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“स्टार भारत” के सीरियल “सावधान इंडिया f.i.r.” सीरीज में अब मानिनी मिश्रा मुख्य किरदार में नजर आएंगी

“स्टार भारत” पर अपराध व अपराधियों के खात्मे के मकसद से एक सीरियल “सावधान इंडिया f.i.r. सीरीज” का प्रसारण हर सोमवार से शुक्रवार रात 10 बजे होता है. अब इसका नया सीजन “क्राइम का बुरा टाइम  शुरू अब से “के तहत शुरू हो रहा है . जिसमें पुलिस के नजरिए से अपराध कहानियों को पेश किया जा रहा है.  इस सीजन में अंत तक दर्शक अनुमान नहीं लगा सकेगा कि असली अपराधी कौन है ?इस सीजन की कहानी चार अलग-अलग शहर की पुलिस के इर्द-गिर्द घूमती नजर आएगी.
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इस नए सीजन के लिए निर्माताओं ने कलाकारों के चयन को लेकर अच्छी खासी मशक्कत की है. एक तरफ इसमें पुलिस अफसर के किरदार में अंकुर नय्यर है, वहीं मुख्य पुलिस अधिकारी दुर्गा कुलकर्णी के किरदार में मानिनी मिश्रा को चुना गया है. मां दुर्गा की ही भांति दुर्गा कुलकर्णी मजबूत और सदैव लोगों की मदद के लिए मौजूद रहने वाली पुलिस अधिकारी हैं . वह इसमें हत्या की साजिशों से लेकर अपहरण व अन्य अपराधों  तक के मामलों को हल करती नजर आएंगी.
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सीरियल “सावधान इंडिया f.i.r. सीरीज” से जुड़ने की चर्चा चलने पर मानिनी मिश्रा ने कहा -” मैं खुद इस सीरियल का हिस्सा बनने को लेकर उत्सुक थी. मुझे लगता है कि मेरा अहंकार पुलिस वाले जैसा ही है. मैं पुलिस अफसर का किरदार निभाते हुए बहुत खुश हूं. मेरे लिए यह न्याय दिलाने व समाज में बदलाव लाने का एक जरिया है. मैं स्वयं निजी जिंदगी में पुलिस और सशस्त्र बलों का सम्मान करती हूं.  इसके अलावा इस सीरियल में मुझे अद्भुत अभिनेता और प्यारे दोस्त अंकुर नय्यर के साथ काम करने का मौका मिला है. यह मेरे लिए सुखद आश्चर्य है. मैंने पहले भी ‘स्टार भारत’ के साथ काम किया है .इस बार ‘स्टार भारत ‘एक शानदार कंटेंट लेकर आ रहा है, जिसका हिस्सा मैं भी हूं.”

राज प्रीतम मोरे की लघु फिल्म ” खीसा” (पॉकेट) का भारत के 51 अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के लिए चयन

कई अंतरराष्ट्रीट्रीय फिल्मम समारोहों में धूम मचाने और कई पुरस्कार जीतने के बाद अब फिल्मकार राज प्रीतम मोरे की मराठी भाषा की लघु फिल्म खीसा (पॉकेट ) का इंडियन पैनोरोमा , इफ्फ़ी , गोवा में प्रदर्शन के लिए आधिकारिक चयन किया गया हैं. इफ्फी का आयोजन हर वर्ष नवंबर माह के अंतिम सप्ताह में गोवा मेंं किया जाता है .मगर इस बार कोरोनावायरस के चलते ऐसा संभव नहींं हो पााया था. परिणामत अब भारत का  ५१वां अंतर्राष्ट्रीय  फिल्म महोत्सव १६  से २४ जनवरी २०२१ गोवा में आयोजित किया जा रहा हैं ,जिसमे देश विदेश की कई फिल्मो का प्रदर्शन किया जाएगा.
पी पी सिने प्रॉडक्शन , मुंबई लालटिप्पा फिल्मस के बैनर टेल निर्मित फिल्म खीसा (पॉकेट ) के  निर्माता संतोष मैथानी और राज प्रीतम मोरे हैं.  फिल्म को अकोला ( विदर्भ ), महाराष्ट्र के विभिन्न लोकेशंस पर फिल्माया गया हैं.
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लघु फिल्म “खीसा (पॉकेट )”की कहानी  महाराष्ट्र के एक गांव में रहने वाले लड़के की  हैं ,जो एक दिन तय करता है कि वह उसके स्कुल की शर्ट में एक बड़ा पॉकेट/जेब/खीसा  बनाएगा ,जिसमे वह अपनी कीमती और प्यारी वस्तुएँ जैसे सिक्के , फूलों की पत्तियाँ , कंचे आदि सुरक्षित रख सकेगा. यह एक ऐसा खिसा होगा, जिस पर हमेशा उसे गर्व रहे. इस खीसा के चलते वह खास बन जाता है. उससे उम्र में बड़ो से भी ख़ास बना देता हैं क्योंकि बाकी लोगो  का खीसा छोटा , साधारण और एक जैसा दिखने वाला हैं. खीसा (पॉकेट ) के छोटे बड़े होने से समाज में फैले  प्रतीकात्मक राजनीति छोटे से बच्चे के समझ के परे हैं जल्द ही पुरे गाँव में यह खीसा एक विवाद का केंद्र बन जाता हैं.

राज प्रीतम मोरे ने फिल्म खीसा (पॉकेट ) के साथ निर्देशन की शुरुवात की  हैं और उनकी इस पहली लघु फिल्म को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में कई नामांकन , पुरस्कार और दर्शकों का प्रतिसाद मिला हैं.  निर्देशक राज प्रीतम मोरे कहते हैं-“फिल्म ‘खिसाा’ आज के पीढ़ी के बच्चों की मासूमियत की कहानी हैं. यह एक बहुत ही दुःख की बात है लेकिन यह आज सच्चाई  हैं खीसा (पॉकेट ) एक लड़के की दिल को छूने वाली कहानी है जो निश्चित रूप से दर्शकों को जीवन के प्रति एक अलग दृष्टिकोण देगी. आज मराठी फिल्में हर दिन नई ऊँचाइयों पर पहुंच रही हैं. मराठी कंटेंट न केवल देश में बल्कि पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना रहा है. 15 मिनट  अवधि की यह फिल्म सभी के दिल में जगह बनाएगी.”

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खीसा ( पॉकेट ) को इंस्तांबुल फिल्म अवॉर्डस  २०२० में सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का अवार्ड मिला हैं.भारत के प्रतिष्ठित १०वे दादासाहेब फ़ाल्के फ़िल्म महोत्सव दिल्ली में  सर्वश्रेष्ठ स्क्रीनप्ले का पुरस्कार मिला हैं.  मार्च २०२१, टर्की ,इंस्तांबुल  में आयोजित होने  वाले गोल्डन स्टार अवार्ड्स में आयएफ़ए के  वार्षिक लाइव स्क्रीनिंग गाला में भी प्रदर्शित की जायेगी.
फिल्म को डबलिन अंतर्राष्ट्रीय शार्ट एंड म्यूजिक फ़ेस्टिवल २०२० में सर्वश्रेष्ठ अंतराष्ट्रीय शार्ट फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए नामाँकित भी किया गया. खीसा (पॉकेट ) का पहला ऑनलाइन अंतराष्ट्रीय प्रीमियर भी डबलिन अंतर्राष्ट्रीय शार्ट एंड म्यूजिक फ़ेस्टिवल २०२० में किया गया.खीसा (पॉकेट ) को मुंबई अंतर्राष्ट्रीय कल्ट फिल्म फ़ेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ नवोदित निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता  ( स्पेशल ज्यूरी मेंशन ) का पुरस्कार कैलाश वाघमारे को दिया गया. खीसा को  मॉन्ट्रियल इंडिपैंडेंट फिल्म महोत्सव कनाडा और २६ वे कलकत्ता अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी प्रदर्शन के लिए आधिकारिक नामांकित की गयी. अन्य प्रमुख नामांकन और पुरस्कारों में  डायोरमा इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल २०२० , सिंगापुर इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल २०२० , जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल  के साथ ही डायोरमा इंडी शार्ट फिल्म फ़ेस्टिवल अर्जेंटीना २०२० में भी आधिकारिक नामांकन और प्रदर्शित की गयी हैं  .

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खीसा (पॉकेट) के लेखक कैलाश वाघमारे,  कैमरामैन सिमरजीत सिंह सुमन , संगीतकार पारिजात चक्रवर्ती , साउंड रिकॉर्डिस्ट कुशल सारदा और एडिटर संतोष मैथानी हैं. फिल्म में प्रमुख भूमिकाओं में कैलाश वाघमारे ,  मीनाक्षी राठौड़ , श्रुति मध्यादीप  डॉ. शेषपाल गणवीर और वेदांत श्रीसागर ( बाल कलाकार ) नजर आएंगे.

वेदिता प्रताप सिंह ने अपने अमरीकन प्रेमी और आरोन एडवर्ड सेल के संग रचाई शादी

मशहूर फिल्म व टीवी अभिनेत्री वेदिता प्रताप सिंह ने अपने लंबे समय के अमेरिकन प्रेमी आरोन एडवर्ड सेल के साथ 2 दिन पहले मोटाना ,अमेरिका के लेक काउंटिंग कोर्ट में आयोजित एक समारोह में पारिवारिक सदस्यों की मौजूदगी में शादी कर ली.
मूलतः लखनऊ निवासी  राष्ट्रीय चैंपियन तैराक रही वेदिता प्रताप सिंह  पहली बार 2008 में उस वक्त चर्चा में आई थीं, जब उन्होंने चैनल “वी” के “इंडियाज हाटेस्ट” का सीजन जीता था. बाद में उन्होंने कादर खान के एक नाटक में अभिनय किया था, जिसके शो भारत के अलावा दुबई में भी हुए थे. वेदिता प्रताप सिंह कई टीवी सीरियलों के अलावा ‘भिंडी बाजार’, ‘द पास्ट’,’ मुंबई 125 किलोमीटर’ जैसी कई फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. कुछ दिन पहले सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फिल्म ‘द हिडेन स्ट्राइक’ में वह डिजिटल प्लेटफॉर्म पर नजर आई थी.
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आरोन एडवर्ड के साथ शादी करने के बाद वेदिता प्रताप सिंह ने कहा-” मैं आरोन एडवर्ड सेल के साथ  अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने को लेकर अति रोमांचित हूं. मैं उन सभी की आभारी हूं ,जिन्होंने वर्षों से मुझ पर ढेर सारा प्यार बरसाया है. हम अपनी इस यात्रा में सभी का सभी का आशीर्वाद चाहते हैं.”
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वेदिता प्रताप सिंह ने आगे कहा-” मैं भारत लौटने के बाद अपने प्रशंसकों का मनोरंजन करने के लिए अभिनय करना जारी रखूंगी. हम भारत पहुंचकर भारतीय शैली में भी शादी की योजना बना रहे हैं.”

