्या मतलब?”

“सीधा सा मतलब है, कभी न कह कर देखिए.”

“क्या होगा?”

“कह कर देख लीजिए.”

“आप को क्या लगता है कि प्रकाश जबरदस्ती करेंगे?”

“शायद करें या न भी करें, पर…”

“पर क्या?”

“तब संबंध में मिठास कम हो जाएगी.”

“अच्छा, बड़े अनुभवी हैं आप.”

“जी, ठीक पहचाना आप ने. मैं एक आर्टिस्ट हूं, चेहरा पढ़ लेता हूं.”

“अच्छा, फिर बताइए कि मेरा चेहरा क्या कह रहा है?”

“आप का चेहरा, आप का चेहरा कह रहा है…हूं…हूं, कह रहा है कि, इस समय मैं आगबबूला हूं, पर अपने गुस्से को दबा कर रख रही हूं. चलो, घर में बताती हूं. कितना बोर किया?”

अजनबी की बेबाक बातें सुन कर रमा अपनी हंसी रोक नहीं पाई और जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी. सभी लोग उस की तरफ देखने लगे. प्रकाश ने भी पीछे मुड़ कर देखा और एक अजनबी के साथ बेतकल्लुफ होते देख आश्चर्य भी किया.

वापस घर आते समय प्रकाश कुछ ज्यादा ही चुप थे. वैसे, यदि ऐसे किसी कार्यक्रम से लौट रहे हो, जहां अच्छी बोरियत होती थी, तो प्रकाश एहतियातन कुछ ज्यादा ही चुप हो जाया करते थे, ताकि कोई बात न हो सके.

अचानक रेडियो पर गीत बजने लगा, ‘आज मदहोश हुआ जाए रे, मेरा मन, मेरा मन…’

रमा ने प्रकाश को चिढ़ाने के लिए ड्राइवर से कहा, “पाठकजी, जरा गाना तेज कर दीजिए.”

थोड़ी देर में प्रकाश ने पूछा, “तुम्हें नहीं लगता कि गाना बहुत जोर से बज रहा है?”

“हां. पर, अच्छा लग रहा है. बजने दो.”

थोड़ी देर बाद रमा ने पूछा, “अगली बार कब चलेंगे हम?”

“कहां?”

“यहीं कामानी थिएटर में.”

“क्यों, क्या तुम्हें शास्त्रीय संगीत अच्छा लगा?”

आज रमा प्रकाश को चिढ़ाने के मूड में थी, इसलिए कह दिया, “शास्त्रीय संगीत नहीं, मुझे वहां का वातावरण बड़ा अच्छा लगा.”

प्रकाश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा और बोला, “जल्दी ही.”

लेकिन, उस के बाद 4 महीने बीत गए, लेकिन प्रकाश दोबारा किसी शास्त्रीय संगीत या ऐसे उबाऊ कार्यक्रम में ले कर नहीं गए और न ही कामानी थिएटर.

Social Story : क्राइम – समाज की नंगी सचाई बयां करती कहानी

Social Story : 28 दिसंबर, 1985. जाड़े की एक अलसाई सुबह. सफर पर निकलने की तैयारी में सबकुछ जल्दबाजी में हो रहा था. सुबह के 5 बज चुके थे पर अभी तक रात का भ्रम हो रहा था. घने कोहरे के बीच रास्ता बनाता औटोरिकशा आखिरकार रेलवे स्टेशन तक पहुंच ही गया था.

राकेश ने इंक्वायरी से पता किया. ट्रेन अभी 2 घंटे लेट थी. कस्बे का छोटा सा स्टेशन रामनगर. ठंड और कोहरे के कारण अभी चहलपहल ज्यादा नहीं थी. स्टेशन के अलसाए मौन को तोड़ता उद्घोषणा का स्वर गूंजा.

हावड़ा से गोरखपुर जाने वाली एक्सप्रैस ट्रेन पहुंच रही थी.

दीपा ने हौकर से अखबार लिया पर इतनी कम रोशनी में अखबार पढ़ने की कवायद बेमानी थी. इधरउधर नजरें दौड़ाती दीपा खुद को व्यस्त रखने का कोई जरिया तलाश रही थी. ट्रेन अब प्लेटफौर्म पर लग चुकी थी.

ट्रेन से उतर कर एक लड़का और एक लड़की दीपा के बिलकुल बगल में आ कर बैठ गए. सीमित सामान देख कर दीपा ने अनुमान लगाया कि वे पर्यटन के उद्देश्य से निकले थे. सुबह हुई तो फिर अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े शायद या फिर ऐसा भी हो सकता है किसी रिश्तेदार के यहां किसी फंक्शन में शरीक होने आए हों और कोई रिसीव करने आने वाला हो.

पता नहीं यह इंसानी फितरत है या महज उसी का फितूर जिस के तहत बगल में बैठे किसी अनजान के बारे में सबकुछ जान लेने की प्रबल इच्छा जन्म लेती है. जानती थी दीपा उस से सामने वाले को भला क्या फर्क पड़ता था कि कोई क्या सोच रहा है उस के बारे में.

संभव है वह लड़का उस का प्रेमी हो जिस के साथ वह घर छोड़ कर जा रही हो कहीं या कोई रिश्तेदार ही हो, क्या फर्क पड़ता है?

दीपा को अपनी सोच पर हंसी आई. 6 बज चुके थे. मगर सूरज अब भी लापता था. शायद कोहरे की साजिश का शिकार हो चला था.

प्लेटफौर्म पर ट्रेन का इंतजार वाकई बेहद उबाऊ होता है. अनमने भाव से दीपा पेपर पलट रही थी पर छपी खबरों का स्थान और समय से वास्ता न रहा. लगभग प्रतिदिन खबरें वही होती हैं- कहीं हत्या, कहीं बलात्कार, कहीं धरनाप्रदर्शन तो कहीं चोरीडकैती. दीपा ने अखबार मोड़ कर रख दिया था.

लड़का और लड़की आपस में बातें कर रहे थे पर आवाज बेहद धीमी थी. दीपा ने अपने को सचेत किया. जाने किस आकर्षण के वशीभूत उन की बातों पर ध्यान केंद्रित किया.

एक बार तो उस की इच्छा हुई कि आगे बढ़ कर उन के बारे में पूछ डाले. अपना परिचय भी दे डाले. मसलन, ‘कहां जा रही है वह और क्यों, कितने दिनों बाद लौटने वाली है? पर उस का संकोची स्वभाव आड़े आ रहा था.

इसी ऊहापोह में अपनी नजरें उस ने विपरीत दिशा में घुमा दीं ताकि उस की अतिरिक्त सक्रियता भांप न लें वे दोनों. कौन जाने मन के भाव उस के चेहरे पर चस्पां हो चले हों अब तक. सच ही तो कहा गया है, चोर की दाढ़ी में तिनका.

आधा घंटा तो गुजर गया, बाकी वक्त भी गुजर जाएगा यों ही, उस ने सोचा. बगल में राकेश निश्चिंत बैठे थे आंखें मूंदे, शाल में ढके खुद को. कौन जाने सो रहे थे या यों ही बस सोने का अभिनय था वह. वास्तविकता से बचने का बेहतर तरीका यही है शायद. उस ने छेड़ना ठीक नहीं समझा अखबार उस ने दोबारा उठा लिया था. याद आया कि आज शनिवार है और अखबार के साथ संगिनी अंक भी संलग्न होगा. अखबार खोला ही था कि लड़की ने प्रश्न किया उस से-

‘‘दीदी, यहां से वाल्मीकि नगर जाने के लिए क्या करना होगा? मतलब किस साधन से जा सकते हैं?’’

दीपा ने नजरें घुमाईं. वह लड़की उसी से मुखातिब थी जिसे देख कर भी अनजान बनने का नाटक करती रही थी वह.

‘‘क्या पहली बार आई हो?’’ उत्तर देने के बजाय प्रश्न कर दिया था उस ने.

‘‘जी, पहली बार. दरअसल हमें पोखरा जाना है, नेपाल. सोचा है, वाल्मीकि नगर घूमते हुए निकल जाएंगे.’’

लड़की की आवाज में जादुई सम्मोहन था. देखने में जितनी सुंदर थी, आवाज भी बेहद शालीन और सौम्य.

दीपा के मन में कई प्रश्न थे. मसलन, कब शादी हुई उन की, पोखरा में कौन रहता है, घर कहां है उस का, मायका कहां है और ससुराल कहां, क्या करती है वह, लव मैरिज है या अरेंज्ड?

लड़की ने सिंदूर भी लगा रखा था जो बालों से ढका था पर करीब से दिख रहा था.

दीपा ने अपनी उत्सुकता को जबरन दबा रखा था. आखिर इन सारे सवालों के जवाब जान भी ले तो क्या हासिल होने वाला था भला? उस ने कहा, ‘‘यहां से बसें भी जाती हैं. सुबह ही करीब 3 बसें निकलती हैं आधेएक घंटे के अंतराल पर, यहीं चौक से ही या फिर प्राइवेसी चाहिए तो औटो या टैक्सी भी मिल जाएंगी.’’

‘‘बहुत धन्यवाद आप का. आप कहां जा रही हैं?’’ लड़की ने बातचीत में उत्सुकता जताई.

‘‘बस, गोरखपुर तक. 2 घंटे लगेंगे यहां से. मायका है मेरा. तीनचार दिनों में वापस आ जाएंगे,’’ दीपा ने सबकुछ एक बार में ही बता दिया. साथ ही, उन तमाम सहेजे प्रश्नों में से एक प्रश्न उछाल भी दिया आखिर, ‘‘पोखरा में क्या मायका है तुम्हारा?’’

‘‘नहीं,’’ जवाब बेहद संक्षिप्त था. शायद ज्यादा विस्तार से बताना नहीं चाहती थी. दीपा समझ चुकी थी इस बात को.

फिर वह खुद प्रश्न कर बैठी, ‘‘दीदी, क्या इस एरिया में सचमुच किडनैपिंग का डर है?’’उस के चेहरे पर डर का भाव था पर लड़का प्रश्न सुन कर मुसकरा रहा था.

दीपा ने हौसला दिया, ‘‘जितना मीडिया में बढ़ाचढ़ा कर दिखाते हैं वैसा तो नहीं मगर कुछ तो है. आखिर हम लोग भी तो यहीं रहते हैं. स्टेशन परिसर में जो इतनी भीड़ है. यहीं के बाशिंदे तो हैं.’’

