Download App

Story In Hindi : वतनपरस्ती – उनकी दांत काटी दोस्ती दुश्मनी में क्यों बदल गई

Story In Hindi : ‘‘नया देश, नए लोग दिल नहीं लगता… जी करता है इंडिया लौट जाऊं,’’ समीक्षा ने रोज का राग अलापा. ‘‘यह आस्ट्रेलिया है. सब से अच्छे विकसित देशों में से एक. यहां आ कर बसने के लिए लोग जमीनआसमान एक कर देते हैं और तुम यहां से वापस जाने की बात करती हो. अब इसे मैं तुम्हारा बचपना न कहूं तो और क्या कहूं?’’

‘‘तो क्या करूं? तुम्हारे पास तो तुम्हारे काम की वजह से अपना सोशल सर्कल है, दोनों बच्चों के पास भी उन के स्कूल के फ्रैंड्स हैं. बस एक मैं ही बचती हूं जिसे दिन भर चारदीवारी में अर्थहीन वक्त गुजारना पड़ता है. अकेले रहरह कर तंग आ गई हूं मैं.’’ ‘‘हां, लंबे समय तक चुप रहने के कारण तुम्हारे मुंह से बदबू भी तो आने लगती होगी,’’ प्रतीक चुटकी लेते हुए बोला.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है, मगर मैं वास्तव में गंभीर हूं अपनी समस्या को ले कर… मेरी हालत तो कुएं के मेढक जैसी होती जा रही है. शादी से पहले जो पढ़ाईलिखाई की थी उसे भी घरगृहस्थी में फंस कर भूल चुकी हूं अब तक.’’ ‘‘कौन कहता है कि तुम कुएं का मेढक बन कर जियो… मैं तो चाहता हूं कि तुम आसमान की ऊंचाइयां छुओ.’’

‘‘इस चारदीवारी को पार कर के घर के 3 प्राणियों के सिवा किसी चौथे की सूरत देखने तक को तो नसीब नहीं होती… आसमान की ऊंचाइयों तक क्या खाक पहुंचुंगी मैं?’’ ‘‘जिंदगी की दिशा में अमूलचूल परिवर्तन जिंदगी को देखने के नजरिए और जैसेजैसे जिंदगी मिले उस से सर्वोत्तम पल निचोड़ कर जीवन अमृत ग्रहण करने में है,’’ प्रतीक समीक्षा के हाथ से चाय का प्याला ले कर उसे अपने पास बैठाते हुए किसी फिलौसफर के से अंदाज से बोला.

‘‘मुझे तो इस जीवनअमृत के प्याले को पाने की कोई युक्ति नहीं समझ आती. तुम ही कुछ समाधान ढूंढ़ो मेरे लिए.’’ ‘‘मैं खुद भी कुछ समय से तुम्हारी परेशानी महसूस कर रहा था. जैसेजैसे बच्चे बड़े होते जाएंगे उन की दुनिया हम से अलग होती जाएगी… तब बच्चे अपनी जिंदगी में और भी व्यस्त हो जाएंगे और तुम्हारा एकाकीपन बद से बदतर होता चला जाएगा. अच्छा होगा कि तुम खुद को उस वक्त से मुकाबला करने के लिए अभी से तैयार करना शुरू कर दो और कुछ पढ़लिख लो.’’

‘‘पढ़नालिखना और इस उम्र में… चलो तुम्हारी बात मान कर मैं कोई कोर्स कर भी लूं तो उस से होगा भी क्या? 1-2 साल में कोर्स पूरा हो जाएगा और मैं जहां से चलूंगी वहीं वापस आ कर खड़ी हो जाऊंगी… इस उम्र में मुझे कोई काम तो मिलने से रहा… वह भी यहां आस्ट्रेलिया में.’’ ‘‘नौकरी मिलने का आयु से संबंध जितना इंडिया में होता है उतना यहां आस्ट्रेलिया में नहीं. यहां तो एक तरह का चलन है कि बच्चों के थोड़ा बड़ा हो जाने के बाद मांएं खुद को रिबिल्ट करती हैं और जो भी कोर्सेज तत्कालीन इंडस्ट्री की जरूरत में होते हैं उन्हें कर के फिर से वर्कफोर्स में लौट आती हैं.’’

‘‘हां, अब तुम्हारा आशय कुछकुछ समझ में आ रहा है मुझे. मैं कल दोपहर में आराम से सभी यूनिवर्सिटीज की वैबसाइट पर जा कर देखूंगी कि मेरे लिए क्या ठीक रहेगा.’’

कई दिनों तक विभिन्न शिक्षण संस्थानों की वैबसाइट्स पर घंटों व्यतीत करने के बाद आखिर समीक्षा को एक कोर्स पसंद आ गया. ‘इवेंट मैनेजमैंट’ का. 15 साल बाद फिर से पढ़ाई शुरू करने की घबराहट मिश्रित उमंग के साथ वह टेफ इंस्टिट्यूट पहुंच गई.

यहीं पर उस की मुलाकात हफीजा से हुई. उस ने भी इवेंट मैनेजमैंट कोर्स में प्रवेश लिया था और अपने अंगरेजी के अल्प ज्ञान के कारण कुछ घबराई, सकुचाई अपनेआप में सिमटी सी रहती थी. हफीजा के हालात पर समीक्षा को बड़ी सहानुभूति होती. उसे लगता कि उसे हफीजा को सीमित दायरे से निकालने में उस की थोड़ी मदद करनी चाहिए. वह बचपन से सुनती आई थी कि ज्ञान बांटने से बढ़ता है. व्यावहारिक जीवन में इस की सत्यता को परखने की दृष्टि से समीक्षा ने हफीजा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. अब वह जब भी मौका मिलता हफीजा को अपने साथ अंगरेजी बोलने का अभ्यास कराने लगती.

समीक्षा जैसी बुद्धिजीवी दोस्त पा कर हफीजा भी बेहद प्रफुल्लित जान पड़ती थी. कृतज्ञता से सिर से पांव तक डूबी हुई वह मौकेबेमौके समीक्षा के परिवार को अपने घर बुला कर इराकी खाने की लजीज दावतें देती. समीक्षा भी अपने भारतीय पाककौशल का प्रदर्शन करने में पीछे न रहती और इंस्टिट्यूट जाने के लिए 2 लंच पैक तैयार कर के ले जाती. एक स्वयं के लिए और दूसरा अपनी हफीजा के लिए. वे दोनों क्लासरूम में पासपास बैठतीं, साथसाथ असाइनमैंट्स करतीं. दोनों के बीच की घनिष्ठता दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी. पंजाबी समीक्षा का गोरा रंग, तीखे नैननक्श, इराकी हफीजा से मिलतेजुलते से होने के कारण सभी उन्हें बहनें समझते. उन के बीच का अंतराल तब दृष्टव्य होता जब कोई उन से बात करता. समीक्षा धाराप्रवाह अंगरेजी बोलती तो हफीजा टूटीफूटी और वह भी पक्के इराकी लहजे में.

‘‘तुम्हारी इंग्लिश इतनी अच्छी कैसे है?’’ अपनी टूटीफूटी इंग्लिश से मायूस हफीजा से एक दिन रहा न गया तो उस ने समीक्षा से पूछ

ही लिया. ‘‘इंग्लिश एक तरह से हमारे देश की दूसरी भाषा है. हमारे यहां अच्छे से अच्छे इंग्लिश माध्यम के स्कूल हैं. उच्च शिक्षा का माध्यम ज्यादातर इंग्लिश ही है. इंग्लिश में अनगिनत पत्रपत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता है,’’ समीक्षा ने गर्व के साथ कुछ इस अंदाज में ‘इंडिया का हाल ए अंगरेजी’ बयां किया जैसेकि द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाला कोई सैनिक किसी को अपने जीते हुए पदकों की गिनती करा रहा हो.

थोड़ी देर हफीजा किंकर्तव्यविमूढ सी समीक्षा की बात सुनती रही, फिर बोली, ‘‘जिंदगी आसान रहती है तुम जैसों के लिए तो इंग्लिश भाषी देशों में आ कर. हमारे जैसों को यहां आ कर सब से पहले तो यहां की जबान सीखने की जंग लड़नी पड़ती है… बाकी चीजें तो बाद की हैं.’’ ‘‘हां हफीजा वह तो ठीक है, लेकिन मैं कई बार सोचती हूं कि ऐसे हालात में तुम यहां आ कैसे गईं, क्योंकि लोकल भाषा का ज्ञान वीजा मिलने की एक जरूरी शर्त है.’’

‘‘मैं… मैं वह क्या है मैं दूसरे तरीके से यहां आई थी,’’ हफीजा उस वक्त तो होशियारी के साथ बात टालने में कामयाब हो गई.

बहरहाल वक्त के साथ धीरेधीरे समीक्षा को पता चल गया कि हफीजा एक विधवा है. उस के पति की मृत्यु उस के बेटे के जन्म के 3-4 महीने पहले ही हो गई थी. अपने कुछ रिश्तेदारों की मदद से वह आस्ट्रेलिया चली आई थी एक रिफ्यूजी बन कर. वे सब रिश्तेदार भी कई साल पहले इसी तरीके से यहां आ कर अब तक आस्ट्रेलियन नागरिक बन चुके थे. पढ़ाई के साथसाथ वह एक रेस्तरां में कुछ घंटे वेटर का काम किया करती थी.

हफीजा का लाइफस्टाइल देख कर समीक्षा हैरान रहती थी. हफीजा का पहनावा किसी रईस से कम नहीं था. वह अच्छे इलाके में अच्छा घर किराए पर ले कर रहती थी और उस का बेटा भी उस क्षेत्र के सब से अच्छे स्कूल में पढ़ता था. ‘‘मुश्किल होती होगी तुम्हें अकेले संभालने में… कैसे संभव हो पाता है ये सब? कुछ घंटे वेटर का काम कर के तो किसी का भी गुजारा नहीं हो सकता यहां?’’ एक दिन घुमावदार तरीके से समीक्षा ने हफीजा के लाइफस्टाइल का राज जानने की उत्सुकता में पूछा. ‘‘मैं एक सिंगल मौम हूं, इसलिए मुझे ‘सोशल सिक्युरिटी अलाउंस’ मिलता है

सरकार से.’’ हफीजा के सत्य वचन समीक्षा को और भी जिज्ञासु बना गए. सो उस ने तहकीकात जारी रखी, ‘‘और तुम ने बताया था कि तुम जब आस्ट्रेलिया आई थी तो तुम्हें इंग्लिश का एक शब्द भी नहीं आता था, पर अब टूटीफूटी ही सही, मगर तुम्हें कामचलाऊ इंग्लिश आती ही है. कैसे सीखा ये सब तुम ने अपने दम पर?’’

‘‘मुझे यहां आ कर ‘एडल्ट माइग्रेंट इंग्लिश प्रोग्राम’ के तहत सरकार की तरफ से 510 घंटे की मुफ्त ट्यूशन मिली थी… अंगरेजी सीखने के लिए.’’

‘‘अच्छा तभी मैं सोचूं कि तुम्हारे इतने ठाट कैसे हैं… अब पता चला कि तुम्हारे देश से इतने सारे लोग रोजरोज बोट में बैठबैठ कर यहां क्यों चले आते हैं… क्यों कुछ खास देशों से आने वाले शरणार्थियों को ले कर नैशनल न्यूज में इतना होहल्ला होता है,’’ जल्दबाजी में समीक्षा के मुंह से सच्चे, मगर कड़वे शब्द बाहर फिसल गए. ‘‘हम से ज्यादा तो इंडियंस यहां आते हैं,’’ हफीजा ने अपना बचाव करते हुए कहा.

‘‘हां आते तो हैं पर आने का तरीका तुम लोगों वाला नहीं है. हमारे जैसे उच्चशिक्षित लोग स्किल माइग्रेशन वीजा पर आते हैं या फिर स्टूडैंट वीजा पर. दोनों ही स्थितियों में हम इन देशों की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में अपना योगदान देते हैं…’’ हफीजा ने तत्काल समीक्षा की बात बीच में काटी, ‘‘और हां वह क्या फरमाया तुम ने कि नैशनल न्यूज में हम जैसों को ले कर होहल्ला होता रहता है… क्या तुम ने कभी ‘एसबीएस’ टीवी देखा है… कैसीकैसी डौक्यूमैंटरीज आती हैं उस पर तुम्हारे इंडिया के बारे में… उफ वह खुले हुए बदबूदार गटर, गंदी झुग्गीझोंपडि़यां,’’ हफीजा ने नाक सिकोड़ कर हिकारत से कहा, ‘‘कुछ साल पहले एक औस्कर अवार्ड विनर मूवी भी तो बनी थी तुम्हारे देश के बारे में. उस में भी तो ये सब गंद ही दिखाया गया था… क्या नाम था उस का… हां याद आ गया ‘स्लमडौग मिलियनेयर…’ ओएओए हाल तेरे देश का बदहाल है, फिर भी तेरा दिमाग आसमां पर है,’’ हफीजा समीक्षा की बेइज्जती करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. ‘‘हम स्वाभिमानी लोग हैं… कम से कम तुम्हारी तरह मुफ्त की चीजों के लिए इधरउधर नहीं भागते फिरते. हमारा इंडिया, इंडिया है और तुम्हारा इराक, इराक… है कोई मुकाबला क्या… न ही हो सकता. इन विकसित देशों को हमारे जैसे प्रतिभासंपन्न लोगों की बहुत जरूरत होती है, इसलिए बड़ी कंपनियां हमारे वीजा स्पौंसर कर के हमें यहां बुलाती हैं. दुनिया भर की इनफौरमेशन टैक्नोलौजी हम इंडियंस के बलबूते पर ही चल

रही है. हम, हम हैं… हम बिना जरूरत के शरणार्थी बन कर विकसित देशों का आर्थिक विदोहन करने के लिए नहीं आते,’’ अब तक समीक्षा भी इंडोनेशिया में असमय फटने वाले ज्वालामुखी में तबदील हो चुकी थी. ‘‘बड़े ही फेंकू होते हो तुम लोग… ऐसे ही विद्वान हो तो अपने ही देश में सदियों तक गुलाम क्यों बने रहे… क्यों लुटतेपिटते रहे अपनी ही जमीं पर विदेशियों के हाथों?’’

‘‘लुटेरे तो वहीं आते हैं न जहां धनदौलत के अंबार लगे होते हैं. इतिहास गवाह है कि हमारा इंडिया प्राचीनकाल से ही अकूत संपदा और ज्ञान का केंद्र रहा है. जिसे देखो वही दुनिया भर से हमारा धन और ज्ञान लूटने चला आता था. जब ब्रिटिश लोग आए थे तो हमारी जीडीपी पूरे विश्व की 25% थी… यह हाल तो हमारे देश का तब था जबकि ब्रिटिश लोगों के आने के पहले भी अनगिनत आक्रमणकारी टनों संपदा लूट कर ले जा चुके थे. जगत गुरु है हमारा इंडिया समझीं तुम…?’’ समीक्षा के दिलदिमाग एक हो कर उसे आपे से बाहर कर चुके थे. ‘‘ऐसी ही चाहत है दुनिया को तुम लोगों की तो मेलबौर्न में इंडियन स्टूडैंट्स को ले कर इतने फसाने क्यों हुए थे?’’ जाने कहांकहां से हफीजा भी इंडियंस के बारे में खोदखोद कर नएपुराने तथ्य निकाल रही थी.

‘‘कुछ एक पागल लोग तो सब जगह होते हैं… थोड़ीबहुत ऊंचनीच तो सब जग हो जाती है… मगर तुम लोग, तुम तो जहां रहते हो वहीं दंगा करते हो. पूरी दुनिया सच जान चुकी है तुम्हारा… शांति से रहना तो तुम लोगों ने सीखा ही नहीं है. सुविधाओं का फायदा उठाने पहुंच जाते हो अच्छे देशों में, मगर सगे किसी के नहीं होते तुम लोग.’’