कोढ़ में कहीं खाज न बन जाए ‘बर्ड फ्लू’

9 जनवरी 2021 को जब यह घोषणा की जा रही थी कि 16 जनवरी 2021 से देशभर में कोरोना की रोकथाम के लिए वैक्सीनेशन का पहला चरण शुरु होगा, ठीक उसी समय कहीं से ये खबरें तो नहीं आयी कि किसी इंसान में बर्ड फ्लू या एच5एन1 एविएन इंफ्लूंजा के लक्षण पाये गये हैं, लेकिन यह गौर करने वाली और चिंताजनक बात है कि पिछले एक सप्ताह में हर दिन बर्ड फ्लू का शिकार होकर मरने वाले पक्षियों में आज सबसे ज्यादा संख्या रही. राजस्थान से 2000 से ज्यादा कौओं के फिर से मरने की खबर आयी, दिल्ली के भी कई इलाकों से करीब 200 से ज्यादा पक्षियों के मरने की खबरें आयीं जिनमें से ज्यादातर कौव्वे रहे और हिमाचल जहां बर्ड फ्लू की आशंकाओं को देखते हुए तमाम पोल्ट्री प्रोडक्ट पर बैन लगा दिया गया है, वहां 3700 से ज्यादा प्रवासी पक्षियों के एक ही दिन में मरने से हड़कंप मच गया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि बर्ड फ्लू से दुनिया सैकड़ों साल से परिचित है और यह भी सच है कि पहले बर्ड फ्लू से इंसानों की मौत नहीं होती थी और आज भी आमतौर पर नहीं होती. लेकिन हमें 2013 और 1997 के वे भौंचक कर देने वाले मामले नहीं भूलने चाहिए, जब बर्ड फ्लू से न केवल इंसानों की मरने की पुष्टि हुई बल्कि इसका म्यूटेशन वर्जन एच7एन9 को एक पिता से उसकी बेटी में फैलते पाया गया. इसलिए जरूरी है कि हम कोरोना के विरूद्ध अपनी लड़ाई को जारी रखते हुए बर्ड फ्लू से भी सतर्क रहें.

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गौरतलब है कि दिसंबर 2020 के आखिरी दिनों में बर्ड फ्लू फैलने की पहली खबर हिमाचल प्रदेश से आयी, जहां सैकड़ों की तादाद में जंगली गीज मरे पाये गये. इसके दो दिन बाद ही राजस्थान और मध्य प्रदेश के कौओं के, केरल से बत्तखों के और हरियाणा से मुर्गियों के, रहस्यमय ढंग से मरने की खबरें आयीं. पक्षियों के मरने की इन खबरों से भारत ही नहीं दुनिया के कई दूसरे देश भी दहल गये हैं. इसका कारण यह है कि 8 साल पहले जब पेइचिंग में बर्ड फ्लू के चलते 43 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी. यही नहीं हांगकांग में भी उन्हीं दिनों बर्ड फ्लू को पक्षियों से इंसानों में फैलते पाया गया था. वास्तव में साल 2013 में ही पहली बार एक 32 साल की महिला की बर्ड फ्लू से मौत हो गई थी जबकि वह पक्षियों के संपर्क में नहीं आयी थी बल्कि उसके पिता आये थे, लेकिन महिला के शरीर में भी एविएन इंफ्लूंजा का वायरस एच7एन9 पाया गया था. इस मौत से हड़कंप मचना स्वभाविक था, क्योंकि जब पुष्टि हो गई कि बर्ड फ्लू इंसानों से इंसानों में भी फैल सकता है. उसी साल चीन में 43 लोगों की मौत इस वायरस के चलते हुई थी. हालांकि अभी दुनियाभर के डाॅक्टर इस बात पर एकमत नहीं हैं कि बर्ड फ्लू इंसानों से इंसानों में फैलता है. लेकिन इन तथ्यों के चलते इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता.

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यही वजह है कि बर्ड फ्लू आज की तारीख में कई गुना ज्यादा खतरनाक लगने लगा है. कोरोना वायरस में तो फिर भी भारत में मरने वालों की संख्या अब बहुत कम रही है. सर्दी, जुकाम से होने वाले तमाम मौसमी संक्रमणों से ज्यादा घातक इसका संक्रमण भी नहीं दिखा. लेकिन बर्ड फ्लू इन दोनो ही मामलों में ज्यादा खतरनाक दिख रहा है. सबसे पहली बात तो यह कि बर्ड फ्लू के लक्षण प्रकट होने के बाद बिजली की रफ्तार से बढ़ते या फैलते हैं और इतना जल्दी शरीर के संचालन तंत्र को प्रभावित करते हैं कि इंसान चाहकर भी लंबा संघर्ष नहीं कर पाता. लब्बोलुआब यह कि यह कोरोना से कई ज्यादा घातक है. कई लोगों को यह सोचकर हैरानी होती है कि भारत में जबकि लोग मुर्गियों या दूसरे ऐसे पक्षियों के नजदीक उस तरह से नहीं रहते जैसे दूसरे देशों में रहते हैं, सवाल है फिर भारत में हमेशा बर्ड फ्लू क्यों जल्द से जल्द फैल जाता है? इस साल तो अभी तक दूसरे देशों में इसकी कोई वैसी खबर ही नहीं है, जैसे हमारे यहां है.

दरअसल इसका कारण यह है कि भारत अपनी गर्म जलवायु के कारण दुनियाभर के प्रवासी पक्षियों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. ये प्रवासी पक्षी दुनिया के हर देश से भारत की तरफ आते रहते हैं, चूंकि ये पक्षी पूरे देश के आसमान से उड़ते हुए अलग अलग पानी के ठिकानों तक पहुंचते हैं, तो एक तो पानी के ठिकानों के आसपास मौजूद दूसरे पक्षियों को संक्रमित कर देते हैं, इससे भी बड़ी यह है कि जब ये प्रवासी पक्षी आसमान के रास्ते से देश के एक कोने से दूसरे कोने तक दाना पानी की चाह में उड़ते हैं, तो उड़ते हुए ये जो मल करते हैं, वह मल तमाम पक्षियों को बीमार कर देता है. इन बीमार पक्षियों के नजदीक आने पर इंसान भी बीमार हो जाता है. हालांकि अभी तक यह माना जाता था कि अगर कोई इंसान बर्ड फ्लू की चपेट में आकर बीमार हो जाता है या उसकी मौत भी हो जाती है तो भी वह दूसरे इंसानों के लिए खतरा नहीं होता, क्योंकि बर्ड फ्लू का वायरस एक इंसान से दूसरे इंसान में नहीं फैलता.

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मगर अब वैज्ञानिकों को लग रहा है कि इंसानों में पहुंचने के बाद बर्ड फ्लू ने अपने कई स्ट्रेन डेवलप कर लिये हैं, जिस कारण यह खुद को म्यूटेट करने लगा है. जब एक बार कोई वायरस खुद को म्यूटेट करने लगता है तो वह बहुत खतरनाक हो जाता है. क्योंकि म्यूटेट वायरस में खंडित जीनोम होता है, जो किसी दूसरे इंसान को आसानी से अपनी चपेट में ले सकता है. क्योंकि इससे इसका आकार छोटा हो जाता है और यह इंसानी सेल या कोशिका को झट से कब्जे में कर लेता है. विस्तार से इस खतरे को यहां पर उल्लेख किये जाने का मतलब यही है कि अभी हम कोरोना वायरस से पूरी तरह से उबरे नहीं हैं. ऐसे में अगर बर्ड फ्लू से निपटने में लापरवाही बरती तो यह लापरवाही बहुत खतरनाक हो सकती है.

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क्योंकि कोरोना के चलते पहले से ही बड़े पैमाने में लोग दहशत में हैं, जिस कारण ज्यादातर लोगों में उनकी स्वाभाविक इम्यूनिटी भी इन दिनों कमजोर है. इसलिए बहुत ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है. बर्ड फ्लू से सावधानी बरतने के लिए इन दिनों पोल्ट्री प्रोडक्ट यानी मुर्गा, मुर्गी और अंडे खाने से जितना बच सके, उतना बचना चाहिए. यही सर्तकता तमाम दूसरे पक्षियों का गोश्त खाते हुए भी बरतनी चाहिए. अगर खाना ही हो तो उसे बहुत पकाकर खाना चाहिए और गर्म गर्म ही खाना चाहिए. कच्चा अंडा खाना इन दिनों जानलेवा हो सकता है, इसलिए भूलकर भी कच्चा अंडा नहीं खाना चाहिए. जहां तक इसके लक्षणों की बात है तो बर्ड फ्लू के संक्रमण के वही सब लक्षण होते हैं जो किसी भी इंफ्लूंजा के चलते देखे जाते हैं. मसलन तेज बुखार आना, पेट में जबरदस्त मरोड़ उठना और लगातार पेट के नीचे दर्द होना, मांसपेशियों मंे जबरदस्त टूटन महसूसना, कई जगहों पर यह आंखों की बीमारी कंजेक्टिववाइटिस के रूप में भी दिखा है. सिरदर्द, मितली आना, तो इसके लक्षणों में प्रमुख तो है ही. लेकिन इन सब लक्षणों के अलावा भी यह वायरस कई ऐसे लक्षणों के जरिये सामने आ सकता है जिसकी कल्पना ही नहीं की गई हो. मतलब जाने पहचाने लक्षणों से इतर भी शरीर में कोई परेशान करने वाले लक्षण दिखें तो तुरंत डाॅक्टर से मिलना चाहिए.

कर्म, फल और हिंदू संस्कृति

भारत सरकार आजकल एक मुख्य नीति पर काम करती है. वह आम जनता से कहती है कि तुम काम किए जाओ पर किंचित भी फलों की अपेक्षा न करो. फल तो हमारे लिए, सृष्टि चलाने वालों के लिए हैं. सो, सबकुछ हमारा है. हम तुम्हें जो दे दें, उसी में खुश रहो.भारत सरकार के गीता पढ़ने वाले कर्ताधर्ता यह देख कर अचंभित हो गए कि फल न मिलने के डर से 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन घोषित होने पर कैसे मजदूर कर्म छोड़ कर अपने गांवों की ओर चल दिए. वैसे ही लाखों किसान खेतीकिसानी छोड़ दिल्ली की सीमाओं पर फल पाने के लिए स्वयंभू ‘मैं’ के खिलाफ मोरचा खोले डटे हैं.