कहने को तो दीपा ने कह दिया था पर बखूबी समझती थी यहां के असुरक्षित माहौल को. आखिरकार मिनी चंबल का नाम मीडिया ने यों ही तो नहीं दिया था. उस ने बातों का क्रम आगे बढ़ाते हुए एक हिदायत जरूर दी, ‘‘हां, शाम के बाद कहीं नहीं निकलना ही ठीक रहेगा, खासकर घने जंगलों में स्थित दर्शनीय स्थलों के भ्रमण पर. इतना एहतियात रखना जरूरी होगा तुम दोनों के लिए.’’

लड़की ने मुसकरा कर प्रत्युतर दिया. अब वह लड़के से मुखातिब थी, ‘‘7 तो बज गए, चलते हैं अब.’’ लड़के ने हां में सिर हिलाया.

दोनों ने अपना सामान उठाया और स्टेशन परिसर से बाहर निकल आए. दीपा उस का नाम तक नहीं पूछ पाई थी इतनी लंबी बातचीत में.

दीपा महसूस कर रही थी कि पहली नजर में जो अनुमान लगाया था उस ने, शायद वही सच था. मतलब दोनों घर से भागे हुए लग रहे थे. उन के हावभाव, आपसी जुड़ाव एकदूसरे के लिए अतिरिक्त फिक्रमंदी और सजगता दर्शा रहे थे कि पतिपत्नी नएनए बने थे या बनने वाले थे. या ऐसा भी हो सकता है कि चुपके से शादी कर ली हो कहीं पर अब परिवार और समाज का सामना करने की ताब न जुटा पा रहे हों. लड़की की मांग का सिंदूर तो स्पष्ट दिखाई दे रहा था. हाथों में मेहंदी भी लगी थी.

अचानक दीपा की सोच की दिशा बदली. हाथों में मेहंदी लगी है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के मंडप से भागी हो और अब परिवार व समाज की नजरों से बचने के लिए नेपाल भाग रहे हों दोनों.

आखिर पकड़े जाने पर तो अंजाम पता ही था सभी को. अगर लड़की की शादी वहां टूट भी जाती तो उसे कड़े पहरे में रखा जाता. लड़के की जगह तो निसंदेह कारागार ही होता और जुर्म लड़की को भगाए जाने का.

दीपा ने महसूस किया, पिछले एक घंटे से वह अपनी सोच को इसी बिंदु पर उलझे है. पता नहीं इतना गौर करना और इतनी गहराई से किसी बात पर सोचना उस की ताकत है या कमजोरी. मायके जाने की खुशी को भी कुछ क्षणों के लिए वह भूल चुकी 2 अनजान लोगों के लिए.

तभी उद्घोषक का स्वर गूंजा. राकेश हड़बड़ा कर सामान व्यवस्थित करने लगे. ट्रेन के आने की घोषणा हो रही थी. अपना पर्स संभालते हुए दीपा उठ गई. चेहरे पर मुसकान थी अब. जिस 2 घंटे बिताने को ले कर वह नर्वस थी पहले, जाने कैसे बीत चुके थे.

2 जनवरी, 1986. नए वर्ष के आगमन का उत्साह अभी शेष था. नववर्ष पर कल बच्चों के साथ पिकनिक मना कर आज लौट रही थी दीपा.

सुबह के 10 बज रहे थे. चारों ओर कुहासे का साम्राज्य था. सूरज जाने किन साजिशों का शिकार था. लापता था या कौन जाने इतनी ठंड में सुनहरी किरणों का लिहाफ बना कर दुबका था कहीं.

अभी दूसरी कप चाय ली थी दीपा ने. ट्रेन आज भी लेट थी. पता तो था ही कि कुहरे के कारण ट्रेनें अकसर ही देर से चलती हैं या रद्द भी हो जाती हैं. बावजूद इस के, छुट्टियों में बच्चों के साथ घूमने का मोह नहीं छोड़ पाती दीपा. स्टेशन पर हाड़ कंपाने वाली ठंड सच में कंपा रही थी.

तभी अखबार बेचता हौकर गुजरा. दीपा ने अखबार खरीदा. ट्रेन एक घंटा लेट थी. चल पड़ी ट्रेन तो राहत की सांस ली दीपा ने. धीमी रफ्तार से चलती ट्रेन वाल्मीकि नगर रुक गई. आगे लाइन क्लियर नहीं थी. सहयात्रियों से ज्ञात हुआ चक्का जाम है आगे. अपराध के खिलाफ आमजनों का आक्रोश प्रदर्शन का अंजाम था यह.

4 बज चुके थे अब. पता नहीं कब तक ट्रेन चले आगे. बगल में रखा हुआ अखबार पढ़े जाने की प्रतीक्षा में पड़ा हुआ था. अनमने भाव से दीपा ने अखबार उठाया.

अखबार खोलते ही दीपा के चेहरे पर संशय, भय और दुख का मिलाजुला भाव था.

हैडलाइन थी : ‘फरार प्रेमी युगल अपराधियों के हत्थे चढ़ा.’

सामने पृष्ठ पर उसी लड़की का शव था जिस से 28 दिसंबर की सुबह वह मिली थी. बौक्स में लड़के का फोटो था. खबर का सार यह था कि शव की पहचान मोतिहारी की अलका जायसवाल के रूप में की गई थी. उस के अपहरण की एफआईआर भी दर्ज की गई थी थाने में. लड़का कृष्णा वहीं रह कर पढ़ता था पर म?ालिया का रहने वाला था. अपराधियों ने अलका की बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी. लड़के कृष्णा को फिरौती के लिए अगवा कर लिया गया था.

क्राइम का एक और अध्याय जुड़ गया था मिनी चंबल से. अपनों के भय से भाग कर कहीं और पनाह ढूंढ़ने जा रहे उस प्रेमी युगल का ऐसा दुखद अंत भला किस ने सोचा था. खुद उन दोनों ने जाने कितने सपने संजोए होंगे अपनी जिंदगी की खातिर. अब उन के अधूरे सपनों का दंश क्या महसूस कर पाएंगे समाज के मूल्यों के ठेकेदार.

उस अल्प परिचय ने भी जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया था कि दीपा बेहद उदास थी. उस दिन जिस अजनबी युवती से नाम नहीं पूछ पाई थी, वही नाम आज बड़े अक्षरों में अखबार में छपा था उस के निर्जीव शरीर के साथ, अलका जायसवाल.

दीपा को एहसास हुआ, बस, वह देह ही निर्जीव नहीं थी जो पृष्ठ संख्या 4 पर प्रमुखता से छपी थी एक खबर बन कर, आज का सच तो यह था कि पैसे के लालच में सबकुछ बेजान हो चला था. अर्थहीन हो चली थी मानवीयता और कुंद हो चुकी थीं संवेदनाएं भी. आखिर, यह कैसा विरोधाभास है कि बच्चे अपने बारे में अपने ही मांबाप से बातें नहीं कर पाते.

ये वही बच्चे तो होते हैं जिन के सपने पूरा करने के लिए मांबाप अपना सर्वस्व लगा देते हैं. फिर इतने महत्त्वपूर्ण निर्णय पर ही इतना विरोधाभास क्यों? कई बार तो बच्चे भी डर के मारे अपनी बात नहीं रख पाते और भाग जाते हैं. यह पलायन शायद ही उन को उन की मंजिल तक पहुंचने देता है. रास्ते का अवरोध या तो उन के सपनों को तोड़ देता है या फिर उन के अस्तित्व को ही मिटा देता है.

बेहद अनमनी और डरी हुई थी दीपा. अखबार मोड़ कर उस ने रख दिया. एक भरपूर दृष्टि डाली पास बैठे अपने पति और बच्चों पर.

शाम गहरा रही थी. जाने कब तक ट्रेन पहुंचे गंतव्य तक. स्टेशन परिसर के आसपास ही जंगल की शुरुआत थी. कौन जाने किस दिशा से अपराधियों का गिरोह निकल आए. आक्रमण कर दे निहत्थे यात्रियों पर. लूट ले उन को, अगवा कर ले और विरोध करने पर जान ही ले ले. यही तो सचाई थी इन दिनों इस क्षेत्र की.

कानूनव्यवस्था कहनेभर की रह गई थी यहां. वर्चस्व तो अपराधियों का ही था. सरकारी योजनाओं के सफलीभूत होने के सच से सभी वाकिफ थे. हां, अपहरण का उद्योग खूब फलफूल रहा था इस मिनी चंबल में. इस सचाई से सभी वाकिफ थे और इस क्षेत्र के बाशिंदों की यही नियति थी. बहरहाल, दीपा विगत की घटनाओं से अपना ध्यान बंटाना चाह रही थी. वैसे भी, उस के सोचने से कुछ भी बदलने वाला नहीं था, यह बेहतर पता था उसे.

दीपा को विगत वर्षों का आतंक आज बेतरह डरा रहा था. अपहरण और फिरौती के आतंक के चलते शाम होते ही लोग घरों में कैद होने को मजबूर थे. खुद दीपा ने भी न जाने कितनी शामें बेचैनियों में गुजारी थीं जब निखिल कार्यवश देर से घर पंहुचते थे. आज आतंक पर थोड़ा अंकुश भले लगा था पर खत्म कहां हो पाया था. लोगों के जेहन में उन दहशतभरे दिन की यादें अब भी ताजा थीं.

अभी तो आधी दूरी भी तय नहीं हो पाई थी, एक भय पसरा था उस के जेहन में फिर वैसा ही.

आंखें अनायास भर आई थीं उस की. उस संक्षिप्त परिचय में वह अनजानी अपनी सी क्यों लगने लगी थी जबकि अब नाम की शेष थी वह. दुख जोड़ता है मन को संवेदना के तारों से. यही सच था आज का उस के समक्ष.

अनमनी सी खिड़की से बाहर देखने लगी वह आसपास पसरे जंगल और उस के तिलिस्म को. जाने कितनी जिंदगियां दफन थीं वहां आतंक के साए में. घने दरख्तों और आसपास पसरे अंधेरे में अब भी जाने कितनी जिंदगियां इंतजार में थीं कैद से रिहाई के लिए. अपराधियों का शरणगाह था वह घना अरण्य. सूर्य अब अस्ताचलगामी थे पर सुकून इतना जरूर था कि ट्रेन अब सरकने लगी थी पटरी पर स्टेशन छोड़ कर.