जवाब में हफीजा ने समीक्षा को खा जाने वाली निगाहों से घूरा. समीक्षा ने बदले में एक विदूप मुसकराहट उस की ओर फेंकी और अपनी किताबें समेटने लगी. हफीजा कुरसी को लात मारते हुए क्लासरूम से बाहर निकल गई. शुक्र है यह नजारा देखने के लिए उस वक्त वहां कोई नहीं था. वे दोनों फुरसत के क्षणों में एक खाली क्लासरूम में अंगरेजी का अभ्यास करने के लिए आई थीं. मगर यह हसीन गुफ्तगू अचानक बेहद संगीन मोड़ ले गई. उस दिन के बाद दोनों पक्की सहेलियां क्लासरूम के ओरछोर पर बैठने लगीं. एकदूसरे को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए. फिर कभी उन्होंने आपस में आंखें नहीं मिलाईं. यह आपसी दुश्मनी थी या फिर अपनीअपनी वतनपरस्ती, कहना मुश्किल है. Story In Hindi

Kahani In Hindi : प्यारा डाकू – नौकरानी ने कैसे दिलाई मां की याद

Kahani In Hindi : ‘‘हूं, तो आ गई भागवंती. कितनी बार कहा कि थोड़ा जल्दी आया कर, पर तू सुने तब न. खैर, चल जल्दीजल्दी सफाई कर ले, मुझे भी बाहर जाना है,’’ कह कर मैं आश्वस्त हो कर फैले हुए कपड़े समेटने लगी, पर भागवंती बुत बनी खड़ी रही. उसे देख कर मैं बोली, ‘‘क्या बात है, खड़ी क्यों है?’’

‘‘बीबीजी…’’

‘‘हांहां, बोल, क्या बात है?’’

‘‘बीबीजी, मेरी लड़की…’’ कह कर वह फिर चुप हो गई.

‘‘लड़की, क्या हुआ तुम्हारी लड़की को?’’ मैं ने थोड़ा घबरा कर पूछा.

‘‘कल होली है न, बीबीजी. वह आज शाम दामाद के साथ आ रही है.’’

‘‘ओह,’’ मैं ने आह भरी, ‘‘बड़ी पागल है तू. इस में घबराने की क्या बात है? तू ने तो मुझे डरा ही दिया था. जा, अब जल्दी काम कर.’’

‘‘बीबीजी, कुछ रुपए मिल जाते तो…’’

‘‘रुपए? लेकिन अभी तो महीने के

7 दिन ही गुजरे हैं,’’ फिर कुछ सोच कर मैं बोली, ‘‘कितने रुपए चाहिए?’’

‘‘300 रुपए, बीबीजी,’’ वह बहुत धीमी आवाज में बोली और याचनाभरी नजरों से मुझे घूरने लगी.

मैं असमंजस में पड़ गई कि इसे इतने रुपए कहां से दूं. सोचा, मना कर दूं, पर उस की याचनामिश्रित, आशापरक नजरों ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मैं कोठी वाली बीबीजी थी, पर मेरा हाल भी रेशमी परदे वाले उस घर की तरह ही था जिस के अंदर गरीबी अपने पूरे साजशृंगार के साथ दुलहन बनी बैठी थी. हां, इतना जरूर है कि दो जून भरपेट खाने को रोटी इज्जत के साथ मिल जाती है. ससुरजी मरने से पहले कोठी बना मेरे नाम कर गए और मैं कोठी वाली बीबीजी बन बैठी.

मैं ने भागवंती की ओर देखा, वह अभी तक टकटकी लगाए खड़ी थी. अचानक मुझे कुछ याद आया और मैं ने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उसे रुपयों के लिए स्वीकृति दे दी. अपने सांवले, झुर्रियों वाले चेहरे पर लुढ़क आए आंसू उस ने झट से अपने आंचल से पोंछे और आश्वस्त हो कर दोगुने जोश में काम में जुट गई. बीचबीच में बड़बड़ा रही थी, ‘आप बहुत दयालु हैं, मेरी तो यही दुआएं हैं कि आप के एक का लाखों बने.’

मैं चुपचाप पलंग पर लेट गई और आंखें बंद कर 20 बरस पुरानी यादों में खो गई.

तब मैं बहुत छोटी थी. बड़ी दीदी शादी के बाद पहली बार ससुराल से होली के अवसर पर आ रही थीं. 2 दिनों पहले ही पिताजी के औफिस में चिट्ठी आई थी और उन्होंने एक क्षण भी जाया न कर के अग्रिम वेतन व साइकिल के लिए अर्जी दे दी थी. काफी दौड़धूप व सिफारिश के बाद दूसरे ही दिन अग्रिम वेतन व साइकिल प्राप्त कर वे औफिस से जल्दी घर आ गए थे.

उस दिन मांपिताजी दोनों ही खुश थे. मां ने शाम को सामान की लंबी लिस्ट पिताजी के सुपुर्द कर उन की साइकिल पर बड़ेबड़े 2 झोले करीने से टांग दिए. पिताजी के जाने के बाद मां छोटी दीदी को समझने लगीं, ‘कल गुडि़या आ रही है, सीमू. घर चमका दे.’

‘‘हां, अलमारी के पेपर भी बदल देना वरना जीजाजी कहेंगे, कितनी गंदी है मेरी साली,’ मेरे भाई ने मुंह थोड़ा टेढ़ा कर के नाटकीय अंदाज में कहा, तो सभी हंस पड़े. फिर मां ने उस का कान पकड़ कर कहा, ‘चल यहां से, बहुत बोलता है. देख, कहीं जाले तो नहीं हैं. ठीक से साफ कर दे,’ इतना कह कर मां रसोई में जा कर व्यस्त हो गईं.

रात काफी देर तक हम लोग दीदी की बातें करते सो गए पर मांपिताजी जाने कितनी देर तक खुसुरफुसुर करते रहे. मां ने सवेरे सब को जल्दी उठा दिया. सब लोग नहाधो कर तैयार हो गए. महरी अपनी साड़ी समेटे हंसती हुई आंगन धो रही थी और मां न जाने उसे क्याक्या निर्देश देती जा रही थीं. हम सब की निगाहें द्वार पर टिकी थीं. क्योंकि ट्रेन आ जाने की सूचना पिताजी से मिल गई थी. एकाएक एक तिपहिया स्कूटर घर के पास आ कर रुक गया.

दीदी स्कूटर से उतरीं. वे पहले से बहुत सुंदर लग रही थीं. मुझे देख कर वे मुसकराईं, फिर झुक कर मेरे गाल थपथपाते हुए बोलीं, ‘क्यों, मुझे पहचान नहीं रही है क्या?’ फिर वे मेरा हाथ पकड़ कर अंदर आ गईं. अंदर आ कर मांपिताजी ने उन्हें कलेजे से लगाया. उन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए. हम सब दीदी को घेर कर बैठ गए. सारा दिन धमाचौकड़ी होती रही. घर खुशियों से भर गया था. घर में अच्छेअच्छे पकवानों की महक चारों ओर फैल रही थी. उस होली में बहुत मजा आया था. एकएक कर के कभी समूह में पड़ोसियों एवं रिश्तेदारों का आनाजाना और होली का हुड़दंग, मैं आज तक नहीं भूल पाई.

अगले दिन दीदी को जाना था. मां और पिताजी परेशान से लग रहे थे. आंगन के एक कोने में मां ने पिताजी को बुला कर कुछ कहा तो उन्होंने जल्दी से सिर हिला दिया, जैसे उन की समस्या का समाधान हो गया हो. मैं तब छोटी थी तो क्या, पर सबकुछ देख रही थी, लेकिन समझ में कुछ नहीं आया.

मां ने छोटी दीदी को रसोई में बुलाया और उन के कानों से सोने की छोटीछोटी बालियां पिताजी के हाथ पर रख दीं. वे तत्काल बाहर चले गए और फिर कुछ घंटों बाद फलों की टोकरी एवं मिठाई के डब्बे ले कर रिकशे से उतरे. दीदी ने हमें प्यार किया. रुपए दिए और मां के गले लग कर रो पड़ीं, फिर पिताजी ने उन्हें आशीष दे कर विदा किया.

बड़ी दीदी इतने सामान से लदी हाथ हिलाते हुए विदा हो गईं और छोटी दीदी बारबार अपनी उंगलियां अपने सूने कानों पर फेरती हुई आंसू पोंछती अंदर आ गईं. मां ने उन्हें प्यार से देखा और स्नेहभरे स्वर में कहा, ‘नई ला दूंगी, सीमू.’

हैसियत से ज्यादा दे देने के बाद भी कुछ और देने की चाह लिए मां काफी शांत हो गई थीं. पड़ोसी देर तक बाहर ही पिताजी के साथ खड़े रहे और दीदी की अच्छी शादी और अच्छी विदाई का गुणगान करते जा रहे थे. पिताजी के चेहरे पर संतोष का भाव प्रदीप्त होता जा रहा था.

‘‘काम हो गया, बीबीजी,’’ कहते हुए भागवंती ने तंद्रा तोड़ी तो मैं हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई और राखी पर मिले 500 में से 300 रुपए उस के हाथ पर रख दिए. उस की आंखों की चमक ठीक मां की आंखों की चमक की तरह ही थी. मैं मुसकराई कि आज फिर ममता की छांव में सबकुछ लूट कर ले जाने वाला प्यारा डाकू आने वाला है, जिस के स्वागत में खुशी से झुमती जाती हुई भागवंती को मैं खिड़की से देर तक निहारती रही. तभी किसी ने मेरा आंचल खींचा और जब मैं ने पलट कर देखा तो मेरी 5 वर्षीय बिटिया पल्लू पकड़े मुसकरा रही थी. मैं ने उसे प्यार से हवा में उछाला और ‘प्यारा डाकू’ कहते हुए सीने से लगा लिया. Kahani In Hindi

लेखिका : ऋतु मंजरी

Unemployment : बेरोजगारी से जूझ रहे युवाओं के पास क्या हैं औप्शंस

Unemployment : देश में बेरोजगारी है, इस के लिए जितना दोष सिस्टम का है उस से ज्यादा खुद युवाओं का. रोजगार थाली में सज कर नहीं आता, उस के लिए खुद को कोशिशें करनी होती हैं.

बेरोजगारी से तंग आ कर अक्षत ने आत्महत्या करने की कोशिश की. यह बात जब अक्षत के दोस्त समीर को पता चली तो वह शौक रह गया. एक समय वे दोनों साथ में ही सरकारी जौब की तैयारी कर रहे थे. वक़्त रहते समीर ने अपना रास्ता बदल लिया, पापा के बिजनैस में लग गया. अक्षत सरकारी जौब पाने के पीछे पागल था, सरकारी नौकरी मतलब, परमानैंट नौकरी, अच्छी तनख्वाह और दूसरी तमाम सुविधाएं. वह जीतोड़ मेहनत भी कर रहा था मगर हर बार कुछ नंबरों से रह जाता था.

33 साल के हो चुके अक्षत को लगने लगा कि अब उस के पास कोई विकल्प नहीं बचा सिवा आत्महत्या करने के.

बढ़ती बेरोजगारी से न सिर्फ देशभर के युवा परेशान हैं, बल्कि विदेशों में पढ़ेलिखे युवा भी इस की चपेट में हैं. बेरोजगारी से जुड़ा एक काफी पेचीदा मामला है. दरअसल औक्सफोर्ड जैसी विश्वविख्यात यूनिवर्सिटी से पढ़े एक 41 साल के शख्स ने बेरोजगारी से तंग आ कर अपने मातापिता पर ही केस ठोंक दिया. 41 साल का यह बेरोजगार शख्स ज़िंदगीभर के लिए हर्जाने की मांग कर बैठा.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, आतिश (बदला हुआ नाम) ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की. साथ ही, वकालत की ट्रेनिंग में भी ली. इस के बावजूद वह बेरोजगार था. इस शख्स का कहना था कि अगर उस के मांबाप उस की मदद नहीं करेंगे तो उस के मानवाधिकार का उल्लंघन होगा. लड़के के पिता 71 साल के हैं और उस की मां 69 साल की. इतने उम्रदराज होने के बावजूद वे अपने बेटे को हर महीने 1,000 पाउंड भेजते हैं.

इतना ही नहीं, वे अपने बेटे के दूसरे खर्च भी वहन कर रहे हैं. यानी, वह अपने सभी खर्चों के लिए अपने मातापिता पर ही निर्भर है. लेकिन अब वे अपने बेटे की मांगों से तंग आ चुके हैं और छुटकारा चाहते हैं. कैसे, यह उन्हें समझ नहीं आ रहा.

उच्च साक्षरता के बावजूद युवा बेरोजगार हैं, तो यह वाकई चिंतनीय है. बहुत तो नालायकी और आलसपने के शिकार हैं. वे कुछ करना ही नहीं चाहते सिवा सिस्टम को दोष देने के. उन्हें हर चीज थाली में परोसी हुई चाहिए. यहां तक कि जिस तरह की स्किल की जरूरत है वैसी स्किल युवा सीखने में नाकामयाब हैं, हां, डिग्रियां भरी हुई हैं.

हालांकि यह भी सच है कि भारत में स्किल नौकरियों की भी कमी है. हाल ही में इंस्टिट्यूट फौर ह्यूमन डैवलपमैंट और इंटरनैशनल लेबर और्गनाइज़ेशन ने इंडिया एंप्लौयमैंट रिपोर्ट 2024 जारी की. यह रिपोर्ट भी भारत में रोजगार की स्थिति को बहुत गंभीर रूप में पेश करती है. रिपोर्ट में कहा गया है कि जो बेरोजगार फोर्स है, उस में लगभग 83 फीसदी युवा हैं.

यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की युवा पीढ़ी बेरोजगारी से जूझ रही है. कई युवा नौकरियों के लिए अवसर तलाश रहे हैं. 15-20 हजार रुपए की नौकरी के लिए हजारों बेरोजगार युवा आवेदन करते हैं और जब इस में भी उन्हें सफलता नहीं मिल पाती, तो वे हताश और निराश हो जाते हैं.

सरकारी जौब नहीं लग पा रही है, तो इस का यह मतलब नहीं है कि आप कोई गलत कदम उठा लें या फिर अपने पेरैंट्स पर बोझ बन जाएं और उन से अपने खर्चे उठवाएं व उन्हें परेशान करें, तब, जब उन की उम्र हो चुकी है और वे खुद अपनी पैंशन पर निर्भर हैं. इस के अलावा यह भी नहीं कि हर बात का दोष सिस्टम पर डालें. सिस्टम अगर लचर है तो भी खुद को सक्षम बनाना भी तो जरूरी है.

टैक्नोलौजी के इस युग में युवा पीढ़ी को अब अपनी सोच बदलनी होगी. उसे अब नौकरी ढूंढ़ने के बजाय नौकरी देने वाला बनने पर ध्यान देना चाहिए.

हम युवाओं को अपने रोजगार और आजीविका के लिए अपने मातापिता का मुंह देखने के बजाय अपने रास्ते खुद तलाशने होंगे. इस में दो राय नहीं कि हम युवाओं के पास भरपूर क्षमता और कौशल है और इसे साबित करने के लिए पर्याप्त अवसर भी हैं. हमें केवल अपने लक्ष्य को परिभाषित करने की आवश्यकता है. टैक्नोलौजी इस कार्य में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है. इस की मदद से न केवल युवा पीढ़ी रोजगार पा सकती है बल्कि कईयों को रोजगार दे भी सकती है.

हमारे पास आगे बढ़ाने के कई अवसर हैं. लेकिन मुद्दा यह है कि सही दिशा में कदम किस प्रकार उठाया जाए, जिस से कि परिवार, समाज और देश को फायदा पहुंचे. इस के लिए युवाओं के साथसाथ सरकार को भी आगे आना होगा. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज आवश्यक और मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण कई युवा, टैलेंटेड होते हुए भी, पीछे रह जाते हैं.

24 साल के एक युवक का कहना है कि वह अच्छा क्रिकेट खेलता है. लेकिन उस के पास क्रिकेट को बेहतर बनाने के लिए प्रभावी सुविधाएं नहीं हैं. यदि उसे सुविधाएं मुहैया कराई जाएं तो वह क्रिकेट में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है.

भारत में युवाओं (15-29 साल की उम्र) में बेरोजगारी की दर सामान्य आबादी की तुलना में काफी ज्यादा है. साल 2022 में शहरी युवाओं के लिए बेरोजगारी की दर 17.2 फीसदी थी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह 10.6 फीसदी थी. आईएलओ का कहना है कि भारत में युवा बेरोजगारी दर, वैश्विक स्तर से ज्यादा है.

देश में बढ़ती बेरोजगारी के और भी कारण हैं, जैसे बढ़ती आबादी, शिक्षा की कमी या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव, कौशल विकास की कमी, नौकरियों के अवसरों की कमी, धीमी आर्थिक वृद्धि, कुछ क्षेत्रों में निवेश की कमी, अवसरों का अनुपयुक्त उपयोग, भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोरी आदि.