देश की मौजूदा कट्टर धर्मवादी भाजपाई सरकार की नजर में तो यह हिंदू संस्कृति के विरुद्ध है और जो गीता के कर्मवाद के सिद्धांत को नहीं मानता उसे न हिंदू कहलाने का हक है न भारतीय. वह तो देशद्रोही है, धर्मद्रोही है, नक्सली है, माओवादी है, खालिस्तानी है.कई हजार वर्षों से गीता का पाठ पढ़ापढ़ा कर लूटने वाले खुद भी इस बात के कायल हैं कि जहां ज्यादा नागरिकों को बिना फल की आशा के कर्म करना चाहिए वहीं ‘कुछ को’ बिना कर्म के फल पाने का मौलिक अधिकार है. भाजपाई नेता, सरकारी अफसर, सांसद, मंत्री, पंडेपुजारी, इन के व्यापारी भक्त, धर्म व्यापारों को फैलाने में लगे वास्तुचार्य, आयुर्वेदाचार्य, योगाचार्य और विश्वविद्यालयों से प्राथमिक कक्षा तक के अध्यापक पठनपाठन कर के फल पाने के अधिकारी हैं.

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जबकि, कर्म करने वालों को बिना सोचेसमझे, बिना अर्जुन की तरह प्रश्न किए, गीतापाठ का अनुसरण करते रहना चाहिए और सेवा करने में जुटे रहना चाहिए.यदि खोजी, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, मैडिकल हैल्प देने वाले, मजदूर, सफाईकर्मी और औरतें भी किसानों की तरह अपने फल की मांग करने लगें तो हिंदू धर्म पर काला साया फिर पड़ सकता है. बड़ी मुश्किल से 2,500 वर्षों बाद आधे भारत पर (पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान को निकाल कर) पौराणिक व गीता राज स्थापित हुआ है. इसे कैसे हाथ से निकलने दें. किसानों के आंदोलन की जो चिंता नहीं की जा रही है उस का कारण यही है कि सेवकोंसेविकाओं का मर्म तो धर्म की घुट्टी पिए हुए है.

फिर अगर कुछ विवाद है तो यह सिरफिरों का है, कुछ समय ही तो रहेगा.पुराण और गीतापाठी यह नहीं समझ सकते कि अर्जुन के सवाल महाभारत के युद्ध के पहले दिन बिलकुल सही थे. उस ने जितनी आपत्तियां उठाईं वे सब ठीक थीं और उन के कृष्ण द्वारा दिए गए उत्तर झूठे व भ्रामक थे. 18 दिनों बाद उस का परिणाम आ गया था जब सिर्फ कौरव और पांडु परिवार में सिर्फ 5 पांडव बचे थे.भारत में इस पौराणिकवाद की वजह से 5-6 उद्योगपति और ढेर सारे ऋषिमुनि बचेंगे. देश की बागडोर विदेशी कंपनियों के हाथों में होगी. आजकल शेयर बाजार तेजी से ऊंचा जा रहा है क्योंकि विदेशी, जो हमारी गीता का पाठ ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं, भारतीयों की कंपनियों को खरीद रहे हैं. अंबानी, अडानी, टाटा, बिड़ला खुद भी विदेशियों के हाथों बिके हुए हैं.

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उन की कंपनियां विदेशी पैसे पर और विदेशी तकनीक पर टिकी हैं. उन को भी गीतापाठ में बड़ा भरोसा है, पर वे कृष्ण की तरह पाने वालों में से हैं, अर्जुन की तरह खोने वालों में से नहीं.सरकारों का स्वार्थ  आज ही नहीं, लोग सदियों से भ्रामक व असत्य उपदेशों, तथ्यों, ज्ञानअज्ञान के शिकार रहे हैं. मानव को जितनी मुश्किलें इस बहकावे से झेलनी पड़ी हैं उतनी राजाओं के हमलों, प्रकृति की मार, बीमारियों, खाने की कमी, विवादों से नहीं झेलनी पड़ीं. धर्म की नींव ही कपोलकल्पित कहानियों पर डाली गई है. पृथ्वी व मानव के जन्म की झूठी कहानियां गढ़ कर लगभग सभी मानवों को एकदूसरे का शत्रु बनाया गया और समाज के गठन के अद्भुत आविष्कार को बुरी तरह बारबार निष्क्रिय करने की कोशिश की गई है.

यह उन थोड़े से लोगों का कमाल है जिन्होंने बुरी तरह फैले विस्मृत करते अज्ञान के बावजूद तकनीक का विकास किया और नएनए प्रयोग किए ताकि मानव सुरक्षित रह सके. आज की वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियां उसी की देन हैं. पर एक बार फिर सूचना के आदानप्रदान की कला का भरपूर दुरुपयोग हो रहा है.इंटरनैट, जिसे दुनिया को जोड़ना था, आज पड़ोसियों को अलगथलग करने में इस्तेमाल हो रहा है, नागरिकों को नियंत्रित करने में इस्तेमाल हो रहा है, घृणा फैलाने में इस्तेमाल हो रहा है आदि.दुनियाभर की सरकारों ने इस बारे में पहल की है. हर चीज को औनलाइन करने की बाध्यता कर के हरेक पर पूरी तरह या घंटों नजर रखने की कोशिश की जा रही है ताकि सरकारविरोधी कोई भी कदम न उठ सके. आज भारत में ही नहीं, दुनिया के कितने ही देशों में लोगों ने सरकार के खिलाफ कुछ पढ़ालिखा या कुछ लिखे को अपने लोगों में शेयर किया, लेकिन सरकारों ने इसे देशद्रोह माना.

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अकसर देशों की सरकारें चाहती हैं कि इस तकनीक का इस्तेमाल केवल सरकार के प्रति अंधभक्ति फैलाने व गलत कामों को भी सही ठहराने की प्रवृत्ति में किया जाए.जितना झूठ आज सरकारें दुनियाभर में इंटरनैट के माध्यम से फैला रही हैं, उतना व्हाट्सऐप या फेसबुक पर से नहीं फैल रहा. कुछ लोग या समूह, व्हाट्सऐप और फेसबुक यदि घृणा व दुष्प्रचार कर रहे हैं तो इसलिए कि उन्हें उक्त देशों की सरकारों का मूक समर्थन मिला हुआ है. जैसे ही किसी देश में जनता बेचैन हो कर इंटरनैट के इन तरीकों का इस्तेमाल अपने गुस्से के लिए करना शुरू कर देती है, वैसे ही वहां की सरकारें फेसबुक, गूगल, इंस्टाग्राम आदि पर चढ़ बैठती हैं और उन्हें बंद करा देती हैं या उन का बिजनैस ठप कराने के तरीके ढूंढ़ने लगती हैं.इंटरनैट के ये टूल्स मुफ्त में नहीं चलते. गूगल हो या फेसबुक, इन के पीछे अरबोंखरबों डौलरों की पूंजी लगी है. आप यदि सोचें कि ये मुफ्त हैं तो ऐसा नहीं है. ये सब ज्यादा से ज्यादा पैसा वसूलते हैं. इन में विज्ञापन तो होते ही हैं, आप कौन हैं, कहां के हैं, क्या कमियां हैं, क्या खरीदते हैं ये सब जानकारियों भी होती हैं जो बेची जाती हैं. यह पूंजी ग्राहकों से ही अपरोक्ष रूप से वसूली गई है. सरकारी दखल के कारण ये प्लेटफौर्म्स आज खतरे में हैं क्योंकि ये प्लेटफौर्म्स अब सरकारें बदलने में भी लग गए हैं. इंटरनैट के नारों पर सरकारों का कंट्रोल है, इसलिए जहां सरकार को लगता है कि फलां प्लेटफौर्म सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ जा रहा है वहां कंट्रोल की बात शुरू हो जाती है.

इंटरनैट की तकनीक पेड़ों से उतर कर गांव बसा लेने जैसी तकनीक थी. पहले हर पेड़ का मानव अकेला था. गांव में वह एक समूह में रह कर प्रकृति का मुकाबला करने को सक्षम हुआ था. इंटरनैट ने दुनिया के लोगों को एकसाथ जोड़ा. पर अब सरकारों के इशारों पर जोड़ने की जगह इंटरनैट का इस्तेमाल आपस में विरोध पैदा करने के लिए किया जा रहा है. सरकारें इस के जरिए अपनी जनता को बांट रही हैं और दूसरे देशों के नागरिकों को भी दुश्मन की श्रेणी में लाने के लिए कर रही हैं. सरकार अपनी ही जनता को बांट कर अन्याय के सहारे ही राज कर लेती है. आम जनता को लड़ाया जा रहा है. एकदूसरे के प्रति संदेह पैदा किया जा रहा है. धर्म और बिग बिजनैस इसे बनाए रखना चाहते हैं.यह एक असामान्य स्थिति है. पर लगता नहीं कि इस से छुटकारा मिलने वाला है. धर्म और राजनीतिक दल चाहते हैं कि हर समय लोग दुश्मन बने रहें ताकि वे इस बहाने जनता का मुंह बंद रख सकें. आम जनता अगर इस तकनीक पर निर्भर हो रही है तो वह यह न भूले कि यह तकनीक विकास के साथ आने वाले प्रदूषण की तरह जहर भी दिमाग में घोल रही है.उम्मीद की किरणभयंकर मंदी के दिनों में भी अक्तूबरनवंबर में छोटी गाडि़यों, बाइकों की ब्रिकी कुछ बढ़ी है.

इस से औटो निर्माताओं के माथे की शिकनें कुछ कम हुई हैं. इस की वजह, एक्सपर्ट्स के अनुसार, कोविड ही है क्योंकि लोगों को अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाना खतरनाक लगता है. अब शहरों ही नहीं, गांवों में भी दूरियां इतनी हैं कि साइकिल का सवाल ही नहीं उठता. सो, सुरक्षा की दृष्टि से परिवारों ने पुरानी बचत को गाड़ी खरीदने में खर्च करने का फैसला किया है क्योंकि परिवार के एक सदस्य के बीमार होने पर उस के इलाज में गाड़ी पर लगाई गई पूंजी से कहीं ज्यादा का नुकसान हो सकता है.अपना वाहन होना आजकल शहरों के लिए अनिवार्य होने लगा है, चाहे इस की वजह से कितनी ही दिक्कतें हों. कारों की तो छोडि़ए, अब बाइकों को खड़ा करने की जगह भी नहीं मिल रही है, न घर के आसपास न काम की जगह पर. वाहनों से होने वाले ऐक्सिडैंट बढ़ते जा रहे हैं और 50 फीसदी से ज्यादा वाहन मालिक इंश्योरैंस रिन्यू नहीं कराते. इंश्योरैंस इनफौर्मेशन ब्यूरो के अनुसार, लगभग 75 फीसदी दोपहिया वाहनों का इंश्योरैंस नहीं है. ऐसे में उन से होने वाली दुर्घटनाओं में कोई मुआवजा नहीं मिल पाता.दिक्कत यह है कि हमारे शहरों का विकास सही तरह से नहीं हो रहा है.