लेखिका – सीमा स्वधा

Family Story : लालिमा – बहू के रूप में सुनीता को क्यों नहीं भायी लाली

Family Story : दोपहर की धूप ढलान पर थी, पर सुनीता की चिंता बढ़ती जा रही थी. पति दीपक घर से सुबह से ही निकले हुए थे. अब तक तो उन्हें वापस आ जाना चाहिए था. इसी उधेड़बुन और इंतजार में बेचैन सुनीता बालकनी में जा कर खड़ी हो गई. मन में विचारों की तरंगें हिलोरें लेने लगीं. ‘शायद रास्ते में ट्रैफिक जाम होगा, इसी वजह से लौटने में इतनी देर हो गई. दिल्ली में कभी भी किसी सड़क पर जाम लग सकता है. सिर्फ एक कप चाय पी हुई है दीपक ने सुबह से. न जाने बेटे के घर कुछ खाने को मिला होगा या नहीं.

अच्छा होता कि मैं भी साथ चली गई होती. बस, यही सोच कर रुक गई कि इतवार की वजह से आज तो लाली भी होगी घर पर. सामना ही नहीं करना चाहती हूं मैं तो उस का. और आकाश बचपन से ही अपने जन्मदिन का इंतजार मेरे हाथों का बना आलमंड केक खाने के लिए ही करता है. न भेजती केक उस के पास तो मेरा दिल दुखता.’

सुनीता और दीपक का डाक्टर बेटा आकाश लगभग 4 महीने से हौस्पिटल के पास ही एक फ्लैट में रह रहा था. एक साल हुआ था उसे डाक्टर बने. हौस्पिटल में उस की नाइट ड्यूटी लग जाती थी तो घर से आनेजाने में परेशानी होती थी. इसलिए ही उस ने हौस्पिटल के नजदीक रहने का निर्णय किया था. छुट्टी वाले दिन वह सुनीता और दीपक के पास आ जाता था पर पिछले 2 महीनों से उस का आना कम ही हो रहा था. लाली से हुआ प्रेमविवाह बेटे और मातापिता के बीच दीवार सा बन गया था.

लाली और आकाश एकदूसरे को बचपन से ही जानते थे. सुनीता अपने बच्चों के स्कूल की छुट्टियों में गांव चली जाती थी. परिवार के नाम पर तो केवल दीपक के पिता ही थे गांव में, लेकिन बड़ी सी पुश्तैनी हवेली और दूर तक फैले लंबेचौड़े खेत बच्चों को बहुत आकर्षित करते थे.

आकाश से उम्र में 4 साल बड़ी बेटी अंकिता तो स्कूल की छुट्टियां होते ही गांव जाने की जिद करने लगती थी. आकाश को भी वहां छुट्टियां बिताना अच्छा लगता था पर लाली का साथ बिलकुल पसंद नहीं आता था उसे.

लाली के पिता गोपाल सिंह उसी गांव में सुनार थे. गांव के एक सरकारी विद्यालय में पढ़ रही लाली का अपने हमउम्र बच्चों के साथ खूब झगड़ा होता था. छुट्टियों में सुनीता के गांव जाने पर गोपाल सिंह की इच्छा होती थी कि इधरउधर भटकने से अच्छा है लाली सुनीता के बच्चों के साथ खेलती रहे. बिन मां की बच्ची की देखभाल करने वाला उस के घर पर कोई था भी नहीं.

लाली आकाश से उम्र में तो छोटी थी पर अकसर आकाश के साथ भी उस का झगड़ा हो जाता था. आकाश बारबार आ कर मां से शिकायत करता था उस की. और जब मां आकाश को अपनी अंकिता दीदी के साथ ही खेलने को कहती, तो लाली अंकिता को पटा कर अपने साथ मिला लेती थी. बेचारा आकाश अकेला पड़ जाता था.

सुनीता फिर बीच में पड़ती और तीनों को एकसाथ बैठा कर प्रेरणादायक किस्से और ज्ञानवर्धक व रोचक कहानियां सुनाती. अंधविश्वास से जुड़ी बातें बता कर उन से दूर रहने और मेहनत के बल पर सफलता हासिल करने की शिक्षा भी देने का प्रयास करती थी वह. दोपहर के समय लाली को वह अपने बच्चों के साथ ही खाना खिलाती.

जितने दिन भी सुनीता वहां रहती, लाली को लड़ाईझगड़ों से दूर रह कर सब से मीठा व्यवहार करने की सीख देती. कभी लगता था कि लाली पर कुछ असर हो रहा है तो कभी वह वापस अपने रंग में आ जाती थी.

यह सिलसिला लगभग हर वर्ष चलता था. किंतु जब बच्चे बड़े हो गए तो सुनीता का वहां जाना भी कम हो गया. दीपक ने अपने पिता के निधन के बाद गांव की हवेली और खेतों को बेच दिया और अब उन का गांव जाना बिलकुल बंद हो गया.

समय अपनी गति से भाग रहा था. एमए की पढ़ाई पूरी होते ही अंकिता की नौकरी लग गई और फिर उस का विवाह आस्ट्रेलिया में रह रहे तनुज से हो गया. आकाश मैडिकल कालेज में ऐडमिशन ले कर अपने मम्मीपापा के सपने को साकार करने में जुट गया.

बच्चों को फलताफूलता देख सुनीता और दीपक फूले न समाते थे. इधर, आकाश डाक्टर बना, उधर, अंकिता के जीवन में नई खुशी ने दस्तक दे दी थी. किंतु डिलीवरी से लगभग 3 माह पहले कुछ दिक्कतों के कारण उसे डाक्टर ने बैड रेस्ट बता दिया. सुनीता ने दीपक से कह कर अंकिता के पास जाने का कार्यक्रम बना लिया. आकाश भी चाहता था कि ऐसे समय में मम्मीपापा अंकिता दीदी के पास चले जाएं.

जाने से पहले सुनीता आकाश के खानेपीने के लिए कोई व्यवस्था कर देना चाहती थी. किसी मेड को रखने की बात वह सोच ही रही थी कि अचानक गोपाल सिंह का फोन आ गया. उस ने बताया कि लाली जयपुर में रह कर जूलरी डिजाइन का कोर्स कर रही है और अब उसे 6 महीने की ट्रेनिंग करने दिल्ली आना है. उस का आग्रह था कि दीपक लाली के लिए कोई ठीक सा पीजी देख ले.

सुनीता ने सोचा कि यदि लाली उन के घर पर ही रह जाए तो गोपाल का भी काम बन जाएगा और आकाश के खाने को ले कर भी वे बेफिक्र हो जाएंगे. खाना बनाना तो आता ही होगा लाली को. बस, उस ने गोपाल को फोन कर लाली को अपने घर पर ही रहने को कह दिया और आकाश को समझा दिया कि वह उस से ज्यादा बातचीत न करे ताकि बचपन की तरह ही नोकझोंक न होने लगे दोनों के बीच.

सुनीता और दीपक 6 महीने का वीजा ले कर बेटी अंकिता के पास आस्ट्रेलिया चले गए. उन के जाने के कुछ दिनों बाद ही लाली वहां आ गई. उधर, अंकिता को बेटे की सौगात मिली. आस्ट्रेलिया में 6 महीने बिता कर सुनीता जब घर वापस लौटी तो लाली अपनी ट्रेनिंग पूरी कर लौट चुकी थी.

लाली को अपने यहां रखने के निर्णय पर पछतावा होता रहता था सुनीता को. उस ने तो सोचा था कि जब तक वे आस्ट्रेलिया में हैं, लाली आकाश के पास रहे तो क्या हर्ज है? वह घर पर खाना बना लेगी तो आकाश को भी बाहर नहीं खाना पड़ेगा. पर यह नहीं पता था कि लाली आकाश के पेट से दिल तक पहुंच जाएगी. सुनीता और दीपक तब अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगे जब आकाश ने लाली के साथ शादी की जिद पकड़ ली.

सुनीता और दीपक का समझाना भी बेकार चला गया. हार कर उन्होंने शादी की इजाजत तो दे दी, पर साथ ही यह भी कह दिया कि शादी कोर्ट में ही होगी और वे दोनों वहां उस समय उपस्थित नहीं रहेंगे. आकाश के दोस्त ही गवाह बन कर साइन कर देंगे.

तभी दरवाजे की घंटी बजने से सुनीता वर्तमान में लौट आई. ‘शायद दीपक आ गए’ सोचते हुए उस ने दरवाजा खोला. सामने के फ्लैट में रहने वाली निशा आई थी.

‘‘सुनीता दी, आज तो आकाश का बर्थडे है न. इस बार केक नहीं खिलाया आप ने?’’ दोनों के बैठते ही निशा बनावटी शिकायत करते हुए बोली.

‘‘अरे, क्या बताऊं निशा, जब से आकाश की लाली के साथ शादी हुई है, मन बुझ सा गया है मेरा. बनाया तो था केक पर तुम्हें देना भूल गई.’’

‘‘क्या सुनीता दी, आप इतनी दकियानूसी कब से हो गईं? आप की नाराजगी की वजह तो बस यही है न कि वह आप की जाति की नहीं है?’’ लाली का पक्ष लेते हुए सुनीता को समझाने के अंदाज में निशा बोली.

‘‘अरे नहीं, जातिपांति में तो विश्वास नहीं रखती मैं, पर लड़की आकाश के लायक तो हो, खूब देखा है मैं ने उसे. चलो छोड़ो, मैं केक ले कर आती हूं,’’ सुनीता सोफे से उठने लगी तो निशा ने रोक दिया.

‘‘अभी नहीं, बाद में. अभी तो मैं बाजार जा रही हूं. बस, यों ही मिलने आ गई थी आप से और केक ही क्यों? हम तो पार्टी लेंगे आकाश की शादी की.’’

‘‘आकाश भी यही सपना संजोए बैठा है कि लाली से मिलने पर मैं उसे जरूर पसंद कर लूंगी और तब दे देंगे रिश्तेदारों व दोस्तों को रिसैप्शन. पर ऐसा कहां होने वाला है? आकाश को पसंद है तो रहे उस की बीवी बन कर वह लाली. जरूरी तो नहीं कि मैं उसे अपने घर की बहू मान लूं?’’ मुंह बना कर सुनीता बोली.

‘‘दी, मेरा एक अनुरोध है. आप एक बार मिल तो लो लाली से. आप के पीछे से जब वह यहां थी तो एकदो बार मेरी मुलाकात हुई थी उस से. लड़की तो बुरी नहीं है वह.’’

कुछ देर इस विषय पर बातचीत करने के बाद निशा वापस अपने घर चली गई.