सरकार की ज़िम्मेदारी केवल टैक्स कलैक्शन तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि देश का पूर्ण विकास हो, युवाओं को रोजगार मिले, यह भी सरकार की ही ज़िम्मेदारी है.

Story In Hindi : शादी का आइडिया

Story In Hindi : दावतों में जाना माया को पसंद नहीं था क्योंकि वह बदले में किसी को दावत नहीं दे सकती थी, खासकर उस घर में जहां यह इंतजार रहता था कि कब वह शादी कर के विदा हो और उस की चारपाई की जगह पर उस के भतीजे की पढ़ने की मेज लग सके. लेकिन यह दावत विभागाध्यक्ष मनोरमाजी ने अपने पति मनोज की तरक्की होने की खुशी में दी थी, न जाने पर मनोरमाजी नाराज हो जातीं और उन्हें नाराज करना जल में रह कर मगर से बैर मोल लेना था.

दावत में मनोरमाजी के ही नहीं मनोज के औफिस के लोग भी थे. परस्पर परिचय के बाद, सदाबहार विषय देश की वर्तमान स्थिति पर बहस छिड़ गई.

‘‘वर्तमान स्थिति तो बहुत ही हास्यास्पद है भई, सुबह के समय सरेआम यानी खुले में फारिग होते लोग मोबाइल पर बतिया रहे होते हैं, कहीं और मिलेगी पिछड़ेपन और आधुनिकीकरण की ऐसी मिसाल?’’ मिर्जा साहब की बात पर जोरदार ठहाका लगा.

‘‘एक मिसाल और भी है, हमारे समाज में एक ओर तो लिव इन रिलेशनशिप जीरो है और दूसरी ओर आधुनिक उच्च जातियां अभी भी जातिबिरादरी और दहेज के लेनदेन में बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं. उन के उत्थान के आसार मुझे अपनी जिंदगी में तो नजर नहीं आ रहे,’’ एक युवक ने उत्तेजित स्वर में कहा.

‘‘ऐसी क्या नाराजगी है अपनी उच्च जाति से, विद्याधर, साफसाफ बताओ बंधु?’’ मनोज ने पूछा.

‘‘आप सब अकसर पूछते रहते हैं न कि शादी कब कर रहे हो तो सुनिए, मेरी शादी इस जन्म में तो होने से रही क्योंकि हमारे श्रीपंथ समाज में लड़कों का मूल्य निर्धारित है यानी उतनी मोटी रकम दहेज में लिए बगैर मेरे मांबाप  मेरी शादी नहीं करेंगे, बिरादरी में इज्जत का सवाल है और मेरे जैसे मामूली सूरतशक्ल, नौकरी और परिवार यानी हर तरह से औसत लड़के के लिए कोई उतनी रकम क्यों देगा जबकि उतने में मुझ से बेहतर घरवर मिल सकता है.

‘‘अपनी पसंद की या दूसरी जाति में शादी करने का मतलब है, अपनी जाति से बहिष्कार और आजकल जो यह औनर किलिंग का चलन शुरू हो गया है, वह सोच कर तो बिरादरी से बगावत करते हुए भी डर लगता है. कहिए, क्या यह सब पिछड़ापन नहीं है?’’ विद्याधर ने पूछा, ‘‘अगर अपनी बिरादरी की लड़की से भी कम दहेज ले कर शादी कर लूं तो इसे बगावत समझा जाएगा और इस के अलावा मेरी मां, बहनें और मामीचाची वगैरह ताने देदे कर उस लड़की का जीना दुश्वार कर देंगी कि सस्ते में हमारा लाखों का बेटा फंसा लिया. सो, मेरे लिए तो बेहतर यही है कि शादी ही न करूं.’’

माया को लगा जैसे विद्याधर उसी की भावनाएं या व्यथा व्यक्त कर रहा था.

‘‘मूल्य निर्धारण या औनर किलिंग छोटे कसबों की बातें हैं विद्याधर, देश की राजधानी में रहने वाले तुम पर लागू नहीं होतीं,’’ मनोरमाजी बोलीं.

‘‘बात कसबे या राजधानी की नहीं, पिछड़ेपन की हो रही है भाभीजी. और वह तो राजधानी में भी घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, खासकर दहेज और जाति के मामले में.’’

किसी अन्य की टिप्पणी पर माया की हिम्मत बढ़ी और वह बोली, ‘‘आप लोग ठीक कह रहे हैं, औनर किलिंग का तो मालूम नहीं लेकिन राजधानी में भी श्रीपंथ संप्रदाय में तो लड़कों का मूल्य या दहेज की रकम तय है. लड़की चाहे कितनी भी अच्छी हो उस राशि से कम में उस की शादी का सवाल ही नहीं उठता और लड़का चाहे लूलालंगड़ा भी हो, बिकेगा फिक्स्ड रेट पर ही.’’

‘‘तुम्हें यह सब कैसे मालूम है?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘क्योंकि मैं भी श्रीपंथ समाज से ही हूं. मेरी योग्यता और तगड़ी तनख्वाह से दहेज की रकम में कोई रियायत करने को तैयार नहीं है.’’

‘‘तो तनख्वाह से दहेज की रकम जोड़ लो…’’

‘‘और उस के लिए बरसों मन मार कर जीओ,’’ माया ने उस की बात काटी, ‘‘यह सुझाव अकसर मिलता रहता है मगर मुझे यह सौदा मंजूर नहीं है.’’

‘‘होना भी नहीं चाहिए,’’ विद्याधर ने सराहना के स्वर में कहा, ‘‘अगर युवा वर्ग इस प्रथा के सामने घुटने न टेके तो समाज के ठेकेदार स्वयं ही इस प्रथा को समाप्त करने पर मजबूर हो जाएंगे.’’

‘‘हमारे समाज में एक नहीं, कई कुरीतियां ऐसी हैं जिन के सामने घुटने टेकने बंद कर दिए जाएं तो यह जहान जन्नत बन जाए. तुम्हारे से पहले न जाने कितने लोग यह सपना देख चुके हैं विद्याधर…’’

‘‘और न जाने कितने देखेंगे, मिश्राजी,’’ मनोज ने मिश्राजी की बात काटी, ‘‘पत्तागोभी के छिलके छीलने के बजाय आप फूलगोभी के पकौड़े खाइए.’’

मनोज ने तो बात बदल दी लेकिन मनोरमाजी के दिमाग में यह बात जैसे घर कर गई. सब के जाने के बाद उन्होंने मनोज से कहा, ‘‘माया और विद्याधर दोनों जब एक ही जाति के हैं तो क्यों न हम कोशिश कर के दोनों की शादी करवा दें?’’

‘‘विद्याधर से यह सुनने के बाद भी कि दहेज लाने वाली सजातीय लड़की का भी उस की मांबहनें जीना दुश्वार कर देंगी?’’ मनोज ने कहा, ‘‘उन दोनों ने अपने हालात से समझौता कर के जीना सीख लिया है, सो तुम भी उन्हें चैन से जीने दो.’’

लेकिन मनोरमाजी जानती थीं कि दोनों चैन से नहीं बड़ी बेचैनी से जी रहे थे. माया की तनख्वाह से जुटाई गई सुखसुविधाओं का मजा लूटने वाले भाईभाभी उसे परिवार का अनचाहा सदस्य समझते थे और मां भी उन का साथ देती थीं.

यही हाल तकरीबन विद्याधर का भी था, मां उसे चायखाना देते हुए यह याद दिलाना नहीं भूलती थीं कि उन की उमर अब काम करने की नहीं, बहू से सेवा करवाने की है और अकसर आने वाली बहनें भी यह कह कर बिसूरती रहती थीं कि वे अपने पतियों को इसलिए साथ नहीं ला सकतीं कि मां पर काम का बोझ बढ़ जाएगा. जैसे माया जानबूझ कर ससुराल नहीं जा रही थी और विद्याधर शादी से मना कर रहा था. मनोरमाजी ने सोच लिया कि वह माया और विद्याधर को अकसर मिलवाया करेंगी. जल्दी ही संयोग भी बन गया. मनोज को औफिस के काम से कुछ सप्ताह के लिए विदेश जाना पड़ा. औफिस में बकाया काम तो रहता ही है सो, उसे निबटाने के बहाने मनोरमाजी ने एक रोज माया को देर तक रुकने को कहा.

 

‘‘तुम्हें घर पहुंचाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

‘‘फिर तो आप जब तक कहेंगी मैं रुक जाऊंगी.’’

शाम को मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रात को हम दोनों का अकेले आटो पर जाना ठीक नहीं रहेगा. मैं विद्याधर को फोन कर देती हूं, वह अपने स्कूटर पर हमारे साथ हो लेगा.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें.’’

कुछ देर फोन पर बात करने के बाद मनोरमाजी ने पूछा, ‘‘माया, घर देर से जाने पर तुम्हें खाने के लिए कुछ परेशानी तो नहीं होगी?’’

माया ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘ढका रखा होगा, खा लूंगी.’’

‘‘तो क्यों न तुम भी हमारे साथ बाहर ही खा लो? विद्याधर को देर से जाने पर मां की बातें सुननी पड़ेंगी और मुझे अपने लिए कुछ पकाना पड़ेगा, सो हम लोग बाहर खा रहे हैं, फिक्र मत करो, औफिस के काम में देर हुई न, सो बिल औफिस को दे दूंगी. तुम अपने घर पर फोन कर दो कि तुम खाना खा कर आओगी या मुझे नंबर मिला कर दो, मैं तुम्हारी मां को समझा देती हूं.’’

‘‘आज के लिए इतना ही काफी है, माया. जाओ, फ्रैश हो जाओ,’’ मनोरमाजी ने 7 बजे के बाद कहा.

जब वह वापस आई तो विद्याधर आ चुका था.

‘‘तुम दोनों बातें करो, मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं,’’ कह कर मनोरमाजी चली गईं.

दोनों में परिचय तो था ही सो कुछ देर तक आसानी से बात करते रहे, फिर माया ने कहा, ‘‘बड़ी देर लगा दी मनोरमाजी ने.’’

‘‘बौस हैं और बौस की बीवी भी, कुछ तो ठसका रहेगा ही,’’ विद्याधर ने ठहाका लगा कर कहा. माया भी हंस पड़ी और रहीसही असहजता भी खत्म हो गई.

‘‘कल ‘निमंत्रण’ में चलेंगे, वहां का खाना इस से भी अच्छा है,’’ मनोरमाजी से खाने की तारीफ सुन कर विद्याधर ने कहा.

‘‘तुम्हारा खयाल है कि हम कल भी देर तक काम करेंगे?’’ मनोरमाजी ने पूछा.

‘‘बौस आप हैं. सो यह तो आप को ही मालूम होगा कि काम खत्म हुआ है या नहीं,’’ विद्याधर ने कहा.

‘‘काम तो कई दिन तक खत्म नहीं होगा लेकिन तुम लोग रोज देर तक रुकोगे?’’

‘‘हां, मुझे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता,’’ विद्याधर बोला.

‘‘मुझे भी, अब जब काम शुरू किया है तो पूरा कर ही लेते हैं,’’ माया ने कहा.

‘‘ठीक है, मुझे भी आजकल घर पहुंचने की जल्दी नहीं है.’’

माया के घर के बाहर आटो रुकने पर विद्याधर ने भी स्कूटर रोक कर कहा, ‘‘कल मिलते हैं, शुभरात्रि.’’

‘जल्दी ही तुम इस में ‘स्वीट ड्रीम’ भी जोड़ोगे,’ मनोरमाजी ने पुलक कर सोचा, उन की योजना फलीभूत होती लग रही थी. औफिस में यह पता चलते ही कि मनोरमाजी और माया बकाया काम निबटा रही थीं, अन्य लोगों ने भी रुकना चाहा. मनोरमाजी सहर्ष मान गईं क्योंकि अब वे सब के खाना लाने के बहाने माया को विद्याधर के साथ भेज दिया करेंगी, घर छोड़ने का सिलसिला तो वही रहेगा. और काम का क्या उसे तो रबर की तरह खींच कर जितना चाहे लंबा कर लो.

मनोज के लौटने से पहले ही माया और विद्याधर में प्यार हो चुका था. उन्हें अब फोन करने या मिलने के लिए बहाने की जरूरत नहीं थी लेकिन मुलाकात लंचब्रेक में ही होती थी. छुट्टी के रोज या शाम को मिलने का रिस्क दोनों ही लेना नहीं चाहते थे.

मनोज ने उन के जीवन में और भी उथलपुथल मचाने के लिए मनोरमा को बुरी तरह लताड़ा.

‘‘जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा. माया के घर वाले तो बिना दहेज या कम दहेज के सजातीय वर से तुरंत शादी कर देंगे और विद्याधर के घर वाले भी हमारी थोड़ी सी कोशिश से मान जाएंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘कुछ ठीक नहीं होगा मनोरमा, माना कि विद्याधर की मां को बहू की सख्त जरूरत है लेकिन बिरादरी में नाक कटवा कर नहीं, यानी उसे तो शादी में निर्धारित रकम मिलनी ही चाहिए जो माया का परिवार नहीं दे सकता और मां या बिरादरी के खिलाफ जाने की हिम्मत प्यार होने के बावजूद विद्याधर में नहीं है.’’

‘‘कई बार हिम्मत नहीं हिकमत काम आती है. मानती हूं विद्याधर तिकड़मी भी नहीं है लेकिन मैं तो हूं. आप साथ दें तो मैं दोनों की शादी करवा सकती हूं,’’ मनोरमाजी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘आप को कुछ ज्यादा नहीं करना है, बस मेरे साथ विद्याधर के घर चलना है और बातोंबातों में उस के घर वालों को बताना है कि आप की नजर में विद्याधर के लिए एक उपयुक्त कन्या है, उस के बाद मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘बस, इतना ही? तो चलो, अभी चलते हैं.’’

शनिवार की सुबह थी सो विद्याधर घर पर ही मिल गया. उस ने और घर वालों ने उन का स्वागत तो किया लेकिन चेहरे पर एक प्रश्नचिह्न लिए हुए, ‘कैसे आए?’

‘‘हम ने तो सोचा तुम तो कभी बुलाओगे नहीं, हम स्वयं ही चलते हैं,’’ मनोज ने कहा.

‘‘कैसे बुलाए बेचारा? घर में मेहमानों को चायपानी पूछने वाला कोई है नहीं,’’ विद्याधर की मां ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरे से तो अब कुछ होता नहीं…’’

‘‘आप की उम्र अब काम नहीं, आराम करने यानी बहू से सेवा करवाने की है, मांजी,’’ मनोरमाजी ने कहा.

‘‘बहू का सुख तो लगता है मेरे नसीब में है ही नहीं,’’ मांजी उसांस ले कर बोलीं.

‘‘ऐसी मायूसी की बातें मत करिए, मांजी. मैं विद्याधर के लिए ऐसी सर्वगुण संपन्न, सजातीय लड़की बताता हूं कि यह मना नहीं करेगा,’’ मनोज ने कहा, ‘‘माया मनोरमा की कनिष्ठ अधिकारी है, बहुत ही नेक स्वभाव की संस्कारशील लड़की है, नेहरू नगर में घर है उस का…’’

‘‘शंकरलाल की बेटी की बात तो नहीं कर रहे?’’ विद्याधर की मां ने बात काटी, ‘‘मिल चुके हैं हम उन से, लड़की के सर्वगुण संपन्न होने में तो कोई शक नहीं है लेकिन बाप के पास दहेज में देने को कुछ नहीं है. कहता है कि लड़की की तनख्वाह को ही दहेज समझ लो. भला, ऐसे कैसे समझ लें? हम ही क्या, और भी कोई समझने को तैयार नहीं है, तभी तो अभी तक माया कुंआरी बैठी है.’’

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. हिकमत कामयाब हो गई थी.

 

‘‘और विद्याधर भी, आप को बहू की सख्त जरूरत है मांजी, तो एकमुश्त रकम का लालच छोड़ कर क्यों नहीं दोनों का ब्याह कर देतीं?’’ मनोरमाजी ने तल्ख हुए स्वर को भरसक संयत रखते हुए कहा, ‘‘माया की तनख्वाह तो हर महीने घर ही में आएगी.’’