मकान बनते हैं पर न सीवर होता है, न पार्किंग, न खुले मैदान, न स्कूल. हर काम कल पर टाला जाता है. निकायों के जिम्मेदार लोग राजनीति में ज्यादा लगे रहते हैं बजाय शहरों के रखरखाव करने के. नतीजा यह है कि लोगों को काम मिलता है मीलों दूर. स्कूल होते हैं तो मीलों दूर, रिश्तेदार भी मीलों दूर रहते हैं. उन से मिलना हो तो क्या करें? पब्लिक ट्रांसपोर्ट दरवाजे तक तो नहीं ले जाएगा न.अपने यानी निजी वाहनों की खरीद इसीलिए बढ़ी और इसीलिए भारत में वाहन दुर्घटनाओं के हादसे बढ़ रहे हैं व मौतें भी बढ़ रही हैं. भारत में एक लाख वाहनों पर 130 मौतें होती हैं जबकि अमेरिका में मात्र 14, इंग्लैंड में 6, सिंगापुर में 20, श्रीलंका में 70, फिनलैंड में 5, जापान में 6 और  स्विट्जरलैंड में सिर्फ 3. सो, अपने वाहन खरीद कर लोग कोविड से तो बच रहे हैं पर मौतों से नहीं.हमारे देश में सड़क को गरीब की जोरू सब की भाभी माना जाता है जिस पर गाएं मनमरजी घूमती रहती हैं, पटरी पर दुकानें लगी होती हैं, लोग बिना देखे सड़क पार करते हैं और लालबत्तियां अकसर खराब रहती हैं. पुलिस तो केवल चालान करने के लिए मुस्तैद रहती है.देश की उन्नति में निजी वाहनों का योग रहता है क्योंकि इन्हें खरीदने के लिए लोग खासी मेहनत करते हैं. यह अकसर आर्थिक विकास की पहली चाबी माना जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की गाड़ी 2 या 4 पहियों पर सवार हो कर ही पटरी पर आ जाए, हालांकि, ऐसा फिलहाल दिखता नहीं है.

एमएसपी का बहाना खाद्य सुरक्षा पर है निशाना

दरअसल एमएसपी पर सरकार जो टालमटोल कर रही है, उसके पीछे खाद्य सुरक्षा कानून है. इस कानून के चलते देश में जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम लागू है, उसे सरकार अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलाना चाहती. क्योंकि डब्ल्यूटीओ का सरकार पर इसे जल्द से जल्द बंद करने का दबाव है. गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून के चलते सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जो अनाज वितरित किया जाता है, उससे 80.55 करोड़ लोगों का पेट भरता है. साल 2014-15 में सरकार ने इसके लिए 1.13 लाख करोड़ रुपये खर्च किये थे. साल 2015-16 में यह बढ़कर 1.35 लाख करोड़ रुपये हो गये. लेकिन साल 2016-17 मंे जब सरकार पर डब्ल्यूटीओ ने भारी भरकम दबाव डाला तो इसे घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया. जो कि 2014-15 की सब्सिडी से भी 8 हजार करोड़ रुपये कम था. जबकि 2016-17 में खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में पूरा देश आ गया था और 2014-15 में करीब 80 फीसदी देश ही शामिल था.

सवाल है यह कैसे संभव हुआ? इसके लिए सरकार ने चुपके से एक कदम उठाया. चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी जो कि दोनो ही केंद्रशासित प्रदेश हैं, यहां पीडीएस के तहत खाद्य वितरण बंद कर दिया गया और इसके लाभार्थियों को उनके खाते में नगद पैसे दे दिये गये. अब सरकार डब्ल्यूटीओ के दबाव में यही तरीका पूरे देश में अपनाना चाहती है और जो पैसा खाद्य सुरक्षा में खर्च होता है, उस पैसे को लोगों के सीधे एकाउंट में भेजना चाहती है. क्योंकि डब्ल्यूटीओ सब्सिडी का विरोधी नहीं है, वह सिर्फ यह चाहता है कि खाद्य सब्सिडी बंद की जाये और ग्रीन बाॅक्स सब्सिडी बढ़ायी जाए यानी लोगों को सीधे नगद पैसा दिया जाए. यही नहीं डब्ल्यूटीओ के नियमों के मुताबिक कोई भी देश अपने कुल खाद्यान्न उत्पादों के कुल मूल्य का महज 10 फीसदी खाद्य सब्सिडी के रूप में खर्च कर सकता है. लेकिन यहां पर भी एक झोल है. डब्ल्यूटीओ साल 1986-88 के मूल्यों को लेकर गणना करता है.

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दिसंबर 2017 में इसके संबंध में विश्व व्यापार संगठन का 11वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन अर्जेंटीना के शहर ब्यूनसआयर्स मंे हुआ था. उस समय के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री सुरेश प्रभु ने न सिर्फ भारत के सामाजिक सरोकार के मुद्दे को इस बैठक में जोरदार ढंग से उठाया था बल्कि उन्हें जी-33 समूह के देशों का भरपूर सहयोग भी मिला था. मालूम हो कि जी-33 के देशों में, जी-8 और जी-20 से इतर भारत जैसी अर्थव्यवस्था वाले दूसरे विकासशील देश भी शामिल हैं, जिनके यहां किसानी महज कारोबार नहीं जीवनयापन का पेशा है. सुरेश प्रभु ने तब जोरदार ढंग से यही बात कही थी जिससे विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक राॅबर्ट एजवेडो न सिर्फ बुरी तरह से नाराज हो गये थे बल्कि उनकी इस नाराजगी के चलते अंततः यह बैठक ही असफल हो गई थी. भारत का साथ दूसरे विकासशील देशांे ने भी पूरी दृढ़ता से दिया था. जबकि अमरीका जिसने पहले खाद्य सुरक्षा के मसले पर स्थायी समाधान ढूंढ़े जाने तक ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देने की बात कही थी, वह अपने वायदे से मुकर गया, जिससे 164 देशों के इस संगठन का 11वां सम्मेलन बिना किसी नतीजे के खत्म हो गया.

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इसके पहले भारत ने दिसंबर 2013 में बाली (इंडोनेशिया) में और दिसंबर 2015 में नैरोबी (केन्या) में भी जोरदार ढंग से कहा था कि भारत जैसे विकासशील कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि जीवन का माध्यम है, जहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबी हटाने के लिए कृषि क्षेत्र में विकास और राजकीय मदद की जरूरत है. अतः डब्ल्यूटीओ को इस नजरिये का सम्मान करना चाहिए. लेकिन लगातार कृषि सब्सिडी को कम करने और खत्म करने पर अड़ा डब्ल्यूटीओ तो अपनी बात से नहीं हटा, लेकिन भारत के पैर धीरे धीरे उखड़ने लगे हैं. तभी तो साल 2017-18 में चुपके से चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी के 8.57 लाख पीडीएस हितग्राहियों को खाद्यान्न देने की बजाय चुपचाप उनके खातों में पैसे दिये जाने शुरु कर दिये गये और अब पूरे देश में नगद राशि हस्तांतरण करने की योजना बनायी जा रही है; क्योंकि डब्ल्यूटीओ ऐसा ही चाहता है.

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आप सोच रहे होंगे तो इसमें नुकसान क्या है? इसमें बड़ा नुकसान यह है कि जो पैसा लाभार्थियों को नगद दिया जाता है, वह पैसा उस मद में पूरा खर्च नहीं होता, जिस मद के लिए दिया गया होता है. जब अनाज के बदले लोगों को नगद पैसा दिया जायेगा, तो वह महज 40-50 प्रतिशत ही अनाज खरीदने में खर्च होगा बाकी गैर खाद्य जरूरतों पर खर्च होगा. आप फिर सवाल कर सकते हैं तो इसमें भी क्या गलत है? अगर लोगों को खाद्य की जरूरत होगी तो वह खरीदेंगे. नहीं ऐसा देखा गया है कि जब नगद पैसा मुखिया के एकाउंट में आता है तो वह मुखिया की प्राथमिकताओं के हिसाब से खर्च होता है. इसमें उन छोटे बच्चों और महिलाओं की प्राथमिकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता, जो मुखिया के निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते. इसे सिर्फ इस खाद्य सुरक्षा से ही न देखें देश में अब तक हुए कई पुनर्वास कार्यक्रमों में भी देखा जा सकता है. सरदार सरोवर बांध बनाने के चलते विस्थापित हुए लोगों को जो नगद सहायता राशि मिली, वह पुनर्बसाहट से कहीं ज्यादा मोटरसाइकिलें खरीदने में और शराब पीने में खर्च हुई. इसलिए खाद्य सुरक्षा की जगह नगद पैसे देना सामाजिक विकृति को बढ़ाना है, लेकिन इसमें बाजार का फायदा होता है और डब्ल्यूटीओ बाजार का हित संरक्षक है तो वह चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा सहायताएं नगद दी जाएं तो लोग उन्हें बाजार में खरीदारी के लिए खर्च करें. वास्तव में सरकार पर यही दबाव है जिसके चलते वह एमएसपी पर कोई कानूनी गारंटी नहीं देना चाहती.

हवेली चाहे जाए मुजरा होगा ही

निजीकरण के फायदे वही गिना रहे हैं जिन की जेब में मोटा पैसा है. इन में से 90 फीसदी वे ऊंची जातियों के अंधभक्त हैं जो सरकार के लच्छेदार जुमलों के  झांसे में आ जाते हैं. इन में से कई लोग शौक तो सरकारी नौकरी का पालते हैं लेकिन सरकारी कंपनियां बिक जाएं, तो उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में युवाओं को सोचना है कि बिन सरकारी कंपनी के सरकारी नौकरी कैसे संभव है.   आजादी के बाद जमींदारी जब टूटने लगी थी तब इस वाक्य, ‘हवेली भले ही बिक जाए मुजरा तो होगा,’

इसका इस्तेमाल गांवदेहात के लोग राजघरानों और जमींदारों के उन वारिसों के लिए व्यंगात्मक लहजे में करते थे जो पूर्वजों द्वारा इकट्ठी की गई जमीनजायदाद को बेचबेच कर अपनी ऐयाशियों के शौक को पूरा करते थे.मौजूदा दौर की लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था में निजीकरण की साजिश हवेली बेचने जैसी ही बात है क्योंकि सरकार न तो अपने भारीभरकम खर्च कम करना चाहती है और न ही पब्लिक सैक्टर्स को चलाए रखने की उस की मंशा दिख रही है. उस का असल मकसद कुछ और है. यह ‘और’ तकरीबन जमींदारी के जमाने जैसा है जिस में न तो लोगों के पास रोजगार होते थे और न ही वे कुशल श्रमिक या कारीगर बन बाहर कहीं जा कर पैसा कमा सकते थे.