निशा के जाते ही सुनीता फिर से दीपक की देरी को ले कर चिंतित हो उठी. कई बार मन हुआ कि दीपक को फोन कर के ही जान ले देरी का कारण. उस ने मोबाइल उठाया भी, पर कुछ सोच कर हाथ रुक गए. ‘कहीं ऐसा न हो कि ये अभी आकाश के घर पर ही बैठे हों. फिर मेरे कौल करते ही आकाश को पकड़ा दें मोबाइल. जन्मदिन की मुबारकबाद तो मैं ने दे ही दी सुबह उसे. अब दोबारा बात हुई तो जरूर कहेगा कि मम्मी आज तो कर ही लो बात लाली से. उंह, मैं कभी बहू नहीं मान सकती उस कालीकलूटी, उलझे बालों की चोटी बनाए, लंबी सी फ्रौक पहन गांव में सब से लड़तीझगड़ती लाली को.’ और लाली के विषय में सोचते हुए उस का मुंह कसैला हो गया.

तभी मोबाइल बजने लगा, आकाश का फोन था.

‘‘हैलो मम्मी, आप पापा के न पहुंचने से परेशान मत होना. उन्हें चक्कर आ गया था. हौस्पिटल में ही मेरे साथ हैं.’’

‘‘अरे, क्या हुआ पापा को? बात तो करवा जरा उन से,’’ घबराई हुई सुनीता बोली.

‘‘वे कमरे में हैं. मैं कमरे से बाहर निकल कर बात कर रहा हूं. आप बिलकुल फिक्र मत करो. हम पहुंच रहे हैं कुछ देर में घर.’’

दीपक के विषय में जान कर सुनीता चिंतित हो गई. ‘क्यों जाने दिया मैं ने उन्हें अकेले वहां? मैं क्या जानती नहीं थी लाली का स्वभाव? बात तो पुरानी है पर थी तो वह लाली ही. गांव में जब मैं बच्चों को बैठा कर किस्सेकहानियां सुना रही होती थी तो कैसे चिढ़ जाती थी दीपक के वहां अचानक आ जाने पर, मजा खराब हो जाता था उस का. आज भी शायद दीपक को देख कर मूड औफ हो गया हो. सोच रही होगी कि अच्छीखासी जिंदगी चल तो रही थी. क्यों आ गए ससुरजी?

‘बस, अब सास भी आने लगेगी और फिर हमारी सारी आजादी खत्म हो जाएगी, ऐशोआराम पर भी लगाम लग जाएगी. इसलिए ही पूछा नहीं होगा ज्यादा इन्हें. उसे सीधे मुंह बात न करते देख टैंशन में आ गए होंगे दीपक और बस आ गया होगा चक्कर या फिर झगड़ा तो नहीं कर लिया होगा लाली ने दीपक से? कह दिया होगा कि जब आप शादी के समय थे ही नहीं कोर्ट में तो अब कौन सा हक जताने आए हो हमारे पास.

आकाश को बचपन में ही चुप करा देती थी वह. आज भी उस को बोलते देख जबान बंद हो गई होगी आकाश की. कुछ तो हुआ ही होगा, वरना चक्कर कैसे आ गया अचानक?’

सुनीता के लिए अब इंतजार का पलपल भारी हो रहा था. रसोई में जा कर वह खिचड़ी बनाने लगी, ताकि समय भी बीत जाए और दीपक के आने पर वह उस के पास बैठ पाए.

दरवाजे की घंटी की आवाज सुन वह तेजी से दरवाजे की ओर लपकी. दीपक को सहारा देते हुए आकाश ने मुसकराते हुए अंदर प्रवेश किया. आकाश के पीछेपीछे एक युवती भी थी. फिरोजी शिफोन की साड़ी और गले में उसी रंग की माला, हाथ में क्लच थामे, कंधे तक लहराते रेशमी बालों में वह बेहद आकर्षक लग रही थी. माथे पर छोटी सी बिंदी और बड़ीबड़ी काजल लगी मनमोहक आंखें उस के सांवले चेहरे पर चारचांद लगा रही थीं.

‘क्या यह लाली है?’ सोचते हुए सुनीता को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था.

‘‘ओह मम्मी, कितने वर्षों बाद मिल रही हूं आप से,’’ कह कर उत्साहित हो लाली सुनीता के पास आ कर खड़ी हो गई.

सब लोग बैडरूम में आ गए. दीपक को सहारा दे कर बिस्तर पर लिटा आकाश और लाली उस के पास बैठ गए.

‘‘मैं ऐप्पल जूस ले कर आती हूं,’’ कहते हुए सुनीता कमरे से निकली तो लाली भी पीछेपीछे हो ली.

‘‘मम्मी, आप बैठिए न पापा के पास. मुझे बताइए क्या करना है,’’ लाली बोली.

‘‘अरे नहीं बेटा, अभी तुम बैठो, मैं आती हूं एक मिनट में,’’ सुनीता का व्यवहार अचानक ही लाली के प्रति नरम हो गया. कुछ देर बाद हाथ में ट्रे थामे सुनीता वापस वहीं आ कर बैठ गई.

‘‘आप ठीक तो हैं न? पापाजी की तबीयत के बारे में सुन कर आप न जाने कब से परेशान हो रही होंगी, आप पीजिए पहले जूस,’’ लाली सुनीता की ओर जूस बढ़ाते हुए बोली.

‘‘मैं ठीक हूं. पर ये कैसे बेहोश हो गए थे आज अचानक? मुझे आकाश के घर पहुंच कर फोन करना भी भूल गए,’’ सुनीता के लहजे में थोड़ी शिकायत झलक रही थी.

‘‘पापा मेरे घर पहुंचे ही कहां थे, मम्मी,’’ आकाश बोला.

‘‘मतलब?’’ सुनीता की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.

‘‘हम आज आप के पास आना चाहते थे, पर सुबह 5 बजे ही कपूर हौस्पिटल से फोन आ गया. वहां एक मरीज का जरूरी औपरेशन होना था. औपरेशन करने वाले डा. सेठी के पिता का अचानक देहांत हो गया. वे लोग मुझ से औपरेशन करने की रिक्वैस्ट कर रहे थे. इसलिए मुझे उस हौस्पिटल में जाना ही पड़ा.

‘‘जब बर्थडे विश करने के लिए आप का फोन आया तब मैं हौस्पिटल में ही था. लाली जानती थी मेरे जन्मदिन के मौके पर आप दोनों आज मेरा इंतजार कर रहे होंगे.

‘‘जब कपूर हौस्पिटल से लाली को मैं ने फोन कर बताया कि औपरेशन के बाद कुछ घंटे मरीज की हालत पर नजर रखने के लिए मुझे वहां रुकना पड़ेगा तो आप लोगों के बारे में सोच कर यह परेशान हो गई और इस ने आप लोगों के पास अकेले ही आने का कार्यक्रम बना लिया.

‘‘लाली घर के नजदीक पहुंच कर औटोरिकशा से उतरी ही थी कि…तुम ही बताओ न,’’ आकाश बात बताते हुए लाली की ओर देख कर बोला.

‘‘मैं औटो से उतर कर घर की तरफ आ रही थी कि मैं ने देखा पापा ने घर के सामने खड़ी अपनी कार के पिछले दरवाजे को खोल डस्टर निकाला और आगे वाले शीशे को साफ किया. वे जब दोबारा दरवाजा खोल कर अंदर घुसे तो फिर बाहर नहीं निकले. मैं ने भीतर झांका तो देखा, पापा सीट पर बैठे थे और उन का सिर आगे की ओर झुका हुआ था.’’

लाली को बीच में रोक कर दीपक बोल पड़े, ‘‘मैं डस्टर वापस रखने अंदर घुसा तो मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. मैं सीट पर बैठ गया और अपना हाथ आगे वाली सीट पर रख, उस पर अपना सिर टिका लिया. इस के बाद मुझे नहीं पता, होश आया तो मैं हौस्पिटल में था, अगलबगल ये दोनों थे.’’

लाली ने अपनी बात का सिरा पकड़ते हुए फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘जब मैं ने कार की पिछली सीट पर पापा को उस हालत में देखा तो मैं घबरा गई, सोचा कि घर आ कर मम्मी को बुला लाऊं. फिर लगा कि इस समय ज्यादा वक्त बरबाद करना ठीक नहीं है. जल्दी से मैं ने आकाश के दोस्त डा. सचिन को फोन कर दिया, क्योंकि मैं जानती थी कि आकाश तो कपूर हौस्पिटल में होंगे. डा. सचिन ने अपने स्टाफ से तैयार रहने को कह दिया और मैं जल्दी से कार ड्राइव कर पापा को हौस्पिटल ले गई.

‘‘गेट पर ही स्टाफ के 2 लोग खड़े थे. वे पापा को इमरजैंसी में ले गए. शुगर लैवल अचानक कम ह९ो जाने के कारण पापा बेहोश हो गए थे.’’

‘‘मतलब, अगर लाली मुझे ले कर जल्दी से हौस्पिटल न जाती तो कुछ भी हो सकता था,’’ दीपक ने सुनीता की ओर देख कर कहा.

‘‘सचमुच, लाली ने आज सारी स्थिति को झट से समझ लिया और आप की जान बचा ली. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि बचपन में जो लाली बस शैतानियां करना ही जानती थी, वह अब इतनी समझदार हो गई है,’’ सुनीता के शब्दों से स्नेह झलकने लगा था.

‘‘मम्मी, ये सब आप की वजह से ही हुआ है,’’ लाली सुनीता की ओर देख कर बोली.

‘‘अरे, मेरी वजह से, मतलब?’’ सुनीता ने प्रश्नभरी दृष्टि से उसे निहारा.

‘‘हां, आप तो जानती ही हैं कि जब मैं बहुत छोटी थी तभी मेरी मां चल बसी थीं. बिन मां की बच्ची को सही रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं होता. बापू पूरी कोशिश करते थे मुझे एक बेहतर इंसान बनाने की, पर समय ही कहां होता था उन के पास मुझे देने के लिए.

‘‘याद है न, जब आप गांव आती थीं, मैं आकाश से कितना लड़ाईझगड़ा करती थी, फिर भी आप हमें बैठा कर अच्छीअच्छी बातें बताया करती थीं. आप ने ही तो बापू से कहा था कि मेरी पढ़ाई जारी रखी जाए. बस, जब शिक्षा का दामन थामा तो न जाने क्याक्या सीख लिया मैं ने. फिर जब आप और पापा अंकिता दीदी के पास आस्ट्रेलिया गए हुए थे तो यहां आकाश और मैं आप के बारे में खूब बातें किया करते थे. आकाश मुझे बताया करते थे कि आप कौन सा काम कैसे करती हैं, जीवन को ले कर आप का नजरिया क्या है और रिश्तों का आप के लिए क्या महत्त्व है. आप संकट के समय भी हिम्मत न हार कर धीरज से काम लेती हैं, यह भी बताया मुझे आकाश ने.