‘‘हमें एकमुश्त रकम का लालच अपने लिए नहीं, बिरादरी में अपना मानसम्मान बनाए रखने के लिए है,’’ विद्याधर के पिता पहली बार बोले, ‘‘हमारा श्रीपंथ संप्रदाय एक कुटुंब  की तरह है. इस संप्रदाय के कुछ नियम हैं जिन का पालन हम सब को करना पड़ता है. जब हमारे समाज में लड़की के दहेज की राशि निर्धारित हो चुकी है तो शंकरलाल कैसे उसे कम कर सकता है और मैं कैसे कम ले सकता हूं?’’

‘‘यह तो सही कह रहे हैं आप,’’ मनोज बोला, ‘‘लेकिन संप्रदाय तो भाईचारे यानी जातिबिरादरी के लोगों की सहायतार्थ बनाए जाते हैं लेकिन मांजी की गठिया की बीमारी को देखते हुए भी कोई उन्हें बहू नहीं दिलवा रहा?’’

‘‘कैसे दिलवा सकते हैं मनोज बाबू, कोई किसी से जोरजबरदस्ती तो कर नहीं सकता कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे से करो?’’

‘‘और जो आप के बेटे से करना चाहते हैं जैसे शंकरलालजी तो उन की बेटी से आप करना नहीं चाहते,’’ मनोज ने चुटकी ली.

‘‘क्योंकि मुझे समाज यानी अपने संप्रदाय में रहना है सो मैं उस के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकता. आज मजबूरी से मैं शंकरलाल की कन्या को बहू बना लाता हूं तो कल को तो न जाने कितने और शंकरलाल-शंभूदयाल अड़ जाएंगे मुफ्त में लड़की ब्याहने को और दहेज का चलन ही खत्म हो जाएगा.’’

‘‘और एक कुप्रथा को खत्म करने का सेहरा आप के सिर बंध जाएगा,’’ मनोरमाजी चहकीं.

‘‘तुम भी न मनोरमा, यहां बात विद्याधर की शादी की हो रही है और सेहरा तुम चाचाजी के सिर पर बांध रही हो,’’ मनोज ने कहा, ‘‘वैसे चाचाजी, देखा जाए तो सौदा बुरा नहीं है. माया को बहू बना कर आप को किस्तों में निर्धारित रकम से कहीं ज्यादा पैसा मिल जाएगा और मांजी को आराम भी और आप को समाजसुधारक बनने का अवसर.’’

‘‘हमें नेता या समाजसुधारक बनने का कोई शौक नहीं है. हमारा श्रीपंथ संप्रदाय जैसा भी है, हमारा है और हमें इस के सदस्य होने का गर्व है,’’ मांजी बोलीं, ‘‘आप अगर हमारी सहायता करना ही चाह रहे हो तो विद्याधर को तरक्की दिलवा दो, तुरंत निर्धारित दहेज के साथ शादी हो जाएगी और इस भरोसे से कि इस की शादी में तो पैसा मिलेगा ही, इस के पिताजी ने इस की बहन की शादी के लिए जो कर्जा लिया हुआ है वह भी उतर जाएगा.’’

विद्याधर और उस के पिता हतप्रभ रह गए. मनोरमा और मनोज भी चौंक पड़े.

‘‘कमाल है पिताजी, वह कर्जा आप ने अभी तक उतारा नहीं? मैं ने चिटफंड से ले कर रकम दी थी आप को,’’ विद्याधर ने पूछा.

‘‘वह तेरी मेहनत की कमाई है. उस से बेटी का दहेज क्यों चुकाऊं? उसे मैं ने बैंक में डाल दिया है, तेरे दहेज में जो रकम मिलेगी उस से वह कर्जा उतारूंगा.’’

विद्याधर ने सिर पीट लिया.

‘‘आप ने यह नहीं सोचा, बेकार में सूद कितना देना पड़ रहा है? कल ही उस पैसे को बैंक से निकलवा कर कर्जा चुकता करूंगा,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘विद्याधर को तरक्की मिल सकती है,’’ मनोज ने मौका देख कर कहा, ‘‘अगर यह आएदिन सुबह का नाश्ता बनाने के चक्कर में देर से औफिस न आया करे और फिर शाम को जल्दी घर न भागा करे. आप लोग एक अच्छी सी नौकरानी क्यों नहीं रखते?’’

‘‘कई रखीं लेकिन सभी एक सी हैं, चार रोज ठीक काम करती हैं फिर देर से आना या नागा करने लगती हैं,’’ मांजी असहाय भाव से बोलीं.

‘‘बात घूमफिर कर फिर बहू लाने पर आ गई न?’’ मनोरमाजी ने भी मौका लपका, ‘‘और उस के लिए आप दहेज का लालच नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘हमें दहेज का लालच नहीं है, बस समाज में अपनी इज्जत की फिक्र है,’’ मांजी ने कहा, ‘‘दहेज न लिया तो लोग हंसेंगे नहीं हम पर?’’

‘‘लोगों से कह दीजिएगा, नकद ले कर बैंक में डाल दिया, बात खत्म.’’

‘‘बात कैसे खत्म,’’ मां झल्ला कर बोलीं, ‘‘श्री का मतलब जानती हो, लक्ष्मी होता है यानी श्रीपंथ, लक्ष्मी का पंथ, इसलिए हमारे में शादी की पहली रस्म, ससुराल से आई लक्ष्मी की पूजा से ही होती है, उसे हम खत्म नहीं कर सकते.’’

‘‘अगर आप को रकम का लालच नहीं है तो महज रस्म के लिए हम उस रकम का इंतजाम कर देंगे,’’ मनोरमाजी ने कहा, ‘‘रस्म पूरी करने के बाद यानी बिरादरी को दिखाने के बाद आप रकम हमें वापस कर दीजिएगा.’’

‘‘आप का बहुतबहुत धन्यवाद, भाभी, लेकिन मैं और माया झूठ की बुनियाद पर की गई शादी कदापि नहीं करेंगे,’’ विद्याधर ने दृढ़ स्वर में कहा.

‘‘तो फिर क्या करोगे?’’

‘‘ऐसे ही घुटघुट कर जीते रहेंगे.’’

विद्याधर के पिता ने उसे चौंक कर देखा, ‘‘तू घुटघुट कर जी रहा है?’’

‘‘घुटघुट कर ही नहीं तड़पतड़प कर भी,’’ मनोज बोला, ‘‘जवान आदमी है, जब से माया से प्यार हुआ है, तड़पने लगा है. मगर आप को क्या फर्क पड़ता है. आप को तो अपने बच्चे की खुशी से ज्यादा संप्रदाय की मर्यादा की फिक्र है. चलो मनोरमा, चलते हैं.’’

‘‘रुकिए मनोज बाबू, मुझे शंकरलालजी के घर ले चलिए, शादी की तारीख तय कर के ही आऊंगा, जिसे जो कहना है कहता रहे.’’

‘‘मुझे भी अपने बेटे की खुशी प्यारी है, मैं भी किसी के कहने की परवा नहीं करूंगी.’’

मनोरमा, मनोज और विद्याधर खुशी से गले मिलने लगे. आइडिया कामयाब हो गया. Story In Hindi

Best Hindi Story : उम्र के उस मोड़ पर

Best Hindi Story :  आज रविवार है. पूरा दिन बारिश होती रही है. अभी थोड़ी देर पहले ही बरसना बंद हुआ था. लेकिन तेज हवा की सरसराहट अब भी सुनाई पड़ रही थी. गीली सड़क पर लाइट फीकीफीकी सी लग रही थी. सुषमा बंद खिड़की के सामने खोईखोई खड़ी थी और शीशे से बाहर देखते हुए राहुल के बारे में सोच रही थी, पता नहीं वह इस मौसम में कहां है.

बड़ा खामोश, बड़ा दिलकश माहौल था. एक ताजगी थी मौसम में, लेकिन मौसम की सारी सुंदरता, आसपास की सारी रंगीनियां दिल के मौसम से बंधी होती हैं और उस समय सुषमा के दिल का मौसम ठीक नहीं था.

विशाल टीवी पर कभी गाने सुन रहा था, तो कभी न्यूज. वह आराम के मूड में था. छुट्टी थी, निश्चिंत था. उस ने आवाज दी, ‘‘सुषमा, क्या सोच रही हो खड़ेखड़े?’’

‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बाहर देख रही हूं, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘यश और समृद्धि कब तक आएंगे?’’

‘‘बस, आने ही वाले हैं. मैं उन के लिए कुछ बना लेती हूं,’’ कह कर सुषमा किचन में चली गई.

सुषमा जानबूझ कर किचन में आ गई थी. विशाल की नजरों का सामना करने की उस में इस समय हिम्मत नहीं थी. उस की नजरों में इस समय बस राहुल के इंतजार की बेचैनी थी.

सुषमा और विशाल के विवाह को 20 वर्ष हो गए थे. युवा बच्चे यश और समृद्धि अपनीअपनी पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त हुए तो सुषमा को जीवन में एक रिक्तता खलने लगी. वह विशाल से अपने अकेलेपन की चर्चा करती, ‘‘विशाल, आप भी काफी व्यस्त रहने लगे हैं, बच्चे भी बिजी हैं, आजकल कहीं मन नहीं लगता, शरीर घरबाहर के सारे कर्त्तव्य तो निभाता चलता है, लेकिन मन में एक अजीब वीराना सा भरता जा रहा है. क्या करूं?’’

विशाल समझाता, ‘‘समझ रहा हूं तुम्हारी बात, लेकिन पद के साथसाथ जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही हैं. तुम भी किसी शौक में अपना मन लगाओ न’’

‘‘मुझे बहुत अकेलापन महसूस होता है. मन करता है कोई मेरी बात सुने, मेरे साथ कुछ समय बिताए. तुम तीनों तो अपनी दुनिया में ही खोए रहते हो.’’

‘‘सुषमा, इस में अकेलेपन की क्या बात है. यह तो तुम्हारे हाथ में है. तुम अपनी सोच को जैसे मरजी जिधर ले जाओ. अकेलापन देखो तो कहां नहीं है. आजकल फर्क बस इतना ही है कि कोई बूढ़ा हो कर अकेला हो जाता है, कोई थोड़ा पहले. इस सचाई को मन से स्वीकारो तो कोई तकलीफ नहीं होती और हां, तुम्हें तो पढ़नेलिखने का इतना शौक था न. तुम तो कालेज में लिखती भी थी. अब समय मिलता है तो कुछ लिखना शुरू करो.’’ मगर सुषमा को अपने अकेलेपन से इतनी आसानी से मुक्त होना मुश्किल लगता.

इस बीच विशाल ने रुड़की से दिल्ली एमबीए करने आए अपने प्रिय दोस्त के छोटे भाई राहुल को घर आने के लिए कहा तो सुषमा राहुल से मिलने के बाद खिल ही उठी.

होस्टल में रहने का प्रबंध नहीं हो पाया तो विजय ने विशाल से फोन पर कहा, ‘‘यार, उसे कहीं अपने आसपास ही कोई कमरा दिलवा दे, घर में भी सब लोगों की चिंता कम हो जाएगी.’’

विशाल के खूबसूरत से घर में पहली मंजिल पर 2 कमरे थे. एक कमरा यश और समृद्धि का स्टडीरूम था, दूसरा एक तरह से गैस्टरूम था, रहते सब नीचे ही थे. जब कुछ समझ नहीं आया तो विशाल ने सुषमा से विचारविमर्श किया, ‘‘क्यों न राहुल को ऊपर का कमरा दे दें. अकेला ही तो है. दिन भर तो कालेज में ही रहेगा.’’

सुषमा को कोई आपत्ति नहीं थी. अत: विशाल ने विजय को अपना विचार बताया और कहा, ‘‘घर की ही बात है, खाना भी यहीं खा लिया करेगा, यहीं आराम से रह लेगा.’’

विजय ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘ठीक है, उसे पेइंगगैस्ट की तरह रख ले.’’

विशाल हंसा, ‘‘क्या बात कर रहा है. जैसे तेरा भाई वैसे मेरा भाई.’’

राहुल अपना बैग ले आया. अपने हंसमुख स्वभाव से जल्दी सब से हिलमिल गया. सुषमा को अपनी बातों से इतना हंसाता कि सुषमा तो जैसे फिर से जी उठी. नियमित व्यायाम और संतुलित खानपान के कारण सुषमा संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी. राहुल उस से कहता, ‘‘कौन कहेगा आप यश और समृद्धि की मां हैं. बड़ी बहन लगती हैं उन की.’’

राहुल सुषमा के बनाए खाने की, उस के स्वभाव की, उस की सुंदरता की दिल खोल कर तारीफ करता और सुषमा अपनी उम्र के 40वें साल में एक नवयुवक से अपनी प्रशंसा सुन कर जैसे नए उत्साह से भर गई.

कई दिनों से विशाल अपने पद की बढ़ती जिम्मेदारियों में व्यस्त होता चला गया था. अब तो बस नाश्ते के समय विशाल हांहूं करता हुआ जल्दीजल्दी पेपर पर नजर डालता और जाने के लिए बैग उठाता और चला जाता. रात को आता तो कभी न्यूज, कभी लैपटौप, तो कभी फोन पर व्यस्त रहता. सुषमा उस के आगेपीछे घूमती रहती, इंतजार करती रहती कि कब विशाल कुछ रिलैक्स हो कर उस की बात सुनेगा. वह अपने मन की कई बातें उस के साथ बांटना चाहती, लेकिन सुषमा को लगता विशाल की जिम्मेदारियों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है. उसे लगता एक चतुर अधिकारी के मुखौटे के पीछे उस का प्रियतम कहीं छिप सा गया है.

बच्चों का अपना रूटीन था. वे घर में होते तो भी अपने मोबाइल पर या टीवी में लगे रहते या फिर पढ़ाई में. वह बच्चों से बात करना भी चाहती तो अकसर दोनों बच्चों का ध्यान अपने फोन पर रहता. सुषमा उपेक्षित सी उठ कर अपने काम में लग जाती.

और अब अकेले में वह राहुल के संदर्भ में सोचने लगी. लेकिन कौन, कब, बिना कारण, बिना चेतावनी दिए इंसान के भीतर जगह पा जाता है, इस का आभास उस घटना के बाद ही होता है. सुषमा के साथ भी ऐसा ही हुआ. राहुल आया तो दिनबदिन विशाल और बच्चों की बढ़ती व्यस्तता से मन के एक खाली कोने के भरे जाने की सी अनुभूति होने लगी.

विशाल टूर पर रहता तो राहुल कालेज से आते ही कहता, ‘‘भैया गए हुए हैं. आप बोर हो रही होंगी. आप चाहें तो बाहर घूमने चल सकते हैं. यश और समृद्धि को भी ले चलिए.’’

सुषमा कहती, ‘‘वे तो कोचिंग क्लास में हैं. देर से आएंगे. चलो, हम दोनों ही चलते हैं. मैं गाड़ी निकालती हूं.’’

दोनों जाते, घूमफिर कर खाना खा कर ही आते, सुषमा राहुल को अपना पर्स कहीं निकालने नहीं देती. राहुल उस के जीवन में एक ताजा हवा का झोंका बन कर आया था. दोनों की दोस्ती का दायरा बढ़ता गया. वह अकेलेपन की खाई से निकल कर नई दोस्ती की अनुभूति के सागर में गोते लगाने लगी. अपनी उम्र को भूल कर किशोरियों की तरह दोगुने उत्साह से हर काम करने लगी. राहुल की हर बात, हर अदा उसे अच्छी लगती.

कई दिनों से अकेलेपन के एहसास से चाहेअनचाहे अपने भीतर का खाली कोना गहराई से महसूस करती आ रही थी. अब उस जगह को राहुल के साथ ने भर दिया था. कोई भी काम करती, राहुल का ध्यान आता रहता. उस का इंतजार रहता. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है, लेकिन दिल क्या बातें समझ लेता है? नहीं, यह तो सिर्फ अपनी ही जबान समझता है, अपनी ही बोली जानता है. उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल ही से निकलता है.

अब तो न चाहते हुए भी विशाल के साथ अंतरंग पलों में भी वह राहुल की चहकती आवाज से घिरने लगती. मन का 2 दिशाओं में पूरे वेग से खिंचना उसे तोड़ जाता. मन में उथलपुथल होने लगती, वह सोचती यह बैठेबैठाए कौन सा रोग लगा बैठी. यह किशोरियों जैसी बेचैनी, हर आहट पर चौंकना, कभी वह शीशे के सामने खड़ी हो कर अपनी मनोदशा पर खुद ही हंस पड़ती.