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शूद्र, पिछड़े यानी छोटी जाति वाले उस दौरान बड़े किसानों व जमींदारों की गुलामी किया करते थे.जमींदारों और राजाओं के मुंहलगे जो वैश्व, बनिए होते थे उन चापलूसों की चांदी थी. उन की हर मुमकिन कोशिश यह होती थी कि हवेली पर हर शाम मुजरा होता रहे और हुजूर देररात मुकम्मल नशा कर मुन्नीबाई की आगोश में लुढ़क जाएं. तब कुछ जमींदारी बनिए खरीद लेते.वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले वर्ष जो सालाना बजट पेश किया उसे देख लोगों को हैरानी हुई कि आखिर सरकार चाह क्या रही है. पर जब किसी को कुछ सम झ नहीं आया तो बजट को सम झनेसम झाने की जिम्मेदारी अर्थशास्त्रियों को सौंप कर लोग अपने काम में लग गए.

अर्थशास्त्रियों को भी कुछ खास सम झ नहीं आया तो उन्होंने अपने हिसाब से बजट की व्याख्या और विश्लेषण करने शुरू कर दिए. हालत अंधों के हाथी सरीखी हो गई जिस ने कान पकड़ा उस ने कहा कि हाथी सूपा जैसा होता है, जिन्होंने पैर पकड़ा उन्होंने बताया कि हाथी खंबे जैसा होता है और जिन्होंने पूंछ पकड़ी उन्होंने हाथी को रस्सी जैसा बताया. जो सरकार समर्थक थे, वे गुणगान करते रहे, दूसरे उस की एक के बाद एक खामी निकालते रहे.लेकिन 2 बातें लोगों को बिना किसी के बताए सम झ आ गईं. उन में पहली यह थी कि आर्थिक मंदी और सुस्ती का दौर जाता रहेगा क्योंकि जीडीपी मौजूद वित्त वर्ष में 5.7 फीसदी की दर से बढ़ेगी, जो कि 2012-13 के बाद सब से कम दर वाली है.

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जबकि, हो तो यह सकता है कि यह 3.4 फीसदी तक और घट जाए. दूसरी बात लोगों को यह सम झ आई कि सरकार अब सब से बड़ी बीमा कंपनी एलआईसी भी बेचने की योजना बना रही है. बस, इसी से लोग संपूर्ण बजट संहिता या सार सम झ गए कि किया कुछ नहीं जा रहा, बल्कि एक और हवेली को बेचा जा रहा है. कुछ असली अर्थशास्त्रियों ने भांप लिया कि अतिआशावादी इस बजट में सरकार ने संकेत दे दिए हैं कि वह निजीकरण की राह पर चल पड़ी है और खुद मान भी रही है कि वह सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच कर चालू वित्त वर्ष में 1497 अरब रुपए कमाएगी.विशेषज्ञ अर्थशास्त्री तो दूर, अर्थशास्त्र का ‘अ’ सम झने वाला भी सम झ गया कि कुछ बेच कर जो पैसा आता है उसे कहना या मानना कहां की अकलमंदी है और जिसे सरकार विनिवेश करार दे रही है उसे सीधेसीधे यह क्यों नहीं कहा जा रहा कि सरकार योजनाबद्ध तरीके से अपनी ही कंपनियों का बहिष्कार निजीकरण का नाम दे कर कर रही है.

यह निजीकरण आज लोगों के भले का नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस  का उद्देश्य सरकारी खर्च के घाटे को पूरा करना है, इन कंपनियों को सुधारना नहीं है.बजट में रोजगार का उल्लेख तक न होना ही इस बात का ऐलान है कि बेरोजगारी और भी बढ़ेगी. इस पर नीम चढ़ी बात यह कि निजीकरण अब तेजी से परवान चढ़ेगा, जो कैसे बेरोजगारी बढ़ाता है इसे सम झने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं बल्कि प्राइवेट कंपनियों के उदाहरण से इसे सहज सम झा जा सकता है कि खरीदार समूह कंपनियां चलाने के लिए नहीं बल्कि उन की अचल संपत्ति को कानूनीतौर पर हथियाने के लिए ले रहे हैं.एलआईसी हो या रेलवे, बैंक हों या फिर हवाईअड्डे, जब ये प्राइवेट कंपनियों के हाथों में पूरी तरह आ जाएंगे तब होगा यही कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के लालच में वे उन्हें निचोड़ेंगे और फिर दिवालिया घोषित कर के बाहर निकल जाएंगे. अचल संपत्ति को टुकड़ों में बेच दिया जाएगा.

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वे काम की गुणवत्ता सुधार सकेंगे, इस में संदेह है.और बढ़ेगी बेरोजगारीनिजीकरण से बेरोजगारी कैसी बढ़ेगी, इस से पहले एक नजर बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों पर डालें तो जान कर हैरानी होगी कि दिसंबर 2019 में बेरोजगारी की दर बढ़ कर 7.5 फीसदी तक पहुंच चुकी थी. सीएमआईआई (सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी) का नया आंकड़ा यह भी बताता है कि शिक्षित युवाओं की बेरोजगारी दर 60 फीसदी तक बढ़ गई है.सीएमआईआई के अध्ययन में शहरी इलाकों की हालत और बदतर बताई गई है जो 9 फीसदी थी. सरल भाषा में कहें तो देश में 63 फीसदी से भी ज्यादा स्नातक बेरोजगार बैठे हैं. यह अर्थशास्त्र के ज्ञात इतिहास में अब तक की सब से खराब स्थिति है.बजट में रोजगार देने की बात न होने से भी कई गुना ज्यादा चिंता की बात है निजीकरण के जरिए बेरोजगारी को और बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन देना. जिस देश का युवा रोजगार की तरफ से नाउम्मीद कर दिया जाए उस देश को विश्वगुरु बनने जैसे बेहूदे सपने नहीं देखने चाहिए, इस से ज्यादा क्रूर मजाक कोई और हो नहीं सकता.

युवाओं के जले पर नमक छिड़क कर सरकार क्या साबित करना चाह रही है और देश को किस दिशा में हांक रही है, यह बात अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है.इस स्थिति को सरल उदाहरण से सम झें, तो हरियाणा में बिजली और सड़क परिवहन के निजीकरण की सुगबुगाहट पर ही विरोध बेवजह नहीं हो रहा कि जिस से ये सेवाएं महंगी भी होंगी और बेरोजगारी भी बढ़ेगी. मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम साल 1985 तक मुनाफे में चल रहा था, फिर अचानक घाटा शुरू हुआ तो इसे साल 2005 आतेआते पूरी तरह बंद कर दिया गया.हकीकत में राज्य और केंद्र सरकार के ही घाटे अहम वजहें थीं जिन्होंने अनुदान देना बंद कर दिया था. एक वक्त ऐसा भी आया कि मुलाजिमों को पगार के लाले पड़ने लगे. इस पर सरकार ने यह कहते हाथ खड़े कर दिए थे कि अब इस निगम को बंद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है, लिहाजा, कर्मचारी अनिवार्य सेवानिवृत्ति ले लें.

ऐसा हुआ भी, फाके कर रहे 24 हजार कर्मचारियों ने सेवानिवृत्ति ले ली. धीरेधीरे परिवहन व्यवस्था पूरी तरह एक पूर्व नियोजित साजिश के तहत निजी हाथों में आ गई जिस की मार से आम लोग यानी मुसाफिर अभी तक कराह रहे हैं. ये प्राइवेट बसें तभी चलती हैं जब ठसाठस भर जाती हैं. इन के चलने का कोई तयशुदा टाइमटेबल नहीं है. और ये बसें हर कभी बीच रास्ते में खड़ी कर दी जाती हैं, लेकिन मुसाफिरों के पास खामोश रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता.जहां दुनियाभर में सड़क परिवहन हर साल बेहतर हो रहा है वहीं भारत, जहां सस्ती प्राइवेट बसें हैं, में बेहद घटिया होता जा रहा है.निगम सुचारु रूप से चलता रहता और सरकार वक्त रहते घाटे पर काबू पा लेती तो अब तक लाखों को रोजगार मिलता. अब जब पीएसयू यानी पब्लिक सैक्टर यूनिट्स इसी तरह बंद की जा रही हैं या फिर दूसरे तरीकों से निजी हाथों में सौंपी जा रही हैं तो बेरोजगारी का आंकड़ा अभी और भयावह होना तय है. कोई भी निजी संचालक सरकारी कर्मचारियों की फौज का बो झ उठाने को तैयार नहीं है क्योंकि उस में काम करने का कल्चर नहीं होता है. वह तो पूजापाठी है.

गायब होती गुणवत्तानिजीकरण में सेवाओं और उत्पादों की कोई गुणवत्ता नहीं रह जाती. गुणवत्ता यदि रहती है तो लोगों को उन उत्पाद की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. आम जनता की जेब वैसे ही खाली होने लगी है, ऊपर से सरकारी सेवाओं की जगह महंगी प्राइवेट सेवाएं स्थान ले रही हैं. आज गरीबों के पास कोई विकल्प नहीं बचा है.ऐसा बड़े पैमाने पर ब्रिटेन में हो रहा है, जहां अब लोग फिर से रेल और बिजली सहित दूसरी सेवाओं के राष्ट्रीय यानी सरकारीकरण की मांग करने में लगे हैं. वहां की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने निजीकरण को बढ़ावा दिया था जिस से शुरू में तो लोगों को सहूलियतें हुई थीं लेकिन फिर जब प्राइवेट कंपनियों ने अपने रंग दिखाने शुरू किए तो लोग आजिज हो उठे.यह सम झना भी बेहद जरूरी है कि निजीकरण में बढ़ती कीमतों का भार आम लोगों पर ही पड़ता है. और वह रकम जाती धन्ना सेठों की जेबों में है जो शुरू में तो खूब लुभावनी बातें करते हैं, तरहतरह की छूटें और स्कीमें देते हैं और फिर धीरेधीरे दाम बढ़ाने लगते हैं.