‘‘सच कहूं तो वह सब जानने के बाद मैं ने ठान लिया कि मैं भी आप जैसी बनूंगी. और बस, जीवन के सही मार्ग पर चलना शुरू कर दिया. मैं इस रास्ते पर  लगातार चलती रहूं और कभी भटक न पाऊं, इस के लिए मुझे आप के साथ की जरूरत है. मेरा हाथ थाम लो मम्मी, आप के बिना मैं अधूरी हूं.’’

सुनीता यह सब सुन कर भावविभोर हो गई. ‘लाली का मन कितना साफ है और मैं न जाने क्याक्या तोहमत लगा रही थी उस पर.’  सोच कर सुनीता खुद शर्मिंदा हो रही थी. उस ने आगे बढ़ कर लाली को गले लगा लिया. लाली की आंखों से टपटप आंसू बहने लगे.

‘‘अरे, आप दोनों के चेहरे लाल क्यों हो गए?’’ मुसकराते हुए आकाश बोला.

‘‘प्यारभरा मिलन जो हुआ है लाली और मां का. भई वाह, लाली और मां से मिल कर ही तो लालिमा शब्द बना है न. तो चमकने दो दोनों के चेहरे पर ये उज्ज्वल सी लालिमा.’’ दीपक मुसकराते हुए पूरी तरह स्वस्थ लग रहे थे.

घर के बाहर सूर्यास्त की लालिमा बिखरी हुई थी तो घर के भीतर नए रिश्ते के उदय होने की लालिमा फैली थी.

Love Story : पति, पत्नी, वो – ढलती उम्र की प्रेम कहानी

Love Story : ‘‘हाय, हैलो, सुन रहे हो न,’’

रघुनाथ प्रसाद दुबे ने फोन उठाया, ‘‘बोलोबोलो, मैं तुम्हारा 65 वर्षीय औनैस्ट रघु बोल रहा हूं.’’

‘‘हां… हां,’’ हंसती रागिनी की आवाज आ रही थी, ‘‘मैं कह रही थी, आज रविवार है, उस लक्ष्मी से डोसा बनवा लो.’’

‘‘अरे, कहां डोसा…? लक्ष्मी सुबह जल्दी आई, पोहा और जलेबी ले कर आई. पसीना बह रहा था, बोली, मेरे ये 10 साल बाद अचानक आ गए हैं. अब मुझे रिस्क नहीं लेना, तुरंत जाना है. और भागती हुई चली गई.’’

रघुनाथ प्रसाद की पत्नी रागिनी उन की मौसी की लड़की थी. दोनों की शादी के कारण उन की आलोचना होती रही. दोनों भयभीत रहते हैं. दोनों में प्रेम आज भी गाढ़ा बना हुआ है. पुत्री सुषमा और पुत्र अनिरुद्ध दोनों की शादी हो गई थी. दोनों विदेश में रह रहे थे.

अनिरुद्ध लंदन में भारतीय दूतावास में कार्यरत था. वहां उस की शादी होने के 5 साल बाद लड़का हुआ. यहां रघुनाथ प्रसाद और रागिनी चिंता में रहे. वहीं, पुत्री अमेरिका में रह रही सुषमा, इंजीनियर रवि त्रिपाठी की पत्नी ने शादी के बाद समय पर खुशखबरी दे दी.

पुत्री के आग्रह या कहें हठ के कारण रागिनी अमेरिका के न्यूयौर्क शहर गई थी. नवंबर माह की डेट दी थी डाक्टर ने. रागिनी वहां से अकसर रोज ही फोन करती रहती.

रविवार का दिन था. रघुनाथ प्रसाद अपने मित्र लक्ष्मण प्रसाद की सलाह पर काली मिट्टी से दांत साफ कर रहे थे. मुंह धोने में काफी देर लगी. नल बंद किया तो फोन की घंटी की आवाज सुनाई दी.

फोन उठाया तो डांट पड़ी, ‘‘कहां थे…? कब से मोबाइल उठाए हूं.’’

‘‘अरे, काली मिट्टी से दांत साफ कर रहा था.’’

‘‘ठीक है, लक्ष्मी आई कि नहीं?’’

‘‘कहां आई? दोपहरी में तप रहा हूं.’’

‘‘आप ने अनिरुद्ध, सुषमा व दामाद सभी को दुख पहुंचाया है यहां न आ कर.’’

‘‘ठीक है, फिलहाल लक्ष्मी अपने पति के साथ गायब.”

‘‘देखा न प्यार, यह कहलाता है प्यार, यानी मुझे बारबार पिन कर रही है. साथ में नहीं गया, इसलिए न.’’

रघुनाथ प्रसाद के दिमाग की नस चढ़ी और फोन रख दिया.

शाम को बाग में बैठे रघुनाथ प्रसाद सोच रहे थे कि अमेरिका जाना था, पर क्यों नहीं गया?

नवंबर का दूसरा सप्ताह था. सुबह की सैर कर रघुनाथ प्रसाद लौटे. फोन की घंटी बजी. फोन उठाया तो ‘‘बधाई हो, बधाई, सुषमा के लड़का हुआ है. लंदन खबर पहुंचा दी है. शायद अनिरुद्ध यहां आएगा. मैं सोच रही थी. उस के साथ में घर आऊं, पर अभी सुषमा के सासससुर 2 माह बाद आएंगे. सो, 2 माह और यानी कहूं तो एक वर्ष बाद यानी नववर्ष पर.’’

‘‘ठीक है, ठीक है. फोन रखता हूं, लक्ष्मण प्रसाद आ रहा है.’’

‘‘आओ लक्ष्मण प्रसाद. यह लो 200 रुपए. इन पैसों से पेड़ा लाओ. खबर बाद में बताऊंगा.’’

‘‘क्यों रे रघ्घु, मैं तुझ से बड़ा हूं. जान गया हूं कि अमेरिका से खबर आई है. ठहर, ये रुपए रख. मैं आया आधे घंटे में.’’

लक्ष्मण प्रसाद लौटा तो मिठाई का डब्बा और लाउडस्पीकर वाले को ले आया. रघुनाथ प्रसाद कुछ बोलते कि लक्ष्मण प्रसाद ने लाउडस्पीकर लगवा दिया. गाने बजने शुरू हो गए.

2 घंटे तक गाने बजते रहे. बंद हुए तो पड़ोसियों ने राहत की सांस ली. पर जब रघुनाथ प्रसाद पड़ोसियों को मिठाई बांटने पहुंचे तो हरेक ने गाने बजवाने पर प्रश्न पूछे, ‘‘नाती हुआ है न इसी खुशी में?’’

वे जब रामेश्वर प्रसाद के घर गए, तो उस ने भी पूछा और सुन कर बोले, ‘‘रघुनाथ प्रसाद, नाती अमेरिका में पैदा हुआ है. मिठाई ठीक, पर यहां इंडिया में लाउडस्पीकर पर गाने बजवा कर अच्छा नहीं किया.’’

इतने में रामेश्वर प्रसाद की पत्नी आई और बोली, ‘‘आप ने गाने नहीं बजवाने थे. आप को मालूम नहीं कि आप के मित्र लक्ष्मण प्रसाद की पत्नी की मृत्यु हो गई थी सुबह?’’

‘‘क्या…? लक्ष्मण प्रसाद स्वयं मेरे घर आया था. उस ने क्यों नहीं बताया? लाउडस्पीकर वाले को वह ही लाया और यह मिठाई भी. हां, मेरे बारबार कहने पर उस ने मिठाई नहीं खाई. उदास ही लौट गया था.’’

‘‘आप की खुशी पर पानी नहीं डालना चाहता था वह. अपना दुख लिया, मित्र है, सच्चा है न?’’

रघुनाथ प्रसाद को काटो तो खून नहीं.

2 दिन बाद रागिनी का फोन आया तो रघुनाथ प्रसाद ने अपना दुख उड़ेल दिया था.

रागिनी ने आखिर में कहा, ‘‘सुनो, लक्ष्मण प्रसाद ने जो रुपए लिए थे, वे वापस मत लेना.’’

2 दिनों के बाद रघुनाथ प्रसाद ने फोन किया रागिनी को कि कविता की कुछ लाइनें बोले-

‘‘वो था तब तक तो

मन लगा रहता था

दर्द थमा रहा

अब दर्द फैलता जा रहा है

काजल जैसा

हे प्रकृति, क्यों मुंह मोड़ लिया उस ने.’’

‘‘अरे बाप रे, यानी…?’’

‘‘अरे वो लक्ष्मण प्रसाद, पत्नी की मृत्यु के 2 दिनों बाद उस से मिलने पहुंच गया. उन का कोई लडक़ा नहीं था, लड़की ने ही अग्नि दी होगी?’’

‘‘हां रागिनी, अब तुम आओ जल्दी. मैं ने तो टैंशन की स्थिति में अनिरुद्ध से फोन पर बात की कि तुम भारत आ जाओ. बहू रत्ना ने स्वयं ही बता दिया कि इंडिया आना संभव नहीं है. क्या लोग अवसरवादी ज्यादा हो गए हैं? अपने संस्कारों में दम नहीं है क्या? अब हमतुम क्या कर सकते हैं? बदलाव आया है, बदलाव आता रहेगा.’’

‘‘अच्छा, ज्यादा मत सोचो. हां, सुबह लक्ष्मी से उबले आलू की रसदार सब्जी और परांठे बनवाना. देखो, खाने के बाद असली रघ्घू नजर आओगे.’’

‘‘थैक्यू, अब फोन रखता हूं.’’

एक महीना बाद रागिनी लौटी. अनिरुद्घ ने सारी व्यवस्था कर दी थी.

हवाईअड्डे पर रघुनाथ प्रसाद पहुंचे. रागिनी ने देखा कि रघुनाथ की दाढ़ी बढ़ी थी, कमीज में 2 बटनें नहीं थीं.

रागिनी ने गंभीर मुद्रा धारण की और घर आने के बाद चाय बनाने तक चुप ही रही. चाय खत्म हो गई तो रागिनी एकदम फूट पड़ी, ‘‘क्या दशा बना रखी है…’’

रघ्घू चुपचाप बैठे रहे. शाम हुई तो रागिनी उठी और पास के बाग में बैठ गई.