अचानक एक दिन राहुल कालेज से मुंह लटकाए आया. सुषमा ने खाने के लिए पूछा तो उस ने मना कर दिया. वह चुपचाप ड्राइंगरूम में ही गुमसुम बैठा रहा. सुषमा ने बारबार पूछा तो उस ने बताया, ‘‘आज कालेज में मेरा मोबाइल खो गया है. यहां आते समय विजय भैया ने इतना महंगा मोबाइल ले कर दिया था. भैया अब बहुत गुस्सा होंगे.’’

सुषमा चुपचाप सुनती रही. कुछ बोली नहीं. लेकिन अगले ही दिन उस ने अपनी जमापूंजी से क्व15 हजार निकाल कर राहुल के हाथ पर जबरदस्ती रख दिए. राहुल मना करने लगा, लेकिन सुषमा के जोर देने पर रुपए रख लिए.

कुछ महीने और बीत गए. विशाल भी फुरसत मिलते ही राहुल के हालचाल पूछता, वैसे उस के पास समय ही नहीं रहता था. सुषमा पर घरगृहस्थी पूरी तरह से सौंप कर अपने काम में लगा रहता था. सुषमा मन ही मन पूरी तरह राहुल की दोस्ती के रंग में डूबी हुई थी. पहले उसे विशाल में एक दोस्त नजर आता था, अब उसे विशाल में एक दोस्त की झलक भी नहीं दिखती.

यह क्या उसी की गलती थी. विशाल को अब उस की कोमल भावनाएं छू कर भी नहीं जाती थीं. राहुल में उसे एक दोस्त नजर आता है. वह उस की बातों में रुचि लेता है, उस के शौक ध्यान में रखता है, उस की पसंदनापसंद पर चर्चा करता है. उसे बस एक दोस्त की ही तो तलाश थी. वह उसे राहुल के रूप में मिल गया है. उसे और कुछ नहीं चाहिए.

 

एक दिन विशाल टूर पर था. यश और समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गए थे. अंधेरा हो चला था. राहुल भी अभी तक नहीं आया था. सुषमा लौन में टहल रही थी. राहुल आया, नीचे सिर किए हुए मुंह लटकाए ऊपर अपने कमरे में चला गया. सुषमा को देख कर भी रुका नहीं तो सुषमा को उस की फिक्र हुई. वह उस के पीछेपीछे ऊपर गई. जब से राहुल आया था वह कभी उस के रूम में नहीं जाती थी. मेड ही सुबह सफाई कर आती थी. उस ने जा कर देखा राहुल आंखों पर हाथ रख कर लेटा है.

सुषमा ने पूछा, ‘‘क्या हो गया, तबीयत तो ठीक है?’’

राहुल उठ कर बैठ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘तो रोनी सूरत क्यों बनाई हुई है?’’

‘‘भैया ने बाइक के पैसे भेजे थे, मेरे दोस्त उमेश की बहन की शादी है, उसे जरूरत पड़ी तो मैं ने उसे सारे रुपए दे दिए. अब भैया बाइक के बारे में पूछेंगे तो क्या कहूंगा, कुछ समझ नहीं आ रहा है. वही उमेश याद है न आप को. यहां एक बार आया था और मैं ने उसे आप से भी मिलवाया था.’’

‘‘हांहां याद आया,’’ सुषमा को वह लड़का याद आ गया जो उसे पहली नजर में ही कुछ जंचा नहीं था. बोली, ‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘क्या कर सकता हूं? भैया को तो यही लगेगा कि मैं यहां आवारागर्दी कर रहा हूं, वे तो यही कहेंगे कि सब छोड़ कर वापस आ जाओ, यहीं पढ़ो.’’

राहुल के जाने का खयाल ही सुषमा को सिहरा गया. फिर वही अकेलापन होगा, वही बोरियत अत: बोली, ‘‘मैं तुम्हें रुपए दे दूंगी.’’

‘‘अरे नहींनहीं, यह कोई छोटी रकम नहीं है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास बच्चों की कोचिंग की फीस रखी है. मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

‘‘लेकिन मैं ये रुपए आप को जल्दी लौटा दूंगा.’’

‘‘हांहां, ठीक है. मुझ से कल रुपए ले लेना. अब नीचे आ कर खाना खा लो.’’

सुषमा नीचे आ गई. अपनी अलमारी खोली. सामने ही रुपए रखे थे. सोचा अभी राहुल को दे देती हूं. उसे ज्यादा जरूरत है इस समय. बेचारा कितना दुखी हो रहा है. अभी जा कर पकड़ा देती हूं. खुश हो जाएगा. वह रुपए ले कर वापस ऊपर गई. राहुल के कमरे के दरवाजे के बाहर ही उस के कदम ठिठक गए.

वह फोन पर किसी से धीरेधीरे बात कर रहा था. न चाहते हुए भी सुषमा ने कान उस की आवाज की तरफ  लगा दिए. वह कह रहा था, ‘‘यार उमेश, मोबाइल और बाइक का इंतजाम तो हो गया. सोच रहा हूं अब क्या मांगूगा. अमीर औरतों से दोस्ती करने का यही तो फायदा है, उन्हें अपनी बोरियत दूर करने के लिए कोई तो चाहिए और मेरे जैसे लड़कों को अपना शौक पूरा करने के लिए कोई चाहिए.’’

‘‘मुझे तो यह भी लगता है कि थोड़ी सब्र से काम लूंगा तो वह मेरे साथ सो भी जाएगी. बेवकूफ तो है ही… सबकुछ होते हुए भटकती घूमती है. मुझे क्या, मेरा तो फायदा ही है उस की बेवकूफी में.’’

सुषमा भारी कदमों से नीचे आ कर कटे पेड़ सी बैड पर पड़ गई. लगा कभीकभी इंसान को परखने में मात खा जाती है नजरें. ऐसे जैसे कोई पारखी जौहरी कांच को हीरा समझ बैठे.

 

तीखी कचोट के साथ उसे स्वयं पर शर्म आई. इतने दिनों से वह राहुल जैसे चालाक इंसान के लिए बेचैन रहती थी, सही कह रहा था राहुल. वही बेवकूफी कर रही थी. अकेलेपन के एहसास से उस के कदम जिस राह पर बढ़ चले थे, अगर कभी विशाल और बच्चों को उस के मन की थाह मिल जाती तो क्या इज्जत रह जाती उस की उन की नजरों में.

तभी विशाल की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘अकेलेपन से हमेशा दुखी रहने और नियति को कोसने से तो अच्छा है कि हम चीजों को उसी रूप में स्वीकार कर लें जैसी वे हैं. तुम ऐसा करोगी तभी खुल कर सांस ले पाओगी.’’

इस बात का ध्यान आते ही सुषमा को कुछ शांति सी मिली. उस ने कुदरत को धन्यवाद दिया, उम्र के इस मोड़ पर अभी इतनी देर नहीं हुई थी कि वह स्थिति को संभाल न सके. वह कल ही राहुल को यहां से जाने के लिए कह देगी और यह भी बता देगी वह इतनी बेवकूफ नहीं कि अपने पति की कमाई दूसरों की भावनाओं से खेलने वाले लड़के पर लुटा दे.

वह अपने जीवन की पुस्तक के इस दुखांत अध्याय को सदा के लिए बंद कर रही है ताकि वह अपने जीवन की नई शुरुआत कर सके. कुछ सार्थक करते हुए जीवन का शुभारंभ करने का प्रयत्न तो वह कर ही सकती है. अब वह नहीं भटकेगी. क्रोध, घृणा, अपमान और पछतावे के मिलेजुले आंसू उस की आंखों से बह निकले लेकिन अब सुषमा के मन में कोई दुविधा नहीं थी. अब वह जीएगी अपने स्वयं के सजाएसंवरे लमहे, अपनी खुद की नई पहचान के साथ अचानक मन की सारी गांठें खुल गई थीं. यही विकल्प था दीवाने मन का.

उस ने फोन उठा लिया, राहुल के भाई को फोन कर दिए गए पैसों की सूचना देने के लिए और उन्हें वापस मांगने के लिए. Best Hindi Story

Love Story In Hindi : यादों के झरोखे से

Love Story In Hindi :दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई. Love Story In Hindi 

Social Story : प्‍यार का खामियाजा

Social Story : कुलमिला कर उस की जिंदगी की गाड़ी ठीकठाक चल रही थी. श्वेता से उस का परिचय होने के बाद तो जिंदगी में कोई कमी ही नहीं रह गई थी. बीचबीच में श्वेता उस के पास आती थी और उस की रातों को गुलजार कर जाया करती थी. वह अपनी जिंदगी से काफी संतुष्ट था खासकर श्वेता के आने के बाद से.

श्वेता समयसमय पर उस से थोड़ेबहुत पैसे लेती रहती थी, पर उसे इस का जरा भी अफसोस नहीं था, क्योंकि बदले में उसे श्वेता से काफीकुछ मिलता भी था.

परेशानी तब हुई, जब श्वेता की मांग दिनबदिन बढ़ने लगी. एक दिन तो उस ने उस से बड़ी मांग कर दी, ‘‘आनंद, मुझे 50,000 रुपए की सख्त जरूरत है,’’ यह उस ने आनंद के बालों में प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘क्या… 50,000 रुपए? तुम पागल तो नहीं हो गई हो क्या श्वेता?’’ आनंद ने चौंक कर उठते हुए कहा था.

‘‘क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते? पहली बार तुम मुझे मना कर रहे हो. क्या इतना ही प्यार है तुम्हारे दिल में मेरे लिए या फिर मुझ से मन भर गया है?’’ श्वेता ने प्यार से कहा.

‘‘देखो, जो रकम मेरे बस में है, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं, पर 50,000 रुपए… इतने रुपए तो मेरी सालभर की तनख्वाह के बराबर हैं,’’ आनंद ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘7 साल की तनख्वाह के बराबर तो नहीं हैं न?’’ एकाएक श्वेता का रुख बदल गया.

‘‘अगर मैं पुलिस में शिकायत कर दूं तो 7 साल के लिए हवालात में चले जाओगे. सीसीटीवी कैमरे में सुबूत हैं कि तुम मुझे अपने साथ लाते रहे हो. यहां की हर गलीनुक्कड़ में सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. मेरे कपड़ों पर तुम्हारी करतूत के सुबूत भी हैं. वैसे भी आजकल ‘मी टू’ के चलते बड़ेबड़ों की हालत खराब है, फिर तुम्हारी क्या बिसात है?’’

‘‘देखो, 50,000 रुपए तो मुझे हर हाल में चाहिए ही चाहिए. तुम कैसे इंतजाम करोगे, यह तुम जानो. एक हफ्ते का समय है तुम्हारे पास,’’ कहते हुए श्वेता चली गई और आनंद हैरान सा उसे जाते हुए देखता रहा.

इस के बाद से आनंद काफी चिंतित रहने लगा था. उस की कुल तनख्वाह 6,000 रुपए महीने थी जिस में से 2-3 हजार रुपए तो वह श्वेता पर ही लुटा देता था. 1,000 रुपए घर भेज दिया करता था. बाकी उस के खानेपीने पर खर्च हो जाया करते थे. पैसों के लिए एकमात्र सहारा उस का मालिक था

जो 1-2 महीने से ज्यादा की एडवांस तनख्वाह नहीं दे सकता था.

तो फिर क्या किया जाए? अगर श्वेता ने पुलिस में शिकायत कर दी तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे. एक साल पहले ही वह मुंबई आया था. कोई ऐसा जानकार भी नहीं था जिस से उसे पैसों की मदद मिल सके.

आनंद मुंबई के दादर इलाके में एक प्लाट पर बने छोटे से झोंपड़ीनुमा मकान में रहता था. प्लाट के मालिक ने प्लाट की देखभाल के लिए उसे वहां टिका दिया था. प्लाट के मालिक की उस प्लाट पर एक बहुमंजिला अपार्टमैंट्स बनाने की योजना थी जिस के लिए बिल्डरों से बात चल रही थी.

आनंद को महज 6,000 रुपए तनख्वाह मिलती थी. घर पर बेकार बैठे रहने के बजाय यह भी बुरा न था. न जाने कितने लोग मुंबई जैसे बड़े शहरों में मामूली तनख्वाह पर काम करने आते हैं क्योंकि उन के पास और कोई काम नहीं होता. कइयों को तो काफी खराब हालात में रहना पड़ता है, पर वह संतुष्ट था. रहने को झोंपड़ी थी ही. वहीं कुछ कच्चापक्का बना कर खा लेता था. बिजलीपानी की सुविधा चौबीसों घंटे थी जिस का बिल मालिक अदा करता था.

ये भी पढ़ें- बुरी संगत

काफी सोचविचार के बाद आनंद के दिमाग में एक ही उपाय आया श्वेता को रास्ते से हटाने का. उस की हत्या कर देना, पर लाश को कहां और कैसे ठिकाने लगाएगा, यह बहुत बड़ी समस्या थी.

काफी सोचविचार के बाद आनंद ने लाश को प्लाट के एक कोने में फेंक कर खुद पुलिस को सूचित करने की योजना सोची. वह खुद शिकायत करेगा तो पुलिस को शक भी नहीं होगा.

अगली बार जब श्वेता आई तो आनंद ने उस का दिल खोल कर स्वागत किया.

‘‘जैसेतैसे मैं ने रुपयों का इंतजाम किया है. आगे से इतनी बड़ी रकम मत मांगना. मैं गरीब आदमी कहां से इतनी बड़ी रकम लाऊंगा?’’ आनंद ने श्वेता को बांहों में भरते हुए कहा.

श्वेता को इस बात से मतलब नहीं था कि आनंद ने रुपयों का इंतजाम कहां से किया है. मन ही मन उस ने सोचा, ‘रुपए तो मैं तुम से हमेशा मांगूंगी. आखिर मजबूरी में तुम्हें अपना जिस्म देती हूं तो उस का भुगतान तो देना ही होगा.’

श्वेता बोली, ‘‘अगर जरूरत नहीं होती तो तुम्हें क्यों तकलीफ देती…’’

फिर वे दोनों एकदूसरे के आगोश में समा गए. आनंद सोच रहा था कि वह आखिरी बार श्वेता के जिस्म को भोग रहा है, इस के बाद तो इसे खत्म कर देना है इसलिए वह जम कर उस के बदन का मजा ले रहा था.

श्वेता सोच रही थी कि आज 50,000 रुपए लेने के बाद फिर कब उस से रकम मांगनी है.

मौका पा कर आनंद ने श्वेता

का गला दबा दिया, फिर चाकू से

गले को रेत दिया और लाश को एक कोने में जा कर फेंक दिया.

आनंद को अपने प्लान पर पूरा भरोसा था, इसलिए वह आराम से सो गया. अगले दिन सुबह उस ने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर जानकारी दी कि एक औरत की लाश प्लाट के एक कोने में पड़ी हुई है.

आनंद को यह गुमान था कि पुलिस को आसानी से चकमा दिया जा सकता है और इस के लिए उस ने खुद पुलिस से शिकायत करने की तरकीब अपनाई थी. शिकायत करने वाले पर पुलिस भला क्यों शक करेगी, उस ने यही सोचा था.

पुलिस ने आ कर सब से पहले श्वेता को अस्पताल पहुंचाया, जहां उसे ‘मृत लाया गया’ घोषित कर दिया. पुलिस ने अनजान शख्स के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया.

आनंद बहुत खुश हुआ. उसे अपनी योजना कामयाब होती दिखाई दी, पर उसे पता नहीं था कि पुलिस शक के आधार पर उस से पूछताछ शुरू कर देगी. विरोधाभाषी बयानों के चलते वह पकड़ में आ गया और फिर मामला सुलझ गया.

आनंद ज्यादा देर तक पुलिस के सामने टिक नहीं पाया और उस ने अपना जुर्म कबूल कर लिया. वही पुलिस को उस जगह पर भी ले गया जहां उस ने हत्या में इस्तेमाल किया गया चाकू छिपा कर रखा था.

इस तरह श्वेता के लालच ने उस की जिंदगी खत्म करवा दी और जिस्मानी आकर्षण ने आनंद की जिंदगी बरबाद कर दी. Social Story 

Kahani In Hindi : बसंती की माताजी

Kahani In Hindi : ‘‘माताजी, मैं जाऊं,’’ माताजी का सिर सहलाते बसंती ने पूछा तो वे क्षीण स्वर में बोलीं, ‘‘अभी मत जा…’’

बीमारी ने माताजी का शरीर जर्जर और मस्तिष्क कुंद कर दिया था. पिछले सवा साल से वे बिस्तर पर थीं. पहले जबान लड़खड़ाई, फिर कदम बेजान हो गए तो वे बिस्तर की हो कर रह गईं. जब तक वे थोड़ाबहुत चल पाती थीं, यही बसंती बाथरूम तक जाने में उन की मदद कर देती थी. उन का दिमाग ठीक था तो वे बसंती के हाथ में कुछ न कुछ रख देती थीं. कभी रुपए, कभी साड़ी, कभी कुछ और यानी उसे कभी खाली हाथ नहीं जाने देतीं. वे सोचतीं किस के लिए जोड़ना है. अब जो उन की सेवा कर दे, उसी को दे दें.