भारत में जियो कंपनी इस का बेहतर उदाहरण है जिस ने शुरू में लगभग मुफ्त के भाव डेटा और वौयस कौल दिए लेकिन अब ग्राहकों को 200 फीसदी तक ज्यादा दाम चुकाना पड़ रहा है. ग्राहकों को अब सरकारी कंपनी बीएसएनएल और एमटीएनएल याद आ रही हैं.टैलीकौम कंपनियों से यह सिद्धांत खारिज हो चुका है कि प्रतिस्पर्धा से फायदा ग्राहकों को होता है. जियो के अलावा आइडिया, एयरटेल और वोडाफोन की सेवाएं अब बेहद घटिया स्तर पर हैं. ये वही कंपनियां हैं जो अपने इश्तिहारों में बड़ेबड़े वादे ग्राहकों से करती थीं. उन का मकसद, दरअसल, लुभा कर ठगनाभर होता है. अब वैसे विज्ञापन गायब हो गए हैं.कौल ड्रौप अब रोजमर्राई परेशानी बन चुकी है. एक बड़े अखबार के सर्वे के मुताबिक, 53 फीसदी लोग कौल ड्रौप से त्रस्त हैं और 75 फीसदी यूजर्स कई बार वौयस कौल की खराब क्वालिटी और कनैक्टिविटी के चलते डेटा कौल करने को मजबूर होते हैं. ग्राहकों को प्राइवेट कंपनियों के लुभावने औफर्स अब आफत लगने लगे हैं. लेकिन विकल्पहीनता के चलते उन के पास अब रोने झींकने के सिवा कुछ बचा नहीं है.

आर्थिक वर्णवाद और मानव अधिकारअक्तूबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया था कि कई समाजों में सार्वजनिक वस्तुओं का व्यापकरूप से निजीकरण मानवाधिकारों को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रहा है और गरीबी में रहने वालों को और अधिक हाशिए पर ले जा रहा है.रिपोर्ट कहती है कि निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिस के माध्यम से निजी क्षेत्र तेजी से या पूरी तरह से सरकार द्वारा की गई गतिविधियों के लिए परंपरागत रूप से जिम्मेदार होता है जिस में मानवाधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए कई उपाय किए जाते हैं. निजीकरण की कुछ खूबियां और कई खामियां गिनाते संयुक्त राष्ट्र ने माना था कि : निजीकरण उन मान्यताओं पर आधारित है जोकि मूलभूत रूप से उन लोगों से अलग हैं जो गरिमा और समानता जैसे मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं.

लाभ ही निजीकरण का सर्वोपरि उद्देश्य है. समानता तथा गैरभेदभाव जैसे विचारों को हटा दिया जाता है.      निजीकरण व्यवस्था मानव अधिकारों के लिए शायद ही कभी हितकर रही हो. गरीब या कम आय वाले कई तरह से इस से नकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं.बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं निजी करदाताओं के लिए सब से आकर्षक हैं जिन में महत्त्वपूर्ण उपयोगकर्ता शुल्क लिया जा सकता है, निर्माण लागत अपेक्षाकृत कम होती है. लेकिन गरीब इस तरह के शुल्क का भुगतान नहीं कर पाते हैं.इसलिए पानी, बिजली, सड़क, परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा सहित कई दूसरी सेवाओं का उपयोग वे नहीं कर पाते हैं.

देश में निजीकरण अब पांव पसार चुका है. लिहाजा, संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट खतरे की घंटी है. मिसाल तेजस ट्रेनों की लें, तो वे कतई गरीबों के लिए नहीं हैं बल्कि जिन की जेब में किराया देने के लिए भारीभरकम पैसा है उन के लिए हैं. लेकिन पटरियां सरकारी हैं जिन पर सभी का बराबरी का हक है, तो फिर गरीबों से भेदभाव क्यों? दिलचस्प यह है कि ये तेजस रेलें भी अब घाटे में ही चल रही हैं.भेदभाव अब हर कहीं दिखने लगा है. गरीब आदमी प्राइवेट बैंक में खाता नहीं खुलवा सकता क्योंकि उन में न्यूनतम 5 से 10 हजार रुपए की राशि रखनी पड़ती है.निजीकरण के जरिए गरीबों और अमीरों के बीच खुदी खाई और गहरा रही है. आर्थिक आधार पर यह भेदभाव लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है.आरक्षण पर बड़ा हमलामानवाधिकारों के साथ जातिगत आरक्षण खत्म करने की साजिश भी साफसाफ नजर आती है जो सत्ता पर काबिज पार्टी का एजेंडा भी है.

संयुक्त राष्ट्र जिसे गरीब कह रहा है वह, दरअसल, देश में पिछड़ा और दलित वर्ग है.सरकार चूंकि संवैधानिक तौर पर आरक्षण खत्म करने का जोखिम नहीं उठा सकती इसलिए उस ने निजीकरण के जरिए इस की अहमियत खत्म करने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया है.1 दिसंबर, 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक रैली में पूर्व भाजपा दलित सांसद उदित राज ने कहा था कि मोदी सरकार आरक्षण विरोधी है और आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने के लिए वह सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण कर रही है. निजीकरण होने के बाद वहां आरक्षण लागू नहीं किया जा सकेगा.ये वही उदित राज हैं जो साल 2014 में भाजपा के टिकट पर दिल्ली से लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन जल्द ही उन्हें सम झ आ गया था कि भगवा खेमे की असल मंशा क्या है.

लिहाजा, उन्होंने सरकारविरोधी बयान देने शुरू किए तो 2019 में उन्हें टिकट नहीं दिया गया.मध्य प्रदेश के एक दलित नेता फूलसिंह बरैया के अनुसार, भाजपा सरकार निजीकरण के जरिए मनुवाद थोपने की साजिश रच रही है और इस कहावत की तर्ज पर रच रही है कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’. इसे ले कर पिछड़े व दलित युवाओं में आक्रोश फैल रहा है और वे सीएए व एनआरसी के साथसाथ निजीकरण का भी विरोध कर रहे हैं2017 में बड़बोले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने जोधपुर के एक कार्यक्रम में कहा था कि हमारी सरकार आरक्षण को पूरी तरह खत्म नहीं करेगी. पर हमारी सरकार आरक्षण को उस स्तर तक पहुंचा देगी जहां उस का होना या नहीं होना बराबर होगा.केंद्र सरकार नौकरशाही में बिना आरक्षण के भरती के लिए लेटरल एंट्री नाम की एक नई प्रणाली का आविष्कार कर चुकी है जिस में आईएएस स्तर के कई सवर्ण अधिकारी जौइंट सैक्रेटी के पद पर नियुक्त किए भी जा चुके हैं. ये सभी अधिकारी सवर्ण या अनारक्षित हैं,

कुछ भी कह लें एक ही बात है. संविदा पर सैकड़ों नियुक्तियां आरक्षण के नियमों के बाहर की जा रही हैं. सुप्रीम कोर्ट में पिछड़ों व दलितों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है, सो सरकारी फैसले लागू रहते हैं.यहां भी हवेली भले ही बिक जाए वाली बात लागू होती है क्योंकि निजीकरण इसी तरह होता रहा तो एक वक्त ऐसा आ जाएगा जब पिछड़े व दलित युवा सरकारी नौकरी के लिए तरस जाएंगे और जो नौकरियां उन्हें मिलेंगी वे साफसफाई और मजदूरी वाली ज्यादा होंगी जिन में चपरासी, स्वीपर जैसे पद ज्यादा होते हैं. इन पदों पर आज भी सवर्ण न के बराबर दिखते हैं और पिछड़े दलित डिग्री लिए होते हैं पर लेबर का काम करते हैं.सरकारी नौकरियों में लगातार कटौती भी हो रही है. साल 2014 में आईएएस की 1,236 नियुक्तियां की गई थीं जबकि 2018 में हैरतअंगेज तरीके से यह संख्या 759 पर सिमट गई.इस से हुआ यह कि आरक्षित पद भी कम हो गए. सेना को छोड़ कर इस वक्त देश में लगभग कोई डेढ़ करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं. इन में लगभग 38 लाख केंद्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों में हैं. नीति आयोग की सलाह पर सरकार अमल करते अगर 42 पीएसयू बेचती या बंद करती है तो नुकसान पिछड़ों व दलितों के आरक्षित वर्ग का ज्यादा होगा.फैसला है भेदभाव भरा संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार संबंधी रिपोर्ट की पुष्टि एक दिलचस्प वाकेआ भी करती है,

जिस से यह साबित होता है कि धर्म और जाति के मामले में प्राइवेट सैक्टर भी भेदभाव करता है. मैरिट के आधार पर भरती का दम भरने वाले प्राइवेट सैक्टर की पोल प्रोफैसर सुखदेव थोराट और पाल भटवेल ने खोली थी.अखबारों में निजी कंपनियों के जौब संबंधी विज्ञापनों के जवाब में इन दोनों ने एकजैसे बायोडाटा भेजे तो यह जान कर हैरान रह गए कि बुलावा यानी कौल लैटर उन लोगों को ज्यादा भेजे गए जिन के सरनेम सवर्णों के थे. 100 सवर्णों के मुकाबले केवल 60 दलितों और 30 मुसलमानों को बुलाया गया.यानी, आप दलित, पिछड़े, आदिवासी या अवर्ण हैं तो प्राइवेट कंपनियों में भी धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव  झेलने को तैयार रहें. ऐसे में क्या खा कर प्राइवेट कंपनियां मैरिट और क्वालिटी की बात करती हैं. यह बात सम झ से परे है. क्षेत्रवाद भी इन कंपनियों में गहरे तक पसरा हुआ है. अगर किसी बड़ी कंपनी का मुखिया दक्षिण भारत का है तो उस कंपनी में दक्षिणी राज्यों के युवाओं की भरमार साफसाफ दिखती है और अगर मुखिया गुजरात का है तो वह गुजराती युवाओं की भरती को प्राथमिकता देता है.

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एक तीर, कई निशानेनिजीकरण के फायदे वही गिनाते हैं जिन की जेब में पैसा है और उन में से 90 फीसदी सवर्ण हैं जो सरकार की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा से सहमत हैं और चाहते हैं कि अगर उत्पादों व सेवाओं के कुछ ज्यादा दाम दे कर देश हिंदू राष्ट्र बने, तो सौदा घाटे का नहीं. ये लोग, हैरत की बात है कि, कुल आबादी का लगभग 15 फीसदी ही हैं. यही वे ऊंची जाति वाले हिंदू हैं जो सरकार के निजीकरण के फैसले से उत्साहित हैं, क्योंकि वे ही तेजस ट्रेनों का भारीभरकम किराया वहन कर सकते हैं, प्राइवेट बैंकों में खाता खोल सकते हैं.  और वही लोग 200 रुपए प्रतिलिटर का पैट्रोल भी खरीद लें तो उन की जेब पर भार नहीं पड़ता.सरकार हवेली बेच कर मुजरा कराए इस की सब से ज्यादा खुशी इसी वर्ग को है. यह वर्ग यह मंसूबा पाले बैठा है कि अगर ऐसा हो पाया तो सारी इन निजी हाथों में गईं बड़ी सरकारी कंपनियों में नौकरियां उसी की होंगी, प्राइवेट कंपनियों में तो इस वर्ग का दखल और दबदबा है ही. वे भूल रहे हैं कि सरकारी कंपनियां तो टैक्स के पैसे से चल जाती थीं. निजी कंपनियां भारी नुकसान देने के बाद बंद हो जाएंगी और फिर विदेशी कंपनियां खरीदने आएंगी.