कुछ देर बाद रघुनाथ प्रसाद भी बाग में आ कर रागिनी के पास चुपचाप आ कर बैठ गए.

रागिनी फूट पड़ी, बोली, ‘‘लगता है, आत्महत्या कर लूं.’’

रघुनाथ प्रसाद ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी आत्महत्या पहली होगी, पर मेरी तो दूसरी आत्महत्या होगी.’’

‘‘यानी… दूसरी कैसे?’’

‘‘अरे, पहली आत्महत्या तो जब तुम से शादी की थी,’’ कहते रघुनाथ प्रसाद डर के मारे खड़े हो गए थे.

‘‘क्या कहा…?’’ कहती हुई रागिनी गुस्से में खड़ी हो गई, तो रघुनाथ प्रसाद भागने लगे.

बाग में काफी पतिपत्नी बैठे थे. उन्होंने जब भागते रघुनाथ प्रसाद के पीछे रागिनी को भी भागते देखा तो जोरजोर से हंसने लगे, तालियां बजाने लगे. वे दोनों शरमा गए. और फिर से बैंच पर आसपास बैठे और अपने किए पर स्वयं भी जोरजोर से हंसने लगे थे.

लेखक : अविनाश दत्रात्रय कस्तुरे

Best Short Story : सोहा किसे लेकर ज्यादा चिंतित थी

Best Short Story : सुधाकरऔर सविता की शादी के 7 साल बाद सोहा का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के साथ पूरे परिवार की खुशी की सीमा न रही थी. शानदार दावत का आयोजन कर दूरदूर के रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था.

सोहा के 3 साल की होने पर उसे स्कूल में दाखिल करवा दिया. एक दिन सविता को बेटी के पैर पर व्हाइट स्पौट्स से दिखे. रात में सविता ने पति को बताया तो अगले दिन सोहा को डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने ल्यूकोडर्मा कनफर्म किया. जान कर पतिपत्नी को गहरा आघात लगा. इकलौती बेटी और यह मर्ज, जो ठीक होने का नाम नहीं लेता.

डाक्टर ने बताया, ‘‘ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण व्हाइट स्पौट्स हो जाते हैं. कभीकभी कोई दवा भी रीएक्शन कर जाती है. आप अधिक परेशान न हों. अब ऐसी दवा उपलब्ध है जिस के सेवन से ये बढ़ नहीं पाते और कभीकभी तो ठीक भी हो जाते हैं.’’

डाक्टर की बात सुन कर सुधाकर और सविता ने थोड़ी राहत की सांस ली. फिर स्किन स्पैशलिस्ट की देखरेख में सोहा का इलाज शुरू हो गया.

यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही सोहा गुलाब के फूल सी खिल उठी. उस के सरल व्यक्तित्व और सौंदर्य में बेहिसाब आकर्षण था. मगर उस के पैरों के व्हाइट स्पौट्स ज्यों के त्यों थे. हां, दवा लेने के कारण वे बढ़े नहीं थे. सोहा को अपने इस मर्ज की कोई चिंता नहीं थी.

सविता और सुधाकर ने कभी इस बीमारी का जिक्र अथवा चिंता उस के समक्ष प्रकट नहीं की. अत: सोहा ने भी कभी इसे मर्ज नहीं समझा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद फैशन डिजाइनर की ट्रेनिंग के लिए उस का चयन हो गया. वह कुशाग्रबुद्धि थी. अत: फैशन डिजाइनर का कोर्स पूर्ण होते ही उसे कैंपस से जौब मिल गई. बेटी की योग्यता पर मातापिता को गर्व की अनुभूति हुई.

सोहा को जौब करतेकरते 2 साल बीत गए. अब सविता को उस की शादी की चिंता होने लगी. सर्वगुणसंपन्न होने पर भी बेटी में एक भारी कमी के कारण पतिपत्नी की कहीं बात चलाने की हिम्मत नहीं पड़ती. दोनों जानते थे कि उस की योग्यता और खूबसूरती के आधार पर बात तुरंत बन जाएगी, लेकिन फिर उस की कमी आड़े आ जाएगी, सोच कर उन का मर्म आहत होता.

यद्यपि सुधाकर और सविता को पता था कि शरीर की सीमित जगहों पर हुए ल्यूकोडर्मा के दागों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई जा सकती है, लेकिन पतिपत्नी 2 कारणों से इस के लिए सहमत नहीं थे. पहला यह कि वे अपनी प्यारी बेटी सोहा को इस तरह की कोई शारीरिक तकलीफ नहीं देना चाहते थे और दूसरा यह कि इस रोग को सोहा की नजरों में कुछ विशेष अड़चन अथवा शारीरिक विकृति नहीं समझने देना चाहते थे. इसी कारण सोहा अपने को हर तरह से नौर्मल ही समझती.

दोनों पतिपत्नी को पूरा विश्वास था कि उन की बेटी को अच्छा वर और घर मिल जाएगा. इसी विश्वास पर सुधाकर ने औनलाइन सोहा की शादी का विज्ञापन डाला.

कुछ दिनों के बाद यूएसए से डाक्टर अर्पित का ईमेल आया, साथ में उन का फोटो भी. उन्होंने अपना पूरा परिचय देते हुए लिखा था, ‘‘मैं डा. अर्पित स्किन स्पैशलिस्ट हूं. बैचलर हूं और स्वयं के लिए आप का प्रस्ताव पसंद है. आप ने अपनी बेटी में जिस कमी का वर्णन किया है, वह मेरे लिए कोई माने नहीं रखती है. मैं आप को पूर्ण विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारी तरफ से आप को या आप की बेटी को कभी किसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘यदि आप को भी हमारा रिश्ता मंजूर हो तो आप लोग बैंगलुरु जा कर मेरे मातापिता से बात कर सकते हैं. बात पक्की होने पर मैं विवाह के लिए इंडिया आ जाऊंगा.’’

अर्पित का मैसेज सुधाकर और सविता को सुखद प्रतीत हुआ. सोहा से भी बात की. उसे भी अर्पित की जौब और फोटो पसंद आया. मातापिता के कहने पर उस ने अर्पित से बात भी की. सब कुछ ठीक लगा.

बैंगलुरु जा कर सुधाकर ने अर्पित के परिवार वालों से बातचीत की. बिना किसी नानुकुर के शादी पक्की हो गई. 1 माह का अवकाश ले कर अर्पित इंडिया आ गया. धूमधाम के साथ सोहा और अर्पित परिणयसूत्र में बंध गए. विवाहोपरांत कुछ दिन मायके और ससुराल में रह कर वह अर्पित के साथ यूएसए चली गई.

सबकुछ अच्छा होने पर भी सुधाकर और सविता को बेटी के शुभ भविष्य के प्रति मन में कुछ खटक रहा था.

यूएसए पहुंच कर सोहा रोज ही मां से फोन पर बातें करती. अपना,

अर्पित का और दिनभर कैसे व्यतीत हुआ, पूरा हाल बताती. अर्पित के अच्छे स्वभाव की प्रशंसा भी करती.

सविता को अच्छा लगता. वे पूछना चाहतीं कि उस के पैरों के बारे में कुछ बात तो नहीं होती, लेकिन पूछ नहीं पाती, क्योंकि अभी तक कभी उस से व्यक्तिगत रूप से इस पर बात कर के उस का ध्यान इस तरफ नहीं खींचा था ताकि बेटी को कष्ट की अनुभूति न हो.

सोहा ने भी कभी इस बाबत मां से कोई बात नहीं की, इस विषय में मां से कुछ कहना उसे कोई जरूरी बात नहीं लगती थी. बस इसी तरह समय सरकता रहा.

स्वयं स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर होने के कारण अर्पित को ल्यूकोडर्मा के बारे में पूरी जानकारी थी. वे इस से परिचित थे कि यह बीमारी आनुवंशिक होती है और न ही छूत से. अपितु शरीर में ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण हो जाती है. एक लिमिट में रहने तक प्लास्टिक सर्जरी से छिपाया जा सकता है. उन्होंने सोहा के साथ भी वही किया. कुछ अन्य डाक्टरों से सलाहमशवरा कर के उन्होंने बारीबारी से सोहा के दोनों पैर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा ठीक कर दिए.

कुछ समय और बीता तो सोहा को पता चला कि उस के पांव भारी हैं. उस ने अर्पित को इस शुभ समाचार से अवगत कराया.

अर्पित ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उसे बांहों में भर लिया, ‘‘मां को भी इस शुभ समाचार से अवगत कराओ,’’ अर्पित ने कहा.

‘‘हां, जरूर,’’ सोहा ने मुसकराते हुए कहा.

दूसरे दिन सोहा ने फोन पर मां को बताया. सविता और सुधाकर को अपार हर्ष की

अनुभूति हुई. उन्हें विश्वास हो गया कि उन की बेटी का दांपत्य जीवन सुखद है.

दोनों पतिपत्नी ने शीघ्र यूएसए जाने की तैयारी भी कर ली. सोहा और अर्पित के पास मैसेज भी भेज दिया. यथासमय बेटीदामाद उन्हें रिसीव करने पहुंच गए. काफी दिनों बाद सोहा को देख कर सविता ने उसे गले से लगा लिया. घर आ कर विस्तृत रूप से बातचीत हुई.

सोहा के पैरों को सही रूप में देख कर सुधाकर और सविता को असीम खुशी हुई.

शिकायत करती हुई सविता ने सोहा से कहा, ‘‘अपने पैरों के बारे में तुम ने मुझे नहीं बताया?’’

‘‘हां मां, यह कोई ऐसी विशेष बात तो थी नहीं, जो तुम्हें बताती,’’ सोहा ने लापरवाही से कहा.

सविता के मन ने स्वीकार लिया कि बेटी की जिस बीमारी को ले कर वे लोग 24-25 सालों तक तनाव में रहे वह अर्पित के लिए कोई विशेष बात नहीं रही. ‘योग्य दामाद के साथ बेटी का दांपत्य जीवन और भविष्य उज्ज्वल रहेगा,’ सोच सविता को भारी सुकून मिला.

Romantic Story : ट्रेन की यादगार सफर

Romantic Story : शाम को 1 नंबर प्लेटफार्म की बैंच पर बैठी कनिका गाड़ी आने का इंतजार कर रही थी. तभी कंधे पर बैग टांगे एक हमउम्र लड़का बैंच पर आ कर बैठते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें. लगता है आज गाड़ी लेट हो गई है.’’