बसंती उन के घर में पिछले 20 साल से काम कर रही थी. उन की दोनों बहुएं भी उसी के सामने आई थीं. खुद बसंती भी तब 20 की थी अब 40 की हो गई थी.

बसंती भी कितनी देर तक रहती. दूसरे वह कई घरों में काम भी करती थी. धीरेधीरे माताजी इस लायक भी नहीं रह गईं कि अलमारी से निकाल कर उसे कुछ दे सकें. फिर भी बसंती उन का काम कर देती थी. घर में 2 बेटे, 2 बहुएं थीं. बेटों का अपनी बीवियों को नौकरी करने के लिए मना करने पर, माताजी की जिद व प्रयासों से वे नौकरी कर पाई थीं लेकिन आज जब वे बिस्तर की हो कर रह गईं तो बहुएं उन के कमरे में झांकती भी नहीं थीं. छोटी बहू आ कर दवाइयां सामने रख जाती थी…जब तक वे खुद खा पातीं, खा लेती थीं. जब नहीं खा पाईं तब बसंती का इंतजार करतीं. बड़ी बहू बेमन से भोजन की थाली रख जाती.

माताजी के कपड़े जब मलमूत्र से गंदे हो जाते तो उन्हें वैसे ही रह कर बसंती का इंतजार करना पड़ता. बहुएं कमरे में दवाई और खाना रखने आतीं तो बदबू के मारे नाकभौं सिकोड़ कर चली जातीं. बसंती सुबहशाम तो उन की सफाई कर देती पर दिनभर तो वह नहीं रहती थी. वे अकेले ही घर में पड़ी रहतीं. बहूबेटे घर पर ताला लगा कर चले जाते.

जिन नातेरिश्तेदारों से घर हमेशा भरा रहता था, जीवन के इस अंतिम समय में जैसे उन्होंने भी मुंह फेर लिया. कमरे की दुर्गंध की वजह से वे दरवाजे से झांक कर चले जाते. बीमारी की वजह से उन की याददाश्त कमजोर हो गई थी. इसलिए वे कुछ को पहचान पातीं, कुछ को नहीं. उन के मन में बारबार यही आता कि इस जीवन से तो अच्छी मौत है.

उन की इस दुर्गति को देख कर बेटों का दिल पसीजा तो दोनों ने मिल कर उन के लिए एक नर्स का प्रबंध कर दिया. चूंकि बैंक में उन का थोड़ाबहुत पैसा पड़ा था इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी.

‘‘ठीक से देखभाल करना माताजी की…कोई शिकायत का मौका न देना,’’ बड़ा बेटा बोला.

‘‘जी, साब,’’ नर्स बोली.

छोटा बेटा आनेजाने वाले रिश्तेदारों से कहता, ‘‘हमें माताजी की बहुत चिंता रहती है, इसलिए नर्स रख दी है…’’

‘‘बहुत कर रहे हो…’’ रिश्तेदार कहते.

दिनभर घर में कोई नहीं रहता. नर्स सुबह सफाई करती और शाम को सब के घर आने से पहले कर देती, बाकी समय कुरसी पर बैठी या तो पत्रिका पढ़ती या स्वेटर बुनती रहती. बसंती इधरउधर से काम निबटा कर माताजी को देखने पहुंच जाती. कमरे में पहुंचती तो नर्स को अपनेआप में ही व्यस्त पाती.

‘‘गंध आ रही है, कहीं माताजी ने पौटी तो नहीं कर दी.’’

‘‘पता नहीं, अभी तो साफ की थी… माताजी को भी चैन नहीं…जब देखो, तब कपड़े खराब करती रहती हैं…सारा दिन यही काम है…’’

बसंती को देख कर माताजी की अधखुली आंखों में चमक आ जाती. वे किसी को पहचानें न पहचानें पर बसंती को अवश्य पहचान जातीं. जिंदगी भर शान से जीने वाली माताजी, एक नर्स की डांट खा कर, सहम कर और भी सिकुड़ जातीं.

‘‘देखो, पेशाब की थैली भर गई… गिर जाएगी…ये भी खाली नहीं की तुम ने…’’ बसंती नर्स को उस के काम की याद दिलाती.

‘‘तुझे क्या मतलब है,’’ नर्स तिलमिला कर कहती, ‘‘घर की मालकिन है क्या…मुझ से सवालजवाब करती रहती है…यह मेरा काम है, मैं देख लूंगी…’’

इतने में बसंती माताजी को पलटा कर देखने लग जाती तो पाती माताजी पूरी तरह गंदगी में सनी हुई हैं. नर्स वापस लौटती तो बसंती को चुपचाप सफाई करते हुए पाती. बसंती के चेहरे पर गुस्सा होता. पर जानती थी अभी कुछ बोलेगी तो झगड़ा हो जाएगा. बसंती को सफाई करते देख, नर्स को थोड़ा शर्मिंदगी का एहसास होता और वह कहती, ‘‘अभी तो सफाई की थी, फिर कर दी होगीं.’’

साब लोगों से बसंती नर्स की शिकायत नहीं कर पाती. सोचती दिनभर घर में कोई रहता नहीं है. डांट पड़ने पर नर्स भी भाग गई तो इस सूने घर में माताजी के साथ कोई भी न रहेगा. बसंती का हृदय माताजी के लिए करुणा से भर जाता.

इन बड़ीबड़ी महलनुमा कोठियों में ऐसा ही होता है. कई घरों का हाल देख चुकी है बसंती, बेटेबहुएं बड़ीबड़ी नौकरी करते हैं और दिनभर घर से गायब रहते हैं. बच्चे पढ़ने के लिए बाहर चले जाते हैं और बुजुर्ग इसी तरह एक कमरे में, बिस्तर पर अकेले पड़े हुए मौत का इंतजार करते हैं.

दिन बीतते जा रहे थे. धीरेधीरे माताजी की आवाज भी कम होने लगी. वे कभीकभार ही कुछ शब्द बोल पातीं, लेकिन बसंती को देख कर अभी भी उन की आंखें चमक जातीं और उन के होंठों के हिलने से लगता कि वे बसंती से कुछ बोल रही हैं. लेटेलेटे माताजी के पीछे की तरफ घाव होने लगे तो बसंती ने हिम्मत कर के छोटी बहू से कह दिया, ‘‘बहूजी, माताजी की पीठ में घाव होने लगे हैं…डाक्टर को दिखा दो…’’

‘‘वे तेरी सास हैं या मेरी…बड़ी फिक्र पड़ी है तुझे…’’ छोटी बहू कड़कती हुई बोलीं.

‘‘बहूजी, मैं तो सिर्फ बता रही थी.’’

‘‘तू ने कब देखा…नर्स ने तो कुछ नहीं बताया…नर्स किसलिए रखी है…अपनेआप देखेगी वह…सारा दिन लेटी रहती हैं, घाव तो होंगे ही…अब इस से ज्यादा कोई क्या करे…फुलटाइम नर्स तो रख दी है…’’

‘‘लेकिन बहूजी, सेवा तो अपने हाथ से होती है…आप लोग तो घर में रहते नहीं हो…नर्स थोड़े ही इतना करेगी,’’ बसंती किसी तरह हिम्मत कर बोल गई.

तभी बड़ी बहू बीच में बोल पड़ी, ‘‘तू जरा कम बोला कर और अपने काम पर ध्यान ज्यादा दिया कर.’’

‘‘अपने काम पर तो ध्यान देती हूं,’’ बसंती धीरेधीरे बुदबुदाती हुई अपने काम पर लग गई. फिर एक दिन बसंती से न रहा गया इसलिए बोल पड़ी :

‘‘बहूजी, आप जो खाना रख कर जाती हो वैसे ही पड़ा रहता है…माताजी से सब्जीरोटी कहां खाई जाती होगी, कुछ जूस, सूप, दलिया, खिचड़ी आदि बना दिया करो न उन के लिए…’’

‘‘हां, कई नौकर लगे हैं न यहां…और कोई काम तो है नहीं हमारे पास…सिवा एक काम के…’’ दोनों बहुएं एकसाथ बड़बड़ाने लगतीं और बसंती चुपचाप माताजी के क्षीण होते शरीर को देखती रहती.

माताजी के बैडसोर बड़े होने लगे थे. नर्स घावों की सफाई भी ठीक से नहीं करती, ऊपर से माताजी का पेट चलता तो दवाई भी ठीक से न दे पाती. कमरा सड़ांध से भरा रहता और बसंती उन की दुर्दशा पर चुपचाप आंसू बहाती रहती.

उस ने माताजी का वह समय देखा था, जब यहां काम करना शुरू किया था. तब वह माताजी को देख कर कितनी हुलसित हो जाती थी. कितनी शानदार लगती थीं माताजी तब…क्या शरीर था उन का… ममतामयी माताजी उसे बहुत ही अच्छी लगतीं. तब साहब भी जिंदा थे. पूरे घर की बागडोर माताजी के हाथ में थी. उन के दोनों बेटे उस के देखतेदेखते ही बड़े हुए थे.

उस के कितने ही सुखदुख में माताजी ने उस का साथ दिया और बदले में वह भी माताजी के पूरे काम आती. कितना देती- करती थीं माताजी उसे…उस के बच्चे बीमार पड़ते तो बिना काम के भी उसे रुपए पकड़ा देतीं. वह अपने शराबी आदमी से परेशान होती तो माताजी उसे धैर्य बंधातीं…सास के तानों से तारतार होती तो माताजी उसे पास बिठा कर समझातीं और इसी तरह उस की जीवन नैया पार लगी. आज बसंती के खुद के बच्चे भी बड़े हो गए हैं.

आज उन्हीं माताजी को तिलतिल कर मरते देख वह कुछ नहीं कर पा रही थी. हां, इतना जरूर था कि वह जब होती तो नर्स के साथ लग जाती. जब नहीं होती तो नर्स क्या करती, क्या नहीं करती वह नहीं जानती थी. एक दिन जब बसंती काम निबटा कर माताजी को देखने पहुंची तो कमरे से माताजी की कराहने की आवाज आ रही थी और नर्स की फोन पर बात करने की. वह कमरे में गई तो देखा, माताजी उघड़े बदन आधीअधूरी सफाई में वैसे ही ठंड में पड़ी हैं और नर्स फोन पर बात कर रही है. बसंती को देख कर उस ने फोन बंद कर दिया.

‘‘तुम काम छोड़ फोन पर बात कर रही हो और माताजी उघड़े बदन पड़ी हैं… उन्हें ठंड नहीं लग रही होगी,’’ बसंती का चेहरा गुस्से से तमतमा गया.

‘‘कर तो रही थी पर बीच में कोई फोन आ जाए तो क्या न उठाऊं.’’

‘‘तुम्हें यहां तनख्वाह माताजी का काम करने की मिलती है…फोन पर बात करने की नहीं…’’ बसंती अपने गुस्से को रोक नहीं पा रही थी.

‘‘तू जरा जबान संभाल कर बात किया कर…तू नहीं देती है मुझे तनख्वाह…’’

‘‘हां…जो तनख्वाह देते हैं, उन्हें तो पता नहीं कि तू क्या करती है…आज तो मैं कह कर रहूंगी.’’

‘‘जा…जा…कह दे, बहुत देखे तेरे जैसे…’’

नर्स भी कहां चुप रहने वाली थी. उस अकेले घर में बिस्तर पर असहाय बीमार पड़ी माताजी के सामने बसंती व नर्स की तूतू, मैंमैं होती रही. बसंती का मन उस दिन बहुत खराब हो गया. उस ने सोच लिया था कि अब चाहे काम छूटे या डांट पड़े, उसे माताजी के बहूबेटों को सबकुछ बताना ही पड़ेगा. रात भर वह सो न सकी. दूसरे दिन जब काम पर आई तो बड़ी बहू से बोली :

‘‘बहूजी, आप दोनों रहती नहीं…नर्स माताजी की ठीक तरह से देखभाल नहीं करती…’’

‘‘तो क्या करें अब…तू फिर शुरू हो गई…’’ बड़ी बहू को यह टौपिक बिलकुल भी पसंद नहीं था.

‘‘आप दोनों बारीबारी से छुट्टियां ले कर माताजी की देखभाल कर लो बहूजी…पुण्य लगेगा…अब…खाना तक तो छूट गया उन का…नर्स रखने भर से बुजुर्गों की सेवा नहीं होती. कितना प्यार दिया है माताजी ने आप लोगों को…इस समय उन्हें आप दोनों की बहुत जरूरत है,’’ स्वर में यथासंभव मिठास ला कर बसंती बोली.

‘‘तू हमें सिखाने चली है,’’ बड़ी बहू को गुस्सा आ गया, ‘‘बकवास बंद कर और अपना काम कर…और हां, अपनी औकात में रह कर बात किया कर…’’

‘‘ठीक है बहूजी…20 साल हो गए हैं आप के घर में काम करते हुए…माताजी ने कभी ऐसी तीखी बात नहीं कही…हमारी औकात ही क्या है…वह तो माताजी की ममता हमारे सिर चढ़ कर बोल जाती है, हम नहीं देख पाते हैं उन की यह दुर्दशा… आप कोई दूसरी ढूंढ़ लो…मुझ से नहीं हो पाएगा अब आप के घर का काम,’’ कह कर बसंती काम छोड़ कर चली गई.

अगले दिन उन्होंने दूसरी काम वाली ढूंढ़ ली. बसंती ने काम पर जाना तो छोड़ दिया लेकिन माताजी को देखने के लिए उस का दिल तड़पता रहता पर अब किस मुंह से जाए, मन ही मन तड़पती रह जाती. नर्स की तो अब और भी मनमानी हो गई. माताजी मृत्यु के थोड़ा और करीब पहुंच गई थीं.

एक दिन के लिए बोल कर नर्स छुट्टी पर गई तो दूसरे दिन भी नहीं आई. माताजी का कमरा ऐसा भभका मार रहा था कि दरवाजे पर खड़ा होना भी मुश्किल था. बहुओं ने, गंध बाहर न आए, इसलिए कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. शाम को बेटे घर आए तो अपनी बीवियों से पूछा :

‘‘नर्स आई थी आज…’’

‘‘नहीं…’’

‘‘तो क्या, मां वैसे ही पड़ी हैं अब तक…किसी ने सफाई नहीं की…खाना नहीं खिलाया…’’

‘‘कौन करता सफाई…’’ बहुएं चिढ़ गईं.

‘‘अरे, बसंती को ही जा कर बुला लाते…मां के लिए वह आ जाती…’’

‘‘कौन बुलाता उस नकचढ़ी को… कैसे पैर पटक कर काम छोड़ कर गई थी… हम से न हो पाएगा यह सब…’’

बीवियों से भिड़ना बेकार था, यह दोनों बेटे जानते थे. बड़ा बेटा बसंती के घर गया और उसे बुला लाया.

माताजी का नाम सुन कर बसंती ने आने में एक पल भी नहीं लगाया. बहुओं ने उसे देख कर मुंह फेर लिया. बसंती ने पूरे मनोयोग से माताजी की सफाई की. गीले तौलिए से पूरे शरीर को पोंछा, मालिश की. उन की चादर और कपड़े बदले और सारे कपड़े धो कर सुखाने डाल दिए. फिर माताजी के लिए पतली खिचड़ी बनाई और मनुहार से खिलाई. बसंती के प्यारमनुहार से माताजी ने 1-2 चम्मच खिचड़ी खा ली.

बसंती को आज माताजी की हालत और दिनों से भी गिरी हुई लगी. अनुभवी आंखें समझ गईं कि माताजी कल का सूरज शायद ही देख पाएंगी. इसलिए वह बड़े बेटे से बोली :

‘‘साब, नर्स नहीं है तो आज रात मैं यहीं रुक जाती हूं…बहूबेटे खुश हो गए. रात बसंती माताजी के कमरे में सो गई. बसंती को सामने देख कर माताजी भी चैन से सो गईं. उन के सोने के बाद बसंती भी लेट गई.’’