बनफूल: सुनयना बचपन से दृष्टिहीन क्यों थी

अपने बारे में बताने में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है? जेलर से आप के बारे में सुना है. 8-10 महिला कैदियों से मुलाकात कर उन के अनुभव आप जमा कर एक किताब प्रकाशित कर रहे हैं न? मैं चाहूं तो आप मेरा नाम पता गोपनीय भी रखेंगे, यही न? मुझे अपना असली नाम व पता बताने में कोई आपत्ति नहीं.

आप शायद सिगरेट पी कर आए हैं. उस की गंध यहां तक आ रही है. नो…नो…माफी किस बात की? मुझे इस की गंध से परहेज नहीं बल्कि मैं पसंद करती हूं. शंकर के पास भी यही गंध रचीबसी रहती थी.

अरे हां, मैं ने बताया ही नहीं कि शंकर कौन है? चलिए, आप को शुरू से अपनी रामकहानी सुनाती हूं. खुली किताब की तरह सबकुछ कहूंगी, तभी तो आप मुझे समझ सकेंगे. मेरे नाम से तो आप परिचित हैं ही सुनयना…जमाने में कई अपवाद…उसी तरह मेरा नाम भी…

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बचपन में मेरे गुलाबी गालों पर मां चुंबनों की झड़ी लगा देतीं, मुझे भींच लेतीं. उन के उस प्यार के पीछे छिपे भय, चिंता से मैं तब कितनी अनजान थी.

सुनयना मुझे देख कर पलटती क्यों नहीं है? खिलौनों की तरफ क्यों नहीं देखती? हाथ बढ़ा कर किसी चीज को लेने के लिए क्यों नहीं लपकती? जैसे कई प्रश्न मां के मन में उठे होंगे, जिस का जवाब उन्हें डाक्टर से मिल गया होगा.

‘‘आप की बेटी जन्म से ही दृष्टिहीन है. इस का देख पाना असंभव है.’’

उस दिन मां के चुंबन में पहली वाली मिठास नहीं थीं. वह मिठास जाने कहां रह गई?

‘‘यह क्या हुआ कि बच्ची पेट में थी तो इस के पिता नहीं रहे. फिर इस के जन्म लेते ही इस की आंखे भी चली गईं,’’ यह कह कर मां फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

बचपन से मैं देख नहीं पा रही हूं, ऐसा डाक्टर ने कहा था. देखना, मतलब क्या? मैं आज तक उन अनुभवों से वंचित हूं.

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मुझे कभी कोई परेशानी आड़े नहीं आई. मां कमरे में हैं या नहीं, मैं जान सकती थी. किस तरफ हैं ये भी झट पहचान सकती थी. आप ही बताइए, मां से कोई शिशु अनजान रह सकता है भला? मैं घुटनों के बल मां के पास पहुंच जाती थी. बड़े होने पर मां ने कई बार मुझ से यह बात कही है. एक बार मां मुझे उठा कर बाहर घुमाने ले आई थीं. अनेक आवाजों को सुन मैं घबरा गई थी. मैं ने मां को कस कर पकड़ लिया था.

अरे, घबरा मत. कुत्ता भौंक रहा है. यह आटो जा रहा है. उस की आवाज है. वह सुन, सड़क पर बस का भोंपू बज रहा है. वहां पक्षियों की चहचहाहट…सुनो, चीक…चीक की आवाज…और कौवे की कांव…कांव…

तब से ध्वनि ने मेरे नेत्रों का स्थान ले लिया था.

चपक…चपक, मामाजी की चप्पल की आवाज. टन…टन घंटी की आवाज. टप…टप नल में पानी…

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मेरी एक आंख ध्वनि तो दूसरी उंगलियों के पोर…स्पर्श से वस्तुओं की बनावट पहचानने लगी. अपनी मां को भी छू कर मैं देख पाती. उन के लंबे बाल, उन की भौंहें, उन का ललाट…उन की नाक उन की गरमगरम सांसें…मामाजी की मूंछों से भी उसी तरह परिचित थी. मैं  मामी के कदमों की आहट, उन के जोरजोर से बात करने के अंदाज से समझ जाती कि मामी पास में ही हैं. अक्षरों को भी मैं छू कर पहचान लेती.

मां मुझे रिकशे में बैठा कर स्कूल ले जातीं. स्कूल उत्साह व उमंग का स्थान, मेरे लिए ध्वनि स्थली थी. मैं खुश थी बेहद खुश…दृष्टिहीन को उस के न होने का एहसास आप कैसे दिला सकोगे कहिए?

एक दिन घर के आंगन में अजीब सी आवाजों का जमघट था. उन आवाजों को चीरते हुए मैं भीतर गई. पांव किसी से टकराया तो मैं गिर पड़ी. मैं एक शरीर के ऊपर गिरी थी. हाथ लगते ही पहचान गई.

‘‘मां…मां, आज क्यों कमरे के बीचोंबीच जमीन पर लेटी हैं? मैं आप पर गिर पड़ी. चोट तो नहीं लगी न मां?’’

घबराहट में मैं ने उन के चेहरे पर उंगलियां फेरी, उन का माथा, बंद पलकें, नाक पर वह गरम सांसें जो मैं महसूस करती थी आज न थीं. मेरी उंगलियां वहीं स्थिर हो गईं.

मां…मां. मैं ने उन के गालों को थपथपाया. कान पकड़ कर खींचे. पर मां की तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पा कर मैं ने मामी को पुकारा.

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मामी मुझे पकड़ कर झकझोरते हुए बोलीं, ‘‘अभागन, मां को भी गंवा

बैठी है.’’

मामाजी ने मुझे गले लगाया और फूटफूट कर रोने लगे.

मैं ने मामाजी से पूछा, ‘‘मां क्यों जमीन पर लेटी थीं? मां को क्या हुआ? उन का चेहरा ठंडा क्यों पड़ गया था? उठ कर उन्होंने मुझे गले क्यों नहीं लगाया?’’

मामाजी की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हे राम, मैं इसे क्या समझाऊं? बेटा, मां मर चुकी हैं.’’

मरना क्या होता है, मैं तब जानती

न थी.

दृष्टिहीन ही नहीं, शरीरविहीन हो कर किसी दूसरे लोक का भ्रमण ही मृत्यु कहलाता है, यह मुझे बाद में पला चला.

मैं करीब 12 साल की थी. मेरे शरीर के अंगों में बदलाव होने लगे.

मामी ने एक दिन तीखे स्वर में मामा से कहा, ‘‘वह अब छोटी बच्ची नहीं रही. आप उसे मत नहलाना.’’

मैं स्वयं नहाने लगी. अच्छा लगा. नया अनुभव, पानी का मेरे शरीर को स्पर्श कर पांव की तरफ बहना. उस की ठंडक मुझ में गुदगुदाहट भर देती.

एक दिन मैं कपड़े बदल रही थी. मामाजी के पांव की आहट…वे जल्दी में हैं, यह उन की सांसें बता रही थीं.

‘‘क्या बात है मामाजी?’’

वे मेरे सामने घुटनों के बल बैठे.

‘‘सुनयना,’’ उन की आवाज में घबराहट थी. कंपन था. उन्होंने मेरी छाती पर अपना मुंह टिकाया और मुझे भींच लिया. मेरी पीठ पर उन के हाथ फिर रहे थे. उंगलियों में कंपन था.

‘‘मामाजी क्या बात है?’’ उन के बालों को सहलाते हुए मैं ने पूछा. उन का स्पर्श मुझे भी द्रवित कर रहा था मानो चाशनी हो.

‘‘ओफ, कितनी खूबसूरत हो तुम,’’ कहते हुए उन्होंने मेरे होंठों को चूमा. उन्होंने अनेक बार पहले भी मुझे चूमा था पर न जाने क्यों उन के इस स्पर्श में एक आवेग था.

‘‘हाय…हाय,’’ मामी के चीखने की आवाज सुनाई दी. मामाजी छिटक कर मुझ से दूर हुए. मामी ने मुझे परे ढकेला.

‘‘कितने दिनों से यह सब चल रहा है?’’

‘‘पारो, चीखो मत, मुझे माफ करो. ऐसी हरकत दोबारा नहीं होगी.’’

मामा की आवाज क्यों कांप रही है? अब क्या हुआ जो माफी मांग रहे हैं? मेरी समझ में कुछ नहीं आया था.

‘‘चलो, मेरे साथ,’’ कहते हुए मामी मुझे खींच कर बाहर ले गईं. मुझे उसी दिन मदर मेरी गृह में भेज दिया गया.

खुला मैदान… हवादार कमरे, अकसर प्रार्थनाएं और गीत सुनाई पड़ते थे. फादर तो करुणा की कविता थे. स्नेह…स्नेह और स्नेह… इस के सिवा कुछ जानते ही नहीं थे. वे सिर पर उंगलियों का स्पर्श करते तो लगता फादर के  रूप में मुझे मेरी मां मिल गई हैं.

वहां के कर्म-चारी मेरे कमरे में आते तो कह उठते, ‘‘तुम कितनी खूब-सूरत हो,’’ मैं संकोच से घिर जाती थी.

आप भी शायद मुझे देख यही सोचते होंगे, है न? पर खूबरसूरती तो मेरे लिए आवाज, रोशनी व गहन अंधकार का पर्याय है. ध्वनि खूबसूरत वस्तु है पर सभी कहते हैं पहाड़, झरने, फूल, तितली, पेड़पौधे खूबसूरत होते हैं, उस का मुझे क्या अनुभव हो सकता है भला.

बिना देखे, बिना जाने मुझे खूबसूरत कहना क्या दर्शाता है? स्नेह को…है न?

जरा अपना हाथ तो बढ़ाइए. कस कर हाथ पकड़ने से क्या आप को महसूस नहीं होता कि हम दोनों अलगअलग नहीं एक ही हैं. कुछ प्रवाह सा मेरे शरीर से आप के भीतर व आप के शरीर से मेरे भीतर आता हुआ महसूस होता है न? मेरी आंखों से आंसू बहने लगते हैं. लगता है सांसें थम जाएंगी. देख रहे हैं न मेरी आवाज लड़खड़ा रही है? इस से खूबसूरत और कौन सी चीज हो सकती है मेरे लिए भला?

वहां के शांत और स्नेह भरे वातावरण में पलीबढ़ी मैं. कुछ लड़कियां मेरी खास सहेलियां बन गई थीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘ओफ, तू बला की खूबसूरत है, तुम्हारी त्वचा चमकती रहती है, कितनी कोमल हो तुम. और होंठों के पास यह काले तिल…’’ वे सभी मुझे छूछू कर देखतीं और तृप्त होतीं.