न बोलना चाहते हुए भी कनिका ने हां में सिर हिला उस की तरफ देखा. लड़का देखने में सुंदर था. उसे भी अपनी ओर देखते हुए कनिका ने अपना ध्यान दूसरी ओर से आ रही गाड़ी को देखने में लगा दिया. उन के बीच फिर खामोशी पसर गई. इस बीच कई ट्रेनें गुजर गई. जैसे ही उन की टे्रन की घोषणा हुई कनिका उठ खड़ी हुई. गाड़ी प्लेटफार्ट पर आ कर लगी तो वह चढ़ने को हुई कि अचानक उस की चप्पल टूट गई और पैर पायदान से फिसल प्लेटफार्म के नीचे चला गया.

कनिका के पीछे खड़े उसी अनजान लड़के ने बिना देर किए झटके से उस का पैर निकाला और फिर सहारा दे कर उठाया. वह चल नहीं पा रही थी. उस ने कहा, ‘‘यदि आप को बुरा न लगे तो मेरे कंधे का सहारा ले सकती हैं… ट्रेन छूटने ही वाली है.’’

कनिका ने हां में सिर हिलाया तो अजनबी ने उसे ट्रेन में सहारा दे चढ़ा कर सीट पर बैठा दिया और खुद भी सामने की सीट पर बैठ गया. तभी ट्रेन चल दी.

उस ने अपना नाम पूरब बता कनिका से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘कनिका.’’

‘‘आप को कहां जाना है?’’

‘‘अहमदाबाद.’’

‘‘क्या करती हैं?’’

‘‘मैं मैनेजमैंट की पढ़ाई कर रही हूं. वहां पीजी में रहती हूं. आप को कहां जाना है?’’

‘‘मैं भी अहमदाबाद ही जा रहा हूं.’’

‘‘क्या करते हैं वहां?’’

‘‘भाई से मिलने जा रहा हूं.’’

तभी अचानक कंपार्टमैंट में 5 लोग घुसे और फिर आपस में एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकराते हुए 3 लोग कनिका की बगल में बैठ गए. उन के मुंह से आती शराब की दुर्गंध से कनिका का सांस लेना मुश्किल होने लगा. 2 लोग सामने पूरब की साइड में बैठ गए. उन की भाषा अश्लील थी.

पूरब ने स्थिति को भांप कनिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे पैर में चोट है. तुम इधर आ जाओ… ऊपर वाली बर्थ पर लेट जाओ… बारबार आनेजाने वालों से तुम्हें परेशानी होगी.’’

कनिका स्थिति समझ पूरब की हर बात किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह माने जा रही थी. पूरब ने सहारा दिया तो वह ऊपर की बर्थ पर लेट गई. इधर पैर में चोट से दर्द भी हो रहा था.

हलकी सी कराहट सुन पूरब ने मूव की ट्यूब कनिका की तरफ बढ़ाई तो उस के मुंह

से बरबस निकल गया, ‘‘ओह आप कितने अच्छे हैं.’’

उन लोगों ने पूरब को कनिका की इस तरह सेवा करते देख फिर कोई कमैंट नहीं कसा और अगले स्टेशन पर सभी उतर गए.

कनिका ने चैन की सांस ली. पूरब तो जैसे उस की ढाल ही बन गया था.

कनिका ने कहा, ‘‘पूरब, आज तुम न होते तो मेरा क्या होता?’’ मैं किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करूं… आज जो भी तुम ने मेरे लिए किया शुक्रिया शब्द उस के सामने छोटा पड़ रहा है.

‘‘ओह कनिका मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता.’’

बातें करतेकरते अहमदाबाद आ गया. कनिका ने अपने बैग में रखीं स्लीपर निकाल कर पहननी चाहीं, मगर सूजन की वजह से पहन नहीं पा रही थी. पूरब ने देखा तो झट से अपनी स्लीपर निकाल कर दे दीं. कनिका ने पहन लीं.

पूरब ने कनिका का बैग अपने कंधे पर टांग लिया. सहारा दे कर ट्रेन से उतारा और फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें पीजी तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

‘‘कैसे जाओगी? अपने पैर की हालत देखी है? किसी नर्सिंग होम में दिखा लेते हैं. फिर तुम्हें छोड़ कर मैं भैया के पास चला जाऊंगा. आओ टैक्सी में बैठो.’’

कनिका के टैक्सी में बैठने पर पूरब ने टैक्सी वाले से कहा, ‘‘भैया, यहां जो भी पास में नर्सिंगहोम हो वहां ले चलो.’’

टैक्सी वाले ने कुछ ही देर में एक नर्सिंगहोम के सामने गाड़ी रोक दी.

डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने कहा, ‘‘ज्यादा नहीं लगी है. हलकी मोच है. आराम करने से ठीक हो जाएगी. दवा लिख दी है लेने से आराम आ जाएगा.’’

नर्सिंगहोम से निकल कर दोनों टैक्सी में

बैठ गए. कनिका ने अपने पीजी का पता बता दिया. टैक्सी सीधा पीजी के पास रुकी. पूरब ने कनिका को उस के कमरे तक पहुंचाया. फिर जाने लगा तो कनिका ने कहा, ‘‘बैठिए, कौफी पी कर जाइएगा.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे देर हो जाएगी तो भैया चिंतित होंगे. कौफी फिर कभी पी लूंगा.’’

जाते हुए पूरब ने हाथ हिलाया तो कनिका ने भी जवाब में हाथ हिलाया और फिर दरवाजे के पास आ कर उसे जाते हुए देखती रही.

थोड़ी देर बाद बिस्तर पर लेटी तो पूरब का चेहरा आंखों के आगे घूम गया… पलभर को पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई, धड़कनें तेज हो गईं.

तभी कौल बैल बजी.

इस समय कौन हो सकता है? सोच कनिका फिर उठी और दरवाजा खोला तो सामने पूरब खड़ा था.

‘‘क्या कुछ रह गया था?’’ कनिका ने पूछा, ‘‘हां… जल्दबाजी में मोबाइल यहीं भूल गया था.’’

‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई कि मेरे पैरों में तुम्हारी स्लीपर हैं. इन्हें भी लेते जाना,’’ कह कौफी बनाने चली गई. अंदर जा कर कौफी मेकर से झट से 2 कप कौफी बना लाई, कनिका पूरब को कनखियों से देख रही थी.

पूरब फोन पर भाई से बातें करने में व्यस्त था. 1 कप पूरब की तरफ बढ़ाया तो पूरब की उंगलियां उस की उंगलियों से छू गईं. लगाजैसे एक तरंग सी दौड़ गई शरीर में. कनिका पूरब के सामने बैठ गई, दोनों खामोशी से कौफी पीने लगे.

कौफी खत्म होते ही पूरब जाने के लिए उठा और बोला, ‘‘कनिका, मुझे तुम्हारा मोबाइल नंबर मिल सकता है?’’

अब तक विश्वास अपनी जड़े जमाने लगा था. अत: कनिका ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

पूरब फिर मिलेंगे कह कर चला गया. कनिका वापस बिस्तर पर आ कर कटे वृक्ष की तरह ढह गई.

खाना खाने का मन नहीं था. पीजी चलाने वाली आंटी को भी फोन पर ही अपने आने की खबर दी, साथ ही खाना खाने के लिए भी मना कर दिया.

लेटेलेटे कनिका को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला. सुबह जब सूर्य की किरणें आंखों पर पड़ीं तो आंखें खोल घड़ी की तरफ देखा, 8 बज रहे थे. फिर बड़बड़ाते हुए तुरंत

उठ खड़ी हुई कि आज तो क्लास मिस हो गई. जल्दी से तैयार हो नाश्ता कर कालेज के लिए निकल गई.

एक सप्ताह कब बीत गया पता ही नहीं चला. आज कालेज की छुट्टी थी. कनिका को बैठेबैठे पूरब का खयाल आया कि कह रहा था फोन करेगा, लेकिन उस का कोई फोन नहीं आया. एक बार मन किया खुद ही कर ले. फिर खयाल को झटक दिया, लेकिन मन आज किसी काम में नहीं लग रहा था. किताब ले कर कुछ देर यों ही पन्ने पलटती रही, रहरह कर न जाने क्यों उसे पूरब का खयाल आ रहा था. अनमनी हो खिड़की से बाहर देखने लगी.

तभी अचानक फोन बजा. देखा तो पूरब का था. कनिका ने कांपती आवाज में हैलो कहा.

‘‘कैसी हो कनिका?’’ पूरब ने पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसे हो? तुम ने कोई फोन नहीं किया?’’

पूरब ने हंसते हुए कहा, ‘‘मैं भाई के साथ व्यवसाय में व्यस्त था, हमारा हीरों का व्यापार है.’’

तुम तैयार हो जाओ मैं लेने आ रहा हूं.

कनिका के तो जैसे पंख लग गए. पहनने के लिए एक प्यारी पिंक कलर की ड्रैस निकाली. उसे पहन कानों में मैचिंग इयरिंग्स पहन आईने में निहारा तो आज एक अलग ही कनिका नजर आई. बाहर बाइक के हौर्न की आवाज सुन कर कनिका जल्दी से बाहर भागी. पूरब हलके नीले रंग की शर्ट बहुत फब रहा था. कनिका सम्मोहित सी बाइक पर बैठ गई.

पूरब ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर लग रही हो.’’

सुन कर कनिका का दिल रोमांचित हो उठा. फिर पूछा, ‘‘कहां ले चल रहे हो?’’

‘‘कौफी हाउस चलते हैं… वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ और फिर बाइक हवा से बातें करने लगी.

कनिका का दुपट्टा हवा से पूरब के चेहरे पर गिरा तो भीनी सी खुशबू से पूरब का दिल जोरजोर से धड़कने लगा.

कनिका ने अपना आंचल समेट लिया.

‘‘पूरब, एक बात कहूं… कुछ देर से एक गाड़ी हमारे पीछे आ रही है. ऐसा लग रहा है जैसे कोई हमें फौलो कर रहा है.’’

‘‘तुम्हारा वहम है… उन्हें भी इधर ही जाना होगा.’’

‘‘अगर इधर ही जाना है तो हमारे पीछे ही क्यों चल रहे हैं… आगे भी निकल कर जा सकते हैं.’’

‘‘ओह, शंका मत करो… देखो वह काफी हाउस आ गया. तुम टेबल नंबर 4 पर बैठो. मैं बाइक पार्क कर के आता हूं.’’

कनिका अंदर जा कर बैठ गई.