सुबह माताजी की खांसी की आवाज सुन कर बसंती की नींद टूट गई. उन की इकहरी होती सांसों को सुन कर बसंती चौंक गई. भाग कर बहूबेटों का दरवाजा खटखटा आई और माताजी का सिर अपनी गोद में रख लिया. सांस लेतेलेते माताजी ने निरीह नजरों से अपने बेटेबहुओं को देखा, फिर बसंती के चेहरे पर जा कर उन की नजर टिक गई. उन का मुंह हलका सा कुछ बोलने को खुला और प्राणपखेरू उड़ गए. बसंती का विलाप उस बड़ी कोठी के बाहर भी सुनाई दे रहा था. दूसरे दिन माताजी की अंतिम यात्रा का प्रबंध हो गया. रिश्तेदार आए. बहूबेटों ने छुट्टी ली और पूरी औपचारिकता निभाई. शाम को बसंती जाने लगी तो बहुओं ने उस के काम के रुपए ला कर उस के हाथ में रख दिए.

‘‘यह क्या है?’’ बसंती ने पूछा.

‘‘तुम्हारे काम का पैसा है…माताजी तुम को बहुत चाहती थीं. इसलिए ज्यादा ही दिया है.’’

‘‘बहूजी…’’ बसंती कसैले स्वर में बोली, ‘‘माताजी तो मेरी अन्नदाता थीं… बहुत दिया है उन्होंने हमें जिंदगी भर…हम उन के प्यार का कर्ज तो कभी नहीं उतार पाएंगे…माताजी के लिए किए काम का हमें कुछ नहीं चाहिए…उन का आशीष मिल गया हमें…आखिरी समय उन के मुंह में अन्नजल डाल पाए…हमारे लिए यही बहुत है…यह रुपया आप संभाल कर रख लो…जब आप लोग बुढ़ापे में इस बिस्तर पर पड़ोगे, तब आया को देने के काम आएंगे…’’

यह कह सुबकती हुई बसंती, गुस्से में दनदनाती चली गई और एक अनपढ़, साधारण नौकरानी की बात को मन ही मन तोलते, चारों उच्च शिक्षित, तथाकथित सभ्य समाज के कर्णधार भौचक्के से खड़े एकदूसरे की शक्ल देखते रह गए. Kahani In Hindi

Hindi Stories Love : अच्‍छा है संभल जाएं

Hindi Stories Love : बात उन दिनों की है जब मेरी नियुक्ति एक अच्छी कंपनी में एक अच्छे ‘पे पैकेज’ के साथ हुई थी और मैं कंपनी के गैस्टहाउस में रह रहा था. दिल्ली में वैसे भी मकान ढूंढ़ने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है.

एक दिन शाम को लगभग 7 बजे मेरे पास एक लड़की का फोन आया, ‘सर, मैं आशा बोल रही हूं. मैं आप से आज ही मिलना चाहती हूं. आप थोड़ा समय दे सकते हैं? मैं अगर आज आप से नहीं मिली तो बहुत देर हो जाएगी.’

मैं ने हामी भर दी और उसे आधे घंटे बाद किसी समय आने के लिए कह दिया. 8 बजे आशा मेरे पास गैस्टहाउस के रूम में थी.

‘‘सर, मैं आप की कंपनी में एक जूनियर औफिसर के पद के लिए इंटरव्यू दे चुकी हूं. अभी इस विषय में निर्णय लिया नहीं गया है. मेरे घर के हालात अच्छे नहीं हैं. मेरे पिता का निधन मेरे बचपन में ही हो गया था. मां ने मुझे बड़ी कठिनाइयों के साथ पाला है और मैं ही उन का एकमात्र सहारा हूं,’’ कह कर वह भावुक हो गई और उस की आंखों से आंसू छलक गए.

मैं उस की भावना से भरी बातचीत से प्रभावित हो चुका था. उस की सुंदरता पर मैं मुग्ध हो गया था. मेरी उम्र उन दिनों लगभग 30 की रही होगी और मैं अविवाहित भी था.

दूसरे ही दिन आशा का बायोडाटा मैं ने अपने औफिस में मंगा लिया. लेकिन उस की प्रतिभा के आधार पर उस का चयन हो चुका था. आशा को तो यही लगा कि उस का चयन मेरी वजह से हुआ है.

आशा का प्लेसमैंट मेरे ही विभाग में हो गया. उस की नजदीकियां जैसेजैसे बढ़ती गईं मुझे वह और भी अच्छी लगने लगी. अब तो वह बगैर किसी पूर्व सूचना के साधिकार गैस्टहाउस में मेरे कमरे में आने लगी थी. कभी चाय पर तो कभी डिनर पर. उस का साथ मुझे भाने लगा था.

हम दोनों की नजदीकियां जगजाहिर न होते हुए भी औफिस के कर्मचारियों को मन ही मन खटकती थीं. हम दोनों ने दफ्तर में पूरी सतर्कता रखी थी, लेकिन जब वह गैस्टहाउस में मेरे रूम में होती थी, तो हमें पूरी स्वतंत्रता होती थी. लेकिन दैहिक संबंध की दिशा में न बढ़ कर हम लोग अपने प्यार का इजहार एकदूसरे की पीठ थपथपा कर अकसर कर लिया करते थे. कभी चुंबन और आलिंगन से हम दोनों ने एकदूसरे को प्यार नहीं किया था. हां, अपनी कल्पना में मैं उसे कई बार चूम चुका था.

अचानक आशा का ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया. फिर हम दोनों  एकदूसरे के संपर्क में नहीं रहे. दूरी चाहत बढ़ा देती है, लेकिन मैं अपने मन को अकसर समझाता था कि इस के बारे में ज्यादा मत सोचो, फिर वक्त गुजरता गया और आशा की यादें धीरेधीरे धुंधली पड़ती गईं.

आशा से बिछड़े 10 साल गुजर चुके थे. मेरा विवाह हो चुका था. मेरी पत्नी मधु बहुत सुंदर और सुशील है और वह सही माने में एक सफल गृहिणी है. शादी हुए अभी कुछ ही समय हुआ था, इसलिए संतान के विषय में मैं ने और मेरी पत्नी ने कोई जल्दबाजी न करने का फैसला किया हुआ था. अभी तो हम एकदूसरे का साथ ऐंजौय करना चाहते थे. मेरी नौकरी दिल्ली में ही जारी थी.

एक दिन एक पेस्ट्री की दुकान पर मैं पेस्ट्री लेने के लिए रुका था. तभी पीछे से आई एक महिला के स्वर ने मुझे चौंका दिया.

‘‘सर, नमस्ते, आप ने मुझे पहचाना?’’

मैं मुड़ा तो देखा आशा खड़ी थी.

‘‘नमस्ते, तुम्हारी याददाश्त की प्रशंसा करनी होगी. इतने अरसे बाद मिली हो और मुझे तुरंत पहचान भी लिया,’’ मैं ने कहा.

उस के साथ बिताए दिनों की स्मृति मस्तिष्क में पुन: जाग्रत हो चुकी थी. इतने अरसे बाद भी उसे देख कर मुझे लगा कि अभी भी उस की सुंदरता बरकरार है.

‘‘इतने दिनों बाद.. दिल्ली कब आईं?’’

‘‘मैं यहीं आ गई हूं और यहीं जौब कर रही हूं. आज घर के लिए कुछ केकपेस्ट्री वगैरह लेने आई हूं. मेरे हसबैंड और सास दोनों को पेस्ट्री बहुत अच्छी लगती है.’’

‘‘जो कुछ तुम ने पैक कराया है उस का पेमैंट मैं अपने सामान के साथ कर दूंगा,’’ कहते हुए मैं ने काउंटर पर पैसे दे दिए. आशा नानुकर करती रही. मैं ने आशा की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे साथ ही चलो मैं तुम्हें ड्रौप भी कर दूंगा और तुम्हारे घर के लोगों से मिल भी लूंगा.’’

थोड़ी ही देर में मैं आशा के घर पहुंच गया. आशा ने रास्ते में बताया कि उस के पति का नाम जतिन है. उन का अपना बिजनैस है. विवाह 3 वर्ष पूर्व हुआ था. अभी उन की कोई संतान नहीं हुई है.

आशा की सास ने घर का मुख्य द्वार खोलते हुए मेरा स्वागत किया. आशा ने मेरा परिचय कराया, ‘‘मम्मीजी, ये श्रीकांत हैं. 10 साल पहले मैं इन के दफ्तर में ही काम करती थी. इन्होंने मेरी बहुत सहायता की थी. बहुत अपनापन दिया था.’’

खैर, हम लोगों ने साथसाथ चाय पी. जतिन अभी अपने कामकाज से वापस नहीं आया था. मैं ने आशा की प्रशंसा करते हुए मांजी से कहा, ‘‘आप के घर व ड्राइंगरूम का इंटीरियर बहुत अच्छा है.’’

मांजी ने कहा, ‘‘यह सब तो आशा का कमाल है. आशा को घर सजाने का बहुत शौक है.’’

एक दिन मैं आशा के घर पहुंचा तो मांजी तो घर पर ही थीं पर जतिन अभी वापस घर नहीं पहुंचा था. जतिन अकसर अपने बिजनैस में ही व्यस्त रहता था. आशा मुझे बैठा कर चाय बनाने चली गई. मैं ड्राइंगरूम में मांजी के साथ बातचीत करता रहा.

जब आशा चाय ले कर आई तो मैं ने मांजी से कहा, ‘‘आशा चाय बहुत अच्छी बनाती है.’’

‘‘तारीफ करना तो कोई श्रीकांतजी से सीखे. ये तो प्रशंसा करने में माहिर हैं. जतिन के पास तो इतना समय ही नहीं होता है कि वे कभी मेरी ओर गौर से देखें,’’ कहते हुए आशा मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूसरे कमरे की ओर ले कर चली, ‘‘आइए, मैं आप को जतिन का कंप्यूटर दिखाती हूं.’’

यह तो मात्र बहाना था मुझे एकांत में ले जाने का. मांजी रसोई में व्यस्त हो चुकी थीं. ‘‘मम्मीजी का बहुत सहारा है. वैसे तो अच्छाखासा समय औफिस में गुजर जाता है पर आप यह तो मानेंगे ही कि प्यार और स्नेह की भूख अपनी जगह होती है. बड़ा मन करता है कोई अपनापन जताए, अपना सा लगे, मुहब्बत से गले लगाए. पर ऐसा कुछ जतिन के साथ कभी हो ही नहीं पाता…’’ कहतेकहते वह मेरे निकट आ गई.

प्यार से उस की पीठ सहलाते हुए मैं ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मुझे तुम अपना ही समझो. अब जब एक अंतराल के बाद हम दोबारा मिले हैं तो मैं प्यार की कमी तुम्हें कभी महसूस नहीं होने दूंगा.’’

मांजी के आने की आहट से हम दोनों सतर्क हो गए. आशा की पीठ पर जो हलका सा स्पर्श हुआ था उस से मेरे मन में कई प्रश्न उठ खड़े हुए. शायद आशा को मुझ से कहीं अधिक अपेक्षा रही होगी. इन एकांत के क्षणों में, कुछ भी हो सकता था.

एक दिन मेरी पत्नी मधु किटी पार्टी से लौट कर घर आई. बातचीत के दौरान मधु ने मुझे बताया, ‘‘किटी पार्टी में मिसेज चोपड़ा तुम्हारे बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक रहती हैं. वे तुम से बहुत इंप्रैस्ड हैं. अकसर तुम्हारी तारीफ करती हैं.’’

मैं ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘मधु मुझे पता चला है तुम भी मेरी तारीफ में अपनी सहेलियों से बहुत बातें करती हो.’’

मधु ने प्रतिक्रिया में बस इतना कहा, ‘‘मैं झूठी तारीफ नहीं करती. आप हर तरह से तारीफ के काबिल हैं,’’ फिर मेरी पीठ सहलाते हुए बड़े प्यार से कहा, ‘‘यू आर रियली स्वीट हसबैंड.’’

मैं फूला नहीं समाया और आत्मविभोर हो गया. आशा अकसर अपने औफिस से मेरे कार्यालय में आ जाती थी और मैं उसे उस के घर ड्रौप कर दिया करता था. अपनी कंपनी में आशा अपने मधुर व्यवहार और कार्यशैली में गुणवत्ता के कारण, कई प्रमोशन प्राप्त कर चुकी थी. उसे उस के दफ्तर में सभी बहुत पसंद करते थे.

एक दिन जब वह कार में मेरे साथ अपने घर की ओर जा रही थी तो मैं उस के मांसल शरीर पर मुग्ध हो उठा. मेरे मन में बिताए दिनों की नजदीकियां तरोताजा हो उठीं.

तब मन में खयाल आता था कि काश आशा के साथ मेरी नजदीकी कुछ इस तरह बन सके कि मजा आ जाए. पर अकसर मुझे अपने इस विचार पर हंसी आती थी. आशा जैसी लड़की का निकट होना एक संयोग की ही बात थी.

कार में आशा को मेरा एकटक उसे देखना अच्छा भी लगता था, लेकिन मेरी नैतिकता इस वासना की चिनगारी को ठंडा कर देती थी. जब आशा खिलखिला कर हंसती थी तो मुझे बहुत अच्छी लगती थी. आशा के मन में मेरे लिए प्रेम पनप रहा है ऐसा मैं ने अकसर महसूस किया था. एक बार उस के घर गया तो उस के पति जतिन से मुलाकात हुई. वह एक सभ्य और सुलझा हुआ इंसान था.

मैं आशा के घर जाता रहता था. वह कभीकभी बच्चों जैसी मासूमियत के साथ हठ कर के मुझ से किसी चीज की मांग कर बैठती थी तो जतिन उसे समझाता था.

उत्तर में वह कहती थी, ‘‘तुम हम दोनों के बीच में मत पड़ो, जतिन. मैं सर से जो चाहती हूं साधिकार लूंगी. ये उम्र में हम से बड़े हैं और इन से हम लोग कुछ भी ले सकते हैं.’’

मैं ने आशा को उस की शादी की सालगिरह के मौके पर सोने का इयररिंग्स भेंट किया जिन्हें पहन कर उस ने कहा, ‘‘कैसी लग रही हूं इसे पहन कर?’’

मैं ने कहा, ‘‘बहुत सुंदर.’’

मेरे करीब आ कर उस ने मेरा एक हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया और बोली, ‘‘मुझे आप का आशीर्वाद चाहिए, सारी जिंदगी. बस ऐसे ही प्यार करते रहिएगा.’’

मैं ने कुछ नहीं कहा किंतु मन ही मन खुश था.

मेरी मर्यादा ने मुझे बांध रखा था. लेकिन अकसर आशा के मुख पर आतेजाते  हावभाव उस के दिल में छिपे तूफान को छिपाने में असमर्थ होते थे.

एक दिन किसी कार्यवश जतिन को लखनऊ जाना पड़ा. अपने औफिस से लौटते हुए आशा को ले कर मैं आशा के घर पहुंचा. रास्ते भर आशा बहुत प्रसन्न दिखाई दी. घर पहुंचने पर आशा ने अपने पर्स से घर की चाबी निकाली. मेरे पूछने पर आशा ने बताया, ‘‘2 दिन पहले मम्मीजी मेरे जेठ के यहां कानपुर गई हैं. वापसी में जतिन उन्हें कानपुर से ले आएंगे.’’

थोड़ी देर बाद जब मैं ने उस के घर से जाना चाहा तो आशा ने कहा, ‘‘आप रुक जाइए. ऐसी भी क्या जल्दी है? आज मैं घर पर आप को ट्रीट दूंगी. खाना हम साथ ही खाएंगे. अकेले रहने का मौका तो कभीकभी ही मिलता है,’’ कहते हुए उस ने मुझे बाहुपाश में लेने की चेष्टा की. मेरे समीप होने का वह पूरा लाभ उठाना चाहती थी. पहले तो मैं ने संकोचवश वहां से हटना चाहा किंतु उस का आकर्षण मेरी विवशता बन गया. ऐसे अंतरंग क्षणों में हम एकाकार हो गए. एक अलौकिक दुनिया में खोए रहे.

दूसरे दिन भी इसी आनंद की पुनरावृत्ति हुई. हम दोनों भोजन कर चुके थे. आशा ने कहा, ‘‘आप थोड़ी देर संगीत का आनंद लें. मैं बस थोड़ा फ्रैश हो कर आती हूं. वह आई तो हलके आसमानी रंग की साड़ी में थी और बहुत प्रसन्न थी, ‘‘अभी तो मैं आप को बिलकुल नहीं जाने दूंगी. बस थोड़ा समय ही तो लगेगा,’’ कह कर उस ने मेरा हाथ थाम लिया और दूसरे कमरे की ओर ले चली.