मेरे पास कुछ है जो इन्हें संतुष्टि प्रदान कर रहा है, इस से बढ़ कर खुशी और क्या हो सकती है?

मैं जिसे अपनी उंगलियों से, ध्वनि, गंध से महसूस नहीं कर पा रही हूं वही दृष्टि नामक किसी चीज से ये जान लेते हैं, यह विचार मुझे तड़पा गया.

मैं ने अपनी तड़प का इजहार फादर से किया तो उन्होंने बड़े प्यार से मेरे बालों को सहलाते हुए समझाया, ‘‘माय चाइल्ड, जान लो कि दुनिया में रोशनी से बेहतर अंधेरा ही है. रोशनी में सब अलगथलग होते हैं, गोरी चमड़ी अलग नजर आएगी, इस की चमक अलग से दिखेगी, तिल की सुंदरता अलग, क्या इस में अहंकार नहीं? अंधेरे में सभी एकाकार हो जाते हैं. वहां चेहरा खूबसूरत, गोरी चमड़ी माने नहीं रखती. व्यक्ति का स्नेह ही सबकुछ होता है. सच्चा प्यार भी वैसा ही होता है सुनयना. वह खूबसूरत, चमकदमक का गुलाम नहीं होता. आंखों के होते हुए भी सच्चे प्रेम व प्रीत को लोग देख नहीं पाते, कितने अभागे होंगे वे? तुम्हारी दृष्टिहीनता कुदरत का दिया वरदान है.’’

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माफ कीजिएगा, फादर के बारे में कहते समय मैं चाह कर भी अपने आंसू नहीं रोक पाती. उसी दिन समझ सकी स्नेह भेदरहित होता है और ये खुले हाथ बांटने की चीज हैं.

कालिज का आखिरी दिन था. फादर ने मुझे बुला भेजा.

‘‘सुनयना, इन से मिलो. मिस्टर शंकर…’’

शंकर का कद मुझ से अधिक है यह मैं उस की सांसों से पहचान गई. मेरे दोनों हाथों को पकड़ कर उस ने दबाया, उस दबाव में कुछ भिन्नता थी.

‘‘शंकर इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर है सुनयना, इस का बचपन गरीबी व तंगहाली में बीता था. अपनी मेहनत के बलबूते पर वह आज इस मुकाम पर पहुंचा है. उस ने अकसर तुम्हें देखा है. वह तुम्हें पसंद करता है, शादी करना चाहता है,’’ फादर ने बिना लागलपेट के पूरी बात साफसाफ कह दी.

शादी अर्थात शंकर मेरा जीवनसाथी बनेगा, जीवन भर मुझे सहारा देगा. मैं ने अभी तक स्नेह लुटाया है…शंकर का पहला स्पर्श कितनी ऊष्णता लिए हुए था. मुझे वह स्पर्श भा गया था.

मैं ने एकांत में शंकर से बातचीत करने की इच्छा जाहिर की. मुझे यह जानने की उत्सुकता थी कि इस ने मुझ दृष्टिहीन को क्यों अपनी जीवनसंगिनी चुना? शंकर की आवाज मधुरता लिए हुए थी. उस ने अपने जीवन का ध्येय बताया. खुद कष्टों को सहने के कारण किसी के काम आना, तकलीफ उठाने वालों की वह मदद करना चाहता था. मैं ने उसे छू कर देखने की इच्छा जाहिर की. उस ने मेरे हाथों को अपने चेहरे पर रख लिया.

शंकर का उन्नत ललाट, घनी भौंहें, लंबी नाक, घनी मूंछें और वे होंठ…मैं इन होंठों को चूम लूं?

शंकर ने मना कर दिया. कहने लगा, ‘‘सभी देख रहे हैं.’’

फादर से मैं ने अपनी सहमति प्रकट की. फादर ने अपनी तरफ से शंकर के बारे में जांचपड़ताल कर ली थी. ‘‘माई चाइल्ड, भले घर का बेटा है. तुम बहुत खुशकिस्मत हो,’’ उन्होंने कहा था.

हमारी शादी फादर के सामने हो गई.

‘‘शंकर, सुनयना बेहद भोली व नादान है. इसे संभालना. इस का ध्यान रखना,’’ फादर ने कहा, फिर मेरी तरफ मुड़ कर मेरे माथे को उन्होंने चूमा. मैं उन के कदमों पर गिर पड़ी. मां के बिछुड़ने पर जिस अवसाद से मैं अनजान थी, उस का अनुभव मुझे हो गया था.

शंकर के साथ मेरी जिंदगी सुचारु रूप से चल रही थी. सांझ ढले एक दिन मैं बिस्तर पर बैठी बुनाई कर रही थी. समीप पदध्वनि… यह शंकर नहीं कोई और है.

‘‘कौन है?’’ चेहरे को उस तरफ घुमा कर मैं ने पूछा.

‘‘सुनयना, मेरा मित्र है जय…जय आओ बैठो न.’’

जय बिस्तर पर मेरे पास आ कर बैठा. उस की सांसें तेजी से चल रही थीं.

‘‘सुनयना, जय का इस दुनिया में कोई नहीं है. मैं इसे अपने साथ ले आया हूं. कुछ समय तुम्हारे पास रहेगा तो अपने अकेलेपन को भूल जाएगा,’’ शंकर ने कहा और मेरा हाथ उठा कर उस के कंधे पर रखा.

मैं ने उस के कंधों को पकड़ा. तभी शंकर यह कह कर बाहर चला गया कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं.

जय के चेहरे को मैं ने अपने कंधे पर टिका लिया. उस ने मुझे सहलाया, प्यार पाने की कसक…अकेलेपन की वेदना. बेचारे इस जय का दुनिया में कोई नहीं, दुखी, पीडि़त, उपेक्षित है यह. मैं ने उसे गोदी में डाल सहलाया. कुत्ते व बिल्लियों को गोदी में डाल कर सहलाने में जो तृप्ति मुझे मिलती थी वही तृप्ति मुझे तब भी मिली थी. जय ने चुंबनों की झड़ी लगा दी.

जय कैसा दिखता होगा यह जानने की उत्सुकता हुई. मैं ने उस के चेहरे को सहलाया. होंठों को छूते समय मेरी उंगलियों को उस ने धीमे से काट लिया. मेरे उभारों पर उस के हाथ फिसलने लगे.

समीप आ कर उस ने मुझे कस कर भींच लिया. शादी होते ही शंकर ने भी मुझे ऐसे ही भींचा था न. वस्त्रविहीन शरीर पर उस ने हाथ फेरा था. कहा था कि स्नेह जाहिर करने का यह भी एक तरीका है. शायद शंकर की ही तरह जय भी है.

सिर से पांव तक एक विद्युत की लहर दौड़ पड़ी. क्या अजीब अनुभव था वह. वह भी मुझ में समा जाने के लिए बेकरार था.

शंकर के अलावा किसी और को मैं आज देख सकूंगी, यह विचार काफी रसदायक लगा.

अंधेरे में अहंकार नहीं होता. मैं का स्थान नहीं, सभी एकाकार हो जाते हैं. इन बातों को मैं ने केवल सुना था, अब इस का अनुभव भी प्राप्त हो गया. पहले शंकर से यह अनुभव मिला, अब जय से.

2 घंटे बाद शंकर लौटा.

‘‘मुझ से नाराज हो सुनयना?’’

‘‘नहीं तो, क्यों?’’

‘‘जय आ कर गया.’’

‘‘छी…छी…कैसी बातें करते हैं. मुझे संसार के सभी स्त्रीपुरुषों को देखने की इच्छा है. कितनी खुश हूं जानते हो, आज मैं ने जय को देखा…जाना.’’

फिर शंकर अकसर अपने नएनए मित्रों के साथ आने लगा. हर बार एक नए मित्र से मेरा परिचय होता.

‘तुम कितनी खूबसूरत हो,’ कह कर कुछ जनून भरा स्पर्श भी मैं ने महसूस किया. कुछ स्पर्श शरीर को चुभ जाते. कुत्ते या बिल्ली के साथ खेलते समय एकाध बार उस का पंजा या दांत चुभ ही जाता है न, उसी तरह का अनुभव हर एक बार एक नया अनुभव.

एक दिन मैं वैसा ही कुछ नया अनुभव प्राप्त कर रही थी तब वह घटना घटी. दरवाजे के उस तरफ जूतों की ध्वनि…दरवाजा खटखटाने की आवाज, ‘‘पुलिस,’’ दरवाजा खोलो.

‘‘राजू, जा कर दरवाजा खोलो न, पुलिस आई है,’’ मैं ने अंगरेजी में कहा. वह बंगाली था.

राजू गुस्से में मुझे परे ढकेल कर खड़ा हो गया. मैं ने ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘तुम शंकर की कीप हो न? तुम्हारा पति तुम्हें रख कर धंधा करता है, यह सूचना हमें मिली है. तुम्हें गिरफ्तार किया जाता है.’’

बाद में पता चला शंकर अपनी फैक्टरी का लाइसेंस पाने के लिए, अपने उत्पादों को बड़ीबड़ी कंपनियों में बेचने का आर्डर प्राप्त करने के लिए मेरा इस्तेमाल कर रहा था. लोगों की बातों से मैं ने जाना.

न जाने कौनकौन से सेक्शन मुझ पर लगे. मुझे दोषी करार दिया गया. शंकर ने अपनी गलती स्वीकार कर ली थी यह भी मुझे बाद में मालूम पड़ा.

‘‘भविष्य में सुधर कर इज्जत की जिंदगी बसर करोगी?’’ न्यायाधीश ने पूछा?

‘‘मुझे आजाद करोगे तो फिर से स्नेह को ही खोजूंगी,’’ मेरा उत्तर सुन न्यायाधीश ने अपना निर्णय स्थगित कर रखा है.

नहीं…नहीं जेल के भीतर मुझे कोई कष्ट नहीं. मैं यहां भी खुश हूं. अंधेरे में कहीं भी रहूं क्या फर्क पड़ता है या किसी के साथ भी रहूं क्या फर्क

पड़ता है?

बताइए तो आप मेरे बारे में क्या लिखने वाले हैं? आप का नाम? मैं तो भूल ही गई कुछ अनोखा नाम था आप का…हां, याद आया प्रजनेश…यस…कहिए आप की आवाज क्यों भर्रा रही है? आप की आंखों में आंसू?

प्लीज…मत रोइएगा. रोने के लिए थोड़ी न हम पैदा हुए हैं. आप के आंसुओं को रोकने के लिए मैं क्या करूं? आप को चूमूं?

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