पूरब जल्दी लौट आया. बोला, ‘‘कनिका क्या लोगी? संकोच मत करो… अब तो हम मिलते ही रहेंगे.’’

‘‘पूरब ऐसी बात नहीं है. मैं फिर कभी… आज और्डर तुम ही कर दो.’’

वेटर को बुला पूरब ने 2 कौफी का और्डर दे दिया. कुछ ही पलों में कौफी आ गई.

कौफी पीने के बाद कनिका ने घड़ी की तरफ देख पूरब से कहा, ‘‘अब हमें चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है मैं तुम्हें छोड़ कर औफिस चला जाऊंगा. मेरी एक मीटिंग है.’’

पूरब कनिका को छोड़ कर अपने औफिस पहुंचा. भाई सौरभ के

कैबिन में पहुंचा तो उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. पूछा, ‘‘पूरब कहां थे? क्लाइंट तुम्हारा इंतजार कर चला गया. तुम कहां किस के साथ घूम रहे थे… मुझे सब साफसाफ बताओ.’’

अपनी एक दोस्त कनिका के साथ था… आप को बताया तो था.’’

‘‘मुझे तुम्हारा इन साधारण परिवार के लोगों से मिलनाजुलना पसंद नहीं है… और फिर बिजनैस में ऐसे काम नहीं होता है… अब तुम घर जाओ और फोन पर क्लाइंट से अगली मीटिंग फिक्स करो.’’

‘‘जी भैया.’’

कनिका और पूरब की दोस्ती को 6 महीने बीत गए. मुलाकातें बढ़ती गईं. अब दोनों एकदूसरे के काफी नजदीक आ गए थे. एक दिन दोनों घूमने के  लिए निकले. तभी पास से एक बाइक पर सवार 3 युवक बगल से गुजरे कि अचानक सनसनाती हुई गोली चली जो कनिका की बांह को छूती हुई पूरब की बांह में जा धंसी.

कनिका चीखी, ‘‘गाड़ी रोको.’’

पूरब ने गाड़ी रोक दी. बांह से रक्त की धारा बहने लगी. कनिका घबरा गई. पूरब को सहारा दे कर वहीं सड़क के किनारे बांह पर दुपट्टा बांध दिया और फिर मदद के लिए

सड़क पर हाथ दिखा गाड़ी रोकने का प्रयास करने लगी. कोई रुकने को तैयार नहीं. तभी कनिका को खयाल आया. उस ने 100 नंबर पर फोन किया. जल्दी पुलिस की गाड़ी पहुंच गई. सब की मदद से पूरब को अस्पताल में भरती करा पूरब के फोन से उस के भाई को फोन पर सूचना दे दी.

डाक्टर ने कहा कि काफी खून बह चुका है. खून की जरूरत है. कनिका अपना खून देने के लिए तैयार हो गई. ब्लड ग्रुप चैक कराया तो उस का ब्लड गु्रप मैच कर गया. अत: उस का खून ले लिया गया.

तभी बदहवास से पूरब के भाई ने वहां पहुंच डाक्टर से कहा, ‘‘किसी भी हालत में मेरे भाई को बचा लीजिए.’’

‘‘आप को इस लड़की का धन्यवाद करना चाहिए जो सही समय पर अस्पताल ले आई… अब ये खतरे से बाहर हैं.’’

सौरभ की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. जैसे ही पूरब को होश आया सौरभ फफकफफक कर रो पड़ा, ‘‘भाई, मुझे माफ कर दे… मैं पैसे के मद में एक साधारण परिवार की लड़की को तुम्हारे साथ नहीं देख सका और उसे तुम्हारे रास्ते से हमेशा के लिए हटाना चाहा पर मैं भूल गया था कि पैसे से ऊपर इंसानियत भी कोई चीज है. कनिका मुझे माफ कर दो… पूरब ने तुम्हारे बारे में बताया था कि वह तुम्हें पसंद करता है. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि साधारण परिवार की लड़की हमारे घर की बहू बने… आज तुम ने मेरे भाई की जान बचा कर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया,’’ और फिर कनिका का हाथ पूरब के हाथों में दे कर बोला, ‘‘मैं जल्द ही तुम्हारे मातापिता से बात कर के दोनों की शादी की बात करता हूं.’’ कह बाहर निकल गया.

पूरब कनिका की ओर देख मुसकराते हुए बोला, ‘‘कनिका, अब हम सहयात्री से जीवनसाथी बनने जा रहे हैं.’’ यह सुन कनिका का चेहरा शर्म से लाल हो गया.

लेखिका : अर्विना गहलोत       

“Kesari Chapter 2’’ के निर्माताओं ने खुद मारी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी

Kesari Chapter 2 : 2025 की दूसरी तिमाही के तीन सप्ताह बाद भी बौलीवुड में मनहूसी छाई हुई है. तीसरे सप्ताह 18 अप्रैल को अक्षय कुमार की फिल्म ‘‘केसरी चैप्टर 2: अनटोल्ड स्टोरी औफ जलियांवाला बाग’’ रिलीज हुई. फिल्म का ट्रेलर देख कर इस फिल्म से काफी उम्मीदें बंधी थीं. 13 अप्रैल 1919 के दिन ब्रिटिश हुकुमत ने अमृतसर के जलियांवाला बाग मे रोएल्ट एक्ट का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे हजारो निहत्थे निर्देशों पर गोलियां बरसाई थी, जिन में छोटे मासूम बच्चे भी मारे गए थे.

जलियावाला बाग कांड एक ऐसा जख्म है, जिस का दर्द आज भी रिस रहा है. आज भी जलियांवाला बाग कांड का नाम आते ही हर भारतीय का अंग्रेजों के खिलाफ खून खौल उठता है. इस वजह से भी इस फिल्म के ट्रेलर ने हर इंसान को प्रभावित किया था. लेकिन फिल्म के निर्माताओं (करण जोहर की धर्मा प्रोडक्शन और अक्षय कुमार की ‘कैप गुड फिल्मस’ ) ने फिल्म की एडवांस बुकिंग शुरू करने से पहले ही ऐसा हथकंडा अपनाया कि दर्शकों का इस फिल्म से मोहभंग हो गया और अब यह फिल्म बुरी तरह से डिजास्टर हो चुकी है.

वास्तव में अक्षय कुमार और करण जोहर ने अपनी फिल्म को राजनीतिक हथकंडा बना डाला. फिल्म के रिलीज से 4 दिन पहले 14 अप्रैल को हिसार की सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सी शंकरन नायर व फिल्म की चर्चा की. फिर 15 अप्रैल को दिल्ली में हरदीप पुरी सहित कई मंत्रियों को फिल्म दिखा कर फिल्म का प्रचार कराया. 16 अप्रैल को दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, अहमदाबाद,लखनऊ सहित कई शहरों में अक्षय कुमार के फैंस को फ्री में फिल्म दिखा कर उस के वीडियो यूट्यूब व सोशल मीडिया पर वायरल किए गए. इस का फिल्म के पक्ष में नहीं बल्कि नगेटिव असर हुआ.

दूसरी बात पर इंटरनेट, एआई ग्रोक व रेडिफ डोट काम सहित कई वेब साइट की माने तो फिल्म ‘केसरी चैप्टर 2’ में काल्पनिक इतिहास लिखने का प्रयास है. 13 अप्रैल 1919 के दिन जलियांवाला बाग मे हुए नरसंहार के बाद एक ब्रिटिश पत्रकार ने ही इस हादसे का पूरा विववरण छापा था, जिस से पूरे विश्व में ब्रिटिश हुकूमत की थूथू हुई थी. तब लीपापोती करने के लिए ब्रिटिश हुकुमत ने हंटर कमीशन बैठाया था. इस की जांच रपट के आधार पर जनरल डायर को उन की कमान से बाहर कर दिया गया था. उस के दो साल बाद सी शंकरन नायर ने एक किताब ‘गांधी एंड एनारकी’ लिखी थी, जिस में उन्होंने पंजाब के गर्वनर ओ डायर के खिलाफ कुछ लिखा था, इसी किताब को आधार बना कर ओडायर ने इंग्लैंड में सी शंकरण नायर के खिलाफ मानहानि का मुकादमा किया था, जिस में शंकरन नायर की बुरी तरह से हार हुई थी. और उन्हें जुर्माना भरना पड़ा था. इस सच ने आग मे घी डालने वाला ऐसा काम किया कि लोगों ने फिल्म‘ केसरी चैप्टर 2’ से दूरी बना ली. बाक्स आफिस आंकड़े दावे कर रहे हैं कि ‘केसरी चैप्टर 2’ ने एक हफ्ते यानी कि 7 दिन में साढ़े 43 करोड़ रूपए बाक्स आफिस पर एकत्र किए, इस में से निर्माता की जेब में महज 15 करोड़ रूपए ही जाएंगे.

अक्षय कुमार जैसे तथाकथित सुपरस्टार की फिल्म का बाक्स आफिस पर यह हश्र हो कहीं से भी सोभा नहीं देता. यह तो ऊंट के मुंह में जीरा वाली बात हो गई. केसरी चैप्टर 2 के सात दिन के आंकड़ों से यह बात साफ हो जाती है कि यह फिल्म अपनी लागत वसूल करने में बुरी तरह से नाकाम है. वैसे भी निर्माता फिल्म की लागत बताने को तैयार ही नहीं हैं. अक्षय कुमार हर फिल्म के लिए 120 करोड़ रूपए पारिश्रमिक राशि लेते हैं. लेकिन अब अक्षय कुमार दावा कर रहे हैं कि उन्होंने ‘केसरी चैप्टर 2’के लिए कोई फीस नहीं ली.

फिल्म ‘केसरी चैप्टर 2’ की असफलता से निर्माता को जो नुकसान हुआ, उस की भरपाई तो वह ऐन केन प्रकारेण कर लेगा..पर अहम सवाल यह है कि सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर इतिहास के साथ छेड़छाड़ करने को भी अपराध माना जाए या न माना जाए?

देखिए, आज की पीढ़ी किताब कम पढ़ती है, पर सिनेमा देखती है और वह सिनेमा में वर्णित इतिहास को ही सच्चा इतिहास मान बैठती है. इस से उस का और देश दोनों का नुकसान हो रहा है. ऐसे में फिल्मकार व कलाकार की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐतिहासिक विषयों को उठाते समय सावधानी बरतें. कम से कम इतिहास को गलत ढंग से न पेश करें. पर यहां कौन किस की सुनने वाला. सभी को रातोंरात सब से ज्यादा धन जो कमाना है.

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