मंद स्वर में उस ने पूछा, ‘‘मैं दुलहन जैसी सुंदर लग रही हूं न?’’ फिर इतराते हुए कहा, ‘‘आज मैं ने शृंगार आप के लिए ही किया है. आप मुझे जी भर कर प्यार कर सकते हैं. मैं प्रेम की गहराई में डूब जाना चाहती हूं…’’ वह बोली.

बहकने लगी थी वह और मुझे बाहुपाश में लेने के लिए मचल रही थी. मैं कदम बढ़ा कर बहुत दूर तक जा सकता था. प्रलोभन चरम सीमा पर था. हालात विवश कर रहे थे देहसंबंध के लिए.

उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब मैं एकाएक पलंग से उठ खड़ा हुआ, ‘‘जरा इधर आओ मेरे निकट,’’ मैं ने आशा से कहा, ‘‘मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूं, तुम्हारे व्यक्तित्व में कई अच्छी बातें हैं लेकिन जो प्रेम तुम मुझ में ढूंढ़ने का प्रयास कर रही हो वह जतिन के हृदय में भी हिलोरें मार रहा है. नदी को जानने के लिए गहराई में उतरना पड़ता है. किनारे पर खड़े हो कर नदी की गहराई पता नहीं चलती है. तुम्हारा समर्पण और सान्निध्य केवल जतिन के लिए है.’’

वह सब जो आसानी से उपलब्ध है उसे कोई इतनी आसानी से ठुकरा सकता है, ऐसा आशा ने कभी सोचा न था.

थोड़ी देर वह चुप रही फिर उस ने बहुत भावुक हो कर कहा, ‘‘आज की इस निकटता ने हमारे संबंधों को एक नया अर्थ दिया है. यह आप ने सिद्ध कर दिया है. आप ने मेरी नजदीकी से कोई लाभ नहीं उठाना चाहा. जो पवित्र प्रेम और सम्मान आप ने मुझे दिया है उसे मैं जिंदगी भर याद रखूंगी. आप हमारे घर आतेजाते अवश्य रहिएगा. आप को अभी भी रोकने की मेरी चाहत है लेकिन जाने का निश्चय आप कर चुके हैं.’’

लौटते वक्त मैं सोच रहा था कि एक सुंदर लड़की का रूप मेरी रूह में समा चुका है. वह भी मुझे पसंद करती है, लेकिन हमारी सोच के तरीके बदल चुके हैं.

सब से अधिक प्रसन्नता मुझे इस बात की थी कि मैं ने अपनी पत्नी के विश्वास को कोई चोट नहीं पहुंचाई थी. हमारा अपनेअपने हिस्से का जो प्यार होता है, हमें उसी पर गर्व महसूस करना चाहिए. Hindi Stories Love 

BJP : मुसलमानों को तरक्की से किस ने रोका है

BJP : 2014 के बाद से सत्तारूढ़ बीजेपी और बीजेपी समर्थित मीडिया लगातार ऐसे मुद्दों को उठाते रहे हैं जिन में देश के मुसलमान सीधे निशाने पर होते हैं. तीन तलाक, एनआरसी, उर्दू विवाद, औरंगजेब की कब्र और वक्फ बिल जैसे गैरजरूरी मुद्दों के नाम पर होहल्ला मचाया जाता है और ऐसे हर मुद्दे में मुसलिम समाज ही टारगेट होता है. बीजेपी की यह चाल हर बार कामयाब होती हुई नजर आती है क्योंकि ऐसे हर मुद्दे में देश का मुसलमान रिएक्ट करता है जिस से बीजेपी के ध्रुवीकरण की राजनीति मजबूत होती है. यही कारण है कि दुनिया के सब से बड़े लोकतंत्र में मुसलमानों की भागीदारी सिर्फ चुनावों तक सीमित हो कर रह गई है.

लोकतंत्र में मुसलमान हिस्सेदारी और भागीदारी से दूर खिसकता जा रहा है. मीडिया, राजनीति, शिक्षा और नौकरियों में मुसलमानों का अनुपात उस की जनसंख्या के अनुपात से काफी कम है. देश कि राजनीति के केंद्र में मुसलमान जरूर है लेकिन देश के लोकतंत्र में मुसलमान हाशिये पर पहुंच चुका है. अगर मुसलमान आज हाशिये पर हैं तो इस के पीछे की वजह क्या है? जब भी यह सवाल उठता है कुछ रटीरटाई बातें सुनने को मिलती हैं कि कांग्रेस कि गलत नीतियों की वजह से मुसलमान आगे नही बढ़ पाया. बीजेपी मुसलमानों से नफरत करती है इसलिए मुसलमान पिछड़ रहे हैं. सच क्या है? मुसलमानों के पिछड़ेपन का असली जिम्मेदार कौन है?

मुसलिम दुनिया आइसोलेटेड क्यों है?

मुसलिम इलाकों की विडंबना यह है कि इस के चारों ओर से एक अदृश्य चारदीवारी होती है. मुसलमान, कल्चरल डाइवर्सिटी को पसंद नहीं करते इसलिए अपने चारों ओर एक ऐसी कृतिम दुनिया बना लेते हैं जिन में सिर्फ इन का ही कल्चर वजूद में रहे. बाहरी दुनिया से सम्पर्क के बिना रोजी रोटी के लाले पड़ जाएंगे इसलिए मजबूरन ही यह दूसरे कल्चर से मेलजोल रखते हैं जिस का खामियाजा यह होता है कि बाहरी कल्चर के लोग इन्हें एक्सेप्ट ही नहीं कर पाते.

मुसलिम समाज हुनरमंद है. मेहनती है. ईमानदार भी है लेकिन फिर भी पिछड़ी हुई है. बड़ा परिवार इस समाज की अलग परेशानी है. मुसलिम समाज आधुनिकता और आधुनिक शिक्षा के प्रति घोर निराशावादी होता है. जिस से मुसलमानों का पिछड़ापन स्थाई बना रहता है. किसी मुसलिम परिवार में दो बेटे हैं तो एक बेटे को गल्फ भेजना और दूसरे को मेकेनिक बना देने को ही तरक्की समझा जाता है. बेटियां दीनी तालीम हासिल कर ले साथ ही दसवीं कक्षा तक पढ़ जाए मुसलिम समाज में बेटियों की शिक्षा का यही मतलब है. मुसलिम समाज की आधी आबादी तो सिर्फ चौका बर्तन करने और बच्चे पैदा करने के लिए ही तैयार की जाती है. मानव संसाधन की ऐसी बर्बादी और किसी समाज में नहीं.

देश के किसी कोने में मुसलिम के साथ कोई भेदभाव नहीं होता. यह इस देश की एक अलग खासियत है हालांकि 2014 के बाद से साम्प्रदायिक राजनीति के केंद्र में मुसलमान ही रहा है और मुसलमानों के खिलाफ लगातार ऐसी साम्प्रदायिक घटनाएं हुईं हैं जिस से हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई खोदने के प्रयास किये जाते रहे लेकिन तमाम तरह के ध्रुवीकरण के बावजूद आम भारतीय समाज आज भी सेकुलर ही है. कोई मुसलिम की किराने की दुकान में ग्राहकों की कमी नहीं आई. कपड़े बेचने वाले मुसलमानों का धंधा बंद नहीं हुआ. पंचर वाले, केले वाले, दर्जी, नाई, ड्राइवर और मजदूर मुसलमानों का धंधा पानी पहले की तरह आज भी चल रहा है. फिर दिक्कत कहां है? समाज पिछड़ क्यों रहा है? दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों की तरह उन के जनसंख्या अनुपात में सिस्टम में भागीदारी नजर क्यों नही आती?

उच्च शिक्षा से नफरत

कड़वी सच्चाई यह है कि भारत के मुसलमानों के पिछड़े पन के लिए सीधे तौर पर कोई भी सरकार या कोई भी राजनैतिक दल जिम्मेदार नहीं है बल्कि उच्च शिक्षा के प्रति उदासीनता के कारण मुसलमान लगातार पिछड़ते जा रहे हैं.

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फोर्मेशन सिस्टम फोर एजुकेशन (UDISE+) डेटा के अनुसार, मुसलिम छात्रों का नामांकन प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर राष्ट्रीय औसत के करीब है, लेकिन माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर यह आश्चर्यजनक रूप से घट जाता है. 2020-21 में जहां प्राथमिक कक्षाओं में मुसलिम क्षात्रों का नामांकन 24% था. उच्च माध्यमिक कक्षाओं तक पहुचते पहुंचते यह आंकड़ा 15% रह गया और उच्च शिक्षा में मुसलिम छात्रों का नामांकन महज 4.8% फीसदी ही रह गया.

यह आंकड़े इस बात की सच्चाई बयान करने के लिए काफी हैं की मुसलमानों में उच्च शिक्षा के प्रति कोई गम्भीरता नहीं है. उच्च शिक्षा से ही नौकरियों के द्वार खुलते हैं. मुसलिम बच्चे उच्च शिक्षा तक पहुंच ही नहीं पाएंगे तो सरकारी नौकरियों में कैसे पहुंचेंगे? यही कारण है कि मुसलिम समाज की आबादी 14 फीसदी होने के बावजूद सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी महज 2-% ही रह गई है. वहीं ईसाई समुदाय की आबादी 2.3% है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी नौकरियों में ईसाइयों की हिस्सेदारी 2-3% के आसपास है, जो उन की जनसंख्या के अनुपात के बराबर है.

शिक्षण संस्थाओं से ज्यादा मदरसे

2015 तक देश में ईसाई स्कूलों और कालेजों की संख्या 10,000 से 15,000 के बीच थी. जो कि कुल एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन का 30 फीसदी है. जबकि ईसाइयों की आबादी महज दो फीसदी है.

2020-21 के अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHE) के अनुसार, मुसलिमों के द्वारा संचालित होने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों में 1155 कालेज और 23 विश्वविद्यालय हैं, जो कुल 43,796 कालेजों का मात्र 2.6% और 1,113 विश्वविद्यालयों का 2.1% है. इन में से कुछ प्रमुख संस्थान हैं, जैसे अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, बी.एस. अब्दुर रहमान क्रिसेंट इंस्टीट्यूट औफ साइंस एंड टेक्नोलौजी, और एम.एस.एस. वक्फ बोर्ड कालेज मदुरै हैं.

देश में 25,000 रजिस्टर्ड मदरसे हैं और तकरीबन 75 हजार मदरसे इस्लामिक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय की एक पोस्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 13,329 मान्यता प्राप्त मदरसे हैं, जिन में 12,35,400 छात्रछात्राएं पढ़ रहे हैं.

आज की दुनिया में किसी भी समुदाय की तरक्की शिक्षा के प्रति उस के ईमानदार प्रयासों से तय होता है. 20 करोड़ की आबादी होने के बावजूद मुसलिम समाज में एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन दो करोड़ की आबादी वाले सिखों और ईसाइयों के बराबर भी नहीं है. मुसलमान शिक्षा के मामले में मौडर्न शिक्षण संस्थाओं से ज्यादा मदरसों पर यकीन करते हैं जहां से शिक्षा के नाम पर मजहब की घुट्टी पिलाई जाती है जिस से मुल्लाओं की तादात बढ़ती है.

मुल्लाओं की यह जमात का मुसलिम समाज में कट्टरता और जहालत भरने के अलावा कोई योगदान नहीं होता. पिछले 80 सालों में मुसलिम समाज को इतनी भी अक्ल नहीं आई की मदरसों से अफसर, अधिकारी नहीं निकल सकते तो इस में किस का दोष है? कौन सी सरकार ने शिक्षण संस्थानों को खोलने से रोका? इन मदरसों से हर साल एक लाख से ज्यादा क्षात्र पास आउट हो कर निकलते हैं ये मुसलिम समाज को क्या देते हैं? आज तकनीक और हुनर का जमाना है इस क्षेत्र में भी मदरसों का कोई योगदान नहीं है. फिर भी मदरसों में भीड़ कम नहीं होती तो इस में गलती किस की है? जब मुसलमानों के अपने शिक्षण संस्थान ही नहीं होंगे तो गरीब मुसलिम समाज के होनहार बच्चे कहां जाएंगे?

2011 की जनगणना के अनुसार, सिख समुदाय देश की कुल जनसंख्या का लगभग 1.7% (लगभग 2 करोड़) है. सरकारी नौकरियों में सिख समुदाय अपनी जनसंख्या अनुपात से कहीं ज्यादा की भागीदारी रखता है. सेना में सिखों की भागीदारी 8-10% तक है. यह सब मुमकिन हुआ है क्योंकि हर स्किल के लिए सिखों के अपने इंस्टीट्यूशन हैं. जहां से हर साल सिखों के लाखों बच्चे पास आउट हो कर सिस्टम का हिस्सा बनते हैं. महज दो फीसदी से भी कम जनसंख्या वाला सिख अल्पसंख्यक समुदाय शिक्षा के महत्व को समझ गया इसलिए देश के हर क्षेत्र में सिखों ने अपनी उचित भागीदारी तय की लेकिन मुसलिम समाज शिक्षा के इस बुनियादी महत्व को नहीं समझ पाया और हर क्षेत्र में पिछड़ता चला गया.

सच्चर समिति की रिपोर्ट के अनुसार, ब्यूरोक्रेसी में मुसलमानों की हिस्सेदारी मात्र 2.5% है जबकि उच्च-स्तरीय सरकारी पदों, जैसे IAS, IPS, और अन्य सिविल सेवाओं में, यह और भी कम है. 2024 के UPSC सिविल सर्विसेज परिणाम में 1,009 सफल उम्मीदवारों में केवल 26 मुसलिम थे, यानी लगभग 2.5%. यह 2023 के 4.9% से भी कम है, जो दर्शाता है कि सिविल सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी लगातार कम हो रही है.

केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में नौकरियों में धार्मिक अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों की हिस्सेदारी में 6.8% की कमी आई है, जो हिंदू समुदाय की तुलना में तीन गुना अधिक है. 90 सचिव-स्तरीय पदों में मुसलमानों की संख्या मात्र 1 है. टौप-30 रैंक में कोई मुसलिम उम्मीदवार शामिल नहीं था.

मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग (2025) के परिणामों में 394 पदों के लिए केवल 4 मुसलिम उम्मीदवार सफल हुए, जो कुल आबादी का लगभग 1% है.

आजादी से पहले सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी 25-35% थी, जो अब घट कर 2-3% रह गई है.

2021-22 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के अनुसार, 7 वर्ष और उससे अधिक आयु के मुसलमानों की साक्षरता दर 77.7% , जो राष्ट्रीय औसत से कम है.

आमतौर पर मुसलमानों में यह धारणा बैठी है की सरकारी एकजामों/नौकरियों में मुसलिमों के साथ भेदभाव होता है. 2019 यूपीएससी परीक्षा में जुनैद अहमद रैंक 3 ले कर आए और 2020 में शाहिद इकबाल रैंक 12 लेकर आये. इस से यह धारणा बिल्कुल गलत साबित होती है. काबिलीयत को कोई रोक नहीं सकता. अगर मुसलिम बच्चे में टैलेंट है तो उसके लिए कहीं कोई रुकावट नहीं है लेकिन टैलेंट को निखारने के लिए जमीनी स्तर पर जिस माहौल की जरूरत होगी वह तो मुसलिम समाज को स्वयं ही बनाना पड़ेगा. वरना होनहार और काबिल बच्चे प्रतियोगिताओं तक नहीं पहुंच पाएंगे और जब प्रतियोगिताओं तक ही नहीं पहुंचेंगे तो सिस्टम का हिस्सा कैसे बन पाएंगे? सिस्टम में भागीदारी नहीं होगी तो सिस्टम को दोष देने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा.

मुसलिम समाज को एजुकेशन के महत्व को समझना होगा. आज वक्त बेहद नाजुक है. आज का प्रयास ही भविष्य की पीढ़ियों के जीवन को तय कर सकता है. इतिहास में जो गलतियां हुईं उन्हें भूल जाइए. सिस्टम और राजनीति को दोष देना छोड़ दीजिए. अपने रहनुमाओं को पालना बन्द कीजिये और अपनी पीढ़ियों को उच्च शिक्षा तक भेजने का भरसक प्रयास कीजिए. हालात बदल जाएंगे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें